सप्तमः समुल्लासः

सप्तम-समुल्लास


ईश्वर के गुणों का वर्णन

क्या वेदों में अनेक ईश्वर कहे हैं ? 

देवता का अभिप्राय, ३३ देवों की गणना

प्रारम्भिक वेदमन्त्रों के अर्थ 

ईश्वरसिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण

ईश्वर का व्यापकत्व

ईश्वर दयालु और न्यायकारी

न्याय और दया शब्दों पर विचार 

ईश्वर निराकार है

सर्वशक्तिमान् शब्द का अर्थ

ईश्वर अनादि है

ईश्वर की स्तुति-प्रार्थनोपासना का फल 

सगुण और निर्गुण प्रार्थना

कैसी प्रार्थना करनी चाहिये 

ऐसी प्रार्थना कभी न करें

पुरुषार्थी की प्रार्थना सफल होती है।

उपासना का अर्थ और उसके अङ्ग 

उपासना के दो अङ्गों की व्याख्या

उपासना के दो भेद और उसका फल

ईश्वर का गुण भूल जाना कृतघ्नता और मूर्खता

ईश्वर इन्द्रियों के विना काम कैसे करता है

ईश्वर निष्क्रिय और निर्गुण नहीं

ईश्वर का स्वरूप

चेतन एक वा अनेक ?

क्या कपिल अनीश्वरवादी थे ?

अन्य शास्त्रों में ईश्वर चर्चा

ईश्वर कभी अवतार नहीं लेता

ईश्वर पापों को कभी क्षमा नहीं करता

जीव का स्वातन्त्र्य एवं पारतन्त्र्य

जीव ईश्वरजन्य नहीं, वह कर्म करने में स्वतन्त्र

जीव और ईश्वर का स्वरूप तथा गुण कर्म-स्वभाव

ईश्वर के त्रिकालदर्शित्व की मीमांसा

जीव और ईश्वर का सम्बन्ध 

जीव और ब्रह्म एक नहीं

प्रज्ञानं ब्रह्म, अहं ब्रह्मास्मि वाक्यों पर विचार

तत्त्वमसि वाक्य पर विचार

अयमात्मा ब्रह्म पर विचार

क्या ईश्वर ही जीव-रूप से शरीर में प्रविष्ट है?

चेतन होने से जीव, ब्रह्म एक नहीं 

नवीन वेदान्तियों के ६ अनादि पदार्थ

अद्वैत शब्द का अर्थ और उसकी सिद्धि

साधारण से साधर्म्य से एकता नहीं 

भय का कारण द्वैत बुद्धि

जीव, ब्रह्म की एकता, अनेकता 

ईश्वर सगुण भी और निर्गुण भी 

निराकार को निर्गुण और साकार को सगुण कहना ठीक नहीं

ईश्वर न रागी न विरक्त

ईश्वर में इच्छा नहीं

वेद ईश्वर से प्रकाशित हुए 

जीवों को अन्तर्यामी रूप से वेदोपदेश

किनके आत्मा में और कब वेदों का प्रकाश हुआ

चार ऋषियों से ब्रह्मा को वेद

वेदों का प्रकाश संस्कृत में ही क्यों

वेदों के ईश्वरकर्तृत्व में प्रमाण

विना ईश्वरीय ज्ञान के स्वतः विद्वत्ता सम्भव नहीं

आदिगुरु परमेश्वर

अग्न्यादि को वेदार्थबोध किससे 

वेदसंज्ञा-विचार

वेदों की ११२७ शाखाएँ

क्या शाखायें वेदावयव हैं ? 

वेद की नित्यता, अनित्यता पर विचार 

ईश्वर के विना वेदरचना असम्भव



अथ सप्तमसमुल्लासारम्भः 


[अथेश्वरवेदविषयं व्याख्यास्यामः]


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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[अब ईश्वर और वेद के विषय में लिखेंगे]


[ईश्वर के गुणों का वर्णन]

ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न् यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः। 

यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒

य इत्तद्वि॒दुस्त इ॒मे समा॑सते॥१॥ 

ऋ॰, म॰ १। सूक्त १६४। मं॰ ३९॥ 


ई॒शा वा॒स्य॒मि॒दꣳ सर्वं॒ यत्किञ्च॒ जग॑त्यां॒ जग॑त्। 

तेन॑ त्य॒क्तेन॑ भुञ्जीथाः॒ मा गृ॑धः॒ कस्य॑ स्वि॒द्धन॑म्॥२॥ 

यजुः, अ॰ ४०। मं॰ १॥

 

अ॒हं भु॑वं॒ वसु॑नः पू॒र्व्यस्पति॑र॒हं धना॑नि॒ सं ज॑यामि॒ शश्व॑तः। 

मां ह॑वन्ते पि॒तरं॒ न ज॒न्तवो॒ऽहं  दा॒शुषे॒ वि भ॑जामि॒ भोज॑नम्॥३॥ 

ऋ॰, म॰ १०। सूक्त॰ ४८। मं॰ १॥

अ॒हमिन्द्रो॒ न परा॑ जिग्य॒ इद्धनं॒ न मृ॒त्यवेऽव॑ तस्थे॒ कदा॑ च॒न। 

सोम॒मिन्मा॑ सु॒न्वन्तो॑ याचता॒ वसु॒ न मे॑ पूरवः स॒ख्ये रि॑षाथन॥४॥ 

―ऋ॰, म॰ १०। सूक्त ४८। मं॰ ५॥ 

अ॒हं दां॑ गृण॒ते पूर्व्यं॒ वस्व॒हं ब्रह्म॑ कृणवं॒ मह्यं॒ वर्ध॑नम्। 

अ॒हं भु॑वं॒ यज॑मानस्य चोदि॒ता य॑ज्वनः साक्षि॒ विश्व॑स्मि॒न्भरे॥५॥ 

ऋ॰, म॰ १०। सूक्त ४९। मं॰ १॥

 

"ऋचो अक्षरे०" इस मन्त्र का अर्थ 'ब्रह्मचर्याश्रम की शिक्षा' में लिख चुके हैं अर्थात् जो सब दिव्य गुण-कर्म-स्वभाव-विद्या-युक्त और जिसमें पृथिवी सूर्यादि लोक स्थित हैं और जो आकाश के समान व्यापक, सब देवों का देव परमेश्वर है; उसको जो मनुष्य न जानते, न मानते और उसका ध्यान नहीं करते, वे 'नास्तिक' और 'दुःखी' होते हैं। इसलिये उसी को जानकर मनुष्य सुखी होवें। 

[क्या वेदों में अनेक ईश्वर कहे हैं?]

प्रश्न―वेदों में ईश्वर अनेक हैं, इस बात को तुम मानते हो वा नहीं?


उत्तर―नहीं मानते; क्योंकि चारों वेदों में ऐसा कहीं नहीं लिखा जिससे अनेक ईश्वर सिद्ध हों, किन्तु यह तो लिखा है कि ईश्वर एक है। 

['देवता' का अभिप्राय और ३३ देवों की गणना]

प्रश्न―वेदों में जो अनेक देवता लिखे हैं, उसका क्या अभिप्राय है?


उत्तर―'देवता' दिव्य गुणों से युक्त होने के कारण कहाते हैं जैसी कि पृथिवी; परन्तु इसको कहीं ईश्वर वा उपासनीय नहीं माना है। देखो, इसी मन्त्र में कि ‘जिसमें सब देवता स्थित हैं, वह जानने और उपासना करने योग्य ईश्वर है।’ यह उनकी भूल है जो [इस मन्त्र में] देवता शब्द से ईश्वर का ग्रहण करते हैं। परमेश्वर देवों का देव होने से 'महादेव' इसीलिये कहाता है कि वही सब जगत् का उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय-कर्त्ता, न्यायाधीश, अधिष्ठाता है। 


जो "त्रय॑स्त्रिंशता॰" [यजुः १४। ३१] इत्यादि वेदों में प्रमाण हैं। इसकी व्याख्या 'शतपथ' [कां० १४। प्रपा० ३। ब्रा० ७। कं० ४] में की है कि तेंतीस देव अर्थात् पृथिवी, [द्यौ=] जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्रमा, सूर्य और नक्षत्र सब सृष्टि के निवासस्थान होने से ये आठ 'वसु' [कहाते हैं]। प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, नाग, कूर्म, कृकल, देवदत्त, धनञ्जय और जीवात्मा ये ग्यारह 'रुद्र' इसलिये कहाते हैं कि जब शरीर को छोड़ते हैं तब रोदन करानेवाले होते हैं। संवत्सर के बारह महीने बारह 'आदित्य' इसलिये हैं कि ये सबके आयु को लेते जाते हैं। बिजुली का नाम 'इन्द्र' इस हेतु से है कि वह परम-ऐश्वर्य का हेतु है। यज्ञ को 'प्रजापति' कहने का कारण यह है कि जिससे वायु, वृष्टि, जल, ओषधी की शुद्धि, विद्वानों का सत्कार और नाना प्रकार की 'शिल्पविद्या' से प्रजा का पालन होता है। ये तेंतीस पूर्वोक्त गुणों के योग से 'देव' कहाते हैं। इनका स्वामी और सबसे बड़ा होने से परमात्मा चौंतीसवां उपास्यदेव 'शतपथ' के चौदहवें काण्ड में स्पष्ट लिखा है। इसी प्रकार अन्यत्र भी लिखा है। जो ये इन शास्त्रों को देखते तो वेदों में अनेक ईश्वर मानने-रूप भ्रमजाल में गिरकर झूठा क्यों बकते॥१॥ 


हे मनुष्य! जो कुछ इस संसार में जगत् है, उस सबमें व्याप्त होकर [जो] उसका नियन्ता है, वह ईश्वर कहाता है; उससे डरकर तू अन्याय से किसी के धन की आकांक्षा मत कर। उस अन्याय के त्याग और न्यायाचरणरूप धर्म से अपने आत्मा से आनन्द को भोग॥२॥ 


ईश्वर सबको उपदेश करता है कि हे मनुष्यो! मैं ईश्वर सबके पूर्व विद्यमान, सब जगत् का पति हूँ, मैं सनातन जगत्-कारण और सब धनों का विजय करनेवाला और दाता हूँ; मुझ को ही सब जीव, जैसे पिता को सन्तान पुकारते हैं, वैसे पुकारें। मैं सबको सुख देनेहारे जगत् के लिये नाना प्रकार के भोजनों का विभाग, पालन के लिये करता हूँ॥३॥ 


मैं परमैश्वर्यवान्, सूर्य के समान सब जगत् का प्रकाशक हूँ। [मैं] कभी पराजय को प्राप्त नहीं होता और न कभी मृत्यु को प्राप्त होता हूँ। मैं ही जगत्-रूप धन का निर्माता हूँ। सब जगत् की उत्पत्ति करनेवाला मुझको ही जानो। हे जीवो! ऐश्वर्यप्राप्ति के यत्न करते हुए तुम लोग विज्ञानादि धन को मुझसे मांगो और तुम लोग मेरी मित्रता से अलग मत हो॥४॥ 


हे मनुष्यो! मैं सत्यभाषण-रूप स्तुति करनेवाले मनुष्य को सनातन ज्ञानादि धन को देता हूं, मैं ब्रह्म अर्थात् वेद का प्रकाश करनेहारा [हूँ] और मुझको वह वेद यथावत् कहता [है], उससे सबके ज्ञान को मैं बढ़ाता [हूँ]। मैं सत्पुरुष का प्रेरक, यज्ञ करनेहारे को फलप्रदाता और इस विश्व में जो कुछ है उस सब 'कार्य' का बनाने और धारण करनेवाला हूँ। इसलिये तुम लोग मुझको छोड़ किसी दूसरे को मेरे स्थान में मत पूजो, मत मानो और मत जानो॥५॥ 


हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ऽआसीत्। 

स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥६॥

यह यजुर्वेद का मन्त्र है [१३। ४]॥


हे मनुष्यो! जो सृष्टि के पूर्व सब सूर्यादि तेजवाले लोकों का उत्पत्ति-स्थान, आधार और जो कुछ उत्पन्न हुआ था, है, और होगा, उसका स्वामी था, है, और रहेगा। वह पृथिवी से लेके सूर्यलोक-पर्यन्त सृष्टि को बनाके धारण कर रहा है। उस सुखस्वरूप परमात्मा की ही भक्ति जैसे हम करें, वैसे तुम लोग भी करो॥६॥

[ईश्वर-सिद्धि में प्रत्यक्षादि प्रमाण]

प्रश्न―आप ईश्वर-ईश्वर कहते हो, उसकी सिद्धि किस प्रकार करते हो?


उत्तर―सब प्रत्यक्षादि प्रमाणों से। 


प्रश्न―ईश्वर में प्रत्यक्ष प्रमाण कभी नहीं घट सकता।


उत्तर―इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारिव्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्॥ 

यह गौतम महर्षि कृत न्यायदर्शन का सूत्र है [१। १। ४]।


जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा, घ्राण और मन का; शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, सुख-दुःख, सत्यासत्य विषयों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको 'प्रत्यक्ष' कहते हैं, परन्तु वह निर्भ्रम हो। 


अब विचारना चाहिये कि इन्द्रियों और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे चारों त्वचा आदि इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होने से, गुणी जो पृथिवी उसका 'आत्मायुक्त मन' से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना-विशेष आदि [कर्म और] ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। 


और जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता अथवा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव के इच्छा-ज्ञान-आदि, उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शङ्का और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशङ्कता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं, किन्तु परमात्मा की ओर से है।


और जब शुद्धात्मा-शुद्धान्तःकरण से युक्त योगी, समाधिस्थ होकर, आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, तब उसको उसी समय दोनों प्रत्यक्ष होते हैं। जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है, तो अनुमानादि से परमेश्वर के ज्ञान होने में क्या सन्देह है? क्योंकि कार्य को देखके कारण का, नियमों को देखके नियन्ता का, सृष्टि को देखकर स्रष्टा का अनुमान होता है। 

[ईश्वर का व्यापकत्व]

प्रश्न―ईश्वर व्यापक है वा किसी देश-विशेष में रहता है?


उत्तर―व्यापक है; क्योंकि जो एकदेश में रहता तो सर्वान्तर्यामी, सर्वज्ञ, सर्वनियन्ता, सबका स्रष्टा, सबका धर्त्ता और प्रलयकर्त्ता नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का [होना] असम्भव है। 

[ईश्वर दयालु और न्यायकारी है]

प्रश्न―परमेश्वर दयालु और न्यायकारी है, वा नहीं?


उत्तर―है। 


प्रश्न―ये दोनों गुण परस्पर-विरुद्ध हैं। जो न्याय करे तो दया और दया करे तो न्याय छूट जाय। क्योंकि 'न्याय' उसको कहते हैं कि जो कर्त्ता के कर्मों के अनुसार न अधिक, न न्यून सुख-दुःख पहुंचाना। और 'दया' उसको कहते हैं कि जो अपराधी को विना दण्ड दिये छोड़ देना।

[न्याय और दया शब्दों पर विचार]

उत्तर―न्याय और दया का नाममात्र ही भेद है; क्योंकि जो न्याय से प्रयोजन सिद्ध होता है, वही दया से। दण्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से बन्द होकर दुःखों को प्राप्त न हों। वही दया कहाती है कि जो 'पराये दुःखों का छुड़ाना।' और जैसा अर्थ दया और न्याय का तुमने किया, वह ठीक नहीं, क्योंकि जिसने जैसा, जितना बुरा कर्म किया हो, उसको वैसा, उतना ही दण्ड देना 'न्याय' है। और जो अपराधी को दण्ड न दिया जाय तो 'दया' का नाश हो जाय; क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड़ देने से सहस्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुःख देना है। जब एक के छोड़ने से सहस्रों मनुष्यों को दुःख प्राप्त होता है, तब वह दया किस प्रकार हो सकती है? 'दया' वही है कि उस डाकू को कैद कर पाप करने से बचाना डाकू पर दया, और [फिर] उस डाकू के [द्वारा मनुष्यों को] न मार सकने से अन्य सहस्रों मनुष्यों पर दया प्रकाशित होती है। 


प्रश्न―फिर 'दया' और 'न्याय' दो शब्द क्यों हुए; क्योंकि जब दोनों का अर्थ एक ही है, तो दो शब्दों का होना व्यर्थ है? कोई एक शब्द रहता तो अच्छा होता। इसलिये दया और न्याय का एक प्रयोजन नहीं। 


उत्तर―क्या एक अर्थ के अनेक नाम और एक नाम के अनेक अर्थ नहीं होते?


प्रश्न―होते हैं।


उत्तर―फिर तुमको शङ्का क्यों हुई?


प्रश्न―संसार में सुनते हैं, इसलिये। 


उत्तर―संसार में सच्चा और झूठा दोनों सुने जाते हैं, उसका विचार से निश्चय करना अपना काम है। देखो, ईश्वर की पूर्ण दया यह है कि जिसने सब जीवों के प्रयोजन सिद्ध होने के अर्थ सब पदार्थ जगत् में उत्पन्न करके दान दे रक्खे हैं, इससे बड़ी दया दूसरी कौन-सी है? न्याय का फल, जगत् में सुख-दुःख की व्यवस्था, अधिकता-न्यूनता से दिखला रही है। इन दोनों का इतना ही भेद है कि जो मन में सबको सुख होने और दुःख छूटने की इच्छा और क्रिया करना है, [वह 'दया'], और बाह्य चेष्टा अर्थात् बन्धन-छेदनादि यथायोग्य दण्ड देना 'न्याय' कहाता है। दोनों का एक ही प्रयोजन यह है कि सबको पाप और दुःखों से पृथक् करना।

[ईश्वर निराकार है, साकार नहीं]

प्रश्न―ईश्वर साकार है, वा निराकार?


उत्तर―निराकार; क्योंकि जो साकार होता तो व्यापक नहीं हो सकता, जब व्यापक न होता तो सर्वज्ञता-आदि गुण भी न हो सकते; क्योंकि परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित रहते हैं, तथा शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा और रोग-दोष, छेदन-भेदन आदि से रहित नहीं हो सकता। इससे यही निश्चित है कि ईश्वर निराकार है। और जो साकार होता, तो उसके आकर को बनानेवाला दूसरा होना चाहिये। क्योंकि जो संयोग से उत्पन्न होता है, उसको संयुक्त करनेवाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिये। जो कोई कहे कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही आप अपना शरीर बना लिया, तो [भी] वही सिद्ध हुआ कि शरीर के बनने के पूर्व [वह] निराकार था। इसलिये वह परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता, किन्तु निराकार होने से सब जगत् को सूक्ष्म आकार से स्थूलाकार बनाता है। 

['सर्वशक्तिमान्' शब्द का अर्थ]

प्रश्न―ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, वा नहीं?


उत्तर―है; परन्तु 'सर्वशक्तिमान्' शब्द का अर्थ इतना ही है कि ईश्वर अपने काम अर्थात् सृष्टि-उत्पत्ति, पालन और प्रलय आदि और सब जीवों के पुण्य-पाप की यथायोग्य व्यवस्था करने में किंचित् भी किसी की सहायता नहीं लेता अर्थात् अपने अनन्त सामर्थ्य से ही अपने सब काम पूर्ण कर लेता है। 


प्रश्न―हम तो ऐसा मानते हैं कि ईश्वर जो चाहे सो करे।


उत्तर―वह क्या और कैसा चाहता है? जो तुम कहो कि सब कुछ चाहता और कर सकता है, तो हम तुमसे पूछते हैं कि क्या परमेश्वर अपने को मार, अनेक ईश्वर बना, स्वयं अविद्वान् हो, चोरी-आदि पाप कर और दुःखी भी हो सकता है? जैसे ये काम ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव से विरुद्ध हैं तो जो तुम्हारा कहना कि 'वह सब कुछ कर सकता है' यह कभी नहीं घट सकता। इसीलिये 'सर्वशक्तिमान्' शब्द का अर्थ जो हमने कहा, वही ठीक है।

[ईश्वर अनादि है]

प्रश्न―परमेश्वर सादि है, वा अनादि?


उत्तर―अनादि; अर्थात् जिसका आदि कोई कारण वा समय न हो, उसको 'अनादि' कहते हैं, इत्यादि सब अर्थ प्रथम समुल्लास में कर दिये हैं, देख लीजिये। 


प्रश्न―परमेश्वर क्या चाहता है?


उत्तर―सबकी भलाई और सबके लिये सुख चाहता है, परन्तु स्वतन्त्रता के साथ; किसी को विना पाप किये पराधीन नहीं करता। 

[ईश्वर-स्तुति-प्रार्थनोपासना का फल]

प्रश्न―परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना करनी चाहिये, वा नहीं?


उत्तर―करनी चाहिये। 

 

प्रश्न―क्या स्तुति आदि करने से ईश्वर अपना नियम छोड़ स्तुति, प्रार्थना [और उपासना] करनेवाले के पाप छुड़ा देगा?


उत्तर―नहीं।


प्रश्न―तो फिर स्तुति, प्रार्थना, [और उपासना] क्यों करनी चाहिये?


उत्तर―उनके करने का फल अन्य ही है। 


प्रश्न―क्या है?


उत्तर―स्तुति से ईश्वर में प्रीति [होना], उसके गुण-कर्म-स्वभाव से अपने गुण-कर्म-स्वभाव को सुधारना; प्रार्थना से निरभिमानता, उत्साह और सहाय्य का मिलना; उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होना। 

[स्तुति के दो भेद=सगुण और निर्गुण स्तुति]

प्रश्न―इनको स्पष्ट करके समझाओ। 


उत्तर―जैसे, ईश्वर की स्तुति―


स पर्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम॑व्र॒णमस्नावि॒रꣳ शु॒द्धमपा॑पविद्धम्। 

क॒विर्म॑नी॒षी प॑रि॒भूः स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न् 

व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः॥१॥ 

यजुः, अ॰ ४०। मं॰ ८॥

 

वह परमात्मा सब में व्यापक, शीघ्रकारी और अनन्त बलवान् [है]। जो शुद्ध, सर्वज्ञ, सबका अन्तर्यामी, सर्वोपरि विराजमान, सनातन, स्वयंसिद्ध परमेश्वर अपनी जीवरूप सनातन अनादि प्रजा को अपनी सनातन विद्या से यथावत् अर्थों का बोध वेद द्वारा कराता है, यह 'सगुण-स्तुति'; अर्थात् जिस-जिस गुण से सहित परमेश्वर की स्तुति करना, वह सगुण [स्तुति है]। और (अकाय) अर्थात् वह कभी शरीर धारण [नहीं करता] वा जन्म नहीं लेता, जिसमें छिद्र नहीं होता और जो नाड़ी आदि के बन्धन में नहीं आता, और कभी पापाचरण नहीं करता, जिसमें क्लेश, दुःख, अज्ञान कभी नहीं होता, इत्यादि जिन-जिन राग-द्वेष आदि गुणों से पृथक् मानकर परमेश्वर की स्तुति करना है, वह 'निर्गुण-स्तुति' कहाती है। 


इसका फल यह है कि जैसे परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव हैं, वैसे गुण-कर्म- स्वभाव अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी है, तो आप भी न्यायकारी होवे। और जो केवल भाँड के समान परमेश्वर के गुणकीर्त्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता, उसका स्तुति करना व्यर्थ है। 

[कैसी प्रार्थना करनी चाहिये]

प्रार्थना— 


यां मे॒धां दे॑वग॒णाः पि॒तर॑श्चो॒पास॑ते। 

तया॒ माम॒द्य मे॒धयाऽग्ने॑ मे॒धावि॑नं कुरु॒ स्वाहा॑॥१॥ 

यजु:, अ॰ ३२। मं॰ १४॥

तेजो॑ऽसि॒ तेजो॒ मयि॑ धेहि वी॒र्य॒मसि वी॒र्यं मयि॑ धेहि॒। 

बल॑मसि॒ बलं॒ मयि॑ धेहि॒, ओजो॒ऽस्योजो॒ मयि॑ धेहि। 

म॒न्युर॑सि म॒न्युं मयि॑ धेहि॒ सहो॑ऽसि॒ सहो॒ मयि॑ धेहि॥२॥ 

यजुः, अ॰ १९। मं॰ ९॥ 


यज्जाग्र॑तो दू॒रमुदैति॒ दैवं॒ तदु॑ सु॒प्तस्य॒ तथै॒वैति॑। 

दू॒र॒ङ्ग॒मं ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥३॥ 

येन॒ कर्मा॑ण्य॒पसो॑ मनी॒षिणो॑ य॒ज्ञे कृ॒ण्वन्ति॑ वि॒दथे॑षु धीराः॑। 

यद॑पू॒र्वं य॒क्षम॒न्तः प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥४॥ 

यत्प्र॒ज्ञान॑मुत चेतो॒ धृति॑श्च॒ यज्ज्योति॑र॒न्तर॒मृतं॑ प्र॒जासु॑। 

यस्मा॒न्नऽऋ॒ते किं च॒न कर्म॑ क्रि॒यते॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥५॥ 

येने॒दं भू॒तं भुव॑नं भवि॒ष्यत्परि॑गृहीतम॒मृते॑न॒ सर्व॑म्। 

येन॑ य॒ज्ञस्ता॒यते॑ स॒प्त हो॑ता॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥६॥ 

यस्मि॒न्नृचः॒ साम यजू॑ᳬषि॒ यस्मि॒न्प्रति॑ष्ठिता रथना॒भावि॑वा॒राः। 

यस्मिँ॑श्चि॒त्तᳬसर्वमोतं॑ प्र॒जानां॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥७॥ 

सुषा॒र॒थिरश्वा॑निव॒ यन्म॑नु॒ष्या॒न्नेनी॒यते॒ऽभीशु॑भिर्वा॒जिन॑ऽइव। 

हृ॒त्प्रति॑ष्ठं॒ यद॑जि॒रं जवि॑ष्ठं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥८॥ 

यजु:, अ॰ ३४। मं॰ १-६॥ 


हे अग्ने=स्वप्रकाशस्वरूप परमेश्वर! आप स्वकृपा से, जिस बुद्धि की उपासना विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोग करते हैं, उसी बुद्धि से युक्त 'बुद्धिमान्' हमको इसी वर्त्तमान समय में कीजिये॥१॥


आप प्रकाशस्वरूप हैं, कृपा कर मुझमें भी प्रकाश-स्थापन कीजिये। आप अनन्त पराक्रमयुक्त हैं, इसलिये मुझमें भी कृपा-कटाक्ष से पूर्ण पराक्रम को धरिये। आप अनन्त बलयुक्त हैं, इसलिये मुझमें भी बल धारण कराइये। आप अनन्त सामर्थ्ययुक्त हैं, मुझको भी पूर्ण सामर्थ्य दीजिये। आप दुष्ट कामों और दुष्टों पर क्रोधकारी हैं, मुझको भी वैसा ही कीजिये। आप निन्दा-स्तुति और स्व-अपराधियों का सहन करनेवाले हैं, कृपा से मुझको भी वैसा ही कीजिये॥२॥ 


हे दयानिधे! आपकी कृपा से, जो मेरा मन जागते हुए का दूर-दूर जाता, दिव्यगुणयुक्त रहता है, और वही सोते हुए मेरा मन सुषुप्ति को प्राप्त होता वा स्वप्न में दूर-दूर जाने के समान व्यवहार करता है; सब प्रकाशकों का प्रकाशक एक वह मेरा मन शिवसङ्कल्प अर्थात् अपने और दूसरे प्राणियों के अर्थ  कल्याण का सङ्कल्प करनेहारा होवे, किसी की हानि करने की इच्छायुक्त कभी न होवे॥३॥ 


हे सर्वान्तर्यामी! जिससे कर्म करनेहारे धैर्ययुक्त विद्वान् लोग यज्ञ और युद्धादि में कर्म करते हैं; जो अपूर्व सामर्थ्ययुक्त, पूजनीय और प्रजा के भीतर रहनेवाला है, वह मेरा मन धर्म करने की इच्छायुक्त होकर अधर्म को सर्वथा छोड़ देवे॥४॥ 


जो उत्कृष्ट ज्ञान [-युक्त] और दूसरे को चेतानेहारा निश्चयात्मकवृत्ति है, और जो प्रजाओं में भीतर प्रकाशयुक्त और नाशरहित है; जिसके विना कोई कुछ भी कर्म नहीं कर सकता, वह मेरा मन शुभ गुणों की इच्छा करके दुष्ट गुणों से पृथक् रहै॥५॥ 


हे जगदीश्वर! जिससे सब योगी लोग इन सब भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान व्यवहारों को जानते, जो नाशरहित जीवात्मा को परमात्मा के साथ मिलाके सब प्रकार त्रिकालज्ञ करता है, जिसमें ज्ञान और क्रिया है; [जो] पाँच ज्ञानेन्द्रिय, बुद्धि और आत्मा-युक्त रहता है, उस योगरूप यज्ञ को जिससे बढ़ाते हैं, वह मेरा मन योग-विज्ञानयुक्त होकर अविद्यादि क्लेशों से अलग रहै॥६॥


हे परमविद्वन् परमेश्वर! आपकी कृपा से, जिस मेरे मन में, जैसे रथ के मध्य धुरे में आरे लगे रहते हैं, वैसे 'ऋग्वेद', 'यजुर्वेद', 'सामवेद' [प्रतिष्ठित होते हैं], और जिसमें 'अथर्ववेद' भी प्रतिष्ठित होता है; और जिसमें सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, प्रजा का साक्षी चित्त चेतन विदित होता है, वह मेरा मन अविद्या का अभाव कर विद्याप्रिय सदा रहै॥७॥


हे सर्वनियन्ता ईश्वर! जो मेरा मन रस्सी से घोड़ों के समान अथवा घोड़ों के नियन्ता सारथि के तुल्य मनुष्यों को अत्यन्त इधर-उधर डुलाता है; जो हृदय में प्रतिष्ठित, गतिमान् और अत्यन्त वेगवाला है, वह मेरा मन सब इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोकके धर्मपथ में सदा चलाया करे, ऐसी कृपा मुझ पर कीजिये॥८॥

अग्ने॒ नय॑ सु॒पथा॑ रा॒येऽअ॒स्मान् विश्वा॑नि देव व॒युना॑नि वि॒द्वान्। 

यु॒यो॒ध्य᳕स्मज्जु॑हुरा॒णमेनो॒ भूयि॑ष्ठां ते॒ नम॑ऽउक्तिं विधेम॥१॥ 

यजु०, अ॰ ४०। मं॰ १६॥

 

हे सुख के दाता, स्वप्रकाशस्वरूप, सबको जाननेहारे परमात्मन्! आप हमको श्रेष्ठ मार्ग से सम्पूर्ण प्रज्ञानों को प्राप्त कराइये; और जो हममें कुटिल पापाचरणरूप मार्ग है, उससे पृथक् कीजिये। इसीलिये हम लोग नम्रतापूर्वक  आपकी बहुत-सी स्तुति करते हैं कि आप हमको पवित्र करें।


यह सगुण प्रार्थना, और―


मा नो॑ म॒हान्त॑मु॒त मा नो॑ऽअर्भ॒कं मा न॒ऽउक्ष॑न्तमु॒त मा न॑ ऽउक्षि॒तम्। 

मा नो॑ वधीः पि॒तरं॒ मोत मा॒तरं॒मा नः॑ प्रि॒यास्त॒न्वो॒ रुद्र रीरिषः॥१॥ 

यजु॰, अ॰ १६। मं॰ १५॥ 


हे रुद्र=दुष्टों को पाप के दुःखरूप फल को देके रुलानेवाले परमेश्वर ! आप हमारे छोटे-बड़े जन, गर्भ, माता, पिता और प्रिय बन्धुवर्ग तथा [हमारे] शरीरों का हनन करने के लिये प्रेरित [किसी को] मत होने दीजिये, ऐसे मार्ग से हमको चलाइये जिससे हम आपके दण्डनीय न हों॥१॥ 


असतो मा सद् गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्माऽमृतं गमयेति॥

यह शतपथ ब्राह्मण का वचन है [१४। ३। १। ३०]॥


हे परमगुरो परमात्मन्! आप हमको असत् मार्ग से पृथक् कर सन्मार्ग में प्रवृत्त कीजिये। अविद्यान्धकार को छुड़ाके विद्यारूप सूर्य को प्राप्त कराइये और मृत्युरोग से पृथक् करके मोक्ष के आनन्दरूप अमृत को प्राप्त कराइये।


इस प्रकार निर्गुण-प्रार्थना कहाती है, अर्थात् जिस-जिस दोष वा दुर्गुण से परमेश्वर को पृथक् मानके, उससे अपने को भी अलग करने के लिये प्रार्थना की जाती है, वह निषेधमुख होने से निर्गुण प्रार्थना [है]। 


जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है, उसको वैसा ही वर्त्तमान करना चाहिये अर्थात् जैसे सर्वोत्तम बुद्धि की प्राप्ति के लिये परमेश्वर की प्रार्थना करे, उसके लिये जितना अपने से प्रयत्न हो सके, उतना किया करे; अर्थात् अपने पुरुषार्थ के उपरान्त प्रार्थना करनी योग्य है। 

[ऐसी प्रार्थना कभी न करे]

ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाहिये और न परमेश्वर उसको स्वीकार करता है, जैसे―'हे परमेश्वर! आप मेरे शत्रुओं का नाश और मुझको सबसे बड़ा [कीजिये], मेरी ही प्रतिष्ठा [हो] और मेरे आधीन सब हो जायें' इत्यादि। क्योंकि जब दोनों शत्रु एक दूसरे के नाश के लिये प्रार्थना करें तो क्या परमेश्वर दोनों का नाश कर दे ? जो कोई कहै कि जिसका प्रेम अधिक [हो], उसकी प्रार्थना सफल हो जावे, तब हम कह सकते हैं कि जिसका प्रेम न्यून हो, उसके शत्रु का भी न्यून नाश होना चाहिये। ऐसी मूर्खता की प्रार्थना करते-करते कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा—'हे परमेश्वर! आप हमको रोटी बनाकर खिलाइये, [हमारे] मकान में झाड़ू लगाइये, [हमारे] कपड़े धो दीजिये और [हमारी] खेती-बाड़ी भी कीजिये।' 

[पुरुषार्थी की ही प्रार्थना सफल होती है]

इस प्रकार जो परमेश्वर के भरोसे आलसी होकर बैठते हैं, वे महामूर्ख हैं; क्योंकि जो परमेश्वर की पुरुषार्थ करने की आज्ञा है, उसको जो कोई तोड़ेगा, वह सुख कभी न पावेगा॥ जैसे—


कु॒र्वन्ने॒वेह कर्मा॑णि जिजीवि॒षेच्छ॒तंᳬ समाः॑॥२॥ 

यजुः, अ॰ ४०। मं॰ २॥


परमेश्वर आज्ञा देता है कि मनुष्य सौ-वर्ष पर्यन्त और जब तक जीवे, तब तक कर्म करता हुआ ही जीने की इच्छा करे, आलसी कभी न हो। 


देखो, सृष्टि के बीच में जितने प्राणी हैं अथवा अप्राणी हैं, वे सब अपने-अपने कर्म और यत्न करते ही रहते हैं। जैसे पिपीलिका आदि सदा प्रयत्न करते, पृथिवी आदि सदा घूमते और वृक्ष आदि सदा बढ़ते-घटते रहते हैं, वैसे यह दृष्टान्त मनुष्यों को भी ग्रहण करना योग्य है। जैसे पुरुषार्थ करते हुए पुरुष का सहाय्य दूसरा भी करता है, वैसे धर्म में पुरुषार्थी पुरुष का सहाय्य परमेश्वर भी करता है। जैसे काम करनेवाले को भृत्य रखते हैं, अन्य को नहीं; देखने की इच्छा करने और नेत्रवाले को दिखलाते हैं, अन्धे को नहीं; इसी प्रकार परमेश्वर भी सबके उपकार करने की प्रार्थना में सहायक होता है, हानिकारक कर्म में नहीं। जो कोई 'गुड़ मीठा है' कहता रहै, उसको गुड़ वा उसका स्वाद प्राप्त कभी नहीं होता; और जो यत्न करता है उसको शीघ्र वा विलम्ब से गुड़ मिल ही जाता है। 


अब तीसरी उपासना— 


समाधिनिर्धूतमलस्य चेतसो निवेशितस्यात्मनि यत्सुखं लभेत्। 

न शक्यते वर्णयितुं गिरा तदा, स्वयं तदन्तःकरणेन गृह्यते॥१॥ 

यह उपनिषद् का वचन है [मैत्रायणी उप० ४।९]॥


जिस पुरुष के, समाधियोग से अविद्यादि मल नष्ट हो गये हैं, आत्मस्थ होकर परमात्मा में चित्त जिसने लगाया है, उसको जो परमात्मा के योग का सुख होता है, वह वाणी से कहा नहीं जा सकता; क्योंकि उस आनन्द को जीवात्मा अपने अन्तःकरण से ग्रहण करता है। 

[उपासना का अर्थ और उसके अङ्ग]

उपासना शब्द का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टाङ्गयोग से परमात्मा के समीपस्थ होने और उसको सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यामी-रूप से प्रत्यक्ष करने के लिये जो-जो काम करना होता है, वह-वह सब करना चाहिये। अर्थात्—

अहिंसासत्याऽस्तेयब्रह्मचर्याऽपरिग्रहा यमाः॥ 

इत्यादि सूत्र पातञ्जल-योगशास्त्र के हैं।

[साधनपाद, सू० ३०]॥


जो उपासना का आरम्भ करना चाहै, उसके लिये यही आरम्भ है कि वह किसी से वैर न रक्खे, सर्वदा प्रीति करे; सत्य बोले, मिथ्या न बोले; चोरी न करे, सत्यव्यवहार करे; जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो; और निरभिमानी हो, अभिमान कभी न करे। ये पांच प्रकार के 'यम' मिलके 'उपासना-योग' का प्रथम अङ्ग है। 


शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥ 

योगसूत्र [साधनपाद, सू॰ ३२]॥

 

राग-द्वेष छोड़ भीतर, और जलादि से बाहर पवित्र रहै। धर्म से पुरुषार्थ करने से लाभ में न प्रसन्नता और हानि में न अप्रसन्नता करे। प्रसन्न होकर, आलस्य छोड़, सदा पुरुषार्थ किया करे। सदा दुःख-सुखों को सहन और धर्म का ही अनुष्ठान करे, अधर्म का नहीं। सदा सत्यशास्त्रों को पढ़े-पढ़ावे, सत्पुरुषों का संग करे। और ‘ओङ्कार' का जप और अर्थ-विचार किया करे। अपने आत्मा को परमेश्वर के आज्ञानुकूल समर्पित कर देवे। इन पांच प्रकार के 'नियमों' को मिलाके 'उपासनायोग' का दूसरा अङ्ग कहाता है।


इसके आगे [के] छः अङ्ग 'योगशास्त्र' वा 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' * में देख लेवें।


जब उपासना करना चाहे, तब एकान्त शुद्ध देश में जाकर, आसन लगा, प्राणायाम कर, बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभि, हृदय, कण्ठ, नेत्र, शिखा, पीठ के मध्य हाड़ में किसी स्थान पर स्थिर कर, अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके, परमात्मा में मग्न होकर संयमी होवे।

[उपासना के दो भेद और उसका फल]

जब इन साधनों को करता है तब उसका आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। नित्यप्रति ज्ञान-विज्ञान बढ़ाकर मुक्ति तक पहुँच जाता है। जो आठ प्रहर में एक घड़ी भर भी इस प्रकार ध्यान करता है, वह सदा उन्नति को प्राप्त हो जाता है। 


वहां सर्वज्ञतादि गुणों के साथ परमेश्वर की उपासना करनी 'सगुण', और राग, द्वेष, रूप, रस, गन्ध, स्पर्शादि गुणों से पृथक् मान, अतिसूक्ष्म आत्मा के भीतर-बाहर व्यापक परमेश्वर में दृढ़ स्थित हो जाना 'निर्गुण-उपासना' कहाती है।


*'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' के 'उपासना विषय' में इनका वर्णन है।


इसका फल―जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत्त हो जाता है, वैसे परमेश्वर के समीप प्राप्त होने से जीवात्मा के सब दोष, दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के सदृश गुण-कर्म-स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। इसलिये परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अवश्य करनी चाहिये।

[ईश्वर का गुण भूल जाना कृतघ्नता व मूर्खता है]

इससे इनका फल पृथक् होगा, परन्तु आत्मा का बल इतना बढ़ेगा [कि] वह पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी न घबरावेगा और सबको सहन कर सकेगा। क्या यह छोटी बात है? और जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता, वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है; क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों को सुख के लिये दे रक्खे हैं, उसके गुण भूल जाना, ईश्वर को ही न मानना कृतघ्नता और मूर्खता है। 

[इन्द्रियों से रहित ईश्वर इन्द्रियों का काम कैसे करता है]

प्रश्न―जब परमेश्वर के श्रोत्र, नेत्रादि इन्द्रियाँ नहीं हैं, फिर वह इन्द्रियों का काम कैसे कर सकता है?


उत्तर―अपाणिपादो जवनो ग्रहीता  पश्यत्यचक्षुः स शृणोत्यकर्णः। 

स वेत्ति विश्वं न च तस्यास्ति वेत्ता तमाहुरग्र्यं पुरुषं पुराणम्॥ 

यह उपनिषद् का वचन है [श्वेताश्वतर ३। १९]।

परमेश्वर के हाथ नहीं परन्तु अपनी शक्तिरूप हाथों से सबका रचन, ग्रहण करता [है], पग नहीं परन्तु व्यापक होने से सबसे अधिक वेगवान् [है], चक्षु के गोलक नहीं परन्तु सबको यथावत् देखता [है], श्रोत्र नहीं तथापि सबकी बातें सुनता [है], अन्तःकरण नहीं परन्तु सब जगत् को जानता है, और उसको अवधिसहित जाननेवाला कोई भी नहीं। उसी को सनातन, सबसे श्रेष्ठ, सबमें पूर्ण होने से 'पुरुष' कहते हैं। वह इन्द्रियों और अन्तःकरण के विना अपने सब काम अपने सामर्थ्य से करता है। 

[ईश्वर निष्क्रिय और निर्गुण नहीं]

प्रश्न―उसको बहुत से मनुष्य निष्क्रिय और निर्गुण कहते हैं।


उत्तर―   न तस्य कार्यं करणं च विद्यते, 

न तत्समश्चाभ्यधिकश्च दृश्यते। 

परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते, 

स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च॥ 

यह उपनिषद् का वचन है [श्वेताश्वरतर उप० ६। ८]।


परमात्मा से कोई तद्रूप कार्य और उसको करण अर्थात् साधकतम दूसरा अपेक्षित नहीं। न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। सर्वोत्तम शक्ति अर्थात् जिसमें अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है, वह स्वाभाविक अर्थात् सहज उसमें सुनी जाती है। जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय न कर सकता; इसलिये वह 'विभु' [है], तथापि चेतन होने से उसमें क्रिया भी है।


प्रश्न―जब वह क्रिया करता होगा तब अन्त-वाली क्रिया होती है, वा अनन्त?


उत्तर―जितने देश-काल में क्रिया करनी उचित समझता है उतने ही देश-काल में क्रिया करता है, न अधिक, न न्यून; क्योंकि वह विद्वान् है। 

[ईश्वर का स्वरूप]

प्रश्न―परमेश्वर अपना अन्त जानता है वा नहीं? जानता है तो अनन्त नहीं, और जो नहीं जानता तो पूर्णज्ञानी नहीं?


उत्तर―जानता है, और परमात्मा पूर्णज्ञानी है; क्योंकि ज्ञान उसको कहते हैं कि जिससे जैसा का वैसा पदार्थ जाना जाय। जब परमेश्वर अनन्त है, तो उसको अनन्त ही जानना ज्ञान, और अनन्त को सान्त और सान्त को अनन्त जानना 'अज्ञान' अर्थात् 'भ्रम' कहाता है। ‘यथार्थदर्शनं ज्ञानमिति’= जो जैसा पदार्थ है, उसको वैसा ही जानना ज्ञान, और उससे उलटा 'अज्ञान' है। इसलिये—


क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुषविशेष ईश्वरः॥ 

योगसूत्र [समाधिपाद, सू० २४]॥ 


जो अविद्यादि क्लेश, कुशल-अकुशल, इष्ट-अनिष्ट और मिश्र फलदायक कर्मों की वासना से रहित है, वह सब जीवों से विशेष 'ईश्वर' कहाता है।

प्रश्न―चेतन एक है, वा अनेक?


उत्तर―ईश्वर चेतन एक, और जीव चेतन अनेक हैं।

[क्या कपिलाचार्य अनीश्वरवादी है?]

प्रश्न―ईश्वरासिद्धेः॥१॥ 

प्रमाणाभावान्न तत्सिद्धिः॥२॥

सम्बन्धाभावान्नानुमानम्॥३॥ 

ये सांख्यशास्त्र के सूत्र हैं॥ [१। ९२; ५। १०; ५। ११] 


प्रत्यक्ष से ईश्वर की सिद्धि नहीं होती॥१॥ 


क्योंकि जब उसकी सिद्धि में प्रत्यक्ष ही नहीं, तो अनुमानादि प्रमाण नहीं घट सकते॥२॥


और व्याप्ति-सम्बन्ध न होने से अनुमान भी नहीं हो सकता, पुनः प्रत्यक्ष-अनुमान के न होने से शब्द-प्रमाण आदि भी नहीं घट सकते। इस कारण ईश्वर की सिद्धि नहीं हो सकती॥३॥ 


उत्तर―यहाँ ईश्वर का निषेध नहीं है; किन्तु ईश्वर की सिद्धि में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं है [यह केवल पूर्वपक्ष में कहा है], और न ईश्वर जगत् का उपादान कारण है, और पुरुष [=जीव] से विलक्षण अर्थात् सर्वत्र पूर्ण होने से परमात्मा का नाम भी 'पुरुष' और शरीर में शयन करने से जीव का भी नाम 'पुरुष' है, [यह कहकर ईश्वर का अस्तित्व स्वीकार किया है]; क्योंकि इसी प्रकरण में कहा है—


प्रधानशक्तियोगाच्चेत्सङ्गापत्तिः॥१॥

सत्तामात्राच्चेत्सर्वैश्वर्य्यम्॥२॥ 

श्रुतिरपि प्रधानकार्यत्वस्य॥३॥ 

सांख्यसूत्र [५। ८-९, १२]॥ 


यदि 'पुरुष' को प्रधानशक्ति का योग हो तो 'पुरुष' में सङ्गापत्ति हो जाय। अर्थात् जैसे प्रकृति सूक्ष्म से मिलकर कार्यरूप में सङ्गत हुई है, वैसे परमेश्वर भी स्थूल हो जाय। इसलिये परमेश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं, किन्तु निमित्त कारण है॥१॥


जो चेतन से जगत् की उत्पत्ति हो तो जैसा परमेश्वर समग्रैश्वर्ययुक्त है, वैसा संसार में भी सर्वैश्वर्य का योग होना चाहिये, सो नहीं है। इसलिये परमेश्वर जगत् का उपादान कारण नहीं, किन्तु निमित्त कारण है॥२॥


क्योंकि उपनिषद् भी प्रधान को ही जगत् का उपादान कारण कहती है॥३॥ जैसे—


अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां बह्वीः.प्रजाः सृजमानां सरूपाः॥ 

यह श्वेताश्वतर उपनिषद् का वचन है [अ० ४। मं० ५]।

जो जन्मरहित, सत्त्व-रज-तमोगुणरूप प्रकृति है, वही स्वरूपाकार से बहुत प्रजारूप हो जाती है; अर्थात् प्रकृति परिणामिनी होने से अवस्थान्तर हो जाती है और पुरुष अपरिणामी होने से वह अवस्थान्तर होकर दूसरे रूप में कभी नहीं प्राप्त होता, सदा कूटस्थ=निर्विकार रहता है, और प्रकृति सृष्टि में सविकार और प्रलय में निर्विकार रहती है। 


इसीलिये जो कोई कपिलाचार्य को अनीश्वरवादी कहता है, जानो वही अनीश्वरवादी है, कपिलाचार्य नहीं; 

[अन्य शास्त्रों में ईश्वर का प्रतिपादन]

तथा 'मीमांसा' 'धर्म-धर्मी' से ईश्वर [शब्द से] 'वैशेषिक' और 'न्याय' भी ‘आत्म’ शब्द से अनीश्वरवादी नहीं; क्योंकि सर्वज्ञत्वादि धर्मयुक्त और ‘अतति सर्वत्र व्याप्नोतीत्यात्मा’=जो सर्वत्र व्यापक सब जीवों का आत्मा है, उसको 'मीमांसा', 'वैशेषिक' और 'न्याय' 'ईश्वर' मानते हैं। 

[ईश्वर कभी अवतार नहीं लेता]

प्रश्न―ईश्वर अवतार लेता है, वा नहीं?


उत्तर―नहीं, क्योंकि―


'अ॒ज एक॑पात्०'॥ ‘स पर्य्य॑गाच्छु॒क्रम॑का॒यम्०॥’

ये दोनों यजुर्वेद के वचन हैं [३४। ५३ और ४०। ८]।

इत्यादि वचनों से [सिद्ध है कि] परमेश्वर न जन्म लेता और न कभी शरीरवाला होता है। 


प्रश्न―यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। 

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

भगवद्गीता [४। ७]॥

श्रीकृष्ण जी कहते हैं कि जब-जब धर्म का लोप होता है तब-तब मैं शरीर-धारण करता हूँ। 


उत्तर―यह बात वेदविरुद्ध होने से प्रमाण नहीं। और ऐसा हो सकता है कि श्रीकृष्ण धर्मात्माओं और धर्म की रक्षा करना चाहते थे कि 'मैं युग-युग में जन्म लेके श्रेष्ठों की रक्षा और दुष्टों का नाश करूँ', तो कुछ दोष नहीं। क्योंकि ‘परोपकाराय सतां विभूतयः’=परोपकार के लिये सत्पुरुषों का तन, मन, धन होता है; तथापि इससे श्रीकृष्ण ईश्वर नहीं हो सकते। 


प्रश्न―जो ऐसा है तो संसार में ईश्वर के चौवीस अवतार होते हैं, उनको अवतार क्यों मानते हैं?


उत्तर―वेदार्थ के न जानने [से], सम्प्रदायी लोगों के बहकाने [से] और अपने आप अविद्वान् होने से भ्रमजाल में फसके ऐसी-ऐसी अप्रामाणिक बातें करते और मानते हैं।


प्रश्न―जो ईश्वर अवतार न लेवे तो कंस-रावणादि दुष्टों का नाश कैसे हो सके?


उत्तर―प्रथम तो जो जन्मा है वह अवश्य मृत्यु को प्राप्त होता है। जो ईश्वर अवतार=शरीर धारण किये विना जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करता है, उसके सामने कंस और रावण-आदि एक कीड़ी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक होने से कंस-रावण-आदि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा है। जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है। इस अनन्त-गुण-कर्म-स्वभावयुक्त परमात्मा को, एक क्षुद्र जीव को मारने के लिये जन्म-मरण-युक्त कहना, महामूर्खता का काम है।


और जो कोई कहै कि भक्तों के उद्धार के लिये जन्म लेता है तो भी सत्य नहीं, क्योंकि जो भक्तजन ईश्वर की आज्ञानुकूल चलते हैं, उनका उद्धार करने का पूरा सामर्थ्य ईश्वर में है। क्या ईश्वर के पृथिवी, सूर्य, चन्द्रादि जगत् को बनाने, धारण और प्रलय करने रूप कर्मों से, पुत्रोत्पत्ति, कंस-रावणादि का वध और गोवर्धनादि उठाना बड़े कर्म हैं? जो कोई इस सृष्टि में परमेश्वर के कर्मों का विचार करे तो ‘न भूतो न भविष्यति’=ईश्वर के सदृश न कोई हुआ, न है, न होगा, [ऐसा उसे ज्ञात हो जायेगा]।


और युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे कोई अनन्त आकाश को कहे कि 'गर्भ में आया वा मुट्ठी में धर लिया', यह सच कभी नहीं हो सकता, क्योंकि आकाश अनन्त और सबमें व्यापक है, इससे आकाश न भीतर आता, न बाहर जाता; वैसे ही परमेश्वर के अनन्त और सर्वव्यापक होने से उसका आना-जाना सिद्ध नहीं होता; क्योंकि आना वा जाना वहां हो सकता है, जब वहां वह न हो। क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था, जो कहीं से [अन्दर] आया? और क्या बाहर नहीं था, जो भीतर से बाहर निकला? इसलिये परमेश्वर का जन्म-मरण कभी नहीं हो सकता। इसी प्रकार ‘ईसा’ आदि भी 'ईश्वर के अवतार नहीं थे' ऐसा समझ लेना। क्योंकि राग-द्वेष, क्षुधा-तृषा, भय-शोक, दुःख-सुख, जन्म-मरण आदि गुणयुक्त होने से वे मनुष्य थे। 

[ईश्वर पापों को कभी क्षमा नहीं करता]

प्रश्न―ईश्वर अपने भक्तों के पाप क्षमा करता है, वा नहीं?


उत्तर―नहीं; क्योंकि जो पाप क्षमा करे, तो उसका न्याय नष्ट हो जाय और सब मनुष्य महापापी हो जायें। क्योंकि क्षमा की बात सुनके ही उनको पाप करने में उत्साह और निर्भयता हो जाय। जैसे कोई राजा अपराधियों के अपराध को क्षमा करे तो वे अधिक-अधिक अपराध करने लगें। और जो अपराध नहीं करता है वह भी अपराध करने से न डरेगा। इसलिये सबकर्मों का यथावत् फल देना ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं। 

[जीव का स्वातन्त्र्य और पारतन्त्र्य] 

प्रश्न―जीव स्वतन्त्र है, वा परतन्त्र?


उत्तर―अपने कर्त्तव्य कर्मों में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था में परतन्त्र है। ‘स्वतन्त्रः कर्त्ता’ यह पाणिनीय व्याकरण का सूत्र है [अष्टा० १। ४। ५४] =जो स्वतन्त्र अर्थात् स्वाधीन है, वही कर्त्ता है।

 

प्रश्न―स्वतन्त्र किसको कहते हैं?


उत्तर―जिसके आधीन शरीर, प्राण, इन्द्रिय और अन्तःकरणादि हों, जो स्वतन्त्र है। जो स्वतन्त्र न हो तो उसको पाप-पुण्य का फल कभी नहीं प्राप्त हो सकता। क्योंकि जैसे भृत्य स्वामी की, और सेना सेनाध्यक्ष की आज्ञा से अथवा प्रेरणा से युद्ध में अनेक पुरुषों को मारके अपराधी नहीं होते, वैसे परमेश्वर की प्रेरणा और आधीनता से काम सिद्ध हों, तो जीव को पाप वा पुण्य न लगे। उस फल का भागी प्रेरक परमेश्वर होवे। स्वर्ग-नरक अर्थात् सुख-दुःख की प्राप्ति भी परमेश्वर को होवे। जैसे किसी मनुष्य ने शस्त्रविशेष से किसी को मार डाला, तो वही मारनेवाला पकड़ा जाता है, वही दण्ड पाता है; शस्त्र नहीं। वैसे ही पराधीन जीव पाप-पुण्य का भागी नहीं हो सकता। इसलिये अपने सामर्थ्यानुकूल कर्म करने में जीव स्वतन्त्र है, परन्तु जब वह पाप कर चुकता है, तब ईश्वर की व्यवस्था में पराधीन होकर पाप के फल भोगता है। इसलिये कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है। 

[जीव ईश्वर जन्य नहीं, वह कर्म करने में स्वतन्त्र]

प्रश्न―जो परमेश्वर जीव को न बनाता, न सामर्थ्य देता तो जीव कुछ भी न कर सकता। इसलिये परमेश्वर की प्रेरणा से ही जीव कर्म करता है।


उत्तर―जीव उत्पन्न कभी न हुआ, अनादि है। जैसा ईश्वर और जगत् का उपादान कारण नित्य है [वैसे जीव भी है]। और जीव का शरीर तथा इन्द्रियों के गोलक परमेश्वर के बनाये हुए हैं, परन्तु वे सब जीव के आधीन हैं। जो कोई मन, कर्म, वचन से पाप-पुण्य करता है, वही भोगता है, ईश्वर नहीं। जैसे, किसी कारीगर ने पहाड़ से लोहा निकाला, उस लोहे को किसी व्यापारी ने लिया, उसकी दुकान से लोहार ने लेके तलवार बनाई, उससे किसी सिपाही ने तलवार ली, फिर उससे किसी को मार डाला। अब यहां जैसे, उस लोहे को उत्पन्न करनेवाले को, उससे लेनेवाले को, तलवार बनानेवाले और तलवार को पकड़कर राजा दण्ड नहीं देता, किन्तु जिसने तलवार से मारा, वही दण्ड पाता है। इसी प्रकार शरीरादि की उत्पत्ति करनेवाला परमेश्वर उसके कर्मों का भोक्ता नहीं होता, किन्तु जीव भोक्ता होता है। और जो परमेश्वर कर्म कराता होता तो कोई जीव पाप नहीं करता; क्योंकि परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने में प्रेरणा नहीं करता। इसलिये जीव अपने कार्मों के करने में स्वतन्त्र है। जैसे जीव अपने कार्मों में स्वतन्त्र है, वैसे ही परमेश्वर भी अपने कर्मों में स्वतन्त्र है। 

[जीव और ईश्वर का स्वरूप तथा गुण-कर्म-स्वभाव]

प्रश्न―जीव और ईश्वर का स्वरूप, गुण, कर्म और स्वभाव कैसा है?


उत्तर―दोनों चेतनस्वरूप हैं, स्वभाव दोनों का पवित्र, अविनाशी और धार्मिकता आदि है, परन्तु परमेश्वर के सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय [करना], सबको नियम में रखना, जीवों को पाप-पुण्यों के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म हैं। और जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन, 'शिल्पविद्या' आदि अच्छे और बुरे कर्म हैं। ईश्वर के नित्य ज्ञान, आनन्द, अनन्त बल आदि गुण हैं। और जीव के—


इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गम्॥ 

न्यायसूत्र [१। १। १०]॥


प्राणापाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुखदुःख इच्छाद्वेष-प्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि॥ 

वैशेषिकसूत्र [३। २। ४।] 


दोनों सूत्रों में―(इच्छा) पदार्थों की प्राप्ति की अभिलाषा, (द्वेष) दुःखादि की अनिच्छा, वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, बल, (सुख) आनन्द, (दुःख) विलाप, अप्रसन्नता, (ज्ञानानि) विवेक, पहिचानना ये तुल्य हैं। परन्तु 'वैशेषिक' में (प्राण) प्राण को बाहर निकालना, (अपान) प्राण को बाहर से भीतर को लेना, (निमेष) आंख मीचना, (उन्मेष) आंख को खोलना, (जीवन) प्राण का धारण करना, (मन) निश्चय, स्मरण और अहङ्कार करना, (गति) चलना, (इन्द्रिय) सब इन्द्रियों को चलाना, (आन्तरविकाराः) भिन्न-भिन्न क्षुधा- तृषा, हर्ष-शोकादि का होना। ये जीवात्मा के गुण परमात्मा के [गुणों से] भिन्न हैं, इन्हीं से आत्मा की प्रतीति करनी [चाहिये]; क्योंकि वह स्थूल नहीं है।


जब तक आत्मा देह में होता है तभी तक ये गुण प्रकाशित रहते हैं, और जब शरीर छोड़ चला जाता है तब ये गुण शरीर में नहीं रहते। जिसके होने से जो हों, और न होने से न हों, वे गुण उसी के होते हैं। जैसे दीप और सूर्यादि के होने से प्रकाशादि का होना, और न होने से न होना है, वैसे ही जीव और परमात्मा का विज्ञान गुणों के द्वारा होता है।

[ईश्वर के त्रिकालदर्शित्व की मीमांसा]

प्रश्न―परमेश्वर त्रिकालदर्शी है, इससे भविष्यत् की बातें जानता है। वह अपने ज्ञान से जैसा निश्चय करेगा, जीव वैसा ही करेगा, इससे जीव स्वतन्त्र नहीं। और जीव को ईश्वर दण्ड भी नहीं दे सकता; क्योंकि जैसा ईश्वर ने अपने ज्ञान से निश्चित किया है, वैसा ही जीव करता है।


उत्तर―ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता का काम है, क्योंकि जो होके न रहै, वह 'भूतकाल' और न होके होवे, वह 'भविष्यत्काल' कहाता है। क्या ईश्वर को कोई ज्ञान होके नहीं रहता तथा न होके होता है? इसलिये परमेश्वर का ज्ञान सदा एकरस, अखण्डित वर्त्तमान रहता है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिये है। हां, जीवों के कर्मों की अपेक्षा से त्रिकालज्ञता ईश्वर में है, स्वतः नहीं। स्वतन्त्रता से जैसा कर्म जीव करता है, वैसा ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है। और जैसा ईश्वर जानता है, वैसा जीव करता है अर्थात् भूत, भविष्यत्, वर्त्तमान के ज्ञान और फल देने में ईश्वर स्वतन्त्र और जीव किञ्चित् वर्त्तमान [के ज्ञान] और कर्म करने में स्वतन्त्र है। ईश्वर का अनादि ज्ञान होने से जैसा कर्म का ज्ञान है, वैसा ही उसके दण्ड देने का भी ज्ञान अनादि है। दोनों ज्ञान उसके सत्य हैं। क्या 'कर्मज्ञान' सच्चा और 'दण्डज्ञान' मिथ्या कभी हो सकता है? इसलिये इसमें कोई भी दोष नहीं आता।

[जीव और ईश्वर का सम्बन्ध]

प्रश्न―जीव शरीर में [परमेश्वर से] विभु है, वा परिच्छिन्न?


उत्तर―परिच्छिन्न। जो विभु होता तो जाग्रत्-स्वप्न-सुषुप्ति, मरण-जन्म, संयोग- वियोग, जाना-आना कभी नहीं हो सकता। इसलिये जीव का स्वरूप अल्पज्ञ, अल्प अर्थात् सूक्ष्म है और परमेश्वर का अतीव सूक्ष्मात्सूक्ष्मतर, अनन्त, सर्वज्ञ और सर्वव्यापक-स्वरूप है। इसीलिये जीव और परमेश्वर का 'व्याप्य-व्यापक' सम्बन्ध है। 


प्रश्न―जिस जगह में एक वस्तु होता है, उस जगह में दूसरा वस्तु नहीं रह सकता। इसीलिये जीव और ईश्वर का संयोग सम्बन्ध हो सकता है, व्याप्य-व्यापक नहीं। 


उत्तर―यह नियम समान आकारवाले पदार्थों में घट सकता है, असमानाकृति में नहीं। जैसे लोहा स्थूल, [और] अग्नि सूक्ष्म होता है, इस कारण से लोहे में विद्युत्-अग्नि व्यापक होकर एक ही अवकाश में दोनों रहते हैं; वैसे जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर-जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है। जैसे यह व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध जीव-ईश्वर का है, वैसा ही सेवक-सेव्य, आधार-आधेय, भृत्य-स्वामी, राजा-प्रजा और पुत्र-पिता आदि भी सम्बन्ध हैं। 

[ब्रह्म और जीव पृथक्-पृथक् हैं]

प्रश्न―ब्रह्म और जीव जुदे हैं वा एक?


उत्तर―अलग-अलग हैं। 


प्रश्न―जो पृथक्-पृथक् हैं तो—प्रज्ञानं ब्रह्म॥१॥ [ऐत०आर० २। ६॥ ऐत० उप० ३। ५। ३] अहं ब्रह्मास्मि॥२॥ [बृह० उप०, १। ४। १०; शत० ब्रा० ४। ३। २। २१] तत्त्वमसि॥३॥ [छान्दोग्य उप० ६। ८। ७] और अयमात्मा ब्रह्म॥४॥ [माण्डूक्य० २; शत० ब्रा० १४। ४। ५। १४; सभी वाक्यांश द्रष्टव्य हैं―हयग्रीवोपनिषद् १ में] इन 'वेदों के महावाक्यों' का अर्थ क्या है?


उत्तर―ये वेदवाक्य ही नहीं हैं; किन्तु ब्राह्मण-ग्रन्थों के वचन हैं। और इनका नाम 'महावाक्य' कहीं सत्यशास्त्रों में नहीं लिखा। 


अर्थ―ब्रह्म प्रकृष्ट ज्ञानस्वरूप है॥१॥

[‘अहं ब्रह्मास्मि’ वाक्य पर विचार]

(अहम्) मैं (ब्रह्म) अर्थात् ब्रह्मस्थ (अस्मि) हूँ। यहां 'तात्स्थ्योपाधि' है जैसे 'मञ्चाः क्रोशन्ति'= मचान पुकारते हैं। मचान जड़ हैं, उनमें पुकारने का सामर्थ्य नहीं, इसलिये मञ्चस्थ मनुष्य पुकारते हैं। इसी प्रकार यहां भी जानना। 


कोई कहे कि ब्रह्मस्थ सब पदार्थ हैं, पुनः जीव को ब्रह्मस्थ कहने में क्या विशेष है? इसका उत्तर यह है कि सब पदार्थ ब्रह्मस्थ हैं, परन्तु जैसा साधर्म्ययुक्त निकटस्थ जीव है, वैसा अन्य नहीं। और जीव को ब्रह्म का ज्ञान [होता है], और मुक्ति में वह ब्रह्म के साक्षात्सम्बन्ध में रहता है, इसलिये जीव का ब्रह्म के साथ 'तात्स्थ्य' वा 'तत्सहचरितोपाधि' अर्थात् ब्रह्म का सहचारी जीव है। इससे जीव और ब्रह्म एक नहीं। जैसे कोई किसी से कहे कि मैं और यह एक हैं अर्थात् अविरोधी हैं, वैसे जो जीव समाधिस्थ होकर, परमेश्वर में प्रेमबद्ध होकर निमग्न होता है, वह कह सकता है कि मैं और ब्रह्म एक अर्थात् अविरोधी, एक अवकाशस्थ हैं। जो जीव परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल अपने गुण-कर्म-स्वभाव करता है, वही साधर्म्य से ब्रह्म के साथ एकता कह सकता है॥२॥

[‘तत्वमसि’ वाक्य पर विचार]

प्रश्न―अच्छा तो इसका अर्थ कैसा करोगे―(तत्) ब्रह्म (त्वं) तू जीव (असि) है। हे जीव ! (त्वम्) तू (तत्) वह ब्रह्म (असि) है। 


उत्तर―तुम ‘तत्’ शब्द से क्या लेते हो? 


[प्रश्न]―ब्रह्म।


[उत्तर]―ब्रह्म पद की अनुवृत्ति कहां से लाये?


[प्रश्न]―‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयं ब्रह्म॥’ इस पूर्व वाक्य से। [छान्दोग्य० उप० ६। २। १ का प्रश्नकर्त्ता द्वारा विकृत करके प्रस्तुत पाठ]


[उत्तर]―तुमने इस 'छान्दोग्य उपनिषद्' का दर्शन भी नहीं किया। जो वह देखी होती तो ऐसा झूठ क्यों कहते? वहां 'ब्रह्म' शब्द का पाठ ही नहीं है। किन्तु 'छान्दोग्य' [६। २। १] में तो—


सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्॥ ऐसा पाठ है, वहां 'ब्रह्म' शब्द नहीं है। 


प्रश्न―तो आप 'तत्' शब्द से क्या लेते हैं?


उत्तर―स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदᳬ सर्वं तत्सत्यᳬ स आत्मा तत्त्वमसि श्वेतकेतो इति॥

छान्दोग्य० [उप० ६। ८। ७]॥

 

=वह परमात्मा जानने योग्य है, जो यह अत्यन्त सूक्ष्म और इस सब जगत् और जीव का आत्मा है। वही सत्यस्वरूप और अपना आत्मा आप ही है। हे श्वेतकेतो ! प्रिय पुत्र ! 'तदात्मकस्तदन्तर्यामी त्वमसि'=उस परमात्मा अन्तर्यामी से तू युक्त है। यही अर्थ सब उपनिषदों से अविरुद्ध है। क्योंकि—


य आत्मनि तिष्ठन्नात्मनोऽन्तरो 

यमात्मा न वेद यस्यात्मा शरीरम्। 

य आत्मानमन्तरो यमयति स 

तऽआत्मान्तर्याम्यमृतः॥ 

यह बृहदारण्यक का वचन है। [शत० ब्रा० १४। ३। ५। ३०; माध्यन्दिन बृह० उप० ३। ७। ३०]


महर्षि याज्ञवल्क्य गोतमवंशी उद्दालक आरुणि से कहते हैं कि "हे गौतम= उद्दालक! जो परमेश्वर आत्मा अर्थात् जीव में स्थित और जीवात्मा से भिन्न है, जिसको मूढ़ जीवात्मा नहीं जानता कि वह परमात्मा मुझमें व्यापक है। जिस परमेश्वर का जीवात्मा शरीर [-वत् है] अर्थात् जैसे शरीर में जीव रहता है, वैसे जीव में परमेश्वर व्यापक है। जीवात्मा से भिन्न रहकर [जो] जीव के पाप-पुण्यों का साक्षी होकर उनके फल जीव को देकर नियम में रखता है, वही अविनाशीस्वरूप तेरा भी अन्तर्यामी आत्मा अर्थात् तेरे भीतर व्यापक है, उसको तू जान"। इत्यादि वचनों का क्या अन्यथा अर्थ कर सकता है?॥३॥

['अयमात्मा ब्रह्म' वाक्य पर विचार]

"अयमात्मा ब्रह्म" अर्थात् समाधिदशा में जब योगी को परमेश्वर प्रत्यक्ष होता है तब वह कहता है कि 'यह जो मुझमें व्यापक है, वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है'। इसलिये जो आजकल के वेदान्ती जीव-ब्रह्म की एकता करते हैं वे 'वेदान्तशास्त्र' को नहीं जानते॥४॥

[क्या ईश्वर ही जीव रूप में शरीर में प्रविष्ट है]

प्रश्न―अनेन जीवेनात्मनानुप्रविश्य नामरूपे व्याकरवाणि॥१॥

छान्दोग्य० [उप० ६। ३। २] 

"तत्सृष्ट्वा तदेवानुप्राविशत्"॥२॥

तैत्तिरीय॰ [उप०, ब्रह्मानन्दवल्ली अनु० ६]॥


परमेश्वर कहता है कि मैं जगत् और शरीर को रचकर जगत् में व्यापक और जीवरूप होके शरीर में प्रविष्ट होता हुआ नाम और रूप की व्याख्या करूं॥१॥


परमेश्वर उस जगत् और शरीर को बनाकर, उसमें वही प्रविष्ट हुआ॥२॥


इत्यादि श्रुतियों का अर्थ दूसरा कैसे कर सकोगे?


उत्तर―जो तुम पद, पदार्थ और वाक्यार्थ जानते तो ऐसा अनर्थ कभी न करते। क्योंकि यहां ऐसा समझो―एक 'प्रवेश' और दूसरा 'अनुप्रवेश' अर्थात् पश्चात् प्रवेश कहाता है। परमेश्वर शरीर में प्रविष्ट हुए जीवों के साथ अनुप्रविष्ट के समान होकर वेद द्वारा सब नाम-रूपादि की विद्या को प्रकट करता है, और शरीर में जीव को प्रवेश करा, आप जीव के भीतर अनुप्रविष्ट हो रहा है। जो तुम 'अनु' शब्द का अर्थ जानते, तो वैसा विपरीत अर्थ कभी न करते। 

['चेतन' मात्र साधर्म्य से जीव और ब्रह्म एक नहीं]

प्रश्न―‘सोऽयं देवदत्तो य उष्णकाले काश्यां दृष्टः, स इदानीं प्रावृट्-समये मथुरायां दृश्यते’ अर्थात् जो देवदत्त मैंने उष्णकाल में काशी में देखा था, उसी को वर्षा-समय में मथुरा में देखता हूं। यहां वह काशी देश, उष्णकाल; यह मथुरा देश और वर्षाकाल को छोड़ कर शरीरमात्र में लक्ष्य करने से ही देवदत्त लक्षित होता है, वैसे इस 'भागत्यागलक्षणा' से ईश्वर का परोक्ष देश, काल, माया, उपाधि और जीव का यह देश, काल, अविद्या और अल्पज्ञता उपाधि छोड़ चेतनमात्र में लक्ष्य देने से एक ही ब्रह्म वस्तु दोनों में लक्षित होता है। इस 'भागत्यागलक्षणा' अर्थात् कुछ ग्रहण करना और कुछ छोड़ देना, जैसा सर्वज्ञत्वादि वाच्यार्थ ईश्वर का और अल्पज्ञत्वादि वाच्यार्थ जीव का छोड़कर चेतनमात्र लक्ष्यार्थ का ग्रहण करने से 'अद्वैत-सिद्ध' होती है। यहां क्या कह सकोगे?


उत्तर―प्रथम, तुम जीव और ईश्वर को नित्य मानते हो, वा अनित्य?


प्रश्न―इन दोनों को उपाधिजन्य कल्पित होने से अनित्य मानते हैं। 


उत्तर―उस उपाधि को नित्य मानते हो, वा अनित्य?

[नवीन वेदान्तियों के ६ अनादि पदार्थों का खण्डन]

प्रश्न―हमारे मत में—


जीवेशौ च विशुद्धा चिद् विभेदस्तु तयोर्द्वयोः।

अविद्या तच्चितोर्योगः षडस्माकमनादयः॥१॥

कार्य्योपाधिरयं जीवः कारणोपाधिरीश्वरः। 

कार्यकारणतां हित्वा पूर्णबोधोऽवशिष्यते॥२॥ 


ये ‘संक्षेपशारीरक’ और ‘शारीरकभाष्य’ में कारिकायें हैं।

[सिद्धान्तलेश संग्रह परि० १, पृष्ठ ६३ पर तथा द्वितीय श्लोक अनुभूति प्रकाश १। ६१में है।]


हम वेदान्ती छः पदार्थों अर्थात् एक जीव, दूसरा ईश्वर, तीसरा ब्रह्म, चौथा जीव और ईश्वर का विशेष भेद, पाँचवां अविद्या= अज्ञान, और छठा अविद्या और चेतन का योग, इनको अनादि मानते हैं॥


परन्तु एक ब्रह्म अनादि, अनन्त और अन्य पांच अनादि, सान्त हैं, जैसा कि 'प्रागभाव' होता है। जब तक अज्ञान रहता है, तब तक ये पाँच रहते हैं। और इन पाँच का आदि विदित नहीं होता, इसलिये अनादि; और ज्ञान होने के पश्चात् नष्ट हो जाते हैं, इसलिये 'सान्त' अर्थात् नाशवाले कहाते हैं॥१-२॥


उत्तर―ये तुम्हारे दोनों श्लोक अशुद्ध हैं; क्योंकि अविद्या के योग के विना जीव और माया के योग के विना ईश्वर तुम्हारे मत में सिद्ध नहीं हो सकता। इससे ‘तच्चितोर्योगः’ जो छठा पदार्थ तुमने गिना है, वह नहीं रहा; क्योंकि वह अविद्या, माया, जीव, ईश्वर में चरितार्थ हो गया और ब्रह्म, माया और अविद्या के योग के विना 'ईश्वर' नहीं बनता। फिर ईश्वर को अविद्या और ब्रह्म से पृथक् गिनना व्यर्थ है। इसलिये दो ही पदार्थ अर्थात् ब्रह्म और अविद्या तुम्हारे मत में सिद्ध हो सकते हैं, छः नहीं॥१॥ 


तथा आपका प्रथम कार्योपाधि और कारणोपाधि से जीव और ईश्वर का सिद्ध करना तब हो सकता है कि जब अनन्त, नित्य-शुद्ध-बुद्ध- मुक्तस्वभाव, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक ब्रह्म में अज्ञान सिद्ध करें। जो उसके एक देश में स्वाश्रय और स्वविषयक अज्ञान अनादि सर्वत्र मानोगे तो सब ब्रह्म शुद्ध नहीं हो सकता। और जब एक देश में अज्ञान मानोगे तो वह परिच्छिन्न होने से इधर-उधर आता-जाता रहेगा। जहां-जहां जायगा, वहां-वहां का ब्रह्म अज्ञानी और जिस-जिस देश को छोड़ता जायगा, उस-उस देश का ब्रह्म ज्ञानी होता रहेगा, तो किसी देश के ब्रह्म को अनादि, शुद्धज्ञानयुक्त न कह सकोगे। और जो अज्ञान की सीमा में ब्रह्म है, वह अज्ञान को जानेगा। बाहर और भीतर के ब्रह्म के टुकड़े हो जायेंगे। 


जो कहो कि 'टुकड़े हो जायें, तो ब्रह्म की क्या हानि है?' तो वह अखण्ड नहीं। और जो अखण्ड है, तो अज्ञानी नहीं। तथा ज्ञान का अभाव वा विपरीत ज्ञान भी गुण होने से किसी द्रव्य के साथ नित्य-सम्बन्ध से रहेगा। यदि ऐसा है, तो समवायसम्बन्ध होने से अनित्य कभी नहीं हो सकता। और जैसे शरीर के एक देश में फोड़ा होने से सर्वत्र दुःख फैल जाता है, वैसे ही एक देश में अज्ञान, सुख-दुःख, क्लेशों की उपलब्धि होने से 'सब ब्रह्म' दुःखादि के अनुभव से युक्त होगा, और 'सब ब्रह्म' को शुद्ध न कह सकोगे। वैसे ही 'कार्योपाधि' अर्थात् 'अन्तःकरण की उपाधि' के योग से ब्रह्म को जीव मानोगे, तो हम पूछते हैं कि ब्रह्म व्यापक है वा परिच्छिन्न? जो कहो व्यापक और 'उपाधि-परिच्छिन्न' है अर्थात् एकदेशी और पृथक्-पृथक् है, तो अन्तःकरण चलता-फिरता है वा नहीं?


उत्तर―चलता-फिरता है। 


प्रश्न―अन्तःकरण के साथ ब्रह्म भी चलता-फिरता है, वा स्थिर रहता है?


उत्तर―स्थिर रहता है।


प्रश्न―जब अन्तःकरण जिस-जिस देश को छोड़ता है, उस-उस देश का ब्रह्म अज्ञानरहित और जिस-जिस देश को प्राप्त होता है उस-उस देश का शुद्ध ब्रह्म अज्ञानी होता होगा, वैसे क्षण[-क्षण] में ज्ञानी और अज्ञानी ब्रह्म होता रहेगा। इससे मोक्ष और बन्ध भी क्षणभङ्गुर होगा। और जैसे अन्य के देखे का अन्य स्मरण नहीं कर सकता, वैसे कल की देखी-सुनी हुई बात वा वस्तु  का ज्ञान नहीं रह सकता; क्योंकि जिस समय देखा-सुना था, वह दूसरा देश और दूसरा काल [था], जिस समय स्मरण करता [है], वह दूसरा देश और [दूसरा] काल है। 


जो कहो कि 'ब्रह्म एक है' तो [वह] सर्वज्ञ क्यों नहीं? जो कहो कि 'अन्तःकरण भिन्न-भिन्न हैं', इससे वह भी भिन्न-भिन्न हो जाता होगा, तो वह जड़ है; उसमें ज्ञान नहीं हो सकता। जो कहो कि न केवल ब्रह्म और न केवल अन्तःकरण को ज्ञान होता है, किन्तु अन्तःकरणस्थ 'चिदाभास' को ज्ञान होता है, तो भी चेतन को ही अन्तःकरण द्वारा ज्ञान होता है, जैसे नेत्रद्वारा; पुनः वह अल्प, अल्पज्ञ क्यों है? इसलिये कारणोपाधि और कार्योपाधि के योग से ब्रह्म, जीव और ईश्वर नहीं बना सकोगे। किन्तु 'ईश्वर' नाम ब्रह्म का है और ब्रह्म से भिन्न अनादि, अनुत्पन्न और अमृतस्वरूप जीव का नाम 'जीव' है। जो तुम कहो कि जीव 'चिदाभास' का नाम है, तो उसके क्षणभङ्गुर होने से वही 'प्रत्यभिज्ञा' का भङ्ग-दोष आया और 'अनिर्मोक्षापत्ति' भी आती है, क्योंकि जीव उत्पन्न होने से नष्ट हो जायगा, तो मोक्ष का सुख कौन भोगेगा? इसलिये ब्रह्म जीव और जीव ब्रह्म कभी न हुआ, न है और न होगा॥२॥ 

[अद्वैत शब्द का अर्थ और उसकी सिद्धि]

प्रश्न―तो ‘सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्’॥ 

छान्दोग्य॰ [उप० ६। २। १]॥

'अद्वैतसिद्धि’ कैसे होगी? हमारे मत में तो ब्रह्म से पृथक् कोई सजातीय, विजातीय और स्वगत अवयवों के भेद न होने से एक ब्रह्म ही सिद्ध होता है। जब जीव दूसरा है तो 'अद्वैतसिद्धि' कैसे हो सकती है?


उत्तर―इस भ्रम में पड़ क्यों डरते हो? विशेष्य-विशेषण विद्या का विचार करो कि उसका क्या फल है। जो कहो कि ‘व्यावर्त्तकं विशेषणं भवतीति।’= विशेषण भेदकारक होता है, तो इतना और भी मानो कि ‘प्रवर्त्तकं प्रकाशकमपि विशेषणं भवतीति।’=विशेषण प्रवर्त्तक और प्रकाशक धर्मवाला भी होता है। तो समझो कि 'अद्वैत' विशेषण ब्रह्म का है। इसमें व्यावर्त्तक धर्म यह है कि [यह] 'द्वैत वस्तु' अर्थात् जैसे अनेक जीव और तत्त्व हैं, उनसे ब्रह्म को पृथक् करता है। और विशेषण का प्रवर्त्तक और प्रकाशक धर्म यह है कि ब्रह्म के एक होने की प्रवृत्ति करता और प्रकाशक है, जैसे "अस्मिन्नगरेऽद्वितीयो धनाढ्यो देवदत्तः, अस्यां सेनायामद्वितीयः शूरवीरो विक्रमसिंहः"=किसी ने किसी से कहा कि 'इस नगर में अद्वितीय धनाढ्य देवदत्त और इस सेना में अद्वितीय शूरवीर विक्रमसिंह है।' इससे क्या सिद्ध हुआ कि देवदत्त के सदृश इस नगर में दूसरा धनाढ्य और इस सेना में विक्रमसिंह के समान दूसरा शूरवीर नहीं है, न्यून तो हैं। और पृथिवी आदि जड़ पदार्थ, पश्वादि और वृक्षादि भी हैं, उनका निषेध नहीं हो सकता। वैसे ही ब्रह्म के सदृश जीव वा प्रकृति नहीं है, किन्तु न्यून तो हैं।


इससे यह सिद्ध हुआ कि ब्रह्म सदा एक है और जीव तथा प्रकृतिस्थ तत्त्व अनेक हैं। उनसे भिन्नता कर ब्रह्म के एकत्व को सिद्ध करनेहारा 'अद्वैत' वा 'अद्वितीय' विशेषण है। इससे जीव वा प्रकृति का और कार्यरूप जगत् का अभाव और निषेध नहीं हो सकता, अपितु ये सब हैं; परन्तु ब्रह्म के तुल्य नहीं। इससे न अद्वैतसिद्धि [होती है] और न द्वैतसिद्धि की हानि होती है। घबराहट में मत पड़ो, सोचो और समझो। 

[साधारण से साधर्म्य से एकता नहीं होती]

प्रश्न―ब्रह्म के सत्, चित्, आनन्द और जीव के अस्ति, भाति, प्रियरूप से एकता होती है। फिर क्यों खण्डन करते हो?


उत्तर―किञ्चित् साधर्म्य मिलने से एकता नहीं हो सकती। जैसे पृथिवी जड़ [और] दृश्य है, वैसे जल और अग्नि आदि भी जड़ और दृश्य हैं, इतने से एकता नहीं होती। इनमें 'वैधर्म्य' भेदकारक अर्थात् विरुद्ध धर्म, जैसे―गन्ध, रूक्षता, काठिन्य आदि गुण पृथिवी के; और रस, द्रवत्व, कोमलत्वादि धर्म जल [के] और रूप, दाहकत्वादि धर्म अग्नि के होने से एकता नहीं। जैसे मनुष्य और कीड़ी आंख से देखते, मुख से खाते, पग से चलते हैं तथापि मनुष्य की जाति, आकृति, दो पग [आदि की] और कीड़ी की जाति, आकृति, अनेक पग आदि की भिन्नता होने से एकता नहीं होती। वैसे परमेश्वर के अनन्त ज्ञान-आनन्द-बल-क्रिया, निर्भ्रान्तित्व और व्यापकता जीव से और जीव के अल्पज्ञान, अल्पबल, अल्पस्वरूप, सभ्रान्तित्व और परिच्छिन्नतादि गुण ब्रह्म से भिन्न होने से जीव और परमेश्वर एक नहीं; क्योंकि इनका स्वरूप भी, परमेश्वर अतिसूक्ष्म और जीव उससे कुछ स्थूल होने से, भिन्न है।

[भय का कारण द्वैत बुद्धि]

प्रश्न―"अथ….उदरमन्तरं कुरुते, अथ तस्य भयं भवति।"

[तैत्ति० उप०, ब्रह्म० अनु० ७]

"द्वितीयाद्वै भयं भवति॥" 

यह बृहदारण्यक का वचन है [बृह० उप०, १। ४। २]।


जो ब्रह्म और जीव में थोड़ा भी भेद करता है, उसको भय प्राप्त होता है; क्योंकि दूसरे से ही भय होता है।


उत्तर―इसका अर्थ यह नहीं है, किन्तु जो जीव परमेश्वर का निषेध वा किसी एक देश-काल में परिच्छिन्न परमात्मा को माने, वा उसकी आज्ञा और गुण-कर्म-स्वभाव से विरुद्ध होवे, अथवा किसी दूसरे मनुष्य से वैर करे, उसको भय प्राप्त होता है। क्योंकि 'द्वितीय बुद्धि' अर्थात् ईश्वर से मेरा और मुझसे ईश्वर का कुछ सम्बन्ध नहीं, तथा किसी मनुष्य से कहे कि 'तुझको मैं कुछ नहीं समझता, तू मेरा कुछ भी नहीं कर सकता', वा किसी की हानि करता और दुःख देता जाय, तो उसको उनसे भय होता है। और सब प्रकार का अविरोध हो तो वे 'एक' कहाते हैं। जैसे, संसार में कहते हैं कि 'देवदत्त, यज्ञदत्त और विष्णुमित्र एक हैं', अर्थात् अविरुद्ध हैं। विरोध न रहने से सुख और विरोध से दुःख प्राप्त होता है।


प्रश्न―ब्रह्म और जीव की, क्या सदा एकता रहती है वा अनेकता? और कभी दोनों मिलके एक भी होते हैं, वा नहीं?


उत्तर―अभी इसके पूर्व कुछ उत्तर दे दिया है, परन्तु साधर्म्य-अन्वयभाव से एकता होती है। जैसे―आकाश से मूर्त्त-द्रव्य जड़त्व होने से और कभी पृथक् न रहने से एकता, और आकाश के विभुत्व, सूक्ष्मत्व, अरूपत्व, अनन्तत्व आदि गुणों और मूर्त्त के परिच्छिन्नत्व, दृश्यत्व आदि वैधर्म्य से भेद होता है, अर्थात् जैसे पृथिव्यादि-द्रव्य आकाश से भिन्न कभी नहीं रहते; क्योंकि 'अन्वय' अर्थात् अवकाश के विना मूर्त्त-द्रव्य कभी नहीं ठहर सकता और 'व्यतिरेक' अर्थात् स्वरूप से भिन्न होने से पृथक्ता है; वैसे, ब्रह्म के व्यापक होने से जीव और पृथिवी आदि द्रव्य उससे अलग नहीं रहते और स्वरूप से एक भी नहीं होते। जैसे, घर के बनाने के पूर्व भिन्न-भिन्न देश में मट्टी, लकड़ी, लोहा आदि पदार्थ आकाश में ही रहते हैं। जब घर बन गया तब भी आकाश में हैं, और जब वह नष्ट हो गया अर्थात् उसके सब अवयव भिन्न-भिन्न देश में प्राप्त हो गये, तब भी आकाश में हैं; अर्थात् तीनों कालों में आकाश से भिन्न नहीं हो सकते, और स्वरूप से भिन्न होने से न कभी एक थे, न हैं, और होंगे। इसी प्रकार जीव तथा सब संसार के पदार्थ परमेश्वर में व्याप्य होने से परमात्मा से तीनों कालों में न भिन्न [रहते हैं] और स्वरूप से भिन्न होने से एक भी कभी नहीं होते।


आजकल के वेदान्तियों की दृष्टि काणे पुरुष के समान अन्वय की ओर पड़के, व्यतिरेकभाव से छूट, विरुद्ध हो गई है। कोई भी ऐसा द्रव्य नहीं है कि जिसमें सगुणता-निर्गुणता, अन्वय-व्यतिरेक, साधर्म्य-वैधर्म्य और विशेष्य-विशेषण भाव न हो। 

[ईश्वर सगुण भी है और निर्गुण भी]

प्रश्न―परमेश्वर सगुण है, वा निर्गुण?


उत्तर―दोनों प्रकार [का] है। 


प्रश्न―भला, एक मियान में दो तलवारें कभी रह सकती हैं? एक पदार्थ में सगुणता और निर्गुणता कैसे रह सकती हैं? 


उत्तर―जैसे जड़ के 'रूप'-आदि गुण हैं और चेतन के 'ज्ञान'-आदि गुण जड़ में नहीं हैं, वैसे चेतन में 'इच्छा'-आदि गुण हैं और जड़ के 'रूप'-आदि गुण नहीं हैं। इसलिये ‘यद् गुणैः सह वर्त्तमानं तत्सगुणम्’ 'गुणेभ्यो यन्निर्गतं पृथग्भूतं तन्निर्गुणम्’=जो गुणों से सहित वह 'सगुण' और जो गुणों से रहित वह 'निर्गुण' कहाता है। अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित और दूसरे विरोधी के गुणों से रहित होने से सब पदार्थ सगुण और निर्गुण हैं। कोई भी ऐसा पदार्थ नहीं है कि जिसमें केवल सगुणता वा केवल निर्गुणता हो, किन्तु एक में ही सगुणता और निर्गुणता सदा रहती है। वैसे ही परमेश्वर अपने अनन्त ज्ञान-बल-आदि गुणों से सहित होने से 'सगुण' और 'रूप'-आदि जड़ के तथा द्वेष-दुःख-आदि जीव के गुणों से पृथक् होने से 'निर्गुण' कहाता है।

[निराकार को निर्गुण और साकार को सगुण कहना ठीक नहीं]

प्रश्न―संसार में निराकार को निर्गुण और साकार को सगुण कहते हैं। अर्थात् जब परमेश्वर जन्म नहीं लेता, तब 'निर्गुण' और जब अवतार लेता है, तब 'सगुण' कहाता है।


उत्तर―यह कल्पना केवल अज्ञानियों और अविद्वानों की है। जिनको विद्या नहीं होती, वे पशु के समान यथा-तथा बर्ड़ाया करते हैं। जैसे सन्निपात-ज्वरयुक्त मनुष्य अण्ड-बण्ड बकता है, अविद्वानों के कहे वा लेख को वैसे ही व्यर्थ समझना चाहिये। 

[ईश्वर न रागी है, और न विरक्त]

प्रश्न―परमेश्वर रागी है, वा विरक्त?


उत्तर―दोनों में नहीं; क्योंकि 'राग' अपने से भिन्न उत्तम पदार्थों में होता है, सो परमेश्वर से कोई पदार्थ पृथक् वा उत्तम नहीं है; इसलिये उसमें 'राग' का सम्भव नहीं। और जो प्राप्त को छोड़ देवे, उसको 'विरक्त' कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी पदार्थ को छोड़ ही नहीं सकता, इसलिये 'विरक्त' भी नहीं। 

[ईश्वर में इच्छा का संभव नहीं]

प्रश्न―ईश्वर में इच्छा है, वा नहीं?

उत्तर―वैसी इच्छा नहीं [जैसी जीवों में होती है]; क्योंकि इच्छा भी अप्राप्त, उत्तम और जिसकी प्राप्ति से सुख-विशेष होवे, [उसकी होती है]। तो ईश्वर में इच्छा [कैसे] हो सके? न [उसे] कोई अप्राप्त पदार्थ [है], न कोई उससे उत्तम [है], और पूर्ण सुखयुक्त होने से सुख की अभिलाषा भी उसे नहीं [है]। इसलिये ईश्वर में 'इच्छा' का तो सम्भव नहीं, किन्तु 'ईक्षण' अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का करना कहाता है, वह 'ईक्षण' है। इत्यादि संक्षिप्त विषयों से ही सज्जन लोग बहुत विस्तरण कर लेंगे। 


अब संक्षेप से ईश्वर का विषय लिखकर वेद का विषय लिखते हैं— 

[वेद ईश्वर से प्रकाशित हुए]

यस्मा॒दृचो॑ अ॒पा॑तक्ष॒न् यजु॒र्यस्मा॑द॒पाक॑षन्। 

सामा॑नि॒ यस्य॒ लोमा॑न्यथर्वाङ्गि॒रसो॒ मुखं॑

स्क॒म्भं तं ब्रू॑हि कत॒मः स्वि॑दे॒व सः॥ 

अथर्व॰, कां॰ १०। प्रपा॰ २३। अनु॰ ४। मं॰ २० [कां० १०। सू० ७। मं० २०]॥ 


जिस परमात्मा से 'ऋग्वेद', 'यजुर्वेद', 'सामवेद' और 'अथर्ववेद' प्रकाशित हुए हैं, वह कौन-सा देव है? 


इसका उत्तर—जो सबको उत्पन्न करके धारण कर रहा है, वह परमात्मा है।

स्व॑य॒म्भूर्या॑थातथ्य॒तोऽर्था॒न् व्य॒दधाच्छाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः॥ 

यजुः, अ॰ ४०। मं॰ ८॥

 

जो स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार परमेश्वर है, वह सनातन जीवरूप प्रजा के कल्याणार्थ यथावत् रीतिपूर्वक वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करता है। 


प्रश्न―परमेश्वर को आप निराकार मानते हो वा साकार?


उत्तर―निराकार मानते हैं। 

[जीवों को अन्तर्यामीरूप से वेदोपदेश]

प्रश्न―जब निराकार है, तो 'वेदविद्या' का उपदेश विना मुख के [और] वर्णोच्चारण के, कैसे हो सका होगा, क्योंकि वर्णों के उच्चारण में तालु-आदि स्थान, जिह्वा का प्रयत्न अवश्य होना चाहिये? 


उत्तर―परमेश्वर को, सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक होने से, अपनी व्याप्ति से, जीवों को 'वेद विद्या' के उपदेश करने में कुछ भी मुख-आदि की अपेक्षा नहीं है; क्योंकि मुख-जिह्वा से उच्चारण दूसरे=भिन्न मनुष्य के लिये किया जाता है, अपने लिये कुछ भी नहीं। विना मुख जिह्वा के व्यापार करे मन में अनेक व्यवहारों का विचार और शब्दोच्चारण होता रहता है। कानों को अंगुलियों से मूंदके देखो, सुनो कि विना मुख-जिह्वा-तालु-आदि स्थानों के कैसे-कैसे शब्द हो रहे हैं! वैसे जीवों को अन्तर्यामी-रूप से उपदेश किया हैं। किन्तु केवल दूसरे को समझाने के लिये उच्चारण किया जाता है। जब परमेश्वर निराकार, सर्वव्यापक है, तो अपनी विद्या का उपदेश जीवस्थ स्वरूप से जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। फिर वह मनुष्य अपने मुख से उच्चारण करके दूसरे को सुनाता है, इसलिये ईश्वर में यह दोष नहीं आता। 

[किनके आत्मा में और कब वेदों का प्रकाश हुआ]

प्रश्न―किनके आत्मा में [और] कब वेदों का प्रकाश किया?


उत्तर―अग्नेर्ऋग्वेदो वायोर्यजुर्वेदः सूर्यात्सामवेदः॥ 

शत॰ [ब्रा० ११। ४। २। ३]॥ 


प्रथम अर्थात् सृष्टि के आदि में परमात्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा ऋषियों के आत्माओं में एक-एक वेद का प्रकाश किया। 

[चार ऋषियों से ब्रह्मा को वेद प्राप्त हुए]

प्रश्न―यो वै ब्रह्माणं विदधाति पूर्वं यो वै वेदांश्च प्रहिणोति तस्मै॥ 

यह उपनिषद् का वचन है [श्वेताश्वतर उप० ६। १८]॥


इस वचन से [ज्ञात होता है कि] ब्रह्मा जी के हृदय में वेदों का उपदेश किया है। फिर अग्नि-आदि ऋषियों के आत्माओं में क्यों कहा?


उत्तर―ब्रह्मा के आत्मा में अग्नि आदि के द्वारा स्थापित कराया। देखो, 'मनुस्मृति' में क्या लिखा है—

अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। 

दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्॥

मनु॰ [१। २३]॥ 


=जिस परमात्मा ने 'आदि-सृष्टि' में मनुष्यों को उत्पन्न करके अग्नि आदि चारों ऋर्षियों के द्वारा चारों वेद ब्रह्मा को प्राप्त कराये और उस ब्रह्मा ने अग्नि, वायु, आदित्य और अङ्गिरा से 'ऋग्', 'यजुः', 'साम' और 'अथर्ववेद' का ग्रहण किया। 


प्रश्न―उन चारों [के आत्माओं] में ही में वेदों का प्रकाश किया, अन्य में नहीं। इससे ईश्वर पक्षपाती होता है। 


उत्तर―वे ही चार सब जीवों से अधिक पवित्रात्मा थे। अन्य उनके सदृश नहीं थे। 


इसलिये 'पवित्र-विद्या' का उन्हीं [के आत्माओं] में प्रकाश किया। 

[वेदों का प्रकाश संस्कृत में ही क्यों]

प्रश्न―किसी देश-भाषा में वेदों का प्रकाश न करके संस्कृत में क्यों किया?


उत्तर―जो किसी देश-भाषा में प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती होता; क्योंकि जिस देश की भाषा में प्रकाश करता, उनको सुगमता और विदेशियों को कठिनता वेदों के पढ़ने-पढ़ाने में होती। इसलिये संस्कृत में ही प्रकाश किया, जो किसी देश की भाषा नहीं। और वेदों की भाषा अन्य सब देशभाषाओं का कारण है, उसी में वेदों का प्रकाश किया। जैसे ईश्वर की पृथिवी आदि सृष्टि सब देशों और देशवालों के लिये एक-सी और सब 'शिल्पविद्या' का कारण है, वैसे परमेश्वर की विद्या की भाषा भी एक-सी होनी चाहिये कि सब देशवालों को पढ़ने-पढ़ाने में तुल्य परिश्रम होने से ईश्वर पक्षपाती नहीं होता; और सब भाषाओं का कारण भी है। 

[वेदों के ईश्वर कर्तृत्व में प्रमाण]

प्रश्न―वेद ईश्वरकृत हैं, अन्यकृत नहीं। इसमें क्या प्रमाण [है]?


उत्तर―(१) जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावित्, शुद्ध-गुण-कर्म-स्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुणवाला है, जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के अनुकूल वैसा कथन हो, वह ईश्वरकृत [है], अन्य नहीं। 


(२) और जिसमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाणों, आप्तों के और पवित्रात्माओं के व्यवहार से विरुद्ध कथन न हो, वह ईश्वरोक्त पुस्तक [है]। 


(३) जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान है, जिस पुस्तक में वैसे भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो, वह ईश्वरोक्त [है]।


(४) जैसा परमेश्वर है और जैसा सृष्टिक्रम रक्खा है वैसा ही ईश्वर, सृष्टि, कार्य-कारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे, वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है।


(५) और जो प्रत्यक्षादि प्रमाण-विषयों से अविरुद्ध [हों और] शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हों, इस प्रकार के वेद ही हैं; अन्य बाइबल, कुरान आदि पुस्तकें नहीं। इसकी स्पष्ट व्याख्या बाइबल और कुरान के प्रकरण में [क्रमशः] तेरहवें और चौदहवें समुल्लास में की जायगी। 

[विना ईश्वरीय ज्ञान के स्वतः विद्वत्ता सम्भव नहीं]

प्रश्न―वेद की ईश्वर से [प्रकट] होने की आवश्यकता कुछ भी नहीं, क्योंकि मनुष्य लोग क्रमशः ज्ञान बढ़ाते जाकर पश्चात् पुस्तक भी बना लेंगे। 


उत्तर―कभी नहीं बना सकते; क्योंकि विना कारण के कार्योत्पत्ति का होना असम्भव है। जैसे, जंगली मनुष्य सृष्टि को देखकर भी विद्वान् नहीं होते और जब उनको कोई शिक्षक मिल जाये तो विद्वान् हो जाते हैं, और अब भी किसी से पढ़े विना कोई भी विद्वान् नहीं होता। इस प्रकार परमात्मा जो उन आदि-सृष्टि के ऋषियों को 'वेदविद्या' न पढ़ाता और वे अन्य को न पढ़ाते, तो सब लोग अविद्वान् ही रह जाते। जैसे, किसी के बालक को जन्म से एकान्त देश में, अविद्वानों वा पशुओं में रख देवे, तो वह जैसा संग है वैसा ही हो जायेगा। इसका दृष्टान्त जंगली भील आदि हैं।


जब तक आर्यावर्त से शिक्षा नहीं गई थी, तब तक मिश्र, यवन (=यूनान) और यूरोप-देश आदिस्थ मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी। और यूरोप के कोलम्बस आदि पुरुष अमेरिका में जब तक नहीं गये थे, तब तक वे भी सहस्रों, लाखों, करोड़ों वर्षों से मूर्ख अर्थात् विद्याहीन थे। अब पुनः शिक्षा पाने से विद्वान् हो गये हैं। वैसे ही परमात्मा से सृष्टि के आदि में विद्या-शिक्षा की प्राप्ति से उत्तरोत्तर काल में विद्वान् होते आये [हैं]। 


स एषः पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्॥

यह योगसूत्र है [समाधिपाद, सू० २६]॥ 

=जैसे वर्त्तमान समय में हम लोग अध्यापकों से पढ़के ही विद्वान् होते हैं, वैसे परमेश्वर सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए अग्नि आदि ऋषियों का गुरु अर्थात् पढ़ानेहारा है। क्योंकि जैसे जीव सुषुप्ति और प्रलय में ज्ञानरहित हो जाते हैं, वैसे परमेश्वर नहीं होता, उसका ज्ञान नित्य है। इसलिये यह निश्चित जानना चाहिये कि विना निमित्त से नैमित्तिक अर्थ सिद्ध कभी नहीं होता।

[अग्नि आदि को वेदार्थ किसने जनाया]

प्रश्न―वेद संस्कृत-भाषा में प्रकाशित हुए और वे अग्नि आदि ऋषि लोग उस संस्कृत-भाषा को नहीं जानते थे, फिर वेदों का अर्थ उन्होंने कैसे जाना?


उत्तर―परमेश्वर ने जनाया। और धर्मात्मा, योगी-महर्षि लोग जब-जब जिस-जिस के अर्थ की जानने की इच्छा करके ध्यानावस्थित हो परमेश्वर के स्वरूप में समाधिस्थ हुए, तब-तब परमात्मा ने अभीष्ट मन्त्रों के अर्थ जनाये। जब बहुतों के आत्माओं में वेदार्थप्रकाश हुआ, तब ऋषि-मुनियों ने उस अर्थ और ऋषि- मुनियों के इतिहास-पूर्वक ग्रन्थ बनाये; उनका नाम ब्राह्मण अर्थात् 'ब्रह्म' जो वेद है उसका व्याख्यानग्रन्थ होने से 'ब्राह्मण' नाम हुआ। और—


"ऋषणां मन्त्रदृष्टयः", "मन्त्रान्सम्प्रादुः।"

 निरुक्त [अ० ७। खं० ३ तथा अ० १। खं० २०]॥


जिस-जिस मन्त्रार्थ का दर्शन जिस-जिस ऋषि को हुआ, और जिसके पहले उस मन्त्र का अर्थ किसी ने प्रकाशित नहीं किया था, प्रथम ही जिसने किया, और दूसरों को पढ़ाया भी, इसलिये अद्यावधि उस-उस मन्त्र के साथ ऋषि का नाम स्मरणार्थ लिखा-लिखाया आता है। जो कोई ऋषियों को मन्त्रकर्त्ता बतलावें, उनको मिथ्यावादी समझें। वे तो मन्त्रों के अर्थप्रकाशक हैं।

[वेद संज्ञा-विचार]

प्रश्न―वेद किन ग्रन्थों का नाम है?


उत्तर―'ऋक्', 'यजुः', 'साम' और 'अथर्व' मन्त्रसंहिताओं का, अन्य का नहीं। 


प्रश्न―मन्त्रब्राह्मणयोर्वेदनामधेयम् 

[कात्यायनपरिशिष्ट प्रतिज्ञासूत्र १। १]

इत्यादि कात्यायन-आदि-कृत 'प्रतिज्ञासूत्र'-आदि का अर्थ क्या करोगे?


उत्तर―देखो, संहिता-पुस्तकों के आरम्भ [और] अध्याय की समाप्ति में 'वेद' यह शब्द सनातन से शब्द लिखा आता है और 'ब्राह्मण'-पुस्तकों के आरम्भ वा अध्याय की समाप्ति में कहीं नहीं लिखा। और 'निरुक्त' में—


इत्यपि निगमो भवति॥ [निरुक्त ५। ३,४]।


इति च ब्राह्मणम्॥ [निरुक्त ५। ४]।


छन्दोब्राह्मणानि च तद्विषयाणि॥ 

यह पाणिनीय सूत्र है [अष्टा० ४। २। ६५]

 

इससे भी स्पष्ट विदित होता है कि 'वेद' मन्त्रभाग और 'ब्राह्मण' व्याख्याभाग है। इसमें जो विशेष देखना चाहें तो मेरी बनाई ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये। वहां [वर्णित] अनेक प्रमाणों के विरुद्ध होने से यह कात्यायन का वचन माननीय नहीं हो सकता है; क्योंकि, जो मानें तो वेद सनातन कभी नहीं हो सकें। क्योंकि 'ब्राह्मण'-पुस्तकों में बहुत-से ऋषि-महर्षियों और राजा-आदि के इतिहास लिखे हैं; और इतिहास जिसका हो, उसके जन्म के पश्चात् लिखा जाता है, वह ग्रन्थ भी उनके जन्मे पश्चात् होता है। वेदों में किसी का इतिहास नहीं, किन्तु जिस-जिस शब्द से विशेष विद्या का बोध होवे, उस-उस शब्द का प्रयोग किया है; किसी विशेष मनुष्य की संज्ञा वा विशेष कथा का प्रसंग वेदों में नहीं। 

[वेदों की शाखा]

प्रश्न―वेदों की कितनी शाखायें हैं?


उत्तर―एक हजार एक सौ सत्ताईस। 


प्रश्न―शाखायें क्या कहाती हैं?


उत्तर―व्याख्यान को 'शाखा' कहते हैं।

[क्या शाखाएँ वेद का अवयव हैं?]

प्रश्न―संसार में विद्वान् लोग वेद के अवयवभूत-विभागों को शाखा मानते हैं?


उत्तर―तनिक-सा विचार करो तो ठीक, क्योंकि जितनी शाखायें हैं वे 'आश्वलायन' आदि ऋषियों के नाम से प्रसिद्ध हैं और मन्त्रसंहितायें परमेश्वर के नाम से प्रख्यात हैं। जैसे चारों वेदों को परमेश्वरकृत मानते हैं, वैसे 'आश्वलायन' आदि शाखाओं को उस-उस ऋषिकृत मानते हैं। और सब शाखाओं में मन्त्रों के प्रतीक धरके व्याख्या करते हैं। जैसे, 'तैत्तिरीय शाखा' में "इषे त्वोर्जे त्वा, इति" [यजु० १। १] इत्यादि प्रतीकें धरके व्याख्यान किया है और वेदसंहिताओं में किसी का प्रतीक नहीं धरा। इसलिये परमेश्वरकृत चारों वेद मूल वृक्ष और 'आश्वलायन-आदि' सब शाखायें ऋषि-मुनिकृत हैं, परमेश्वरकृत नहीं। जो इसकी विशेष व्याख्या देखना चाहे, वह ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लेवे। 


जैसे माता-पिता अपने सन्तानों पर कृपादृष्टि कर उन्नति चाहते हैं, वैसे ही परमात्मा ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों को प्रकाशित किया है, जिससे मनुष्य अविद्यान्धकार, भ्रमजाल से छूटकर विद्या-विज्ञान-रूप सूर्य को प्राप्त होकर अत्यानन्द में रहैं और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जायें। 

[वेद की नित्यता-अनित्यता पर विचार]

प्रश्न―वेद नित्य हैं, वा अनित्य?


उत्तर―नित्य हैं; क्योंकि परमेश्वर के नित्य होने से उसके ज्ञानादि गुण भी नित्य हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उनके गुण, कर्म, स्वभाव नित्य और अनित्य द्रव्य के अनित्य होते हैं। 


प्रश्न―क्या यह पुस्तक भी नित्य हैं?


उत्तर―नहीं; क्योंकि पुस्तक तो कागज और स्याही के बने हैं, वे नित्य कैसे हो सकते हैं? किन्तु जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध हैं, वे नित्य हैं।

[सर्वज्ञ ईश्वर के अतिरिक्त वेदों की रचना असम्भव]

प्रश्न―ईश्वर ने उन ऋषियों को ज्ञान दिया होगा और उस ज्ञान से उन लोगों ने वेद बना लिये होंगे?


उत्तर―ज्ञान ज्ञेय के विना नहीं होता। गायत्री-आदि छन्दों, षड्ज-आदि और उदात्त-अनुदात्त-आदि स्वरों के ज्ञानपूर्वक गायत्री-आदि छन्दों के निर्माण करना, विना सर्वज्ञ के किसी का सामर्थ्य नहीं है कि इस प्रकार के सर्वज्ञानयुक्त शास्त्र बना सकें। 


हाँ, वेदों को पढ़ने के पश्चात् 'व्याकरण', 'निरुक्त' और 'छन्द' आदि ग्रन्थ ऋषि-मुनियों ने विद्याओं के प्रकाश के लिये किये हैं। जो परमात्मा वेदों का प्रकाश न करे, तो कोई कुछ भी न बना सके। इसलिये वेद परमेश्वरोक्त हैं। इन्हीं के अनुसार सब लोगों को चलना चाहिये और जो कोई किसी से पूछे कि तुम्हारा मत क्या है, तो यही उत्तर देना कि हमारा मत 'वेद' है अर्थात् जो कुछ वेदों में कहा है, हम उस सबको मानते हैं। 


अब इसके आगे सृष्टि के विषय में लिखेंगे। यह संक्षेप से ईश्वर और वेद-विषय में व्याख्यान किया है॥ 


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे 

सुभाषाविभूषित ईश्वरवेदविषये

सप्तमः समुल्लासः सम्पूर्णः॥७॥

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