महर्षि दयानन्द चरित




महर्षि दयानन्द चरित


ओ३म्


महर्षि दयानन्द चरित


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती

आर्यमुनि वानप्रस्थ


प्रकाशक

हितकारी प्रकाशन समिति


हिण्डौन सिटी, (राज०) - ३२२ २३०


प्रकाशित प्रतियाँ : २०,०००

मूल्य : १६.०० रुपये


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प्रकाशकीय


ईश्वरीय गुणों का आधान अपने सामर्थ्यानुसार जीवन में करने से उत्तम कार्य कोई नहीं हो सकता। लोकदृष्टि से देखा जाये और किसी व्यक्ति को आदर्श मानकर अपना जीवन बनाना हो तो ऋषिराज दयानन्द का जीवन उपयुक्त पात्र होगा। आप कोई भी मानवीय कार्य करते हुए निराश हो जायें तो देव दयानन्द का चरित आपको निश्चितरूप से ऊर्जायुक्त कर देगा और कैसी भी विपरीत स्थिति में कार्यरत रहने की क्षमता प्रदान करेगा। यही नहीं कोई भी प्रलोभन या भय विचलित नहीं कर सकेगा। इस लघु आकार में हम इतना ही लिख सकते हैं मानव जीवन की सम्पूर्णता के लिये महर्षि दयानन्द का जीवन प्रकाशस्रोत है।


आशा है इस संक्षिप्त रूप में यह जीवन पाठकों को दिशायुक्त जीवन जीने के प्रेरणा देगा। हम हमारे अग्रज माननीय श्री आर्यमुनिजी का धन्यवाद करते हैं जिन्होंने स्वामी जगदीश्वरानन्दजी सरस्वती द्वारा लिखित ३२ पृष्ठीय जीवनी की मूल सामग्री को सुरक्षित रखते हुए विस्तार किया है।


-प्रभाकरदेव आर्य


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महर्षि दयानन्द चरित


(१) घर पर प्रारम्भिक वर्ष 


उन्नीसवी शताब्दी ब्रिटिश साम्राज्य का घोरतम अन्धकार मय युग था। उस समय भारत के भाग्य-आकाश पर अविद्या और अन्धकार की घनघोर घटाएँ छाई हुई थीं। भारतीय सभ्यता और संस्कृति मरणासन्न थी, क्योंकि उसे समाप्त करने के लिए लार्ड मैकाले प्रयत्न कर रहा था। "यदि तुम किसी देश अथवा जाति को समाप्त करना चाहते हो तो उसके इतिहास को समाप्त कर दो वह देश अथवा जाति स्वयं समाप्त हो जायेगी।" इस सिद्धान्त को समक्ष रख कर हमारे साहित्य की होली जलाई जा रही थी। सत्य सनातन वैदिक धर्म की अवस्था आटे के उस दीपक के समान हो गई थी, जिसे अन्दर रखे तो चूहे खा जाएँ और बाहर रखे तो कौआ ले जाये। विदेश चले गये तो धर्म भ्रष्ट, भंगी, चमार के खा लिया तो धर्म भ्रष्ट । मन्दिरों में पण्डे और पुजारियों की तूती बोलती थी। मन्दिरों में देवदासियाँ रखी जाती थीं और नाना प्रकार के पाप तथा पाखण्ड वहाँ होते थे। एक ओर ईसाई वैदिक धर्मी आर्यों को ईसा की भेड़ों में शामिल करने में लगे हुये थे तो दूसरी ओर मुसलमानों की बन आई थी, कहीं विधवाओं का चीत्कार हो रहा था तो कहीं अनाथ बालक बिलबिला


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रहे थे। बाल-विवाह और अनमेल-विवाह जोरों पर थे । स्त्री जाति की स्थिति बड़ी शोचनीय थी। उसे अनादृत, अपमानित और पददलित समझा जाता था। उसे पैर की जूती तक बताया जाता था। “स्त्री शूद्रौनाधीयताम''—स्त्री और शूद्रों को वेद पढ़ने का अधिकार नहीं है, यह कहकर उन्हें वेद पढ़ने के अधिकार से वञ्चित कर दिया था। "द्वारं किमेकं नरकस्य ? नारी" नरक का द्वार क्या है ? नारी-कहकर शंकराचार्य ने उसे नरक का द्वार बताया था। पति के मरने पर स्त्रियों को उनके साथ जीवित जला दिया जाता था। भ्रूण हत्याएँ होती थीं। बालिकाओं को पैदा होते ही भूमि में गाड़ दिया जाता था। शूद्रों की स्थिति बड़ी दयनीय थी। उनके सम्बन्ध में श्री शंकराचार्य, निम्बाकाचार्य, मध्वाचार्य आदि ने यह घोषणा कर दी थी कि यदि शूद्र वेद-मन्त्रों को सुन ले तो उसके कान में सीसा गर्म करके डाल देना चाहिये, यदि वह वेदमन्त्रों का उच्चारण करे तो जिह्वा काट देनी चाहिये और यदि वह वेदमन्त्रों को कण्ठस्थ कर ले तो उसके शरीर को विदीर्ण कर देना चाहिये । वेदों को लोग भूल चुके थे। उनका पठन-पाठन बन्द हो गया था। वेद का स्थान रामायण, गीता और भागवत ने ले लिया था। वेद के सम्बन्ध में यह घोषणा हो चुकी थी कि वेद को शंखासुर ले गया है। प्रतिदिन सूर्योदय से पूर्व सहस्रों गोओं के ऊपर आरा चला दिया जाता था। 


ऐसे घटाटोप अन्धकार में एक ऐसी दिव्य आत्मा की


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आवश्यकता थी जिसमें गोतम, कपिल, कणाद और कुमारिल भट्ट का पाण्डित्य हो, जिसमें हनुमान और भीष्मपितामह का ब्रह्मचर्य हो, जो शंकराचार्य-जैसा योगी हो, जिसमें भीमजैसा बल हो, जिसमें महात्मा बुद्ध जैसा अनुपम त्याग और वैराग्य हो, जिसमें मर्यादा पुरुषोत्तम राम का मर्यादा-पालन हो, जिसमें योगिराज कृष्ण और छत्रपति शिवाजी की नीतिमत्ता हो, जिसमें महाराणा प्रताप का प्रताप, ओज-तेज और शौर्य हो, जिसमें पतञ्जलि और व्यास की आध्यात्मिकता हो - इन सब गुणों से विभूषित होकर महर्षि दयानन्द भारतीय रंगमञ्च पर अवतरित हुये।


जन्म एवं वंश परिचय - स्वामीजी ने कहीं भी अपनी निश्चित जन्म तिथि, जन्म स्थान व माता-पिता के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं बताया है। 'थियोसोफिस्ट' नामक पत्रिका में छपे अपने जन्म चरित को लिखाते हुये स्वामीजी कहते हैं - “संवत् १८८१ के वर्ष में मेरा जन्म दक्षिण गुजरात प्रान्त, काठियावाड का मजोकठा देश, मोर्वी का राज्य, औदिच्य ब्राह्मण के घर में हुआ था।" पूना प्रवचन में स्वामीजी बताते हैं – “ धांगध्रा नाम का एक स्थान राज्य गुजरात में है। उसकी सीमा पर मोर्वी राज्य है, उसमें मेरा जन्म हुआ है मैं औदिच्य ब्राह्मण हूँ। इस समय मेरी आयु ४९-५० वर्ष की होगी।" 


स्वामीजी के जीवन चरित लिखनेवाले सभी विद्वानों का मत है कि स्वामीजी का जन्म स्थान मोर्वी राज्य के अन्तर्गत


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टङ्कारा नामक स्थान है।


माता-पिता का नाम - स्वामीजी के पिताजी का नाम करसनजी लालजी तिवाड़ी व माताजी का नाम अमृतबेन अथवा अमूबाई था। स्वामीजी के पिताजी एक धनाढ्य जमींदार थे जो लेन-देन का कार्य भी करते थे। ये राज्य की ओर से राजस्व अधिकारी के रूप में नियुक्त थे। कट्टर शैव ब्राह्मण थे। टङ्कारा के ही नहीं वरन् आसपास के समृद्धिशाली वैभव सम्पन्न भूमिपति तथा शासनाधिकार प्राप्त व्यक्ति थे । वे टङ्कारा के शासक के कामदार व समीपवर्ती ग्रामों की प्रजा की सुरक्षा व्यवस्था भी देखते थे। उन्हें घोड़े रखने का अधिकार प्राप्त था। उन्होंने टङ्कारा के बाहर एक शिव मन्दिर का निर्माण कराया था जहाँ वे जाकर शिव की पूजा अर्चना करते थे। इन्हें चमक-दमक एवं आडम्बर पसन्द था। बाहर जाते समय वे अपने साथ सदा ही सैनिक अगंरक्षक और सिपाही रखते थे।


स्वामीजी की माताजी अति सरल, दयावती व वैष्णव मत की अनुगामिनी थीं। पिता शैव, माता वैष्णव धर्म पर दृढ़ रहनेवाली, इस कारण उनमें कभी-कभी परस्पर विवाद एवं कलह हो जाता था, परन्तु उग्र नहीं। पिताजी संस्कृत, व्याकरण एवं वेद से अभिज्ञ थे। माताजी को हिन्दी भाषा का अच्छा व संस्कृत का साधारण ज्ञान था। उन्हें रामायण, महाभारत व पुराणों की कहानियों का भी अच्छा ज्ञान था जो उन्हें अपने पिताजी से प्राप्त हुआ था। स्वामीजी के नानाजी भुज के एक


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मन्दिर के पुजारी थे। स्वामीजी के माता-पिता दोनों सदाचारी थे तथा सदैव परिवार की रक्षा के लिए सावधान रहते थे। पिताजी के क्रोध आने पर माताजी क्षमा माँग लेती थीं तथा माताजी के क्रोध आने पर पिताजी शान्त भाव से सह जाते थे। उनमें कभी आपस में वैमनस्य का भाव नहीं आता था। 


विवाह के समय स्वामीजी के पिता की आयु २१ वर्ष व माताजी की १२ वर्ष थी। विवाह के १५ वर्ष बाद स्वामीजी का जन्म हुआ।


जन्म तिथि एवं नाम-वैदिक विद्वान् एवं अनुसन्धानकर्त्ता डॉ० ज्वलन्तकुमारजी शास्त्री की नवीनतम शोध के अनुसार (जिसे अन्य विद्वानों ने भी मान्यता प्रदान की है) स्वामीजी की जन्म तिथि फाल्गुण बदी दशमी सम्वत् १८८१ विक्रमी तदनुसार १२ फरवरी सन् १८२५ ई० है। इनका बचपन का नाम मूलशङ्कर था जो इनके पिताजी की रुचि के अनुसार रखा गया था। माताजी उन्हें दयाराम वा दयालजी कहकर पुकारती थी।


अन्य भाई-बहिन में मूलशङ्कर अपने माता-पिता की ज्येष्ठ सन्तान थे। स्वामीजी के जन्म के समय इनके पिता की आयु ३७ वर्ष एवं माताजी की आयु २६ वर्ष थी। दूसरी सन्तान लड़की थी जो मूलशङ्करजी से चार वर्ष छोटी थी । बहिन से पाँच वर्ष छोटा भाई फिर पाँच वर्ष छोटी बहिन और इस बहिन से तीन वर्ष छोटा भाई था। इस प्रकार स्वामीजी


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कुल तीन भाई दो बहिन थे। मूलशङ्कर ने गृह त्याग दिया था। इनसे छोटी बहिन इनकी उपस्थिति में ही १४ वर्ष की आयु में काल-कवलित हो गईं थी। अन्य दोनों भाई भी असमय में काल कवलित हो गये थे। बची एक छोटी बहिन प्रेमा बाई, इन्हीं को स्वामीजी के पिताजी ने अपनी सम्पत्ति का उत्तराधिकारी बनाया था। इनका प्रपौत्र प्रभाशंकर रावल उर्फ पोपट रावल कर्षनजी तिवारी के घर में निवास करता था।


परिवार की प्रचलित परम्परा के अनुसार पिता ने बालक मूलशङ्कर के जातकर्म आदि सभी संस्कार विधि पूर्वक सम्पन्न कराये। माता-पिता के प्यार दुलार एवं देख-रेख में बालक शुक्ल पक्ष के चन्द्रमा की भाँति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा। आठवें वर्ष में बालक मूलशङ्कर का यज्ञोपवीत विधिविधान से समारोह पूर्वक कराया गया। उन्हें गायत्री और सन्ध्या की उपासना विधि सिखाई गई, साथ ही साथ यजुर्वेद संहिता कण्ठस्थ करानी भी आरम्भ हुई।


श्री कर्षणजी पक्के शैव थे। वे अपने पुत्र को भी कट्टर शिवोपासक बनाना चाहते थे। जब मूलशङ्कर चौदह वर्ष के हुये तब पिताजी ने उन्हें शिवरात्रि-व्रत रखने का आदेश दिया। शिव-पूजा के नियम विधि व्यवस्था की शिक्षा भी देते रहे। शिव-पूजा के भिन्न-भिन्न व्रत, उपवास आदि भी कराना प्रारम्भ करा दिया था। माताजी पार्थिव पूजन, उपवास आदि


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को मना करती थी तब भी इनके पिताजी इनसे शिव-पूजन अवश्य कराते थे।


शिवरात्रि का व्रत- यह व्रत स्वामी दयानन्द के जीवन की बड़ी महत्त्वपूर्ण घटना है। इससे उनका जीवन ही बदल गया। आर्य जगत् में यह रात्रि बोधरात्रि के नाम से प्रसिद्ध है।


जब शिवरात्रि आयी तो मूलशङ्कर के पिताजी ने इन्हें कथा का महात्म्य बताया और इन्हें व्रत रखने के लिये कहा। माताजी ने मना किया कि अभी यह बच्चा है, इससे न तो भूखा रहा जायेगा और न रात्रि को जाग पायेगा तथा पिताजी ने व्रत करा दिया ।


पिताजी बालक को नगर से बाहर एक विशाल शिवालय में ले गये। सम्पूर्ण शिवालय 'टन-टन' 'हर-हर' और 'बमबम महादेव' से निनादित हो रहा था । दीपों से सर्वत्र प्रकाश व्याप्त हो रहा था। धूप की सुगन्धि सारे वायुमण्डल को सुरभित कर रही थी। प्रथम प्रहर की पूजा बड़े भाव और भक्ति से सम्पन्न हुई। दूसरे प्रहर की पूजा भी यथा तथा की गई, परन्तु तीसरे प्रहर के आरम्भ होने पर लोगों की आँखें मिचने लगीं। निद्रा-देवी ने सब को मूर्च्छित कर इधर-उधर सुला दिया सबसे पहले सोनेवाले व्यक्ति थे मूलशङ्कर के पिताजी। जब पुजारी लोगों ने देखा कि सारे भक्त सो गये हैं तब वे भी मन्दिर के बाहरी भाग में जा निद्रा देवी की गोद में सो गये ।


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चारों ओर निस्तब्धता और नीरवता थी । इस नीरवता में केवल मूलशङ्कर ही जाग रहे थे। "यो जा॒गार॒ तम॒यं सोम॑ आह॒ तवा॒हम॑स्मि स॒ख्ये न्यो॑काः ।" (ऋ० ५/४४।१४) जो जागता है परमात्मा उसी से मित्रता करता है। जब मूलशङ्कर को निद्रा आती थी तब वे अपनी आँखों पर पानी के छींटे देकर अपने आपको सावधान और सचेत करते थे। थोड़ी ही देर में वे क्या देखते हैं कि कुछ मूषक बिलों में से निकलकर शिव की पिण्डी पर चढ़कर उछल-कूद मचाने और दण्ड पेलने लगे। वे पिण्डी पर चढ़े नैवैद्य को आनन्द से खाने लगे और अपने मल-मूत्र से उस पिण्डी को अपवित्र करने लगे। इस दृश्य को देख कर मूलशङ्कर के मन में उथल-पुथल मच गई। उन्होंने तो सुन रखा था कि शिव त्रिशूलधारी है, वह शत्रु संहारी है, वह त्रिपुरारि है, परन्तु यह कैसा शिव है जो क्षुद्र चूहों से भी अपनी रक्षा नहीं कर सकता? उन्होंने अपने पिताजी को जगाकर अपनी शंका का समाधान कराना चाहा, परन्तु उन्हें डाँट-फटकार के अतिरिक्त कोई सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला।


पिता से प्रश्न करने पर मूलशङ्कर को कोई सन्तोष नहीं हुआ। उनके पिताजी ने बताया कि तेरी बुद्धि अत्यन्त भ्रष्ट है यह केवल शिव की मूर्ति है। कलिकाल में शिव के दर्शन संभव नहीं है। वह तो कैलाश पर रहते हैं और बहुत पूजाअर्चना के बाद ही प्रसन्न होकर यदा-कदा दर्शन देते हैं।


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मूलशङ्कर ने तब ही निश्चय किया कि जब उस त्रिशूलधारी को प्रत्यक्ष देखूँगा तभी उसकी पूजा-अर्चना करूँगा, अन्यथा नहीं। ऐसा निश्चय करके बालक मूलशङ्कर मन्दिर से घर चला आया और माता से भोजन माँगकर खाया । यह बालक मूलशङ्कर का पहला बोध था जिससे इसके मन से पार्थिव पूजा के अंकुर नष्ट हो गये। इस घटना से मूलशङ्कर की आस्था मूर्त्ति पूजा से हट गई। उन्होंने जीवन भर फिर कभी भी मूर्ति पूजा नहीं की। बड़े-से-बड़ा प्रलोभन भय और आपत्ति भी उनका सिर मूर्ति के समक्ष न झुका सकी।


प्रात:काल जब पिताजी घर आये और उन्हें मेरे उपवास तोड़ने का पता लगा तो वे बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने मुझे भयंकर पाप का अपराधी बताया और मुझे बहुत भला-बुरा कहा, परन्तु वे मुझे यह विश्वास दिलाने में सफल नहीं हुए कि मन्दिर का देवता और कैलाश का स्वामी महादेव एक ही है। मैंने भी सोच लिया कि मैं मन्दिर के देवता के लिए कभी उपवास नहीं करूंगा। मैंने पिताजी से बहाना बनाया कि उपवास और पूजा करने से मेरी पढ़ाई में बहुत बाधा होगी। 


शिक्षा-स्वामीजी की शिक्षा उनके प्रारम्भिक काल से ही बड़ी गम्भीरता से चली। स्वामीजी के हृदय में अध्ययन की तीव्र लालसा तो थी ही। उधर उनकी माताजी एवं चाचा


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ने भी पिता को समझाया कि बालक को अभी अध्ययन करना चाहिये। इस अवस्था में मूलशङ्कर ने निघण्टु निरुक्त और पूर्व मीमांसा आदि शास्त्रों को पढ़ने की इच्छा की। उन्होंने कुछ कर्मकाण्ड विषयक ग्रन्थ भी पढ़े। उनके अध्ययन के लिए एक पण्डित की नियुक्ति की गई जो उन्हें घर पर ही पढ़ाया करते थे यह अध्ययन १८ वर्ष की आयु तक चला अपने माता-पिता का वर्णन करते हुये स्वामीजी बताते हैं कि पिता तेजस्वी थे पर कोमल हृदयवाले भी थे। माताजी सीधी-सादी सरल स्वभाव की नारी थी। वे बड़ी मीठी भाषा बोलती थी। उन्होंने सब बहन-भाइयों को भोजन बनाना भी सिखा दिया था। पिताजी ने हम सब भाइयों को दण्ड-बैठक एवं कुश्ती करना सिखाया था ।


उस समय की अपनी दिनचर्या का विवरण देते हुये स्वामीजी बताते हैं कि हम सब बहिन भाई ब्रह्ममुहुर्त्त में उठ जाते थे। नित्यकर्मों से निवृत होकर ईश्वर की स्तुति, प्रार्थना, उपासना करते थे। समय पर भोजन करते थे और स्वाध्याय भी प्रतिदिन नियमितरूप से करते थे रात्रि को जागरण न करना, असतसंग कलह, विवाद का निषेध था । देव द्विज, अतिथि गुरुजनों के प्रति विनम्र भाव रखना, उन्हें प्रणाम करना, रोगी की सेवा सुश्रुषा करना और घर के कार्य अपने हाथों से करना आदि बातों का अभ्यास बाल्यकाल से ही करा


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दिया गया था। बचपन से ही हर प्रकार के नशीले पदार्थों को सेवन का निषेध था। पिताजी अनुशासन प्रिय थे। उन्हें किसी भी प्रकार की अनुशासनहीनता सहन नहीं थी। इस प्रकार स्वामीजी का बचपन एक संस्कारवान् परिवार में बीता। 


बहिन की मृत्यु - मूलशङ्कर अपने पिता की ज्येष्ठ सन्तान थे। दो छोटे भाई एवं दो छोटी बहिन ये सब मिलाकर पाँच भाई-बहिन थे। भाई-बहिनों में परस्पर अत्यन्त स्नेह था। जिस समय मूलशङ्करजी १८वें वर्ष में थे उस समय इनके परिवार में एक दुर्घटना घटी। एक रात वे अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ किसी इष्ट-मित्र के यहाँ एक नृत्योत्सव में गये हुये थे। थोड़ी देर के बाद इनके घर से एक भृत्य आया और आकर उसने सूचना दी कि स्वामीजी से एक दम छोटी-जो उनसे ४ वर्ष छोटी थी और उसकी आयु १४ वर्ष थी-बहिन को विशूचिका (हैजा Cholara) हो गया है। यह समाचार सभी परिवारवालों के लिये एक वज्रपात था। सभी व्यक्ति तुरन्त घर पहुँचे, वैद्यजी बुलाये गये पर्याप्त औषधि एवं उपचार के बाद भी वह बहिन बचाई नहीं जा सकी और चार घण्टे में ही परलोक सिधार गई। घर में बड़ा रोना-पीटना मचा। मूलशङ्कर का यह पहला अवसर था जब उन्होंने किसी की मृत्यु का दृश्य देखा था। भाई बहिनों की स्नेह सरिता सूख गई। इस दुःखद घटना से सारा परिवार दुःखी था सबके नेत्रों से गङ्गा-यमुना की अविरल धाराएँ बह रही थी। उस समय


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मूलशङ्कर दीवार से लगे हुये अश्रुविहीन नेत्रों से अपनी भगिनी के शव को देख रहे थे। उनके शास्त्रीय अध्ययन का यह परिणाम हुआ था कि मानव जीवन की क्षणभङ्गुरता, संसार की नश्वरता और मृत्यु की शाश्वत विभिषिका मूलशङ्कर के सामने यकायक उपस्थित हो गई। इस घटना के सम्बन्ध में महर्षि अपने आत्म कथा में बताते हैं-


"उस भगिनी के वियोग का शोक मेरे जीवन का प्रथम शोक था। उस शोक से मेरा हृदय विलक्षण-रूप से व्यथित हुआ। जिस समय मेरे आत्मीय और स्वजन उस भगिनी के लिये चारों ओर रोदन और विलाप करते थे उस समय मैं पाषाण-निर्मित मूर्ति के समान अविचल भाव से खड़ा हुआ यह सोच रहा था कि क्या इस संसार में सब मनुष्यों को ही मृत्यु के मुख में जाना होगा ? इसी प्रकार मुझे भी एक दिन मृत्यु का ग्रास बनना होगा ? फलतः मैंने उस समय यह सोचा कि किस जगह जाने से मृत्यु की यन्त्रणा से बच सकूँगा और मुक्ति के पथ के दर्शन कर सकूँगा। मैंने उसी स्थान पर खड़ेखड़े यह संकल्प कर लिया कि जिस प्रकार से हो सकेगा उसी प्रकार से मैं मुक्ति-पथ के दर्शन से अवर्णनीय मृत्यु क्लेश से अपनी रक्षा कर सकूँगा।"


ऐसे ही विचार शाक्य कुल में उत्पन्न सिदार्थ के मन भी आये थे। उन्होंने भी एक रोगी तथा एक जीर्ण व्यक्ति को देखा था। एक मृतक को देखकर उनके मन में मृत्यु को जीतने का


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भाव उठा और राजसी ठाठ-बाट छोड़कर वैराग्य भाव धारण करने का मन बना ।


सामान्य व्यक्ति रोज ही रोगी को, शोक ग्रस्त को, जीर्णशीर्ण व्यक्ति एवं मृतक को देखते हैं पर उनके मन में कोई विशेष विचार उत्पन्न नहीं होते। इसके विपरीत ये घटनाएँ एक मनस्वी दार्शनिक व्यक्ति के जीवन को मोड़ देने में सहायक होती है। मूलशङ्कर के पिता ने इन्हें रोता न देख कर पाषाणहृदय कहा। पर एक दिन जब बहिन का पिण्डदान कर दिया और यह बताया कि अब बहिन तुमसे कभी नहीं मिलेगी तो मूलशङ्कर खूब रोये और कई दिन तक रह-रहकर रोते रहे ।


चाचा की मृत्यु-बहिन की मृत्यु के ठीक एक वर्ष बाद इनके चाचा की मृत्यु हो गई। ये चाचा बड़े धार्मिक प्रकृति के एक विद्वान् व्यक्ति थे और मूलशङ्कर को बड़ा प्यार करते थे। इनकी मृत्यु से मूलशङ्कर के हृदय में अत्यन्त ठेस पहुँची। जहाँ बहिन की मृत्यु पर एक भी आँसू नहीं निकला था वहाँ चाचा की मृत्यु पर वे इतना रोये कि उनकी आँखें सूज गई।


यह मूलशङ्कर का मृत्यु के सम्बन्ध में बोध था जब उन्हें संसार की नश्वरता के सम्बन्ध में सोचने का अवसर मिला। उन्होंने देखा कि यह सारा संसार असार हैं यहाँ स्थायी कुछ भी नहीं। प्रतिदिन सहस्रों प्राणी मृत्यु मुख में जा रहे हैं और अन्त में मेरी भी यही दशा होगी। उन्होंने इष्ट-मित्रों से प्रभुदर्शन, मोक्ष प्राप्ति और मृत्युञ्जय बनने का उपाय पूछा।


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पण्डितों ने इसका उपाय योगाभ्यास बताया। तब से इनके मन में योग विद्या और योगियों के प्रति आकर्षण हुआ। मूलशङ्कर ने सोचा-घरबार के काम काज और मोह जाल में योगासिद्धि नहीं हो सकती अतः घर त्याग कर कहीं चलना चाहिये उन्होंने ये विचार अपने मित्रों के समक्ष प्रकट कर दिये। इष्टमित्रों से यह बात उनके माता-पिता तक पहुँच गई।


मूलशङ्कर के वैराग्य-पूर्ण विचारों को सुनकर उनके पिताजी बड़े चिन्तित हुये और इनकी माताजी को चेताया कि इस पर कड़ी नजर रखो। उस समय मूलशङ्कर की आयु लगभग २० वर्ष थी। ये अपनी शंका समाधान के लिए इधरउधर घूमने लगे। भीड़-भाड़ से अलग रहते और जंगल में इनका मन ज्यादा लगता।


विवाह का प्रस्ताव-इनके वैराग्यपूर्ण विचारों को सुनकर माता-पिता ने उन्हें विवाह बन्धन में बाँधने का प्रयत्न किया। मूलशङ्कर की माताजी ने सोचा कि यदि इसका विवाह कर दिया जाये तो यह गृहस्थी के कार्यों में लग जायेगा। परन्तु मूलशङ्कर तो किसी और ही मिट्टी के बने हुये थे। वे सामान्य गृहस्थी की तरह जीवन यापन करना बिल्कुल नहीं चाहते थे। अतः इन्होंने अपने कुछ इष्ट-मित्रों के माध्यम से अपने पिताजी को विवाह न करने के लिए कहा और काशी जाकर आगे पढ़ने की इच्छा व्यक्त की।


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इनके पिताजी किसी भी दशा में इन्हें काशी भेजने को तैयार नहीं हुये और कहा कि हम काशी तो नहीं भेजेंगे जो कुछ पढ़ना हो यहीं पढ़ो। मूलशङ्कर ने कहा कि मेरे एक वर्ष काशी पढ़ने के बाद आप विवाह कर देना, अभी मुझे काशी भेज दें। इस प्रस्ताव का माताजी ने भी विरोध किया और कहा कि हम अभी विवाह करेंगे। माता-पिता चाहते थे कि मूलशङ्कर जमींदारी का काम-काज देखें ।


अब मूलशङ्कर ने यह समझ लिया कि मेरे माता-पिता मुझे किसी भी दशा में काशी नहीं भेजेंगे, तब उन्होंने उनके सामने एक प्रस्ताव रखा। उनके ग्राम से लगभग तीन कोश दूर एक अन्य ग्राम में भी उनकी जमींदारी थी । वहाँ एक अच्छा पण्डित था, उन्होंने उस पण्डित के पास पढ़ने की आज्ञा चाही। पिताजी ने सोच-विचार कर स्वीकृति दे दी। उनसे मूलशङ्कर वेदान्त पढ़ने लगे। जन्म-मृत्यु, सुख-दुःख, पाप-पुण्य, बन्धन-मुक्ति, वासना-कामना, आसक्ति-अनासक्ति आदि विषयों की आलोचना-प्रत्यालोचना होनी लगी। इसी बीच मूलशङ्कर ने पण्डितजी से कहा कि-"मैं कदापिकदापि विवाह नहीं करूँगा" इस बात की सूचना पण्डितजी ने इनके पिता को दे दी। पिताजी ने मूलशङ्कर को घर बुला लिया और इनके विवाह की तैयारी प्रारम्भ कर दी। 


इनके पिताजी को जब इनके इस निश्चय का पता चला कि मूलशङ्कर किसी भी दशा में विवाह नहीं करना चाहता


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है तो वे बहुत दुःखी हुये। उन्होंने कहा कि तू इतना कठोर हृदय कैसे हो गया कि घर-बार छोड़कर संन्यासी बनना चाहता है। हमारे लिये यह असहनीय है, हम तुम्हारे बिना जिन्दा नहीं रहेंगे, विशेषकर तेरी माताजी। माता-पिता के बार-बार आग्रह करने, रोने-धोने का मूलशङ्कर पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा।


पिताजी ने मूलशङ्कर की रक्षा के लिए रक्षक नियुक्त किये। संसार धर्म के विषय में बहुत सारे उपदेश सुनाये पर मूलशङ्कर नहीं पिघले। माता-पिता ने विवाह के लिए एक लड़की देखी थी उसे एवं उसके माता-पिता को भी बुला लिया। उन्होंने बहुत सारे आभूषण मूलशङ्कर को दिये पर उन्होंने वे सब आभूषण विनम्रतापूर्वक लौटा दिये। कन्या और उसके माता-पिता को नमस्कार करके मूलशङ्कर ने उन लोगों से कहा कि आप लोग मेरे जीवन की व्रत-साधना में बाधक न बनें मुझे आशीर्वाद दें।


इस प्रकार संवत् १९०३ में अपनी आयु के २२वें वर्ष में मूलशङ्कर एक सन्ध्या को घर छोड़कर चले गये। 


(२) गृह-त्याग


२१ वर्ष की अवस्था में उठते हुए यौवन और भरी जवानी में विवाह-सम्बन्धी सारे ठाठ-बाट व साज-सामग्री को, माता-पिता के प्यार-दुलार को, इष्ट-मित्रों के स्नेह को


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तिलाञ्जलि देकर और यह कहते हुए, फिर लौटकर घर नहीं आऊँगा-घर से निकल पड़े चेतन परमात्मा के स्थान पर मूर्ति पूजा का पाखण्ड देखकर सच्चे शिव की तलाश, मृत्यु से बचकर अमरत्व प्राप्त करने, योगाभ्यास करने तथा योग की उच्चतर स्थितियों को प्राप्त करने के लिये मूलशङ्कर ने अपने जीवन के २२वें वर्ष में गृह-त्याग कर दिया। लगभग २६०० वर्ष पूर्व कपिलवस्तु के राजकुमार सिद्धार्थ ने भी अपनी युवती पत्नी यशोधरा, दूधमुँहे बच्चे राहुल को छोड़कर दुःखों से निवृति पाने के लिये राज-प्रासाद का त्याग किया था। गोस्वामी तुलसीदास भी पत्नी द्वारा तिरस्कृत होकर गृह-त्यागी बने थे। समर्थ गुरु रामदास विवाह वेदी पर बैठे थे। पण्डित द्वारा सावधान" शब्द सुनकर उन्होंने गृहस्थ के दायित्वों से मुक्त होने की कामना से प्रभावित होकर वैराग्य धारण किया था ।


एक दिन मूलशङ्कर सन्ध्या के समय शौच के बहाने घर से निकल पड़े। सम्भवतया मूलशङ्कर ने सितम्बर १८४६ ई० में घर घोड़ा। माता-पिता ने मूलशङ्कर को खोजने के लिये भागीरथ प्रयत्न किया, किन्तु मानसरोवर की यात्रा के लिये पिंजड़ा तोड़कर निकले हुये राजहंस का कोई भी पता नहीं चला।


रात्रि में लगभग चार कोस चलकर एक ग्राम में पहुँचे और वहाँ हनुमान मन्दिर में रात्रि निवास किया। दूसरे दिन


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प्रहर रात्रि में उठकर १५ कोस चले। यह दूरी मूलशङ्कर ने प्रसिद्ध ग्राम, सड़के छोड़कर ऐसे मार्गों से चलकर तय की थी, कि जहाँ किसी परिचित के मिलने की सम्भावना न हो। इसका इन्हें लाभ भी मिला, क्योंकि तीसरे दिन किसी ने इन्हें बताया कि उसने सुना है अमुक का लड़का घर छोड़कर चला गया, उसे ढूँढने राजपुरुष आये थे।


घर छोड़ते समय मूलशङ्कर के दोनों हाथों की चार अंगुलियों में चार सोने की अंगूठी थी, शरीर पर एक ही वस्त्र था। कानों व हाथों में दो-दो अमूल्य आभूषण थे। कपड़े में १०० रुपये बँधे थे। मार्ग में इन्हें कुछ ठग मिले और यह जानकर कि मूलशङ्कर वैराग्य की सिद्धि के लिए घर से निकले हैं, इनसे कहा कि इन मूल्यवान वस्तुओं के रहते कैसे वैराग्य साधना होगी? इनका त्याग कर दो ऐसा कहकर अंगूठी ले ली। मूलशङ्कर को जो भी कोई मिलता ये उससे एक ही प्रश्न करते थे-"योग विद्या सीखने के लिये योगी कहाँ मिलते हैं?"


तीसरे दिन इन्हें मार्ग में कुछ राजकर्मचारियों ने घेर लिया और इनकी तलाशी भी ली। किसी व्यक्ति के यह कहने पर कि यह अवधूत साधु है, किसी मठ, मन्दिर या आश्रम में नहीं रहता, स्वच्छन्द घूमता है, इन्हें छोड़ दिया। इनके कानों और हाथों के आभूषणों पर भी ध्यान नहीं दिया। उन्होंने इतना


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अवश्य बताया कि एक नवयुवक घर से भाग गया है उसे ढूँढ़ने में कई अश्वारोही लगे हैं। यह सुनकर मूलशङ्कर एक श्मशान में गये और कुछ भस्म शरीर पर लगाई। थोड़ी देर बाद एक ब्राह्मण भिक्षुकों का झुण्ड मिला और इनके सब आभूषण एवं रुपये इनसे ले लिये ।


मूलशङ्कर यह जानकर कि साथ के शहर सायला में लाला बाबू भगत नाम का एक व्यक्ति रहता है परन्तु वहाँ जाने पर भी उनकी संतुष्टि नहीं हुई। वहाँ कोई योग्य योगी नहीं मिला।


ब्रह्मचर्य धारण–पर्यटन करते हुये मूलशङ्कर की भेंट एक ब्रह्मचारी से हुई। उन्होंने मूलशङ्कर को कहा कि तुम ब्रह्मचारी हो जाओ। मूलशङ्कर ने उसकी बात मान ली। उसने मूलशङ्कर को नैष्ठिक ब्रह्मचर्य की दीक्षा देकर काषाय वस्त्र धारण कराये और उनका नाम "शुद्धचैतन्य" रख दिया।


घर का दिया नाम-निशानी, वस्त्र आदि सब छोड़कर मूलशङ्कर ने बाह्य बन्धनों को तोड़ दिया। वे अपना परिचय "दक्षिण-मठ का एक ब्रह्मचारी" कहकर देते थे। अब अपने को योग विद्या का अधिकारी मानकर अच्छे गुरु की तलाश में रहने लगे।


यहाँ से चलकर शुद्धचैतन्य अहमदाबाद के पास कोठ काँगड़ा जोकि एक छोटा-सा गाँव है-में पहुँचे। यहाँ भी कोई योगी नहीं मिला। यहाँ उन्हें पता चला कि कार्तिक मास में


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सिद्धपुर में मेला लगता है। सिद्धपुर के मेले की चर्चा सुनकर शुद्ध चैतन्यजी भी सिद्धपुर की ओर चल पड़े कि शायद वहाँ किसी योगी से भेंट होकर मनोकामना पूर्ण हो जाये।


मार्ग में उनकी भेंट उनके ग्राम के ही एक परिचित व्यक्ति से हुई। उसने पूछा कहाँ से आर रहे हो कहाँ जा रहे हो ? मूलशङ्कर जो अब शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी हो गये थे, ने उसे अथ से इति तक गृहत्याग की सम्पूर्ण कहानी कह सुनाई और यह भी बताया कि अब मैं सिद्धपुर के मेले में जा रहा हूँ। उस गाँव के वैरागी ने मूलशङ्कर को यह भी बताया कि तुम्हारे वियोग में तुम्हारी माताजी का देहान्त हो गया है । मूलशङ्कर ने इस बात पर विश्वास नहीं किया और उससे कहा कि तुम मेरी योग विद्या सीखने में क्यों बाधक बनते हो? 


सिद्धपुर में— अक्तूबर १८४६ ई० में शुद्ध चैतन्य ब्रह्मचारी कोठ काँगड़ा से चलकर सिद्धपुर पहुँचे और एक नीलकण्ठ महादेव के मन्दिर में डेरा लगाया। वहाँ साधु महात्माओं एवं पण्डितों के सत्संग का लाभ उठाते रहे ।


उधर गाँव के वैरागी ने मूलशङ्कर के पिताजी को पत्र द्वारा सूचित कर दिया कि तुम्हारा पुत्र कार्तिक के मेले में सिद्धपुर नामक स्थान पर मिलेगा।


यह समाचार पाते ही पिताजी सिद्धपुर पहुँचे और अपने पुत्र को ढूँढने लगे। एक दिन वे सहसा उस शिवालय में जा पहुँचे जहाँ उनका पुत्र काषाय वस्त्र धारण करके बैठा था पुत्र


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को इस स्थिति में देखकर उनका पारा गर्म हो गया। आँखें लाल हो गई। वे गर्जकर बोले-“तूने सदैव के लिये हमारे कुल को कलंकित कर दिया है।" उन्होंने और भी बहुत कुछ कहा। तू मातृ हत्यारा है आदि आदि । पिता की डाँट-फटकार से त्राण पाने के लिये उन्होंने पिताजी के चरण पकड़ लिये और कहा–“मैंने धूर्तों के बहकाने से ऐसा किया है। मैं अपने इस कर्म का पर्याप्त फल भोग चुका हूँ। आप शान्त हूजिये और मेरे अपराधों को क्षमा कीजिये। मैं आपके साथ चलने को तैयार हूँ।" यह सुनकर भी पिताजी की क्रोधाग्नि शान्त नहीं हुई। उन्होंने कमण्डलु तोड़ दिया वस्त्र फाड़ दिये नये वस्त्र पहनाए और सिपाहियों के पहरे में लेकर घर की ओर चल दिये। ब्रह्मचारीजी तो सच्चे शिव के दर्शन करना और मृत्युञ्जय बनना चाहते थे अतः वे पिताजी के चंगुल से निकल भागने के दाँव-पेंच लगाते रहे और साथ ही पिताजी को आश्वासन भी देते रहे कि मैं घर पर अवश्य चलूँगा। इतने पर भी उन्हें एक क्षण के लिये भी अकेला नहीं छोड़ा और रात्रि में भी पहरे में रखा गया। मूलशङ्कर घर की ओर चल तो रहे थे परन्तु मन में किसी न किसी प्रकार छूट कर भागने की योजना बना रहे थे। अन्ततः तीसरी रात्रि को ब्रह्मचारी को भाग निकलने का अवसर प्राप्त हो गया। पहरेदार गाढ-निद्रा से अभिभूत हो गये और वे एक लोटा हाथ में ले


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निकल भागे, और इस बार ऐसे गये कि फिर कभी पिताजी के हाथ नहीं आये। लगभग आधा कोस दूरी पर एक मन्दिर के शिखर पर पेड़ की ओट में चढ़ बैठे। यहाँ सिपाही उन्हें ढूँढते आये भी थे परन्तु इन्हें देख नहीं पाये। उन्होंने वहाँ मालियों आदि से पूछताछ भी की पर सब व्यर्थ । दिन भर यहाँ छुपे रहने के बाद पुनः रात्रि होने पर ऊपर से उतर कर सड़क छोड़कर चलते रहे और पूछते-पूछते लगभग दो कोस की दूरी पर एक ग्राम में ठहरे।


स्वामीजी ने अपने जन्म चरित्र में बताया है कि यह उनके पिताजी से उनकी अन्तिम भेंट थी। एक बार प्रयाग में अवश्य उनके ग्राम के कुछ व्यक्ति उनसे मिले थे। स्वामीजी ने उन्हें पहिचान लिया था, परन्तु उन्हें अपना परिचय नहीं दिया था। पिताजी से अन्तिम बार भेंट कर ब्रह्मचारी इधर उधर पर्यटन करते हुये विद्या-प्राप्ति और योगाभ्यास करते रहे। स्वामीजी यहाँ से अहमदाबाद गये। अहमदाबाद से स्वामीजी बड़ौदा गये।


बड़ौदा में - बड़ौदा पहुँचकर स्वामीजी चेतन मठ में ब्रह्मनन्द आदि ब्रह्मचारी एवं अन्य संन्यासियों से मिले। वहीं इन्हें ज्ञात हुआ कि आजकल चाणोद-कर्नाली में बहुत से साधु-संन्यासी रहते हैं उनका समागम तुम्हारे लिये लाभप्रद हो सकता है यह जानकर शुद्ध चैतन्य चाणोद-कर्नाली के लिये


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चल पड़े।


चाणोद-कर्नाली में-शुद्ध चैतन्य सन् १८४७ ई० के प्रारम्भ में चाणोद-कर्नाली पहुँचे। यहाँ रहकर उन्होंने चिदाश्रमादि अनेक ब्रह्मचारियों व पण्डितों से अनेक विषयों पर परस्पर चर्चा की। यहाँ शंकर द्वारा प्रतिपादित वेदान्त के प्रति स्वामीजी की निष्ठा बढ़ी। यहीं स्वामीजी के मन में संन्यास लेने की लालसा उत्पन्न हुई। इसका हेतु बताते हुये स्वामीजी ने अपने आत्मचरित में यह बताया है -"उस समय ब्रह्मचर्यावस्था में अपने हाथ से भोजन बनाना पड़ता था। इस कारण पढ़ने में विघ्न के विचार से चाहा कि अब संन्यास लेना अच्छा है।"


(३) संन्यास दीक्षा


संन्यास दीक्षा- शुद्ध चैतन्य स्वामी चिदाश्रम से जो योग विद्या में निष्णात थे, संन्यास की दीक्षा लेना चाहते थे, पर शुद्ध चैतन्य की अल्पायु के कारण स्वामी चिदाश्रम ने उन्हें संन्यास की दीक्षा नहीं दी। लगभग दो मास पश्चात् दक्षिण भारत से एक दण्डी संन्यासी और ब्रह्मचारी चाणोद के निकटवर्त्ती वन में ठहरे। इन दण्डी स्वामी का नाम पूर्णानन्द सरस्वती था। शुद्ध चैतन्य अपने एक साथी पण्डित को साथ लेकर दण्डी स्वामी के दर्शनार्थ गये और अपने साथी से कहा कि स्वामीजी को कहकर मुझे संन्यासाश्रम में दीक्षित करा दो ।


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फलतः पण्डितजी ने दण्डी स्वामी से शुद्ध चैतन्य की अनुशंसा करते हुये कहा कि यह ब्रह्मचारी अत्यन्त सदाचारी, अध्ययनशील एवं वैराग्यवान् है। यह संन्यास ग्रहण करना चाहता है, आप इसे संन्यासाश्रम की दीक्षा देने की कृपा करें । दण्डी स्वामी ने दो आपत्ति की, प्रथम यह ब्रह्मचारी अल्पवयस है, दूसरे गुर्जर प्रदेश का निवासी है, और मैं महाराष्ट्र का हूँ। अतः मैं इसे संन्यासाश्रम की दीक्षा नहीं दे सकता। क्या विडम्बना थी, ऐसी कितनी ही रूढिग्रस्त स्थितियाँ स्वामीजी के समक्ष बार-बार आती रहीं और इनसे खिन्न होकर उन्होंने भारतीय धर्म, समाज, तथा चिन्तन के क्षेत्र में नई क्रान्ति लाने का कार्य किया था। अस्तु ।


दण्डी स्वामी की शंकाओं का निवारण उस साथी पण्डित ने किया और अन्ततः पूर्णानन्द स्वामी ने शास्त्रोक्त विधि से शुद्ध चैतन्य को संन्यास आश्रम में दीक्षित किया। स्वामी पूर्णानन्द सरस्वती से संन्यास की दीक्षा ग्रहण कर आप "दयानन्द सरस्वती" के नाम से प्रख्यात हुये। स्वामीजी ने संन्यास की दीक्षा १८४७ ई० में ली थी।


स्वामी दयानन्द ने दीक्षा दाता गुरु से आज्ञा लेकर उन्हीं के समक्ष दण्ड-विसर्जन कर दिया क्योंकि संन्यास की मर्यादा के अनुसार दण्डधारण करने में अनेक जटिल क्रियाएँ होती हैं और उनके पालन में मुमुक्षु दयानन्द के मार्ग में अनेक


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बाधाएँ आने की सम्भावना थीं।


व्यास आश्रम में- स्वामी दयानन्द कुछ दिन चाणोद में व्यतीत करके व्यासाश्रम में आये यहाँ योगानन्द नाम के योग विद्या विशारद योगी से कुछ योग क्रियाएँ सीखीं। 


सिनोर में— सन् १८४८ ई० में सिनोर चले गये, वहाँ कृष्ण शास्त्री नामक पण्डित से संस्कृत व्याकरण का अभ्यास किया ।


पुनः चाणोद-सन् १८४९ ई० में स्वामीजी पुनः चाणोद आये यहाँ उन्हें दो योगी मिले जिनके नाम शिवानन्द गिरी और ज्वालानन्द पुरी थे। उनसे उन्होंने कुछ दिन योग सीखा। ये दोनों योगी स्वामी दयानन्द से यह कहकर कि एक मास पश्चात् अहमदाबाद के दुग्धेश्वर मन्दिर में हमसे मिलना, वहाँ से प्रस्थान कर गये एक मास बाद स्वामी दयानन्द उनसे वहाँ जा कर मिले और उनके साथ रहकर योगाभ्यास किया। स्वामी दयानन्द योग विद्या के लिये इन दोनों योगियों को आजन्म कृतज्ञता से याद करते थे। महर्षि ने उनके सम्बन्ध में लिखा है—“योग शिक्षा के विषय में मैं उन दोनों साधुओं का विशेष रूप से ऋणी हूँ।"


आबू पर्वत पर-स्वामीजी को ज्ञात हुआ कि आबू पर्वत पर और अच्छे-अच्छे योगी रहते हैं, फलतः स्वामीजी आबू पर्वत की ओर चल पड़े। यहाँ उनकी भवानी गिरी नामक एक संन्यासी से भेंट हुई, उनसे भी कुछ योगाभ्यास


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की विधियाँ सीखी। पर स्वामीजी की योग की भूख शान्त नहीं हुई। उन्हें पता चला कि उत्तराखण्ड के हिमाच्छादित पर्वत शिखरों पर बड़े तपस्वी साधक योगी रहते हैं। अतः स्वामीजी उत्तराखण्ड भ्रमण के लिये निकल पड़े। अन्ततः भ्रमण करते-करते वे सन् १८५४ के अन्त में हरिद्वार पहुँचे। योग के उच्चतम और गूढतम रहस्यों को प्राप्त कर सन् १८५५ में स्वामी दयानन्दजी कनखल पहुँचे और स्वामी पूर्णानन्दजी से विद्या-अध्ययन करने की इच्छा प्रकट की। उन्होंने कहा"हम तो बहुत वृद्ध हो गये हैं, तुम मथुरा जाओ वहाँ स्वामी विरजानन्द रहते हैं वे तुम्हारा मनोरथ पूर्ण करेंगे।" 


(४) कुम्भ का मेला और उत्तराखण्ड की यात्रा


स्वामीजी जब हरिद्वार आये तो वहाँ कुम्भ का मेला चल रहा था। वे यहाँ बहुत से साधु-संन्यासियों से मिले और चण्डी पहाड़ के जंगल में योगाभ्यास करते रहे। चण्डी मन्दिर मुख्य बस्ती से लगभग ६ कि०मी० दूर एक ऊँची पहाड़ी पर गंगा के बाँये किनारे (पूर्वी तट) पर स्थित है। यहाँ तपस्वियों एवं साधकों के लिए पर्याप्त एकान्त स्थान है और वातावरण भी शान्त है। आज जब कि हरिद्वार का काफी विस्तार हो गया है तब भी चण्डी मन्दिर निर्जन-सा ही है पुनः आज से


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लगभग १६० वर्ष पूर्व तो वहाँ और भी अधिक नीरवता रही होगी।


स्वामीजी दो उद्देश्यों को लेकर कुम्भ मेले में गये थे। उनका प्रधान उद्देश्य था योग सिद्ध साधकों का सन्धान करना जिसमें उनका परमार्थिक कल्याण था। दूसरा उद्देश्य था साधुसंन्यासियों को संगठित करना। स्वामीजी का दूसरा उद्देश्य अभी इतना तीव्र नहीं था ।


कुम्भ मेले की समाप्ति पर स्वामीजी ऋषिकेश पहुँचे। वहाँ साधु-संन्यासियों से मिलकर योग की रीति सीखते रहे और सत्संग करते रहे।


टिहरी व उत्तराखण्ड में- ऋषिकेश से सन् १८५५ ई० में स्वामीजी टिहरी गये । टिहरी में एक बार वहाँ के राज पण्डित ने स्वामीजी को भोजन के लिये आमन्त्रित किया । वहाँ मांसाहार बनता देख स्वामीजी तुरन्त लौट आये। स्वामीजी ब्राह्मण कुल में पैदा हुये थे, मांसाहार के प्रति उनकी घृणा स्वाभाविक ही थी ।


सन् १८५५ ई० में ही स्वामीजी टिहरी से भीमनगर (गढ़वाल) और वहाँ से केदार घाट गये। वहाँ गंगागिरी नामक साधु से सम्पर्क हुआ। स्वामीजी ने वहाँ वर्षाकाल व्यतीत किया। पुनः रुद्रप्रयाग अगस्त्याश्रम होते हुये शिवपुरी नामक स्थान पर गये। वहाँ से गुप्त काशी, गौरीकुण्ड भीम गुफा,


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त्रियुगी नारायण आदि स्थानों को देखते हुए अक्टूबर सन् १८५५ में पुनः केदार घाट जा पहुँचे। यहाँ से चलकर जोशी मठ पहुँचे।


प्रलोभन का ठुकराना-जोशी मठ के महन्त ने दयानन्द को अपना शिष्य बनाकर अपनी गद्दी सौंपने का प्रस्ताव रखा। स्वामीजी ने बड़े निर्लोभ भाव से कहा-"यदि मुझे धन की इच्छा होती तो मैं अपने पिता की सम्पत्ति को जो आपके इस स्थान व धन-धान्य से कहीं बढ़कर थी न छोड़ता। जिस उद्देश्य से मैंने अपना घर छोड़ा और सांसारिक ऐश्वर्य से मुँह मोड़ा न तो उसके लिये आपको यत्न करते देखता हूँ और न ही आपको उसका ज्ञान ही है। आपके पास मेरा रहना कैसे हो सकता है।" स्वामीजी का उद्देश्य तो सत्य योग विद्या और मोक्ष प्राप्ति था जो आत्मा की पवित्रता, सत्य व न्यायाचरणों से ही प्राप्त हो सकता है।


बदरीनाथ में-जोशी मठ से स्वामीजी बदरीनाथ के लिये चल पड़े और नवम्बर १८५५ ई० में बदरीनाथ पहुँचे। वहाँ प्रधान महन्त रावलजी से भेंट की। रावलजी से उच्च कोटि के विद्वान् एवं योगियों का पता पूछा। उन्होंने किसी निश्चित व्यक्ति के विषय में तो नहीं बताया पर इतना कहा कि यदा-कदा सच्चे योगी यहाँ मन्दिर में दर्शनार्थ आते हैं। 


एक दिन सूर्योदय के समय स्वामीजी अलकनन्दा के


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तट के साथ-साथ चल पड़े। नदी के किनारे माना ग्राम दिखाई पड़ा। आगे चलते-चलते मार्ग अवरुद्ध मिला। स्वामीजी ने दूसरे तट पर जाने के लिये अलकनन्दा को पार करना चाहा। इस समय उनके शरीर पर बहुत कम वस्त्र थे। शीत बहुत और असहनीय हो रहा था। भूख-प्यास भी सता रही थी। स्वामीजी ने एक बर्फ का टुकड़ा मुँह में रखा पर इससे न भूख शान्त हुई और न प्यास। अब वे नदी के प्रवाह में उतर पड़े ।


नदी में छोटे-बड़े हिमखण्ड भरे पड़े थे। उनसे स्वामीजी के पैर लहू-लुहान हो गये और ठण्ड के कारण सुन्न हो गये। वे शिथिल होकर गिर पड़े और उन्हें लगा कि उनकी मृत्यु सन्निकट है। कुछ समय शारीरिक अशक्तता के कारण वे इसी अर्द्धमृत जैसी अवस्था में पड़े रहे। पुनः सावधान होकर उन्होंने अपने वस्त्र उतारे उन्हें तलुओं से लेकर घुटनों तक पैरों पर लपेट लिया। वे प्रतीक्षा में थे कि कोई सहायता मिले पर उस निर्जन अरण्य में सहायता की अपेक्षा करना व्यर्थ ही था।


थोड़ी देर पश्चात् दो पहाड़ी व्यक्ति उनकी ओर आये और उनसे अपने साथ चलने का आग्रह किया। यद्यपि स्वामी दयानन्द को इस सहायता को स्वीकार कर लेना चाहिये था परन्तु अपनी शारीरिक अक्षमता एवं अशक्तता के कारण


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उन्होंने इसे अस्वीकार कर दिया। वे वहीं पड़े सुस्ताते रहे। कुछ चेतना एवं शक्ति प्राप्त होते ही चल पड़े और रात्रि को आठ बजे के लगभग बदरीनाथ पहुँचे। रावलजी उन्हें देखकर बड़े प्रसन्न हुये ।


रावलजी से विदा लेकर स्वामीजी नवम्बर १८५५ ई० में रामपुर पहुँचे। यहाँ रामगिरी नामक एक साधु रहता था जो रात भर सोता नहीं था। कभी चिल्लाता कभी रोता था । स्वामीजी ने पता किया तो जाना कि योगसाधना में कुछ विकृति के कारण ऐसा हुआ है। यहाँ स्वामीजी का उत्तराखण्ड भ्रमण समाप्त होता है।


(५) गंगा और नर्मदा के तट पर


उत्तराखण्ड से नीचे उतरकर नवम्बर १८५५ ई० में स्वामीजी रामपुर होते हुये काशीपुर आये । यहाँ से चलकर द्रोण सागर में उन्होंने शीतकाल व्यतीत किया। द्रोण सागर से मुरादाबाद, सम्भल होते हुये जनवरी १८५६ ई० में गढमुक्तेश्वर पहुँचे। इस समय स्वामीजी के पास हठयोग प्रदीपिका आदि हठयोग के ग्रन्थ थे एक दिन दैवयोग से स्वामीजी को नदी में बहता हुआ शव मिला। उन्होंने उसे पकड़ लिया और तट पर लाकर चाकू से काटना आरम्भ किया। उसमें से हृदय निकालकर ध्यानपूर्वक उसकी परीक्षा की और जब पुस्तक के विवरण और वास्तविकता में काफी अन्तर देखा तो शव


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को पुनः नदी में फेंक दिया और पुस्तकों को भी फाड़कर फेंक दिया। सत्य के प्रति आग्रह और दृढ जिज्ञासा का भाव रखनेवाला व्यक्ति ही ऐसा कर सकता है। इससे हमें स्वामीजी का सत्य के प्रति उत्साह एवं ललक का पता चलता है।


गढमुक्तेश्वर से गंगा तट पर विचरण करते हुये स्वामीजी फर्रुखाबाद नामक स्थान पर आये और यहाँ से मार्च १८५६ ई० की समाप्ति पर कानपुर के लिये प्रस्थान किया।


अप्रैल १८५६ के प्रारम्भ से आगे पाँच मास स्वामीजी ने कानपुर व प्रयाग के बीच के स्थानों को देखने में व्यतीत किये। भाद्रपद के प्रारम्भ में मिर्जापुर पहुँचे और वहाँ से आश्विन के आरम्भ में काशी पहुँचे। वहाँ वरुणा और गंगा के संगम पर स्थित एक गुफा में ठहरे। यहाँ स्वामीजी १२ दिन ठहरे। काशी से चलकर चुनार पहुँचे। अब स्वामीजी केवल दुग्धाहार ही करते थे।


ज्येष्ठ १९१४ वि० (जून १८५७) में स्वामीजी नर्मदा के मूल स्रोत को देखने के अभिप्राय से चल पड़े। स्वामीजी किसी से मार्ग पूछे बिना ही नदी के किनारे-किनारे चलते रहे और शीघ्र ही एक घने जंगल में पहुँच गये जहाँ उनकी मुठभेड़ एक विशालकाय रीछ से हुई। वह अपने पिछले दोनों पैरों पर खड़ा होकर चिंघाड़ने लगा। स्वामीजी ने अपना सोटा


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उठाया तो रीछ भयभीत होकर भाग गया। रीछ की चिंघाड़ सुनकर कुछ निकटवर्ती ग्रामवासी स्वामीजी के पास आये और उनसे आगे जंगल में न जाने का आग्रह करने लगे, पर निर्भीक साहसी स्वामी दयानन्द आगे ही बढ़ते चले गये।


आगे चलकर घनी झाड़ियों के बीच उन्हें रेंग-रेंगकर चलना पड़ा। इस प्रयत्न में उनका सारा शरीर जगह-जगह से लहू-लुहान हो गया। स्वामीजी एक विशाल वृक्ष के नीचे विश्राम के लिये बैठ गये। रात्रि व्यतीत होने पर प्रातः सन्ध्योपासना करने को उद्यत हुये तो किसी वन्य पशु की गर्जना सुनाई दी। कुछ काल पश्चात् एक जनसमूह अपने पशुओं के साथ आता दिखाई दिया। उन्होंने स्वामीजी का परिचय पूछा और उनसे अपने साथ चलने का निवेदन किया जिसे स्वामीजी ने स्वीकार नहीं किया। उन्होंने स्वामीजी का कमण्डल दूध से भर दिया और अपने स्थान को चले गये। 


स्वामीजी नर्मदा तट पर लगभग तीन वर्ष तक भ्रमण करते रहे। इस अवधि की विस्तृत जानकारी उपलब्ध नहीं है।


जहाँ तक महर्षि दयानन्द की आत्मकथा के नर्मदा स्रोत गवेषण प्रसंग पर आकर यकायक समाप्त हो जाने का प्रश्न है बात नितान्त सीधीसादी है। थियोसोफिस्ट सोसाइटी का महर्षि के साथ मतभेद होने के कारण आगे इस कथा को


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छापने का कोई उत्साह नहीं रहा और महर्षि अपनी अत्यन्त व्यस्तताओं के कारण अपने आत्म-वृत को आगे नहीं लिख पाये।


इस अवधि में महर्षि स्वामी दयानन्द विशुद्ध आध्यात्मिक जिज्ञासु बनकर ऐसे योगियों की तलाश में भ्रमण कर रहे थे जो उन्हें योगसाधना, प्रभु भक्ति व मोक्ष के सम्बन्ध में सही जानकारी दे सके। और साथ ही साथ जितना योग का ज्ञान उन्हें हो गया था उसका निरन्तर अभ्यास और साधना में लीन थे।


(६) मथुरा में गुरु विरजानन्द की पाठशाला


स्वामीजी को अपने हरिद्वार प्रवास के समय ही गुरु विरजानन्द के विषय में ज्ञात हो गया था। पूर्णाश्रम नामक एक संन्यासी ने स्वामी दयानन्द को मथुरा जाकर प्रज्ञाचक्षु संन्यासी विरजानन्द के पास शास्त्राध्ययन का परामर्श दिया था । १४ नवम्बर १८६० ई० को स्वामीजी मथुरा दण्डी स्वामी विरजानन्द की कुटिया पर पहुँचे उनकी कुटिया का नाम था "दण्डीजी का दरबार"। स्वामीजी ने द्वार खटखटाया। अन्दर पूछाकौन हो ?" स्वामीजी ने अपना नाम और अपने आश्रम का नाम बताया अर्थात् मैं दयानन्द संन्यासी हूँ ऐसा बताया। आपके पास व्याकरण पढ़ने आया हूँ। गुरुजी ने पूछा अब तक क्या


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पढ़ा है ? स्वामीजी ने जो पढ़ा था सब बता दिया। उन्हें आदेश हुआ कि जो कुछ पढ़ा है उसे भुला दो और अपनी पुस्तकें यमुना में फेंक दो। क्योंकि यह सब अनार्ष ग्रन्थ हैं। (अनार्षअर्थात् ऋषि कृत नहीं, बल्कि मनुष्यों की रचना हैं) स्वामीजी पुस्तकों को यमुना में फेंक कर पुनः गुरुजी की शरण में गये। द्वार खुल गया। गुरु विरजानन्द को विश्वास हो गया कि जिस शिष्य की खोज में वे बैठे थे, वह मिल गया है।


विरजानन्दजी सभी विद्यार्थियों को भोजन और वस्त्र देते थे, परन्तु दयानन्दजी पर तो वे सारे देश का उत्तरदायित्व डालना चाहते थे, अतः उन्होंने कहा कि तुम अपने भोजन, निवास एवं पुस्तकों का प्रबन्ध स्वयं करो। प्रबन्ध करके ही मेरे पास पढ़ने आना। स्वामीजी इस बात से थोड़े चिन्तित हुये, क्योंकि उस समय उत्तर भारत में भयंकर दुर्भिक्ष फैला हुआ था। गृहस्थियों के लिए ही जीवनयापन दुष्कर हो रहा था। ऐसे में एक परिव्राजक भिक्षु के आहार-विहार की व्यवस्था कैसे होती !


शीघ्र ही विश्राम घाट पर लक्ष्मी नारायण के मन्दिर में एक कोठरी रहने के लिये मिल गई। दुर्गाप्रसाद नामक एक खत्री ने खाने के लिये कुछ चनों की व्यवस्था कर दी। यद्यपि चने खाकर शरीर निर्वाह करना कठिन था पर दयानन्द जैसे तपस्वी के लिये यह साधारण बात थी। कुछ समय पश्चात् स्वामीजी की भेंट जोशी अमरलाल नामक एक सम्पन्न


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सद्गृहस्थ से हो गई जो मथुरा में 'जोशी बाबा' के नाम से विख्यात् थे, वे स्वामीजी के सजातीय औदीच्य ब्राह्मण थे। उनकी ज्योतिष में अच्छी पैठ थी। महाराजा सिन्धिया ने १०१२ ग्रामों की मालगुजारी उन्हें भेंट के रूप में दे रखी थी। भोजन के कारण दयानन्द के अध्ययन में कोई व्यवधान न हो अतः जोशीजी ने उनके भोजन की व्यवस्था अपनी हवेली में कर दी थी। हरिदेव पत्थर वालों ने रात्रि में दीपक जलाने के लिये तेल का प्रबन्ध कर दिया था ।


इस प्रकार भोजन एवं आवास की चिन्ता से मुक्त होकर स्वामी दयानन्द ने गुरुजी की पाठशाला में प्रवेश किया। गुरु के निकट अध्ययन करने का काल अढाई-तीन वर्ष का ही था। इस अवधि में स्वामीजी ने आर्ष व्याकरण ग्रन्थों, अष्टाध्यायी एवं महाभाष्य का साङ्गोपाङ्ग अध्ययन किया। उन्होंने निघण्टु, निरुक्त आदि ग्रन्थों का भी अध्ययन किया। विरजानन्द के पढ़ाने का क्रम बड़ा अनुशासित था । समय-समय पर परीक्षा होती थी। एक दिन स्वामीजी को पाठ स्मरण नहीं रहा। उन्होंने दोबारा पूछा तो गुरु विरजानन्द ने कहा-"हम बार-बार नहीं बताते । पाठ याद करके आओ। यदि पाठ याद न हो तो यमुना में डूबकर मर जाना, हमारे पास मत आना।" दयानन्दजी यमुना के घाट पर संकल्प करके बैठ गये- "शरीरं वा पातयेयं कार्य वा साधयेयम् ।" या तो कार्य की सिद्धि करूँगा अन्यथा शरीर को ही समाप्त कर दूँगा। बैठे-


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बैठे योग निद्रा आ गई और ऐसा प्रतीत हुआ कि मानो कोई विस्मृत पाठ को पुनः याद करा रहा है। जब स्वामीजी ने पाठ सुनाया तो विरजानन्द ने उन्हें छाती से लगा लिया।


महामेधावी दयानन्द की अद्भुत प्रतिभा, तीव्र ज्ञानपिपासा, आर्ष ग्रन्थों का अध्ययन करने में उनका परिश्रम सभी कुछ अपूर्व था। गुरु विरजानन्द को अपने सुदीर्घ अध्ययन काल में कोई ऐसा प्रतिभाशाली शिष्य नहीं मिला था और न प्रौढ़ वय प्राप्त दयानन्द को इधर-उधर भटकने के बाद भी गुरु विरजानन्द जैसा कोई गुरु मिला था।


कभी-कभी गुरु-शिष्य दोनों निगूढ़ एकान्त में बैठकर कुछ वार्तालाप किया करते थे। इसका सही ज्ञान तो अन्तर्यामी के अतिरिक्त किसी को भी नहीं है, परन्तु इतना निश्चित है कि गुरु-शिष्य, धर्म, समाज में व्याप्त बुराइयों, अनाचार, अत्याचार, ढोंग व पाखण्ड का जो बोलबाला हो रहा था, उसको दूर करने के लिये विचार-विमर्श करते रहे होंगे। 


दण्डीजी ने स्वामी दयानन्द की अन्तः प्रकृति को खूब निकटता से पहचाना था और वे प्यार से दयानन्द को 'कुलक्कर' और 'कालजिह्व' जैसे नामों से पुकारते थे। 'कुलक्कर' का अर्थ खूँटा जो अपने पक्ष पर खूँटे की तरह दृढ रहकर प्रतिपक्षी को पराभूत कर सके। 'कालजिह्व' का अर्थ था असत्य के खण्डन व धर्म के नाम पर फैली हुई मिथ्या भ्रान्तियों के खण्डन में जिसकी जिह्वा काल के समान


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बन जाती हो। स्वामी दयानन्द यथार्थ में कुलक्कर व कालजिह्व थे।


गुरु विरजानन्दजी के चरणों में बैठकर दयानन्दजी ने ढाई-तीन वर्ष तक अष्टाध्यायी और महाभाष्य का अध्ययन किया। अध्ययन समाप्त हुआ। समावर्तन का दिन आया। विरजानन्दजी को लौंग बहुत प्रिय थीं। दयानन्दजी भी कहीं से कुछ लौंग लेकर गुरु के पास पहुँचे और उन्हें गुरु-चरणों में अर्पित कर बोले-"गुरुवर! विद्या प्रदान कर आपने मुझ पर जो उपकार किया है, उसके लिये मेरा रोम-रोम आपका आभारी है। अब मैं आपसे विदा चाहता हूँ। ये थोड़ी-सी लौंग सेवा में अर्पित हैं, इन्हें स्वीकार कीजिए।" 


विरजानन्दजी ने पाँवों में नम्रीभूत शिष्य के सिर को स्पर्श कर कहा-"वत्स! मैं तुम्हारे लिये मंगल कामना करता हूँ परन्तु क्या मेरे कठोर परिश्रम का यही फल है ? गुरु दक्षिणा में मैं लौंगों से भिन्न कोई वस्तु चाहता हूँ। मैं तुमसे ऐसी वस्तु नहीं माँगूगा जो तुम्हारे पास न हो।" दयानन्दजी ने कहा"गुरुदेव मेरा तन-मन सब-कुछ आपके चरणों में अर्पित है, आप आदेश दीजिये, मैं उसे जीवन भर निभाऊँगा।" वरतन्तु ने अपने शिष्य कौत्स से समावर्तन के समय चौदह करोड़ स्वर्ण मुद्राएँ माँगी थी, परन्तु विरजानन्द ने क्या माँगा? उन्होंने कहा-"वत्स! भारत में अविद्या-अन्धकार फैल रहा है,


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नाना मत-मतान्तर और कुरीतियाँ प्रचलित हो गई हैं। वैदिक धर्म का लोप हो रहा है, तुम जाओ और संसार को ज्ञान-ज्योति से भर दो, मत-मतान्तरों का निवारण करो । वैदिक धर्म का पुनरुद्धार करो। आर्ष पाठ-विधि का प्रचार करो। यही मेरी गुरु दक्षिणा है ।" तथास्तु कहकर और गुरुजी का आशीर्वाद लेकर दयानन्दजी आगरा की ओर प्रस्थान कर गये। यह अप्रैल-मई १८६३ ई० का समय था। सत्य की सिरोही, निर्भयता की ढाल तथा दया और क्षमा के कवच से सुसज्जित होकर महर्षि दयानन्द अपने कर्म में प्रवृत्त हुये। उन्होंने भारत के नगर-नगर में घूम-घूमकर प्रचार करना प्रारम्भ किया।


७. कर्मक्षेत्र में


गुरु के समक्ष धर्म, समाज तथा मानवता के अभ्युत्थान का व्रत लेकर निकले स्वामी दयानन्द को अभी तक इसकी सिद्धि के लिये क्या कुछ किया जाये, कैसे किया जाये, यह पूर्णतया स्पष्ट नहीं था ।


मथुरा से चलकर वैशाख १९२० वि० में स्वामीजी आगरा पहुँचे। यहाँ उनकी भेंट स्वामी कैलाश पर्वत से हुई। यह वृद्ध संन्यासी स्वामीजी की विद्वता, साधना एवं वैराग्य का बड़ा प्रशंसक था। प्रारम्भ में दयानन्द की धारणाएँ वेदान्तमुखी थी। आगरा में वे 'पञ्चदशी' की कथा करते थे। एक दिन


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उसमें यह प्रसंग पढ़ा कि 'ईश्वर को भी भ्रम हो जाता है।' यह पढ़कर दयानन्द ने पञ्चदशी को त्याग दिया।


यहाँ रहकर महर्षि ने 'सन्ध्या' शीर्षक से एक पुस्तक लिखी। आगरा के सेठ रूपलाल ने उस समय १५०० रुपये व्यय करके इसकी तीस हजार प्रतियाँ छपवाई। स्वामीजी मूर्ति पूजा की अवैदिकता और निस्सारता की खूब घोषणा करते थे। आगरा में स्वामीजी लगभग दो वर्ष रहे। सिले वस्त्र नहीं पहनते थे, लोई ओढे रहते थे व पैर में जूता पहनते थे।


कार्तिक १९२१ में स्वामीजी धौलपुर पहुँचे और लगभग १५ दिन यहाँ रहकर ग्वालियर आये। जब स्वामीजी ग्वालियर पहुँचे तो महाराजा सिंधिया ने भागवत पारायण का आयोजन किया हुआ था। महाराजा को जब स्वामीजी के आगमन का पता चला तो उन्होंने स्वामीजी के पास पं० विष्णु दीक्षित को भेजा और भागवत पाठ का महात्म्य पूछा। स्वामीजी ने कहा दुःख और क्लेश के अतिरिक्त क्या फल हो सकता है।


महाराजा ने क्योंकि सारी व्यवस्था करा रखी थी, अतः माघ शुक्ल नवमी सं० १९२१ को भागवत पाठ प्रारम्भ किया। यह एक संयोग ही था कि भागवत कथा समाप्त होने पर नगर में हैज़ा फैल गया। युवराज इस रोग से ग्रस्त हो गये और महारानी का भी गर्भपात हो गया। इस प्रकार लोगों को यह कहने का अवसर मिल गया कि भागवत कथा का कोई शुभ


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परिणाम नहीं निकला।


ज्येष्ठ सं० १९२२ वि० को स्वामीजी करौली आये। भद्रावती नदी के किनारे ठा० गोपालसिंह के बाग में ठहरे। करौली के महाराजा मदनपाल ने स्वामीजी के भोजनादि की व्यवस्था करा दी। कुछ दिन करौली रहकर स्वामीजी खुशहालगढ (अब गंगापुर सिटी) गये और यहाँ से कार्तिक १९२२ वि० में जयपुर आये। यहाँ रहकर स्वामीजी शैव मत की ओर अधिक झुके हुये थे। यहाँ स्वामीजी की पण्डितों से कुछ शास्त्र चर्चा भी हुई। जैन आचार्यों से भी प्रश्नोत्तर शैली में शास्त्रार्थ हुआ। लगभग साढ़े चार मास तक स्वामीजी जयपुर में रहे।


पण्डितों के षड्यन्त्र के कारण महाराजा रामसिंह स्वामीजी से नहीं मिल सके। चैत्र कृष्ण पञ्चमी १९२२ वि० को स्वामीजी ने पुष्कर के लिये प्रस्थान किया 'बगरू' दूदू होते हुये किशनगढ़ आये और नगर के समीप सुखसागर तालाब पर निवास किया। तत्कालीन किशनगढ़ नरेश महाराजा पृथ्वीसिंह बल्लभ सम्प्रदाय के अनुगामी थे, परन्तु फिर भी उन्होंने स्वामीजी के भोजन एवं आवास की व्यवस्था कर दी। अपने राज पण्डित विट्ठलदास व देवीदत्त को स्वामीजी के पास भेजा। उन्होंने राजा को यह बताया कि यह स्वामी वैष्णव धर्म एवं भागवत का घोर विरोधी है। राजा ने स्वामीजी को किशनगढ़ छोड़कर ले जाने का आदेश दे दिया।


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स्वामीजी इन धमकियों से नहीं डरे। उन्होंने कहा परिव्राट का दर्जा सम्राट से ऊँचा होता है। कुछ दिन यहाँ रहकर स्वामीजी अजमेर होते हुये पुष्कर चले गये। पुष्कर तीर्थवासी अन्य संन्यासियों की भाँति इस उग्र एवं तेजस्वी व्यक्तित्व के धनी प्रचण्ड संन्यासी का भी हृदय से सम्मान करते थे। गुरु पूर्णिमा के दिन इन लोगों ने अन्य संन्यासियों की भाँति इनकी भी पूजा की । पुष्कर में स्वामीजी के सत्संग से प्रभावित होकर ब्रह्मा मन्दिर के एक पुजारी शिवदयालु मूर्ति पूजा से विरत हो गये और डाक विभाग में नौकरी कर ली ।


लगभग दो मास पुष्कर में रहकर स्वामीजी ज्येष्ठ १९२३ वि० में अजमेर आये। यहाँ ईसाइयों व मुसलमानों से शास्त्रार्थ किये। पादरी जॉन राबिन्सन से स्वामीजी का विचार विमर्श हुआ था। पादरी ने अपनी पुस्तक में इस भेंट का वर्णन किया है। इसके अतिरिक्त पादरी शूल ब्रेड एवं पादरी ग्रे से भी स्वामीजी के शास्त्रार्थ हुये थे।


अजमेर के डिप्टी कमिश्नर मेजर ए०जी० डेविडसन ने स्वामीजी से भेंट की थी। यहीं "एजेण्ट टू दि गर्वनर जनरल" (Ageant to the Governer General) कर्नन ब्रुक से भी स्वामीजी की भेंट हुई। स्वामीजी ने कर्नल का ध्यान गो-रक्षा की ओर आकर्षित किया और उनसे


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आग्रह किया कि वायसराय से मिलकर गोवध बन्द करायें। कर्नल ब्रुक से भेंट को ही कुछ लोग भ्रमवश गर्वनर जनरल लार्ड नार्थ ब्रुक से भेंट मान लेते हैं। स्वामीजी की भेंट गर्वनर जनरल नार्थ ब्रुक से नहीं हुई थी । 


अजमेर में स्वामीजी भागवत खण्डन करते थे। ज्येष्ठ द्वितीया १९२३ वि० में अजमेर से लौटते समय स्वामीजी किशनगढ़ होते हुये जयपुर पहुँचे। किशनगढ़ में बल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायी राजा के उकसाने पर कुछ लोगों ने स्वामीजी के साथ अभद्र व्यवहार किया। स्वामीजी ने गम्भीर वाणी से गर्जना करते हुये सबको ललकारा और कहा-"यह मत समझना कि मैं अकेला हूँ और तुम लोग मुझे शारीरिक रूप से पीड़ित कर सकते हो। मैं अकेला ही तुम सबके लिये पर्याप्त हूँ । यदि शास्त्रार्थ के स्थान पर शस्त्रार्थ करना चाहते हो तो मैं उसके लिये भी उद्यत हूँ।" इससे स्वामीजी का आत्मविश्वास एवं निर्भीकता प्रकट होती है। किशनगढ़ से दूदू होते हुए स्वामीजी जयपुर आये। इस बार भी राजा रामसिंह स्वामीजी के दर्शन नहीं कर सके।


आगरा दरबार-जयपुर से चलकर स्वामी दयानन्द कार्तिक कृष्णा नवमी सं० १९२३ वि० को आगरा पहुँचे। वायसराय लार्ड लारेंस ने आगरा में १० नवम्बर से १९ नवम्बर तक चलनेवाला एक दरबार आयोजित किया। इस अवसर पर


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उपस्थित लोगों को स्वामीजी के उपदेश सुनने का अवसर प्राप्त हुआ।


हरिद्वार में-आगरा से स्वामीजी मथुरा पहुँचे। मथुरा में गुरु विरजानन्द से भेंट की, उन्हें दो स्वर्ण मुद्राएँ तथा एक मलमल का थान भेंट किया। मथुरा से मेरठ होते हुये हरिद्वार पहुँचे। संवत् १९२४ वि० के आरम्भ में हरिद्वार में कुम्भ का मेला था। स्वामीजी ने वहाँ पहुँचकर हरिद्वार व ऋषिकेश के बीच भीमगोड़े के निकट सप्त-सरोवर स्थान पर ८-१० फँस के छप्पर डालकर अपना डेरा जमाया और "पाखण्डखण्डिनी" पताका लहराकर मूर्ति पूजा, श्राद्ध, अवतारवाद आदि का खण्डन करने लगे। उस महामेले में सर्वत्र महर्षि की चर्चा थी। उन्होंने सैंकड़ों व्याख्यान दिये और अनेक शास्त्रार्थ किये। अनेक वादियों को जीता परन्तु उन्होंने अनुभव किया कि जैसी सफलता मिलनी चाहिये थी वैसी नहीं मिली। आत्मनिरीक्षण के पश्चात् उन्होंने "सर्वं वै पूर्ण स्वाहा" कहकर अपनी भौतिक वस्तुएँ दान कर दीं और एक कौपीन मात्र रखकर तप करने लगे। स्वामीजी के सुहृद स्वामी कैलाश पर्वत ने जब इनसे ऐसा करने का कारण पूछा तो स्वामीजी ने उत्तर दिया-"बिना सर्वस्व त्याग किये स्पष्ट बातों का कहना तथा यथार्थ उपदेश देना सम्भव नहीं है। जब तक हम अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं के लिये भी अन्यों पर निर्भर 


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रहेंगे तब तक सम्पूर्ण हित की बात कहना सम्भव नहीं होगी।"


हरिद्वार से वे ऋषिकेश गये पुनः वहाँ से लौटकर गंगा के किनारे-किनारे चल पड़े। कनखल होते हुये लण्ढौरा पहुँचे। यहाँ तीन दिन तक भूखे रहे, कारण माँग कर भोजन नहीं करते थे। एक किसान ने एक दिन तीन बैंगन दिये, इन्हें कच्चा ही खाकर क्षुधा शान्त की। शुक्रताल, मीरापुर होते हुये मुहम्मदपुर जिला बिजनौर पहुँचे। फिर परीक्षितगढ़ होकर गढ़मुक्तेश्वर पहुँचे। गढ़मुक्तेश्वर से चलकर मई १८६७ ई० में कर्णवास पहुँचे। इस प्रकार तीन वर्ष तक वे तप साधना और योगाभ्यास करते रहे। एकदिन योग निद्रा में वे क्या देखते हैं कि एक नौका में कुछ व्यक्ति बैठे हुये हैं। उन्होंने मद्यपान किया हुआ है। वे नशे में चूर हैं और नाव को खेते हुये समुद्र की ओर ले जा रहे हैं। नाव समुद्र में पहुँचने वाली है। यदि नाव समुद्र में पहुँच गई तो सबकी जीवन-लीला समाप्त हो जायेगी । यह दृश्य देखकर महर्षि उन यात्रियों को मृत्यु के मुख से बचाने के लिये जल-राशि में छलांग लगा देते हैं और उस नाव को धकेलकर किनारे की ओर लाने का प्रयास करते हैं। इस नौका में बैठे शराबी इन्हें कुवचन कहते हैं। उन्हें चप्पुओं से मारते हैं, निरादर और अपमानित करते हैं परन्तु वे इन सबकी चिन्ता न करके नौका को किनारे


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की ओर खींच लाते हैं। इस दृश्य के पश्चात् उनकी योगनिद्रा भंग हुई। उन्हें विश्वास हो गया कि उनकी तपस्या पूर्ण हो गई है। वे वहाँ से उठकर वैदिक धर्म प्रचार और प्रसार के लिये चल पड़े। उन्होंने दुगुने उत्साह और चौगुने जोश से कार्य आरम्भ कर दिया। उन्होंने धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक सभी क्षेत्रों में क्रान्ति की। उन्होंने अवैदिक मतमतान्तरों का खण्डन किया, बाल-विवाह का निषेध और विधवा-विवाह का समर्थन किया, ब्रह्मचर्य का उपदेश दिया और संस्कारों की महत्ता जताई।


८. खण्डन-मण्डन


कर्णवास से रामघाट, सोरों पटियाली, कम्पिल आदि स्थानों की यात्रा करते हुये जून १८६७ ई० में स्वामीजी फर्रुखाबाद पहुँचे। वहाँ तीन दिन रहकर अनूपशहर आये। इस प्रकार स्वामीजी विभिन्न स्थानों पर घूम-घूमकर उपदेश देते हुये लोगों की शंका समाधान कर रहे थे। अनूपशहर से चासी, ताहिरपुर होते हुये रामघाट आये। रामघाट से पुनः आषाढ शुक्ल १९२४ वि० में कर्णवास आये। कर्णवास में स्वामीजी आठ गप्पों (झूठ) का खण्डन करते थे। वे आठ झूठ निम्न प्रकार हैं


१. मनुष्य कृत सब ब्रह्मवैवर्त पुराणादि ग्रन्थ प्रथम गप्प | 

२. पाषाणादि को देव बुद्धि से पूजा करना द्वितीय गप्प ।


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३. शैव, शाक्त, वैष्ण्व, गाणपत्यादि सम्प्रदाय तृतीय गप्प । 

४. तन्त्र ग्रन्थों के अनुसार वाममार्ग चतुर्थ गप्प | 

५. भङ्गादि किसी भी प्रकार का नशा करना पञ्चम गप्प । 

६. पर स्त्री गमन छठा गप्प ।

७. चोरी करना सातवाँ गप्प |

८. कपट, छल, अभिमान, झूठ बोलना आठवाँ गप्प ।


ये आठों गप्प त्याज्य हैं इन्हें छोड़ देना चाहिये। पर्याप्त समय कर्णवास में व्यतीत कर स्वामीजी कार्तिक मास १९२४ वि० में अहार होते हुये चासी आये, और लोगों को मूर्तिपूजा, तीर्थ स्नान, व्रतादि परम्परागत धार्मिक समझे जानेवाले कृत्यों से विमुख करते रहे। नारी जाति के उत्थान के लिये स्वामीजी उनमें शिक्षा का प्रसार करना चाहते थे। सभी क्षेत्रों में नारी को पुरुष के बराबर अधिकार प्रदान करने की बात कहते थे।


एक बार जब उनसे यह पूछा गया कि धार्मिक कुरीतियों के खण्डन तथा सामाजिक कुप्रथाओं के उन्मूलन में माथा खपाने की क्या आवश्यकता है? स्वामीजी ने उत्तर दिया“मेरे लिये यह कार्य कोई टंटा बखेड़ा जैसा नहीं है। पूर्वज ऋषियों के ऋण से उऋण होने के लिये ही मैं यह कार्य कर रहा हूँ। स्वार्थी लोगों ने शताब्दियों से ऋषि सन्तानों को मिथ्याडम्बरों और रूढि जालों में फँसा रखा है। आर्य जाति


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के विलुप्त गौरव को पुनः प्राप्त कराना ही मेरे जीवन की एक मात्र साधना है।"


स्वामीजी महाराज केवल खण्डन ही नहीं करते थे अपितु मण्डन भी करते थे। वे आठ सत्य जो सर्वथा ग्राह्य एवं आचरणीय हैं उनका प्रचार करते थे। आठ सत्य निम्न प्रकार हैं-


पहला- ईश्वर और ऋषि प्रणीत ऋग्वेदादि इक्कीस शास्त्र (१-४) चारों वेद, (५) आयुर्वेद, (६) धनुर्वेद, (७) गन्धर्ववेद, (८) अर्थवेद, (९) शिक्षा, (१०) कल्प, (११) व्याकरण, (१२) निरुक्त, (१३) छन्द, (१४) ज्योतिष, (१५) उपनिषद् (ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, तैत्तिरीय, एतरेय, श्वेताश्वतर, छान्दोग्य और वृहदारण्यक), (१६) शारीरिक सूत्र, (१७) कात्यायनादि गृह्य सूत्र, (१८) योगभाष्य, (१९) तर्कशास्त्र, (२०) मनुस्मृति एवं (२१) महाभारत पठनीय ग्रन्थ हैं।


दूसरा सत्य-ब्रह्मचर्याश्रम में गुरु की सेवा तथा निज धर्मानुष्ठान पूर्वक वेद-वेदाङ्गों का पठन-पाठन । 


तीसरा सत्य- वेदोक्त धर्मानुसार निज धर्म सन्ध्यावन्दन, एवं अग्निहोत्र करना ।


चौथा सत्य-शास्त्रानुसार विवाह करना, पञ्च महायज्ञ करना, ऋतु काल में स्त्री के साथ सहवास (केवल सन्तानोत्पत्ति हेतु) श्रुति स्मृति की आज्ञानुसार आचार


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विचार-व्यवहार करना ।


पाँचवा सत्य-शम, दम, तपश्चरण यम प्रवृति समाधि पर्यन्त उपासना और सत्संग पूर्वक वानप्रस्थाश्रम को ग्रहण करना ।


छठा सत्य- विचार विवेक वैराग्य, पराविद्या का अभ्यास, संन्यास ग्रहण करके सब कर्मों का फल त्याग करना।


सातवाँ सत्य-ज्ञान-विज्ञान से समस्त अर्थ, मृत्यु, जन्म, हर्ष, शोक, काम-क्रोध, लोभ-मोह, संग-द्वेष के त्यागने का अनुष्ठान।


आठवाँ सत्य-अविद्या, अस्मिता, राग-द्वेष, अमिनिवेश, तम, रज, सत सब क्लेशों से निवृत हो पञ्च महाभूतों से अतीव होकर मोक्ष स्वरूप और आनन्द को प्राप्त करना । 


ऋषि गोमाता के वकील बने और सबसे पहली गोशाला रिवाड़ी में खोली, अनाथों के लिये अनाथालय और विधवाओं के लिये 'वनिता विश्राम मण्डल' खोले, अछूतों को गले लगाया, नारी को उसके अधिकार दिलाये, वेद का भाष्य कर वेद विषयक भ्रान्तियों को दूर किया। महर्षि के शंखनाद का क्या प्रभाव हुआ? एक कवि के शब्दों में-


हिमगिरी से गंगा बहती है, सब दुनिया यूँ ही कहती है।


आज किसी ने हरि द्वार में गंगा उलट दई ॥


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स्वर्गीय पं० नाथूराम शर्मा 'शङ्कर' ने लिखा है–


साधु भक्तों में सुयोगी संयमी बढ़ने लगे। सभ्यता की सीढ़ियों पै सूरमा चढ़ने लगे ॥ 

वेद मन्त्रों को विवेकी प्रेम से पढ़ने लगे। वंचकों की छातियों में शूल से गढ़ने लगे ॥ 

तामस थोथे मतों की मोह माया हट गई। ऐंठ की पोली पहाड़ी खण्डनों से फट गई ॥ 

छूत छैया की अछूती नाक लम्बी कट गई। 

लालची पाखण्डियों की पेट पूजा घट गई ॥ 

ऊत भूतों का बखेड़ा डूब मरने को गय देख लो लोगो दुबारा भारतोदय हो गया ॥ 

कर्णवास के आस-पास के क्षेत्रों में स्वामीजी की बड़ी थी। स्वामीजी सरल भाषा में अपने उपदेशों के से लोगों को अपना जीवन पवित्र बनाने का आग्रह थे। गायत्री मन्त्र के जाप करने का उपदेश देते थे। एक स्वामीजी ने पूछने पर बताया–


“मैं अपनी मुक्ति के लिये उत्सुक नहीं हूँ। मैं तो उस दिन को देखना चाहता हूँ जब कि त्रिताप संतप्त जनसमाज नाना क्लेशों और पीड़ाओं से मुक्त होकर श्रेय मार्ग का पथिक बनेगा। आर्य जाति के विलुप्त गौरव को पुनः प्राप्त कराना ही


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मेरे जीवन की एकमात्र साधना है।"


महर्षि दयानन्द का जीवन घटनाओं की एक श्रृङ्खला है। उनके जीवन की एक-एक घटना मनुष्य के जीवन को उच्च, महान् और दिव्य बना सकती है। यहाँ हम कुछ घटनाओं को अंकित कर रहे हैं–


महाराज अनूपशहर में विराजमान थे। एक दिन एक ब्राह्मण उनके पास आया। उसने बड़ी श्रद्धा, भक्ति और नमस्कार पूर्वक स्वामीजी की सेवा में पान प्रस्तुत किया। श्री स्वामीजी ने सहज भाव से उसे ग्रहण कर मुख में रख लिया। उसका रस लेते ही उन्हें ज्ञात हो गया कि इसमें विष है। उस ब्राह्मण से कुछ न कहकर वे गंगा पर चले गये और वहाँ वस्ति तथा न्यौली आदि यौगिक क्रियाओं के द्वारा उस विष को शरीर से बाहर निकाल दिया। वहाँ के तहसीलदार सैय्यद मुहम्मद को जब इस घटना का पता लगा तब उसने उस ब्राह्मण को पकड़कर जेल में डाल दिया। उसका विचार था कि स्वामीजी उसके इस कार्य से प्रसन्न होंगे, परन्तु जब वे स्वामीजी के दर्शनार्थ गये तब स्वामीजी ने कहा- “मैं संसार के लोगों को कैद कराने नहीं आया, अपितु बन्धन-मुक्त कराने आया हूँ। यदि दुष्ट अपनी दुष्टता नहीं छोड़ता तो हम अपनी श्रेष्ठता क्यों छोड़ें ?" तहसीलदार ने जाते ही ब्राह्मण को मुक्त कर दिया।


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महर्षि चासी में अपने उपदेशामृत से लोगों को निहाल कर रहे थे। एक धुनिया प्रतिदिन स्वामीजी की कथा में आया करता था। महर्षि ने कृपा कर उसे "ओम्" का जप करने की विधि सिखाई। एक दिन धुनिये ने स्वामीजी से कहा“महाराज! मैं निर्धन व्यक्ति हूँ मेरा कल्याण कैसे होगा ?" स्वामीजी बोले–“सदाचारपूर्वक जीवन बिताओ। जितनी रुई किसी से लो, धुनकर उसे उतनी ही वापस दे दो। मन से सबका हित चिन्तन करो। इसी से तुम्हारा कल्याण हो जाएगा।"


गंगा स्नान के मेले पर ऋषिवर कर्णवास पधारे। उस समय राव कर्णसिंह भी स्नानार्थ वहाँ आये। रात्रि में उनके निवास पर रास होने लगा। कुछ पण्डित लोग स्वामीजी को भी बुलाने आये, परन्तु उन्होंने कहा- "हम ऐसे निन्दनीय कार्य में कदापि सम्मिलित नहीं हो सकते। अपने महापुरुषों का स्वांग बनाना अति लज्जास्पद और शोचनीय बात है। दूसरे दिन पण्डित लोगों ने स्वामीजी के कथन को खूब नमक-मिर्च लगाकर राव कर्णसिंह को उत्तेजित किया। वे भी उत्तेजित होकर नौकर-चाकरों सहित स्वामीजी की कुटिया पर चढ़ आये। वहाँ आकर स्वामीजी को गालियाँ देने लगे और बार-बार तलवार की मूठ पर हाथ रखने लगे। स्वामीजी ने हँसते हुये कहा-“यदि आपको शास्त्रार्थ करना है तो अपने


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गुरु रङ्गाचार्य को यहाँ ले आइए हम कटिबद्ध हैं, परन्तु यदि आपको शस्त्रार्थ का शौक है तो संन्यासी से क्यों टकराते हो, जयपुर, जोधपुर नरेश से जा भिड़ो।" अब क्या था रावजी का पारा पूरे १०४ डिग्री पर पहुँच गया। वह महाराज पर तलवार का वार करने के लिये आगे बढ़ा। महाराज ने झपटकर उसके हाथ से तलवार छीन ली और भूमि पर टेक कर उसके दो टुकड़े कर दिये, फिर राव महाशय का हाथ पकड़कर कहा-"क्या तुम चाहते हो कि मैं भी आततायी पर प्रहार कर बदला लूँ? मैं संन्यासी हूँ। तुम्हारे किसी अत्याचार से चिढ़कर मैं तुम्हारा अनिष्ट चिन्तन नहीं करूँगा जाओ, ईश्वर तुम्हें सद्बुद्धि प्रदान करे।"


एक दिन स्वामीजी फर्रुखाबाद में गंगा में पाँव फैलाये शीतल जल का आनन्द ले रहे थे। कुछ लड़कों ने उन्हें देखकर कहा-“देखो कितना मोटा साधु है।" यह कहकर वे गीली रेत के गोले बना-बनाकर उन्हें मारने लगे। बहुत देर तक स्वामीजी उन अबोध बालकों के क्रीड़ा स्थल बने रहे, परन्तु जब बालू कण आँखों में पड़ने लगे तब वे वहाँ से उठकर चले गये।


एक दिन महर्षि कानपुर में गंगा में लेटे पड़े थे। एक बड़ा भारी मगर उनके समीप आ निकला। भक्त प्यारेलाल चिल्लाकर बोले–“स्वामीजी ! झटपट पानी से बाहर निकल


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आइये एक बड़ा भारी मगर आ रहा है।" महाराज यह सुनकर ज्यों के त्यों लेटे रहे और बोले-"जब हम इसे कुछ नहीं कहते तब यह भी हमें कुछ नहीं कहेगा।" यह थी ऋषि की अहिंसा-सिद्धि ।


कर्णवास से चलकर स्वामीजी शहवाजपुर नामक ग्राम में पहुँचे। वहीं उन्हें पता चला कि आश्विन कृष्णा त्रयोदशी १९२५ वि० को दण्डी गुरु विरजानन्दजी मथुरा में कीर्ति शेष हो गये। गुरुवर के महाप्रयाण का समाचार सुनकर सांसारिक मोह-माया से विरक्ति रखनेवाले स्वामी दयानन्द के मुँह से अनायास ही निकल पड़ा-"आज व्याकरण का सूर्य अस्त हो गया।"


स्वामीजी की सत्य के प्रति अविचल निष्ठा रखने तथा ढोंग, पाखण्ड और असत्य आचरण पर निरन्तर प्रहार करते रहने के कारण स्वामी दयानन्द के जीवन में यदा-कदा ऐसे प्रसंग आते रहे जब कि दुष्ट वृत्ति के स्वार्थी लोग उन्हें हानि पहुँचाने की चेष्टा करते थे। परन्तु दृढ़ ईश्वर विश्वासी और सत्य के प्रति अनन्य निष्ठावान इस संन्यासी ने मृत्यु का भय कभी माना नहीं। वे बड़े ईश्वर विश्वासी थे। सर्वत्र एकाकी भ्रमण करनेवाले इस संन्यासी की मान्यता थी कि सर्वरक्षक परमात्मा इनकी रक्षा करता है। इस अवधि में स्वामीजी से मूर्त्ति-पूजा पर शास्त्रार्थ होते रहे। स्वामीजी का कथन था कि शास्त्रों में कहीं भी मूर्ति-पूजा का विधान नहीं है। स्वामीजी


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हास्य-विनोद का कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने देते थे। एक बार इनके पास एक व्यक्ति आया उसका नाम गयादीन था। स्वामीजी ने कहा कि जब दीन (धर्म) ही गया तो क्या बचा? उन्होंने खेद प्रकट करते हुये कहा कि हम नाम रखने की परिपाटी ही भूल गये और घृणित, अर्थहीन तथा निन्दावाचक नाम रखने लगे हैं।


कानपुर में - यहाँ से स्वामीजी कानपुर आये और भैरव मन्दिर के निकट दरगाही लाल वकील के घाट पर ठहरे। यहाँ उनका पं० हलधर ओझा तथा पं० लक्ष्मण शास्त्री से शास्त्रार्थ हुआ। स्वामीजी को बदनाम करने के लिये ईसाइयों का एजेण्ट और नास्तिक तक कहा। एक बार स्वामीजी के सुहृद स्वामी कैलाश पर्वत किसी काम से कानपुर आये। स्वामीजी महाराज ने उन्हें निज स्थान पर निमन्त्रित किया तो कैलाश पर्वत ने जन्मना जाति के आधार पर दरगाही लाल वकील को जो कायस्थ थे शूद्र बताते हुये उनके मकान पर आने से मना कर दिया। स्वामीजी ने कहा फिर मलेच्छ राज्य में क्यों रहते हो ?


स्वामीजी के साथ एक दिन एक दुर्घटना घटित हुई। स्वामीजी घाट पर अकेले बैठे थे। वहाँ बदमाशों का एक समूह आया और उनपर ढेले फेंकने लगा। एक बदमाश ने लाठी घुमाकर स्वामीजी को मारनी चाही तो उन्होंने उसकी


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लाठी पकड़कर उसे गंगा में ढकेल दिया और फुर्ती से एक पेड़ की डाली तोड़कर मुकाबले के लिये तैयार हो गये। गर्जकर बोले मुझे निरा साधु ही मत समझना, तुम्हारे जैसों के लिये तो मैं अकेला ही काफी हूँ। स्वामीजी की ललकार सुनकर उपद्रवी भाग गये।


स्वामीजी केवल जड़ मूर्ति पूजा का विरोध ही नहीं करते थे, अपितु आचरणीय वैदिक कर्मों का विधान भी बताते थे। सन्ध्यादि पञ्च महायज्ञ, गायत्री जप, वेदशास्त्रों का अध्ययन सभी का विधेयात्मक कर्त्तव्य है। एकबार एक सज्जन के यह कहने पर कि मूर्ति पूजा पर्याप्त प्राचीन काल से प्रचलित है तो इसे क्यों छोड़ें? स्वामीजी ने कहा कि चोरी भी तो प्राचीन काल से चली आ रही है फिर चोरी को ही क्यों छोड़ें?


महर्षि दयानन्द उच्च कोटि के योगी थे उनकी योग सम्बन्धी दो-तीन घटनाओं का भी उल्लेख किया जाता हैएक दिन एक भक्त ने प्रार्थना की-"महाराज! मुझे योगसाधन की विधि बताइए।" स्वामीजी ने आँखें बन्द कीं। दो मिनट के पश्चात् आँखें खोलकर बोले–“भंग भवानी का एक लोटा और चढ़ा लिया करो, तुम्हारी समाधि सिद्ध हो जायेगी।" इस व्यक्ति को अत्यन्त आश्चर्य हुआ कि स्वामीजी को बिना बताये उसके भाँग पीने का ज्ञान कैसे हो गया ? एकदिन किसी अन्य व्यक्ति ने योग सिखाने की प्रार्थना


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की। स्वामीजी आँख बन्दकर और कुछ देर मौन रहने के पश्चात् बोले-"एक विवाह और कर लो तुम्हारी योग साधना पूर्ण हो जायेगी।" इस व्यक्ति ने दो विवाह किये हुये थे। स्वामीजी ने व्यंग्य में ऐसा उत्तर दिया था। यह व्यक्ति भी आश्चर्यचकित था कि स्वामीजी को मेरे दो विवाहों की बात कैसे ज्ञात हो गई ?


महाराज किसी स्थान पर विराजमान थे। कुछ भक्त लोग भी बैठे हुये थे। सहसा स्वामीजी हँस पड़े। लोगों ने हँसने का कारण पूछा तो स्वामीजी ने बताया कि थोड़ी देर में एक कौतुक होगा। लगभग आधा घण्टा पश्चात् एक व्यक्ति आया और उसने स्वामीजी को चार लड्डू भेंट किये। स्वामीजी ने उन लड्डुओं को लेकर उनमें से एक उस लाने वाले व्यक्ति को देना चाहा। उसने लेने से मना कर दिया। स्वामीजी ने फिर कहा—“लेता क्यों नहीं?" वह काँपने लगा, परन्तु लड्डू फिर भी नहीं लिया। स्वामीजी ने कहा-“इन लड्डुओं में जहर मिलाकर लाया है।" परीक्षण करने पर स्वामीजी की बात सत्य निकली।


ऋषि दयानन्द के जीवन में इस प्रकार की कम-से-कम बयालीस घटनाएँ हैं।


एकदिन ऋषिराज फर्रुखाबाद में गंगा के तट पर बैठे हुये प्राकृतिक सौन्दर्य की छटा निहार रहे थे, उसी समय


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उन्होंने देखा कि एक देवी अपने मरे हुये बच्चे को हाथों पर उठाये गंगा में प्रविष्ट हुई। कुछ गहरे जल में जाकर उसने बच्चे के शरीर पर से कपड़ा उतारकर बालक को गंगा में प्रवाहित कर दिया। इस दृश्य को देखकर महर्षि का हृदय दयार्द्र हो गया और उनकी आँखों में आँसू छलक आये। उन्होंने अपने मन में सोचा कि-"भारत देश इतना कंगाल और निर्धन है कि माता अपने कलेजे के टुकड़े को तो बहा चली है, परन्तु उसने वस्त्र इसलिए नहीं बहाया कि उसका मिलना कठिन है।" महर्षि ने वहीं प्रण किया मैं इन लोगों के दुःख दूर करने के साधन उपस्थित करूँगा।


९. काशी शास्त्रार्थ


महर्षि ने विचार किया-"पौराणिकों के गढ़, विद्या की नगरी, शिव की पुरी, काशी को जीता जाय।" अतः कानपुर से महाराज बिना किसी सूचना के चलकर २१ सितम्बर १८६९ ई० को रामनगर (काशी) पहुँचे और एक वृक्ष के नीचे आसन जमाया। वहाँ पहुँचकर अपने सिंहनाद से सारी वाराणसी को निनादित कर दिया। काशी नरेश ईश्वरीप्रसाद नारायण सिंह को जब स्वामीजी के आगमन का पता चला तो आठ आना प्रतिदिन भोजन हेतु राजकोष से देने की व्यवस्था की। एक दुशाला भी स्वामीजी की भेंट किया जिसे उन्होंने स्वीकार नहीं किया। मूर्ति पूजा का निषेध करने से


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स्वामीजी को विरत करने के लिये राजकोष से १०० रुपये मासिक वृत्ति देने की बात भी कही तो स्वामीजी ने स्पष्ट उत्तर दिया–“यदि आप अपना सम्पूर्ण राज्य भी मुझे दे दें तो भी मैं मूर्ति पूजा के मिथ्यात्व तथा ईश्वरोपासना में उसकी अनुपयोगिता का प्रतिपादन करने से विरत नहीं हूँगा।" स्वामीजी मूर्ति पूजा, रामलीला, रासलीला को लोकाचार मानते थे जो शास्त्र सम्मत नहीं है।


काशी नरेश ने शास्त्रार्थ की व्यवस्था की और कोतवाल रघुनाथप्रसाद को व्यवस्था के लिये नियुक्त किया। स्वामीजी ने अपने हस्ताक्षर करके इक्कीस शास्त्रों की सूची दे दी। काशी के अंग्रेज जिलाधीश ने इच्छा प्रकट की कि शास्त्रार्थ रविवार को हो जिससे वे भी उसमें उपस्थित हो सकें। परन्तु शास्त्रार्थ कार्तिक शुक्ला द्वादशी १९२६ वि० दिन मंगलवार तदनुसार १६ नवम्बर १८६९ को होना निश्चित हुआ। 


अपने पक्ष में स्वामीजी अकेले थे और उनके विरोध में स्वामी विशुद्धानन्द, पं० बालशास्त्री, पं० अम्बिकादत्त व्यास, ताराचरण तर्करत्न आदि सहित ४० विद्वान् विराजमान थे। इनके अतिरिक्त काशी नरेश, उनके भाई राजकुमार तथा अन्य कुल दस व्यक्ति भी उपस्थित थे।


शास्त्रार्थ प्रारम्भ हुआ। शास्त्रार्थ का विषय था मूर्ति पूजा। स्वामी विशुद्धानन्द ने एक चाल चली। उन्होंने वेदान्त


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दर्शन का एक सूत्र बोलकर कहा कि इसका अर्थ कीजिए। स्वामीजी बोले यह आज के विषय के बाहर है। विशुद्धानन्द ने कहा-फिर भी इसका अर्थ कर दीजिए। स्वामी दयानन्द बोले इसके लिये तो पूर्वापर प्रकरण देखना पड़ेगा। विशुद्धानन्द ने कहा-"जब आपको सब-कुछ कण्ठस्थ नहीं है तब आप काशी में क्यों आये?" ऋषि ने पूछा कि-"क्या आपको सब-कुछ कण्ठस्थ है ?" विशुद्धानन्द सीना फुलाकर बोले"हाँ हमें सब कुछ कण्ठस्थ है।" "अच्छा तो धर्म के लक्षण बताइये"— दयानन्दजी ने पूछा । विशुद्धानन्दजी बगलें झाँकने लगे। वे धर्म के लक्षण नहीं बता सके। पं० बालशास्त्री खड़े हुये। वे बोले धर्म के बारे में हमसे पूछिये। स्वामीजी बोलेआप अधर्म के लक्षण बताइये।" बालशास्त्री भी चौकड़ी भूल गये। उन्होंने सोचा भी न होगा कि कोई अधर्म के लक्षण भी पूछ सकता है ?


इस शास्त्रार्थ में यद्यपि स्वामी दयानन्द का पक्ष प्रबल था पर काशी के लोगों ने हुड़दंग किया और बीच में ही पूर्व नियोजित षड्यन्त्र के तहत स्वामीजी पर ईंट, गोबर, मिट्टी के ढेलों की वर्षा कर दी। कोतवाल रघुनाथप्रसाद को ऐसे षड्यन्त्र की पहले से ही आशंका थी अतः उन्होंने स्वामीजी को एक कमरे के भीतर करके अन्दर से कपाट बन्द करा दिये और आरक्षियों को आदेश दिया कि गुण्डों को बलपूर्वक


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यहाँ से भगा दिया जाये।


कोतवाल का यह कार्य बहुत ही सराहनीय रहा। पं० घासीराम ने भी महाराज की जीवनी में लिखा है – “समस्त भारतवासी ही नहीं वरन् संसार के सब मनुष्य सदा के लिये इस कर्त्तव्यनिष्ठ, न्यायशील कोतवाल के आभारी होंगे। वह स्वयं मूर्ति पूजक था, परन्तु उसने एक क्षण के लिये भी पक्षपात नहीं किया। यदि वह अणुमात्र भी अपने कर्त्तव्य से विमुख होता तो बड़ा अनिष्ट होता। अतः जब तक स्वामी दयानन्द का नाम संसार में रहेगा तब तक रघुनाथ प्रसाद कोतवाल का नाम भी गौरव और प्रतिष्ठा के साथ संसार में अमर रहेगा।"


पौराणिक समुदाय ने ऋषि दयानन्द की तथाकथित पराजय को विज्ञापित करने के लिये 'दयानन्द पराभूति, 'दुर्जन-मुखमर्दन' नामक दो पुस्तकें क्रमशः संस्कृत तथा हिन्दी में प्रकाशित कीं जिनमें स्वामीजी की पराजय की घोषणा की, पर कुछ निष्पक्ष पत्र-पत्रिकाओं में सही विवरण छपा। डॉ रूडोल्फ हार्नल ईसाई पादरी ने The christian Intelli genec शीर्षक पत्र के मार्च १८७० ई० के अंक में शास्त्रार्थ का पूरा विवरण दिया है और अन्त में लिखा है कि प्रतिपक्षी विद्वान् स्वामीजी के उत्तर की प्रतीक्षा किये बिना ही शास्त्रार्थ स्थल से उठ खड़े हुये । पण्डितों द्वारा उठाये गये सभी प्रश्नों के


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उत्तर स्वामीजी ने बाद में प्रकाशित करा दिये थे। 


काशी शास्त्रार्थ के बाद स्वामीजी ने यह अनुभव किया कि उन्हें अपनी कार्य प्रणानी पर थोड़ा और विचार करना होगा। धर्म के वास्तविक रूप को जन-साधारण में प्रचारित करने तथा धार्मिक पाखण्डों व सामाजिक कुरीतियों के उन्मूलन हेतु संगठित प्रयास की आवश्यकता उन्हें दिखाई दे रही थी। उनका विचार था कि वेद की वास्तविक शिक्षाओं के प्रचार के लिये वेद विद्यालयों की स्थापना की जानी चाहिये।


लगभग ४ मास काशी में रहकर स्वामीजी ने २६ जनवरी १८७० ई० को प्रयाग के लिये प्रस्थान किया । 


प्रयाग में - स्वामीजी महाराज काशी से मिर्जापुर होते हुये ५ फरवरी १८७० ई० में प्रयाग पहुँचे उस समय वहाँ माघी कुम्भ की धूम थी। स्वामीजी वासुकि मन्दिर में ठहरे। 


स्वामीजी बराबर इस बात के लिये प्रयत्नशील रहते थे कि लोग सदाचारी बनें, दुर्व्यसनों को त्यागकर सादा जीवन व्यतीत करें। जो भी व्यक्ति स्वामीजी के सम्पर्क में आता था, वह उनके सात्विक विचारों से प्रभावित होता था। एक बार प्रयाग में पादरी मैथ्यू ने स्वामीजी से भेंट की। बातों ही बातों में पादरी ने कहा कि जब आप वेदों के प्रचलित भाष्य व टीकाओं को ठीक नहीं मानते तो स्वयं ही उनका भाष्य क्यों नहीं करते? इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा कि वेदों पर


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टीका लिखना साधारण बात नहीं है। इसके लिए असाधारण प्रतिभा, योग्यता तथा विद्वता की आवश्यकता है। तपः पूत प्रज्ञा का धनी तथा योगजन्य ज्ञान रखनेवाला व्यक्ति ही वेदभाष्य लिखने का अधिकारी होता है।


इससे स्पष्ट है कि स्वामीजी धीरे-धीरे स्वयं में इस प्रकार की योग्यता अर्जित कर रहे थे। मिर्जापुर में इन्होंने वैदिक पाठशाला की स्थापना की। इसकी स्थापना चैत्र सं० १९२७ वि० में हुई। स्वामीजी भारत की सन्तान को वैदिक, आध्यात्मिक तथा सांस्कृतिक पुनरुत्थान का पाठ पढ़ाना चाहते थे।


मिर्जापुर से चलकर स्वामीजी पुनः चैत्र शुक्ल १९२७ वि० में काशी आये। यह उनकी तीसरी काशी यात्री थी । लगभग दो मास काशी में रहे । ज्येष्ठ मास में सोरों आये। वहाँ से चलकर कासगंज आये। कासगंज में भी पाठशाला की स्थापना की। कासगंज की ही एक घटना है-एकबार स्वामीजी कासगंज के बाजार में चले जा रहे थे। उस समय सामने से एक बलिष्ठ साँड आ निकला। वह लोगों को पीछे दौड़ा करता था तथा उन्हें मारता था। सब लोग डर के मारे चबूतरों पर चढ़ गये और स्वामीजी से भी ऐसा ही करने को कहा परन्तु स्वामीजी सीधे साँड की ओर ही बढ़ते गये। जब उसके बहुत निकट पहुँच गये तब साँड आप ही मार्ग छोड़कर एक ओर चला गया। स्वामीजी की इस निर्भीकता पर सारा बाजार


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चकित रह गया। चैनसुख ने पूछा-"महाराज यदि साँड सींग मारता तो आप क्या करते ?" महाराज ने हँसकर उत्तर दिया"करते क्या सींग पकड़कर परे धकेल देते।"


छलेसर के ठाकुर मुकुन्द सिंह ने कर्णवास में संवत् १९२४ वि० में स्वामीजी के दर्शन किये थे। उन्होंने स्वामीजी को अपने यहाँ आमन्त्रित किया। स्वामीजी १२ नवम्बर १८७० ई० को छलेसर पहुँचे और वहाँ वैदिक पाठशाला की स्थापना की। इस गाँव में स्वामीजी द्वारा स्थापित यज्ञशाला एवं पाठशाला के अवशेष आज भी हैं ।


छलेसर से प्रस्थान कर स्वामीजी रामघाट होते हुये फर्रुखाबाद आये। वहाँ की पाठशाला की अव्यवस्था देखकर महाराज ने लाला निर्भयराम को प्रबन्धक नियुक्त किया। इसी पाठशाला के छात्र पं० भीमसैन एवं पं० ज्वालादत्त कालान्तर में स्वामीजी के ग्रन्थों के लिपिकर्त्ता एवं संशोधक बने । १ मार्च १८७२ ई० को स्वामीजी पुनः काशी आये। इसबार कोई भी पण्डित स्वामीजी से शास्त्रार्थ को नहीं आया। इसके बाद स्वामीजी मुगलसराय, डूमराँव, आरा, पटना आदि स्थानों पर घूमते रहे।


एकबार स्वामीजी मुँगेर के लिये जा रहे थे। रास्ते में जमालपुर स्टेशन पर गाड़ी बदलनी थी। इसमें अभी थोड़ा समय था । स्वामीजी प्लेटफार्म पर टहल रहे थे। उसी समय एक अंग्रेज इञ्जीनियर अपनी पत्नी के साथ स्टेशन पर


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उपस्थित था। एक कौपीन मात्र पहने हुये एक दिगम्बर साधु को सार्वजनिक स्थान पर टहलते देखकर उस इञ्जिनियर ने स्टेशन-मास्टर को कहा कि इस नंगे साधु को स्टेशन से हटा दें। स्टेशन मास्टर स्वामीजी को पहचानता था। उसने आदरपूर्वक स्वामीजी से कहा-“महाराज अभी गाड़ी आने में देर है, आप विश्रामालय में चलकर कुर्सी पर विराजें।" स्वामीजी समझ गये कि यह अंग्रेज इञ्जीनियर के कहने से ऐसा कह रहा है।


शासक जाति के एक पुरुष के मिथ्या दम्भ से अप्रभावित हुये बिना स्वामीजी ने कहा, कि जाकर साहब से कह दो कि प्लेटफार्म पर टहलने वाला साधु उस युग का है, जब बाबा आदम व बीबी हव्वा अदन के बाग में नंगे घूमते थे। स्वामीजी की इस स्पष्ट एवं निर्भिक वाणी को सुनकर स्टेशन मास्टर स्तब्ध रह गया। वह उस अंग्रेज इञ्जीनियर के पास पहुँचा और उससे कहा कि यह कोई भिखमंगा साधु नहीं है बल्कि प्रसिद्ध सुधारक स्वामी दयानन्द सरस्वती है। इञ्जीनियर यह बात सुनकर स्वयं स्वामीजी के पास गया और उनके प्रति पूर्ण सम्मान प्रकट किया।


स्वामीजी साधु-संन्यासियों से स्वाध्याय की अपेक्षा करते थे और उनसे समाज का मार्गदर्शन करने का आग्रह करते थे। आलसी, अकर्मण्य, प्रमादी, दूसरे के अन्न पर पलनेवाले देशहित में कुछ न करनेवाले साधु समाज पर बोझ हैं।


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स्वामीजी चाहते थे कि संन्यासी वर्ग पुरुषार्थी, कर्मठ, परोपकारी एवं लोकहित में समर्पित हो ।


स्वामीजी अनार्ष ग्रन्थों पर श्रद्धा नहीं रखते थे, सबको आर्ष ग्रन्थ पढ़ने एवं उनका प्रचार करने की प्रेरणा देते थे। यही भी एक बड़े दुर्भाग्य की बात थी कि स्वामी दयानन्द के अतिरिक्त अन्य किसी भी समाज सुधारक या धर्माचार्य ने ईसाईयत के प्रचार-प्रसार को रोकने में कोई रुचि नहीं दिखाई, उल्टे बंगाल के हजारों कुलीन हिन्दू, स्वधर्म छोड़कर ईसाई धर्म को ग्रहण कर रहे थे। उनमें प्रमुख थे लालबिहारी डे, मधुसूदन माइकल दत्त, व्योमेशचन्द्र बनर्जी आदि। स्वामीजी ने ईसाई, मुसलमान धर्मों में पाई जानी वाली अवैज्ञानिक युक्ति एवं तर्क विरुद्ध मान्यताओं का जोरदार खण्डन किया। इससे हिन्दुओं में निर्भीकता जागृत हुई और उन्हें अपना धर्म श्रेष्ठ एवं वरणीय लगने लगा।


कुछ लोग स्वामीजी को अनुदार एवं अन्य धर्मों का खण्डन करनेवाले के रूप में ही जानते हैं, परन्तु ऐसा नहीं था। स्वामीजी अन्य मतावलम्बियों के प्रति सहिष्णु थे । हिन्दू समाज में व्याप्त पाखण्डों, रूढियों व अन्धविश्वासों को देखकर उनका हृदय विदीर्ण हो जाता था। दान व तीर्थ सम्बन्धी हिन्दुओं की धारणाएँ इतनी कलुषित, पापपूर्ण एवं भ्रष्ट थीं कि वे धर्म के नाम पर अपनी कुँवारी कन्याओं को पण्डों को दान कर देते थे। कुछ लम्पट पण्डे लड़की को


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लौटाते नहीं थे, और कुछ बहुत अधिक दान लेकर लड़की को लौटाते थे। स्वामीजी कभी-कभी इतने उद्विग्न हो जाते थे कि उन्हें भोजन का भी ध्यान नहीं रहता था। 


कलकत्ता में-१६ दिसम्बर १८७२ को स्वामीजी कलकत्ता जो उस समय भारत की राजधानी था-पहुँचे। वहाँ राजा सौरीन्द्र मोहन ठाकुर के बाग में ठहरे। वहीं उनकी भेंट केशवचन्द्र सेन से हुई थी। स्वामीजी ईश्वरचन्द्र विद्यासागर से मिलने के लिए उनके निवास स्थान पर गये। स्वामीजी का वहाँ "प्रतिमा-पूजन" पर ८ अप्रैल १८७३ को पं० भूदेव मुखोपाध्याय की मध्यस्थता में पं० ताराचरण तर्करत्न के साथ शास्त्रार्थ हुआ। पर्याप्त समय तक शास्त्रार्थ चलता रहा। अन्त में तर्करत्न ने कहा कि "उपासना मात्रमेव भ्रममूलम्"। इस प्रकार भूदेव मुखोपाध्याय यह कहकर उठ खड़े हुये कि आप आये तो थे प्रतिमा पूजन की स्थापना करने के लिये परन्तु आप स्वयं ही इसका खण्डन करते हो और उपासना मात्र को ही भ्रममूलक बताते हैं। स्वामीजी ने कहा कि आपके कथन से ही प्रतिमा पूजन का स्वतः ही खण्डन हो गया।


हुगली प्रवास के समय स्वामीजी के सम्पर्क में एक नवयुवक मन्मथनाथ चौधरी आया । वह बहुत दिन तक स्वामीजी के साथ रहा और उसने निकट से उनकी दिनचर्या एवं जीवन पद्धति को देखा। उसने देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय को


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एक विस्तृत पत्र लिखा जिसमें स्वामीजी को अद्वितीय योगी, प्रखर वक्ता, शास्त्रों का अपूर्व ज्ञाता, स्वतन्त्र चिन्तक एवं निःस्वार्थ देशभक्त कहा है।


स्वामीजी ने अपने एक विस्तृत व्याख्यान में एक बार बताया कि वर्ण व्यवस्था जन्म से नहीं अपितु गुण-कर्म पर आधारित है।


१७ अप्रैल १८७३ को स्वामीजी भागलपुर आये, वहाँ लगभग एक मास रहकर १८ मई को पटना पहुँचे। यहाँ उन्होंने मूर्ति-पूजा एवं मृतक-श्राद्ध का खण्डन किया । २८ मई को छपरा पहुँचे और वहाँ के प्रसिद्ध रईस रामशिव गुलाम शाह के अतिथि रहे। एक धनी-मानी व्यक्ति द्वारा मूर्ति पूजा के घोर विरोधी संन्यासी का सत्कार व सम्मान देखकर स्थानीय पण्डित ईष्याग्नि में भस्म होने लगे ।


११ जून १८७३ को स्वामीजी आरा आये जहाँ लगभग डेढ़ मास रहे। फिर वहाँ से २६ जुलाई को डूमराँव आये । वहाँ वैदिक पाठशाला की स्थापना करना चाहते थे पर महाराजा ड्रॅमराव से कोई सहायता नहीं मिली। वहाँ से ८ अगस्त को मिर्जापुर पहुँचे। वहाँ स्वामीजी ने सेठ रामरतन लड्ढा की सहायता से वैदिक पाठशाला की स्थापना की थी और पं० ज्वालादत्त को उसका मुख्य प्रबन्धक एवं शिक्षक बनाया था। अब यहाँ पहुँचकर स्वामीजी ने पाठशाला की


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दुर्दशा देखी तो उसे बन्द करने का निर्णय किया। 


मिर्जापुर में रहते हुये ही स्वामीजी ने पं० जवाहरदास उदासीन साधु को बुलाकर काशी में वैदिक पाठशाला की स्थापना की प्रेरणा दी थी। परिणामस्वरूप " 'सत्यशास्त्र पाठशाला" की स्थापना हुई।


स्वामीजी ने काशी के प्रसिद्ध विद्वान् पं० शिवकुमार शास्त्री को १५ रुपये मासिक पर अष्टाध्यायी व महाभाष्य पढ़ाने के लिये नियुक्त किया। काशी के अन्य पण्डितों ने जब शास्त्रीजी से कहा कि दयानन्द मूर्ति पूजा का विरोधी है आप उसके द्वारा स्थापित पाठशाला में क्यों पढ़ाते हो? तो शास्त्रीजी ने कहा कि मैं तो छात्रों को अष्टाध्यायी और महाभाष्य पढ़ाता हूँ मुझे इससे कोई मतलब नहीं कि स्वामीजी क्या मानते हैं और क्या नहीं ?


१०. सत्यार्थप्रकाश की रचना


बंगाल के हेमचन्द्र चक्रवर्ती ने स्वामीजी के कलकत्ता प्रवास में उनसे उपनिषदों का अध्ययन किया था वे बाद में स्वामीजी के पास कानपुर भी आये। एकबार उन्होंने स्वामीजी से पूछा कि बड़े-बड़े विद्वान् आपके पास शास्त्रार्थ हेतु आते हैं और मूर्ति पूजा का समर्थन करते हैं क्या वे सभी गलत हैं? तो स्वामीजी ने उत्तर दिया-"सत्यासत्य का विवेक तो थोड़े ही लोगों को होता है। अधिकांश


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के लिये तो मूर्ति-पूजा आजीविका का साधन है, वे उसे त्याग नहीं सकते।"


स्वामीजी फर्रुखाबाद से चलकर कासगंज होते हुये २० दिसम्बर को छलेसर आये। यहाँ अलीगढ़ के डिप्टी कलेक्टर राजा जय कृष्ण दास से उनकी प्रथम भेंट हुई। इन्हीं राजा जय कृष्ण दास के अनुरोध को स्वीकार करके ही स्वामीजी ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ "सत्यार्थ-प्रकाश" की रचना की थी ।


काशी में स्वामीजी की प्रेरणा से साधु जवाहरदास ने जिस संस्कृत पाठशाला की स्थापना की थी वह मई १८७५ में बन्द करनी पड़ी।


काशी में ही १२ जून १८७४ ई० को 'सत्यार्थप्रकाश' का लेखन प्रारम्भ हुआ। राजा जय कृष्ण दास ने स्वामीजी को लेखक उपलब्ध कराये । इसका लेखन लगभग अट्ठाईस मास चला। इसका प्रथम संस्करण भी राजाजी के द्वारा प्रदत्त धन से ही हुआ। १८७५ ई० में काशी के स्टार प्रेस से मुद्रित होकर यह प्रकाशित हुआ था। इसमें कुल चौदह समुल्लास थे परन्तु प्रथम संस्करण में कुल १२ समुल्लास ही छपे थे। अन्त के दो तेरहवाँ व चौदहवाँ समुल्लास तथा स्वमन्तव्यामन्तव्य नहीं छप पाये थे। इसके प्रथम संस्करण में कुछ तो लेखक के प्रमादवश कुछ जान-बूझकर अनेक भूलें रह गयी थीं जिन्हें बाद में स्वामीजी ने संशोधित किया। इस ग्रन्थ का द्वितीय


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संस्करण भ्राद्रपद शुक्लपक्ष संवत् १९३९ वि० में तैयार किया गया था जो स्वामीजी की मृत्यु के बाद छपा। इसमें एक मुख्य भूमिका तथा चार अनुभूमिकाएँ लिखी गई हैं। इनसे ही स्वामीजी के इस ग्रन्थ के लेखन का उद्देश्य प्रकट होता है। भूमिका में स्वामीजी लिखते हैं - "मेरा इस ग्रन्थ (को) बनाने का प्रयोजन सत्य अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना सत्य अर्थ का प्रकाश समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाये।इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रखी है और न किसी का मन दुखाना वा किसी को हानि का तात्पर्य है। किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें। बिना सत्योपदेश के अन्य कोई भी मनुष्य जाति की उन्नति का कारण नहीं है।'


अनुभूमिका (१) में जो ग्यारहवें समुल्लास के प्रारम्भ में लिखी है- स्वामीजी लिखते हैं—“यदि हम सब मनुष्य और विशेष विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना-कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। 


यह निश्चय है कि इन विद्वानों के विरोध ने ही सबको


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विरोध जाल में फँसा रखा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फँसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहें तो अभी ऐक्य मत हो जायें. सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों के आत्माओं में प्रकाशित करे।" •


अनुभूमिका (२) में स्वामीजी लिखते हैं – “जो हो परन्तु बहुत मनुष्य ऐसे हैं कि जिनको अपने दोष तो नहीं दीखते किन्तु दूसरों के दोष देखने में अति उद्युक्त रहते हैं। यह न्याय की बात नहीं, क्योंकि प्रथम अपने दोष देख निकाल के पश्चात् दूसरे के दोषों में दृष्टि देके निकालें ।' 


अनुभूमिका (३) में ऋषि लिखते हैं – “जो-जो सर्वमान्य सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक से हैं। झगड़ा झूठे विषयों में होता है। अथवा एक सच्चा और दूसरा झूठा हो तो भी कुछ थोड़ा-सा विवाद चलता है। यदि वादी-प्रतिवादी सत्यासत्य निश्चय के लिए वाद-प्रतिवाद करे तो अवश्य निश्चय हो जाये।"


अनुभूमिका (४) में स्वामीजी के वचन देखिये – “और यही सज्जनों की रीति है कि अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण, और दोषों का त्याग करें, और हठियों का दृढ़ दुराग्रह न्यून करें-करावें । क्योंकि पक्षपात से क्या-क्या अनर्थ जगत् में न हुये और होते हैं। सच तो यह है कि इस अनिश्चित क्षणभङ्गुर जीवन में


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पराई हानि करके लाभ से स्वयं रिक्त रहना और अन्य को रखना मनुष्यपन से बहि: है। " 


कितना पवित्र उद्देश्य है स्वामीजी का इस ग्रन्थ के लेखन का। यह मनुष्य मात्र के कल्याण के लिये लिखा गया है और जीवन की प्रत्येक समस्या का समाधान इसमें हैं। हमें पूर्वाग्रहों एवं दुराग्रहों को छोड़कर इस ग्रन्थ का स्वाध्याय करना चाहिये ।


११. जन्मभूमि गुजरात में


काशी प्रवास के समय स्वामीजी काशी नरेश से मिलने उनके प्रासाद में गये। राजा ने उनका बड़ा सम्मान किया, और १८६९ ई० में काशी शास्त्रार्थ के समय में हुये अशिष्ट व्यवहार के लिये क्षमा याचन की ।


लगभग १ मास काशी में रहकर स्वामीजी १ जुलाई १८७० को प्रयाग आये। यहाँ से स्वामीजी जबलपुर पहुँचे । जबलपुर के अतिरिक्त सहायक आयुक्त श्री कृष्ण राव के निवेदन पर स्वामीजी जबलपुर पहुँचे थे। भारतीय संसद की वीथि में लगा हुआ स्वामीजी का चित्र श्री कृष्ण राव के घर पर ही खींचा गया था।


कजबलपुर से स्वामीजी नासिक गये। नासिक रोड रेलवे स्टेशन से रेल में सवार होकर महर्षि २६ अक्टूबर १८७४ को बम्बई पहुँचे। यहाँ से चलकर स्वामीजी १ दिसम्बर १८७४


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ई० को सूरत पहुँचे। यहाँ स्वामीनारायण मत के खण्डन में स्वामीजी ने “शिक्षा पत्री ध्वान्त निवारण" नामक ग्रन्थ की रचना की।


स्वामीजी दिसम्बर १८७४ ई० में भडौंच पहुँचे। यहाँ नारी जाति को पति सेवा का उपदेश देते हुए स्वामीजी ने कहा उन्हें ढोंगी पाखण्डी गुरुओं और साधुओं से बचना चाहिये। भारतीय नारी को भारत के विलुप्त गौरव को प्रतिष्ठित करने में अपना पूर्ण बल लगाना चाहिये ।


स्वामीजी गुरुडम के प्रबल विरोधी थे। कान में फूँक मारकर गुरुमन्त्र देना और शिष्य बनाना वैदिक सिद्धान्तों के प्रतिकूल है। वेद मन्त्रों का भण्डार जब हमारे पास है तो फिर गुरुमन्त्र का क्या अभिप्राय है।


यहाँ से स्वामीजी अहमदाबाद पहुँचे। उनके स्वागत के लिये महीपत रूपराम तथा गोपालराव हरिदेशमुख थे। इनमें प्रथम सबसे पहले गुजराती थे जिन्होंने विदेश यात्रा की थी। 


३१ दिसम्बर को स्वामीजी राजकोट पहुँचे। यहाँ उनके ईश्वर, धर्म, वेदों का अनादित्व, पुनर्जन्म, विद्या और अविद्या, मुक्ति, आर्यों का इतिहास एवं मानवीय कर्त्तव्य विषयों पर व्याख्यान हुये। उनके व्याख्यानों का लोगों पर बड़ा ही अच्छा प्रभाव पड़ा। अब तक किसी व्यक्ति ने स्वधर्म, स्वसंस्कृति तथा स्वदेश के गौरव पर इतने प्रभावशाली ढंग से विचार प्रकट नहीं किये थे।


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स्वामीजी जब राजकोट में थे तभी काठियावाड़ के राजाओं का एक सम्मेलन वहाँ आयोजित किया गया था। स्वामीजी ने इस सम्मेलन को सम्बोधित किया था। इसी अवसर पर स्वामीजी की भेंट मोरवी के राजा सर बाघजी से हुई थी । वार्तालाप के दौरान स्वामीजी ने उन्हें बताया था कि वे उनकी ही प्रजा हैं। यह तथ्य देवेन्द्रनाथ मुखोपाध्याय को मोरवी के दीवान मानजी, कानजी ने १३ जून १९१२ को अपने पत्र में बताया था ।


१८ जनवरी १८७५ को राजकोट से चलकर २१ जनवरी १८७५ को स्वामीजी पुनः अहमदाबाद पहुँचे । २९ जनवरी १८७५ को इस प्रदेश का पूरा भ्रमण करके उसी दिन स्वामीजी बम्बई पहुँचे और उसी स्थान पर ठहरे जहाँ वे अब से तीन मास पूर्व ठहरे थे।


महर्षि गुजरात से प्रस्थान करने वाले थे। बहुत से पण्डितों ने मिलकर विचार किया कि स्वामीजी से ऐसा कोई जटिल प्रश्न पूछा जाये जिससे एक बार तो स्वामीजी को भी नीचा देखना पड़े। विचार विनिमय के बाद सर्वसम्मति से निश्चय हुआ कि स्वामीजी से पूछा जाये कि आप ज्ञानी हैं या अज्ञानी ? यदि वे कहें कि ज्ञानी हूँ तो उन्हें कहा जाय कि महापुरुष अहंकारी नहीं होते, और यदि वे अपने आपको अज्ञानी कहें तो उनसे कहा जाये कि जब आप स्वयं ही अज्ञानी हैं तब हम आपके उपदेश पर आचरण क्यों करें ?


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दूसरे दिन जब स्वामीजी से यह पूछा गया तो स्वामीजी ने तुरन्त उत्तर दिया—“कई विषयों में पूर्ण ज्ञानी हूँ और कई विषयों में अज्ञानी । वेदशास्त्र आदि विषयों में मैं पूर्ण ज्ञानी हूँ और अरबी, फारसी तथा अंग्रेजी आदि विषयों में अज्ञानी यह सुनकर प्रश्नकर्त्ता चकित रह गये और एक दूसरे का मुँह ताकने लगे।"


१२. बम्बई आगमन और आर्यसमाज की स्थापना 


इसबार स्वामीजी के व्याख्यान बम्बई में खुले मैदान में हुये। कारण सुनने वालों की भीड़ बढ़ती जा रही थी और सभागारों में बैठना अशक्य हो जाता था। लोगों ने स्वामीजी से कई बार आर्यसमाज की स्थापना के लिये कहा। स्वामीजी महाराज किसी भी नवीन संस्था की स्थापना में जल्दबाजी नहीं करना चाहते थे। आर्यसमाज की विधिवत स्थापना से पूर्व अपने भक्तों और अनुयाइयों के सामने स्वामीजी ने अपनी स्थिति स्पष्ट करते हुये अत्यन्त मार्मिक शब्दों में कहा–


''भाई! हमारा कोई स्वतन्त्र मत नहीं है। मैं तो वेद के आधीन हूँ, और हमारे भारत में पच्चीस कोटि आर्य है। कई-कई बातों में किसी-किसी से कुछकुछ भेद हो सो विचार करने से आप ही छूट जावेगा। मैं संन्यासी हूँ और मेरा कर्त्तव्य यही है कि आप लोगों का जो अन्न खाता हूँ, इसके बदले जो सत्य समझता


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हूँ उसका निर्भयता से उपदेश करता हूँ। मैं कुछ कीर्ति का रागी नहीं हूँ। चाहे कोई मेरी स्तुति करे या निन्दा करे मैं अपना कर्त्तव्य समझकर बोध कराता हूँ। कोई चाहे माने या न माने इसमें मेरी कोई हानि नहीं है ।"


जब एक सज्जन ने स्वामीजी से यह पूछा कि यदि हम से समाज स्थापित कर लें तो क्या इसमें कोई सार्वजनिक हानि होगी? इसके उत्तर में स्वामीजी ने कहा—


"आप यदि समाज से पुरुषार्थ करके परोपकार कर सकते हैं तो समाज कर लो, इसमें मेरी कोई मनाई नहीं है। परन्तु इसमें यथोचित व्यवस्था न रखोगे तो आगे गड़बड़ाध्याय हो जायेगा। मैं तो जैसा अन्य को उपदेश देता हूँ वैसा ही आप को भी करूँगा। और इतना लक्ष्य में रखना कि मेरा कोई स्वतन्त्र मत नहीं है और मैं सर्वज्ञ भी नहीं हूँ। इससे यदि मेरी कोई गलती आगे पायी जाये युक्ति पूर्वक परीक्षा करके इसको भी सुधार लेना।"


“यदि ऐसा न करोगे तो आगे यह भी एक मत हो जायेगा और इसी प्रकार से "बाबा वाक्यं प्रमाणं" करके इस भारत में नाना प्रकार के मत-मतान्तर प्रचलित होके, भीतर-भीतर दुराग्रह रख के, धर्मान्ध होके लड़कर नाना प्रकार की सद्विद्या का नाश


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करके यह भारत वर्ष दुर्दशा को प्राप्त हुआ है, इसमें यह भी एक मत बढ़ेगा।"


"मेरा अभिप्राय तो है कि भारतवर्ष में नाना प्रकार के मत-मतान्तर प्रचलित हैं, वो भी सब वेदों को मानते हैं। इससे वेदशास्त्ररूपी समुद्र में यह सब नदी-नाव पुनः मिला देने से धर्म एक्यता होगी। धर्म एक्यता से सांसारिक और व्यवहारिक सुधारणा होगी और इससे कला-कौशल आदि सब अभीष्ट सुधार होके मनुष्य मात्र का जीवन सफल होके अन्त में अपना धर्म बल से अर्थ, काम और मोक्ष मिल सकता है।"


अन्ततः खूब सोच-विचार करने के बाद चैत्र शुदि पञ्चमी सम्वत् १९३२ वि० शनिवार तदनुसार १० अप्रैल १८७५ ई० को गिर गाँव मौहल्ले में एक पारसी सज्जन डॉ० माणिकजी अदेरजी की वाटिका में सायंकाल साढ़े पाँच बजे आर्यसमाज की विधिवत् स्थापना हुई। प्रारम्भ में इसके सदस्यों की संख्या १०० थी। इसके प्रारम्भिक सदस्यों की सूची में क्रम सं० ३१ पर पण्डित दयानन्द सरस्वती का नाम अंकित है। जाति ब्राह्मण, पेशा संन्यासी । आर्यसमाज के २८ नियम थे और इसकी संरचना प्रजातन्त्र के मौलिक सिद्धान्तों पर आधारित है।


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स्वामीजी का एक फोटो उनके एक भक्त हरिश्चन्द चिन्तामणि ने तैयार कराया था, पर स्वामीजी ने विशेष रूप से अपने भक्त जनों को यह निर्देश दिया था कि उनका चित्र या आकृति आर्य मन्दिरों में कदापि स्थापित न की जाये। स्वामीजी की आशंका थी कि मूर्ति पूजा के प्रति अन्धश्रद्धा रखनेवाले तथा गुरु को परमेश्वर के तुल्य मानने वाले लोग कहीं उनके चित्र की ही पूजा न करने लग जायें।


बम्बई से चलकर स्वामीजी पूना पहुँचे। वहाँ वे महादेव गोविन्द रानाडे तथा महादेव मोरेश्वर कुंटे आदि समाज सुधारकों के निमन्त्रण पर पहुँचे थे। वे पूना २० जून १८७५ ई० दिन मंगलवार को पहुँचे। यहाँ स्वामीजी के लगभग ५० व्याख्यान हुए परन्तु उनमें से पन्द्रह ही "उपदेश मञ्जरी" के नाम से उपलब्ध हैं।


स्वामीजी ने प्रायः सारे देश का कई बार भ्रमण किया और बहुत सारे लोगों ने स्वामीजी के दर्शन किये परन्तु इस पुस्तक का कलेवर सब घटनाओं के वर्णन की अनुमति नहीं देता परन्तु फिर भी दो व्यक्ति ऐसे थे जिन्होंने स्वामीजी के दर्शन तो केवल एक बार ही किये, परन्तु एक बार के दर्शनों से ही, उन्होंने स्वामीजी के प्रति पूर्ण रूप से समर्पित होकर अपना सारा जीवन ऋषि की शिक्षाओं एवं विचारों के प्रसारप्रचार में लगा दिया। ये दोनों महानुभाव थे- (१) महात्मा


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मुन्शीराम जो बाद में स्वामी श्रद्धानन्द बने एवं (२) दूसरे पं० लेखराम आर्य मुसाफिर। हम इन घटनाओं से प्रेरणा ले सकें अतः इन दोनों का संक्षेप में वर्णन किया जाता है।


१३. नास्तिक मुन्शीराम से स्वामी श्रद्धानन्द


आर्य समाज के प्रसिद्ध नेता स्वामी श्रद्धानन्दजी उन दिनों मुन्शीराम के नाम से जाने जाते थे। इनके पिता लाला नानकचन्द उन दिनों बरेली के कोतवाल थे। कुसंग में पड़कर मुन्शीराम का जीवन बड़ा अन्धकारमय हो गया था। शराब, मांस, जुआ, हुक्का आदि दुर्व्यसनों में आप बुरी तरह फँसे हुये थे। अंग्रेजी शिक्षा के प्रभाव से नास्तिक भी थे। स्वामी दयानन्द भाद्रपद कृष्णा द्वादशी सं० १९३६ वि० दिन गुरुवार तदनुसार १४ अगस्त १८७९ को बरेली पहुँचे और लाला लक्ष्मीनारायण खजांची की बेगम बाग नामक कोठी में ठहरे। लाला नानकचन्द ने स्वामी दयानन्द के भाषण सुने थे। उन्होंने मुन्शीराम को स्वामीजी के प्रवचनों में जाने की प्रेरणा दी। पहले तो मुन्शीराम ने कुछ आनाकानी की परन्तु अपने पिता की आज्ञा मानकर चले गये। महर्षि की दिव्य छटा देखकर मुन्शीराम बड़े प्रभावित हुये। वहाँ जाकर देखा पादरी टी० जे० स्कॉट एवं अन्य तीन-चार यूरोपियन बैठें हैं। उन्हें देखकर कुछ श्रद्धा बढ़ी। १० मिनट व्याख्यान सुनने के बाद मन में विचार आया "यह विचित्र व्यक्ति है केवल संस्कृतज्ञ


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होते हुये भी ऐसी युक्ति युक्त बातें करता है कि विद्वान् दंग हो जाये।"


मुन्शीराम ने स्वामीजी से अपनी शंकाएँ रखीं और उनका उत्तर पाकर बोले-"महाराज! आपकी बुद्धि बड़ी तीक्ष्ण है, आपने मुझे निरुत्तर तो कर दिया, परन्तु मुझे यह विश्वास नहीं दिलाया कि परमेश्वर है।" महर्षि ने कहा– "मुन्शीराम तुमने प्रश्न किये मैंने उत्तर दिये। परन्तु ईश्वर पर तो तुम्हारा विश्वास उसी दिन होगा जब तुम पर ईश्वर की कृपा होगी। और सचमुच ऐसा ही हुआ। आगे चलकर यही घोर नास्तिक मुन्शीराम ऐसा आस्तिक हुआ कि संन्यास लेकर अपना नाम "श्रद्धानन्द" रखा।"


यहीं की एक और छोटी-सी घटना है। एक दिन स्वामीजी पौराणिक असम्भव व आचारभ्रष्ट कहानियों का खण्डन कर रहे थे, उस समय पादरी स्कॉट मि० एडवर्डस कमिश्नर व मि० रीड कलेक्टर १०-१५ अंग्रेजों के साथ बैठे थे। स्वामीजी की बात सुनकर साहब लोग हँस रहे थे। अब स्वामीजी ने कहा कि यह तो पुरानियों की लीला है, अब किरानियों की सुनो। ये इतने भ्रष्ट हैं कि कुमारी के पुत्र होना बतलाते हैं, और दोष सर्वज्ञ शुद्ध स्वरूप परमात्मा पर लगाते हैं। ऐसा घोर पाप करते हुये तनिक भी लज्जित नहीं होते। इतना सुनकर कमिश्नर व कलेक्टर के मुँह क्रोध के मारे लाल


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हो गये, परन्तु स्वामीजी का प्रवचन उसी प्रकार चलता रहा।


अगले दिन अधिकारियों ने खजाञ्ची को बुलाकर कहा कि अपने स्वामीजी से कह दो कि आलोचना में सख्ती न बरते। हम तो सभ्य हैं अगर जाहिल हिन्दू-मुसलमान भड़क उठे तो तुम्हारे पण्डित के व्याख्यान बन्द हो जायेंगे। खजाञ्ची के लिए बड़ी समस्या उत्पन्न हुई। स्वामीजी के पास जाकर बड़े संकोच से बोले कि खण्डन में अधिक कठोरता न बरती जाये तो क्या हानि है ? स्वामीजी उसका आशय समझ गये और हँसते हुए बोले-"इतनी सीधी-सी बात कहने में इतना संकोच क्यों कर रहे थे।"


कमिश्नर की चेतावनी का निर्भीक संन्यासी पर क्या प्रभाव पड़ा उसे मुन्शीराम (श्रद्धानन्द) के शब्दों में सुनेंउस दिन जो तेज आचार्य के सीधे-सादे शब्दों से निकलकर भरी सभा को उत्तेजित कर रहा था, उसकी उपमा किन शब्दों से दूँ। पूर्व दिवस के सब अंग्रेज (पादरी स्कॉट के अतिरिक्त) उपस्थित थे। व्याख्यान में सत्य के बल का विषय आया। सत्य की व्याख्या करते हुए आचार्य ने कहा-"लोग कहते हैं कि सत्य को प्रकट, न करो, कलेक्टर क्रोधित होगा, कमिश्नर अप्रसन्न होगा, गवर्नर पीड़ा देगा। अरे! चक्रवर्ती राजा भी क्यों न अप्रसन्न हो हम तो सत्य ही कहेंगे।''


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फिर गरजते हुये शब्दों में बोले–“यह शरीर तो अनित्य है इसकी रक्षा में प्रवृत होना व्यर्थ है। इस शरीर को तो जिसका जी चाहे नाश कर दे, किन्तु वह शूरवीर पुरुष मुझे दिखलाओ जो मेरी आत्मा का नाश करने का दावा करे। जब तक ऐसा नहीं है मैं सत्य को दबाऊँगा नहीं।"


ऐसे निर्भिक एवं साहसी थे स्वामी दयानन्द । ईश्वर पर अटल विश्वासी इस ऋषि से मुन्शीराम इतने प्रभावित हुये कि पूरा जीवन महर्षि की शिक्षाओं एवं विचारधारा का प्रचारप्रसार में लगा दिया।


१४. पण्डित लेखराम ने महर्षि के दर्शन किये 


"आर्यसमाज से तहरीर व तकरीर का काम बन्द न हो" अर्थात् आर्यसमाज से लेखनी व वाणी द्वारा प्रचार का कार्य बन्द न हो-यह वाक्य रक्तसाक्षी धर्मवीर पं० लेखराम ने देह त्याग करते समय कहा था। आर्यसमाज, देश, धर्म एवं जाति के प्रति पूर्ण समर्पित व्यक्ति ही ऐसे शब्द कह सकता है।


पं० लेखराम का जन्म चैत्र शुदि ८ संवत् १९१५ वि० में ग्राम सैदपुर जिला झेलम में हुआ। इनके पिता का नाम श्री तारा सिंह और माता का नाम भागभरी था। इन्होंने केवल मिडिल तक ही शिक्षा प्राप्त की। २१ दिसम्बर १८७५ ई० को


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ये पुलिस में भर्ती हो गये और उन्नति करते-करते सार्जेण्ट (Sergeant) के पद तक पहुँचे। इन्हें विभिन्न मत-पन्थों के ग्रन्थों के अध्ययन का बड़ा शौक था। इससे ये कभी किसी मत में कभी किसी मत में चले जाते थे। प्रसिद्ध सुधारक पं० कन्हैयालाल अलखधारी के साहित्य व उनके पत्र 'नीति प्रकाश' से इन्हें महर्षि दयानन्द के सम्बन्ध में जानकारी मिली। ११ मई १८८१ ई० को पेशावर से चलकर अजमेर तक की यात्रा छह दिनों में पूरी की और १७ मई १८८१ ई० को अजमेर में महर्षि के प्रथम एवं अन्तिम बार दर्शन किये। 


पं० लेखराम ने स्वामीजी से बहुत सोच समझकर दश प्रश्न किये थे परन्तु उनमें से केवल निम्न प्रश्न ही स्मरण रहे जो उन्होंने स्वामीजी के जीवन चरित मे लिखे हैं। 


एक प्रश्न तो पण्डितजी से जयपुर में एक बंगाली सज्जन ने पूछा था कि- आकाश भी व्यापक है और ब्रह्म भी, दो व्यापक एक साथ कैसे रह सकते हैं? इसका उत्तर पण्डितजी से नहीं बना, यह स्वामीजी से पूछा। स्वामीजी ने कहा—“जो जिससे सूक्ष्म होता है वह उसमें व्यापक हो सकता है, ब्रह्म चूँकि सबसे सूक्ष्म है, अतः वह सर्वव्यापक है। "


प्रश्न- जीव और ब्रह्म के पृथक्त्व में कोई वेद का प्रमाण बताएँ। 


स्वामीजी ने कहा कि यजुर्वेद का चालीसवाँ अध्याय


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पूरा ही जीव व ब्रह्म के पृथक्त्व को बताता है। 


प्रश्न- अन्य धर्मावलम्बियों को शुद्ध करना चाहिये या नहीं ? 


स्वामीजी ने कहा- अवश्य ही करना चाहिये। 


प्रश्न-विद्युत क्या पदार्थ है और कैसे उत्पन्न होती है? 


उत्तर- विद्युत सर्वत्र है और रगड़ से उत्पन्न होती है बादलों की विद्युत भी बादलों व वायु की रगड़ से उत्पन्न होती है।


२४ मई को पण्डितजी ने वापस जाने का विचार किया और स्वामीजी की सेवा में गये तथा उनसे कोई निशानी माँगी। स्वामीजी ने एक प्रति अष्टाध्यायी की दी और कहा कि २५ वर्ष से पूर्व विवाह न करना ।


जो लेखराम अपने को ब्रह्म कहता था वह 'जीव' बन गया।


२४ मई १८८१ ई० को स्वामीजी को प्रणाम कर पं० लेखराम अजमेर से चले गये। सितम्बर १८८४ ई० में पुलिस सेवा से त्याग पत्र देकर देश सेवा, आर्यसमाज की सेवा में शेष सारा जीवन समर्पित कर दिया। पेशावर से पहले “धर्मोपदेश" मासिक निकाला। १८८७ ई० के मध्य में फिरोजपुर से “आर्य गजट" साप्ताहिक निकालकर वैदिक धर्म का प्रचार किया। १८८८ ई० में महर्षि का जीवन चरित लिखने के लिये सामग्री जुटाने में लग गये। १८९३ ई० में


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एक सरल स्वभाव की धार्मिक देवी लक्ष्मी से विवाह किया, उस समय आपकी आयु ३५ वर्ष की थी। इसी वर्ष मिर्जा गुलाम अहमद कादियानी ने पण्डितजी को हत्या की धमकी दी, इससे पूर्व १८८७ में भी धमकी मिली थी। १८८७ से १८९३ तक छह वर्षों की अवधि में पण्डितजी ने बीसियों शास्त्रार्थ किये, हज़ारों की शुद्धि की, उर्दू-फारसी में कई मौलिक पुस्तकें लिखीं।


६ मार्च १८९७ ई० को एक छलिये मुसलमान ने छुरे का वार कर दिया। वेद मन्त्रों का जाप करते हुये नश्वर देह का त्याग कर अमर पद प्राप्त किया।


१५. परोपकारिणी सभा की स्थापना 


सोलह-सत्रह वर्षों तक निरन्तर देश, समाज एवं धर्म की सेवा में संलग्न रहने के पश्चात् योग विद्या निष्णात स्वामी दयानन्द ने अपनी क्रान्तदर्शिता से यह अनुभव किया कि उनकी जीवन सन्ध्या अधिक दूर नहीं है। अतः देहत्याग के पश्चात् भी उनके द्वारा प्रारम्भ किया कार्य सतत होता रहे, उनके द्वारा रचित ग्रन्थों का मुद्रण और प्रकाशन निर्बाध गति से चले तथा देश-देशान्तर एवं द्वीप-द्वीपान्तर में धर्म प्रचार, अनाथ रक्षण, अबला-उद्धार, अछूतोद्धार आदि के लोकोपकारी कार्य पूरे होते रहें, इस प्रयोजन की सिद्धि के लिये उन्होंने अपनी स्थानापन्न एक सभा की स्थापना की आवश्यकता


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अनुभव की । फलतः परोपकारिणी सभा का जन्म हुआ। 


स्वामी दयानन्द ने परोपकारिणी सभा की प्रथम स्थापना मेरठ में की । १६ अगस्त १८८० ई० को एक स्वीकार पत्र लिखा तथा उसी दिन मेरठ के सब रजिस्ट्रार कार्यालय में उसे पञ्जीकृत (Ragistered) कराया था। इस स्वीकार पत्र में लाहौर निवासी लाला मूलराज एम० ए० असिस्टेण्ट एक्स्ट्रा कमिश्नर को प्रधान, तथा आर्यसमाज मेरठ के उप प्रधान लाला रामशरण दास को मन्त्री नियुक्त किया गया था। सभासदों की संख्या १८ थी। स्वामीजी ने इस सभा को अपने सब वस्त्र, धन, पुस्तक एवं यन्त्रालय के स्वत्व प्रदान किये थे। अन्य प्रतिष्ठित आर्य पुरुषों के अतिरिक्त थियोसोफिकलसोसाइटी के संस्थापक-द्वय कर्नल एच० एस० आल्काट तथा मैडम एच० पी० ब्लैवेट्स्की भी इस सभा के सदस्य नियत किये गये थे।


कालान्तर में जब १८८३ ई० के प्रारम्भ में स्वामीजी उदयपुर पधारे तो उन्होंने पहले स्वीकार पत्र को निरस्त कर एक अन्य स्वीकार पत्र लिखकर परोपकारिणी सभा का न केवल पुनर्गठन ही किया अपितु उसे उदयपुर राज्य की सर्वोच्च प्रशासिका महद्राज सभा के द्वारा फाल्गुण कृष्णा पञ्चमी १९३९ वि० (२६ फरवरी १८८३ ई०) को पञ्जीकृत भी करवाया ।


परोपकारी सभा को दुबारा स्थापित करने की क्यों 


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आवश्यकता पड़ी? ऐसा लगता है कि इस अवधि में पहली सभा में बनाये गये सभासद कर्नल आल्काट, मैडम ब्लैवेट्स्की तथा मुरादाबाद निवासी मुन्शी इन्द्रमणि से सैद्धान्तिक मतभेद हो जाने के कारण, अब स्वामीजी ने उन्हें अपनी उत्तराधिकारिणी सभा में रखना उचित नहीं समझा। दूसरा कारण यह भी हो सकता है, कि उदयपुर के महाराणा सज्जनसिंह की वैदिक धर्म में अटूट श्रद्धा तथा उनके माण्डलिक सामन्तों का धर्म प्रेम देखकर, स्वामीजी की यह सहज इच्छा हुई कि आर्य जाति के मूर्धन्य नरेश को अपनी स्थानापन्न सभा का अध्यक्ष बना कर एवं मेवाड़ तथा अन्य राजस्थानी राज्यों के क्षत्रिय सामन्तों को भी इस सभा में शामिल कर, उसे अधिक प्रभावशाली तथा व्यापक बनाया जाये। इस बार जो स्वीकार पत्र लिखा उसमें सभासदों की संख्या २३ थी। मैडम ब्लैवेट्स्की के अनुसार स्वामीजी को अपनी मृत्यु का पूर्वाभास हो गया था क्योंकि किसी प्रसंग में स्वामीजी ने मैडम से कहा था कि वे १८८३ ई० का अन्त नहीं देखेंगे। जो हो इस स्वीकार पत्र के लेखन के आठ मास पश्चात् ही कार्तिक अमावस्या १९४० वि० तदनुसार ३० अक्तूबर १८८३ को महाराज का निधन हो गया था। अजमेर में स्वामीजी के देहान्त के समय परोपकारिणी सभा के उपमन्त्री पं० मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या वहीं उपस्थित थे यद्यपि परोपकारिणी के प्रधान महाराणा श्री सज्जनसिंह ने स्वामीजी के देहान्त के कुछ दिन पूर्व ही यह


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कहा था कि दैवदुर्विपाक से यदि महाराज का शरीर छूटे तो चार-पाँच दिन तक उनकी अन्त्येष्टि को रोक रखा जाये जिससे वे भी अजमेर आकर श्री महाराज के अन्तिम दर्शन कर सकें परन्तु स्वीकार पत्र की भावना को ध्यान में रखकर तथा व्यवहारिक कठिनाइयों के कारण ऐसा नहीं किया गया, और दूसरे दिन ३१ अक्तूबर को अजमेर के मलूसर श्मशान में स्वामीजी की अन्त्येष्टि कर दी गई। १ नवम्बर को पण्ड्याजी ने स्वामीजी के द्रव्य, पुस्तक तथा अन्य वस्तुओं की सूचि बनाकर उसपर प्रतिष्ठित पुरुषों के हस्ताक्षर कराये तथा सभा मन्त्री के रूप में उन्हें अपने अधिकार में ले लिया।


परोपकारिणी सभा का वास्तविक कार्य तो स्वामीजी के देहावसान के पश्चात् ही प्रारम्भ हुआ। स्वीकार-पत्र में स्वामीजी ने परोपकारिणी सभा के सम्मुख निम्न लक्ष्य पूर्ति हेतु रखे थे–


१. वेद और वेदांगादि शास्त्रों के प्रचार अर्थात् उनकी व्याख्या करने-कराने, पढ़ने-पढ़ाने, सुनने-सुनाने छापने-छपवाने का कार्य ।


२. वेदोक्त धर्म के उपदेश और शिक्षा अर्थात् उपदेशक मण्डली नियत करके देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में भेजकर सत्य के ग्रहण और असत्य को त्याग कराना। 


३. आर्यावर्त्तीय और दीन मनुष्यों के संरक्षण पोषण और


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सुशिक्षा का कार्य ।


आज कल परोपकारिणी सभा का मुख्य केन्द्र अजमेर है। वहीं से परोपकारी के सभी कार्य-कलाप एक सभा द्वारा चलाये जा रहे हैं।


१६. स्वामीजी के जीवन के कुछ स्मरणीय प्रसंग


स्वामीजी के जीवन के बहुत सारे प्रेरणाप्रद प्रसंग है जिनमें से कुछ का वर्णन निम्न प्रकार है–


मुरादाबाद में एक दिन रामललाजी ने प्रार्थना की'महाराज! आप ऐसे सुयोग्य शिष्य क्यों नहीं बनाते जो सर्वस्व स्वाहा करके भी आपके उद्देश्य की पूर्त्ति कर सकें।" महर्षि ने गम्भीर भाव से कहा- "इस जन्म में मुझे सुयोग्य शिष्य नहीं मिलेगा, क्योंकि तीव्र वैराग्यवश यौवन काल में ही अपने पूज्य माता-पिता आदि परिवार को त्याग कर सच्चे शिव के दर्शन और मृत्युञ्जय बनने के लिये योगाभ्यास करता रहा हूँ। घर त्यागते समय मैंने माता की ममता का कोई ध्यान नहीं किया। पितृ ऋण से भी उऋण नहीं हुआ ये ऐसे कर्म हैं जो मुझे सुयोग्य शिष्य मिलने के मार्ग में बाधक हैं। आर्यसमाज ही मेरा उत्तराधिकारी है।"


महर्षि दयानन्द लाहौर में थे। एक सज्जन मिलने आये उसने दवात दिखाकर पूछा- "इसमें परमात्मा है ?" स्वामीजी


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ने कहा—“हाँ है।" उसने पुनः एक कङ्कर उठाकर पूछा"इसमें भी परमात्मा है ?" स्वामीजी बोले-"इसमें भी है। परमात्मा सर्वव्यापक है, वह अणु-अणु में है, कण-कण में है, कोई स्थान और कोई पदार्थ ऐसा नहीं है, जिसमें परमात्मा न हो। 'स ओतः प्रोतश्च विभूः प्रजासु' (यजु० ३२।८) वह वस्त्र में ताने-बाने के समान समस्त प्रजाओं में ओत-प्रोत है।" यह सुनकर वह सज्जन बोला-"जब परमात्मा सर्वव्यापक है तब हमने माखन चोर की मूर्ति के आगे मत्था टेक दिया तो इसमें क्या पाप हुआ?" स्वामीजी ने पूछा कि इस घड़ियाल में परमात्मा है या नहीं? वह बोला–“है", तब स्वामीजी ने कहा कि-कितने खेद की बात है, तुम छटांक भर (पचास ग्राम) की मूर्ति के आगे तो मत्था रगड़ते हो और पाँच सेर (लगभग साढ़े चार किलो) के घड़ियाल को कूटते हो ।


उस सज्जन को कोई उत्तर नहीं सूझा, सिर नीचा करके चला गया।


महर्षि दयानन्द सरस्वती जालन्धर में व्याख्यान दे रहे थे। एक काकाराम नामक पण्डित सभा में आये और व्याख्यान के बीच में ही बोले-“देखो यह साधु होकर कपड़े पहनता है।" स्वामीजी ने पूछा-"तुम गृहस्थी हो या संन्यासी ?" वह बोला—"मैं तो गृहस्थी हूँ।" स्वामीजी बोले–“तुम


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गृहस्थी होकर नंगे घूम रहे हो।" महर्षि मनु ने लिखा है कि गृहस्थी के कानों में कुण्डल हो । दाढ़ी-मूँछ साफ हो (कटी हुई) श्वेत वस्त्र हो हाथ में छड़ी हो। मनु महाराज का विधान इस प्रकार है


क्लृप्तकेश नखश्मश्रुदन्तिः शुक्लाम्बरः शुचिः ॥ ३५ ॥

–अध्याय ४

वैणवी धारयेधाष्टिम् ॥ ३६ ॥ शुभे रौक्मे च कुण्डले ॥ ३६॥ 


वह बोला–“मेरा दुर्भाग्य!" स्वामीजी बोले- "जब वेद का आदेश है, शास्त्रों में विधान है तब मेरा क्या भाग्य फूट गया है जो वस्त्र न धारण करूँ।" पण्डित काकाराम से कोई उत्तर नहीं बना और चुपचाप वहाँ से खिसक लिये। 


महाराज उदयपुर के नौलखा उद्यान में अकेले बैठे थे उस समय उदयपुर नरेश महाराणा सज्जनसिंह वहाँ पधारे और अत्यन्त विनयपूर्वक बोले-"महाराज! आप स्वयं मूर्ति पूजा न करें, केवल मूर्ति पूजा का खण्डन छोड़ दें तो एकलिङ्ग महादेव के महन्त की गद्दी आपकी है। इसकी आय लाखों


१. बाल, नख और दाढ़ी को कटवाता रहे, तपस्वी हो, श्वेत वस्त्र धारण करने वाला हो, बाँस की छड़ी धारण करे और सोने के दो कुण्डल धारण करे। 


यह और इससे पूर्व की दोनों घटनाएँ मास्टर लक्ष्मणजी ने स्वलिखित जीवनी में दी हैं । - स्वामी जगदीश्वरानन्द


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रुपये वार्षिक है। यह सम्पूर्ण ऐश्वर्य आपका हो जाएगा। सारे राज्य के आप गुरु माने जायेंगे।" राणाजी की यह प्रार्थना सुनते ही स्वामीजी ने गर्जकर कहा-"आप तुच्छ प्रलोभन देकर मुझे ईश्वर से विमुख करना चाहते हैं। राणाजी! आपके छोटे से राज्य और मन्दिर से मैं एक दौड़ लगाकर बाहर जा सकता हूँ, परन्तु परमात्मा के राज्य से कहाँ जाऊँगा ?" राणाजी हाथ जोड़कर बोले-"भगवन्! मेरी धृष्टता क्षमा कीजिए। मैंने आपकी दृढ़ता देखने के लिये ही ऐसा कहा था मुझे पूर्ण विश्वास हो गया है कि संसार का कोई भी प्रलोभन आपको डाँवाडोल नहीं कर सकता।"


महर्षि जोधपुर में व्याख्यान दे रहे थे। प्रसंगवश उन्होंने इस्लाम मत की समालोचना कर दी। उस समालोचना को सुनकर फैजुल्ला खाँ के तन-बदन में आग लग गई। वह चिढ़कर बोला—“स्वामी! यदि मुसलमानों का राज्य होता तो लोग आपको जीता न छोड़ते। उस समय आप ऐसे भाषण भी न कर पाते।" महर्षि ने गम्भीरता से कहा- "खाँ साहब! यदि मुस्लिम राज्य होता तो मैं भी शिवाजी जैसों की पीठ ठोककर विरोधियों के धुर्रे उड़वा देता।" भय नाम की वस्तु से स्वामीजी सर्वथा अपरिचित थे। -


१७. महर्षि जोधपुर में


एक दिन मोहनलाल विष्णुलाल पण्ड्या ने स्वामीजी महाराज से पूछा- “भारत का पूर्ण हित और जातीय 


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उन्नति कब होगी ?" महर्षि ने उत्तर दिया-"जब तक समस्त देशवासी एक ही धर्म के अनुयायी, एक ही भाषा बोलने वाले तथा एक ही प्रकार के आचार-विचार एवं व्यवहार को धारण कर एक ही लक्ष्य की पूर्ति हेतु सर्वात्मना कृत निश्चय नहीं हो जाते तब तक स्वदेश की एकता तथा उसकी सर्वांगीण समृद्धि स्वप्न मात्र ही रहेगी।"


पण्ड्याजी ने दूसरा प्रश्न किया-"जब आप देश की एकता चाहते हो तो मत-मतान्तरों का खण्डन क्यों करते हो ?" स्वामीजी ने उत्तर दिया-"धर्माचार्यों व नेताओं की असावधानी और प्रमाद व स्वार्थ से जाति के आचार-विचार रहन-सहन दूषित हो जाते हैं, भाव एक से नहीं रहते। आर्य जाति की इस दशा को यदि संभाला न गया तो यह नष्ट हो जायेगी। इन धर्माचार्यों के प्रमाद से करोड़ों मुसलमान हो गये और अब ईसाई हो रहे हैं। यदि जाति को कडुए उपदेश के कोड़े से न जगाया गया और कुरीतियों, पाखण्ड, दुराचार को नष्ट नहीं किया गया तो इसकी मृत्यु में सन्देह ही क्या है ? " 


“मैं यह काम किसी स्वार्थ से तो कर ही नहीं रहा हूँ अपितु इसके कारण मैं अनेक प्रकार के कष्ट सहता हूँ, गालियाँ और ईंट पत्थर खाता हूँ। विष तक भी मुझे दिया गया, परन्तु जाति और धर्म के लिये मैं सब कुछ सहन करता


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रहता हूँ।" महाराज के ये बचन सुनकर पण्ड्याजी गद्गद् हो गये और भक्ति भाव से बोले यदि आपके सदृश दो चार भी धर्माचार्य हो जायें तो स्वल्प समय में ही आर्य जाति का बेड़ा पार हो सकता है।


उपरोक्त उद्देश्य की पूर्ति हेतु महर्षि दयानन्द राजपूताने में राजा महाराजाओं को उपदेश देने के विचार से घूम रहे थे।


१० मार्च १८८१ को आगरा से चलकर महाराज भरतपुर पहुँचे। यहाँ से जयपुर, अजमेर, मसूदा, रायपुर आदि पहुँचे। ब्यावर में व्याख्यान के दौरान पादरी शूलब्रेड को बताया कि- "मेरा तो पक्का विश्वास है कि मनुष्य स्वकृत कर्मों के फल को अनिवार्यतः भोगता है।" रायपुर में बहुत सारे यवन एकत्र होकर स्वामीजी के पास आये। काजी ने पूछा– "आप हमें दासी पुत्र कैसे कहते हैं?" स्वामीजी ने कहा–"अपनी कुरान शरीफ देखो उसमें लिखा है इब्राहीम को हाजिरा से जो सारा की दासी थी, इस्माईल प्राप्त हुआ। क्या वह दासी पुत्र नहीं था? काजी निरुत्तर हो गया और सब चले गये।"


रायपुर से स्वामीजी बनेडा। वहाँ से चलकर २७ अक्तूबर १८८१ को मेवाड़ राज्य की पुरातन व गौरवमयी राजधानी चित्तौड़ पहुँचे। यहाँ महाराणा सज्जनसिंह से स्वामीजी की भेंट


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हुई।


स्वामीजी यहाँ से बम्बई, इन्दौर, रतलाम आदि गये और १० अगस्त १८८२ को उदयपुर पहुँचे। यहाँ से शाहपुरा गये। शाहपुराधीश महाराजा नाहरसिंह के विषय में महर्षि ने लिखा"वे बड़े बुद्धिमान तथा राजनीति और प्रजापालन में तत्पर साहसी और उत्साही हैं।"


जब महाराज उदयपुर में थे तभी जोधपुर से महाराजा सर प्रतापसिंह व राव राजा तेजसिंह के पत्र स्वामीजी की सेवा में आये जिसमें उनसे जोधपुर पधारने की प्रार्थना की गई थी। महाराज ने जोधपुर जाने का बचन दे दिया था और २६ मई सन् १८८३ ई० को प्रस्थान के लिये नियत कर दी थी।


शाहपुराधीश को जब स्वामीजी के इस निर्णय का पता चला तो वे बहुत चिन्तित हुये। वे जानते थे कि जोधपुर नरेश एक नन्ही भगतन पर आसक्त हैं। अतः उन्होंने स्वामीजी को कहा कि आप जोधपुर में जाकर वेश्याओं का खण्डन न करना। इस बात को सुनकर ऋषि बोले- "मैं बड़े-बड़े कँटीले वृक्षों को नहुरने से नहीं काटता उनके लिये तो अति तीक्ष्ण शस्त्रों की आवश्यकता होती है।" 


नियत तिथि २६ मई को महाराज शाहपुरा से चलकर अजमेर पाली होते हुये ३१ मई गुरुवार को मरुधर की राजधानी जोधपुर की सीमा में प्रविष्ट हुये जहाँ राव राजा


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जवानसिंह ने राज्य की ओर से महर्षि का स्वागत किया। वहाँ स्वामीजी को नजरबाग के सामने मियाँ फैजुल्ला खाँ की कोठी में ठहराया गया। स्वामीजी के पहुँचते ही कर्नल सर प्रतापसिंह व राव राजा तेजसिंह स्वामीजी के दर्शनार्थ एवं स्वागतार्थ उक्त कोठी पर उपस्थित हुये। कर्नल साहब ने एक स्वर्ण मुद्रा तथा पच्चीस रुपये स्वामीजी की भेंट किये। भोजन तथा सब आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु सब व्यवस्था की गई सुरक्षा के लिये छह सिपाहियों के अतिरिक्त एक हवलदार का पहरा लगाया गया, इसके अतिरिक्त चार सेवक सेवार्थ नियुक्त किये।


जोधपुर के शासक महाराज जसवन्तसिंह २६ जून को स्वामीजी के दर्शनार्थ पहुँचे। पाँच स्वर्ण मुद्राएँ पच्चीस रुपये सम्मानार्थ भेंट किये। महाराज भूमि पर बैठने लगे। स्वामीजी ने आग्रह पूर्वक महाराज को कुर्सी पर बैठाया। यह पहली भेंट तीन घण्टे चली। महर्षि ने मनुस्मृति के आधार पर उन्हें राजधर्म का उपदेश दिया था।


एक दिन स्वामीजी ने क्षत्रियों के धर्म और उनकी शोचनीय स्थिति पर गम्भीर व्याख्यान दिया। स्वामीजी ने कहा कि जो राजा अपनी एक विवाहिता स्त्री को छोड़कर पराई स्त्रियों से सम्बन्ध रखता है वह महापाप का भागी होता है उनसे तो पशु अच्छे हैं जो नियमानुसार कार्य करते हैं।


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स्वामीजी महाराज ने महाराजा जसवन्त सिंह के छोटे भाई महाराज किशोरसिंह के सामने महाराजा के वेश्यागमन की बात कही। उन्होंने कहा कि राजपुरुष सिंह समान होते हैं और वेश्या कुतिया समान होती हैं। सिंह का कुतिया से समागम ठीक नहीं है।


जब यह बात कही गई तो कुचामन के कुँवर शेरसिंह भी वहाँ उपस्थित थे। महाराज किशोरसिंह लज्जित होकर नीचा सिर किये हुये यह सब सुनते रहे पर मन ही मन स्वामीजी पर क्रुद्ध अवश्य हुये थे। जहाँ स्वामीजी राजाओं के दुराचार व वेश्यागमन, मद्यपान, कुसंग आदि की आलोचना करते थे, वहीं उनकी रानियों के पतिव्रत धर्म की प्रशंसा करते थे। स्वामीजी कहते थे कि इन रानियों के कारण ही इनकी सत्ता अवशिष्ट है अन्यथा इन राजाओं के कुकर्मों के कारण तो इनका बेड़ा कभी का गर्क हो गया होता ।


स्वामीजी के जोधपुर प्रवास के चार मास तो निर्विघ्न निकल गये। पाँचवें मास के प्रारम्भ में विघ्न-बाधाओं का सूत्रपात हुआ। सर्वप्रथम १२ सितम्बर को कल्लू नामक कहार जो भरतपुर का जाट था और स्वामीजी के साथ ही रहता था उस रात्रि ५-६ सौ रुपये का माल लेकर भाग गया। यह सेवक महाराज का अत्यन्त विश्वसनीय तथा आज्ञापालक था, अतः इसके द्वारा चोरी होना एक भावी षड्यन्त्र का पूर्वाभास–


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सा प्रतीत होता था। पुलिस कोतवाल कर्नल मुइउद्दीन ने बहुत पूछताछ की, कुछ लोगों को सन्देह में पकड़ भी लिया किन्तु वास्तविक अपराधी हाथ नहीं आया।


१८. भयङ्कर षड्यन्त्र


स्वामीजी ने अन्तिम रूप से २६ सितम्बर को इस नगर को छोड़ने का कार्यक्रम बना लिया था। और सवारी आदि के प्रबन्ध के लिये कर्नल प्रतापसिंह को कह भी दिया था, पर उसी दिन स्वामीजी को कुछ जुकाम हुआ। आश्विन बदी चतुर्दशी (२९ सितम्बर १८८३) को रात्रि में धौड़ मिश्र पाकाध्यक्ष से दूध लेकर पीकर सोये । मध्य रात्रि में भयङ्कर शूल हुआ, तीन वमन हुये। स्वामीजी ने किसी को जगाया नहीं और आप ही जल से कुल्ली करके पुनः सो गये। स्वामीजी का नियम था कि प्रतिदिन प्रातःकाल उठकर वन में शुद्ध वायु सेवनार्थ जाया करते थे। परन्तु आज बहुत दिन चढ़े उठे, उठते ही एक वमन हुआ। अब स्वामीजी को कुछ सन्देह हुआ तो दुबारा जल पीकर आप वमन की और कहा कि आज हमारा जी उल्टा आता है, तुम लोग शीघ्र अग्निकुण्ड में धूप डाल कर सुगन्ध फैलाकर कोठी से दुर्गन्ध बाहर निकाल दो। वैसा ही किया गया, इसके पश्चात् भी जब उदरशूल बढ़ चला तो डॉक्टर सूरजमल को बुलाया गया। उन्होंने आकर वमन बन्द करने की औषधि दी और पूछा कि


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अब आपका मन कैसा है ? स्वामीजी ने कहा कि अत्यन्त वेग से उदर शूल हो रहा है। इससे स्वामीजी को बड़ा क्लेश होने लगा। स्वामीजी की बीमारी की सूचना महाराजा कर्नल सर प्रतापसिंह को दी गई और उन्होंने तुरन्त राज्य की ओर से डॉक्टर अली मर्दान खाँ को बुलाया।


अली मर्दान खाँ साधारण योग्यता का चिकित्सक था वह बदायूँ जिले का रहने वाला था। वह परले दर्जे का धूर्त्त, खुशामदी, चालाक व्यक्ति था, इस कारण वह राज्याधिकारियों की निगाह में चढ़ चुका था। इससे स्वामीजी की चिकित्सा कराना बहुत बड़ी भूल थी या इसमें साजिश भी हो सकती है स्वामीजी को भी इसपर पूर्ण विश्वास नहीं था । अली मर्दान खाँ ने जो गोलियाँ स्वामीजी को दीं वे मात्रा में कहीं अधिक थीं। स्वामीजी ने गोलियाँ खाने से पहले डॉ० सूरजमल की राय जाननी चाही। डॉ० सूरजमल यह जानकर भी कि गोलियों की मात्रा वास्तव में बहुत अधिक है चुप रह गये। डॉ० सूरजमल अन्य डॉक्टर की उपचार विधि में कोई हस्तक्षेप नहीं करना चाहते थे। सूरजमल को उनके इस कृत्य के लिये कभी भी क्षमा नहीं किया जा सकता। सम्भव है उनके हस्तक्षेप से स्वामीजी के प्राण बच जाते। 


अली मर्दान खाँ के इलाज से कोई लाभ नहीं हुआ। २ अक्तूबर को स्वामीजी विरेचन की औषधि लेना चाहते थे।


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अली मर्दान खाँ ने तीन अक्तूबर को गोलियाँ बनाकर भेज दीं। प्रातः ९ बजे तक कोई दस्त नहीं हुआ, फिर रात्रि तक लगभग ३० दस्त हुये। अगले दिन दस्तों में कोई कमी नहीं आयी। अधिक दस्त होने से स्वामीजी को मूर्छा होने लगी निर्बलता इतनी बढ़ गई कि चार-पाँच व्यक्तियों की सहायता के बिना करवट लेना, उठना-बैठना भी असम्भव हो गया। स्थिति में कोई सुधार नहीं हुआ। मुख, कण्ठ, जिह्वा, तालू पर छाले पड़ गये। पेट दर्द दस्त के साथ हिचकियाँ भी आने लगीं। दस्तों को रोकने के लिये दही, मट्ठा भी स्वामीजी लेते रहे पर कुछ भी लाभ नहीं हुआ । १६ अक्टूबर तक यह स्थिति बनी रही।


१२ अक्तूबर १८८३ तक महर्षि दयानन्द के रोग की सूचना जोधपुर के बाहर किसी को पता नहीं चली। १२ अक्तूबर के राजपूताना गजट नामक पत्र में स्वामीजी के रोग का समाचार प्रथम बार छपा। आर्यसमाज अजमेर के एक सभासद की दृष्टि इस पर पड़ी तो उसने अन्य सभासदों को कहा। आर्यसमाज के एक सभासद् लाला जेठमल सोढा को जोधपुर भेजा गया। स्वामीजी को देखकर वे बहुत दुःखी हुये । स्वामीजी से कहा कि आपने किसी को भी सूचित नहीं किया। स्वामीजी बोले-"सोढाजी सुख-दुःख तो शरीर का धर्म है। यदि मैं आप लोगों को सूचित करता तो आपको


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दुःख के अतिरिक्त और क्या होता?"


जेठमल ने आर्यसमाज अजमेर को महाराज की इस भयंकर दशा की सूचना दी। वहाँ से मुम्बई, फर्रुखाबाद, मेरठ, लाहौर आदि समाजों को तार द्वारा सूचना दी। आर्य जगत् में कोलाहल मच गया। तार पर तार आने लगे। लोग खबर पाने के लिये दौड़ पड़े।


१५ अक्तूबर को अली मर्दान खाँ ने महाराज को आबू भेजने का प्रस्ताव रखा।


१६ अक्तूबर को स्वामीजी ने आबू के लिये प्रस्थान किया । २१ अक्तूबर को प्रातः महाराज आबू पहुँचे वहाँ डॉ० लक्ष्मणदास ने स्वामीजी की चिकित्सा की, उससे कुछ लाभ हुआ। पर उनका तबादला अजमेर हो गया था। अतः स्वामीजी को भी अजमेर ले जाया गया।


महर्षि का सम्पूर्ण जीवन शानदार था। उनकी मृत्यु भी शानदार थी।


ऋषिवर अजमेर में मृत्यु-शैय्या पर लेटे हुए हैं उनके रोम-रोम में छाले हो रहे हैं? असह्य वेदना है परन्तु वे शान्तचित्त हैं। ३० अक्तूबर मंगलवार को चार बजे नाई को बुलाकर क्षौर कर्म कराया। विषम वेदना थी पर वे शान्त थे । दुःख-क्लेश का निर्देश तक न करते थे। इसके विपरीत गम्भीर आवाज में वेदमन्त्रों का गान कर रहे थे। उनके मुख


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पर प्रसन्नता थी आँखों में चमक थी और मुख मण्डल सूर्य की भाँति देदीप्यमान हो रहा था मन्त्र गान के पश्चात् वे परम प्रीति से संस्कृत भाषा में परमात्म देव की प्रार्थना करने लगे, फिर आर्यभाषा में प्रभु के गुण गाते हुये गायत्री मन्त्र का गान करते हुए मौन हो गये ।


साढे पाँच बजे महाराज ने सबको बुलाकर अपने पीछे खड़ा कर लिया। सब खिड़की दरवाजे रोशनदान सब खुलवा दिये। पूछा आज क्या वार, क्या पक्ष, क्या तिथि है। किसी ने कहा कृष्ण पक्ष का अन्त और शुक्ल पक्ष का आदि है। अमावस्या तिथि, मंगलवार है। यह सुनकर छत की ओर देखा, वेदमन्त्र पढ़े ईश्वरोपासना की गायत्री का पाठ किया। कुछ देर समाधिस्थ रहे आँखें खोलीं और बोले- "हे दयामय! हे सर्वशक्तिमान् ईश्वर! तेरी यही इच्छा है! तेरी इच्छा पूर्ण हो !! पूर्ण हो!!! अहा मेरे परमेश्वर! तूने अच्छी लीला की।" यह कहते हुये संवत १९४० वि० दीपावली मंगलवार को सायं ६ बजे अपने नश्वर शरीर को त्यागते हुये नास्तिक गुरुदत्त विद्यार्थी को आस्तिक बना गये।


यद्यपि स्वामीजी का शरीर हमारे बीच नहीं है पर वे अपने कृतित्व, विचारों, सिद्धान्तों के रूप में सदैव हमारे बीच है। धन्य है उनका पावन जीवन !


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