सत्यार्थप्रकाश शंका समाधान

सत्यार्थप्रकाश शंका समाधान-

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सत्यार्थप्रकाश शंका समाधान- 
धायी की वैकल्पिक व्यवस्था


‘धायी-व्यवस्था’ को पढ़ते ही तरह-तरह की शंका करने वाले पाठकों को, आयुर्वेद में वर्णित धायी-व्यवस्था को ग्रहण करने के सम्बन्ध में महर्षि द्वारा वर्णित निम्नलिखित महत्त्वपूर्ण बिन्दुओं पर ध्यान देना चाहिए-
(क) धायी का रखना आवश्यक नियम नहीं है। यह बालक के पालन-पोषण के लिए प्राचीन परम्परागत एक विकल्पात्मक और स्वैच्छिक व्यवस्था है। इसका निर्देश ‘चरक-संहिता’ शारीरस्थान अ० ८ में और ‘सुश्रुत-संहिता’ के शारीरस्थान १०। २१ में किया हैं। यों समझिए कि जैसे व्यवहार में जरूरतमंद व्यक्ति किसी दूसरे सबल-समर्थ की सहायता लेता है, उसी प्रकार शिशु-पालन में सबल-समर्थ दूसरी स्त्री का सहयोग लेना ‘धायी-व्यवस्था’ है। इस व्यवस्था के मूल में सामाजिक भावना है।
(ख) दुर्बलता, रुगणता, दुग्धाभाव अथवा किसी अन्य कारणवश माता के दूध पिलाने में असमर्थ होने पर धायी की व्यवस्था का निर्देश है। महर्षि ने इस सन्दर्भ में “माता वा धायी” शब्दों से विकल्पात्मक व्यवस्था को निर्देश किया है । यह निर्विवादित तथ्य है कि बालक के लिए सर्वोत्तम दूध माता का होता है और उसके बाद उत्तम दूध धायी का होता है, क्योंकि वह भी मातावत् होती है। फिर मनुष्येतर प्राणियों गाय, बकरी आदि का उपयोगी होता है। इस दृष्टि से आयुर्वेद में धायी की प्रथा अति-उपयोगी मानी गयी है। आज चिकित्सा विज्ञान भी स्त्री के दूध या माता के दूध की अनिवार्यता को स्वीकार करते हैं। यह एक वैज्ञानिक प्रथा है।
(ग) कुछ पाठक इस पंक्ति पर ध्यान केन्द्रित करके “तदनन्तर धायी पिलाया करे”, यह मान बैठते हैं कि यहां धायी दूध पिलाने का अनिवार्य निर्देश है । वे पूर्वापर प्रसंग को भूल जाते हैं । यह वाक्य उस स्थिति के लिए है जब धायी रखी जाये। तब छह दिन प्रसूता पिलाये और तदनन्तर धायी पिलाये। अन्यथा यह निर्देश लागू नहीं है ।
(घ) प्राचीन परम्परा- प्राचीन काल में देश-विदेश में धायी की प्रथा समाज में प्रचलित रही है श्रीराम आदि चारों भाइयों की धाइयां थीं (वा० रामा० अयो० ७.७) इस्लाम प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद का धायी ने दूध पिलाकर पालन-पोषण किया था। उसका नाम बेगम हलीमा सादिया था। (कुरान : मुहम्मद फारुक खां, पृ० १९) हज़० मुहम्मद साधारण परिवार के थे, फिर भी उस समय अरब में यह प्रथा थी। उदयपुर के राजवंश में ‘पन्ना’ धाय का नाम इतिहास प्रसिद्ध है।
(ड) जैसे, बच्चे के पालन-पोषण के लिए सेवक-सेविका रखना सम्पन्न लोगों के वश की बात है, उसी प्रकार यह परम्परा भी सम्पन्नजनों की है। इसी कारण महर्षि ने लिखा है कि “जो कोई द्वरिद्र हों, धायी को न रख सकें तो वे गाय या बकरी के दूध••••पिलावें।” और जहां धायी••••न मिल सके,. वहां जैसा उचित समझें वैसा करें।”  सत्यार्थप्रकाश के चतुर्थ समुल्लास मे महर्षि का यह कथन भी विशेष है- “जो दूध पीना चाहै तो उसकी माता पिलावे । जो उसको माता के दूध न हो तो किसी और स्त्री की परीक्षा करके उसका दूध पिलवावे।” यहां प्रथमत: माता का ही दूध पिलाने का निर्देश है। माता का दूध न होने आदि की स्थिति में धायी रखने का निर्देश है। अत: धायी को विशेष स्थिति में ही रखना चाहिए।
(च) धायी वह होती है जो प्रसवावस्था की निर्बलता से निकल, स्वस्थ और बलवती हो चुकी हो और जिसका बालक जिवित है तथा पर्याप्त दूध होने के कारण दूसरे बालक को भी दूध पिला सके । कुछ माताओं का दूध इतना अधिक होता है कि उनका बालक नहीं पी पाता, शेष को साधनों से निकालना पड़ता है, कष्ट से बचने के लिए ऐसी धायी रखने योग्य होती है! प्रत्येक सद्य:प्रसूता धायी नहीं हो सकती । धायी के गुण और विशेषताएँ चरक और सुश्रुत के उपर्युक्त स्थलों में वर्णित हैं, वहां द्रष्टव्य हैं ।
(छ) कुछ शिशुओं की माताओं का देहान्त हो जाने पर जैसे सामान्य परिवारों में भी सम्बन्धी प्रसूता स्त्रियाँ अपना दूध पिलाकर उन बच्चों को पालती हैं, ऐसे ही नियुक्त धाइयाँ पालती हैं। अत: यह सर्वत्र, सर्वदा प्रचलित सामान्य प्रथा है।
(ज) शाश्वत सत्य- धायी प्रथा विश्व में सर्वत्र रही है, है, रहेगी। आज भी आस्ट्रेलिया में दूध पिलाने में अक्षम माताओं के लिए ‘माता-दूध बैंक’ हैं। इसी प्रकार विश्वस्तर पर एक ‘ह्यूमन मिल्क फोर ह्यूमन बेबीज’ नामक नेटवर्क है, जो दूध पिलाने में अक्षम महिलाओं को सक्षम और निःशुल्क सहयोगी महिलाओं के नाम उपलब्ध कराता है। वे बच्चों को दूध पिलाती हैं।

सत्यार्थप्रकाश शंका समाधान-
नियोग प्रथम भाग


( क ) नियोग प्रथा का स्वरूप- नियोग प्रथा, वैदिक कालीन समाज में, केवल आपत्काल के लिए एक सहज स्वीकार्य प्रथा रही है। परिवार के सुख, पूर्णता तथा वंश संरक्षण और उन्नति के लिए इस प्रथा का प्रचलन हुआ था। यह प्राचीन काल से लेकर पुराणकाल तक मिलती है। पांच पाण्डव, धृतराष्ट्र, विदुर आदि दर्जनों प्राचीन राजा, ऋषि-मुनि नियोगज सन्तानें थीं। पति या पत्नी की मृत्यु हो जाने पर अथवा पति या पत्नी के असाध्य रोग से ग्रस्त होने पर सन्तानार्थ यह विधि अपनाई जाती थी जो परिवार-संस्था को बचाने का उपयोगी उपाय थी। कई और विशेष कारण हैं, प्राचीन राजतन्त्रों में अनेक युद्ध होते रहते थे, उनमें हजारों-लाखों लोग मारे जाते थे। कभी महामारियों से घर-के-घर उजड़ जाते थे। उस स्थिति में गृहस्थ या स्त्री-हित का अन्य कोई
उपयोगी उपाय नहीं हो सकता था। वैदिक सभ्यता में बहुविवाह वर्जित था, स्त्रियों का न विवाह होना सम्भव था, न ही उस अराजक स्थिति में सन्तानरहित एकाकी रहना सम्भव था। वैसी ही आपत्कालीन स्थितियों में इस प्रथा का मूल्यांकन करना चाहिये, सामान्य स्थिति में नहीं; क्योंकि यह सामान्य स्थिति की प्रथा ही नहीं है। इस पर भी ग्रन्थकार लिखा है कि “जो जितेन्द्रिय रह सकें वे विवाह वा नियोग भी न करें तो ठीक है।”
कुछ लोग नियोगप्रथा को सुन-पढ़ कर नाक-भौं चढ़ाते हैं और महर्षि दयानन्द पर आपत्ति करते हैं। वे लोग पहले यह जान लें कि यह महर्षि दयानन्द द्वारा आविष्कृत प्रथा नहीं है। महर्षि दयानन्द ने वेदादि-शास्त्रों के निर्देशानुसार वैदिक प्रथा का प्रस्तुतीकरण और समर्थन मात्र किया है। इस पर उनका अत्यन्त आग्रह नहीं था। उन्होंने ‘उपदेश मञ्जरी’ में स्पष्ट लिखा कि “विधवा-विवाह का खण्डन करने की मेरी इच्छा नहीं है” (उपदेश १२)। इसी निर्देश के अनुसार आर्यसमाज ने विधवा-विवाह के समर्थन में आन्दोलन चलाया और विधवा विवाह शुरू किये जबकि पौराणिक वर्ग इसका कठोर विरोध करता रहा है।
ऐसे लोगों को आलोचना करने से पूर्व सामाजिक मनोविज्ञान व इतिहास पर विचार करना चाहिये। जिस समाज में जो प्रथा प्रचलित होती है वह अपने समय में इतनी सहज होती है कि उसको घृणित होते हुए भी लोग सहजतया स्वीकार करते हैं, जैसे- हिन्दुओं में घृणित शिवलिंग पूजा और जैनियों तथा नागा साधुओं में पूर्णनग्न रहने की असभ्य प्रथा। उनको इनमें असहजता प्रतीत नहीं होती, जबकि चिन्तन करने पर सभ्य समाज के लिए ये प्रथाएं अत्यन्त असभ्य और घृणास्पद सिद्ध होती हैं। ऐसे ही कभी नियोगप्रथा समाजस्वीकृत, सहज और मर्यादित प्रथा थी, विवाह की तरह। आज भी है, और प्राय: सभी समाजों में है।
(ख ) यूरोप और बाइबल में नियोग परम्परा- जिस यूरोपीय संस्कृति, रहन-सहन, आचार-व्यवहार, खान-पान आदि का अनुकरण और गुणगान करने में आज अधिकांश जन गौरव का अनुभव करते हैं, उसमें कई प्रकार की नियोगप्रथाएं आज भी प्रचलित हैं। जैसे-वीर्यबैंकों की स्थापना करके कृत्रिम गर्भाधान द्वारा इच्छित रूप और गुणवाली सन्तानों की प्राप्ति वहां की जा रही है। किराये की माताओं से सन्तान प्राप्त करना कानूनी रूप से मान्य और समाज-स्वीकृत है। बिना विवाह के स्त्रियों से सन्तानोत्पत्ति की जा रही है। एक सन्तान किसी की है तो दूसरी किसी की। धनप्राप्ति के लोभ में ‘किराये की मां’ का प्रचलन यूरोप के अनुकरण पर भारत में भी होने लगा है। वहां यौन-सम्बन्धों की बेहद स्वच्छन्दता है। यहां तक कि बेहद घृणित प्रथा ‘समलैंगिक विवाह’ आज सारे यूरोप में कानूनी मान्यताप्राप्त है, जो मनुष्य की पशु से भी पतित अवस्था है। किन्तु आज वहां के समाज में, तथा भारतीय समाज में भी ये प्रथाएं सहज स्वीकार्य हैं। हम उनकी आलोचना न करके उनकी संस्कृति को महान् मानकर उनकी ओर झुके जा रहे हैं। जबकि हमारे यहाँ तो नियोग केवल आपत्काल में विहित है और उसमें भी उपकार भावना और मर्यादा विधि थी। जब उपर्युक्त यूरोपीय घटनाओं के संदर्भ मे हम सोचेंगे तब आलोचकों को नियोग असहज नहीं लगेगा। अतः नियोग-वर्णन को आपत्कालीन सन्दर्भ में और सहज स्वीकृत प्रथा के रूप में लेने की आवश्यकता है।
बाइबल, जिसको कि यहूदी और ईसाई अपना धर्मग्रन्थ मानते हैं, उसमें अनेक स्थलों पर नियोग का विधान आता है। वह वर्णन यह सिद्ध करता है कि प्राचीनकाल में यह प्रथा विश्वव्यापी थी और धर्म के अनुसार स्वीकृत थी। पाठक इस बात पर ध्यान दें कि बाइबल में नियोग करना अनिवार्य माना है जबकि भारत में ऐच्छिक था। कुछ प्रमाण बाइबल की भाषा में ही प्रस्तुत हैं-
(अ) सत्यार्थप्रकाश समुल्लास १३ में महर्षि ने आयतखण्ड संख्या ३७ दी है जिसमें नियोग का वर्णन इस प्रकार है- "यहूदाह का पहिलौठा 'एर' परमेश्वर की दृष्टि में दुष्ट था, सो परमेश्वर ने उसे मार डाला। तब यहूदाह ने ओनान (एर के छोटे भाई) को कहा कि “अपने भाई की पत्नी के पास जा और उसके साथ देवर का धर्म पूरा करके उससे अपने भाई के लिए वंश चला।” (उत्पत्ति, पर्व ३८.७-८)
(आ) सत्यार्थप्रकाश समु० १३, आयतखण्ड संख्या २४ में, सर: (सारा) जोकि यहूदियों, ईसाइयों, मुसलमानों की मूलमाता मानी गई है तथा जिसका पति इब्राम (इब्राहिम) मूलपिता माना गया है, उनका वर्णन है । सर: को बड़ी अवस्था में किसी पैगम्बर से नियोगज पुत्र प्राप्त हुआ था जिसका नाम इसहाक था। देखिए बाइबल में उसका उल्लेख-
“नियम समय में अर्थात् वसन्त ऋतु में मैं तेरे पास फिर आऊँगा और सारा के पुत्र उत्पन्न होगा।” (उत्पत्ति, पर्व १८.१४), “अपने कहने के समान परमेश्वर ने सर: से भेंट किया और अपने वचन के समान परमेश्वर ने सर: के विषय में किया॥ और सरः गर्भिणी हुई।” (उत्पत्ति, पर्व २१.१-२)। इसपर ग्रन्थकार की समीक्षा आयतखण्ड २४ पर द्रष्टव्य है।
(इ) अब देखिए बाइबल में नियोग का अनिवार्य विधान, जिसपर कई टीकाकारों ने ‘नियोग’ शीर्षक भी दिया है- “जब कई भाई संग रहते हों, और उनमें से एक निपुत्र मर जाए, तो उसकी स्त्री का ब्याह परगोत्री से न किया जाए; उसके पति का भाई उसके पास जाकर उसे अपनी पत्नी करले...॥ जो पहिला बेटा उस स्त्री से उत्पन्न हो, वह उस मरे हुए भाई के नाम ठहरे....॥ यदि उस स्त्री के पति के भाई को उसे ब्याहना न आए, तो वह स्त्री नगर के फाटक पर वृद्ध लोगों के पास जाकर कहे कि....यह मुझसे पति के भाई का धर्म पालन करना नहीं चाहता ॥ तब उस नगर के वृद्ध लोग उस पुरुष को बुलवाकर समझाएं, और यदि वह अपनी बात पर अड़ा रहे... तो उसके भाई की पत्नी उन वृद्ध लोगों के सामने उसके पास जाकर उसके पांव से जूती उतारे और उसके मुंह पर थूक दे...॥ तब इस्त्राएल में ऐसे पुरुष का यह नाम (निन्दाबोधक) पड़ेगा.... ‘जूती उतारे हुए पुरुष का घराना’। (व्यवस्था विवरण, पर्व २५, आयत ५-१०)।
इन प्रमाणों से ज्ञात होता है कि देवर से नियोग और देवर से विवाह की परम्पराएं यहूदियों और ईसाईयों में अनिवार्य थीं, और ये बाइबल में विहित हैं। पाठक उक्त विवरण में वर्णित दो परम्पराओं के अन्तर को इस प्रकार समझें। जब कोई पुरुष किसी की पत्नी से सन्तान उत्पन्न करता है और वह सन्तान उस स्त्री और उसके पति के वंश की कहाती है तो वह 'नियोग' कहलाता है। जब उसी समागमकर्त्ता पुरुष के वंश की सन्तान कहलाती है तो वह ‘पुनर्विवाह’ कहा जाता है। इस प्रकार से ये विश्वव्यापी परम्पराएं थी; और हैं। ये परम्पराएं चाहे किसी भी रूप में हों, मनुष्य समाज की आवश्यकताएं सदा से रही हैं, आज भी हैं और भविष्य में रहेंगी। किन्तु नियोग के सम्बन्ध में महर्षि की आलोचना करने वाले लोग 'बाइबल' और यहूदी तथा ‘ईसाई-समाज’ की आलोचना बिल्कुल नहीं करते । क्या बाइबल में विहित नियोग उनको स्वीकार्य है और महर्षि-वर्णित अस्वीकार्य है?
( ग ) प्राचीनकाल में भारत में नियोग परम्परा- महर्षि ने प्राचीन नियोग-प्रथा को प्रस्तुत करने से पूर्व तीन विकल्प दिये हैं- १. जो स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य से रहना चाहें तो यह पद्धति उपद्रवरहित है। २. कुल-परम्परा को बनाये रखने के लिए किसी अपने कुल या स्ववर्ण के बालक को गोद ले लें। ३. तीसरे विकल्प में नियोग के शास्त्रीय विधान का उल्लेख है। इसको केवल महर्षि दयानन्द द्वारा प्रस्तुत विधान नहीं कहा जा सकता अपितु आचार्य सायण ने भी ऋवेदभाष्य में “उदीर्ष्व नार्यभि” इस मन्त्र पर भाष्य करते हुए नियोग का विधान किया है (१०.१८.८)। “कुह स्विद्दोषा कुह…” (ऋग्‌० १०.४०.२) पर भाष्य करते हुए आचार्य सायण विधवा को देवर से नियोग करने का विधान करते हैं- “शयुत्रा=शयने, विधवेव=यथा मृतभर्त्तृका नारी, देवरम्=भर्तृभ्रातरम्‌ अभिमुखी करोति…”=जैसे पति के मरने पर विधवा देवर=पति के भाई को अथवा द्वितीय वर से सम्भोग करती है (और नियोगज सन्तान उत्पन्न करती है)। यही दुर्गाचार्य का मत है। निष्कर्ष यह है कि पौराणिक भाष्यकार भी वेदों में नियोग का निर्देश मानते हैं । उनके ‘ऋग्विधान’ में भी नियोग का विधान है (अ० ३, श्लोक ४४, ४५)। किन्तु नियोग के आलोचक कभी पौराणिक आचार्यों की आलोचना नहीं करते।
( घ ) नियोग की प्रथा का उल्लेख वेदों से लेकर पुराणों तक मिलता है और इसका इतिहास रामायण, महाभारत, स्मृतियों तथा पुराणों तक में है, जो इसको तत्कालीन समाजस्वीकृत सहज प्रथा सिद्ध करता है। वसिष्ठ स्मृति अ०१८ में नियोग का विधान है। भागवत-पुराण में नियोगज सन्तानों का विवरण दिया है। वैदिक कालीन राजा पृषदश्व के पुत्र रथीतर को सन्तान न होने पर उसने अंगिरा मुनि से नियोगज पुत्र उत्पन्न किये जो 'आंगिरस' कहलाये। राजा कल्माषपाद की पत्नी मदयन्ती से ऋषि वसिष्ठ ने नियोग से सन्तान उत्पन्न की थी (स्कन्थ ९, अ० ९)। बलि को सन्तान नहीं हुई, तब उनकी पत्नी सुदेष्णा से दीर्घतमा मुनि ने नियोगज सन्तान उत्पन्न की। वाल्मीकि-रामायण के अनुसार, केसरी और अंजना दम्पती का पुत्र हनुमान् नियोगज पुत्र था, जो देवसमुदाय के किसी वायु वंशी (वायुदेव) का पुत्र था (युद्ध० ३०.२२, २५; उत्तर० १३.१४-४९)। इसी प्रकार बाली और सुग्रीव को भी क्रमश: इन्द्र और सूर्य का नियोगजपुत्र वर्णित किया है (वा०रामा० १.१७.१०)। महाभारत और प्राय: सभी पुराणों में इसका बार-बार उल्लेख है कि जब परशुराम और क्षत्रियों के युद्ध में अनेक क्षत्रिय मारे गये थे, तो क्षत्रियों की विधवाओं ने ब्राह्मणों से नियोग करके सन्तानें प्राप्त की थीं (महा०आदि० अ० १०४.१७७)। महाभारत-कालीन उदाहरण ग्रन्थकार ने इस प्रसंग में प्रस्तुत ही किये हुए हैं (द्रष्टव्य, महाभारत, आदिपर्व १०३, १०४ आदि अध्याय)।
'गौतम धर्मसूत्र' कहता है कि जीवित पति के असमर्थ होने पर अथवा पति के मरने पर उसकी स्त्री देवर से नियोग करके सन्तान प्राप्त कर सकती है (१८.४-१४)। 'वसिष्ट धर्मसूत्र' आदेश देता है कि पति की मृत्यु के बाद पुत्रहीन स्त्री का पिता या पति का भाई गुरुजनों एवं सम्बन्धियों की अनुमति से नियोग करायें (१७.५६-६५)। 'बौधायन धर्मसूत्र' विधवा या रुण और नपुंसक पति के उत्पन्न नियोगज पुत्र का 'क्षेत्रज' के रूप में वर्णन करता है (१.६८-६९) । 'कौटिल्य अर्थशास्त्र' में आचार्य चाणक्य ने लिखा है कि पुत्रहीन राजा की पत्नी को और ब्राह्मण की पुत्रहीन पत्नी को समान गुणवाले व्यक्ति से नियोग करके सन्तान प्राप्त कर लेनी चाहिए (१.१७; ३.६ आदि)। 'नारद स्मृति' में भी नियोग से दो पुत्र प्राप्त करने का निर्देश है (स्त्री-पुंस० ८०-८३)। इस प्रकार नियोग की लम्बी परम्परा व इतिहास है। ग्रन्थकार ऋषि ने उसी परम्परा को प्रस्तुत किया है।
इस प्रकार प्राचीन भारतीय इतिहास में नियोगज सन्तानों के दर्जनों उदाहरण मिलते हैं। विशेष बात यह है कि सहजभाव से सम्मान और गौरव के साथ उनका नामोल्लेख किया जाता है। यहां कुछ प्रमाणों को मूलरूप में उद्धृत किया जा रहा है-
(अ) 'वाल्मीकि रामायण' में अनेक स्थलों पर हनुमान्‌ को 'वायुपुत्र' कहा गया है। उसका कारण और विवरण इन श्लोकों में मिलता है-
सूर्यदत्तवरस्वर्णः सुमेरुर्नाम पर्वत:। यत्र राज्यं प्रशास्त्यस्य केसरी नाम वै पिता
तस्य भार्या बभूवेष्ठा अञ्जनेति परिश्रुता। जनयामास तस्यां वै वायुरात्मजमुत्तमम्‌ ॥ (उत्तर० ३५.१९-२०)
अर्थ-सूर्य के प्रकाश के पड़ने से जिसका स्वरूप स्वर्णमय लगता है, ऐसा सुमेरु नामक पर्वत है, जहां केसरी राजा राज्य
करता है। उसकी प्रिय पत्नी अञ्जना है। उसमें देववंशी वायुदेव ने नियोग से हनुमान्‌ को उत्पन्न किया है।
(आ) महर्षि व्यास ने माता सत्यवती के आग्रह पर निर्धारित विधि से जो नियोगज सन्तान उत्पन्न की उसका विवरण है-
ततोऽम्बिकायां प्रथम: नियुक्त: सत्यवागृषि:॥४॥ सापि कालेन कौसल्या सुषुवेऽन्धं तमात्मजम्‌॥१३॥
ततस्तेनैव विधिना महर्षिस्तामपद्यत....अम्बालिकाम्‌...॥१४॥ तत: कुमारं सा देवी प्राप्तकालमजीजनत्‌। पाण्डुं....॥२१॥
स जज्ञे विदुरो नाम कृष्णद्वैपायनात्मज:। धृतराष्ट्रस्य वै भ्राता पाण्डोश्चैव महात्मन:॥२८॥ (आदिपर्व० १०५.अ०)
अर्थ-माता सत्यवती ने व्यास ऋषि को पहले अम्बिका से नियोग करने के लिए नियुक्त किया। समय आने पर उसने अन्धे पुत्र धृतराष्ट्र को उत्पन्न किया। उसी नियोगविधि से महर्षि व्यास अम्बालिका के पास गये। समय आने पर उसने पाण्डु नामक पुत्र को जन्म दिया। इसी प्रकार दासी में, कृष्ण द्वैपायन व्यास से विदुर उत्पन्न हुआ। यह धृतराष्ट्र और पाण्डु का भाई था॥
(इ) महाभारत में पांचों पांडवों को नियोग से उत्पन्न पुत्र बताया है। राजा पाण्डु सन्तानोत्पादन की शक्ति से रहित थे। उन्होंने अपनी पत्नी कुन्ती को स्वयं आदेश दिया-
तस्मात् प्रहेष्याम्यद्य त्वां हीन: प्रजननात्‌ स्वयम्‌। सदृशात्‌ श्रेयसो वा त्वं विध्द्यपत्यं यशस्विनि॥ (आदिपर्व० ११९.३७)
आह्वयामास वै कुन्ती गर्भार्थे धर्ममच्युतम्‌॥१॥ सा तं विहस्यमानापि पुत्रं देह्यब्रवीदिदम्॥४॥
संयुक्ता सा हि धर्मेण योगमूर्तिधरेण ह। लेभे पुत्रं वरारोहा सर्वप्राणभृतां द्वितम्॥५॥ (आदिपर्व० १२२)
अर्थ- पाण्डु ने अपनी पत्नी कुन्ती से कहा, क्योंकि मैं सन्तानोत्पादन शक्ति से रहित हूँ, इस कारण तुम्हें किसी बराबर या उत्तम स्तर के व्यक्ति से सन्तान प्राप्त करने का निर्देश देता हूं। जाओ, तुम सन्तान प्राप्त करो। कुन्ती ने सन्तानप्राप्ति के लिए, धर्मदेव नामक
या किसी धर्म-वंशी व्यक्ति का आह्वान किया=उससे नियोगार्थ निवेदन किया कि 'आप मुझे एक पुत्र प्रदान करें।' धर्मदेव जो योगियों के वेश में रहते थे, उनसे संयुक्त होकर कुन्ती ने सब प्राणियों के हित करने वाले युधिष्ठिर को प्राप्त किया।
आगे वायुदेव नामक व्यक्ति या किसी वायुवंशी से भीम और इन्द्रदेव नामक या किसी इन्द्रवंशी देवसमुदाय के व्यक्ति से नियोग करके कुन्ती द्वारा अर्जुन नामक पुत्र प्राप्त करने का उल्लेख है (आदिपर्व० १२२.१२-१४, २८-३५)। इसी प्रकार माद्री ने भी पति पाण्डु और बड़ी रानी कुन्ती की अनुमति लेकर अश्विन्‌ वंशी दो व्यक्तियों से नियोग करके नकुल और सहदेव प्राप्त किये (आदिपर्व १३३.१६-१७)।
(ई) वैदिक साहित्य में सत्यकाम जाबाल की घटना प्रसिध्द है। वस्तुतः वह नियोगज पुत्र ही था, अवैध नहीं। हाँ, पुत्रप्राप्ति के समय सेवाकार्य में संलग्न उसकी माता को यह ज्ञान नहीं हो पाया कि वस्तुतः  वह किसके नियोग से उत्पन्न है। इस कारण उसने कहा कि मैं गोत्र नहीं बता सकती। इस मान्यता में यह युक्ति है कि जब उस समय नियोग से सन्तान प्राप्त करना वैध और सम्मानित था तो उसकी माता अवैध रूप से सन्तान क्यों उत्पन्न करती ? छान्दोग्य के प्रकरण में उसकी माता ने यह नहीं कहा कि “पुत्र हो गया”, अपितु यह कहा है कि “त्वाम्-अलभे” =तुझे मैंने पुत्र की कामना करके प्राप्त किया है। और इसका उपाय उस समय नियोग ही था (छान्दोग्य उप० ४.४.२-५)
पाठक, बाइबल के और भारतीय सन्दर्भों में इस सहजता पर ध्यान दें कि नियोग के प्रसंग में कहीं कोई असहजता, अपराधबोध, कामुकता, लज्जा या मर्यादाहीनता का भाव नहीं है। सारा व्यवहार बहुत सामान्य है और ऐसे पुत्रों की प्राप्ति पर परिवार और समाज में खुशियां मनाने का वर्णन है। बाइबल में तो नियोग कानूनन अनिवार्य घोषित किया हुआ है जबकि वैदिक परम्परा में स्वैच्छिक और स्त्री-पुरुष की पारस्परिक प्रसन्नता पर निर्भर है।
(उ) भारत में अब भी नियोग-प्रथा है- ऊपर यूरोप में प्रचलित नियोग की जिन प्रथाओं का उल्लेख किया गया है, वे भारत में भी प्रचलित है। “किराये की माँ” (सरोगेट मदर) बनने वाली स्त्रियों की संख्या लाखों में है और यह एक व्यवसाय बन गया हैं जिसमें स्त्रियां ८-१० लाख रुपये लेकर संभोग द्वारा किसी की सन्तान उत्पन्न करती हैं। यह नियोग का निकृष्ट व्यावसायिक रूप है। भारत में तो नियोग केवल सन्तानप्राप्ति की पवित्र और मानवीय भावना से होता था। स्थान-स्थान पर वीर्यबैंक खुल रहे हैं जहां विशेष गुणवाले युवाओं या व्यक्तियों से वीर्य खरीदकर रखा जाता है और इच्छुक स्त्री कृत्रिम गर्भाधान से अभीष्ट गुणवाली सन्तान उत्पन्न करती है। इसको कानूनी रूप देनेवाला बिल शीघ्र ही आनेवाला है जिसमें एक स्त्री को अपनी सन्तान के अतिरिक्त किराये की कई सन्तान उत्पन्न करने की कानूनी मान्यता दी जा रही है। नियोग के आलोचक क्या कभी इस नयी प्रथा का विरोध करते हैं ? वे तो पशुओं से भी पतित कर्म 'समलैंगिक सम्बन्ध' के निर्णय की तथा युवा पुरुष और कन्या के बिना विवाह के साथ रहने के निर्णय का भी विरोध नहीं करते। राजस्थान में ‘नाताप्रथा’ नियोग की प्रथा ही है।
(ऊ) नियोग व्यवस्था मानव समाज के लिए अपरिहार्य- यह एक नैसर्गिक और वैज्ञानिक तथ्य है कि प्रत्येक गृहस्थ स्री-पुरुष को सन्तान चाहिए। सन्तान न होने पर वे हर अच्छा-बुरा मार्ग, यहां तक कि संसार का सबसे घृणित और क्रूर कर्म 'दूसरों के बालकों की बलि देना' जैसा भी अपना लेते हैं। इसके लिए धर्मशास्त्रियों-समाजशास्त्रियों ने विवाह-व्यवस्था का निर्माण किया है। विवाह के बाद भी किसी एक जीवनसाथी की मृत्यु, नपुंसकता, दीर्घरोगिता, किसी कारण से सन्तान का नष्ट हो जाना आदि कारणों से सन्तान का अभाव हो जाता है। गृहस्थ उस अभाव की भी पूर्ति चाहते हैं। उसके लिए विश्व समाज में अनेक व्यवस्थाएं प्रचलित हैं- बहुविवाह, पुनर्विवाह, नियोग। इनमें से जहां कोई एक व्यवस्था स्वीकृत नहीं होगी वहां प्रकट-अप्रकट रूप से स्वच्छन्द यौन सम्बन्ध अर्थात्‌ व्यभिचार चलेगा। बहुविवाह और पुनर्विवाह की अपनी अनेक कष्टदायक समस्याएं हैं। इसलिए वैदिक संस्कृति-सभ्यता में सबसे कम समस्यामय या निरापद नियोग-व्यवस्था को स्वीकार किया हुआ है। यदि समाज में विवाहित सन्तानरहित लोगों के लिए कोई उपव्यवस्था नहीं होगी तो निश्चित रूप से उस समाज में व्यभिचार, अव्यवस्था और मर्यादाहीनता बढ़ेगी। इनके दुष्परिणाम अधिक घातक हैं।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि नियोग मानव-समाज की अपरिहार्य प्रथा है, जो मानव समाज में सहज रही है, आज भी है और जब तक मनुष्य समाज रहेगा तब तक रहेगी; हाँ रूप बदलती रहेगी । पाठक विशेष बात यह ध्यान में लायें कि मनुष्य की चाहत केवल सन्तानप्राप्ति की ही नहीं होती, उससे एक कदम आगे बढ़कर अच्छी और गुणी सन्तानप्राप्ति की भी होती है। उसका एकमात्र उपाय 'नियोग व्यवस्था' है चाहे वह किसी भी रूप में व्यवहार में प्रचलित हो। नियोग का आधारभूत सिद्धान्त जो पहले था वही आज भी है। आज विश्व में और भारत में ‘किराये की मां’ (सरोगेट मदर) और ‘वीर्यबैंकों के वीर्य से सन्तानप्राप्ति’ के रूप में है, और इसका प्रचलन दिनों-दिन बढ़ रहा है। पहले विशेष गुणवाली या विशेष प्रकार की सन्तानप्राप्ति के लिए विशेष प्रकार के समान या उत्तमकोटि के व्यक्तियों (जैसे ऋषि-मुनि, बली, क्षत्रिय आदि) से नियोग किया जाता था, आज वीर्यबैंकों में संचित वीर्य से विशेष गुण वाली सन्तान (जैसे वैज्ञानिक, डॉक्टर, खिलाड़ी, बुद्धिजीवी आदि)। प्राप्त की जा रही है। सिद्धान्त और मानसिकता में कोई अन्तर नहीं है, केवल नियोग का रूप बदला है। संयोग देखिए, आज का बुद्धिजीवी और प्रगतिवादी समाज या समाजशास्त्री इन प्रथाओं को रोकने की बात नहीं करते, अपितु इसके लिए सुविधाएं देने की और इसके लिए संरक्षक कानून बनाने की मांग सरकार से कर रहे हैं। प्राचीन समाजशास्त्री, बुद्धिजीवियों ने भी यही किया था, आज के समाजशास्त्री भी वही कर रहे हैं। फिर नियोग के विरोध, आलोचना, निन्दा का अवसर ही कहां रह गया ? अपितु प्राचीन नियोग-व्यवस्था कई मामलों में उत्कृष्ट थी, वह विवाह के समान नैतिक रूप से अनुशासित एक मर्यादित विधि थी, आज के नियोगों में ऐसी कोई मर्यादित विधि नहीं है। पुरानी नियोग-व्यवस्था में सन्तानप्राप्ति पवित्र और मानवीय भावना के आधार पर की जाती थी किन्तु आज के नियोगों के सभी रूप व्यवसायिक हो गये हैं। यह स्थिति भावी मानव समाज को अमर्यादित और विकृत करने का घोर कारण बनेगी। यह व्यवसाय वेश्यावृत्ति जैसा रूप ले लेगा। नियोग की अनर्गल आलोचना करने वाले लोग बतायें कि अब वे किसकी निन्दा-आलोचना करेंगे ? आज की व्यावसायिक और अमर्यादित नियोग प्रथा की या प्राचीन व्यवसायरहित मानवीय भावनाप्रधान नियोग प्रथा की?
भारतीय समाज ही नहीं, अपितु पूरा विश्वसमाज सन्तान-उत्पत्ति को सहज भाव से देखता आ रहा है। उसने नियोगज किन्तु अज्ञातकुल के सत्यकाम जाबाल को एक उच्च ऋषि के रूप में, अवैध सन्तान ईसा मसीह और कबीर को एक सन्त के रूप में सम्मान दिया है। नियोगज सन्तानें तो समाज में सगी सन्तान के समान स्वीकृत, वैधानिक और सम्मान्य रही हैं। उनके जन्म पर परिवार-समाज में उसी प्रकार उत्सव मनाया जाता था, जिस प्रकार सगी सन्तान के जन्म पर मनाते थे।
संक्षेप में यों समझिए कि किसी भी कारण से सन्तानहीनता की आपत्कालीन स्थिति में परिवार, सम्बन्धियों और समाज की अनुमति से यह एक प्रकार का अस्थायी 'उपविवाह' था जो केवल सन्तानप्राप्ति के लिए होता था। इससे परिवार की यथास्थिति, सन्तान की प्राप्ति, वंश की रक्षा, स्त्रियों को सन्तान का आश्रय आदि लाभ हो जाते थे। समाज में दुराचार का विस्तार, मर्यादाओं का उन्मूलन, परिवार का विखण्डन न होकर एक सीमा तक मर्यादा बनी रहती थी। प्राचीन जनों का पाश्चात्यों और आधुनिकों के समान व्यवसायी और पशु से भी पतित समलैंगिक जीवन या आचरण नहीं था।

सत्यार्थप्रकाश शंका समाधान-
नियोग द्वितीय भाग

नियोग का स्वरूप और उससे दश-दश सन्तान प्राप्त करने का अभिप्राय- ग्रन्थकार ने दर्शाया है कि वेदों में अधिकतम दश सन्तानें प्राप्त करने का विधान है, चाहे वे विवाहित स्त्री से हों अथवा नियोग की स्थिति में हो। दश सन्तानें प्राप्त करना अनिवार्यता नहीं है, स्त्री-पुरुष जितनी चाहे कम भी कर सकते हैं। नियोग से दश सन्तानें प्राप्त करने के उल्लेख को पढ़कर कुछ अल्पज्ञानी लोग कहते फिरते हैं कि यह तो पशुओं जैसा व्यवहार है। 'नियोग' शब्द आते ही ऐसे लोग उसका अर्थ 'स्वच्छन्द व्यभिचार' मान बैठते हैं । नियोग में एक समय में दश सन्तानें प्राप्त नहीं की जा सकतीं । एक, दो या तीन सन्तान के जीवित रहते नियोग नहीं किया जाता। उनकी मृत्यु के उपरान्त ही पुन: नियोग हो सकता है। वस्तुतः, ऐसे लोगों को न तो नियोग के उद्देश्य का ज्ञान है, न इसके स्वरूप का, न इसकी निर्धारित आचार संहिता का और न इसके ऐतिहासिक विवरण का। वे बिना किसी आधार के अपने मन से अनर्गल बातें बकते हैं । जरूरत इस बात की है कि वे पहले इसके स्वरूप को समझें।
जैसा कि बताया जा चुका है कि 'नियोग' एक आपत्कालीन वैदिक व्यवस्था है, जो समाज-परिवार द्वारा सहजभाव से स्वीकृत रही है। इसकी अपनी निर्धारित विधि या आचार-संहिता है। उसका पालन न करने पर नियुक्त स्त्री-पुरुष दण्डनीय होते हैं। मनोवैज्ञानिक सत्य यह है कि सन्तान की चाहत गृहस्थ स्त्री-पुरुष की नैसर्गिक और अनिवार्य कामना है। इसके लिए वे अच्छा-बुरा प्रत्येक मार्ग अपनाते हैं। सन्तान-हीन लोगों को हर हालत में सन्तान चाहिए, इसके लिए यदि उन्हें कोई मर्यादित व्यवस्था समाज की ओर से नहीं मिलेगी तो वे व्यभिचार के द्वारा इस इच्छा की पूर्ति करेंगे। इसलिए सामाजिक अव्यवस्था और व्यभिचार रोकने के लिए ही विवाह और नियोग जैसी व्यवस्थाएं समाजशास्त्रियों अथवा धर्मशास्त्रों ने बनाई हैं।
(क) नियोग का उद्देश्य और आचार संहिता- नियोग परिवार के संरक्षण, उन्नति तथा परिवार के सुख और पूर्णता के लिए है। सत्यार्थप्रकाश में ग्रन्थकार नियोग के उद्देश्य को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं- “विवाह वा नियोग सन्तानों के ही अर्थ किये जाते हैं, पशुवत्‌ काम क्रीडा के लिए नहीं।” मनुस्मृति के श्लोकों से तथा अन्य धर्मग्रन्थों से नियोग की मूल आचार-संहिता का ज्ञान भलीभांति हो जाता है। नियोग के मूल नियम ये हैं- (१) यह केवल आपत्कालीन व्यवहार है। ग्रन्थकार ने स्पष्ट लिखा है कि “जो जितेन्द्रिय रह सकें वे विवाह वा नियोग भी न करें तो ठीक है।” (२) यह विधान केवल सन्तान के अभाव में अथवा “सन्तानस्य परिक्षये”=सन्तान का पूर्ण क्षय, विनाश होने पर नियोग करने वाले स्त्री-पुरुष की सहमति से व्यवहार में लाया जाता है। सन्तान के जीवित रहते नियोग नहीं किया जाता। (३) यह स्त्री-पुरुष की स्वच्छन्दता से नहीं होता था अपितु परिवार-समाज गुरुजनों (कुल पुरोहित आदि) द्वारा विवाह के समान प्रसिद्धि और निर्धारित विधिपूर्वक अनुमति पूर्वक कराया जाता था। जिस प्रकार नियमपूर्वक किया गया विवाह वैधानिक है और अनियमपूर्क अपराध है; उसी प्रकार नियमों के अनुसार किया गया नियोग वैधानिक है और अनियमपूर्वक किया गया अपराध है (मनुस्मृति ९.५८, ६३, १४३, १४४; नारदस्मृति, स्त्री-पुंस० ८४-८६ आदि)। (४) प्रायः सभी स्मृतियों और धर्मशास्त्रों में यह विधि दी हुई है कि नियुक्त पुरुष विधि-अनुसार, वाणी पर संयम करके नियुक्त स्त्री के पास रात्रि में ही जाये। इसकी व्याख्या यह दी हुई है कि वह केवल सन्तान उत्पन्न करने की भावना से जाये, न तो कामक्रीड़ा करे, न अश्लील वार्तालाप आदि करे (मनु ९.६०; वसिष्ठ धर्मसूत्र १७.५६-६५,; ऋग्विधान ३.४५ आदि)। इससे ज्ञात होता है कि वैदिक संस्कृति-सभ्यता में 'नियोग' कामक्रीड़ा का माध्यम कभी नहीं रहा।
मनुस्मृति के अतिरिक्त 'वसिष्ट धर्मसूत्र' के एक प्रमाण से नियोग की प्रक्रिया को समझा जा सकता है। कन्या का विवाह करना अभिभावकों का दायित्व है। ऐसे ही नियोग कराना भी उन्हीं का दायित्व होता था। देखिए प्रमाण- 
'ऊर्ध्व षड्भ्यो मासेभ्य: स्नात्वा....विद्याकर्मगुरुयोनिसम्बन्धान्‌ संनिपात्य पिता भ्राता च नियोगं कारयेत्। (१७.५६-६५) अर्थात्‌  'पति की मृत्यु के छह मास पश्चात्‌ स्नान आदि से शुद्ध होने पर स्त्री के पिता और भाई आदि गुरु, पुरोहित, सम्बन्धियों को एकत्र कर, उनकी अनुमति लेकर स्त्री का नियोग करायें।' इस प्रकार नियोग विवाह के समान सहज-सामान्य सामाजिक-पारिवारिक व्यवहार या और बहुत ही अनुशासित तथा संयमयुक्त मर्यादित विधि थी। (५) नियोग द्वारा सन्तान उत्पत्ति के बाद स्त्री-पुरुष का व्यवहार पूर्ववत्‌ वर्जित सम्बन्धों वाला होना चाहिए अन्यथा उनको दण्डनीय अपराधी माना जायेगा (नारदस्मृति, स्त्री-पुंस० ८४-८५; मनु० ९.५८ आदि)। देखिए, नियोग को कितना मर्यादित किया हुआ था। (६) अधिकांश शास्त्रकारों का मत है कि नियोग द्वारा एक या दो सन्तानें ही प्राप्त करनी चाहिए, जैसे- “एकमुत्पादयेत्पुत्रं न द्वितीयं कथचन” (ऋग्विधान ३.४५), “द्वितीयमेके प्रजननम्” (मनु० ९.६१)=दो सन्तान करे, “नातिद्वितीयम्” (गौतमधर्मसूत्र १८.८) =दो से अधिक सन्तान न करे। यही दो सन्तानों का उल्लेख याज्ञवल्क्य स्मृति (१.६८-६९), नारद स्मृति (स्त्रीपुंस० ८०-८३), बौधायन धर्मसूत्र (२.२.६८-७०) तथा कौटिल्य अर्थशास्त्र (१.१७) में मिलता है। उनके निधन पर पुनः अन्य सन्तानें प्राप्त की जा सकती हैं, उनके जीवित रहते नहीं। इस प्रकार अधिक से अधिक दश सन्तानें प्राप्त की जा सकती हैं।
यह सब विस्तृत विवरण प्रस्तुत करने का लक्ष्य पाठकों को यह बताना है कि नियोग का वैदिक स्वरूप क्या है। यह केवल सन्तानप्राप्ति का आपत्कालीन माध्यम है और एक समय एक-दो ही सन्तानें प्रात की जा सकती हैं। उनके नष्ट होने पर क्रमश: अधिकाधिक दश सन्तानें प्राप्त की जा सकती हैं, ग्रन्थकार वर्णित दश सन्तान प्राप्त करने का यही भाव है।
(ख) नियोग में सन्तान-सीमा के ऐतिहासिक उदाहरण- ऋषि दयानन्द वैदिक परम्पराओं के प्रति आस्था रखते थे अतः वैदिक परम्परा होने के नाते उन्होंने नियोग-व्यवस्था को प्रस्तुत किया है। आइए, अब परम्परा के इतिहास पर दृष्टिपात करते हैं।
उन उदाहरणों से विवेच्य विषय पर प्रकाश पड़ेगा। विगत टिप्पणी में पाठकों ने पढ़ा था कि महर्षि व्यास ने माता सत्यवती के आग्रह पर उसकी पुत्रवधुओं, राजा विचित्रवीर्य की रानी अम्बिका से नियोग करके धृतराष्ट्र को, दूसरी रानी अम्बालिका से नियोग करके पाण्डु को, रानी अम्बिका की दासी से नियोग होने पर विदूर को उत्पन्न किया। व्यास ने पुनः उनसे नियोग नहीं किया और न उन स्त्रियों ने किसी समय अन्य पुरुष से नियोग किया। इस प्रकरण की एक महत्त्वपूर्ण बात पाठकों के सामने रखना चाहता हूँ। हस्तिनापुर के राजवंश में जब उत्तराधिकारी का अभाव हो गया तो उत्तराधिकारी पुत्र प्राप्त करने का विचार हुआ। रानी सत्यवती ने पहले अकेली अम्बिका से नियोग कराया। जब उससे अंधापुत्र धृतराष्ट्र उत्पन्न हो गया, तो उसके बाद दूसरा नियोग रानी अम्बालिका से कराया। उससे भी जब जन्मजात पाण्डुरोगी 'पाण्डु' उत्पन्न हुआ तो सत्यवती ने फिर अम्बिका को एक पुत्र उत्पन्न करने को कहा। वह नियोग के प्रति अनिच्छुक थी, उसने नियोग की रात्रि में अपने स्थान पर अपनी दासी को व्यास के पास स्थान पर भेज दिया। उससे विदुर का जन्म हुआ। ये नियोग एक साथ नहीं हुए अपितु एक के बाद एक हुए हैं, जबकि पहले पुत्र स्वस्थ नहीं पाये गये (महाभारत, आदिपर्व० अ० १०५) यहां पाठकों को एक अन्य तथ्य बताना भी उपयोगी रहेगा कि रानी सत्यवती ने पहले गंगापुत्र भीष्म से नियोग-सम्बन्ध करने का आग्रह किया था किन्तु ब्रह्मचर्यव्रती होने के कारण भीष्म ने उसको अस्वीकार कर दिया (महाभारत, आदि०अ० १०३-१०४) स्पष्ट है कि नियोग इच्छुक स्त्री-पुरुष की सहमति से ही होता है।
वाल्‍मीकि-रामायण में आता है कि केसरी राजा की पत्नी अंजना ने देव समुदाय के किसी वायुवंशी (वायुदेव) व्यक्ति से नियोग करके 'हनुमान्‌' को उत्पन्न किया था (उत्तरकाण्ड १३.१४-४९)। उसके बाद उसने नियोग नहीं किया। पाण्डुपत्नी माद्री ने देव समुदाय के अश्विनीवंशी दो पुरुषों से नियोग करके दो पुत्र प्राप्त किये थे। इसके दो विशेष कारण थे-एक, राजा पाण्डु ने कुन्ती से यह कहकर अधिक सन्तान करने का बार-बार आग्रह किया कि क्षत्रियों का बल सन्तानें होती हैं (महा०, आदि० १२२.११) दूसरा, कुन्ती ने जिस धर्मशास्त्र का अध्ययन किया था, उसमें तीन पुत्रों की प्राप्ति तक नियोग का विधान था। जब पाण्डु राजा ने तीन के बाद भी पुत्र प्राप्त करने के लिए बल दिया, तो कुन्ती ने यह कहकर निषेध कर दिया कि तीन से अधिक नियोगज सन्तान उत्पन्न करना शास्त्रविरुद्ध है (१२२.७६, ७८)। उसके बाद सन्तान उत्पन्न करने वाली स्त्री 'स्वच्छन्दचारिणी' और 'व्यभिचारिणी' कहलाती है- “नातश्चतुर्थं प्रसवमापत्स्वपि वदन्त्युत” (१२२.७७)=पूर्वसन्तान के रहते चौथे पुत्रप्राप्ति का विधान शास्त्रों में आपत्काल में भी नहीं है। तब पाण्डु चुप हो जाते हैं और कहते हैं- “एवमेतद्‌ धर्मशास्त्रम्” (१२२.७८)='हाँ, धर्मशास्त्र का तो यही मत है जो तुम कह रही हो।' कुन्ती ने तीनों पुत्र तीन पृथक्‌ पुरुषों से प्राप्त किये थे, एक पुरुष से नहीं। इस प्रसंग से नियोग की एक निर्धारित व्यवस्था की जानकारी अवश्य मिलती है। उसमें कहीं भी स्वच्छन्दता, कामुकता अथवा पशुता नहीं है।
नियम के साथ अपवाद प्राय: मिलते हैं। पाठकों को उसका कारण बताने के लिए उस प्रसंग की चर्चा की जा रही है। दैत्य वंश में प्रह्लाद के पौत्र और विरोचन के पुत्र प्रसिद्ध राजा बलि ने ऋषि दीर्घतमस्‌ मामतेय (जो अंधे थे) के द्वारा अपनी पत्नी सुदेष्णा से पांच पुत्र उत्पन्न कराये थे। यहां भी राजा बलि का अधिक सन्तान उत्पन्न करने का तथा दीर्घतमस्‌ से ही पुत्र प्राप्त करने का अधिक आग्रह था (हरिवंशपु० १.३२; विष्णुपु० ४.१८; भाग० ९.२०; ब्रह्म० १.३ आदि)। यह दैत्यों की पृथक परम्परा भी हो सकती है।
जो पौराणिक नियोग की परम्परा पर ऋषि की आलोचना करते हैं वे अपने पुराणों को देखेंगे तो उनमें नियोग की अनेक घटनाओं का उल्लेख देखेंगे। ये सब ऋषि द्वारा वर्णित परम्परा की पुष्टि करते हैं। जो लोग 'नियोग' शब्द आते ही उसको व्यभिचार अथवा स्वच्छन्द कामुकता समझने की भूल कर बैठते हैं, उनके लिए, यह विवरण नियोग की आचारसंहिता को समझने के लिए दिया है। पाठक इससे समझ गये होंगे कि नियोग पशुवत्‌ व्यवहार नहीं था अपितु परिवाररक्षक, व्यभिचाररोधक, व्यवस्थित, अनुशासित समाजस्वीकृत धर्मभय व्यवहार था।


सत्यार्थप्रकाश शंका समाधान-
लोक-लोकान्तरों में मनुष्यादि प्रजा
 
इस सन्दर्भ पर कुछ लोग बिना विचारे अथवा पूर्वाग्रह के कारण आपत्ति करते हैं । कृपया, वे आपत्ति करने से पूर्व इन बिन्दुओं को गम्भीरता से पढ़ें-
(क) लोक-लोकान्तरों में निवास होने और निवासयोग्य वातावरण लोक-लोकान्तरों द्वारा निर्माण करने सम्बन्धी यह मान्यता मूल रूप से 'शतपथ ब्राह्मण' की है। महर्षि ने उसको उद्धृत करके उसके अनुसार यहां उत्तर दिया है। यह महर्षि की अपनी खोज या स्थापना नहीं है, यह ‘शतपथ ब्राह्मण’ का कथन है। अन्य प्रमाणों के समान महर्षि ने इसको भी प्रमाण माना है।
(ख) महर्षि ने समस्त लोक-लोकान्तरों को ‘वसु’ कहते हुए उनकी दो विशेषताएं बताई हैं- १. ये लोक या तो निवास के आधार हैं, अथवा २. निवास योग्य वातावरण बनाने में कारण हैं- “प्रजा वसती है और ये ही सबको वसाते हैं।”  विज्ञान में आज भी यही सिद्धान्त स्वीकृत है कि लोक-लोकान्तरों के परस्पर अनुकूल वातावरण से ही जीवन संभव बना हुआ है। अतः आवश्यक नहीं कि सब ग्रहों में प्रजा हो। जिसमें प्रजाएं नहीं हैं, वह बसाने में कारण अवश्य है। सब लोकों में दोनों में से एक विशेषता अवश्य है। अत: दोनों अर्थों की संगति लगाकर सब लोकों की व्याख्या करनी चाहिए। केवल एक 'बसने वाली' बात कहना अपूर्ण व्याख्या और अज्ञानतापूर्ण कथन है।
(ग) यह भी ध्यान देने की बात है कि महर्षि ने 'शतपथ ब्राह्मण' के वाक्य की व्याख्या करते हुए “मनुष्यादि प्रजा” और “मनुष्यादि सृष्टि” शब्दों का प्रयोग किया है, जिसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि सब लोकों में मनुष्य ही हों । यहां ‘आदि’ शब्द से संसार के मनुष्य से भिन्न अन्य कीटाणु तक के प्राणियों का ग्रहण होता है। इस बात को हम महर्षि के उपर्युक्त वाक्य से समझ सकते हैं- "यह छोटा-सा ( पृथिवी ) लोक मनुष्यादि सृष्टि से भरा हुआ है।'' इसका अर्थ यह बिल्कुल नहीं है कि इसमें सर्वत्र मनुष्य ही मनुष्य हैं या केवल मनुष्यों से भरा हुआ है। “आदि” शब्द संकेत देता है कि कहीं मनुष्य हैं, तो कहीं केवल पशु, तो कहीं केवल कीटाणु भी हो सकते हैं। कहीं अन्य जीव हो सकते हैं। जैसे, समुद्र में केवल जलचर है, जंगलों में वन्य प्राणी हैं, आकाश में पक्षी हैं, भूमि के अन्दर कीट हैं, आकाशादि में कीटाणु हैं।
इसी प्रकार यहां अन्य ग्रहों-नक्षत्रों के साथ सूर्य के उल्लेख पर कुछ पाठकों को आपत्ति है, क्योंकि आज का विज्ञान सूर्य को गैसजनित आग का एक गोला मानता है। अभी तक आज के वैज्ञानिकों के पास सूर्य की केवल बाहरी जानकारी है, ब्रह्माण्ड के अन्य सूर्यों की तो है ही नहीं। इस जानकारी पर भी वैज्ञानिकों में मतभेद हैं। जब तक सभी सूर्यों की पूर्ण प्रामाणिक खोज या जानकारी उपलब्ध नहीं होती तब तक शतपथ के वचन को पूर्णत: नकारा नहीं जा सकता।
(घ) शतपथ ब्राह्मण की मान्यता के अनुसार- ‘सब लोक-लोकान्तर वसु हैं’ अर्थात्‌ या तो उनमें प्राणी बसते हैं या वे अन्य लोकों में प्राणियों की उत्पत्ति और निवास में सहायक कारण हैं। यह वैज्ञानिक मान्यता आज भी है। इसी के आधार पर आज के वैज्ञानिक दूसरे लोकों में मानवसृष्टि की खोज में जुटे हैं। अन्य ग्रहों पर जाने का मुख्य प्रयोजन यही खोज करना है।
ग्रहों पर जाने के बाद वहां की प्राकृतिक परिस्थितियों के विषय में आज के विज्ञान ने अभी कोई अन्तिम निर्णय नहीं दिया है। जब तक अन्तिम निर्णय नहीं होता तब तक उनके वर्तमान कथनों को अन्तिम प्रमाण नहीं माना जा सकता । कभी उन्होंने कहा था कि मंगल ग्रह पर जल नहीं है। नयी खोज के अनुसार जल होना स्वीकार किया है। इसी प्रकार जब तक अन्तिम वैज्ञानिक निष्कर्ष नहीं आता तब तक शतपथ ब्राह्मण के वचन को अमान्य नहीं किया जा सकता। महर्षि के आलोचक क्या इन पुनः पुनः परिवर्तनशील वैज्ञानिकों की भी आलोचना करेंगे ?
(ड) शतपथ ब्राह्मण हजारों वर्ष पुराना ग्रन्थ है और उसमें वर्णित मान्यता और भी प्राचीन है। हजारों-लाखों वर्ष पुरानी प्राकृतिक मान्यता की तुलना वर्तमान पर्यावरणीय परिस्थितियों से करना वैज्ञानिक दृष्टि से सही नहीं है । प्रकृति में परिवर्तन होता रहता है। आज के वैज्ञानिकों का एक और मत लीजिए। पहली चन्द्र-यात्रा करने के बाद उन्होंने कहा था कि चन्द्रमा पर जल आदि नहीं है। अब नया मन्तव्य यह है कि कभी वहां जल और समुद्र रहे हैं क्योंकि समुद्रीय और अन्य जलों के चिन्ह या गढ़े वहां मिले हैं। जल के अस्तित्व-सम्बन्धी इस नई खोज से वैदिक साहित्य में प्राप्त चन्द्रमा-सम्बन्धी विवरणों की और शतपथ के उक्तवचन की सत्यता सिद्ध हो गई है कि कभी वहां प्राणी वसते थे। क्योंकि जहां जल होता है वहां जीवन अवश्य होता है। महर्षि के आलोचक अब उत्तर दें कि वे इन वैज्ञानिकों को क्या कहेंगे जो पल-पल में पलटते हैं।
(च) आज के विज्ञान को अति-उच्च विज्ञान माना जाता है। फिर भी उसकी स्थापित मान्यताएं दिन-प्रतिदिन बदल रही हैं या गलत सिद्ध हो रही हैं। उदाहरण के रूप में, वैज्ञानिकों का अब तक मानना रहा है कि एक-सौ डिग्री तापमान में सभी जीवाणु नष्ट हो जाते हैं । किन्तु गत दिनों खोज से पाया कि न्यूजीलैण्ड आदि कई देशों के समुद्र में स्थित ज्वाला-मुखी के ताप से समुद्र का पानी तीन-चार सौ डिग्री तापमान पर खौलता रहता है। वैज्ञानिकों को उसमें जीवित रहने वाले क्षुद्र जीव मिले हैं, जो महान् आश्चर्य का विषय है। ऐसे जीवों को वैदिक साहित्य में पहले से ही 'आग्नेय जीव' कहा हुआ है । जिन जीवों की कल्पना आज के वैज्ञानिक नहीं कर सके, उनका विवरण वैदिक साहित्य में प्राप्त है। इसी प्रकार शतपथ ब्राह्मण कालीन खोजों के प्रमाणों को अभी तक की खोजों के अनुसार अमान्य नहीं किया जा सकता।
(छ) इस सन्दर्भ में अन्तिम कथन यह है कि लगभग प्रत्येक वैज्ञानिक की कुछ मान्यताएं आने वाले वैज्ञानिकों ने अस्वीकार या खण्डित की हैं। सभी वैज्ञानिकों में घोर मतान्तर हैं। किसी विषय में कहीं एक मान्यता नहीं है, किन्तु उससे न तो पूर्व-वैज्ञानिकों का महत्त्व कम हुआ और न वह उनकी निन्‍दा की बात है। ठीक इसी प्रकार यदि कोई वैदिक वैज्ञानिक तथ्य वर्तमान विज्ञान से मेल नहीं खाता तो उससे न तो समग्र साहित्य का महत्त्व कम होता है, और न वह निन्‍दा या बवण्डर उठाने की बात है। मान्यताओं, स्थापनाओं और वैज्ञानिक सिद्धान्तों में मतान्तर रह ही जाता है और रहेगा। स्वामी दयानन्द प्रकृति-वैज्ञानिक नहीं थे। वे वेद-शास्त्रों में पारंगत ऋषि थे। यदि उनके द्वारा उद्धृत कोई प्रकृति-सम्बन्धी प्राचीन वचन गलत भी सिद्ध होता है तो न तो उसका उत्तरदायित्व उन पर आता है और न उनके शास्त्रीय पाण्डित्य का महत्त्व कम होता है। उनका अपना विषय वेदादि-शास्त्र विषयक है। वे शास्त्रीय वचनों को प्रमाण मानकर उद्धृत करते हैं।
जो लोग इस उद्धरणात्मक प्रसंग को प्रस्तुत करके विरोधात्मक बवण्डर उठाते हैं वे ज्ञान-विज्ञान की शोध-मर्यादा एवं परम्परा का ज्ञान नहीं रखते। क्या वे उन वैज्ञानिकों की निन्‍दा करते हैं जिनकी खोज या सिद्धान्त दूसरे वैज्ञानिकों द्वारा खण्डित हो चुके हैं? क्या संसार फिर भी उनकी सम्मानपूर्ण गणना वैज्ञानिकों में नहीं करता ? जो लोग इस प्रकार की उद्धृत बातों को आधार बनाकर ऋषि का विरोध करते हैं। उनके विरोध के पीछे उनकी तुच्छ बुद्धि की सोच और ईर्ष्या-द्वेष की भावना है। वे अपनी औकात को भी भूल जाते हैं कि वे इस विषय पर समालोचना करने के पात्र भी हैं या नहीं।

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