प्रकाशकीय

सत्यार्थ प्रकाश


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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मूलप्रति, मुद्रणप्रति, द्वितीय संस्करण (१८८४) पर आधारित आज तक का सबसे शुद्ध, शोध-संस्करण


ओ३म्


सत्यार्थप्रकाशः

(वेदादिविविधसच्छास्त्रप्रमाणैः समन्वितः)

श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्य-
महर्षिदयानन्दसरस्वतीस्वामिविरचितः


शोधकर्त्ता, समीक्षक, सम्पादक, भाष्यकार—
डॉ० सुरेन्द्रकुमार
(एम०ए० संस्कृत-हिन्दी, आचार्य, मनुस्मृतिभाष्यकार)
प्राचार्य (से०नि०) राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सैक्टर-९, गुड़गांव, कुलपति, गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय, हरिद्वार (उत्तराखण्ड)

प्रकाशक :
आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक
सत्यधर्म प्रकाशन

चलभाष : ०९८१२५-६०२३३


प्रकाशक  : आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक

सत्यधर्म प्रकाशन 

चलभाष : ०९८१२५-६०२३३


पुस्तक-प्राप्ति  : आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक

द्वारा- महाविद्यालय गुरुकुल झज्झर, जिला-झज्झर-१२४१०३ (हरियाणा)


संस्करण  : वि०संवत् २०७१, सन् २०१५ ई०


मूल्य  : २००.०० रुपये


प्राप्ति-स्थान : १. हरयाणा साहित्य-संस्थान 

महाविद्यालय गुरुकुल, झज्जर-१२४ १०३ (हरयाणा)


२. आर्यसमाज मन्दिर, काकरिया 

रायेपुर दरवाजे से बाहर, अहमदाबाद (गुजरात)


३. कन्या गुरुकुल महाविद्यालय, चोटीपुरा 

जिला ज्योतिबा फुले नगर (मुरादाबाद) उत्तरप्रदेश


४. आर्यसमाज मन्दिर सहजपुर बोघा, अहमदाबाद


५. दयानन्दमठ दीनानगर, जिला गुरदासपुर (पंजाब)

चलभाष : ०९४१७३-३६६७३

 

६. विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द,

४४०८, नई सड़क, दिल्ली-६ 


७. आर्यसमाज सान्ताक्रूज, विट्ठल्लभाई पटेल मार्ग, मुम्बई


८. आर्यसमाज, बड़ा बाजार, शध्रूद्दीन लेन, कोलकाता 


९. आर्यसमाज, १९ विधानसरणी, कोलकाता


टाइप-सैटिंग  : स्वस्ति कम्प्यूटर्स, करनाल (हरियाणा)

दूरभाष : ०९२५५९-१२३१४


मुद्रक  : राधा प्रेस, कैलाशनगर, दिल्ली-११००३१


प्रकाशकीय 


जब सत्यार्थप्रकाश के बारे में

मुझे सत्य का ज्ञान हुआ 


सत्यार्थप्रकाश का शुद्धतम संस्करण प्रकाशित करने की बहुत समय से मेरी प्रबल इच्छा थी। अक्तूबर २०१४ में, डॉ० सुरेन्द्रकुमार द्वारा सम्पादित अमरग्रन्थ 'सत्यार्थप्रकाश' का आज तक का वह सबसे शुद्ध, सर्वाधिक परिश्रमयुक्त, बृहत्तर शोधपूर्ण और वास्तव में 'मानक संस्करण' (दो भागों में) पाठकों को सौंप कर मुझे प्रसन्नता एवं संतुष्टि की अनुभूति हुई है। सत्यार्थप्रकाश के इतिहास में वैसा परिश्रमसाध्य तार्किक कार्य आज तक नहीं हुआ, जिसमें सभी हस्तलेखों और २५ संस्करणों का तुलनात्मक अध्ययन करके समीक्षापूर्वक शुद्ध पाठ प्रस्तुत करने का प्रयास किया हो। यह समझिए कि यह एक अभूतपूर्व ऐतिहासिक कार्य है और अनेक कारणों से एक क्रान्तिकारी संस्करण है। 


उस अपूर्व परिश्रमसाध्य कार्य को कराने के पीछे एक विशेष घटना की विशेष प्रेरणा थी। परोपकारिणी सभा, अजमेर ने जब मूलप्रति पर आधारित सत्यार्थप्रकाश का प्रकाशन ३७वें संस्करण के रूप में किया तो कुछ लोगों ने उसकी आलोचना में आवाज उठाई। सुनी-सुनाई बातों के कारण विरोध की आवाज को हवा देने वालों में मैं भी शामिल था। इस बीच मुझे जानकारी मिली कि १ मार्च, २००५ को नवलखा महल, उदयपुर में सत्यार्थप्रकाश की स्थिति और भावी प्रकाशन योजना पर विचार करने के लिए आर्यविद्वानों की एक बैठक बुलाई गई है जिसमें आर्यजगत् के अधिकाधिक विद्वान् सम्मिलित होंगे। मैं भी मन में जिज्ञासा लिए वहां पहुंचा। बैठक में वरिष्ठ-कनिष्ठ लगभग पच्चीस-तीस विद्वान् उपस्थित थे। वहाँ पर्याप्त संवाद हुआ। उदयपुर की बैठक में मुझे कई नयी जानकारियां मिली जिनसे सत्यार्थप्रकाश के विषय में मेरी पहली धारणा ही बदल गई थी। उस दिन उदयपुर से मैं शुद्धतम संस्करण प्रकाशित करने का संकल्प मन में लेकर लौटा। वे हैं―


१. अभी तक, गम्भीर अध्ययन न होने के कारण मेरी यह धारणा थी कि सत्यार्थप्रकाश में जो कुछ शुद्ध-अशुद्ध लिखा मिलता है वह ऋषि दयानन्द-कृत है और उसका एक अक्षर भी नहीं बदला जाना चाहिये। तथ्यों की जानकारी मिलने पर अब मेरी वह धारणा बदल गई है। महर्षि की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए तथा सत्यार्थप्रकाश के हित के लिए उनके लिपिकरों और संशोधकों द्वारा की गई त्रुटियों को अवश्य दूर किया जाना चाहिये।


२. मैंने देखा है, और मुझे प्रामाणिक जानकारी भी प्राप्त हो गई है कि कोई सम्पादक-प्रकाशक ऐसा नहीं है जिसने अपने संस्करण में द्वितीय संस्करण (सन् १८८४) की दृष्टि से कई-कई हजार संशोधन न किये हों, और अभी भी उनमें सैकड़ों संशोधनों की जरूरत है। इस तरह सबके संस्करण अलग-अलग हो गये हैं। इससे भी ज्यादा कष्टदायक बात यह है कि एक प्रकाशक के संस्करण भी आपस में मेल नहीं खाते। हजारों परिवर्तन-संशोधन स्वयं करके भी फिर वही लोग शोर मचाते हैं कि संशोधन नहीं करना चाहिए। मुझे उनका आचरण 'हाथी के दांत दिखाने के और, खाने के और' जैसा पाखण्डपूर्ण लगा। जब सच्चाई सामने है तो वे उसको क्यों नहीं स्वीकार करते और संशोधन का उपाय क्यों नहीं करते? ऐसे लोगों ने ही प्रथम और द्वितीय संस्करण का झूठा झगड़ा खड़ा किया हुआ है।


३. यह सच्चाई सवा-सौ वर्षों में, सभी विद्वान् सम्पादकों द्वारा अपने-अपने संस्करण में संशोधन करने के बाद सामने आ चुकी है कि सत्यार्थप्रकाश का शुद्धतम संस्करण बनाने के लिए ऋषि के लेखकों-सम्पादकों द्वारा लापरवाही से छोड़ी गई त्रुटियों को ठीक करना ही पड़ेगा, तो उनको जल्दी-से-जल्दी कर लेना चाहिए। न करने में ऋषि की और उनके ग्रन्थ की हानि है; और जो अपने पूज्य ऋषि की हानि करता है वह ऋषिभक्त नहीं है। मैंने संकल्प लिया कि यदि कोई विद्वान् शुद्धतम संस्करण का कार्य करेगा, और यदि उसको कोई नहीं प्रकाशित करायेगा, तो मैं अवश्य कराऊंगा।


४. मैंने बैठक के बाद यह भी अनुभव किया कि इस कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न करने के लिए वर्तमान में कोई सर्वाधिक उपयुक्त और योग्य विद्वान् है तो वे डॉ० सुरेन्द्रकुमार जी हैं। मनुस्मृति पर किया गया उनका प्रक्षेपानुसन्धान और भाष्य का कार्य इसका प्रत्यक्ष प्रमाण है। उनको किसी प्रकार इस कार्य के लिए मैं तैयार करूंगा।


साधनों के अभाव में कुछ समय तक इन विचारों को मन में लिए बैठा रहा। एक दिन मैंने अपनी भावना और संकल्प को डॉ० सुरेन्द्रकुमार जी के सामने रखा। उन्होंने इस विवादभरे कार्य में न पड़ने की सलाह दी। डॉ० साहब शोधकार्य की आवश्यकता के पक्षधर होते हुए भी स्वयं इस विवाद में नहीं पड़ना चाहते थे, किन्तु मेरे मन में तो एक धुन सवार हो चुकी थी। मैं इस निर्णय पर पहुंच चुका था कि इस शोधकार्य के होने से ही सत्यार्थप्रकाश का, महर्षि का और आर्यसमाज का हित है। बार-बार अनुरोध करके अन्ततः डॉ० साहब को इस शोधकार्य के लिए तैयार करने में मैं सफल हो ही गया और उन्होंने सात-आठ वर्ष लगाकर इस महत्त्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न किया। उसके लिए मैं डॉक्टर साहब का हृदय से आभार प्रकट करता हूँ।


सत्यार्थप्रकाश जैसे दिव्य ग्रन्थ का अधिक से अधिक लोगों में प्रचार हो, इसी भावना से 'सत्यधर्म-प्रकाशन' की ओर से यह शोधपूर्ण संस्करण पर आधारित लघु शुद्धतम संस्करण प्रकाशित कर पाठकों के सामने प्रस्तुत किया है। इस प्रकाशन के पीछे यह भावना रही है कि यह संस्करण बढ़िया से बढ़िया साजसज्जा के साथ आकर्षक रूप में निकाला जाये, क्योंकि सभी मत-मतान्तरों के अनयायी अपने धर्मग्रन्थों को पूरी श्रद्धा के साथ सुन्दरतम रूप से प्रकाशित करते हैं। 


जब मैंने आर्य साहित्य-प्रकाशन का निश्चय किया तो मेरे पास कुछ-सौ रुपये की जमा-पूंजी थी; किन्तु संकल्प के बल पर इस कार्य को 'सत्यधर्म-प्रकाशन' के नाम से आरम्भ कर दिया। आज परमात्मा की कृपा से दो-सौ पुस्तकें इसके अन्तर्गत प्रकाशित हो चुकी हैं। अच्छे कागज पर, उत्तम साज-सज्जा के साथ वैदिक साहित्य का प्रकाशन और प्रचार करना, मेरा निश्चय रहा है। इस शोधपूर्ण सत्यार्थप्रकाश पर भी लाखों रुपये व्यय आये हैं। यदि आर्य जनता का आर्थिक सहयोग इस कार्य में मिले तो प्रकाशन का कार्य और बड़े स्तर पर किया जा सकता है। आशा है आप भी 'सत्यधर्म प्रकाशन' को सहयोग देकर ऋषि के कार्य को आगे बढ़ाने में योगदान करेंगे और ऋषि-ऋण को चुकायेंगे।  


श्री महेन्द्रसिंह आर्य (करनाल) का मैं इस कार्य को सुन्दर ढंग से सम्पन्न करने के लिए भी धन्यवाद करता हूँ। उन्होंने बहुत सुन्दर कम्पोजिंग व सैटिंग पूरी श्रद्धा के साथ की है। श्री रमेश आर्य, 'आर्य पुस्तक बन्धनालय, दिल्ली' के प्रति भी मैं आभार प्रकट करता हूँ जिन्होंने इसको सुन्दर साज-सज्जा देकर, सुदृढ़-आकर्षक जिल्द बनाई है। उक्त दोनों सहयोगियों का सहयोग यदि मुझे प्राप्त नहीं होता तो इस ग्रन्थ का प्रकाशन सम्भव नहीं होता। अब पाठकों का सहयोग मुझे इस रूप में चाहिए कि वे इस परिश्रम और शोधपूर्वक तैयार किये गये इस ग्रन्थ को श्रद्धापूर्वक पढ़ें और लाभ उठायें, तभी शोधकर्त्ता सम्पादक का और मेरा परिश्रम सफल होगा।


आचार्य सत्यानन्द नैष्ठिक

प्रकाशक


सम्पादकीय


सात साल के सतत स्वाध्याय-चिन्तन और शोध-श्रम के फलस्वरूप 'सत्यार्थप्रकाश' का जो आज तक का सबसे शुद्ध-परिष्कृत, शोध-संस्करण मुझसे निर्मित हो सका था, वह आचार्य सत्यानन्द जी ने अक्तूबर २०१४ में प्रकाशित कर पाठकों को समर्पित कर दिया था। उसमें मैंने पाठकों से एक निवेदन किया था कि वे इस संस्करण के विषय में कुछ भी धारणा बनाने से पूर्व 'सत्यार्थप्रकाश-मीमांसा' नामक समीक्षाभाग अवश्य और ध्यान से पढ़ लें। उसके बाद ही इस शोधकार्य का मूल्यांकन करें, और वह भी समग्रता के साथ करें, एकांगी रूप से कुछ ही बातों को लेकर नहीं। किसी के कुछ भी कह देने भर से, अथवा किसी पूर्वाग्रह के कारण कोई धारणा न बनायें, क्योंकि सत्यार्थप्रकाश और ऋषि-हित में इस शोधकार्य में महान् श्रम हुआ है। दोनों हस्तलेखों और गत १२८ वर्षों में सम्पादित प्रमुख पच्चीसों संस्करणों के प्रमुख पाठान्तरों को उद्धृत करना, उनके संशोधनों की परीक्षा करना, विभिन्न समीक्षाओं का मूल्यांकन करना और फिर पाठ-निर्धारण करना अत्यन्त श्रम एवं समय-साध्य कार्य था। यह लघु संस्करण उसी शोध संस्करण पर आधारित है।


प्रश्न उठता है कि उस शोध संस्करण की आवश्यकता क्यों हुई और अन्य अनेक संस्करणों के उपलब्ध रहते उसमें कौन-सी नयी विशेषता है? उत्तर में कहा जा सकता है कि उस शोध-संस्करण का पाठ-निर्धारण मूल-हस्तलेख, मुद्रणहस्तलेख, प्रथम संस्करण (१८७५), द्वितीय संस्करण (१८८४), परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित सभी द्वितीय संस्करण और मूलप्रति संस्करण, द्वितीय संस्करण (वर्तमान), स्वामी वेदानन्द जी सरस्वती, पं० भगवद्दत्त जी, श्री जगदेवसिंह जी सिद्धान्ती, पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक, स्वामी विद्यानन्द जी सरस्वती, स्वामी जगदीश्वरानन्द जी सरस्वती, उदयपुर आदि संस्करणों और प्रमुख समीक्षक-विद्वानों के पाठों के तुलनात्मक पाठालोचन-पूर्वक कुछ साहित्यिक मानदण्डों के आधार पर और शोध-प्रविधि से करने का प्रयत्न प्रथम बार किया गया है। अति-सामान्य और पुनः-पुनः आये पाठों को छोड़कर प्रायः सभी पाठों पर टिप्पणी दी गई है जिसमें विभिन्न संस्करणों में परिवर्तित व स्वीकृत पाठों का विवरण प्रदर्शित करते हुए समीक्षापूर्वक पाठ-निर्धारण करने का विनम्र तटस्थ प्रयास किया है। इसके अतिरिक्त गूढ़, ऐतिहासिक व्याख्या-सापेक्ष और शंका-सापेक्ष स्थलों को स्पष्ट एवं संपुष्ट करने के लिए भाष्य-शैली में समाधानोपयोगी सामग्री भी दी गई है।


सत्यार्थप्रकाश के अब तक के इतिहास में, इस संस्करण में पहली बार एक महत्त्वपूर्ण जानकारी पाठकों को उपलब्ध कराई जा रही है। वह यह है कि मूलप्रति और मुद्रणप्रति में जो पाठ महर्षि दयानन्द ने अपने हस्तलेख में लिखे या संशोधित-परिवर्धित किये हैं उनके नीचे पृथक्-पृथक् रेखाएं अंकित करके उनकी जानकारी दी गई है। पाठक देखते ही जान जायेंगे कि अमुक पाठ किस हस्तलिखित प्रति में ऋषि ने अपने हाथ से लिखा है। उनमें से नीचे सीधी रेखा से अंकित पाठ मूलप्रति में हैं और वक्ररेखांकित पाठ मुद्रणप्रति में हैं। टिप्पणी में भी इसकी जानकारी दी है।


उस संस्करण का एक अन्य वैशिष्ट्य यह है कि यह ऋषि द्वारा सम्पूर्ण अथवा आंशिक रूप में निरीक्षित और परम्परा से प्रामाणिक मानी जाने वाली तीन प्रतियों―मूलप्रति, मुद्रणप्रति, द्वितीय संस्करण (१८८४) पर मुख्यतः आधारित है। ऋषिप्रोक्त मूलप्रति के शुद्ध पाठ को प्राथमिक सम्मान और महत्त्व देते हुए जिस प्रति में अर्थ वैशिष्ट्य-युक्त और ऋषि-गौरव-वर्धक जो शुद्ध पाठ प्राप्त है, उसको ग्रहण किया गया है। वर्तनी, भाषा-रचनागत अशुद्धियों को ऋषिकालीन भाषा शैली के परिप्रेक्ष्य में, व्याकरणिक आधार पर स्वीकृत या संशोधित किया है; यतो हि महर्षि ने भूमिका में व्याकरणिक शुद्धता के आधार की प्रतिज्ञा की है और अपनी भाषा में काव्यशास्त्रीय वाक्य-गुणों के होने की अपरिहार्यता की घोषणा स्वयं की है, अत: वे भी संशोधन के मानदण्ड हैं, जो स्वयं ऋषिप्रोक्त हैं।


उस शोध-संस्करण में ऋषि-हित और सत्यार्थप्रकाश-हित को ही महत्त्व दिया है, व्यक्ति-भक्ति को नहीं। उस कार्य का पथ पूर्व विद्वानों द्वारा प्रवर्तित वही पुराना है, उद्देश्य भी वही है किन्तु शोध-प्रविधि नयी और कार्यशैली समग्रता से अनुप्राणित है। यह सत्य है कि महर्षि दयानन्द सरस्वती जैसे प्रकाण्ड पण्डित 'सत्यार्थप्रकाश' में उपलब्ध त्रुटियां नहीं कर सकते, किन्तु लिपिकरों की अयोग्यता, प्रमाद और पौराणिक विचारधारा के प्रभाव से, आदि-सम्पादकों और शोधकों की मक्कारी और निष्ठाहीनता से, मुद्रकों की लापरवाही से, वैदिक यन्त्रालय की अव्यवस्था से और असमय में ऋषि का निर्वाण होने से सत्यार्थप्रकाश (द्वितीय संस्करण १८८४) में हजारों त्रुटियां विद्यमान रह गईं। जिस दिन वह प्रकाशित हुआ उसी दिन से संशोधन करना उसका अपरिहार्य कार्य हो गया। प्रथम प्रयास के रूप में शोधक पंडितों ने उसी संस्करण में १४७ अशुद्धियों का शुद्धिपत्र संलग्न किया जबकि अशुद्धियां हजारों की संख्या में थीं। शेष अशुद्धियों और मुद्रणदोषों के संशोधन का कार्य परोपकारिणी सभा के तत्त्वावधान में आरम्भ हुआ। तब पं० लेखराम 'आर्यपथिक' ने सर्वप्रथम, अशुद्धियों की ओर परोपकारिणी सभा का ध्यान विशेष रूप से आकृष्ट किया। परोपकारिणी सभा ने पंचम आवृत्ति पं० लेखराम से ही संशोधित करके छपवाई। उसके बाद ३९वी आवृत्ति तक द्वितीय संस्करणों में अवशिष्ट अशुद्धियों के संशोधन के लिए परोपकारिणी सभा ने ५-६ समितियाँ समय-समय पर बनाईं जिनमें स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, पं० भगवद्दत्त रिसर्चस्कालर, पं० ब्रह्मदत्त जी जिज्ञासु, पं० विश्वनाथ वेदोपाध्याय, आचार्य भद्रसेन, पं० महेशप्रसाद मौलवी, डॉ० भवानीलाल भारतीय, श्री धर्मसिंह कोठारी, डॉ० रामप्रकाश राज्यसभा सांसद्, श्री विरजानन्द दैवकरणि, डॉ० धर्मवीर (परोपकारिणी सभा) सदृश विद्वान् एवं प्रबुद्ध आर्य जन थे। परोपकारिणी सभा का 'कापी राइट' समाप्त होने के बाद प्रमुख आर्यविद्वानों ने स्वतन्त्र-संशोधित संस्करण भी प्रकाशित किये। उनमें सभी प्रकार की संशोधित अशुद्धियों और परिवर्तनों की संख्या अनुमानित रूप से निम्नप्रकार पाई जाती है―


परोपकारिणी सभा के द्वितीय संस्करण (१८८४) में 

३५००-४००० 

परोपकारिणी सभा के ३-३६ संस्करणों में

२५००-३००० 

परोपकारिणी के मूलप्रति संस्करण (३७-३९) में

१५००-२००० 

पं० भगवद्दत्त संस्करण में

१५००-२००० 

स्वामी वेदानन्द सरस्वती संस्करण में

२५००-३००० 

श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती संस्करण में

२५००-३००० 

आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली संस्करण में

२५००-३००० 

पं० युधिष्ठिर मीमांसक संस्करण में [बढ़ाये गये शीर्षकों सहित] 

४०००-४५०० 

स्वामी विद्यानन्द सरस्वती सं० में [बढ़ाये गये शीर्षकों सहित] 

४०००-४५०० 

स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती संस्करण में

अनगिनत संशोधन/प्रक्षेप 

सत्यार्थप्रकाश न्यास उदयपुर संस्करण में

२५००-३००० 

सार्वदेशिक तथा प्रतिनिधि सभाओं द्वारा प्रकाशित द्वितीय संस्करणों में 

२५००-३००० 

अन्य संस्थाओं एवं प्रकाशकों के द्वितीय संस्करणों में 

२५००-३००० 


यह विवरण दर्शाता है कि आज द्वितीय संस्करण (१८८४) नामक कोई सत्यार्थप्रकाश यथावत् प्रकाशित नहीं हो रहा है। उक्त विद्वानों तथा आर्य सभाओं द्वारा प्रकाशित द्वितीय संस्करण इस तथ्य के प्रबलतम साक्ष्य हैं कि द्वितीय संस्करण में संशोधन-परिवर्तन करना अपरिहार्य कार्य है और उसको आज तक सभी सम्पादकों ने किया भी है। जो लोग यह कहते-लिखते हैं कि द्वितीय संस्करण (१८८४) में संशोधन नहीं करने चाहियें और उसको यथावत् प्रकाशित करना चाहिये, वे पाखण्ड कर रहे हैं और पाठकों को गुमराह कर रहे हैं, क्योंकि सन् १८८४ के बाद एक अपवाद को छोड़कर (जबकि वह भी यथावत् नहीं है), कभी कोई उसको यथावत् प्रकाशित करने को उद्यत नहीं हुआ। आज भी कोई तैयार नहीं है।


यदि कोई व्यक्ति मेरे संशोधन-कार्य की आलोचना करना चाहता है, तो बेशक करे, किन्तु मेरे कार्य की आलोचना करने से पूर्व उसे उपर्युक्त २५-२६ विद्वानों/संस्करणों की आलोचना करनी पड़ेगी, क्योंकि यही कार्य मुझसे पूर्व उन्होंने किया है।


सत्यार्थप्रकाश में विद्यमान त्रुटियों का उत्तरदायी कौन?


प्रश्न उठता है कि सत्यार्थप्रकाश में प्राप्त त्रुटियों का उत्तरदायी कौन है? और क्या ऋषि दयानन्द को उन त्रुटियों का ज्ञान था? और यदि ज्ञान था तो उनके विषय में उनका क्या मानना था? आइये, सर्वप्रथम इन बिन्दुओं पर सप्रमाण विचार करते हैं।


महर्षि दयानन्द वेदों तथा वैदिक शास्त्रों के मर्मज्ञ थे तथा वैदिक एवं लौकिक संस्कृत भाषा के प्रकाण्ड पंडित थे। वे संस्कृत भाषा, शास्त्र तथा सिद्धान्त-विषयक और स्व-अभिप्राय-विरुद्ध त्रुटियाँ कदापि नहीं कर सकते थे। पुनरपि सत्यार्थप्रकाश की दोनों पांडुलिपियों और द्वितीय संस्करण (१८८४) में बहुत सारी त्रुटियां मिलती हैं। वस्तुतः उनके जिम्मेदार उनके वेतनभोगी नौकर अर्थात् लिपिकर और आदि-शोधक रहे हैं, यह जानकारी हमें सत्यार्थप्रकाश की लेखन-प्रक्रिया से मिलती है। लेखन-सौकर्य के लिए और कार्याधिक्य होने के कारण महर्षि विभिन्न भाषाओं, जैसे―संस्कृत, हिन्दी, अंग्रेजी और उर्दू के वेतनभोगी लेखक रखते थे, जो महर्षि के बोले हुए लेखों और पत्र-व्यवहार आदि को लिखा करते थे। सत्यार्थप्रकाश को लिखाते समय भी महर्षि उसको बोलते जाते थे और तत्कालीन नियुक्त लिपिकर उसको लिखता जाता था। ग्रन्थ के पूर्ण होने पर उसकी प्रेसप्रति भी लिपिकरों ने ही तैयार की है। बोले हुए को लिखते समय लिपिकर से अक्षर, शब्द, वाक्य आदि त्रुटित रह जाते हैं, अथवा आगे-पीछे भी लिखे जाते हैं, यह सहज बात है। सत्यार्थप्रकाश में भी लिपिकरों से इस प्रकार की त्रुटियां हुई हैं। वर्तनी और वाक्यरचना सम्बन्धी त्रुटियां लिपिकरों की अयोग्यता और प्रमाद से हुई हैं। क्योंकि लिपि लिखने वाले लिपिकर थे अतः लिपि-सम्बन्धी त्रुटियां भी उन्हीं की हैं। महर्षि किसी भी शब्द को एक ही प्रकार से बोलते थे किन्तु लिपिकर अपनी योग्यता-अयोग्यता के अनुसार उसको शुद्ध या अशुद्ध लिखते थे। एक लिपिकर अपनी भाषात्मक योग्यता-अयोग्यता के अनुसार किसी शब्द को एक प्रकार से लिखता था तो दूसरा उसको दूसरे प्रकार से लिखता था। लिपिकरों की अनेकता से ही एक ही लेखक के एक ही ग्रन्थ में वर्तनियों की अनेकता पाई जाती है। इतना ही नहीं अशुद्धियों में भी घोर अव्यवस्था पाई जाती है। अयोग्य लिपिकरों ने एक ही वाक्य में, एक ही अनुच्छेद में और एक ही पृष्ठ पर आये एक शब्द को एक बार शुद्ध लिखा है तो दूसरी बार अशुद्ध लिखा है।


सत्यार्थप्रकाश की मुद्रणप्रति में विद्यमान अशुद्धियों और उनकी बहुलता का भान महर्षि को था। तब महर्षि को लगा था कि मुंशी समर्थदान इस विकृति को ठीक कर सकते हैं, अतः उन्होंने मुंशी जी को यह पत्र लिखा था―


(अ) "सत्यार्थप्रकाश में जो कोई ऐसा अनुचित शब्द हो, निकालकर, जो हमारे आशय के विरुद्ध न हो, वह शब्द उसके स्थान में धरना और हमको लिखके सूचित करना कि यह शब्द धरे हैं।" (१९ अगस्त १८८३ को मुंशी जी के नाम लिखा ऋषि का पत्र, 'विज्ञापन और पत्र-व्यवहार', पं० भगवद्दत्त, भाग दो, पृ० ७६४)


(आ) उत्तर में मुंशी समर्थदान ने सत्यार्थप्रकाश की मुद्रणप्रति (प्रेसप्रति) की विकृत-स्थिति के विषय में महर्षि को यह लिखा था कि मुद्रण-हस्तलेख में बड़ी गड़बड़ी है। देखिए पत्रांश―


".....आपने भाषा बदलने की आज्ञा दी, सो मालूम हुआ.....कापी में बड़ी गड़बड़ी आती है, यह ध्यान रखके दोष निकालना चाहिये। हम यहाँ बनाते हैं तो बड़ी शंका रहती है।" (वही, २८ अगस्त १८८३ को महर्षि के नाम लिखा मुंशी जी का पत्र) 


(इ) इसी बीच वेदभाष्य के सम्बन्ध में भी महर्षि ने मुंशी जी को पत्र लिखा था, जो अन्य ग्रन्थों पर भी चरितार्थ होता है, क्योंकि लेखक-शोधक वही व्यक्ति थे―


"जो कहीं पद छूटता है, यह भाषा बनाने वाले और शुद्ध लिखने वाले की भूल है। हम प्रायः इस बात में ध्यान नहीं देते, क्योंकि यह सहज बात है। अच्छा, जहां कहीं रह जाया करे तुम देख लिया करो...... और यहां लिखके भेज दिया करो।" (वही, ९ सितम्बर १८८२ का पत्र, भाग दो, पृष्ठ ६१२) 


(ई) सत्यार्थप्रकाश के सन्दर्भ में लिखे एक अन्य पत्र में महर्षि ने मुंशी जी को लिखा था―


"जो कहीं भाषा असम्बद्ध हो, और अभिप्राय वा अक्षर मात्रा आदि से अशुद्ध हो, उसको तुम ही शोध लिया करो।" (वही, १५ अक्तूबर १८८३ का पत्र, भाग दो, पृ० ६२०) 


(उ) सत्यार्थप्रकाश की 'मुद्रणप्रति' में रह गई भूलों की ओर ध्यान आकृष्ट करते हुए मुंशी समर्थदान जी ने उनको शुद्ध करने की जिम्मेदारी पं० ज्वालादत्त की बताई, जिसको वह ईमानदारी से पूरी नहीं कर रहा था―


"शोधने में मेरी दृष्टि भी तो कच्ची है....यह काम ज्वालादत्त ही का है। उन्हीं को सावधानी से देखना चाहिये। सत्यार्थप्रकाश का फारम अन्त में मैं एक बार देखता हूं, सो भी कोमा आदि चिह्नों के लिए देखता हूं। इसमें कोई भूल और भी दीख पड़ती है तो निकाल देता हूं, परन्तु प्रूफ शोधना काम ज्वालादत्त ही का है।" (वही, २७ अगस्त १८८३ का पत्र)


स्पष्ट है कि लिपिकरों और पं० ज्वालादत्त, पं० भीमसेन आदि शोधकों ने अपने कर्त्तव्यों का पालन ईमानदारी से नहीं किया, अपितु दुर्भावना और कामचोरी की प्रवृत्ति के कारण उलटी हानि भी की है। उनकी करतूतों को उजागर करते हुए उनके किये कार्य के प्रति महर्षि ने अपनी पीड़ा को अनेक पत्रों के माध्यम से समय-समय पर प्रकट किया था। उनके विषय में महर्षि का अनुभूत और लिखित मन्तव्य कैसा था, पाठक ध्यान से पढ़ें―


(ऊ) पं० भीमसेन शर्मा―"व्याकरण आदि शास्त्रों को पढ़ा है उतना ही पाण्डित्य है, अन्यत्र बालक है" (पत्र व्यवहार, पृ० ५१७) "भाषा बहुत ढीली बनाता है" (पृ० ५८६) “शोधे गये पुस्तकों में भूल बहुत निकलती है" (पृ० ५७२)। “भीमसेन को अत्यन्त अयोग्यता के कारण सब दिन के लिए निकाल दिया" (पृ० ५६२)। "भीमसेन बकवृत्ति और मार्जारलिंगी है" (पृ० ६६९)। “भीमसेन को न हम अपने पास वा न अन्यत्र कुछ काम देना चाहते हैं। वह काम करने में अयोग्य और वह स्वभाव का भी बहुत बुरा आदमी है।" "केवल वह दम्भी और मिथ्याचारी है।" (पृ० ६७३) "वह न किसी आर्यसमाज में रहने के योग्य है।" (पृ० ६७३)। 


(ए) पं० ज्वालादत्त शर्मा―"हम नहीं जानते थे कि शोधने में तुम्हारी ऐसी कच्ची दृष्टि है।.......आगे भी ऐसा न होने पावे।" (पृ० ४५८)। "पण्डित ज्वालादत्त के शोधने में बहुत गलती रहती हैं" (पृ० ४५८)। "भीमसेन को तुमने जैसा बकवृत्ति समझा है वैसा ही हम बकवृत्ति और मार्जारलिंगी समझते हैं। वैसा ही उससे विलक्षण दम्भी, क्रोधी, हठी और स्वार्थसाधनतत्पर ज्वालादत्त भी है।.....मेरी समझ में भीमसेन का छोटा भाई ज्वालादत्त है। यदि उसको निकाल दोगे तो भी कुछ बड़ी हानि न होगी। क्योंकि वह कभी मन लगाकर काम न करेगा और उसकी ऐसी दृष्टि कच्ची है कि शोधने में अशुद्ध अवश्य कर देगा।" “अब उसने उदयपुर में जो भाषा बनाई है, सोधी गई तो कई एक के अर्थ में पदार्थ छोड़ दिया, कई एक पद अव्यय के छोड़ दिये, और कई एक पद आगे-पीछे भी कर दिये हैं।" (पृ० ६६९, मुंशी समर्थदान को १७ मार्च १८८३ को लिखा पत्र)। "ज्वालादत्त जो भाषा बनाता है, ऐसा नहीं हो कि कहीं पोपलीला घुसेड़ डाले" (पृ० ७२६)। “अब के भाषा में कई पद छोड़ दिये हैं। कहीं अपनी ग्रामणी भाषा लिख देता है" (पृ० ७६३)। "तुम थोड़ी भाषा देख लिया करो। यह ज्वालादत्त तो विक्षिप्त पुरुष है।......अब यह भाषा भी अच्छी नहीं बनाता किन्त घास सी काटता है" (पृ०७६६, मंशी समर्थदान को २३ अगस्त १८८३ को लिखा पत्र)।


उक्त दोनों पंडितों पर महर्षि की संयुक्त टिप्पणी―"ये दोनों (पं० भीमसेन और पं० ज्वालादत्त) एक से ही हैं, जैसा भूतनाथ वैसा प्रेतनाथ। इनसे चतुराई के साथ काम लेना, ये कामचोर हैं।" (पृ० ६०९, मुंशी समर्थदान को २९ अगस्त १८८२ को लिखा पत्र)


(ऐ) पं० महादेव व कानपुरी पण्डित―"महादेव पण्डित के विषय में जो तुमने कुछ अनुमान किया, सो हमको नहीं दीखता। यह पण्डित धनार्थी है धर्मार्थी नहीं। .....जैसा कि कानपुर में एक पण्डित को रक्खा था और पश्चात् खराब निकला। इन लोगों का विश्वास हमारे हृदय में तभी होगा कि जब उनका वर्तमान प्रत्यक्ष वा परोक्ष में एक-सा देखा जाय।" (पृ०६८३, लाला कालीचरण को २५ अप्रैल १८८३ को लिखा पत्र)


(ओ) पं० दिनेश राम―इसका मूलनाम दुलाराम था, स्वामी जी ने बदलकर 'दिनेशराम' रख दिया था। इसके विषय में प्राप्त विवरण इस कारण महत्त्वपूर्ण है कि वह महर्षि के पास रहने वाले पौराणिक लेखकों की कुटिल मनोवृत्ति पर प्रकाश डालता है। दिनेशराम के विषय में पं० देवेन्द्रनाथ रचित महर्षि के जीवन चरित (पृ० ६०५) में यह विवरण मिलता है जिसे पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक ने भी उद्धत किया है―


"वह था बड़ा कपटी "विषकुम्भं पयोमुखम्"। स्वामी जी के सामने उनकी भलाई और पीछे बुराई करता। वह कहा करता था कि मैं स्वामी जी के ग्रन्थों में इस प्रकार के वाक्य मिला दूंगा कि उन्हें प्रलय तक भी उनका पता न लगेगा। स्वामी जी ने उसकी दुष्टता ताड़ ली और उसे अलग कर दिया।" (ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास, पृ० ४१५) यह सन् १८७९ तक महर्षि के पास कार्यरत रहा।


(औ) रामचन्द्र (लिपिकर)―पौराणिक रूढ़िवाद के विरुद्ध आवाज उठाने तथा क्रान्तिकारी समाज सुधार के कारण उस समय के प्रायः सभी पौराणिक संस्कारी कर्मचारी मन-ही-मन में ऋषि के विरोधी थे। वे वेतन तो ऋषि से प्राप्त करके खाते थे किन्तु उनके प्रति निष्ठावान् न होकर मन में विद्वेष रखते थे। इसका एक प्रमाण रामचन्द्र नामक लिपिकर भी है। मुंशी समर्थदान जी निष्ठावान् मैनेजर थे। सत्यार्थप्रकाश की मुद्रणप्रति में, सत्यार्थप्रकाश के दशम समुल्लास के भक्ष्याभक्ष्य प्रसंग में, पं० ज्वालादत्त शर्मा शोधक-लेखक ने चोरी से हाशिये पर एक मांसभक्षण-विधायक अनुच्छेद प्रक्षिप्त कर दिया। मुंशी जी ने उसको निकालने की अनुमति प्राप्त करने के लिए महर्षि के पास दिनांक १३.७.१८८३ को एक पत्र लिखा। आश्चर्य देखिये कि एक मैनेजर को वह पत्र अ ही कार्यालय के एक कर्मचारी से छिपाकर, कार्यालय का प्रेषण नम्बर लगाये बिना ही डालना पड़ा जिससे विरोधी मानसिकता वाले कर्मचारी बात का बतंगड़ न बना दें। उस पत्र में मुंशी जी ने जो उस लेखक-विषयक सत्य लिखा है उससे ज्ञात होता है कि महर्षि को कैसे-कैसे विद्वेषी और निष्ठारहित लोगों से काम लेना पड़ रहा था। इससे कर्मचारियों की मनोवृत्ति का ज्ञान हो जाता है। मुंशी जी अपनी पीड़ा को इन शब्दों में लिखते हैं―


"यह पत्र मैंने कार्यालय से पृथक् लिखा है, इसमें नम्बर नहीं डाला है, क्योंकि कार्यालय के पत्रों की नकल रामचन्द्र करते हैं और ये हम लोगों के विचार से सर्वथा पृथक् हैं, किन्तु विरुद्ध कहिये। इस पत्र का विषय खानगी (निजी) है कि विरोधियों को प्रकट होने से बड़ी हानि होती है।


आर्यों के आचार्य का यन्त्रालय, आर्यों ही के द्रव्य से बना, और नौकर सब अनार्य रखे जाएँ, वह भी एक काल की विचित्र गति का परिचय है। आर्यों के पैसे और सम्पत्ति का दर्द अनार्यों को कहाँ तक होता है, इसको भी विचारशील सोच सकते हैं।


        आपका आज्ञाकारी―समर्थदान मैनेजर"  


यह सच है कि महर्षि के पास रहने वाले अधिकांश कर्मचारी अर्थात् लेखक, शोधक, सेवक अनार्य थे। उन्होंने महर्षि का कोई कार्य निष्ठा से नहीं किया अपितु बिगाड़ा भी है। यहाँ तक कि विष देकर महर्षि का प्राणहरण करने वाले भी उनके कर्मचारी ही थे। अत: महर्षि के ग्रन्थों को तत्कालीन परिस्थितियों के परिप्रेक्ष्य में रखकर उनका आकलन करना चाहिये, भावुकता में आकर नहीं। यह भी स्पष्ट है कि महर्षि के पास कार्यरत लिपिकरों, शोधकों, सेवकों आदि की मनोवृत्ति और कार्यशैली का अनुमान लगाने के लिए 'स्थालीपुलाक न्याय' से उक्त प्रमाण पर्याप्त हैं।


(अं) छपे हुए द्वितीय संस्करण (१८८४) में विद्यमान रही अशुद्धियों को उसके मुद्रक मुंशी समर्थदान जी ने इन शब्दों में स्वीकार किया है―“छापते समय ग्रन्थ के शोधने और विरामादि चिह्नों के देने में जहां तक बना बहुत ध्यान दिया, परन्तु शीघ्रता के कारण से कहीं भूल रह गई हो तो पाठकगण ठीक करलें।" (द्वितीय संस्करण १८८४, 'निवेदन' पृष्ठ १, शोधसं० ५)


(अः) "चौदहवें समुल्लास में जो कुरान की मंज़िल, सिपारा, सूरत और आयत का ब्योरा लिखा है उसमें और तो सब ठीक है, परन्तु आयतों की संख्या में दो-चार के आगे-पीछे का अन्तर होना संभव है, अत एव पाठकगण क्षमा करें।" (वही, आरम्भिक फरमे का पृष्ठ २, शोधसं० पृ० ५)


(अ-अ) उक्त पत्रों और सन्दर्भो से स्पष्ट होता है कि महर्षि तथा मुंशी समर्थदान सत्यार्थप्रकाश और उसकी पांडुलिपियों में विद्यमान त्रुटियों को जानते और मानते थे कि यह "भाषा बनाने वाले और शुद्ध लिखने वाले की भूल है।" अर्थात् ये भूलें लिपिकरों, मुद्रणलिपिकरों और आदि-शोधकों की हैं। पूर्वोक्त पत्रों-संदर्भो में, कुल मिलाकर महर्षि ने अपने ग्रन्थों में निम्न प्रकार की त्रुटियां होने की आशंका व्यक्त की है―


१. भाषा में असम्बद्धता होना। 


२. महर्षि के अभिप्राय के विरुद्ध प्रक्षेप होना। 


३. अक्षर, मात्रा आदि (वर्तनी) की अशुद्धि। 


४. पोपलीला घुसाना अर्थात् सिद्धान्तविरुद्ध प्रक्षेप होना। 


५. अक्षर, शब्द, वाक्य, आदि पाठों का त्रुटित रहना। 


६. अनुचित शब्द का प्रयोग होना। 


७. पदों को आगे-पीछे लिखना अर्थात् स्थानभ्रष्ट करना। 


८. शोधन या प्रूफशोधन में अशुद्धियां छोड़ना। 


९. “आदि" शब्द से मुद्रणदोष, संख्या-दोष, विरामचिह्न आदि की अन्य त्रुटियां गृहीत की जानी चाहियें।


इनमें से गम्भीर त्रुटि, जिसकी ओर पत्र में महर्षि ने स्वयं संकेत किया है, वह है―'महर्षि के सिद्धान्त या अभिप्राय के विरुद्ध लिखा जाना।' या 'पोपलीला का प्रक्षेप करना।' इससे स्पष्ट ज्ञान होता है कि महर्षि न केवल भाषागत अशुद्धियों के रहने का उल्लेख कर रहे हैं अपितु लिपिकरों द्वारा उनके सिद्धान्तविरुद्ध या अभिप्राय-विरुद्ध प्रक्षेप या त्रुटियों के किये जाने पर भी आशंका प्रकट कर रहे हैं। इसके अनेक प्रमाण मिल भी गये हैं। (द्रष्टव्य हैं प्रमाण शोध-संस्करण के अर्न्तगत 'सत्यार्थप्रकाश-मीमांसा' में पृष्ठ ९१-९९ पर)


(आ-आ) मुंशी जी को लिखे उक्त पत्रों के अतिरिक्त अपने ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश के दो स्थलों पर भी महर्षि दयानन्द ने त्रुटियों की सम्भावना को स्वीकार किया है और उनको ठीक कर लेने का निर्देश दिया है। दो कथन द्रष्टव्य हैं―


"यदि कहीं भ्रम से अन्यथा लिखा गया हो तो उसको शुद्ध कर लेवें।" (चतुर्दश समुल्लास, पृष्ठ १०४२)


"इस ग्रन्थ (सत्यार्थप्रकाश ) में जो कहीं भूल-चूक से अथवा शोधने तथा छापने में भूल-चूक रह जाय, उसको जानने-जनाने पर, जैसा वह सत्य होगा वैसा ही कर दिया जायेगा।" (भूमिका, पृष्ठ ९ पर)


महर्षि के इस उद्धरण पर उनके बारे में स्वामी श्रद्धानन्द जी सरस्वती की टिप्पणी पठनीय है―


"कैसे सरल शब्द हैं। अपने से भूल-चूक की सम्भावना भी स्वीकार करते हैं और शोधने, छपवाने की अशुद्धियों को भी ठीक करने के लिए हर समय तैयार हैं।" (वेद और आर्यसमाज, पृष्ठ १३१)


(इ-इ) पहली पीढ़ी के निष्ठावान् प्रबुद्ध आर्यजनों-नेताओं ने जब सत्यार्थप्रकाश को गम्भीरता से पढ़ा, तो उन्हें भी यह आभास भलीभांति हो गया था कि इसमें बहुत-सी अशुद्धियां विद्यमान हैं। वे लोग उन त्रुटियों को परोपकारिणी सभा के अधिकारियों के ध्यान में लाते भी थे। इसका प्रमाण यह है कि पं० लेखराम 'आर्यपथिक' ने परोपकारिणी सभा के अधिकारियों का ध्यान इस ओर सर्वप्रथम आकर्षित किया और संशोधित संस्करण प्रकाशित करने का परामर्श दिया। इस तथ्य की जानकारी देने वाला, वैदिक यन्त्रालय के प्रबन्धक श्री शिवदयाल सिंह द्वारा श्री मोहनलाल बाबूलाल पांड्या, मन्त्री परोपकारिणी सभा को लिखा एक पत्र प्राप्त हुआ है जिसमें उक्त बातों का उल्लेख है। पत्र का सम्बन्धित अंश इस प्रकार है―


"नवम्बर २५५

१२-२-१८९०


वैदिक यन्त्रालय प्रयाग


महाशय, नमस्ते। सत्यार्थप्रकाश कुल ५९० रह गए हैं, अब सत्यार्थप्रकाश के छापने का उपाय करना चाहिये।........सत्यार्थप्रकाश के शुद्ध छापने के लिए स्वामी जी महाराज की पुस्तकें चाहियेंगी। पंजाब के पं० लेखराम ने जो कुछ आक्षेप किये हैं, और-और पंडित करते हैं, उनके दूर करने के लिए अबके जो सत्यार्थप्रकाश छपे, वह बहुत शुद्ध छपे।


आपका दास―शिवदयाल सिंह मैनेजर"


(उ-उ) हम जानते हैं कि परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण की पंचम आवृत्ति का संशोधन पं० लेखराम जी ने किया था, जो व्यापक रूप में था। उन संशोधनों को परवर्ती प्राय: सभी प्रकाशकों ने अपनाया भी है। अधिकांश प्रबुद्ध आर्यजन और विद्वान् अशुद्धियों के शोधन के पक्ष में रहे हैं, जैसे―पं० लेखराम, स्वामी श्रद्धानन्द सरस्वती, पं० भगवद्दत्त, पं० ब्रह्मदत्त जिज्ञासु, पं० युधिष्ठिर मीमांसक, स्वामी वेदानन्द सरस्वती, श्री जयदेव शर्मा विद्यालंकार, पं० विश्वनाथ वेदोपाध्याय, आचार्य उदयवीर शास्त्री, आचार्य भद्रसेन, पं० महेशचन्द्र मौलवी 'आलिम फाजिल', पं० रामचन्द्र देहलवी, स्वामी स्वतन्त्रानन्द सरस्वती, श्री जगदेवसिंह सिद्धान्ती, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, डॉ० भवानीलाल भारतीय, स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती, पं० विशुद्धानन्द मिश्र व उनकी सम्पादक-समिति, आर्ष साहित्य प्रचार ट्रस्ट दिल्ली, आर्य साहित्य मण्डल अजमेर, आर्य प्रतिनिधि सभाएं, आर्य संस्थाएं, सार्वदेशिक आर्यप्रतिनिधि सभा दिल्ली, आदि। आरम्भिक काल में कुछ ऐसे रूढ़िवादी भी आर्यसमाज में प्रकट हो गये थे जो यह कहने लगे थे कि सत्यार्थप्रकाश आदि में एक अक्षर का परिवर्तन भी न किया जाये। उन्हीं के कारण, ऋषिग्रन्थों में संशोधन करने और संशोधन न करने का विवाद भी उस समय बीज रूप में जन्म ले गया था। तब वैदिक यन्त्रालय के अध्यक्ष के रूप में स्वामी श्रद्धानन्द जी सरस्वती ने अपना स्पष्ट अभिमत प्रकट किया था कि लिपिकरों-शोधकों के कारण सत्यार्थप्रकाश आदि में न केवल त्रुटियां उत्पन्न हुई हैं अपितु उन्होंने अवसर मिलते ही प्रक्षेप भी किये हैं। मुद्रणप्रति के दशम समुल्लास के भक्ष्याभक्ष्य प्रसंग में हाशिये (बगल के खाली स्थान) पर लिखे एक मांसभक्षण के समर्थक संदर्भ के विषय में खोज करके स्वामी श्रद्धानन्द जी ने बताया था कि उस सन्दर्भ का प्रक्षेप पं० ज्वालादत्त शर्मा ने किया है, क्योंकि वह लेख उसी का है। पं० ज्वालादत्त ने वह प्रक्षिप्त संदर्भ ग्रन्थकार द्वारा मुद्रणप्रति का निरीक्षण करने के बाद प्रेस में भेजते समय पीछे से मिलाया है, जिस पर मुद्रण के समय मुंशी समर्थदान जी का ध्यान चला गया था और उन्होंने उसकी जानकारी ग्रन्थकार महर्षि को दी थी (द्रष्टव्य 'मीमांसा भाग' में पृष्ठ २८ और मूलग्रन्थ में पृष्ठ ५०० पर टिप्पणी)। ऐसी स्थिति में स्वामी श्रद्धानन्द जी ने सत्यार्थप्रकाश के विषय में अपना यह अभिमत प्रकट किया था जो उपर्युक्त निष्कर्षों की पुष्टि करता है―


(क) “वेद ईश्वरीय ज्ञान है, इसलिये निर्भ्रान्त है। सत्यार्थप्रकाश मनुष्यकृत है और इसलिए उसमें भूल की सम्भावना है। प्रथम तो यही निश्चित नहीं है कि सत्यार्थप्रकाश में वही सब छपा है जो ऋषि दयानन्द ने लिखवाया था। जहां छापे की अशुद्धियां प्रत्येक संस्करण में दिखाई देती हैं वहाँ कई स्थानों में लिखे हुए ऋषि दयानन्द के हस्ताक्षर (=हस्तलेख) सहित, पुस्तक में प्रत्यक्ष संशोधन करने वाले पण्डितों का हस्ताक्षेप दिखाई देता है।" (वेद और आर्यसमाज, पृष्ठ १३४)


(ख) “सारांश यह कि सत्यार्थप्रकाश के एक-एक शब्द का समर्थन अविद्यावश, स्वार्थ और झूठी लोकलज्जा में फंसकर ही किया जाता है। इसलिए अत्यन्त आवश्यक है कि द्वेष, पक्षपात और लोकलज्जा के झूठे भय को भुलाकर सत्यार्थप्रकाश को वही पद (साम्प्रदायिक स्मृति का) प्रदान किया जावे जो उसका वास्तव में अधिकार है।" (वही पुस्तक, पृष्ठ १३३-१३४)


(ग) “मनीषी समर्थदान का ऊपर दिया पत्र (जो मुंशी जी ने मुद्रणप्रति में, दशम समुल्लास में लिखे मांसभक्षण के समर्थन में हाशिये पर लिखे सन्दर्भ की जानकारी देने के लिए लिखा था)। पढ़कर मैंने ऋषि के पत्र व्यवहार की तिथिक्रम से पड़ताल की। तब मांस वाला हाशिये का लेख नि:संदेह पं० ज्वालादत्त का लिखा हुआ प्रतीत हुआ। पं० ज्वालादत्त के कई पत्र मिले जिनके साथ हाशिये (के लेख) के अक्षर मिल गये।" (वही पुस्तक, पृष्ठ १४०)


(घ) “ऊपर के लम्बे उद्धरण नीरस-से तो अवश्य प्रतीत होते हैं, परन्तु इनके बिना यह ज्ञात होना कठिन था कि ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों को बिगाड़ने का पौराणिक संस्कृतज्ञों ने कितना यत्न किया। यदि ऋषि दयानन्द के छपे ग्रन्थों का हस्तलिखित मूल पत्रों से मिलान किया जाए तो न जाने उनमें कितना भेद निकलेगा। ऊपर लिखा तो एक कारण है जिससे सत्यार्थप्रकाश के एक-एक अक्षर की जिम्मेवारी आर्यपुरुष नहीं ले सकते, परन्तु छापे की अशुद्धियां, लेखक तथा संशोधक पण्डितों की अयोग्यता और कुटिलता के अतिरिक्त एक बात और भी है।" (वही पुस्तक, पृष्ठ १४१)


स्वामी श्रद्धानन्द जी तथा स्वयं महर्षि के उपर्युक्त उद्धरणों से यह तथ्य पुष्ट हो जाता है कि लिपिकरों-शोधकों ने न केवल भाषागत त्रुटियां ही की हैं अपितु ऋषि के अभिप्राय के विरुद्ध प्रक्षेप भी किये हैं।


(ङ) ऋषि-ग्रन्थों में अशुद्धियां रहने के विषय में तथा महर्षि के लेखकों की मानसिकता के सम्बन्ध में पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक का मत भी उल्लेखनीय है―


"इन सब उद्धरणों से भले प्रकार स्पष्ट है कि स्वामी जी महाराज के साथी पण्डित लोग कितनी कुटिल प्रकृति के थे।.....सहानुभूति होना तो दूर रहा, ये लोग अपनी नीच प्रकृति के कारण स्वामी जी के कार्य को भले प्रकार नहीं करते थे।.....इन्हीं पण्डितों की अयोग्यता तथा कुटिलता के कारण स्वामी जी के स्वयं लिखे तथा इनके द्वारा लिखवाये ग्रन्थों में बहुत-सी अशुद्धियां उपलब्ध होती हैं। स्वामी जी ने इन अशुद्धियों की ओर अनेक पत्रों में ध्यान दिलाया है।" (ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों का इतिहास, पृ० ४१६-४१७)


(ए-ए) उक्त प्रकार के अनेक कारणों से ही, ग्रन्थकार महर्षि ने सत्यार्थप्रकाश (द्वितीय संस्करण १८८४) के टाइटल और मुखपृष्ठ पर दो जगह एक महत्त्वपूर्ण और दूरदर्शितायुक्त वाक्य छपवाकर भाषात्मक तथा सम्पादकीय त्रुटियों का सारा दायित्व वेतनभोगी शोधकों पर डाल दिया था और स्वयं को उससे मुक्त कर लिया था। वह महत्त्वपूर्ण वाक्य है―


"पण्डितज्वालादत्तभीमसेनशर्म्मभ्यां संशोधितः" (द्रष्टव्य आरम्भ के पृष्ठ ४ पर)


अर्थात् 'सत्यार्थप्रकाश की भाषा का संशोधन-सम्पादन पण्डित ज्वालादत्त और पं० भीमसेन ने किया है' 


यह वाक्य कई संस्करणों तक छपता रहा। यदि भाषा का उत्तरदायित्व ग्रन्थकार अपना मानते तो मुखपृष्ठ पर दो बार उक्त वाक्य प्रकाशित नहीं कराते। 'वेदभाष्य' आदि अन्य अनेक ग्रन्थों पर भी इसी आशय का वाक्य आज तक मिलता है। जो विद्वान् या पाठक महर्षि के उक्त कथनों की गम्भीरता पर ध्यान नहीं देते और उनके ग्रन्थों की लेखन प्रक्रिया को नहीं समझते, वे संदेहों और पूर्वाग्रहों में स्वयं भी भटक रहे हैं और सत्यार्थप्रकाश को भी भटकाये हुए हैं। 


१. सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण) की रचना और उसकी पृष्ठभूमि―


वैदिक सिद्धान्तों का प्रचार-प्रसार करने के उद्देश्य से मई, सन् १८७४ ईस्वी (ज्येष्ठ सम्वत् १९३१) में महर्षि दयानन्द काशी पहुंचे। तब वहाँ के डिप्टी कलेक्टर राजा जयकृष्णदास बहादुर सी०एस०आई० थे। राजा जी मुरादाबाद के रहने वाले थे और सामवेदीय ब्राह्मण थे। महर्षि के जन-कल्याणकारी उपदेश सुनकर उनके प्रति राजा जी की श्रद्धा भावना बन गई थी। उन्होंने महर्षि से निवेदन किया कि 'आपके उपदेशों का लाभ केवल उपदेश में आनेवाले श्रोता ही उठा पाते हैं, यदि इनको ग्रन्थ के रूप में प्रकाशित कर दिया जाये तो अनेक जनों को लाभ होगा और वे चिरस्थायी भी हो जायेंगे। इनके लिखवाने-छपवाने का सारा व्यय मैं वहन करूंगा।'


राजा जयकृष्णदास के उपयोगी प्रस्ताव को महर्षि ने स्वीकार कर लिया और १२ जून १८७४ (संवत् १९३१, प्रथम आषाढ़ वदि १३) शुक्रवार को सत्यार्थप्रकाश लिखवाने का कार्य आरम्भ कर दिया। महर्षि बोलते थे और महाराष्ट्रीय पंडित चन्द्रशेखर नामक लेखक उसको लिखते थे।१ महर्षि के जीवन-चरित्र के लेखकों का विचार है कि ढाई-तीन मास में सत्यार्थप्रकाश के १ से १४ समुल्लास लिखाने का कार्य पूर्ण हो गया था। उसको प्रकाशनार्थ राजा जयकृष्णदास को सौंपकर २६ अक्तूबर १८७४ को महर्षि बम्बई पहुंच गये थे।


विवरणों से ज्ञात होता है कि राजा जी ने इस सत्यार्थप्रकाश की, प्रेस में प्रकाशनार्थ भेजने के लिए और रिकार्ड में रखने के लिए, दो साफ प्रतियां लिखवाई थी। उनमें से एक प्रति राजा जयकृष्णदास के पास सुरक्षित थी जो कि परोपकारिणी सभा के मन्त्री श्री हरविलास शारदा ने सन् १९४७ (संवत् २००४) में मंगवाकर परोपकारिणी के पुस्तकालय में सुरक्षित कर ली थी। जिस प्रति से प्रथम संस्करण छपा था उसके दस समुल्लास तक की प्रति का भाग गुरुकुल कांगड़ी विश्वविद्यालय के पुस्तकालय में सुरक्षित है। प्रेसप्रति में और कहीं-कहीं दूसरी प्रति में भी ऋषि के हाथ से किये संशोधन भी हैं। यह दो भागों में लिखवाया गया है। १-१० समुल्लास तक प्रथम भाग है, जिसमें ५१४ हस्तलिखित पृष्ठ हैं। ११-१४ समुल्लास तक द्वितीय भाग है, जिसमें ४६८ पृष्ठ हैं। ४६८ से ४९५ पृष्ठों में मनुष्य-हितकारी बातें, दिनचर्या, पठन-पाठन सम्बन्धी बातें हैं। इसमें १३वां समुल्लास इस्लाम मत समीक्षा का और १४वां ईसाई मत समीक्षा का रखा गया था। कुरान मत समीक्षा-विषयक १३ वां समुल्लास पटना शहर निवासी अरबी के विद्वान् मुंशी मनोहरलाल जी की सहायता से लिखा था जिसे मुरादाबाद निवासी मुंशी इन्द्रमणि ने संशोधित भी किया था। ये जानकारियां क्रमशः सत्यार्थप्रकाश-हस्तलेख के द्वितीय भाग के पृष्ठ ३६२ पर दिये विवरण से तथा पत्र-व्यवहार से मिलती हैं।


यह सत्यार्थप्रकाश सन् १८७५ में प्रकाशित होकर बिकने लगा था। राजा जयकृष्णदास ने इसको १२वें समुल्लास तक ही छपवाया, १३-१४ समुल्लास प्रकाशित नहीं कराये। उसका सम्भावित कारण यह रहा होगा 




१. प्रथम संस्करण विषयक अधिकांश तथ्य पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक द्वारा सम्पादित 'सत्यार्थप्रकाश' की भूमिका से उद्धृत हैं। 


कि ईसाई मत के खण्डन से कहीं अंग्रेज सरकार उनसे रुष्ट न हो जाये और कुरान मत समीक्षा से कहीं मुसलमान उनसे रुष्ट न हो जायें। १२ समुल्लास तक प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश में कुल पृष्ठ ४०७ हैं और इसके विक्रय का 'रजिस्टर्ड अधिकार' केवल राजा जयकृष्णदास के पास सुरक्षित रखा गया है। राजा जी ने रजिस्टरी कानून संख्या २०, सन् १८४७ के अनुसार इसकी रजिस्ट्री अपने नाम से करा ली थी।


सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण) में प्रक्षेप―यह सत्यार्थप्रकाश महर्षि की अनुपस्थिति में 'स्टार प्रेस, बनारस' में छपा था। महर्षि इसका प्रकाशित प्रूफ नहीं देख पाये थे। माना जाता है कि सम्बन्धित पंडितों और राजा जयकृष्णदास ने पारम्परिक संस्कारवशात् इसमें महर्षि के विरुद्ध विचारों का प्रक्षेप कर दिया, जो कि उस समय सामाजिक मान्यता के रूप में समाज में दृढ़मूल थे और जिनको न मानना धर्मविरोध समझा जाता था। वे प्रक्षेप मृतक श्राद्ध कररना, मांसपूर्वक श्राद्ध करना, मांसभक्षण करना, यज्ञ में मांस-आहुति देना, स्त्रियों और शूद्रों को यज्ञोपवीत न देना आदि के समर्थक थे। हस्तलिखित प्रतियों पर गहन दृष्टि डालने के बाद प्रक्षेप करने के तरीके का रहस्य भी खुल गया। महर्षि प्रेसप्रति का संशोधन करके प्रचार-कार्यक्रम में चले गये थे। उनके पीछे से वे सभी पृष्ठ बदलकर पुनः लिखे गये जिन पर महर्षि के अभिप्राय-विरुद्ध प्रक्षेप हुए हैं। इसका पहला प्रमाण यह है कि उन-उन पृष्ठों पर तथा बदले गये आगे-पीछे के पृष्ठों पर महर्षि के हाथ के संशोधन नहीं हैं। दूसरा प्रमाण यह है कि सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण १८७५) के लेखन से पूर्व और समकाल में छपे ग्रन्थों में महर्षि जीवित श्राद्ध करने आदि की विशुद्ध वैदिक मान्यता को स्वीकार करते थे और उसका उपदेश करते थे। अतः मिलाई गई अवैदिक मान्यताएं महर्षि-सम्मत नहीं मानी जा सकतीं। तीसरा प्रमाण यह है कि जिस प्रकार महर्षि द्वारा लिखाये और प्रकाशनार्थ दिये १३, १४ समुल्लासों को राजा जयकृष्णदास ने प्रकाशित न कराके अपना स्वतन्त्र हस्तक्षेप किया है उसी प्रकार अपनी पौराणिक मान्यताओं को बचाये रखने के लिए अपने विचारों के प्रक्षेप करने में भी उन्होंने हस्तक्षेप किया है, यह जानकारी आगे उद्धृत महर्षि के उत्तर की शब्दावली से भी मिलती है। 


छपने के बाद सत्यार्थप्रकाश बिक रहा था और महर्षि निश्चिन्त होकर अपने प्रचार-अभियान में व्यस्त थे। एक दिन ठाकुर मुकुन्दसिंह रईस, गांव छलेसर, जिला-अलीगढ़ का पत्र महर्षि के पास आया, जिसको पढ़कर उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा। उसमें महर्षि को लिखा गया था―"मैं पार्वण श्राद्ध करना चाहता हूं, उसके लिए एक बकरा भी तैयार है। आप ही इस श्राद्ध को कराइये।" 


महर्षि ने उसके उत्तर में लिखा―"यह संस्करण राजा जयकृष्णदास द्वारा मुद्रित हुआ है, इसमें बहुत अशुद्धियां रह गई हैं। शाके १७९६ में मैंने जो ‘पञ्चमहायज्ञविधि' प्रकाशित कराई थी, जो कि राजा जी के सत्यार्थप्रकाश से एक वर्ष पूर्व छपी थी, उसमें जबकि मृतक श्राद्ध आदि का खण्डन है, तो फिर सत्यार्थप्रकाश में उसका मण्डन कैसे हो सकता है? अतः श्राद्ध विषय में जो मृतक-श्राद्ध और मांस-विधान का वर्णन है, वह वेदविरुद्ध होने से त्याज्य है।' (वैदिक सिद्धान्त ग्रन्थमाला―पं० सुखदेव, भास्कर प्रेस मेरठ से प्रकाशित, संवत् १९७४, पृष्ठ २८)


खोज करने पर पता चला कि सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण) को पढ़कर ही ठाकुर को श्राद्ध करने की प्रेरणा हुई थी। तब महर्षि ने विज्ञापन आदि द्वारा अपनी स्थिति स्पष्ट की और सत्यार्थप्रकाश को शुद्ध करके पुनः छापने का मन बनाया। इस प्रकार महर्षि को सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण) में ही अभिप्राय-विरुद्ध प्रक्षेप किये जाने का कटु अनुभव हो गया था। यह भी आभास हो गया था कि कि समाज-सुधार में कितनी बाधाएं हैं। इस तरह सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण १८७५) के प्रेरक भी राजा जयकृष्णदास बने और प्रक्षेपकर्ता भी वही बने। ऐसे रूढिवादी पौराणिक वातावरण में और विरोधी विचारधारा के लेखकों के साथ महर्षि को काम करना पड़ रहा था। ऐसी विपरीत परिस्थितियों में सब कुछ ठीक होने का दावा कोई नहीं कर सकता।


२. सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण की रचना एवं रचना-काल


सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण) समाप्त हो रहा था, उसमें संशोधन करना भी बहुत आवश्यक था, बहुत-सी नयी सामग्री भी उसमें परिवर्धित करनी थी, अत: महर्षि ने इसका परिष्कृत, परिवर्धित एवं संशोधित द्वितीय संस्करण तैयार करने का विचार बनाया। इसके प्रकाशित कराने की पूर्व सूचना 'वर्णोच्चारण शिक्षा' के अन्तिम पृष्ठ पर छपी मिलती है, जो संवत् १९३६ ( सन् १८७९ ) के अन्त में प्रकाशित हुई थी। इसके बाद प्रकाशित करने की सूचना 'सन्धि विषय' (संवत् १९३८, सन् १८८१) के अन्त में भी प्रकाशित मिलती है। प्रचार-यात्रा में रहते हुए महर्षि साहित्य-लेखन का कार्य भी साथ-साथ करते थे। लेखन में सहयोग के लिए महर्षि ने दो स्तर के वेतनभोगी नौकर रखे हुए थे, उनमें एक थे 'लिपिकर या लेखक', जो महर्षि के बोले हुए लेख और पत्रों को लिखते थे और उससे मद्रणप्रति तैयार करते थे। दूसरे स्तर के 'शोधक' थे, जो लिखाये हुए का शोधन करते थे। ये सभी बदलते भी रहते थे और नये आते रहते थे। अपनी प्रचार-यात्रा में रहते हुए महर्षि ने द्वितीय संस्करण लिखाया। महर्षि बोलते जाते थे और लिपिकर लिखते जाते थे। सत्यार्थप्रकाश को लिखने वाले भी और मुद्रणप्रति बनाने वाले भी कई-कई लिपिकर रहे हैं। महर्षि ने अपने मुखारविन्द से बोलकर सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण की पहले एक प्रति लिखवाई, उसे 'मूलप्रति' कहा जाता है। फिर उससे प्रकाशनार्थ 'मुद्रणप्रति' तैयार करवाई। उससे द्वितीय संस्करण (१८८४) छपा। इन तीनों प्रतियों की विस्तृत जानकारी निम्न प्रकार है―


(अ) मूलप्रति―इसको 'मूल-हस्तलेख', 'प्रथम प्रति' भी कहा जाता है। महर्षि ने बोलकर प्रथम बार जो परिष्कृत-परिवर्धित द्वितीय संस्करण लिखाया, उसको 'मूलप्रति' कहा जाता है। इसमें कई लिपिकरों का लेख है। महर्षि बोलते जाते थे और लिपिकर लिखते जाते थे। इस प्रति में लीगल साइज के कुल ८०६ पृष्ठ लिखे मिलते हैं। सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण का मूलप्रति' सबसे महत्त्वपूर्ण, सबसे प्रामाणिक और सबसे प्रमुख आधारभूत ऐतिहासिक दस्तावेज है, क्योंकि यह आद्योपान्त महर्षि द्वारा प्रोक्त है और फिर दो बार (एक बार नीली स्याही में और एक बार लाल स्याही में) अपने हाथों से संशोधित है। यह महर्षि की दुर्लभ ऐतिहासिक विशुद्ध वाणी है। ये विशेषताएं अन्य किसी प्रति में नहीं है। जैसा कि दूसरे से लिखाते समय प्रायः हो जाता है, लिखते समय लिपिकरों से इसमें अक्षर, शब्द, वाक्य त्रुटित रह गये हैं और उनकी अयोग्यता तथा प्रमाद के कारण वर्तनी सम्बन्धी अनेक अशुद्धियां भी रह गई हैं। क्योंकि लिपि लिखने वाले लिपिकर थे तो लिपि या भाषासम्बन्धी सभी त्रुटियां भी उन्हीं लिपिकरों की हैं।


'मूलप्रति' को 'रफ़प्रति' कहना उचित नहीं―इस मूल-हस्तलेख को बहुत-से विद्वान् 'रफ़प्रति' कहकर पुकारते हैं। महर्षिप्रोक्त और संशोधित मूलप्रति को 'रफ़प्रति' कहने का अर्थ है महर्षि को अयोग्य सिद्ध करना। प्रसंगवश, यहां इस भ्रान्ति का निराकरण करना आवश्यक है। ध्यान दीजिए, महर्षि ने जिसको स्वप्रोक्त भाषा में लिखाया, फिर उस सम्पूर्ण प्रति का अपने हाथ से कम-से-कम दो बार निरीक्षण और संशोधन किया हआ है, तो वह 'रफ़प्रति' कैसे रह गई? कुछ विद्वान् कहेंगे कि क्योंकि इससे प्रेसप्रति तैयार हो गई थी, अतः वह रफ़प्रति हो गई। इस प्रकार कोई प्रति 'रफ़प्रति' नहीं कहाती।


इसके उत्तर में मेरा कहना है कि इस प्रकार दूसरी प्रति सुरक्षा की दृष्टि से कराई जाती है, एक अपने पास रख ली जाती है। आजकल प्रेसप्रति की फोटोस्टेट प्रति कराके रखी जाती है। यह बात ठीक है कि दूसरी प्रति में परिवर्धन-संशोधन स्वाभाविक रूप से हो जाते हैं, किन्तु महत्त्व मूल का अधिक होता है, और इस विषय में है भी। अतः महर्षि द्वारा प्रोक्त, संशोधित-निरीक्षित प्रति को 'रफ़प्रति' कहना महर्षि की अवमानना है, इसे 'मूलप्रति' या 'मूल-हस्तलेख' कहना ही सम्मानद्योतक और तर्कसंगत है। मूलप्रति को 'रफ़प्रति' कहने से यह भाव प्रकट होता है कि महर्षि न तो बोलकर शुद्ध प्रति लिखवा सके और अपने हाथ से दो बार संशोधन करने के बाद भी उस प्रति को शुद्ध नहीं बना सके। जो लोग 'रफ़प्रति' कहते हैं वे महर्षि की अयोग्यता का प्रचार करते हैं और लिपिकरों-शोधकों की त्रुटियों को महर्षि पर बलात् थोपते हैं।


यह हस्तलेख परोपकारिणी सभा, अजमेर के पुस्तकालय में सुरक्षित है। मुद्रणप्रति बनाने के बाद इसको प्रमाण और सावधानी के लिए संभालकर रखा गया था। परोपकारिणी सभा ने अब इस पर वैज्ञानिक पद्धति से लैमिनेशन कराकर वर्षों तक सुरक्षित रखने का उपाय कर लिया है। 


(आ) मुद्रणप्रति―संशोधन करने के बाद प्रकाशनार्थ उपयोगी बन जाने के बाद, महर्षि ने प्रेस में भेजने के लिए मूलप्रति से दूसरी हस्तलिखित प्रति तैयार कराई। उसको 'मुद्रणप्रति', 'प्रेसप्रति', 'द्वितीय हस्तलेख', 'मुद्रण-हस्तलेख' आदि कहते हैं। इसको तैयार करते समय लिपिकरों ने स्वेच्छाचारिता से नितान्त अनावश्यक, व्यर्थ पाठान्तर करके ऋषि की भाषा में अपनी भाषा का मिश्रण कर दिया है। अनेक पाठ त्रुटित छोड़े हैं, अनेक पाठ अशुद्ध और भ्रष्ट कर दिये हैं, अपनी-अपनी योग्यता-अयोग्यता के अनुसार वर्तनी सम्बन्धी कुछ त्रुटियां ठीक की हैं तो अनेक नयी कर दी हैं। श्री मोहनचन्द जी अजमेर की गणना के अनुसार, मूलप्रति की तुलना में लिपिकरों ने इसमें लगभग १९०० परिवर्तन-परिवर्धन किये हैं। वस्तुस्थिति यह है कि कार्याधिक्य, वेदभाष्य और प्रचार आदि में अतिव्यस्त रहने के कारण और मूलप्रति हस्तलेख से मिलान न होने के कारण, महर्षि को लिपिकरों द्वारा किये इतने अधिक परिवर्तनों का आभास ही नहीं हो पाया, अन्यथा किसी भी पाठ को बिना सूचना के परिवर्तन करने की स्वतन्त्रता मुंशी समर्थदान जैसे निष्ठावान् व्यक्ति को भी न देने वाले ऋषि, निष्ठारहित पौराणिक विचारधारा के लेखकों को कभी इतना व्यापक, और वह भी अशुद्ध पाठान्तर-परिवर्तन करने का अधिकार नहीं देते।


(क) क्या मुद्रणप्रति ऋषिप्रोक्त है?―कुछ विद्वानों का अनुमान है कि मूलप्रति के समान मुद्रणप्रति को भी ग्रन्थकार ऋषि ने बोलकर लिखाया है। जो ऐसा कहते हैं उन्होंने पांडुलिपियों का अध्ययन-विश्लेषण नहीं किया है। उन्हें न तो ऋषि की लेखन प्रक्रिया का ज्ञान है और न मुद्रणप्रति की अन्तरंग स्थिति का ज्ञान है। उपर्युक्त पंक्तियों में मुद्रणप्रति की वास्तविक और विकृत स्थिति की जानकारी दी गई है। अगले अध्याय में उसके प्रमाण दिये जायेंगे। मूलप्रति से मुद्रणप्रति बनाते समय अधिकांश अशुद्ध वर्तनियां अशुद्ध ही लिखी गई हैं जिनसे यह जानकारी मिलती है कि मूलप्रति को सामने रखकर उसकी प्रति की गई है। यही स्थिति वेदमन्त्रों और अन्य उद्धरणों के अशुद्ध लेखन की है। यदि ऋषि बोलकर लिखाते तो मूलप्रति के सैकड़ों अशुद्ध उद्धरणों को शुद्ध कराके लिखाते। अक्षर, मात्रा, शब्द, वाक्य, अनुच्छेद और पृष्ठ को त्रुटित नहीं छोड़ने देते। ऐसे कई प्रमाण उपलब्ध हैं कि मुद्रणलिपिकर ने किसी पाठ को त्रुटित छोड़कर आगे लिखना आरम्भ कर दिया, या लिखित पंक्तियों को पुनः लिखना आरम्भ कर दिया। जब कुछ पंक्तियां आगे जाकर उसको उस भूल का ज्ञान हुआ तो उन लिखित पंक्तियों को काटकर पुनः सही पाठ लिखा गया है। महर्षि की मूल भाषा में सैकड़ों व्यर्थ और अशुद्ध परिवर्तन मुद्रणलिपिकर ने किये हैं। कोई लेखक न तो अपनी भाषा में स्वयं व्यर्थ परिवर्तन करायेगा और न अशुद्ध पाठ बनवायेगा, न भाषा-भावगत अशुद्धियुक्त मूलप्रति के पाठ को पुनः यथावत् लिखायेगा। पुनः बोलकर लिखाने वाला लेखक समग्र प्रकार की अशुद्धियों को शुद्ध कराके लिखाया करता है, जबकि मुद्रणप्रति में ऐसा संशोधन नहीं कराया गया है। 


प्रतिलिपि करने की उक्त शैली से ज्ञात होता है कि महर्षि ने इसे बोलकर नहीं लिखाया है अपितु लिपिकरों ने मूलप्रति को सामने रखकर यह मुद्रणप्रति तैयार की है। हाँ, कहीं-कहीं कुछ संशोधन अवश्य कराये होंगे।


(ख) अल्पप्रामाणिक प्रति―उक्त कारणों से 'मुद्रणप्रति' सत्यार्थप्रकाश की महर्षिप्रोक्त विशुद्ध प्रति नहीं है अपितु 'मिश्रित प्रति' है, क्योंकि इसमें लिपिकरों द्वारा स्वेच्छा से परिवर्तित-परिवर्धित भाषा और उनके द्वारा की गई त्रुटियों का महर्षि की भाषा में मिश्रण हो गया है। उसी अनुपात से यह मूलप्रति की तुलना में 'अल्प प्रामाणिक' है। इसमें लीगल साइज के कुल ४९८ पृष्ठ हैं। इनमें से पृष्ठ १-३४४ पृष्ठों तक महर्षि के हाथ के संशोधन हैं।


(ग) अर्धप्रामाणिक प्रति―संशोधनों की दृष्टि से यह महर्षि के हाथ से पूर्णरूप से संशोधित नहीं है, अतः 'अर्धप्रामाणिक' भी है। महर्षि ने २९ सितम्बर १८८३ को जोधपुर से मुद्रणप्रति के ३४४ पृष्ठ तक

निरीक्षित-संशोधित करके डाक से प्रेस में प्रकाशनार्थ भिजवाये थे। उसी दिन २९ सितम्बर को सायंकाल महर्षि को विष दे दिया गया और वे रुग्ण-शय्या पर चले गये। इस प्रकार मुद्रणप्रति का आधा तेरहवां, चौदहवां समुल्लास और स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाश का निरीक्षण-संशोधन महर्षि नहीं कर सके। पश्चात् इनका निरीक्षण-संशोधन पं० ज्वालादत्त, पं० भीमसेन और मुंशी समर्थदान ने किया।


(घ) तीसरी प्रति नहीं―तथ्यों की जानकारी के अभाव में कुछ सम्पादकों-समीक्षकों ने यह भ्रान्त धारणा बना ली है कि सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण की कोई तीसरी प्रति भी तैयार कराई थी जिसे प्रकाशनार्थ प्रेस में भेजा गया था और प्रथम मुद्रणप्रति को रिकार्ड में रख लिया था। यह धारणा सही नहीं है, क्योंकि १. मुद्रणप्रति ही प्रकाशनार्थ तैयार कराई थी, अतः इसी को संशोधित करके किश्तों में प्रकाशनार्थ प्रेस में भेजा जाता रहा। २. मुद्रणार्थ भेजने से पूर्व महर्षि इसी में संशोधन करते थे। पृष्ठ १-३४४ तक उनके हाथ के संशोधन हैं। ३. पत्र-व्यवहार आदि में प्रेस प्रति से सम्बन्धित जो पृष्ठसंख्या वर्णित है, वह इसी प्रति से मेल खाती है। ४. प्रकाशन के समय अंकित होने वाले चिह्न इसी प्रति के पन्नों पर मिलते हैं; जैसे कम्पोजीटर एक दिन में जहां तक कम्पोज करते थे उसके बाद स्मृति के लिए विशेष प्रकार का चिह्न बना देते थे। इसी प्रकार टाइप की काली स्याही लगे हाथों के निशान भी इसके पन्नों पर मिलते हैं। ५. प्रकाशित द्वितीय संस्करण (१८८४) में शुद्धअशुद्ध वर्तनियां और वाक्य इसी प्रति के अनुसार छपे मिलते हैं।


द्वितीय संस्करण प्रकाशित होने के बाद मुद्रणप्रति' को रिकार्ड के लिए परोपकारिणी सभा के पुस्तकालय में सुरक्षित रख लिया था, जो आज भी सुरक्षित है। परोपकारिणी सभा ने इस पर वैज्ञानिक पद्धति से लैमिनेशन करा लिया है।


(ङ) सत्यार्थप्रकाश (द्वितीय संस्करण) का लेखनकाल―महर्षि दयानन्द ११ अगस्त १८८२ को उदयपुर पहुंचे और महाराणा के गुलाब बाग स्थित नवलखा महल में निवास किया। उदयपुर पहुंचने से पूर्व अपने यात्राकाल में महर्षि 'मूलप्रति' भी लिखा चुके थे और उसकी 'मुद्रणप्रति' भी तैयार करा चुके थे। उदयपुर पहुंचने के १७ दिन बाद, दिनांक २९ अगस्त १८८२ (भाद्रपद बदि १ मंगलवार, संवत् १९३९) को मुंशी समर्थदान को लिखे पत्र के साथ, मुद्रणप्रति के आरम्भिक कुल ३७ पृष्ठ संशोधित करके प्रकाशनार्थ प्रेस में भेजने शुरू किये। महर्षि के उस पत्र के अंश इस प्रकार हैं―


"आज सत्यार्थप्रकाश के शुद्ध करके, ५ पृष्ठ भूमिका के और ३२ पृष्ठ प्रथम समुल्लास से भेजे हैं, पहुँचेंगे।" (पत्र व्यवहार पृ० ६०९, भाग दो)


संशोधित करके भेजे गये मुद्रणप्रति के पन्नों (पृष्ठों) के विषय में महर्षि के उपलब्ध पत्र-व्यवहार से निम्नलिखित जानकारी मिलती है―


―३३ से ५७ पृष्ठ भेजे, १६ अक्तूबर १८८२ (आश्विन सुदि ४, सोमवार संवत् १९३९) को।


―२७२ से ३१९ पृष्ठ (सम्पूर्ण द्वादश समुल्लास) भेजे, १७ सितम्बर १८८३ (आश्विन बदि १, संवत् १९४०) को।


―३२० से ३४४ पृष्ठ, १३ समु० के केवल तौरेत और जबूर विषय तक के पृष्ठ भेजे, २९ सितम्बर १८८३ (आश्विन बदि ८, संवत् १९४०) को।


―मुद्रणप्रति के अगले पृष्ठ ३४५ से ४९८ तक के पृष्ठ, २९ सितम्बर १८८३ को ऋषि को विष दिये जाने के कारण वे संशोधित नहीं कर पाये। अत: पं० युधिष्ठिर जी मीमांसक का यह कथन सही नहीं है कि “१३वें समुल्लास तक की प्रेस कापी ऋषि के निर्वाण के लगभग १ मास पूर्व प्रेस में पहुंच गई थी।" (शताब्दी संस्करण, पृष्ठ ५१, ५२)। यह प्रेस कापी केवल तौरेत-जबूर विषय, आयत संख्या ६२―"हां, मेरे अन्तकरण में......" तक ही अर्थात् आधे १३वें समुल्लास तक ही भेजी जा सकी थी। 


इसमें कोई संदेह और विवाद नहीं है कि दोनों हस्तलेख (भूमिका सहित) उदयपुर आने से पूर्व लिखे जा चुके थे। क्योंकि, भूमिका ग्रन्थ के पूर्ण होने के बाद ही लिखी जाती है। महर्षि ने भी सत्यार्थप्रकाश की भूमिका में १४ समुल्लासों और स्वमन्तव्यामन्तव्य के लिखे जाने का विषय-सहित उल्लेख किया भी है, जिससे स्पष्ट है कि उदयपुर आने से पूर्व दोनों हस्तलिखित प्रतियां लिखी जा चुकी थीं। तभी वे २९ अगस्त १८८२ को भूमिका के ५, और प्रथम समुल्लास से ३२ पृष्ठ संशोधित करके भेज सके थे। इसकी पुष्टि में दूसरा बहुत बड़ा प्रमाण यह भी है कि महर्षि सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण के प्रकाशन की सूचना सन् १८८१ (सम्वत् १९३८) के अन्त में छपे 'सन्धि विषय' पुस्तक के अन्त में प्रकाशित करा चुके थे। बिना लिखे यह सूचना प्रकाशित नहीं की जा सकती। तीसरा प्रमाण यह है कि उदयपर-निवास के १७ दिनों में मलप्रति के ८०६ पष्ठ और मुद्रणप्रति के ४५८ पृष्ठ, दोनों के कुल १२६४ पृष्ठ किसी भी स्थिति में नहीं लिखे जा सकते। चौथा प्रमाण भी तुलनात्मक रूप से उक्त तथ्य की पुष्टि करेगा। १८७५ में छपा सत्यार्थप्रकाश का प्रथम संस्करण काशी में ढाई से तीन मास में लिखकर पूर्ण किया था, उसमें कुल हस्तलिखित पृष्ठ १००९ हैं। उस समय महर्षि लेखन का अन्य कार्य भी साथ-साथ नहीं करते थे, केवल उपदेश ही करते थे, अत: उनके पास पर्याप्त समय था। उदयपुर निवास के समय महर्षि वेदभाष्य करते थे, अन्य ग्रन्थों का लेखन भी चलता था, महाराणा जी को पढ़ाते भी थे, जनता को उपदेश भी देते थे। इतने व्यस्त रहते हुए और केवल १७ दिनों में १२६४ पृष्ठ किसी भी स्थिति में नहीं लिखे जा सकते। अतः जो लोग यह निराधार प्रचार करते हैं कि सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण उदयपुर के नवलखा महल में लिखा गया था, यह कथन इतिहास-विरुद्ध, महर्षि के लेखों के विरुद्ध और भ्रान्तिजनक है। इससे हानि यह होगी कि ऋषि का इतिहास दूषित होगा और उनके लेख मिथ्या सिद्ध हो जायेंगे। उदयपुर निवास करते हुए तो पूर्वलिखित मुद्रणप्रति के पृष्ठ केवल प्रकाशनार्थ भेजने आरम्भ किये थे जो अन्तिम बार जोधपुर से भेजे गये थे। 


उक्त पृष्ठों को पाकर मुंशी समर्थदान जी ने ऐतिहासिक महत्त्व की दृष्टि से दो काम किये―१. मुद्रणप्रति में भूमिका के अन्त में दाईं ओर अपने हस्तलेख में "(स्वामी) दयानन्द सरस्वती" ग्रन्थकार का यह नाम लिखा, और बाईं ओर दो पंक्तियों में "स्थान महाराणा जी का उदयपुर" पहली पंक्ति में तथा दूसरी पंक्ति में नीचे "भाद्रपद..... संवत् १९३९" लिखा। यहाँ पक्ष का स्थान खाली छोड़ा हुआ है। जब भूमिका के पृष्ठ प्रकाशित हुए तो खाली स्थान पर “शुक्लपक्ष" छापकर उस खाली स्थान को “भाद्रपद शुक्लपक्ष संवत् १९३९" इस रूप में पूर्ण किया। प्रथम आठ पेजी फर्मे के पहले पृष्ठ पर मुंशी समर्थदान जी की ओर से आरम्भिक निवेदन छपा है, उसके नीचे बाईं ओर उन्होंने "आश्विन कृष्णपक्ष संवत् १९३९" तिथि लिखी है। अक्तूबर ८२ के प्रथम सप्ताह तक भी छपने की सूचना नहीं मिली थी। इससे संकेत मिलता है कि उसके बाद ही शायद नवम्बर १८८२ में सत्यार्थप्रकाश का प्रकाशन आरम्भ हो पाया था जो ऋषि के देहान्त के एक वर्ष दो मास बाद दिसम्बर १८८४ में जाकर पूर्ण होकर विक्रयार्थ उपलब्ध हुआ। इसके प्रकाशन में बहुत अधिक विलम्ब अर्थात् दो वर्ष तीन मास लगने के कई कारण रहे। महर्षि के पत्र-व्यवहार से ज्ञात होता है कि वैदिक यन्त्रालय प्रयाग' में बाहरी कार्य बहुत अधिक किया जाता था जिसके कारण महर्षि के बार-बार लिखने के बाद भी सत्यार्थप्रकाश का प्रकाशन शुरू नहीं किया। आरम्भ के फरमे छपकर पहली बार महर्षि को १९ दिसम्बर १८८२ को मिल पाये थे। उसके बाद रुक-रुक कर काम होता था। महर्षि ने बार-बार शीघ्र काम करने का निर्देश दिया और बाहरी काम बंद करने का आदेश दिया, किन्तु उन आदेशों-निर्देशों का पालन नहीं हुआ। अन्ततः विवश होकर ३१ मई १८८३ को महर्षि ने एक पत्र द्वारा विलम्ब के परिणामस्वरूप मुंशी समर्थदान को दण्ड देने की चेतावनी दी और बाबू विश्वेश्वरसिंह को ७ जून १८८३ के पत्र में इस विषयक रुष्टता प्रकट की तो काम की गति आगे बढ़ी। कुछ मास बाद दुर्दैव से ३० अक्तूबर १८८३ को महर्षि का देहान्त हो गया। उसके बाद काफी समय तक यन्त्रालय का काम रुका रहा। पुनः शुरू होने के बाद दिसम्बर १८८४ में सत्यार्थप्रकाश के प्रकाशन का काम पूर्ण हुआ। महर्षि के जीवनकाल तक इसके ११ समुल्लास ही छप पाये थे, शेष भाग उसके बाद पंडितों और मुंशी समर्थदान जी के निरीक्षण में छपा। पंडितों (पं० ज्वालादत्त और पं० भीमसेन शर्मा) के निरीक्षण में छपा १२वां समुल्लास सत्यार्थप्रकाश (१८८४) का अशुद्धतम मुद्रण है। १३वें समुल्लास में मुद्रणलिपिकर ने ४ आयतखण्डों का दूसरे आयतखण्डों में अपमिश्रण कर दिया और कुछ की प्रमादवश मूलप्रति से प्रतिलिपि करना भूल गया, जिसके कारण महर्षि द्वारा समीक्षित आयतों में से कई आयतखण्ड प्रकाशित नहीं हो पाये, जिससे महर्षि का श्रमपूर्ण दुर्लभ ऐतिहासिक लेखन व्यर्थ हो गया। १४वें समुल्लास में मुद्रणप्रति में लिखित होते हुए भी, मुंशी समर्थदान ने स्वकल्पित निराधार धारणा के अनुसार पुनरुक्ति और कटुभाषा के आधार पर ११ आयतखण्ड प्रकाशित ही नहीं किये। इस प्रकार उन्होंने भी महर्षि की अनुपस्थिति में महर्षि के श्रमपूर्ण और दुर्लभ ऐतिहासिक लेखन को व्यर्थ कर दिया। यदि महर्षि जीवित होते तो ऐसा कदापि नहीं करने देते। तथ्य यह है कि महर्षि ने उक्त सब आयतों की समीक्षा प्रकाशनार्थ लिखाई थी और मुद्रणप्रति में लिखी वे सभी समीक्षाएं प्रकाशनार्थ भेजी थीं, जब सम्पूर्ण मुद्रणप्रति प्रकाशनार्थ भेजी थी तो सभी आयतें भी अवश्य प्रकाशित होनी चाहियें थीं, उनको प्रकाशन से रोकने का अधिकार मुंशी समर्थदान को बिल्कुल नहीं था। इस प्रकार सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण (१८८४) में यह 'अपूर्णता-दोष' रह गया। 


इस कारण के अतिरिक्त, द्वितीय संस्करण (१८८४) के 'अल्पप्रामाणिक' तथा 'अर्ध-प्रामाणिक' होने और शुद्धतम एकरूप संस्करण का आधारभूत संस्करण न होने के अन्य भी कई कारण हैं। उनमें दूसरा कारण यह है कि द्वितीय संस्करण उस 'मुद्रणप्रति' के अनुसार छपा है जिसमें लिपिकरकृत अशुद्धियों की भरमार है। मुद्रणप्रति की वे अधिकांश त्रुटियां द्वितीय संस्करण में संक्रमित हो गई हैं। मुद्रकों और आदिशोधकों के कारण अनेक नयी मुद्रण सम्बन्धी और पाठान्तर सम्बन्धी त्रुटियां उत्पन्न हो गई हैं। इस कारण आद्य तीन प्रतियों में द्वितीय संस्करण (१८८४) सर्वाधिक त्रुटियुक्त बन गया है। इसमें विद्यमान समग्र त्रुटियां ४०००-४५०० के लगभग हैं। इतनी त्रुटियों से युक्त कोई पुस्तक न तो कभी प्रमुख आधारभूत हो सकती है और न पूर्ण प्रामाणिक।


तीसरा कारण सबसे महत्त्वपर्ण है। द्वितीय संस्करण (१८८४) की प्रामाणिकता में दो विशेष हेतु दिये जाते हैं कि वह महर्षि द्वारा निरीक्षित-संशोधित है और महर्षि के जीवनकाल में उनके सामने छपा है। ये दोनों हेतु अर्धसत्य हैं। जैसा कि पूर्व पृष्ठों में बताया जा चुका है कि विष दिये जाने के कारण, महर्षि मुद्रणप्रति का निरीक्षण-संशोधन केवल ३४४ पृष्ठ तक अर्थात् आधे तेरहवें समुल्लास तक ही कर पाये थे, उससे आगे नहीं कर पाये। इसी प्रकार विष दिये जाने के कारण प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण का निरीक्षणसंशोधन केवल ३२० पृष्ठ तक ही कर पाये थे। इसमें कुल ५९२ पृष्ठ हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि प्रकाशित सत्यार्थप्रकाश का आधे का ही निरीक्षण-संशोधन कर पाये थे, आधा असंशोधित ही रह गया। महर्षि को विष दिये जाने के दिन (२९ सितम्बर १८८३) तक सत्यार्थप्रकाश के ३२० पृष्ठ ही छपे थे, शेष उनके निरीक्षण के बिना और अन्तिम तीन समुल्लास देहान्त के बाद छपे। इस प्रकार महर्षि के जीवनकाल में केवल आधा सत्यार्थप्रकाश ही छपा था। इस विवरण से यह स्पष्ट हुआ कि महर्षि द्वारा अपूर्णसंशोधित मुद्रणप्रति से अपूर्णसंशोधित सत्यार्थप्रकाश द्वितीय संस्करण (१८८४) छपा है। महर्षि के निरीक्षण-संशोधन की दृष्टि से वह सत्यार्थप्रकाश 'अर्धप्रामाणिक' है और ऐसा संस्करण कभी आगामी शुद्धतम एकरूप संस्करण का 'आधारभूत' बनने की प्रमुख योग्यता नहीं रखता।


यह सत्यार्थप्रकाश महर्षि के देहान्त के बाद शर्माद्वय (पं० ज्वालादत्त और पं० भीमसेन) की देखरेख में, सन् १८८४ के दिसम्बर मास में, पूर्णतः प्रकाशित हुआ। इन्होंने उसके आरम्भ में एक शुद्धाशुद्धि पत्र संयुक्त किया है। इनकी मक्कारी की पराकाष्ठा देखिये कि सैकड़ों गम्भीर अशुद्धियां विद्यमान होने के बाद भी इन्होंने उसमें केवल १४७ अशुद्धियों का ही उल्लेख किया है। यदि वे उसी समय समग्र अशुद्धियों का उल्लेख कर देते, तो परवर्ती संस्करणों में अशुद्धियां विवाद का विषय नहीं रह जातीं।


लिपिकरों-आदिशोधकों की अयोग्यता, प्रमाद, निष्ठाहीनता और मक्कारी से उत्पन्न त्रुटियों का, तथा उनको पूर्णत: शुद्ध न करने का दुष्परिणाम यह हुआ कि आज सवा-सौ से अधिक वर्ष बीत जाने के बाद भी, तथा सौ से अधिक संस्करण प्रकाशित होने के बाद भी, और तीन दर्जन से अधिक आर्य सम्पादकों द्वारा संशोधित संस्करण प्रकाशित करने के बाद भी सत्यार्थप्रकाश का विशुद्धतम संस्करण पाठकों को उपलब्ध नहीं हो पाया है। उसके संशोधन की प्रक्रिया आज भी जारी है। परोपकारिणी सभा द्वारा उस पर कानूनी नियन्त्रण न रख पाने के कारण आज हर कोई व्यक्ति उसमें मनमाने संशोधन करके प्रकाशित कर रहा है। आज जितने प्रकाशन/ संस्करण हैं उतने स्वतन्त्र सत्यार्थप्रकाश हैं, कोई भी संस्करण परस्पर मेल नहीं रखता, यहाँ तक कि एक प्रकाशक के सब संस्करण भी समान पाठ वाले नहीं है। इससे बढ़कर दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति किसी ग्रन्थ की, विशेष रूप से धर्मग्रन्थ की और क्या हो सकती है? हम आर्यों के लिए प्रत्येक विवाद को परे रखकर यह गम्भीर चिन्तन करने का विषय है और सबसे प्राथमिक कर्त्तव्य यही है कि अपने धर्मग्रन्थ के एकरूप संस्करण के लिए सहमत हों।


समस्त बाधाओं को पार करके, प्रकाशित होकर, शोध-संस्करण पर आधारित यह संस्करण आज पाठकों के कर-कमलों में है। इसका सर्वाधिक श्रेय 'सत्यधर्म प्रकाशन' के संचालक आचार्य सत्यानन्द जी नैष्ठिक को जाता है। सत्यार्थप्रकाश पर इस शोधकार्य को करने के लिए उन्होंने मुझे न केवल बार-बार प्रेरित ही किया अपितु बाध्य कर दिया। यदि वे बार-बार प्रेरित नहीं करते तो 'तात्कालिक अलोकप्रिय' इस कार्य को करने के लिए मैं कभी उद्यत नहीं होता। उन्होंने इसको अति सुन्दर साज-सज्जा में प्रकाशित करके न केवल उस वचन को पूरा किया है अपितु सच्चे श्रद्धाभाव का प्रमाण दिया है। 'सत्यार्थप्रकाश' के प्रति उनकी श्रद्धा अनुकरणीय है, ऋषि के प्रति उनकी निष्ठा उल्लेखनीय है। मैं उनका सर्वात्मना धन्यवाद करता हूँ। सत्यार्थप्रकाश के इतिहास में उनको सदा कृतज्ञतापूर्वक स्मरण किया जायेगा। पाठकों से निवेदन है कि वे इसका अधिक से अधिक प्रचारप्रसार करके प्रकाशक का उत्साह बढ़ायें। 


आचार्य सत्यानन्द जी नैष्ठिक दृढ़संकल्प, निडरता और पुरुषार्थ के धनी हैं। जब वे कोई संकल्प कर लेते हैं तो फिर न किसी का भय मानते हैं, न बाधा को गिनते हैं और न उससे पीछे हटते हैं। अधेड़ उम्र में शिक्षा प्राप्त करने की लग्न लग जाने पर इन्हीं गुणों के कारण वे कृतकार्य हुए। धनाभाव होते हुए भी अपने पुरुषार्थ के बल पर प्रचारार्थ 'सत्यधर्म प्रकाशन' का कार्य आरम्भ किया और आर्यजगत् में सर्वप्रथम उत्तम कागज और सुन्दर साज-सज्जा युक्त प्रकाशन करने के इतिहास का सूत्रपात किया। कुछ ही वर्षों में वे आर्य साहित्य-विषयक दो-सौ पुस्तकें प्रकाशित करने में सफल हो गये हैं। आर्य-साहित्य के प्रचार-प्रसार में और उसके पुनः प्रकाशन में उनका उल्लेखनीय योगदान है। यह 'सत्यार्थप्रकाश' उन सबमें एक ऐतिहासिक और अपूर्व प्रकाशन है। 


गुड़गांव (हरियाणा)

दिनांक १२.०१.२०१५

     

 डॉ० सुरेन्द्रकुमार

सम्पादक एवं शोधकर्ता

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