सत्यार्थप्रकाश की स्मरणीय सूक्तियां/उद्धरणीय वचन
जीवन में यदि एक पुस्तक पढ़कर सारी जानकारी प्राप्त करना चाहें तो निश्चित रूप से इस पुस्तक का स्वाध्याय करें।
संसार की अद्भुत पुस्तक
सत्यार्थप्रकाश
वैचारिक क्रान्ति के लिए व यथार्थ ज्ञान-विज्ञान तथा सत्य, धर्म, न्याय, मानवता, अन्धविश्वास आदि विषयों की ठीक-ठीक जानकारी प्राप्त करने हेतु तथा जीवन में उत्साह,
स्वाभिमान, शुद्धता व आत्मिक शान्ति की प्राप्ति के लिए अवश्य पढ़ें―
संसार की अद्भुत पुस्तक
सत्यार्थप्रकाश
सत्यार्थप्रकाश व ऋषि दयानन्द जी के अन्य ग्रन्थों, ऋषि-जीवन, वैदिक वाङ्गमय तथा अध्यात्म सम्बन्धित आपके प्रश्न और शंकाएँ हों तो आप whatsapp-व्यवहार द्वारा निम्न पते पर सम्पर्क कर सकते हैं। आपके प्रश्नों व शंकाओं का निवारण करने का प्रयास किया जाएगा।
94-130-20-130@upi
महापुरुषों की दृष्टी में 'सत्यार्थप्रकाश'
◆ महर्षि के सत्यार्थप्रकाश से मुझे स्वाधीनता के चिन्तन में बल व प्रेरणा मिलती है। महर्षि जी द्वारा लिखा अमरग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश हिन्दू जाति की रगों में उष्ण रक्त का संचार करने वाला है। सत्यार्थप्रकाश की विद्यमानता में कोई विधर्मी अपने मज़हब की शेखी
नहीं मार सकता।
―वीर सावरकर
◆ जितनी बार सत्यार्थपकाश को पढ़ा उतनी ही बार जीवन-जगत् के अनबूझ प्रश्नों एवं रहस्यों के लिए नई दृष्टि, चिन्तन तर्क-प्रमाण, विज्ञान-सम्मत समाधान के मोती मिले हैं। यदि सत्यार्थप्रकाश की एक प्रति का मूल्य एक हजार रुपये होता तो सारी सम्पत्ति बेचकर इसे खरीदता, यह अद्वितीय पुस्तक हर
मूल्य में सस्ती है।
―पं० गुरुदत्त विद्यार्थी
◆ सत्यार्थप्रकाश तो एक महान् ग्रन्थ है, दूसरे शब्दों में वैदिक धर्म, मतमतान्तर एवं ज्ञान-विज्ञान का
विश्व कोष है।
―पं० युधिष्ठिर मीमांसक
◆ सत्यार्थप्रकाश धार्मिक ज्ञान का भण्डार, विद्या सम्बन्धी खोज का कोष, वैदिकधर्म का जंगी मैगज़ीन है। जिसने एक बार इसे पूर्णतया समझकर पढ़ लिया, फिर सम्भव नहीं कि वह कभी वैदिक धर्म से दूर हटे। हम दावे से कह सकते हैं कि प्रत्येक मनुष्य के मस्तिष्क को सत्यार्थप्रकाश बहुत-सी नवीन बातें दिखलाता है।
सत्यार्थप्रकाश मतमतान्तरों की अविद्या में सोये हुए पुस्तकों को जगाने का काम देता हुआ उनको मतमतान्तरों के आलस्य का त्याग करा कर वेद सूर्य के दर्शन के लिए पुरुषार्थी बना देता है।
सत्यार्थप्रकाश उस मनुष्य के समान है जो एक हाथ में ओषधि की बोतल और दूसरे हाथ में रोगी के लिए आरोग्यदायक भोजन लिये खड़ा हो।
–आर्यपथिक पं० लेखराम जी
महापुरुषों की दृष्टि में महर्षि दयानन्द
◆ स्वामी दयानन्द की सबसे बड़ी देन यह थी कि उसने देश को दीनता व दल-दल में गिरने से बचाया। वास्तव में उसी ने भारतीय स्वाधीनता
की नीवं रखी।
―लोहपुरुष सरदार वल्लभ भाई पटेल
◆ ऋषि दयानन्द जाज्वल्यमान नक्षत्र थे जो भारतीय आकाश पर अपनी अलौकिक आभा से चमके और गहरी निद्रा में सोये हुए भारत को जाग्रत किया।
―लोकमान्य तिलक
◆ स्वामी दयानन्द सरस्वती उन महापुरुषों में से थे, जिन्होंने आधुनिक भारत का निर्माण किया और जो उसके आचार-सम्बन्धी पुनरुत्थान तथा धार्मिक पुनरुद्धार के उत्तरदाता हैं। हिन्दू समाज का उद्धार करने में आर्यसमाज का बहुत बड़ा हाथ है। रामकृष्ण मिशन ने बंगाल में जो कुछ किया, उससे कहीं अधिक आर्यसमाज ने पंजाब और संयुक्तप्रान्त में किया। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण न होगा कि पंजाब का प्रत्येक नेता आर्यसमाजी है। स्वामी दयानन्द को मैं एक धार्मिक और सामाजिक सुधारक तथा कर्मयोगी मानता हूँ। संगठन-कार्यों के सामर्थ्य और प्रयास की दृष्टि से आर्यसमाज अनुपम संस्था है।
―श्री सुभाषचन्द्र बोस
◆ वह दिव्य ज्ञान का सच्चा सैनिक, विश्व को प्रभु की शरण में लाने वाला योद्धा और मनुष्य व संस्थाओं का शिल्पी तथा प्रकृति द्वारा आत्मा के मार्ग में उपस्थित की जाने वाली बाधाओं का वीर विजेता था और इस प्रकार मेरे समक्ष आध्यात्मिक क्रियात्मकता की एक शक्ति-सम्पन्न मूर्ति उपस्थित होती है। इन दो शब्दों का, जो कि हमारी भावनाओं के अनुसार एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न हैं, मिश्रण ही दयानन्द की उपयुक्त परिभाषा प्रतीत होती है। उसके व्यक्तित्व की व्याख्या की जा सकती है―एक मनुष्य, जिसकी आत्मा में परमात्मा है, चर्म-चक्षुओं में दिव्य तेज है और हाथों में इतनी शक्ति है कि जीवन-तत्त्व में अभीष्ट स्वरूप वाली मूर्ति घड़ सके तथा कल्पना को क्रिया में परिणत कर सके। वे स्वयं दृढ़ चट्टान थे। उनमें दृढ़ शक्ति थी कि चट्टान पर घन चलाकर पदार्थों को सुदृढ़ व सुडौल बना सकें। प्राचीन सभ्यता में विज्ञान के गुप्त भेद विद्यमान हैं, जिनमें से कुछ को अर्वाचीन विद्याओं ने ढूंढ लिया है, उनका परिवर्तन किया है और उन्हें अधिक समृद्ध व स्पष्ट कर दिया है, किन्तु दूसरे अभी तक निगूढ़ ही बने हुए हैं। इसलिए दयानन्द की इस धारणा में कोई अवास्तविकता नहीं है कि वेदों में विज्ञान-सम्मत तथा धार्मिक सत्य निहित हैं।
वेदों का भाष्य करने के बारे में मेरा विश्वास है कि चाहे अन्तिम पूर्ण अभिप्राय कुछ भी हो, किन्तु इस बात का श्रेय दयानन्द को ही प्राप्त होगा कि उसने सर्वप्रथम वेदों की व्याख्या के लिए निर्दोष मार्ग का आविष्कार किया था। चिरकालीन अव्यवस्था और अज्ञान-परम्परा के अन्धकार में से सूक्ष्म और मर्मभेदी दृष्टि से उसी ने सत्य को खोज निकाला था। जंगली लोगों की रचना कही जाने वाली पुस्तक के भीतर उसके धर्म-पुस्तक होने का वास्तविक अनुभव उन्होंने ही किया था। ऋषि दयानन्द ने उन द्वारों की कुञ्जी प्राप्त की है, जो युगों से बन्द थे और उसने पटे हुए झरनों का मुख खोल दिया।
...ऋषि दयानन्द के नियमबद्ध कार्य ही उनके आत्मिक शरीर के पुत्र हैं, जो सुन्दर, सुदृढ़ और सजीव हैं तथा अपने कर्त्ता की प्रत्याकृति हैं। वह एक ऐसे पुरुष थे जिन्होंने स्पष्ट और पूर्ण रीति से जान लिया था कि उन्हें किस कार्य के लिए भेजा गया है। ―श्री अरविन्द घोष
◆ दयानन्द का चरित्र मेरे लिए ईर्ष्या और दुःख का विषय है।.... महर्षि दयानन्द हिन्दुस्तान के आधुनिक ऋषियों में, सुधारकों में और श्रेष्ठ पुरुषों में एक थे। उनके जीवन का प्रभाव हिन्दुस्तान पर बहुत अधिक पड़ा है।
―मोहनदास कर्मचन्द गांधी
◆ स्वामी दयानन्द मेरे गुरु हैं। मैंने संसार में केवल उन्हीं को गुरु माना है। वह मेरे धर्म के पिता हैं और आर्यसमाज मेरी धर्म की माता है। इन दोनों की गोद में मैं पला। मुझे इस बात का गर्व है कि मेरे गुरु ने मुझे स्वतन्त्रतापूर्वक विचार करना, बोलना और कर्त्तव्यपालन करना सिखाया तथा मेरी माता ने मुझे एक संस्था में बद्ध होकर नियमानुवर्तिता का पाठ दिया।
―पंजाब केसरी लाला लाजपतराय
◆ जब भारत के उत्थान का इतिहास लिखा जायेगा तो नंगे फकीर दयानन्द सरस्वती को उच्चासन पर बिठाया जायेगा।
―सर यदुनाथ सरकार
◆ ईसाइयत और पश्चिमी सभ्यता के मुख्य हमले से हिन्दुस्तानियों को सावधान करने का सेहरा यदि किसी व्यक्ति के सिर बांधने का सौभाग्य प्राप्त हो तो स्वामी दयानन्द जी की ओर इशारा किया जा सकता है। १९ वीं सदी में स्वामी दयानन्द जी ने भारत के लिए जो अमूल्य काम किया है, उससे हिन्दू जाति के साथ-साथ मुसलमानों तथा दूसरे धर्मावलम्बियों को भी बहुत लाभ पहुँचा है।―पीर मुहम्मद यूनिस
◆ स्वामी दयानन्द ही पहले व्यक्ति थे, जिन्होंने 'हिन्दुस्तान हिन्दुस्तानियों के लिए' का नारा लगाया था।...आर्यसमाज के लिए मेरे हृदय में शुभ इच्छाएँ हैं और उस महान् पुरुष के लिए, जिसका आप आर्य आदर करते हैं, मेरे हृदय में सच्ची पूजा की भावना है।
―श्रीमती ऐनी बैसेण्ट
ऋषि दयानन्द कृत ग्रन्थ–सूची
१.सत्यार्थप्रकाश २.ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका ३.संस्कारविधि ४.यजुर्वेदभाष्यम् ५.ऋग्वेद भाष्यम् ०.दयानन्द ग्रन्थमाला ६.भागवत-खण्डनम् ७.पञ्च-महायज्ञविधिः ८.वेदभाष्य के नमूने का अंक ९.वेदविरुद्धमतखण्डनः १०.वेदान्ति- ध्वान्त-निवारणम् (स्वामिनारायण-मत-खण्डन) ११. आर्याभिविनयः १२.आर्योद्देश्यरत्नमाला १३.भ्रान्ति-निवारण १४.जन्मचरित्र १५.संस्कृतवाक्यप्रबोध: १६.व्यवहारभानु १७.भ्रमोच्छेदन १८.अनुभ्रमोच्छेदन १९.गोकरुणानिधि २०. काशीशास्त्रार्थः २१.हुगली-शास्त्रार्थ २२.सत्यधर्मविचारः २३.शास्त्रार्थ-जालन्धर २४.शास्त्रार्थ-बरेली २५.शास्त्रार्थ- उदयपुर २६.शास्त्रार्थ-अजमेर २७.शास्त्रार्थ मसूदा २८. कलकत्ता-शास्त्रार्थ २९.उपदेश मञ्जरी ३०.आर्यसमाज के नियम (बम्बई) ३१.आर्यसमाज के नियमोपनियम ३२.स्वीकारपत्र
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
१. सब सत्य विद्या और जो पदार्थ-विद्या से जाने जाते हैं उन सबका आदिमूल परमेश्वर है।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
२. ईश्वर सच्चिदानन्दस्वरूप, निराकार, सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी, दयालु, अजन्मा, अनन्त, निर्विकार, अनादि, अनुपम, सर्वाधार, सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य-पवित्र और सृष्टिकर्त्ता है, उसी की उपासना करनी योग्य है।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
३. वेद सब सत्यविद्याओं का पुस्तक है। वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
४. सत्य के ग्रहण करने और असत्य के छोड़ने में सर्वदा उद्यत रहना चाहिए।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
५. सब काम धर्मानुसार, अर्थात् सत्य और असत्य को विचार करके करने चाहिएँ।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
६. संसार का उपकार करना इस समाज का मुख्य उद्देश्य है, अर्थात् शारीरिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति करना।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
७. सबसे प्रीतिपूर्वक, धर्मानुसार, यथायोग्य वर्तना चाहिए।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
८. अविद्या का नाश और विद्या की वृद्धि करनी चाहिए।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
९. प्रत्येक को अपनी ही उन्नति से सन्तुष्ट न रहना चाहिए, किन्तु सबकी उन्नति में अपनी उन्नति समझनी चाहिए।
ओ३म्
आर्यसमाज के नियम एवम् उद्देश्य
१०. सब मनुष्यों को सामाजिक सर्वहितकारी नियम पालने में परतन्त्र रहना चाहिए और प्रत्येक हितकारी नियम में सब स्वतन्त्र रहें।
सत्यार्थप्रकाश की स्मरणीय सूक्तियां/उद्धरणीय वचन
अग्निहोत्र
अग्निहोत्रादि यज्ञों से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि द्वारा आरोग्यता का होना सिद्ध है, और उससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि होती है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
आचार-अनाचार
धर्मयुक्त कामों का आचरण, सुशीलता, सत्पुरुषों का सङ्ग और सद्विद्या के ग्रहण में रुचि आदि 'आचार' और इनसे विपरीत 'अनाचार' कहाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
आचार-अनाचार
जो सत्यभाषणादि कर्मों का आचरण करना है, वही वेद और स्मृति में कहा हुआ 'आचार' है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
आत्महत्या
'आत्महत्या' अर्थात् आत्मा को दुःख देना।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
आत्मा में प्रेरणा परमात्मा की ओर से
जब आत्मा मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता अथवा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात के करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है, उस समय जीव के इच्छा-ज्ञान-आदि, उसी इच्छित विषय पर झुक जाते हैं। उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शङ्का और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निःशङ्कता और आनन्दोत्साह उठता है। वह जीवात्मा की ओर से नहीं, किन्तु परमात्मा की ओर से है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ७
आत्मा में प्रेरणा परमात्मा की ओर से
पाप में भय, शंका, लज्जा और पुण्य में निर्भय, उत्साह और प्रसन्नता की रहनेवाली बुद्धि होती है, वह ईश्वर की ओर से है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
आपस की फूट
आपस की फूट से कौरवों, पाण्डवों और यादवों का सत्यानाश हो गया, सो तो हो गया; परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है। न जाने यह भयङ्कर राक्षस कभी छूटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःखसागर
में डुबा मारेगा?
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
आर्यसमाज
जैसा आर्यसमाज आर्यावर्त देश की उन्नति का कारण है, वैसा दूसरा नहीं हो सकता। यदि इस समाज को यथावत् उन्नति देवें तो बहुत अच्छी बात है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
आर्यसमाज
जो उन्नति करना चाहो तो 'आर्यसमाज' के साथ मिलकर उसके उद्देश्यानुसार आचरण करना स्वीकार कीजिये, नहीं तो कुछ हाथ न लगेगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
आर्यावर्त
यह आर्यावर्त देश ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
आर्यावर्त
यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्यावर्त देश से ही प्रचरित
हुए हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
ईश्वर-उपासना
न्यून-से-न्यून एक घण्टा पर्यन्त ध्यान अवश्य करे। जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं, वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
ईश्वर-उपासना
मन में ‘ओ३म्’ इसका जप करता जाय। इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता
होती है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
ईश्वर-उपासना
जो उपासना का आरम्भ करना चाहै, उसके लिये यही आरम्भ है कि वह किसी से वैर न रक्खे, सर्वदा प्रीति करे; सत्य बोले, मिथ्या न बोले; चोरी न करे, सत्यव्यवहार करे; जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो; और निरभिमानी हो, अभिमान कभी न करे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ७
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
सब मनुष्यों को योग्य है कि परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें, उससे भिन्न की कभी
न करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० १
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
छोटे धार्मिक विद्वानों से लेकर परम विद्वान् योगियों के संग से सद्विद्या और सत्यभाषणादि परमेश्वर की प्राप्ति की सीढ़ियाँ हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
जब परमेश्वर को मनुष्य भूल जाता है, तभी वह एकान्त पाकर अपराध कर लेता है कि यहाँ मुझको कोई नहीं देखता। जो मूर्त्ति को न मान परमेश्वर को व्यापक माने तो वह उसके डर से कि मुझको परमेश्वर देखता है, पाप न करे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
जब शुद्धात्मा-शुद्धान्तःकरण से युक्त योगी, समाधिस्थ होकर, आत्मा और परमात्मा का विचार करने में तत्पर रहता है, तब उसको उसी समय दोनों
प्रत्यक्ष होते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ७
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
परमेश्वर पवित्र और धार्मिक होने से किसी जीव को पाप करने में प्रेरणा नहीं करता।
सत्यार्थप्रकाश समु० ७
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
परमेश्वर भी सबके उपकार करने की प्रार्थना में सहायक होता है, हानिकारक कर्म में
नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ७
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यन्त श्रेष्ठ है, उसको परमेश्वर कहते हैं; जिसके तुल्य न कोई हुआ, न है, और न होगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० १
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
जिस पदार्थ का स्वरूप एकदेशी है उसके गुण, कर्म, स्वभाव भी एकदेशी होते हैं, जो ऐसा है, तो वह ईश्वर नहीं हो सकता; क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक, अनन्त गुण-कर्म-स्वभावयुक्त, सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव, अनादि, अनन्तादि लक्षणयुक्त वेदों में कहा है, उसी को मानो तभी तुम्हारा कल्याण होगा, अन्यथा नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
ईश्वर का स्वभाव और ईश्वर ही उपासनीय
जो अनेक स्त्रियों को रक्खे वह ईश्वर का भक्त वा पैग़म्बर कैसे हो सके?
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
कर्मफल
जो कोई अच्छा काम करेगा, सुख पावेगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
कर्मफल
किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
कर्मफल
किसी का किया हुआ पाप किसी के पास नहीं जाता, किन्तु जो करता है वही भोगता है; यही ईश्वर का न्याय है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
कर्मफल
जो जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही फल पाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १
कर्मफल
कर्म करने में जीव स्वतन्त्र और पाप के दुःख रूप फल भोगने में परतन्त्र होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ७
कर्मफल
जीव कर्म करने में स्वतन्त्र, परन्तु कर्मों के फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ८
कर्मफल
जीव जिस शुभ वा अशुभ कर्म को करता है उसके सुख-दुःख को, मन से किये को मन से, वाणी से किये को वाणी से और शरीर से किये को शरीर से भोगता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ९
कर्मफल
सब जीव स्वभाव से सुखप्राप्ति की इच्छा करते हैं और दुःख का वियोग होना चाहते हैं; परन्तु जब-तक धर्म नहीं करते और पाप नहीं छोड़ते, तब-तक उनको सुख का मिलना और दुःख का छूटना न होगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० ९
कर्मफल
जब पाप बढ़ जाता, पुण्य न्यून होता है तब मनुष्य के जीव को पश्वादि नीच शरीर, और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है तब 'देव' अर्थात् विद्वान् का शरीर मिलता है। और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्य-जन्म होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ९
खाने-पीने में धर्म नहीं
देखो, वैद्य और औषध की आवश्यकता रोगी के लिये है, नीरोग के लिये नहीं। विद्यावान् नीरोग और विद्यारहित अविद्यारोग से ग्रस्त रहता है। उस रोग को छुड़ाने के लिये सत्यविद्या और सत्योपदेश है। उनको अविद्या से यह रोग है कि खाने-पीने में ही धर्म रहता और जाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
खाने-पीने में धर्म नहीं
भूखा-प्यासा रहना आदि धर्म नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
खाने-पीने में धर्म नहीं
दुःख पाप का फल है। इससे भूखा मरना पाप है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
खाने-पीने में धर्म नहीं
जो भूख में नहीं खाते और जो विना भूख के भोजन करते हैं, वे दोनों रोगसागर में गोते खा दुःख पाते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
खाने-पीने में धर्म नहीं
गर्भवती वा सद्योविवाहिता स्त्री, लड़कों वा युवा पुरुषों को तो कभी उपवास न करना चाहिये, परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो, क्षुधा न लगे, उस दिन शर्करावत् (शर्बत) वा दूध पीकर रहना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
ग्रहों का फल नहीं
जब तक तुम्हारे (अर्थात् पोपों के) चरण राजा, रईस, सेठ, साहूकार और दरिद्रों के पास नहीं पहुँचते, तब तक किसी को ग्रह का स्मरण भी नहीं होता। जब तुम साक्षात् सूर्य-शनैश्चरादि मूर्त्तिमान् क्रूर रूप धर उन पर जा चढ़ते हो, तब विना ग्रहण किये उनको कभी नहीं छोड़ते। और जो कोई तुम्हारे ग्रास में न आवे, उसकी निन्दा 'नास्तिक' आदि शब्दों से करते फिरते हो।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
ग्रहों का फल नहीं
कर्म की गति सच्ची है, और ग्रहों की गति सुख-दुःख भोग में कारण नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
छूतछात अज्ञान है
जो आजकल छूतछात और उससे धर्म नष्ट होने की शङ्का है, वह केवल मूर्खों के बहकाने और अज्ञान बढ़ने से है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
जीव का सामर्थ्य सीमित
जीव को जब शरीर प्राप्त होता है, तभी कुछ कर सकता है और ज्ञान का सामर्थ्य बढा सकता है, अन्यथा नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
जीव का सामर्थ्य सीमित
(जीव) जितना सामर्थ्य बढ़ना उचित है, उतना योग से बढ़ा सकता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
जीव का सामर्थ्य सीमित
जीव चाहै जैसा अपना ज्ञान और सामर्थ्य बढ़ावे, तो भी उसमें परिमितज्ञान और समीम सामर्थ्य रहेगा। ईश्वर के समान कभी नहीं हो सकता।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
तप
वेदादि सत्यविद्याओं का पढ़ना-पढ़ाना, वेदानुसार आचरण करना आदि उत्तम धर्मयुक्त कर्मों का नाम 'तप' है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
तीर्थ
जो जल-स्थलमय हैं, वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते;.......मनुष्य जिनको करके दुःखों से तरें, उनका नाम 'तीर्थ' है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
धर्म-अधर्म
'धर्म' तो न्यायाचरण, ब्रह्मचर्य, सत्यभाषणादि है और असत्यभाषण अन्यायाचरणादि 'पाप' है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
धर्म-अधर्म
वेदविरुद्ध को न मानना, किन्तु वेदानुकूल का ही आचरण करना धर्म है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
धर्म-अधर्म
परोपकार करना धर्म और परहानि करना अधर्म कहाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
धर्म-अधर्म
जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है, उसी का नाम ‘धर्म’ और उससे विपरीत जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहणरूप कर्म है, उसी को ‘अधर्म’ कहते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु०
धर्म-अधर्म
धर्म एक होता है वा अनेक? जो कहो अनेक होते हैं, तो एक-दूसरे से विरुद्ध होते हैं वा अविरुद्ध? जो कहो विरुद्ध होते हैं तो एक के विना दूसरा धर्म नहीं हो सकता, और जो कहो अविरुद्ध हैं तो पृथक्-पृथक् होना व्यर्थ है। इसलिये धर्म और अधर्म एक-एक ही हैं,
अनेक नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
धर्म-अधर्म
जैसे जड़-काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
धर्म-अधर्म
जो कोई दुःख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहे, वह अधर्म को छोड़, धर्म अवश्य करे; क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का 'धर्माचरण' मूल कारण है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ९
धर्म-अधर्म
सब जीव धर्म का आचरण करके और अधर्म को छोड़के परमानन्द को प्राप्त हों और दुःखों से पृथक् रहैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १
धर्म-अधर्म
दुःख अज्ञान और अधर्माचरण से होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
धर्म-अधर्म
जो धार्मिक हैं वे सुख और जो पापी हैं वे दुखः सब मतों में पावेंगे
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
धर्म-अधर्म
धर्मात्मा और अधर्मात्मा सदा रहते हैं, वे तो रहें, परन्तु धर्मात्मा अधिक होने और अधर्मी न्यून होने से संसार में सुख बढ़ता है और जब अधर्मी अधिक होते हैं तब दुःख।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
धर्म-अधर्म
धर्म किसी को किसी अवस्था में भी न छोड़ना चाहिये, चाहे कुछ भी हो जाय।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
नामस्मरण
परमेश्वर के नामों का अर्थ जानकर परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल अपने गुण-कर्मस्वभाव को करते जाना ही परमेश्वर का नामस्मरण है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
नास्तिक
नास्तिक वह होता है, जो वेद और ईश्वर की आज्ञा को न माने और वेदविरुद्ध पोपलीला चलावे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
नास्तिक
जो ग्रन्थ वेद से विरुद्ध हैं उनका प्रमाण करना, जानो 'नास्तिक' होना है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
पति-पत्नी, परिवार
स्त्री का पूजनीय देव पति और पुरुष की पूजनीय अर्थात् सत्कार करने योग्य देवी स्त्री है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
पति-पत्नी, परिवार
स्त्री वा पुरुष पारस्परिक प्रसन्नता के विना कोई भी व्यवहार न करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
पति-पत्नी, परिवार
जैसे स्त्री के साथ पुरुष प्रेम करे वैसे ही स्त्री भी पुरुष के साथ प्रेम करे।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
पति-पत्नी, परिवार
यह बड़े अन्याय की बात है कि स्त्री घर में क़ैद के समान रहे और पुरुष खुल्ले रहें।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
पति-पत्नी, परिवार
वह कुल धन्य! वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्! जिसके माता और पिता धार्मिक और विद्वान् हों।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
पति-पत्नी, परिवार
मा, बाप, भाई और मित्र......जो वे बुरा उपदेश करें, तो उसको न मानना; परन्तु उनकी सेवा सदा करनी चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
पति-पत्नी, परिवार
जिस-जिस उत्तम कर्म के लिये माता, पिता और आचार्य आज्ञा देवें, उस-उसका पालन करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
पति-पत्नी, परिवार
माता, पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा करना 'देवपूजा' कहाती है।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
पति-पत्नी, परिवार
अपने माता, पिता, सास, श्वशुर की अत्यन्त शुश्रूषा किया करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
पोप और पाखण्ड
श्राद्ध, तर्पण, पिण्डप्रदान उन मरे हुये जीवों को तो नहीं पहुँचता, किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोप जी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
पोप और पाखण्ड
जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं, वह तो पोप जी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुँचता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
पोप और पाखण्ड
पोप को दया से क्या काम? 'कोई जीवो वा मरो, पोप जी का पेट पूरा भरो।'
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
प्रार्थना-पश्चात्ताप
यह भी तुम्हारा दोष है कि जो पश्चात्ताप और प्रार्थना से पापों की निवृत्ति मानते हो। इसी बात से जगत् में बहुत-से पाप बढ़ गये हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
प्रार्थना-पश्चात्ताप
पश्चात्ताप वा प्रार्थना से पाप चाहे जितने हों, छूट जायेंगे; ऐसी बातों से धर्म की हानि और पाप-कर्मों की वृद्धि होती है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
प्रार्थना-पश्चात्ताप
आगामी पाप छुड़वाने के लिये किसी से प्रार्थना और स्वयं छोड़ने के लिये पुरुषार्थ, पश्चात्ताप करना उचित है; परन्तु केवल पश्चात्ताप करता रहे, छोड़े नहीं, तो भी कुछ नहीं हो सकता।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
ब्रह्मचारी और गुरुकुलवास
जिस हेतु से 'ब्रह्मचारी' नाम होता है, उस 'ब्रह्म' अर्थात् वेद पढ़ने में परिश्रम कुछ भी नहीं करते। वे ब्रह्मचारी बकरी के गले के स्तन के सदृश
निरर्थक हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
ब्रह्मचारी और गुरुकुलवास
जब तक गुरुकुल में रहैं, तब तक माता-पिता के समान अध्यापकों को समझें और अध्यापक अपने सन्तानों के समान शिष्यों को समझें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
भक्ष्य-अभक्ष्य
जितना हिंसा और चोरी, विश्वासघात, छल आदि से पदार्थों को प्राप्त करके भोग करना है, वह 'अभक्ष्य', और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त करके भोजनादि करना 'भक्ष्य' है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
भक्ष्य-अभक्ष्य
सज्जन लोगों को मद्य के पीने का नाम भी न लेना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
भक्ष्य-अभक्ष्य
जितनी क्षुधा हो, उससे कुछ न्यून भोजन करें। मद्य, मांसादि के सेवन से अलग रहैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
मत-मतान्तर आदि का अध्ययन
सब मनुष्यों को उचित है कि सबके मतविषयक पुस्तकों को देख-समझकर कुछ सम्मति वा असम्मति देवें वा लिखें, नहीं तो सुना करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
मत-मतान्तर आदि का अध्ययन
हमारे आर्य सज्जन लोग इतिहास और विद्या-पुस्तकों की खोज कर प्रकाश करेंगे तो देश को बड़ा ही लाभ पहुँचेगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
महापुरुष
महापुरुष तो बड़े उत्तम, धर्मयुक्त
पुरुषार्थ से होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
सन्त
'सन्त' सज्जन, विद्वान्, धार्मिक, परोपकारी पुरुषों को कहते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
साधु
जो धर्मयुक्त उत्तम काम करे, सदा परोपकार में प्रवृत्त हो, कोई दुर्गुण जिसमें न हो, विद्वान् हो, सत्योपदेश से सबका उपकार करे, उसको ‘साधु' कहते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
मिथ्या गुरु
जिनमें विद्यादि सद्गुणों का 'गुरुत्व' नहीं है, झूठ-मूठ कण्ठी-तिलक धारण, वेदविरुद्ध मन्त्रोपदेश करनेवाले हैं, वे गुरु ही नहीं, किन्तु गडरिये जैसे हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
मुक्ति के साधन
धर्मादि आचरण ही मुक्ति के साधन हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
मुक्ति के साधन
जो जीव, परमेश्वर की आज्ञा का पालन, उत्तम कर्म, सत्सङ्ग, योगाभ्यास, पूर्वोक्त सब साधन करता है, वही मुक्ति को पाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ९
मुक्ति के साधन
उत्तम कर्मादि करने से मनुष्यों में उत्तम जन्म और मुक्ति में महाकल्प पर्यन्त जन्म-मरण-दुःखों से रहित होकर आनन्द में रहता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ९
मुक्ति के साधन
धर्मयुक्त सत्य-भाषणादि कर्म करना और मिथ्याभाषणादि अधर्म को छोड़ देना मुक्ति का
साधन है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ९
मुक्ति के साधन
जो वेदों को पढ़के, धर्मात्मा, योगी होकर उस ब्रह्म को जानते हैं, वे सब परमेश्वर में स्थित होके, मुक्तिरूपी परमानन्द को
प्राप्त होते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
मुक्ति के साधन
जल, स्थल और पाषाणादि मूर्त्तियों से पापक्षय और मुक्ति कभी नहीं होती।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
मुक्ति के साधन
जैसे संसार में एक प्रधान, दूसरा अप्रधान होता है वैसे मुक्ति में नहीं, किन्तु सब मुक्त जीव एक-से रहते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
मुक्ति के साधन
जो पुरुष विद्वान्, ज्ञानी, धार्मिक, सत्पुरुषों का संगी, योगी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय, सुशील होता है, वही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होकर इस जन्म और परजन्म में सदा आनन्द में रहता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
मूर्तिपूजा व्यर्थ
सब मतों की मूर्त्तिपूजा व्यर्थ है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
मूर्तिपूजा व्यर्थ
किसी जड़ पदार्थ के सामने शिर झुकाना वा उसकी पूजा करना,
सब मूर्त्तिपूजा है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
मूर्तिपूजा व्यर्थ
मूर्त्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिरकर मनुष्य चकनाचूर हो जाता है। पुनः उस खाई से निकल नहीं सकता, किन्तु उसी में
मर जाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
मूर्तिपूजा व्यर्थ
जड़ का ध्यान करनेवाले का आत्मा भी जड़बुद्धि होता है, क्योंकि ध्येय का जड़त्व-धर्म अन्तःकरण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
मूर्तिपूजा व्यर्थ
वेदों में पाषाणादि मूर्त्तिपूजा और परमेश्वर के आवाहन-विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
मूर्तिपूजा व्यर्थ
आर्यावर्त की प्रतिदिन महाहानि, पाषाणादि-मूर्त्तिपूजकों का पराजय इन्हीं कर्मों से होता है; क्योंकि पाप का फल दुःख है। इन्हीं पाषाणादि-मूर्त्तियों के विश्वास से बहुत-सी हानि हो गई, जो न छोड़ेंगे तो प्रतिदिन अधिक-अधिक होती जायगी।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
राजाओं का 'प्रजा का पालन ही करना
ही' परमधर्म है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
(राजा) प्रजा को अपने सन्तान के सदृश सुख देवे और प्रजा अपने पिता सदृश राजा और राजपुरुषों को जाने।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जो सभापतिरूप राजा आदि प्रधान पुरुष हैं वे सब और सभा, वेदानुकूल होकर प्रजा के साथ पिता के समान वर्तें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
यही राजा का सन्ध्योपासनादि कर्म है जो रात-दिन राज्यकार्य में प्रवृत्त रहना और कोई राज्य का काम बिगड़ने न देना।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
परमात्मा की इस सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान् लोगों का राज्य बहुत दिन नहीं चलता।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
मुख्य सेनापति, मुख्य राज्याधिकारी, मुख्य न्यायाधीश, प्रधान अर्थात् राजा, ये चारों सब विद्याओं में पूर्ण विद्वान् होने चाहियें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
विद्यासभा, धर्मसभा और राज्यसभा में मूर्खों की कभी भरती न करें; किन्तु सदा विद्वान् और धार्मिक पुरुषों का स्थापन करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जब तक मनुष्य धार्मिक रहते हैं तभी तक राज्य बढ़ता रहता है और जब दुष्टाचारी होते हैं तब नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
किसी एक को राज्य में स्वाधीन न करना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
किसी एक को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार न देना चाहिये किन्तु राजा जो सभापति, तदधीन सभा, सभाधीन राजा, राजा और सभा प्रजा के आधीन, और प्रजा राजसभा के आधीन रहै।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जिन नियमों से राजा और प्रजा की उन्नति हो, वैसे-वैसे नियम और विद्या प्रकाशित किया करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जो धन (कर) लेवे तो भी उस प्रकार लेवे कि जिससे किसान आदि खाने-पीने और धन से रहित होकर दुःख न पावें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जो कोई युद्ध में मर गया हो, उसकी स्त्री और सन्तान को उसका भाग देवे और उसकी स्त्री तथा असमर्थ लड़कों का यथावत् पालन करे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
राजा और राजसभा, बढ़े हुए धन को वेदविद्या, धर्म के प्रचार, विद्यार्थीयों, वेदमार्गोपदेशकों असमर्थों तथा अनाथों के पालन में लगावे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
यह बात ठीक है कि राजाओं के राजा किसान आदि परिश्रम करनेवाले हैं और राजा उनका रक्षक है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जब राजा न्यायासन पर बैठकर न्याय करे तब किसी का पक्षपात न करे किन्तु यथायोग्यत दण्ड देवे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
शीघ्र न्याय करना न्यायाधीश का उत्तम काम है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जो न्याय को छोड़के अन्याय को करे, तो अन्यायकारी हुआ, अन्यायकारी ही पापी कहाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
न्याय उसी को कहते हैं कि जिसने जैसा वा जितना कर्म किया उसको वैसा और उतना ही फल देना। उससे अधिक-न्यून देना अन्याय है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
विना अपराध किसी को दण्ड देना अन्यायकारी की बात है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
धर्मात्माओं को सुख और अधर्मियों को दुःख उनके कर्मों के अनुसार सदैव देना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जिनका अपराध हो उनको दण्ड और जिनका गुण हो उनकी प्रतिष्ठा सदा किया करे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
दुष्टों को यथावत् दण्ड देने और श्रेष्ठों के पालन करने में दया, और इससे विपरीत करने में दया-क्षमारूप धर्म
का नाश है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
एक दुष्ट पर दया और क्षमा करने से वह अधिक दुष्टता करेगा और बहुत धर्मात्माओं को दुःख पहुँचावेगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
यदि किञ्चित् भी अपराध क्षमा किया जावे, तो अपराध ही अपराध जगत्
में छा जावे।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
न्याय तो वेद और 'मनुस्मृति' का देखो जिसमें क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता और अपने-अपने कर्मानुसार दण्ड वा प्रतिष्ठा सदा पाते रहते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
राजा और राज्यव्यवस्था तथा दण्डव्यवस्था
जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दण्ड हो, उसी अपराध में राजा को सहस्र पैसा दण्ड होवे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
जिस-जिस पुरुष में जिस-जिस वर्ण के गुण-कर्म हों, उसको उस-उस वर्ण का अधिकार देना।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
गुण-कर्मों से वर्णों की व्यवस्था कन्याओं की सोलहवें वर्ष और पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करनी चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो, वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
जो ब्राह्मण नहीं हों उनका न 'ब्राह्मण' नाम और न उनकी सेवा करनी योग्य है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
जो उत्तम विद्या-स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख=अशिक्षित शूद्र के योग्य होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
वर्णव्यवस्था गुण-कर्म के आधीन
होनी चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
उनके गुण, कर्म, स्वभाव से पूर्वोक्तानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि वर्णों की परीक्षापूर्वक व्यवस्था करनी राजा और विद्वानों का काम है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
जो सब वर्णों में पूर्ण विद्वान्, धार्मिक, परोपकारप्रिय मनुष्य है, उसी का 'ब्राह्मण' नाम है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
पूर्ण विद्यावाले धार्मिकों का नाम 'ब्राह्मण' है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
मा-बाप ब्राह्मणी-ब्राह्मण होने से और किसी साधु के शिष्य होने पर ब्राह्मण वा साधु नहीं हो सकते, किन्तु ब्राह्मण और साधु अपने उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से होते हैं, जो कि परोपकारी हों।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
जो-जो कपट-छल की लीला करते हैं, वे ही 'पोप' कहाते हैं; जो उनमें भी धार्मिक विद्वान्, परोपकारी हैं, वे सच्चे ब्राह्मण और साधु हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
क्या परमेश्वर शूद्रों का भला करना नहीं चाहता? क्या ईश्वर पक्षपाती है कि वेदों के पढ़ने-सुनने का शूद्रों के लिये निषेध और द्विजों के लिये विधि करे?
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वर्णव्यवस्था कर्मानुसार और शूद्र निम्न नहीं
जो दुष्ट कर्मकारी द्विज को श्रेष्ठ, और श्रेष्ठ कर्मकारी शूद्र को नीच मानें तो इससे परे पक्षपात, अन्याय, अधर्म दूसरा अधिक कौन-सा होगा?
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
वर्ण परस्पर प्रीतिपूर्वक रहें
चारों वर्ण परस्पर प्रीति, उपकार, सज्जनता, सुख-दुःख, हानि-लाभ में ऐकमत्य रहकर राज्य और प्रजा की उन्नति में तन-मन-धन व्यय करते रहैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
मनुष्य का नेत्र विद्या ही है। विना विद्या-शिक्षा के ज्ञान
नहीं होता।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
सुशिक्षा के विना मनुष्य पशु के
समान रहता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
जब सब वर्णों में विद्या-सुशिक्षा होती है, तब कोई भी पाखण्डरूप, अधर्मयुक्त मिथ्या-व्यवहार को नहीं चला सकता।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाते हैं, वही मनुष्य और विद्वान् होते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
जैसे पढ़ने से 'पण्डित' होता है, वैसे सुनने से 'बहुश्रुत' होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि ‘एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना।’
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिये पढ़ना चाहिये कि वे बड़े विद्वान्, सर्वशास्त्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात् जो अल्प-शास्त्र पढ़े हैं और जिनका आत्मा पक्षपातसहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी वैसे ही हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभाव-रूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
यही माता-पिता का कर्त्तव्यकर्म, परमधर्म और कीर्त्ति का काम है कि जो अपने सन्तानों को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त करना।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
वे माता और पिता अपने सन्तानों के पूर्ण शत्रु हैं जिन्होंने उनको विद्या की प्राप्ति न कराई।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
जिसको शङ्का, कुसङ्ग, कुसंस्कार होता है, उसको भय और शङ्कारूप भूत, प्रेत, शाकिनी, डाकिनी आदि अनेक भ्रमजाल
दुःखदायक होते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
बालकों को माता सदा उत्तम शिक्षा करे, जिससे सन्तान सभ्य हो।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे, तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
माता, पिता, आचार्य अपने सन्तानों और शिष्यों को सदा सत्य उपदेश करें और यह भी कहें कि ‘जो-जो हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं, उन-उनका ग्रहण करो और जो-जो दुष्ट कर्म हों, उन-उनका त्याग कर
दिया करो।’
सत्यार्थप्रकाश समु० २
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य, विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है, वही देश सौभाग्यवान् होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
इसलिये वे ही धन्य और कृतकृत्य हैं कि जो ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षा और विद्या से अपने सन्तानों के शरीर और आत्मा के पूर्ण बल को बढ़ावें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
विद्या, शिक्षा का महत्त्व और अनिवार्यता
राजा की आज्ञा से आठ वर्ष के पश्चात् लड़का वा लड़की किसी के घर में न रहने पावे, किन्तु वे आचार्यकुल में रहैं। जब तक समावर्तन का समय न आवे, तब तक विवाह न होने पावें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
विद्वानों का कर्त्तव्य
विद्वानों और आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें।
सत्यार्थप्रकाश भूमिका
विद्वानों का कर्त्तव्य
जब तक वादी-प्रतिवादी होकर प्रीति से वाद वा लेख न किया जाय तब तक सत्यासत्य का निर्णय नहीं हो सकता।.......इसलिये सत्य के जय और असत्य के क्षय के अर्थ मित्रता से वाद वा लेख करना हमारी मनुष्य जाति का मुख्य काम है। यदि ऐसा न हो तो मनुष्यों की उन्नति कभी न हो।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
विद्वानों का कर्त्तव्य
जो विद्वान् होता है वह सत्य और असत्य की परीक्षा करके, सत्य को ग्रहण कर लेता है और असत्य को छोड़ देता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
विद्वानों का कर्त्तव्य
एक मनुष्य-जाति में बहकाकर, विरोध-बुद्धि कराके, एक-दूसरे को शत्रु बना, लड़ा मारना विद्वानों के स्वभाव से बहिः है।
सत्यार्थप्रकाश भूमिका
विद्वानों का कर्त्तव्य
विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर, अनेकविध दुःखों की वृद्धि और सुखों की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डुबा दिया है।
सत्यार्थप्रकाश भूमिका
विद्वानों का कर्त्तव्य
धार्मिक, सब देश के उपकारकर्त्ता, निष्कपटता से सबको विद्या पढ़ानेवाले, उत्तम विद्वान् लोगों का प्रत्युपकार करना चाहिये, जैसा कि वे जगत् का उपकार करते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
विवाह
जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो, उसी कन्या से वर का विवाह होना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
विवाह
बाल्यावस्था में विवाह से जितना पुरुष का नाश होता है उससे अधिक स्त्री
का नाश होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
विवाह
लड़के-लड़की के आधीन विवाह होना उत्तम है। जो माता-पिता विवाह करना कभी विचारें, तो भी लड़के-लड़की की प्रसन्नता के विना न होना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
वेद और वेदाधिकार
वेदादिक को माने विना तुम अपने वचनों की सत्यता-असत्यता की परीक्षा और आर्यावर्त की उन्नति भी कभी कर सकते हो?
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वेद और वेदाधिकार
इसलिये वेदादि-विद्या का पढ़ना और सत्संग करना होता है, जिससे कोई उसको ठगाई में न फसा सके, और औरों को भी बचा सके।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वेद और वेदाधिकार
यह सच है कि विना वेदों के यथार्थ अर्थबोध के मुक्ति के स्वरूप को कभी नहीं जान सकते।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
वेद और वेदाधिकार
जो अविद्यादि दोषों से छुटना चाहो, तो वेदादि सत्यशास्त्रों का आश्रय ले लो। क्यों भ्रम में पड़े-पड़े ठोकरें खाते हो?
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
वेद और वेदाधिकार
वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है, इससे विरुद्ध जितने तन्त्र और पुराण हैं, वे वेदविरुद्ध होने से झूठे हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वेद और वेदाधिकार
जो वेदों से विरुद्ध है उसका प्रमाण और अनुकूल का अप्रमाण नहीं हो सकता।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वेद और वेदाधिकार
परमेश्वर ने सृष्टिस्थ सब देशस्थ मनुष्यों पर न्यायदृष्टि से सब देशभाषाओं से विलक्षण संस्कृत-भाषा कि जो सब देशवालों के लिये एक-से परिश्रम से विदित होती है, उसी में वेदों का प्रकाश किया है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
वेद और वेदाधिकार
जो-जो वेदविरुद्ध प्रतीत हो, उस-उस को छोड़ देना; क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रान्त, स्वतःप्रमाण है अर्थात् वेद का प्रमाण वेद से ही होता है। ब्राह्मणादि सब ग्रन्थ परत:प्रमाण अर्थात् इनका प्रमाण वेदाधीन है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वेद और वेदाधिकार
सब दानों से ‘वेदविद्या’ का दान
अतिश्रेष्ठ है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वेद और वेदाधिकार
वेदों के पढ़ने-सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वेद और वेदाधिकार
परमात्मा ने जैसे पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिये बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिये प्रकाशित किये हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वेद और वेदाधिकार
सब स्त्रियों और पुरुषों अर्थात् मनुष्यमात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वेद और वेदाधिकार
सब वर्णों के स्त्री-पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वेद और वेदाधिकार
स्त्रियों को भी ब्रह्मचर्य और विद्या का ग्रहण अवश्य करना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वेद और वेदाधिकार
जो स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वेदमत
अच्छा तो वेदमार्ग है, जो पकड़ा जाय तो पकड़ो, नहीं तो सदा गोते खाते रहोगे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वेदमत
यदि तुमको सत्य मत-ग्रहण की इच्छा हो, तो वैदिक मत को
ग्रहण करो।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
वेदमत
वेद-मत सबका उद्धार करनेहारा है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
वेदमत
हमारा मत वेद है; ऐसा ही मानकर सब मनुष्यों को, विशेषतः आर्यों को, ऐकमत्य
होकर रहना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
वेदमत
कोई किसी से पूछे कि तुम्हारा मत क्या है, तो यही उत्तर देना कि हमारा मत 'वेद' है अर्थात् जो कुछ वेदों में कहा है, हम उस
सबको मानते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ७
वेदमत
यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेद-मत से भिन्न दूसरा कोई भी मत न था।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वेदमत
तुमको उचित है कि वेदमत को मानो और मिथ्या प्रपञ्चादि बुराइयों को छोड़ो, जिससे इस लोक और परलोक की शुद्धि होकर आनन्द पाओ।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
वेदमत
जो हम लोग वैदिक हैं वैसे ही तुम भी वैदिक हो जाओ, तो बुतपरस्ती आदि बुराइयों से बच सको, अन्यथा नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
वेदमत
प्रकल्पित मतों को छोड़कर वेदोक्त मत सब मनुष्यों के लिये स्वीकार करने योग्य है कि जिसमें आर्य मार्ग अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों के मार्ग में चलना और दस्यु अर्थात् दुष्टों के मार्ग से अलग रहना लिखा है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
व्यसन
दुष्ट व्यसन में फसने से मर जाना
अच्छा है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
शिल्पी देवता
'देव' मानो तो उन्हीं कारीगरों को मानो कि जिन शिल्पियों ने मन्दिर बनाया। (पत्थर की मूर्तियां 'देव' नहीं हैं)
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
श्रीकृष्ण
देखो, श्री कृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है; उनका गुण, कर्म, स्वभाव, चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है; जिसमें, श्री कृष्ण ने जन्म से मरणपर्यन्त कोई अधर्म का आचरण कुछ भी किया हो,
ऐसा नहीं लिखा।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
श्रीकृष्ण
जो यह 'भागवत' न होता तो श्री कृष्ण जी के सदृश महात्माओं की झूठी
निन्दा क्यों होती?
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
श्रीकृष्ण
श्री कृष्ण का देहान्त हुए कुछ कम
पाँच सहस्र वर्ष बीते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
श्रेष्ठ मनुष्य
श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो अपने गुण, कर्म, स्वभाव और सत्य-सत्य व्यवहारों में
सबसे अधिक हो।
सत्यार्थप्रकाश समु० १
श्रेष्ठ मनुष्य
जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है, वही ‘मनुष्य’ कहाता है। और जो स्वार्थवश होकर परहानि-मात्र करता रहता है, वह जानो ‘पशुओं का बड़ा भाई’ है।
सत्यार्थप्रकाश भूमिका
श्रेष्ठ मनुष्य
बहुत मनुष्य ऐसे हैं जिनको अपने दोष तो नहीं दीखते, किन्तु दूसरों के दोष देखने में अति-उद्युक्त रहते हैं, यह न्याय की बात नहीं; क्योंकि प्रथम अपने दोष देख, निकालके, पश्चात् दूसरे के दोषों में दृष्टि देके निकालें।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
श्रेष्ठ मनुष्य
यही सज्जनों की रीति है कि अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें और हठियों का हठ-दुराग्रह न्यून करें-करावें।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
श्रेष्ठ मनुष्य
जब तक मनुष्य दूसरे से अपने दोष नहीं सुनता वा कहनेवाला नहीं कहता तब तक मनुष्य दोषों से छूटकर, गुणी नहीं होता।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
श्रेष्ठ मनुष्य
जो कोई पक्षपातरूप यानारूढ़ होके देखते हैं, उनको न अपने, न पराये गुण-दोष विदित हो सकते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
श्रेष्ठ मनुष्य
सज्जन पुरुष सज्जनों के साथ प्रेम और दुष्टों को शिक्षा देकर सुशिक्षित करते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
श्रेष्ठ मनुष्य
जो परमार्थी लोग हैं, वे आप दुःख पावें तो भी जगत् का उपकार करना नहीं छोड़ते।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
श्रेष्ठ मनुष्य
जिस-जिस कर्म से जगत् का उपकार हो, वह-वह कर्म करना और हानिकारक छोड़ देना ही मनुष्य का मुख्य कर्म है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
श्रेष्ठ मनुष्य
परमात्मा सब मनुष्यों पर कृपा करे कि सब सबसे प्रीति, परस्पर मेल और एक दूसरे के सुख की उन्नति करने में प्रवृत्त हों।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
श्रेष्ठ मनुष्य
सर्वहित करने के लिये परतन्त्र और धर्मयुक्त कामों में जो-जो निज के काम हैं, उन-उन में स्वतन्त्र रहैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ६
श्रेष्ठ मनुष्य
जैसे परमेश्वर ने सब प्राणियों के सुख के अर्थ इस सब जगत् के पदार्थ रचे हैं, वैसे मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ३
श्रेष्ठ मनुष्य
एक-दूसरे की हानि करने से पृथक् रह परस्पर को लाभ पहुँचाना, हमारा
मुख्य कर्म है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
श्रेष्ठ मनुष्य
सबसे प्रीतिपूर्वक परोपकारार्थ वर्तना
'शुभ चरित्र' कहाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
श्रेष्ठ मनुष्य
मित्र, पड़ोसी, राजा, विद्वान्, वैद्य और सत्पुरुषों से प्रीति रखें और दुष्टों से उपेक्षा रखके अर्थात् घृणा छोड़कर उनको सुधारने का प्रयत्न किया करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
श्रेष्ठ मनुष्य
किसी का ठट्ठा करना उत्तम पुरुष
का काम नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
श्रेष्ठ मनुष्य
यदि कोई बात भ्रम से विरुद्ध निकल जाय, उसको मान ले, तो कुछ
चिन्ता नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
श्रेष्ठ मनुष्य
क्रोधादि दोष और कटुवचन को छोड़ शान्त और मधुर वचन ही बोले।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
श्रेष्ठ मनुष्य
जो जिसका गुण नहीं जानता, वह उसकी निन्दा निरन्तर करता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
श्रेष्ठ मनुष्य
कोई मनुष्य क्षण में प्रसन्न, क्षण में अप्रसन्न होता है अर्थात् क्षण-क्षण में प्रसन्न-अप्रसन्न होवे, उसकी प्रसन्नता भी
भयदायक होती है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
विविध
बढ़े हुए धन का व्यय देशोपकार में किया करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ४
विविध
दुर्भिक्षादि आपत्काल में अन्न, जल, वस्त्र, औषध, पथ्य और स्थान के अधिकारी सब प्राणी मात्र होते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
विविध
विवेक के विना न वैराग्य, और वैराग्य के विना न विज्ञान होता है, विज्ञान के विना शान्ति नहीं होती।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
विविध
पदार्थ नष्ट अर्थात् अदृष्ट होते हैं परन्तु अभाव किसी का नहीं होता।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
विविध
जिसका शरीर है वह परिश्रम के विना दुःखी होता है और शरीरवाला रोगी हुए विना कभी नहीं बचता।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
विविध
परमात्मा मुसलमानों पर कृपादृष्टि करे जिससे ये लोग उपद्रव करना छोड़के, सबसे मित्रता से वर्त्तें।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
सत्य-असत्य
यद्यपि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जाननेहारा है, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़, असत्य पर झुक जाता है।
सत्यार्थप्रकाश भूमिका
सत्य-असत्य
मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का यथायोग्य निर्णय करने का सामर्थ्य रखता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
सत्य-असत्य
मनुष्य-जन्म का होना सत्यासत्य के निर्णय करने-कराने के लिये है, न कि वादविवाद-विरोध करने-कराने के लिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
सत्य-असत्य
प्रामाणिक वह होता है जो सर्वदा सत्य माने, सत्य बोले, सत्य करे; झूठ न माने, झूठ न बोले,
झूठ न करे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
सत्य-असत्य
सीधा मार्ग वही होता है जिसमें सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य करना, पक्षपातरहित-न्याय-धर्म का आचरण करना आदि हैं, और इनसे विपरीत का त्याग करना।
सत्यार्थप्रकाश समु० १४
सत्य-असत्य
सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्यजाति की उन्नति का
कारण नहीं है।
सत्यार्थप्रकाश भूमिका
सत्य-असत्य
जो मिथ्या बात न रोकी जाय, तो संसार में बहुत-से अनर्थ प्रवृत्त हो जायं।
सत्यार्थप्रकाश भूमिका
सत्य-असत्य
जो मनुष्य झूठ चलाना चाहता है, वह सत्य की निन्दा अवश्य ही करता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
सत्य-असत्य
झूठ के संग से सत्य भी शुद्ध
नहीं रहता।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
सत्य-असत्य
विद्वानों का यही काम है कि सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, और असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
सत्य-असत्य
जैसी हानि प्रतिज्ञा मिथ्या करनेवाले की होती है, वैसी अन्य किसी की नहीं। इससे जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करे, उसके साथ वैसी ही पूरी
करनी चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० २
सत्य-असत्य
जो-जो सर्वमान्य सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक-से हैं, झगड़ा झूठे
विषयों में होता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
सत्यार्थप्रकाश का उद्देश्य
सत्यार्थ का प्रकाश करना मुझ वा सब महाशयों का मुख्य कर्त्तव्य कर्म है।
सत्यार्थप्रकाश भूमिका
सत्यार्थप्रकाश का उद्देश्य
यह लेख केवल सत्य की वृद्धि और असत्य के ह्रास होने के लिये है, न कि किसी को दुःख देने वा हानि करने अथवा मिथ्या दोष लगाने के अर्थ है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
सत्यार्थप्रकाश का उद्देश्य
इससे एक यह प्रयोजन सिद्ध होगा कि मनुष्यों को धर्मविषयक ज्ञान बढ़कर यथायोग्य सत्यासत्य मत और कर्त्तव्याकर्त्तव्य कर्मसम्बन्धी विषय विदित होकर सत्य और कर्त्तव्य कर्म का स्वीकार, असत्य और अकर्त्तव्य कर्म का परित्याग करना सहजता से हो सकेगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० १३
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
संन्यासी आप धर्म में चलें और सब संसार को चलाते रहैं, जिससे आप और सब संसार इस लोक अर्थात् इस जन्म में, परलोक अर्थात् परजन्म में स्वर्ग अर्थात् सुख का भोग किया करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
संन्यासियों को उचित है कि सदा सत्योपदेश, शङ्का-समाधान, वेदादि-सत्यशास्त्रों का अध्यापन और वेदोक्त धर्म की वृद्धि प्रयत्न से करके सब संसार की उन्नति किया करें।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
जो इस संन्यास के मुख्य-धर्म सत्योपदेशादि नहीं करते, वे पतित और नरकगामी हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
वेदोक्त धर्म में ही आप चलना और दूसरों को समझाकर चलाना संन्यासियों का विशेष धर्म है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
सब मनुष्यादि प्राणियों की सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना संन्यासी
का मुख्य कर्म है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
जब एषणा ही नहीं छूटी, पुनः संन्यास
क्योंकर हो सकता है?
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
पक्षपातरहित वेदमार्गोपदेश से जगत् के कल्याण करने में अहर्निश प्रवृत्त रहना संन्यासियों का मुख्य काम है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
संन्यासी भी हुए, किन्तु जब अपने-अपने अधिकार के कर्मों को नहीं करते, पुनः संन्यासी आदि नाम धराना व्यर्थ है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
जैसे गृहस्थ व्यवहार और स्वार्थ में परिश्रम करते हैं उनसे अधिक परिश्रमपूर्वक परोपकार करने में संन्यासी तत्पर रहैं, तभी सब आश्रम उन्नति पर रहैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
जो संन्यासी सत्योपदेश और वेदादि-सत्यशास्त्रों का विचार-प्रचार नहीं करते, तो वे भी जगत् में व्यर्थ, भाररूप हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
सब मनुष्यों का, विशेषतः विद्वानों और संन्यासियों का काम है कि सब मनुष्यों को सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन पढ़ा-सुनाके सत्योपदेश से उपकार पहुँचाना चाहिये।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
कितने ही मठधारी गृहस्थ होकर भी संन्यास का अभिमान मात्र करते हैं, कर्म कुछ नहीं। संन्यासी का वही कर्म है, जो पाँचवें समुल्लास में लिख आये। उसको न करके व्यर्थ
समय खोते हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
ये संन्यासी लोग ऐसा समझते हैं कि हमको खण्डन-मण्डन से क्या प्रयोजन? हम तो महात्मा हैं। ऐसे लोग भी संसार में भाररूप हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
संन्यासी और उसका अधिकारी
तथा उसका धर्म
यह अपने मन में निश्चित जाने कि केवल दण्ड, कमण्डलु और काषायवस्त्र आदि चिह्न-धारण करना ही धर्म का कारण
नहीं है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
जब कहीं उपदेश वा संवादादि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा निन्दा करे, तो संन्यासी को उचित है कि उस पर आप कभी क्रोध न करे किन्तु सदा उसके कल्याणार्थ उपदेश करे।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संन्यासी और उसका अधिकारी तथा उसका धर्म
जो अनधिकारी संन्यास ग्रहण करेगा तो आप डूबेगा, औरों को भी डुबावेगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० ५
संसार सुख-दुःख रूप
सब संसार दुःखरूप नहीं हो सकता, किन्तु इसमें सुख-दुःख दोनों हैं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
स्वदेशीय राज्य
कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ८
स्वदेशीय राज्य
जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन
बैठता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १०
हिंसा-द्वेष
जीवों को कष्ट देना ही हिंसा कहाती है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
हिंसा-द्वेष
द्वेष ही पाप का मूल है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
हिंसा-द्वेष
यह बात तो सच्ची है कि सम्पूर्ण वेद और परमात्मा को जाननेवाले, धर्मात्मा, सब जगत् के उपकारक पुरुषों से जो कोई द्वेष करेगा, वह अवश्य नष्ट होगा।
सत्यार्थप्रकाश समु० ११
स्वर्ग-नरक
'स्वर्ग' सुखभोग और 'नरक' दु:खभोग का नाम है।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
स्वर्ग-नरक
सुखविशेष 'स्वर्ग', और विषय-तृष्णा में फस कर दुःखविशेष भोग करना 'नरक' कहाता है।
सत्यार्थप्रकाश समु० ९
स्वर्ग-नरक
जो कोई ऋणादि कर बिराने पदार्थों से इस लोक में भोग कर नहीं देते हैं, वे निश्चय ही पापी होकर दूसरे जन्म में दुःखरूपी नरक भोगते हैं, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं।
सत्यार्थप्रकाश समु० १२
Comments
Post a Comment