सत्यार्थप्रकाशस्य सूचिपत्रम्, भूमिका

सत्यार्थ-प्रकाश-विषयक पाँच श्लोक

भूमिका

द्वितीय संस्करण के सम्बन्ध में

स्वमन्तव्यामन्तव्य के विषय में कथन

चौदह समुल्लासों का विषय-निर्देश

ग्रन्थ बनाने का प्रयोजन व सत्य का लक्षण

पक्षपाती का स्वभाव एवं आप्तों का मुख्य काम

मनुष्य का आत्मा सत्य का जानने हारा 

ग्रन्थ में रही भूल-चूक शोधन

सर्वतन्त्र सिद्धान्त

सत्य का विजय और असत्य का पराजय

ग्रन्थ का परिणाम अमृत-तुल्य

सब मतों की सत्य बातों का स्वीकार तथा मिथ्या बातों का अस्वीकार

स्वदेश व विदेशियों की समान मनुष्योन्नति

११वें समुल्लास के सम्बन्ध में

१२वें समुल्लास के सम्बन्ध में

बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों की सूची

जैन ग्रन्थों के सम्बन्ध में

१३वें व १४वें समुल्लास के सम्बन्ध में

वाक्यार्थबोध में चार कारण

पुराण, जैन ग्रन्थों, बाइबिल व कुरान से गुणों का ग्रहण

परस्पर लड़ाना विद्वानों का काम नहीं

बुद्धिमान् इस ग्रन्थ का यथार्थ अभिप्राय समझेंगे



ओ३म्

अथ सत्यार्थप्रकाशः
[सत्यार्थ-प्रकाश-विषयक पाँच श्लोक]

श्रीयुक्तदयानन्दसरस्वतीस्वामिविरचितः


दयाया आनन्दो विलसति परःस्वात्मविदितः,
सरस्वत्यस्यान्ते निवसति मुदा सत्यशरणा।
तदाख्यातिर्यस्य प्रकटितगुणा राष्ट्रिपरमा,
सको दान्तः शान्तो विदितविदितो वेद्यविदितः ॥१॥


    सत्यार्थस्य प्रकाशाय ग्रन्थस्तेनैव निर्मितः।
वेदादिसत्यशास्त्राणां प्रमाणैर्गुणसंयुतः ॥२॥


विशेषभागीह वृणोति यो हितं,
प्रियोऽत्र विद्यां सुकरोति तात्त्विकीम्।
अशेषदुःखात्तु विमुच्य विद्यया,
स मोक्षमाप्नोति न कामकामुकः ॥३॥

न ततः फलमस्ति हितं विदुषो,
ह्यधिकं परमं सुलभन्नु पदम्।

लभते सुयतो भवतीह सुखी,
कपटि सुसुखी भविता न सदा ॥४॥

धर्मात्मा विजयी स शास्त्रशरणो विज्ञानविद्यावरोऽ-धर्मेणैव हतो विकारसहितोऽधर्मस्सुदुःखप्रदः।
येनाऽसौ विधिवाक्यमानमननात् पाखण्डखण्डः कृतः, 

सत्यं यो विदधाति शास्त्रविहितं धन्योऽस्तु तादृग्घि सः ॥५॥  *१


*१.  ये श्लोक सत्यार्थप्रकाश (प्रथम संस्करण, १८७५) की मूलप्रति में विषयसूची के पश्चात् लिखे हुये हैं। महर्षि दयानन्द के ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’, ‘संस्कारविधि’, ‘आर्याभिविनय’ आदि ग्रन्थों में भी इसी प्रकार श्लोक लिखने की शैली मिलती है। ये श्लोक प्रथम और द्वितीय संस्करण में किसी कारणवश प्रकाशित नहीं हो पाये थे। ऋषिकृत श्लोकों को सुरक्षित रखने और उनकी शैलीगत परम्परा को संरक्षित रखने के लिए यहां प्रकाशित किये जा रहे हैं।


(परोपकारिणी सभा द्वारा प्रकाशित संस्करण ३९ में टिप्पणी)



॥ओ३म् सच्चिदानन्दायेश्वराय नमो नमः॥

भूमिका

[द्वितीय संस्करण के सम्बन्ध में]

‘सत्यार्थप्रकाश’ को दूसरी वार शुद्ध कर छपवाया है; क्योंकि जिस समय मैंने यह ग्रन्थ बनाया था, उस समय और उससे पूर्व संस्कृत-भाषण करना, पठन-पाठन में संस्कृत ही बोलने का अभ्यास रहना और जन्मभूमि की भाषा ‘गुजराती’ थी, इत्यादि कारणों से मुझको इस भाषा का विशेष परिज्ञान न था। अब इसको भाषा के व्याकरणानुसार अच्छे प्रकार जानकर अभ्यास भी कर लिया है, इसलिये इस समय इसकी भाषा पूर्व से उत्तम हुई है। कहीं-कहीं शब्द, वाक्यरचना का भेद हुआ है, वह करना उचित था; क्योंकि उनका भेद किये विना भाषा की परिपाटी सुधरनी कठिन थी। परन्तु अर्थ का भेद नहीं किया गया है; प्रत्युत विशेष तो लिखा गया है। हाँ, जो [-जो] प्रथम छपने में कहीं-कहीं भूल रही थी, वह-वह निकाल-शोधकर ठीक-ठीक कर दी गई है।

[स्वमन्तव्यामन्तव्य के विषय में कथन] 

यह ग्रन्थ १४ चौदह समुल्लासों अर्थात् चौदह विभागों में रचित हुआ है। इसमें १० दश समुल्लास ‘पूर्वार्द्ध’ और चार ‘उत्तरार्द्ध’ में बने हैं, परन्तु अन्त के दो समुल्लास और पश्चात् स्वसिद्धान्त किसी कारण से प्रथम नहीं छप सके थे, अब वे भी छपवा दिये हैं।

[चौदह समुल्लासों का विषय-निर्देश]

१.  प्रथम समुल्लास में ईश्वर के ‘ओङ्कार’-आदि नामों की व्याख्या।


२.  द्वितीय समुल्लास में सन्तानों की शिक्षा।


३.  तृतीय समुल्लास में ब्रह्मचर्य, पठन-पाठनव्यवस्था, सत्यासत्य ग्रन्थों के नाम और पढ़ने-पढ़ाने की रीति।


४.  चतुर्थ समुल्लास में [समावर्तन] विवाह और गृहाश्रम का व्यवहार।


५.  पञ्चम समुल्लास में वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम का विधि।


६.  छठे समुल्लास में राजधर्म।


७.  सप्तम समुल्लास में वेद-ईश्वर विषय।


८.  अष्टम समुल्लास में जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय।


९.  नवम समुल्लास में विद्या-अविद्या, बन्ध और मोक्ष की व्याख्या।


१०.  दशवें समुल्लास में आचार-अनाचार, भक्ष्याभक्ष्य विषय।


११.  एकादश समुल्लास में आर्यावर्तीय मतमतान्तरों के खण्डन-मण्डन का विषय।


१२.  द्वादश समुल्लास में चार्वाक, बौद्ध और जैन-मत का विषय।


१३.  त्रयोदश समुल्लास में ईसाई-मत का विषय।


१४.  चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मत का विषय।


और चौदह समुल्लासों के अन्त में आर्यों के सनातन वेदविहित-मत की विशेष व्याख्या लिखी है, जिसको मैं भी यथावत् मानता हूँ।

[ग्रन्थ बनाने का प्रयोजन व सत्य का लक्षण] 

मेरा इस ग्रन्थ के बनाने का प्रयोजन सत्य-अर्थ का प्रकाश करना है, अर्थात् जो सत्य है उसको सत्य और जो मिथ्या है उसको मिथ्या ही प्रतिपादित करना ‘सत्य अर्थ का प्रकाश’ समझा है। वह सत्य नहीं कहाता जो सत्य के स्थान में असत्य और असत्य के स्थान में सत्य का प्रकाश किया जाय; किन्तु जो पदार्थ जैसा है उसको वैसा ही कहना, लिखना और मानना सत्य कहाता है। 

[पक्षपाती का स्वभाव एवं आप्तों का मुख्य काम]

जो मनुष्य पक्षपाती होता है वह अपने असत्य को भी सत्य और दूसरे विरोधी मत-वाले के सत्य को भी असत्य सिद्ध करने में प्रवृत्त रहता है, इसलिये वह सत्य मत को प्राप्त नहीं होता। इसीलिये विद्वानों [और] आप्तों का यही मुख्य काम है कि उपदेश वा लेख द्वारा सब मनुष्यों के सामने सत्यासत्य का स्वरूप समर्पित कर दें। पश्चात् मनुष्य लोग स्वयं अपना हिताहित समझकर सत्यार्थ का ग्रहण और मिथ्यार्थ का परित्याग करके, सदा आनन्द में रहैं।

[मनुष्य का आत्मा सत्य का जानने हारा] 

यद्यपि मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का जाननेहारा है, तथापि अपने प्रयोजन की सिद्धि, हठ, दुराग्रह और अविद्यादि दोषों से सत्य को छोड़, असत्य पर झुक जाता है, परन्तु इस ग्रन्थ में ऐसी बात नहीं रक्खी है, और न किसी का मन दुखाना वा किसी की हानि का तात्पर्य है; किन्तु जिससे मनुष्य जाति की उन्नति और उपकार हो, सत्यासत्य को मनुष्य लोग जानकर सत्य का ग्रहण और असत्य का परित्याग करें [यही मेरा तात्पर्य है]; क्योंकि सत्योपदेश के विना अन्य कोई भी मनुष्यजाति की उन्नति का कारण नहीं है।

[ग्रन्थ में रही भूल-चूक शोधन]

इस ग्रन्थ में जो कहीं-कहीं भूल-चूक से [कोई त्रुटि] अथवा शोधने तथा छापने में भूल-चूक रह जाय, उसको जानने-जनाने पर, जैसा वह सत्य होगा, वैसा ही कर दिया जायगा। और जो कोई पक्षपात से अन्यथा शङ्का वा खण्डन-मण्डन करेगा, उस पर ध्यान न दिया जायगा। हाँ, जो वह मनुष्यमात्र का हितैषी होकर कुछ जनावेगा, उसको सत्य-सत्य समझने पर, उसका मत संगृहीत होगा।

[सर्वतन्त्र सिद्धान्त] 

यद्यपि आज-कल बहुत से विद्वान् प्रत्येक मत में हैं, वे पक्षपात छोड़ सर्वतन्त्र-सिद्धान्त अर्थात् जो-जो बातें सबके अनुकूल, सबमें सत्य हैं, उनका ग्रहण और जो एक-दूसरे से विरुद्ध बातें हैं, उनका त्याग कर परस्पर प्रीति से वर्तें-वर्तावें, तो जगत् का पूर्ण हित होवे। क्योंकि विद्वानों के विरोध से अविद्वानों में विरोध बढ़कर, अनेकविध दुःखों की वृद्धि और सुखों की हानि होती है। इस हानि ने, जो कि स्वार्थी मनुष्यों को प्रिय है, सब मनुष्यों को दुःखसागर में डुबा दिया है। 

[सत्य का विजय और असत्य का पराजय]

इनमें से जो कोई सार्वजनिक हित लक्ष्य में धर प्रवृत्त होता है, उससे स्वार्थी लोग विरोध करने में तत्पर होकर, अनेक प्रकार विघ्न करते हैं। परन्तु—  

 

“सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः” 

[मुण्डक-उप॰ ३। १। ६]

 

=सर्वदा सत्य का विजय और असत्य का पराजय और सत्य से ही विद्वानों का मार्ग विस्तृत होता है। इस दृढ़निश्चय के आलम्बन से आप्त लोग परोपकार करने से उदासीन होकर कभी सत्यार्थ-प्रकाश करने से नहीं हटते। 

[ग्रन्थ का परिणाम अमृत-तुल्य]

यह बड़ा दृढ़निश्चय है कि—

“यत्तदग्रे विषमिव परिणामेऽमृतोपमम्” 

यह गीता का वचन है [१८। ३७]।


इसका अभिप्राय यह है कि जो-जो विद्या और धर्मप्राप्ति के कर्म हैं, वे प्रथम करने में विष के तुल्य और पश्चात् अमृत के सदृश होते हैं; ऐसी बातों को चित्त में धरके मैंने इस ग्रन्थ को रचा है। श्रोता वा पाठकगण भी प्रथम प्रेम से देखके, इस ग्रन्थ का सत्य-सत्य तात्पर्य जानकर यथेष्ट करें।

[सब मतों की सत्य बातों का स्वीकार तथा 

मिथ्या बातों का अस्वीकार] 

इसमें यह अभिप्राय रक्खा गया है कि जो-जो सब मतों में सत्य-सत्य बातें हैं, वे-वे सबमें अविरुद्ध होने से उनका स्वीकार करके, जो-जो सब मतमतान्तरों में मिथ्या बातें हैं उन-उनका खण्डन किया है। इसमें यह भी अभिप्राय रक्खा है कि सब मतमतान्तरों की गुप्त वा प्रगट बुरी बातों का प्रकाश कर, विद्वान्-अविद्वान् सब साधारण मनुष्यों के सामने रक्खा है, जिससे सबसे सबका विचार होकर, परस्पर प्रेमी होके, एक सत्यमतस्थ होवें।

[स्वदेश व विदेशियों की समान मनुष्योन्नति]

यद्यपि मैं आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुआ और वसता हूँ; तथापि जैसे इस देश के मतमतान्तरों की झूठी बातों का पक्षपात न कर, यथातथ्य प्रकाश करता हूँ, वैसे ही दूसरे देश वा मत-वालों के साथ भी वैसा ही वर्तता हूँ। जैसा स्वदेशवालों के साथ मनुष्योन्नति के विषय में वर्तता हूँ, वैसा विदेशियों के साथ भी [वर्तता हूँ]; तथा सब सज्जनों को भी वैसा वर्तना योग्य है। क्योंकि मैं भी जो किसी एक का पक्षपाती होता, तो जैसे आजकल के [मत-वाले] स्वमत की स्तुति, मण्डन और प्रचार करते और दूसरे मत की निन्दा, हानि और [उसको] बन्द करने में तत्पर होते हैं, वैसे मैं भी होता; परन्तु ऐसी बातें मनुष्यपन से बहिः हैं। क्योंकि जैसे पशु बलवान् होकर निर्बलों को दुःख देते और मार भी डालते हैं, जब मनुष्य-शरीर पाके वैसे ही कर्म करते हैं, तो वे मनुष्य-स्वभावयुक्त नहीं, किन्तु पशुवत् हैं। और जो बलवान् होकर निर्बलों की रक्षा करता है, वही ‘मनुष्य’ कहाता है। और जो स्वार्थवश होकर परहानि-मात्र करता रहता है, वह जानो ‘पशुओं का बड़ा भाई’ है।

[११वें समुल्लास के सम्बन्ध में]

आर्यावर्तीयों के विषय में विशेषकर ग्यारहवें समुल्लास तक लिखा है। इन समुल्लासों में जो सत्यमत प्रकाशित किया है, वह वेदोक्त होने से मुझको सर्वथा मन्तव्य है, और जिन नवीन पुराण, तन्त्रादि ग्रन्थोक्त बातों का खण्डन किया है, वे त्यक्तव्य हैं। 

[१२वें समुल्लास के सम्बन्ध में] 

यद्यपि जो १२ वें समुल्लास में चार्वाक का मत लिखा है वह इस समय क्षीणास्त-सा है, और यह चार्वाक बौद्ध-जैन से बहुत सम्बन्ध ‘अनीश्वरवाद’-आदि में रखता है। यह चार्वाक सबसे बड़ा नास्तिक शिरोमणि है। इसकी चेष्टा को रोकना आवश्यक है; क्योंकि जो मिथ्या बात न रोकी जाय, तो संसार में बहुत-से अनर्थ प्रवृत्त हो जायं।


चार्वाक का जो मत है वह बौद्ध और जैन का मत है, वह भी १२वें समुल्लास में संक्षेप से लिखा गया है। और बौद्धों का भी जैनियों और चार्वाक के मत के साथ मेल है, और कुछ थोड़ा-सा विरोध भी है। और जैन-मत भी बहुत-से अंशों में चार्वाक और बौद्धों के साथ मेल रखता है; और थोड़ी-सी बातों में भेद है। इसलिये जैनों की भिन्न शाखा गिनी जाती है। वह भेद १२वें समुल्लास में लिख दिया है, यथायोग्य वहीं समझ लेना। जो इनका वैभिन्न्य है, सो भी बारहवें समुल्लास में दिखलाया है। बौद्धमत और जैनमत का विषय भी लिखा है।

[बौद्ध एवं जैन ग्रन्थों की सूची]

इनमें से बौद्धों के ‘दीपवंश’-आदि प्राचीन ग्रन्थों से बौद्धमत संग्रह ‘सर्वदर्शनसंग्रह’ में दिखलाया है, उसमें से यहाँ लिखा है। और जैनियों के निम्नलिखित सिद्धान्तों के पुस्तक हैं, उनमें से—


४ (चार) मूल सूत्र—१. आवश्यक सूत्र, २. विशेष आवश्यक सूत्र, ३. दशवैकालिक सूत्र, और ४. पाक्षिक सूत्र।


११ (ग्यारह) अङ्ग—१. आचारांगसूत्र, २. सुगडांगसूत्र, ३. थाणांगसूत्र, ४. समवायांगसूत्र, ५. भगवतीसूत्र, ६. ज्ञाताधर्मकथासूत्र, ७. उपासकदशासूत्र, ८. अन्तगड़दशासूत्र, ९. अनुत्तरोववाईसूत्र, १०. विपाकसूत्र और ११. प्रश्नव्याकरणसूत्र।


१२ (बारह) उपाङ्ग—१. उपवाईसूत्र, २. रावप्सेनीसूत्र, ३. जीवाभिगमसूत्र, ४. पन्नगणासूत्र, ५. जम्बुद्वीपपन्नतिसूत्र, ६. चन्दपन्नतिसूत्र, ७. सूरपन्नतिसूत्र, ८. निरियावलीसूत्र, ९. कप्पियासूत्र, १०. कपबड़ीसयासूत्र, ११. पुप्पियासूत्र और १२. पुप्पचूलियासूत्र।


५ (पाँच) कल्पसूत्र—१. उत्तराध्ययनसूत्र, २. निशीथसूत्र, ३. कल्पसूत्र, ४. व्यवहारसूत्र और ५. जीतकल्पसूत्र।


६ (छः) छेद—१. महानिशीथबृहद्वाचनासूत्र, २. महानिशीथलघुवाचनासूत्र, ३. मध्यमवाचनासूत्र, ४. पिण्डनिरुक्तिसूत्र, ५. औघनिरुक्तिसूत्र, ६. पर्यूषणासूत्र।


१० (दश) पयन्न-सूत्र—१. चतुस्सरणसूत्र, २. पञ्चखाणसूत्र, ३. तदुल-वैयालिकसूत्र, ४. भक्तिपरिज्ञानसूत्र, ५. महाप्रत्याख्यानसूत्र, ६. चन्दाविजयसूत्र, ७. गणीविजयसूत्र, ८. मरणसमाधिसूत्र, ९. देवेन्द्रस्तवनसूत्र, और १०. संसारसूत्र तथा नन्दीसूत्र, अनुयोगोद्धारसूत्र भी प्रामाणिक मानते हैं।


५ पञ्चाङ्ग—१. पूर्व सब ग्रन्थों की टीका, २. निरुक्ति, ३. चरणी, ४. भाष्य; ये चार अवयव और सब ‘मूल’ मिलके ‘पञ्चाङ्ग’ कहाते हैं।


इनमें ‘ढूंढिया’ अवयवों को नहीं मानते। और इनसे भिन्न भी अनेक ग्रन्थ हैं कि जिनको जैनी लोग मानते हैं। इनके मत पर विशेष विचार बारहवें समुल्लास में देख लीजिये।

[जैन ग्रन्थों के सम्बन्ध में]

जैनियों के ग्रन्थों में लाखों पुनरुक्त-दोष हैं। और इनका यह भी स्वभाव है कि जो अपना ग्रन्थ दूसरे मत-वाले के हाथ में हो, वा छपा हो, तो कोई-कोई उस ग्रन्थ को अप्रमाण कहते हैं। यह बात उनकी मिथ्या है; क्योंकि जिसको कोई माने, कोई न माने, इससे वह ग्रन्थ जैनमत से बाहर नहीं हो सकता। हाँ, जिसको कोई न माने और न कभी किसी जैनी ने माना हो, तब तो अग्राह्य हो सकता है; परन्तु ऐसा कोई ग्रन्थ नहीं है कि जिसको कोई भी जैनी न मानता हो। इसलिये जो जिस ग्रन्थ को मानता होगा, उस ग्रन्थस्थ विषयक खण्डन-मण्डन भी उसी के लिये समझा जाता है; परन्तु कितने ही ऐसे भी हैं कि उस ग्रन्थ को मानते-जानते हों, तो भी सभा वा संवाद में बदल जाते हैं। इसी हेतु से जैन लोग अपने ग्रन्थों को छिपा रखते हैं, दूसरे मतस्थ को न देते, न सुनाते, न पढ़ाते; इसलिये कि उनमें ऐसी-ऐसी असम्भव बातें भरी हैं जिनका कोई भी उत्तर जैनियों में से नहीं दे सकता। झूठ बात का छोड़ देना ही उत्तर है।

[१३वें व १४वें समुल्लास के सम्बन्ध में]

१३वें समुल्लास में ईसाइयों का मत लिखा है। ये लोग ‘बाइबल’ को अपना धर्मपुस्तक मानते हैं। इनका विशेष समाचार उसी तेरहवें समुल्लास में देखिये। 


और चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों के मतविषय में लिखा है। ये लोग ‘कुरान’ को अपने मत का मूल पुस्तक मानते हैं। इनका भी विशेष व्यवहार १४वें समुल्लास में देखिये। और इसके आगे वैदिकमत- विषय में लिखा है।

[वाक्यार्थबोध में चार कारण]

जो कोई इस ग्रन्थ को कर्त्ता के तात्पर्य से विरुद्ध-मनसा से देखेगा, उसको कुछ भी अभिप्राय विदित न होगा। क्योंकि वाक्यार्थबोध में चार कारण होते हैं—आकांक्षा, योग्यता, आसत्ति और तात्पर्य। जब इन चारों बातों पर ध्यान देकर, जो पुरुष ग्रन्थ को देखता है, तब उसको ग्रन्थ का अभिप्राय यथायोग्य विदित होता है—


‘आकांक्षा’—किसी विषय पर वक्ता की और वाक्यस्थ पदों की आकांक्षा परस्पर होती है।


‘योग्यता’—वह कहाती है कि जिससे जो हो सके; जैसे, जल से सींचना।


‘आसत्ति’—जिस पद के साथ जिसका सम्बन्ध हो, उसी के समीप उस पद को बोलना वा लिखना।


‘तात्पर्य’—जिसके लिये वक्ता ने शब्दोच्चारण वा लेख किया हो, उसी के साथ उस वचन वा लेख को युक्त करना।

[पुराण, जैन ग्रन्थों, बाइबिल व कुरान से गुणों का ग्रहण]

बहुत-से हठी-दुराग्रही मनुष्य होते हैं कि जो वक्ता के अभिप्राय से विरुद्ध कल्पना किया करते हैं, विशेषकर मत-वाले लोग। क्योंकि मत के आग्रह से उनकी बुद्धि अन्धकार में फसके नष्ट हो जाती है। इसलिये जैसा मैं पुराणों, जैनियों के ग्रन्थों, बाइबल और कुरान को प्रथम ही बुरी दृष्टि से न देखकर, उनमें से गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग तथा अन्य मनुष्यजाति की उन्नति के लिये प्रयत्न करता हूँ, वैसा सबको करना योग्य है।

[परस्पर लड़ाना विद्वानों का काम नहीं] 

इन मतों के थोड़े-थोड़े ही दोष प्रकाशित किये हैं, जिनको देखकर मनुष्य लोग सत्यासत्य मत का निर्णय कर सकें और सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करने-कराने में समर्थ होवें। क्योंकि एक मनुष्य-जाति में बहकाकर, विरोध-बुद्धि कराके, एक-दूसरे को शत्रु बना, लड़ा मारना विद्वानों के स्वभाव से बहिः है।

[बुद्धिमान् इस ग्रन्थ का यथार्थ अभिप्राय समझेंगे] 

यद्यपि इस ग्रन्थ को देखकर अविद्वान् लोग अन्यथा ही विचारेंगे, तथापि बुद्धिमान् लोग यथायोग्य इसका अभिप्राय समझेंगे। इसलिये मैं अपने परिश्रम को सफल समझता हूँ और अपना अभिप्राय सब सज्जनों के सामने धरता हूँ। इसको देख-दिखलाके, मेरे श्रम को सफल करें। और इसी प्रकार पक्षपात न करके सत्यार्थ का प्रकाश करना मुझ वा सब महाशयों का मुख्य कर्त्तव्य कर्म है।


सर्वात्मा, सर्वान्तर्यामी, सच्चिदानन्द परमात्मा अपनी कृपा से इस आशय को विस्तृत और चिरस्थायी करे।


॥अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्-विद्वद्वरशिरोमणिषु॥
॥इति भूमिका॥


स्थान महाराणा जी का उदयपुर
भाद्रपद, शुक्लपक्ष, सम्वत् १९३९


(स्वामी) दयानन्द सरस्वती

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