द्वितीयः समुल्लासः

द्वितीय-समुल्लास


भाग्यवान् सन्तान

गर्भाधान के पूर्व एवं पश्चात् के कर्त्तव्य 

उत्तम सन्तान होने की विधि

जन्म समय और उसके पश्चात् के कर्त्तव्य

पाँच वर्ष तक माता द्वारा शिक्षा

पिता द्वारा प्रारम्भिक शिक्षा

भूत-प्रेत शब्द का अर्थ

उन्मादादि रोगों का भूत-प्रेतादि नाम धरना

भूत-प्रेतादि के निवारणार्थ ढोंग

ग्रह-शान्ति का ढोंग

जन्म-पत्री-सम्बन्धी ढोंग

शीतला-मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र आदि का ढोंग

वीर्य-रक्षा के लाभ, और वीर्यनाश से हानि

माता-पिता तथा आचार्य से शिक्षा ग्रहण का काल

सन्तानों के लाड़न में हानि तथा ताड़न में लाभ

चोरी आदि के त्याग और सत्याचार-ग्रहण की शिक्षा

अभिमान से हानि

छल-कपट-कृतघ्नता से हानि

सामान्य व्यवहार की शिक्षा

धर्मयुक्त कर्म के ग्रहण और दुष्टकर्म के त्याग का उपदेश

सन्तान के शत्रु माता-पिता के लक्षण

उपसंहार (समु. २)



अथ द्वितीयसमुल्लासारम्भः

अथ शिक्षां प्रवक्ष्यामः 


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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[इस समुल्लास में बाल-शिक्षा के विषय में लिखेंगे]


[भाग्यवान् सन्तान]

“मातृमान् पितृमानाचार्यवान्”, “आचार्यवान् पुरुषो वेद।”


 ये शतपथब्राह्मण [और छान्दोग्य उप०] के वचन हैं।

 [शतपथ ब्राह्मण का० १४ । प्रपा० ६ । ब्रा० १० । कं० २; छान्दोग्य उप० ६ । १४ । २]


वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य होवे, तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है। वह कुल धन्य! वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्! जिसके माता और पिता धार्मिक और विद्वान् हों। जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है, उतना किसी से नहीं। जितना माता सन्तानों पर प्रेम [और] उनका हित करना चाहती है, उतना अन्य कोई नहीं करता। इसीलिए ‘मातृमान्’ अर्थात् ‘प्रशस्ता धार्मिकी विदुषी माता विद्यते यस्य स मातृमान्’। धन्य वह माता है कि जो गर्भाधान से लेकर जब तक पूरी विद्या न हो तब तक सुशीलता का उपदेश करे! 

[गर्भाधान के पूर्व और पश्चात् के कर्तव्य]

माता और पिता को अति उचित है कि गर्भाधान के पूर्व, मध्य और पश्चात् दुर्गन्धयुक्त, रूक्ष, बुद्धिनाशक, नशीले पदार्थों को छोड़के, जिनसे शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम और सुशीलता से सभ्यता को प्राप्त करें, वैसे घृत, दुग्ध, मिष्ट, अन्नपान आदि श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन करें कि जिससे रज-वीर्य भी दोषों से रहित होकर अत्युत्तम गुणयुक्त हों। 

[उत्तम सन्तान होने की विधि]

जैसा ऋतुगमन का विधि अर्थात् रजोदर्शन के पाँचवें दिवस से लेके सोलहवें दिवस तक ऋतुदान देने का समय है, उनमें से प्रथम के चार दिन त्याज्य हैं। रहे १२ दिन, उनमें एकादशी और त्रयोदशी को छोड़के बाकी १० रात्रियों में गर्भाधान करना उत्तम है। और रजोदर्शन के दिन से लेके १६वीं रात्रि के पश्चात् समागम न करना चाहिये। पुनः जब तक ऋतुदान का पूर्वोक्त समय न आवे तब तक और गर्भस्थिति के पश्चात् एक वर्ष तक संयुक्त न हों, जब तक कि दोनों के शरीर में आरोग्य और परस्पर- प्रसन्नता न हो, और किसी प्रकार का शोक न हो। जैसा चरक और सुश्रुत में भोजन-छादन का विधान और मनुस्मृति में स्त्री-पुरुष की प्रसन्नता की रीति लिखी है, उसी प्रकार करें और वर्तें। गर्भाधान के पश्चात् स्त्री को बहुत सावधानी से भोजन-छादन करना चाहिए। पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त स्त्री पुरुष का सङ्ग न करे। बुद्धि, बल, रूप, आरोग्य, पराक्रम, शान्ति आदि गुणकारक द्रव्यों का ही सेवन स्त्री करती रहै कि जब तक सन्तान का जन्म न हो। 

[जन्म समय और उसके पश्चात् के कर्तव्य]

जब जन्म हो, तब नाड़ीछेदन करके, अच्छे सुगन्धियुक्त जल से बालक को स्नान, और स्त्री को भी स्नान करा, सुगन्धियुक्त घृतादि का होम [करे] और स्त्री के स्नान-भोजन का यथायोग्य प्रबन्ध करे कि जिससे बालक और स्त्री का शरीर क्रमशः आरोग्यवान् और पुष्ट होता जाये। ऐसा पदार्थ उसकी माता वा धायी खावे कि जिससे दूध में भी उत्तम गुण प्राप्त हों। प्रसूता का दूध छः दिन तक बालक को पिलावे। तदनन्तर धायी पिलाया करे। परन्तु धायी को उत्तम पदार्थों का खान-पान माता-पिता करावें। जो कोई दरिद्र हो, धायी को न रख सकें तो वे गाय वा बकरी के दूध में उत्तम ओषधियां जो कि बुद्धि, पराक्रम, आरोग्य करनेहारी हों, उनको शुद्ध जल में भिजा, औटा, छानके दूध के बराबर जल मिलाके बालक को पिलावें। जन्म के पश्चात् बालक और बालक की माता को दूसरे स्थान [पर] कि जहाँ का वायु शुद्ध हो, वहाँ रक्खें; सुगन्धित तथा दर्शनीय पदार्थ भी रक्खें। और उस देश में भ्रमण कराना उचित है कि जहाँ का वायु शुद्ध हो। और जहाँ धायी, गाय, बकरी आदि का दूध न मिल सके, वहाँ जैसा उचित समझें, वैसा करें। क्योंकि प्रसूता स्त्री के शरीर के अंश से बालक का शरीर होता है, इसी से स्त्री प्रसव-समय निर्बल हो जाती है, इसलिये प्रसूता स्त्री दूध न पिलावे। दूध रोकने के लिये स्तन के छिद्र पर उस ओषधी का लेप करे, जिससे दूध स्रवित न हो। ऐसे करने से दूसरे महीने में पुनरपि युवती हो जाती है। तब तक पुरुष ब्रह्मचर्य से वीर्य का निग्रह रक्खे। इस प्रकार जो स्त्री वा पुरुष करेंगे, उनके उत्तम सन्तान, दीर्घायु, बल, पराक्रम की वृद्धि होती ही रहेगी कि जिससे सब सन्तान भी उत्तम बल-पराक्रमयुक्त, दीर्घायु, धार्मिक होंगे। स्त्री योनिसङ्कोच, शोधन और पुरुष वीर्य का स्तम्भन करे। पुनः सन्तान जितने होंगे वे भी सब उत्तम होंगे।

[पाँच वर्ष तक माता द्वारा शिक्षा]

बालकों को माता सदा उत्तम शिक्षा करे, जिससे सन्तान सभ्य हो और किसी अङ्ग से कुचेष्टा न करने पावे। जब बोलने लगे, तब उसकी माता बालक की जिह्वा जिस प्रकार कोमल होकर स्पष्ट उच्चारण कर सके, वैसा उपाय करे कि जो जिस वर्ण का स्थान, प्रयत्न अर्थात् जैसे ‘प’ इसका ओष्ठ स्थान और स्पृष्ट प्रयत्न कि दोनों ओष्ठों को मिला कर बोलना। इसके विना शुद्धोच्चारण [अर्थात्] ह्रस्व, दीर्घ और प्लुत अक्षरों को ठीक-ठीक नहीं बोल सकता। मधुर, गम्भीर सुस्वर; अक्षर, मात्रा, पद, वाक्य, संहिता, अवसान भिन्न-भिन्न श्रवण होवे। जब वह कुछ-कुछ बोलने और समझने लगे तब सुन्दर वाणी और बड़े-छोटे, मान्य पिता-माता, राजा, विद्वान् आदि से भाषण; उनसे वर्त्तमान और उनको पास बैठने आदि की भी शिक्षा करें कि जिससे कहीं उनका अयोग्य व्यवहार न होके, सर्वत्र प्रतिष्ठा हुआ करे। जैसे सन्तान जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय और सत्सङ्ग में रुचि-कर्त्ता होवे, वैसा प्रयत्न करते रहें। व्यर्थ क्रीडा, रोदन, हास्य, लड़ाई, हर्ष, शोक, किसी पदार्थ में लोलुपता, ईर्ष्या, द्वेषादि न करें। उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श विना निमित्त न करें, क्योंकि इसके स्पर्श और मर्दन से वीर्य की क्षीणता, नपुंसकता [होती है और] हस्त में दुर्गन्ध भी होता है। सदा सत्यभाषण, शौर्य, धैर्य, प्रसन्नवदनता आदि गुणों की प्राप्ति जिस प्रकार हो, करावें।

[पिता द्वारा प्रारम्भिक शिक्षा]

जब पाँच-पाँच वर्ष के लड़का-लड़की हों तब देवनागरी अक्षरों का अभ्यास करावें, अन्यदेशीय भाषाओं के अक्षरों का भी। उसके पश्चात् जिनसे अच्छी शिक्षा, विद्या, धर्म, परमेश्वर, माता, पिता, आचार्य, विद्वान्, अतिथि, राजा, प्रजा, कुटुम्ब, बन्धु, भगिनी, भृत्य आदि से कैसे-कैसे वर्तना, इन बातों के मन्त्र, श्लोक, सूत्र, गद्य, पद्य भी अर्थ-सहित कण्ठस्थ करावें। जिससे सन्तान किसी धूर्त के बहकाने में न आवे। और जो-जो विद्या-धर्म-विरुद्ध भ्रान्तिजाल में गिरानेवाले व्यवहार हैं, उनका भी उपदेश कर दें; जिससे भूत-प्रेत आदि मिथ्या बातों पर विश्वास न हो—

[भूत-प्रेत शब्द का अर्थ]

गुरोः प्रेतस्य शिष्यस्तु पितृमेधं समाचरन्।

प्रेतहारैः समं तत्र दशरात्रेण शुद्ध्यति॥

यह मनुस्मृति का श्लोक है [ अ० ५ । श्लोक ६५ ] 


अर्थ— ‘जब गुरु का प्राणान्त हो, तब मृतकशरीर जिसका नाम ‘प्रेत’ है, उसका दाह करनेहारा शिष्य प्रेतहार अर्थात् मृतक को उठाने वालों के साथ दशवे दिन शुद्ध होता है।’

और जब उस शरीर का दाह हो चुका, तब उसका नाम ‘भूत’ होता है अर्थात् वह अमुकनामा पुरुष था। जितने उत्पन्न हो वर्त्तमान में आके न रहें, भूतस्थ होने से उनका नाम ‘भूत’ है। ऐसा ब्रह्मा से लेके आज पर्यन्त के विद्वानों का सिद्धान्त है। परन्तु जिसको शङ्का, कुसङ्ग, कुसंस्कार होता है, उसको भय और शङ्कारूप भूत, प्रेत, शाकिनी, डाकिनी आदि अनेक भ्रमजाल दुःखदायक होते हैं। 

[उन्माद आदि रोगों का भूत-प्रेतादि नाम धरना]

देखो, जब कोई प्राणी मरता है, तब उसका जीव पाप-पुण्य के वश होकर, परमेश्वर की व्यवस्था से दुःख-सुख के फल भोगने के अर्थ जन्मान्तर धारण करता है। क्या इस अविनाशी परमेश्वर की व्यवस्था का कोई भी नाश कर सकता है? अज्ञानी लोग ‘वैद्यकशास्त्र’ वा ‘पदार्थविद्या’ के पढ़ने-सुनने और विचार से रहित होकर सन्निपातज्वरादि शारीर और उन्मादादि मानस रोगों का नाम भूत-प्रेतादि धरते हैं। उनका औषधसेवन और पथ्यादि उचित व्यवहार न करके, उन धूर्त्त, पाखण्डी, महामूर्ख, अनाचारी, स्वार्थी, शूद्र, म्लेच्छादि पर भी विश्वासी होकर अनेक प्रकार के ढोंग, छल-कपट और उच्छिष्ट भोजन [करते हैं और] डोरा, धागा आदि मिथ्या मन्त्र-यन्त्र बाँधते-बँधवाते फिरते हैं। अपने धन का नाश, सन्तान आदि की दुर्दशा [कर] और रोगों को बढ़ाकर दुःख देते रहते हैं।

[भूत-प्रेत भैरव शीतला आदि देवी निवारणार्थ ढोंग]

जब ‘आँख के अन्धे और गाँठ के पूरे’, उन दुर्बुद्धियों, पापीयों, स्वार्थियों के पास जाकर पूछते हैं कि “महाराज! इस लड़के, लड़की, स्त्री वा पुरुष को न जाने क्या हो गया है?”


तब वे बोलते हैं कि “इसके शरीर में बड़ा भूत-प्रेत, भैरव वा शीतला आदि देवी आ गई है, जब तक तुम इसका उपाय न करोगे, तब तक ये न छूटेंगे, और प्राण भी ले लेंगे। जो तुम मलीदा वा इतनी भेंट दो, तो हम मन्त्र, जप, पुरश्चरण से झाड़के इनको निकाल दें।”


तब वे अन्धे और उसके सम्बन्धी बोलते हैं कि “महाराज! चाहे हमारा सर्वस्व जाओ, परन्तु इसको अच्छा कर दीजिए।”


तब तो उनकी बन पड़ती है। वे धूर्त्त कहते हैं—“अच्छा, लाओ इतनी सामग्री, इतनी दक्षिणा, देवता की भेंट, और ग्रहदान कराओ।” झांझ, मृदङ्ग, ढोल, थाली लेके, उसके सामने बजाते-गाते हैं और उनमें से एक पाखण्डी उन्मत्त होके नाच-कूदके कहता है कि “मैं इसका प्राण ही ले लूँगा।” 


तब वे अन्धे उसके भी पगों में पड़ के कहते हैं—“आप जो चाहें, सो लीजिये; इसको बचाइये।”


तब वह धूर्त्त बोलता है—“मैं हनुमान् हूँ, लाओ मिठाई, तैल, सिन्दूर, सवा-मन का रोट और लाल लंगोट। मैं देवी वा भैरव हूँ, लाओ पाँच बोतल मद्य, वीस मुर्गीयां, पाँच बकरे, मिठाई और वस्त्र।” 


जब वे कहते हैं कि—“जो चाहो सो लो”, तब तो वह पागल बहुत नाचने-कूदने लगता है। परन्तु जो कोई बुद्धिमान् उसकी भेंट पाँच जूते, दण्डे, चपेटे, वा लातें मारे तो उसका हनुमान्, देवी और भैरव झट प्रसन्न होकर भाग जाते है; क्योंकि वह उनका केवल धनादि हरण करने के प्रयोजनार्थ ढोंग है। 

[ग्रह-शान्ति का ढोंग]

और जब किसी ग्रहग्रस्त, ग्रहरूप, ज्योतिर्विदाभास के पास जाके कहते हैं—“हे महाराज! इसको क्या है?” 


तब वह कहता है कि—“इसपर सूर्यादि क्रूर ग्रह चढ़े हैं। जो तुम इनकी शान्ति [के लिये] पाठ, पूजा, दान कराओ तो इसको सुख हो जाय, नहीं तो बहुत पीड़ित होगा और मर जाय तो भी आश्चर्य नहीं।” 


उत्तर— कहिये ज्योतिर्वित्! जैसी यह पृथिवी जड़ है, वैसे ही सूर्यादि लोक हैं। वे ताप और प्रकाशादि से भिन्न कुछ भी नहीं कर सकते। क्या ये चेतन हैं, जो क्रोधित होके दुःख और शान्त होके सुख दे सकें?


प्रश्न—क्या जो इस संसार में राजा-प्रजा सुखी-दुःखी हो रहे हैं, यह ग्रहों का फल नहीं है?


उत्तर—नहीं, ये सब पाप-पुण्यों के फल हैं।


प्रश्न—तो क्या ज्योतिष-शास्त्र झूठा है? 


उत्तर—नहीं, जो उसमें अङ्क, बीज, रेखा-गणितविद्या है, वह सब सच्ची; जो फल की लीला है, वह सब झूठी है।

[जन्म-पत्री-सम्बन्धी ढोंग]

प्रश्न—क्या जो यह जन्मपत्र है, सो निष्फल है?


उत्तर—हाँ, वह ‘जन्मपत्र’ नहीं, किन्तु उसका नाम ‘शोकपत्र’ रखना चाहिये। क्योंकि जब सन्तान का जन्म होता है, तब सबको आनन्द होता है। परन्तु वह आनन्द तब तक होता है कि जब तक जन्मपत्र बनके ग्रहों का फल न सुने। जब पुरोहित ‘जन्मपत्र’ बनाने को कहता है तब उसके माता-पिता पुरोहित से कहते हैं—“महाराज! आप बहुत अच्छा ‘जन्मपत्र’ बनाइये”। जो धनाढ्य हो तो बहुत-सी लाल-पीली रेखाओं से चित्र- विचित्र, और निर्धन हो तो साधारण रीति से जन्मपत्र बनाके सुनाने को आता है।


तब उसके मा-बाप आदि सुनने को ज्योतिषी जी के सामने बैठके कहते हैं—“इसका ‘जन्मपत्र’ अच्छा तो है?”


ज्योतिषी कहता है—“जो है सो सुना देता हूँ, इसके जन्मग्रह बहुत अच्छे और मित्रग्रह भी अच्छे हैं, जिनका फल धनाढ्य और प्रतिष्ठावान् [होना है]। जिस सभा में जा बैठेगा, तो सबके ऊपर इसका तेज पड़ेगा, शरीर से आरोग्यवान् और राज्यमान्य भी होगा।”


इत्यादि बातें सुनके पिता आदि बोलते हैं—“वाह-वाह ज्योतिषी जी! आप बहुत अच्छे हो।”


ज्योतिषी जी समझते हैं कि इन बातों से कार्य सिद्ध नहीं होता। तब ज्योतिषी बोलता है कि—“ये ग्रह तो बहुत अच्छे हैं, परन्तु ये ग्रह क्रूर हैं अर्थात् फलाने-फलाने ग्रह के योग से ८ वें वर्ष में इसका मृत्यु-योग है।”


इसको सुनके माता-पितादि पुत्र के जन्म के आनन्द को छोड़के शोकसागर में डूबकर, ज्योतिषी जी से कहते हैं कि “महाराज जी! अब हम क्या करें?”


तब ज्योतिषी जी कहते हैं—“उपाय करो”।

गृहस्थ पूछता है—“क्या उपाय करें?”


ज्योतिषी जी कहते हैं कि “ऐसा-ऐसा दान करो, ग्रह के मन्त्र का जप कराओ। और नित्य ब्राह्मणों को भोजन कराओगे, तो अनुमान है कि नवग्रहों के विघ्न हट जायें!”


अनुमान शब्द इसलिये है कि जो मर जायेगा तो कहेंगे, ‘हम क्या करें, परमेश्वर के ऊपर कोई नहीं है, हमने तो बहुत-सा यत्न किया और तुमने कराया, उसके कर्म ऐसे ही थे।’ और जो बच जाय तो कहते हैं कि ‘देखो! हमारे मन्त्र, देवता और ब्राह्मणों की कैसी शक्ति है! तुम्हारे लड़के को बचा दिया।’ यहाँ यह बात होनी चाहिये कि जो उनके जप-पाठ से कुछ न हो, तो दूने-तिगुने रुपये उन धूर्त्तों से ले-लेने चाहियें, और बच जाय तो भी ले-लेने चाहियें; क्योंकि जैसे ज्योतिषियों ने कहा कि “इसके कर्म और परमेश्वर के नियम तोड़ने का सामर्थ्य किसी का नहीं”, वैसे गृहस्थ भी कहें कि “यह अपने कर्म और परमेश्वर के नियम से बचा है, तुम्हारे करने से नहीं”। और तीसरे, गुरु आदि भी पुण्य-दान कराके आप ले-लेते हैं, तो उनको भी वही उत्तर देना, जो ज्योतिषियों को दिया था।

[शीतला-मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र आदि का ढोंग]

अब रह गई शीतला और मन्त्र-तन्त्र-यन्त्र आदि। ये भी ऐसे ही ढोंग मचाते हैं। कोई कहता है कि जो हम मन्त्र पढ़के डोरा वा यन्त्र बना देवें, तो हमारे देवता और पीर उस मन्त्र-यन्त्र के प्रताप से उसको कोई विघ्न नहीं होने देते। उनको वही उत्तर देना चाहिये कि ‘क्या तुम मृत्यु, परमेश्वर के नियम और कर्मफल से भी बचा सकोगे? तुम्हारे इस प्रकार करने से भी कितने ही लड़के मर जाते हैं और तुम्हारे घर में भी मर जाते हैं, और क्या तुम मरण से बच सकोगे?’ तब वे कुछ भी नहीं कह पाते। और वे धूर्त्त जान लेते हैं कि यहाँ हमारी दाल नहीं गलेगी।


इससे इन सब मिथ्या व्यवहारों को छोड़कर धार्मिक, सब देश के उपकारकर्त्ता, निष्कपटता से सबको विद्या पढ़ानेवाले, उत्तम विद्वान् लोगों का प्रत्युपकार करना [चाहिये], जैसा कि वे जगत् का उपकार करते हैं। इस काम को कभी न छोड़ना चाहिये। और [जो] जितनी लीला, रसायन, मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि करना कहते हैं, उनको भी महापामर समझना चाहिये; इत्यादि मिथ्या बातों का उपदेश बाल्यावस्था में ही सन्तानों के हृदय में डाल दें कि जिससे स्वसन्तानें किसी के भ्रमजाल में पड़के दुःख न पावें। 

[वीर्य-रक्षा के लाभ, और वीर्य-नाश से हानि]

और वीर्य की रक्षा में आनन्द और नाश करने में दुःख-प्राप्ति भी जना देनी चाहिये। जैसे— ‘देखो, जिसके शरीर में सुरक्षित वीर्य रहता है तब उसको, आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़के बहुत सुख की प्राप्ति होती है; इसके रक्षण की यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का सङ्ग, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकान्तसेवन, सम्भाषण और स्पर्श आदि कर्मों से ब्रह्मचारी लोग पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण-विद्या को प्राप्त करते हैं, वैसे तुम भी रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण-विद्या को प्राप्त करना। जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और उसको प्रमेह रोग भी होता है। वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि [होकर] उत्साह, साहस, धैर्य, बल, पराक्रमादि गुणों से रहित होकर नष्ट हो जाता है। जो तुम सुशिक्षा, विद्या के ग्रहण और वीर्य की रक्षा करने में इस समय चूकोगे तो पुनः इस जन्म में तुमको यह अमूल्य समय प्राप्त नहीं हो सकेगा। जब तक हम लोग गृहकर्मों के करनेवाले जीते हैं, तब तक तुमको विद्या का ग्रहण [करना] और शरीर का बल बढ़ाना चाहिये।’ 

[माता-पिता तथा आचार्य से शिक्षा ग्रहण का काल]

इसी प्रकार की अन्य-अन्य शिक्षा भी माता और पिता करें, इसीलिए “मातृमान् पितृमान्” शब्दों का ग्रहण उक्त वचन में किया है। अर्थात् जन्म से ५वें वर्ष तक बालकों को माता, ६ठे वर्ष से ८वें वर्ष तक पिता शिक्षा करे और ९मे वर्ष के आरम्भ में द्विज अपने सन्तानों का उपनयन करके आचार्यकुल में अर्थात् जहाँ पूर्ण विद्वान् [पुरुष] और पूर्ण विदुषी स्त्रियां शिक्षा और विद्यादान करनेवाले हों, वहाँ लड़कों और लड़कियों को भेज दें। और शूद्रादि वर्ण उपनयन किये विना, विद्याभ्यास के लिये गुरुकुल में भेज दें।

[सन्तानों के लालन में हानि, ताड़न में लाभ]

उन्हीं के सन्तान विद्वान्, सभ्य और सुशिक्षित होते हैं, जो पढ़ाने में सन्तानों का लाड़न कभी नहीं करते, किन्तु ताड़ना ही करते रहते हैं। इसमें ‘व्याकरण महाभाष्य’ का प्रमाण है— 


सामृतैः पाणिभिर्घ्नन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।

लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः॥

 [व्या० म० ८। १। ८]॥


अर्थ— जो माता, पिता और आचार्य सन्तान और शिष्यों का ताड़न करते हैं, वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं। और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाड़न करते हैं, वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिलाके नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं। क्योंकि लाड़न से सन्तान और शिष्य दोषयुक्त तथा ताड़ना से गुणयुक्त होते हैं। और सन्तान और शिष्य लोग भी ताड़ना से प्रसन्न और लाड़न से अप्रसन्न सदा रहा करें। परन्तु माता-पिता तथा अध्यापक लोग ईर्ष्या-द्वेष से ताड़न न करें, किन्तु ऊपर से भयप्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रक्खें।

[चोरी आदि के त्याग, और सत्याचार-ग्रहण की शिक्षा]

जैसे अन्य शिक्षा की, वैसे चोरी, जारी, आलस्य, प्रमाद, मादक-द्रव्य, मिथ्याभाषण, हिंसा, क्रूरता, ईर्ष्या, द्वेष, मोह आदि दोषों के छोड़ने और सत्याचार के ग्रहण करने की शिक्षा करें। क्योंकि जिस पुरुष ने जिसके सामने एक वार चोरी, जारी, मिथ्याभाषणादि कर्म किया, उसकी प्रतिष्ठा उसके सामने मृत्युपर्यन्त नहीं होती। जैसी हानि प्रतिज्ञा मिथ्या करनेवाले की होती है, वैसी अन्य किसी की नहीं। इससे जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करे, उसके साथ वैसी ही पूरी करनी चाहिये, अर्थात् जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘मैं तुमसे वा तुम मुझसे अमुक समय में मिलूँगा, वा मिलना, अथवा अमुक वस्तु अमुक समय में तुमको मैं दूँगा’, उसको वैसे ही पूरी करे, नहीं तो उसकी प्रतीति कोई भी न करेगा, इसलिये सदा सत्यप्रतिज्ञायुक्त सबको होना चाहिये। 

[अभिमान से हानि]

किसी को अभिमान करना योग्य नहीं, क्योंकि—


“अभिमानः श्रियं हन्ति” यह किसी कवि का वचन है

[महाभारत, अनु० ३६। १७]॥


=जो अभिमान अर्थात् अहङ्कार है, वह सब शोभा और लक्ष्मी का नाश कर देता है, इसलिये अभिमान करना न चाहिये।

[छल-कपट-कृतघ्नता से हानि]

छल-कपट वा कृतघ्नता से अपना ही हृदय दुःखित होता है, तो दूसरे की क्या कथा कहनी! ‘छल’ और ‘कपट’ उसको कहते हैं, जो भीतर और, [तथा] बाहर और [हो तथा] दूसरे को मोह में डाल और दूसरे की हानि पर ध्यान न देकर स्वप्रयोजन सिद्ध करना। ‘कृतघ्नता’ उसको कहते हैं कि ‘किसी के किये हुए उपकार को न मानना।’ 

[सामान्य व्यवहार की शिक्षा]

क्रोधादि दोष और कटुवचन को छोड़ शान्त और मधुर वचन ही बोले और बहुत बकवाद न करे। जितना बोलना चाहिये उससे न्यून वा अधिक न बोले। बड़ों को मान्य दे। उनके सामने उठकर [उनके पास] जाके प्रथम नमस्ते कहे। [उनको] उच्चासन पर बैठावे; उनके सामने उत्तमासन पर न बैठे। सभा में वैसे स्थान पर बैठे, जैसी अपनी योग्यता हो, और दूसरा कोई न उठावे। विरोध किसी से न करे। प्रसन्न होकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग रक्खे। सज्जनों का सङ्ग और दुष्टों का त्याग [करे]। अपने माता, पिता और आचार्य की तन, मन से सेवा करे।

[धर्मयुक्त कर्म के ग्रहण और दुष्टकर्म के त्याग का उपदेश]

“यान्यस्माकᳬ सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥” 

यह तैत्तिरीयोपनिषद् का वचन है [१। ११]॥


इसका यह अभिप्राय है कि माता, पिता, आचार्य अपने सन्तानों और शिष्यों को सदा सत्य उपदेश करें और यह भी कहें कि ‘जो-जो हमारे धर्मयुक्त कर्म हैं, उन-उनका ग्रहण करो और जो-जो दुष्ट कर्म हों, उन-उनका त्याग कर दिया करो।’ जो-जो सत्य जानें, उन-उन का प्रकाश और प्रचार करें। किसी पाखण्डी, दुष्टाचारी मनुष्य पर विश्वास न करें और जिस-जिस उत्तम कर्म के लिये माता, पिता और आचार्य आज्ञा देवें, उस-उसका पालन करें। जो-जो, माता-पिता ने धर्म, विद्या, अच्छे आचरण के श्लोक, ‘निघण्टु’, ‘निरुक्त’, ‘अष्टाध्यायी’ अथवा अन्य सूत्र वा वेदमन्त्र कण्ठस्थ कराये हों, उन-उनका अर्थ विद्यार्थियों को पुनः [-पुनः] विदित करावें। जैसे ‘प्रथम समुल्लास’ में परमेश्वर का व्याख्यान किया है, उसी प्रकार मानके, उसकी उपासना करें। जिस प्रकार आरोग्य, विद्या और बल प्राप्त हो, उसी प्रकार भोजन-छादन और व्यवहार करें-करावें अर्थात् जितनी क्षुधा हो, उससे कुछ न्यून भोजन करें। मद्य, मांसादि के सेवन से अलग रहैं। अज्ञात गम्भीर जल में प्रवेश न करें, क्योंकि जलजन्तु वा किसी अन्य पदार्थ से दुःख [हो सकता है], और जो तैरना न जाने तो डूब ही जा सकता है—

 

“नाविज्ञाते जलाशये” यह मनुस्मृति का वचन है [४। १२९]॥ 


=अविज्ञात जलाशय में प्रविष्ट होके स्नानादि न करें। 


दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्।

सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्॥ 

यह मनुस्मृति का वचन है [६। ४६]॥ 

अर्थ— नीचे दृष्टि कर, ऊँचे-नीचे स्थान को देखके चले, वस्त्र से छानके जल पीये, सत्य से पवित्र करके वचन बोले, मन से विचार के आचरण करे।

[सन्तान के शत्रु माता-पिता के लक्षण]

माता शत्रुः पिता वैरी येन बालो न पाठितः।

न शोभते सभामध्ये हंसमध्ये बको यथा॥ 

यह किसी कवि का वचन है

[चा० नी० २। ११]॥


वे माता और पिता अपने सन्तानों के पूर्ण शत्रु हैं जिन्होंने उनको विद्या की प्राप्ति न कराई। वे [सन्तान] विद्वानों की सभा में वैसे तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं जैसे कि हंसों के बीच में बगुला। 

[उपसंहार]

यही माता-पिता का कर्त्तव्यकर्म, परमधर्म और कीर्त्ति का काम है कि जो अपने सन्तानों को तन, मन, धन से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षायुक्त करना। 


यह बालशिक्षा [के विषय] में थोड़ा-सा लिखा, इतने से ही बुद्धिमान् लोग बहुत समझ लेंगे। [आगे तृतीय समुल्लास में ब्रह्मचर्याश्रम में अध्ययन-अध्यापन का प्रकार लिखा जायगा]


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे
सुभाषाविभूषिते बालशिक्षाविषये
द्वितीयः समुल्लासः सम्पूर्णः॥२॥

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