स्वमन्तव्यामन्तव्यविषयः

स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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सर्वतन्त्र सिद्धान्त की परिभाषा

प्रमाण के योग्य और अयोग्य

मेरा अपना मन्तव्य क्या है

धर्मयुक्त बातों को छोड़ना मनुष्यधर्म नहीं

सच्चा मनुष्य कौन कहलाता है

भर्तृहरि जी आदि का भी यही मत है

धीर पुरुष का लक्षण

धर्म का महत्व

स्वमन्तव्यों का संक्षेप में उल्लेख

ईश्वर का स्वरूप

वेदों का स्वतः प्रामाण्य

ब्राह्मणादि ग्रंथों का परतः प्रामाण्य

धर्माधर्म का स्वरूप

जीव का लक्षण

जीव, ईश्वर का सम्बन्ध

अनादि पदार्थ

प्रवाह से अनादि

सृष्टि का स्वरूप

सृष्टि का प्रयोजन

सृष्टि सकर्तृक है

बन्ध और उसका निमित्त

मुक्ति का स्वरूप

मुक्ति के साधन

अर्थ और अनर्थ

काम

वर्णाश्रम

राजा का लक्षण

प्रजा का लक्षण

न्यायकारी का लक्षण

देव-असुर-राक्षस पिशाच लक्षण

देव पूजा और अदेव पूजा

शिक्षा का लक्षण

पुराण किनका नाम

तीर्थ का लक्षण

पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा

मनुष्य का धर्म

संस्कार का लक्षण

यज्ञ का लक्षण

आर्य और दस्यु

आर्यावर्त्त की सीमा

आर्य कौन

आचार्य का लक्षण

शिष्य का लक्षण

गुरु कौन-कौन

पुरोहित

उपाध्याय

शिष्टाचार का लक्षण

शिष्ट कौन

प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण

आप्त का लक्षण

परीक्षा (पाँच प्रकार की)

परोपकार का लक्षण

स्वतन्त्र और परतन्त्र

स्वर्ग की परिभाषा

नरक की परिभाषा

जन्म की परिभाषा

जन्म और मृत्यु

विवाह का लक्षण

नियोग का लक्षण

स्तुति

प्रार्थना

उपासना

सगुण-निर्गुण-स्तुति प्रार्थनोपासना

ये सिद्धान्त मेरे ग्रन्थ में यत्र तत्र लिखे हैं

मतमतान्तर के झगड़ों को मै प्रसन्न (पसन्द) नहीं करता

यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो यह मेरा मुख्य प्रयोजन

ग्रन्थकार की शुभकामना

ग्रन्थ समाप्त



ओ३म्


अथ स्वमन्तव्यामन्तव्यप्रकाशः

सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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[सर्वतन्त्र-सिद्धान्त की परिभाषा]

‘सर्वतन्त्र सिद्धान्त’ अर्थात् ‘साम्राज्य-सार्वजनिक धर्म’ जिसको सदा से सब मानते आये, मानते हैं और मानेंगे भी। इसीलिये इसको ‘सनातन’=नित्यधर्म कहते हैं कि जिसका विरोधी कोई भी न हो सके। 

[कौन प्रमाण के योग्य और कौन अयोग्य?]

यदि अविद्यायुक्त जन अथवा किसी मत-वाले के भरमाये हुये उसको अन्यथा जानें वा मानें, उसका स्वीकार कोई भी बुद्धिमान् नहीं करते, किन्तु जिसको आप्त अर्थात् सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, परोपकारक, पक्षपातरहित विद्वान् मानते हैं, वही सबको मन्तव्य और जिसको नहीं मानते, वह अमन्तव्य होने से प्रमाण के योग्य नहीं होता।

[मेरा अपना मन्तव्य क्या है?]

अब जो वेदादि सत्यशास्त्र और ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्तों के माने हुए ईश्वरादि पदार्थ, जिनको कि मैं मानता हूँ, सब सज्जन महाशयों के सामने प्रकाशित करता हूँ।


मैं अपना मन्तव्य उसी को जानता हूँ कि जो तीन-काल में सबको एक-सा मानने योग्य है। मेरा, कोई नवीन कल्पना वा मतमतान्तर चलाने का लेशमात्र भी अभिप्राय नहीं है, किन्तु जो सत्य है उसको मानना-मनवाना और जो असत्य है उसको छोड़ना और छुड़वाना मुझको अभीष्ट है।

[धर्मयुक्त बातों को छोड़ देना मनुष्यधर्म नहीं है]

यदि मैं पक्षपात करता, तो आर्यावर्त में प्रचरित मतों में से किसी एक मत का आग्रही होता। किन्तु जो-जो आर्यावर्त वा अन्य देशों में अधर्मयुक्त चाल-चलन है उसका स्वीकार [नहीं करता] और जो धर्मयुक्त बातें हैं उनका त्याग नहीं करता, न करना चाहता हूँ; क्योंकि ऐसा करना मनुष्यधर्म से बहिः है।

[सच्चा मनुष्य कौन कहलाता है?]

मनुष्य उसी को कहना कि जो मननशील होकर स्वात्मवत् अन्यों के सुख-दुःख और हानि-लाभ को समझे। अन्यायकारी बलवान् से भी न डरे और धर्मात्मा निर्बल से भी डरता रहे। इतना ही नहीं, किन्तु अपने सर्वसामर्थ्य से धर्मात्माओं, कि चाहे वे महा-अनाथ, निर्बल और गुणरहित हों, उनकी रक्षा, उन्नति, प्रियाचरण और अधर्मी चाहे चक्रवर्ती, सनाथ, महाबलवान् और गुणवान् भी हो, तथापि उसका नाश, अवनति और अप्रियाचरण सदा किया करे; अर्थात् जहां तक हो सके वहां तक अन्यायकारियों के बल की हानि और न्यायकारियों के बल की उन्नति सर्वथा किया करे। इस काम में चाहे उसको कितना ही दारुण दुःख प्राप्त हो, चाहे प्राण भी भले ही जावें, परन्तु इस मनुष्यपनरूप धर्म से पृथक् कभी न होवे। 

[भर्तृहरि जी आदि महापुरुषों का भी यही मत है]

इसमें श्रीमान् महाराजे भर्तृहरि, व्यास जी और मनु आदि ने श्लोक लिखे हैं, उनका लिखना उपयुक्त समझकर लिखता हूँ—

निन्दन्तु नीतिनिपुणा यदि वा स्तुवन्तु 

लक्ष्मीः समाविशतु गच्छतु वा यथेष्टम्।

अद्यैव वा मरणमस्तु युगान्तरे वा

न्याय्यात्पथः प्रविचलन्ति पदं न धीराः॥१॥

भर्तृहरिशतक [नीतिशतक ८५]

न जातु कामान्न भयान्न लोभाद् धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः।

धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्ये जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः॥२॥

महाभारत [उद्योगपर्व-प्रजागरपर्व अ० ४०। श्लोक ११-१२]

एक एव सुहृद्धर्मो निधनेऽप्यनुयाति यः।

शरीरेण समं नाशं सर्वमन्यद्धि गच्छति॥३॥ 

मनु॰ [८। १७]

सत्यमेव जयते नानृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।

येनाऽऽक्रमन्त्यृषयो ह्याप्तकामा यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥४॥

मुण्डकोपनिषद् [३। १। ६]

न हि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्।

नहि सत्यात्परं ज्ञानं तस्मात्सत्यं समाचरेत्॥५॥

[प्रथम पंक्ति, महाभारत, शान्ति० १६२.२४]

इन्हीं महाशयों के श्लोकों के अभिप्राय के अनुकूल निश्चय रखना सबको योग्य है।

[ऋषि द्वारा स्वमन्तव्यों का संक्षेप में उल्लेख]

अब मैं जिन-जिन पदार्थों को जैसा-जैसा मानता हूँ, उन-उन का वर्णन संक्षेप से यहाँ करता हूँ कि जिनका विशेष व्याख्यान इस ग्रन्थ में अपने-अपने प्रकरण में कर दिया है। उनमें से—


१.  प्रथम ‘ईश्वर’ कि जिसको ब्रह्म, परमात्मा-आदि नामों से कहते हैं; जो सच्चिदानन्द-आदि लक्षणयुक्त है; जिसके गुण, कर्म, स्वाभाव पवित्र हैं; जो सर्वज्ञ, निराकार, सर्वव्यापक, अजन्मा, अनन्त, सर्वशक्तिमान्, दयालु, न्यायकारी, सब सृष्टि का कर्त्ता-धर्त्ता-हर्त्ता, सब जीवों को कर्मानुसार सत्य-न्याय से फलदाता आदि लक्षणयुक्त है; उसी को परमेश्वर मानता हूँ।


२.  [चार वेद] ‘चारों वेदों’ को [अर्थात्] विद्या-धर्म-युक्त, ईश्वरप्रणीत संहिताओं=मन्त्रभाग को निर्भ्रान्त, स्वतःप्रमाण मानता हूँ अर्थात् जो स्वयं प्रमाणरूप हैं कि जिसके प्रमाण होने में किसी अन्य ग्रन्थ की अपेक्षा न हो, जैसे सूर्य वा प्रदीप स्वयं अपने स्वरूप के स्वतः प्रकाशक और पृथिव्यादि के भी प्रकाशक होते हैं, वैसे चारों वेद हैं। और चारों वेदों के ब्राह्मण, छः अङ्ग, छः उपाङ्ग, चार उपवेद और वेदों की ११२७ (ग्यारह-सौ सत्ताईस) शाखायें जो कि वेदों के व्याख्यानरूप ब्रह्मादि महर्षियों के बनाये ग्रन्थ हैं, उनको परतःप्रमाण अर्थात् वेदों के अनुकूल होने से प्रमाण और जो इनमें वेदविरुद्ध वचन हैं उनका अप्रमाण करता हूँ।


३.  [धर्म-अधर्म] जो पक्षपातरहित, न्यायाचरण-सत्यभाषणादि- युक्त ईश्वराज्ञा वेदों से अविरुद्ध है, उसको ‘धर्म’ और जो पक्षपातसहित, अन्यायाचरण, मिथ्याभाषणादि ईश्वराज्ञा-भंग वेदविरुद्ध है, उसको ‘अधर्म’ मानता हूँ। 


४.  [जीव] जो इच्छा-द्वेष, सुख-दुःख और ज्ञानादि गुणयुक्त, अल्पज्ञ, नित्य है, उसी को ‘जीव’ मानता हूँ।


५.  ‘जीव और ईश्वर’ स्वरूप और वैधर्म्य से भिन्न और व्याप्य-व्यापक और साधर्म्य से अभिन्न हैं अर्थात् जैसे आकाश से मूर्त्तिमान् द्रव्य कभी भिन्न न था, न है, न होगा और न कभी एक था, न है, न होगा, इसी प्रकार परमेश्वर और जीव को व्याप्य-व्यापक, उपास्य-उपासक और पिता-पुत्रवत् आदि सम्बन्धयुक्त मानता हूँ।


६.  ‘अनादि पदार्थ’ तीन हैं। एक ईश्वर, द्वितीय जीव, तीसरा प्रकृति अर्थात् जगत् का कारण, इन्हीं को नित्य भी कहते हैं। जो नित्य पदार्थ हैं उनके गुण, कर्म, स्वभाव भी नित्य हैं।


७.  ‘प्रवाह से अनादि’ जो संयोग से द्रव्य, गुण, कर्म उत्पन्न होते हैं वे वियोग के पश्चात् नहीं रहते, परन्तु जिससे प्रथम संयोग होता है वह सामर्थ्य उनमें अनादि है, और उससे पुनरपि संयोग होगा तथा वियोग भी, इन तीनों को प्रवाह से अनादि मानता हूँ।


८.  ‘सृष्टि’ उसको कहते हैं जो पृथक् द्रव्यों का ज्ञान-युक्ति-पूर्वक मेल होकर नानारूप बनना।


९.  ‘सृष्टि का प्रयोजन’ यही है कि जिसमें ईश्वर के सृष्टिनिमित्त गुण, कर्म, स्वभाव का साफल्य होना। जैसे किसी ने किसी से पूछा कि ‘नेत्र किसलिये हैं?’ उसने कहा, ‘देखने के लिये।’ वैसे ही सृष्टि करने के ईश्वर के सामर्थ्य की सफलता सृष्टि करने में है और जीवों के कर्मों का यथावत् भोग कराना आदि भी।


१०.  ‘सृष्टि सकर्तृक’ है। इसका कर्त्ता पूर्वोक्त ईश्वर है। क्योंकि सृष्टि की रचना देखने, जड़ पदार्थ में अपने आप यथायोग्य बीजादि स्वरूप बनने का सामर्थ्य न होने से सृष्टि का ‘कर्त्ता’ अवश्य है।


११.  ‘बन्ध’ सनिमित्तक अर्थात् अविद्यादि के निमित्त से है। जो-जो पाप-कर्म, ईश्वरभिन्नोपासना, अज्ञानादि, ये सब दुःख फल करनेवाले हैं इसीलिये यह ‘बन्ध’ है कि जिसकी इच्छा नहीं और भोगना पड़ता है।


१२.  ‘मुक्ति’ अर्थात् सब दुःखों से छूटकर बन्धरहित, सर्वव्यापक ईश्वर और उसकी सृष्टि में स्वेच्छा से विचरना, नियत समय पर्यन्त मुक्ति के आनन्द को भोगके पुनः संसार में आना।


१३.  ‘मुक्ति के साधन’ ईश्वरोपासना अर्थात् योगाभ्यास, धर्मानुष्ठान, ब्रह्मचर्य से विद्याप्राप्ति, आप्त विद्वानों का संग, सत्यविद्या, सुविचार और पुरुषार्थ आदि हैं।


१४.  ‘अर्थ’ जो धर्म ही से प्राप्त किया जाय। और जो अधर्म से सिद्ध होता है उसको ‘अनर्थ’ कहते हैं।


१५.  ‘काम’ वह है कि जो धर्म और अर्थ से प्राप्त किया जाय।


१६.  ‘वर्णाश्रम’ गुण-कर्मों के योग से मानता हूँ।


१७.  ‘राजा’ उसी को कहते हैं, जो शुभ गुण-कर्म-स्वभाव से प्रकाशमान, पक्षपातरहित, न्यायधर्म का सेवी, प्रजाओं में पितृवत् वर्त्ते और उनको पुत्रवत् मानके उनकी उन्नति और सुख बढ़ाने में सदा यत्न किया करे।


१८.  ‘प्रजा’ उसको कहते हैं कि जो पवित्र गुण, कर्म, स्वभाव को धारण करके पक्षपातरहित, न्यायधर्म के सेवन से राजा और प्रजा की उन्नति चाहती हुई, राजविद्रोह-रहित, राजा के साथ पुत्रवत् वर्ते।


१९.  [न्यायकारी] जो सदा विचारकर असत्य को छोड़ सत्य का ग्रहण करे, अन्यायकारियों को हटावे और न्यायकारियों को बढ़ावे, अपने आत्मा के समान सबका सुख चाहे, उसको ‘न्यायकारी’ मानता हूँ।


२०.  ‘देव’ विद्वानों को, और अविद्वानों को ‘असुर’, पापियों को ‘राक्षस’, अनाचारियों को ‘पिशाच’ मानता हूँ।


२१.  [देवपूजा] उन्हीं विद्वानों, माता, पिता, आचार्य, अतिथि, न्यायकारी राजा और धर्मात्मा जन, पतिव्रता स्त्री, स्त्रीव्रत पति का सत्कार करना ‘देवपूजा’ कहाती है, इससे विपरीत ‘अदेवपूजा’ है। इन्हीं मूर्तियों की पूजा कर्त्तव्य, [और] इन मूर्त्तियों से इतर जड़, पाषाणादि मूर्तियों को सर्वथा अपूज्य समझता हूँ।


२२.  ‘शिक्षा’ जिससे विद्या, सभ्यता, धर्मात्मता, जितेन्द्रियतादि की बढ़ती होवे और अविद्यादि दोष छूटें, उसको शिक्षा कहते हैं।


२३.  ‘पुराण’ जो ब्रह्मादि के बनाये ‘ऐतरेय’ आदि ब्राह्मण पुस्तक हैं, उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और नाराशंसी नाम से मानता हूँ, अन्य ‘भागवत’ आदि को नहीं।


२४.  ‘तीर्थ’ जिनसे दुःखसागर से पार उतरें कि जो सत्यभाषण, विद्या, सत्संग, यमादि योगाभ्यास, पुरुषार्थ, विद्यादानादि शुभ कर्म हैं, उहीं को तीर्थ समझता हूँ; इतर जल-स्थलादि को नहीं।


२५.  [पुरुषार्थ] पुरुषार्थ ‘प्रारब्ध से बड़ा’ इसलिये है कि जिससे संचित प्रारब्ध बनते, जिसके सुधरने से सब सुधरते और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं। इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है।


२६.  ‘मनुष्य’ को सबसे यथायोग्य, स्वात्मवत् सुख-दुःख, हानि-लाभ में वर्त्तना श्रेष्ठ; अन्यथा वर्त्तना बुरा समझता हूँ।


२७.  ‘संस्कार’ उसे कहते हैं कि जिससे शरीर, मन और आत्मा उत्तम होवे। वह निषेकादि-श्मशानान्त सोलह प्रकार का है। इसको कर्त्तव्य समझता हूँ और दाह के पश्चात् मृतक के लिये कुछ भी न करना चाहिये।


२८.  ‘यज्ञ’ उसको कहते हैं कि जिसमें विद्वानों का सत्कार, यथायोग्य शिल्प अर्थात् रसायन जो कि ‘पदार्थविद्या’, उससे उपयोग और विद्यादि शुभगुणों का दान, अग्निहोत्रादि जिनसे वायु, वृष्टि, जल, ओषधि की पवित्रता करके सब जीवों को सुख पहुंचाना है, उसको उत्तम समझता हूँ।


२९.  [आर्य और दस्यु] जैसे ‘आर्य’ श्रेष्ठ और ‘दस्यु’ दुष्ट मनुष्यों को कहते हैं, वैसे ही मैं भी मानता हूँ।


३०.  ‘आर्यावर्त देश’ इस भूमि का नाम इसलिये है कि जिसमें आदिसृष्टि से पश्चात् आर्य लोग निवास करते हैं । परन्तु इसकी अवधि उत्तर में ‘हिमालय’ , दक्षिण में ‘विन्ध्याचल’ , पश्चिम में ‘अटक’ और पूर्व में ‘ब्रह्मपुत्रा’ नदी है। इन चारों के बीच में जितना देश है, उसी को ‘आर्यावर्त’ कहते हैं और जो इसमें सदा से रहते हैं, उनको भी ‘आर्य’ कहते हैं।


३१.  [आचार्य] जो सांगोपांग ‘वेदविद्याओं’ का अध्यापक, सत्याचार का ग्रहण और मिथ्याचार का त्याग करावे, वह ‘आचार्य’ कहाता है।


३२.  ‘शिष्य’ उसको कहते हैं कि जो सत्य शिक्षा और विद्या को ग्रहण करने योग्य, धर्मात्मा, विद्याग्रहण की इच्छा और आचार्य का प्रिय करनेवाला है।


३३.  [गुरु] गुरु, माता, पिता और जो सत्य का ग्रहण करावे और असत्य को छुड़ावे, वह भी ‘गुरु’ कहाता है।


३४.  ‘पुरोहित’ जो यजमान का हितकारी, सत्योपदेष्टा होवे।


३५.  ‘उपाध्याय’ जो वेदों के एकदेश वा अङ्गों को पढ़ाता हो।


३६.  ‘शिष्टाचार’ जो धर्माचरणपूर्वक ब्रह्मचर्य से विद्याग्रहण कर, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सत्यासत्य का निर्णय करके, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना है, यही शिष्टाचार, और जो इसको करता है वह ‘शिष्ट’ कहाता है।


३७.  [प्रमाण] प्रत्यक्षादि आठ ‘प्रमाणों’ को मानता हूँ।


३८.  ‘आप्त’ कि जो यथार्थवक्ता, धर्मात्मा, सबके सुख के लिये प्रयत्न करता है, उसी को ‘आप्त’ कहता हूँ।


३९.  ‘परीक्षा’ पाँच प्रकार की है। इसमें से प्रथम— जो ईश्वर, उसके गुण-कर्म-स्वभाव और ‘वेदविद्या’ ; दूसरी— प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण; तीसरी— सृष्टिक्रम; चौथी— आप्तों का व्यवहार, और पांचवीं— अपने आत्मा की पवित्रता [और] विद्या। इन पाँच परीक्षाओं से सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग करना चाहिये।


४०.  ‘परोपकार’ जिससे सब मनुष्यों के दुराचार-दुःख छूटें, श्रेष्ठाचार और सुख बढ़े; उसके करने को ‘परोपकार’ कहता हूँ।


४१.  ‘स्वतन्त्र’—‘परतन्त्र’— जीव अपने कामों में स्वतन्त्र और कर्मफल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र [है], वैसे ही ईश्वर अपने सत्याचार आदि काम करने में स्वतन्त्र है।


४२.  ‘स्वर्ग’ नाम सुख-विशेष भोग और उसकी सामग्री की प्राप्ति का है।


४३.  ‘नरक’ जो दुःख-विशेष भोग और उसकी सामग्री को प्राप्त होना है।


४४.  ‘जन्म’ जो शरीर-धारण कर प्रकट होना; सो पूर्व, पर और मध्य भेद से तीनों प्रकार के मानता हूँ।           


४५.  [जन्म-मृत्यु] [आत्मा से] शरीर के सयोग का नाम ‘जन्म’ और वियोग-मात्र को ‘मृत्यु’ कहते हैं।


४६.  ‘विवाह’— जो नियमपूर्वक, प्रसिद्धि से, अपनी इच्छा करके पाणिग्रहण करना [है, वह] ‘विवाह’ कहाता है।


४७.  ‘नियोग’ विवाह के पश्चात्, पति के मर जाने आदि वियोग में अथवा नपुंसकत्वादि स्थिर रोगों में स्त्री, वा पुरुष [द्वारा], आपत्काल में, स्ववर्ण वा अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष वा स्त्री के साथ नियोग कर सन्तानोत्पत्ति करना।


४८.  ‘स्तुति’ गुण-कीर्तन-श्रवण और ज्ञान होना। इसका फल प्रीति आदि होते हैं।


४९.  ‘प्रार्थना’ अपने सामर्थ्य के उपरान्त ईश्वर के सम्बन्ध से जो विज्ञान आदि प्राप्त होते हैं, उनके लिये ईश्वर से याचना करनी। और इसका फल निरभिमान आदि होता है।


५०.  ‘उपासना’ जैसे ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव पवित्र हैं वैसे अपने करना। ईश्वर को सर्वव्यापक, अपने को व्याप्य जानके, ईश्वर के समीप हम और हमारे समीप ईश्वर है, ऐसा निश्चय योगाभ्यास से साक्षात् करना, उपासना कहाती है। इसका फल ज्ञान की उन्नति आदि है।


५१. ‘सगुणनिर्गुणस्तुतिप्रार्थनोपासना’— जो-जो गुण परमेश्वर में हैं उनसे युक्त और जो-जो गुण नहीं हैं उनसे पृथक् मानकर [परमेश्वर की] प्रशंसा करना ‘सगुण-निर्गुण-स्तुति’ कहाती है। और शुभ गुणों के ग्रहण की ईश्वर से इच्छा और दोष छुड़ाने के लिये परमात्मा का सहाय चाहना ‘सगुण-निर्गुण-प्रार्थना’; और सब गुणों से सहित तथा सब दोषों से रहित परमेश्वर को मानकर अपने आत्मा को उसके और उसकी आज्ञा के अर्पण कर देना ‘सगुण-निर्गुण-उपासना’ कहाती है।

[ये सिद्धान्त मेरे ग्रन्थों में यत्र-तत्र लिखे हैं]


ये संक्षेप से स्वसिद्धान्त दिखला दिये हैं। इनकी विशेष व्याख्या इसी ‘सत्यार्थप्रकाश’ के प्रकरण-प्रकरण में है, तथा ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ आदि ग्रन्थों में भी लिखी है। अर्थात् जो-जो बात सबके सामने माननीय है, उसको मानता, अर्थात् जैसा कि सत्य बोलना सबके सामने अच्छा, और मिथ्या बोलना बुरा है, ऐसे सिद्धान्तों को स्वीकार करता हूँ। 

[मतमतान्तर के झगड़ों को मैं प्रसन्न नहीं करता]

और जो मतमतान्तरों के परस्परविरुद्ध झगड़े हैं, उनको मैं प्रसन्न नहीं करता; क्योंकि इन्हीं मत-वालों ने अपने मतों का प्रचार कर मनुष्यों को फसाके परस्पर शत्रु बना दिया है। इस बात को काट, सर्व सत्य का प्रचार कर, सबको ऐक्यमत में करा, द्वेष छुड़ा, परस्पर में दृढ़प्रीतियुक्त कराके, सबसे सबको सुख लाभ पहुँचाने के लिये मेरा प्रयत्न और अभिप्राय है। 

[यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो 

यह मेरा मुख्य प्रयोजन]

सर्वशक्तिमान् परमात्मा की कृपा, साहाय्य और आप्तजनों की सहानुभूति से यह सिद्धान्त सर्वत्र भूगोल में शीघ्र प्रवृत्त हो जावे जिससे सब लोग सहज से धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि करके, सदा उन्नत और आनन्दित होते रहैं; यही मेरा मुख्य प्रयोजन है।

अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्येषु।


ओ३म् शन्नो॑ मि॒त्रः शं वरु॑णः॒। शन्नो॑ भवत्वर्य्य॒मा।शन्न॒ इन्द्रो॒ बृह॒स्पतिः॒। शन्नो॒ विष्णु॑रुरुक्र॒मः॥
नमो॒ ब्रह्म॑णे॒। नम॑स्ते वायो॒। त्वमे॒व प्र॒त्यक्षं॒ ब्रह्मा॑सि। त्वामे॒व प्र॒त्यक्षं॒ ब्रह्मा॑वादिषम्। ऋ॒तम॑वादिषम्। स॒त्यम॑वादिषम्। तन्मामा॑॑वीत्। तद्व॒क्तार॑मावीत्। आवी॒न्माम्। आवी॑द्वक्तार॑म्।
ओ३म् शान्तिः॒ शान्तिः॒ शान्तिः॑॥ 

[तैत्तिरीय आरण्यक ७। १२]


इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्याणां परमविदुषां श्रीविरजानन्दसरस्वतीस्वामिनां
शिष्येण श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिना विरचितः, स्वमन्तव्यामन्तव्यसिद्धान्तसमन्वितः, सुप्रमाणयुक्तः, सुभाषाविभूषितः, सत्यार्थप्रकाशोऽयं ग्रन्थः सम्पूर्तिमगमत्॥
——०——

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