तृतीयः समुल्लासः

तृतीय-समुल्लास


माता-पिता तथा आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य

बालकों को आभूषण न पहिनावें

धन्य नर-नारी

सन्तानों को गुरुकुल में भेजने की आयु, सहशिक्षा-निषेध

पाठशाला का स्थान और व्यवस्था

आठ प्रकार के मैथुनों से बचें

समान खान-पान-वस्त्रादि की व्यवस्था

विद्याध्ययन में राजनियम और जाति नियम

उपनयन व गायत्री मन्त्र का उपदेश 

गायत्री मन्त्र का अर्थ

स्नान-आचमन-प्राणायाम

प्राणायाम के लाभ

प्राणायाम की विधि

प्राणायाम के चार प्रकार

सन्ध्योपासन-ब्रह्मयज्ञ की विधि

देवयज्ञ की विधि, सन्ध्या और देवयज्ञ का काल

होम से उपकार

होम करना अत्यावश्यक, होम न करने में पाप

दैनिक आहुतियों की संख्या और द्रव्य का परिमाण

ब्रह्मचर्य आश्रम में कर्त्तव्य दो यज्ञ

उपनयन कराने के अधिकारी

ब्रह्मचर्य का काल

तीन प्रकार का ब्रह्मचर्य

शरीर की चार अवस्थायें

विवाहार्थी स्त्री-पुरुष का ब्रह्मचर्य काल

पढ़ने-पढ़ाने वालों के नियम

यम-नियम दोनों का सेवन

कामातुरता और निष्कामता दोनों श्रेष्ठ नहीं

ब्राह्मण का शरीर बनाने के साधन

इन्द्रियसंयम से लाभ, असंयम से हानि

भाव की शुद्धि आवश्यक

नित्यकर्म में अनध्याय नहीं

वृद्धजनों की सेवा के फल

वाणी और मन की शुद्धि से वेदान्त रूप फल

ब्राह्मण सम्मान की चाह न करे

वेदाध्ययन के त्याग से शूद्रता

ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी के विशेष कर्त्तव्य

आचार्य का शिष्य को उपदेश

सर्वथा कामना का त्याग असम्भव

आचार का महत्व

वेदनिन्दक नास्तिक

धर्म के चार लक्षण

धर्मज्ञान में वेद परम प्रमाण

क्षत्रियादि को पढ़ाना आवश्यक

सत्यासत्य-परीक्षा के पाँच प्रकार

प्रत्यक्षादि ८ प्रमाणों के लक्षण

द्रव्य-गुणादि ज्ञान से मोक्ष

द्रव्यों की गणना

द्रव्य का लक्षण

पृथिव्यादि भूत द्रव्यों के लक्षण वा गुण

काल का लक्षण, दिशा का लक्षण और भेद आत्मा के लिङ्ग

मन का लिङ्ग

गुणों की गणना

गुण का लक्षण

शब्द का लक्षण

कर्म के भेद और लक्षण

सामान्य द्रव्य

सामान्य विशेष

समवाय का लक्षण

साधर्म्य, वैधर्म्य

कार्य-कारण-सम्बन्ध

परिमाण के भेद

सत्ता का लक्षण

महासामान्य

अभाव के ५ भेद

अविद्या के हेतु

पृथिव्यादि-गुणों के नित्य-अनित्य भेद

नित्य का लक्षण

लैङ्गिक ज्ञान के भेद

व्याप्ति का लक्षण

ग्रन्थों की परीक्षा करके पढ़ें-पढ़ावें

पठन पाठन की विधि

वर्णोच्चारण शिक्षा

व्याकरण-अष्टाध्यायी-महाभाष्य

३वर्ष में पूर्ण वैयाकरण

अनार्ष ग्रन्थों के अध्ययन से हानि

व्याकरण के पश्चात् पठनीय ग्रन्थ

पठनीय साहित्य ग्रन्थ

षड् दर्शन एवं उपनिषद्

ब्राह्मण ग्रन्थों के साथ वेदों का अध्ययन

अर्थ न जानने वाला भार वाही

उपवेदों का अध्ययन

ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन

आर्ष ग्रन्थ ही क्यों पढ़ें

षड्दर्शनों के प्रामाणिक भाष्य

स्वतः प्रमाण और परतः प्रमाण ग्रन्थ 

पठन-पाठन में परित्याग के योग्य ग्रन्थ

इतिहास पुराण विचार

हमारा मत वेद है

छः शास्त्रों में परस्पर अविरोध

पढ़ने-पढ़ाने में विघ्न रूप कर्म

स्त्री शूद्रों को भी वेदाध्ययन का अधिकार

वेदपठनाधिकार में वेद प्रमाण

वेद की बात न मानना नास्तिकता

कन्याओं के पढ़ने में वेद प्रमाण

स्त्री शिक्षा न होने से हानि

स्त्री पुरुषों हेतु न्यूनतम पठनीय विषय

विद्या रूपी अक्षय कोष

विद्या का दान सर्व श्रेष्ठ



अथ तृतीयसमुल्लासारम्भः 


अथाऽध्ययनाऽध्यापनविधिं व्याख्यास्यामः॥


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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अब तीसरे समुल्लास में पढ़ने-पढ़ाने का प्रकार लिखेंगे।

[माता-पिता-आचार्य का मुख्य कर्त्तव्य]

सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण, कर्म और स्वभाव-रूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है। सोना, चांदी, हीरा, माणिक, मोती, मूँगा आदि रत्नों से युक्त आभूषणों के धारण कराने से मनुष्य का आत्मा सुभूषित कभी नहीं हो सकता; क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि [का] भय तथा मृत्यु का भी सम्भव है। संसार में देखने में आता है कि आभूषणों के योग से बालक-आदिकों का मृत्यु दुष्टों के हाथ से होता है। 

[धन्य नर-नारी]

विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षाः, 

सत्यव्रता रहितमानमलापहाराः। 

संसारदुःखदलनेन सुभूषिता ये, 

धन्या नरा विहितकर्मपरोपकाराः॥

जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में तत्पर रहता, सुन्दर-शील-स्वभावयुक्त, सत्यभाषणादि नियमपालनयुक्त, और जो अभिमान-अपवित्रता से रहित, अन्य की मलिनता के नाशक, सत्योपदेश, विद्यादान से संसारी-जनों के दुःखों को दूर करने से सुभूषित, वेदविहित कर्मों से पराये उपकार करने में रत हैं, वे नर और नारी धन्य हैं। विना इनके किसी को शोभा प्राप्त नहीं होती।

[सन्तानों को गुरुकुल में भेजने की आयु, सहशिक्षा-निषेध]

इसलिये आठ वर्ष के हों तभी लड़कों को लड़कों की और लड़कियों को लड़कियों की पाठशाला में भेज देवें। जो अध्यापक पुरुष वा स्त्रियां दुष्टाचारी हों, उनसे शिक्षा न दिलावें; किन्तु जो पूर्णविद्या -युक्त, धार्मिक हों, वे ही पढ़ाने और शिक्षा देने योग्य हैं। द्विज अपने घर में लड़कों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का भी यथायोग्य [यज्ञोपवीत] संस्कार करके, यथोक्त आचार्यकुल अर्थात् अपनी- अपनी पाठशाला में भेज दें। 

[पाठशाला का स्थान और व्यवस्था]

विद्या पढ़ने का स्थान एकान्त देश में होना चाहिये और लड़कों और लड़कियों की वे पाठशालायें दो कोश एक-दूसरे से दूर होनी चाहियें। जो वहाँ अध्यापिकायें और अध्यापक पुरुष वा नौकर-चाकर हों, वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्रीयां, और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष रहैं।


स्त्रियों की पाठशाला में पाँच वर्ष का लड़का और लड़कों की पाठशाला में पाँच वर्ष की लड़की भी न जाने पावे, अर्थात् जब तक वे ब्रह्मचारी वा ब्रह्मचारिणी रहैं, तब तक स्त्री वा पुरुष का दर्शन, स्पर्शन, एकान्तसेवन, भाषण, विषयकथा, परस्परक्रीडा, विषय का ध्यान और संग, इन आठ प्रकार के मैथुनों से अलग रहैं। और अध्यापक लोग उनको इन बातों से बचावें, जिससे उत्तम विद्या, शिक्षा, शील स्वभाव, शरीर और आत्मा के बल से युक्त होके, आनन्द को नित्य बढ़ा सकें। पाठशालाओं से एक योजन अर्थात् चार कोश दूर ग्राम वा नगर रहै।

[राजकुमार वा दरिद्र सबको समान खान-पान-वस्त्रादि की व्यवस्था]

सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिये जायें, चाहे वह राजकुमार वा राजकुमारी हो, चाहे दरिद्र के सन्तान हों। सबको तपस्वी होना चाहिये। उनके माता-पिता अपने सन्तानों से वा सन्तान अपने माता-पिताओं से न मिल सकें और न किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार एक-दूसरे से कर सकें, जिससे संसारी चिन्ता से रहित होकर, केवल विद्या बढ़ाने की चिन्ता रक्खें। जब भ्रमण करने को जायें, तब उनके साथ अध्यापक रहैं, जिससे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य-प्रमाद करें। 

[विद्याध्ययन के विषय में राजनियम और समाजनियम]

‘‘कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम् ॥” 

यह मनुस्मृति का श्लोक है [७।१५२] ॥

इसका अभिप्राय यह है कि इसमें राजनियम और जातिनियम होना चाहिये कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष से आगे अपने लड़कों और लड़कियों को घर में न रखके, पाठशाला में अवश्य भेज देवें। जो न भेजे, वह दण्डनीय हो। 

[उपनयन वा गायत्री-मन्त्र का उपदेश]

प्रथम लड़कों का यज्ञोपवीत घर में हो और दूसरा पाठशाला में ‘आचार्यकुल’ में हो। पिता, माता वा अध्यापक अपने लड़के- लड़कियों को अर्थसहित गायत्रीमन्त्र का उपदेश कर दें। वह मन्त्र है—


ओ३म्। भूर्भुवः॒ स्वः॒। तत्स॑वि॒तुर्वरे॑ण्यं॒ भर्गो॑ दे॒वस्य॑ धीमहि। 

धियो॒ यो न॑: प्रचो॒दया॑त्॥ 

[यजुः, ३६।३] 

इस मन्त्र में जो प्रथम ‘ओ३म्’ है, उसका अर्थ प्रथम समुल्लास में कर दिया है, वहीं से जान लेना। अब तीन महाव्याहृतियों के अर्थ संक्षेप से लिखते हैं— ‘भूरिति वै प्राणः’ ‘यः प्राणयति चराऽचरं जगत् स भूः स्वयम्भूरीश्वरः’=जो सब जगत् के जीवन का आधार, प्राण से भी प्रिय और स्वयम्भू है, उस प्राण का वाचक होके ‘भूः’ परमेश्वर का नाम है। ‘भुवरित्यपानः’ ‘यः सर्वं दुःखमपानयति सोऽपानः’=जो सब दुःखों से रहित [है], जिसके संग से जीव सब दुःखों से छूट जाते हैं, इसलिये परमेश्वर का नाम ‘भुवः’ है। ‘स्वरिति व्यानः’ ‘यो विविधं जगद् व्यानयति व्याप्नोति स व्यानः’=जो नानाविध जगत् में व्यापक होके सबका धारण करता है, इसलिये परमेश्वर का नाम ‘स्वः’ है। ये तीनों वचन तैत्तिरीय आरण्यक के हैं [प्रपा० ७ । अनु० ५] ।


(सवितुः) ‘यः सुनोत्युत्पादयति सर्वं जगत् स सविता तस्य’=जो सब जगत् का उत्पादक और सब ऐश्वर्यों का दाता है (देवस्य) ‘यो दीव्यति दीव्यते वा स देवः’=जो सर्वसुखों का देनेहारा और जिसकी प्राप्ति की कामना सब करते हैं उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) ‘वर्तुमर्हम्’=स्वीकार करने योग्य, अतिश्रेष्ठ (भर्गः) ‘शुद्धस्वरूपम्’ = शुद्धस्वरूप और पवित्र करनेवाला, चेतन, ब्रह्मस्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हमलोग (धीमहि) ‘धरेमहि’=धारण करें। किस प्रयोजन के लिये कि (यः) जगदीश्वरः=जो सविता-देव परमात्मा (नः) ‘अस्माकम्’=हमारी (धियः) ‘बुद्धीः’= बुद्धियों को (प्रचोदयात्) ‘प्रेरयेत्’=प्रेरणा करे अर्थात् बुरे कामों से छुड़ाकर अच्छे कामों में प्रवृत्त करे।

[भावार्थ]

‘हे परमेश्वर! हे सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप! हे नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव! हे कृपानिधे! हे न्यायकारिन्! हे अज निरञ्जन निर्विकार! हे सर्वान्तर्यामिन्! हे सर्वाधार-सर्वजगत्पितः सकल-जगदुत्पादक! हे अनादे विश्वम्भर सर्वव्यापिन्! हे करुणामृतवारिधे! सवितुर्देवस्य तव यदोंभूर्भुवः स्वर्वरेण्यं भर्गोऽस्ति तद्वयं धीमहि=दधीमहि=धरेमहि ध्यायेम वा। कस्मै प्रयोजनायेत्यत्राह—हे भगवन्! यः सविता देवः परमेश्वरो नः=अस्माकं धियः प्रचोदयात्, स एवास्माकं पूज्य उपासनीय इष्टदेवो भवतु, नातोऽन्यद्वस्तु भवत्तुल्यं भवतोऽधिकं च कञ्चित् कदाचिन्मन्यामहे।’

हे मनुष्यो! जो सब समर्थों में समर्थ, सच्चिदानन्दानन्तस्वरूप, नित्यशुद्ध-नित्यबुद्ध-नित्यमुक्त-स्वभाववाला, कृपासागर, ठीक-ठीक न्याय का करनेहारा, जन्ममरणादि क्लेशरहित, विकार-आकार रहित, सबके घट-घट का जाननेवाला, सबका धर्त्ता, पिता, उत्पादक, अनादि, विश्व का पोषण करनेहारा, [सर्वव्यापक, करुणारूप, अमृत का सागर] सकल ऐश्वर्ययुक्त, जगत् का निर्माता, शुद्धस्वरूप और जो प्राप्ति की कामना करने योग्य है, उस परमात्मा का जो शुद्ध, चेतन स्वरूप है, उसी को हम धारण करें। [किस प्रयोजन के लिये?] इस प्रयोजन के लिये कि वह परमेश्वर हमारे आत्मा और बुद्धियों का अन्तर्यामी-स्वरूप, हमको दुष्टाचार=अधर्मयुक्त मार्ग से हटाके, श्रेष्ठाचार=सत्य मार्ग में चलावे। उसको छोड़कर दूसरे किसी वस्तु का ध्यान हम लोग नहीं करें, क्योंकि न कोई उसके तुल्य और न अधिक है। वही हमारा पिता, राजा, न्यायाधीश और सब सुखों का देनेहारा है।

[स्नान, आचमन और प्राणायाम]

इस प्रकार ‘गायत्रीमन्त्र’ का उपदेश करके सन्ध्योपासन की जो स्नान, आचमन, प्राणायाम आदि क्रियायें हैं, [उनको] सिखलावें।


प्रथम स्नान इसलिये है कि इससे शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि, आरोग्य आदि होते हैं। इसमें प्रमाण—

अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति॥

 यह मनुस्मृति का श्लोक है [५ । १०९]॥

जल से शरीर के बाहर के अवयव, सत्याचरण से मन, विद्या और तप अर्थात् सब प्रकार के कष्ट भी सहके धर्म के ही अनुष्ठान करने से जीवात्मा, ज्ञान अर्थात् पृथिवी से लेके परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों के विवेक से बुद्धि अर्थात् दृढ़निश्चय पवित्र होता है। इससे स्नान, संध्योपासन के पूर्व अवश्य करना चाहिये। 

[प्राणायाम के लाभ]

दूसरा प्राणायाम, इसमें प्रमाण—


योगाङ्गानुष्ठानादशुद्धिक्षये ज्ञानदीप्तिराविवेकख्यातेः॥ 

यह योगशास्त्र का सूत्र है [२ । २८] ॥


जब मनुष्य [चौथा योगाङ्ग] प्राणायाम करता है तब प्रतिक्षण उत्तरोत्तर काल में अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता जाता है। जब तक मुक्ति न हो तब तक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है।


दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः।

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात् ॥ 

यह मनुस्मृति का श्लोक है [६ । ७१] ॥


जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं के मल नष्ट होकर वे शुद्ध होती हैं, वैसे प्राणायाम करने से मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण होकर [वे] निर्मल हो जाती हैं।

प्राणायाम का विधि—


प्रच्छर्दनविधारणाभ्यां वा प्राणस्य। 

यह योगशास्त्र का सूत्र है [१। ३४] ॥


जैसे, अत्यन्त वेग से वमन होकर अन्न-जल बाहर निकल जाता है, वैसे प्राण को बल से बाहर फेंकके बाहर ही यथाशक्ति रोक देवे। जब बाहर निकालना चाहै, तब मूलेन्द्रिय को ऊपर खींचके, वायु को बाहर फेंक दे। तब तक मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रक्खे, जब तक प्राण बाहर रहता है। इस प्रकार प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है। जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे भीतर वायु को लेके फिर [भीतर कुछ देर प्राण-वायु को रोककर] वैसे ही करता जाय, जितना सामर्थ्य और इच्छा हो। और मन में ‘ओ३म्’ इसका जप करता जाय। इस प्रकार करने से आत्मा और मन की पवित्रता और स्थिरता होती है। 

[प्राणायाम के चार प्रकार]

एक ‘बाह्यविषय’ अर्थात् बाहर ही प्राण को अधिक रोकना। दूसरा ‘आभ्यन्तर’ अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जाय, उतना रोके। तीसरा ‘स्तम्भवृत्ति’ अर्थात् एकदम जहाँ-का-तहाँ प्राण को यथाशक्ति रोक देना। चौथा ‘बाह्याभ्यन्तराक्षेपी’ अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे, तब उससे विरुद्ध, उसको न निकलने देने के लिये बाहर से भीतर ले और जब बाहर से भीतर आने लगे, तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाय। ऐसे एक-दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें, तो दोनों की गति रुककर प्राण अपने वश में होने से, मन और इन्द्रियां भी स्वाधीन हो जाती हैं। बल-पुरुषार्थ बढ़कर बुद्धि तीव्र, सूक्ष्मरूप हो जाती है कि जो बहुत कठिन और सूक्ष्म विषय को भी शीघ्र ग्रहण कर लेती है। इससे मनुष्य-शरीर में वीर्य वृद्धि को प्राप्त होकर स्थिर-बल, पराक्रम, जितेन्द्रियता [की प्राप्ति होने से] सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेगा। स्त्री भी इसी प्रकार योगाभ्यास करे। 

[सामान्य व्यवहार की शिक्षा देवें]

भोजन-छादन, बैठने-उठने, बोलने-चालने, बड़े-छोटे से यथायोग्य व्यवहार करने का उपदेश करें। 

[सन्ध्योपासन=ब्रह्मयज्ञ की विधि]

सन्ध्योपासन, जिसे ब्रह्मयज्ञ भी कहते हैं। ‘आचमन’—उतने जल को हथेली में लेके, पंजा के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगाके करे कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक पहुँचे; न उससे अधिक, न न्यून हो। उससे कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृत्ति थोड़ी-सी होती है। पश्चात् ‘मार्जन’ अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अङ्गों पर जल छिड़के। उससे आलस्य दूर होता है। जो आलस्य और जल प्राप्त न हो, तो न करे। पुनः समन्त्रक प्राणायाम, [अघमर्षण] मनसा-परिक्रमण, उपस्थान [और] पीछे परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना की रीति सिखलावे। पश्चात् अघमर्षण अर्थात् पाप करने की इच्छा भी कभी न करे। यह सन्ध्योपासन एकान्त देश में एकाग्रचित्त से करे—

अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः।

सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः॥ 

यह मनुस्मृति का श्लोक है [२।१०४]॥


जंगल में अर्थात् एकान्त देश में जा, सावधान होके, जल के समीप स्थित होके, नित्यकर्म को करता हुआ सावित्री अर्थात् गायत्रीमन्त्र का उच्चारण, अर्थज्ञान [पूर्वक] और उसके अनुसार अपने चाल- चलन को करे; परन्तु यह जप मन से करना उत्तम है। 

 

सन्ध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही कालों में करे। दो ही रात-दिन की सन्धिवेलायें हैं, अन्य नहीं। न्यून-से-न्यून एक घण्टा पर्यन्त ध्यान अवश्य करे। जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं, वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करे।

[देवयज्ञ-विधि, सन्ध्या और देवयज्ञ का काल]

दूसरा देवयज्ञ—जो अग्निहोत्र और विद्वानों के संग-सेवादिक से होता है। अग्निहोत्र कर्म का दोनों सन्धिवेलाओं में अर्थात् सूर्योदय के पश्चात् और सूर्यास्त के पूर्व करने का समय है। 


उसके लिये एक किसी धातु वा मिट्टी की, ऊपर १२ वा १६ अंगुल चौकोर, उतनी ही गहरी और नीचे ३ वा ४ अंगुल परिमाण से वेदी इस प्रकार बनावे अर्थात् ऊपर जितनी चौड़ी हो, उसकी चतुर्थांश नीचे चौड़ी रहै। उसमें चन्दन, पलाश वा आम्रादि के श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े उसी वेदी के परिमाण से बड़े-छोटे करके उसमें रक्खे। उसके मध्य अग्नि रखके पुन: उस पर समिधा अर्थात् पूर्वोक्त इंधन रख दे। एक प्रोक्षणीपात्र ऐसा, और तीसरा प्रणीतापात्र   इस प्रकार का, और एक इस प्रकार की आज्यस्थाली अर्थात् घृत रखने का पात्र, और एक चमसा ऐसा, सोने, चाँदी वा काष्ठ का बनवाके, प्रणीता और प्रोक्षणी में जल तथा घृतपात्र में घृत रखके, घृत को तपा लेवे। प्रणीता जल रखने [के लिये], और प्रोक्षणी इसलिये है कि उससे हाथ धोने को जल लेना सुगम है। पश्चात् उस घी को अच्छी प्रकार देख लेवे। फिर यज्ञ के मन्त्रों से होम करे—


[ओम् अग्नये स्वाहा आदि चार....“सूर्यो ज्योतिज्योतिः सूर्यःस्वाहा” आदि चार और] 

ओं भूरग्नये प्राणाय स्वाहा। ओं  भुवर्वायवेऽपानाय स्वाहा। ओं स्वरादित्याय व्यानाय स्वाहा। ओं भूर्भुवः स्वरग्निवाय्वादित्येभ्यः प्राणापानव्यानेभ्यः स्वाहा ॥

[तुलना-तैत्ति० आर० १०।२]

इत्यादि अग्निहोत्र के प्रत्येक मन्त्र को पढ़कर एक-एक आहुति देवे और जो अधिक आहुतियां देनी हों तो—

विश्वा॑नि देव सवितर्दुरि॒तानि॒ परा॑ सुव। यद्भ॒द्रं तन्न॒ आ सु॑व॥

 [यजुः, ३० । ३]।


इस मन्त्र और पूर्वोक्त ‘गायत्रीमन्त्र’ से आहुतियां देवे। 


‘ओम्’ ‘भूः’ और ‘प्राण’ आदि ये सब नाम परमेश्वर के हैं। इनके अर्थ कह चुके हैं। ‘स्वाहा’ शब्द का अर्थ यह है कि जैसा ज्ञान आत्मा में हो वैसा ही वाणी से बोले, विपरीत नहीं। जैसे परमेश्वर ने सब प्राणियों के सुख के अर्थ इस सब जगत् के पदार्थ रचे हैं, वैसे मनुष्यों को भी परोपकार करना चाहिये। 

[होम से उपकार]

प्रश्न—होम से क्या उपकार होता है? 


उत्तर—सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख; और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य [प्राप्त होता है] और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है। 


प्रश्न—चन्दनादि घिसके किसी को लगावे, वा घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो। अग्नि में डालके व्यर्थ नष्ट करना, बुद्धिमानों का काम नहीं।


उत्तरजो तुम ‘पदार्थविद्या’ जानते, तो कभी ऐसी बात न कहते; क्योंकि किसी द्रव्य का अभाव नहीं होता। देखो, जहाँ होम होता है, वहाँ से दूर देश में स्थित पुरुष की नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है, वैसे दुर्गन्ध का भी। इतने से ही समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म होके, फैलके, वायु के साथ दूर देश में जाकर, दुर्गन्ध की निवृत्ति करता है। 


प्रश्न—जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और अतर आदि के घर में रखने से वायु सुगन्धित होकर सुखकारक होगा। 


उत्तर—उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि गृहस्थ-वायु को बाहर निकालकर, शुद्ध वायु का प्रवेश करा सके, क्योंकि उसमें भेदक-शक्ति नहीं है। और अग्नि का ही सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्धयुक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके, बाहर निकालकर, [वहां] पवित्र वायु का प्रवेश करा देता है। 


प्रश्न—तो मन्त्र पढ़के होम करने का क्या प्रयोजन है? 


उत्तर—मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने के लाभ विदित हो जायें और मन्त्रों की आवृत्ति होने से कण्ठस्थ रहें। वेद-पुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षा भी होवे।


प्रश्न—क्या इस होम करने के विना पाप होता है? 


उत्तर—हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न होके वायु और जल को बिगाड़ कर, रोगोत्पत्ति का निमित्त होने से, प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है। इसलिये उस पाप के निवारणार्थ, उतना सुगन्ध वा उससे अधिक, वायु और जल में फैलाना चाहिये। और खिलाने-पिलाने से उसी एक व्यक्ति को सुखविशेष होता है। जितना घृत और सुगन्धादियुक्त पदार्थ एक मनुष्य खाता है, उतने द्रव्य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है। परन्तु जो मनुष्य लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खावें, तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके, इससे अच्छे पदार्थ खिलाने-पिलाने भी चाहियें; परन्तु उससे होम करना अधिक उचित है, इसलिये होम का करना अत्यावश्यक है।


[दैनिक आहुतियों की संख्या और द्रव्य-परिमाण]

प्रश्न—प्रत्येक मनुष्य कितनी आहुतियां करे? और एक-एक आहुति का कितना परिमाण है? 


उत्तर—प्रत्येक मनुष्य सोलह-सोलह आहुतियां करें और छः-छः माशे घृतादि एक-एक आहुति का परिमाण न्यून-से- न्यून चाहिये। और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है। इसीलिये आर्यवरशिरोमणि महाशय, ऋषि-महर्षि, राजे-महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे। जब तक इस होम का प्रचार रहा, तब तक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था। जो अब भी प्रचार हो, तो वैसा ही हो जाय। 

[ब्रह्मचर्य में कर्त्तव्य दो यज्ञ]

ये दो यज्ञ अर्थात् एक ‘ब्रह्मयज्ञ’=जो पढ़ना-पढ़ाना, सन्ध्योपासन, ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना करना; दूसरा ‘देवयज्ञ’=जो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेध पर्यन्त यज्ञ और विद्वानों का सेवा-संग करना [कहाता है]। परन्तु ब्रह्मचर्य [आश्रम] में केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र का ही करना होता है। 

[उपनयन कराने के अधिकारी]

ब्राह्मणस्त्रयाणां वर्णानामुपनयनं कर्त्तुमर्हति, राजन्यो द्वयस्य, वैश्यो वैश्यस्यैवेति, शूद्रमपि कुलगुणसम्पन्नं मन्त्रवर्जमनुपनीतमध्यापयेदित्येके॥

 यह सुश्रुत के सूत्रस्थान के दूसरे अध्याय का वचन है [वचन ५]॥


ब्राह्मण तीनों वर्णों=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य को; क्षत्रिय, क्षत्रिय और वैश्य को; तथा वैश्य, एक वैश्य वर्ण को यज्ञोपवीत कराके पढ़ा सकता है। जो कुलीन, शुभलक्षणयुक्त शूद्र हो तो उसको मन्त्रसंहिता छोड़के सब शास्त्र पढ़ावे। शूद्र पढे़, परन्तु उसका उपनयन न करे; यह मत अनेक आचार्यों का है।

[पाठशाला में लड़के लड़कियों को भेजने की आयु]

इस विधि के पश्चात् पाँचवें वा आठवें वर्ष से लड़के लड़कों की पाठशाला में और कन्यायें कन्याओं की पाठशाला में जावें और निम्नलिखित नियमपूर्वक अध्ययन का आरम्भ करें—


षट्‌त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ त्रैवैदिकं व्रतम्। 

तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा॥

 यह मनुस्मृति का श्लोक है [३।१]॥

[ब्रह्मचर्य का काल]

अर्थ—आठवें वर्ष से आगे छत्तीसवें वर्ष पर्यन्त, अर्थात् एक-एक वेद के साङ्गोपाङ्ग पढ़ने में बारह-बारह [और बारह] वर्ष मिलके छत्तीस और आठ [प्रवेश से पूर्व के] मिलके चवालीस, अथवा अठारह वर्षों का ब्रह्मचर्य और आठ पूर्व के मिलके छब्बीस, वा नौ वर्षों [का ब्रह्मचर्य और आठ वर्ष पूर्व के मिलके सतरह वर्षों का] तथा जब तक विद्या पूर्ण ग्रहण न कर लेवे तब तक ब्रह्मचर्य रक्खे। 

[तीन प्रकार का ब्रह्मचर्य]

पुरुषो वाव यज्ञस्तस्य यानि चतुर्विꣳशति वर्षाणि तत्प्रातःसवनं चतुर्विं-शत्यक्षरा गायत्री गायत्रं प्रात:सवनं तदस्य वसवोऽन्वायत्ताः प्राणा वाव वसव एते हीदꣳसर्वं वासयन्ति॥१॥

तं चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा वसव इदं मे प्रातःसवनं माध्यन्दिनꣳ सवनमनुसंतनुतेति माहं प्राणानां वसूनां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति॥२॥ 

अथ यानि चतुश्चत्वारिꣳशद्वर्षाणि तन्माध्यन्दिनꣳसवनं चतुश्चत्वारिꣳशदक्षरा त्रिष्टुप् त्रैष्टुभं माध्यंदिनꣳसवनं तदस्य रुद्रा अन्वायत्ताः प्राणा वाव रुद्रा एते हीदꣳसर्वꣳरोदयन्ति॥३॥ 

तं चेदेतस्मिन्वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात्प्राणा रुद्रा इदं मे माध्यन्दिनꣳसवनं तृतीयसवनमनुसन्तनुतेति माहं प्राणानाꣳरुद्राणां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो ह भवति॥४॥

अथ यान्यष्टाचत्वारिꣳशद्वर्षाणि तत् तृतीयसवनमष्टाचत्वारिꣳशदक्षरा जगती जागतं तृतीयसवनं तदस्यादित्या अन्वायत्ताः प्राणा वावादित्या एते हीदꣳसर्वमा-ददते॥५॥ 

तं चेदेतस्मिन् वयसि किञ्चिदुपतपेत्स ब्रूयात् प्राणा आदित्या इदं मे तृतीय-सवनमायुरनुसन्तनुतेति माहं प्राणानामादित्यानां मध्ये यज्ञो विलोप्सीयेत्युद्धैव तत एत्यगदो हैव भवति ॥६॥

यह छान्दोग्योपनिषद् का वचन है [३।१६।१-६]॥

 

ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है—कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम। उनमें से कनिष्ठ—जो यह पुरुष अन्नरसमय देह, और पुरि अर्थात् देह में शयन करनेवाला जीवात्मा, यज्ञ अर्थात् अतीव शुभगुणों से सङ्गत और सत्कर्त्तव्य है। इसको आवश्यक है कि २४ वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रहकर वेदादि- विद्या और सुशिक्षा का ग्रहण करे। और विवाह करके भी लम्पटता न करे, तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब शुभगुणों के वास करानेवाले होते हैं॥१॥


इस प्रथम वय में जो उसको विद्याभ्यास में संतप्त करे और वह आचार्य वैसा ही उपदेश किया करे और ब्रह्मचारी ऐसा निश्चय रक्खे कि जो मैं प्रथम अवस्था में ठीक-ठीक ब्रह्मचर्य से रहूँगा तो मेरा शरीर और आत्मा आरोग्यवान्, बलवान् होके, शुभगुणों को वसानेवाले मेरे प्राण होंगे। हे मनुष्यो! तुम इस प्रकार से सुखों का विस्तार करो, जो मैं ब्रह्मचर्य का लोप न करूँ। २४ वर्ष के पश्चात् गृहाश्रम करूँगा तो प्रसिद्ध है कि रोगरहित रहूँगा और आयु भी मेरा ७० वा ८० वर्ष तक रहेगा॥२॥ 


मध्यम ब्रह्मचर्य यह है—जो मनुष्य ४४ वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहकर वेदाभ्यास करता है, उसके प्राण, इन्द्रियां, अन्तःकरण और आत्मा बलयुक्त होके, सब दुष्टों को रुलानेवाले और श्रेष्ठों का पालन करनेहारे होते हैं॥३॥ 


जो मैं इसी प्रथम वय में, जैसा आप कहते हैं, कुछ तपश्चर्या करूँ, तो मेरे ये रुद्ररूप प्राणयुक्त यह मध्यम ब्रह्मचर्य सिद्ध होगा। हे ब्रह्मचारी लोगो! तुम इस ब्रह्मचर्य को बढ़ाओ। जैसे मैं इस ब्रह्मचर्य का लोप न करके यज्ञस्वरूप होता हूँ और उसी आचार्यकुल से आता और रोगरहित होता हूँ। जैसा कि यह ब्रह्मचारी अच्छा काम करता है, वैसा तुम किया करो॥४॥


उत्तम ब्रह्मचर्य ४८ वर्ष पर्यन्त का तीसरे प्रकार का होता है। जैसे ४८ अक्षर की जगती [होती है], वैसे जो ४८ वर्ष पर्यन्त यथावत् ब्रह्मचर्य करता है, उसके प्राण अनुकूल होकर सकल विद्याओं का ग्रहण करते हैं॥५॥ 


जो आचार्य और माता-पिता अपने सन्तानों को प्रथम वय में विद्या और गुणग्रहण के लिये तपस्वी कर और उसी का उपदेश करें और वे सन्तान आप-ही-आप अखण्डित ब्रह्मचर्य-सेवन से तीसरे उत्तम ब्रह्मचर्य का सेवन करके पूर्ण अर्थात् चार-सौ वर्ष पर्यन्त आयु को बढ़ावें, वैसे तुम भी बढ़ाओ। क्योंकि जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर उसका लोप नहीं करते, वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं॥६॥ 

[शरीर की चार अवस्था]

चतस्रोऽवस्थाः शरीरस्य वृद्धिर्यौवनं सम्पूर्णता किञ्चित् परिहाणिश्चेति। आषोडशाद्-वृद्धिः। आपञ्चविंशतेर्यौवनम्। आचत्वारिंशतः सम्पूर्णता। ततः किञ्चित् परिहाणिश्चेति॥ 

[तुलना—‘सुश्रुत संहिता’, सूत्रस्थान ३५ । २९]

पञ्चविंशे ततो वर्षे पुमान् नारी तु षोडशे।

समत्वागतवीर्यौ तौ जानीयात्कुशलो भिषक्॥ 

यह सुश्रुत के सूत्रस्थान का वचन है [ ३५ । १३]॥ 


इस शरीर की चार अवस्थायें हैं। एक ‘वृद्धि’—जो १६वें वर्ष से लेके २५वें वर्ष पर्यन्त धातुओं की बढ़ती [होती है। दूसरी ‘यौवन’—जो २६वें वर्ष से लेकर [चालीसवें वर्ष तक होती है] तीसरी ‘सम्पूर्णता’—जो [इकतालीसवें] वर्ष से लेके अड़तालीसवें वर्ष पर्यन्त सब धातुओं की पुष्टि होती है। चौथी ‘किञ्चित्परिहाणि’—जब सब साङ्गोपाङ्ग शरीरस्थ सकल धातुयें पुष्ट होके पूर्णता को प्राप्त होते हैं, तदनन्तर जो धातु बढ़ता है वह शरीर में नहीं रहता, किन्तु स्वप्न, प्रस्वेदादि द्वारा बाहर निकल जाता है। [वह ६०-७० वर्ष तक ‘परिहाणि’ अवस्था है। अतः] वही ४०वां वर्ष उत्तम समय विवाह का है, उत्तमोत्तम तो अड़तालीसवें वर्ष में विवाह करना है।

[विवाहार्थी स्त्री वा पुरुष के ब्रह्मचर्यकाल की तुलना]

प्रश्न—क्या यह ब्रह्मचर्य का नियम स्त्री वा पुरुष दोनों का तुल्य ही है? 


उत्तर—नहीं। जो २५ वर्षपर्यन्त पुरुष ब्रह्मचर्य करे, तो १६ सोलह वर्षपर्यन्त कन्या। जो पुरुष तीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचारी रहै, तो स्त्री १७ वर्ष; जो पुरुष छत्तीस वर्ष रहै, तो स्त्री १८ वर्ष; जो पुरुष ४० वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य करे, तो स्त्री २० वर्ष; जो पुरुष ४४ वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य करे, तो स्त्री २२ वर्ष; जो पुरुष ४८ वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य करे, तो स्त्री २४ चौबीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवन रक्खे; अर्थात् ४८ वें वर्ष से आगे पुरुष और २४ वें वर्ष से आगे स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिये; परन्तु यह नियम विवाह करने वाले पुरुषों और स्त्रियों का है। 


और जो विवाह करना ही न चाहें, वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते हों तो भले ही रहैं, परन्तु यह काम पूर्णविद्या वाले, जितेन्द्रिय और निर्दोष योगी स्त्री और पुरुष का है। यह बड़ा कठिन काम है कि जो काम के वेग को थांभके, इन्द्रियों को अपने वश में रखना।

[पढ़ने-पढ़ाने वालों के नियम]

ऋतं च स्वाध्यायप्रवचने च। सत्यं च स्वाध्यायप्रवचने च। तपश्च स्वाध्यायप्रवचने च। दमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। शमश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अग्नयश्च स्वाध्यायप्रवचने च। अग्निहोत्रं च स्वाध्यायप्रवचने च। अतिथयश्च स्वाध्यायप्रवचने च। मानुषं च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजा च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजनश्च स्वाध्यायप्रवचने च। प्रजातिश्च स्वाध्यायप्रवचने च। 

यह तैत्तिरीयोपनिषद् का वचन है [शिक्षावल्ली, अनुवाक ९] ।

 

ये पढ़ने-पढ़ानेवालों के नियम हैं— (ऋतं०) यथार्थ आचरण से पढ़ें और पढ़ावें, (सत्यं०) सत्याचार से सत्यविद्याओं को पढ़े और पढ़ावें, (तपः०) तपस्या अर्थात् धर्मानुष्ठान करते हुए वेदादि शास्त्रों को पढ़े और पढ़ावे, (दमः०) बाह्य इन्द्रियों को बुरे आचरणों से रोकके पढ़ें और पढ़ाते जायें, (शमः०) अर्थात् मन की वृत्ति को सब प्रकार के दोषों से हटाके पढ़ते-पढ़ाते जायें, (अग्नयः०) आहवनीयादि अग्नि और विद्युत् आदि को जानके पढ़ते-पढ़ाते जायें, और (अग्निहोत्रं०) अग्निहोत्र करते हुए पठन और पाठन करें-करावें, (अतिथयः०) अतिथियों की सेवा करते हुए पढ़े और पढ़ावे, (मानुषं०) मनुष्यसम्बन्धी व्यवहारों को यथायोग्य करते हुए पढ़ते और पढ़ाते रहें, (प्रजा०) अर्थात् सन्तान और राज्य का पालन करते हुए पढ़ते-पढ़ाते जायें, (प्रजनः०) वीर्य की रक्षा और वृद्धि करते हुए पढ़ते-पढ़ाते जायें, (प्रजातिः०) अर्थात् अपने सन्तान और शिष्य का पालन करते हुए पढ़ते-पढ़ाते जायें। 

[यम-नियमों दोनों का सेवन]

यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः।

यमान्पतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्॥ 

यह मनुस्मृति का श्लोक है [४। २०४] ॥ 


यम पाँच प्रकार के होते हैं—


अहिंसासत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रहा यमाः॥

यह योगदर्शन का वचन है [२।३०] । 


अर्थात (अहिंसा) वैरत्याग, (सत्य) सत्य ही मानना, सत्य ही बोलना और सत्य ही करना, (अस्तेय) अर्थात् मन-वचन-कर्म से चोरी-त्याग, (ब्रह्मचर्य) अर्थात् उपस्थेन्द्रिय का संयम, (अपरिग्रहः) अत्यन्त लोलुपता-स्वत्वाभिमान-रहित होना; [यमाः] इन पाँच यमों का सेवन सदा करें।


नियम—


शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः॥ 

यह योगशास्त्र का वचन है [२।३२] ।

(शौच) अर्थात् स्नानादि से पवित्रता, (सन्तोष) सम्यक् प्रसन्न होकर निरुद्यम रहना सन्तोष नहीं, किन्तु पुरुषार्थ जितना हो सके उतना करना; हानि-लाभ में हर्ष वा शोक न करना, (तपः) अर्थात् कष्टसेवन से भी धर्मयुक्त कर्मों का अनुष्ठान [करना], (स्वाध्याय) पढ़ना-पढ़ाना, (ईश्वरप्रणिधानानि) ईश्वर की भक्तिविशेष से आत्मा को [उसके] अर्पित रखना; [नियमाः] ये पाँच नियम कहाते हैं।


यमों के विना, केवल इन नियमों का सेवन न करे, किन्तु इन दोनों का ही सेवन किया करे। जो यमों का सेवन छोड़के, केवल नियमों का सेवन करता है, वह उन्नति को प्राप्त नहीं होता, किन्तु अधोगति अर्थात् संसार में गिरा रहता है। 

[अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता दोनों श्रेष्ठ नहीं]

कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता। 

काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥ 

मनुस्मृति [२।२]॥


अत्यन्त कामातुरता और निष्कामता किसी के लिये भी श्रेष्ठ नहीं, क्योंकि जो कामना न करे तो वेदों का ज्ञान और वेदविहित कर्त्तव्यादि उत्तम कर्म किसी से न हो सकें। इसलिये— 

[ब्राह्मण-शरीर बनाने के साधन]

स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः। 

महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः ॥ 

यह मनुस्मृति का श्लोक है [२।२८]।

(स्वाध्यायेन) सकल विद्या पढ़ने-पढ़ाने, (व्रतैः) ब्रह्मचर्य, सत्यभाषणादि नियम पालने, (होमैः) अग्निहोत्रादि होम, सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग और सत्य-विद्याओं का दान देने, (त्रैविद्येन) वेदस्थ कर्म-उपासना-ज्ञान-विद्याओं के ग्रहण, (इज्यया) पक्षेष्ट्यादि करने, (सुतैः) सुसन्तानोत्पत्ति, (महायज्ञैः) ब्रह्म, देव, पितृ, वैश्वदेव और अतिथियों के सेवनरूप पंचमहायज्ञ और (यज्ञैः) अग्निष्टोमादि तथा ‘शिल्पविद्या’- विज्ञानादि यज्ञों के सेवन से [इयं तनुः ब्राह्मी क्रियते] यह शरीर ‘ब्राह्मी’ अर्थात् वेद और परमेश्वर की भक्ति का आधाररूप ‘ब्राह्मण का शरीर’ बनता है। इतने साधनों के विना ‘ब्राह्मणशरीर’ नहीं बन सकता। 

[इन्द्रियों के संयम से लाभ और असंयम से हानि]

इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु। 

संयमे यत्नमातिष्ठेद् विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्॥ 

मनु० [२।८८]॥ 

जैसे विद्वान् सारथि घोड़ों को नियम में रखता है, वैसे [मनुष्य] मन और आत्मा को, खोटे कामों में खैंचनेवाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करे। क्योंकि—

[इन्द्रिय के संयम से लाभ और असंयम से हानि]

इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्। 

सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति॥ 

मनु० [२।९३]॥

जीवात्मा इन्द्रियों के वश में होके बड़े-बड़े दोषों को निश्चित प्राप्त होता है; और जब इन्द्रियों को अपने वश में करता है, तभी सिद्धि को प्राप्त होता है। 

[भाव की शुद्धि आवश्यक]

वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।

न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्॥ 

मनु० [२।९७]॥ 

जो दुष्टाचारी=अजितेन्द्रिय पुरुष है, उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते।

[नित्य कर्म में अनध्याय नहीं]

वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके।

नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥१॥ 

नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्।

ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम्॥२॥ 

मनु० [२।१०५-१०६]॥

वेद के पढ़ने-पढ़ाने, सन्ध्योपासनादि पंचमहायज्ञों के करने और होममन्त्रों में अनध्याय और निरोध अर्थात् अननुष्ठान [=अनुष्ठान का त्याग और निषेध] नहीं होता, क्योंकि नित्यकर्म में अनध्याय नहीं होता॥१॥ 


जैसे श्वास-प्रश्वास सदा लिये जाते हैं, बन्द नहीं किये जाते, वैसे नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिये; किसी दिन न छोड़ना [चाहिये], क्योंकि अनध्याय में भी अग्निहोत्रादि उत्तम कर्म किये हुए पुण्यरूप होते हैं। जैसे झूठ बोलने में सदा पाप और सत्य बोलने में सदा पुण्य होता है, वैसे ही बुरे कर्म करने में सदा अनध्याय और अच्छे कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है॥२॥

 [वृद्धजनों की सेवा के फल]

अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः। 

चत्वारि तस्य वर्द्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्॥ 

मनु० [२।१२१] ॥

जो सदा नम्र, सुशील, विद्वान् और वृद्धों की सेवा करता है, उसके आयु, विद्या, कीर्ति और बल; ये चार सदा बढ़ते रहते हैं। और जो ऐसा नहीं करते, उनके आयु आदि चार नहीं बढ़ते। 

[वाणी और मन की शुद्धि से वेदान्त-रूप फल की प्राप्ति]

अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्।

वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता॥१॥

यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा। 

स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम्॥२॥ 

मनु० [२।१५९-१६०]॥

विद्वान् और विद्यार्थियों को योग्य है कि वैरबुद्धि छोड़के सब मनुष्यों को कल्याण के मार्ग का उपदेश करें; और उपदेष्टा सदा मधुर, सुशीलतायुक्त वाणी बोले। जो धर्म की उन्नति चाहे, वह सदा सत्य में चले और सत्य का ही उपदेश करे ॥१॥


जिस मनुष्य के वाणी और मन शुद्ध तथा सुरक्षित सदा रहते हैं; वही सब ‘वेदान्त’= ‘सब वेदों के सिद्धान्तरूप फल’ को प्राप्त होता है॥२॥ 

[प्रतिष्ठा से विष-तुल्य डरे अपमान की इच्छा अमृत-समान करे]

सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।

अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा॥

मनु० [२।१६२]॥ 

वही ब्राह्मण समग्र वेद और परमेश्वर को जानता है, जो प्रतिष्ठा से विष के तुल्य सदा डरता है; और अपमान की इच्छा अमृत के समान किया करता है। 


अनेन क्रमयोगेन संस्कृतात्मा द्विजः शनैः। 

गुरौ वसन् सञ्चिनुयाद् ब्रह्माधिगमिकं तपः॥

 मनु० [२।१६४]॥

इसी प्रकार से कृतोपनयन द्विज ब्रह्मचारी कुमार और ब्रह्मचारिणी कन्या धीरे-धीरे वेदार्थ के ज्ञानरूप उत्तम तप को बढ़ाते चले जायें।

[वेदाध्ययन के त्याग से शूद्रत्व की प्राप्ति]

योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्। 

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥ 

मनु० [२ । १६८] 

जो वेद को न पढ़के अन्यत्र श्रम किया करता है, वह अपने पुत्र-पौत्र-सहित शूद्रभाव को शीघ्र ही प्राप्त हो जाता है।

[ब्रह्मचारी व ब्रह्मचारिणी के विशेष कर्त्तव्य]

वर्जयेन्मधुमांसञ्च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः।

शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम्॥१॥

अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम्। 

कामं क्रोधं च लोभं च नर्त्तनं गीतवादनम्॥२॥ 

द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथानृतम्। 

स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च॥३॥ 

एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत् क्वचित्।

कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः॥४॥ 

मनु० [२ । १७७-१८०] ॥


ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का [पारस्परिक] संग, सब खाटाइयां, प्राणियों की हिंसा॥१॥ 


अङ्गों का मर्दन, विना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आँखों में अञ्जन, जूते और छत्र का धारण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष और नाच-गान, बाजा बजाना॥२॥ 


द्यूत, जिस किसी की कथा, निन्दा, मिथ्याभाषण, स्त्रियों का दर्शन-आश्रय, दूसरे की हानि आदि  कुकर्मों को सदा छोड़ देवें॥३॥


सर्वत्र एकाकी सोवे, वीर्य स्खलित कभी न करे। जो कामना से वीर्य स्खलित कर दे, तो जानो कि अपने ब्रह्मचर्य-व्रत का नाश कर दिया॥४॥ 

[आचार्य का शिष्य को उपदेश]

वेदमनूच्याचार्योऽन्तेवासिनमनुशास्ति। सत्यं वद। धर्मं चर। स्वाध्यायान्मा प्रमदः। आचार्याय प्रियं धनमाहृत्य प्रजातन्तुं मा व्यवच्छेत्सीः। सत्यान्न प्रमदितव्यम्। धर्मान्न प्रमदितव्यम्। कुशलान्न प्रमदितव्यम्। भूत्यै न प्रमदितव्यम्। स्वाध्याय-प्रवचनाभ्यां न प्रमदितव्यम्॥१॥

देवपितृकार्याभ्यां न प्रमदितव्यम्। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव॥ आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव। यान्यनवद्यानि कर्माणि तानि सेवितव्यानि नो इतराणि। यान्यस्माकꣳसुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥२॥ 

ये के चास्मच्छ्रेयांसो ब्राह्मणास्तेषां त्वयासनेन प्रश्वसितव्यम्। श्रद्धया देयम्। अश्रद्धया देयम्। श्रिया देयम्। ह्रिया देयम्। भिया देयम्। संविदा देयम्॥३॥

अथ यदि ते कर्मविचिकित्सा वा वृत्तविचिकित्सा वा स्यात्। ये तत्र ब्राह्मणाः समदर्शिनो युक्ता अयुक्ताः अलूक्षा धर्मकामाः स्युः, यथा ते तत्र वर्त्तेरन्, तथा तत्र वर्त्तेथाः। एष आदेशः, एष उपदेशः, एषा वेदोपनिषत्। एतदनुशासनम्।
एवमुपासितव्यम्। एवमु चैतदुपास्यम्॥४॥

 यह तैत्तिरीयोपनिषद् का वचन है। [१ । ११]।

आचार्य, अन्तेवासी अर्थात् अपने शिष्य को और [और आचार्या अपनी] शिष्या को इस प्रकार उपदेश करे कि तू सदा सत्य बोल, धर्माचरण कर, प्रमादरहित होके पढ़-पढा, पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्याओं को ग्रहण [करके] और आचार्य के लिये प्रिय धन देकर, विवाह करके सन्तानोत्पत्ति कर। प्रमाद से सत्य को कभी मत छोड़, प्रमाद से धर्म का त्याग मत कर, प्रमाद से आरोग्य और चतुराई को मत छोड़, [प्रमाद से, उत्तम ऐश्वर्य की वृद्धि को मत छोड़], प्रमाद से पढ़ने और पढ़ाने को कभी मत छोड़॥१॥ 


देव=विद्वान् और माता-पितादि की सेवा में प्रमाद मत कर। जैसे विद्वान् का सत्कार करे, उसी प्रकार माता, पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा सदा किया कर। जो अनिन्दित धर्मयुक्त कर्म हैं, उन सत्यभाषणादि को किया कर, उनसे भिन्न मिथ्या-भाषणादि कभी मत कर। जो हमारे सुचरित्र अर्थात् धर्मयुक्त कर्म हों, उनका ग्रहण कर और जो हमारे पापाचरण [हों], उनको कभी मत कर॥२॥ 


जो कोई हमारे मध्य में उत्तम विद्वान् और धर्मात्मा ब्राह्मण हैं, उन्हीं के समीप बैठ और उन्हीं का विश्वास किया कर। श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिये॥३॥


जब कभी तुझको कर्म वा शील तथा उपासना-ज्ञान में किसी प्रकार का संशय उत्पन्न हो, तो जो वे समदर्शी= पक्षपातरहित, योगी, अयोगी, आर्द्रचित्त, धर्म की कामना करनेवाले धर्मात्मा जन हों, जैसे वे धर्ममार्ग में वर्तें, वैसे तू उसमें वर्ता कर। यही आदेश=आज्ञा, यही उपदेश, यही वेद की उपनिषत् और यही शिक्षा है। इसी प्रकार वर्तना और अपना चाल-चलन सुधारना चाहिये॥४॥ 

[सर्वथा कामना-त्याग असम्भव]

अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्।

यद्यद्धि कुरुते किञ्चित् तत्तत्कामस्य चेष्टितम्॥१॥

 मनु० [२।४]॥

मनुष्य को निश्चय करना चाहिये कि निष्काम पुरुष में नेत्र का संकोच-विकास होना भी सर्वथा असम्भव है, इससे यह सिद्ध होता है कि [मनुष्य] जो-जो कुछ भी करता है, वह-वह चेष्टा कामना के विना नहीं है॥१॥ 

[आचार का महत्त्व]

आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त्त एव च।

तस्मादस्मिन्त्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः॥२॥ 

आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते। 

आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्॥३॥

 मनु० [१।१०८-१०९]॥

कहने, सुनने-सुनाने, पढ़ने-पढ़ाने का फल यही है कि वेद और वेदानुकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना। इसलिये धर्माचार में सदा युक्त रहै॥२॥ 


क्योंकि जो धर्माचरण से रहित है, वह वेदप्रतिपादित धर्मजन्य सुखरूप फल को प्राप्त नहीं हो सकता और जो विद्या पढ़के धर्माचरण करता है, वही सम्पूर्ण सुख को प्राप्त होता है॥३॥

[वेद का निन्दक नास्तिक]

योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः।

स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥४॥ 

मनु० [२।११]॥

जो वेद और वेदानुकूल आप्त पुरुषों के किये शास्त्रों का अपमान करता है, उस वेदनिन्दक नास्तिक को जाति, पङ्क्ति और देश से बाह्य कर देना चाहिये॥४॥ क्योंकि—

[धर्म के चार लक्षण]

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥५॥ 

मनु० [२।१२]॥

वेद=श्रुति, स्मृति=वेदानुकुल आप्तोक्त ‘मनुस्मृति’-आदि शास्त्र; सत्पुरुषों का आचार=जो सनातन अर्थात् वेद द्वारा परमेश्वरोक्त-प्रतिपादित कर्म, और अपने आत्मा का प्रिय अर्थात् जिसको आत्मा चाहता है, जैसा कि सत्यभाषण, ये चार धर्म के लक्षण हैं; अर्थात् इन्हीं से धर्माधर्म का निश्चय होता है। जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है, उसी का नाम ‘धर्म’ और उससे विपरीत जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहणरूप कर्म है, उसी को ‘अधर्म’ कहते हैं॥५॥ 

[धर्मज्ञान में वेद परम प्रमाण]

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते।

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः॥६॥

 मनु० [२।१३]॥ 

जो पुरुष अर्थ=सुवर्ण, रत्न आदि और काम=स्त्रीसेवनादि में नहीं फसे हैं, उन्हीं को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है। जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें, वे वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें; क्योंकि धर्म-अधर्म का निश्चय विना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता ॥६॥ 

[क्षत्रिय आदि को पढ़ाने में ब्राह्मण का भी कल्याण]

इस प्रकार आचार्य अपने शिष्य को उपदेश करे। 


और विशेषकर राजा, इतर क्षत्रिय, वैश्य और उत्तम शूद्र जनों को भी विद्या का अभ्यास अवश्य करावें। क्योंकि जो ब्राह्मण हैं, वे ही केवल विद्याभ्यास करें और क्षत्रियादि न करें, तो विद्या, धर्म, राज्य और धन आदि की बढ़ती कभी नहीं हो सकती। क्योंकि ब्राह्मण तो केवल पढ़ने-पढ़ाने और क्षत्रियादि से जीविका को प्राप्त होके जीवन धारण कर सकते हैं। जीविका के आधीन [होने से], और क्षत्रियादि के आज्ञादाता और यथावत् परीक्षक दण्डदाता न होने से, ब्राह्मणादि सब वर्ण छल-कपट में फसके, विद्याभ्यास, धर्म को छोड़ पाखण्ड में ही फस जाते हैं। 


और जब क्षत्रियादि विद्वान् होते हैं, तब ब्राह्मण भी अधिक विद्याभ्यास [करते हैं] और धर्मपथ में चलते हैं और उन क्षत्रियादि विद्वानों के सामने पाखण्ड, झूठा व्यवहार भी नहीं कर सकते। और जब क्षत्रियादि अविद्वान् होते हैं, तो वे जैसा अपने मन में आता है, वैसा ही करते-कराते हैं। इसलिये ब्राह्मण भी अपना कल्याण चाहें तो क्षत्रियादि को वेदादि सत्यशास्त्रों का अभ्यास अधिक प्रयत्न से करावें। क्योंकि क्षत्रियादि ही विद्या, धर्म, राज्य और लक्ष्मी की वृद्धि करनेहारे हैं। वे कभी भिक्षावृत्ति नहीं करते, इसलिये वे विद्या-व्यवहार में पक्षपाती भी नहीं हो सकते। और जब सब वर्णों में विद्या-सुशिक्षा होती है, तब कोई भी पाखण्डरूप, अधर्मयुक्त मिथ्या-व्यवहार को नहीं चला सकता।


इससे क्या सिद्ध हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलानेवाले ब्राह्मण और संन्यासी, तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलानेवाले क्षत्रियादि ही होते हैं। इसलिये सब वर्णों के स्त्री- पुरुषों में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिये। 

[सत्याऽसत्य की पाँच प्रकार से परीक्षा]

अब जो-जो पढ़ना-पढ़ाना हो, वह-वह अच्छी प्रकार परीक्षा करके होना योग्य है। परीक्षा पाँच प्रकार से होती है―


एक―जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों के अनुकूल हो, वह-वह ‘सत्य’ और उसके विरुद्ध ‘असत्य’ है। 


दूसरी―जो-जो सृष्टिक्रम के अनुकूल वह-वह ‘सत्य’ और जो-जो सृष्टिक्रम के विरुद्ध है, वह सब ‘असत्य’ है। जो कोई कहे―‘‘विना माता-पिता के योग से लड़का उत्पन्न हुआ”, ऐसा कथन सृष्टिक्रम के विरुद्ध होने से असत्य है। 


तीसरी―‘आप्त’ अर्थात् जो धार्मिक, विद्वान्, सत्यवादी, निष्कपटियों के संग [और] उनके उपदेश के अनुकूल है वह-वह ‘ग्राह्य’, और जो-जो विरुद्ध है वह-वह ‘अग्राह्य’ है।


चौथी―अपने आत्मा की पवित्रता और विद्या के अनुकूल, अर्थात् जैसे अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है, वैसे सर्वत्र समझ लेना कि मैं भी किसी को दुःख वा सुख दूँगा, तो वह भी अप्रसन्न और प्रसन्न होगा। 


और पाँचवीं―आठों प्रमाण अर्थात् प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव। 

[प्रत्यक्षादि प्रमाणों के लक्षण]

इनमें से प्रत्यक्ष [आदि] के लक्षणादि में जो-जो नीचे सूत्र लिखेंगे, वे-वे सब ‘न्यायशास्त्र’ के प्रथम और द्वितीय अध्याय के जानो। [प्रथम प्रत्यक्ष―]

इन्द्रियार्थसन्निकर्षोत्पन्नं ज्ञानमव्यपदेश्यमव्यभिचारि व्यवसायात्मकं प्रत्यक्षम्॥ 

न्याय०, अध्याय १॥ आह्निक १॥ सूत्र ४॥


जो श्रोत्र, त्वचा, चक्षु, जिह्वा और घ्राण का शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध के साथ अव्यवहित अर्थात् आवरणरहित सम्बन्ध होता है, और इन्द्रियों के साथ मन और मन के साथ आत्मा के संयोग से जो ज्ञान उत्पन्न होता है, उसको ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं। परन्तु जो (अव्यपदेश्यम्) अर्थात् संज्ञा-संज्ञी के सम्बन्ध से उत्पन्न होता है वह, वह ज्ञान न हो । जैसे, किसी ने किसी से कहा कि ‘तू जल ले आ’ वह लाके, उसके पास धरके, बोला कि “यह जल है”। परन्तु वहाँ ‘ज, ल’ इन दो अक्षरों की संज्ञा को, न लाने, और न मंगवाने वाला देख सकता है; किन्तु जिस पदार्थ का नाम ‘जल’ है, वही ‘प्रत्यक्ष’ होता है। और जो शब्द से ज्ञान उत्पन्न होता है, वह ‘शब्दप्रमाण’ का विषय है। ‘(अव्यभिचारि)’ जैसे किसी ने रात्रि में खम्भे को देखके [उसके] पुरुष [होने] का निश्चय कर लिया। जब दिन में उसको देखा, तो रात्रि का पुरुष-ज्ञान नष्ट होकर, स्तम्भ-ज्ञान रहा। ऐसे विनाशी ज्ञान का नाम ‘व्यभिचारी’ है। (व्यवसायात्मकम्) ― किसी ने दूर से नदी की बालू देखके कहा कि ‘वहाँ वस्त्र सूख रहे हैं, ‘जल है वा और कुछ है?’ ‘वह देवदत्त खड़ा है वा यज्ञदत्त?’ जब तक एक निश्चय न हो, तब तक वह प्रत्यक्ष ज्ञान नहीं है; किन्तु जो अव्यपदेश्य, अव्यभिचारी और निश्चयात्मक ज्ञान है, उसी को ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं।


दूसरा अनुमान


अथ तत्पूर्वकं त्रिविधमनुमानं पूर्ववच्छेषवत्सामान्यतोदृष्टं च॥

 न्याय०, अ० १। आ० १ । सू०५॥


जो प्रत्यक्षपूर्वक अर्थात् जिसका कोई एक देश वा सम्पूर्ण द्रव्य किसी स्थान वा काल में प्रत्यक्ष हुआ हो, उसका दूर देश से सहचारी वा एक देश के प्रत्यक्ष होने से अदृष्ट अवयवी का ज्ञान होने को ‘अनुमान’ कहते हैं। जैसे, पुत्र को देखके पिता का, पर्वतादि में धूम को देखके अग्नि का, जगत् में सुख-दुःख देखके पूर्वजन्म का ज्ञान होता है। 


वह अनुमान तीन प्रकार का है। एक, ‘पूर्ववत्’―जहाँ कारण को देखके कार्य का ज्ञान हो, वह ‘पूर्ववत्’ है। जैसे बद्दलों को देखके वर्षा का, विवाह को देखके सन्तानोत्पत्ति का, पढ़ते हुए विद्यार्थियों को देखके विद्या होने का निश्चय होता है, इत्यादि। दूसरा, ‘शेषवत्’― अर्थात् जहाँ कार्य को देखके कारण का ज्ञान हो। जैसे, नदी के प्रवाह की बढ़ती देखके ऊपर हुई वर्षा का, पुत्र को देखके पिता का, सृष्टि को देखके ‘अनादि कारण’ का, सृष्टि में ‘रचना-विशेष’ देखके कर्त्ता ईश्वर का, सुख-दुःख देखके पुण्य-पाप के आचरण का ज्ञान होता है, इसी को ‘शेषवत्’ कहते हैं। तीसरा, ‘सामान्यतोदृष्ट’―जो कोई किसी का कार्य-कारण न हो, परन्तु किसी प्रकार का साधर्म्य एक दूसरे के साथ हो। जैसे कोई भी विना चले दूसरे स्थान को नहीं जा सकता, वैसे ही दूसरों का भी स्थानान्तर में जाना विना गमन के कभी नहीं हो सकता। ‘अनुमान’ शब्द का अर्थ यही है कि ‘अनु’ अर्थात् ‘प्रत्यक्षस्य पश्चान्मीयते ज्ञायते येन तदनुमानम्’=जो प्रत्यक्ष के पश्चात् उत्पन्न हो; जैसे, धूम को प्रत्यक्ष देखे विना अदृष्ट अग्नि का ज्ञान कभी नहीं हो सकता। 


तीसरा उपमान― 


प्रसिद्धसाधर्म्यात् साध्यसाधनमुपमानम्॥

न्याय०, अ० १॥ आ० १॥ सू० ६॥


जो प्रसिद्ध=प्रत्यक्ष साधर्म्य से साध्य अर्थात् सिद्ध करने योग्य ज्ञान की सिद्धि करने का साधन हो, उसको ‘उपमान’ कहते हैं। ‘उपमीयते येन तदुपमानम्’= जैसे किसी ने किसी भृत्य से कहा कि “तू देवदत्त के साथी विष्णुमित्र को बुला ला।” वह बोला कि “मैंने उसको कभी नहीं देखा”। उसके स्वामी ने उससे कहा कि “जैसा यह देवदत्त है, वैसा ही विष्णुमित्र है;” वा “जैसी यह गाय है, वैसा ही गवय अर्थात् रोजा=नीलगाय होती है”। जब वह वहाँ गया और देवदत्त के सदृश जिसको देखा, निश्चय जान लिया कि ‘यही विष्णुमित्र है’, उसको ले आया; अथवा किसी जंगल में जिस पशु को गाय के तुल्य देखा, उसको जान लिया कि इसी का नाम ‘गवय’ है।


चौथा शब्दप्रमाण

आप्तोपदेशः शब्दः॥ 

न्याय, अ० १ । आ० १। सू०७॥


जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा, परोपकारप्रिय, सत्यवादी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय पुरुष जैसा अपने आत्मा में जानता हो और जिससे सुख पाया हो, उसी के कथन की इच्छा से प्रेरित [होकर] सब मनुष्यों के कल्याणार्थ उपदेष्टा हो, अर्थात् जितने पृथिवी से लेके परमेश्वर-पर्यन्त पदार्थ [हैं उनका] ज्ञान प्राप्त होकर उपदेष्टा होता है, जो ऐसे पुरुष [के उपदेश], और पूर्ण आप्त परमेश्वर के उपदेश ‘वेद’ हैं, उन्हीं को ‘शब्दप्रमाण’ जानो। 


न चतुष्ट्वमैतिह्यार्थापत्तिसम्भवाभावप्रामाण्यात्॥ 

न्याय०, अ० २। आ० २। सू० १॥


[अर्थ―प्रमाण केवल चार ही नहीं हैं, क्योंकि ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव इनको भी प्रमाण माना है। अतः प्रमाण आठ हैं।] 


पांचवां ऐतिह्य― 


[इतिहासो नाम वृत्तम्=] जो ‘इति ह’ अर्थात् इस प्रकार का था, उसने इस प्रकार किया। अर्थात् किसी के जीवन-चरित्र का नाम ‘ऐतिह्य’ है।


छठा अर्थापत्ति― 


‘अर्थादापद्यते सा अर्थापत्तिः’ [=“जो एक बात किसी ने कही हो उससे विरुद्ध दूसरी बात समझी जावे” वह अर्थापत्ति कहाती है] केनचिदुच्यते―‘सत्सु घनेषु वृष्टिः, सति कारणे कार्यं भवतीति’। किमत्र प्रसज्यते―‘असत्सु घनेषु-वृष्टिः, असति कारणे च कार्यं न भवतीति’= जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘बद्दल के होने से वर्षा और कारण के होने से कार्य उत्पन्न होता है’। इससे, विना कहे यह दूसरी बात सिद्ध होती है कि ‘विना बद्दल वर्षा और विना कारण के कार्य कभी नहीं हो सकता।’ 


सातवाँ सम्भव― 


‘सम्भवति यस्मिन् स सम्भवः’=[जिस कार्य की सृष्टिक्रमानुकूल और युक्ति-प्रमाण से होने की संभावना हो, वह ‘संभव’ है, जैसे-] कोई कहे कि ‘माता- पिता के सङ्ग के विना सन्तानोत्पत्ति [हुई], किसी ने मृतक जिलाये, पहाड़ उठाये, समुद्र में पत्थर तैराये, चन्द्रमा के टुकड़े किये, परमेश्वर का अवतार हुआ, मनुष्य के सींग देखे और वन्ध्या के पुत्र और पुत्री का विवाह किया’, इत्यादि सब बातें असम्भव हैं। क्योंकि ये सब बातें सृष्टिक्रम के विरुद्ध हैं, और जो बात सृष्टिक्रम के अनुकूल हो, वही ‘सम्भव’ है।


आठवाँ अभाव


‘न भवति यस्मिन् सोऽभावः’= [जिस कार्य में होने का भाव न हो वह ‘अभाव’ है] जैसे किसी ने किसी से कहा कि ‘हाथी ले आ’ वह वहाँ हाथी का ‘अभाव’ देखकर, जहाँ हाथी था, वहाँ से ले आया। 


ये आठ प्रमाण [हैं]। इनमें से जो शब्द में ऐतिह्य और अनुमान में अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव की गणना करें, तो चार प्रमाण रह जाते हैं। इन पाँच प्रकार की परीक्षाओं से मनुष्य सत्यासत्य का निश्चय कर सकता है, अन्यथा नहीं। 

[द्रव्यादि छः प्रदार्थों के तत्त्वज्ञान से मोक्ष-प्राप्ति]

धर्मविशेषप्रसूताद् द्रव्यगुणकर्मसामान्यविशेषसमवायानां पदार्थानां साधर्म्यवैधर्म्याभ्यां तत्त्वज्ञानान्निःश्रेयसम्॥

वै०, अ० १। आ० १। सू० ४॥


मनुष्य धर्म के यथायोग्य अनुष्ठान करने से पवित्र होकर ‘साधर्म्य’ अर्थात् जो तुल्य धर्म है, जैसे―पृथिवी जड़ और जल भी जड़; ‘वैधर्म्य’ अर्थात् [जो विपरीत धर्म है, जैसे―] पृथिवी कठोर और जल कोमल; इसी प्रकार से ‘द्रव्य’, ‘गुण’, ‘कर्म’, ‘सामान्य’, ‘विशेष’ और ‘समवाय’ इन छः पदार्थों के तत्त्वज्ञान अर्थात् स्वरूपज्ञान से ‘निःश्रेयसम्’=मोक्ष को प्राप्त होता है।

[द्रव्यों की गणना]

पृथिव्यापस्तेजो वायुराकाशं कालो दिगात्मा मन इति द्रव्याणि।

वै०, अ० १। आ० १। सू० ५। 


पृथिवी, जल, तेज, वायु, आकाश, काल, दिशा, आत्मा और मन ये नव ‘द्रव्य’ हैं। 

[द्रव्य का लक्षण]

क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम्॥ 

वै०, अ० १। आ० १ । सू० १५ ॥


‘क्रियाश्च गुणाश्च विद्यन्ते यस्मिँस्तत् क्रियागुणवत्’=जिसमें क्रिया, गुण और केवल गुण भी रहें, उसको ‘द्रव्य’ कहते हैं। उनमें से पृथिवी, जल, तेज, वायु, मन और आत्मा ये छः द्रव्य क्रिया और गुणवाले हैं। तथा आकाश, काल और दिशा ये तीन गुणवाले तो हैं, किन्तु क्रिया-वाले नहीं। (समवायि०) ‘समवेतुं शीलं यस्य तत् समवायि, प्राग्वृत्तित्वं कारणं, समवायि च तत्कारणं च समवायिकारणम्’ ‘लक्ष्यते येन तल्लक्षणम्’=जो मिलने के स्वभावयुक्त, कार्य से कारण पूर्वकालस्थ हो, उसको ‘समवायिकारण’ कहते हैं। जिससे लक्ष्य जाना जाय; जैसे, आँख से रूप जाना जाता है, उसको ‘लक्षण’ कहते हैं।

[पृथिव्यादि भूत द्रव्यों के लक्षण वा गुण]

रूपरसगन्धस्पर्शवती पृथिवी॥

 वै०, अ० २। आ० १। स० १॥

जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श है, वह ‘पृथिवी’ कहाती है। 


व्यवस्थितः पृथिव्यां गन्धः॥

 वै० । अ० २। आ० २। सू० ३॥


पृथिवी में गन्ध गुण स्वाभाविक है और रूप, रस और स्पर्श [क्रमशः] अग्नि, जल और वायु के योग से हैं। वैसे ही जल में रस, अग्नि में रूप, वायु में स्पर्श और आकाश में शब्द स्वाभाविक [गुण] है। 


रूपरसस्पर्शवत्य आपो द्रवाः स्निग्धाः॥

वै०, अ० २। आ० १। सु० २॥ 


रूप, रस और स्पर्शवान्, द्रवीभूत और कोमल है, सो ‘जल’ कहाता है। परन्तु जल का स्वाभाविक गुण ‘रस’ [है]; तथा रूप और स्पर्श [क्रमशः] अग्नि और वायु के योग से हैं। 


अप्सु शीतता॥

वै०, अ० १। आ० २। सू० ५ ॥

और ‘जल’ में शीतलत्व गुण भी स्वाभाविक है। 


तेजो रूपस्पर्शवत्॥

वै०, अ० २। आ० १ । सू० ३॥

जो रूप और स्पर्शवाला है, वह ‘तेज’ है; परन्तु इसमें रूप स्वाभाविक और स्पर्श वायु के योग से है।


स्पर्शवान् वायुः॥ 

वै०, अ० २। आ० १। सू० ४॥ 


स्पर्श गुणवाला ‘वायु’ है; परन्तु इसमें भी उष्णता, शीतता [क्रमशः] तेज और जल के योग से है। 


त आकाशे न विद्यन्ते॥

वै०, अ० २। आ० १। सू० ५॥


रूप, रस, गन्ध और स्पर्श आकाश में नहीं हैं; किन्तु ‘शब्द’ ही आकाश का गुण है। 


निष्क्रमणं प्रवेशनमित्याकाशस्य लिङ्गम्॥ 

वै०, अ० २। आ० १। सू० २० ॥


जिसमें प्रवेश और निकलना होता है, वह ‘आकाश’ का लिङ्ग है। 


कार्यान्तराप्रादुर्भावाच्च शब्दः स्पर्शवतामगुणः॥ 

वै०, अ० २। आ० १। सू० २५ ।

अन्य पृथिवी आदि कार्यों से प्रकट न होने से ‘शब्द’, स्पर्श गुणवाली भूमि आदि का गुण नहीं है; किन्तु शब्द आकाश का ही गुण है।

[काल का लक्षण]

अपरस्मिन् परं युगपच्चिरं क्षिप्रमिति काललिङ्गानि॥ 

वै०, अ० २। आ० २। सू० ६॥ 


जिसमें [अपरस्मिन्-परम्] अपर, पर, (युगपत्) एक वार, (चिरम्) विलम्ब, (क्षिप्रम्) शीघ्र इत्यादि प्रयोग होते हैं, [काल०] उसको ‘काल’ कहते हैं।


नित्येष्वभावाद्-अनित्येषु भावात् कारणे कालाख्येति॥

 वै०, अ० २। आ० २। सू० ९॥


जो नित्य पदार्थों में न हो और अनित्यों में हो, इसीलिये कारण में ही ‘काल’ संज्ञा है। 

[दिक्=दिशा का लक्षण और भेद]

इत इदमिति यतस्तद्दिश्यं लिङ्गम्॥ 

वै०, अ० २। आ० २। सू० १०॥ 


‘यहां से यह पूर्व, दक्षिण, पश्चिम, उत्तर, ऊपर, नीचे’, जिसमें यह व्यवहार होता है, उसको ‘दिशा’ कहते हैं।


आदित्यसंयोगाद् भूतपूर्वाद् भविष्यतो भूताच्च प्राची॥

 वै०, अ० २। आ० २। सू० १४।

जिस ओर प्रथम आदित्य का संयोग हुआ, है, और होगा, उसको ‘पूर्व’ दिशा कहते हैं; और जहाँ अस्त हो, उसको ‘पश्चिम’। पूर्वाभिमुख मनुष्य के दाहिनी ओर ‘दक्षिण’ और बाईं ओर ‘उत्तर’ दिशा कहाती है। 


एतेन दिगन्तरालानि व्याख्यातानि॥

वै०, अ० २। आ० २। सू० १६॥ 

इससे जो पूर्व-दक्षिण के बीच दिशा है उसको ‘आग्नेयी’, दक्षिण-पश्चिम के बीच को ‘नैर्ऋती’, पश्चिम-उत्तर के बीच को ‘वायवी’ और उत्तर-पूर्व के बीच को ‘ऐशानी’ दिशा कहते हैं।

[आत्मा के लिङ्ग]

इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानान्यात्मनो लिङ्गमिति॥ 

न्याय०, अ० १। आ० १। सू० १०॥ 


जिसमे (इच्छा) राग, (द्वेष) वैर, (प्रयत्न) पुरुषार्थ, सुख, दु:ख, (ज्ञानानि) जानना गुण हों, [आत्मनः लिङ्गम्] वह जीवात्मा [है]। वैशेषिक में इतना विशेष है―


प्राणाऽपाननिमेषोन्मेषजीवनमनोगतीन्द्रियान्तरविकाराः सुखदुःख-इच्छाद्वेषप्रयत्नाश्चात्मनो लिङ्गानि॥ 

वै०, अ० ३। आ० २। सू०४॥

(प्राण) भीतर से वायु को निकालना, (अपान) बाहर से वायु को भीतर लेना, (निमेष) आँख को नीचे ढांकना, (उन्मेष) आँख को ऊपर उठाना, (जीवन) प्राण का धारण करना, (मनः) मनन=विचार अर्थात् ज्ञान, (गति) यथेष्ट गमन करना, (इन्द्रिय) इन्द्रियों को विषयों में चलाना, उनसे विषयों का ग्रहण करना, (आन्तर-विकाराः) क्षुधा, तृषा, ज्वर, पीड़ा आदि विकारों का होना, [सुखदुःख०] सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष और प्रयत्न ये सब [आत्मनः लिङ्गानि] ‘आत्मा’ के लिङ्ग अर्थात् कर्म और गुण हैं।

[मन का लिङ्ग]

युगपज्ज्ञानानुत्पत्तिर्मनसो लिङ्गम्॥

न्याय०, अ० १। आ० १। सू० १६॥


जिससे एक काल में दो पदार्थों का ग्रहण-ज्ञान नहीं होता, उसको ‘मन’ कहते हैं। 


यह द्रव्य का स्वरूप और लक्षण कहा। अब ‘गुण’ को कहते हैं― 

[गुणों की गणना]

रूपरसगन्धस्पर्शाः संख्याः परिमाणानि पृथक्त्वं संयोग-विभागौ परत्वाऽपरत्वे बुद्धयः सुखदुःखे-इच्छाद्वेषौ प्रयत्नाश्च गुणाः॥

 वै०, अ० १। आ० १। सू० ६॥

रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, विभाग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दु:ख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म, अधर्म और शब्द ये २४ गुण कहाते हैं। 


(रूप) नेत्र से जिसका ग्रहण हो वह, (रस) जीभ से जिस मिष्टादि अनेक प्रकार का ग्रहण होता है वह, (गन्ध) नासिका से जिसका ग्रहण हो वह, (स्पर्श) त्वचा से जिसका ग्रहण होता है वह, (संख्या) एक-द्वि इत्यादि जिससे पदार्थों की गणना होती है वह, (परिमाणानि) जिससे तोल अर्थात् हल्का वा भारी विदित होता है, (पृथक्त्वम्) एक दूसरे से अलग होना, (संयोग) एक दूसरे के साथ मिलना, (विभाग) एक मिले हुए के अनेक टुकड़े होना, (परत्व) इससे यह परे है, (अपरत्व) उससे यह उरे है, (बुद्धि) ज्ञान, (सुख) आनन्द, (दुःख) क्लेश, (इच्छा) राग, (द्वेष) विरोध, वैर, (प्रयत्न) अनेक प्रकार का बल-पुरुषार्थ, [और (च) ‘च’ से] (गुरुत्व) भारीपन, (द्रवत्व) पिघल जाना, (स्नेह) प्रीति और चिकनापन, (संस्कार) दूसरे के योग से वासना का होना, (धर्म) न्यायाचरण और कठिनत्वादि, (अधर्म) अन्यायाचरण और कठिनता से विरुद्ध कोमलता और शब्द। ये चौबीस गुण हैं। [शब्द का लक्षण यह है―]


श्रोत्रोपलब्धिबुद्धिनिर्ग्राह्यः प्रयोगेणाऽभिज्वलित आकाशदेशः शब्दः॥

महाभाष्य [१।१।१]॥

जिसकी श्रोत्रों से प्राप्ति हो और जिसका बुद्धि से ग्रहण हो, और जो प्रयोग से प्रकाशित हो, और आकाश जिसका देश हो, वह ‘शब्द’ कहाता है।


द्रव्याश्रय्यगुणवान् संयोगविभागेष्वकारणमनपेक्ष इति गुणलक्षणम्॥ 

वै०, अ० १ । आ० १ । सू० १६॥


‘गुण’ उसको कहते हैं कि जो द्रव्य के आश्रय रहै, अन्य गुण को धारण न करे, संयोग और विभाग में कारण न हो, अनपेक्ष अर्थात् एक दूसरे की अपेक्षा न करे, उनका नाम ‘गुण’ है।

[कर्म के भेद और लक्षण]

उत्क्षेपणमवक्षेपणमाकुञ्चनं प्रसारणं गमनमिति कर्माणि॥ 

वै०, अ० १ । आ० १। सू० ७॥ 


(उत्क्षेपणम्) ऊपर को चेष्टा करना, (अवक्षेपणम्) नीचे को चेष्टा करना, (आकुञ्चनम्) सङ्कोच करना, (प्रसारणम्) फैलाना, (गमनम्) समभाग में गति करना अर्थात् चलना, आना-जाना, घूमना आदि होते हैं, [इति कर्माणि] इनको कर्म कहते हैं। इनका लक्षण―


एकद्रव्यमगुणं संयोगविभागेष्वनपेक्षकारणमिति कर्मलक्षणम्॥

 वै०, अ० १ । आ० १। सू० १७॥

‘एक द्रव्यमाश्रय आधारो यस्य तदेकद्रव्यम्, न विद्यते गुणो यस्य यस्मिंस्तदगुणम्, संयोगेषु विभागेषु चाऽपेक्षारहितं कारणं तत्कर्मलक्षणम्’ अथवा ‘यत् क्रियते तत्कर्म, लक्ष्यते येन तल्लक्षणम्, कर्मणो लक्षणं कर्मलक्षणम्’=एक द्रव्य के आश्रित, गुणों से रहित, संयोग और विभाग होने में [जो] अपेक्षारहित कारण हो, उसको ‘कर्म’ कहते हैं।

[सामान्य द्रव्य का निर्देश]

द्रव्यगुणकर्मणां द्रव्यं कारणं सामान्यम्॥

वै०, अ० १ । आ० १। सू० १८॥


जो कार्य-द्रव्य, गुण और कर्मों का ‘कारण-द्रव्य’ है, वह ‘सामान्य’ द्रव्य है। 


द्रव्याणां द्रव्यं कार्यं सामान्यम्॥

 वै०, अ० १। आ० १। सू० २३॥ 


जो द्रव्यों का ‘कार्यद्रव्य’ है, वह कार्यपन से सब कार्यों में ‘सामान्य’ है। 

[सामान्य विशेष]

द्रव्यत्वं गुणत्वं कर्मत्वञ्च सामान्यानि विशेषाश्च॥ 

वै०, अ० १ । आ० २ । सू० ५॥

द्रव्यों में द्रव्यपन, गुणों में गुणपन, कर्मों में कर्मपन ये सब ‘सामान्य’ और ‘विशेष’ कहाते हैं। क्योंकि द्रव्यों में द्रव्यत्व सामान्य, और गुणत्व [तथा] कर्मत्व से द्रव्यत्व विशेष है। इसी प्रकार सर्वत्र जानना। 


सामान्यं विशेष इति बुद्ध्यपेक्षम्॥

 वै० अ० १। आ० २। सू० ३॥


‘सामान्य’ और ‘विशेष’, बुद्धि की अपेक्षा से सिद्ध होते हैं। जैसे―मनुष्य व्यक्तियों में ‘मनुष्यत्व’ सामान्य और पशुत्वादि से विशेष [है]। तथैव स्त्रीत्व और पुरुषत्व है। इनमें ब्राह्मणत्व, क्षत्रियत्व, वैश्यत्व, शूद्रत्व भी विशेष हैं। ब्राह्मण व्यक्तियों में ब्राह्मणत्व सामान्य और क्षत्रियादि से विशेष है, इसी प्रकार सर्वत्र जानो। 

[समवाय का लक्षण]

इहेदमिति यतः कार्यकारणयोः सः समवायः॥

 वै०, अ० ७। अ० २। सू० २६॥


इसमें यह [आश्रित है], जैसे―द्रव्य में क्रिया, गुणी में गुण, व्यक्ति में जाति, अवयवी में अवयव; कारण में कार्य; और क्रिया-क्रियावान, गुण-गुणी, जाति- व्यक्ति, कार्य-कारण, अवयव-अवयवी, इनका नित्य सम्बन्ध होने से ‘समवाय’ [सम्बन्ध] कहाता है। और जो दूसरा द्रव्यों का परस्पर सम्बन्ध होता है, वह संयोगी अर्थात् अनित्य सम्बन्ध है।

[साधर्म्य वैधर्म्य]

द्रव्यगुणयोः सजातीयारम्भकत्वं साधर्म्यम्॥

 वै०, अ० १ । आ० १। सू० ९॥


जो द्रव्य और गुण का समानजातीयक कार्य का आरम्भ होता है, उसको ‘साधर्म्य’ कहते हैं। जैसे पृथिवी में जड़त्व धर्म और घटादि कार्योत्पादकत्व स्वसदृश धर्म है, वैसे जल में भी जड़त्व और हिम आदि स्वसदृश कार्य का आरम्भ, पृथिवी के साथ जल का और जल के साथ पृथिवी का तुल्य धर्म है। और ‘द्रव्यगुणयोर्विजातीयारम्भकत्वं वैधर्म्यम्’=यह विदित हुआ कि जो द्रव्य और गुण का विरुद्ध धर्म और कार्य का आरम्भ है, उसको ‘वैधर्म्य’ कहते हैं, जैसे पृथिवी में कठिनत्व, शुष्कत्व और गन्धवत्त्व धर्म जल से विरुद्ध और जल का द्रवत्व, कोमलता और रसगुणयुक्तता पृथिवी से विरुद्ध है। 

[कार्य-कारण सम्बन्ध]

कारणभावात् कार्यभावः॥

 वै०, अ० ४। आ० १। सू० ३॥


कारण के होने से ही कार्य होता है। 


कारणाऽभावात् कार्याऽभावः॥ 

वै०, अ० १। आ० २। सू० १॥

कारण के न होने से, कार्य कभी नहीं होता। 


न तु कार्याभावात् कारणाभावः॥ 

वै०, अ० १। आ० २। सू० २॥ 

कार्य के अभाव से, कारण का अभाव नहीं होता।


कारणगुणपूर्वकः कार्यगुणो दृष्टः॥

वै०, अ० २। आ० १ । सू० २४॥


जैसे कारण में गुण होते हैं, वैसे ही कार्य में होते हैं।

[परिणाम के भेद]

परिमाण दो प्रकार का है― 


अणुमहदिति तस्मिन्विशेषभावाद् विशेषाभावाच्च॥

वै०, अ० ७। आ० १ । सू० ११॥


(अणु) सूक्ष्म, (महत्) बड़ा, ये सापेक्ष हैं। जैसे, ‘त्रसरेणु’ लिक्षा से छोटा और ‘द्व्यणुक’ से बड़ा है, तथा पहाड़ पृथिवी से छोटे [और] वृक्षों से बड़े हैं। 

[सत्ता का लक्षण]

सदिति यतो द्रव्यगुणकर्मसु सा सत्ता॥

वै०, अ० १ । आ० २। सू० ७॥

जो द्रव्य, गुण और कर्मों में ‘सत्’ शब्द अन्वित रहता है, अर्थात् ‘सत्-द्रव्यम्, सत्-गुणः, सत्-कर्म’=सत् द्रव्य, सत् गुण, सत् कर्म अर्थात् वर्त्तमान कालवाची शब्द का अन्वय सबके साथ रहता है, [वह धर्म ‘सत्ता’ है]।

[महासमान्य]

भावोऽनुवृत्तेरेव हेतुत्वात्सामान्यमेव॥

 वै०, अ० १। आ० २। सू० ४॥ 


जो सबके साथ अनुवर्त्तमान होने से सत्तारूप भाव है, सो सत्ता ‘महासामान्य’ कहाती है। 


यह क्रम भावरूप द्रव्यों का है। 

[अभाव के ५ भेद]

और जो अभाव है, वह पाँच प्रकार का होता है। पहला― 


क्रियागुणव्यपदेशाभावात्प्रागसत्॥

 वै०, अ० ९ । आ० १। सू० १॥


जो क्रिया और गुण के विशेष निमित्त के प्राक् अर्थात् पूर्व [वह कार्यरूप पदार्थ] ‘असत्’=न था; जैसे, घट, वस्त्रादि उत्पत्ति के पूर्व नहीं थे। इसका नाम ‘प्रागभाव’ [है]। दूसरा―

सदसत्॥

 वै०, अ० ९। आ० १ । सू० २॥

जो होके न रहै । जैसे, घट उत्पन्न होके नष्ट हो जाय, यह ‘प्रध्वंसाभाव’ कहाता है। तीसरा― 


सच्चासत्॥ 

वै०, अ० ९। आ० १। सू० ४॥


जो होवे और न होवे। जैसे ‘अगौरश्वोऽनश्वो गौः’=यह घोड़ा गाय नहीं और गाय घोड़ा नहीं। अर्थात् घोड़े में गाय का और गाय में घोड़े का अभाव है, और गाय में गाय, घोड़े में घोड़े का भाव है। यह ‘अन्योऽन्याभाव’ कहाता है। चौथा― 


यच्चान्यदसदतस्तदसत्॥

 वै०, अ० ९। आ० १। सू० ५॥ 


जो पूर्वोक्त तीनों अभावों से भिन्न है, उसको ‘अत्यन्ताभाव’ कहते हैं। जैसे― ‘नरशृङ्ग’ अर्थात् मनुष्य का सींग, ‘खपुष्प’=आकाश का फूल और ‘वन्ध्यापुत्र’=वन्ध्या का पुत्र, इत्यादि। पाँचवाँ― 


नास्ति घटो गेहे-इति सतो घटस्य गेहसंसर्गप्रतिषेधः॥ 

वै०, अ० ९ । आ० १। सूत्र १०॥

घर में घड़ा नहीं अर्थात् अन्यत्र है, घर के साथ घड़े का सम्बन्ध नहीं है [यह संसर्गाभाव है] । ये पाँच ‘अभाव’ कहाते हैं। 

[अविद्या के हेतु]

इन्द्रियदोषात्संस्कारदोषाच्चाविद्या॥ 

वै०, अ० ९ । आ० २। सू० १०॥ 


इन्द्रियों और संस्कारों के दोषों से ‘अविद्या’ उत्पन्न होती है। 


तद् दुष्टं ज्ञानम्॥ 

वै०, अ० ९ । आ० २। सू० ११॥


जो दुष्ट ज्ञान अर्थात् विपरीत ज्ञान है, उसको ‘अविद्या’ कहते हैं। 


अदुष्टं विद्या॥ 

वै०, अ० ९ । आ० २। सू० १२॥


जो अदुष्ट अर्थात् यथार्थ ज्ञान है, उसको ‘विद्या’ कहते हैं। 

[पृथिव्यादि-गुणों के नित्य-अनित्य भेद]

पृथिव्यादिरूपरसगन्धस्पर्शा द्रव्यानित्यत्वादनित्याश्च॥२॥ 

एतेन नित्येषु नित्यत्वमुक्तम्॥३॥ 

वै०, अ० ७। आ० १ । सू० २-३॥

जो कार्यरूप पृथिव्यादि पदार्थ और उनमें रूप, रस, गन्ध, स्पर्श गुण हैं, ये सब द्रव्यों के अनित्य होने से अनित्य हैं। और जो इनके कारणरूप पृथिव्यादि नित्य द्रव्यों में गन्धादि गुण हैं, वे ‘नित्य’ हैं।

[नित्य का लक्षण]

सत्-अकारणवत्-नित्यम्॥

वै०, अ० ४। आ० १। सू० १॥


जो विद्यमान हो और जिसका कारण कोई भी न हो, वह ‘नित्य’ है अर्थात्― ‘सत्कारणवत्-अनित्यम्’=जो कारण- वाले कार्यरूप द्रव्य-गुण हैं, वे ‘अनित्य’ कहाते हैं। 

[लैङ्गिक ज्ञान के भेद]

अस्येदं कार्यं कारणं संयोगि-विरोधि-समवायि चेति लैङ्गिकम्॥ 

वै०, अ० ९ । आ० २। सू० १॥ 


इसका यह कार्य वा कारण है, इत्यादि ‘समवायी’, ‘संयोगी’, ‘एकार्थ-समवायी’ और ‘विरोधी’ यह चार प्रकार का लैङ्गिक अर्थात् लिङ्ग-लिङ्गी के सम्बन्ध से [होनेवाला] ज्ञान होता है। (समवायि―) जैसे आकाश परिमाणवाला है, (संयोगि―) जैसे शरीर त्वचावाला है, इत्यादि का नित्य संयोग है, (एकार्थ-समवायि’―) एक अर्थ में दो का रहना, जैसे कार्य ‘रूप’, ‘स्पर्श’ कार्य का लिङ्ग अर्थात् जनानेवाला है, (विरोधि)―जैसे हुई भई वृष्टि होनेवाली वृष्टि का विरोधी लिङ्ग है।

‘व्याप्ति’―


नियतधर्मसाहित्यमुभयोरेकतरस्य वा व्याप्तिः॥२९॥ 

निजशक्त्युद्भवमित्याचार्याः॥३१॥

आधेयशक्तियोग इति पञ्चशिखः॥३२॥

 सांख्यशास्त्र [अ० ५। सू०] २९, ३१, ३२॥


जो साध्य-साधन अर्थात् सिद्ध करने योग्य और जिससे सिद्ध किया जाय, उन दोनों अथवा एक साधनमात्र का, निश्चित धर्म का सहचार है, उसी को ‘व्याप्ति’ कहते हैं। जैसे धूम और अग्नि का सहचार है॥२९॥ 


तथा व्याप्य जो धूम उसकी निजशक्ति से उत्पन्न होता है अर्थात् जब देशान्तर में दूर धूम जाता है, तब विना अग्नि के योग के भी धूम स्वयं रहता है, उसी का नाम व्याप्ति है, अर्थात् अग्नि के छेदन, भेदन, सामर्थ्य से जलादि पदार्थ धूमरूप में प्रकट होते हैं॥३१॥ 


जैसे महत्तत्त्वादि में प्रकृत्यादि की व्यापकता, बुद्ध्यादि में व्याप्यता धर्म के सम्बन्ध का नाम व्याप्ति है, अथवा आधेय जो आधार के आश्रय रहै उसकी शक्ति के योग का नाम व्याप्ति है। वैसे शक्ति आधेयरूप और शक्तिमान् आधाररूप का सम्बन्ध है॥३२॥

[ग्रन्थों की परीक्षा करके पढ़ें-पढ़ावें]

इत्यादि शास्त्रों के ‘प्रमाण’-आदि से परीक्षा करके पढ़ें और पढ़ावें। अन्यथा विद्यार्थियों को सत्य-बोध कभी नहीं हो सकता। जिस-जिस ग्रन्थ को पढ़ावें, उस-उसकी पूर्वोक्त प्रकार से परीक्षा करके जो-[जो] सत्य ठहरे, वह-वह ग्रन्थ पढावें। जो-जो इन परीक्षाओं से विरुद्ध हों, उन-उन ग्रन्थों को न पढ़ें-न पढ़ावें। क्योंकि―


लक्षणप्रमाणाभ्यां वस्तुसिद्धिः॥


[न्यायभाष्य ३।१।२८] 


लक्षण जैसा कि ‘गन्धवती पृथिवी’ [न्याय०, वा० भा० ३।१।२८] =जो पृथिवी है, वह गन्धवाली है। ऐसे लक्षण और प्रत्यक्षादि प्रमाण, इनसे सब सत्यासत्य और पदार्थों का निर्णय हो जाता है। इसके विना कुछ भी नहीं होता। 


अथ पठनपाठनविधिः 


अब पढ़ने-पढ़ाने का प्रकार लिखते हैं―

[वर्णोच्चारण-शिक्षा]

प्रथम पाणिनिमुनिकृत ‘शिक्षा’ जो कि सूत्ररूप है, उसकी रीति से अर्थात् इस अक्षर का यह स्थान, यह प्रयत्न, यह करण है, जैसे―‘प’ इसका ओष्ठ स्थान, स्पृष्ट प्रयत्न और प्राण तथा जीभ की क्रिया करना ‘करण’ कहाता है; इसी प्रकार यथायोग्य सब अक्षरों का उच्चारण माता, पिता, आचार्य सिखलावें। 

[व्याकरण―अष्टाध्यायी-महाभाष्य]

तदनन्तर व्याकरण अर्थात् प्रथम अष्टाध्यायी के सूत्रों का पाठ, जैसे―‘वृद्धिरादैच्’ [अष्टा० अ० १। पा० १। सू० १] फिर पदच्छेद जैसे―‘वृद्धिः, आत्, +ऐच्; पश्चात्। समास ‘आच्च ऐच्च आदैच्’; फिर अर्थ―‘आदैचां वृद्धिसंज्ञा क्रियते’=आ, ऐ, औ की वृद्धि संज्ञा है। ‘तः परो यस्मात्स तपरः, तादपि परस्तपरः’=तकार जिससे परे और जो तकार से भी परे हो, वह तपर कहाता है। इससे सिद्ध हुआ कि जो आकार से परे त् और तकार से परे ‘ऐच्’ दोनों ‘तपर’ हैं। ‘तपर’ का प्रयोजन यह है कि ह्रस्व और प्लुत की वृद्धि संज्ञा न हुई। उदाहरण― 


‘भागः’, यहाँ ‘भज्’ धातु से परे ‘घञ्’ प्रत्यय के ‘घ्, ञ’ की इत्संज्ञा होके, लोप हो गया। पश्चात् ‘भज् अ’ यहां जकार के पूर्व भकारस्थ अकार के स्थान में ‘आ’ वृद्धि हुई तो ‘भाज्’। पुनः ‘ज्’  को ग् होकर, अकार के साथ मिलके ‘भागः’। ऐसा प्रयोग हुआ। 


‘अध्यायः’―यहाँ अधिपूर्वक ‘इङ्’ धातु के ह्रस्व इकार के स्थान में ‘घञ्’ प्रत्यय परे होने पर ‘ऐ’ वृद्धि और उसको ‘आय्’ होकर मिलके ‘अध्यायः' [हुआ]।

‘नायकः’―यहाँ ‘नीञ्’ धातु के दीर्घ ईकार के स्थान में ‘ण्वुल्’ प्रत्यय परे होने पर, ‘ऐ’ वृद्धि और उसको ‘आय’ होकर, मिलके ‘नायकः’ [हुआ]।


और ‘स्तावकः’―यहाँ ‘स्तु’ धातु से ‘ण्वुल्’ प्रत्यय होकर धातु के ह्रस्व उकार को ‘औ’ वृद्धि, और उसको ‘आव्’ आदेश होकर अकार में मिल गया, तो ‘स्तावकः’ [हुआ]।


[कारकः] ‘कृञ्’ धातु से आगे ‘ण्वुल्’ प्रत्यय, उसके ‘ण, ल्’ की इत्संज्ञा होके लोप, ‘वु’ के स्थान में ‘अक’ आदेश और ऋकार के स्थान में ‘आर्’ वृद्धि होकर ‘कारकः’ सिद्ध हुआ। 


और जो-जो सूत्र आगे-पीछे के जिस प्रयोग में लगें, उनका सब कार्य बतलाता जाय और सिलेट अथवा लकड़ी के पट्टे पर लिख दिखला-दिखलाके, कच्चारूप धरके, जैसे―‘भज+घञ्+सु’ इस प्रकार धरके। प्रथम धातु के अकार का लोप, पश्चात् घकार और ञ् का लोप होकर ‘भज्+अ+सु’ ऐसा रहा, फिर अ को आकार वृद्धि और ज् के स्थान में ग् होने से ‘भाग्+अ+सु’, पुनः अकार में मिल जाने से ‘भाग+सु’ रहा, अब उकार की इत्संज्ञा, सु के स्थान में रुँ होकर ‘भाग+रुँ’ हुआ, फिर उकार की इत्संज्ञा लोप हो जाने के पश्चात् ‘भागर्’ ऐसा रहा, अब रेफ के स्थान में (:) विसर्जनीय होकर पुनः ‘भागः’ यह रूप सिद्ध हुआ।


जिस-जिस सूत्र से जो-जो कार्य होता है, उस-उस को पढ़-पढाके, लिख-लिखवाके कार्य करता-कराता जाय। इस प्रकार पढ़ने-पढ़ाने से बहुत शीघ्र दृढ़ बोध होता है।


एक वार इसी प्रकार ‘अष्टाध्यायी’ पढ़ाके ‘धातुपाठ’ अर्थसहित और दश लकारों के रूप तथा प्रक्रियासहित सूत्रों के उत्सर्ग अर्थात् सामान्यसूत्र जैसे―‘कर्मण्यम्’ [अष्टा० ३। २। १]=कर्म उपपद लगा हो तो सब धातुमात्र से अण् प्रत्यय हो, जैसे―‘कुम्भकारः’। पश्चात् अपवाद सूत्र जैसे―‘आतोऽनुपसर्गे कः’ [अष्टा० ३। २। ३]= उपसर्गभिन्न कर्म उपपद लगा हो तो आकारान्त धातु से ‘क’ प्रत्यय होवे। अर्थात् जो बहुव्यापक जैसा कि कर्मोपपद लगा हो तो सब धातुओं से ‘अण्’ प्राप्त होता है, उससे विशेष अर्थात् अल्प विषय, उसी पूर्व सूत्र के विषय में से आकारान्त धातु को ‘क’ प्रत्यय ने ग्रहण कर लिया। जैसे ‘उत्सर्ग’ के विषय में ‘अपवाद’ सूत्र की प्रवृत्ति होती है, वैसे अपवाद के विषय में ‘उत्सर्ग’ की प्रवत्ति नहीं होती। जैसे चक्रवर्त्ती राजा के राज्य में माण्डलिक और भूमिदारों की प्रवृत्ति होती है, वैसे माण्डलिक राजादि के राज्य में चक्रवर्त्ती की प्रवृत्ति नहीं होती। इस प्रकार पाणिनि महर्षि ने सहस्र श्लोकों के बीच में अखिल शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की विद्या प्रतिपादित कर दी है। 


‘धातुपाठ’ के पश्चात् ‘उणादिगण’ [=उणादिकोश] के पढ़ाने में सर्व-सुबन्त का विषय अच्छी प्रकार पढ़ाके, पुनः दूसरी वारे शङ्का, समाधान, वार्त्तिक, कारिका, परिभाषा की घटनापूर्वक ‘अष्टाध्यायी’ की द्वितीयानुवृत्ति पढ़ावें।


तदनन्तर ‘महाभाष्य’ पढ़ावें। अर्थात् जो बुद्धिमान्, पुरुषार्थी, निष्कपटी, विद्यावृद्धि के चाहनेवाले नित्यप्रति पढ़ें-पढ़ावें, तो डेढ़ वर्ष में ‘अष्टाध्यायी’ और डेढ़ वर्ष में ‘महाभाष्य’ पढ़के, तीन वर्षों में पूर्ण वैयाकरण होकर, वैदिक और लौकिक शब्दों का व्याकरण से बोध होकर, पुनः अन्य शास्त्रों को शीघ्र सहज में पढ़-पढ़ा सकते हैं। किन्तु जैसा बड़ा परिश्रम व्याकरण में होता है, वैसा श्रम अन्य शास्त्रों में नहीं करना पड़ता। 

[अनार्ष ग्रन्थों के अध्ययन से हानि]

और जितना बोध इनके पढ़ने से तीन वर्षों में होता है, उतना बोध कुग्रन्थों― सारस्वतचन्द्रिका, कौमुदी, मनोरमादि के पढ़ने से पचास वर्षों में भी नहीं हो सकता; क्योंकि जो महाशय, महर्षि लोगों ने सहजता से महान् विषय अपने ग्रन्थों में प्रकाशित किया है, वैसा इन क्षुद्राशय मनुष्यों के कल्पित ग्रन्थों में क्योंकर हो सकता है? महर्षि लोगों का आशय, जहाँ तक हो सके वहाँ तक सुगम और जिसके ग्रहण में समय थोड़ा लगे, इस प्रकार का होता है। और क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहाँ तक बने, वहाँ तक कठिन रचना करनी, जिसको बड़े परिश्रम से पढ़के अल्प लाभ उठा सकें, जैसे-‘पहाड़ का खोदना, कौड़ी का लाभ होना।’ और आर्ष ग्रन्थों का पढ़ना ऐसा है कि ‘एक गोता लगाना, बहुमूल्य मोतियों का पाना।’

[व्याकरण के पश्चात् पठनीय ग्रन्थ]

व्याकरण को पढ़के यास्कमुनिकृत ‘निघण्टु’ और ‘निरुक्त’ छः वा आठ महीनों में सार्थक पढ़ें और पढ़ावें । अन्य नास्तिककृत ‘अमरकोश’-आदि में अनेक वर्ष व्यर्थ न खोवें। तदनन्तर पिङ्गलाचार्यकृत ‘छन्दोग्रन्थ’ जिससे वैदिक-लौकिक छन्दों का परिज्ञान, नवीन रचना और श्लोक बनाने की रीति भी यथावत् सीखें। इस ग्रन्थ और श्लोकों की रचना तथा प्रस्तार को चार महीनों में सीख पढ़-पढ़ा सकते हैं। और ‘वृत्तरत्नाकर’ आदि अल्पबुद्धिप्रकल्पित ग्रन्थों में अनेक वर्ष न खोवें। 

[पठनीय साहित्य ग्रन्थ]

तत्पश्चात् ‘मनुस्मृति’, ‘वाल्मीकि- रामायण’ और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत ‘विदुरनीति’ आदि अच्छे प्रकरण, जिनसे दुष्ट व्यसन दूर हों और उत्तमता, सभ्यता प्राप्त हो, उनको काव्यरीति अर्थात् पदच्छेद, पदार्थोक्ति, अन्वय, विशेष्य, विशेषण और भावार्थ को अध्यापक लोग जनावें और विद्यार्थी लोग जानते जायें। इनको एक वर्ष के भीतर पढ़ लें। 

[षड्दर्शन एवं उपनिषद्]

तदनन्तर ‘पूर्वमीमांसा’, ‘वैशेषिक’, ‘न्याय’, ‘योग’, ‘सांख्य’ और ‘वेदान्त’ अर्थात् जहाँ तक बन सके, वहाँ तक ऋषिकृत व्याख्यासहित अथवा उत्तम विद्वानों की सरल-व्याख्यायुक्त छः शास्त्रों को पढ़ें-पढ़ावें। परन्तु ‘वेदान्तसूत्रों’ के पढ़ने के पूर्व ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य और बृहदारण्यक इन दश उपनिषदों को पढ़ें। छः शास्त्रों के सूत्रों को भाष्यवृत्ति-सहित दो वर्षों के भीतर पढ़ावें और पढ़ लेवें। 

[ब्राह्मण ग्रन्थों के साथ वेदों का अध्ययन]

तत्पश्चात् छ: वर्षों के भीतर चारों ब्राह्मण अर्थात् ‘ऐतरेय’, ‘शतपथ’, ‘साम’ और ‘गोपथ’ ब्राह्मणों के सहित चारों वेदों को स्वर, शब्द-अर्थ-सम्बन्ध तथा क्रियासहित पढ़ना योग्य है। इसमें प्रमाण― 

[अर्थ न जाननेवाले की निन्दा और अर्थज्ञ की प्रशंसा]

स्था॒णुर॒यं भा॑रहा॒रः कि॒लाभू॑द॒धीत्य॒ वेदं॒ न वि॑जा॒नाति॒ योऽर्थ॑म्। 

योऽर्थ॑ज्ञ॒ इत्स॒कलं॑ भ॒द्रम॑श्नुते॒ नाक॑मेति॒ ज्ञान॑विधूतपाप्मा॥ 

 यह निरुक्त में मन्त्र है [१।१८; शांखायन ब्राह्मण १४]।


जो वेद को स्वर और पाठमात्र पढ़के अर्थ नहीं जानता वह, जैसे वृक्ष डाली, पत्ते, फल, फूल [आदि का], और पशु अन्य धान्य आदि का भार उठाता है, वैसे भारवाह अर्थात् भार [मात्र] का उठानेवाला है। और जो वेद को पढ़ता और उसका यथावत् अर्थ जानता है, वही ज्ञान से पापों को छोड़, पवित्र धर्माचरण के प्रताप से सम्पूर्ण आनन्द को प्राप्त होके, देहान्त के पश्चात् ‘सर्वानन्द’ को प्राप्त होता है। 


उ॒त त्वः॒ पश्य॒न्न द॑दर्श॒ वाच॑मु॒त त्वः॑ शृ॒ण्वन्न शृ॑णोत्येनाम्। 

उ॒तो त्व॑स्मै त॒न्वं१॒॑ वि स॑स्त्रे जा॒येव॒ पत्य॑ उश॒ती सु॒वासाः॑॥ 

ऋ०, म० १० । सूक्त ७१। मं० ४॥

जो अविद्वान् हैं, वे सुनते हुए नहीं सुनते, देखते हुए नहीं देखते, बोलते हुए नहीं बोलते अर्थात् अविद्वान् लोग इस विद्या-वाणी के रहस्य को नहीं जान सकते। किन्तु जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध का जाननेवाला है, उसके लिये, जैसे सुन्दर वस्त्र-आभूषण धारण कर, अपने पति की कामना करती हुई स्त्री अपने शरीर और स्वरूप का प्रकाश पति के सामने करती है, वैसे विद्या विद्वान् के लिये अपने स्वरूप का प्रकाश करती है, अविद्वानों के लिये नहीं। 


ऋ॒चो अ॒क्षरे॑ पर॒मे व्यो॑म॒न्यस्मि॑न्दे॒वा अधि॒ विश्वे॑ निषे॒दुः। 

यस्तन्न वेद॒ किमृ॒चा क॑रिष्यति॒ य इत्तद्वि॒दुस्त इ॒मे समा॑सते॥

 ऋ०, म० १। सूक्त १६४। मं० ३९॥ 


जिस व्यापक, अविनाशी, सर्वोत्कृष्ट परमेश्वर में सब विद्वान् और पृथिवी, सूर्य आदि सब लोक स्थित हैं, कि जिसमें सब वेदों का मुख्य तात्पर्य है, उस ब्रह्म को जो नहीं जानता, क्या वह ‘ऋग्वेद’-आदि से कुछ सुख को प्राप्त हो सकता है? नहीं-नहीं। किन्तु जो वेदों को पढ़के, धर्मात्मा, योगी होकर उस ब्रह्म को जानते हैं, वे सब परमेश्वर में स्थित होके, मुक्तिरूपी परमानन्द को प्राप्त होते हैं। इसलिये जो कुछ पढ़ना वा पढ़ाना हो, वह अर्थज्ञानसहित [होना] चाहिये। 

[उपवेद]

इस प्रकार सब वेदों को पढ़के, ‘आयुर्वेद’ अर्थात् जो ‘चरक’, ‘सुश्रुत’ आदि ऋषि- मुनि-प्रणीत वैद्यक-शास्त्र हैं, उनको अर्थ, क्रिया, शस्त्र, छेदन-भेदन, लेप, चिकित्सा, निदान, औषध, पथ्य, शरीर, देश, काल और वस्तु के गुण-ज्ञानपूर्वक ४ चार वर्षों के भीतर पढ़ें-पढ़ावें। 


तदनन्तर ‘धनुर्वेद’ अर्थात् जो राज्यसम्बन्धी काम करना है, इसके दो भेद― एक, निज राजपुरुषसम्बन्धी और दूसरा, प्रजासम्बन्धी होता है। राजकार्य में सब सभाओं [के अध्यक्ष और] सेना के अध्यक्ष शस्त्रास्त्रविद्या, नाना प्रकार के व्यूहों का अभ्यास अर्थात् जिसको आजकल ‘क़वायद’ कहते हैं, जो कि शत्रुओं से लड़ाई के समय में क्रिया करनी होती है, उनको यथावत् सीखें। और जो-जो प्रजा के पालन और वृद्धि करने का प्रकार है, उनको सीखके, न्यायपूर्वक सब प्रजा को प्रसन्न रक्खें, दुष्टों को यथायोग्य दण्ड और श्रेष्ठों के पालन का प्रकार सब प्रकार सीख लें। इस राजविद्या को दो-दो वर्षों में सीखकर ‘गान्धर्ववेद’ कि जिसको गानविद्या कहते हैं; उसमें स्वर, राग, रागिणी, समय, ताल, ग्राम, तान, वादित्र, नृत्य, गीत आदि को [चार वर्षों में] यथावत् सीखें; परन्तु मुख्य करके ‘सामवेद’ का गान वादित्र-वादन-पूर्वक सीखें। और ‘नारदसंहिता’ आदि जो-जो आर्ष ग्रन्थ हैं, उनको पढ़ें; परन्तु भड़ुवों, वेश्याओं और वैरागियों के विषयासक्तिकारक और गर्दभ-शब्दवत् व्यर्थ आलाप कभी न करें। 


‘अर्थवेद’ कि जिसको शिल्पविद्या कहते हैं, उसको पदार्थगुण-विज्ञान, क्रिया, कौशल, नानाविध पदार्थों का निर्माण, पृथिवी से लेके आकाशपर्यन्त की विद्या को और अर्थ अर्थात् जो ऐश्वर्य को बढ़ानेवाला है, उस विद्या को [चार वर्षों में] यथावत् सीख के, 

[ज्योतिष शास्त्र]

दो वर्षों में ज्योतिषशास्त्र ‘सूर्यसिद्धान्तादि’ जिसमें बीजगणित, अङ्क, भूगोल, खगोल और भूगर्भविद्या है, उसको यथावत् सीखें। तत्पश्चात् सब प्रकार की हस्तक्रिया, यन्त्रकला आदि को सीखें, परन्तु जितने ग्रह, नक्षत्र, जन्मपत्र, राशि, मुहूर्त आदि के फल के विधायक ग्रन्थ हैं, उनको झूठ समझके कभी न पढ़ें और न पढ़ावें।

[आर्ष ग्रन्थ ही क्यों पढ़ें ?]

ऐसा प्रयत्न पढ़ने और पढ़ानेवाले करें कि जिससे तीस वा इकत्तीस वर्षों के भीतर समग्र विद्या, उत्तम शिक्षा प्राप्त होके मनुष्य लोग कृतकृत्य होकर सदा आनन्द में रहैं। जितनी विद्या इस रीति से तीस वा इकत्तीस वर्षों में हो सकती है, उतनी अन्य प्रकार से शत वर्षों में भी नहीं हो सकती। 


ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिये पढ़ना चाहिये कि वे बड़े विद्वान्, सर्वशास्त्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात् जो अल्प-शास्त्र पढ़े हैं और जिनका आत्मा पक्षपातसहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी वैसे ही हैं। 

[षड्दर्शनों के प्रामाणिक भाष्य]

‘पूर्वमीमांसा’ पर व्यासमुनिकृत व्याख्या, ‘वैशेषिक’ पर गोतममुनिकृत प्रशस्त- पादभाष्य, गोतममुनिकृत ‘न्यायसूत्र’ पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य, पतञ्जलिमुनिकृत ‘[योग] सूत्र’ पर व्यासमुनिकृत भाष्य, कपिलमुनिकृत ‘सांख्यसूत्र’ पर भागुरिमुनिकृत भाष्य, व्यासमुनिकृत ‘वेदान्तसूत्र’ पर वात्स्यायनमुनिकृत भाष्य अथवा बौधायनमुनिकृत भाष्य वृत्तिसहित पढ़ें-पढ़ावें। इत्यादि सूत्रों को ‘कल्प’ अङ्ग में भी गिनना चाहिये। 

[स्वतःप्रमाण और परतःप्रमाण ग्रन्थ]

जैसे ‘ऋग्’, ‘यजुः’, ‘साम’ और ‘अथर्व’ चारों वेद ईश्वरकृत हैं, वैसे ‘ऐतरेय’, ‘शतपथ’, ‘साम’ और ‘गोपथ’ चारों ब्राह्मण; शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निघण्टु-निरुक्त, छन्द और ज्योतिष ये छः वेदों के अङ्ग, ‘मीमांसा’ -आदि छः शास्त्र वेदों के उपाङ्ग, ‘आयुर्वेद’, ‘धनुर्वेद’, ‘गान्धर्ववेद’ और ‘अर्थवेद’ ये चार वेदों के उपवेद इत्यादि सब ऋषि-मुनियों के किये ग्रन्थ हैं। इनमें भी जो-जो वेदविरुद्ध प्रतीत हो, उस-उस को छोड़ देना; क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रान्त, स्वतःप्रमाण [है] अर्थात् वेद का प्रमाण वेद से ही होता है। ब्राह्मणादि सब ग्रन्थ परत:प्रमाण अर्थात् इनका प्रमाण वेदाधीन है। वेद की विशेष व्याख्या ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ में देख लीजिये और इस ग्रन्थ में भी आगे लिखेंगे। 

[पठन-पाठन में परित्याग के योग्य ग्रन्थ]

अब जो परित्याग के योग्य ग्रन्थ हैं उनका परिगणन संक्षेप से किया जाता है। अर्थात् जो-जो नीचे ग्रन्थ लिखेंगे, वह-वह जालग्रन्थ समझना चाहिये। व्याकरण में कातन्त्र, सारस्वतचन्द्रिका, मुग्धबोध, कौमुदी, शेखर, मनोरमादि। कोशों में अमरकोशादि। छन्दोग्रन्थों में वृत्तरत्नाकरादि। शिक्षा में ‘अथ शिक्षा प्रवक्ष्यामि पाणिनीयं मतं यथा’ इत्यादि। ज्योतिष में शीघ्रबोध, मुहूर्त्तचिन्तामणि आदि। काव्यों में नायिकाभेद, कुवलयानन्द, रघुवंश, माघ, किरातार्जुनीयादि। मीमांसा में धर्मसिन्धु, व्रतार्कादि। वैशेषिक में तर्कसंग्रहादि। न्याय में जागदीशी आदि। योग में हठप्रयोग-दीपिकादि। सांख्य में सांख्यतत्त्वकौमुद्यादि। वेदान्त में योगवासिष्ठ, पञ्चदश्यादि। वैद्यक में शार्ङ्गधरादि। स्मृतियों में एक मनुस्मृति को छोड़, इसके प्रक्षिप्त श्लोक और अन्य सब स्मृतियां; सब तन्त्र ग्रन्थ, सब पुराण, सब उपपुराण, तुलसीदासकृत भाषारामायण, रुक्मिणीमङ्गल-आदि और सर्व-भाषा-ग्रन्थ। ये सब कपोलकल्पित मिथ्या ग्रन्थ हैं।


प्रश्न―क्या इन ग्रन्थों में कुछ भी सत्य नहीं?


उत्तर―थोड़ा सत्य तो है, परन्तु इसके साथ बहुत-सा असत्य भी है। इससे ‘विषसम्पृक्तान्नवत् त्याज्याः’=जैसे अत्युत्तम अन्न [भी] विष से युक्त होने से छोड़ने योग्य होता है, वैसे ये ग्रन्थ हैं। 

[इतिहास-पुराण विचार]

प्रश्न―क्या आप पुराण, इतिहास को नहीं मानते?


उत्तर―हाँ, मानते हैं; परन्तु सत्य को मानते हैं, मिथ्या को नहीं। 


प्रश्न―कौन सत्य और कौन मिथ्या है?


उत्तरब्राह्मणानीतिहासानु पुराणानि कल्पान् गाथा नाराशंसीरिति॥ 

यह गृह्यसूत्रादि का वचन है। [तुलना-आश्व० गृ० सू०, अ० ३। कं० ३। व १-२; तैत्ति० आ०, प्रपा० २। अनु० ९] 


जो ‘ऐतरेय’, ‘शतपथ’-आदि ब्राह्मण लिख आये, उन्हीं के इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी पाँच नाम हैं; ‘श्रीमद्भागवत’-आदि का नहीं। 


प्रश्न―जो त्याज्य ग्रन्थों में सत्य है, उसका ग्रहण क्यों नहीं करते? 


उत्तर―जो-जो उनमें सत्य है, सो-सो वेदादि सत्यशास्त्रों का है और मिथ्या उनके घर का है। वेदादि सत्य-शास्त्रों के स्वीकार में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है। जो कोई इन मिथ्या ग्रन्थों से सत्य का ग्रहण करना चाहे, तो मिथ्या भी उनके गले लिपट जाय। इसलिये ‘असत्यमिश्रं सत्यं दूरतस्त्याज्यमिति’= असत्य से युक्त ग्रन्थस्थ सत्य को भी वैसे छोड़ देना चाहिये जैसे विषयुक्त अन्न को।

[हमारा मत वेद है]

प्रश्न―तुम्हारा क्या मत है? 


उत्तर―वेद, अर्थात् जो-जो वेद में करने और छोड़ने की शिक्षा की है, उस-उसको हम यथावत् करना [और] छोड़ना मानते हैं। जिसलिये वेद हमको मान्य है, इसलिये हमारा मत वेद है; ऐसा ही मानकर सब मनुष्यों को, विशेषतः आर्यों को, ऐकमत्य होकर रहना चाहिये। 

[छः शास्त्रों में अविरोध]

प्रश्न―जैसे सत्यासत्य और एक-दूसरे ग्रन्थों का परस्परविरोध है, वैसे अन्य शास्त्रों में भी है। जैसे कि सृष्टिविषय में छः शास्त्रों का विरोध है―‘मीमांसा’ कर्म से, ‘वैशेषिक’ काल से, ‘न्याय’ परमाणु से, ‘योग’ पुरुषार्थ से, ‘सांख्य’ प्रकृति से और ‘वेदान्तशास्त्र’ ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानता है; क्या यह विरोध नहीं है? 


उत्तर―नहीं। प्रथम तो विना ‘सांख्य’ और ‘वेदान्त’ के, दूसरे चार शास्त्रों में सृष्टि की उत्पत्ति प्रसिद्ध नहीं लिखी। और इनमें विरोध भी नहीं, क्योंकि तुमको विरोध- अविरोध का ज्ञान नहीं। मैं तुमसे पूछता हूँ कि विरोध किस स्थल में होता है? क्या एक विषय में अथवा भिन्न-भिन्न विषयों में? 


प्रश्न―एक विषय में अनेक का परस्परविरुद्ध कथन हो, उसको विरोध कहते हैं। यहाँ भी सृष्टि एक ही विषय है।


उत्तर―क्या विद्या एक है वा दो? 


[प्रश्न―] एक है।


[उत्तर―] जो एक है, तो व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिष आदि का भिन्न-भिन्न विषय क्यों है? जैसे एक विद्या में अनेक विद्याओं के अवयवों का एक-दूसरे से भिन्न प्रतिपादन होता है, वैसे ही ‘सृष्टिविद्या’ के भिन्न-भिन्न छः अवयवों का छः शास्त्रों में प्रतिपादन करने से इनमें कुछ भी विरोध नहीं । जैसे घड़े के बनने में कर्म, समय, मिट्टी, विचार, संयोग- वियोगादि का पुरुषार्थ, प्रकृति के गुण और कुम्भार (=कुम्हार) कारण है, वैसे ही सृष्टि का जो कर्म कारण है उसकी व्याख्या ‘मीमांसा’ में, समय की व्याख्या ‘वैशेषिक’ में, उपादान कारण की व्याख्या ‘न्याय’ में, पुरुषार्थ की व्याख्या ‘योग’ में, तत्त्वों के अनुक्रम से परिगणन की व्याख्या ‘सांख्य’ में, और निमित्तकारण जो परमेश्वर है उसकी व्याख्या ‘वेदान्तशास्त्र’ में है। इससे कुछ भी विरोध नहीं। जैसे ‘वैद्यकशास्त्र’ में निदान, चिकित्सा, औषधि-दान और पथ्य के प्रकरण भिन्न भिन्न कथित हैं, परन्तु सबका सिद्धान्त ‘रोग की निवृत्ति’ है। वैसे ही सृष्टि के छः कारण हैं। इनमें से एक- एक कारण की व्याख्या एक-एक शास्त्रकार ने कही है। इसलिये इनमें कुछ भी विरोध नहीं। इसकी विशेष व्याख्या सृष्टिप्रकरण में कहेंगे।

[पढ़ने-पढ़ाने में विघ्नरूप कर्म]

जो विद्या पढ़ने-पढ़ाने के विघ्न हैं, उनको छोड़ देवें। जैसे कुसङ्ग अर्थात् दुष्ट विषयी जनों का संग; दुष्टव्यसन= जैसे मद्यादि सेवन और वेश्यागमनादि; बाल्यावस्था में विवाह अर्थात् पच्चीसवें वर्ष से पूर्व पुरुष और सोहलवें वर्ष से पूर्व स्त्री का विवाह हो जाना; पूर्ण ब्रह्मचर्य न होना; राजा, माता, पिता और विद्वानों का प्रेम वेदादि शास्त्रों के प्रचार में न होना; अतिभोजन, अतिजागरण करना; पढ़ने-पढ़ाने, परीक्षा लेने वा देने में आलस्य वा कपट करना; विद्या का सर्वोपरि लाभ न समझना; ब्रह्मचर्य से वीर्य, बल, बुद्धि, पराक्रम, आरोग्य, राज्य, धन की वृद्धि न मानना; ईश्वर का ध्यान छोड़ अन्य पाषाणादि- जड़मूर्त्ति के दर्शन-पूजन में व्यर्थ काल खोना; माता, पिता, अतिथि, आचार्य, और विद्वान् इन सत्यमूर्त्तिमानों की सेवा और सत्संग न करना; वर्णाश्रम के धर्म को छोड़ ऊर्ध्वपुण्ड्र, त्रिपुण्ड्र, तिलक, कंठी, माला धारण; एकादशी, त्रयोदशी आदि व्रत करना; काश्यादि तीर्थ और राम, कृष्ण, नारायण, शिव, भगवती, गणेशादि के नामस्मरण से पाप दूर होने का विश्वास; पाखण्डियों के उपदेश से विद्या पढ़ने में अश्रद्धा का होना; विद्या, धर्म, योग, परमेश्वर की उपासना के विना, मिथ्या ‘पुराण’-नामक ‘भागवत’-आदि की कथादि से मुक्ति का मानना; लोभ से धनादि में प्रवृत्ति होकर विद्या में प्रीति न रखना; इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना, इत्यादि मिथ्या व्यवहारों में फसके ब्रह्मचर्य और विद्या के लाभ से रहित होकर रोगी और मूर्ख बने रहते हैं। 


आजकल के सम्प्रदायी और स्वार्थी ब्राह्मण आदि जो दूसरों को विद्या-सत्संग से हटा और अपने जाल में फसाके उनका तन, मन, धन नष्ट कर देते हैं, और सोचते हैं कि जो क्षत्रियादि वर्ण पढ़कर विद्वान् हो जायेंगे, तो हमारे पाखण्डजाल से छूट और हमारे छल को जानकर हमारा अपमान करेंगे। इत्यादि विघ्नों को राजा और प्रजा दूर करके, अपने लड़कों और लड़कियों को विद्वान् करने के लिये तन, मन, धन से प्रयत्न किया करें। 

[स्त्री-शुद्रों को भी वेदाध्ययन का अधिकार]

प्रश्न―क्या स्त्री और शूद्र भी वेद पढ़ें ? जो ये पढ़ेंगे तो हम फिर क्या करेंगे? और इनके पढ़ने में प्रमाण भी नहीं है, जैसे यह निषेध है― 


“स्त्रीशूद्रौ नाधीयातामिति श्रुतेः”=स्त्री और शूद्र न पढ़ें, यह श्रुति है। 

[गौतम धर्मसूत्र प्रक० २। अ० ३। सू० ४; वेदान्तदर्शन शांकरभाष्य २ । ३।४]


उत्तरसब स्त्रियों और पुरुषों अर्थात् मनुष्यमात्र को [वेद] पढ़ने का अधिकार है। और तुम कुए में पड़ो। और यह ‘श्रुति’ तुम्हारी कपोलकल्पना से हुई है, किसी प्रामाणिक ग्रन्थ की नहीं। और सब मनष्यों के वेदों के पढ़ने-सुनने के अधिकार का प्रमाण ‘यजुर्वेद’ के छब्बीसवें अध्याय में दूसरा मन्त्र है― 


यथे॒मां वाचं कल्या॒णीमा॒वदा॑नि॒ जने॑भ्यः।

ब्र॒ह्म॒रा॒ज॒न्या॒भ्याᳬशू॒द्राय॒ चार्य्या॑य च॒ स्वाय॒ चार॑णाय॥ 

[यजु:०, अ० २६ । २]॥


अर्थ―परमेश्वर कहता है कि (यथा) जैसे मैं (जनेभ्यः) सब मनुष्यों के लिए, (इमाम्) इस, (कल्याणीम्) कल्याण अर्थात् संसार और मुक्ति के सुख देनेहारी, (वाचम्) ‘ऋग्वेद’-आदि चारों वेदों की वाणी का, (आवदानि) उपदेश करता हूँ, वैसे तुम भी किया करो।


[प्रश्न] यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि जन शब्द से द्विजों का ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि स्मृत्यादि ग्रन्थों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य का ही वेदों के पढ़ने का अधिकार लिखा है; स्त्री और शूद्रादि का नहीं ।


उत्तर(ब्रह्मराजन्याभ्यां) इत्यादि, देखो! परमेश्वर स्वयं कहता है कि हमने ब्राह्मण, क्षत्रिय, (अर्याय) वैश्य, (शुद्राय) शूद्र और (स्वाय) अपने भृत्य वा स्त्री-आदि (अरणाय) और अतिशूद्रादि के लिये भी वेदों का प्रकाश किया है; अर्थात् सब मनुष्य वेदों को पढ़-पढ़ा और सुन-सुनाकर विज्ञान को बढ़ाके, अच्छी बातों का ग्रहण और बुरी बातों का त्याग करके दुःखों से छूटकर, आनन्द को प्राप्त हों। 


कहिये, अब तुम्हारी बात मानें वा परमेश्वर की? परमेश्वर की बात अवश्य माननीय है। इतने पर भी जो कोई इसको न मानेगा, वह ‘नास्तिक’ कहावेगा, क्योंकि ‘नास्तिको वेदनिन्दकः’ [मनु० २।११]= वेदों का निन्दक और न माननेवाला ‘नास्तिक’ कहाता है। 


क्या परमेश्वर शूद्रों का भला करना नहीं चाहता? क्या ईश्वर पक्षपाती है कि वेदों के पढ़ने-सुनने का शूद्रों के लिये निषेध और द्विजों के लिये विधि करे? जो परमेश्वर का अभिप्राय शूद्रादि के पढ़ाने-सुनाने का न होता, तो इनके शरीर में वाक् और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? परमात्मा ने जैसे पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्नादि पदार्थ सबके लिये बनाये हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिये प्रकाशित किये हैं। और जहाँ कहीं निषेध किया है, उसका यह अभिप्राय है कि जिसको पढ़ने-पढ़ाने से कुछ भी न आवे, वह निर्बुद्धि और मूर्ख होने से ‘शूद्र’ कहाता है। उसका पढ़ना- पढ़ाना व्यर्थ है।

[कन्याओं के ब्रह्मचर्यपूर्वक वेदाध्ययन में प्रमाण]

और जो स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हो, वह तुम्हारी मूर्खता, स्वार्थता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है। देखो ! वेद में कन्याओं के पढ़ने का प्रमाण―


ब्र॒ह्म॒चर्ये॑ण क॒न्या॒३॒॑युवा॑नं विन्दते॒ पति॑म् ॥

 अथर्व०, अनु० ३। प्र० २४ । कां० ११ । मं० १८ 


जैसे लड़के ब्रह्मचर्य-सेवन से पूर्ण विद्या और सुशिक्षा को प्राप्त होके युवती विदुषी, अपने अनुकूल, प्रिय, सदृश स्त्रियों के साथ विवाह करते हैं, वैसे (कन्या) कुमारी (ब्रह्मचर्येण) ब्रह्मचर्य-सेवन से वेदादि शास्त्रों को पढ़, पूर्ण विद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त युवती होके, पूर्ण युवावस्था में अपने सदृश, प्रिय, विद्वान्, (युवानम्-पतिम्) और पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष को (विन्दते) प्राप्त होवे। इसलिये स्त्रियों को भी ब्रह्मचर्य और विद्या का ग्रहण अवश्य करना चाहिये।


प्रश्न―क्या स्त्री-लोग भी वेदों को पढ़ें?


उत्तर―अवश्य, देखो श्रौतसूत्रादि में― 


इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्।

 [तुलना, शांखा० श्रौत० १। १५ । १३ आदि]


अर्थ―स्त्री यज्ञ में इस मन्त्र को पढ़े। जो वेदादि-शास्त्रों को न पढ़ी होवे, तो यज्ञ में स्वरसहित मन्त्रों का उच्चारण और संस्कृतभाषण कैसे कर सके? 


भारतवर्ष की स्त्रियों में भूषणरूप गार्गी आदि वेदादि-शास्त्रों को पढ़के पूर्ण विदुषी हुई थीं, यह ‘शतपथब्राह्मण’ में स्पष्ट लिखा है [बृह०उप० ३।६।१; ३।८।१] भला, जो पुरुष विद्वान् और स्त्री अविदुषी और स्त्री विदुषी और पुरुष अविद्वान् हो तो नित्यप्रति घर में देवासुर-संग्राम मचा रहै, फिर सुख कहाँ? इसलिये जो स्त्रियां न पढ़ें, तो कन्याओं की पाठशाला में अध्यापिका क्योंकर हो सकें? तथा राजकार्य, न्यायाधीशत्वादि, गृहाश्रम का कार्य जो पति को स्त्री और स्त्री को पति प्रसन्न रखना, घर के सब काम स्त्री के आधीन रहना, इत्यादि काम विना विद्या के कभी अच्छे प्रकार से और ठीक नहीं हो सकते।

देखो, आर्यावर्त के राजपुरुषों की स्त्रियाँ ‘धनुर्वेद’ अर्थात् युद्धविद्या भी अच्छी प्रकार जानती थी; क्योंकि जो न जानती होती, तो कैकेयी आदि दशरथ आदि के साथ युद्ध में क्योंकर जा सकती, और युद्ध कर सकती? इसलिये ब्राह्मणी को सब विद्यायें, क्षत्रिया को सब विद्यायें और युद्ध तथा राजविद्या विशेषतः, वैश्या को व्यवहार-विद्या और शूद्रा को पाकादि सेवा की विद्या अवश्य पढ़नी चाहिये। 

[स्त्री-पुरुषों हेतु न्यूनतम पठनीय विषय]

जैसे पुरुषों को व्याकरण, धर्म और अपने व्यवहार की विद्या कम-से-कम अवश्य पढ़नी चाहिये, वैसे स्त्रियों को भी व्याकरण, धर्म, वैद्यक, गणित, शिल्प-विद्या तो अवश्य ही सीखनी चाहिये। क्योंकि इनके सीखे विना सत्यासत्य का निर्णय; पति-आदि से अनुकूल वर्त्तमान, यथायोग्य सन्तानोत्पत्ति, और उनका पालन-वर्द्धन और सुशिक्षा करना, घर के सब कार्यों को जैसा चाहिये वैसा करना-कराना, ‘वैद्यकविद्या’ से औषधवत् अन्न-पान बनाना और बनवाना नहीं कर सकती; जिससे घर में रोग कभी न आवे और सब लोग सदा आनन्दित रहैं। ‘शिल्पविद्या’ के जाने विना घर का बनवाना, वस्त्र- आभूषण आदि का बनाना-बनवाना, ‘गणितविद्या’ के विना सबका हिसाब समझना-समझाना, ‘वेदादिशास्त्र विद्या’ के विना ईश्वर और धर्म को न जानके, अधर्म से कभी नहीं बच सकते।


इसलिये वे ही धन्य और कृतकृत्य हैं कि जो ब्रह्मचर्य, उत्तम शिक्षा और विद्या से अपने सन्तानों के शरीर और आत्मा के पूर्ण बल को बढ़ावें। जिससे वे सन्तान माता, पिता, पति, सास, श्वसुर, राजा, प्रजा, पड़ोसी, इष्टमित्र और सन्तानादि से यथायोग्य धर्म से वर्तें। 

[विद्यारूपी अक्षय कोष]

यही कोश अक्षय है। इसको जितना व्यय करे, उतना ही बढ़ता जाय; अन्य सब कोश व्यय करने से घट जाते हैं और दायभागी भी निज भाग ले लेते हैं; और विद्याकोश का चोर वा दायभागी कोई भी नहीं हो सकता। इस कोश की रक्षा और वृद्धि करनेवाला विशेषतः राजा, और प्रजा भी है। 


कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्॥ 

मनु० [७।१५२] ॥

राजा को योग्य है कि सब कन्याओं और लड़कों को उक्त समय से उक्त समय तक ब्रह्मचर्य में रखके विद्वान कराना। जो कोई इस आज्ञा को न माने, तो उसके माता-पिता को दण्ड देना चाहिये। अर्थात् राजा की आज्ञा से आठ वर्ष के पश्चात् लड़का वा लड़की किसी के घर में न रहने पावे, किन्तु वे आचार्यकुल में रहैं। जब तक समावर्तन का समय न आवे, तब तक विवाह न होने पावें। 

[सब दानों में विद्या का दान सर्वश्रेष्ठ]

सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।

वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम्॥

मनु० [४।२३३]॥

संसार में जितने दान हैं अर्थात् जल, अन्न, गौ, पृथिवी, वस्त्र, तिल, सुवर्ण और घृतादि, इन सब दानों से ‘वेदविद्या’ का दान अतिश्रेष्ठ है। 


इसलिये जिससे जितना बन सके उतना प्रयत्न तन-मन-धन से विद्या की वृद्धि में किया करें। जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य, विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है, वही देश सौभाग्यवान् होता है।


यह ब्रह्मचर्याश्रम की शिक्षा संक्षेप से लिखी गई। इसके आगे चौथे समुल्लास में समावर्तन, विवाह और गृहाश्रम की शिक्षा लिखी जायगी।


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे सुभाषाविभूषिते शिक्षाविषये तृतीयः समुल्लासः सम्पूर्णः॥३॥

Comments

  1. काश यह मेरे परिवार ने मेरे साथ किया होता तो आज मै भी एक महान व्यक्ति होता । ओह बहुत देर हो चुकी है अब फिर भी मै प्रयास करूंगा कि अब परिवार में ऐसे ही पढ़ाई हो । आपका बहुत बहुत धन्यवाद।

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