आर्योद्देश्यरत्नमाला
ओ३म्
आर्योद्देश्यरत्नमाला
श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिनिर्म्मिता ॥
ईश्वरादितत्त्वलक्षणप्रकाशिका॥
आर्यभाषाप्रकाशोज्ज्वला॥
आर्यादिमनुष्यहितार्था॥
ग्रन्थ परिचय
इस ग्रन्थ में महत्त्वपूर्ण व्यावहारिक शब्दों (आर्यों के मन्तव्यों) की परिभाषाएँ प्रस्तुत की गई हैं, जो वेदादि शास्त्रों पर आधारित हैं। इसमें १०० मन्तव्यों (नियमों) का संग्रह है। अर्थात् सौ नियमों रूपी रत्नों की माला गूँथी गई है। धर्म और व्यवहार में आने वाले इन शब्दों एवं नियमों का सच्चा तथा वास्तविक अर्थ समझ कर व्यक्ति भटकने से बच जाए। अत: सब मनुष्यों के हितार्थ लिखी गई।
यह ग्रन्थ विक्रमी संवत् १९३४, श्रावण मास के शुक्लपक्ष की सप्तमी, बुधवार के दिन पूर्ण हुआ। (सम्पादक)
आर्योद्देश्यरत्नमाला
१. ईश्वर—जिसके गुण, कर्म, स्वभाव और स्वरूप सत्य ही हैं, जो केवल चेतनमात्र वस्तु है तथा जो अद्वितीय, सर्वशक्तिमान्, निराकार, सर्वत्र व्यापक, अनादि और अनन्त आदि सत्यगुणवाला है और जिसका स्वभाव अविनाशी, ज्ञानी, आनन्दी, शुद्ध, न्यायकारी, दयालु और अजन्मादि है, जिसका कर्म्म जगत् की उत्पत्ति, पालन और विनाश करना तथा सर्व जीवों को पाप-पुण्य के फल ठीक-ठीक पहुँचाना है, उसको ‘ईश्वर’ कहते हैं।
२. धर्म्म—जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा का यथावत् पालन और पक्षपात-रहित न्याय, सर्वहित करना है, जो कि प्रत्यक्षादि प्रमाणों से सुपरीक्षित और वेदोक्त होने से सब मनुष्यों के लिये यही एक धर्म्म मानना योग्य है, उसको ‘धर्म’ कहते हैं।
३. अधर्म्म—जिसका स्वरूप ईश्वर की आज्ञा को छोड़कर और पक्षपातसहित अन्यायी होके विना परीक्षा कर के अपना ही हित करना है, जो अविद्या, हठ, अभिमान, क्रूरतादि दोषयुक्त होने के कारण वेद-विद्या से विरुद्ध है और सब मनुष्यों को छोड़ने के योग्य है, इससे यह ‘अधर्म्म’ कहाता है।
४. पुण्य—जिस का स्वरूप विद्यादि शुभगुणों का दान और सत्यभाषणादि सत्याचार का करना है, उस को ‘पुण्य’ कहते हैं।
५. पाप—जो पुण्य से उलटा और मिथ्याभाषणादि करना है, उस को ‘पाप’ कहते हैं।
६. सत्यभाषण—जैसा कुछ अपने आत्मा में हो और असम्भवादि दोषों से रहित कर के सदा वैसा सत्य ही बोले, उस को ‘सत्यभाषण’ कहते हैं।
७. मिथ्याभाषण—जो कि सत्यभाषण अर्थात् सत्य बोलने से विरुद्ध है, उस को ‘असत्यभाषण’ कहते हैं।
८. विश्वास—जिस का मूल अर्थ और फल निश्चय करके सत्य ही हो, उस का नाम ‘विश्वास’ है।
९. अविश्वास—जो विश्वास से उलटा है, जिस का तत्त्व अर्थ न हो, वह ‘अविश्वास’ है।
१०. परलोक—जिसमें सत्यविद्या करके परमेश्वर की प्राप्तिपूर्वक इस जन्म वा पुनर्जन्म और मोक्ष में परमसुख प्राप्त होना है, उस को ‘परलोक’ कहते हैं।
११. अपरलोक—जो परलोक से उलटा है, जिस में दुःखविशेष भोगना होता है, वह ‘अपरलोक’ कहाता है।
१२. जन्म—जिस में किसी शरीर के साथ संयुक्त हो के जीव कर्म करने में समर्थ होता है, उस को ‘जन्म’ कहते हैं।
१३. मरण—जिस शरीर को प्राप्त हो कर जीव क्रिया करता है, उस शरीर और जीव का किसी काल में जो वियोग हो जाना है, उस को ‘मरण’ कहते हैं।
१४. स्वर्ग—जो विशेष सुख और सुख की सामग्री को जीव प्राप्त होता है, वह ‘स्वर्ग’ कहलाता है।
१५. नरक—जो विशेष दुःख और दुःख की सामग्री को जीव का प्राप्त होना है, उस को ‘नरक’ कहते हैं।
१६. विद्या—जिस से ईश्वर से लेके पृथिवीपर्यन्त पदार्थों का सत्य विज्ञान होकर, उन से यथायोग्य उपकार लेना होता है, इसका नाम ‘विद्या’ है।
१७. अविद्या—जो विद्या से विपरीत है, भ्रम, अन्धकार और अज्ञानरूप है, इस को ‘अविद्या’ कहते हैं।
१८. सत्पुरुष—जो सत्यप्रिय, धर्मात्मा, विद्वान् सब के हितकारी और महाशय होते हैं, वे ‘सत्पुरुष’ कहाते हैं।
१९. सत्सङ्ग-कुसङ्ग—जिस करके झूठ से छूट के सत्य की ही प्राप्ति होती है, उसको ‘सत्सङ्ग’ और जिस करके पापों में जीव फँसे, उस को ‘कुसङ्ग’ कहते हैं।
२०. तीर्थ—जितने विद्याभ्यास, सुविचार, ईश्वरोपासना, धर्मानुष्ठान, सत्य का सङ्ग, ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियतादि उत्तम कर्म हैं, वे सब ‘तीर्थ’ कहाते हैं, क्योंकि जिन करके जीव दुःखसागर से तर जा सकते हैं।
२१. स्तुति—जो ईश्वर वा किसी दूसरे पदार्थ के गुण-ज्ञान-कथन- श्रवण और सत्यभाषण करना है, यह ‘स्तुति’ कहाती है।
२२. स्तुति का फल—जो गुणज्ञान आदि के करने से गुणवाले पदार्थों में प्रीति होती है, यह ‘स्तुति का फल’ कहाता है।
२३. निन्दा—जो मिथ्याज्ञान, मिथ्याभाषण, झूठ में आग्रहादि क्रिया का नाम निन्दा है, जिस से गुण छोड़ कर उनके स्थान में अवगुण लगाना होता है।
२४. प्रार्थना—अपने पूर्ण पुरुषार्थ के उपरान्त उत्तम कर्मों की सिद्धि के लिये परमेश्वर वा किसी सामर्थ्य वाले मनुष्य के सहाय लेने को ‘प्रार्थना’ कहते हैं।
२५. प्रार्थना का फल—अभिमान नाश, आत्मा में आर्द्रता, गुणग्रहण में पुरुषार्थ और अत्यन्त प्रीति का होना ‘प्रार्थना का फल’ है।
२६. उपासना—जिस करके ईश्वर ही के आनन्दस्वरूप में अपने आत्मा को मग्न करना होता है, उस को ‘उपासना’ कहते हैं।
२७. निर्गुणोपासना—शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, संयोग, वियोग, हल्का, भारी, अविद्या, जन्म, मरण और दुःख आदि गुणों से रहित परमात्मा को जानकर जो उसकी उपासना करनी है, उस को ‘निर्गुणोपासना’ कहते हैं।
२८. सगुणोपासना—जिस को सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, शुद्ध, नित्य, आनन्द, सर्वव्यापक, एक, सनातन, सर्वकर्त्ता, सर्वाधार, सर्वस्वामी, सर्वनियन्ता, सर्वान्तर्यामी, मंगलमय, सर्वानन्दप्रद, सर्वपिता, सब जगत् का रचनेवाला, न्यायकारी, दयालु आदि सत्यगुणों से युक्त जान के जो ईश्वर की उपासना करनी है, सो ‘सगुणोपासना’ कहाती है।
२९. मुक्ति—अर्थात् जिस से सब बुरे कामों और जन्म-मरणादि दुःखसागर से छूट कर सुखस्वरूप परमेश्वर को प्राप्त होके सुख ही में रहना ‘मुक्ति’ कहाती है।
३०. मुक्ति के साधन—अर्थात् जो पूर्वोक्त ईश्वर की कृपा, स्तुति, प्रार्थना और उपासना का करना तथा धर्म का आचरण, पुण्य का करना, सत्सङ्ग, विश्वास, तीर्थ सेवन, सत्पुरुषों का सङ्ग, परोपकारादि सब अच्छे कामों का करना और सब दुष्ट कर्मों से अलग रहना है, ये सब ‘मुक्ति के साधन’ कहाते हैं।
३१. कर्त्ता—जो स्वतन्त्रता से कर्मों का करने वाला है, अर्थात् जिस के स्वाधीन सब साधन होते हैं, वह ‘कर्त्ता’ कहाता है।
३२. कारण—जिसको ग्रहण करके ही करने वाला किसी कार्य चीज को बना सकता है अर्थात् जिस के विना कोई चीज बन ही नहीं सकती, वह ‘कारण’ कहाता है। सो तीन प्रकार का है।
३३. उपादान कारण—जिसको ग्रहण कर के ही उत्पन्न होवे वा कुछ बनाया जाय, जैसा कि मट्टी से घड़ा बनता है, उस को ‘उपादान कारण’ कहते हैं।
३४. निमित्त कारण—जो बनानेवाला है, जैसा कि कुम्भार घड़े को बनाता है। इस प्रकार के पदार्थों को ‘निमित्त कारण’ कहते हैं।
३५. साधारण कारण—जैसे कि चाक, दण्ड आदि और दिशा, आकाश तथा प्रकाश हैं, इनको ‘साधारण कारण’ कहते हैं।
३६. कार्य—जो किसी पदार्थ के संयोगविशेष से स्थूल होके काम में आता है। अर्थात् जो करने के योग्य है, वह उस कारण का ‘कार्य’ कहाता है।
३७. सृष्टि—जो कर्त्ता की रचना करके कारण-द्रव्य किसी संयोगविशेष से अनेक प्रकार कार्य्यरूप होकर वर्त्तमान में व्यवहार करने के योग्य होती है, वह ‘सृष्टि’ कहाती है।
३८. जाति—जो जन्म से लेके मरणपर्यन्त बनी रहे, जो अनेक व्यक्तियों में एकरूप से प्राप्त हो, जो ईश्वरकृत अर्थात् मनुष्य, गाय, अश्व और वृक्षादि समूह हैं, वे ‘जाति’ शब्दार्थ से लिये जाते हैं।
३९. मनुष्य—अर्थात् जो विचार के विना किसी काम को न करे, उस का नाम ‘मनुष्य’ है।
४०. आर्य्य—जो श्रेष्ठ स्वभाव, धर्मात्मा, परोपकारी, सत्यविद्यादि गुणयुक्त और आर्य्यावर्त्त देश में सब दिन से रहने वाले हैं, उनको ‘आर्य’ कहते हैं।
४१. आर्यावर्त्त देश—हिमालय, विन्ध्याचल, सिन्धु नदी और ब्रह्मपुत्रा नदी इन चारों के बीच में और जहाँ तक उनका विस्तार है, उनके मध्य में जो देश है, उसका नाम ‘आर्यावर्त्त’ है।
४२. दस्यु—अनार्य अर्थात् जो अनाड़ी आर्यों के स्वभाव और निवास से पृथक् डाकू, चोर, हिंसक कि जो दुष्ट मनुष्य है, वह ‘दस्यु’ कहाता है।
४३. वर्ण—जो गुण और कर्मों के योग से ग्रहण किया जाता है, वह ‘वर्ण’ शब्दार्थ से लिया जाता है।
४४. वर्ण के भेद—जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रादि हैं, वे ‘वर्ण’ कहाते हैं।
४५. आश्रम—जिनमें अत्यन्त परिश्रम करके उत्तम गुणों का ग्रहण और श्रेष्ठ काम किये जायं, उनको ‘आश्रम’ कहते हैं।
४६. आश्रम के भेद—जो सद्विद्यादि शुभ गुणों का ग्रहण तथा जितेन्द्रियता से आत्मा और शरीर के बल को बढ़ाने के लिए ब्रह्मचर्य, जो सन्तानोत्पत्ति और विद्यादि सब व्यवहारों को सिद्ध करने के लिए गृहस्थाश्रम, जो विचार के लिए वानप्रस्थ और जो सर्वोपकार करने के लिए संन्यासाश्रम होता है, ये ‘चार आश्रम’ कहाते हैं।
४७. यज्ञ—जो अग्निहोत्र से लेके अश्वमेध-पर्यन्त जो शिल्प-व्यवहार और जो पदार्थ-विज्ञान है जो कि जगत् के उपकार के लिए किया जाता है, उसको ‘यज्ञ’ कहते हैं।
४८. कर्म—जो मन, इन्द्रिय और शरीर में जीव चेष्टा विशेष करता है, वह ‘कर्म’ कहलाता है। वह शुभ, अशुभ और मिश्र भेद से तीन प्रकार का है।
४९. क्रियमाण—जो वर्तमान में किया जाता है, सो ‘क्रियमाण कर्म’ कहाता है।
५०. संचित—जो क्रियमाण का संस्कार ज्ञान में जमा होता है, उसको ‘संचित’ कहते हैं।
५१. प्रारब्ध—जो पूर्व किये हुए कर्मों के सुख-दुःख रूप फल का भोग किया जाता है, उसको ‘प्रारब्ध’ कहते हैं।
५२. अनादि पदार्थ—जो ईश्वर, जीव और सब जगत् का कारण है, ये तीन स्वरूप से ‘अनादि’ हैं।
५३. प्रवाह से अनादि पदार्थ—जो कार्य जगत्, जीव के कर्म और जो इनका संयोग-वियोग है, ये तीन ‘परम्परा से अनादि’ है।
५४. अनादि का स्वरूप—जो न कभी उत्पन्न हुआ हो, जिसका कारण कोई भी न होवे अर्थात् जो सदा से स्वयं-सिद्ध होके, सदा वर्तमान रहै, वह ‘अनादि’ कहाता है।
५५. पुरुषार्थ—अर्थात् सर्वथा आलस्य छोड़के उत्तम व्यवहारों की सिद्धि के लिए मन, शरीर, वाणी और धन से जो अत्यन्त उद्योग करना है, उसको ‘पुरुषार्थ’ कहते हैं।
५६. पुरुषार्थ के भेद—जो अप्राप्त वस्तु की इच्छा करनी, प्राप्त को अच्छी प्रकार रक्षण करना, रक्षित को बढ़ाना और बढ़े हुए पदार्थों का सत्य-विद्या की उन्नति में तथा सबके हित में खर्च करना है, इन चार प्रकार के कर्मों को ‘पुरुषार्थ’ कहते हैं।
५७. परोपकार—अर्थात् अपने सब सामर्थ्य से दूसरे प्राणियों के सुख होने के लिए जो तन, मन,धन से प्रयत्न करना है, वह ‘परोपकार’ कहाता है।
५८. शिष्टाचार—जिसमें शुभ गुणों का ग्रहण और अशुभ गुणों का त्याग किया जाता है, वह ‘शिष्टाचार’ कहाता है।
५९. सदाचार—जो सृष्टि से लेकर आज पर्यन्त सत्पुरुषों का वेदोक्त आचार चला आया है कि जिसमें सत्य का ही आचरण और असत्य का परित्याग किया है, उसको ‘सदाचार’ कहते हैं।
६०. विद्यापुस्तक—जो ईश्वरोक्त, सनातन, सत्यविद्यामय चार वेद हैं, उनको ‘विद्यापुस्तक’ कहते हैं।
६१. आचार्य—जो श्रेष्ठ आचार को ग्रहण कराके सब विद्याओं को पढ़ा देवे, उसको ‘आचार्य’ कहते हैं।
६२. गुरु—जो वीर्यदान से लेके भोजनादि कराके पालन करता है, इससे पिता को ‘गुरु’ कहते हैं, और जो अपने सत्योपदेश से हृदय के अज्ञानरूपी अन्धकार मिटा देवे, उसको भी गुरु अर्थात् ‘आचार्य’ कहते हैं।
६३. अतिथि—जिसकी आने और जाने में कोई भी निश्चित तिथि न हो तथा जो विद्वान् होकर सर्वत्र भ्रमण करके प्रश्नोत्तरों के उपदेश से सब जीवों का उपकार करता है, उसको ‘अतिथि’ कहते हैं।
६४. पञ्चायतन-पूजा—जीते माता, पिता, आचार्य, अतिथि और परमेश्वर को जो यथायोग्य सत्कार करके प्रसन्न करना है, उसको ‘पंचायतन पूजा’ कहते हैं।
६५. पूजा—जो ज्ञानादि गुणवाले का यथायोग्य सत्कार करना है, उसको ‘पूजा’ कहते हैं।
६६. अपूजा—जो ज्ञानादि रहित जड़ पदार्थ और जो सत्कार के योग्य नहीं है, उसका जो सत्कार करना है वह ‘अपूजा’ कहाती है।
६७. जड़—जो वस्तु ज्ञानादि गुणों से रहित है, उसको ‘जड़’ कहते हैं।
६८. चेतन—जो पदार्थ ज्ञानादि गुणों से युक्त है, उसको ‘चेतन’ कहते हैं।
६९. भावना—जो जैसी चीज हो उसमें विचार से वैसा ही निश्चय करना कि जिसका विषय भ्रमरहित हो, अर्थात् जैसे को तैसा ही समझ लेना, उसको ‘भावना’ कहते हैं।
७०. अभावना—जो भावना से उलटी हो अर्थात् जो मिथ्याज्ञान से अन्य में अन्य निश्चय मान लेना है, जैसे जड़ में चेतन और चेतन में जड़ का निश्चय कर लेते हैं, उसको ‘अभावना’ कहते हैं।
७१. पण्डित—जो सत्-असत् को विवेक से जाननेवाला, धर्मात्मा, सत्यवादी, सत्यप्रिय, विद्वान् और सबका हितकारी है, उसको ‘पण्डित’ कहते हैं।
७२. मूर्ख—जो अज्ञान, हठ, दुराग्रहादि दोष-सहित है, उसको ‘मूर्ख’ कहते हैं।
७३. ज्येष्ठ-कनिष्ठ व्यवहार—जो बड़े और छोटों से यथायोग्य परस्पर मान्य करना है, उसको ‘ज्येष्ठ-कनिष्ठ-व्यवहार’ कहते हैं।
७४. सर्वहित—जो तन, मन और धन से सबके सुख बढ़ाने में उद्योग करना है, उसको ‘सर्वहित’ कहते हैं।
७५. चोरी त्याग—जो स्वामी की आज्ञा के विना किसी के पदार्थ का ग्रहण करना है, वह चोरी और उसका छोड़ना ‘चोरी-त्याग’ कहाता है।
७६. व्यभिचार त्याग—जो अपनी स्त्री के विना दूसरी स्त्री के साथ गमन करना और अपनी स्त्री को भी ऋतुकाल के विना वीर्यदान देना तथा अपनी स्त्री के साथ भी वीर्य का अत्यन्त नाश करना और युवावस्था के विना विवाह करना है, यह सब ‘व्यभिचार’ कहाता है। उसको छोड़ देने का नाम ‘व्यभिचार त्याग’ है।
७७. जीव का स्वरूप—जो चेतन, अल्पज्ञ, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, सुख, दुःख और ज्ञान गुणवाला तथा नित्य है, वह ‘जीव’ कहाता है।
७८. स्वभाव—जिस वस्तु का जो स्वाभाविक गुण है, जैसे कि अग्नि में रूप और दाह, अर्थात् जब तक वह वस्तु रहे, तब तक उसका वह गुण भी नहीं छूटता, इसलिये इसको ‘स्वभाव’ कहते हैं।
७९. प्रलय—जो कार्य जगत् का कारण रूप होना, अर्थात् जगत् का करनेवाला ईश्वर जिन-जिन कारणों से सृष्टि बनाता है, कि अनेक कार्यों को रच के यथावत् पालन करके, पुनः कारण रूप करके रखता है, उसका नाम ‘प्रलय’ है।
८०. मायावी—जो छल, कपट, स्वार्थ में ही प्रसन्नता, दम्भ, अहंकार, शठतादि दोष हैं, इसको ‘माया’ कहते हैं, और जो मनुष्य इससे युक्त हो, वह ‘मायावी’ कहाता है।
८१. आप्त—जो छलादि दोष रहित, धर्म्मात्मा, विद्वान्, सत्योपदेष्टा, सब प्रकार कृपादृष्टि से वर्तमान होकर, अविद्यान्धकार का नाश करके अज्ञानी लोगों के आत्माओं में विद्यारूप सूर्य का प्रकाश सदा करे, उसको ‘आप्त’ कहते हैं।
८२. परीक्षा—जो प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण, वेदविद्या, आत्मा की शुद्धि और सृष्टिक्रम से अनुकूल विचार के सत्यासत्य को ठीक-ठीक निश्चय करना है, उसको ‘परीक्षा’ कहते हैं।
८३. आठ प्रमाण—प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, शब्द, ऐतिह्य, अर्थापत्ति, सम्भव और अभाव ये ‘आठ प्रमाण’ हैं। इन्हीं से सब सत्यासत्य का यथावत् निश्चय मनुष्य कर सकता है।
८४. लक्षण—जिससे लक्ष्य जाना जाय, जो कि उसका स्वाभाविक गुण है, जैसे कि रूप से अग्नि जाना जाता है, इसलिये इसको लक्षण कहते हैं।
८५. प्रमेय—जो प्रमाणों से जाना जाता है, जैसा कि आँख का प्रमेय रूप अर्थ है, जो कि इन्द्रियों से प्रतीत होता है, उसको ‘प्रमेय’ कहते हैं।
८६. प्रत्यक्ष—जो प्रसिद्ध शब्दादि पदार्थों के साथ श्रोत्रादि इन्द्रिय और मन के निकट सम्बन्ध से ज्ञान होता है, उसको ‘प्रत्यक्ष’ कहते हैं।
८७. अनुमान—किसी पूर्वदृष्ट पदार्थ के एक अंग को प्रत्यक्ष देखके पश्चात् उसके अदृष्ट अंगों का, जिससे यथावत् ज्ञान होता है, उसको ‘अनुमान’ कहते हैं।
८८. उपमान—जैसे किसी ने किसी से कहा कि गाय के समतुल्य नील गाय होती है, जो कि सादृश्य उपमा से ज्ञान होता है, उसको ‘उपमान’ कहते हैं।
८९. शब्द—जो पूर्ण आप्त परमेश्वर और पूर्वोंक्त आप्त मनुष्य का उपदेश है, उसी को ‘शब्द’ प्रमाण कहते हैं।
९०. ऐतिह्य—जो शब्द-प्रमाण के अनुकूल हो, जो कि असम्भव और झूठा लेख न हो, उसी को ‘ऐतिह्य’ (इतिहास) कहते हैं।
९१. अर्थापत्ति—जो एक बात के कहने से दूसरी बात विना कहे समझी जाय, उसको ‘अर्थापत्ति’ कहते हैं।
९२. सम्भव—जो बात प्रमाण, युक्ति और सृष्टिक्रम से युक्त हो, वह ‘सम्भव’ कहाता है।
९३. अभाव—जैसे किसी ने किसी से कहा कि तू जल ले आ, उसने वहाँ देखा कि यहाँ जल नहीं है, परन्तु जहाँ जल है वहाँ से ले आना चाहिए, इस अभाव निमित्त से जो ज्ञान होता है, उस को ‘अभाव’ प्रमाण कहते हैं।
९४. शास्त्र—जो सत्यविद्याओं के प्रतिपादन से युक्त हो, और जिस करके मनुष्यों को सत्य-सत्य शिक्षा हो, उसको ‘शास्त्र’ कहते हैं।
९५. वेद—जो ईश्वरोक्त, सत्यविद्याओं से युक्त ऋक्संहितादि चार पुस्तक हैं कि जिनसे मनुष्यों को सत्य-सत्य ज्ञान होता है, उनको ‘वेद’ कहते हैं।
९६. पुराण—जो प्राचीन ऐतरेय, शतपथ ब्राह्मणादि ऋषि-मुनि कृत सत्यार्थ पुस्तक हैं, उन्हीं को पुराण, इतिहास, कल्प, गाथा और ‘नाराशंसी’ कहते हैं।
९७. उपवेद—जो आयुर्वेद वैद्यकशास्त्र, जो धनुर्वेद शस्त्रास्त्रविद्या राजधर्म्म, जो गन्धर्ववेद गानशास्त्र और जो अर्थवेद शिल्पशास्त्र हैं, इन चारों को ‘उपवेद’ कहते हैं।
९८. वेदाङ्ग—जो शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्द और ज्योतिष आर्ष सनातन शास्त्र हैं इनको ‘वेदाङ्ग’ कहते हैं।
९९. उपाङ्ग—जो ऋषि-मुनिकृत मीमांसा, वैशेषिक न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त छः शास्त्र हैं, इनको ‘उपाङ्ग’ कहते हैं।
१००. नमस्ते—मैं तुम्हारा मान्य करता हूँ।
वेदरामाङ्कचन्द्रेऽब्दे विक्रमार्कस्य भूपतेः ।
नभस्ये सतसप्तमयां सौम्ये पूर्तिमगादियम् ॥
नभस्ये सतसप्तमयां सौम्ये पूर्तिमगादियम् ॥
श्रीयुत महाराज विक्रमादित्य जी के १९३४ के संवत् में श्रावण महीने के शुक्लपक्ष ७ सप्तमी बुधवार के दिन स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने आर्य्यभाषा में सब मनुष्यों के हितार्थ यह आर्य्योद्देश्यरत्नमाला पुस्तक प्रकाशित किया॥
इति आर्योद्देश्यरत्नमाला समाप्ता ॥
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