चतुर्थः समुल्लासः

चतुर्थ-समुल्लास


गृहस्थाश्रम का अधिकारी

विवाह-योग्य कन्या

निकट विवाह में ८ दोष

विवाह सम्बन्ध में अयोग्य कुल

विवाह योग्य आयु और उसके भेद

अल्पायु के विवाह का खण्डन

१६वर्ष के बाद कन्या का विवाह

कल्पित गौरी रोहिणी आदि संज्ञाओं का खण्डन

लड़का-लड़की की प्रसन्नता से विवाह

स्वयंवर विवाह ही उत्तम

युवावस्था में विवाह करने में प्रमाण 

वर्णव्यवस्था गुण-कर्म स्वभावानुसार 

ब्राह्मण शरीर बनाने के साधन

रजवीर्य योग से ब्राह्मण शरीर नहीं

जन्म से वर्णव्यवस्था में दोष

‘ब्राह्मणोऽस्य’ मन्त्र का अर्थ

मुखादि से ब्राह्मणादि वर्णों की उत्पत्ति नहीं

वर्ण-परिवर्तन में प्रमाण

वर्ण निश्चय का समय

चारों वर्णों के कर्त्तव्य कर्म और गुण

ब्राह्मण के गुण और कर्म

क्षत्रिय के गुण और कर्म

वैश्य के गुण और कर्म

शूद्र के गुण और कर्म

गुण-कर्म स्वभावानुसार वर्ण व्यवस्था के लाभ

किस वर्ण को क्या अधिकार देना

विवाह के आठ भेद और लक्षण

विवाह से पूर्व का कार्य

विवाह का स्थान

विवाह एवं गर्भाधान

गर्भकाल के कर्त्तव्य

जातकर्म और पश्चात् के कर्त्तव्य

गृहस्थी होते हुए भी ब्रह्मचारी

स्त्री पुरुष परस्पर प्रसन्न रहें

नारी सत्कार के योग्य

पूजा शब्द का अर्थ

गृहिणी के कर्त्तव्य

सब मनुष्यों व देशों से प्राप्त करने योग्य ७ पदार्थ

लोक में व्यवहार ऐसा करे

हितकारी वचन अप्रिय होने पर भी अवश्य कहे

निन्दा स्तुति का लक्षण

वेद और शास्त्रों का नित्य स्वाध्याय करना

दैनिक पञ्च महायज्ञ

सन्ध्या अग्नि होत्र का काल

त्रिकाल सन्ध्या अवैदिक

पितृयज्ञ और उसके दो भेद

श्राद्ध और तर्पण की व्याख्या

बलिवैश्वदेव यज्ञ

पाकाग्नि में होम के मन्त्र

दिशाओं में भाग रखने के मंत्र

भूमि में ६भाग धरें

अतिथि यज्ञ वा अतिथि सेवा

सत्कार के अयोग्य व्यक्ति

पञ्च महायज्ञों का फल

गृहस्थ के सामान्य कर्त्तव्य

ऋत्विजादि से कभी झगड़ा न करे

दान के अयोग्य व्यक्ति

पाखण्डियों के लक्षण

धर्म संचय का प्रकार और फल

धर्माचरण से मुक्ति की प्राप्ति

सदाचार का फल

दुराचार का फल

सुख दुःख का लक्षण

पति पत्नी सब कार्य सहयोग से करें 

ब्राह्मण-ब्राह्मणी के कर्त्तव्य

पण्डित के लक्षण

मूर्ख के लक्षण

विद्यार्थी के सात दोष

विद्या किसे प्राप्त होती है

अध्यापक और विद्यार्थियों के कर्त्तव्य 

वैश्य के कर्म

शूद्र के कर्म

चारों वर्णों के पारस्परिक कर्त्तव्य

स्त्री-पुरुष का बहुत समय तक वियोग न हो

बहु विवाह सम्बन्धी विचार

पुनर्विवाह में दोष

पुनर्विवाह और नियोग में भेद

विवाह और नियोग के नियमों में भेद

दश सन्तानोत्पत्ति तक वेदाज्ञा 

नियोग व्यभिचार के समान नहीं

नियोग के नियम

नियोग की आवश्यकता

नियोग में वेद का प्रमाण

देवर शब्द का अर्थ

नियोग की सीमा

नियोग आपद्धर्म है

पति के जीवित रहते भी नियोग हो सकता है

नियोग में इतिहास के प्रमाण

मनुस्मृति में नियोगाज्ञा

वीर्य और रज को अमूल्य समझें

विवाह आवश्यक कृत्य है

गृहस्थ के कुछ अन्य कर्त्तव्य

पाराशरी जैसे श्लोक अमान्य

वेदविरुद्ध वचन अमान्य

गृहाश्रम की श्रेष्ठता



अथ चतुर्थसमुल्लासारम्भः 


अथ समावर्तनविवाहगृहाश्रमविधिं वक्ष्यामः 


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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[अब समावर्तन, विवाह और गृहाश्रम की शिक्षा के विषय में लिखेंगे] 


[गृहस्थाश्रम का अधिकारी]

वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वाऽपि यथाक्रमम्।

अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्॥१॥ 

मनु० [३।२] 

जब यथावत् ब्रह्मचर्य आचार्यानुकूल वर्तकर, धर्म से चारों वेदों, तीन, दो वा एक वेद को सांगोपांग पढ़के, जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो वह पुरुष और स्त्री गृहाश्रम में प्रवेश करे॥१॥ 


तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः।

स्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं गवा॥२॥ 

मनु० [३।३] 

जो स्वधर्म अर्थात् जो आचार्य और शिष्य का यथावत् धर्म है उससे युक्त, पिता= जनक वा अध्यापक से ब्रह्मदाय अर्थात् विद्यारूप भाग का ग्रहण और माला का धारण करनेवाला [स्नातक समावर्तन के समय,] प्रथम, पलंग पर बैठे हुए अपने आचार्य का गोदान से सत्कार करे। [वहीं विवाहसंस्कार करते समय] वैसे लक्षणयुक्त विद्यार्थी को कन्या का पिता भी गोदान से सत्कृत करे॥२॥


गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि। 

उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्॥३॥ 

मनु० [३।४]

गुरु की आज्ञा ले, स्नान कर, गुरुकुल से अनुक्रमपूर्वक आके ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने वर्णानुकूल सुन्दर लक्षणयुक्त कन्या से विवाह करे॥३॥ 

[विवाह-योग्य कन्या]

असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः। 

सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने॥४॥ 

मनु० [३।५] 

जो कन्या, माता के कुल की छः पीढ़ियों में न हो और पिता के गोत्र की न हो, उस कन्या से विवाह करना उचित है॥४॥ 


इसका यह प्रयोजन है कि―


परोक्षप्रिया इव हि देवाः प्रत्यक्षद्विषः॥ 

शतपथ० [शत० ब्रा०, १४।१।११।२; बृह० उप० ६। २ । २]

यह निश्चित बात है कि जैसी परोक्ष पदार्थ में प्रीति होती है, वैसी प्रत्यक्ष में नहीं। जैसे, किसी ने मिश्री के गुण सुने हों और खाई न हो तो उसका मन उसी में लगा रहता है; [और] जैसे, किसी परोक्ष व्यक्ति की प्रशंसा सुनकर मिलने की उत्कट इच्छा होती है; वैसे ही दूरस्थ अर्थात् जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो, उसी कन्या से वर का विवाह होना चाहिये।


निकट [विवाह में दोष] और दूर विवाह करने में गुण ये हैं― 


(१) एक―जो बालक बाल्यावस्था से निकट रहते; परस्पर क्रीड़ा, लड़ाई और प्रेम करते; एक- दूसरे के गुण, दोष, स्वभाव, बाल्यावस्था के 'विपरीत आचरण' को जानते; और जो नंगे भी एक दूसरे को देखते हैं, उनका परस्पर विवाह होने से प्रेम कभी नहीं हो सकता।


(२) दूसरा―जैसे पानी में पानी मिलने से विलक्षण गुण नहीं होता, वैसे एक गोत्र, पितृ वा मातृ-कुल में विवाह होने में धातुओं के अदल-बदल नहीं होने से उन्नति नहीं होती। 


(३) तीसरा―जैसे दूध में मिश्री वा शुण्ठी [आदि] ओषधियों का योग होने से उत्तमता होती है, वैसे ही भिन्न गोत्र में, पितृ-मातृ-कुल से पृथक् वर्त्तमान स्त्री-पुरुषों का विवाह होना उत्तम है।


(४) चौथा―जैसे एक देश में रोगी हो, वह दूसरे देश में वायु और खान-पान के बदलने से रोगरहित होता है, वैसे ही दूर-देशस्थों के विवाह होने में उत्तमता है। 


(५) पाँचवां―निकट सम्बन्ध करने में, एक-दूसरे के निकट होने में सुख-दुःख का भान और विरोध होना भी सम्भव है, दूर-देशस्थों में नहीं। और दूरस्थों के विवाह में दूर-दूर प्रेम की डोरी लम्बी बढ़ जाती है, निकटस्थ विवाह में नहीं। 


(६) छठा―दूर-दूर देश के वर्त्तमान और पदार्थों की प्राप्ति भी दूर सम्बन्ध होने में सहजता से हो सकती है, निकट विवाह होने में नहीं। इसीलिये― 


"दुहिता दुर्हिता दूरेहिता'', भवतीति ।

 [निरुक्त ३।४] 


'निरुक्त' में लिखा है कि कन्या का 'दुहिता' नाम इस कारण से है कि इसका विवाह दूर [गोत्र और] देश में होने से हितकारी होता है, निकट करने में नहीं। 


(७) सातवां―कन्या के पितृकुल में दारिद्र्य होने का भी सम्भव है, क्योंकि जब-जब कन्या पितृकुल में आवेगी, तब-तब उसको कुछ-न-कुछ देना ही होगा।


(८) आठवां―कोई निकट होने से एक दूसरे को अपने-अपने पितृकुल से सहाय का घमण्ड और जब कुछ भी दोनों में वैमनस्य होगा, तब स्त्री झट ही पिता के कुल में चली जायगी। एक दूसरे की निन्दा अधिक होगी और विरोध भी; क्योंकि प्रायः स्त्रियों का स्वभाव तीक्ष्ण और मृदु होता है। इत्यादि कारणों से पिता के एक- गोत्र, माता की छः पीढ़ी और समीप देश में विवाह करना अच्छा नहीं। 

[विवाह-सम्बन्ध में अयोग्य कुल]

महान्त्यपि समृद्धानि गोऽजाविधनधान्यतः।

स्त्रीसम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत्॥१॥ 

मनु० [३।६] 

चाहे कितने ही गाय, अजा, [भेड़], हाथी, घोड़े, धन, धान्य, राज्य, श्री आदि से समृद्ध कुल हों, तो भी विवाह-सम्बन्ध में निम्नलिखित दश कुलों का त्याग कर दे―॥१॥ 


हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्।

क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठिकुलानि च॥२॥

मनु० [३।७]

जो कुल सत्क्रियाओं से हीन, सत्पुरुषों से रहित, वेदाध्ययन से विमुख [हो, जिसके] शरीर पर बड़े-बड़े लोम [हों उस] और बवासीर, क्षयी, दमा, खांसी, आमाशय, मिरगी, श्वेतकुष्ठ और गलितकुष्ठ-युक्त कुलों की कन्या वा वर के साथ विवाह न होना चाहिये; क्योंकि ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करनेवाले के कुल में भी प्रविष्ट हो जाते हैं। इसलिये उत्तम कुलों के लड़कों और लड़कियों का आपस में विवाह होना चाहिये॥२॥ 


नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाऽधिकाङ्गीं न रोगिणीम्।

नालोमिकां नातिलोमां न वाचाटां न पिङ्गलाम्॥३॥

मनु० [३।८]

न पीले वर्णवाली, न अधिकाङ्गी अर्थात् पुरुष से लम्बी-चौड़ी अधिक बलवाली, न रोगयुक्त, न लोमरहित, न बहुत लोमवाली, न बकवाद करनेहारी और [न पीले-] भूरे नेत्रवाली॥३॥ 


नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्। 

न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्॥४॥ 

मनु० [३।९]

ऋक्ष अर्थात् अश्विनी, भरणी, रोहिणीदेई, रेवतीबाई, चित्तारी आदि नक्षत्र नामवाली; तुलसिया, गेंदा, गुलाबा, चंपा, चमेली आदि वृक्ष नामवाली; गङ्गा, जमुना आदि नदी नामवाली; चाण्डाली आदि अन्त्य नामवाली; विन्ध्या, हिमालया, पार्वती आदि पर्वत नामवाली; कोकिला, मैना, श्येनी आदि पक्षी नामवाली; नागी, भुजङ्गा आदि सर्प नामवाली; माधोदासी, मीरादासी आदि प्रेष्य नामवाली और भीमा, भयङ्करी, काली, चण्डिका आदि भीषण नामवाली कन्या के साथ विवाह न करना चाहिये; क्योंकि ये नाम कुत्सित और अन्य पदार्थों के भी हैं ॥४॥ किन्तु―

अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम्।

तनुलोमकेशदशनां मृद्वङ्गीमुद्वहेत्स्त्रियम्॥५॥ 

मनु० [३।१०]

जिसके सरल-सूधे अङ्ग हों, विरुद्ध न हों; जिसका नाम सुन्दर अर्थात् यशोदा, सुखदा आदि हो; हंस और हथिनी के तुल्य जिसकी चाल हो; [जो] सूक्ष्म लोम, केश और दाँतयुक्त हो और जिसके सब अङ्ग कोमल हों; वैसी स्त्री के साथ विवाह करना चाहिये॥५॥ 

[विवाह-योग्य आयु और उसके भेद]

प्रश्न―विवाह का समय और प्रकार कौन-सा अच्छा है?


उत्तर―सोलहवें वर्ष से लेके चौवीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से लेके अड़तालीसवें वर्ष तक पुरुष का विवाह समय 'उत्तम' है। इसमें जो सोलह और पच्चीस में विवाह करे तो 'निकृष्ट', अठारह-वीस की स्त्री, तीस-पैंतीस वा चालीस वर्ष के पुरुष का 'मध्यम', चौवीस वर्ष की स्त्री और अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह 'उत्तम' है। जिस देश में इसी प्रकार विवाह का श्रेष्ठ विधि और ब्रह्मचर्य, विद्याभ्यास अधिक होता है, वह देश सुखी [होता है] और जिस देश में ब्रह्मचर्य-विद्या- ग्रहणरहित, बाल्यावस्था [में] और अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है। क्योंकि ब्रह्मचर्य [और] विद्या के ग्रहणपूर्वक विवाह के सुधार से ही सब बातों का सुधार और बिगड़ने से बिगाड़ हो जाता है।

[कल्पित गौरी रोहणी आदि संज्ञाओं का खण्डन]

प्रश्न― अष्टवर्षा भवेद् गौरी नववर्षा च रोहिणी।

दशवर्षा भवेत्कन्या तत ऊर्ध्वं रजस्वला॥१॥ 

माता चैव पिता तस्या ज्येष्ठो भ्राता तथैव च। 

त्रयस्ते नरकं यान्ति दृष्ट्वा कन्यां रजस्वलाम्॥२॥ 

ये श्लोक पाराशरी [७।६, ८] और शीघ्रबोध में लिखे हैं [१।५४, ६५]। 


अर्थ―कन्या की आठवें वर्ष में गौरी, नवें वर्ष रोहिणी, दशवें वर्ष कन्या और उसके आगे ‘रजस्वला' संज्ञा हो जाती है॥१॥ 


दशवें वर्ष तक विवाह न करके, रजस्वला कन्या को माता, पिता और उसका बड़ा भाई, ये तीनों [घर में स्थित] देखके नरक में गिरते हैं॥२॥ 


उत्तर― ब्रह्मोवाच


एकक्षणा भवेद् गौरी द्विक्षणेयं तु रोहिणी। 

त्रिक्षणा सा भवेत्कन्या ह्यत ऊर्ध्वं रजस्वला॥१॥

माता पिता तथा भ्राता मातुलो भगिनी स्वका। 

सर्वे ते नरकं यान्ति दृष्ट्वा कन्यां रजस्वलाम्॥२॥ 

यह सद्योनिर्मित ब्रह्मपुराण का वचन है।

अर्थ―जितने समय में परमाणु एक पलटा खावे, उतने समय को क्षण कहते हैं। जब कन्या जन्मे तब एक क्षण में गौरी, दूसरे क्षण में रोहिणी, तीसरे में कन्या और चौथे में रजस्वला हो जाती है॥१॥ 


उस रजस्वला को [घर में स्थित] देखके उसके माता, पिता, भाई, मामी और बहिन सब नरक को जाते हैं॥२॥ 


प्रश्न―ये श्लोक प्रमाण नहीं। 


उत्तर―क्यों प्रमाण नहीं? जो ब्रह्मा जी के श्लोक प्रमाण नहीं, तो तुम्हारे भी प्रमाण नहीं हो सकते। 


प्रश्न―वाह-वाह! पराशर और काशीनाथ का भी प्रमाण नहीं करते? 


उत्तर―वाह जी वाह! क्या तुम ब्रह्मा जी का प्रमाण नहीं करते? पराशर [ और] काशीनाथ से ब्रह्मा जी बड़े नहीं है? जो तुम ब्रह्मा जी के श्लोकों को नहीं मानते, तो हम भी पराशर [और] काशीनाथ के श्लोकों को नहीं मानते। 


प्रश्न―तुम्हारे श्लोक असम्भव होने से प्रमाण नहीं, क्योंकि सहस्रों क्षण जन्म समय में ही बीत जाते हैं, तो विवाह कैसे हो सकता है? और उस समय विवाह करने का कुछ फल भी नहीं दीखता।


उत्तर―जो हमारे श्लोक असम्भव हैं, तो तुम्हारे भी असम्भव हैं। क्योंकि आठवें, नवें और दशवें वर्ष में भी विवाह करना निष्फल है। क्योंकि सोलहवें वर्ष के पश्चात् चौबीसवें वर्षपर्यन्त विवाह होने से पुरुष का वीर्य परिपक्व, शरीर बलिष्ठ, स्त्री का गर्भाशय पूरा और शरीर भी बलयुक्त होने से सन्तान उत्तम होते हैं*। जैसे आठवें वर्ष की कन्या में सन्तानोत्पत्ति का होना असम्भव है, वैसे ही 'गौरी', 'रोहिणी' नाम देना भी अयुक्त है। यदि गौरी कन्या न हो, किन्तु काली हो, तो उसका नाम 'गौरी' रखना व्यर्थ है।


और 'गौरी' महादेव की स्त्री, 'रोहिणी' वसुदेव की स्त्री थी। उसको तुम पौराणिक लोग मातृसमान मानते हो। जब कन्यामात्र में 'गौरी' आदि की भावना करते हो, तो फिर उनसे विवाह करना कैसे सम्भव और धर्मयुक्त हो सकता है? इसलिये तुम्हारे और हमारे दो-दो श्लोक मिथ्या ही हैं। क्योंकि जैसे हमने 'ब्रह्मोवाच' करके श्लोक बना लिये हैं, वैसे वे भी श्लोक पराशर आदि के नाम से अपने मतलब-सिन्धु लोगों ने बना लिये हैं। इसलिये इन सबका प्रमाण छोड़के वेदों के प्रमाण से सब काम किया करो। देखो, मनुस्मृति में― 


त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती।

ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद्विन्देत सदृशं पतिम्॥ 

मनु० [९।९०]

* उचित समय से न्यून आयुवाले स्त्री-पुरुष को गर्भाधान के लिए मुनिवर धन्वन्तरि जी सुश्रुत में निषेध करते हैं―


ऊनषोडशवर्षायामप्राप्तः पञ्चविंशतिम्। 

यद्याधत्ते पुमान् गर्भ कुक्षिस्थः स विपद्यते॥१॥

जातो वा न चिरञ्जीवेज्जीवेद्वा दुर्बलेन्द्रियः।

तस्मादत्यन्तबालायां गर्भाधानं न कारयेत्॥२॥ 

[सुश्रुत, शारीरस्थान, अ० १०। श्लोक ४७, ४८] 


अर्थ―सोलह वर्ष से न्यून वयवाली स्त्री में, पच्चीस वर्ष से न्यून आयुवाला पुरुष जो गर्भ का स्थापन करे तो वह कुक्षिस्थ हुआ गर्भ विपत्ति को प्राप्त होता अर्थात् पूर्ण काल तक गर्भाशय में रहकर उत्पन्न नहीं होता ॥१॥ 


अथवा उत्पन्न हो तो चिरकाल तक न जीवे वा जीवे तो दुर्बलेन्द्रिय होवे। इस कारण से अतिबाल्यावस्था वाली स्त्री में गर्भ स्थापित न करे॥२॥ 


ऐसे-ऐसे शास्त्रोक्त नियम और सृष्टिक्रम को देखने और बुद्धि से विचारने से यही सिद्ध होता है कि १६ वर्ष से न्यून स्त्री और २५ वर्ष से न्यून आयुवाला पुरुष कभी गर्भाधान करने के योग्य नहीं होता। इन नियमों से विपरीत जो करते हैं, वे दुःखभागी होते हैं।

 ―[दयानन्द सरस्वती]


[शीघ्र विवाह की इच्छुक] कन्या रजस्वला हुए पीछे तीन वर्षपर्यन्त पति की खोज करके अपने तुल्य पति को प्राप्त होवे। जब प्रतिमास रजोदर्शन होता है तो तीन वर्षों में ३६ वार रजस्वला हुए पश्चात् विवाह करना योग्य है, इससे पूर्व नहीं। 


काममामरणात्तिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि। 

न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥ 

मनु० [९।८९]

चाहे लड़का-लड़की मरणपर्यन्त कुमारे रहैं, परन्तु असदृश अर्थात् परस्पर-विरुद्ध गुण-कर्म-स्वभाववालों का विवाह कभी न होना चाहिये। इससे सिद्ध हुआ कि न पूर्वोक्त समय से पूर्व, और [न] असदृशों का विवाह होना योग्य है।

[लड़का-लड़की की प्रसन्नता से विवाह]

प्रश्न―विवाह करना माता-पिता के आधीन होना चाहिये वा लड़के-लड़की के आधीन रहै? 


उत्तर―लड़के-लड़की के आधीन विवाह होना उत्तम है। जो माता-पिता विवाह करना कभी विचारें, तो भी लड़के-लड़की की प्रसन्नता के विना न होना चाहिये; क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम होता है और सन्तान उत्तम होते हैं। अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है। विवाह में मुख्य प्रयोजन वर और कन्या का है, माता-पिता का नहीं; क्योंकि जो उनमें परस्पर प्रसन्नता रहै, तो उन्हीं को सुख और विरोध में उन्हीं को दुःख होता है। और― 


सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च। 

यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥

 मनु० [२।६०] 

जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री सदा प्रसन्न रहती है, उसी कुल में आनन्द, लक्ष्मी और कीर्त्ति निवास करती है, और जहाँ विरोध-कलह होता है, वहाँ दुःख, दरिद्रता और निन्दा निवास करती है। 

[स्वयंवर विवाह ही उत्तम]

इसलिये जैसी स्वयंवर की रीति आर्यावर्त में परम्परा से चली आती है, वही विवाह उत्तम है। जब स्त्री-पुरुष विवाह करना चाहें, तब विद्या, विनय, शील, रूप, आयु, बल, कुल, शरीर का परिमाणादि यथायोग्य होना चाहिये। जब तक इनका मेल नहीं होता, तब तक विवाह में कुछ भी सुख नहीं होता और न बाल्यावस्था में विवाह करने से सुख होता [है]। 

[युवावस्था में विवाह करने में प्रमाण]

युवा॑ सु॒वासाः॒ परि॑वीत॒ आगा॒त्स उ॒ श्रेया॑न्भवति॒ जाय॑मानः।

तं धीरा॑सः क॒वय॒ उन्न॑यन्ति स्वा॒ध्यो॒३॒॑ मन॑सा देव॒यन्तः॑॥१॥ 

ऋ०, म० ३। सूक्त ८। मं० ४॥

आ धे॒नवो॑ धुनयन्ता॒मशि॑श्वीः सब॒र्दुघाः॑ शश॒या अप्र॑दुग्धाः।

नव्या॑नव्या युव॒तयो॒ भव॑न्तीर्म॒हद्दे॒वाना॑मसुर॒त्वमेक॑म्॥२॥ 

ऋ०, म० ३। सूक्त० ५५। मं० १६॥ 

पू॒र्वीर॒हं श॒रदः॑ शश्रमा॒णा दो॒षावस्तो॑रु॒षसो॑ ज॒रय॑न्तीः।

मि॒नाति॒ श्रियं॑ जरि॒मा त॒नूना॒मप्यू॒ नु पत्नी॒र्वृष॑णो जगम्युः ॥३॥ 

ऋ०, म० १। सूक्त १७९ । मं० १॥

 

जो पुरुष (परिवीतः) सब ओर से यज्ञोपवीत [पूर्वक] ब्रह्मचर्य-सेवन से उत्तम शिक्षा और विद्या से युक्त, (सुवासाः) सुन्दर वस्त्र धारण किया हुआ ब्रह्मचर्ययुक्त (युवा) विद्याग्रहण कर पूर्ण जवान होके गृहाश्रम में, (आगात्) आता है, (सः) वही दूसरे=विद्याजन्म में, (जायमानः) प्रसिद्ध होकर, (श्रेयान्) अतिशय शोभायुक्त, मङ्गलकारी, (भवति) होता है, (स्वाध्यः) अच्छे प्रकार ध्यानयुक्त, (मनसा) विज्ञान से, (देवयन्तः) विद्यावृद्धि की कामनायुक्त, (धीरासः) धैर्ययुक्त, (कवयः) विद्वान् लोग, (तम्) उसी पुरुष को, (उन्नयन्ति) उन्नतिशील करके प्रतिष्ठित करते हैं। और जो ब्रह्मचर्यधारण, विद्या, उत्तम शिक्षा का ग्रहण किये विना अथवा बाल्यावस्था में विवाह करते हैं, वे स्त्री-पुरुष नष्ट-भ्रष्ट होकर विद्वानों में अप्रतिष्ठा को प्राप्त होते हैं॥१॥


जो (अप्रदुग्धाः) किसी ने दुही न हों, उन (धेनवः) गौओं के समान, (अशिश्वीः) बाल्यावस्था से रहित, (सबर्दुघाः) सब प्रकार के उत्तम व्यवहारों को पूर्ण करनेहारी, (शशयाः) कुमारावस्था का उल्लङ्घन करनेहारी, (नव्यानव्याः) नवीन-नवीन शिक्षा और अवस्था से पूर्ण, (भवन्तीः) वर्त्तमान, (युवतयः) पूर्ण युवावस्थास्थ स्त्रियाँ, (देवानाम्) ब्रह्मचर्य-सुनियमों से पूर्ण विद्वानों के, (एकम्) अद्वितीय, (महत्) बड़े, (असुरत्वम्) प्रज्ञा-शास्त्रशिक्षा-युक्त, प्रज्ञा में रमण के भावार्थ को प्राप्त होती हुई, जवान पतियों को प्राप्त होके, (आधुनयन्ताम्) गर्भधारण करें। 


कभी भूलके भी बाल्यावस्था में पुरुष का मन से भी ध्यान न करें, क्योंकि यही कर्म इस लोक और परलोक के सुख का साधन है। बाल्यावस्था में विवाह से जितना पुरुष का नाश [होता है] उससे अधिक स्त्री का नाश होता है॥२॥ 


जैसे (नु) शीघ्र, (शश्रमाणाः) अत्यन्त श्रम करनेहारे (वृषणः) वीर्य सींचने में समर्थ पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष, (पत्नीः) युवावस्थास्थ, हृदय को प्रिय स्त्रियों को, (जगम्युः) प्राप्त होकर, पूर्ण शतवर्ष वा उससे अधिक आयु को आनन्द से भोगते और पुत्र-पौत्रादि से संयुक्त रहते रहैं, वैसे स्त्री-पुरुष सदा वर्त्तें। जैसे (पूर्वीः) पूर्व वर्त्तमान (शरदः) शरद् ऋतुओं, और (जरयन्तीः) वृद्धावस्था को प्राप्त करानेवाली (उषसः) प्रात:काल की वेलाओं को (दोषाः) रात्री, और (वस्तोः) दिन (तनूनाम्) शरीरों की (श्रियम्) शोभा को (जरिमा) अतिशय वृद्धपन [करके] बल और शोभा को (मिनाति) दूर कर देता है, वैसे (अहम्) मैं स्त्री वा पुरुष, () अच्छे प्रकार, (अपि) निश्चय करके ब्रह्मचर्य से विद्या, शिक्षा, शरीर और आत्मा के बल और युवावस्था को प्राप्त होके ही विवाह करूँ। इससे विरुद्ध करना, वेदविरुद्ध होने से सुखदायक विवाह कभी नहीं होता॥३॥


जब तक इसी प्रकार सब ऋषि-मुनि, राजा-महाराजा आर्य-लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़के ही, स्वयंवर विवाह करते थे, तब तक इस देश की सदा उन्नति होती जाती थी। जब से यह ब्रह्मचर्य से विद्या का न पढ़ना, बाल्यावस्था में पराधीन अर्थात् माता-पिता के आधीन विवाह होने लगा, तब से क्रमशः आर्यावर्त देश की हानि ही होती चली आई है। इससे इस दुष्ट काम को छोड़के, सज्जन लोग पूर्वोक्त प्रकार से स्वयंवर विवाह किया करें; सो विवाह वर्णानुक्रम से करें। और वर्णव्यवस्था गुण-कर्म के आधीन होनी चाहिये। 

[वर्णव्यवस्था गुण-कर्म-स्वभावानुसार]

प्रश्न―क्या जिनके माता-पिता ब्राह्मणी-ब्राह्मण हों, वही ब्राह्मण होते हैं? और जिसके माता-पिता अन्यवर्णस्थ हों, वे कभी ब्राह्मण हो सकते हैं? 


उत्तर―हाँ, बहुत-से हो गये, होते हैं और होंगे भी। जैसे, 'छान्दोग्य उपनिषद्' में जाबाल ऋषि अज्ञातकुल से, 'महाभारत' में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण से और मातङ्ग ऋषि चाण्डाल कुल से ब्राह्मण हो गये थे [ऐसा वर्णित है]। अब भी जो उत्तम विद्या-स्वभाववाला है, वही ब्राह्मण के योग्य और मूर्ख [ =अशिक्षित ] शूद्र के योग्य होता है, और वैसा ही आगे भी होगा।

[ब्राह्मण-शरीर बनाने के साधन]

प्रश्न―भला, जो रज-वीर्य से शरीर हुआ है, वह बदलकर दूसरे वर्ण के योग्य कैसे हो सकता है?


उत्तर―रज-वीर्य के योग से ब्राह्मण-शरीर नहीं होता। किन्तु― 


स्वाध्यायेन जपैः होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥ 

मनु० [२।२८]

इसका अर्थ पूर्व कर आये हैं और यहाँ भी संक्षेप से करते हैं—(स्वाध्यायेन) पढ़ने-पढ़ाने, (जपैः) विचार करने-कराने, [होमैः] नानाविध होम के अनुष्ठान, [त्रैविद्येन] सम्पूर्ण वेदों को शब्द- अर्थ-सम्बन्ध, स्वरोच्चारण-सहित पढ़ने-पढ़ाने, (इज्यया) पौर्णमासी इष्टि आदि के करने, (सुतैः) पूर्वोक्त विधिपूर्वक धर्म से सन्तानोत्पत्ति, (महायज्ञैश्च) पूर्वोक्त ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, वैश्वदेवयज्ञ और अतिथियज्ञ, (यज्ञैश्च) अग्निष्टोमादि यज्ञ, विद्वानों का संग, सत्कार, सत्यभाषण, परोपकारादि सत्कर्म [करने से] और सम्पूर्ण 'शिल्पविद्या' आदि पढ़के दुष्टाचार छोड़ श्रेष्ठाचार में वर्तने से (इयम्) यह (तनुः) शरीर (ब्राह्मी) ब्राह्मण का (क्रियते) किया जाता है। क्या इस श्लोक को तुम नहीं मानते? 


[प्रश्न―] मानते हैं। 


[उत्तर―] फिर क्यों रज-वीर्य के योग से वर्णव्यवस्था मानते हो?


[प्रश्न―] मैं अकेला नहीं मानता, किन्तु बहुत लोग परम्परा से ऐसा ही मानते हैं। क्या तुम परम्परा का भी खण्डन करोगे? 


उत्तर― नहीं। परन्तु तुम्हारी उलटी समझ को नहीं मानके, खण्डन भी करते हैं।

 

प्रश्न―हमारी उलटी और तुम्हारी सूधी समझ है, इसमें क्या प्रमाण है? 


उत्तर― यही प्रमाण है कि जो तुम पाँच-सात पीढ़ियों के वर्त्तमान को 'सनातन' व्यवहार मानते हो और हम वेद तथा सृष्टि के आरम्भ से आज पर्यन्त को परम्परा मानते हैं। देखो, जिसका पिता श्रेष्ठ उसका पुत्र दुष्ट, और जिसका पुत्र श्रेष्ठ उसका पिता दुष्ट तथा कहीं दोनों श्रेष्ठ अथवा दुष्ट देखने में आते हैं। इसलिये तुम लोग भ्रम में पडे हो। देखो, मनु महाराज ने क्या कहा है― 


येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः। 

तेन यायात्सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते॥ 

मनु० [४।१७८] 

अर्थ―जिस मार्ग से इसके पिता, पितामह चले हों, उसी मार्ग में सन्तान भी चलें, परन्तु सताम्=जो सत्पुरुष पिता-पितामह हों, उनके मार्ग में चलें; और जो पिता, पितामह दुष्ट हों, तो उनके मार्ग में कभी न चलें। क्योंकि सत्पुरुषों और धर्मात्मा पुरुषाओं के मार्ग में चलने से दुःख कभी नहीं होता। इसको तुम मानते हो वा नहीं?


[प्रश्न―] हाँ-हाँ, मानते हैं। 


[उत्तर―] और देखो, जो परमेश्वर- प्रकाशित वेदोक्त बात [है] वही सनातन है और जो उसके विरुद्ध है, वह सनातन कभी नहीं हो सकती। ऐसा ही सब लोगों को मानना चाहिये वा नहीं?


[प्रश्न―] अवश्य चाहिये। 


[उत्तर―] जो ऐसा न माने, उससे कहो कि किसी का पिता दरिद्र हो और उसका पुत्र धनाढ्य होवे, तो क्या अपने पिता की दरिद्रावस्था के अभिमान से धन को फेंक देवे? क्या जिसका पिता अन्धा हो, उसका पुत्र भी अपनी आँखों को फोड़ लेवे? जिसका पिता कुकर्मी हो, क्या उसका पुत्र भी कुकर्म ही करे? नहीं-नहीं; किन्तु जो-जो पुरुषों के उत्तम कर्म हों, उनका सेवन और दुष्ट कर्मों का त्याग कर देना सबको अत्यावश्यक है।

[जन्म से वर्णव्यवस्था में दोष] 

जो कोई रज-वीर्य के योग से वर्णाश्रम-व्यवस्था माने और गुण-कर्मों के योग से न माने, तो उससे पूछना चाहिये कि जो कोई [ब्राह्मणवर्णस्थ] अपने वर्ण को छोड़ नीच [वर्ण], अन्त्यज अथवा कृश्चीन, मुसलमान हो गया हो, उसको भी ब्राह्मण क्यों नहीं मानते? यहाँ यही कहोगे कि उसने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये, इसलिये वह ब्राह्मण नहीं है। इससे यह भी सिद्ध होता है कि जो ब्राह्मणादि के उत्तम कर्म करते हैं वे ही ब्राह्मणादि, और जो नीच [वर्ण] भी उत्तम वर्ण के गुण-कर्म- स्वभाववाला होवे तो उसको भी उत्तम वर्ण में, और जो उत्तम वर्णस्थ होके नीच [वर्ण के] कर्म करे तो उसको नीच-वर्ण में गिनना अवश्य चाहिये। 

['ब्राह्मणोऽस्य-'मन्त्र का अर्थ]

प्रश्न― ब्रा॒ह्म॒णो॒ऽस्य॒ मुख॑मासीद् बा॒हू रा॑ज॒न्यः॒ कृ॒तः।

ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ प॒द्भ्याᳬ शू॒द्रो अ॑जायत॥

 यह यजुर्वेद के ३१वें अध्याय का ११वाँ मन्त्र है।


इसका यह अर्थ है कि ब्राह्मण ईश्वर के 'मुख', क्षत्रिय "बाहू", वैश्य "ऊरू'' और शूद्र 'पगों' से उत्पन्न हुआ है। इसलिये जैसे मुख, न 'बाहु' आदि, और 'बाहु' आदि न मुख होते हैं, इसी प्रकार ब्राह्मण न क्षत्रियादि और क्षत्रियादि न ब्राह्मण हो सकते हैं। 


उत्तर―इस मन्त्र का अर्थ जो तुमने किया, वह ठीक नहीं; क्योंकि यहाँ पुरुष अर्थात् निराकार, व्यापक परमात्मा की अनुवृत्ति आती है। जब वह निराकार है, तो उसके मुखादि अङ्ग नहीं हो सकते, जो मुखादि अङ्गवाला हो, वह पुरुष अर्थात् व्यापक नहीं और जो व्यापक नहीं, वह सर्वशक्तिमान्, जगत् का स्रष्टा, धर्त्ता, प्रलयकर्त्ता, जीवों के पुण्य-पापों को जानके व्यवस्था करनेहारा, सर्वज्ञ, अजन्मा, मृत्युरहित आदि विशेषणवाला नहीं हो सकता। इसलिये इसका यह अर्थ है कि जो (अस्य) पूर्ण व्यापक परमात्मा की सृष्टि में मुख के सदृश सबमें मुख्य उत्तम हो, वह (ब्राह्मणः) ब्राह्मण; (बाहू)― 


‘बाहुर्वै बलम्, बाहुर्वै वीर्यम्' शतपथब्राह्मण 

[तुलना―५।३।३ । १७; ५।४।१।१; ६।२।३।३३; १३।१।११।५] 


=बल, वीर्य का नाम 'बाहु' है, वह जिसमें अधिक हो सो (राजन्यः) क्षत्रिय, (ऊरू) कटि के अधोभाग और जानु के उपरिस्थ भाग का नाम 'ऊरू' है। जो सब पदार्थों, सब देशों में 'ऊरु' के बल से जावे-आवे, प्रवेश करे, वह (वैश्यः) वैश्य, और (पद्भ्याम् शूद्रः) जो पग के अर्थात् नीच अङ्ग के सदृश [ और ] मूर्खतादि गुणवाला हो, वह शूद्र है। अन्यत्र 'शतपथ ब्राह्मण' -आदि में भी इस मन्त्र का ऐसा ही अर्थ किया है। जैसे―


'यस्मादेते मुख्या मुखतो ह्यसृज्यन्त।' ―इत्यादि। 

[शत० ब्रा०, ६।१।१। १०; तैत्ति० सं० ७।१।१।४]

 

जिससे ये मुख्य हैं, इससे मुख से उत्पन्न हुए, ऐसा कथन संगत होता है। अर्थात् जैसे मुख सब अङ्गों में श्रेष्ठ है, वैसे पूर्ण विद्या और उत्तम गुण-कर्म-स्वभाव से युक्त होने से मनुष्यजाति में ब्राह्मण उत्तम कहाते हैं। जब परमेश्वर के निराकार होने से मुखादि अंग ही नहीं हैं, तो मुख आदि से उत्पन्न होना असम्भव है, जैसे कि वन्ध्या स्त्री के पुत्र का विवाह होना! 


और जो मुखादि अङ्गों से ब्राह्मणादि उत्पन्न होते, तो उपादान कारण के सदृश ब्राह्मणादि की आकृति अवश्य होती। जैसा मुख का आकार गोलमोल है, वैसे ही उनके शरीर भी गोलमोल होने चाहियें। क्षत्रियों के शरीर भुजाओं के सदृश, वैश्यों के ऊरुओं के तुल्य और शूद्रों के शरीर पग के समान आकारवाले होते, [किन्तु] ऐसे नहीं हैं। और जो कोई तुमसे प्रश्न करेगा कि 'जो-जो मुखादि से उत्पन्न हुए हैं, उनकी ब्राह्मणादि संज्ञा होनी चाहिये', परन्तु तुम्हारी नहीं; क्योंकि जैसे [और] सब लोग गर्भाशय से उत्पन्न होते हैं, वैसे तुम भी होते हो। तुम मुखादि से उत्पन्न न होकर ब्राह्मणादि संज्ञा का अभिमान करते हो? [तो तुमसे कुछ भी उत्तर न बन पड़ेगा] इसलिये तुम्हारा कहा अर्थ व्यर्थ है, और जो हमने अर्थ किया है, वह सच्चा है। ऐसा ही अन्यत्र भी कहा है, जैसा―

 [वर्ण-परिवर्तन में प्रमाण]

शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवन्तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च॥

 मनु० [१०। ६५] 

जो शूद्रकुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के सदृश गुण-कर्म-स्वभाववाला हो, तो वह 'शूद्र' ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाय। वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के कुल में उत्पन्न हुआ हो और उसके गुण-कर्म- स्वभाव शूद्र के सदृश हों, तो शूद्र हो जाये। वैसे ही क्षत्रिय, [वा] वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण वा शूद्र के समान होने से, ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है। अर्थात् चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष वा स्त्री हो, वह-वह उसी वर्ण में गिनी जावे। 


धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ॥१॥

अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृत्तौ॥२॥ 

ये आपस्तम्ब [धर्मसूत्र] के सूत्र हैं [प्रश्न २। प० ५। कं० ११। सूत्र १०-११]

 

धर्माचरण से, निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम वर्णों को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस-जिस के योग्य होवे॥१॥ 


वैसे अधर्माचरण से, पूर्व अर्थात् उत्तम वर्णवाला मनुष्य अपने से नीचेवाले वर्णों को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जावे कि जिस-जिस के योग्य होवे॥२॥


जैसे पुरुष जिस-जिस वर्ण के योग्य होता है, वैसे ही स्त्रियों की भी [वर्ण-] व्यवस्था समझनी चाहिये।

इससे क्या सिद्ध हुआ कि इस प्रकार होने से सब वर्ण अपने-अपने गुण-कर्म- स्वभावयुक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं, अर्थात् ब्राह्मणवर्ण में कोई क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र के सदृश न रहेगा और क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र वर्ण भी शुद्ध रहेंगे अर्थात् वर्णसंकरता प्राप्त न होगी। इससे किसी वर्ण की निन्दा वा अयोग्यता भी न होगी। 


प्रश्न―जो किसी के एक ही पुत्र वा पुत्री हो, वह दूसरे वर्ण में प्रविष्ट हो जाय तो उसके मा-बाप की सेवा कौन करेगा और वंशच्छेदन भी हो जायगा, इसकी क्या व्यवस्था होनी चाहिये? 


उत्तर―न किसी की सेवा का भङ्ग और न वंशच्छेदन होगा, क्योंकि उनको अपने लड़के-लड़कियों के बदले स्ववर्ण के योग्य दूसरे सन्तान, विद्यासभा और राजसभा की व्यवस्था से मिलेंगे, इसलिये कुछ भी अव्यवस्था नहीं होगी। 

[वर्णनिश्चय का समय]

यह गुण-कर्मों से वर्णों की व्यवस्था कन्याओं की सोलहवें वर्ष और पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करनी चाहिये और इसी क्रम से अर्थात् ब्राह्मण का ब्राह्मणी, क्षत्रिय का क्षत्रिया, वैश्य का वैश्या और शूद्र का शुद्रा के साथ विवाह होना चाहिये। तभी अपने-अपने वर्णों के कर्म और परस्पर प्रीति भी यथायोग्य रहेगी। 

[चारों वर्णों के कर्त्तव्य कर्म और गुण]

इन चारों वर्णों के कर्त्तव्य-कर्म और गुण ये हैं।

[ब्राह्मण के―] 


अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा। 

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥१॥

 मनु० [१।८८] 

शमो दमस्तपः शौचं क्षान्तिरार्जवमेव च। 

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्मस्वभावजम्॥२॥ 

भगवद्गीता [१८।४२] 

ब्राह्मण के पढ़ना-पढ़ाना, यज्ञ करना- कराना, दान लेना-देना, ये छ: कर्म हैं, परन्तु ‘प्रतिग्रहः प्रत्यवरः' मनु० [१० । १०९] =अर्थात् प्रतिग्रह=दान लेना नीच [ =निम्न] कर्म है॥१॥


(शमः) मन से बुरे काम की इच्छा भी न करनी और उसको अधर्म में कभी प्रवृत्त न होने देना, (दमः) श्रोत्र और चक्षु आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से रोककर धर्म में चलाना, (तपः) सदा ब्रह्मचारी= जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना। (शौचम्)―


अद्भिर्गात्राणि शुध्यन्ति मनः सत्येन शुध्यति।

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुध्यति॥ 

मनु० [५ । १०९]

=जल से बाहर के अङ्ग, सत्याचार से मन, विद्या और धर्मानुष्ठान से जीवात्मा और ज्ञान से बुद्धि पवित्र होती है। भीतर के रागद्वेषादि दोष और बाहर के मलों को दूर कर शुद्ध रहना अर्थात् सत्यासत्य के विवेकपूर्वक सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग से 'निश्चय' पवित्र होता है। 


(क्षान्तिः) अर्थात् निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख, शीत-उष्ण, क्षुधा-तृषा, हानि-  लाभ, मान-अपमान आदि में हर्ष-शोक छोड़के धर्म में दृढ़-निश्चय रहना, (आर्जवम्) कोमलता, निरभिमानी सरल- स्वभाव रखना; कुटिलतादि दोष छोड़ देना, (ज्ञानम्) सब वेदादि-शास्त्रों को साङ्गोपाङ्ग पढ़के पढ़ाने का सामर्थ्य, विवेक=सत्यासत्य का निर्णय, जो वस्तु जैसा हो अर्थात् जड़ को जड़, चेतन को चेतन जानना और मानना, (विज्ञानम्) पृथिवी से लेके परमेश्वर-पर्यन्त पदार्थों को विशेषता से जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, (आस्तिक्यम्) कभी वेद, ईश्वर, मुक्ति, पूर्व-परजन्म, धर्म, विद्या, सत्सङ्ग, माता, पिता, आचार्य और अतिथियों की सेवा को न छोड़ना और निन्दा कभी न करना; [ब्रह्मकर्म स्वभावजम्] ये पन्द्रह कर्म और गुण ब्राह्मणवर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहियें॥२॥ 


क्षत्रिय― 


प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥१॥

 मनु० [१।८९]

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम्।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम्॥२॥ 

[भगवद्]गीता [१८।४३]

[प्रजानां रक्षणम्] न्याय से प्रजा की रक्षा अर्थात् पक्षपात छोड़के, श्रेष्ठों का सत्कार और दुष्टों का तिरस्कार करना, सब प्रकार से सब का पालन, (दानम्) विद्या, धर्म की प्रवृत्ति और सुपात्रों की सेवा में धनादि पदार्थों का व्यय करना, (इज्या) अग्निहोत्रादि यज्ञ करना वा कराना, (अध्ययनम्) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना तथा पढ़ाना-पढ़वाना, और (विषयेष्वप्रसक्तिः) विषयों में न फस कर, जितेन्द्रिय रहके, सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना॥१॥ 


(शौर्यम्) सैकड़ों-सहस्रों से भी युद्ध करने में अकेले को भय न होना, (तेजः) सदा तेजस्वी, दीनतारहित, प्रगल्भ, दृढ़ रहना, (धृतिः) धैर्यवान् होना, (दाक्ष्यम्) राज्य और प्रजासम्बन्धी व्यवहार और सब शास्त्रों में अति चतुर होना, (युद्धे) युद्ध में भी दृढ़-नि:शङ्क रहके [अपलायनम्] उससे कभी न हटना, न भागना अर्थात् इस प्रकार से लड़ना कि जिससे निश्चित विजय होवे। आप बचे; जो भागने से वा शत्रुओं को धोखा देने से जीत होती हो तो ऐसा ही करना, (दानम्) दानशीलता रखना, (ईश्वरभावः) पक्षपातरहित होके सबके साथ यथायोग्य वर्तना; विचारके देना, प्रतिज्ञा पूरी करना, उसको कभी भंग होने न देना; [क्षात्रं कर्म०] ये ग्यारह क्षत्रियवर्ण के कर्म और गुण हैं॥२॥


वैश्य―


पशूनां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च। 

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥१॥ 

मनु० [१।९०]

(पशूनां रक्षणम्) गाय आदि पशुओं का पालन-वर्द्धन करना, (दानम्) विद्या, धर्म की वृद्धि करने-कराने के लिये धनादि का व्यय करना, (इज्या) अग्निहोत्रादि यज्ञों का करना, (अध्ययनम्) वेदादि-शास्त्रों को पढ़ना, (वणिक्पथम्) सब प्रकार के व्यापार करना, (कुसीदम्) एक सैंकड़े में चार आना, छ:, आठ, बारह, सोलह वा वीस आनों से अधिक ब्याज और मूल से दूना अर्थात् एक रुपया दिया हो तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना और न देना, (कृषिम्) खेती करना, [वैश्यस्य] ये वैश्य के गुण, कर्म हैं। 


शूद्र― 


एकमेव हि शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥ 

मनु० [१।९१]

शूद्र को योग्य है कि निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़के, ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्यों की सेवा यथावत् करना और उसी से अपना जीवन [निर्वाह] करना। यही एक शूद्र का कर्म, गुण है।

[गुण-कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था के लाभ]

ये संक्षेप से वर्णों के गुण और कर्म लिखे। जिस-जिस पुरुष में जिस-जिस वर्ण के गुण-कर्म हों, [उसको] उस-उस वर्ण का अधिकार देना। ऐसी व्यवस्था रखने से सब मनुष्य उन्नतिशील होते हैं। क्योंकि उत्तम वर्णों को भय होगा कि जो हमारे सन्तान मूर्खत्वादि दोषयुक्त होंगे तो शूद्र हो जायेंगे और सन्तान भी डरते रहेंगे कि जो हम उत्तम चालचलन और विद्या-युक्त न होंगे, तो शूद्र होना पड़ेगा। और नीच-वर्णों को उत्तम वर्णस्थ होने के लिये उत्साह बढ़ेगा। 

[किस वर्ण को क्या अधिकार देना]

विद्या और धर्म के प्रचार का अधिकार ब्राह्मण को देना, क्योंकि वे पूर्णविद्यावान् और धार्मिक होने से उस काम को यथायोग्य कर सकते हैं। क्षत्रियों को राज्य के अधिकार देने से कभी राज्य की हानि वा विघ्न नहीं हो सकता। पशुपालनादि का अधिकार वैश्यों को ही होना योग्य है, क्योंकि वे इस काम को अच्छे प्रकार कर सकते हैं। शूद्र को सेवा का अधिकार इसलिये है कि वह विद्यारहित=मूर्ख होने से, विज्ञानसम्बन्धी काम कुछ भी नहीं कर सकता, किन्तु शरीर के काम सब कर सकता है। इस प्रकार वर्णों को अपने-अपने अधिकार में प्रवृत्त करना राजादि का काम है।

विवाहों के लक्षण 


ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः।

गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥

मनु० [३॥ २१]

[आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।

आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः॥ 

यज्ञे तु वितते सम्यग्-ऋत्विजे कर्म कुर्वते। 

अलंकृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते॥ 

एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः। 

कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते॥ 

सहोभौ चरतां धर्ममिति वाचाऽनुभाष्य च।

कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः॥

ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः।

कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यात्-आसुरो धर्म उच्यते॥

इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च। 

गान्धर्वः स तु विज्ञेयः, मैथुन्यः कामसम्भवः॥

हत्त्वा छित्त्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गृहात्।

प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते॥ 

सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति। 

स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥] 

[मनु०३.२७-३४]

विवाह आठ प्रकार का होता है। एक ब्राह्म, दूसरा दैव, तीसरा आर्ष, चौथा प्राजापत्य, पांचवाँ आसुर, छठा गान्धर्व, सातवाँ राक्षस, आठवाँ पैशाच। इन विवाहों की यह व्यवस्था है कि जो वर, कन्या दोनों यथावत् ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान्, धार्मिक और सुशील हों, उनका परस्पर-प्रसन्नता से विवाह होना, 'ब्राह्म' कहाता है। विस्तृत यज्ञ [का आयोजन] करके, ऋत्विक् के कर्म करते हुए जामाता को अलङ्कारयुक्त कन्या का देना 'दैव'। वर से कुछ लेके, विवाह होना 'आर्ष'। दोनों का विवाह [गृहस्थ-] धर्म की वृद्धि के अर्थ होना 'प्राजापत्य'। वर और कन्या को कुछ देके विवाह होना 'आसुर'। अनियम, असमय किसी कारण से दोनों की इच्छापूर्वक वर- कन्या का परस्पर संयोग होना 'गान्धर्व'। लड़ाई करके बलात्कार [से] अर्थात् छीन-झपट वा कपट से कन्या का ग्रहण करना 'राक्षस'। शयन करती, वा नशा की हुई वा पागल कन्या से बलात्कार [पूर्वक] संयोग करना ‘पैशाच' [विवाह है]।

 

इन सब विवाहों में ब्राह्मविवाह सर्वोत्कृष्ट; दैव [और प्राजापत्य] मध्यम; आर्ष, आसुर, और गान्धर्व निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट हैं। इसलिये यही निश्चय रखना चाहिये कि कन्या और वर का विवाह के पूर्व एकान्त में मेल न होना चाहिये, क्योंकि युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकान्तवास दूषणकारक है। 

[विवाह से पूर्व का कार्य]

परन्तु जब कन्या वा कुमार के विवाह का समय हो अर्थात् जब एक वर्ष वा छ: महीने ब्रह्मचर्याश्रम और विद्या पूरी होने में शेष रहैं, तब उन कन्या, और उन कुमारों का प्रतिबिम्ब अर्थात् जिसको 'फोटोग्राफ' कहते हैं अथवा प्रतिकृति उतारके कन्याओं की अध्यापिकाओं के पास कुमारों की और लड़कों के अध्यापकों के पास लड़कियों की प्रतिकृति भेज देवें। 


जिस-जिसका रूप मिल जाये, उस-उसके इतिहास अर्थात् जो जन्म से लेके उस दिन पर्यन्त जन्मचरित्र का पुस्तक हो, उसको अध्यापक लोग मंगवाके देखें। जब दोनों के गुण-कर्म-स्वभाव सदृश हों, तब जिस-जिस के साथ जिस-जिस का विवाह होना योग्य समझें, उस-उस कुमार और कन्या का प्रतिबिम्ब और इतिहास कन्या और कुमार के हाथ में देवें और कहैं कि इसमें जो तुम्हारा अभिप्राय हो, सो हमको विदित कर देना। 

[विवाह का स्थान]

जब उन दोनों का निश्चय परस्पर विवाह करने का हो जाय, तब उन दोनों का समावर्तन एक ही समय में होवे। जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें, तो वहाँ, नहीं तो कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है। जब वे समक्ष हों, तब उन अध्यापकों वा कन्या के माता-पिता आदि भद्रपुरुषों के सामने उन दोनों की आपस में बातचीत=शास्त्रार्थ कराना और जो कुछ गुप्त व्यवहार पूछें सो भी सभा में लिखके, एक-दूसरे के हाथ में देकर प्रश्नोत्तर कर लेवें। 


जब दोनों का दृढ़ प्रेम विवाह करने में हो जाय, तब से उनके खान-पान का उत्तम प्रबन्ध होना चाहिये कि जिससे उनका शरीर जो पूर्व ब्रह्मचर्य और विद्याध्ययनरूप तपश्चर्या और कष्ट से दुर्बल होता है, वह चन्द्रमा की कला के समान बढ़के थोड़े ही दिनों में पुष्ट हो जाये। 

[विवाह एवं गर्भाधान]

पश्चात् जिस दिन कन्या रजस्वला होकर जब शुद्ध हो, तब वेदी और मण्डप रचके, अनेक सुगन्धियुक्त द्रव्यों और घृतादि का होम करें तथा अनेक विद्वान् पुरुषों और स्त्रियों का यथायोग्य सत्कार करें। पश्चात् जिस दिन ऋतुदान देना योग्य समझें, उसी दिन 'संस्कार-विधिस्थ' विवाह-विधि के अनुसार सब कर्म करके, मध्यरात्रि वा दश बजे अतिप्रसन्नता से सबके सामने पाणिग्रहणपूर्वक विवाह के विधि को पूरा करके, एकान्तसेवन करें। पुरुष जो वीर्यस्थापन और स्त्री वीर्याकर्षण का विधि है, उसी के अनुसार दोनों करें। जहाँ तक बने, वहाँ तक ब्रह्मचर्य के वीर्य को व्यर्थ न जाने दें; क्योंकि उस वीर्य-रज से जो शरीर उत्पन्न होता है, वह अपूर्व उत्तम सन्तान होता है। जब वीर्य का गर्भाशय में गिरने का समय हो, उस समय स्त्री-पुरुष दोनों स्थिर और नासिका के सामने नासिका, नेत्र के सामने नेत्र अर्थात् सूधा शरीर और अत्यन्त प्रसन्न रहैं, डिगें नहीं। पुरुष अपने शरीर को ढीला छोड़े और स्त्री वीर्यप्राप्ति के समय अपान वायु को ऊपर खेंच, योनि को ऊपर संकोच कर, वीर्य का ऊपर आकर्षण करके, गर्भाशय में स्थित करे। पश्चात् दोनों शुद्ध जल से स्नान करें।*


* यह बात रहस्य की है, इसलिये इतने से ही समग्र बातें समझ लेनी चाहियें, विशेष लिखना उचित नहीं।                   [दयानन्द सरस्वती]


गर्भस्थिति होने का परिज्ञान विदुषी स्त्री को तो उसी समय हो जाता है, परन्तु इसका निश्चय महीनाभर के पश्चात् रजस्वला न होने पर, सबको हो जाता है। सोंठ, केशर, असगन्ध, सफेद इलायची और सालममिश्री डालके गर्म करके प्रथम ही रक्खे हुए ठण्डे दूध को यथारुचि दोनों पीके, अलग-अलग अपनी-अपनी शय्या में शयन करें। यही विधि जब-जब गर्भाधान-क्रिया करें, तब-तब करना उचित है। 


जब महीना-भर में रजस्वला न होने से गर्भस्थिति का निश्चय हो जाय, तब से एक वर्ष पर्यन्त स्त्री-पुरुष का समागम कभी न होना चाहिये; क्योंकि ऐसे न होने से सन्तान उत्तम और दूसरा सन्तान भी श्रेष्ठ नहीं होता, वीर्य व्यर्थ जाता, दोनों का आयु घट जाता [है] और अनेक प्रकार के रोग होते हैं। परन्तु ऊपर से भाषणादि प्रेमयुक्त-व्यवहार अवश्य रखना चाहिये। 

[गर्भकाल के कर्त्तव्य]

पुरुष वीर्य की स्थिति, और स्त्री गर्भ की रक्षा और भोजन-छादन इस प्रकार का करे कि जिससे पुरुष का वीर्य स्वप्न में भी नष्ट न हो और गर्भ में बालक का शरीर अत्युत्तम रूप, लावण्य, पुष्टि, बल, पराक्रमयुक्त होकर दशवें महीने में जन्म होवे। विशेषतः उसकी रक्षा चौथे महीने से और अतिविशेषत: आठवें महीने से आगे करनी चाहिये। गर्भवती स्त्री कभी रेचक, रूक्ष, मादकद्रव्य, बुद्धि और बलनाशक पदार्थों के भोजनादि का सेवन न करे। किन्तु घी, दूध, उत्तम चावल, गेहूँ, मूंग, उर्द आदि अन्न-पान और देश-काल का भी सेवन युक्तिपूर्वक करे। गर्भ [काल] में दो संस्कार―एक चौथे महीने में 'पुंसवन' और दूसरा आठवें महीने में 'सीमन्तोन्नयन' विधि के अनुकूल करे।

[जातकर्म और पश्चात् के कर्त्तव्य]

जब सन्तान का जन्म हो, तब स्त्री और लड़के के शरीर की रक्षा बहुत सावधानी से करे। अर्थात् शुण्ठीपाक अथवा सौभाग्यशुण्ठीपाक प्रथम ही बनवाकर रक्खे। तत्पश्चात् नाड़ीछेदन―बालक की नाभि के जड़ में एक कोमल सूत से बांध, चार अंगुल छोड़ के, ऊपर से काट डाले। उसको ऐसा बांधे कि जिससे शरीर से रुधिर का एक बिन्दु भी न जाने पावे। उस समय सुगन्धियुक्त उष्ण जल, जो कि किञ्चित् उष्ण रहा हो, उसी से स्त्री स्नान करे और बालक को भी स्नान करावे। पश्चात् उस स्थान को शुद्ध करके उसके द्वार के भीतर सुगन्ध्यादियुक्त घृतादि का होम करे। तत्पश्चात् सन्तान के कान में पिता 'वेदोऽसीति' अर्थात् 'तेरा नाम वेद है' सुनाकर सोने की शलाका से घी और सहत को लेके, सन्तान के जीभ पर ‘ओ३म्' अक्षर लिखकर, मधु और घृत को उसी शलाका से चटावे। पश्चात् उसकी माता को दे देवे। जो दूध पीना चाहे, तो उसकी माता पिलावे। जो उसकी माता के दूध न हो, तो किसी और स्त्री की परीक्षा करके, उसका दूध पिलवावे। पश्चात् दूसरी शुद्ध कोठरी वा कमरे में कि जहाँ का वायु शुद्ध हो, उसमें सुगन्धित घी का होम प्रात: और सायं किया करे और उसी में प्रसूता स्त्री तथा बालक को रक्खे। छ: दिन तक माता का दूध पीये और स्त्री भी अपने शरीर की पुष्टि के अर्थ अनेक प्रकार के उत्तम भोजन करे और योनिसंकोचादि भी करे।


छठे दिन स्त्री बाहर निकले। और सन्तान को दूध पिलाने के लिये कोई धायी रक्खे। उसको खान-पान अच्छा करावे। वह सन्तान को दूध पिलाया करे और पालन भी करे। परन्तु उसकी माता लड़के पर पूर्ण दृष्टि रक्खे कि किसी प्रकार का अनुचित व्यवहार उसके पालन में न हो। स्त्री दूध बन्द करने के अर्थ स्तन के अग्रभाग पर ऐसा लेप करे कि जिससे दूध स्रवित न हो। उसी प्रकार खान-पान का व्यवहार भी यथायोग्य रक्खे। पश्चात् 'नामकरणादि संस्कार’ ‘संस्कारविधि' की रीति से यथाकाल करता जाय। पश्चात् जब दूसरे महीने बाद रजस्वला हो, तब शुद्ध होने पर उसी प्रकार ऋतुदान देवे।

[गृहस्थी होते हुए भी ब्रह्मचारी]

ऋतुकालाभिगामी स्यात् स्वदारनिरतः सदा॥ 

मनु० [३।४५] 

ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन्॥

मनु० [३।५०]

जो अपनी ही स्त्री से प्रसन्न और ऋतुगामी होता है, वह गृहस्थ भी ब्रह्मचारी के सदृश है। 

[स्त्री-पुरुष परस्पर प्रसन्न रहें]

सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च। 

यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥१॥ 

यदि हि स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत्।

अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्त्तते॥२॥ 

स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम्। 

तस्यां त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते॥३॥

 मनु० [३।६०-६२]

जिस कुल में भार्या से भर्त्ता और पति से पत्नी अच्छे प्रकार प्रसन्न रहती है, उसी कुल में सब सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं। जहाँ कलह होता है, वहाँ दौर्भाग्य और दारिद्र्य स्थिर होता है॥१॥ 


जो स्त्री पति से प्रीति और पति को प्रसन्न नहीं करती, तो पति के अप्रसन्न होने से काम उत्पन्न नहीं होता॥२॥ 


स्त्री की प्रसन्नता में सब कुल प्रसन्न होता है और उसकी अप्रसन्नता में सब अप्रसन्न अर्थात् दु:खदायक हो जाता है॥३॥ 

[नारी सत्कार के योग्य]

पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। 

पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥१॥ 

यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। 

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफलाः क्रियाः॥२॥

शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्। 

न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा॥३॥

तस्मादेताः सदा पूज्या भूषणाच्छादनाशनैः।

भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषुत्सवेषु च॥४॥ 

मनु० [३।५५-५७,५९]

पिता, भाई, पति और देवर इनको सत्कारपूर्वक भूषणादि से प्रसन्न रक्खें, जिनको बहुत कल्याण की इच्छा हो, वे ऐसा करें॥१॥ 


जिस घर में स्त्रियों का सत्कार होता है, उसमें विद्यायुक्त सन्तान होके, देवसंज्ञा धराके, आनन्द से क्रीड़ा करते हैं और जिस घर में स्त्रियों का सत्कार नहीं होता, वहाँ सब क्रियायें निष्फल हो जाती हैं॥२॥ 


जिस घर वा कुल में स्त्रियां शोकातुर होकर दुःख पाती हैं, वह कुल शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है और जिस घर वा कुल में स्त्रियां आनन्द, उत्साह और प्रसन्नता से भरी हुई रहती हैं, वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है॥३॥ 


इसलिये ऐश्वर्य की कामना करनेहारे मनुष्यों को योग्य है कि सत्कार और उत्सव के समयों में भूषण, वस्त्र और भोजनादि से स्त्रियों का नित्यप्रति सत्कार करें॥४॥ 

['पूजा' शब्द का अर्थ]

यह बात सदा ध्यान में रखनी चाहिये कि 'पूजा' का अर्थ सत्कार है और दिन-रात में जब-जब प्रथम मिलें वा पृथक् हों, तब-तब प्रीतिपूर्वक 'नमस्ते' एक दूसरे को करें। 

[गृहिणी के कर्त्तव्य]

सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया।

सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया॥

 मनु० [५। १५०]

स्त्री को योग्य है कि अतिप्रसन्नता से घर के कामों में चतुराईयुक्त [रहै], सब पदार्थों का उत्तम संस्कार और घर की शुद्धि [रक्खे], और व्यय में अत्यन्त उदार सदा न [रहै] अर्थात् सब चीजें पवित्र और पाक इस प्रकार बनावे वा बनवावे जो औषधरूप होकर घर, शरीर वा आत्मा में रोग को न आने देवें। जो-जो व्यय हो उसका हिसाब यथावत् रखके, पति आदि को सुना दिया करे। घर के नौकर-चाकरों से यथायोग्य काम लेवे। घर के किसी काम को बिगड़ने न देवे। 

[सब मनुष्यों व देशों से प्राप्त करने योग्य ७ पदार्थ]

स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्।

विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः॥ 

मनु० [२।२४०] 

उत्तम स्त्री, नाना प्रकार के रत्न, विद्या, धर्म, पवित्रता, श्रेष्ठभाषण और नाना प्रकार की ‘शिल्पविद्या' अर्थात् कारीगरी, सब मनुष्य, सब देशों और सब मनुष्यों से ग्रहण करें। 

[लोक में व्यवहार ऐसा करे]

सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्। 

प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥१॥ 

भद्रं भद्रमिति ब्रूयाद् भद्रमित्येव वा वदेत्। 

शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह॥२॥

मनु० [४।१३८-१३९]

सदा प्रिय सत्य, दूसरे का हितकारक बोले, अप्रिय सत्य अर्थात् काणे को काणा न बोले, अनृत अर्थात् झूठ दूसरे को प्रसन्न करने के अर्थ, न बोले॥१॥ 


सदा भद्र अर्थात् सबके हितकारी वचन बोला करे। जो-जो दूसरे का हितकारक हो, और [चाहे वह] बुरा भी माने, तथापि कहे विना न रहै। शुष्कवैर अर्थात् विना अपराध किसी के साथ विरोध वा विवाद न करे॥२॥ 

[हितकारी वचन अप्रिय होने पर भी अवश्य कहे]

पुरुषा बहवो राजन् सततं प्रियवादिनः। 

अप्रियस्य तु पथ्यस्य वक्ता श्रोता च दुर्लभः॥ 

महाभारत, उद्योगपर्व, विदुरनीति [अ० ३७। श्लोक १५] 


विदुर जी कहते हैं कि हे 'धृतराष्ट्र ! इस संसार में दूसरे को निरन्तर प्रसन्न करने के लिये प्रिय बोलनेवाले खुशामदी लोग बहुत हैं, परन्तु सुनने में अप्रिय विदित हो और वह कल्याण करनेवाला वचन हो, उसको कहने और सुननेवाला पुरुष दुर्लभ है।' क्योंकि सत्पुरुषों को योग्य है कि मुख के सामने दूसरे का दोष कहना और अपना दोष सुनना, परोक्ष में दूसरे के गुण सदा कहना। और दुष्टों की यही रीति है कि सम्मुख में गुण कहना और परोक्ष में दोषों का प्रकाश करना। जब तक मनुष्य दूसरे से अपने दोष नहीं सुनता वा कहनेवाला नहीं कहता तब तक मनुष्य दोषों से छूटकर, गुणी नहीं होता।

[निन्दा-स्तुति का लक्षण]

कभी किसी की निन्दा न करे। जैसे―‘गुणेषु दोषारोपणमसूया' और 'दोषेषु गुणारोपणमसूया', 'गुणेषु गुणारोपणं दोषेषु दोषारोपणं च स्तुतिः'=गुणों में दोष और दोषों में गुण लगाना 'निन्दा', और गुणों में गुण, दोषों में दोषों का कथन करना ‘स्तुति' कहाती है। अर्थात् मिथ्याभाषण का नाम 'निन्दा' और सत्यभाषण का नाम ‘स्तुति' है।

[वेद और शास्त्रों का नित्य स्वाध्याय करना]

बुद्धिवृद्धिकराण्याशु धन्यानि च हितानि च। 

नित्यं शास्त्राण्यवेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान्॥१॥

यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति। 

तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते॥२॥ 

मनु० [४।१९-२०]

जो बुद्धि, धन और हित की शीघ्र वृद्धि करनेहारे शास्त्र और वेद हैं, उनको नित्य सुनें और सुनावें। जो ब्रह्मचर्याश्रम में पढ़े हों, उनको स्त्री-पुरुष नित्य विचारा और पढ़ाया करें॥१॥ 


क्योंकि मनुष्य जैसे-जैसे शास्त्रों को यथावत् जानता है, वैसे-वैसे उसका विज्ञान बढ़ता जाता है और उसी में रुचि भी बढ़ती रहती है॥२॥ 

[दैनिक पञ्च महायज्ञ]

ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा।

नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्॥१॥

 [मनु० ४।२१]

अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। 

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥२॥ 

मनु० [३।७०] 

स्वाध्यायेनार्चयेतर्षीन् होमैर्देवान् यथाविधि। 

पितॄन् श्राद्धैश्च नॄनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा॥३॥ 

मनु० [३।८१]

दो यज्ञ ब्रह्मचर्य में लिख आये, वे अर्थात् एक [ऋषियज्ञ=ब्रह्मयज्ञ]― वेदादि- शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सन्ध्योपासन, योगाभ्यास। 


दूसरा देवयज्ञ―विद्वानों का संग, सेवा, पवित्रता, दिव्य गुणों का धारण, दातृत्व, विद्या की उन्नति [और अग्निहोत्र] करना है। ये दोनों यज्ञ सायं-प्रात: करने होते हैं।

[सन्ध्या अग्निहोत्र का काल]

सा॒यंसा॑यं गृ॒हप॑तिर्नो अ॒ग्निः प्रा॒तः प्रा॑तः सौमन॒सस्य॑ दा॒ता॥१॥ 

प्रा॒तः प्रा॑तर्गृ॒हप॑तिर्नो अ॒ग्निः सा॒यंसा॑यं सौमन॒सस्य॑ दा॒ता॥२॥ 

अथर्व० कां० १९ । अनु० ७ । मं० ३, ४ ॥ [१९।५५।३-४]

तस्मादहोरात्रस्य संयोगे ब्राह्मणः सन्ध्यामुपासीत। 

[तुलना-षड्विंश ब्राह्मण प्रपा० ४ खं० ५] 

उद्यन्तमस्तं यान्तमादित्यमभिध्यायन्॥३॥ 

 ब्राह्मण [तैत्ति० आ०, प्रपा० २। अनु० २]॥ 

न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम्। 

स साधुभिर्बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥४॥ 

मनु० [२।१०३]

जो सन्ध्या-सन्ध्या-काल में होम होता है, वह हुत द्रव्य प्रात:काल तक वायुशुद्धि द्वारा सुखकारी होता है॥१॥


जो अग्नि में प्रातः-प्रात:-काल में होम किया जाता है, वह हुत-द्रव्य सायंकाल- पर्यन्त वायु की शुद्धि द्वारा बल, बुद्धि और आरोग्यकारक होता है॥२॥ 


इसलिये दिन और रात्रि के सन्धिकालों में अर्थात् सूर्योदय और सूर्यास्त के समय में परमेश्वर का ध्यान और अग्निहोत्र अवश्य करना चाहिये॥३॥ 


और जो ये दोनों काम सायं और प्रात:काल में न करे, उसको सज्जन लोग सब द्विजों के कर्मों से बाहर निकाल देवें, अर्थात् उसको शूद्रवत् समझें॥४॥ 


प्रश्न―त्रिकाल-सन्ध्या क्यों नहीं करनी [चाहिये]? 


उत्तर―तीन समय में सन्धि नहीं होती, प्रकाश और अन्धकार की सन्धि भी सायं-प्रातः दो ही वेलाओं में होती है। जो इसको न मानकर मध्याह्नकाल में तीसरी सन्ध्या करना माने, वह मध्यरात्रि में भी क्यों न करे ? जो मध्यरात्रि में भी करना चाहे, तो प्रहर-प्रहर, घड़ी-घड़ी, पल-पल और क्षण-क्षण की सन्धि में सन्ध्योपासन किया करे। जो ऐसा [करना] भी चाहे, तो हो ही नहीं सकता। और किसी शास्त्र का मध्याह्न-सन्ध्या में प्रमाण भी नहीं। इसलिये दोनों कालों में सन्ध्या और अग्निहोत्र करने चाहियें, तीसरे काल में नहीं। और जो तीन काल होते हैं, वे भूत, भविष्यत् और वर्त्तमान के भेद से हैं, सन्धियों के भेद से नहीं। 


तीसरा 'पितृयज्ञ' अर्थात् जिसमें देव=जो विद्वान्, ऋषि=जो पढ़ने-पढ़ानेहारे, पितर= जो माता-पिता आदि वृद्ध ज्ञानियों और परम योगियों की सेवा करनी [होती है]। पितृयज्ञ के दो भेद हैं―एक 'श्राद्ध' और दूसरा ‘तर्पण'। श्राद्ध अर्थात् 'श्रत्' सत्य का नाम है, ‘श्रत्सत्यं दधाति यया क्रियया सा श्रद्धा, श्रद्धया यत्क्रियते तच्छ्राद्धम्'=जिससे सत्य का ग्रहण किया जाय, उसको 'श्रद्धा' और जो-जो श्रद्धा से सेवारूप कर्म किये जायें, उनका नाम 'श्राद्ध' है। 'तृप्यन्ति तर्पयन्ति येन पितॄन् तत्तर्पणम्'=जिस-जिस कर्म से तृप्त अर्थात् विद्यमान मातादि पितर प्रसन्न हों और प्रसन्न किये जायें, उसका नाम 'तर्पण' [है], परन्तु यह कर्म जीवितों के लिये है, मृतकों के लिये नहीं। 


[अथ देवतर्पणम्] 


प्रश्न―इस कर्म में किस-किस की सेवा करनी चाहिये? 


उत्तर― ओं ब्रह्मादयो देवास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवपत्न्यस्तृप्यन्ताम्।

ब्रह्मादिदेवसुतास्तृप्यन्ताम्। ब्रह्मादिदेवगणास्तृप्यन्ताम्। इति देवतर्पणम्।

'विद्वाᳬसो हि देवाः' 

यह शतपथ ब्राह्मण का वचन है [३।५।६।१०]। 


जो विद्वान् हैं, उन्हीं को 'देव' कहते हैं। जो साङ्गोपाङ्ग चार वेदों के जानने वाले हों, उनका नाम 'ब्रह्मा', और जो उनसे न्यून पढ़े हों उनका नाम 'देव' अर्थात् विद्वान् है; उनके सदृश विदुषी उनकी स्त्री 'ब्रह्माणी' और 'देवी', उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उनके सदृश उनके गण अर्थात् सेवक हों, जो उनकी सेवा करना है, उसका नाम 'श्राद्ध' और 'तर्पण' है। 

अथर्षितर्पणम् 


ओं मरीच्यादय ऋषयस्तृप्यन्ताम्।

मरीच्याद्यृषिपत्न्यस्तृप्यन्ताम्।

मरीच्याद्यृषिसुतास्तृप्यन्ताम्।

मरीच्याद्यृषिगणास्तृप्यन्ताम्॥ 

इति ऋषितर्पणम्। 


जो ब्रह्मा के प्रपौत्र मरीचिवत् विद्वान् होकर पढ़ावें और जो उनके सदृश विद्यायुक्त उनकी स्त्रियाँ कन्याओं को विद्यादान देवें, उनके तुल्य पुत्र और शिष्य तथा उनके समान उनके सेवक हों, उनका सेवन-सत्कार करना 'ऋषितर्पण' है। 


अथ पितृतर्पणम् 


ओं सोमसदः पितरस्तृप्यन्ताम्। अग्निष्वात्ताः पितरस्तृप्यन्ताम्। बर्हिषदः पितरस्तृप्यन्ताम्। सोमपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। हविर्भुजः पितरस्तृप्यन्ताम्। आज्यपाः पितरस्तृप्यन्ताम्। [सुकालिनः पितरस्तृप्यन्ताम्।] यमादिभ्यो नमः यमादींस्तर्पयामि। पित्रे स्वधा नमः पितरं तर्पयामि। पितामहाय स्वधा नमः पितामहं तर्पयामि। [प्रपितामहाय स्वधा नमः प्रपितामहं तर्पयामि।] मात्रे स्वधा नमो मातरं तर्पयामि। पितामह्यै स्वधा नमः पितामहीं तर्पयामि। [प्रपितामह्यै स्वधा नमः प्रपितामहीं तर्पयामि।] स्वपत्न्यै स्वधा नमः स्वपत्नीं तर्पयामि। सम्बन्धिभ्यः स्वधा नमः सम्बन्धिनस्तर्पयामि। सगोत्रेभ्यः स्वधा नमः सगोत्राँस्तर्पयामि॥ 

इति पितृतर्पणम्॥ 

[यजुः अ० १९॥ मनु० अ० ३ के आधार पर ऊहित॥]


(सोमसदः) 'ये सोमे जगदीश्वरे पदार्थविद्यायां च सीदन्ति ते सोमसदः'=जो परमात्मा और ‘पदार्थ-विद्या' में निपुण हों, वे 'सोमसद्'। 'यैरग्नेर्विद्युतो विद्या गृहीता ते अग्निष्वात्ताः'=जो अग्नि अर्थात् विद्युदादि पदार्थों के जाननेवाले हों, वे 'अग्निष्वात्त'। 'ये बर्हिषि उत्तमे व्यवहारे सीदन्ति ते बर्हिषदः'=जो उत्तम विद्यावृद्धियुक्त व्यवहार में स्थित हों, वे 'बर्हिषद्'। 'ये सोममैश्वर्यमोषधीरसं वा पान्ति पिबन्ति वा ते सोमपाः'=जो ऐश्वर्य के रक्षक और महौषधि रस का पान करने से रोगरहित और अन्य के ऐश्वर्य के रक्षक [और] औषधों को देके रोगनाशक हों, वे 'सोमपा'। 'ये हविर्होतुमत्तुमर्हं भुञ्जते भोजयन्ति वा ते हविर्भुजः'=जो मादक, हिंसाजनित द्रव्यों को छोड़के, [अग्निहोत्र से अन्न-जल आदि की शुद्धि करके] भोजन करने-करानेहारे हों, वे 'हविर्भुज्'। 'य आज्यं ज्ञातुं प्राप्तुं वा योग्यं रक्षन्ति वा पिबन्ति ते'=जो जानने के योग्य वस्तु के रक्षक और घृत-दुग्धादि खाने और पीनेहारे हों, वे 'आज्यपा'। 'शोभनः कालो विद्यते येषान्ते सुकालिनः' =जिनका धर्म के करने का अच्छा और सुखरूप समय हो, वे 'सुकालिन्'। 'ये दुष्टान् यच्छन्ति निगृह्णन्ति ते यमा न्यायाधीशाः'=जो दुष्टों को दण्ड और श्रेष्ठों का पालन करनेहारे हों, न्यायकारी हों, वे 'यम'। 'यः पाति सः पिता'=जो सन्तानों का अन्न और सत्कार से रक्षक वा जनक हो, वह 'पिता'। 'पितुः पिता पितामहः, पितामहस्य पिता प्रपितामहः'=जो पिता का पिता हो, वह 'पितामह' और जो पितामह का पिता हो, वह 'प्रपितामह'। 'या मानयति सा माता'=जो अन्न और सत्कारों से सन्तानों का मान्य करे, वह 'माता'। 'या पितुर्माता [सा] पितामही, पितामहस्य च माता प्रपिता-मही'=जो पिता की माता हो वह 'पितामही', और पितामह की माता हो वह 'प्रपितामही'। अपनी स्त्री तथा भगिनी, सम्बन्धी और एक गोत्र के तथा अन्य कोई भद्र पुरुष वा वृद्ध हों, उन सबको अत्यन्त श्रद्धा से उत्तम अन्न-वस्त्र, सुन्दर यान आदि देकर अच्छे प्रकार जो तृप्त करना अर्थात् जिस-जिस कर्म से उनका आत्मा तृप्त और शरीर स्वस्थ रहै, उस-उस कर्म से प्रीतिपूर्वक उनकी सेवा करना, वह 'श्राद्ध' और 'तर्पण' कहाता है॥ 


चौथा [बलि-] वैश्वदेव― अर्थात् जब भोजन सिद्ध हो तब जो कुछ भोजनार्थ बने, उसमें से खट्टा, लवणान्न और क्षार को छोड़के घृत-मिष्ट-युक्त अन्न लेकर चूल्हे से अग्नि लेकर, अलग धर, निम्नलिखित मन्त्रों से आहुतियां और भाग करे―


वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम्। 

आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥ 

मनु० [३।८४] 

जो पाकशाला में भोजनार्थ अन्न सिद्ध हो, उसका दिव्य गुणों के अर्थ, उसी पाकाग्नि में निम्नलिखित मन्त्रों से विधिपूर्वक होम नित्य करे― 


[बलिवैश्वदेव]-होम के मन्त्र―


ओम्- अग्नये स्वाहा। सोमाय स्वाहा। अग्निषोमाभ्यां स्वाहा। विश्वेभ्यो देवेभ्यः स्वाहा। धन्वन्तरये स्वाहा। कुह्वै स्वाहा। अनुमत्यै स्वाहा। प्रजापतये स्वाहा। सह द्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा। स्विष्टकृते स्वाहा॥

 [मनु० ३।८५-८६ के आधार पर]

एक-एक मन्त्र पढ़के एक-एक आहुति देवे। पश्चात् भाग अर्थात् थाली में वा भूमि पर पत्ता आदि रखकर [उन पर] पूर्वादि दिशा के अनुक्रम से इन मन्त्रों से भाग रखे। 


ओं सानुगायेन्द्राय नमः। सानुगाय यमाय नमः। सानुगाय वरुणाय नमः। सानुगाय सोमाय नमः। मरुद्भ्यो नमः। अद्भ्यो नमः। वनस्पतिभ्यो नमः। श्रियै नमः। भद्रकाल्यै नमः। ब्रह्मपतये नमः। वास्तुपतये नमः। विश्वेभ्यो देवेभ्यो नमः। दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नमः। नक्तञ्चारिभ्यो भूतेभ्यो नमः। सर्वात्मभूतये नमः॥ 

[मनु० ३।८७-९१ के आधार पर]

इन भागों को, जो कोई अतिथि हो तो उसको जिमा देवे अथवा जो उस समय अतिथि उपस्थित न हो तो अग्नि में छोड़ देवे। इसके अनन्तर लवणान्न अर्थात् दाल, भात, शाक, रोटी आदि लेकर छः भाग भूमि में [पत्तल, बर्तन आदि के ऊपर] धरे। इसमें प्रमाण― 


शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्।

वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि॥ 

मनु० [३।९२]

इस प्रकार 'श्वभ्यो नमः, पतितेभ्यो नमः, श्वपग्भ्यो नमः, पापरोगिभ्यो नमः, वायसेभ्यो नमः, कृमिभ्यो नमः' धरकर पश्चात् किसी दुःखी बुभुक्षित प्राणी अथवा कुत्ते, कौवे आदि को दे देवे।


यहां "नमः" शब्द का अर्थ अन्न अर्थात् कुत्ते, पापी, चंडाल, पापरोगी, कौवे और कृमि अर्थात् चींटी आदि को अन्न देना, यह 'मनुस्मृति' आदि का विधि है। 


हवन करने का प्रयोजन यह है कि पाकशालास्थ वायु का शुद्ध होना और जो अज्ञात-अदृष्ट जीवों की हत्या होती है, उसका प्रत्युपकार कर देना। 


पांचवाँ अतिथिसेवा [यज्ञ]―'अतिथि' धार्मिक, सत्योपदेशक, सबके उपकारक पूर्ण विद्वान् [और] सर्वत्र घूमनेवाले संन्यासी होते हैं। उनका आसन, खान-पान, नम्रतादि से सत्कार करके, उनसे सत्संग कर, अपूर्व विद्याओं को जाने। समय पाके गृहस्थ और राजादि भी अतिथि हो सकते हैं। परन्तु―


पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालवृत्तिकान् शठान्।

हैतुकान् बकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥

मनु० [४।३०] 


(पाखण्डिनः) वेदनिन्दक, वेदविरुद्ध आचरण करनेहारे (विकर्मस्थान्) जो वेदविरुद्ध कर्म का कर्त्ता= मिथ्याभाषणादियुक्त, [वैडालवृत्तिकान्] जैसे विडाला छिपके, स्थिर रह, ताक, कूद-झपटके, मूषे आदि प्राणियों को मार अपना पेट भरता है, वैसे जनों का नाम 'वैडालवृत्तिक', (शठान्) अर्थात् हठी, दुराग्रही, अभिमानी, आप जाने नहीं और दूसरे का कहा माने नहीं, (हैतुकान्) कुतर्की, व्यर्थ बकनेवाले जैसे कि आजकल के वेदान्ती 'हम ब्रह्म हैं, जगत् मिथ्या है, वेदादि-शास्त्र और ईश्वर भी कल्पित है' इत्यादि बकवाद करनेवाले, (बकवृत्तींश्च) जैसे बक एक पैर उठा ध्यानावस्थित के समान होकर झट मच्छी के प्राण हरके अपना स्वार्थ सिद्ध करता है, वैसे आजकल के वैरागी और खाखी आदि हठी, दुराग्रही, वेदविरोधी हैं, ऐसों का [वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्] वाणीमात्र से भी सत्कार न करे। क्योंकि इनका सत्कार करने से वे बढ़के सब संसार को अधर्मयुक्त कर देते हैं। आप तो अवनति के काम करते ही हैं, परन्तु साथ में सेवकों को भी अविद्यारूपी महासागर में डुबा देते हैं।


इन पाँच महायज्ञों का फल―


ब्रह्मयज्ञ के करने से विद्या, शिक्षा, धर्म, सभ्यता आदि शुभगुणों की वृद्धि होती है। 


'अग्निहोत्र' से वायु, वृष्टि, जल की शुद्धि होकर, ओषधियाँ शुद्ध होती हैं। शुद्ध वायु का श्वास और स्पर्श [प्राप्त होता है], खान-पान से आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़के धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का अनुष्ठान निर्विघ्नता से पूरा होता है। इसीलिये इसको 'देवयज्ञ' कहते हैं कि यह वायु आदि पदार्थों को दिव्य कर देता है।

'पितृयज्ञ’ का फल―[प्रथम] जब वह माता-पिता और ज्ञानियों की सेवा करेगा, तब उसका ज्ञान बढ़ेगा। उससे सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करके, सुखी रहेगा। दूसरा कृतज्ञता अर्थात् जैसी सेवा माता- पिता और आचार्य ने सन्तानों और शिष्यों की किई है, उसका बदला देना उचित ही है। 


बलिवैश्वदेव का भी फल जो पूर्व कह आये, वही है। 


[अतिथियज्ञ―] जब तक उत्तम अतिथि जगत् में नहीं होते, तब तक उन्नति भी नहीं होती। उनके सब देशों में घूमने, सत्योपदेश करने से, पाखण्ड की वृद्धि नहीं होती और सर्वत्र गृहस्थों को सहज से सत्य-विज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और मनुष्यमात्र में एक ही धर्म स्थिर रहता है। विना अतिथियों के सन्देहनिवृत्ति नहीं होती, संदेहनिवृत्ति के विना दृढनिश्चय भी नहीं होता, दृढनिश्चय के विना सुख कहां?

[गृहस्थ के सामान्य कर्त्तव्य]

ब्राह्म मुहूर्त्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।

कायक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च॥ 

मनु० [४ । ९२]

रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात से उठे। आवश्यक कार्य करके धर्म और अर्थ, शरीर के रोगों का निदान और परमात्मा का ध्यान करे। कभी अधर्म का आचरण न करे। क्योंकि―

नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।

शनैरावर्त्तमानस्तु कर्त्तुर्मूलानि कृन्तति॥ 

मनु० [४ । १७२] 

किया हुआ अधर्म निष्फल कभी नहीं होता। परन्तु जिस समय अधर्म करता है, उसी समय फल भी नहीं होता, इसलिये अज्ञानी लोग अधर्माचरण से नहीं डरते। परन्तु निश्चय जानो कि वह अधर्माचरण धीरे-धीरे तुम्हारे सुख के मूलों को काटता चला जाता है। इस क्रम से― 


अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति। 

ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति॥ 

 मनु० [४ । १७४] 

जैसे तालाब के बन्ध को तोड़ जल चारों ओर फैल जाता है, वैसे अधर्मात्मा मनुष्य भी धर्म की मर्यादा छोड़, मिथ्याभाषण, कपट, पाखण्ड अर्थात् रक्षा करनेवाले वेदों का खण्डन, और विश्वासघातादि कर्मों से पराये पदार्थों को लेकर प्रथम बढ़ता है, पश्चात् धनादि ऐश्वर्य से खान-पान, वस्त्र-आभूषण, यान-स्थान, मान-प्रतिष्ठा को प्राप्त होता है। अन्याय से शत्रुओं को भी जीतता है; पश्चात् शीघ्र नष्ट हो जाता है। जैसे जड़-काटा हुआ वृक्ष नष्ट हो जाता है, वैसे अधर्मी नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। इसलिये―


सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमेत्सदा। 

शिष्यांश्च शिष्याद्धर्मेण वाग्बाहूदरसंयतः॥

मनु० [४।१७५]

[मनुष्य] वेदोक्त सत्यधर्म अर्थात् पक्षपातरहित होकर सत्य का ग्रहण और असत्य के परित्याग न्यायरूप वेदोक्त धर्मादि; 'आर्यवृत्त' अर्थात् उत्तम पुरुषों के गुण, कर्म, स्वभाव और पवित्रता में ही सदा रमण करे। वाणी, बाहू, उदर आदि अंगों का संयम अर्थात् उनको धर्म में चलाता हुआ, धर्म से शिष्यों को शिक्षा किया करे। 

[ऋत्विजादि के साथ कभी झगड़ा न करे]

ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः।

बालवृद्धातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः॥१॥

मातापितृभ्यां यामिभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया। 

दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्॥२॥

 मनु० [४।१७९-१८०] 

(ऋत्विक्) यज्ञ का करनेहारा, (पुरोहित) सदा उत्तम चालचलन की शिक्षा का कर्त्ता, (आचार्यैः) विद्या पढ़ानेहारा, (मातुल-) मामा, (अतिथि-) अर्थात् जिसकी कोई आने-जाने की निश्चित तिथि न हो, (संश्रितैः) अपने आश्रित, (बाल-) बालक, (वृद्ध-) बुड्ढे, (आतुरैः) पीड़ित, (वैद्यैः) आयुर्वेद का ज्ञाता, (ज्ञाति-) स्वगोत्र वा स्ववर्णस्थ, (सम्बन्धि-) सास, श्वशुर आदि, (बान्धवैः) मित्र॥१॥ 


[मातापितृभ्याम्] माता, पिता, (यामिभिः) बहिन (भ्रात्रा) भ्राता, (पुत्रेण) पुत्र (भार्यया) स्त्री, (दुहित्रा) कन्या और (दासवर्गेण) सेवक लोगों से [विवादं न समाचरेत्] विवाद अर्थात् विरुद्ध लड़ाई-बखेड़ा कभी न करे॥२॥ 

[दान के अयोग्य]

अतपास्त्वनधीयानः प्रतिग्रहरुचिर्द्विजः।

अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥

 मनु० [४।१९०] 

एक―(अतपाः) ब्रह्मचर्य, सत्यभाषणादि तपरहित, दूसरा― (अनधीयानः) विना पढ़ा हुआ, तीसरा―(प्रतिग्रहरुचिः) अत्यन्त सुखार्थ दूसरों से दान लेनेवाला, ये तीनों [अम्भस्यश्म०] जैसे पत्थर की नौका से समुद्र में तरनेवाले के समान, अपने दुष्ट कर्मों के साथ ही दुःख-सागर में डूबते हैं। वे तो डूबते ही हैं, परन्तु दाताओं को भी साथ डुबा लेते हैं॥ 


त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्यर्जितं धनम्।

दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च॥ 

मनु० [४।१९३]

जो धर्म से प्राप्त हुए धन का, इन तीनों को देना है; वह दान-दाता का नाश इसी जन्म और लेनेवाले का नाश परजन्म में करता है। 


जो वे ऐसे हों, तो क्या हो―

यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्। 

तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ॥ 

मनु० [४।१९४] 

जैसे पत्थर की नौका में बैठके जल में तरनेवाला डूब जाता है, वैसे अज्ञानी दाता और ग्रहीता दोनों अधोगति अर्थात् दुःख को प्राप्त होते हैं। 


पाखण्डियों के लक्षण―


धर्मध्वजी सदालुब्धश्छाद्मिको लोकदम्भकः।

वैडालव्रतिको ज्ञेयो हिंस्त्रः सर्वाभिसन्धकः॥१॥

अधोदृष्टिर्नैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः। 

शठो मिथ्याविनीतश्च बकव्रतचरो द्विजः॥२॥ 

मनु० [४।१९५-१९६] 


(धर्मध्वजी) [जो] धर्म कुछ भी न करे, परन्तु धर्म के नाम से लोगों को ठगे, (सदालुब्धः) सर्वदा लोभ से युक्त, (छाद्मिकः) कपटी, (लोकदम्भकः) [जो] संसारी मनुष्यों के सामने अपनी बड़ाई के गपोड़े मारा करे, (हिंस्त्रः) प्राणियों का घातक, अन्य से वैरबुद्धि रखनेवाला, (सर्वाभिसन्धकः) [जो] सब अच्छे और बुरों से भी मेल रक्खे, उसको [वैडालव्रतिकः ज्ञेयः] वैडालव्रतिक अर्थात् विडाले के समान धूर्त्त [और] नीच समझो॥१॥


(अधोदृष्टिः) कीर्त्ति के लिये नीचे दृष्टि रक्खे, (नैष्कृतिकः) ईर्ष्यक=किसी ने उसका पैसाभर अपराध किया हो, तो उसका बदला प्राण तक लेने को तत्पर रहै, (स्वार्थसाधनतत्परः) चाहे कपट, अधर्म, विश्वासघात क्यों न हो, अपना प्रयोजन साधने में चतुर, (शठः) चाहे अपनी बात झूठी क्यों न हो, परन्तु हठ कभी न छोड़े, (मिथ्याविनीतः) झूठ-मूठ ऊपर से शील, सन्तोष और साधुता दिखलावे, उसको (बकव्रत०) बगुले के समान नीच समझो। ऐसे-ऐसे लक्षणों वाले पाखण्डी होते हैं, उनका विश्वास वा सेवा कभी न करें॥२॥ 

[धर्मसंचय का प्रकार और धर्म का फल]

धर्मं शनैः सञ्चिनुयाद् वल्मीकमिव पुत्तिकाः।

परलोकसहायार्थं सर्वलोकान्यपीडयन्॥१॥ 

नामुत्र हि सहायार्थं पिता माता च तिष्ठतः। 

न पुत्रदारा न ज्ञातिर्धर्मस्तिष्ठति केवलः॥२॥ 

एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते। 

एको नु भुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥३॥ 

[मनु० ४।२३८ । २४०]

एकः पापानि कुरुते फलं भुङ्क्ते महाजनः। 

भोक्तारो विप्रमुच्यन्ते कर्त्ता दोषेण लिप्यते॥४॥ 

[महाभारत, उद्योगपर्व, प्रजागरपर्व १, अ० ३३, श्लोक ४१] 

मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ। 

विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥५॥ 

मनु० [४।२४१]

स्त्री और पुरुष को चाहिये कि जैसे पुत्तिका अर्थात् दीमक, वल्मीक अर्थात् बांबी को बनाती है, वैसे सब भूतों को पीडा न देकर, परलोक अर्थात् परजन्म के सुखार्थ धीरे-धीरे धर्म का संचय करे॥१॥


क्योंकि परलोक में न माता, न पिता, न पुत्र, न स्त्री, न ज्ञाति सहाय कर सकते हैं, किन्तु एक धर्म ही सहायक होता है॥२॥


देखिये, अकेला ही जीव जन्म पाता और मरण को प्राप्त होता, अकेला ही धर्म के फल सुख और अधर्म के दुःखरूप फल को भोगता है॥३॥ 


यह भी समझ लो कि कुटुम्ब में एक पुरुष पाप करके पदार्थ लाता है, और महाजन अर्थात् सब कुटुम्ब उसको भोगता है, भोगनेवाले दोषभागी नहीं होते, किन्तु अधर्म का कर्त्ता ही दोष का भागी होता है॥४॥ 


जब कोई किसी का सम्बन्धी मर जाता है, उसको लकड़े और मिट्टी के ढेले के समान भूमि में छोड़कर, पीठ दे, बन्धुवर्ग विमुख होकर चले जाते हैं, कोई उसके साथ जानेवाला नहीं होता, किन्तु एक धर्म ही उसका सङ्गी होता है॥५॥ 

[धर्माचरण से मुक्ति की प्राप्ति]

तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं संचिनुयाच्छनैः। 

धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्॥१॥ 

धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम्। 

परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम्॥२॥ 

मनु० [४ । २४२-२४३]

उस हेतु से परलोक अर्थात् परमसुख और परजन्म के सहायार्थ नित्य धर्म का सञ्चय धीरे-धीरे करता जाय; क्योंकि धर्म के ही सहाय से बड़े-बड़े दुस्तर दुःखसागर को जीव तर सकता है॥१॥ 


किन्तु जो पुरुष धर्म को ही प्रधान समझता [है], जिसका धर्म के अनुष्ठान से कर्त्तव्य- पाप [=क्रियमाण पाप-कर्म की वृत्ति] दूर हो गया उसको, प्रकाशस्वरूप और आकाश जिसका शरीरवत् है, उस परलोक अर्थात् परमदर्शनीय परमात्मा को, धर्म ही शीघ्र प्राप्त कराता है॥२॥ इसलिये―

[सदाचार का फल]

दृढकारी मृदुर्दान्तः क्रूराचारैरसंवसन्। 

अहिंस्रो दमदानाभ्यां जयेत्स्वर्गं तथाव्रतः॥१॥

वाच्यार्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिःसृताः।

तांस्तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः॥२॥

आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः।

आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्॥३॥ 

मनु० [४।२४६, २५६, १५६]

सदा दृढ़कारी, कोमलस्वभाव, जितेन्द्रिय और हिंसक, क्रूर, दुष्टाचारी पुरुषों से पृथक् रहनेहारा, धर्मात्मा, मन को जीतकर और विद्यादि दान से सुख को प्राप्त होवे॥१॥

परन्तु यह भी ध्यान में रक्खे कि जिस वाणी में सब अर्थ अर्थात् व्यवहार निश्चित होते हैं, वह वाणी ही उनका मूल [है], और वाणी से ही सब व्यवहार सिद्ध होते हैं; उस वाणी को जो चोरता अर्थात् मिथ्याभाषण करता है, वह सब चोरी आदि पापों का करनेवाला है॥२॥ 


इसलिये मिथ्याभाषणादि रूप अधर्म को छोड़, जिस धर्माचार अर्थात् ब्रह्मचर्य, जितेन्द्रियता से पूर्ण आयु और धर्माचार से उत्तम प्रजा, धर्माचार से अक्षय धन को प्राप्त होता है और जो धर्माचार दुष्ट-लक्षणों का नाश करता है, उस आचरण को सदा किया करे॥३॥ क्योंकि―

[दुराचार का फल]

दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। 

दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च॥

मनु० [४।१५७]

जो दुष्टाचारी पुरुष है, वह संसार में सज्जनों के मध्य में निन्दा को प्राप्त [होता है। वह] निरन्तर दुःख का भोगनेहारा और अनेक प्रकार के रोगों से अल्पायु होकर शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। इसलिये ऐसा प्रयत्न करे―

[सुख-दुःख का लक्षण]

यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यत्नेन वर्जयेत्। 

यद्यदात्मवशं तु स्यात् तत्तत्सेवेत यत्नतः॥१॥ 

सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्।

एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥२॥

 मनु० [४।१५६, १६०]

जो-जो पराधीन कर्म हो उस-उस का प्रयत्न से त्याग और जो-जो स्वाधीन कर्म हो उस-उस का प्रयत्न के साथ सेवन करे॥१॥ 


क्योंकि जो-जो पराधीनता है वह-वह सब दुःख और जो-जो स्वाधीनता है वह-वह सब सुख [है] । यही संक्षेप से सुख और दुःख का लक्षण जानना चाहिये॥२॥ 

[पति-पत्नी सब कार्य सहयोग से करें]

परन्तु जो एक-दूसरे के आधीन काम है, वह-वह आधीनता से ही करना चाहिये, जैसे कि स्त्री और पुरुष का एक-दूसरे के आधीन व्यवहार; अर्थात् स्त्री पुरुष का और पुरुष स्त्री का परस्पर प्रियाचरण=अनुकूल रहना, व्यभिचार वा विरोध कभी न करना, पुरुष की आज्ञानुकूल घर के काम स्त्री [के] और [स्त्री की आज्ञानुकूलता से] बाहर के काम पुरुष के आधीन रहना, दुष्ट व्यसन में फसने से एक-दूसरे को रोकना [आदि]। अर्थात् यही निश्चय जानना [कि] जब विवाह होवे तब स्त्री के हाथ पुरुष और पुरुष के हाथ स्त्री बिक चुकी अर्थात् स्त्री और पुरुष के साथ हाव-भाव, नखाग्र-शिखा-पर्यन्त जो कुछ हैं वह वीर्यादि एक-दूसरे के आधीन हो जाता है। स्त्री वा पुरुष [पारस्परिक] प्रसन्नता के विना कोई भी व्यवहार न करें। इनमें बड़े अप्रियकारक व्यभिचार, वेश्या-परपुरुष- गमनादि काम हैं। इनको दोनों छोड़के अपने पति के साथ स्त्री और स्त्री के साथ पति सदा प्रसन्न रहैं। स्त्री का पूजनीय देव पति और पुरुष की पूजनीय अर्थात् सत्कार करने योग्य देवी स्त्री है।

[ब्राह्मण-ब्राह्मणी के कर्त्तव्य]

जो ब्राह्मणवर्णस्थ हों, तो पुरुष लड़कों को पढ़ावें और सुशिक्षा करें तथा सुशिक्षिता स्त्रियां लड़कियों को पढ़ावें। नानाविध उपदेश और वक्तृत्व करके उनको विद्वान् करें। जब तक गुरुकुल में रहैं, तब तक माता-पिता के समान अध्यापकों को समझें और अध्यापक अपने सन्तानों के समान शिष्यों को समझें। 

[पण्डित के लक्षण]

पढ़ानेहारे अध्यापक और अध्यापिकायें कैसे होने चाहियें―


आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता। 

यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते॥१॥ 

निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते। 

अनास्तिकः श्रद्दधान एतत्पण्डितलक्षणम्॥२॥ 

क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति, विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्। 

नासम्पृष्टो ह्युपयुङ्क्ते परार्थे, तत्प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य॥३॥ 

नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्।

आपत्सु च न मुह्यन्ति नराः पण्डितबुद्धयः॥४॥

प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्। 

आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते॥५॥

श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।

असंभिन्नार्यमर्यादः पण्डिताख्यां लभेत सः॥६॥ 

ये सब महाभारत, उद्योगपर्व, विदुरप्रजागर के श्लोक हैं 

[अध्याय ३३ । १६ से पूर्व तथा १६, १७, २२, २३, २८, २९]।


अर्थ―जिसको आत्मज्ञान [हो]; सम्यक्-आरम्भ अर्थात् जो निकम्मा- आलसी कभी न रहै; सुख-दुःख, हानि- लाभ, मान-अपमान, निन्दा-स्तुति में हर्ष- शोक कभी न करे; धर्म में ही नित्य निश्चित रहै; जिसके मन को उत्तम-उत्तम पदार्थ अर्थात् विषय-सम्बन्धी वस्तुयें आकर्षित न कर सकें, वही पण्डित कहाता है॥१॥ 


जो सदा धर्मयुक्त कर्मों का सेवन [करे]; अधर्मयुक्त कामों का त्याग [रक्खे]; ईश्वर, वेद, सत्याचार की निन्दा न करनेहारा; ईश्वर आदि में अत्यन्त श्रद्धालु हो; यह पण्डित का कर्त्तव्याकर्त्तव्य कर्म है॥२॥ 


जो कठिन विषय को भी शीघ्र जान सके; बहुत कालपर्यन्त शास्त्रों को पढ़े, सुने और विचारे। जो कुछ जाने उसको परोपकार में प्रयुक्त करे, अपने स्वार्थ के लिये कोई काम न करे, विना पूछे वा विना योग्य- समय जाने दूसरे के अर्थ में सम्मति न दे, वह प्रथम प्रज्ञान पण्डित को होना चाहिये॥३॥ 


जो प्राप्ति के अयोग्य की इच्छा कभी न करे, नष्ट हुए पदार्थ पर शोक न करे; आपत्काल में मोह को प्राप्त न [हो] अर्थात् व्याकुल न हो; वह बुद्धिमान् पण्डित है॥४॥

जिसकी वाणी सब विद्याओं और प्रश्नोत्तर करने में अतिनिपुण, विचित्र-शास्त्रों के प्रकरणों का वक्ता; यथायोग्य तर्कवान् और स्मृतिमान्, ग्रन्थों के 'यथार्थ' अर्थ का शीघ्र वक्ता हो, वह पण्डित कहाता है॥५॥ 


जिसकी प्रज्ञा सुने हुए सत्य अर्थ के अनुकूल और जिसका श्रवण बुद्धि के अनुसार हो, जो कभी आर्य अर्थात् श्रेष्ठ धार्मिक पुरुषों की मर्यादा का छेदन न करे, वह 'पण्डित' संज्ञा को प्राप्त होवे॥६॥ 


जहाँ ऐसे-ऐसे सजन स्त्री-पुरुष पढ़ानेवाले होते हैं, वहाँ विद्या, धर्म और उत्तमाचार की वृद्धि होकर, प्रतिदिन आनन्द ही बढ़ता रहता है।

 [मूढ़ के लक्षण]

पढ़ाने में अयोग्य [अध्यापक] और मूर्ख के लक्षण―


अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः।

अर्थांश्चाऽकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः॥१॥

अनाहूतः प्रविशति ह्यपृष्टो बहु भाषते। 

अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः॥२॥

 ये श्लोक भी महाभारत, उद्योगपर्व, विदुरप्रजागर के हैं [अध्याय ३३ । ३०, ३६]।

अर्थ―जिसने कोई शास्त्र न पढ़ा-न सुना, [और] अतीव घमण्डी, दरिद्र होकर बड़े- बड़े मनोरथ करनेहारा, विना कर्म से पदार्थों की प्राप्ति की इच्छा करनेवाला हो, उसी को बुद्धिमान् लोग 'मूढ़' कहते हैं॥१॥ 


जो विना बुलाये सभा वा किसी के घर में प्रविष्ट हो, उच्च आसन पर बैठना चाहे, विना पूछे सभा में बहुत-सा बके, विश्वास के अयोग्य वस्तु वा मनुष्य में विश्वास करे, वही 'मूढ़' और सब मनुष्यों में 'नीच मनुष्य' कहाता है॥२॥ 


जहां ऐसे पुरुष अध्यापक, उपदेशक और गुरु माननीय होते हैं, वहां अविद्या, अधर्म, असभ्यता, कलह, विरोध और फूट बढ़के दुःख ही बढ़ता जाता है। 

[विद्यार्थियों के सात दोष]

अब विद्यार्थियों के लक्षण―


आलस्यं मदमोहौ च चापलं गोष्ठिरेव च। 

स्तब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च। 

एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः॥१॥

सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।

सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम्॥२॥ 

ये भी [महाभारत] विदुरप्रजागर के श्लोक हैं [अध्याय ४० । ५, ६]।

(आलस्यम्) शरीर और बुद्धि में जड़ता, नशा-मोह=किसी वस्तु में फसावट, चपलता, और इधर-उधर की व्यर्थ कथा करना-सुनना, पढ़ते-पढ़ाते रुक जाना, अभिमानी, अत्यागी होना, ये सात दोष विद्यार्थियों में होते हैं॥१॥ 


जो ऐसे हैं उनको विद्या कभी नहीं आती। 

सुख भोगने की इच्छा करनेवाले को विद्या कहां? और विद्या पढ़नेवाले को सुख कहां? इसलिये विषयसुखार्थी विद्या को और विद्यार्थी विषयसुख को छोड़ दे। ऐसे किये विना विद्या कभी नहीं हो सकती॥२॥ 

[विद्या किसे प्राप्त होती है?]

और ऐसे को विद्या होती है―


सत्ये रतानां सततं दान्तानामूर्ध्वरेतसाम्। 

ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम्॥१॥

[महाभारत, अनुशासन पर्व अ० ७५, श्लोक ३७-३८]

 

जो सदा सत्याचार में प्रवृत्त, जितेन्द्रिय [हों] और जिनका वीर्य अधःस्खलित कभी न हो, उन्हीं का ब्रह्मचर्य सच्चा [है] और वे ही विद्वान् होते हैं॥१॥

[अध्यापक और विद्यार्थियों के कर्त्तव्य]

इसलिये शुभलक्षणयुक्त, अध्यापकों और विद्यार्थियों को होना चाहिये। अध्यापक लोग ऐसा यत्न किया करें, जिससे विद्यार्थी लोग सत्यवादी, सत्यमानी, सत्यकारी, सभ्य, जितेन्द्रिय [और] सुशीलतादि शुभगुणयुक्त [होकर] शरीर और आत्मा का पूर्ण बल बढ़ाके समग्र वेदादि-शास्त्रों में विद्वान् हों। सदा उनकी कुचेष्टा छुड़ाने [में] और विद्या बढ़ाने में चेष्टा किया करें और विद्यार्थी लोग सदा जितेन्द्रिय, शान्त, पढ़ानेहारों में प्रिय, विचारशील, परिश्रमी होकर ऐसा पुरुषार्थ करें, जिससे पूर्ण विद्या, पूर्ण आयु, पूर्ण धर्मात्मता [बढ़ाना] और पुरुषार्थ करना आ जाय, इत्यादि ब्राह्मण-वर्णस्थों के काम हैं। 


क्षत्रियों के कर्म राजधर्म में कहेंगे। 

[वैश्य के कर्म]

जो वैश्य हों, वे ब्रह्मचर्यादि से 'वेदादि-विद्या' पढ़, विवाह करके, नाना देशों की भाषायें, नाना प्रकार के व्यापार की रीति, उनके भाव जानना; बेचना-खरीदना, द्वीप-द्वीपान्तरों में लाभार्थ जाना-आना, लाभार्थ काम का आरम्भ करना, पशुपालन और खेती की उन्नति चतुराई से करनी-करानी, धन को बढ़ाना, विद्या और धर्म की उन्नति में व्यय करना, सत्यवादी, निष्कपटी होकर सत्यता से सब व्यापार करना [आदि करें]। सब वस्तुओं की रक्षा ऐसे करनी, जिससे कोई नष्ट न होने पावे। 

[शूद्र के कर्म]

शूद्र सब सेवाओं में चतुर, 'पाकविद्या' में निपुण [हो], अतिप्रेम से द्विजों की सेवा और उन्हीं से अपनी उपजीविका करे। और द्विज-लोग इसके खान-पान, वस्त्र, स्थान, विवाहादि में जो कुछ व्यय हो, सब कुछ देवें, अथवा मासिक कर देवें।

[चारों वर्णों के पारस्परिक कर्त्तव्य]

चारों वर्ण परस्पर प्रीति, उपकार, सज्जनता, सुख-दुःख, हानि-लाभ में ऐकमत्य रहकर राज्य और प्रजा की उन्नति में तन-मन-धन व्यय करते रहैं। 

[स्त्री-पुरुष का बहुत समय तक वियोग न हो]

स्त्री और पुरुष का वियोग कभी न होना चाहिये। क्योंकि―


पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्।

स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसन्दूषणानि षट्॥१॥ 

[मनु० ९।१३] 

मद्य, भांग आदि मादक द्रव्यों का पीना; दुष्ट पुरुषों का संग; पति से वियोग; अकेली जहां-तहां व्यर्थ, पाखण्डी आदि के दर्शन-मिस से फिरती रहना और पराये घर में शयन वा वास करना; ये छः स्त्री को दूषित करनेवाले दुर्गुण हैं; और ये पुरुषों के भी हैं। 


पति और स्त्री का वियोग दो प्रकार का होता है―[प्रथम], कहीं कार्यार्थ देशान्तर में जाना; और दूसरा, मृत्यु से वियोग होना। इनमें से प्रथम का उपाय यही है कि दूर देश में यात्रार्थ जावे तो स्त्री को भी साथ रक्खे। इसका प्रयोजन यह है कि बहुत समय तक वियोग न रहना चाहिये।

[बहु-विवाह-सम्बन्धी विचार]

प्रश्न―स्त्री और पुरुष के बहु-विवाह होने योग्य हैं वा नहीं?

उत्तर―युगपत् न अर्थात् एक समय में नहीं।


प्रश्न―क्या समयान्तर में अनेक विवाह भी होने चाहियें?


उत्तर―हां, जैसे―


या स्त्री त्वक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागतापि वा।

पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारमर्हति॥१॥ 

[मनु० ९ । १७६] 

जिस स्त्री वा पुरुष का पाणिग्रहणसंस्कार-मात्र हुआ हो और संयोग न हुआ हो अर्थात् अक्षतयोनि स्त्री [और] अक्षतवीर्य पुरुष हो तो उस स्त्री वा पुरुष का अन्य पुरुष वा स्त्री से पुनर्विवाह होना चाहिये। और शूद्रवर्ण में चाहे कैसा ही हो, पुनर्विवाह हो सकता है, किन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्णों में क्षतयोनि स्त्री [और] क्षतवीर्य पुरुष का पुनर्विवाह न होना चाहिये।

[पुनर्विवाह में दोष और उससे बचने के उपाय]

प्रश्न―पुनर्विवाह में क्या दोष हैं? 


उत्तर―(पहला) स्त्री-पुरुष में प्रेम न्यून होना। क्योंकि जब चाहे तब पुरुष को स्त्री और स्त्री को पुरुष छोड़ कर दूसरे के साथ सम्बन्ध कर ले।


(दूसरा) जब स्त्री वा पुरुष, पति [वा] स्त्री के मरने के पश्चात् दूसरा विवाह करना चाहेंगे, तब पूर्व-पति वा प्रथम-स्त्री के पदार्थों को उड़ा ले जाना और उनके कुटुम्बवालों का उनसे झगड़ा करना। 


(तीसरा) बहुत-से भद्रकुलों का नाम वा चिह्न भी न रहकर, उनके पदार्थ छिन्न- भिन्न हो जाना। 


(चौथा) पातिव्रत्य और स्त्रीव्रत धर्म नष्ट होना। 


इत्यादि दोषों के अर्थ द्विजों में पुनर्विवाह वा अनेक विवाह कभी न होने चाहियें। 


प्रश्न―जब वंशच्छेदन हो जायगा, तब उसका कुल भी नष्ट हो जायगा। और स्त्री-पुरुष व्याभिचारादि कर्म करके गर्भपातनादि बहुत-से दुष्ट कर्म करेंगे। इसलिये पुनर्विवाह का होना अच्छा है। 


उत्तर―नहीं; क्योंकि जो स्त्री-पुरुष ब्रह्मचर्य में स्थित रहना चाहें, तो कोई भी उपद्रव न होगा। और जो कुल की परम्परा रखने के लिये कोई स्वजाति का लड़का गोद ले लेंगे, उससे कुल चलेगा और व्यभिचार भी न होगा। और जो ब्रह्मचर्य न रख सकें तो नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर लें।

[पुनर्विवाह और नियोग में भेद]

प्रश्न―पुनर्विवाह और नियोग में क्या भेद है? 


उत्तर―(पहला) जैसे विवाह करने में कन्या अपने पिता का घर छोड़ पति के घर को प्राप्त होती है और पिता से विशेष सम्बन्ध नहीं रहता; किन्तु विधवा स्त्री उसी विवाहित पति के घर में रहती है। 


(दूसरा) उसी विवाहिता स्त्री के लड़के उसी विवाहित पति के दायभागी होते हैं। और विधवा स्त्री के लड़के वीर्यदाता के न पुत्र कहलाते, न उसका गोत्र होता, और न उसका स्वत्व उन लड़कों पर रहता [है], किन्तु वे मृतपति के पुत्र बजते, उसी का गोत्र रहता और उसी के पदार्थों के दायभागी होकर उसी के घर में रहते हैं। 


(तीसरा) विवाहित स्त्री-पुरुष को परस्पर-सेवा और पालन करना आवश्यक है, और नियुक्त स्त्री-पुरुष का [ऐसा] कुछ भी सम्बन्ध नहीं रहता। 


(चौथा) विवाहित स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध मरणपर्यन्त रहता है और नियुक्त स्त्री-पुरुष का कार्यसिद्धि के पश्चात् छूट जाता है।


(पांचवां) विवाहित स्त्री-पुरुष आपस में गृह के कार्यों की सिद्धि करने में यत्न किया करते हैं और नियुक्त स्त्री-पुरुष अपने-अपने घर के काम किया करते हैं। 

[विवाह और नियोग के नियमों में भेद]

प्रश्न―विवाह और नियोग के नियम एक-से हैं, वा पृथक्-पृथक्? 


उत्तर―कुछ थोड़ा-सा भेद है। जितने पूर्व कह आये, और दूसरा यह कि विवाहित स्त्री-पुरुष एक पति और एक ही स्त्री मिलके दश सन्तान तक उत्पन्न कर सकते हैं और नियुक्त स्त्री-पुरुष दो वा चार से अधिक सन्तानोत्पत्ति नहीं कर सकते। अर्थात् जैसे कुमार-कुमारी का ही विवाह होता है, वैसे जिसकी स्त्री वा पुरुष मर जाता है, उन्हीं का नियोग होता है, कुमार-कुमारी का नहीं। जैसे विवाहित स्त्री-पुरुष सदा सङ्ग में रहते हैं, वैसे नियुक्त स्त्री-पुरुष का व्यवहार नहीं, किन्तु विना ऋतुदान के समय एकत्र न हों। जो स्त्री अपने लिये नियोग करे, तो जब दूसरा गर्भ रहै, उसी दिन से स्त्री-पुरुष का सम्बन्ध छूट जाय। और जो पुरुष अपने लिये करे तो भी दूसरा गर्भ रहने से सम्बन्ध छूट जाय। परन्तु वही नियुक्त स्त्री दो-तीन वर्ष पर्यन्त उन सन्तानों का पालन करके नियुक्त पुरुष को दे देवे। ऐसे एक विधवा स्त्री दो अपने लिये और दो-दो अन्य चार नियुक्त पुरुषों के लिये सन्तान कर सकती है और एक मृतस्त्रीक-पुरुष भी दो अपने लिये और दो-दो अन्य-अन्य चार विधवाओं के लिये सन्तान उत्पन्न कर सकता है। ऐसे मिलकर दश-दश सन्तानोत्पत्ति की आज्ञा वेद में है। जैसे―

[दश सन्तानोत्पत्ति तक की वेद में आज्ञा]

इ॒मां त्वमि॑न्द्र मीढ्वः सुपु॒त्रां सु॒भगां॑ कृणु। 

दशा॑स्यां पु॒त्राना धे॑हि॒ पति॑मेकाद॒शं कृ॑धि॥ 

ऋ०, म० १० । सूक्त ८५ । मं० ४५ ॥

हे (मीढ्वः, इन्द्र०) वीर्यसेचन में समर्थ ऐश्वर्ययुक्त पुरुष ! तू इस विवाहित स्त्री वा विधवा स्त्रियों को श्रेष्ठ पुत्र और सौभाग्य-युक्त कर। इस विवाहित स्त्री में दश पुत्र उत्पन्न कर और ग्यारहवीं स्त्री को मान। हे स्त्रि ! तू भी विवाहित पुरुष वा नियुक्त पुरुषों से दश सन्तान उत्पन्न कर और ग्यारहवाँ पति को समझ। 


वेद की इस आज्ञा से ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यवर्णस्थ स्त्री और पुरुष दश-दश सन्तान से अधिक उत्पन्न न करें; क्योंकि अधिक करने से सन्तान निर्बल, निर्बुद्धि, अल्पायु होते हैं और स्त्री तथा पुरुष भी निर्बल, अल्पायु और रोगी होकर वृद्धावस्था में बहुत-से दुःख पाते हैं। 

[नियोग व्यभिचार के समान नहीं?]

प्रश्न―यह नियोग की बात व्यभिचार के समान दीखती है। 


उत्तर―जैसे विना विवाहितों का व्यभिचार होता है, वैसे विना नियुक्तों का व्यभिचार कहाता है। इससे यह सिद्ध हआ कि जैसे नियम से विवाह होने पर व्यभिचार नहीं कहाता, तो नियमपूर्वक नियोग होने से व्यभिचार न कहावेगा। जैसे दूसरे की लड़की का दूसरे के लड़के के साथ शास्त्रोक्त विधिपूर्वक विवाह होने पर समागम में व्यभिचार, पाप वा लज्जा नहीं होती, वैसे ही वेदशास्त्रोक्त नियोग में व्यभिचार, पाप, वा लज्जा न माननी चाहिये।


प्रश्न―है तो ठीक, परन्तु यह वेश्या के सदृश कर्म दीखता है। 


उत्तर―नहीं, क्योंकि वेश्या के समागम में कोई निश्चित पुरुष वा कोई नियम नहीं है और नियोग में विवाह के समान नियम हैं। जैसे दूसरे को लड़की देने, दूसरे के साथ समागम करने में विवाहपूर्वक लज्जा नहीं होती, वैसे ही नियोग में भी न होनी चाहिये। क्या जो व्यभिचारी पुरुष वा स्त्री होते हैं, वे विवाह होने पर भी कुकर्म से बचते हैं? 


प्रश्न―हमको नियोग की बात में पाप मालूम पड़ता है। 


उत्तर―जो नियोग की बात में पाप मानते हो तो विवाह में पाप क्यों नहीं मानते? पाप तो नियोग के रोकने में है। क्योंकि ईश्वर के सृष्टिक्रमानुकूल स्त्री-पुरुष के स्वाभाविक व्यवहार रुक ही नहीं सकते; सिवाय वैराग्यवान्, पूर्णविद्वान् योगियों के। क्या गर्भपातनरूप भ्रूणहत्या और विधवा स्त्रियों और मृतस्त्रीक-पुरुषों के महासन्ताप को पाप नहीं गिनते हो? क्योंकि जब तक वे युवावस्था में हैं, [तब तक] मन में सन्तानोत्पत्ति और विषय की चाहना होनेवालों को, किसी राजव्यवहार वा जातिव्यवहार से रुकावट होने से, गुप्त-गुप्त कुकर्म बुरी चाल से होते रहते हैं। इस व्यभिचार और कुकर्म के रोकने का एक यही श्रेष्ठ उपाय है कि जो जितेन्द्रिय रह सकें, वे विवाह वा नियोग भी न करें तो ठीक है। परन्तु जो ऐसे नहीं हैं, उनका विवाह और आपत्काल में नियोग अवश्य होना चाहिये। इससे व्यभिचार का न्यून होना, प्रेम से उत्तम सन्तान होकर मनुष्यों की वृद्धि होना सम्भव है, और गर्भहत्या सर्वथा छूट जाती है। नीच पुरुषों से उत्तम स्त्रियों और वेश्यादि नीच स्त्रियों से उत्तम पुरुषों का व्यभिचाररूप कुकर्म, उत्तम कुल में कलंक, वंश का उच्छेद, स्त्री-पुरुषों का सन्ताप और गर्भहत्यादि कुकर्म विवाह और नियोग से निवृत्त होते हैं, इसलिये नियोग करना चाहिये। 

[नियोग के नियम]

प्रश्न―नियोग में क्या-क्या बातें होनी चाहियें? 


उत्तर―जैसे प्रसिद्धि से विवाह [होता है], वैसे ही प्रसिद्धि से नियोग [होना चाहिये]। जैसे विवाह में भद्र पुरुषों की अनुमति और कन्या-वर की प्रसन्नता होती है, वैसे नियोग में भी होती है। अर्थात् जब स्त्री- पुरुष का नियोग होना हो, तब अपने कुटुम्ब में पुरुषों-स्त्रियों के सामने [प्रकट करें कि] "हम दोनों नियोग सन्तानोत्पत्ति के लिये करते हैं। जब नियोग का नियम पूरा होगा, तब हम संयोग न करेंगे। जो अन्यथा करें तो पापी, और जाति वा राज के दण्डनीय हों। महीने-महीने में एकवार गर्भाधान का कर्म करेंगे, गर्भ रहे पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त पृथक् रहेंगे।"

प्रश्न―नियोग अपने वर्ण में होना चाहिये वा अन्य वर्णस्थ के साथ भी? 


उत्तर―अपने वर्ण में वा अपने से उत्तमवर्णस्थ पुरुष के साथ। अर्थात् वैश्या स्त्री वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ, क्षत्रिया क्षत्रिय और ब्राह्मण के साथ, ब्राह्मणी ब्राह्मण के साथ नियोग कर सकती है। इसका तात्पर्य यह है कि वीर्य सम वा उत्तम वर्ण का [होना] चाहिये, अपने से नीचे के वर्ण का नहीं। स्त्री और पुरुष की सृष्टि का यही प्रयोजन है कि धर्म से अर्थात् वेदोक्त रीति से विवाह वा नियोग से सन्तानोत्पत्ति करना।

[नियोग की क्या आवश्यकता है?]

प्रश्न―पुरुष को नियोग करने की क्या आवश्यकता है, क्योंकि वह दूसरा विवाह कर लेगा। 


उत्तर―हम लिख आये हैं [कि] द्विजों में स्त्री और पुरुष का एक वार ही विवाह होना वेदादि-शास्त्रों में लिखा है, द्वितीय वार नहीं। कुमार और कुमारी का ही विवाह होने में न्याय [है], और विधवा स्त्री के साथ कुमार पुरुष और कुमारी स्त्री के साथ मृतस्त्रीक-पुरुष का विवाह होने में अन्याय अर्थात् अधर्म है। जैसे विधवा स्त्री के साथ कुमार पुरुष विवाह नहीं किया चाहता, वैसे ही विवाह और स्त्री से समागम किये हुए पुरुष के साथ विवाह करने की इच्छा कुमारी भी न करेगी। जब विवाह किये हुए पुरुष का कोई कुमारी कन्या [ग्रहण न करेगी] और विधवा स्त्री का ग्रहण कोई कुमार पुरुष न करेगा, तब पुरुष और स्त्री को नियोग करने की आवश्यकता होगी। और यही धर्म है कि जैसे के साथ वैसे का ही सम्बन्ध होना चाहिये। 

[नियोग में प्रमाण]

प्रश्न―जैसे विवाह में वेदादि-शास्त्रों का प्रमाण है, वैसे नियोग में प्रमाण है वा नहीं? 


उत्तर―इस विषय में बहुत प्रमाण हैं, देखो और सुनो―


कुह॑ स्विद्दो॒षा कुह॒ वस्तो॑र॒श्विना॒ कुहा॑भिपि॒त्वं क॑रतः॒ कुहो॑षतुः। 

को वां॑ शयु॒त्रा वि॒धवे॑व दे॒वरं॒ मर्यं॒ न योषा॑ कृणुते स॒धस्थ॒ आ॥१॥ 

ऋ०, म० १० । सूक्त ४० । मं० २॥ 

उदी॑र्ष्व नार्य॒भि जी॑वलो॒कं ग॒तासु॑मे॒तमुप॑ शेष॒ एहि॑।

ह॒स्त॒ग्रा॒भस्य॑ दिधि॒षोस्तवे॒दं पत्यु॑र्जनि॒त्वम॒भि सं ब॑भूथ॥२॥ 

ऋ०, म० १० । सूक्त १८ । मं० ८॥

 

हे (अश्विना) स्त्री-पुरुषो! जैसे (देवरं विधवेव) देवर को विधवा और (योषा मर्यं न) विवाहिता स्त्री अपने पति को (सधस्थे) समान स्थान शय्या में एकत्र होकर सन्तानों को (आ कृणुते) सब प्रकार से उत्पन्न करती है, वैसे तुम दोनों स्त्री पुरुष (कुहस्विद्दोषा) कहां रात्रि और (कुह वस्तः) कहां दिन में वसे थे? (कुहाभिपित्वम्) कहां पदार्थों की प्राप्ति (करतः) की? और (कुहोषतुः) किस समय कहां वास करते थे? (को वां शयुत्रा) तुम्हारा शयनस्थान कहां है? तथा कौन वा किस देश के रहने वाले हो? इससे यह सिद्ध हुआ कि देश-विदेश में स्त्री-पुरुष संग में ही रहैं। और विवाहित पति के समान नियुक्त पति को ग्रहण करके विधवा स्त्री भी सन्तानोत्पत्ति कर लेवे॥१॥

['देवर' शब्द का अर्थ]

प्रश्न―जिस विधवा का देवर अर्थात् पति का छोटा भाई न हो तो नियोग किसके साथ करे? 


उत्तर―देवर के साथ। परन्तु देवर शब्द का अर्थ जैसा तुम समझे हो, वैसा नहीं [है]। देखो, 'निरुक्त' में―


"देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते॥"

निरुक्त, अ० ३। खण्ड १५॥

'देवर' उसको कहते हैं कि जो विधवा का दूसरा पति होता है, चाहे छोटा भाई वा बड़ा भाई, अथवा अपने वर्ण वा अपने से उत्तम वर्ण वाला हो; जिससे नियोग करे, उसी का नाम 'देवर' है॥१॥ 


हे (नारि) विधवे! तू (एतं गतासुम्) इस मरे हुए पति की आशा छोड़के (शेषे) बाकी पुरुषों में से (अभिजीवलोकम्) जीते हुए दूसरे पति को (उपैहि) प्राप्त हो और (उदीर्ष्व) इस बात का विचार और निश्चय रख कि जो (हस्तग्राभस्य दिधिषोः) तुझ विधवा के पुनः पाणिग्रहण करनेवाले नियुक्त पति के सम्बन्ध के लिये नियोग होगा तो (इदम्) यह (जनित्वम्) जना हुआ बालक उसी नियुक्त (पत्युः) पति का होगा और जो तू अपने लिये नियोग करेगी तो यह सन्तान (तव) तेरा होगा; ऐसे निश्चययुक्त (अभि सम् बभूथ) हो, और नियुक्त पुरुष भी इसी नियम का पालन करे॥२॥ 


अदे॑वृ॒घ्न्यप॑तिघ्नी॒हैधि॑ शि॒वा प॒शुभ्यः॑ सु॒यामा॑ सु॒वर्चाः॑। 

प्र॒जाव॑ती वीर॒सूर्दे॒वृका॑मा स्यो॒नेम॒ग्निं गार्ह॑पत्यं सपर्य॥ 

अथर्व०, कां० १४। [प्रपा० २९ सूक्त २।] अनु० २। मं० १८॥

 

हे (अपतिघ्नि-अदेवृघ्नि) पति और देवर को दुःख न देनेवाली स्त्रि! तू (इह) इस गृहाश्रम में, (पशुभ्यः) पशुओं के लिये, (शिवा) कल्याण करनेहारी, (सुयमा) अच्छे प्रकार धर्मनियम में चलने [वाली] (सुवर्चाः) रूप और सर्वशास्त्रविद्यायुक्त, (प्रजावती) उत्तम-पुत्र-पौत्रादि-सहित, (वीरसूः) शूरवीर पुत्रों को जनने, (देवृकामा) देवर की कामना करने (स्योना) और सुख देने हारी, पति वा देवर को, (एधि) प्राप्त होके, (इमम्) इस, (गार्हपत्यम्) गृहस्थसम्बन्धी, (अग्निम्) अग्निहोत्र को, (सपर्य) सेवन किया कर। 


"तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः॥" 

मनु० [९।६९]

जो अक्षतयोनि स्त्री विधवा हो जाय, तो पति का निज छोटा भाई भी उससे विवाह कर सकता है।

[नियोग की सीमा]

प्रश्न―एक स्त्री वा पुरुष कितने नियोग कर सकते हैं? और विवाहित [एवं] नियुक्त पतियों का नाम क्या होता है? 


उत्तर― सोमः॑ प्रथ॒मो वि॑विदे गन्ध॒र्वो वि॑विद॒ उत्त॑रः। 

तृ॒तीयो॑ अ॒ग्निष्टे॒ पति॑स्तु॒रीय॑स्ते मनुष्य॒जाः॥ 

ऋ०, म० १० । सूक्त ८५ । मं० ४०॥


हे स्त्रि! जो (ते) तेरा (प्रथमः) पहिला विवाहित (पतिः) पति तुझको (विविदे) प्राप्त होता है, उसका नाम (सोमः) सुकुमारतादि गुणयुक्त होने से 'सोम'; जो दूसरा नियोग होने से (विविदे) प्राप्त होता है, वह (गन्धर्वः) स्त्री से [दूसरा] सम्भोग करने से 'गन्धर्व'; जो (तृतीय उत्तरः) दो के पश्चात् तीसरा पति होता है, वह (अग्निः) अत्युष्णतायुक्त होने से 'अग्नि' संज्ञक; और जो (ते) तेरे (तुरीयः) चौथे से लेके ग्यारहवें [पुरुष के रूप में अपने पति को मानने] तक नियोग में पति होते हैं, वे (मनुष्यजाः) 'मनुष्य' नाम से कहाते हैं। जैसे (इमां त्वमिन्द्र०) इस मन्त्र में [निर्देश है कि] ग्यारहवें पुरुष [के रूप में अपने पति को मानने] तक स्त्री नियोग कर सकती है, वैसे पुरुष भी ग्यारहवीं स्त्री [के रूप में अपनी पत्नी को मानने] तक नियोग कर सकता है। 


प्रश्न―'एकादश' शब्द से [अपने विवाहित पति से उत्पन्न] दश पुत्र और ग्यारहवां [अपने] पति को क्यों न गिनें?


उत्तर―जो ऐसा अर्थ करोगे तो 'विधवेव देवरम्' [ऋग्० १०। ४०। २] 'देवरः कस्माद् द्वितीयो वर उच्यते' [निरुक्त ३।१५] 'अदेवृघ्नि' [अथर्व० १४ । २ । १८] और 'गन्धर्वो विविद उत्तरः' [ऋग्० १० । ८५ । ४०] इत्यादि वेदप्रमाणों से विरुद्धार्थ होगा; क्योंकि तुम्हारे अर्थ से [तो] दूसरा पति ही प्राप्त नहीं हो सकेगा [जबकि इनमें दूसरे, तीसरे, चौथे नियुक्त पति का स्पष्ट उल्लेख है]। 

[नियोग आपद्धर्म है]

देवराद्वा सपिण्डाद्वा स्त्रिया सम्यङ्नियुक्तया।

प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये॥१॥

ज्येष्ठो यवीयसो भार्यां यवीयान्वाग्रजस्त्रियम्। 

पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि॥२॥ 

औरसः क्षेत्रजश्चैव०॥३॥ 

मनु० [९।५९, ५८, १५९]

इत्यादि मनु जी ने लिखा है कि (सपिण्ड) अर्थात् पति की छः पीढ़ियों में पति का छोटा वा बड़ा भाई अथवा स्ववर्णस्थ तथा अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष से विधवा स्त्री का नियोग होना चाहिये। परन्तु जो वह मृतस्त्रीक-पुरुष और विधवा स्त्री सन्तानोत्पत्ति की इच्छा करती हो, तो नियोग होना उचित है। और जब सन्तान का सर्वथा क्षय हो, तब नियोग होवे॥१॥ 


जो आपत्काल के विना अर्थात् सन्तानों के होने की इच्छा न होने पर, बड़े भाई की स्त्री से छोटे का और छोटे की स्त्री से बड़े भाई का नियोग होकर सन्तानोत्पत्ति हो जाने पर भी, पुनः वे नियुक्त भी आपस में समागम करें तो पतित हो जायें; अर्थात् एक नियोग में दूसरे पुत्र के गर्भ रहने तक नियोग की अवधि है, इसके पश्चात् समागम न करें॥२॥ 


और जो दोनों के लिये नियोग हुआ हो, तो चौथे गर्भ तक, अर्थात् पूर्वोक्त रीति से दश सन्तान तक हो सकते हैं। पश्चात् विषयासक्ति गिनी जाती है, इससे वे पतित गिने जाते हैं। और जो विवाहित स्त्री पुरुष भी दशवें गर्भ से अधिक समागम करें, तो कामी और निन्दित होते हैं। अर्थात् विवाह वा नियोग सन्तानों के ही अर्थ किये जाते हैं, पशुवत् कामक्रीड़ा के लिये नहीं। 

[पति के जीवित रहते भी नियोग हो सकता है]

प्रश्न―नियोग मरे पीछे ही होता है वा पति के जीते भी?


उत्तर―जीते भी होता है― 


“अ॒न्यमि॑च्छस्व सुभगे॒ पतिं॒ मत्॥"

 ऋ०, म० १० । सूक्त १० । [मन्त्र १०]॥

जब पति सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपनी स्त्री को आज्ञा देवे कि हे 'सुभगे! =सौभाग्य की इच्छा करनेहारी स्त्री तू (मत्) मुझ से (अन्यम्) दूसरे पति की (इच्छस्व) इच्छा कर, क्योंकि अब मुझसे सन्तानोत्पत्ति न हो सकेगी।' तब स्त्री दूसरे से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति करे, परन्तु उस विवाहित महाशय पति की सेवा में तत्पर रहै। वैसे ही स्त्री भी जब रोगादि दोषों से ग्रस्त होकर सन्तानोत्पत्ति में असमर्थ होवे, तब अपने पति को आज्ञा देवे कि हे स्वामी! आप मुझसे सन्तानोत्पत्ति की इच्छा छोड़के, किसी दूसरी विधवा स्त्री से नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कीजिये।

[नियोग में इतिहास के प्रमाण]

जैसे कि पाण्डु राजा की स्त्री कुन्ती और माद्री आदि ने किया। और जैसे व्यास जी ने चित्राङ्गद और विचित्रवीर्य के मर जाने के पश्चात् उस अपने भाई [विचित्रवीर्य] की स्त्रियों से नियोग करके अम्बिका में धृतराष्ट्र और अम्बालिका में पाण्डु और दासी में विदुर की उत्पत्ति की, इत्यादि इतिहास भी इस बात में प्रमाण हैं। 


प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः। 

विद्यार्थं षड् यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥१॥

वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजा। 

एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥२॥ 

मनु० [९ । ७६, ८१] 

विवाहित स्त्री, जो विवाहित पति धर्म के अर्थ परदेश गया हो तो आठ वर्ष, विद्या और कीर्ति के लिये गया हो तो छः, और धनादि कामना के लिये गया हो तो तीन वर्ष तक वाट देखके, पश्चात् नियोग करके सन्तानोत्पत्ति कर ले। जब विवाहित पति आवे, तब नियुक्त पति छूट जावे॥१॥

वैसे ही पुरुष के लिये भी नियम है। जब विवाह से आठवें वर्ष तक स्त्री को गर्भ न रहे, वन्ध्या हो तो आठवें, सन्तान होकर मर जायें तो दशवें, जब-जब हो तब-तब कन्या हो और पुत्र न होवे तो ग्यारहवें, और जो स्त्री अप्रिय बोलने वाली होवे, तो तुरन्त उसको छोड़के दूसरी स्त्री से नियोग करके, सन्तानोत्पत्ति कर लेवे। वैसे ही जो पुरुष अत्यन्त दुःखदायक हो तो स्त्री को उचित है कि तुरन्त उसको छोड़के दूसरे पुरुष से नियोग कर सन्तानोत्पत्ति करके, उसी विवाहित पति के दायभागी सन्तान कर लेवे॥२॥ 


इत्यादि प्रमाण और युक्तियों से स्वयंवर विवाह और नियोग से अपने-अपने कुल की उन्नति करें। 


जैसे 'औरस' अर्थात् विवाहित पति से उत्पन्न हुआ पुत्र, पिता के पदार्थों का स्वामी होता है, वैसे ही 'क्षेत्रज' अर्थात् नियोग से उत्पन्न हुए पुत्र भी मृतपिता के दायभागी होते हैं।

[वीर्य और रज को अमूल्य समझें]

अब इस पर स्त्री और पुरुष को ध्यान रखना चाहिये कि वीर्य और रज को अमूल्य समझें। जो कोई इस अमूल्य पदार्थ को परस्त्री, वेश्या वा दुष्ट पुरुषों के संग में खोते हैं, वे महामूर्ख कहाते हैं; क्योंकि किसान वा माली मूर्ख होकर भी, अपने खेत वा वाटिका के विना, अन्यत्र बीज नहीं बोते। जो कि साधारण बीज का और मूर्ख का यह वर्त्तमान है, तो जो [शिक्षित होकर भी] सर्वोत्तम मनुष्यशरीररूप वृक्ष के बीज को कुक्षेत्र वा वेश्या में बोता है, वह महामूर्ख कहाता है, क्योंकि उसका फल उसको नहीं मिलता। और


'आत्मा वै जायते पुत्रः' 

यह ब्राह्मणग्रन्थ का वचन है। 

[तुलना―शत० ब्रा०, कां० १४। प्रपा० ७ । ब्रा० ५। कं० २६] 

अङ्गा॑दङ्गा॒त्सम्भ॑वसि॒ हृद॒या॒दधि॑ जायसे। 

आ॒त्मासि पु॒त्र मा॒ मृथाः॒ स जी॑व श॒रदः श॒तम्॥१॥ 

यह सामवेद [के ब्राह्मण] का मन्त्र है॥

[सामब्रा०, मन्त्रपर्व, प्रपा० १ । खं० ५। 

कं० १७ का पूर्वार्द्ध और १८ का उत्तरार्द्ध] 


हे पुत्र! तू अङ्ग-अङ्ग से उत्पन्न हुए वीर्य से और हृदय से उत्पन्न होता है, इसलिये तू मेरा आत्मा है, मुझसे पूर्व न मरना, किन्तु सौ वर्ष तक जी। जिससे ऐसे-ऐसे महात्मा महाशयों का शरीर उत्पन्न होता है, उसको वेश्यादि दुष्टक्षेत्र में बोना, वा दुष्टबीज अच्छे क्षेत्र में बुवाना, महापाप का काम है। 

[विवाह आवश्यक कृत्य है]

प्रश्न―विवाह क्यों करना [चाहिये]? क्योंकि इससे स्त्री और पुरुष को बन्धन में पड़के बहुत संकोच करना और दुःख भोगना पड़ता है। इसलिये जिसके साथ [जब तक] जिसकी प्रीति हो तब तक वे मिले रहैं, जब प्रीति छूट जाय तो छोड़ देवें।


उत्तर―यह पशु-पक्षियों का व्यवहार है, मनुष्यों का नहीं। जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहै, तो गृहाश्रम के अच्छे व्यवहार सब नष्ट-भ्रष्ट हो जायें। कोई किसी से भय वा लज्जा न करे। वृद्धावस्था में कोई किसी की सेवा भी नहीं करे और महाव्यभिचार बढकर सब रोगी, निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्र-शीघ्र मर जायें। कोई किसी के पदार्थ का स्वामी वा दायभागी न हो सके और न किसी का किसी पदार्थ पर दीर्घकाल-पर्यन्त स्वत्व रहै, इत्यादि दोषों के निवारणार्थ विवाह अवश्य होना चाहिये। 


प्रश्न―जब एक विवाह होगा, एक पुरुष की एक स्त्री और एक स्त्री का एक पुरुष रहेगा, तब स्त्री गर्भवती वा स्थिररोगिणी, अथवा पुरुष दीर्घरोगी हो और दोनों की युवावस्था हो; उनसे न रहा जाय, तो फिर क्या करें? 


उत्तर―इसका प्रत्युत्तर वहां 'नियोग- विषय' में दे चुके हैं। और जब गर्भवती स्त्री से एक वर्ष पर्यन्त समागम न करने के समय में पुरुष से न रहा जाय, तो किसी विधवा से नियोग कर, उसके लिये पुत्रोत्पत्ति कर दे, परन्तु वेश्यागमन वा व्यभिचार कभी न करे। 

[गृहस्थ के कुछ अन्य कर्त्तव्य]

जहाँ तक हो सके वहाँ तक, अप्राप्त वस्तु की इच्छा, प्राप्त का रक्षण और रक्षित की वृद्धि और बढ़े हुए धन का व्यय देशोपकार में किया करें। सब प्रकार के अर्थात् पूर्वोक्त रीति से अपने-अपने वर्णाश्रम के व्यवहारों को अत्युत्साह, प्रयत्न, तन-मन-धन से किया करें। अपने माता, पिता, सास, श्वशुर की अत्यन्त शुश्रूषा किया करें। मित्र, पड़ोसी, राजा, विद्वान्, वैद्य और सत्पुरुषों से प्रीति रखें और दुष्टों से उपेक्षा रखके अर्थात् घृणा छोड़कर उनको सुधारने का प्रयत्न किया करें। जहां तक बने वहां तक, प्रेम से अपने सन्तानों को विद्वान् और सुशिक्षित करने-कराने में धनादि को लगावें। धर्म से सब व्यवहार करके मोक्ष का साधन भी किया करें कि जिसकी प्राप्ति से परमानन्द होवे। ऐसे श्लोकों को न मानें―


पतितोऽपि द्विजः श्रेष्ठः, न च शूद्रो जितेन्द्रियः।

निर्दुग्धा चापि गौः पूज्या न च दुग्धवती खरी॥१॥ 

[तुलना-भाषा पाराशरी अ०८। श्लो० ३३ ॥ पराशरस्मृति अ० ८। श्लो० ३२] 

अश्वालम्भं गवालम्भं संन्यासं पलपैत्रिकम्। 

देवराच्च सुतोत्पत्तिं कलौ पञ्च विवर्जयेत्॥२॥ 

[तुलना-पारस्कर गृह्यसू० कां०१। कं० ३ के गदाधर भाष्य में उद्धृत श्लोक से] 

नष्टे मृते प्रव्रजिते क्लीबे च पतिते पतौ।

पञ्चस्वापत्सु नारीणां पतिरन्यो विधीयते॥३॥ 

ये कपोलकल्पित पाराशरी के श्लोक हैं। [भाषा पाराशरी अ० ४। श्लो० ३०] 

जो दुष्ट कर्मकारी द्विज को श्रेष्ठ, और श्रेष्ठ कर्मकारी शूद्र को नीच मानें तो इससे परे पक्षपात, अन्याय, अधर्म दूसरा अधिक कौन-सा होगा? क्या जैसे दूध देनेवाली वा न देनेवाली गाय गोपालों को पालनीय होती है, वैसे कुंभार= (कुम्हार) आदि को गधी पालनीय नहीं होती? और यह दृष्टान्त भी विषम है, क्योंकि द्विज और शूद्र मनुष्य जाति, गाय और गधी भिन्न जाति हैं। कथञ्चित् पशु जाति से दृष्टान्त का एकदेश दार्ष्टान्त में मिल भी जावे, तो भी इसका आशय अयुक्त होने से यह श्लोक विद्वानों के द्वारा माननीय कभी नहीं हो सकता॥१॥ 


जब अश्वालम्भ अर्थात् घोड़े को मारके अथवा गाय को मारके होम करना ही वेदविहित नहीं है, तो उसका कलियुग में निषेध करना वेदविरुद्ध क्यों नहीं? जो कलियुग में इस नीच कर्म का निषेध माना जाय, तो त्रेता आदि में विधि आ जाय। तो इससे ऐसे दुष्ट काम का श्रेष्ठ युग में होना सर्वथा असंभव है। और जिस संन्यास का वेदादि में विधि है, उसका निषेध करना निर्मूल है। जब मांस का निषेध है तो सर्वदा ही निषेध है। जब देवर से पुत्रोत्पत्ति करनी वेदों में लिखी है तो यह श्लोककर्त्ता क्यों भूंषता है?॥२॥ 


यदि (नष्टे) अर्थात् पति किसी देश-देशान्तर को चला गया हो, [और] घर में स्त्री नियोग कर लेवे, उसी समय विवाहित पति आ-जाय, तो वह किसकी स्त्री हो? कोई कहे कि विवाहित पति की। हमने माना, परन्तु ऐसी व्यवस्था 'पाराशरी' में तो नहीं लिखी। क्या स्त्री के पांच ही आपत् समय हैं ? रोगी पड़ा हो, लड़ाई हो गई हो, इत्यादि आपत्काल पाँच से भी अधिक हैं। इसलिये ऐसे-ऐसे श्लोकों को कभी न मानना चाहिये॥३॥

[वेदविरुद्ध वचन अमान्य हैं]

प्रश्न―क्यों जी! तुम पराशर मुनि के वचन को भी नहीं मानते? 


उत्तर―चाहे किसी का वचन हो, परन्तु वेद के विरुद्ध होने से नहीं मानते। और यह तो पराशर का वचन भी नहीं है। क्योंकि जैसे 'ब्रह्मोवाच, वसिष्ठ उवाच, राम उवाच, शिव उवाच, देव्युवाच' इत्यादि श्रेष्ठों का नाम लिखके ग्रन्थरचना इसलिये करते हैं कि सर्वमान्य के नाम से इन ग्रन्थों को सब संसार मान लेवे और हमारी पुष्कल जीविका होवे। कुछ प्रक्षिप्त श्लोकों को छोड़के मनुस्मृति ही वेदानुकूल है, अन्य स्मृतियाँ नहीं। ऐसे ही अन्य जालग्रन्थों की भी व्यवस्था समझ लो।

[गृहाश्रम की श्रेष्ठता]

प्रश्न―गृहाश्रम सबसे छोटा, वा बड़ा है?


उत्तर―अपने-अपने कर्मों में सब बड़े हैं। परन्तु― 


यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्॥१॥

यथा वायुं समाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्वजन्तवः। 

तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्त्तन्ते सर्व आश्रमाः॥२॥

यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।

गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही॥३॥ 

स संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता। 

सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः॥४॥ 

मनु० [६ । ९० ॥ ३ । ७७-७९]


अर्थ―जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं, जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ के ही आश्रय से सब आश्रम स्थिर रहते हैं॥१॥


[जैसे वायु के आश्रय से सब जीवों का वर्त्तमान सिद्ध होता है, वैसे ही गृहस्थ आश्रय से ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी, अर्थात् सब आश्रमस्थों का निर्वाह होता है।] विना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता॥२॥ 


जिससे ब्रह्मचारी, वानप्रस्थ और संन्यासी तीन आश्रमस्थों को दान और अन्नादि देके प्रतिदिन गृहस्थ ही धारण करता है, इससे गृहस्थ ज्येष्ठाश्रम है, अर्थात् सब व्यवहारों में धुरन्धर कहाता है [॥३॥] 


इसलिये जो अक्षय मोक्ष और संसार के सुख की इच्छा करता हो, वह प्रयत्न से गृहाश्रम का धारण करे। जो गृहाश्रम दुर्बलेन्द्रिय अर्थात् भीरु और निर्बल पुरुषों से धारण करने [के] अयोग्य है, उसको अच्छे प्रकार धारण करे॥४॥


इसलिये जितना कुछ व्यवहार संसार में है उसका आधार गृहाश्रम है। जो यह गृहाश्रम न होता, तो सन्तानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यासाश्रम कहाँ से हो सकते [हैं]? जो कोई गृहाश्रम की निन्दा करता है, वही निन्दनीय है, और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है। परन्तु तभी गृहाश्रम में सुख होता है कि जब स्त्री और पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता हों। इसलिये गृहाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह है। 


यह संक्षेप से समावर्तन, विवाह और गृहाश्रम के विषय में शिक्षा लिख दी। इसके आगे वानप्रस्थ और संन्यास के विषय में लिखा जायगा।

 

इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे 

सुभाषाविभूषिते समावर्त्तनविवाहगृहाश्रमविषये 

चतुर्थः समुल्लासः सम्पूर्णः॥४॥ 


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