पञ्चमः समुल्लासः

पञ्चम-समुल्लास


वानप्रस्थ का काल

वानप्रस्थ कैसे निर्वाह करे

वानप्रस्थ के कर्त्तव्य

संन्यास का काल

संन्यास-ग्रहण के तीन पक्ष

वेदों में संन्यास का विधान

निरर्थक संन्यास

संन्यासी के कर्त्तव्य

संन्यासी किनका संग न करें

संन्यास का फल

त्रिविध एषणाओं का परित्याग

संन्यासी का विशेष धर्म

दश लक्षण-युक्त धर्म

संन्यास-ग्रहण का अधिकार

संन्यासाश्रम की आवश्यकता 

क्या संन्यासी कुछ भी कार्य न करे ?

जीव और ब्रह्म एक नहीं

संन्यासी का लक्षण

संन्यासी का होना आवश्यक 

जन-लाभार्थ संन्यासी एकत्र अधिक भी ठहरे

संन्यासी को धनादि का दान 

क्या श्राद्ध में संन्यासी का आना हानिकर है

ब्रह्मचर्य से संन्यास लेने का अधिकारी

सम्राट् और परिव्राट् की तुलना

चारों आश्रमों के कर्त्तव्यों का संक्षेप से कथन

वैरागी, गुसाईं आदि संन्यासी नहीं



अथ पञ्चमसमुल्लासारम्भः 


अथ वानप्रस्थ-संन्यासविधिं वक्ष्यामः 


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

Click now


[अब वानप्रस्थ और संन्यास-विधि का वर्णन करेंगे]


[वानप्रस्थ का काल]

ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत्॥ 

शत॰ कां॰ १४॥ [तुलना― 

(शतपथ शाखापरक) जाबालोपनिषद् खण्ड ४]


मनुष्यों को उचित है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ, गृहस्थ होकर वानप्रस्थ और वानप्रस्थ होके संन्यासी होवें, अर्थात् यह अनुक्रम से आश्रम का विधान है। 


एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत्स्नातको द्विजः। 

वने वसेत्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः॥१॥

गृहस्थस्तु यदा पश्येद् वलीपलितमात्मनः। 

अपत्यस्यैव चापत्यं तदारण्यं समाश्रयेत्॥२॥

सन्त्यज्य ग्राम्यमाहारं सर्वं चैव परिच्छदम्। 

पुत्रेषु भार्यां निःक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा॥३॥

अग्निहोत्रं समादाय गृह्यं चाग्निपरिच्छदम्।

ग्रामादरण्यं निःसृत्य निवसेन्नियतेन्द्रियः॥४॥

मुन्यन्नैर्विविधैर्मेध्यैः शाकमूलफलेन वा। 

एतानेव महायज्ञान्निर्वपेद्विधिपूर्वकम्॥५॥ 

मनु० [६। १-५]


इस प्रकार स्नातक अर्थात् ब्रह्मचर्यपूर्वक गृहाश्रम का कर्त्ता द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य गृहाश्रम में ठहरकर निश्चितात्मा [होके] और यथावत् इन्द्रियों को जीतके वन में वसें॥१॥ 


परन्तु जब गृहस्थ के शिर के श्वेत केश [हो जायें] और त्वचा ढीली हो जाय, और लड़के का लड़का भी होवे, तब वन में जाके वसे॥२॥ 


ग्राम के सब आहारों, वस्त्रादि सब उत्तमोत्तम पदार्थों को छोड़, पुत्रों के पास स्त्री को रख, वा अपने साथ लेके वन में निवास करे॥३॥ 


सांगोपांग अग्निहोत्र को लेके ग्राम से निकल,  दृढ़ेन्द्रिय होकर, अरण्य में जाके वसे॥४॥


नाना प्रकार के सामा आदि अन्न, सुन्दर शाक, मूल, फल, कन्दादि से पूर्वोक्त पञ्चमहायज्ञों को करे और उसी से अतिथिसेवा और आप भी निर्वाह करे॥५॥ 

[वानप्रस्थ के कर्त्तव्य]

स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दान्तो मैत्रः समाहितः।

दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः॥१॥

अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराशयः।

शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः॥२॥ 

मनु० [६। ८, २६]

स्वाध्याय अर्थात् पढ़ने-पढ़ाने में नित्य युक्त, जितात्मा, सबका मित्र, इन्द्रियों का दमनशील, विद्यादि का दान देनेहारा और सबपर दयालु [होवे], किसी से कुछ भी पदार्थ न लेवे, इस प्रकार सदा वर्त्तमान करे॥१॥ 


शरीर के सुख के लिये अति-प्रयत्न न करे, ब्रह्मचारी रहै अर्थात् अपनी स्त्री साथ हो तथापि उससे विषयचेष्टा कुछ न करे। भूमि में सोवे। अपने आश्रितों [और] स्वकीय पदार्थों में ममता न करे, वृक्ष के मूल में वसे॥२॥


तपःश्रद्धे ये ह्युपवसन्त्यरण्ये, शान्ता विद्वांसो भैक्षचर्यां चरन्तः। 

सूर्यद्वारेण ते विरजाः प्रयान्ति, यत्राऽमृतः स पुरुषो ह्यव्ययात्मा॥१॥   

 मुण्डक॰ १। खं॰ २। मं॰ ११॥

जो शान्त, विद्वान् लोग वन में तप, धर्मानुष्ठान और सत्य की श्रद्धा करके भिक्षाचरण करते हुए जंगल में वसते हैं, जहाँ नाशरहित हानि-लाभ-रहित पूर्णपुरुष परमात्मा है, वहाँ वे निर्मल होकर प्राणद्वार से उस परमात्मा को प्राप्त होके आनन्दित हो जाते हैं॥१॥ 


अ॒भ्या द॑धामि स॒मिध॒मग्ने॑ व्रतपते॒ त्वयि॑। 

व्र॒तं च॑ श्र॒द्धां चोपै॑मी॒न्धे त्वा॑ दीक्षि॒तोऽअ॒हम्॥१॥ 

यजुर्वेदे, अध्याये २०। मं०  २४॥

 

वानप्रस्थ को उचित है कि 'मैं अग्नि में होम करके दीक्षित होकर व्रत, सत्याचरण और श्रद्धा को प्राप्त होऊँ', ऐसी इच्छा करके वानप्रस्थ होवे। नाना प्रकार की तपश्चर्या, सत्सङ्ग, योगाभ्यास और सुविचार से ज्ञान और पवित्रता प्राप्त करे॥१॥ 


पश्चात् जब संन्यास के ग्रहण की इच्छा हो तब स्त्री को पुत्रों के पास भेज देवे, फिर संन्यास ग्रहण करे॥१॥ 


इति संक्षेपेण वानप्रस्थविधिः


अथ संन्यासविधिः


[संन्यास का काल]

वनेषु च विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः। 

चतुर्थमायुषो भागं त्यक्त्वा सङ्गान् परिव्रजेत्॥१॥

 मनु० [६। ३३]


इस प्रकार वनों में आयु का तीसरा भाग अर्थात् पच्चीस वर्ष रहके, पचासवें वर्ष से पचहत्तरवें वर्ष पर्यन्त वानप्रस्थ होके, आयु के चौथे भाग में संगों को छोड़के 'परिव्राट्' अर्थात् संन्यासी हो जावे। 


प्रश्न―गृहाश्रम और वानप्रस्थाश्रम न करके संन्यासाश्रम करे, उसको पाप होता है, वा नहीं?


उत्तर―होता है, और नहीं भी होता। 


प्रश्न―यह दो प्रकार की बात क्यों कहते हो?


उत्तर―दो प्रकार की नहीं; क्योंकि जो बाल्यावस्था में विरक्त होकर विषयों में फसे वह महापापी, और जो न फसे वह महापुण्यात्मा सत्पुरुष है।

[संन्यास-ग्रहण के तीन पक्ष]

यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेत्।

वनाद्वा गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत्॥

 ये ब्राह्मणग्रन्थ के वचन हैं। [तुलना―जाबालोपनिषत् खं० ४]


जिस दिन वैराग्य प्राप्त हो, उसी दिन [ब्रह्मचर्य वा], घर वा वन से संन्यास ग्रहण कर लेवे। पहला पक्ष क्रमसंन्यास का [आरम्भ में] कहा। और [द्वितीय पक्ष यह है कि] इसमें विकल्प है अर्थात् वानप्रस्थ न करे, गृहस्थाश्रम से ही संन्यास ग्रहण करे। और तृतीय पक्ष यह है कि जो पूर्ण विद्वान्, जितेन्द्रिय, विषय-भोग की कामना से रहित, परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष हो, वह ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यास लेवे। और वेदादि में भी―


“[यद्देवाः] यतयः०" [ऋग्०, १०। ७२। ७] [तथा] "ब्राह्मणस्य विजानतः०” [भगवद्गीता २। ४६] इत्यादि पदों से संन्यास का विधान है, परन्तु—

[निरर्थक संन्यास]

नाविरतो दुश्चरितान्नाशान्तो नासमाहितः।

नाशान्तमानसो वापि प्रज्ञानेनैनमाप्नुयात्॥ 

कठ॰, अ०१। वल्ली २। मं॰ २३

जो दुराचार से पृथक् नहीं, जिसको [जीवन में] शान्ति नहीं, जिसका आत्मा योगी नहीं, और जिसका मन शान्त नहीं है, वह संन्यास लेके भी प्रज्ञान से परमात्मा को प्राप्त नहीं होता। इसलिए—

[संन्यासी के कर्त्तव्य]

यच्छेद्वाङ्मनसी प्राज्ञस्तद्यच्छेद् ज्ञान आत्मनि।

ज्ञानमात्मनि महति नियच्छेत् तद्यच्छेच्छान्त आत्मनि॥ 

कठ॰, अ०१। वल्ली ३। मं॰ १३॥

 

बुद्धिमान् संन्यासी वाणी और मन को अधर्म से रोके, उनको ज्ञान और आत्मा में लगावे, और उस ज्ञान और स्वात्मा को परमात्मा में लगावे और उस विज्ञान को शान्तस्वरूप आत्मा में स्थिर करे। 


परीक्ष्य लोकान् कर्मचितान्  ब्राह्मणो निर्वेदमायान्नास्त्यकृतः कृतेन। 

तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥ 

मुण्डक॰, [१] खंड २। मं॰ १२॥

 

सब लौकिक भोगों को कर्म से संचित हुए देखकर ब्राह्मण अर्थात् संन्यासी वैराग्य को प्राप्त होवे। क्योंकि 'अकृत' अर्थात् न किया हुआ परमात्मा, 'कृत' अर्थात् केवल कर्म से प्राप्त नहीं होता। इसलिये अर्पण के अर्थ हाथ में कुछ लेके वेदवित् और परमेश्वर को जाननेवाले गुरु के पास उसके विज्ञान के लिये जावे, जाके सब सन्देहों की निवृत्ति करे;

[किनका सङ्ग न करे]

परन्तु सदा इनका संग छोड़ देवे कि— 


अविद्यायामन्तरे वर्त्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः। 

जङ्घन्यमानाः परियन्ति मूढा अन्धेनैव नीयमाना यथान्धाः॥१॥ 

अविद्यायां बहुधा वर्त्तमाना वयं कृतार्था इत्यभिमन्यन्ति बालाः। 

यत्कर्मिणो न प्रवेदयन्ति रागात्तेनातुराः क्षीणलोकाश्च्यवन्ते॥२॥ 

मुण्डक॰, [१] खण्ड २। मं॰ ८-९॥


जो अविद्या के भीतर खेल रहे और अपने को धीर और पण्डित मानते हैं, वे नीच गति को जानेहारे मूढ़, जैसे 'अंधे के पीछे अन्धे दुर्दशा को प्राप्त होते हैं', वैसे दुःखों को पाते हैं॥१॥ 


जो बहुधा अविद्या में रमण करनेवाले बालबुद्धि 'हम कृतार्थ हैं' ऐसा मानते हैं, जिनको केवल कर्मकाण्डी-लोग राग से मोहित होकर नहीं जान और जना सकते, वे आतुर होके जन्ममरणरूप दुःख में गिरे रहते हैं॥२॥ इसलिये— 

[संन्यास का फल]

वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्थाः, संन्यासयोगाद्यतयः शुद्धसत्त्वाः। 

ते ब्रह्मलोकेषु परान्तकाले, परामृताः परिमुच्यन्ति सर्वे॥ 

मुण्डक॰, ३ खण्ड २। मं॰ ६॥

जो वेदान्त अर्थात् परमेश्वर प्रतिपादक वेदमन्त्रों के अर्थज्ञान और आचार में अच्छे प्रकार निश्चित, संन्यासयोग से शुद्धान्तःकरण संन्यासी होते हैं, वे परमेश्वर में मुक्ति-सुख को प्राप्त हो, भोग के पश्चात् जब मुक्ति में सुख की अवधि पूरी हो जाती है, तब वहाँ से छूटकर संसार में आते हैं। मुक्ति के विना दुःख का नाश नहीं होता है। क्योंकि—

 

न वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः॥ 

छान्दोग्य॰, [उप०, प्रपा० ८। खं० १२। प्रवाक १]

जो देहधारी है, वह सुख-दुःख की प्राप्ति से पृथक् कभी नहीं रह सकता और जो शरीररहित जीवात्मा मुक्ति में सर्वव्यापक परमेश्वर के साथ शुद्ध होकर रहता है, तब उसको सांसारिक सुख-दुःख प्राप्त नहीं होता। इसलिये—

[त्रिविध एषणाओं का परित्याग]

पुत्रैषणायाश्च वित्तैषणायाश्च लोकैषणायाश्च व्युत्थायाथ भिक्षाचर्यं चरन्ति॥ 

शत॰ कां॰ १४ [शत० ब्रा०, कां० १४

 प्रपा० ३। ब्रा० ४। कं० १; बृह० उप० ३। ५। १]॥


पुत्रादि के मोह से; लाभ, धन से भोग वा मान्य; लोक में प्रतिष्ठा से अलग होके संन्यासी लोग भिक्षुक होकर रात-दिन मोक्ष के साधनों में तत्पर रहते हैं।

प्राजापत्यां निरूप्येष्टिं तस्यां सर्ववेदसं हुत्वा ब्राह्मणः प्रव्रजेत्॥१॥

यजुर्वेदब्राह्मणे, [न्याय दर्शन ४। १। ६१ पर वात्स्यायन भाष्य]॥ 


प्राजापत्यां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम्।

आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद् गृहात्॥२॥

यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात्। 

तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः॥३॥

मनु॰ [६। ३८-३९]॥

प्रजापति अर्थात् परमेश्वर की प्राप्ति के अर्थ इष्टि अर्थात् यज्ञ करके, उसमें यज्ञोपवीत, शिखादि चिह्नों को छोड़, आहवनीयादि पांच अग्नियों को प्राण, अपान, व्यान, उदान और समान इन पांच प्राणों में आरोपित करके ब्रह्मवित् ब्राह्मण घर से निकलकर संन्यासी हो जावे॥१-२॥ 


जो सब भूत=प्राणिमात्र को अभयदान देकर घर से निकलके संन्यासी होता है, उस ब्रह्मवादी अर्थात् परमेश्वरप्रकाशित 'वेदोक्त-धर्मादि विद्याओं' के उपदेश करनेवाले संन्यासी के लिये प्रकाशमय अर्थात् मुक्ति का आनन्दस्वरूप लोक प्राप्त होता है॥३॥ 

[संन्यासी का विशेष धर्म]

प्रश्न―संन्यासियों का क्या धर्म है? 


उत्तर―धर्म तो पक्षपातरहित न्यायाचरण, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग, ईश्वर की वेदोक्त आज्ञा का पालन, परोपकार, सत्यभाषणादि-लक्षण सब आश्रमियों का अर्थात् सब मनुष्यमात्र का एक ही है, परन्तु संन्यासी का विशेष धर्म यह है कि— 


दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। 

सत्यपूतां वदेद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्॥१॥ 

क्रुद्ध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत्।

सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्॥२॥

अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः। 

आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह॥३॥

क्लृप्तकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान्।

विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन्॥४॥

इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च। 

अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते॥५॥

दूषितोऽपि चरेद्धर्मं यत्र तत्राश्रमे रतः। 

समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम्॥६॥ 

फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्। 

न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति॥७॥

प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत्कृताः।

व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः॥८॥ 

दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः।

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥९॥

प्राणायामैर्दहेद्दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषम्।

प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनानीश्वरान् गुणान्॥१०॥

उच्चावचेषु भूतेषु दुर्ज्ञेयामकृतात्मभिः। 

ध्यानयोगेन संपश्येद् गतिमस्यान्तरात्मनः॥११॥

अहिंसयेन्द्रियासङ्‍गैर्वैदिकैश्चैव कर्मभिः।

तपसश्चरणैश्चोग्रैस्साधयन्तीह तत्पदम्॥१२॥ 

यदा भावेन भवति सर्वभावेषु निःस्पृहः। 

तदा सुखमवाप्नोति प्रेत्य चेह च शाश्वतम्॥१३॥

चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिर्द्विजैः। 

दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः॥१४॥ 

धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। 

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥१५॥

अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा सङ्गञ्छनैः शनैः।

सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते॥१६॥ 

मनु॰ अ॰ ६। [श्लोक ४६, ४८, ४९, ५२, ६०, ६६, ६७, ७०-७३, ७५, ८०, ९१, ९२, ८१]


जब संन्यासी मार्ग में चले, तब इधर-उधर न देखकर, नीचे पृथिवी पर दृष्टि रखके चले। सदा वस्त्र से छानके जल पीये, निरन्तर सत्य ही बोले, सर्वदा मन से विचारके सत्य का ग्रहण करे असत्य को छोड़ देवे॥१॥ 


जब कहीं उपदेश वा संवादादि में कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा निन्दा करे, तो संन्यासी को उचित है कि उस पर आप कभी क्रोध न करे किन्तु सदा उसके कल्याणार्थ उपदेश करे। एक मुख के, दो नासिका के, दो आँखों के और दो कानों के छिद्रों में बिखरी हुई वाणी को, किसी कारण से मिथ्या कभी न बोले॥२॥ 


अपने आत्मा और परमात्मा में स्थिर, अपेक्षारहित, मद्य-मांसादि वर्जित होकर, आत्मा के ही सहाय्य से सुखार्थी होकर, इस संसार में धर्म और विद्या के बढ़ाने में उपदेश के लिये सदा विचरता रहै॥३॥ 


केश, नख, दाढ़ी, मूंछ का छेदन करवावे, सुन्दर पात्र, दण्ड और कुसुम्भ आदि से रंगे हुए वस्त्रों को ग्रहण करके निश्चितात्मा [होकर], सब भूतों को पीड़ा न देते हुए सर्वत्र विचरे॥४॥ 


इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, राग-द्वेष को छोड़, सब प्राणियों से निर्वैर वर्तकर, मोक्ष के लिये सामर्थ्य बढ़ाया करे॥५॥ 


कोई संसार में उसको दूषित वा भूषित करे तो भी, जिस किसी आश्रम में वर्तता हुआ पुरुष अर्थात् संन्यासी, सब प्राणियों में पक्षपातरहित होकर, स्वयं धर्मात्मा [रहते हुए] और अन्यों को धर्मात्मा करने में प्रयत्न किया करे। और यह अपने मन में निश्चित जाने कि [केवल] दण्ड, कमण्डलु और काषायवस्त्र आदि चिह्न-धारण करना ही धर्म का कारण नहीं है। सब मनुष्यादि प्राणियों की सत्योपदेश और विद्यादान से उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है॥६॥


क्योंकि, यद्यपि निर्मली वृक्ष का फल पीसके गदरे जल में डालने से जल का शोधक होता है, तदपि विना डाले उसके नामकथन वा श्रवणमात्र से जल शुद्ध नहीं होता॥७॥ 


इसलिये ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मवित् संन्यासी को उचित है कि ओङ्कारपूर्वक सातव्याहृतियों से विधिपूर्वक प्राणायाम, जितनी शक्ति हो उतने करे, परन्तु तीन से न्यून कभी न करे, यही संन्यासी का परमतप है॥८॥ 


क्योंकि, जैसे अग्नि में तपाने और गलाने से धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं, वैसे ही प्राणों के निग्रह से मन आदि इन्द्रियों के दोष भस्मीभूत हो जाते हैं॥९॥ 


इसलिये संन्यासी लोग नित्यप्रति प्राणायामों से आत्मा, अन्तःकरण और इन्द्रियों के दोषों [को], धारणाओं से पापों [को], प्रत्याहार से संगदोषों [को]; ध्यान से अनीश्वर के गुणों को अर्थात् हर्ष, शोक और अविद्यादि जीव के दोषों को भस्मीभूत करें॥१०॥ 


जो अयोगी, अविद्वानों के द्वारा जानने के अयोग्य है, इसी ध्यानयोग से, उस अन्तर्यामी परमात्मा की व्याप्ति और परमात्मा तथा आत्मा की गति को छोटे-बड़े पदार्थों में देखे॥११॥


सब भूतों से निर्वैरता से, इन्द्रियों के दुष्ट विषयों के त्याग [से], वेदोक्त कर्म और अत्युग्र तपश्चरण से, इस संसार में मोक्षपद को पूर्वोक्त संन्यासी ही सिद्ध कर और करा सकते हैं, अन्य कोई नहीं॥१२॥ 


जब संन्यासी सब भावों में अर्थात् पदार्थों में निःस्पृह=कांक्षारहित और सब बाहर-भीतर के व्यवहारों में भाव से पवित्र होता है, तभी इस देह में, और मरण पाके 'निरन्तर सुख' को प्राप्त होता है॥१३॥ 


इसलिये ब्रह्मचारियों, गृहस्थों, वानप्रस्थियों और संन्यासियों को योग्य है कि प्रयत्न से दशलक्षणयुक्त निम्नलिखित धर्म का सेवन नित्य करें―॥१४॥ 


पहला लक्षण—(धृतिः) सदा धैर्य रखना। दूसरा—(क्षमा) जो कि निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ, आदि दुःखों में भी सहनशील रहना। तीसरा—(दमः) मन को सदा धर्म में प्रवृत्त कर, अधर्म से रोक देना अर्थात् अधर्म करने की इच्छा भी न उठे। चौथा—(अस्तेयम्) चोरीत्याग अर्थात् विना आज्ञा और छल-कपट, विश्वासघात और किसी व्यवहार [-विरुद्ध] तथा वेदविरुद्ध उपदेश से परपदार्थ का ग्रहण करना 'चोरी' और उसको छोड़ देना 'साहुकारी' कहाती है। पांचवां—(शौचम्) राग-द्वेष, पक्षपात छोड़के भीतर की, और जल, मृत्तिका-मार्जन आदि से बाहर की पवित्रता रखनी। छठा—(इन्द्रियनिग्रहः) अर्थात् अधर्माचरणों से रोकके, इन्द्रियों को धर्म में ही सदा चलाना। सातवाँ—(धीः) मादकद्रव्य, बुद्धिनाशक अन्य-पदार्थ, दुष्टों का संग, आलस्य-प्रमाद आदि को छोड़के, श्रेष्ठ पदार्थों का सेवन, सत्पुरुषों का संग, योगाभ्यास, धर्माचरण, ब्रह्मचर्य आदि शुभकर्मों से बुद्धि का बढ़ाना। आठवाँ―(विद्या) पृथिवी से लेके परमेश्वर-पर्यन्त [पदार्थों का] यथार्थज्ञान और उनसे यथायोग्य उपकार लेना। इससे विपरीत अविद्या है। नववाँ—(सत्यम्) जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा मन में वैसा वाणी में, जैसा वाणी में वैसा कर्म में वर्तना; जैसा जो पदार्थ हो उसको वैसा ही समझना, बोलना, करना। तथा दशवां―(अक्रोधः) क्रोधादि दोषों को छोड़के शान्ति-आदि गुणों का ग्रहण करना, [दशकं धर्मलक्षणम्] दशवां लक्षण धर्म का है। इस दशलक्षणयुक्त पक्षपातरहित-न्यायाचरण-धर्म का सेवन चारों आश्रमवाले करें। और इसी वेदोक्त धर्म में ही आप चलना और दूसरों को समझाकर चलाना संन्यासियों का विशेष धर्म है॥१५॥ 


इसी प्रकार से धीरे-धीरे सब संग-दोषों को छोड़, हर्ष-शोकादि सब द्वन्द्वों से विमुक्त होकर, संन्यासी ब्रह्म में ही अवस्थित होता है॥१६॥ 


संन्यासियों का मुख्य कर्म यही है कि गृहस्थादि आश्रमस्थों को सब प्रकार के व्यवहारों का सत्य निश्चय करा, अधर्म-व्यवहारों से छुड़ा, सब संशयों का छेदन कर, सत्यधर्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्ति कराया करें॥

[संन्यास-ग्रहण का अधिकार]

प्रश्न―संन्यासग्रहण करना ब्राह्मण का ही धर्म है, वा क्षत्रियादि का भी?


उत्तर―ब्राह्मण को ही अधिकार है। क्योंकि जो सब वर्णों में पूर्ण विद्वान्, धार्मिक, परोपकारप्रिय मनुष्य है, उसी का 'ब्राह्मण' नाम है। विना पूर्णविद्या, धर्म, परमेश्वर की निष्ठा और वैराग्य के संन्यास-ग्रहण करने में संसार का विशेष उपकार नहीं हो सकता। इसीलिये लोकश्रुति है कि ब्राह्मण को संन्यास का अधिकार है, अन्य को नहीं। यह मनु का प्रमाण भी है कि—


एष वोऽभिहितो धर्मो ब्राह्मणस्य चतुर्विधः।

पुण्योऽक्षयफलः प्रेत्य राजधर्मं निबोधत॥

मनु॰ [६। ९७]

यह मनु जी कहते हैं कि हे ऋषियों ! यह चार प्रकार [का] अर्थात् ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास-आश्रम करना ब्राह्मण का धर्म है। यहां वर्त्तमान में पुण्यस्वरूप और शरीर छोड़े पश्चात् मुक्तिरूप अक्षय आनन्द का देनेवाला 'संन्यास-धर्म' है। इसके आगे 'राजाओं का धर्म' तुम मुझसे सुनो। इससे यह सिद्ध हुआ कि संन्यासग्रहण का अधिकार मुख्य करके ब्राह्मण का है, और क्षत्रियादि का ब्रह्मचर्याश्रम [आदि का] है। 

[संन्यासाश्रम की आवश्यकता]

प्रश्न―संन्यासग्रहण की आवश्यकता क्या है?


उत्तर―जैसे शरीर में शिर की आवश्यकता है, वैसे आश्रमों में संन्यास की आवश्यकता है; क्योंकि इसके विना विद्या, धर्म कभी नहीं बढ़ सकते और दूसरे आश्रमस्थों को विद्याग्रहण, गृहकृत्य और तपश्चर्यादि का सम्बन्ध होने से अवकाश बहुत कम मिलता है। पक्षपात छोड़कर वर्तना दूसरे आश्रमस्थों को दुष्कर है। संन्यासी सर्वतोमुक्त होकर जगत् का जैसा उपकार करता है, वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता। क्योंकि संन्यासी को जितना अवकाश सत्यविद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का मिलता है, उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता। परन्तु जो ब्रह्मचर्य से संन्यासी होकर जगत् को सत्यशिक्षा करके [उसकी] जितनी उन्नति कर सकता है, उतनी गृहस्थ और वानप्रस्थ आश्रम करके संन्यासाश्रमी नहीं कर सकता। 


प्रश्न―संन्यासग्रहण करना ईश्वर के अभिप्राय से विरुद्ध है, क्योंकि ईश्वर का अभिप्राय मनुष्यों की बढ़ती करने में है। जब गृहाश्रम नहीं करेगा तो उससे सन्तान ही न होंगे। जब संन्यासाश्रम ही मुख्य है और उसको सब मनुष्य [ग्रहण] करें तो मनुष्यों का मूलोच्छेदन हो जायगा।


उत्तर―अच्छा, विवाह करके भी बहुतों के सन्तान नहीं होते, अथवा होकर शीघ्र नष्ट हो जाते हैं, फिर वह भी ईश्वर के अभिप्राय से विरुद्ध करनेवाला हुआ। जो तुम कहो कि―


"यत्ने कृते यदि न सिध्यति कोऽत्र दोषः" 

यह किसी कवि का वचन है। 

[पञ्चतन्त्र, मित्रभेद कथा ४, श्लोक २१७]

=जो यत्न करने से भी कार्य सिद्ध न हो तो इसमें [हमारा] कोई भी दोष नहीं, तो हम तुमसे पूछते हैं कि गृहाश्रम से बहुत-से सन्तान होकर, आपस में विरुद्धाचरण कर लड़ मरें तो हानि कितनी बड़ी होती है? समझ के विरोध से लड़ाई बहुत होती है। जब एक संन्यासी वेदोक्तधर्म के उपदेश से परस्पर प्रीति उत्पन्न करावेगा तो लाखों मनुष्यों को बचा देगा। सहस्रों गृहस्थों के तुल्य मनुष्यों की बढ़ती करेगा। सब मनुष्य संन्यासग्रहण कर ही नहीं सकते, क्योंकि सबकी विषयासक्ति कभी नहीं छूट सकेगी। जो-जो संन्यासियों के उपदेश से धार्मिक मनुष्य होंगे, वे सब जानो संन्यासियों के पुत्र-तुल्य हैं। 

[क्या संन्यासी कुछ भी कार्य न करें]

प्रश्न―संन्यासी लोग कहते हैं कि हमको कुछ कर्त्तव्य नहीं। अन्न-वस्त्र लेकर आनन्द में रहना, अविद्यारूप संसार से माथापच्ची क्यों करनी? अपने को ब्रह्म मानकर सन्तुष्ट रहना, कोई आकर पूछे तो उसको भी वैसा ही उपदेश करना कि 'तू भी ब्रह्म है, तुझको पाप-पुण्य नहीं लगता, क्योंकि शीत-उष्ण शरीर [के], क्षुधा-तृषा प्राण [के], और सुख-दुःख मन के धर्म हैं, जगत् मिथ्या है और जगत् के व्यवहार भी सब कल्पित अर्थात् झूठे हैं, इसलिये इनमें फसना बुद्धिमानों का काम नहीं; जो कुछ पाप-पुण्य होता है, वह देह और इन्द्रियों का धर्म है, आत्मा का नहीं', इत्यादि। और आपने और ही संन्यास का धर्म कहा। अब हम किसको सच्चा मानें?


उत्तर―क्या उनको अच्छे कर्म भी कर्त्तव्य नहीं? देखो!

"वैदिकैश्चैव कर्मभिः"

मनु० [६। ७५]।

मनु जी ने 'वैदिक कर्म' जो कि धर्मयुक्त सत्य-कर्म हैं, वे संन्यासियों के लिए भी अवश्य करने लिखे हैं। क्या भोजन- छादनादि कर्म वे छोड़ सकेंगे? जब ये कर्म नहीं छूटते तो उत्तम कर्म छोड़ने से क्या वे पतित नहीं होगें? जब गृहस्थों से अन्न-वस्त्रादि लेते हैं और उनका उपकार नहीं करते तो क्या वे महापापी नहीं होंगे? जैसे आंख से देखना, कान से सुनना न हो, तो आंख और कान का होना व्यर्थ है। वैसे ही जो संन्यासी सत्योपदेश और वेदादि- सत्यशास्त्रों का विचार-प्रचार नहीं करते, तो वे भी जगत् में व्यर्थ, भाररूप हैं। 


और जो 'अविद्यारूप संसार से माथापच्ची क्यों करनी' आदि लिखते और कहते हैं, वैसे उपदेश करनेवाले ही मिथ्यारूप, पापी और पाप के बढ़ानेहारे हैं।

[जीव और ब्रह्म एक नहीं]

जो कुछ शरीरादि से कर्म किये जाते हैं, वे सब आत्मा के ही हैं और उनका फल भोगनेवाला भी आत्मा है। 


जो जीव को ब्रह्म बतलाते हैं, वे अविद्यानिद्रा में सोते हैं। क्योंकि 'जीव' अल्प, अल्पज्ञ और 'ब्रह्म' सर्वव्यापक, सर्वज्ञ है। ब्रह्म नित्य-शुद्ध-मुक्त-स्वभावयुक्त है, और जीव कभी बद्ध, कभी मुक्त रहता है। ब्रह्म को सर्वव्यापक, सर्वज्ञ होने से भ्रम वा अविद्या कभी नहीं होती, और जीव को कभी विद्या और कभी अविद्या होती है। ब्रह्म जन्म-मरण, दुःख को कभी नहीं प्राप्त होता और जीव प्राप्त होता है। इसलिये उनका वह उपदेश मिथ्या है। 

[संन्यास-सम्बन्धी प्रचलित भ्रान्तियों का निराकरण]

प्रश्न―"संन्यासी सर्वकर्मविनाशी" [होते हैं], और अग्नि तथा धातु को स्पर्श नहीं करते। यह बात सच्ची है वा नहीं?


उत्तर―नहीं। "सम्यङ् नित्यमास्ते यस्मिन् यद्वा सम्यङ् न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स संन्यासः, स प्रशस्तो विद्यते यस्य स संन्यासी"=जो ब्रह्म और उसकी आज्ञा में [नित्य भलीभांति] उपविष्ट अर्थात् स्थित [होना] और जिससे दुष्ट-कर्मों का त्याग किया जाय, [वह संन्यास और] वह उत्तम स्वभाव जिसमें हो, वह 'संन्यासी' कहाता है। इससे सुकर्मों का कर्त्ता और दुष्ट-कर्मों का विनाश करनेवाला 'संन्यासी' कहाता है।

[संन्यासी का होना आवश्यक है]

प्रश्न―अध्यापन और उपदेश गृहस्थ किया करते हैं, पुनः संन्यासी का क्या प्रयोजन है?


उत्तर―सत्योपदेश सब आश्रमी करें और सुनें, परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है, उतनी गृहस्थों को नहीं। हां, जो ब्राह्मण हैं, उनका यही काम है कि पुरुष पुरुषों को और स्त्रीयाँ स्त्रियों को सत्योपदेश [किया करें] और पढ़ाया करें। जितना भ्रमण का अवकाश संन्यासी को मिलता है, उतना गृहस्थ ब्राह्मणादिकों को कभी नहीं मिल सकता। जब ब्राह्मण वेदविरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता संन्यासी ही होता है। इसलिये संन्यास का होना उचित है।

[जन-लाभार्थ संन्यासी एकत्र अधिक भी ठहरे]

प्रश्न―‘एकरात्रिं वसेद् ग्रामे’ 

[तुलना―नारदपरिव्राजकोपनिषद् उपदेश ४। १४] 


इत्यादि वचनों से संन्यासी को एकत्र एकरात्रि-मात्र रहना [चाहिये], अधिक निवास न करना चाहिये। 


उत्तर―यह बात थोड़े-से अंश में तो अच्छी है कि एकत्रवास करने से जगत् का उपकार अधिक नहीं हो सकता और अस्थानान्तर का भी अभिमान होता है, राग-द्वेष भी अधिक होता है, परन्तु जो विशेष उपकार एकत्र रहने से होता हो, तो रहै। जैसे, जनक राजा के यहां चार-चार महीने तक पञ्चशिखादि और अन्य संन्यासी कितने ही वर्षों तक निवास करते थे। और ‘एकत्र न रहना’ यह बात आजकल के पाखण्डी सम्प्रदायियों ने बनाई है, क्योंकि जो संन्यासी एकत्र अधिक रहेगा तो हमारा पाखण्ड खण्डित होकर अधिक न बढ़ सकेगा। 

[संन्यासी को धनादि देना]

प्रश्न― यतीनां काञ्चनं दद्यात्ताम्बूलं ब्रह्मचारिणाम्।

चौराणामभयं दद्यात्स नरो नरकं व्रजेत्॥

[तुलना―लघु पराशरस्मृति अ० १। श्लोक ५१]

इत्यादि वचनों का अभिप्राय यह है कि संन्यासियों को जो सुवर्ण दान दे, तो दाता को नरक प्राप्त होवे।


उत्तर―यह बात भी वर्णाश्रमविरोधी, सम्प्रदायी और स्वार्थसिन्धु-वाले पौराणिकों की कल्पी हुई है, क्योंकि संन्यासियों को धन मिलेगा तो वे हमारा खण्डन बहुत कर सकेंगे और हमारी हानि होगी तथा वे हमारे अधीन भी न रहेंगे। और जब भिक्षादि-व्यवहार हमारे आधीन रहेगा तो डरते रहेंगे। जब मूर्ख और स्वार्थियों को दान देने में अच्छा समझते हैं तो विद्वान् और परोपकारी संन्यासियों को देने में कुछ भी दोष नहीं हो सकता। देखो— 


विविधानि च रत्नानि विविक्तेषूपपादयेत्॥

मनु॰ [तुलना―अ० ११। श्लोक ६] 

=नाना प्रकार के रत्न, सुवर्णादि धन विविक्त अर्थात् संन्यासियों को देवे। 


और पूर्वोक्त श्लोक भी अनर्थक है, क्योंकि संन्यासियों को सुवर्ण देने से यजमान नरक को जावेगा, तो चांदी, मोती, हीरा आदि देने से स्वर्ग को जायगा।


प्रश्न―ये पण्डित जी इसका पाठ बोलते-बोलते भूल गये। यह ऐसा है कि "यतिहस्ते धनं दद्यात्" अर्थात् जो संन्यासियों के हाथ में धन देता है, वह नरक में जाता है।


उत्तर―यह भी वचन [किसी] अविद्वान् ने कपोलकल्पना से रचा है; क्योंकि जो हाथ में धन देने से दाता नरक को जाय, तो पग पर धरने वा गठरी बांधकर देने से स्वर्ग को जायगा। इसलिये ऐसी कल्पना मानने योग्य नहीं। हां, यह बात तो है कि जो संन्यासी योगक्षेम से अधिक रक्खेगा तो चोरादि से पीड़ित और मोहित भी हो जायगा; परन्तु जो विद्वान् है, वह अयुक्त व्यवहार कभी न करेगा, न मोह में फसेगा। क्योंकि वह प्रथम गृहाश्रम में अथवा ब्रह्मचर्य में, सब भोग और सब देख चुका है। और जो ब्रह्मचर्य से [संन्यासी] होता है, वह पूर्ण वैराग्ययुक्त होने से कभी कहीं नहीं फसता है। 

[क्या श्राद्ध में संन्यासी का आना हानिकर है?]

प्रश्न―लोग कहते हैं कि श्राद्ध में संन्यासी आवे वा [उसको कोई] जिमावे तो उसके पितर भाग जायें और नरक में गिरें। 


उत्तर―प्रथम तो मरे हुए पितरों का आना और किया हुआ श्राद्ध मरे हुए पितरों को पहुँचना ही असम्भव [है, तथा] वेद और युक्ति-विरुद्ध होने से मिथ्या है। और जब आते ही नहीं तो भाग कौन जायेंगे? जब अपने पाप-पुण्य के अनुसार ईश्वर की व्यवस्था से मरण के पश्चात् जीव जन्म लेते हैं, तो उनका आना कैसे हो सकता है? इसलिये यह भी बात पेटार्थी पुराणियों और वैरागियों की मिथ्या कल्पी हुई है। हां, यह तो ठीक है कि जहां संन्यासी जायेंगे, वहां यह मृतक-श्राद्ध करना [आदि] पाखण्ड वेदादि-शास्त्रों से विरुद्ध होने से दूर भाग जायगा।

[ब्रह्मचर्य से संन्यास लेने का अधिकारी]

प्रश्न―जो ब्रह्मचर्य से संन्यास लेवेगा, उसका निर्वाह कठिनता से होगा और 'काम' का रोकना भी अति कठिन है, इसलिये गृहाश्रमी और वानप्रस्थ होकर जब वृद्ध हो जाय, तभी संन्यास लेना अच्छा है। 


उत्तर―जो निर्वाह न कर सके, इन्द्रियों को न रोक सके, वह ब्रह्मचर्य से संन्यास न लेवे; परन्तु जो रोक सके वह क्यों न लेवे? जिस पुरुष ने विषय के दोष और वीर्यसंरक्षण के गुण जाने हैं, वह विषयासक्त कभी नहीं होता और उसका वीर्य विचाराग्नि का इन्धनवत् है, अर्थात् उसी में व्यय हो जाता है। जैसे वैद्य और औषधों की आवश्यकता रोगी के लिये है, नीरोगी के लिये नहीं; वैसे जिस पुरुष वा स्त्री का विद्या, धर्म-वृद्धि और सब संसार का उपकार करना ही प्रयोजन हो, वह विवाह न करे, जैसे पञ्चशिख-आदि पुरुष और गार्गी आदि स्त्रियां हुई थीं। इसलिये संन्यासी का होना अधिकारियों के लिये उचित है और जो अनधिकारी संन्यास ग्रहण करेगा तो आप डूबेगा, औरों को भी डुबावेगा। 

[सम्राट् और परिव्राट् की तुलना]

जैसे ‘सम्राट्’ सर्वोपरि चक्रवर्ती राजा होता है, वैसे ही ‘परिव्राट्’ संन्यासी होता है। प्रत्युत राजा अपने देश में वा सम्बन्धियों में सत्कार पाता है, और संन्यासी सर्वत्र पूजित होता है।

विद्वत्त्वं च नृपत्वं च नैव तुल्यं कदाचन। 

स्वदेशे पूज्यते राजा विद्वान् सर्वत्र पूज्यते॥१॥ 

यह चाणक्यनीतिशास्त्र का श्लोक है [३]।

विद्वान् और राजा कभी तुल्य नहीं होते; क्योंकि राजा अपने ही देश में मान पाता है और विद्वान सर्वत्र प्रतिष्ठा पाता है॥१॥  

[चारों आश्रमों के कर्त्तव्यों का संक्षेप से कथन]

इसलिये विद्या पढ़ने, सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिये ब्रह्मचर्य; सब प्रकार के उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के अर्थ गृहस्थ; विचार, ध्यान और ज्ञान बढ़ाने और तपश्चर्या करने के लिये वानप्रस्थ; और वेदादि-सत्यशास्त्रों का प्रचार, धर्म-व्यवहार का ग्रहण और दुष्टव्यवहार का त्याग, सत्योपदेश और सबको निःसंदेह करने आदि के लिये संन्यास आश्रम है। परन्तु जो इस संन्यास के मुख्य-धर्म सत्योपदेशादि नहीं करते, वे पतित और नरकगामी हैं। इससे संन्यासियों को उचित है कि सदा सत्योपदेश, शङ्का-समाधान, वेदादि- सत्यशास्त्रों का अध्यापन और वेदोक्त धर्म की वृद्धि प्रयत्न से करके सब संसार की उन्नति किया करें। 

[वैरागी, गुसाईं आदि संन्यासी नहीं]

प्रश्न―जो संन्यासी से अन्य साधु, वैरागी, गोसांई, खाखी आदि हैं, वे भी संन्यासाश्रम में गिने जायेंगे, वा नहीं?


उत्तर―नहीं; क्योंकि उनमें संन्यास का एक भी लक्षण नहीं। वे वेदविरुद्ध मार्ग में प्रवृत्त होकर वेद से अधिक अपने सम्प्रदाय के आचार्यों के वचन मानते और अपने ही मत की प्रशंसा करते [हैं]। मिथ्या-प्रपञ्च में फसकर अपने स्वार्थ के लिये दूसरों को अपने-अपने मत में फसाते हैं। सुधार करना तो दूर रहा, उसके बदले संसार को बहकाकर अधोगति को प्राप्त कराते और अपना प्रयोजन साधते हैं; इसलिये उनको संन्यासाश्रम में नहीं गिन सकते, किन्तु ये स्वार्थाश्रमी तो पक्के हैं; इसमें कुछ संदेह नहीं। 


संन्यासी आप धर्म में चलें और सब संसार को चलाते रहैं, जिससे आप और सब संसार इस लोक अर्थात् इस जन्म में, परलोक अर्थात् परजन्म में स्वर्ग अर्थात् सुख का भोग किया करें। 


यह संन्यास-आश्रम की शिक्षा संक्षेप से लिखी। अब इसके आगे राजधर्मों को लिखेंगे। 


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे 

सुभाषाविभूषिते वानप्रस्थसंन्यासाश्रमविषये

पञ्चमः समुल्लासः सम्पूर्णः॥५॥

Comments

Popular posts from this blog

सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश

चतुर्थः समुल्लासः

वैदिक गीता