चतुर्दशः समुल्लासः
अनुभूमिका (४)
मुसलमानों के मत का आधार कुरान है
मौलवियों के अर्थानुसार समीक्षा
सत्याऽसत्य के निर्णय के लिये समीक्षा
सज्जनों की रीति
विरोध घटाना ही उद्देश्य
चतुर्दश-समुल्लास
अल्लाह के नाम के साथ आरम्भ
अल्लाह के नाम के साथ आरम्भ करने वाला कौन है ?
दयालु मांस खाने की आज्ञा नहीं दे सकता
क्या पापकर्म भी ईश्वर के नाम पर आरम्भ होवें ?
पशुओं पर निर्दय तो दयालु कैसे !
खुदा परवरदिगार और दयालु है
परवरदिगार है, तो अन्य मतवालों के मारने की आज्ञा क्यों दी ?
क्या पापियों पर भी क्षमा करेगा ?
ईश्वर से ही सहाय चाहना
नित्य न्याय न कर, एक दिन ही क्यों ?
फिर सीधा मार्ग क्यों नहीं अपनाते ?
हमें श्रेष्ठों का मार्ग दिखा
पूर्व जन्म के पाप-पुण्य के विना सुख-दुःख देना अन्याय
विना कारण दया और क्रोध ईश्वर नहीं कर सकता
मुसलमानों से भिन्न मनुष्यों को काफ़िर कहना अविद्या की बात
अल्लाह ने इस सूरः को मनुष्यों से कैसे बुलवाया ?
देशविशेष की भाषा में ज्ञान देना खुदा का पक्षपात
कुरान परहेजगारों के लिये मार्गदर्शक
मार्गदर्शन तो पथभ्रष्टों के लिये आवश्यक
खुदा ने दौलत सब को क्यों न दी ?
क्या ख़ुदा पहली किताब में कुछ लिखना भूल गया था ?
वेद जैसी एक पुस्तक न बनाकर दो क्यों बनाईं ?
क्या ईसाई मुसलमान ही ख़ुदा की शिक्षा पर हैं ?
अन्य मतस्थों को काफ़िर कहना ठीक नहीं
अन्तःकरण, कानों पर मोहर लगाने वाला ख़ुदा ही दोषी
परमेश्वर को कोई भरमा नहीं सकता, अल्लाह ने रोग बढ़ाया
विना अपराध रोगादि बढ़ाना अन्याय है
ठट्टेबाज़ ख़ुदा नही हो सकता
पृथिवी बिछौना, आसमान छत
आकाश को छत बताना अविद्या
उस जैसी एक सूरत लाओ
क़ुरान जैसी सूरतें बनाई जा सकती हैं
क्या भौतिक आग से न डरें ?
धार्मिक किसी भी मत के हों, वे सुख पावेंगे पापी नहीं
मुसलमानों का बहिश्त
अब बहिश्त में स्त्रियों के दिन कैसे कटते होंगे ?
बहिश्त में औरतों की ही पूछ है, मर्दों की नहीं
ख़ुदा का फ़रिश्तों को धोखा देना
फरिश्तों को धोका दे अपनी बड़ाई करना ख़ुदा का काम नहीं
शैतान ने ख़ुदा का कहना न माना
ख़ुदा शैतान का कुछ भी न बिगाड़ सका
करोड़ों काफिर-रूप शैतान ख़ुदा को भारी हो जायेंगे
शैतान में शैतानी ख़ुदा ही से आई होगी।
शैतान की बहक से आदम को पृथिवी पर आना पड़ा
क्या ख़ुदा नहीं जानता था कि आदम को शैतान बहकायेगा ?
स्वर्ग से आदम पृथिवी पर कैसे आये ?
स्वर्ग के फ़रिश्तों के शरीर किस पदार्थ के बने थे ?
मिट्टी के बने हैं तो रोग-भोग और मौत भी होगी
क़यामत के दिन से डरो
बुराई से सदा डरना चाहिये
मूसा को किताब और मौजिजे देना
मूसा को किताब दी तो कुरान का होना निरर्थक
आश्चर्य-शक्ति ख़ुदा अब क्यों न देता है ?
मूसादि की पुस्तकों में ख़ुदा कुछ भूल गया था
पापक्षमा किये जायेंगे
पापक्षमा की बात से पापों की वृद्धि होती है
पापक्षमा से ख़ुदा अन्यायी होगा
पत्थर पर डण्डा मारने से १२ चश्मे बह निकले
डण्डा पत्थर पर मारने से झरनों का निकलना असम्भव
तुम निन्दित बन्दर हो जाओ
झूठा भय दिखाना खुदा का काम नहीं
ख़ुदा का मुर्दों को जिलाना
ख़ुदा मुर्दों को अब क्यों नहीं जिलाता ?
नरक, बहिश्त में सदा रहना
स्वर्ग, नरक अनन्त काल के लिये नही हो सकता
पाप-पुण्य बराबर नहीं तो समान फल कैसे ?
मुसलमान अपनों को न मारें, न उनको घरों से निकालें
दूसरों को मारना व घर से निकालना अन्याय
क्या ईश्वर जानता न था कि मुसलमान प्रतिज्ञा तोड़ेंगे ?
पाप हल्के न किये जायेंगे
विना भोगे पाप-पुण्य किसी के हल्के-भारी नहीं होते
सुख-दुःख कर्मानुसार ही मिलता है
मूसा और ईसा को प्रकट करना
फिर तो बाइबिल भी मुसलमानों का पुस्तक है
मौजिजों की बातें लोगों को बहकाने के लिये हैं
काफ़िरों पर ख़ुदा की लानत
आपस में एक-दूसरे को काफिर कहना मूर्खता है
अल्लाह काफिरों का शत्रु है
ख़ुदा लाशरीक नहीं
अल्लाह जिसे चाहता है प्रधान बनाता है
ख़ुदा की मर्जी ही से सब हो, तो अच्छा काम कौन करेगा ?
काफ़िरों से ईमान फिरने का डर
काफ़िरों के काम का ईश्वर को सही पता न था
अल्लाह का मुँह सब ओर
फिर मुसलमान किबले की ओर मुँह क्यों करते है ?
यदि अल्लाह का मुख है, तो सब ओर कैसे ?
'हो जा' कहने मात्र से सृष्टि की रचना
खुदा ने होने का हुक्म किसे दिया और किसने सुना ?
कोई भी पदार्थ विना तीन कारणों के नहीं बन सकता
काबे को पवित्र स्थान बनाया
काबे से पहले पवित्र स्थान ख़ुदा ने क्यों न बनाया ?
इबराहीम के दीन से मत फिरो
इबराहीम को ही खुदा ने क्यों पसन्द किया ?
किबले की ओर मुँह करो
किबले की ओर मुँह करना बुतपरस्ती है
मुसलमान बुतपरस्ती में पुराणियों से कम नहीं
मक्के की मस्जिद भी एक बड़ा बुत है
मुसलमानों को मूर्त्तिपूजा के खण्डन का अधिकार नहीं
अल्लाह के मार्ग में मारे गये जीवित हैं
ईश्वर के मार्ग में मरने-मारने की क्या आवश्यकता ?
मुर्दों पर आयत पढ़ना व्यर्थ कर्म
तोबाः और भलाई करने वालों पर दया, काफिरों पर धिक्कार
जो पक्षपाती है वह ईश्वर कभी नहीं हो सकता
शैतान के पीछे मत चलो
क्या अन्य-मतस्थ धर्मात्माओं को भी ख़ुदा कष्ट देगा ?
शैतान को ख़ुदा ने क्यों बनाया ?
जो शैतान सबको बहकाता है उसे कौन बहकाता है ?
मुर्दार, लोहू और सुअर का गोश्त हराम
क्या मनुष्य का मांस भक्ष्य है ?
क्या ईश्वर दूसरों को पुत्रवत् नहीं मानता ?
उपकारक गाय आदि पशुओं को मारना महा
पाप
रोजे की रात हलाल
रोजा चान्द्रायण व्रत का विकृत रूप
यह क्या व्रत, दिन में न खाया, रात को खा लिया ?
व्रत में स्त्रीसमागम निन्दित
रात्रि में भोजन खाना ठीक नहीं
कत्ल से कुफ्र बुरा
कुरान की इस शिक्षा से आपस में विरोध बढ़ा
अन्य-मतस्थों को मारने की बात अच्छी नहीं
वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता
इस्लाम में प्रवेश करो
ख़ुदा को झगड़ा पसन्द नहीं तो उसकी प्रेरणा क्यों ?
क्या ख़ुदा मुसलमानों का ही है ?
जिसको चाहे अनन्त रिज़क देवे
ख़ुदा की मर्जी से ही पदार्थ मिलें, तो परिश्रम व्यर्थ
रजस्वला से बचो, बीबियाँ खेती हैं
रजस्वला से दूर रहना तो ठीक, उन्हें खेती बताना ठीक नहीं
खुदा का उधार माँगना और दूना देना
क्या ख़ुदा का दीवाला निकल गया ?
अल्लाह जो चाहता है करता है
क्या लड़ाई भी खुदा की इच्छा से होती है ?
जो कुछ आसमान और पृथिवी पर है वह उसी के लिये
सृष्टि के पदार्थ जीवों के लिये, कुर्सी वाला ईश्वर कैसे ?
ख़ुदा पापियों को मार्ग नहीं दिखाता
सूर्य कहीं नहीं आता-जाता, अपनी परिधि में घूमता है
मार्गदर्शन तो पापियों को ही चाहिये
ख़ुदा की बाजीगरी
क्या ऐसी ही बातों से ख़ुदा की खुदाई है ?
किसी को नीति किसी को अनीति देना ख़ुदा का काम नहीं
क्या ब्याजखोर सदा कब्रों में ही रहेंगे ?
क्षमा और दण्ड ख़ुदा की मर्जी से
न्याय न करने से खुदा स्वयं पापी होगा
ईश्वर की मर्जी से तो जीव को सुख दुःख क्यों ?
मुसलमानों का बहिश्त
यह स्वर्ग है या वेश्यावन
बहिश्त में बीबियाँ कहाँ से आईं
बीबियाँ वहाँ सदा से हैं, तो पुरुष क्यों नहीं ?
क्या इस्लाम से पहले कोई ईश्वरीय मत न था ?
सबके साथ न्याय होगा सब कुछ ख़ुदा की मर्जी पर
कर्मानुसार फल मिलेगा तो पाप-क्षमा की बात व्यर्थ
असम्भव कार्य ईश्वर भी नहीं कर सकता
मुसलमानों से ही मैत्री पक्षपात
ख़ुदा किसी का पक्ष नहीं किया करता, चाहे वह कोई भी हो
ख़ुदा ने मरियम को पसन्द किया
अब ख़ुदा और फ़रिश्ते किसी से बातें क्यों नहीं करते ?
अल्लाह ने कहा हो जा और हो गया
ईश्वर ने धोखा दिया
ख़ुदा ने किससे कहा और कौन हो गया ?
धोखा खाने और छल-दम्भ करने वाला खुदा नहीं
मत मरो, मुसलमान हो तीन हजार फ़रिश्तों से सहाय ?
मुसलमान होने पर मार डालना अधर्म की बात
अब फ़रिश्तों को लेकर क्यों नहीं आता ?
काफिरों पर हमको सहाय कर
ख़ुदा ऐसी प्रार्थना कभी नहीं सुनता
जो लड़ाई विना परीक्षा न कर सके वह सर्वज्ञ नहीं
अल्लाह और रसूल पर ईमान लाओ
फिर ख़ुदा लाशरीक कैसे ?
क्या ख़ुदा पैगम्बर के विना अपना काम नहीं कर सकता ?
लड़ाई में लगे रहो
कुरान का ख़ुदा और पैगम्बर दोनों लड़ाई बाज़
अल्लाह और रसूल के भक्तों को ही बहिश्त
बहिश्त में रसूल की भी साझेदारी, तो खुदा स्वतन्त्र नहीं
अल्लाह अन्याय नहीं करता
कम या अधिक फल देन से ख़ुदा अन्यायी हो जावेगा
बहिश्त जिसमें नहरें और पवित्र बीबियाँ
अज्ञानियों को लोभ देकर फँसाने की बात
ख़ुदा के गुमराह किये को मार्ग नहीं
गुमराह करने से ख़ुदा भी शैतान क्यों नहीं ?
काफिरों को मारो, मुसलमानों को नहीं
अन्य की हत्या से बहिश्त, मुसलमान की हत्या से दोज़ख
अन्यों का इससे विपरीत मत
रसूल का विरोधी दोज़ख में
ये सब बातें अनाप्त की हैं
गुमराह कौन ?
फरिश्ते भी साथ है तो ख़ुदा लाशरीक कैसे ?
पाप क्षमा से तो पाप और बढ़ेंगे
काफ़िरों को दोज़ख, उन्हें मित्र न बनाओ
जिनका ख़ुदा धोखेबाज वे धोखेबाज क्यों न हों ?
क्या दुष्ट से मित्रता और श्रेष्ठ से शत्रुता उचित है?
पैग़म्बर पर ईमान लाओ
क्या ख़ुदा का पैग़म्बरों के विना काम नहीं चलता ?
मुर्दार, लोहू, सूअर का मांस हराम
हलाल, हराम की कल्पना ईश्वरीय नहीं
अल्लाह को उधार दो
क्या ख़ुदा का भी दिवाला निकल गया ?
ख़ुदा की मर्जी से क्षमा वा दण्ड
फिर तो बहिश्त वा दोज़ख में ख़ुदा ही जाये
काफ़िरों पर ग़म न खा
ख़ुदा और रसूल साथ तो ख़ुदा लाशरीक कैसे ?
ख़ुदा ने माफ किया जो हो चुका
पाप क्षमा की बात ख़ुदा की नहीं
जाली पैग़म्बर बनना पाप है
क्या किसी और ने भी पैग़म्बर बनने का यत्न किया ?
ख़ुदा और शैतान का झगड़ा
तूने मुझे गुमराह किया
ख़ुदा शैतान का कुछ न बिगाड़ सका
क्या यह ख़ुदा शैतान का भी शैतान नही है ?
जो फरिश्तों से बात करे वह देहधारी क्यों न
छह दिन में जगत् को बना पुनः आराम
दीनता से मालिक को पुकारो
जो सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक नहीं, वह क्या ख़ुदा
क्या ख़ुदा पुकारने पर ही सुनता है ?
आजकल ख़ुदा क्या कर रहा है ?
पृथिवी पर झगड़ते मत फिरो
न झगड़ने और जिहाद की बात परस्पर विरुद्ध
लाठी अज़गर बन गई
ऐसी झूठी बातें मानना अविद्या है
बेटों का क़तल, बीबियों को जीती रखना
एक को डुबोया, दूसरे को पार किया
निश्चय वह दीन झूठा है
लड़कों को क़तल करना व स्त्रियों को जीती रखना विषयासक्त मनुष्य का काम
एक जाति को डुबोना, दूसरी को पार करना
अधर्म
दूसरे मतों को झूठा बताना महा मूर्खता
क्या तौरेत, जबूर का मत झूठा था
ख़ुदा को देख मूसा का बेहोश होना
ख़ुदा अब अपने चमत्कार क्यों नहीं दिखलाता ?
असा पत्थर पर मारने से बारह चश्मों का फूटना
ख़ुदा को सुबह और शाम याद करो
धीमी और ऊँची आवाज़ में से कौन-सी सत्य ?
अल्लाह और रसूल के लिये लूट का माल
क्या डाका, लूटमार आदि उत्तम काम है ?
क़ाफिरों को मारो, मैं मदद करूँगा
मारकाट की बातें ख़ुदा की नहीं हो सकतीं
अल्लाह, रसूल को पुकारो; उनकी चोरी मत करो
क्या ख़ुदा बधिर है, जो पुकारे विना नहीं सुनता ?
ख़ुदा और रसूल का कौन-सा खजाना भरा था जिसे चुराते ?
क्या मकर करने वाला ख़ुदा अधर्मी नहीं
लूटके माल में ख़ुदा वा रसूल का ५वाँ भाग
मज़हब के नाम पर लड़ाई की बात सिखाना अच्छा नहीं
लूट के माल में ख़ुदा का भी हिस्सा
ऐसे मत न चलते, तो संसार में आनन्द होता
फ़रिश्तों द्वारा क़ाफिरों का नाश
करो जो तुम कर सको
वे फ़रिश्ते अब कहाँ सो गये ?
विधर्मियों को मारने की आज्ञा ईश्वर की नहीं हो सकती
नबी को युद्ध भड़काने का आदेश
लूट का माल हलाल
युद्ध भड़काने और लूट-मार की बातें ख़ुदा की नहीं
माँ-बाप को छोड़ दो, काफ़िरों से लड़ो
सर्वव्यापक ईश्वर बहिश्तवालों के ही पास कैसे ?
माँ-बाप को छुड़वाना अन्याय
अब ख़ुदा अपनी फौज लेकर क्यों नहीं आता ?
आपस में अन्याय न करो, ख़ुदा के हुक्म की प्रतीक्षा
आपस में न्याय, दूसरों से अन्याय अधर्म
मुसलमानों का बहिश्त
अल्लाह से हास्य-विनोद
बहिश्त का लालच देकर लोगों को बहकाना
क्या ख़ुदा भी ठट्ठा करने लगा ?
जिहाद करने वाले अच्छे
काफिरों के दिलों पर मोहर
ईमान न लाने वालों को बुरा बताना ठीक नहीं
भलाई करने से रोकना अन्याय
माल के बदले पवित्रता
काफिरों से लड़ने वालों को बहिश्त
माल लेकर पवित्र करना पाखण्ड
मुसलमानों के हाथ से गरीबों को मरवाना कहाँ का धर्म है ?
पड़ौसी काफ़िरों को धोखे से मरवाना
पड़ौसियों को धोखे से मारना विश्वासघात
६ दिन में जगत् रचना फिर विश्राम
आकाश अनादि है, उसे बनाने की बात अज्ञानता
६ दिन में जगत् बनाया, हो जा हो गया में कौन सत्य ?
व्यापक होता, तो ऊपर सिंहासन पर कैसे बैठता ?
क्या ख़ुदा की शिक्षा और दया केवल मुसलमानों के लिये है ?
क्या ख़ुदा केवल मुसलमानों का है ?
अन्यों को शिक्षा न देना अन्याय
अर्श पानी के ऊपर कर्मों की परीक्षा मृत्यु के पीछे उठाये जाना
पानी पर सिंहासन होने व एकदेशी होने से खुदा नहीं
परीक्षा करने से सर्वज्ञ भी नहीं
अल्लाह की निशानी ऊँटनी
पृथिवी व आकाश नहीं सुन सकते
ख़ुदा के पास ऊँटनी है, तो हाथी-घोड़े भी होंगे
ऊँटनी से खेत खिलाना अधर्म
सुभागी सदा रहेंगे बहिश्त में
बहिश्त सावधि है फिर सदा कैसे ?
बाप-बेटे का संवाद
जिस पुस्तक में इतिहास भरा हो वह ख़ुदा की कैसे ?
ख़ुदा की सर्वशक्तिमत्ता
आकाश को खम्भों की क्या आवश्यकता
अर्श पर है, तो सर्वव्यापक नहीं
ख़ुदा वृष्टिविज्ञान का ज्ञाता नहीं
अल्लाह गुमराह भी करता है और मार्ग भी दिखलाता है
जो गुमराह करे वह ख़ुदा नहीं शैतान
कुरान को अरबी में उतारना
ख़ुदा ऊपर रहता है तो वह एकदेशी हुआ अतः ईश्वर नहीं
पैगाम पहुँचाना हिसाब लेना-देना मानव का कार्य
किया सूर्य-चाँद को फिरने वाला
मनुष्य अन्यायी और पापी
क्या चन्द्र-सूर्य फिरते हैं पृथिवी नहीं ?
संसार में पुण्यात्मा भी हैं केवल पापी नहीं
निश्चय और अवश्य शब्द एकार्थ होने से पुनरुक्त
आदम में ख़ुदा की रूह, ख़ुदा ने शैतान को बहकाया
फिर तो आदम ख़ुदा का रूप हुआ
ख़ुदा ने शैतान को बहकाया तो वह भी शैतान क्यों नहीं ?
हर समुदाय में पैग़म्बर भेजे
कहा हो जा बस हो जाती है
तो फिर अन्य पैग़म्बरों की बात मान्य क्यों नहीं ?
किससे कहा हो जा और कौन हो गया
अल्लाह के लिये बेटियाँ
कसम अल्लाह की, भेजे पैग़म्बर
अल्लाह को बेटियों की क्या आवश्यकता ?
कसम खाना झूठों का काम है और कसम कौन खा रहा है ?
दिल, कान और आँख पर मोहर लगाना
पूरा दिया जावेगा हर जीव को
कान आदि पर मोहर लगा दी, तो ख़ुदा ही फल भोगे
पूरा फल मिलेगा, तो क्षमा व्यर्थ
काफ़िरों के लिये दोज़ख
गर्दन में कर्मपत्र बाँधना
केवल काफ़िरों के लिये दोज़ख की बात पक्षपात
कर्म-पुस्तक गर्दन में कहीं नहीं
आजकल ख़ुदा की बही कहाँ है ?
विना कर्म के अपनी मर्जी से फल देना अन्याय
समूद को ऊँटनी, दाहिने हाथ में अमलनामा
बहका जिसको बहका सके
क्या ऊंटनी ही ख़ुदा के होने में प्रमाण है ?
शैतान के द्वारा बहकाने वाला स्वयं शैतान क्यों नहीं ?
शीघ्र न्याय न करना अधर्म
यह तो पोपांबाई का न्याय ठहरा
पैग़म्बरों की गवाही की ईश्वर को क्या आवश्यकता ?
मुसलमानों की बहिश्त
उस बहिश्त में यहाँ से अच्छा क्या है ?
दुःख भोग के विना सुख का मजा नहीं
बस्तियों का नाश करना
क्या कभी सारी बस्ती पापी हो सकती है ?
ख़ुदा का डरना
सूर्य का कीचड़ के चश्मे में डूबना
याजूज माजूज फ़साद करने वाले
भय की बात ख़ुदा में कैसे
सूर्य किसी झील, नदी या समुद्र में कैसे डूब सकता है
ख़ुदा ने पृथिवी पर फ़साद क्यों होने दिया ?
फरिश्ते से मरियम का गर्भवती होना
तब तो फरिश्ते भी ख़ुदा ठहरे, क्योंकि वे ख़ुदा की रूह हैं
मरियम को गर्भवती करना अधर्म
काफिरों को बहकाने हेतु शैतान भेजा
फिर तो ख़ुदा ही फल भोगेगा
तोबाः करने से पाप क्षमा
तोबाः से पाप-क्षमा की बात पाप बढ़ाती है
जिसको चाहा, मारा
पृथिवी को थामने के लिये पहाड़
सातवें आसमान पर तख्त का निवासी अल्लाह जगत् का स्रष्टा, धर्त्ता, ज्ञाता नहीं हो सकता
तो भूकम्प आने पर पृथिवी क्यों हिलती है ?
औरत के बीच रूह फूँकना
कुरान में अश्लील बातें भरी पड़ी हैं
सूर्यादि का अल्लाह को प्रणाम
वहाँ सोने के कंगन पहिनेंगे
खुदा के घर की परिक्रमा
जड़ पदार्थों द्वारा प्रणाम कैसे ?
यहां के राजघरानों से बहिश्त में अधिक कुछ नहीं
मूर्त्तियों से मस्जिद बड़ा बुत
क़यामत के दिन मुर्दों को उठाना
क़यामत तक कबर में सड़ने देना अन्याय
हाथ, पाँव आदि की गवाही
अल्लाह का नूर आसमानों का
जड़ हाथ पग कैसे गवाही दे सकते हैं ?
ख़ुदा आग वा बिजली जैसा नहीं
जानवरों की पानी से उत्पत्ति
आज्ञा मानो ख़ुदा वा रसूल की
सबकी पानी से उत्पत्ति बताना अज्ञानता
ख़ुदा और पैग़म्बर साथ-साथ तो ख़ुदा लाशरीक कैसे ?
जिस दिन फट जावेगा आसमान
क़ाफिरों से लड़ो
बदलता है बुराई को भलाई से
तोबाः से अल्लाह की ओर
अमूर्त्त आकाश कैसे फटेगा ?
बुराई को भलाई से कैसे बदलेगा ?
तोबाः से पाप छूटे, तो पाप का बोलबाला हो जावेगा
बही की हमने तर्फ मूसा के
सबको खिलाना-पिलाना
क़यामत के दिन पापों की क्षमा
जब मूसा पर बही भेजी तो फिर दूसरों पर क्यों भेजी ?
जीव पैदा किये तो वे नष्ट भी होंगे
वही खिलाता-पिलाता है तो भोजन में भेद क्यों ?
क़यामत में न्याय से पाप वृद्धि
ऊँटनी की निशानी
ऊँटनी की निशानी देना जंगली व्यवहार
ख़ुदा ने मूसा को करामात दिखाई
वह मालिक अर्श बड़े का
मत सरकशी करो ऊपर मेरे
बाजीगरी का खेल दिखाना ईश्वर का काम नहीं
बड़े अर्श का स्वामी, तो एकदेशी होने से ईश्वर नहीं
सरकशी बुरी है, तो कुरान में इसकी प्रशंसा क्यों ?
पहाड़ों का बादलों की तरह चलना
ख़ुदा खबरदार है
बादलों की तरह पहाड़ चलते किसी ने नहीं देखे
शैतान के सामने सब खबरदारी धरी रह गई
हत्यारे मूसा को क्षमा करना
हत्यारे मूसा को क्षमा करना कहाँ का न्याय ?
अपनी इच्छा से किसी को राजा वा रङ्क बनाना अन्याय
मां-बाप की सेवा का आदेश
नूह का असम्भव आयुमान
माता-पिता की सेवा की बात ठीक
साढ़े नौ सौ वर्ष की आयु अब क्यों नहीं होती ?
दो बार उत्पत्ति; ईमान बालों को बहिश्त
केवल दो बार ही उत्पत्ति करता है, तो फिर क्या करता है ?
पापियों का न्याय के दिन निराश होना अच्छा है
बहिश्त में यहाँ से कुछ भी विशेषता नहीं
गहनों की चोरी पर फिर दोजख में डालता होगा
किसानों की खेती पर खुदा की दृष्टि
दिलों पर मोहर लगाई तो पाप का भागी भी ख़ुदा होगा
अल्लाह की विशेष निशानियाँ
आकाश की उत्पत्ति विद्याविरुद्ध
रात-दिन का एक-दूसरे में प्रवेश अज्ञानता
पानी में नाव चलाने में ख़ुदा की क्या कृपा ?
आसमान से आना-जाना
मौत का फ़रिश्ता
दोज़ख का भरना
चढ़ने, उतरने का काम एकदेशी कर सकता है, व्यापक नहीं
फरिश्तों से काम लेना दोषपूर्ण
मौत के फरिश्तों की मौत कौन ?
विना पाप दोज़ख में भेजना अन्याय
लड़ाई से न भागो
नबी की बीबियों को डराना
लड़ाई करना शिष्ट जनों का काम नहीं
नबी के घरेलू मामले में ख़ुदा का पक्षपात
नबी की बीबियों पर पाबन्दी
बेटे की औरत से विवाह
इस निकाह में ख़ुदा की भी आज्ञा
स्त्रियों को घर में बन्द रखना अन्याय
ख़ुदा भी रसूल के साथ
बेटे की औरत से विवाह करना अधर्म
नबी किसी का बाप नहीं, तो जैद किसका बेटा था ?
अनेक औरतें रखना दुःखदायी
व्यभिचार कोई भी करे, वह बुरा है
कुरान की बातें युक्तिशून्य और धर्म विरुद्ध
रसूल को दुःख देना अनुचित
उसकी बीबियों से निकाह करना पाप
सबको दुःख देने की मनाई क्यों न की ?
केवल मुसलमानों को दुःख न देने की बात पक्षपातपूर्ण
अन्य लोगों को मारने की बात महा-अधर्म
कब्रों से मुर्दो को जिलाना
अविनाशी घर
मुर्दों को जिन्दा करने की बात अवैज्ञानिक और असम्भव
अनेक स्त्रियों से संभोग दुःखदायी
बना हुआ घर नित्य कैसे ?
ख़ुदा द्वारा कुरान की कसम
ख़ुदा द्वारा कुरान की कसम क्यों ?
कुरान-प्रोक्त मार्ग सीधा मार्ग नहीं महाविद्वान् व गुणी ही सब पर प्रबल हो सकता है
कब्रों से निकलकर भागना
कहने मात्र से सृष्टिरचना
क्या पैर गवाही दे सकते है ?
किसे आज्ञा दी और कौन बना ?
बहिश्त में शराब और बीबियाँ
लूत को साथियों सहित मुक्ति
स्वर्ग में शराब और बीबियों के कारण दुर्गति
लूत जैसा शराबी और पतित भी पैग़म्बर
लूत जैसों को मुक्तिदाता ख़ुदा भी वैसा ही
बहिश्त में क्या-कुछ ?
शैतान ने ख़ुदा का हुक्म न माना
जहाँ बागादि हैं वह नित्य कैसे ?
जहाँ स्त्रियाँ है वहाँ सदा सुख नहीं
ख़ुदा शैतान का कुछ भी न बिगाड़ सका
दो हाथ से बनाने वाला ख़ुदा कैसे ?
क्या आसमान ही में ख़ुदा का घर है, पृथिवी में नहीं ?
ख़ुदा और शैतान में वाद-विवाद
शैतान को बहकाने वाला ख़ुदा स्वयं शैतान
जो स्वयं चोरी कराके दण्ड देवे वह महा अन्यायी
पापों का क्षमा होना, एक साथ सबका फैसला
पाप क्षमा करने से अपराधों का बोलबाला
पैग़म्बरों के भरोसे ख़ुदा न्याय करता है, तो वह असमर्थ
न्याय होगा, तो क्षमा करना वा दिलों पर मोहर लगाना अन्याय
ख़ुदा की ओर से कुरान का उतरना
तोबाः से पाप क्षमा
भोले लोगों को फँसाने के लिये ख़ुदा का नाम साथ में
इसी से मुसलमान पाप करने में कम डरते हैं
सात आसमानों की दो दिन में रचना
आंख कान आदि की गवाही
क्यों साक्षी दी तुमने ऊपर हमारे ?
अवश्य जिलाने वाला है मुर्दों को
वह क्या सर्वशक्तिमान जिससे सात आसमान दो दिन में बने ?
जड़ कान, आँख आदि कैसे गवाही देंगे
जीवों का अपने चमड़ों से पूछना सफेद झूठ
मुर्दा कभी जीवित नहीं होता
जीवों का शीघ्र न्याय क्यों न किया ?
उसके लिये आसमानों की कुञ्जियाँ
सब कुछ ख़ुदा की मर्जी से
देता है जिसको चाहे बेटे, बेटियाँ
ताले और कुञ्जियों की ख़ुदा को क्या जरूरत थी ?
विना पाप-पुण्य के फल देना अन्याय
बेटे, बेटियाँ देने की बात औरतों को फँसाने की चाल
तब तो फ़रिश्ते और पैग़म्बर खूब स्वार्थ साधते होंगे
ख़ुदा सर्वव्यापक है तो, परदे से बात करना व्यर्थ
ईसा का प्रमाण के साथ आना
फिर कुरान इंजील में परस्पर विरोध क्यों
दोज़ख में घसीटना विवाह करना
ये काम तो मनुष्यों के हैं, खुदा इन्हें कैसे कर सकता है ?
काफिरों की गर्दन काटो
बहिश्त में क्या कुछ है
काफ़िरों को मारने वाली बातें अशान्ति फैलाने वाली हैं
मुहम्मद साहब के विरोधियों का मारना पक्षपात
उस बहिश्त में यहाँ से विशेष कुछ नहीं
पृथिवी का हिलना, पहाड़ का उड़ना बहिश्त में क्या मिलेगा ?
क्या पृथिवी स्थिर है ? पहाड़ क्या पक्षी हैं, जो उड़ेंगे ?
ख़ुदा के दायें, बायें कैसे खड़े हुए हैं ?
फिर तो बहिश्त में बड़ी दुर्गति होती होगी
अपच से रोग भी बढ़ते होंगे ?
उन लड़कों के मा-बाप भी होंगे और रिश्तेदार भी
वहाँ कसाइयों की दुकानें भी होंगी, पशु पक्षी भी होंगे
मद्य-मांस खायेंगे तो स्त्रियाँ और लौंडे भी वहाँ होने ही चाहिये
वहाँ के लड़कों का विवाह कुमारियों से क्यों न किया ?
स्त्री-पुरुष की समान आयु में विवाह होना अनुचित
दोज़ख में कँटीले वृक्षों के कांटे भी लगते होंगे
क़सम खाना झूठों का काम
अल्लाह के मित्र
मज़हब के नाम पर लड़ाई कराना अनुचित
हलाल को हराम क्यों करता है ?
रसूल के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप
हम उसे दूसरी बीबियाँ दे देंगे
पैग़म्बर के घरेलू झगड़े से ख़ुदा भी चिन्तित
प्रथम आयत पर दो रोचक कहानियाँ
पैग़म्बर के लिये नयी बीबियाँ लाने की पेशकश
अनेक स्त्रियों के कारण पैग़म्बर साहब की दुर्दशा
अपनी औरतों को छोड़ बाँदियों में फँसना लज्जाजनक
ख़ुदा पैग़म्बर के घरेलू झगड़े में सरपंच
काफिरों से झगड़ने की आज्ञा
लड़ाई के लिये मुसलमानों को उकसाना अदूरदर्शिता
आठ जनों द्वारा ख़ुदा का तख्त उठाना
हाथों में कर्मपत्र देना
क्या आसमान कभी फट सकता है ?
कुरान का ख़ुदा निःसन्देह शरीरधारी है
कर्मपत्र बाँच के न्याय करना सर्वज्ञ का काम नहीं
पचास हजार वर्ष का दिन
कब्रों में से निकलकर दौड़ना
पचास हजार वर्ष तक ख़ुदा फरिश्ते आदि क्या करेंगे ?
क्या आजकल ख़ुदा की कचहरी बन्द होगी ?
ऊपर-तले सात आसमान बनाना
किया चाँद को बीच में प्रकाशक
जीवों को उत्पन्न किया, तो बहिश्त में सदा कैसे रहेंगे ?
आकाश निराकार पदार्थ है, उसे ऊपर-तले कैसे बनाया ?
सात आसमानों में प्रकाश कैसे
अल्लाह के साथ किसी को न पुकारो
मस्जिदें अल्लाह के लिये
कलमे में पैग़म्बर का नाम ख़ुदा के साथ कैसे ?
मस्जिदें ख़ुदा के घर हैं, तो यह बुतपरस्ती है
सूर्य और चाँद को इकट्ठा करना
सूर्य और चाँद कभी इकट्ठे नहीं हो सकते
बहिश्त में लड़के, खुदा का उन्हें शराब पिलाना
बहिश्त में लड़के किसलिये ?
ख़ुदा स्वयं शराब पिलायेगा तो उसकी महत्ता समाप्त
वहाँ बाल-बच्चे भी होंगे तो वे जीव कहाँ से आये ?
विना ख़ुदा की सेवा के बहिश्त की प्राप्ति अन्याय
बदला दिये जावेंगे कर्मानुसार
फरिश्तों, हूरों और लड़कों को बहिश्त कैसे मिला ?
क्या फ़रिश्ते जीवों को सजा देंगे ?
सूर्य का लपेटना, आसमान की खाल उतारना
ये सब बातें जङ्गलीपन की हैं
आसमान का फटना, तारों का झड़ना, दरिया को चीरना
ये सब बातें भी बालकों सदृश है
बुर्जो वाला आसमान
वह कुरान है बड़ा
आकाश को किले के समान बुर्जों बाला बतान अज्ञानता
फिर तो वह ख़ुदा भी विद्यारहित ही होगा
ख़ुदा का मकर के बदले मकर करना
क्या ख़ुदा भी ठगी करने लगा ?
ख़ुदा और फ़रिश्तों का आना
क्या दोज़ख भी इधर-उधर ले जाने की वस्तु है ?
ख़ुदा की ऊँटनी, मरी डालना
ख़ुदा ऊँटनी क्यों रखता है
क़यामत से पूर्व ही मरी कैसे ?
बाल पकड़ कर घसीटना
माथा भी कहीं झूठा वा अपराधी होता है ?
कुरान को अंधेरी रात में उतारा
एक ही रात में कुरान उतरने की बात असत्य
हर काम फ़रिश्तों से ही क्यों कराता है ?
यह पवित्रात्मा चौथा और कहाँ से आ गया ?
क्या शेष पवित्रात्मा नहीं ?
क़ुरान के विषय में लेखक के संक्षिप्त विचार
यह किताब न ईश्वर न विद्वान् की बनाई है
इसमें सत्य का अंश बहुत कम
यह पुनरुक्ति से भरी पड़ी है
मुसलमान मत की बात वेद में भी ?
वेद में मुसलमान मत की कहीं चर्चा नहीं
अथर्ववेद में अल्लोपनिषद् है ?
इसमें मुहम्मद साहब को रसूल लिखा है
अथर्ववेद में पैग़म्बर का कहीं उल्लेख नहीं है
अल्लोपनिषद् अकबर के समय में बनी
अरबी और संस्कृत शब्दों का निरर्थक मिश्रण
अन्य लोगों ने भी ऐसी ही उपनिषदें बना ली हैं
अथर्ववेद की किसी शाखा में भी यह वर्णन नहीं
सभी अपने मतों को अच्छा बताते हैं। किसे सत्य मानें
सत्यमत ग्रहण की इच्छा हो तो वैदिक मत ग्रहण करो
अनुभूमिका (४)
[मुसलमानों के मत का आधार कुरान है]
जो यह १४ चौदहवां समुल्लास मुसलमानों के मत-विषय में लिखा है सो केवल 'क़ुरान' के अभिप्राय से [है,] अन्य ग्रन्थ के मत से नहीं; क्योंकि मुसलमान 'क़ुरान' पर ही पूरा-पूरा विश्वास रखते हैं। यद्यपि फ़िरके होने के कारण किसी शब्द, अर्थ आदि विषय में विरुद्ध बात है, तथापि 'क़ुरान' पर सब ऐकमत्य हैं।
[मौलवियों के अर्थानुसार समीक्षा]
जो 'क़ुरान' अरबी भाषा में है, उस पर मौलवियों ने उर्दू में अर्थ लिखा है। उस अर्थ का देवनागरी अक्षर और आर्यभाषान्तर कराके पश्चात् अरबी के बड़े-बड़े विद्वानों से शुद्ध करवाके लिखा गया है। यदि कोई कहे कि यह अर्थ ठीक नहीं है, तो उसको उचित है कि मौलवी साहबों के तर्जुमाओं का पहिले खण्डन करे, पश्चात् इस विषय पर लिखे;
[सत्याऽसत्य के निर्णय के लिये समीक्षा]
क्योंकि यह लेख केवल मनुष्यों की उन्नति और सत्यासत्य के निर्णय के लिये [है] अर्थात् सब मतों के विषयों का थोड़ा-थोड़ा ज्ञान होवे, इससे मनुष्यों को परस्पर विचार करने का समय मिले और एक-दूसरे के दोषों का खण्डन कर गुणों का ग्रहण करें। मेरा न किसी अन्य मत पर, न इस मत पर झूठ-मूठ बुराई वा भलाई लगाने का प्रयोजन है किन्तु जो भलाई है, वही भलाई और जो बुराई है, वही बुराई सबको विदित होवे। न कोई किसी पर झूठ चला सके और न सत्य को रोक सके। और सत्यासत्य विषय प्रकाशित किये पर भी जिसकी इच्छा हो, वह न माने, वा माने; किसी पर बलात्कार नहीं किया जाता।
[सज्जनों की रीति]
और यही सज्जनों की रीति है कि अपने वा पराये दोषों को दोष और गुणों को गुण जानकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग करें और हठियों का हठ-दुराग्रह न्यून करें-करावें; क्योंकि पक्षपात से क्या-क्या अनर्थ जगत् में न हुए और न होते हैं? सच तो यह है कि इस अनिश्चित क्षणभंगुर जीवन में पराई हानि करके लाभ से स्वयं रिक्त रहना और अन्य को रखना मनुष्यपन से बहिः है।
[विरोध घटाना ही उद्देश्य]
इसमें जो कुछ विरुद्ध लिखा गया हो, उसको सज्जन लोग विदित कर देंवें। तत्पश्चात् जो उचित होगा तो माना जायेगा, क्योंकि यह लेख हठ-दुराग्रह, ईर्ष्या-द्वेष, वाद-विवाद और विरोध घटाने के लिये किया गया है, न कि इनको बढ़ाने के अर्थ। क्योंकि एक-दूसरे की हानि करने से पृथक् रह परस्पर को लाभ पहुँचाना, हमारा मुख्य कर्म है। अब यह (१४) चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों का मत-विषय सब सज्जनों के सामने निवेदन करता हूँ। विचार कर, इष्ट का ग्रहण, अनिष्ट का परित्याग कीजिये।
अलमतिविस्तरेण बुद्धिमद्वर्येषु।
इत्यनुभूमिका॥
अथ चतुर्दशसमुल्लासारम्भः
अथ यवनमतविषयं व्याख्यास्यामः
इसके आगे मुसलमानों के मत-विषय में लिखेंगे—
[अल्लाह के नाम के साथ आरम्भ]
१. आरंभ साथ नाम अल्लाह के, क्षमा करनेवाला दयालु।१।
मंजिल १। सिपारा १। सूरत १॥
[अल्लाह के नाम के साथ आरम्भ करने वाला कौन है ?]
समीक्षक―मुसलमान लोग ऐसा कहते हैं कि 'यह 'क़ुरान'१ ख़ुदा का कहा है', परन्तु इस वचन से विदित होता है कि इसका बनानेवाला कोई दूसरा है, क्योंकि जो परमेश्वर का बनाया होता तो “आरम्भ साथ नाम अल्लाह के” ऐसा न कहता, किन्तु “आरम्भ वास्ते उपदेश मनुष्यों के” ऐसा कहता। यदि मनुष्यों को शिक्षा करता है कि तुम ऐसा कहो तो भी ठीक नहीं, क्योंकि इससे पाप का आरम्भ भी ख़ुदा के नाम से होकर उसका नाम भी दूषित हो जाएगा।
[दयालु मांस खाने की आज्ञा नहीं दे सकता]
जो वह क्षमा और दया करनेहारा है तो उसने अपनी सृष्टि में मनुष्यों के सुखार्थ अन्य प्राणियों को मार, दारुण पीड़ा दिलाकर मरवाके, मांस खाने की आज्ञा क्यों दी? क्या वे प्राणी अनपराधी और परमेश्वर के बनाये हुए नहीं हैं?
[क्या पापकर्म भी ईश्वर के नाम पर आरम्भ होवें ?]
और यह भी कहना था कि 'मैं परमेश्वर के नाम पर अच्छी बातों का आरम्भ करता हूँ, बुरी बातों का नहीं'। इस कथन में गोलमाल है। क्या चोरी, जारी, मिथ्या-भाषणादि अधर्म का भी आरम्भ परमेश्वर के नाम पर किया जाय? इसी से देख लो, कसाई आदि मुसलमान, गाय आदि के गले काटने में भी ‘बिस्मिल्लाह’ इस वचन को पढ़ते हैं; जो यही इसका पूर्वोक्त अर्थ है तो बुराइयों का आरम्भ भी परमेश्वर के नाम पर मुसलमान करते हैं।
[हिंसा की आज्ञा देने से ख़ुदा 'दयालु' न रहेगा]
और मुसलमानों का ‘ख़ुदा’ दयालु भी न रहेगा, क्योंकि उसकी दया उन पशुओं पर न रही। और जो मुसलमान लोग इसका अर्थ नहीं जानते तो इस वचन का प्रकट होना व्यर्थ है। यदि मुसलमान लोग इसका अर्थ उलटा करते हैं तो सीधा अर्थ क्या है? इत्यादि॥१॥
१. क़ुरान―क़ुरान की मूलभाषा अरबी है। 'क़ुरान' मूलतः अरबी भाषा का शब्द है जिसका शुद्ध रूप 'क़ुर्आन' और 'क़ुरआन' है। फारसी में इसे 'क़ुरान' लिखा जाता है। 'क़ुरान' का अर्थ है―'पढ़ना'। इस प्रकार इसका अर्थ है―'पठनीय पुस्तक'।
[खुदा परवरदिगार और दयालु है]
२. सब स्तुति परमेश्वर के वास्ते है जो परवरदिगार अर्थात् पालन करनेहारा है सब संसार का।१। क्षमा करनेवाला दयालु है।२।
मं॰ १। सि॰ १। सूरतुल्फातिहा आयत १। २॥
[परवरदिगार है तो अन्य मतवालों के मारने की आज्ञा क्यों ?]
समीक्षक―जो 'क़ुरान' का ख़ुदा संसार का पालनेहारा होता और सब पर क्षमा और दया करता होता, तो अन्य मत-वालों और पशु आदि को भी मुसलमानों के हाथ से मरवाने का हुक्म न देता।
[क्या पापियों पर भी क्षमा करेगा ?]
जो क्षमा करनेहारा है तो क्या पापियों पर भी क्षमा करेगा? और जो वैसा है तो आगे लिखेंगे कि “काफ़िरों का क़त्ल करो” अर्थात् जो 'क़ुरान' और पैग़म्बर को न मानें वे काफ़िर हैं, ऐसा क्यों कहता? इसलिये 'क़ुरान' ईश्वरकृत नहीं दीखता॥२॥
[ईश्वर से ही सहाय चाहना]
३. मालिक दिन न्याय का।३। तुझ को ही हम भक्ति करते हैं और तुझसे ही सहाय्य चाहते हैं।४। दिखा हमको सीधा रास्ता।५।
मं॰१। सि॰ १। सू॰ १। आ॰ ३। ४। ५॥
[नित्य न्याय न कर एक ही दिन क्यों ?]
समीक्षक―क्या ख़ुदा नित्य न्याय नहीं करता? किसी एक दिन न्याय करता है? इससे तो अंधेर विदित होता है! उसी की भक्ति करना और उसी से सहाय चाहना तो ठीक है, परन्तु क्या बुरी बात का भी सहाय चाहना [ठीक है]
[फिर सीधे मार्ग को क्यों नहीं ग्रहण करते ?]
और सूधा मार्ग एक मुसलमानों का ही है वा दूसरों का भी? सूधे मार्ग को मुसलमान क्यों नहीं ग्रहण करते? क्या सूधा रास्ता बुराई की ओर का तो नहीं चाहते? यदि भलाई सबकी एक है, तो फिर मुसलमानों में ही विशेष कुछ भी न रहा और जो दूसरों की भलाई नहीं मानते, तो पक्षपाती हैं॥३॥
[हमें श्रेष्ठों का मार्ग दिखा, दुष्टों का नहीं]
४. [दिखा] उन लोगों का रास्ता कि जिन पर तूने निआमत अर्थात् ऐश्वर्य दोनों लोकों का, वा अत्यन्त दया की।६। और उनका मार्ग मत दिखा कि जिनके ऊपर तूने ग़ज़ब अर्थात् अत्यन्त क्रोध की दृष्टि की और न गुमराहों का मार्ग हमको दिखा।७।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ १। आ॰ ६। ७॥
[पूर्व जन्म के पाप-पुण्य के विना सुख-दुख देना अन्याय]
समीक्षक―जब मुसलमान लोग पूर्वजन्म और पूर्वकृत पुण्य-पाप नहीं मानते, तो किन्हीं को दोनों लोकों के ऐश्वर्य देने और किन्हीं को न देने से ख़ुदा पक्षपाती हो जायगा, क्योंकि विना पुण्य-पाप के सुख-दुःख देना केवल अन्याय की बात है,
[विना कारण दया और क्रोध ईश्वर नहीं कर सकता]
और विना कारण किसी पर दया और किसी पर क्रोधदृष्टि करना भी ख़ुदा के स्वभाव से बहिः है। क्योंकि विना भलाई-बुराई के वह दया अथवा क्रोध नहीं कर सकता और जब उनके पूर्वसञ्चित पुण्य-पाप ही नहीं, तो किसी पर दया और किसी पर क्रोध करना नहीं हो सकता॥
[मुसलमानों से भिन्न मनुष्यों को काफ़िर कहना अविद्या की बात]
और जो 'गुमराह' शब्द का अर्थ नोट में 'क़ाफिर', 'बेदीन' (=जो मुसलमान नहीं है) यह लिखा है, तो वह ख़ुदा केवल मुसलमानों का ही पक्षपाती होगा, अन्य का नहीं। क्योंकि जो सब मत-मतान्तरों में धर्मात्मा और पापात्मा होते हैं, तो धर्मात्मा भी इस लेख से काफ़िर हो सकते हैं, और जो मुसलमानों में बुरे काम करते हैं, क्या वे काफ़िर नहीं हैं? और जो काफ़िर हैं, वे सब मतों में बुरे हैं, और जो धर्मात्मा हैं वे सब मतों में उत्तम हैं, तो मुसलमानों से भिन्न मनुष्यों को काफ़िर कहना अविद्या की बात है।
[अल्लाह ने इस सूरः को मनुष्यों से कैसे बुलवाया ?]
और इस सिपारे और इस सूरः की टिप्पणी पर― "यह सूरः अल्लाह साहेब ने मनुष्यों के मुख से कहलाई कि सदा इस प्रकार से कहा करें”, [लिखा है]। जो यह बात है तो ‘अलिफ़, बे’ आदि अक्षर भी ख़ुदा ने ही पढ़ाये होंगे! जो कहो कि नहीं, तो विना अक्षरज्ञान के इस सूरः को कैसे पढ़ सके? क्या कण्ठ से ही बुलाये और बोलते गये? जो ऐसा है तो सब 'क़ुरान' ही कण्ठ से पढ़ाया होगा।
[देशविशेष की भाषा में ज्ञान देना ख़ुदा का पक्षपात]
इससे ऐसा समझना चाहिये कि जिस पुस्तक में पक्षपात की बातें पाई जायें, वह पुस्तक ईश्वरकृत नहीं हो सकता। जैसा कि अरबी भाषा में उतारने से अरबवालों को तो इसका पढ़ना सुगम, अन्य भाषाओं को बोलनेवालों को कठिन होता है, इसी से ख़ुदा में पक्षपात आता है। और जैसे परमेश्वर ने सृष्टिस्थ सब देशस्थ मनुष्यों पर न्यायदृष्टि से सब देशभाषाओं से विलक्षण संस्कृत-भाषा कि जो सब देशवालों के लिये एक-से परिश्रम से विदित होती है, उसी में वेदों का प्रकाश किया है, [वैसे] करता तो यह दोष न होता॥४॥
[क़ुरान परहेजगारों के लिये मार्गदर्शक]
५. यह पुस्तक कि जिसमें सन्देह नहीं, परहेज़गारों को मार्ग दिखलाती है।२। जो कि ईमान लाते हैं साथ ग़ैब (परोक्ष) के, नम़ाज पढ़ते, और उस वस्तु से जो हमने उनको दी, खर्च करते हैं और वे लोग जो उस किताब पर ईमान लाते हैं जो तेरी ओर वा तुझसे पहले उतारी गई, और विश्वास क़यामत पर रखते हैं।३। ये लोग अपने मालिक की शिक्षा पर हैं और ये ही छुटकारा पानेवाले हैं।४। निश्चय जो काफ़िर हुए और उन पर तेरा डराना, न डराना समान है, वे कभी ईमान न लावेंगे।५। अल्लाह ने उनके दिलों, कानों पर मोहर कर दी और उनकी आँखों पर परदा है और उनके वास्ते बड़ा अज़ाब है।६।
मं॰ १। सि॰१। सू० २। आ॰ २। ३। ४। ५। ६। ७॥
[मार्गदर्शन तो पथभ्रष्टों के लिये आवश्यक]
समीक्षक―क्या अपने ही मुख से अपनी किताब की प्रशंसा करना ख़ुदा की दम्भ की बात नहीं? जो 'परहेज़गार' अर्थात् धार्मिक लोग हैं वे स्वतः सच्चे मार्ग में हैं, और जो झूठे मार्ग पर हैं, उनको यह 'क़ुरान' मार्ग ही नहीं दिखला सकता, फिर किस काम का रहा?
[ख़ुदा ने दौलत सबको क्यों न दी ?]
क्या पाप-पुण्य और पुरुषार्थ के विना ख़ुदा अपने ही ख़जाने से खर्च करने को देता है? जो देता है तो सबको क्यों नहीं देता? और मुसलमान लोग परिश्रम क्यों करते हैं?
[क्या ख़ुदा पहली किताब में कुछ लिखना भूल गया था]
और जो 'बाइबल', 'इंजील' आदि पर विश्वास करना योग्य है तो मुसलमान 'इंजील' आदि पर ईमान, जैसा 'क़ुरान' पर है, वैसा क्यों नहीं लाते? और जो लाते हैं तो 'क़ुरान' का होना किसलिये? जो कहें कि 'क़ुरान' में अधिक बातें हैं, तो पहली किताब में लिखना ख़ुदा भूल गया होगा! और जो नहीं भूला तो 'क़ुरान' का बनाना निष्प्रयोजन है।
[वेद जैसी एक पुस्तक न बनाकर दो क्यों बनाई ?]
और हम देखते हैं तो 'बाइबल' और 'क़ुरान' की बातें कोई-कोई नहीं मिलती होंगी, नहीं तो सब मिलती हैं। एक ही पुस्तक जैसा कि वेद है, क्यों न बनाया? क्या क़यामत पर ही विश्वास रखना चाहिये, अन्य पर नहीं?॥
[क्या ईसाई-मुसलमान ही ख़ुदा की शिक्षा पर हैं ?]
क्या ईसाई और मुसलमान ख़ुदा की शिक्षा पर हैं, उनमें कोई भी पापी नहीं हैं? क्या जो ईसाई और मुसलमान अधर्मी हैं, वे भी छुटकारा पावें और दूसरे धर्मात्मा भी न पावें, तो बड़े अन्याय [और] अन्धेर की बात नहीं है?
[अन्य मतस्थों को काफिर कहना ठीक नहीं]
और क्या जो लोग मुसलमानी मत को न मानें, उन्हीं को क़ाफिर कहना, यह एकतरफ़ा डिगरी नहीं है?॥
[अन्तःकरण, कानों पर मोहर लगाने वाला ख़ुदा ही दोषी]
जो परमेश्वर ने ही उनके अन्तःकरण और कानों पर मोहर लगाई और उसी से वे पाप करते हैं, तो उनका कुछ भी दोष नहीं, यह दोष ख़ुदा का ही है, फिर उन पर सुख-दुःख वा पाप-पुण्य नहीं हो सकता। पुनः उनको सज़ा-जज़ा क्यों करता है? क्योंकि उन्होंने पाप वा पुण्य स्वतन्त्रता से नहीं किया॥५॥
[परमेश्वर को कोई भरमा नहीं सकता, अल्लाह ने रोग बढ़ाया]
६. वे अल्लाह और ईमानदारों को फरेब देते हैं….।९। उनके दिलों में रोग है, अल्लाह ने उनका रोग बढ़ा दिया।१०।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ९।१०॥
समीक्षक―क्या ईश्वर से किसी का कपट-छल अज्ञात रहता है? यदि रहता है तो वह खुदा ही नहीं। इससे ऐसा लिखना ही व्यर्थ है। भला, परमेश्वर को कौन भरमा सकता है? और जो भरमाने से बहक जाता है, वह ईश्वर ही नहीं हो सकता।
[विना अपराध रोगादि बढ़ाना अन्याय है]
क्यों विना अपराध खुदा ने उनका रोग बढ़ाया? दया न आई? उन बेचारों को बड़ा दुःख हुआ होगा! क्या यह शयतान (शैतान) से बढ़कर शयतानपन (शैतानपन) का काम नहीं है? किसी के मन पर मोहर लगाना, किसी का रोग बढ़ाना, यह खुदा का काम नहीं हो सकता, क्योंकि रोग का बढ़ना अपने पापों से है॥६॥
[ठट्टेबाज़ ख़ुदा नही हो सकता, पृथिवी बिछौना आसमान छत]
७. ….उनसे अल्लाह ठट्ठा करता है।१५। जिसने तुम्हारे वास्ते पृथिवी बिछौना और आसमान की छत को बनाया….।२२।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ १५।२२॥
[आकाश को छत बताना अविद्या की बात है]
समीक्षक―जब किसी का ठट्ठा करना उत्तम पुरुष का काम नहीं, तो खुदा को ठट्ठा करना योग्य कभी नहीं हो सकता, और जो ठट्ठेबाज़ है, वह खुदा ही नहीं॥
भला, आसमान छत किसी की हो सकती है? यह अविद्या की बात है। आकाश को छत के समान मानना हंसी की बात है। यदि किसी प्रकार की पृथिवी को आसमान मानते हों, तो यह उनकी घर की बात है॥७॥
[उस जैसी सूरत लाओ]
८. जो तुम उस वस्तु से सन्देह में हो जो हमने पैग़म्बर के ऊपर उतारी, तो उस कैसी एक सूरत (=सूरः) ले आओ और अपने साक्षी लोगों को पुकारो, अल्लाह के विना जो तुम सच्चे हो।२३। जो तुम न करो और कभी न कर सकोगे, तो उस आग से डरो कि जिसका इन्धन मनुष्य और पत्थर है, और जो काफ़िरों के वास्ते तैयार की गई है।२४।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ २३, २४॥
[कुरान जैसी सूरतें बनाई जा सकती हैं]
समीक्षक―भला, यह कोई बात है कि उसके सदृश कोई सूरत न बने? क्या अकबर बादशाह के समय में मौलवी फ़ैजी ने विना नुक़्ते का 'क़ुरान' नहीं बना लिया था?
[क्या भौतिक आग से न डरें ?]
और वह कौन-सी आग है जो दोज़ख की है? क्या इस [पृथवी की] आग से न डरना चाहिये? इसका भी इन्धन जो कुछ पड़े, सब है। जैसे 'क़ुरान' में लिखा है कि काफ़िरों के वास्ते दोज़ख की आग तैयार की गई है, तो वैसे पुराणों में लिखा है म्लेच्छों के लिये घोर नरक बना है! अब कहिये किसकी बात सच्ची मानी जाय?
[धार्मिक किसी भी मत के हों, वे सुख पावेंगे पापी नहीं]
अपने-अपने वचन से दोनों स्वर्गगामी और दूसरे के मत से दोनों नरकगामी होते हैं, इसलिये यह सबका झगड़ा झूठा है। किन्तु जो धार्मिक हैं वे सुख और जो पापी हैं वे दुखः सब मतों में पावेंगे॥८॥
[मुसलमानों का बहिश्त]
९. और आनन्द का संदेशा दे उन लोगों को जो कि ईमान लाये और काम किये अच्छे, यह कि उनके वास्ते बहिश्तें हैं जिनमें चलती हैं नहरें, जब उसमें से मेवों के भोजन दिये जावेंगे तब कहेंगे कि यह वो वस्तु है जो हम पहले इससे दिये गये थे; निश्चय और उनके लिये पवित्र बीबियाँ हैं, और वे सदैव वहाँ रहने वाले हैं।२४।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ २५॥
[अब बहिश्त में स्त्रियों के दिन कैसे कटते होंगे ?]
समीक्षक―भला, यह 'क़ुरान' का बहिश्त संसार से कौन-सी उत्तम बातवाला है? क्योंकि जो पदार्थ संसार में हैं, वे ही मुसलमानों के स्वर्ग में हैं। और इतना विशेष है कि यहाँ जैसे [स्त्री-] पुरुष जन्मते-मरते और आते-जाते हैं, उसी प्रकार स्वर्ग में नहीं। किन्तु यहाँ की स्त्रियाँ सदा नहीं रहतीं और वहाँ बीबियाँ अर्थात् उत्तम स्त्रियाँ [भी] सदा काल रहती हैं, तो जब तक क़यामत की रात न आवेगी, [और बहिश्त में जाने वाले पुरुषों का निर्णय होकर जब तक कि वे वहां नहीं जावेंगे] तब तक उन बिचारियों के दिन कैसे कटते होंगे?
हाँ, जो खुदा की उन पर कृपा होती होगी और खुदा के ही आश्रय समय काटती होंगी, तो ठीक है!
[बहिश्त में औरतों की ही पूछ है, मर्दों की नहीं]
क्योंकि यह मुसलमानों का स्वर्ग गोकुलिये गोसांइयों के गोलोक और मन्दिर के सदृश दीखता है; क्योंकि वहाँ स्त्रियों का मान्य बहुत है, पुरुषों का नहीं। वैसे ही खुदा के घर में भी स्त्रियों का मान्य अधिक है और उन पर खुदा का प्रेम भी बहुत है, उतना पुरुषों पर नहीं; क्योंकि बीबियों को खुदा ने बहिश्त में सदा [के लिये पहले से ही] रक्खा है और पुरुषों को नहीं। वे बीबियाँ विना ख़ुदा की मर्ज़ी स्वर्ग में कैसे ठहर सकतीं? जो यह बात ऐसी ही हो, तो ख़ुदा स्त्रियों में फस जाय॥९॥
[खुदा का फ़रिश्तों को धोखा देना]
१०. आदम को सारे नाम सिखाये, फिर फ़रिश्तों के सामने करके कहा―"जो तुम सच्चे हो मुझे इनके नाम बताओ।३९।" फिर कहा―"हे आदम! इनको इनके नाम बता दे", तब उसने बता दिये, तो खुदा ने फ़रिश्तों से कहा कि "क्या मैंने तुमसे नहीं कहा था कि निश्चय मैं पृथिवी और आसमान की छिपी वस्तुओं को और प्रकट-छिपे कर्मों को जानता हूँ।३३।"
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ३१। ३३॥
[फ़रिश्तों को धोखा दे अपनी बड़ाई करना ख़ुदा का काम नहीं]
समीक्षक―भला ऐसे, फ़रिश्तों को धोखा देकर अपनी बड़ाई करना खुदा का काम हो सकता है? यह तो एक दम्भ की बात है। इसको कोई विद्वान् नहीं मान सकता और न ऐसा अभिमान करता। क्या ऐसी बातों से ही खुदा अपनी सिद्धाई जमाना चाहता है? हां, जंगली लोगों में कोई कैसा ही पाखण्ड चला लेवे, चल सकता है; सभ्यजनों में नहीं॥१०॥
[शैतान ने खु़दा का कहना न माना]
११. जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि "बाबा आदम को दण्डवत् करो", देखो, सभों ने दण्डवत् किया परन्तु शैतान ने न माना और अभिमान किया, क्योंकि वो भी एक काफ़िर था।३४।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ३४॥
[ख़ुदा शैतान का कुछ भी न बिगाड़ सका]
समीक्षक―इससे ख़ुदा सर्वज्ञ नहीं, अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमान की पूरी बातें नहीं जानता। जो जानता होता तो शैतान को पैदा ही क्यों करता? और ख़ुदा में कुछ तेज भी नहीं है, क्योंकि शैतान ने ख़ुदा का हुक्म ही न माना और ख़ुदा उसका कुछ भी न कर सका।
[करोड़ों काफिर रूप शैतान ख़ुदा को भारी हो जायेंगे]
और देखिये! एक शैतान काफ़िर ने ख़ुदा के भी छक्के छुड़ा दिये, तो मुसलमानों के कथनानुसार जहाँ उससे भिन्न करोड़ों काफ़िर हैं, वहाँ मुसलमानों के ख़ुदा और मुसलमानों की क्या चल सकती है?
[शैतान में शैतानी ख़ुदा से ही आई होगी]
कभी-कभी ख़ुदा भी किसी का रोग बढ़ा देता है, किसी को गुमराह कर देता है। ख़ुदा ने ये बातें शैतान से सीखी होंगी और शैतान ने ख़ुदा से! क्योंकि विना ख़ुदा के शैतान का उस्ताद और कोई नहीं हो सकता॥११॥
[शैतान की बहक से आदम को पृथिवी पर आना पड़ा]
१२. हमने कहा कि "ओ आदम! तू और तेरी जोरू बहिश्त में रहकर आनन्द से१ जहाँ चाहो खाओ, परन्तु मत समीप जाओ उस वृक्ष के, कि पापी हो जाओगे।३५।" शैतान ने उनको डिगाया और उनको बहिश्त के आनन्द से खो दिया। तब हमने कहा कि "उतरो, तुम परस्पर शत्रु होगे। तुम्हारा ठिकाना पृथिवी है और एक समय तक लाभ है।३६।" आदम अपने मालिक की कुछ बातें सीखकर पृथिवी पर आ गया।३७।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ३५। ३६। ३७॥
[क्या ख़ुदा नहीं जानता था कि आदम को शैतान बहकायेगा ?]
समीक्षक―अब देखिये ख़ुदा की अल्पज्ञता! अभी तो स्वर्ग में रहने का आशीर्वाद दिया और पुनः थोड़ी देर में कहा कि 'निकलो'। जो भविष्यत् [की] बातों को जानता होता तो वर ही क्यों देता? और बहकानेवाले शैतान को दण्ड देने में असमर्थ भी दीख पड़ता है। और वह वृक्ष किसके लिये उत्पन्न किया था? क्या अपने लिये वा दूसरे के लिये? जो अपने लिये किया तो उसको क्या जरूरत थी? और जो दूसरे के लिये, तो क्यों रोका? इसलिये ऐसी बातें न ख़ुदा की और न उसके बनाये पुस्तक में हो सकती हैं।
[स्वर्ग से आदम पृथिवी पर कैसे आये ?]
आदम साहेब ख़ुदा से कितनी बातें सीख आये? और जब पृथिवी पर आदम साहेब आये तब किस प्रकार आये? क्या वह बहिश्त पहाड़ पर है वा आकाश पर? उससे कैसे उतर आये? अथवा पक्षी के तुल्य आये? अथवा ऊपर से पत्थर जैसे गिर पड़े?
[स्वर्ग के फरिश्तों के शरीर किस पदार्थ के बने थे ?]
इसमें यह विदित होता है कि जब आदम साहब मिट्टी से बनाये गये, तो इनके स्वर्ग में भी मिट्टी होगी। और जितने वहां और हैं वे भी वैसे ही फ़रिश्ते आदि होंगे, क्योंकि मट्टी के शरीर विना इन्द्रिय-भोग नहीं हो सकता।
[मिट्टी के बने हैं, तो रोग-भोग और मौत भी होगी]
जब पार्थिव शरीर है, तो मृत्यु भी अवश्य होना चाहिये। यदि मृत्यु होता है, तो वे वहां से कहां जाते हैं? और मृत्यु नहीं होता, तो उनका जन्म भी नहीं हुआ। जब जन्म है, तो मृत्यु अवश्य ही है। यदि ऐसा है, तो जो 'क़ुरान' में लिखा है कि बीबियाँ सदैव बहिश्त में रहती हैं, सो झूठा हो जायगा, क्योंकि उनका भी मृत्यु अवश्य होगा। जब ऐसा है तो बहिश्त में जानेवालों का भी मृत्यु निश्चित होगा॥१२॥
[क़यामत के दिन से डरो]
१३. उस दिन से डरो कि जब कोई जीव किसी जीव से कुछ भरोसा न रक्खेगा, न उसकी सिफ़ारिश स्वीकार की जावेगी, न उससे बदला लिया जावेगा और न वे सहाय्य पावेंगे।४८।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ४८॥
[बुराई करने से सब दिन डरना चाहिए]
समीक्षक―क्या वर्तमान दिनों में न डरें? बुराई करने से सब दिन डरना चाहिये। जब सिफ़ारिश न मानी जावेगी, तो फिर पैग़म्बर की गवाही वा सिफ़ारिश से ख़ुदा स्वर्ग देगा, यह बात क्योंकर सच हो सकेगी? क्या खुदा बहिश्तवालों का ही सहायक है, दोज़ख़वालों का नहीं? यदि ऐसा है, तो ख़ुदा पक्षपाती है॥१३॥
[मूसा को किताब और मौजिजे़ देना]
१४. हमने मूसा को किताब और मोज़िजे दिये….।५३।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ५३॥
[मूसा को किताब दी, तो कुरान का होना निरर्थक]
समीक्षक―जो मूसा को किताब दी तो 'क़ुरान' का होना निरर्थक है। और उसको आश्चर्यशक्ति दी, यह 'बाइबल' और 'क़ुरान' में भी लिखा है, परन्तु यह बात मानने योग्य नहीं, क्योंकि जो ऐसा होता तो अब भी होता; जो अब नहीं, तो पहिले भी न था।
[आश्चर्यशक्ति ख़ुदा अब क्यों नहीं देता ?]
जैसे स्वार्थी लोग आजकल भी अविद्वानों के सामने सिद्ध बन जाते हैं, वैसे उस समय भी कपट किया होगा। क्योंकि खुदा और उसके सेवक अब भी विद्यमान हैं, पुनः इस समय खुदा आश्चर्यशक्ति क्यों नहीं देता और [वे आश्चर्यकर्म क्यों] नहीं कर सकते?
[क्या मूसा आदि की पुस्तकों में ख़ुदा कुछ भूल गया था ?]
जो मूसा को किताब दी थी, तो पुनः 'क़ुरान' का देना क्या आवश्यक था? क्योंकि जो भलाई-बुराई करने-न करने का उपदेश [होता है वह] सर्वत्र एक-सा होता है, तो पुनः भिन्न-भिन्न पुस्तक करने से पुनरुक्त दोष होता है। क्या मूसा जी आदि को दिये हुये पुस्तक में खुदा [कुछ] भूल गया था?॥१४॥
[पाप क्षमा किये जायेंगे]
१५. ….और कहो कि क्षमा मांगते हैं, हम क्षमा करेंगे तुम्हारे पाप और अधिक भलाई करनेवालों के।५८।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ५८॥
[पाप-क्षमा की बात से पापों की वृद्धि होती है]
समीक्षक―भला, यह खुदा का उपदेश सबको पापी बनानेवाला है वा नहीं? क्योंकि जब पाप क्षमा होने का आश्रय मनुष्यों को मिलता है तब पापों से कोई भी नहीं डरता। इसलिये ऐसा कहनेवाला ख़ुदा और यह ख़ुदा का बनाया हुआ पुस्तक नहीं हो सकता;
[पाप-क्षमा से ख़ुदा भी अन्यायकारी बनता है]
क्योंकि वह न्यायकारी है, अन्याय कभी नहीं करता, और पाप-क्षमा करने में अन्यायकारी हो ही जाता है, किन्तु यथापराध दण्ड देने में ही न्यायकारी हो सकता है॥१५॥
[पत्थर पर डण्डा मारने से १२ चश्में बह निकले]
१६. जब मूसा ने अपनी क़ौम के लिये पानी माँगा हमने कहा कि "अपना असा पत्थर पर मार।" उसमें से बारह चश्मे बह निकले।६०।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ६०॥
[डण्डा पत्थर पर मारने से झरनों का निकलना सर्वथा असम्भव]
समीक्षक―अब देखिये, इन गपोड़ों के तुल्य दूसरा कोई होगा? एक पत्थर की शिला में डंडा मारने से बारह झरने निकलना सर्वथा असम्भव है। हाँ, उस पत्थर को भीतर से पोला कर, उसमें पानी भर, बाहर छिद्र करने से तो सम्भव है। अन्यथा नहीं॥१६॥
[तुम निन्दित बन्दर हो जाओ]
१७. ….हमने उनको कहा कि "तुम निन्दित बन्दर हो जाओ।६५।" यह एक भय दिया जो उनके सामने और पीछे थे उनको, और शिक्षा ईमानदारों को।६६।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ६५,६६॥
[झूठा भय दिखाना ख़ुदा का काम नहीं हो सकता]
समीक्षक―जो ख़ुदा ने 'निन्दित बन्दर हो जाना' केवल भय देने के लिये कहा था, तो उसका कहना मिथ्या हुआ वा छल किया। जो ऐसी बातें करता [है] और जिसमें ऐसी बातें हैं, वह न ख़ुदा और न यह पुस्तक ख़ुदा का बनाया हो सकता है॥१७॥
[ख़ुदा का मुर्दों को जिलाना]
१८. इस तरह मुर्दों को अल्लाह जिलाता है और तुमको अपनी निशानियाँ दिखलाता है कि तुम समझो।७३।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ७३॥
[ख़ुदा मुर्दों को अब क्यों नहीं जिलाता ?]
समीक्षक―क्या मुर्दों को अल्लाह जिलाता था तो अब क्यों नहीं जिलाता? क्या क़यामत की रात तक क़ब्रों में पड़े रहेंगे? आजकल दौरासुपुर्द हैं? क्या इतनी ही ईश्वर की निशानियाँ हैं? पृथिवी, सूर्य, चन्द्रादि निशानियाँ नहीं हैं? क्या जगत् में जो विविध रचनाविशेष प्रत्यक्ष दीखती हैं ये निशानियाँ कम हैं?॥१८॥
[नरक बहिश्त में सदा रहना]
१९. किन्तु जो बुराई कमायें और उन्हें उनका अपराध घेर लेवे तो वे लोग सदैव आग में वास करेंगे।८९। ….[जो ईमान लाये और अच्छे कर्म किये] वे सदैव काल बहिश्त अर्थात् वैकुण्ठ में वास करेंगे।८२।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ८१,८२॥
[स्वर्ग-नरक अनन्त काल के लिए नहीं हो सकता]
समीक्षक―कोई भी जीव अनन्त पुण्य-पाप करने का सामर्थ्य नहीं रखता, इसलिये सदैव स्वर्ग-नरक में नहीं रह सकते। और जो ख़ुदा ऐसा करे तो वह अन्यायकारी और अविद्वान् हो जावे।
[सब के पाप-पुण्य बराबर नहीं, तो समान फल कैसे ?]
क़यामत की रात न्याय होगा तो [उस एक रात तक के लिये] मनुष्यों के पुण्य-पाप बराबर होना उचित है। जो अनन्त नहीं है उसका फल अनन्त कैसे हो सकता है? और सृष्टि हुए सात-आठ हज़ार वर्षों से इधर ही बतलाते हैं, क्या इसके पूर्व ख़ुदा निकम्मा बैठा था, और क़यामत के पीछे भी निकम्मा रहेगा? ये सब बातें लड़कों के समान हैं, क्योंकि परमेश्वर के काम सदैव वर्तमान रहते हैं, और जितने जिसके पाप-पुण्य हैं, उतना ही उसको फल देता है। इसलिये 'क़ुरान' की यह बात सच्ची नहीं॥१९॥
[मुसलमान अपनों को न मारें, न उनको घरों से निकालें]
२०. जब हमने तुमसे प्रतिज्ञा कराई न बहाना लोहू किसी अपने आपस में, और किसी अपने आपस के घरों से न निकालना, फिर प्रतिज्ञा की तुमने, इसके तुम ही साक्षी हो।८४। फिर तुम वे लोग हो कि अपने आपस को मार डालते हो, [और] अपनों में से एक फ़िरके को उनके घरों से निकाल देते हो…. ।८५।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ८४। ८५॥
[दूसरों को मारना वा घर से निकालना अन्याय है]
समीक्षक―भला, प्रतिज्ञा करानी और करनी अल्पज्ञों की बात है वा परमात्मा की? जब परमेश्वर सर्वज्ञ है, तो ऐसा कड़ाकूट संसारी मनुष्य के समान क्यों करेगा? भला, यह कौन-सी भली बात है कि आपस का लोहू न बहाना, अपने मतवालों को घर से न निकालना, अर्थात् दूसरे मतवालों का लोहू बहाना और घर से निकाल देना! यह मिथ्या, मूर्खता और पक्षपात की बात नहीं है क्या?
[क्या ईश्वर जानता न था कि मुसलमान प्रतिज्ञा तोड़ेंगे ?]
क्या परमेश्वर प्रथम से ही नहीं जानता था कि ये प्रतिज्ञा से विरुद्ध करेंगे? इससे विदित होता है कि मुसलमानों का ख़ुदा भी ईसाइयों [के ईश्वर] की बहुत-सी उपमा रखता है। और यह 'क़ुरान' स्वतन्त्र पुस्तक नहीं बन सकता, क्योंकि इसमें से थोड़ी-सी बातों को छोड़कर बाकी सब बातें 'बाइबल' की हैं॥२०॥
[पाप हल्के न किये जायेंगे]
२१. ये वे लोग हैं कि जिन्होंने आख़िरत के बदले जिन्दगी यहां की मोल ले ली, उनसे पाप कभी हलका न किया जावेगा और न उनको सहायता दी जावेगी।८६।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ८६॥
[विना भोगे पाप-पुण्य किसी के हल्के भारी नहीं होते]
समीक्षक―भला, ऐसी ईर्ष्या-द्वेष की बातें कभी ईश्वर की ओर से हो सकती हैं? 'दूसरों की कहानी और दूसरों से कहनी' और किसी का पक्ष करना ख़ुदा की बात नहीं हो सकती किन्तु किसी मतावलम्बी मनुष्य की ओर से है। जिन लोगों के पाप हलके किये जायेंगे वा जिनको सहायता दी जावेगी वे कौन हैं? यदि वे पापी हैं और पापों का दण्ड दिये विना हलके किये जावेंगे, तो अन्याय होगा। जो सजा देकर हलके किये जावेंगे, तो जिनका बयान इस आयत में है, ये भी सजा पाके हलके हो सकते हैं। और दण्ड देकर भी हलके न किये जावेंगे, तो भी अन्याय होगा।
[प्रत्येक को सुख-दुःख कर्मानुसार ही मिलता है।]
जो पापों से हलके किये जानेवालों से प्रयोजन धर्मात्माओं से है, तो उनके पाप तो आप ही हलके हैं, खुदा क्या करेगा? इससे यह लेख विद्वान् का नहीं। और वास्तव में धर्मात्माओं को सुख और अधर्मियों को दुःख उनके कर्मों के अनुसार सदैव देना चाहिये॥२१॥
[मूसा और ईसा को प्रकट करना]
२२. निश्चय हमने मूसा को किताब दी और उसके पीछे हम पैगम्बर को लाये और मरियम के पुत्र ईसा को प्रकट मौज़िजे अर्थात् दैवीशक्ति और सामर्थ्य दिये उसके साथ रूहुल्कुदुस* के। जब तुम्हारे पास उस वस्तुसहित पैग़म्बर आया कि जिसको तुम्हारा जी चाहता नहीं, फिर तुमने अभिमान किया, एक मत को झुठलाया और एक को मार डालते हो।८७।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ८७॥
[तब तो बाइबल भी मुसलमानों का धर्म पुस्तक है]
समीक्षक―जब 'क़ुरान' में साक्षी है कि मूसा को किताब दी, तो उसका मानना मुसलमानों को आवश्यक हुआ और जो-जो उस पुस्तक में दोष हैं वे भी मुसलमानों के मत में आ गिरे।
[मोजिज़ों की बातें लोगों को बहकाने के लिए हैं]
और ‘मोजिज़े’ अर्थात् दैवीशक्ति की बातें सब अन्यथा हैं। भोले-भाले मनुष्यों को बहकाने के लिये लोगों ने झूठ-मूठ चला ली हैं, क्योंकि सृष्टिक्रम और विद्या से विरुद्ध सब बातें झूठी ही होती हैं। जो उस समय ‘मोजिज़े’ थे, तो इस समय क्यों नहीं? जो इस समय भी नहीं, तो उस समय भी न थे, इसमें कुछ भी सन्देह नहीं॥२२॥
[काफ़िरों पर ख़ुदा की लानत]
२३. …..और इससे पहिले काफ़िरों पर विजय चाहते थे, जो कुछ पहचाना था, जब उनके पास वह आया, झट काफ़िर हो गये, काफ़िरों पर लानत है अल्लाह की।८९।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ८९॥
[आपस में एक-दूसरे को काफ़िर कहना मूर्खता है]
समीक्षक―क्या जैसे तुम अन्य मत-वालों को काफ़िर कहते हो, वैसे वे तुमको काफ़िर नहीं कहते हैं? और उनके मत के ईश्वर की ओर से धिक्कार देते हैं? फिर कहो कौन सच्चा और कौन झूठा? जो विचार कर देखते हैं तो सब मत-वालों में झूठ पाया जाता है जो सच है सो सबमें एक-सा है। ये सब लड़ाइयाँ मूर्खता की हैं॥२३॥
[अल्लाह काफ़िरों का शत्रु है]
२४. आनन्द का सन्देशा ईमानदारों को।९७। अल्लाह, फ़रिश्तों, पैग़म्बरों, ज़िबरईल और मीकाईल का जो शत्रु है, अल्लाह भी ऐसे काफ़िरों का शत्रु है।९८।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ९७।९८॥
* 'रूहुल्कुदुस' कहते हैं जिबरईल को, जो कि हरदम मसीह के साथ रहता था।
[ख़ुदा लाशरीक नहीं]
समीक्षक―जब मुसलमान कहते हैं कि ‘ख़ुदा लाशरीक है' फिर यह फौज की फौज ‘शरीक’ कहां से कर दी? क्या जो शैतान का शत्रु है वह परमेश्वर का भी शत्रु है? क्या वह ख़ुदा की आज्ञा से विरुद्ध नहीं चलता? इससे ख़ुदा पक्षपाती होता है॥२४॥
[अल्लाह जिसे चाहता है प्रधान बनाता है]
२५. ….और अल्लाह ख़ास करता है, जिसको चाहता है दया करता है।१०५।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ १०५॥
[ख़ुदा की मर्जी ही से सब होवे, तो अच्छा काम कौन करेगा]
समीक्षक―क्या जो मुख्य [बनाने] और दया करने के योग्य न हो, उसको भी प्रधान बनाता और उस पर दया करता है? जो ऐसा है तो ख़ुदा बड़ा गड़बड़िया है; क्योंकि फिर अच्छा काम कौन करेगा और बुरे कर्म को कौन छोड़ेगा? क्योंकि ख़ुदा की प्रसन्नता पर सब बातें निर्भर करती हैं, कर्मफल पर नहीं। इससे सबको अनास्था होकर कर्मोच्छेदप्रसङ्ग होगा॥२५॥
[काफ़िरों से ईमान के फिरने का डर]
२६. ….ऐसा न हो कि काफ़िर लोग ईर्ष्या करके तुमको ईमान से फेर देवें, क्योंकि उनमें से ईमानवालों के बहुत से दोस्त हैं….।१०९।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ १०९॥
[काफ़िरों के काम का ईश्वर को सही पता न था]
समीक्षक―अब देखिये, ख़ुदा ही उनको चिताता है कि तुम्हारे ईमान को काफ़िर लोग न डिगा देवें, अर्थात् क्या वह सर्वज्ञ नहीं है? ऐसी बातें ख़ुदा की नहीं हो सकती हैं॥२६॥
[अल्लाह का मुंह सब ओर]
२७. ….तुम जिधर मुँह करो, उधर ही मुँह अल्लाह का है….. ।११५।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ११५॥
[फिर मुसलमान क़िबले की ओर मुंह क्यों करते हैं ?]
समीक्षक―जो यह बात सच्ची है तो मुसलमान ‘क़िब्ले’ की ओर मुंह क्यों करते हैं? जो कहें हमको क़िब्ले की ओर मुंह फेरने का हुक्म है, तो यह भी हुक्म है कि चाहे जिधर की ओर मुख करो। क्या एक बात सच्ची और दूसरी झूठी होगी?
[यदि अल्लाह का मुख है तो वह सब ओर कैसे ?]
और जो अल्लाह का मुख है, तो वह सब ओर हो ही नहीं सकता, क्योंकि एक मुख एक ओर रहेगा, सब ओर क्योंकर रह सकेगा? इसलिये यह संगत नहीं॥२७॥
[‘हो जा’ कहनेमात्र से सृष्टि की रचना]
२८. वो आसमान और भूमि का उत्पन्न करने वाला है, जब वो कुछ करना चाहता है यह नहीं कि उसको करना पड़ता है, किन्तु उसे कहता है कि 'हो जा'; बस हो जाता है।११७।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ ११७॥
[खु़दा ने होने का किसे हुक्म दिया, और किसने सुना ?]
समीक्षक―भला, ख़ुदा ने हुक्म दिया कि "हो जा", तो हुक्म किसने सुना? और किसको सुनाया? और कौन बन गया? किस कारण से बनाया? जब यह लिखते हैं कि सृष्टि के पूर्व सिवाय ख़ुदा के कोई भी दूसरा वस्तु न था, तो यह संसार कहां से आया? विना कारण के कोई भी कार्य नहीं होता, तो इतना बड़ा जगत् कारण के विना कहां से हुआ? यह बात केवल लड़केपन की है।
[कोई भी पदार्थ विना तीन कारणों के नहीं बन सकता]
पूर्वपक्षी―ख़ुदा की इच्छा से [जगत् हुआ]।
उत्तरपक्षी―क्या तुम्हारी इच्छा से मक्खी की एक टांग भी बन सकती है? जो कहते हो कि ख़ुदा की इच्छा [मात्र] से यह सब कुछ जगत् बन गया।
पूर्वपक्षी―ख़ुदा सर्वशक्तिमान् है, इसलिये जो चाहे सो कर लेता है।
उत्तरपक्षी―सर्वशक्तिमान् शब्द का क्या अर्थ है?
पूर्वपक्षी―जो चाहे सो कर सके।
उत्तरपक्षी―क्या ख़ुदा दूसरा ख़ुदा भी बना सकता है? अपने आप मर सकता है? मूर्ख, रोगी और अज्ञानी भी बन सकता है?
पूर्वपक्षी―ऐसा कभी नहीं बन सकता।
उत्तरपक्षी―इसलिये परमेश्वर अपने और दूसरों के गुण, कर्म, स्वभाव के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता। जैसे, संसार में किसी वस्तु के बनने-बनाने में तीन पदार्थ प्रथम अवश्य होते हैं—एक, बनानेवाला, जैसे कुम्हार; दूसरा, घड़ा बननेवाली मिट्टी; और तीसरा, उसका साधन जिससे घड़ा बनाया जाता है। जैसे कुम्हार, मिट्टी और साधन से घड़ा बनता है और बननेवाले घड़े के पूर्व कुम्हार, मिट्टी और साधन होते हैं, वैसे ही जगत् के बनने से पूर्व परमेश्वर, जगत् का कारण प्रकृति और उनके गुण, कर्म, स्वभाव अनादि हैं। इसलिये यह 'क़ुरान' की बात सर्वथा असम्भव है॥२८॥
[काबे को पवित्र स्थान बनाया]
२९. जब हमने लोगों के लिये काबे को पवित्र स्थान, सुख देने वाला, उपद्रव रहित बनाया, तुम नमाज़ के लिये इब्राहीम के स्थान को पकड़ो।१२५।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ १२५॥
[काबे से पहले पवित्र स्थान ख़ुदा ने क्यों न बनाया ?]
समीक्षक―क्या 'काबा' के पहले पवित्र स्थान खुदा ने कोई भी बनाया था वा नहीं? जो बनाया था तो 'काबा' के बनाने की कुछ आवश्यकता नहीं थी। जो नहीं बनाया था, तो बेचारे पूर्वोत्पन्नों को पवित्र स्थान के विना ही रक्खा था। जब 'क़ुरान' बनाया था, तब ईश्वर को पहला पवित्र स्थान बनाने का स्मरण न हुआ होगा॥२९॥
[इबराहीम के दीन से मत फिरो]
३०. वो कौन मनुष्य है जो इब्राहीम के दीन से फिर जावे सिवाय उसके जिसने अपनी जान को मूर्ख बनाया। और निश्चय हमने दुनिया में उसी [इब्राहीम] को पसन्द किया और निश्चय आख़िरत में वो ही नेक है।१३०।
मं॰ १। सि॰ १। सू॰ २। आ॰ १३०॥
[इबराहीम को ही ख़ुदा ने क्यों पसन्द किया ?]
समीक्षक―यह कैसे सम्भव है कि जो इब्राहीम के दीन को नहीं मानते वे सब मूर्ख हैं? इब्राहीम को ही खुदा ने पसन्द किया इसका क्या कारण है? यदि धर्मात्मा होने के कारण से किया तो धर्मात्मा और भी बहुत हो सकते हैं? यदि बिना धर्मात्मा होने के ही पसन्द किया तो अन्याय हुआ। हाँ! यह तो ठीक है कि जो धर्मात्मा है वही ईश्वर को प्रिय होता है; अधर्मी नहीं॥३०॥
[किबले की ओर मुंह करो]
३१. निश्चय हम तेरे मुख को आसमान में फिरता देखते हैं, अवश्य हम तुझे उस क़िब्ले को फेरेंगे कि पसन्द करे उसको, बस, अपना मुख मस्जिदुलहराम की ओर फेर, जहां कहीं तुम हो अपना मुख उसकी ओर फेर लो।१४४।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ १४४॥
[किबले की ओर मुंह करना बुतपरस्ती है]
समीक्षक―क्या यह छोटी बुतपरस्ती है? नहीं, किन्तु बड़ी है।
प्रश्न―हम मुसलमान लोग बुतपरस्त नहीं हैं किन्तु बुतशिकन अर्थात् बुतों=मूर्तियों के तोड़नेहारे हैं, क्योंकि हम 'काबा' को ख़ुदा नहीं समझते।
उत्तर―जिनको तुम बुतपरस्त समझते हो वे भी उस-उस मूर्त्ति को ईश्वर नहीं समझते, किन्तु उसके सामने परमेश्वर की भक्ति करते हैं। यदि बुतों के तोड़नेहारे हो तो उस मस्जिद 'काबा' के बड़े बुत को क्यों न तोड़ा?
[मुसलमान बुतपरस्ती में पुराणियों से कम नहीं]
प्रश्न―वाह जी! हमारे तो 'काबा' की ओर मुख फेरने का 'क़ुरान' में हुक्म है और इनको वेद में [मूर्ति के सामने भक्ति करने का] हुक्म नहीं है, फिर वे बुतपरस्त क्यों नहीं? और हम क्यों? क्योंकि हमको ख़ुदा का हुक्म बजाना आवश्यक है।
उत्तर―जैसे तुम्हारे लिये 'क़ुरान' में हुक्म है वैसे इनके लिये पुराण में आज्ञा है। जैसे तुम 'क़ुरान' को ख़ुदा का कलाम समझते हो वैसे पुराणी भी पुराणों को ईश्वर के अवतार व्यास जी का वचन समझते हैं। तुममें और इनमें बुतपरस्ती का कुछ भिन्न भाव नहीं है, प्रत्युत तुम बड़े बुतपरस्त [हो] और ये छोटे हैं,
[मक्के की मस्जिद भी एक बड़ा बुत है]
क्योंकि जब तक कोई मनुष्य अपने घर में से प्रविष्ट हुई बिल्ली को निकालने लगे, तब तक उसके घर में ऊंट प्रविष्ट हो जाय, वैसे ही मुहम्मद साहब ने छोटे बुत को मुसलमानों के मन से निकाला, परन्तु बड़ा बुत जो कि पहाड़ सदृश मक्के की मस्जिद है, वह सब मुसलमानों के मन में प्रविष्ट करा दी; क्या यह छोटी बुतपरस्ती है?
[मुसलमानों को मूर्त्ति पूजा के खण्डन का अधिकार नहीं]
हां, जो हम लोग वैदिक हैं वैसे ही तुम भी वैदिक हो जाओ, तो बुतपरस्ती आदि बुराइयों से बच सको, अन्यथा नहीं। तुमको, जब तक अपनी बड़ी बुतपरस्ती को न निकाल दो, तब तक, दूसरे छोटे बुतपरस्तों के खण्डन से लज्जित होके, निवृत्त रहना चाहिये और अपने को बुतपरस्ती से पृथक् करके पवित्र करना चाहिये॥३१॥
[अल्लाह के मार्ग में मारे गये जीवित हैं]
३२. जो लोग अल्लाह के मार्ग में मारे जाते हैं उनके लिये यह मत कहो कि 'ये मृतक हैं', किन्तु वे जीवित हैं….. ।१५४।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ १५४॥
[ईश्वर के मार्ग में मरने-मारने की क्या आवश्यकता ?]
समीक्षक―भला, ईश्वर के मार्ग में मरने-मारने की क्या आवश्यकता है? यह क्यों नहीं कहते हो कि यह बात अपने मतलब सिद्ध करने के लिये है कि यह लोभ देंगे तो लोग खूब लड़ेंगे, अपना विजय होगा, मारने से न डरेंगे, लूट-मार करने से ऐश्वर्य प्राप्त होगा, पश्चात् विषयानन्द करेंगे, इत्यादि स्वप्रयोजन के लिये यह विपरीत व्यवहार किया है॥३२॥
[मुर्दों पर आयत पढ़ना व्यर्थ कर्म]
३३. इन* लोगों पर इनके मालिक की ओर से दया और दरुद हैं और ये ही मार्ग पानेवाले हैं।१५७।
मं० १। सि० २। सू० २। आ० १५७॥
समीक्षक―अब देखिये, यह काम भी एक प्रकार की बुतपरस्ती है। भला, मुर्दों पर आयतें पढ़ने से क्या होता है? क्योंकि उसका जीवात्मा तो पहले ही चला गया, पुनः पाठ कौन सुनेगा? इसलिये यह व्यर्थ कर्म है; इत्यादि से यह पुस्तक ईश्वरकृत वा विद्वत्कृत भी नहीं है॥३३॥
[तोबा और भलाई करने वालों पर दया काफ़िरों पर धिक्कार]
३४. ….जो लोग छिपाते हैं उसको जो कि हमने प्रमाणों और शिक्षा से उतारा। उसके बीच में जो कुछ है अल्लाह की और धिक् देनेवालों की धिक्कार है…. ।१५९। परन्तु जिन्होंने तौबा और भलाई करी, उनके ऊपर फिर दया करता हूं और करूंगा…. ।१६०। जो लोग काफ़िर हुए, और काफ़िर ही रहे, फिर मर गये, उन पर खुदा, फरिश्तों और सब आदमियों की धिक्कार है।१६१। वे सदैव उसी में रहेंगे। उनका पाप हलका न किया जायगा और न वे ढील दिये जायेंगे।१६२। तुम्हारा एक ही मालिक है और कोई नहीं। वह क्षमा करनेवाला दयालु है।१६३।
मं॰ १। सि॰ २। आ॰ १५९-१६३॥
* यह वाक्य आशीर्वाद में नहीं समझा जाता है। इसका प्रचार मुसलमानों में ही है। कब्रवासियों पर पढ़ते हैं दरुद और फ़ातिहः॥
[जो पक्षपाती है वह ईश्वर कभी नहीं हो सकता]
समीक्षक―यह बात जो कि पहले पैगम्बरों के सामने, जैसा कि इब्राहिम साहब के सामने खतनः आदि के नियम बांधे थे उनको जो नहीं करते, और शहर मक्के में 'सफ़ा' और 'मुरब्बः' दो पहाड़ हैं, अरब के लोग इब्राहिम के समय से सदैव हज करते रहे, परन्तु मुसलमानों ने किसी कारण से छोड़ दी थी, उस पर यह आयत उतरी, उन्हीं को धिक्कार दिया जाता है और जो मुसलमान तौबा करले तो माफ हो जाय, परन्तु जो काफ़िर अर्थात् मुसलमान के मज़हब में नहीं हैं, उन पर ख़ुदा बड़ा खार खाता है। भला, ऐसी बातें कभी ख़ुदा की हो सकती हैं? और जो पक्षपाती है, वह ईश्वर कभी नहीं हो सकता। क्या मुसलमानों पर क्षमा करनेवाला दयालु है, अन्य पर दयाकर्त्ता 'दयाहीन' कहा जावे? इसी से न यह ईश्वरकृत पुस्तक और न इसमें कहा हुआ ईश्वर हो सकता है॥३४॥
[शैतान के पीछे मत चलो]
३५. ….और यह कि अल्लाह कठोर दुःख देने वाला है।१६५। ….शैतान का अनुसरण मत करो, निश्चय वो तुम्हारा प्रत्यक्ष शत्रु है।१६८। उसके विना और कोई नहीं जो बुराई और निर्लज्जता की आज्ञा दे और यह कि तुम कहो अल्लाह पर जो नहीं जानते।१६९।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ १६५। १६८। १६९॥
[क्या अन्य मतस्थ धर्मात्माओं को भी ख़ुदा कष्ट देगा ?]
समीक्षक―क्या कठोर दुःख देनेवाला ख़ुदा सब पापियों- पुण्यात्माओं पर दयालु है अथवा मुसलमानों पर दयालु और अन्य पर दयाहीन है? जो ऐसा है, तो वह ईश्वर ही नहीं हो सकता। और पक्षपाती नहीं है तो जो मनुष्य जहां कहीं धर्म करेगा उस पर ईश्वर दयालु और जो अधर्म करेगा उस पर दण्डदाता होगा। तो फिर बीच में मुहम्मद साहब और 'क़ुरान' को मानना आवश्यक न रहा।
[पथ भ्रष्ट करने वाले शैतान को ख़ुदा ने क्यों बनाया ?]
और जो सबको बुराई करानेवाला मनुष्यमात्र का शत्रु शैतान है, उसको खुदा ने उत्पन्न ही क्यों किया? क्या वह भविष्यत् की बात नहीं जानता था? जो कहो कि जानता था, परन्तु परीक्षा के लिये बनाया, तो भी नहीं बन सकता, क्योंकि परीक्षा करना अल्पज्ञ का काम है। सर्वज्ञ तो सब जीवों के अच्छे-बुरे कर्मों को सदा से ठीक-ठीक जानता है।
[जो शैतान सब को बहकाता है तो उसे कौन बहकाता है ?]
और शैतान सबको बहकाता है, तो शैतान को किसने बहकाया? जो कहो कि शैतान आपसे-आप बहका, तो अन्य भी आपसे-आप बहक सकते हैं, बीच में शैतान का क्या काम? और जो ख़ुदा ने ही शैतान को बहकाया, तो ख़ुदा शैतान का भी शैतान ठहरेगा। ऐसी बात ईश्वर की नहीं हो सकती। और जो कोई बहकाता है वह कुसंग तथा अविद्या से भ्रमित होता है॥३५॥
[मुर्दार, लोहू और सूअर का गोश्त हराम]
३६. तुम पर मुर्दार, लोहू और गोश्त सूअर का हराम है और अल्लाह के विना जिस पर कुछ पुकारा जावे… ।१७३।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ १७३॥
[क्या मनुष्य का मांस खाया जा सकता है ?]
समीक्षक―यहां विचारना चाहिये कि मुर्दा, चाहे आपसे-आप मरे वा किसी के मारने से दोनों बराबर हैं। हां, इनमें कुछ भेद भी है तथापि मृतकपन में कुछ भेद नहीं। जो लोहू हराम है, तो मरे पीछे लोहू शरीर में ही जमकर मांस हो जाता है, फिर मांस खाना मुसलमानों के लिये सर्वथा हराम रहा। और जब एक सूअर का निषेध किया, तो क्या मनुष्य का मांस खाना उचित है?
[क्या ईश्वर दूसरों को पुत्रवत् नहीं मानता ?]
क्या यह बात अच्छी हो सकती है कि परमेश्वर के नाम पर पशु आदि को अत्यन्त दुःख देके प्राणहत्या करनी? इससे ईश्वर का नाम कलंकित हो जाता है। हाय! ईश्वर ने विना पूर्वजन्म के अपराध के मुसलमानों के हाथ से दारुण दुःख क्यों दिलाया? क्या वह उन पर दयालु नहीं हैं? उनको पुत्रवत् नहीं मानता?
[उपकारक गाय आदि पशुओं को मारना महापाप है]
जिस वस्तु से अधिक उपकार होवे, उन गाय आदि के मारने का निषेध न करना, जानो हत्या कराकर खुदा जगत् का हानिकारक है और हिंसारूप पाप से कलंकित भी हो जाता है। ऐसी बातें खुदा और खुदा के पुस्तक की कभी नहीं हो सकतीं॥३६॥
[रोजे़ की रात हलाल]
३७. रोज़े की रात तुम्हारे लिये हलाल की गई कि मदनोत्सव करना अपनी बीबियों से। वे तुम्हारे वास्ते परदा हैं और तुम उनके लिये परदा हो। अल्लाह ने जाना कि तुम चोरी करते हो अर्थात् व्यभिचार, बस फिर अल्लाह ने क्षमा किया तुमको। बस, उनसे मिलो और ढूंढो जो अल्लाह ने तुम्हारे लिये लिख दिया है अर्थात् सन्तान; खाओ-पीयो, यहां तक कि प्रकट हो तुम्हारे लिये काले तागे से सुफेद तागा वा रात से जब दिन निकले…. ।१८७।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ १८७॥
[रोज़ा पौराणिकों के चान्द्रायण व्रत का विकृत रूप है]
समीक्षक―यहाँ यह निश्चित होता है कि जब मुसलमानों का मत चला वा उसके पहिले किसी ने किसी पौराणिक को पूछा होगा कि चान्द्रायण व्रत जो एक महीने-भर का होता है उसका विधि क्या है? वह शास्त्रविधि जो कि चन्द्र की कला घटने-बढ़ने के अनुसार ग्रासों को घटाना-बढ़ाना, और मध्याह्न में खाना लिखा है, उसको न जानकर कहा होगा कि चन्द्रमा का दर्शन करके खाना। उसको इन मुसलमान लोगों ने इस प्रकार का कर लिया।
[यह क्या व्रत, दिन में न खाया, रात को खा लिया ?]
परन्तु व्रत में स्त्री-समागम का त्याग है, वह एक बात खुदा ने बढ़ाकर कह दी कि तुम स्त्रियों का भी समागम भले ही किया करो, और रात में चाहे अनेक वार खाओ। भला, यह व्रत क्या हुआ? दिन में न खाया, रात को खाते रहे। परन्तु यह सृष्टिक्रम से विपरीत है कि दिन में न खाना रात में खाना॥३७॥
[कत्ल से कुफ्र बुरा]
३८. अल्लाह के मार्ग में लड़ो उनसे जो तुमसे लड़ते हैं…. ।१९०। मार डालो तुम उनको जहां पाओ, क़त्ल से कुफ़्र बुरा है…. ।१९१। यहां तक उनसे लड़ो कि कुफ़्र न रहे और होवे दीन अल्लाह का।१९३। ….उन्होंने जितनी ज़ियादती करी. उतनी ही तुम उनके साथ करो…. ।१९४।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ १९०। १९१। १९३। १९४॥
[क़ुरान की इस शिक्षा से आपस में विरोध ही बढ़ा]
समीक्षक―जो 'क़ुरान' में ऐसी बातें न होती, तो मुसलमान लोग इतना बड़ा अपराध जो कि अन्य मत-वालों पर किया है, न करते; और विना अपराधियों को मारना उन पर बड़ा पाप है।
[अन्य मतस्थों को मारने की बात अच्छी नहीं]
जो मुसलमान के मत का ग्रहण न करे, उसको कुफ़्र कहते हैं अर्थात् कुफ़्र से क़त्ल को मुसलमान लोग अच्छा मानते हैं। अर्थात् जो हमारे दीन को न मानेगा उसको हम क़त्ल करेंगे, सो करते ही आये। मज़हब पर लड़ते-लड़ते आप ही राज्य आदि से नष्ट हो गये।
[वैर से वैर कभी शान्त नहीं होता]
और उनका मन अन्य मत-वालों पर अति कठोर रहता है। क्या चोरी का बदला चोरी है कि जितना हमारा चोरी आदि अपराध चोर करें, क्या हम भी [उतनी ही] चोरी करें? यह सर्वथा अन्याय की बात है। क्या कोई अज्ञानी हमको गालियां दे, क्या हम भी उसको गालियां देवें? यह बात न ईश्वर, न ईश्वर के भक्त विद्वान् की और न ईश्वरोक्त पुस्तक की हो सकती है। यह तो केवल स्वार्थी, अज्ञानी मनुष्य की है॥३८॥
[इस्लाम में प्रवेश करो]
३९. ….अल्लाह झगड़ा करनेवालों को मित्र नहीं करता।२०५। ऐ लोगो ! जो ईमान लाये हो इस्लाम में प्रवेश करो…. ।२०८।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ २०५। २०८॥
[ख़ुदा को झगड़ा पसन्द नहीं, तो उसकी प्रेरणा क्यों ?]
समीक्षक―जो झगड़ा करनेवालों को ख़ुदा मित्र नहीं समझता तो क्यों आप ही मुसलमानों को झगड़ा करने में प्रेरणा करता है? और झगड़ालू मुसलमानों से मित्रता क्यों करता है?
[क्या ख़ुदा मुसलमानों का ही है, अन्यों का नहीं ?]
क्या मुसलमान के मत में मिलने में ख़ुदा राज़ी है? तो वह मुसलमानों का ही पक्षपाती है, सब संसार का ईश्वर नहीं। इससे यहां यह विदित होता है कि न 'क़ुरान' ईश्वरकृत [है] और इसमें कहा हुआ ईश्वर भी नहीं हो सकता है॥३९॥
[जिसको चाहे अनन्त रिज़क देवे]
४०. ….खुदा जिसको चाहे अनन्त रिज़क देवे।२१२।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ २१२॥
[ख़ुदा की मर्जी से ही पदार्थ मिलें तो परिश्रम व्यर्थ]
समीक्षक―क्या विना पुण्य के ख़ुदा ऐसे ही रिज़क देता है? फिर भलाई-बुराई का करना एक-सा ही हुआ, क्योंकि सुख-दुःख प्राप्त होना उसकी इच्छा पर है। इससे धर्म से विमुख होकर मुसलमान लोग यथेष्टाचार करते हैं और कोई-कोई इस 'क़ुरानोक्त' पर विश्वास न करके धर्मात्मा भी होते हैं॥४०॥
[रजस्वला से बचो; बीबियां खेती हैं]
४१. प्रश्न करते हैं तुझसे, रजस्वलाओं को कह वो अपवित्र हैं, पृथक् रहो, ऋतु समय में उनके समीप मत जाओ, जब तक कि वे पवित्र न हों। जब नहा लेवें, उनके पास उस स्थान से जाओ ख़ुदा ने आज्ञा दी….।२२२। तुम्हारी बीबियां तुम्हारे लिये खेतियां हैं, बस जाओ जिस तरह चाहो अपने खेत में….।२२३। तुमको अल्लाह लग़ब (=बेकार, व्यर्थ) शपथ के तोड़ने में नहीं पकड़ता….।२२५।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ २२२। २२३। २२५॥
[रजस्वला से दूर रहना तो ठीक; उन्हें खेती बताना ठीक नहीं]
समीक्षक―जो यह रजस्वला का स्पर्श-संग न करना लिखा है, यह अच्छी बात है। परन्तु जो यह स्त्रियों को खेती के तुल्य लिखा और 'जैसा जिस तरह से चाहो, जाओ' यह विषयी करने का भी कारण हो सकता है। जो ख़ुदा बेकार शपथ पर नहीं पकड़ता, तो सब झूठ बोलेंगे, शपथ तोड़ेंगे। इससे ख़ुदा झूठ का प्रवर्त्तक होगा॥४१॥
[ख़ुदा का उधार मांगना, और दूना देना]
४२. वो कौन मनुष्य है जो अल्लाह को उधार देवे। अच्छा, बस, अल्लाह द्विगुण करे उसके वास्ते….।२४५।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ २४५॥
[क्या ख़ुदा दीवालिया हो गया था, जो दुगुने पर कर्ज लिया ?]
समीक्षक―अब देखिये, यह 'क़ुरान' बनाने वा बनवानेवाले की मतलबसिन्धु की बात कि ईश्वर के नाम से लोगों से ठगके स्वप्रयोजन सिद्ध करना चाहता है! क्या ईश्वर खुद को धन नहीं दे सकता था और क्या उसका ख़जाना खाली हो गया था? क्या वह हुंडी, पुड़िया व्यापारादि में मग्न होने से टोटे में फंस गया था जो उधार* लेने लगा? और एक का दो-दो देना स्वीकार करता है, क्या यह साहूकारों का काम है? किन्तु ऐसा काम तो दिवालियों वा जिनके ख़र्च अधिक हो और आय न्यून हो उनको करना पड़ता है, ईश्वर को नहीं॥४२॥
[अल्लाह जो चाहता है, करता है]
४३. ….उनमें से कोई ईमान लाया और कोई काफ़िर हुआ। जो अल्लाह चाहता न लड़ते, जो चाहता है अल्लाह करता है।२५३।
मं॰ १। सि॰ २। सू॰ २। आ॰ २५३॥
[क्या सब लड़ाई ईश्वर की इच्छा से होती है]
समीक्षक―क्या जितनी लड़ाई होती है वह ईश्वर की ही इच्छा से [होती है]? क्या वह अधर्म करना चाहे, तो कर सकता है? जो ऐसी बात है, तो वह ख़ुदा ही नहीं, क्योंकि भले मनुष्यों का यह कर्म नहीं कि शान्तिभंग करके लड़ाई करावें। इससे विदित होता है कि यह 'क़ुरान' न ईश्वर का बनाया और न किसी धार्मिक विद्वान् का रचित है॥४३॥
* इसी आयत के भाष्य में तफ़सीर हुसैनी में लिखा है कि एक मनुष्य मुहम्मद साहब के पास आया। उसने कहा कि "ऐ रसूलल्लाह! खुदा कर्ज़ क्यों माँगता है?" उन्होंने उत्तर दिया कि "तुमको बहिश्त में ले जाने के लिये।" उसने कहा कि "जो आप ज़मानत लें, तो मैं दूँ।" मुहम्मद साहब ने उसकी ज़मानत ले ली। खुदा का भरोसा न हुआ, उसके दूत का हुआ।
[जो कुछ आसमान और पृथिवी पर है सब उसी के लिये]
४४. ….जो कुछ आसमान और पृथिवी पर है सब उसी के लिये है।…. उसकी कुर्सी ने आसमान और पृथिवी को समा लिया है….।२५५।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ २। आ॰ २५५॥
[सृष्टि के पदार्थ जीवों के लिए हैं; कुर्सीवाला ईश्वर कैसे ?]
समीक्षक―जो आकाश और भूमि में पदार्थ हैं वे सब जीवों के लिये परमात्मा ने उत्पन्न किये हैं, अपने लिये नहीं; क्योंकि वह पूर्णकाम है। उसको किसी पदार्थ की अपेक्षा नहीं। जब उसकी कुर्सी है, तो वह एकदेशी है। जो एकदेशी होता है वह ईश्वर नहीं कहाता, क्योंकि ईश्वर तो व्यापक है॥४४॥
[ख़ुदा पापियों को मार्ग नहीं दिखाता]
४५. …..अल्लाह सूर्य को पूर्व से लाता है। बस, तू पश्चिम से ले आ। जो क़ाफिर था, हैरान हुआ। निश्चय अल्लाह पापियों को मार्ग नहीं दिखलाता।२५८।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ २। आ॰ २५८॥
[सूर्य कहीं नहीं आता जाता, अपनी परिधि में घूमता है]
समीक्षक―देखिये, यह अविद्या की बात! भला सूर्य न पूर्व से पश्चिम और न पश्चिम से पूर्व कभी आता-जाता है। वह तो अपनी परिधि में घूमता रहता है। इससे निश्चित जाना जाता है कि 'क़ुरान' के कर्त्ता को न 'खगोल' और 'भूगोल विद्या' आती थी।
[मार्ग दर्शन तो पापियों को ही चाहिये]
जो पापियों को मार्ग नहीं बतलाता तो पुण्यात्माओं के लिये भी मुसलमानों के ख़ुदा की आवश्यकता नहीं, क्योंकि धर्मात्मा तो धर्म-मार्ग में ही होते हैं; मार्ग तो धर्म से भूले हुए मनुष्यों को बतलाना होता है। सो कर्त्तव्य के न करने से 'क़ुरान' के कर्त्ता की बड़ी भूल है॥४५॥
[ख़ुदा की बाजीगरी]
४६. …..कहा, चार जानवरों [में] से ले उनकी सूरत पहिचान रख, फिर हर पहाड़ पर उनमें से एक-एक टुकड़ा रख दे, फिर उनको बुला, दौड़ते तेरे पास चले आवेंगे….।२६०।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ २। आ॰ २६०॥
[क्या ऐसी ही बातों से ख़ुदा की खुदाई है ?]
समीक्षक―वाह-वाह देखो जी! मुसलमानों का ख़ुदा भानमती के समान खेल कर रहा है ! क्या ऐसी ही बातों से ख़ुदा की ख़ुदाई है? बुद्धिमान् लोग ऐसे ख़ुदा को तिलाञ्जलि देके दूर रहेंगे और मूर्ख लोग फसेंगे। इससे ख़ुदा को बड़ाई के बदले बुराई पल्ले पड़ेगी॥४६॥
[किसी को नीति, किसी को अनीति देना ख़ुदा का काम नहीं]
४७. जिसको चाहे नीति देता है….।२६९।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ २। आ॰ २६९॥
समीक्षक―जब जिसको चाहता नीति देता है। तो जिसको नहीं चाहता है उसको अनीति देता होगा? यह बात ईश्वरता की नहीं। किन्तु जो पक्षपात छोड़ सबको नीति का उपदेश करता है, वही ईश्वर और आप्त हो सकता है, अन्य नहीं॥४७॥
[क्या ब्याजखोर सदा कब्रों में ही रहेंगे ?]
४८. जो लोग ब्याज खाते हैं वे क़ब्र से नहीं खड़े होंगे….।२७५।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ २। आ॰ २७५॥
समीक्षक―क्या वे क़ब्रों में ही पड़े रहेंगे? और जो पड़े रहेंगे, तो कब तक? ऐसी असम्भव बात ईश्वर के पुस्तक की तो नहीं हो सकती है, किन्तु बालबुद्धियों की तो हो सकती है॥४८॥
[क्षमा और दण्ड ख़ुदा की मर्जी से]
४९. …..वह कि जिसको चाहे क्षमा करेगा, जिसको चाहे पापी बनावेगा, क्योंकि वह सब वस्तु पर बलवान् है।२८४।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ २। आ॰ २८४॥
[यथा योग्य न्याय न करने से ख़ुदा स्वयं ही पापी होगा]
समीक्षक―क्या क्षमा के योग्य पर क्षमा न करना, अयोग्य पर क्षमा करना गवरगंड राजा के तुल्य यह कर्म नहीं है? यदि ईश्वर जिसको चाहता पापी वा पुण्यात्मा बनाता है तो जीव को पाप-पुण्य न लगना चाहिये,
[ईश्वर की मर्जी से किया, तो जीव को सुख दुःख क्यों ?]
क्योंकि जब ईश्वर ने उसको वैसा किया तो जीव को दुःख-सुख न होना चाहिये। जैसे सेनापति की आज्ञा से किसी भृत्य ने किसी को मारा वा रक्षा की उसका फलभागी वह नहीं होता, वैसे वे भी नहीं॥४९॥
[मुसलमानों का बहिश्त; नहरें बीबियां और सेवक]
५०. कह इससे अच्छी और क्या परहेज़गारों को खबर दें कि अल्लाह की ओर से बहिश्तें हैं, जिनमें नहरें चलती हैं। उसी में सदैव रहनेवाली शुद्ध बीबियाँ हैं, अल्लाह की प्रसन्नता से। अल्लाह उनको देखनेवाला है साथ बन्दों के।१५।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ ३। आ॰ १५॥
[यह स्वर्ग है वा वेश्यावन ?]
समीक्षक―भला, यह स्वर्ग है किंवा वेश्या-वन? इसको ईश्वर कहना [चाहिये] वा स्त्रैण अर्थात् स्त्रियों में प्रसक्त? कोई भी बुद्धिमान्, ऐसी बातें जिसमें हों, उसको परमेश्वर का किया पुस्तक कभी नहीं मान सकते।
[बीबियां बहिश्त में कहां से आईं ?]
यह पक्षपात क्यों करता है? जो बीबियां बहिश्त में सदा रहती हैं, वे यहां जन्म पाके वहां गई हैं वा वहीं उत्पन्न हुई हैं? यदि यहां जन्म पाकर वहां गई हैं, और क़यामत की रात से पहले ही वहां बीबियों को बुला लिया तो उनके खाविन्दों को क्यों न बुला लिया? और क़यामत की रात में सब न्याय होगा, इस नियम को क्यों तोड़ा? यदि वहीं जन्मीं हैं, तो क़यामत तक वे क्योंकर निर्वाह करती हैं? यदि फरिश्तों से निर्वाह करती हैं, तो यहाँ से बहिश्त में जानेवाले मुसलमानों को ख़ुदा बीबियां कहां से देगा? क्या क्षतयोनि ही उनको देगा?
[बीबियां सदा से वहां हैं, तो पुरुष क्यों नहीं ?]
और जैसे बीबियां बहिश्त में सदा रहनेवाली बनाई, वैसे पुरुषों को वहां सदा रहने वाले क्यों नहीं बनाया? इसलिये मुसलमानों का ख़ुदा अन्यायकारी, बेसमझ है॥५०॥
[क्या इस्लाम से पहले कोई ईश्वरीय मत न था ?]
५१. निश्चय अल्लाह की ओर से दीन इसलाम है….।१९।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ ३। आ॰ १९॥
समीक्षक―क्या अल्लाह मुसलमानों का ही है, अन्यों का नहीं? क्या तेरह-सौ वर्षों के पूर्व ईश्वरीय मत था ही नहीं? इसी से यह 'क़ुरान' ईश्वर का बनाया तो नहीं, किन्तु किसी पक्षपाती का बनाया है॥५१॥
[सबके साथ न्याय होगा; सब कुछ ख़ुदा की मर्जी पर]
५२. ….प्रत्येक जीव को पूरा दिया जावेगा जो कुछ उसने कमाया और वे न अन्याय किये जावेंगे।२५। कह―'या अल्लाह तू ही मुल्क का मालिक है जिसको चाहे देता है जिससे चाहे छीनता है, जिसको चाहे प्रतिष्ठा देता है जिसको चाहे अप्रतिष्ठा देता है। सब कुछ तेरे ही हाथ में है, प्रत्येक वस्तु पर तू ही बलवान् है।२६। रात को दिन में और दिन को रात में पैठाता है और मृतक को जीवित से, जीवित को मृतक से निकालता है और जिसको चाहे अनन्त अन्न देता है।२७।'
मुसलमानों को उचित है कि काफ़िरों को मित्र न बनावें सिवाय मुसलमानों के जो कोई यह करे, बस, वह अल्लाह की ओर से नहीं….।२८। कह―'जो तुम चाहते हो अल्लाह को, तो पक्ष करो मेरा, अल्लाह चाहेगा तुमको, और तुम्हारे पाप क्षमा करेगा। निश्चय ही करुणामय है।३१।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ ३। आ॰ २५। २६। २७। २८। ३१॥
[कर्मानुसार फल मिलेगा तो पाप-क्षमा की बात व्यर्थ]
समीक्षक―जब प्रत्येक जीव को कर्मों का पूरा-पूरा फल दिया जावेगा तो क्षमा नहीं किया जायगा, और जो क्षमा किया जायगा तो पूरा फल नहीं दिया जायगा, और [इस प्रकार] अन्याय होगा। जब विना उत्तम कर्मों के राज्य [और] प्रतिष्ठा देगा, तो भी ईश्वर अन्यायी हो जायगा और विना पाप के राज्य और प्रतिष्ठा छीन लेगा, तो भी अन्यायकारी हो जायगा।
[असम्भव काम ईश्वर भी नहीं कर सकता]
भला, रात में दिन, दिन में रात और जीवित से मृतक और मृतक से जीवित कभी हो सकता है? क्योंकि ईश्वर की व्यवस्था अछेद्य-अभेद्य है, कभी अदल-बदल नहीं हो सकती।
[केवल मुसलमानों से ही मैत्री की बात पक्षपात]
अब देखिये पक्षपात की बातें! कि जो मुसलमान के मज़हब में नहीं हैं उनको 'काफ़िर' ठहराना, उनमें श्रेष्ठों से भी मित्रता न रखने और मुसलमानों में दुष्टों से भी मित्रता रखने के उपदेश करना ईश्वर को ईश्वरता से बहिः कर देता है। इससे यह 'क़ुरान', 'क़ुरान' का ख़ुदा और मुसलमान लोग केवल पक्षपात, अविद्या के भरे हुए हैं, इसीलिये मुसलमान लोग अन्धेरे में हैं।
[ख़ुदा किसी का पक्ष नहीं किया करता, चाहे वह कोई भी हो]
और देखिये मुहम्मद साहब की लीला कि जो तुम मेरा पक्ष करोगे तो ख़ुदा तुम्हारा पक्ष करेगा और जो तुम पक्षपातरूप पाप करोगे उसको क्षमा भी करेगा! इससे सिद्ध होता है कि मुहम्मद साहब का अन्तःकरण शुद्ध नहीं था। इसीलिये अपने मतलब सिद्ध करने के लिये मुहम्मद साहब ने 'क़ुरान' बनाया वा बनवाया, ऐसा विदित होता है॥५२॥
[ख़ुदा ने मरियम को पसन्द किया]
५३. जिस समय कहा फरिश्तों ने कि ऐ मरियम! तुझको अल्लाह ने पसन्द किया और पवित्र किया ऊपर जगत् की स्त्रियों के।४२।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ ३। आ॰ ४२॥
[अब ख़ुदा और फ़रिश्ते किसी से बातें क्यों नहीं करते]
समीक्षक―भला, जब आजकल ख़ुदा के फ़रिश्ते और ख़ुदा किसी से बातें करने को नहीं आते, तो प्रथम भी नहीं आये होंगे। जो कहो कि पहिले के मनुष्य पुण्यात्मा थे, अब के नहीं, तो यह बात मिथ्या है। किन्तु जिस समय ईसाई और मुसलमानों का मत चला था, उस समय उन देशों में जंगली और विद्याहीन मनुष्य अधिक थे, इसीलिये ऐसे विद्याविरुद्ध मत चल गये। अब विद्वान् अधिक हैं, इसलिये नहीं चल सकते। किन्तु जो-जो ऐसे पोकल मज़हब हैं, वे भी अस्त होते जाते हैं, वृद्धि की तो कथा ही क्या है!॥५३॥
[अल्लाह ने कहा―हो जा, और हो गया]
५४. ….उसको कहता है कि 'हो', बस हो जाता है।४७। काफ़िरों ने धोखा दिया, ख़ुदा ने धोखा दिया, ख़ुदा बहुत मकर करने वाला है।५४।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ ३। आ॰ ४७। ५४॥
[ख़ुदा ने किससे कहा, और कौन हो गया ?]
समीक्षक―जब मुसलमान लोग ख़ुदा के सिवाय दूसरी चीज़ नहीं मानते तो ख़ुदा ने किससे कहा? और उसके कहने से कौन हो गया? इसका उत्तर मुसलमान सात जन्म में भी नहीं दे सकेंगे, क्योंकि विना उपादान कारण के कार्य कभी नहीं हो सकता। विना कारण के कार्य कहना, जानो 'अपने मा-बाप के विना मेरा शरीर हो गया' ऐसी बात है।
[धोखा खाने और छल और दम्भ करने वाला ख़ुदा कभी नहीं हो सकता]
जो धोखा खाता और मकर अर्थात् छल और दम्भ करता है वह ईश्वर तो कभी नहीं हो सकता, किन्तु उत्तम मनुष्य भी ऐसा काम नहीं करता॥५४॥
[मत मरो, मुसलमान हो; तीन हजार फ़रिश्तों के साथ सहाय]
५५. ….मत मरो, परन्तु मुसलमान हो।१०२। ….क्या तुमको यह बहुत न होगा कि अल्लाह तुमको तीन हज़ार फ़रिश्तों के साथ सहाय्य देवे।१२३।
मं॰ १। सि॰ ३। सू॰ ३। आ॰ १०२।१२३॥
[मुसलमान न होने पर मार डालना अधर्म की बात]
समीक्षक―देखिये, इससे यह ठीक सिद्ध होता है कि मुसलमान न होगे तो हम तुमको मार डालेंगे। यह केवल अधर्म की बात है।
[अब फ़रिश्तों को लेकर क्यों नहीं आता]
जो मुसलमानों को तीन हज़ार फ़रिश्तों के साथ सहाय्य देता था, तो अब मुसलमानों की बादशाही बहुत-सी नष्ट हो गई और होती जाती है, क्यों सहाय्य नहीं देता? इसलिये यह बात केवल लोभ देके मूर्खों को फसाने के लिये महा-अन्याय की है॥५५॥
[काफ़िरों पर हमको सहाय कर]
५६. ….और काफ़िरों पर हमको सहाय्य कर।१४७। अल्लाह तुम्हारा उत्तम सहायक और कारसाज़ है।१५०। जो तुम अल्लाह के मार्ग में मारे जाओ वा मर जाओ, अल्लाह की दया बहुत अच्छी है….।१५७।
मं॰ १। सि॰ ४। सू॰ ३। आ॰ १४७। १५०। १५७॥
[ख़ुदा ऐसी प्रार्थना कभी नहीं सुना करता]
समीक्षक―देखिये मुसलमानों की मूर्खता कि जो अपने मत से भिन्न हैं उनको मारने के लिये ख़ुदा से प्रार्थना करते हैं! क्या परमेश्वर भोला है जो इनकी बात मान लेवे? यदि मुसलमानों का कारसाज़ अल्लाह ही है, तो फिर मुसलमानों के कार्य नष्ट क्यों होते हैं? और ख़ुदा भी मुसलमानों के साथ मोह से फसा हुआ दीख पड़ता है। जो ऐसा पक्षपाती ख़ुदा है, तो धर्मात्मा पुरुषों का उपासनीय कभी नहीं हो सकता॥५६॥
[जो लड़ाई के विना परीक्षा न कर सके वह सर्वज्ञ नहीं]
५७. यह लड़ाई इसलिये कि अल्लाह तुम्हारी परीक्षा लेवे…...।१६६।
मं॰ १। सि॰ ४। सू॰ ३। आ॰ १६६॥
समीक्षक―जो लड़ाई के विना परीक्षा नहीं कर सकता, तो वह सर्वज्ञ नहीं। इससे वह ईश्वर क्योंकर हो सके?॥५७॥
[अल्लाह और रसूल पर ईमान लाओ]
५८. ….और अल्लाह तुमको परोक्षज्ञ नहीं करता परन्तु अपने पैग़म्बरों में से जिसको चाहे पसन्द करे, बस अल्लाह और उसके रसूल के साथ ईमान लाओ….।१७९।
मं॰ १। सि॰ ४। सू॰ ३। आ॰ १७९॥
[फिर तो ख़ुदा को लाशरीक कहना बेकार]
समीक्षक―क्या किसी पैग़म्बर को ख़ुदा अपने सदृश कर सकता है? जो कर सकता है, तो दूसरा 'ख़ुदा-शरीक' ख़ुदा हुआ। जो नहीं कर सकता तो इस आयत के झूठ होने से ख़ुदा ने झूठ बोला। जिसकी बात झूठ हो, वह स्वयं झूठा हुआ। जब मुसलमान लोग सिवाय ख़ुदा के न किसी के साथ ईमान लाते, न किसी को ख़ुदा का साझी मानते हैं तो ईमान में ख़ुदा के साथ पैग़म्बर साहब को क्यों शरीक क्यों किया? अल्लाह ने पैगम्बर के साथ ईमान लाना लिखा, इसी से पैग़म्बर भी [खुदा के साथ] शरीक हो गया, पुनः [खुदा को] 'लाशरीक' कहना झूठा हुआ॥
[क्या ख़ुदा पैगम्बर के विना अपना काम नहीं कर सकता ?]
यदि इसका अर्थ यह समझा जाय कि मुहम्मद साहब के पैग़म्बर होने पर विश्वास लाना चाहिये तो यह प्रश्न होता है कि मुहम्मद साहब के होने की क्या आवश्यकता है? यदि खुदा उनको पैग़म्बर किये विना अपना अभीष्ट कार्य नहीं कर सकता, तो अवश्य असमर्थ हुआ॥५८॥
[लड़ाई में लगे रहो]
५९. ऐ ईमानवालो! संतोष करो, परस्पर थामे रक्खो और लड़ाई में लगे रहो, अल्लाह से डरो कि तुम छुटकारा पाओ।२००।
मं॰ १। सि॰ ४। सू॰ ३। आ॰ २००॥
[क़ुरान का ख़ुदा और पैग़म्बर दोनों लड़ाईबाज़]
समीक्षक―यह 'क़ुरान' का ख़ुदा और पैग़म्बर दोनों लड़ाईबाज़ थे। जो लड़ाई की आज्ञा देता है वह शान्तिभंग करनेवाला होता है। क्या ख़ुदा के नाममात्र से डरने से छुटकारा पाया जाता है वा अधर्मयुक्त लड़ाई आदि से डरने से? जो प्रथम पक्ष है तो डरना-न डरना बराबर [है]; और जो द्वितीय पक्ष है, तो ठीक है॥५९॥
[अल्लाह और रसूल के भक्तों को ही बहिश्त]
६०. ये अल्लाह की हद्दें हैं, जो अल्लाह और उसके रसूल का कहा मानेगा वह बहिश्त में पहुँचेगा, जिनमें नहरें चलती हैं और यही बड़ा प्रयोजन है।१३। जो अल्लाह की और उसके रसूल की आज्ञा भंग करेगा और उसकी हद्दों से बाहर हो जायगा वो सदैव रहनेवाली दोज़ख की आग में जलाया जावेगा और उसके लिये ख़राब करनेवाला दुःख है।१४।
मं॰ १। सि॰ ४। सू॰ ४। आ॰ १३। १४॥
[बहिश्त में रसूल की भी साझेदारी, तो ख़ुदा स्वतन्त्र नहीं]
समीक्षक―जब ख़ुदा ने ही मुहम्मद साहब पैग़म्बर को अपना शरीक कर लिया है और खुद 'क़ुरान' में ही लिखा है, तो मुसलमानों का ख़ुदा को 'लाशरीक' कहना व्यर्थ है। और देखो, ख़ुदा पैग़म्बर साहब के साथ कैसा फसा है कि जिसने बहिश्त में रसूल का साझा कर दिया है। इस एक बात में भी स्वतन्त्र न रहा। ऐसी-ऐसी बातें ईश्वरोक्त पुस्तक में नहीं हो सकतीं॥६०॥
[अल्लाह अन्याय नहीं करता]
६१. और एक अणु की बराबर भी वह अन्याय नहीं करता और जो भलाई होवे उसको दुगुणा करेगा।४०।
मं॰ १। सि॰ ५। सू॰ ४। आ॰ ४०॥
[कम या अधिक फल देने से ख़ुदा अन्यायी हो जावेगा]
समीक्षक―जो एक अणु भी अन्याय ख़ुदा नहीं करता तो पुण्य को दुगुणा क्यों देता है? और मुसलमानों का पक्षपात क्यों करता है? जीव को आप ही पापी क्यों बनता [है, और उसे] फिर दुःख क्यों देता है? क्योंकि अधिक-न्यून करने से अधिष्ठाता को भलाई-बुराई का फल मिलता है, आधीन को नहीं; जैसे सेना की लड़ाई में राजा को जय-पराजय रूप फल होता है, भृत्यों को नहीं। वैसे ही द्विगुण वा न्यून फल कर्मों का जो देवे तो वह ख़ुदा भी अन्यायी हो जावे॥६१॥
[बहिश्त जिसमें नहरें और पवित्र बीड़ियां हैं]
६२. ….अवश्य बहिश्त में भेजेंगे, जिनमें नहरें चलती हैं और उनके लिये पवित्र बीबियां हैं तथा सायेदार वृक्ष हैं, उसमें सदा रहेंगे।५७।
मं॰ १। सि॰ ५। सू॰ ४। आ॰ ५७॥
[यह केवल अज्ञानियों को लोभ देकर फसाने की बात है]
समीक्षक―यह केवल अज्ञानियों को लोभ देकर मुहम्मद साहब ने फसाया है। और आप भी स्त्रियों में आसक्त होंगे, नहीं तो ऐसी बातें क्यों कहते?॥६२॥
६३. …..बस, उनको चाहिये ख़ुदा के मार्ग में लड़ें….।७५। जो लोग ईमान लाये ख़ुदा के मार्ग में लड़ते हैं, जो काफ़िर हैं वे बुतों के मार्ग में लड़ते हैं। बस, शैतान के मित्रों से लड़ो, निश्चय उसका धोखा निर्बल है।७६। जो उनको भलाई पहुंचती है, तो कहते हैं कि यह अल्लाह की ओर से है और बुराई को तेरी ओर से बतलाते हैं, कह सब अल्लाह की ओर से है….।७९।
मं॰ १। सि॰ ५। सू॰ ४। आ॰ ७५। ७६। ७९॥
समीक्षक―भला, ईश्वर के मार्ग में लड़ाई का क्या काम? और जो बुतपरस्त काफ़िर हैं, तो मुसलमान बड़े बुतपरस्त होने से बड़े काफ़िर होते हैं; क्योंकि ये बुतपरस्त लोग छोटी-छोटी मूर्तियों के सम्मुख नमते और भक्ति करते हैं, वैसे ही मुसलमान लोग मक्का की जो एक बड़ी मस्जिद है, उसके सामने नमते हैं। जो कहें कि हम मस्जिद को ख़ुदा नहीं समझते और 'क़ुरान' की आज्ञा है, इससे उधर को मुखमात्र करके ख़ुदा की बन्दगी करते हैं। अच्छा, तो ये लोग भी पत्थर को ईश्वर नहीं समझते, किन्तु पत्थर में ईश्वर की भावना करके भक्ति करते हैं और इनको भी पुराण में वैसी आज्ञा व्यास जी जिनको लोग ईश्वरावतार मानते हैं, उनकी है कि तुम मूर्त्ति पूजो।
इसलिये बड़ी मस्जिद को ईश्वर की भक्ति में सामने रखनेवाले मुसलमान बड़े बुतपरस्त और ये लोग छोटे बुतपरस्त हैं। जैसे कोई मनुष्य अपने घर में से बिल्ली को जब लों निकाले, तब लों उसके घर में ऊंट प्रविष्ट हो जाय, वैसी ही दशा मुहम्मद साहब आदि मुसलमानों की है। क्योंकि बिल्ली के समान छोटी-छोटी पाषाणादि की मूर्त्तियों को तो फोड़-तोड़ के अपने घर में से निकाल दिया, परन्तु ऊंट के समान मस्जिद हृदयरूपी घर में प्रविष्ट हो गई। इससे मुसलमान लोग बड़ी हानि को प्राप्त हो गये। जब ये बड़े बुतपरस्त हैं तो किस मुख से दूसरे छोटे बुतपरस्तों का खण्डन कर सकते हैं। हां! पहले आप बुतपरस्ती को छोड़ें, तो अन्य का खण्डन कर सकें॥६३॥
[ख़ुदा के गुमराह किये को मार्ग नहीं]
६४. जब तेरे पास से निकलते हैं तो तेरे [सामने कहे के] विरूद्ध सोचते हैं, अल्लाह उनकी बात को लिखता है….।८९। अल्लाह ने उनकी कमाई वस्तु के कारण से उनको उलटा किया, क्या तुम चाहते हो कि अल्लाह के गुमराह किये हुये को मार्ग पर लाओ ? बस, जिसको वह गुमराह करे उसको कदाचिदपि मार्ग न पावेगा।८८।
मं॰ १। सि॰ ५। सू॰ ४। आ॰ ८१। ८८॥
[गुमराह करने से ख़ुदा भी शैतान क्यों नहीं ?]
समीक्षक―जो अल्लाह बातों को लिख बही-खाता बनाता जाता है, तो सर्वज्ञ नहीं; और जो सर्वज्ञ है तो लिखने का क्या काम? और जो मुसलमान कहते हैं कि शैतान ही सबको बहकाने से दुष्ट हुआ है, तो जब ख़ुदा ही जीवों को गुमराह करता है, तो ख़ुदा और शैतान में क्या भेद रहा? हां, इतना भेद कह सकते हैं कि ख़ुदा बड़ा शैतान [और] वह फरिश्ता छोटा शैतान [है]; क्योंकि मुसलमानों का यही कौल है कि जो बहकाता है वही शैतान है, तो इस प्रतिज्ञा से ख़ुदा को भी शैतान बना दिया॥६४॥
[काफ़िरों को मारो; मुसलमानों को नहीं]
६५. ….और अपने हाथों को न रोकें, तो उनको पकड़ लो और जहाँ पाओ मार डालो...।९१। मुसलमानों को मुसलमान का मारना योग्य नहीं, जो कोई अनजाने से मार डाले….। बस, एक गर्दन मुसलमान का छोड़ना है….. और खून बहा उन लोगों की ओर साई हुई जो उस क़ौम से होवें, तुम्हारे लिये दान कर देंगे, जो दुश्मन की क़ौम से हैं।९२। और जो कोई मुसलमान को जानकर मार डाले वह सदैव काल दोज़ख़ में रहेगा। उस पर अल्लाह का क्रोध और लानत है।९३।
मं॰ १। सि॰ ५। सू॰ ४। आ॰ ९१। ९२। ९३॥
[अन्य की हत्या से बहिश्त, मुसलमान की हत्या से दोज़ख़]
समीक्षक―अब देखिये महा-पक्षपात की बात कि जो मुसलमान न हो, जहाँ पाओ मार डालना और मुसलमानों को न मारना!! भूल से मुसलमानों के मारने में प्रायश्चित्त और अन्य को मारने से बहिश्त मिलेगा, ऐसे उपदेश को कुए में डालना चाहिये। ऐसे-ऐसे पुस्तकों, ऐसे-ऐसे पैग़म्बरों, ऐसे-ऐसे ख़ुदाओं और ऐसे-ऐसे मतों से सिवाय हानि के लाभ कुछ भी नहीं, ऐसों का न होना अच्छा और ऐसे प्रामादिक मतों से बुद्धिमानों को अलग रहकर वेदोक्त सब बातों को मानना चाहिये, क्योंकि उसमें असत्य किञ्चिन्मात्र भी नहीं है।
[अन्य मतवालों का इससे विपरीत मत]
और जो मुसलमान को मारे उसको दोज़ख़ मिले, लिखा है; और दूसरे मतवाले कहते हैं कि मुसलमान को मारे तो स्वर्ग मिले। अब कहो, इन दोनों मतों में से किसको मानें, किसको छोड़ें? किन्तु ऐसे मूढ़-प्रकल्पित मतों को छोड़कर वेदोक्त मत सब मनुष्यों के लिये स्वीकार करने योग्य है कि जिसमें आर्य मार्ग अर्थात् श्रेष्ठ पुरुषों के मार्ग में चलना और दस्यु अर्थात् दुष्टों के मार्ग से अलग रहना लिखा है, सर्वोत्तम है॥६५॥
[रसूल का विरोधी दोज़ख़ में]
६६. और शिक्षा प्रकट होने के पीछे जिसने रसूल से विरोध किया और मुसलमानों से विरुद्ध पक्ष किया, अवश्य हम उसको दोज़ख़ में भेजेंगे।११५।
मं॰ १। सि॰ ५। सू॰ ४। आ॰ ११५॥
[ये सब बातें अनाप्त की हैं]
समीक्षक―अब देखिये ख़ुदा और रसूल की पक्षपात की बातें! मुहम्मद साहब आदि समझते थे कि जो ख़ुदा के नाम से ऐसी [बातें] हम न लिखेंगे तो अपना मज़हब न बढ़ेगा और पदार्थ न मिलेंगे, आनन्द भोग न होगा। इसी से विदित होता है कि वे अपने मतलब [सिद्ध] करने में पूरे थे और अन्य के प्रयोजन बिगाड़ने में। इससे वे अनाप्त थे। उनकी बात का प्रमाण आप्त विद्वानों के सामने कभी नहीं हो सकता॥६६॥
[गुमराह कौन]
६७. …..जो अल्लाह, रसूलों, फरिश्तों, किताबों और क़यामत के साथ कुफ़्र करे निश्चय वह गुमराह है।१३६। निश्चय जो लोग ईमान लाये फिर काफ़िर हुए फिर-फिर ईमान लाये, पुनः फिर गये और कुफ़्र में अधिक बढ़े। अल्लाह उनको कभी क्षमा न करेगा और न मार्ग दिखलावेगा॥१३७॥
मं॰ १। सि॰ ५। सू॰ ४। आ॰ १३६। १३७॥
[फ़रिश्ते भी साथ हैं, तो ख़ुदा लाशरीक कैसे]
समीक्षक―क्या अब भी ख़ुदा 'लाशरीक' रह सकता है? क्या 'लाशरीक' कहते जाना और उसके साथ बहुत से 'शरीक' भी मानते जाना, यह परस्पर-विरुद्ध बात नहीं है?
[पाप क्षमा करने से तो पाप और भी बढ़ेंगे]
क्या तीन वार क्षमा के पश्चात् ख़ुदा क्षमा नहीं करता? और तीन वार कुफ़्र करने पर रास्ता दिखलाता है? वा चौथी वार से आगे नहीं दिखलाता? यदि चार-चार वार भी कुफ़्र सब लोग करें, तो कुफ़्र बहुत ही बढ़ जावे॥६७॥
[काफ़िरों को दोज़ख़, उन्हें मित्र न बनाओ]
६८. …..निश्चय अल्लाह बुरे लोगों को और काफ़िरों को जमा करेगा दोज़ख़ में।१४०। निश्चय बुरे लोग धोखा देते हैं अल्लाह को और उनको वह धोखा देता है।१४२। ऐ ईमानवालो! मुसलमानों को छोड़ काफ़िरों को मित्र मत बनाओ…..।१४४।
मं॰ १। सि॰ ५। सू॰ ४। आ॰ १४०। १४२। १४४॥
[जिनका ख़ुदा धोखेबाज़, वे धोखोबाज़ क्यों न हों]
समीक्षक―मुसलमानों के बहिश्त और अन्य लोगों के दोज़ख़ में जाने का क्या प्रमाण? वाह जी वाह! जो बुरे लोगों के धोखे में आता और अन्य को धोखा देता है ऐसा ख़ुदा हम से अलग रहे; किन्तु जो धोखेबाज़ हैं उनसे जाकर मेल करे और वे उससे मेल करें। क्योंकि—
“यादृशी शीतला देवी तादृशो वाहनः खरः।”
='जैसे को तैसा' मिले तभी निर्वाह होता है।
जिसका ख़ुदा धोखेबाज़ है उसके उपासक मुसलमान लोग धोखेबाज़ क्यों न हों? तभी तो मुसलमान लोग धोखा देने में तत्पर रहते हैं।
[क्या दुष्ट से मित्रता और श्रेष्ठ से शत्रुता उचित है ?]
क्या दुष्ट मुसलमान हो उससे मित्रता और मुसलमान-भिन्न अन्य श्रेष्ठ से शत्रुता करना, किसी को उचित हो सकती है?॥६८॥
[पैग़म्बर पर ईमान लाओ]
६९. ऐ लोगो! निश्चय तुम्हारे पास सत्य के साथ ख़ुदा की ओर से पैग़म्बर आया, बस, तुम उन पर ईमान लाओ।१७०। ….अल्लाह माबूद अकेला है….।१७१।
मं॰ १। सि॰ ६। सू॰ ४। आ॰ १७०। १७१॥
[क्या ख़ुदा का पैग़म्बरों के विना काम नहीं चलता ?]
समीक्षक―क्या जब पैग़म्बरों पर ईमान लाना लिखा, तो ईमान में पैग़म्बर ख़ुदा का शरीक अर्थात् साझी हुआ वा नहीं? जब अल्लाह एकदेशी है, व्यापक नहीं, इसी से उसके पास से पैग़म्बर आते-जाते हैं; तो वह ईश्वर भी नहीं हो सकता। कहीं सर्वदेशी लिखते हैं, कहीं एकदेशी। इससे विदित होता है कि 'क़ुरान' एक का बनाया नहीं, किन्तु बहुतों ने मिलके बनाया है॥६९॥
[मुर्दार, लोहू, सूअर का मांस हराम]
७०. तुम पर हराम किया गया मुर्दार, लोहू, सुअर का मांस, जिस पर अल्लाह के विना कुछ और पढ़ा जावे, गला घोटे [हुए], लाठी से मारे, ऊपर से गिर पड़े, सींग से मारे [हुए] और गोश्त खाने वाले [जानवर से खाये हुए].....।३।
मं॰ २। सि॰ ६। सू॰ ५। आ॰ ३॥
[हलाल हराम की कल्पना ईश्वरीय नहीं]
समीक्षक―क्या इतने ही पदार्थ हराम हैं? अन्य बहुत-से पशु तथा तिर्यक् जीव कीड़ी आदि मुसलमानों को हलाल होंगे? इसलिये यह मनुष्यों की कल्पना है, ईश्वर की नहीं। इससे इसका प्रमाण भी नहीं॥७०॥
[अल्लाह को उधार दो]
७१. ….और अल्लाह को अच्छा उधार दो अवश्य, मैं तुम्हारी बुराई दूर करूंगा और तुम्हें बहिश्त में भेजूंगा….।१२।
मं॰ २। सि॰ ६। सू॰ ५। आ॰ १२॥
[क्या ख़ुदा का भी दिवाला निकल गया ?]
समीक्षक―वाह जी! मुसलमानों के खुदा के घर में कुछ भी धन-विशेष नहीं रहा होगा, जो विशेष होता तो उधार क्यों मांगता? और उनको क्यों बहकाता कि तुम्हारी बुराई छुड़ाके तुमको स्वर्ग में भेजूंगा? यहां विदित होता है कि खुदा के नाम से मुहम्मद साहब ने अपना मतलब साधा है॥७०॥
[ख़ुदा की मर्जी से क्षमा वा दण्ड]
७२. ….जिसको चाहता है पुण्यात्मा बनाता है जिसको चाहे पापात्मा बना देता है...।१८। ….जो कुछ किसी को भी न दिया वह तुम्हें दिया।२०।
मं॰ २। सि॰ ६। सू॰ ५। आ॰ १८। २०॥
[फिर तो बहिश्त वा दोज़ख़ में ख़ुदा ही जाये]
समीक्षक―जैसे शैतान जिसको चाहता पापी बनाता [है], वैसे मुसलमानों का ख़ुदा भी [विना पाप के दुःख देकर] शैतान का काम करता है। जो ऐसा है, तो फिर बहिश्त और दोज़ख़ में ख़ुदा जावे, क्योंकि वह पाप-पुण्य करनेवाला हुआ, जीव पराधीन है; जैसे, सेना सेनापति के आधीन रक्षा करती और किसी को मारती है, उसकी भलाई-बुराई सेनापति की होती है, सेना पर नहीं॥७२॥
[काफ़िरों पर ग़म न खा]
७३. काफ़िरों पर ग़म मत खा।२६।
मं॰ २। सि॰ ६। सू॰ ५। आ॰ २६॥
समीक्षक―क्या अधर्म और पक्षपात की बात है कि जो मुसलमान न हो उस पर ग़म न खाना और मुसलमानों पर ग़म खाना! [यह] केवल अधर्म की बात है॥७३॥
[ख़ुदा और रसूल साथ, तो ख़ुदा लाशरीक कैसे ?]
७४.आज्ञा मानो अल्लाह की और आज्ञा मानो रसूल की, ….।९२।
मं॰ २। सि॰ ७। सू॰ ५। आ॰ ९२॥
समीक्षक―देखिये, यह बात ख़ुदा के 'शरीक' होने की है, फिर ख़ुदा को ‘लाशरीक’ मानना व्यर्थ है॥७४॥
[ख़ुदा ने माफ किया, जो हो चुका]
७५. ….अल्लाह ने माफ़ किया जो हो चुका, और जो कोई फिर करेगा अल्लाह उससे बदला लेगा।९५।
मं॰ २। सि॰ ७। सू॰ ५। आ॰ ९५॥
[पाप क्षमा की बात ख़ुदा की नहीं हो सकती]
समीक्षक―किये हुए पापों का क्षमा करना जानो पापों को करने की आज्ञा देके बढ़ाना है। पाप-क्षमा करने की बात जिस पुस्तक में हो, वह न ईश्वर और न किसी विद्वान् का बनाया है, किन्तु पापवर्द्धक है। हां, आगामी पाप छुड़वाने के लिये किसी से प्रार्थना और स्वयं छोड़ने के लिये पुरुषार्थ, पश्चात्ताप करना उचित है; परन्तु केवल पश्चात्ताप करता रहे, छोड़े नहीं, तो भी कुछ नहीं हो सकता॥७५॥
[जाली पैग़म्बर बनना पाप है]
७६. और उस मनुष्य से अधिक पापी कौन है जो अल्लाह पर झूठ बांध लेता है और कहता है कि मेरी ओर वही की गई और जो कहता है कि मैं भी उतारूंगा कि जैसे अल्लाह उतारता है…...।९४।
मं॰ २। सि॰ ७। सू॰ ६। आ॰ ९४॥
[क्या किसी और ने भी पैग़म्बर बनने का यत्न किया ?]
समीक्षक―इस बात से सिद्ध होता है कि जब मुहम्मद साहब कहते थे कि मेरे पास ख़ुदा की ओर से आयतें आती हैं तब किसी दूसरे ने भी मुहम्मद साहब के तुल्य लीला रची होगी कि मेरे पास भी आयतें उतरती हैं, मुझको भी पैगम्बर मानो; उसको हटाने के और अपनी प्रतिष्ठा बढ़ाने के लिये मुहम्मद साहब ने यह उपाय किया होगा॥७६॥
[ख़ुदा और शैतान का झगड़ा]
७७. अवश्य हमने तुमको उत्पन्न किया, फिर तुम्हारी सूरतें बनाई [फिर] फ़रिश्तों से कहा कि "आदम को सिज़्दा करो।" बस, उन्होंने सिज़्दा किया परन्तु शैतान सिज़्दा करनेवालों में से न हुआ।११। कहा, "जब मैंने तुझे आज्ञा दी फिर किसने रोका कि तूने सिज़्दा न किया।" कहा, "मैं उससे अच्छा हूं, तूने मुझको आग से और उसको मिट्टी से उत्पन्न किया।१२।" कहा, "बस उसमें से उतर, यह तेरे योग्य नहीं है कि तू उसमें अभिमान करे।१३। कहा, "उस दिन तक ढील दे कि [लोग] क़ब्रों से उठाये जावें।१४।" कहा, "निश्चय तू ढील दिये गयों से है।१५।" कहा, "बस इसकी क़सम है कि तूने मुझको गुमराह किया। अवश्य मैं उनके लिये तेरे सीधे मार्ग पर बैठूंगा।१६। …..और प्रायः तू उनको धन्यवाद करनेवाला न पावेगा।१७।" कहा, "उससे दुर्दशा के साथ निकल। अवश्य जो कोई उनमें से तेरा पक्ष करेगा तुम सबसे दोज़ख़ को भरूंगा।१८।"
मं॰ २। सि॰ ८। सू॰ ७। आ॰ ११। १२। १३। १४। १५। १६। १७। १८॥
[ख़ुदा शैतान का कुछ भी न बिगाड़ सका]
समीक्षक―अब ध्यान देकर सुनो ख़ुदा और शैतान के झगड़े को! एक फ़रिश्ता जैसा कि चपरासी हो, [शैतान] था। वह भी ख़ुदा से न दबा और ख़ुदा उसके आत्मा को पवित्र भी न कर सका। फिर ऐसे बागी को, जो पापी बनाकर ग़दर करनेवाला था, उसको ख़ुदा ने छोड़ दिया। यह ख़ुदा की बड़ी भूल है।
[क्या यह ख़ुदा शैतान का भी शैतान नहीं ?]
शैतान तो सबको बहकानेवाला और ख़ुदा शैतान को बहकानेवाला होने से यह सिद्ध होता है कि शैतान का भी शैतान ख़ुदा है; क्योंकि शैतान प्रत्यक्ष कहता है कि तूने मुझे गुमराह किया। इससे ख़ुदा में पवित्रता भी नहीं पाई जाती और सब बुराइयों का चलानेवाला मूल कारण ख़ुदा हुआ। ऐसा ख़ुदा मुसलमानों का ही ख़ुदा हो सकता है, अन्य श्रेष्ठ विद्वानों का नहीं।
[जो फ़रिश्तों से बातें करे, वह देहधारी क्यों नहीं ?]
और फ़रिश्तों से मनुष्यवत् वार्तालाप करने से देहधारी, अल्पज्ञ, न्यायरहित मुसलमानों का ख़ुदा है। इसी से बुद्धिमान् लोग इस्लाम के मज़हब को प्रसन्न नहीं करते॥७७॥
[छः दिन में जगत् को बना पुनः आराम]
७८. निश्चय तुम्हारा मालिक अल्लाह है जिसने आसमानों और पृथिवी को छः दिन में उत्पन्न किया, फिर करार पकड़ा अर्श पर।५४। दीनता से अपने मालिक को पुकारो….।५५।
मं॰ २। सि॰ ८। सू॰ ७। आ॰ ५४। ५५॥
[जो सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक नहीं, वह क्या ख़ुदा ?]
समीक्षक―भला, जो छः दिन में जगत् को बनावे, अर्श अर्थात् ऊपर के आकाश में सिंहासन पर आराम करे, वह ईश्वर सर्वशक्तिमान् और व्यापक कभी नहीं हो सकता। इनके न होने से वह ख़ुदा भी नहीं कहा सकता।
[क्या ख़ुदा पुकारने पर ही सुनता है ?]
क्या तुम्हारा ख़ुदा बधिर है जो पुकारने से सुनता है? ये सब बातें अनीश्वरकृत हैं, इससे 'क़ुरान' ईश्वरकृत नहीं हो सकता।
[आजकल ख़ुदा क्या कर रहा है ?]
यदि छः दिनों में जगत् बनाया, सातवें दिन अर्श पर आराम किया तो थक भी गया होगा। और अब तक सोता है वा जागा है? यदि जागता है तो अब कुछ काम करता है वा निकम्मा सैल-सपट्टा और ऐश करता फिरता है॥७८॥
[पृथिवी पर झगड़ते मत फिरो]
७९. ….मत फिरो पृथिवी पर झगड़ा करते।७४।
मं॰ २। सि॰ ८। सू॰ ७। आ॰ ७४॥
[झगड़ा न करने और जिहाद की बात परस्पर विरुद्ध]
समीक्षक―यह बात तो अच्छी है, परन्तु इससे विरुद्ध जिहाद करना [और] काफ़िरों को मारना भी लिखा है। अब कहो, क्या यह पूर्वापरविरुद्ध नहीं है? इससे यह विदित होता है कि जब मुहम्मद साहब निर्बल हुए होंगे तब यह उपाय रचा होगा और जब सबल हुए होंगे, तब झगड़ा मचाया होगा। इसी से ये बातें झूठी हैं॥७९॥
[लाठी अजग़र बन गई]
८०. बस, एक ही वार अपना असा डाल दिया और वह अजगर था प्रत्यक्ष।१०७।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ७। आ॰ १०७॥
[ऐसी झूंठी बातों को मानना अविद्या है]
समीक्षक―अब इसके लिखने से विदित होता है कि ऐसी झूठी बातों को ख़ुदा और मुहम्मद साहब भी मानते थे। जो ऐसा है तो ये दोनों विद्वान् नहीं थे, क्योंकि जैसे आँख से देखने और कान से सुनने को अन्यथा कोई नहीं कर सकता! इसी से ये इन्द्रजाल की बातें हैं॥८०॥
[बेटों का क़तल बीसियों को जीती रखना एक को डुबोया; दूसरे को पार किया]
८१. ….अवश्य हम क़त्ल करेंगे बेटों उनके को, और जीती रक्खेंगे बीबियों उनकी को।१२७। बस, हमने उन पर मेह का तूफ़ान भेजा, टिड्डी, चिचड़ी और मेंढक और लोहू।१३३। बस, उनसे हमने बदला लिया और उनको डुबो दिया दरिया में….।१३६। और हमने बनी-इस्राएल को दरिया से पार उतार दिया….।१३८। निश्चय वह दीन झूठा है कि जिसमें वे हैं और उनका कार्य भी झूठा है।१३९।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ७। आ॰ १२७। १३३। १३६। १३८। १३९॥
[लड़कों को क़त्ल करना व स्त्रियों को जीता रखना विषयासक्त मनुष्य का काम]
समीक्षक―भला, जो लड़कों को क़त्ल करे और स्त्रियों को जीता रक्खे, उससे निर्दय, राक्षस स्वभाव-युक्त, विषयासक्त मनुष्य और दुष्टमत दूसरा कोई भी होगा?
[एक जाति को डुबोना, दूसरी को पार करना अधर्म]
अब देखिये, जैसे कोई पाखण्डी किसी को डरावे कि हम तुझ पर काटने के लिये सर्पों को भेज देंगे, ऐसी ही यह भी बात है। भला, जो ऐसा पक्षपाती [हो] कि एक जाति को डुबा दे और दूसरी को पार उतारे उस पक्षपाती, अधर्मी के समान ख़ुदा क्यों नहीं?
[दूसरे मतों को झूंठा बताना महामूर्खता]
जो दूसरे मत को कि जिसमें हज़ारों-करोड़ों मनुष्य हों, झूठा बतलावे और अपने को सच्चा, उससे परे झूठा दूसरा मत कौन हो सकता है? क्योंकि किसी मत में सब मनुष्य बुरे और भले नहीं हो सकते। यह एकतरफा डिगरी करना महामूर्खों का मत है।
[क्या तौरेत जबूर का मत झूंठा था]
क्या 'तौरेत' और 'ज़बूर' का दीन, जो कि उनका था, क्योंकर अपने किये को ख़ुदा ने झूठा किया? वा उनका कोई अन्य मज़हब था कि जिसको झूठा कहा। और जो वह अन्य मज़हब था, तो कौन-सा था, कहो कि जिसका नाम 'क़ुरान' में हो?॥८१॥
[ख़ुदा को देख मूसा का बेहोश होना]
८२. ….बस, तू मुझको अलबत्ता देख सकेगा, जब प्रकाश किया उसके मालिक ने पहाड़ की ओर, उसको परमाणु-परमाणु किया, गिर पड़ा मूसा बेहोश।१४३।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ७। आ॰ १४३॥
[ख़ुदा अब अपने चमत्कार क्यों नहीं दिखलाता ?]
समीक्षक―जो देखने में आता है वह व्यापक नहीं हो सकता। और ऐसे चमत्कार करता फिरता था तो ख़ुदा इस समय ऐसा चमत्कार किसी को क्यों नहीं दिखलाता? सर्वथा विद्या-विरुद्ध होने से यह बात मानने योग्य नहीं॥८२॥
[असा पत्थर पर मारने से बारह चश्मों का फूटना]
८३. यह कि मार सात असा अपने के पत्थर को, बस फूट निकले बारह चश्मे….।१६०।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ७। आ॰ १६०॥
समीक्षक―अब देखिये, बढ़कर भानुमती के जैसी ख़ुदा की ख़ुदाई, पैग़म्बर की पैग़म्बराई। इसको कोई भी बुद्धिमान् लोग सच नहीं मान सकते, सिवाय जंगली मनुष्यों के॥८३॥
[ख़ुदा को सुबह शाम याद करो]
८४. ….और अपने मालिक को दीनता, डर से मन में याद कर, धीमी आवाज़ से सुबह को और शाम को…..।२०५।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ७। आ॰ २०५॥
[धीमी और ऊंची आवाज़ की पुकार में से कौनसी सत्य ?]
समीक्षक―कहीं-कहीं 'क़ुरान' में लिखा है कि बड़ी आवाज़ से अपने मालिक को पुकार, कहीं-कहीं धीरे-धीरे मन में ईश्वर का स्मरण कर। अब कहिये कौन-सी बात सच्ची और कौन-सी झूठी? जो एक दूसरी बात से विरोध करती है वह बात प्रमत्त गीत के समान होती है। यदि कोई बात भ्रम से विरुद्ध निकल जाय, उसको मान ले, तो कुछ चिन्ता नहीं॥८४॥
[अल्लाह और रसूल के लिए लूट का माल]
८५. प्रश्न करते हैं तुझको लूटों से कहें लूटें वास्ते अल्लाह के और रसूल के, और डरो अल्लाह से….।१।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ८। आ॰ १॥
[क्या डाका लूटमार आदि भी उत्तम काम हैं ?]
समीक्षक―जो लूट मचावें, डाकू के कर्म करें-करावें और ख़ुदा तथा पैग़म्बर और ईमानदार भी बनें, यह बड़े आश्चर्य की बात है! और अल्लाह का डर बतलाते और डाका-आदि बुरे काम भी करते जायें, और ‘उत्तम मत हमारा है’ कहते लज्जा भी नहीं [आती]। हठ छोड़के सत्य वेदमत का ग्रहण न करें, इससे अधिक बुराई दूसरी कौन-सी होगी?॥८५॥
[काफ़िरों को मारो, मैं मदद दूंगा]
८६. …..और काटे जड़ काफ़िरों की।७। मैं तुमको सहाय्य दूंगा। साथ सहस्र फ़रिश्तों के पीछे-पीछे आनेवाले।९। ….अवश्य मैं काफ़िरों के दिलों में भय डालूंगा। बस, मारो ऊपर गर्दनों के, मारो उनमें से हर पोरी सन्धि पर।१२।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ८। आ॰ ७। ९। १२॥
[मारकाट की बातें ख़ुदा की नहीं हो सकतीं]
समीक्षक―वाह जी वाह! कैसा ख़ुदा और कैसे पैग़म्बर दयाहीन [हैं], जो मुसलमानी मत से भिन्न काफ़िरों की जड़ कटवावे। और ख़ुदा आज्ञा देवे उनकी गर्दन पर मारो और हाथ-पग [के] जोड़ों को काटने का सहाय्य और सम्मति देवे! भला, ऐसा ख़ुदा 'लंकेश' से क्या कुछ कम है? यह सब प्रपञ्च 'क़ुरान' के कर्त्ता का है, ख़ुदा का नहीं। यदि ख़ुदा का हो, तो ऐसा ख़ुदा हमसे दूर और हम उससे दूर रहैं॥८६॥
[अल्लाह और रसूल को पुकारो; उनकी चोरी मत करो]
८७. ….अल्लाह मुसलमानों के साथ है।१९। ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो पुकारना स्वीकार करो, वास्ते अल्लाह के और वास्ते रसूल के।२४। ऐ लोगो जो ईमान लाये हो मत चोरी करो अल्लाह की, रसूल की; और मत चोरी करो अमानत अपनी की।२७। ….और मकर करता था अल्लाह और अल्लाह भला मकर करनेवालों का है।२०।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ८। आ॰ १९। २४। २७। ३०॥
[क्या ख़ुदा बधिर है, जो पुकारे विना नहीं सुनता ?]
समीक्षक―क्या अल्लाह मुसलमानों का पक्षपाती है? जो ऐसा है तो अधर्म करता है। नहीं तो ईश्वर सब सृष्टि-भर का है। क्या ख़ुदा विना पुकारे नहीं सुन सकता? बधिर है? और उसके साथ रसूल को 'शरीक' करना [क्या] बहुत बुरी बात नहीं है?
[ख़ुदा और रसूल का कौनसा ख़जाना भरा था जिसे चुराते ?]
अल्लाह का कौन-सा खज़ाना भरा है जो चोरी करेगा [कोई]? क्या रसूल और अपनी अमानत की चोरी छोड़कर अन्य सबकी चोरी किया करे? ऐसा उपदेश अविद्वान् और अधर्मियों का हो सकता है।
[क्या मकर करनेवाला ख़ुदा अधर्मी नहीं ?]
भला, जो मकर करता और जो मकर करनेवालों का संगी है, वह ख़ुदा कपटी-छली और अधर्मी क्यों नहीं? इसलिये यह 'क़ुरान' ख़ुदा का बनाया हुआ नहीं है, किसी कपटी-छली का बनाया होगा, नहीं तो ऐसी अन्यथा बातें लिखी ही क्यों होतीं?॥८७॥
[लूट के माल में ख़ुदा वा रसूल का ५वां भाग]
८८. और लड़ो उनसे यहां तक कि न रहे फ़ितना अर्थात् बल काफ़िरों का और होवे दीन तमाम वास्ते अल्लाह के….।३९। और जानो तुम यह कि जो कुछ तुम लूटो, किसी वस्तु से निश्चय वास्ते अल्लाह के है पांचवां हिस्सा उसका, और वास्ते रसूल के…..।४१।…..निश्चय मैं तुम्हारा पक्षी हूं….।४८।
मं॰ २। सि॰ ९। सू॰ ८। आ॰ ३९। ४१। ४८॥
[मज़हब के नाम पर लड़ाई की बात सिखाना अच्छा नहीं]
समीक्षक―ऐसे अन्याय से लड़ाका अर्थात् लड़ने-लड़ानेवाला मुसलमानों के ख़ुदा से भिन्न शान्तिभंगकर्त्ता दूसरा कौन होगा?
[क्या लूट के माल में ख़ुदा भी हिस्सा बटाने लगा ?]
अब देखिये, यह मज़हब कि अल्लाह और रसूल के लिये सब जगत् को लूटना-लुटवाना, लुटेरों का-सा काम नहीं है? और लूट के माल में ख़ुदा का हिस्सेदार बनना जानो डाकू बनना है। और ऐसे लुटेरों का पक्षपाती बनकर, ख़ुदा अपनी ख़ुदाई में बट्टा लगाता है।
[ऐसे मत न चलते तो संसार में आनन्द होता]
बड़े आश्चर्य की बात है, ऐसा पुस्तक, और ऐसा ख़ुदा, ऐसे ख़ुदा की ओर के पैग़म्बर और ऐसा उपाधिखोर मज़हब संसार में महाशान्तिभंग करके मनुष्यों के लिए दुःखदायी कहां से हुआ? जो ऐसे-ऐसे मत जगत् में प्रचलित न होते तो सब जगत् आनन्द में बना रहता॥८८॥
[फ़रिश्तों द्वारा काफ़िरों का नाश]
८९. और कभी देखे जब काफ़िरों को फ़रिश्ते कब्ज करते हैं, मारते हैं, मुख उनके और पीठें उनकी और कहते― "चखो .अज़ाब जलने का।५०। हमने उनके पाप से उनको मारा और हमने फ़िरौन की क़ौम को डुबो दिया....।५४।" और तैयारी करो वास्ते उनके जो कुछ तुम कर सको….।६०।
मं॰ २। सि॰ १०। सू॰ ८। आ॰ ५०। ५४। ६०॥
[वे फ़िरिश्ते अब कहां सो गये ?]
समीक्षक―क्यों जी! आजकल रूस ने रूम आदि और इंगलैण्ड ने मिश्र की दुर्दशा कर डाली, फ़रिश्ते कहां सो गये? और अपने सेवकों के शत्रुओं को ख़ुदा पूर्व मारता-डुबाता था, यह बात सच्ची हो, तो आजकल भी ऐसा करे। जिससे ऐसा नहीं होता, इसलिये यह बात मानने योग्य नहीं।
[विधर्मियों को मारने की आज्ञा ईश्वर की नहीं हो सकती]
अब देखिये, यह कैसी बुरी आज्ञा है कि जो कुछ तुम कर सको वह भिन्न मत-वालों के लिये दुःखदायक कर्म करो, ऐसी आज्ञा विद्वान् और धार्मिक-दयालु की नहीं हो सकती। फिर लिखते हैं कि ख़ुदा दयालु और न्यायकारी है। ऐसी बातों से मुसलमानों के ख़ुदा से न्याय और दयादि सद्गुण दूर बसते हैं॥८९॥
[नबी को युद्ध भड़काने का आदेश; लूट का माल हलाल]
९०. ऐ नबी! किफ़ायत है तुझको अल्लाह और उनको जिन्होंने मुसलमानों से तेरा पक्ष किया।६४। ऐ नबी! रग़बत अर्थात् चाह-चस्का दे मुसलमानों को ऊपर लड़ाई के। जो हों तुम में से वीस आदमी जमे रहनेवाले लड़ाई में, तो पराजय करें दो सौ का।६५। बस, खाओ उस वस्तु से कि लूटा है तुमने हलाल=पवित्र और डरो अल्लाह से। वह क्षमा करने वाला दयालु है।६९।
मं॰ २। सि॰ १०। सू॰ ८। आ॰ ६४। ६५। ६९॥
[युद्ध भड़काने और लूट मार की बातें ख़ुदा नहीं कह सकता]
समीक्षक―भला, यह कौन-सी न्याय, विद्वत्ता और धर्मात्मता की बात है कि जो अपना पक्ष करे और चाहे अन्याय भी करे, उसी का पक्ष [करे] और लाभ ख़ुदा पहुंचावे? और जो प्रजा में शान्तिभंग करके लड़ाई करे-करावे और लूट-मार के पदार्थों को हलाल बतलावे और फिर उसी का नाम 'क्षमावान्' 'दयालु' लिखे; यह बात ख़ुदा की तो क्या किन्तु किसी भले आदमी की भी नहीं हो सकती। ऐसी-ऐसी बातों से 'क़ुरान' ईश्वरवाक्य कभी नहीं हो सकता॥९०॥
[माँ-बाप को छोड़ दो, काफ़िरों से लड़ो]
९१. सदा रहेंगे बीच उसके, अल्लाह समीप है उसके पुण्य बड़ा।२२। ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो तो मत पकड़ो [मित्र बनाओ] बापों अपने को, और भाइयों अपने को, मित्र जो दोस्त रक्खें कुफ्र को ऊपर ईमान के [जो कोई उनसे मित्रता का नाता जोड़ेगा, वे ज़ालिम होंगे]।२३। फिर उतारी अल्लाह ने तसल्ली अपनी ऊपर रसूल अपने के और ऊपर मुसलमानों के, और उतारे लश्कर, नहीं देखा तुमने उनको और अज़ाब किया उन लोगों को, और यही सजा है काफ़िरों को।२६। फिर-फिर आवेगा अल्लाह पीछे उसके ऊपर [जिसको चाहे]।२७।और लड़ाई करो उन लोगों से जो ईमान नहीं लाते…..।२९।
मं॰ २। सि॰ १०। सू॰ ९। आ॰ २२। २३। २६। २७। २९॥
[सर्वव्यापक ईश्वर बहिश्त वालों के ही पास कैसे ?]
समीक्षक―भला, जो बहिश्तवालों के समीप अल्लाह रहता है, तो सर्वव्यापक नहीं हो सकता। जो सर्वव्यापक नहीं तो सृष्टिकर्त्ता और न्यायाधीश नहीं हो सकता।
[माँ-बाप को छुड़वाना अन्याय है]
और अपने मा, बाप, भाई और मित्र को छुड़वाना केवल अन्याय की बात है। हां, जो वे बुरा उपदेश करें, [तो उसको] न मानना; परन्तु उनकी सेवा सदा करनी चाहिये।
[अब ख़ुदा अपनी फौज लेकर क्यों नहीं आता ?]
जो पहले ख़ुदा मुसलमानों पर सन्तोषी था और उनके सहाय्य के लिये लश्कर उतारता था, [यदि यह] सच हो, तो अब ऐसा क्यों नहीं करता? और जो प्रथम काफ़िरों को दण्ड देता और पुनः-पुनः उसके ऊपर आता था, तो अब कहां गया? क्या ख़ुदा विना लड़ाई के ईमान नहीं बना सकता? ऐसे ख़ुदा को हमारी ओर से सदा तिलांजलि है। ख़ुदा क्या है, एक खिलाड़ी है!॥९१॥
[आपस में अन्याय न करो, ख़ुदा के हुक्म की प्रतीक्षा]
९२. ….बस, मत अन्याय करो बीच उसके आपस में, और लड़ो मुश्रिकों से इकट्ठे, जैसा लड़ते हैं।३६। और हम बाट देखनेवाले हैं वास्ते तुम्हारे यह कि पहुंचावे तुम को अल्लाह अज़ाब अपने पास से वा हमारे हाथों से।५२।
मं॰ २। सि॰ १०। सू॰ ९। आ॰ ३६। ५२॥
[आपस में न्याय दूसरों से अन्याय करना अधर्म है]
समीक्षक―क्या मुसलमान लोग आपस में न्याय और दूसरों पर अन्याय करना धर्म समझते हैं? और ऐसा है, तो मुसलमान लोग अन्याय की मूर्तियाँ हैं।
क्या मुसलमान ही अल्लाह की पुलिस बन गये हैं कि वह अपने हाथ वा मुसलमानों के हाथों से अन्य किन्हीं मत-वालों को दण्ड देता है? क्या दूसरे करोड़ों मनुष्य अल्लाह को अप्रिय हैं? [और] मुसलमानों में पापी भी प्रिय हैं? इसलिये अन्धेर नगरी गवरगण्ड राजा की- सी व्यवस्था दीखती है। आश्चर्य है कि जो बुद्धिमान् मुसलमान हैं, वे भी इस निर्मूल, अयुक्त मत को मानते हैं॥९२॥
[मुसलमानों को बहिश्त, अल्लाह से हास्य-विनोद]
९३. प्रतिज्ञा की है अल्लाह ने ईमानवालों से और ईमानवालियों से, बहिश्तें चलती हैं नीचे उनके से नहरें, सदैव रहनेवाली बीच उसके; और घर पवित्र बीच बहिश्तों अदन के और प्रसन्नता अल्लाह की और सबसे बड़ी है और यह कि वह है मुराद-पाना बड़ा।७२। ….बस जो ठट्ठा करते हैं उनसे, ठट्ठा किया है अल्लाह ने उनसे।७९।
मं॰ २। सि॰ १०। सू॰ ९। आ॰ ७२। ७९॥
[बहिश्त का लालच देकर लोगों को बहकाना]
समीक्षक―यह ख़ुदा की ओर से स्त्री-पुरुषों को लोभ देना है अपने मतलब के लिये; क्योंकि जो ऐसा प्रलोभन न देते तो कोई मुहम्मद साहब के जाल में न फसता। ऐसे ही अन्य मत-वाले भी किया करते हैं। भला, मनुष्य लोग तो आपस में ठट्ठा किया ही करते हैं, परन्तु ख़ुदा को किसी से ठट्ठा करना उचित नहीं है। यह 'क़ुरान' ग्रन्थ क्या है, बड़ा खेल है॥९३॥
[जिहाद करनेवाले अच्छे, काफ़िरों के दिलों पर मोहर]
९४. परन्तु रसूल और जो लोग कि साथ उसके ईमान लाये जिहाद किया उन्होंने साथ धन अपने के तथा जान अपनी के और इन्हीं लोगों के लिये भलाई है।८८। ….और मोहर रक्खी अल्लाह ने ऊपर दिलों उनके के, बस वे नहीं जानते।९३।
मं॰ २। सि॰ १०। सू॰ ९। आ॰ ८८। ९३॥
[ईमान न लाने वालों को बुरा बताना ठीक नहीं]
समीक्षक―अब देखिये मतलबसिन्धु की बात कि वे ही भले हैं जो मुहम्मद साहब के साथ ईमान लाये! और जो नहीं लाये, वे बुरे हैं! क्या यह बात पक्षपात और अविद्या से भरी हुई नहीं है?
[भलाई करने से रोकना अन्याय]
जब ख़ुदा ने मोहर ही लगा दी, तो उनका पाप करने में कोई अपराध भी नहीं, किन्तु ख़ुदा का ही अपराध है, क्योंकि उन बेचारों को भलाई से, दिलों पर मोहर लगाके रोक दिया, यह कितना बड़ा अन्याय है!॥९४॥
[माल के बदले पवित्रता; काफ़िरों से लड़ने वालों को बहिश्त]
९५. ले माल उनके से ख़ैरात कि पवित्र करे तू उनको और शुद्ध करे तू उनको साथ उसके अर्थात् गुप्त में।१०३। ….निश्चय अल्लाह ने मोल ली हैं मुसलमानों से जानें उनकी और धन उनके बदले, कि वास्ते उनके बहिश्त है; लड़ेंगे बीच मार्ग अल्लाह के, बस मारेंगे और मर जावेंगे….।१११।
मं॰ २। सि॰ ११। सू॰ ९। आ॰ १०३। १११॥
[माल लेकर पवित्र करना पूरा पाखण्ड]
समीक्षक―वाह जी वाह मुहम्मद साहब! आपने तो गोकुलिये गोसाँइयों की बराबरी कर ली, क्योंकि उनका माल लेना और उनको गुप्त में पवित्र करना, यही बात तो गोसाँइयों की है।
[मुसलमानों के हाथ से गरीबों को मरवाना कहां का धर्म है ?]
वाह ख़ुदा जी! आपने अच्छी सौदागरी लगाई कि मुसलमानों के हाथ से अन्य गरीबों के प्राण लेना ही लाभ समझा!! और उन अनाथों को मरवाकर उन निर्दयी मनुष्यों को स्वर्ग देने से, दया और न्याय से मुसलमानों का ख़ुदा हाथ धो बैठा और अपनी खुदाई में बट्टा लगाके बुद्धिमान् धार्मिकों में घृणित हो गया॥९५॥
[पड़ौसी काफ़िरों को धोखे से मरवाना]
९६. ऐ लोगो! जो ईमान लाये हो, लड़ो उन लोगों से कि पास तुम्हारे हैं काफ़िरों से, और चाहिये कि पावें बीच तुम्हारे सख्ती….।१२३। क्या नहीं देखते यह कि वे बलाओं में डाले जाते हैं बीच हर वर्ष के एक वार वा दो वार, फिर वे नहीं तौबा करते और न वे शिक्षा पकड़ते हैं।१२६।
मं॰ २। सि॰ ११। सू॰ ९। आ॰ १२३। १२६॥
[पड़ोसियों को धोखे से मारना विश्वासघात]
समीक्षक―देखिये, ये भी विश्वासघात की बातें ख़ुदा मुसलमानों को सिखलाता है कि चाहे पड़ोसी हों वा किसी के नौकर हों, जब अवसर पावें, तभी लड़ाई वा घात करें। ऐसी बातें मुसलमानों से बहुत बन गई हैं इसी 'क़ुरान' के लेख से। अब तो मुसलमान, समझके, इन 'क़ुरानोक्त' बुराइयों को छोड़ दें, तो बहुत अच्छा है॥९६॥
[६ दिन में जगत् की रचना, फिर विश्राम]
९७. निश्चय परवरदिगार तुम्हारा अल्लाह है जिसने पैदा किया आसमानों और पृथिवी को बीच छः दिन के। फिर क़रार पकड़ा ऊपर अर्श के तदबीर करता है काम की...।३।
मं॰ ३। सि॰ ११। सू॰ १०। आ॰ ३॥
[आकाश अनादि है, उसे बनाने की बात अज्ञानता]
समीक्षक―क्या अल्लाह तुम्हारी नित्य सेवा करता है? आसमान=आकाश एक, और विना बनाया हुआ अनादि है, उसका बनाना लिखने से निश्चय हुआ कि वह 'क़ुरान' का कर्त्ता 'पदार्थविद्या' को नहीं जानता था।
[छः दिन में जगत् बनाया; 'होजा और होगया' में कौन सत्य ?]
क्या परमेश्वर को सृष्टि को छः दिन तक बनाना पड़ता है? तो जो "हो मेरे हुक्म से और हो गया" जब 'क़ुरान' में ऐसा लिखा है फिर छः दिन कभी नहीं लग सकते। और छः दिन लगना झूठ है।
[व्यापक होता तो ऊपर सिंहासन पर कैसे बैठता ?]
जो वह व्यापक होता, तो ऊपर अर्श के क्यों ठहरता? और जब तदबीर करता है काम की तो ठीक तुम्हारा ख़ुदा मनुष्य के समान है, क्योंकि जो सर्वज्ञ है, वह बैठा-बैठा तदबीर क्या करेगा? इससे विदित होता है कि ईश्वर को न जाननेवाले जंगली लोगों ने यह पुस्तक बनाया होगा॥९७॥
[क्या ख़ुदा की शिक्षा और दया केवल मुसलमानों के लिये है ?]
९८. शिक्षा और दया वास्ते मुसलमानों के...।५७।
मं॰ ३। सि॰ ११। सू॰ १०। आ॰ ५७॥
समीक्षक―क्या यह ख़ुदा मुसलमानों का ही है? दूसरों का नहीं? और पक्षपाती है, जो मुसलमानों पर ही दया करे अन्य मनुष्यों पर नहीं। यदि मुसलमान ईमानदारों को कहते हैं, तो उनके लिये शिक्षा की आवश्यकता ही नहीं। और मुसलमानों से भिन्नों को उपदेश नहीं करता, तो ख़ुदा की विद्या ही व्यर्थ है॥९८॥
[अर्श पानी के ऊपर, कर्मों की परीक्षा; मृत्यु के पीछे उठाये जाना]
९९. …..और था अर्श अर्थात् सिंहासन उसका ऊपर पानी के, तो कि परीक्षा लेवे तुमको, कौन तुममें से अच्छा है कर्मों में, जो कहे तू, अवश्य उठाये जाओगे तुम पीछे मृत्यु के….।७।
मं॰ ३। सि॰ ११। सू॰ ११। आ॰ ७॥
[पानी पर सिंहासन होने व एक देशी होने से ख़ुदा नहीं, परीक्षा करने से सर्वज्ञ भी नहीं]
समीक्षक―जब पानी पर ख़ुदा का सिंहासन है, तो वह एकदेशी होने से ख़ुदा ही नहीं बन सकता और जब कर्मों की परीक्षा करता है, तो सर्वज्ञ ही नहीं। और जो मृत्यु पीछे उठाता है, तो दौरासुपुर्द रखता है और अपने नियम जो कि 'मरे हुए न जीवें', [को] तोड़ता है। यह ख़ुदा को बट्टा लगता है॥९९॥
[अल्लाह की निशानी ऊंटनी]
१००. और कहा गया―'ऐ पृथिवी! अपना पानी निगल जा, और ऐ आसमान! बस कर, और पानी सूख गया….।४४। और ऐ क़ौम मेरे! यह है कि निशानी ऊंटनी अल्लाह की वास्ते तुम्हारे, बस, छोड़ दो उसको बीच पृथिवी अल्लाह के खाती फिरे'....।६४।
मं॰ ३। सि॰ ११। सू॰ ११। आ॰ ४४। ६४॥
[पृथिवी व आकाश नहीं सुन सकते, ख़ुदा के पास ऊंटनी है तो हाथी घोड़े भी होंगे]
समीक्षक―क्या लड़केपन की बात है! पृथिवी और आकाश कभी बात सुन सकते हैं? वाह जी वाह! ख़ुदा के ऊंटनी भी है, तो ऊंट भी होगा? तो हाथी, घोड़े, गधे आदि भी होंगे? और ख़ुदा का ऊंटनी से खेत खिलाना क्या अच्छी बात है? क्या ऊंटनी पर चढ़ता भी है? जो ऐसी बातें हैं तो नवाबी की-सी घसड़-पसड़ ख़ुदा के घर में भी हुई॥१००॥
[सदा रहेंगे बहिश्त में]
१०१. और सदैव रहनेवाले बीच उसके जब तक कि रहें आसमान और पृथिवी...।१०७। और जो लोग सुभागी हुए, बस, बहिश्त के सदा रहनेवाले हैं, जब तक रहें आसमान और पृथिवी….।१०८।
मं॰ ३। सि॰ १२। सू॰ ११। आ॰ १०७। १०८॥
[बहिश्त में सदा कैसे जबकि वह सावधि है ?]
समीक्षक―जब दोज़ख और बहिश्त में क़यामत के पश्चात् सब लोग जायेंगे फिर आसमान और पृथिवी किसलिये रहेगी? और तब दोज़ख और बहिश्त के, आसमान-पृथिवी के रहने तक अवधि हुई तो 'सदा रहेंगे बहिश्त वा दोज़ख में', यह बात झूठी हुई। ऐसा कथन अविद्वानों का होता है, ईश्वर वा विद्वानों का नहीं॥१०१॥
[बाप बेटे का संवाद]
१०२. जब यूसुफ़ ने अपने बाप से कहा कि "ऐ बाप मेरे! मैंने एक स्वप्न में देखा".....।४।
मं॰ ३। सि॰ १२। सू॰ १२। आ॰ ४ से ५९ तक [और आगे १०१ तक]॥
[जिस पुस्तक में इतिहास भरा हो, वह ईश्वरीय कैसे ?]
समीक्षक―इस प्रकरण में पिता-पुत्र का संवादरूप किस्सा-कहानी भरी है, इसलिये 'क़ुरान' ईश्वर का बनाया नहीं। किसी मनुष्य ने मनुष्यों का इतिहास लिख दिया है॥१०२॥
[ख़ुदा की सर्वशक्तिमत्ता]
१०३. अल्लाह वह है जिसने खड़ा किया आसमानों को विना खंभे के देखते हो तुम उसको, फिर आराम किया ऊपर अर्श के अर्थात् स्वर्ग में, आज्ञा वर्तनेवाला किया सूरज और चांद को।२। और वही है जिसने बिछाया पृथिवी को।३। उतारा आसमान से पानी; बस, बहे नाले साथ अन्दाजे के।१७। अल्लाह खोलता है भोजन को वास्ते जिसको चाहे और तंग करता है।२६।
मं॰ ३। सि॰ १३। सू॰ १३। आ॰ २। ३। १७। २६॥
[आकाश को खम्भों की क्या आवश्यकता ?]
समीक्षक―मुसलमानों का ख़ुदा 'पदार्थविद्या' कुछ भी नहीं जानता था। जो जानता, तो गुरुत्व न होने से, आसमान को खंभा लगाने की कथा कहने की कुछ भी आवश्यकता न थी। यदि ख़ुदा स्वर्गरूप=अर्शरूप एक स्थान में रहता है, तो वह सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक नहीं हो सकता।
[यह ख़ुदा वृष्टि विज्ञान का ज्ञाता नहीं]
और जो ख़ुदा 'मेघविद्या' जानता तो 'आकाश से पानी उतारा' लिखा, पुनः यह क्यों न लिखा कि 'पृथिवी से पानी ऊपर चढ़ाया'। इससे निश्चय हुआ कि 'क़ुरान' का बनानेवाला 'मेघ की विद्या' को भी नहीं जानता था। और जो विना अच्छे-बुरे कामों के सुख-दुःख देता है, तो पक्षपाती, अन्यायकारी, निरक्षर-भट्ट है॥१०३॥
[अल्लाह गुमराह भी करता है, और मार्ग भी दिखलाता है]
१०४. ….कह, निश्चय अल्लाह गुमराह करता है, जिसको चाहता है और मार्ग दिखलाता है, तरफ़ अपनी उस मनुष्य को रुजू करता है।२७।
मं॰ ३। सि॰ १३। सू॰ १३। आ॰ २७॥
[जो गुमराह करे ख़ुदा नहीं शैतान है]
समीक्षक―जब अल्लाह गुमराह करता है, तो ख़ुदा और शैतान में क्या भेद हुआ? जबकि शैतान दूसरों को गुमराह अर्थात् बहकाने से बुरा कहाता है, तो ख़ुदा भी वैसा ही काम करने से शैतान क्यों नहीं? और बहकाने के पाप से [उसको] दोज़खी क्यों नहीं होना चाहिये?॥१०४॥
[क़ुरान को अरबी में उतारना]
१०५. इसी प्रकार उतारा हमने इस 'क़ुरान' को अरबी में, जो पक्ष करेगा तू उनकी इच्छा का पीछे इसके आई तेरे पास विद्या से….।३७। बस, सिवाय इसके नहीं कि ऊपर तेरे पैग़ाम पहुंचाना है और ऊपर हमारे है हिसाब लेना।४०।
मं॰ ३। सि॰ १३। सू॰ १३। आ॰ ३७। ४०॥
[ख़ुदा ऊपर रहता है, तो वह एकदेशी हुआ]
समीक्षक―'क़ुरान' किधर की ओर से उतारा? क्या ख़ुदा ऊपर रहता है? जो यह बात सच है, तो वह एकदेशी होने से ईश्वर ही नहीं हो सकता, क्योंकि ईश्वर सब ठिकाने एकरस व्यापक है।
[पैग़ाम पहुंचाना, हिसाब लेना-देना मानव-कार्य है]
पैग़ाम पहुँचाना हल्कारे का काम है और हल्कारे की आवश्यकता उसी को होती है, जो मनुष्यवत् एकदेशी हो। और हिसाब लेना-देना भी मनुष्य का काम है, ईश्वर का नहीं, क्योंकि वह सर्वज्ञ है। [इससे] यह निश्चय होता है कि किसी अल्पज्ञ मनुष्य का बनाया 'क़ुरान' है॥१०५॥
[मनुष्य अन्यायी और पापी है]
१०६. और किया सूर्य, चन्द्र को सदैव फिरने वाले।३३। ….निश्चय आदमी अवश्य अन्याय और पाप करनेवाला है।३४।
मं॰ ३। सि॰ १३। सू॰ १४। आ॰ ३३। ३४॥
[क्या चन्द्रसूर्य फिरते हैं; पृथिवी नहीं घूमती ?]
समीक्षक―क्या चन्द्र, सूर्य सदा फिरते और पृथिवी नहीं फिरती? जो पृथिवी नहीं फिरे तो कई वर्षों के दिन-रात होवें।
[संसार में पुण्यात्मा भी हैं, केवल पापी ही नहीं]
और जो मनुष्य निश्चय अन्याय और पाप करनेवाला है, तो 'क़ुरान' से शिक्षा करना व्यर्थ है, क्योंकि जिनका स्वभाव पाप ही करने का है, तो उनमें पुण्यात्मता कभी न होगी। और संसार में पुण्यात्मा और पापात्मा सदा दीखते हैं, इसलिये ऐसी बात ईश्वरकृत पुस्तक की नहीं हो सकती।
[निश्चय और अवश्य शब्द एकार्थक होने से पुनरुक्त]
और 'निश्चय', 'अवश्य' ये दोनों शब्द एकार्थक होने से पुनरुक्त हैं। पुनरुक्त प्रमत्त वाक्य होता है॥१०६॥
[आदम में ख़ुदा की रूह; ख़ुदा ने शैतान को बहकाया]
१०७. ….बस, जब ठीक करूँ मैं उसको, और फूंक दूं बीच उसके रूह अपनी से। बस, गिर पड़ो वास्ते उसके सिज़्दा करते हुए।२९। कहा ऐ रब मेरे ! इस कारण कि गुमराह किया तूने मुझको, अवश्य ज़ीनत दूंगा मैं बीच वास्ते उसके पृथिवी के, और गुमराह करूंगा।३९।
मं॰ ३। सि॰ १४। सू॰ १५। आ॰ २९। से ३९॥
[फिर तो आदम भी ख़ुदा का रूप हुआ ?]
समीक्षक―जो ख़ुदा ने अपनी रूह आदम साहब में डाली, तो वह भी ख़ुदा हुआ और जो वह ख़ुदा न था, तो सिज़्दा अर्थात् नमस्कारादि भक्ति करने में अपना 'शरीक' क्यों किया?
[ख़ुदा ने शैतान को बहकाया, तो वह भी शैतान क्यों नहीं ?]
जब शैतान को गुमराह करनेवाला ख़ुदा ही है, तो वह शैतान का भी शैतान, बड़ा भाई [और] गुरु क्यों नहीं? क्योंकि तुम लोग बहकानेवाले को शैतान मानते हो, तो ख़ुदा ने भी शैतान को बहकाया और प्रत्यक्ष शैतान ने कहा कि "मैं बहकाऊंगा", फिर भी उसको दण्ड देकर क़ैद क्यों न किया? और मार क्यों न डाला?॥१०७॥
[हर समुदाय में पैग़म्बर भेजे, कहा 'हो जा' बस हो जाती है]
१०८.उत्पन्न किया आदमी को शुक्र से।४। बस, एक ही वार…..और निश्चय भेजे हमने बीच हर उम्मत के पैग़म्बर….।३६। ….जब चाहते हैं हम उसको, यह कहते हैं हम उसको, 'हो', बस, हो जाती है।४०।
मं॰ ३। सि॰ १४। सू॰ १६। आ॰ ४। ३६। ४०॥
[तो फिर अन्य पैग़म्बरों की बात मान्य क्यों नहीं ?]
समीक्षक―इससे एक जन्म सिद्ध होता है, परन्तु इसमें बड़ी भारी भूल है; क्योंकि जन्म अनेक होते हैं। जब जीव अनादि हैं तो उनके गुण, कर्म, स्वभाव भी अनादि हैं। उसका फल-भोग भी अनादि से चला आता है। पश्चात् एक जन्म का मानना व्यर्थ है। इसका विशेष संवाद नवम समुल्लास में देख लेना। जो सब क़ौमों पर पैग़म्बर भेजे हैं, तो सब लोग जो कि पैग़म्बर की राय पर चलते हैं, वे काफ़िर क्यों? क्या दूसरे पैग़म्बर का मान्य नहीं, सिवाय तुम्हारे पैग़म्बर के? यह सर्वथा पक्षपात की बात है। जो सब देश में पैग़म्बर भेजे, तो आर्यावर्त में कौन-सा भेजा? इसलिये यह बात मानने योग्य नहीं।
[किससे कहा कि―'हो जा', और कौन हो गया ?]
जब ख़ुदा चाहता है और कहता है कि 'पृथिवी हो जा', वह जड़ कभी नहीं सुन सकती। ख़ुदा का हुक्म क्योंकर बजा सकेगी? और सिवाय ख़ुदा के दूसरी चीज नहीं मानते, तो सुना किसने? और हो कौन गया? ये सब अविद्या की बातें हैं, ऐसी बातों को मूढ लोग मानते हैं॥१०८॥
[अल्लाह के लिये बेटियां]
१०९. और नियत करते हैं वास्ते अल्लाह के बेटियां, पवित्रता है उसको, और वास्ते उनके हैं जो कुछ चाहें।५७। क़सम अल्लाह की अवश्य भेजे हमने पैग़म्बर।६३।
मं॰ ३। सि॰ १४। सू॰ १६। आ॰ ५७। ६३॥
[अल्लाह को बेटियों की क्या आवश्यकता]
समीक्षक―अल्लाह बेटियों से क्या करेगा? बेटियां तो किसी मनुष्य को चाहियें। क्यों बेटे नियत नहीं किये जाते? और बेटियां नियत की जाती हैं, इसका क्या कारण है, बताइये?
[कसम खाना झूठों का काम है, और कसम कौन खा रहा है।]
क़सम खाना झूठों का काम है, ख़ुदा की बात नहीं, क्योंकि बहुधा संसार में ऐसा देखने में आता है कि जो झूठा होता है वही क़सम खाता है, सच्चा सौगन्द क्यों खावे?॥१०९॥
[दिल कान और आंख पर मोहर लगाना]
११०. ये लोग वे हैं कि मोहर रक्खी अल्लाह ने ऊपर दिलों उनके और कानों उनके और आँखों उनकी के और ये लोग वे हैं बेख़बर।१०८। और पूरा दिया जावेगा हर जीव को जो कुछ किया है और वे अन्याय न किये जावेंगे।१११।
मं॰ ३। सि॰ १४। सू॰ १६। आ॰ १०८। १११॥
[कान आदि पर मोहर लगा दी, तो ख़ुदा ही फल भोगे ?]
समीक्षक―जब ख़ुदा ही ने मोहर लगा दी तो वे बेचारे विना अपराध मारे गये, क्योंकि उनको पराधीन कर दिया। यह कितना बड़ा अपराध है? और फिर कहते हैं कि जिसने जितना किया है उतना ही उनको दिया जायेगा, न्यूनाधिक नहीं। भला, उन्होंने स्वतन्त्रता से पाप किये ही नहीं किन्तु ख़ुदा के कराने से किये, पुनः उनका अपराध ही न हुआ, उनको फल न मिलना चाहिये। इसका फल ख़ुदा को मिलना उचित है
[पूरा फल मिलता है तो क्षमा की बात समाप्त]
और जो पूरा दिया जाता है, तो क्षमा किस बात की की जाती है? जो क्षमा की जाती है, तो न्याय उड़ जाता है। ऐसा गड़बड़ाध्याय की बात ईश्वर की कभी नहीं हो सकती, किन्तु निर्बुद्धि छोकरों की होती है॥११०॥
[काफ़िरों के लिये दोज़ख़; गर्दन में कर्म पत्र बांधना]
१११. ….और किया हमने दोज़ख़ को, वास्ते काफ़िरों के घेरनेवाला स्थान।८। और हर आदमी को लगा दिया हमने उसको अमलनामा उसका बीच गर्दन उसकी के, और निकालेंगे हम वास्ते उसके दिन क़यामत के एक किताब कि देखेगा उसको खुला हुआ।१३। और बहुत मारे हमने क़ुरनून से पीछे नूह के….।१७।
मं॰ ४। सि॰ १५। सू॰ १७। आ॰ ८। १३। १७॥
[केवल काफ़िरों के लिये ही दोज़ख़ की बात पक्षपात]
समीक्षक―यदि काफ़िर वे ही हैं कि जो 'क़ुरान', पैग़म्बर और 'क़ुरान' के कहे ख़ुदा, सातवें आसमान और 'नमाज़' आदि को न मानने वाले [हैं], उन्हीं के लिये दोज़ख़ होवे; तो यह बात केवल पक्षपात की ठहरेगी। क्योंकि क्या 'क़ुरान' के ही माननेवाले सब अच्छे और अन्य के माननेवाले सब बुरे कभी हो सकते हैं?
[हम तो किसी गर्दन में कर्म पुस्तक बन्धी नहीं देखते]
यह बड़ी लड़केपन की बात है कि उसकी गर्दन पर कर्म की किताब खुदा ने लिख दी। यह बात सर्वथा विरुद्ध है, क्योंकि गर्दन की नाड़ी-नाड़ी और हाड़-हाड़ देखने से भी कुछ भी कहीं लिखा नहीं पाता,
[आजकल वह ख़ुदा की बही कहां है ?]
और क़यामत की रात को ख़ुदा किताब निकालेगा तो आजकल वह किताब कहां है? क्या साहूकार की बही-समान लिखता रहता है? हां, यहां यह विचारना चाहिये कि जो पूर्वजन्म नहीं, तो जीवों के कर्म ही नहीं हो सकते, तो फिर कर्म की किताब क्या लिखी? जो विना कर्म के लिखा तो उन पर अन्याय किया, क्योंकि विना अच्छे-बुरे कर्मों के उनको सुख-दुःख क्यों दिया?
[अपनी मर्जी से विना कर्म के फल देना अन्याय]
जो कहो कि ख़ुदा की मर्ज़ी, तो भी उसने अन्याय किया। अन्याय उसी को कहते हैं कि विना बुरे-भले कर्म किये दुःख-सुखरूप फल न्यूनाधिक देना। और उस समय ख़ुदा ही किताब बांचेगा वा कोई सरिश्तःदार सुनावेगा? जो ख़ुदा ने ही दीर्घकाल सम्बन्धी जीवों को विना अपराध मारा तो वह अन्यायकारी हो गया। जो अन्यायकारी होता है वह ख़दा ही नहीं हो सकता॥१११॥
[समूद को ऊंटनी, दाहिने हाथ में अमलनामा]
११२. ….और दिया हमने समूद को ऊंटनी प्रमाण….।५९। और बहका जिसको बहका सके….।६४। जिस दिन बुलावेंगे हम उन लोगों को साथ पेशवाओं उनके के; बस, जो कोई दिया गया अमलनामा उसका बीच दहिने हाथ उसके के…..।७१।
मं॰ ४। सि॰ १५। सू॰ १७। आ॰ ५९। ६४। ७१॥
[क्या केवल ऊंटनी ही ख़ुदा के होने में प्रमाण है ?]
समीक्षक―वाह! जितनी ख़ुदा की निशानियां साश्चर्य हैं, उनमें से एक ऊंटनी भी ख़ुदा के होने में प्रमाण अथवा परीक्षा में साधक है !
[शैतान के द्वारा बहकाने वाला स्वयं शैतान क्यों नहीं ?]
यदि ख़ुदा ने शैतान को बहकाने का हुक्म दिया, तो ख़ुदा ही शैतान का सरदार और सब पाप करानेवाला ठहरा। ऐसे को ख़ुदा कहना केवल कम-समझ की बात है।
[उत्तम न्यायाधीश तो सदा शीघ्र न्याय करते हैं]
जब क़यामत की रात अर्थात् प्रलय में ही न्याय करने-कराने के लिये पैग़म्बर और उनके उपदेश माननेवालों को ख़ुदा बुलावेगा, तो जब तक प्रलय न होगा, तब तक सब दौरासुपुर्द रहे, और दौरासुपुर्द सबको दुःखदायक है जब तक न्याय न किया जाय। इसलिये शीघ्र न्याय करना न्यायाधीश का उत्तम काम है।
[यह तो पोपांबाई का न्याय ठहरा, इसे न्याय नहीं कहते]
यह तो 'पोपाँबाई का न्याय' ठहरा। जैसे कोई न्यायाधीश कहे कि जब तक पचास वर्ष तक के चोर और साहूकार इकट्ठे न हों, तब तक उनको दण्ड [न देना चाहिये] वा प्रतिष्ठा न करनी चाहिये; वैसे ही यह हुआ कि एक तो पचास वर्ष तक दौरासुपुर्द रहा और एक आज ही पकड़ा गया। ऐसा काम न्याय का नहीं हो सकता। न्याय तो वेद और 'मनुस्मृति' का देखो जिसमें क्षणमात्र भी विलम्ब नहीं होता और अपने-अपने कर्मानुसार दण्ड वा प्रतिष्ठा सदा पाते रहते हैं।
[पैग़म्बरों की गवाही की ईश्वर को क्या आवश्यकता]
दूसरा, पैग़म्बरों को गवाही के तुल्य रखने से ईश्वर की सर्वज्ञता की हानि है। भला, ऐसा पुस्तक ईश्वरकृत और ऐसे पुस्तक का उपदेश करनेवाला ईश्वर कभी ईश्वर हो सकता है? कभी नहीं॥११२॥
[मुसलमानों की बहिश्त]
११३. ये लोग वास्ते उनके हैं बाग़ हमेशह रहने के, चलती हैं नीचे उनके से नहरें, गहना पहिनाये जावेंगे बीच उसके कंगन सोने के-से, और पोशाक पहिनेंगे वस्त्र हरित लाहि के से, और ताफ़ते के से, तकिये किये हुए बीच उसके ऊपर तख़्तों के, अच्छा है पुण्य और अच्छी है बहिश्त लाभ उठाने की।३१।
मं॰ ४। सि॰ १५। सू॰ १८। आ॰ ३१॥
[उस बहिश्त में यहां से अधिक क्या है ?]
समीक्षक―वाह जी वाह! क्या 'क़ुरान' का स्वर्ग है जिसमें बाग़, गहने, कपड़े, गद्दी, तकिये आनन्द के लिये हैं। भला, कोई बुद्धिमान् यहां विचार करे, तो यहां से वहां मुसलमानों के बहिश्त में अधिक कुछ भी नहीं है, सिवाय अन्याय के। वह यह कि कर्म उनके अन्तवाले, और फल उनके अनन्त।
[दुःख भोग के विना सुख का मजा नहीं]
और जो मीठा नित्य खावे, तो थोड़े दिन में विष के समान प्रतीत होता है। जब सदा वे सुख भोगेंगे, तो उनको सुख ही दुःख रूप हो जायगा। इसलिये महाकल्प पर्यन्त मुक्तिसुख भोगके पुनर्जन्म पाना ही सत्य सिद्धान्त है॥११३॥
[बस्तियों का नाश करना]
११४. और यह बस्तियां हैं कि मारा हमने उनको जब अन्याय किया उन्होंने, और हमने उनके मारने की प्रतिज्ञा स्थापन की।५९।
मं॰ ४। सि॰ १५। सू॰ १८। आ॰ ५९॥
[क्या कभी सारी बस्ती पापी हो सकती है ?]
समीक्षक―भला, सब बस्ती-भर पापी कभी हो सकती है? और पीछे से प्रतिज्ञा करने से ईश्वर सर्वज्ञ नहीं रहा, क्योंकि जब उनका अन्याय देखा तब प्रतिज्ञा की, पहले नहीं जानता था। इससे दयाहीन भी ठहरा॥११४॥
[ख़ुदा का डरना; सूर्य का कीचड़ के चश्में में डूबना]
११५. और वह जो लड़का, बस, थे मा-बाप उसके ईमानवाले। बस, डरे हम यह कि पकड़ उनको सरकशी में और कुफ़्र में।८०। यहां तक कि पहुंचा जगह डूबने सूर्य की, पाया उसको डूबता था बीच चश्मे कीचड़ के।८६। कहा, ऐ ज़ुलक़रनैन! निश्चय याजूज, माजूज फ़साद करनेवाले हैं बीच पृथिवी के….।९४।
मं॰ ४। सि॰ १६। सू॰ १८। आ॰ ८०। ८६। ९४॥
[भय की बात ख़ुदा में कैसे हो सकती है ?]
समीक्षक―भला, यह ख़ुदा की कितनी बेसमझ है। शङ्का से डरा कि लड़क अपने मा-बाप को कहीं मेरे मार्ग से बहकाकर उलटे न कर दिये जावें। यह कभी ईश्वर की बात नहीं हो सकती।
[सूर्य किसी नदी, झील वा समुद्र में कैसे डूब सकता है ?]
अब आगे की अविद्या की बात देखिये कि इस किताब का बनानेवाला सूर्य को एक झील में रात्रि में डूबा जानता है, फिर प्रातःकाल निकलता है। भला, सूर्य तो पृथिवी से बहुत बड़ा है, वह नदी वा झील वा समुद्र में कैसे डूब सकेगा? इससे यह विदित हुआ कि 'क़ुरान' के बनानेवाले को 'भूगोल-खगोल की विद्या' नहीं थी। जो होती तो ऐसी विद्याविरुद्ध बात क्यों लिखता? और इस पुस्तक के माननेवालों को भी विद्या नहीं है। जो होती तो ऐसी मिथ्या बातों से युक्त पुस्तक को क्यों मानते?
[ख़ुदा ने पृथिवी पर फ़साद क्यों होने दिया]
अब देखिये ख़ुदा का अन्याय! आप ही पृथिवी का बनानेवाला राजा न्यायाधीश है और याजूज, माजूज को पृथिवी में फ़साद भी करने देता है। यह ईश्वरता की बात से विरुद्ध है। इससे ऐसे पुस्तक को जंगली लोग माना करते हैं, विद्वान् नहीं॥११५॥
[फ़रिश्ते से मर्यम का गर्भवती होना]
११६. और याद करो बीच किताब के मरियम को, जब जा पड़ी लोगों अपने से [अलग होकर] मकान पूर्वी में।१६। बस, पड़ा उनसे इधर परदा। बस, भेजा हमने रूह अपनी को अर्थात् फ़रिश्ता। बस, सूरत पकड़ी वास्ते उसके आदमी पुष्ट की।१७। कहने लगी, निश्चय मैं शरण पकड़ती हूं रहमान की तुझसे, जो है तू परहेज़गार।१८। कहने लगा, "सिवाय इसके नहीं कि मैं भेजा हुआ हूँ मालिक तेरे के से, तो कि दे जाऊं मैं तुझको लड़का पवित्र।१९।" [मरियम ने] कहा, "कैसे होगा वास्ते मेरे लड़का, नहीं हाथ लगाया मुझको [किसी] आदमी ने, नहीं मैं बुरा काम करनेवाली।२०।" बस, गर्भित हो गई साथ उसके और जा पड़ी साथ उसके, मकान दूर अर्थात् जंगल में।२२।
मं॰ ४। सि॰ १६। सू॰ १९। आ॰ १६। १७। १८। १९। २०। २२॥
[तब तो फरिश्ते भी ख़ुदा ठहरे, क्योंकि वे ख़ुदा की रूह हैं]
समीक्षक―अब बुद्धिमान् विचार लें कि फ़रिश्ते सब खुदा की रूह हैं, तो खुदा से अलग पदार्थ नहीं हो सकते। और शैतान भी नापाक रूह खुदा की ही हुई, तो खुदा ही नापाक हुआ। यदि ऐसा है तो ऐसे नापाक खुदा के भक्त पाक कैसे हो सकेंगे?
[ख़ुदा के हुक्म से मरियम को गर्भवती करना अन्याय]
दूसरा यह अन्याय कि वह मरियम कुमारी के लड़का होना। किसी का संग करना नहीं चाहती थी, परन्तु खुदा के हुक्म से फ़रिश्ते ने उसको बलात्कार-पूर्वक गर्भवती किया। यह न्याय से विरुद्ध बात है। यहाँ अन्य भी असभ्यता की बातें बहुत लिखी हैं, उनको लिखना उचित नहीं समझा॥११६॥
[क़ाफिरों को बहकाने को शैतान भेजा]
११७. क्या नहीं देखा तू ने यह कि भेजा हमने शैतानों को ऊपर काफ़िरों के। बहकाते हैं उनको बहकाने पर।८३।
मं॰ ४। सि॰ १६। सू॰ १९। आ॰ ८३॥
[बहकाने का काम ख़ुदा करवाता है, तो वही फल भी भोगे]
समीक्षक―जब खुदा ही बहकाने के लिये शैतानों को भेजता है तो बहकनेवालों का कुछ दोष नहीं हो सकता और न उनको दण्ड हो सकता [है,] और न शैतानों को; क्योंकि यह खुदा के हुक्म से सब होता है, इसका फल खुदा को होना चाहिये। जो [वह] सच्चा न्यायकारी है, तो उसका फल दोज़ख़ आप ही भोगे, और जो न्याय को छोड़के अन्याय को करे, तो अन्यायकारी हुआ, अन्यायकारी ही पापी कहाता है॥११७॥
[तोबाः करने से पाप-क्षमा]
११८. और निश्चय क्षमा करनेवाला हूं वास्ते उस मनुष्य के तौबा की और ईमान लाया और कर्म किये अच्छे, फिर मार्ग पाया।८२।
मं॰ ४। सि॰ १६। सू॰ २०। आ॰ ८२॥
[तोबाः से पाप-क्षमा की बात पाप बढ़ाती है]
समीक्षक―जो तौबा से पाप क्षमा करने की बात 'क़ुरान' में है, यह सबको पापी करने वाली है; क्योंकि पापियों को इससे पाप करने का साहस बहुत बढ़ जाता है। इससे यह पुस्तक और इसका बनानेवाला पापियों को पाप कराने में हौसला बढ़ानेवाले हैं। इससे यह पुस्तक परमेश्वरकृत और इसमें कहा हुआ परमेश्वर भी नहीं हो सकता॥११८॥
[जिसको चाहा मारा, पृथिवी को थामने के लिये पहाड़]
११९. ….और जिसको चाहा मारा हमने, हद्द से निकलनेवालों को।९। …..बस, पवित्रता है अल्लाह मालिक अर्श के को….।२२। और किये हमने बीच पृथिवी के पहाड़, ऐसा न हो कि हिल जावे….।३१।
मं॰ ४। सि॰ १७। सू॰ २१। आ॰ ९। २२। ३१॥
[सातवें आसमान पर तख्त का निवासी अल्लाह जगत् का स्रष्टा धर्त्ता, ज्ञाता नहीं हो सकता]
समीक्षक―देखिये, ग़दर-लूटमार कि जिसको चाहा उसको मारा और जिसको चाहा उसको बचाया। भले-बुरे कर्म की अपेक्षा कुछ नहीं करता। जब सातवें आसमान पर तख़्त का निवासी अल्लाह है, वह सब जगत् का स्रष्टा, धर्त्ता, ज्ञाता कभी नहीं हो सकता।
[तो भूकम्प आने पर पृथिवी क्यों हिलती है ?]
यदि 'क़ुरान' का बनानेवाला पृथिवी का घूमना आदि जानता, तो यह बात कभी नहीं कहता कि पहाड़ों के धरने से पृथिवी नहीं हिलती। शंका हुई कि जो पहाड़ न धरता, तो हिल जाती! इतने कहने पर भी भूकम्प में क्यों डिग जाती है?॥११९॥
[औरत के बीच रूह फूंकना]
१२०. (और शिक्षा दी हमने उस औरत को) और रक्षा की उसने अपने गुह्य अङ्गों की। बस, फूंक दिया हमने बीच उसके रूह अपनी को।९१।
मं॰ ४। सि॰ १७। सू॰ २१। आ॰ ९१॥
[क़ुरान में अश्लील बातें भरी पड़ी हैं]
समीक्षक―ऐसी अश्लील बातें ख़ुदा के पुस्तक, ख़ुदा की और सभ्य मनुष्य की भी नहीं होती। जबकि मनुष्यों में ऐसी-ऐसी बातों का लिखना अच्छा नहीं, तो परमेश्वर के सामने क्योंकर अच्छा हो सकता है? ऐसी-ऐसी बातों से 'क़ुरान' दूषित होता है। यदि अच्छी बातें होती, तो अति प्रशंसा होती, जैसे वेदों की॥१२०॥
[सूर्यादि का अल्लाह को प्रणाम; ख़ुदा के घर की परिक्रमा]
१२१. क्या नहीं देखा तूने कि अल्लाह को सिज़्दा करते हैं जो कोई बीच आसमानों और पृथिवी के हैं, सूर्य और चन्द्र, तारे और पहाड़, वृक्ष और जानवर….।१८। ….पहनाये जावेंगे बीच उसके कंगन सोने और मोती के और पहनावा उनका बीच उसके रेशमी है।२३। ….और पवित्र रख घर मेरे को वास्ते गिर्द फिरनेवालों के और खड़े रहनेवालों के।२६। फ़िर चाहिये कि दूर करें मैल अपने और पूरी करें भेटें अपनी और चारों ओर फिरें घर क़दीम के।२९। …..तो कि नाम अल्लाह का याद करें….।३४।
मं॰ ४। सि॰ १७। सू॰ २२। आ॰ १८। २३। २६। २९। ३४॥
[जड़ पदार्थ किसी को प्रणाम नहीं कर सकते]
समीक्षक―भला, जो जड़ वस्तुयें हैं वे परमेश्वर को जान ही नहीं सकते, फिर वे उसकी भक्ति क्योंकर कर सकते हैं? इससे यह पुस्तक ईश्वरकृत तो कभी नहीं हो सकता, किन्तु किसी भ्रान्त का बनाया हुआ दीखता है।
[यहां के राजघरानों से बहिश्त में अधिक कुछ नहीं]
वाह! बड़ा अच्छा स्वर्ग है, जहां सोने, मोती के गहने और रेशमी कपड़ा पहरने को मिलें! यह बहिश्त यहाँ के राजाओं के घर से अधिक नहीं दीख पड़ता।
[ख़ुदा का घर बनाकर परिक्रमा करना बुतपरस्ती है]
और जब परमेश्वर का घर है तो वह उसी घर में रहता भी होगा, फिर बुतपरस्ती क्यों न हुई? और दूसरे बुतपरस्तों का खण्डन क्यों करते हैं? जब ख़ुदा भेंट लेता है, अपने घर की परिक्रमा करने की आज्ञा देता है और पशुओं को मरवाके खिलाता है, तो यह ख़ुदा मन्दिरवाले भैरव और दुर्गा के सदृश हुआ और महाबुतपरस्ती का चलाने वाला हुआ; क्योंकि मूर्त्तियों से मस्जिद बड़ा बुत है। इससे ख़ुदा और मुसलमान बड़े बुतपरस्त और पुराणी तथा जैनी छोटे बुतपरस्त हैं॥१२१॥
[क़यामत के दिन मुर्दों को उठाना]
१२२. फिर निश्चय तुम दिन क़यामत के उठाये जाओगे।१६।
मं॰ ४। सि॰ १८। सू॰ २३। आ॰ १६॥
[क़यामत तक कबर में पड़े सड़ने देना अन्याय है]
समीक्षक―क़यामत तक मुर्दे क़ब्रों में रहेंगे वा किसी अन्य जगह? जो उन्हीं में रहेंगे तो सड़े हुए दुर्गन्धरूप शरीर में रहकर पुण्यात्मा भी दुःख-भोग करेंगे? यह न्याय तो अन्याय है। और दुर्गन्ध अधिक होकर रोगोत्पत्ति करने से ख़ुदा और मुसलमान पापभागी होंगे॥१२२॥
[हाथ पांव आदि की गवाही; अल्लाह का तेज]
१२३. उस दिन की गवाही देवेंगे ऊपर उनके, ज़बानें उनकी और हाथ उनके और पाँव उनके, साथ उस वस्तु के कि जो थे उनसे वे करते।२४। अल्लाह नूर है आसमानों का और पृथिवी का, नूर उसके कि मानिन्द ताक़ की है बीच उसके दीप हो, और दीप बीच कंदील शीशों के हैं, वह कंदील मानो कि तारा है चमकता, रोशन किया जाता है दीपक वृक्ष मुबारिक जैतून के तेल से, न पूर्व की ओर है न पश्चिम की, समीप है, तैल उसका रोशन हो जावे जो न लगे उसको रोशनी के ऊपर रोशनी, मार्ग दिखाता है अल्लाह नूर अपने की जिसको चाहता है…..।३५।
मं॰ ४। सि॰ १८। सू॰ २४। आ॰ २४। ३५॥
[जड़ हाथ पग कैसे गवाही दे सकते हैं]
समीक्षक―हाथ-पग आदि जड़ होने से गवाही कभी नहीं दे सकते। यह बात 'सृष्टिक्रम से विरुद्ध' होने से मिथ्या है।
[ख़ुदा आग वा बिजली जैसा नहीं]
क्या ख़ुदा आगी-बिजुली है? जैसा कि दृष्टान्त देते हैं, ऐसा दृष्टान्त ईश्वर में नहीं घट सकता। हां, किसी साकार वस्तु में घट सकता है॥१२३॥
[जानवरों की पानी से उत्पत्ति, ख़ुदा व रसूल की आज्ञा मानो]
१२४. और अल्लाह ने उत्पन्न किया हर जानवर को पानी से। बस, कोई उनमें से वह है कि जो चलता है पेट के बल अपने के….।४५। और जो कोई आज्ञापालन करे अल्लाह की, रसूल उसके की….।५२। कह, आज्ञापालन करो खुदा की, रसूल उसके की….।५४।….और आज्ञापालन करो रसूल की, ताकि दया किये जाओ।५६।
मं॰ ४। सि॰ १८। सू॰ २४। आ॰ ४५। ५२। ५४। ५६॥
[सब की पानी से उत्पत्ति बताना अज्ञानता]
समीक्षक―यह कौन-सी 'फ़िलासफ़ी' है कि जिन जानवरों के शरीर में सब तत्त्व दीखते हैं और कहना कि केवल पानी से उत्पन्न किये? यह केवल अविद्या की बात है।
[ख़ुदा और पैग़म्बर साथ-साथ, तो ख़ुदा लाशरीक कैसे]
जब अल्लाह के साथ पैग़म्बर की सेवा करनी होती है तो [वह] खुदा का 'शरीक’ हो गया वा नहीं? यदि ऐसा है, तो खुदा को 'लाशरीक' 'क़ुरान' में क्यों लिखा है और कहते भी [क्यों] हो?॥१२४॥
[काफ़िरों से लड़ो; तोबा: करने से पाप क्षमा]
१२५. और जिस दिन कि फट जावेगा आसमान साथ बदली के, और उतारे जावेंगे फ़रिश्ते।२५। बस, मत कहा मान काफ़िरों का, और झगड़ा कर उनसे साथ झगड़ा बड़ा।५२। और बदल डालता है अल्लाह बुराइयों उनकी को भलाइयों से।७०। और जो कोई तौबा करे और कर्म करे अच्छे, बस, निश्चय आता है तरफ़ अल्लाह की।७१।
मं॰ ४। सि॰ १९। सू॰ २५। आ॰ २५। ५२। ७०। ७१॥
[आकाश अमूर्त्त पदार्थ है, वह कैसे फट सकता है ?]
समीक्षक―यह बात कभी सच नहीं हो सकती है कि आकाश बद्दलों के साथ फट जावे। यदि आकाश कोई मूर्त्तिमान् पदार्थ हो, तो [तभी] फट सकता है [किन्तु वह मूर्त्तिमान् पदार्थ नहीं है]।
[बुराई को भलाई से कैसे बदल सकते हैं ?]
यह मुसलमानों का 'क़ुरान' और खुदा शान्तिभंग कर ग़दर, झगड़ा मचानेवाला है, इसीलिये धार्मिक विद्वान् लोग इसको नहीं मानते। यह भी अच्छा न्याय है कि जो पाप और पुण्य का अदला-बदला हो जाय! क्या यह तिल और उड़द की-सी बात है, जो पलटा हो जावे?
[तोबा: से पाप छूटे, तो पाप का बोल बाला हो जावेगा]
जो तौबा करने से पाप छूटे और ईश्वर मिले, तो कोई भी पाप करने से न डरे, इसलिये ये सब बातें 'विद्या से विरुद्ध' हैं॥१२५॥
[मूसा को वही देना; सब को खिलाना-पिलाना]
१२६. 'वही' (वह्य) की हमने तरफ़ मूसा की, यह कि ले चल रात को बन्दों मेरे को, निश्चय तुम पीछा किये जाओगे।५२। बस, भेजे लोग फ़िरौन ने बीच नगरों के जमा करनेवाले।५३। और वह पुरुष कि जिसने पैदा किया मुझको। बस, वही मार्ग दिखलाता है।७८। और वह जो खिलाता है मुझको पिलाता है मुझको।७९। और वह पुरुष कि आशा रखता हूं मैं यह कि क्षमा करे वास्ते मेरे, अपराध मेरा दिन क़यामत के।८२।
मं॰ ५। सि॰ १९। सू॰ २६। आ॰ ५२। ५३। ७८। ७९। ८२॥
[जब मूसा पर वही भेजी, तो फिर अन्यों पर क्यों भेजी ?]
समीक्षक―जब ख़ुदा ने मूसा की ओर 'वही' भेजी, पुनः दाऊद, ईसा और मुहम्मद साहब की ओर किताब क्यों भेजी? क्योंकि परमेश्वर की बात सदा एक-सी और बे-भूल होती है। और उसके पीछे 'क़ुरान' तक पुस्तकों के भेजने से पहले पुस्तक को अपूर्ण भूलयुक्त माना जायगा। यदि ये तीन पुस्तक सच्चे हैं, तो यह 'क़ुरान' झूठा होगा। चारों का जो कि प्रायः परस्परविरोध रखते हैं, उनका सर्वथा सत्य होना नहीं हो सकता।
[जीव पैदा किये, तो वह नष्ट भी अवश्य होंगे]
यदि ख़ुदा ने रूह अर्थात् जीव पैदा किये हैं, तो वे मर भी जायेंगे अर्थात् उनका कभी-न-कभी अभाव भी होगा।
[वही खिलाता-पिलाता है तो भोजन में भेद भाव क्यों ?]
जो परमेश्वर ही मनुष्यादि प्राणियों को खिलाता-पिलाता है, तो किसी को रोग न होना चाहिये और सबको तुल्य भोजन देना चाहिये। पक्षपात से एक को उत्तम और दूसरे को निकृष्ट जैसा कि राजा और कंगले को श्रेष्ठ, निकृष्ट भोजन मिलता है, न होना चाहिये। जब परमेश्वर ही खिलाने-पिलाने और पथ्य करानेवाला है, तो रोग ही न होने चाहियें, परन्तु मुसलमान आदि को भी रोग होते हैं। यदि ख़ुदा ही रोग छुड़ाकर आराम करनेवाला है, तो मुसलमानों के शरीरों में रोग न रहना चाहिये। यदि रहता है तो ख़ुदा पूरा वैद्य नहीं है। यदि पूरा वैद्य है, तो मुसलमानों के शरीर में रोग क्यों रहते हैं? वही मारता और जिलाता है, तो उसी ख़ुदा को पाप-पुण्य लगता होगा। यदि जन्म-जन्मान्तर के कर्मानुसार व्यवस्था करता है, तो उसको कुछ भी अपराध नहीं।
[क़यामत की रात में ही न्याय से ख़ुदा पापी होगा]
वह पाप-क्षमा और न्याय 'क़यामत की रात' में करता है, तो ख़ुदा पाप बढ़ानेवाला होकर पापयुक्त होगा। यदि क्षमा नहीं करता, तो यह 'क़ुरान' की बात झूठी है॥१२६॥
[ऊंटनी की निशानी]
१२७. नहीं तू परन्तु आदमी मानिन्द हमारी, बस, ले आ कुछ निशानी जो है तू सच्चों से।१५४। [सालेह ने] कहा, यह ऊंटनी है वास्ते उसके पानी पीना है एक वार…..।१५५।
मं॰ ५। सि॰ १९। सू॰ २६। आ॰ १५४। १५५॥
[ऊंटनी की निशानी देना जङ्गली व्यवहार है]
समीक्षक―यह ख़ुदा को शंका और अभिमान क्यों हुआ कि वह हमारे तुल्य नहीं है और ऊंटनी की निशानी देना केवल जंगली व्यवहार है, ईश्वरकृत नहीं! यदि यह किताब ईश्वरकृत होती तो ऐसी व्यर्थ बातें इसमें न होतीं॥१२७॥
[करामात का प्रदर्शन, सातवें आसमान का स्वामी]
१२८. ऐ मूसा! बात यह है कि निश्चय मैं अल्लाह हूं ग़ालिब।९। और डाल दे असा अपना, बस, जबकि देखा उसको हिलता था मानो कि वह साँप है,....ऐ मूसा! मत डर, निश्चय नहीं डरते समीप मेरे पैग़म्बर।१०। अल्लाह नहीं कोई माबूद परन्तु वह मालिक अर्श बड़े का।२६। यह कि मत सरकशी करो ऊपर मेरे और चले आओ मेरे पास मुसलमान होकर।३१।
मं॰ ५। सि॰ १९। सू॰ २७। आ॰ ९। १०। २६। ३१॥
[बाजीगरी के खेल दिखाना ईश्वर का काम नहीं]
समीक्षक―और भी देखिये, अपने मुख से आप अल्लाह बड़ा ज़बरदस्त बनता है। अपने मुख से अपनी प्रशंसा करना श्रेष्ठ पुरुष का भी काम नहीं, तो ख़ुदा का क्योंकर हो सकता है? तभी तो इन्द्रजाल का लटका दिखला, जंगली मनुष्यों को वश कर, आप जंगलस्थ ख़ुदा बन बैठा। ऐसी बात ईश्वर के पुस्तक की कभी नहीं हो सकती।
[सातवें आसमान पर है, तो एक देशी हो ने से ईश्वर नहीं]
यदि वह बड़े अर्श अर्थात् सातवें आसमान का मालिक है तो वह एकदेशी होने से ईश्वर ही नहीं हो सकता है।
[सरकशी बुरी है, तो क़ुरान में इनकी प्रशंसा क्यों ?]
यदि सरकशी करना बुरा है, तो ख़ुदा ने, मुहम्मद साहब और फरिश्तों ने ईमान लाने, सेवा करने में [दूसरे मत-वालों को बलात् अपने] साथ क्यों मिलाया? मुहम्मद साहब ने अनेक को मारा, इससे सरकशी हुई वा नहीं? इससे यह 'क़ुरान' पुनरुक्त और पूर्वापरविरुद्ध बातों से भरा हुआ है॥१२८॥
[पहाड़ों का बादलों की तरह चलना, ख़ुदा खबरदार है]
१२९. और देखेगा तू पहाड़ों को, अनुमान करता है तू उनको जमे हुए और वे चले जाते हैं मानिन्द चलने बादलों की, कारीगरी अल्लाह की जिसने दृढ़ किया हर वस्तु को, निश्चय वह ख़बरदार है उस वस्तु के कि करते हो।८८।
मं॰ ५। सि॰ २०। सू॰ २७। आ॰ ८८॥
[बादलों की तरह पहाड़ किसी ने चलते नहीं देखे]
समीक्षक―भला, बद्दलों के समान पहाड़ का चलना 'क़ुरान' बनानेवालों के देश में होता होगा, अन्यत्र नहीं।
[शैतान के सामने सब ख़बरदारी धरी रह गई]
और ख़ुदा की ख़बरदारी तो बाग़ी शैतान को न पकड़ने और न दंड देने से ही विदित होती है कि जो एक बाग़ी को भी अब तक न पकड़ पाया, न दंड दिया। इससे अधिक असावधानी क्या होगी?॥१२९॥
[हत्यारे मूसा को क्षमा करना]
१३०. ….बस, मुष्ट (=घूंसा) मारा उसको मूसा ने, बस, पूरी की आयु उसकी….।१५। कहा, ऐ रब मेरे! निश्चय मैंने अन्याय किया जान अपनी को, बस, क्षमा कर मुझको, बस, क्षमा कर दिया उसको। निश्चय वह क्षमा करनेवाला दयालु है।१६। और मालिक तेरा उत्पन्न करता है, जो कुछ चाहता है और पसन्द करता है….।६८।
मं॰ ५। सि॰ २०। सू॰ २८। आ॰ १५। १६। ६८॥
[हत्यारे मूसा को क्षमा करना कहां का न्याय था ?]
समीक्षक―अब अन्य भी देखिये, मुसलमान और ईसाइयों के पैग़म्बर और ख़ुदा कि मूसा पैग़म्बर, मनुष्य की हत्या किया करे और ख़ुदा क्षमा किया करे, ये दोनों अन्यायकारी हैं वा नहीं?
[अपनी इच्छा से ही किसी को राजा वा रङ्क बनाना अन्याय]
क्या अपनी इच्छा से ही जैसा चाहता है वैसी उत्पत्ति करता है? क्या उसने अपनी इच्छा से ही एक को राजा, दूसरे को कंगाल और एक को विद्वान् दूसरे को मूर्ख-आदि किया है? यदि ऐसा है तो यह अन्यायकारी होने से 'क़ुरान' सत्य और यह ख़ुदा ही नहीं हो सकता है॥१३०॥
[मां-बाप की सेवा का आदेश; नूह का असम्भव आयुमान]
१३१. और आज्ञा दी हमने मनुष्य को साथ मा-बाप के भलाई करना, और जो झगड़ा करें तुझसे दोनों यह कि शरीक लावे तू साथ मेरे उस वस्तु को कि नहीं वास्ते तेरे साथ उस के ज्ञान; बस, मत कहा मान उन दोनों का, तरफ़ मेरी है….।८। और अवश्य भेजा हमने नूह को तरफ़ क़ौम उसके कि बस रहा बीच उनके हजार वर्ष परन्तु पचास वर्ष कम, उस दिन ढांक लेगा उसको अजाब ऊपर उनके से….।१४।
मं॰ ५। सि॰ २०-२१। सू॰ २९। आ॰ ८। १४॥
[माता-पिता की सेवा की बात ठीक है]
समीक्षक―माता-पिता की सेवा करनी तो अच्छी ही है। जो ख़ुदा के साथ शरीक करने के लिये कहे, तो उनका कहना न मानना, यह भी ठीक है; परन्तु यदि माता-पिता मिथ्याभाषणादि करने की आज्ञा देवें, तो क्या मान लेना चाहिये? इसलिये यह बात आधी अच्छी और आधी बुरी है।
[साढ़े नौ सौ वर्ष की आयु अब क्यों नहीं होती]
क्या नूह आदि पैग़म्बरों को ही ख़ुदा संसार में भेजता है? तो अन्य जीवों को कौन भेजता है? यदि सबको वही भेजता है, तो सभी पैग़म्बर क्यों नहीं? और जो प्रथम मनुष्यों का पचास कम, हज़ार वर्ष का आयु होता था तो अब क्यों नहीं होता? इसलिये यह बात ठीक नहीं। यदि खुदा के न्यायघर में भी नीचे शिर, ऊपर पग बांधकर दंड दिया जाता है, तो उससे आजकल का ही राज अच्छा है। आजकल दण्ड तो दिया जाता है, परन्तु पग नीचे और शिर ऊपर ही रक्खा जाता है। यदि ऐसा ही दण्ड हो तो भी मनुष्यों में संघटित हो सकता है॥१३१॥
[दो बार उत्पत्ति; ईमानवालों को बहिश्त]
१३२. अल्लाह पहली वार करता है उत्पत्ति, फिर दूसरी वार करेगा उसको, फिर उसी की ओर फेरे जाओगे।११। जिस दिन बरपा अर्थात् खड़ी होगी क़यामत, निराश होंगे पापी।१२। बस, जो लोग कि ईमान लाये और काम किये अच्छे, बस, वे बीच बाग़ के सिंगार किये जावेंगे।१५। और जो भेज दें हम एक बाव, बस, देखें उस खेती को पीली हुई...।५१। इस प्रकार मोहर रखता है अल्लाह ऊपर दिलों उन लोगों के कि नहीं जानते।५९।
मं॰ ५। सि॰ २१। सू॰ ३०। आ॰ ११। १२। १५। ५१। ५९॥
[केवल दो बार ही उत्पत्ति करता है, तो फिर क्या करता है ?]
समीक्षक―यदि अल्लाह दो वार उत्पत्ति करता है, तीसरी वार नहीं, तो उत्पत्ति के आदि और दूसरी वार के अन्त में निकम्मा बैठा रहता होगा? और एक तथा दो वार उत्पत्ति के पश्चात् उसका सामर्थ्य निकम्मा और व्यर्थ हो जायगा।
[पापियों का न्याय के दिन निराश होना अच्छा है]
यदि न्याय करने के लिये दिन न रखकर, रात रक्खी जाय तो गवरगंड-सी लीला हो जाय। न्याय तो दिन में ही करना सर्वत्र प्रसिद्ध है। इसलिये यह मुसलमान और मुसलमानों के ख़ुदा की उलटी बात है। यदि न्याय करने क दिन पापी लोग निराश हों तो अच्छी बात है, परन्तु इसका प्रयोजन कहीं यह तो नहीं है कि मुसलमानों के सिवाय सब पापी समझकर निराश किये जायें? क्योंकि 'क़ुरान' में कई स्थानों में पापियों से औरों (विधर्मियों) का ही प्रयोजन है।
[बहिश्त में यहां से कुछ भी विशेषता नहीं]
यदि बगीचे में रखना और शृंगार पहराना ही मुसलमानों का स्वर्ग है, तो इस संसार के तुल्य हुआ। और वहां माली और सुनार भी होंगे अथवा ख़ुदा ही माली और सुनार आदि का काम करता होगा।
[गहनों की चोरी पर फिर दोज़ख़ में डालता होगा]
यदि किसी को कम गहना मिलता होगा, तो चोरी भी होती होगी और बहिश्त से चोरी करनेवालों को दोज़ख में भी डालता होगा। यदि ऐसा होता होगा, तो 'सदा बहिश्त में रहेंगे' यह बात झूठ हो जायगी।
[किसानों की खेती पर ख़ुदा की दृष्टि]
जो किसानों की खेती पर भी ख़ुदा की दृष्टि है, सो यह 'विद्या' खेती करने के अनुभव से ही होती है। और यदि माना जाय कि ख़ुदा ने अपनी विद्या से सब बात जान ली है, तो ऐसा भय देना अपना घमण्ड प्रसिद्ध करना है।
[दिलों पर मोहर लगाई, तो पाप का भागी भी ख़ुदा होगा]
यदि अल्लाह ने जीवों के दिलों पर मोहर लगा पाप कराया, तो उस पाप का भागी वही होवे, जीव नहीं हो सकते; जैसे जय-पराजय सेनाधीश का होता है, वैसे यह सब पाप ख़ुदा को ही प्राप्त होवे॥१३२॥
[अल्लाह की कुछ विशेष निशानियां]
१३३. ये आयतें हैं किताब हिक्मत वाले की।२। उत्पन्न किया आसमानों को विना सुतून अर्थात् खम्भे के देखते हो तुम उसको, और डाले बीच पृथिवी के पहाड़ ऐसा न हो कि हिल जावे….।१०। क्या नहीं देखा तूने यह कि अल्लाह प्रवेश कराता है रात को बीच दिन के और प्रवेश कराता है दिन को बीच रात के….।२९। क्या नहीं देखा कि किश्तियां चलती हैं बीच दरिया के साथ निआमतों अल्लाह के, तोकि दिखलावे तुमको निशानियां अपनी।३१।
मं॰ ५। सि॰ २१। सू॰ ३१। आ॰ २। १०। २९। ३१॥
[आकाश की उत्पत्ति आदि बातें विद्या विरुद्ध हैं]
समीक्षक―वाह जी हिक्मतवाली किताब कि जिसमें सर्वथा 'विद्या से विरुद्ध' आकाश की उत्पत्ति और उसमें खम्भे लगाने की शंका और पृथिवी को स्थिर रखने के लिये पहाड़ रखना [है]। थोड़ी-सी विद्यावाला भी ऐसा लेख कभी नहीं करता और न मानता।
[रात और दिन का एक-दूसरे में प्रवेश बताना अज्ञानता]
और हिक्मत देखो कि जहाँ दिन है वहां रात नहीं और जहां रात है वहां दिन नहीं, [किन्तु 'क़ुरान' का कर्त्ता] उनको एक दूसरे में प्रवेश कराना लिखता है, यह बड़े अविद्वानों की बात है। इसलिये यह 'क़ुरान' विद्या का पुस्तक नहीं हो सकता।
[पानी में नाव चलाने में ख़ुदा की क्या कृपा ?]
क्या यह 'विद्याविरुद्ध' बात नहीं है कि नौकायें खुदा की कृपा से चलती हैं? वे तो मनुष्यों और क्रियाकौशलादि से चलती हैं। यदि लोहे वा पत्थरों की नौकायें बनाकर समुद्र में चलावें तो ख़ुदा की निशानी डूब जाय वा नहीं? इसलिये यह पुस्तक न विद्वान् और न ईश्वर का बनाया हुआ हो सकता है॥१३३॥
[आसमान से आना-जाना; मौत का फरिश्ता; दोज़ख़ भरना]
१३४. तदबीर करता है काम की आसमान से तरफ़ पृथिवी की, फिर चढ़ जाता है तरफ़ उसकी बीच एक दिन के कि है अवधि उसकी सहस्र वर्ष, उन वर्षों से कि गिनते हो तुम।५। वह है जाननेवाला ग़ैब का और प्रत्यक्ष का ग़ालिब दयालु।६। फिर पुष्ट किया उसको और फूंका बीज उसके रूह अपनी से।९। यह क़ब्ज़ करेगा तुमको फ़रिश्ता मौत का, वह जो नियत किया गया है साथ तुम्हारे।११। और जो चाहते हम अवश्य देते हर एक जीव को शिक्षा उसकी, परन्तु सिद्ध हुई बात मेरी ओर से कि अवश्य भरूंगा मैं दोज़ख़ को जिनसे और आदमियों से इकट्ठे।१३।
मं॰ ५। सि॰ २१। सू॰ ३२। आ॰ ५। ६। ९। ११। १३॥
[चढ़ने उतरने का काम एक देशी कर सकता है, व्यापक नहीं]
समीक्षक―अब ठीक सिद्ध हो गया कि मुसलमानों का ख़ुदा मनुष्यवत् एकदेशी है। क्योंकि जो व्यापक होता तो एकदेश से प्रबन्ध करना और उतरना-चढ़ना नहीं हो सकता।
[फ़रिश्तों से काम लेवे, तब भी कई दोष आते हैं]
यदि ख़ुदा फ़रिश्ते को भेजता है तो भी आप एकदेशी हो गया। आप आसमान पर टंगा बैठा है और फ़रिशतों को दौड़ाता है। यदि फ़रिश्ते रिश्वत लेकर कोई मामला बिगाड़ दें वा किसी मुर्दे को छोड़ जायें, तो ख़ुदा को क्या मालूम हो सकता है? मालूम तो उसको हो कि जो सर्वज्ञ तथा सर्वव्यापक हो, सो तो है ही नहीं। होता तो फ़रिश्तों के भेजने तथा कई लोगों की कई प्रकार से परीक्षा लेने का क्या काम था? और एक हजार वर्षों में प्रबन्ध करने से सर्वशक्तिमान् भी नहीं।
[मौत का फ़रिश्ता है, तो उसका मारने वाला मृत्यु कौनसा है ?]
यदि मौत का फ़रिश्ता है, तो उस फ़रिश्ते को मारनेवाला कौन-सा मृत्यु है? यदि वह नित्य है, तो अमरपन में ख़ुदा के बराबर 'शरीक' हुआ।
[विना पाप किये दोज़ख़ में भेजना अन्याय है]
एक फ़रिश्ता एक समय में यदि दोज़ख़ भरने के लिये जीवों को शिक्षा नहीं करता और उनको विना पाप किये अपनी मर्ज़ी से दोज़ख़ भरके उनको दुःख देकर तमाशा देखता है, तो वह ख़ुदा महापापी, अन्यायकारी और दयाहीन है। ऐसी बातें जिस पुस्तक में हों, न वह विद्वान् [कृत] और न ईश्वरकृत है। और जो दया-न्यायहीन है वह ईश्वर भी कभी नहीं हो सकता॥१३४॥
[लड़ाई से न भागो; नबी की बीबियों को डराना]
१३५. कह कि कभी न लाभ देगा भागना तुमको, जो भागो तुम मृत्यु वा क़त्ल से।१६। ऐ बीबियो नबी की! जो कोई आवे तुममें से निर्लज्जता प्रत्यक्ष के, दुगुणा किया जायेगा वास्ते उसके अज़ाब, और है यह ऊपर अल्लाह के सहल।३०।
मं॰ ५। सि॰ २१। सू॰ ३३। आ॰ १६। ३०॥
[लड़ाई कराना शिष्टजनों का काम नहीं]
समीक्षक―यह मुहम्मद साहब ने इसलिये लिखा-लिखवाया होगा कि लड़ाई में कोई न भागे, हमारा विजय होवे, मरने से भी न डरे, ऐश्वर्य बढ़े, मज़हब बढ़ा लेवें।
[नबी के घरेलू मामलों में ख़ुदा का पक्षपात]
और यदि बीबी निर्लज्जता से पैग़म्बर के सामने न आवे, तो क्या पैग़म्बर साहब निर्लज्ज होकर उनके सामने जावें? बीबियों पर अज़ाब हो और पैग़म्बर साहब पर अज़ाब न होवे, यह किस घर का न्याय है?॥१३५॥
[नबी की बीबियों पर पाबन्दी, बेटे की औरत से निकाह]
१३६. और अटकी रहो बीच घरों अपने के, ….और आज्ञापालन करो अल्लाह और रसूल की, सिवाय इनके नहीं।३३। बस, जब अदा कर ली ज़ैद ने हाजत उससे, ब्याह दिया हमने तुझसे उसको, तौकि न होवे ऊपर ईमानवालों के तंगी बीच बीबियों से लेपालकों उनके के, जब अदा कर लें उनसे हाजत, और है आज्ञा ख़ुदा की की गई।३७। नहीं है ऊपर नबी के कुछ तंगी बीच उस वस्तु के…..।३८। नहीं है मुहम्मद बाप किसी मर्द का….।४०। और हलाल की स्त्री ईमानवाली जो देवे विना महर के जान अपनी वास्ते नबी के…..।५०। ढील देवे तू जिसको चाहे उनमें से और जगह देवे तरफ़ अपनी जिसको चाहे, नहीं पाप ऊपर तेरे….।५१। ऐ लोगो ! जो ईमान लाये हो मत प्रवेश करो घरों में पैग़म्बर के….।५३।
मं॰ ५। सि॰ २२। सू॰ ३३। आ॰ ३३। ३७। ३८। ४०। ५०। ५१। ५३॥
[स्त्रियों को घर में बन्द रखना अन्याय है]
समीक्षक―यह बड़े अन्याय की बात है कि स्त्री घर में क़ैद के समान रहे और पुरुष खुल्ले रहें। क्या स्त्रियों का चित्त शुद्ध वायु, शुद्ध देश में भ्रमण करना, सृष्टि के अनेक पदार्थ देखना नहीं चाहता होगा? इसी अपराध से मुसलमानों के लड़के विशेषकर सैलानी और विषयी होते हैं।
[अपनी स्वार्थ सिद्धि के लिये ख़ुदा को भी साथ ले लिया]
अल्लाह और रसूल की एक अविरुद्ध आज्ञा है वा भिन्न-भिन्न =विरुद्ध? यदि एक है, तो 'दोनों की आज्ञा पालन करो' कहना व्यर्थ है, और जो भिन्न-भिन्न=विरुद्ध है, तो एक सच्ची और दूसरी झूठी! एक ख़ुदा, दूसरा शैतान हो जायगा, और 'शरीक' भी होगा। वाह 'क़ुरान' के ख़ुदा और पैग़म्बर तथा 'कुरान' को! जिसको दूसरे का मतलब नष्टकर अपना मतलब सिद्ध करना इष्ट हो, ऐसी लीला अवश्य रचता है।
[बेटे की स्त्री को अपनी औरत बनाना अधर्म]
इससे यह भी सिद्ध हुआ कि मुहम्मद साहब बड़े विषयी थे। यदि न होते तो लेपालक बेटे (जैद) की स्त्री को, जो पुत्र की स्त्री थी, अपनी स्त्री क्यों कर लेते? और फिर ऐसी बातें करनेवाले का ख़ुदा भी पक्षपाती बना और अन्याय को न्याय ठहराया। भला, कोई भी मनुष्यों में से जो जंगली भी होगा, वह भी बेटे की स्त्री को छोड़ता है।
[नबी किसी का बाप न था, तो जै़द किसका बेटा था]
और यह कितनी बड़ी अन्याय की बात है कि नबी को विषयासक्ति की लीला करने में कुछ भी अटकाव नहीं होना! यदि नबी किसी का बाप न था तो ज़ैद 'लेपालक-बेटा' किस का था? और [उसको मुहम्मद का बेटा] क्यों लिखा? यह उसी मतलब की बात है कि जिससे बेटे की स्त्री को भी घर में डालने से पैग़म्बर साहब न बचे, अन्य से क्योंकर बचे होंगे? ऐसी चतुराई से भी बुरी बात में निन्दा होनी कभी नहीं छूट सकती।
[अनेक औरतें रखना दुःखदायी]
क्या जो कोई पराई स्त्री भी नबी से प्रसन्न होकर विवाह करना चाहे, तो वह भी हलाल है? और यह महाअधर्म की बात है कि नबी तो जिस स्त्री को चाहे छोड़ देवे और मुहम्मद साहेब की स्त्रीलोग यदि पैग़म्बर अपराधी भी हो, तो कभी न छोड़ सकें!
[व्यभिचार कोई भी करे, वह बुरा है]
जैसे पैग़म्बर के घरों में अन्य कोई व्यभिचार-दृष्टि से प्रवेश न करें, तो वैसे पैग़म्बर साहब भी किसी के घर में प्रवेश न करें ! क्या नबी जिस किसी के घर में चाहें निश्शङ्क प्रवेश करें और माननीय भी रहें?
[कुरान की बातें युक्ति शून्य और धर्म विरुद्ध हैं]
भला, कौन ऐसा 'हृदय का अन्धा' है कि जो इस 'क़ुरान' को ईश्वरकृत और मुहम्मद साहब को पैग़म्बर और 'कुरानोक्त' ईश्वर को परमेश्वर मान सके? बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे युक्तिशून्य, धर्मविरुद्ध बातों से युक्त इस मत को अरबदेशनिवासी-आदि मनुष्यों ने क्योंकर मान लिया?॥१३६॥
[रसूल को दुःख न दो, उसकी बीबियों से निकाह करना पाप]
१३७. ….नहीं योग्य वास्ते तुम्हारे यह कि दुःख दो रसूल को, यह कि निकाह करो बीबियों उसकी को पीछे उसके कभी, निश्चय यह है समीप अल्लाह के बड़ा पाप।५३। निश्चय जो लोग कि दुःख देते हैं अल्लाह को और रसूल उसके को, लानत की है उन को अल्लाह ने।५७। और वे लोग कि दुःख देते हैं मुसलमानों को और मुसलमान औरतों को विना इसके बुरा किया है उन्होंने, बस निश्चय उठाया उन्होंने बोहतान अर्थात् झूठ और प्रत्यक्ष पाप।५८। लानत मारे जावें, जहां पाये जावें पकड़े जावें, क़त्ल किये जावें, खूब मारा जाना।६१। ऐ रब हमारे ! दे उन को द्विगुणा अज़ाब से, और लानत से बड़ी लानत कर।६८।
मं॰ ५। सि॰ २२। सू॰ ३३। आ॰ ५३। ५७। ५८। ६१। ६८॥
[सब को ही दुःख देने की मनाई क्यों न की ?]
समीक्षक―वाह! क्या ख़ुदा अपनी खुदाई को धर्म के साथ दिखला रहा है! जैसे रसूल को दुःख देने का निषेध करना तो ठीक था, वैसे दूसरे को दुःख देने में रसूल को भी रोकना योग्य था, सों क्यों न रोका? क्या किसी के दुःख देने से अल्लाह भी दुःखी हो जाता है? यदि ऐसा है तो वह ईश्वर ही नहीं हो सकता। क्या अल्लाह और रसूल को दुःख देने का निषेध करने से यह नहीं सिद्ध होता कि अल्लाह और रसूल जिसको चाहें दुःख देवें?
[केवल मुसलमानों को दुःख न देने की बात पक्षपात पूर्ण]
जैसे मुसलमानों और मुसलमानों की स्त्रियों को दुःख देना बुरा है तो [वैसे] इनसे अन्य मनुष्यों को दुःख देना भी अवश्य बुरा है॥ क्या अन्य सबको दुःख देना चाहिये? जो ऐसा माने, तो उसकी यह बात भी पक्षपात की है।
[अन्य लोगों को मारने की बात महा अधर्म]
वाह ग़दर मचाने वाले ख़ुदा और नबी! जैसे ये निर्दयी हैं वैसे निर्दयी संसार में बहुत थोड़े होंगे। जैसा यह कि 'अन्य लोग जहां पाये जावें, मारे जावें, पकड़े जावें', लिखा है [वैसे] ही मुसलमानों पर कोई ऐसी ही आज्ञा देवे तो मुसलमानों को यह बात बुरी लगेगी वा नहीं? वाह ! क्या हिंसक पैग़म्बर आदि हैं कि जो उन्होंने परमेश्वर से प्रार्थना करके अपने से दूसरों को दुगुणा दुःख देने के लिये प्रार्थना करना लिखा है! यह भी पक्षपात, मतलबसिन्धुपन और महा-अधर्म की बात है। इसी से अब तक भी मुसलमान लोगों में से बहुत से शठ लोग ऐसा ही कर्म करने से नहीं डरते। यह ठीक है कि सुशिक्षा के विना मनुष्य पशु के समान रहता है॥१३७॥
[मुर्दों को जिलाना; अविनाशी घर]
१३८. और अल्लाह वह पुरुष है कि भेजता है हवाओं को; बस, उठाती हैं बादलों को; बस, हांक लेते हैं तरफ़ शहर मुर्दे की; बस, जीवित किया हमने साथ उसके पृथिवी को पीछे मृत्यु उसकी के, इसी प्रकार क़ब्रों में से निकालना है।९। जिसने उतारा बीच घर सदा रहने के दया अपनी से, नहीं लगती हमको बीच उसके मेहनत और नहीं लगती बीच उसके मांदगी।३५।
मं॰ ५। सि॰ २। सू॰ ३५। आ॰ ९। ३५॥
[मुर्दों को जिन्दा करने की बात अवैज्ञानिक और असम्भव]
समीक्षक―वाह! क्या 'फ़िलासफ़ी' है ख़ुदा की! भेजता है वायु को, वह उठाता फिरता है बद्दलों को! और ख़ुदा उससे मुर्दों को जिलाता फिरता है! यह बात ईश्वर सम्बन्धी कभी नहीं हो सकती, क्योंकि ईश्वर का काम निरन्तर एक-सा होता रहता है।
[अनेक स्त्रियों से संभोग दुःखदायी; नित्य घर कैसे ?]
जो घर होंगे वे विना बनावट के नहीं हो सकते और जो बनावट के हैं वे सदा नहीं रह सकते। जिसका शरीर है वह परिश्रम के विना दुःखी होता है और शरीरवाला रोगी हुए विना कभी नहीं बचता। जो एक स्त्री से समागम करता है वह विना रोग के नहीं बचता, तो जो बहुत स्त्रियों से विषयभोग करता है, उसकी क्या ही दुर्दशा होती होगी? इसलिये मुसलमानों का बहिश्त भी सुखदायक सदा नहीं हो सकता॥१३८॥
[ख़ुदा द्वारा क़ुरान की कसम]
१३९. कसम है 'क़ुरान' दृढ़ की।२। निश्चय तू भेजे हुओं से है।३। ऊपर मार्ग सीधे के।४। उतारा है ग़ालिब दयालु ने।५।
मं॰ ५। सि॰ २३। सू॰ ३६। आ॰ २। ३। ४। ५॥
[ख़ुदा क़ुरान की कसम क्यों खाता है ?]
समीक्षक―अब देखिये, यह 'क़ुरान' ख़ुदा का बनाया होता तो वह इस की सौगंद क्यों खाता? यदि नबी ख़ुदा का भेजा होता, तो लेपालक बेटे की स्त्री पर मोहित क्यों होता?
[क़ुरान प्रोक्त मार्ग सीधा मार्ग नहीं है]
यह कथनमात्र है कि 'क़ुरान' के माननेवाले सीधे मार्ग पर हैं, क्योंकि सीधा मार्ग वही होता है जिसमें सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य करना, पक्षपातरहित-न्याय-धर्म का आचरण करना आदि हैं, और इनसे विपरीत का त्याग करना। सो न 'क़ुरान' में, न मुसलमानों में और न इनके ख़ुदा में ऐसा स्वभाव है।
[महाविद्वान् और गुणी ही सब पर प्रबल हो सकता है]
यदि सब पर प्रबल पैग़म्बर मुहम्मद साहब होते, तो सबसे अधिक विद्यावान् और शुभगुणयुक्त क्यों न होते? इसलिये जैसे कूंजड़ी अपने बेरों को खट्टा नहीं बतलाती, वैसी यह बात भी है॥१३९॥
[कब्रों से निकल कर भागना; कहने मात्र से सृष्टि रचना]
१४०. और फूंका जावेगा बीच सूर के, बस नागहां, व कब्रों में से तरफ़ मालिक अपने की दौड़ेंगे।५१। ….और गवाही देंगे पाँव उनके साथ उस वस्तु के कि थे कमाते।६५। सिवाय इसके नहीं कि आज्ञा उसकी, जब चाहे उत्पन्न करना किसी वस्तु को, यह कि कहता वास्ते उसके कि ‘हो जा’, बस हो जाता है।८२।
मं॰ ५। सि॰ २३। सू॰ ३६। आ॰ ५१। ६५। ८२॥
[क्या पैर गवाही दे सकते हैं; किसे आज्ञा दी और कौन बना]
समीक्षक―अब सुनिये ऊटपटांग बातें! [क्या] पग कभी गवाही दे सकते हैं? ख़ुदा के सिवाय उस समय कौन था जिसको आज्ञा दी? किसने सुनी? और कौन बन गया? यदि [आज्ञा] न थी तो यह बात झूठी, और जो थी तो वह बात कि 'जो सिवाय ख़ुदा के कुछ चीज नहीं थी और ख़ुदा ने सब कुछ बना दिया', वह झूठी हुई॥१४०॥
[बहिश्त में शराब और बीबियां; लूत को मुक्ति]
१४१. फिराया जावेगा उनके ऊपर प्याला शराब शुद्ध का।४५। सफ़ेद, मज़ा देने वाली, वास्ते पीनेवालों के।४६। समीप उनके बैठी होंगी नीचे आँख रखनेवालियां, सुन्दर आँखोंवालियां।४८। मानो कि वे अण्डे हैं छिपाये हुए।४९। क्या बस हम नहीं मरेंगे।५८। और अवश्य लूत निश्चय पैग़म्बरों से था।१३३। जब कि मुक्ति दी हमने उसको और लोगों उसके को सबको।१३४। परन्तु एक बुढ़िया पीछे रहनेवालों में है।१३५। फिर मारा हमने औरों को।१३६।
मं॰ ६। सि॰ २३। सू॰ ३७। आ॰ ४५। ४६। ४८। ४९। ५८। १३३। १३४। १३५। १३६॥
[स्वर्ग में शराब और बीबियों के कारण दुर्गति]
समीक्षक―क्यों जी! यहां तो मुसलमान लोग शराब को बुरा बतलाते हैं परन्तु इनके स्वर्ग में तो नदियां ही नदियां बहती हैं! इतना तो अच्छा है कि यहां किसी प्रकार मद्य पीना तो छुड़ाया है, परन्तु यहां के बदले वहां इनके स्वर्ग में बड़ी खराबी है! मारे स्त्रियों के वहां किसी का चित्त स्थिर नहीं रहता होगा! और बड़े-बड़े रोग भी होते होंगे! यदि शरीरवाले होंगे तो अवश्य मरेंगे और जो शरीरवाले न होंगे, तो भोग-विलास ही न कर सकेंगे। फिर उनका स्वर्ग में जाना व्यर्थ है।
[लूत जैसा शराबी और पतित भी पैग़म्बर]
यदि लूत को पैग़म्बर मानते है तो जो 'बाइबल' में लिखा है कि उससे उसकी लड़कियों ने समागम करके दो लड़के पैदा किये, इस बात को भी मानते हो वा नहीं? जो मानते हो, तो ऐसे को पैग़म्बर मानना व्यर्थ है।
[लूत जैसों को मुक्ति का दाता ख़ुदा भी वैसा ही है]
और जो ऐसे और ऐसे के संगियों को खुदा मुक्ति देता है तो वह ख़ुदा भी वैसा ही है, क्योंकि बुढ़िया की कहानी कहनेवाला और पक्षपात से दूसरों को मारनेवाला ख़ुदा कभी नहीं हो सकता। ऐसा ख़ुदा मुसलमानों के ही घर में रह सकता है, अन्यत्र नहीं॥१४१॥
[बहिश्त का दृश्य; शैतान ने ख़ुदा का हुक्म न माना]
१४२. बहिश्तें हैं सदा रहने की, खुले हुए हैं दर उनके वास्ते उनके।५०। तकिये किये हुए बीच उनके, मंगावेंगे बीच इसके मेवे और पीने की वस्तु।५१। और समीप होंगी उनके, नीचे रखनेवालियां दृष्टि और दूसरों से सम-आयु।५२। बस, सिज़्दा किया फ़रिश्तों ने सबने।७३। परन्तु शैतान ने न माना, अभिमान किया और था काफ़िरों से।७४। ऐ शैतान! किस वस्तु ने रोका तुझको, यह कि सिज़्दा करे वास्ते उस वस्तु के कि बनाया मैंने साथ दोनों हाथ अपने के, क्या अभिमान किया तूने वा था तू बड़े अधिकारवालों से?।७५। कहा, कि मैं अच्छा हूँ उस वस्तु से, उत्पन्न किया तूने मुझको आग से, उसको मट्टी से।७६। कहा, बस निकल इन आसमानों में से, बस, निश्चय तू चलाया गया है।७७। निश्चय तेरे लानत है मेरी दिन जज़ा तक।७८। कहा, "ऐ मालिक मेरे ! ढील दे उस दिन तक कि उठाये जावेंगे मुर्दे।७९।" कहा कि "बस, निश्चय तू ढील दिये गयों से है।८०। उस दिन समय ज्ञात तक।८१।" कहा कि "बस, क़सम है प्रतिष्ठा तेरी की, अवश्य गुमराह करूंगा उनको मैं इकट्ठे।८२।"
मं॰ ६। सि॰ २३। सू॰ ३८। आ॰ ५०। ५१। ५२। ७३-८२॥
[बाग बगीचे आदि अनित्य होने से बहिश्त भी अनित्य]
समीक्षक―यदि वहां, जैसे कि 'क़ुरान' में बाग़-बगीचे, नहरें, मकान-आदि लिखे हैं, वैसे हैं, तो वे न सदा से थे, न सदा रह सकते हैं; क्योंकि जो संयोग से पदार्थ होता है वह संयोग के पूर्व न था, अवश्यम्भावी वियोग के अन्त में न रहेगा। जब वह बहिश्त ही न रहेगा तो उसमें रहनेवाले सदा क्योंकर रह सकते हैं? क्योंकि 'गद्दी, तकिये, मेवे और पीने के पदार्थ वहां मिलेंगे' लिखा है। इससे यह सिद्ध होता है कि जिस समय मुसलमानों का मज़हब चला, उस समय अरब देश विशेष धनाढ्य न था, इसीलिये मुहम्मद साहब ने तकिये आदि की कथा सुनाकर ग़रीबों को अपने मत में फसा लिया।
[जहां स्त्रियां हैं, वहां निरन्तर सुख कभी नहीं]
और जहां स्त्रियां हैं वहां निरन्तर सुख कहां? वे स्त्रियां वहां कहां से आई हैं? अथवा बहिश्त की रहीस हैं? यदि आई हैं तो जावेंगी और जो वहीं की रहीस हैं तो क़यामत के पूर्व क्या करती थीं? क्या निकम्मी अपनी उम्र को बहा रही थीं?
[ख़ुदा शैतान का कुछ भी न बिगाड़ सका]
अब देखिये ख़ुदा का तेज कि जिसका हुक्म अन्य सब फ़रिश्तों ने माना और आदम साहब को नमस्कार किया और शैतान ने न माना!
[आदम को बनाने वाला ख़ुदा दो हाथ वाला मनुष्य था]
खुदा ने शैतान से कहा कि 'मैंने तुझको अपने दोनों हाथों से बनाया, तू अभिमान न कर।' इससे यह सिद्ध होता है कि 'क़ुरान' का ख़ुदा दो हाथ वाला मनुष्य था। इसलिये वह व्यापक वा सर्वशक्तिमान् कभी नहीं हो सकता। और शैतान ने सत्य कहा कि मैं आदम से उत्तम हूं, इस पर ख़ुदा ने गुस्सा क्यों किया?
[क्या आसमान ही में ख़ुदा का घर है, पृथिवी में नहीं ?]
क्या आसमान ही ख़ुदा का घर है, पृथिवी पर नहीं? तो काबे को ख़ुदा का घर प्रथम क्यों लिखा? भला, परमेश्वर अपने में से वा सृष्टि में से अलग कैसे निकाल सकता है? और वह सृष्टि सब परमेश्वर की है। इससे स्पष्ट विदित हुआ कि 'क़ुरान' का खुदा बहिश्त का ज़िम्मेदार था।
[ख़ुदा और शैतान में वाद-विवाद]
खुदा ने उसको लानत=धिक्कार दिया, और क़ैद कर लिया। शैतान ने कहा कि 'हे मालिक! मुझको क़यामत तक छोड़ दे।' खुदा ने ख़ुशामद से छोड़ दिया क़यामत के दिन तक। जब शैतान छूटा तो ख़ुदा से कहता है कि 'अब मैं खूब बहकाऊंगा और ग़दर मचाऊंगा।' तब ख़ुदा ने कहा कि 'जितनों को तू बहकावेगा, मैं उनको दोज़ख में डाल दूंगा और तुझ को भी।'
[शैतान को बहकाने वाला ख़ुदा स्वयं शैतान]
अब सज्जन लोगो विचारिये कि शैतान को बहकानेवाला ख़ुदा है वा आप से वह बहका? यदि खुदा ने बहकाया, तो वह शैतान का शैतान ठहरा। यदि शैतान स्वयं बहका, तो अन्य जीव भी स्वयं बहकेंगे, शैतान की जरूरत नहीं!
[जो स्वयं चोरी कराके दण्ड देवे वह महा अन्यायी]
और जिससे इस बाग़ी शैतान को ख़ुदा ने खुला छोड़ दिया, इससे विदित हुआ कि वह भी शैतान का शरीक अधर्म कराने में हुआ। यदि स्वयं चोरी कराके दण्ड देवे, तो उसके अन्याय का कुछ भी पारावार नहीं॥१४२॥
[पापों का क्षमा होना; एक साथ सब का फैसला]
१४३. ….अल्लाह क्षमा करता है पाप सारे, निश्चय वह है क्षमा करनेवाला दयालु।५३। ….और पृथिवी सारी मूठी में है उसकी दिन क़यामत के, और आसमान लपेटे हुए हैं बीच दाहिने हाथ उसके के….।६७। और चमक जावेगी पृथिवी साथ प्रकाश मालिक अपने के और रक्खे जावेंगे कर्मपत्र और लाया जावेगा पैग़म्बरों को और गवाहों को और फैसला किया जावेगा।६९।
मं॰ ६। सि॰ २४। सू॰ ३९। आ॰ ५३। ६७। ६९॥
[पाप क्षमा करने से अपराधों का बोलबाला होगा]
समीक्षक―यदि समग्र पापों को खुदा क्षमा करता है तो जानो सब संसार को पापी बनाता है और दयाहीन है, क्योंकि एक दुष्ट पर दया और क्षमा करने से वह अधिक दुष्टता करेगा और बहुत धर्मात्माओं को दुःख पहुँचावेगा। यदि किञ्चित् भी अपराध क्षमा किया जावे, तो अपराध ही अपराध जगत् में छा जावे।
[पैग़म्बरों के भरोसे ख़ुदा न्याय करता है, तो वह असमर्थ है]
क्या परमेश्वर अग्निवत् प्रकाश वाला है? और कर्मपत्र कहां जमा रहते हैं और कौन लिखता है? यदि पैग़म्बरों और गवाहों के भरोसे ख़ुदा न्याय करता है, तो वह असर्वज्ञ और असमर्थ है।
[न्याय होगा, तो क्षमा करना वा दिलों पर मोहर लगाना अन्याय]
यदि वह अन्याय नहीं करता, न्याय ही करता है, तो कर्मों के अनुसार करता होगा। वे कर्म पूर्व और वर्तमान जन्मों के हो सकते हैं, तो फिर क्षमा करना, 'दिलों पर ताला लगाना' और शिक्षा न करना, शैतान से बहकवाना, दौरासुपुर्द रखना केवल अन्याय है॥१४३॥
[ख़ुदा की ओर से क़ुरान का उतरना; तोबाः से पाप क्षमा]
१४४. उतारना किताब का अल्लाह ग़ालिब जाननेवाले की ओर से है।२। क्षमा करनेवाला पापों का और स्वीकार करनेवाला तौबा का…..।३।
मं॰ ६। सि॰ २४। सू॰ ४०। आ॰ २। ३॥
[भोले लोगों को फसाने के लिये ख़ुदा का नाम साथ में]
समीक्षक―यह बात इसलिये है कि भोले लोग अल्लाह के नाम से इस पुस्तक को मान लेवें कि जिसमें थोड़ा-सा सत्य छोड़ असत्य भरा है और वह सत्य भी असत्य के साथ मिलकर बिगड़ा-सा है।
[इसी से मुसलमान पाप करने में कम डरते हैं]
इसीलिये 'क़ुरान' और 'क़ुरान' का ख़ुदा और इसको माननेवाले पाप बढ़ानेहारे और पाप करने-करानेवाले हैं, क्योंकि 'पाप का क्षमा करना' अत्यन्त अधर्म है। किन्तु इसी से मुसलमान लोग पाप और उपद्रव करने में कम डरते हैं॥१४३॥
[सात आसमानों की दो दिन में रचना; आंख आदि की गवाही]
१४५. बस, नियत किया उसको सात आसमान बीच दो दिन के, और डाल दिया हमने बीच उनके काम उनका….।१२। यहाँ तक कि जब जावेंगे उसके पास, साक्ष्य देंगे ऊपर उनके, कान उनके और आँखें उनकी और चमड़े उनके, उनके कर्म से।२०। और कहेंगे वास्ते चमड़े अपने के क्यों साक्षिता दी तूने ऊपर हमारे? कहेंगे कि बुलाया है हमको अल्लाह ने जिसने बुलाया हर वस्तु को।२१। ….अवश्य जिलानेवाला है मुर्दों को….।३९।
मं॰ ६। सि॰ २४। सू॰ ४१। आ॰ १२। २०। २१। ३९॥
[वह क्या सर्वशक्तिमान्, जिससे सात आसमान दो दिन में बने ?]
समीक्षक―वाह जी वाह मुसलमानो! तुम्हारा ख़ुदा जिसको तुम सर्वशक्तिमान् मानते हो, तो वह सात आसमानों को दो दिन में बना सका, और जो सर्वशक्तिमान् है वह क्षणमात्र में सबको बना सकता है।
[जड़ कान आंख आदि क्या गवाही देंगे ?]
भला कान, आंख और चमड़े को ईश्वर ने जड़ बनाया है, वे साक्ष्य कैसे दे सकेंगे? यदि साक्ष्य दिलावे, तो उसने प्रथम जड़ क्यों बनाया? और अपना पूर्वापर काम नियमविरुद्ध क्यों किया?
[जीवों का अपने चमड़ों से पूछना सफेद झूठ]
एक इससे भी बढ़के मिथ्या बात यह कि जब जीवों पर साक्षिता दी, तब वे जीव अपने-अपने चमड़े से पूछने लगे कि 'तूने हमारे पर साक्षिता क्यों दी? चमड़ा बोला कि खुदा ने दिलायी, मैं क्या करूं!' भला, यह बात कभी हो सकती है? जैसे कोई कहे कि 'वन्ध्या के पुत्र का मुख मैंने देखा', यदि पुत्र है तो वन्ध्या क्यों? जो वन्ध्या है तो उसके पुत्र ही होना असम्भव है। इसी प्रकार की यह भी मिथ्या बात है।
[मुर्दा कभी जीवित नहीं हो सकता]
यदि वह मुर्दों को जिलाता है, तो प्रथम मारा ही क्यों? क्या आप भी मुर्दा हो सकता है वा नहीं? यदि नहीं हो सकता, तो मुर्दापन को बुरा क्यों समझता है?
[जीवों का शीघ्र न्याय क्यों न किया ?]
और क़यामत की रात तक मृतक जीव किस मुसलमान के घर में रहे? और खुदा ने विना अपराध दौरासुपुर्द क्यों रक्खा? शीघ्र न्याय क्यों न किया? ऐसी-ऐसी बातों से ईश्वरता में बट्टा लगता है॥१४५॥
[सब कुछ ख़ुदा की मर्जी से]
१४६. वास्ते उसके कुंजियां हैं आसमानों की और पृथिवी की, खोलता है भोजन जिसके वास्ते चाहता है और तंग करता है….।१२। उत्पन्न करता है जो कुछ चाहता है और देता है जिसको चाहे बेटियां और जिसको चाहे बेटे।४९। वा मिला देता है उनको बेटे-बेटियां और कर देता है जिसको चाहे बांझ….।५०। और नहीं है शक्ति किसी आदमी की कि बात करे उससे अल्लाह, परन्तु जी (दिल) में डालकर, वा पीछे परदे* के से, वा भेजे फ़रिश्ता पैग़ाम लानेवाला।५१।
मं॰ ६। सि॰ २५। सू॰ ४२। आ॰ १२। ४९। ५०। ५१॥
[ताले और कुञ्जियों की ख़ुदा को क्या जरूरत थी ?]
समीक्षक―खुदा के पास कुंजियों का भण्डार भरा होगा, क्योंकि सब ठिकाने के ताले खोलने होते होंगे! यह लड़केपन की बात है।
[विना पाप-पुण्य के फल देना अन्याय]
क्या जिसको चाहता है उसको विना पुण्य कर्म के ऐश्वर्य देता है और [विना पाप के] तंग करता है? यदि ऐसा है तो वह बड़ा अन्यायकारी है।
[बेटे-बेटियां देने की बात औरतों को फसाने की चाल]
अब देखिये 'क़ुरान' बनाने वाले की चतुराई कि जिससे स्त्रीजन भी मोहित होके फसें। यदि जो कुछ चाहता है उत्पन्न करता है, तो दूसरे ख़ुदा को उत्पन्न कर सकता है वा नहीं? यदि नहीं कर सकता, तो सर्वशक्तिमत्ता यहां पर अटक गई। भला, मनुष्यों को तो जिसको चाहे बेटे-बेटियां ख़ुदा देता है परन्तु मुरगी, मच्छी, सुअरी आदि जिनके बहुत बेटे-बेटियां होती हैं, कौन देता है? और स्त्री-पुरुष के समागम विना क्यों नहीं देता? किसी को अपनी इच्छा से बांझ रखके दुःख क्यों देता है?
[तब तो फ़रिश्ते और पैग़म्बर खूब स्वार्थ साधते होंगे]
वाह! क्या खुदा तेजस्वी है कि उसके सामने कोई बात ही नहीं कर सकता! परन्तु उसने पहले कहा है कि परदा डालके बात कर सकता है वा फ़रिश्ते लोग ख़ुदा से बात करते हैं अथवा पैग़म्बर। जो ऐसी बात है, तो फ़रिश्ते और पैग़म्बर खूब अपना मतलब [सिद्ध] करते होंगे!
[ख़ुदा सर्वव्यापक है, तो परदे से बात करना व्यर्थ]
यदि कोई कहे ख़ुदा सर्वज्ञ, सर्वव्यापक है, तो 'परदे से बात करना' अथवा डाक के तुल्य खबर मंगाके जानना-लिखना व्यर्थ है। और जो ऐसा ही है, तो वह ख़ुदा ही नहीं, किन्तु कोई चालाक मनुष्य होगा। इसलिये यह 'क़ुरान' ईश्वरकृत कभी नहीं हो सकता॥१४६॥
* इस आयत के भाष्य ‘तफ़सीरहुसैनी’ में लिखा है कि "मुहम्मद साहब दो परदों में थे और खुदा की आवाज सुनी। एक परदा ज़री का था, दूसरा श्वेत मोतियों का और दोनों परदों के बीच में सत्तर वर्ष चलने योग्य मार्ग था?" बुद्धिमान् लोग इस बात को विचारें कि यह खुदा है वा परदे की ओट से बात करनेवाली स्त्री? इन लोगों ने तो ईश्वर की ही दुर्दशा कर डाली। कहाँ वेद तथा उपनिषदादि सद्ग्रन्थों में प्रतिपादित शुद्ध परमात्मा और कहाँ कुरानोक्त परदे की ओट से बात करनेवाला खुदा! सच तो यह है कि अरब के लोग अविद्वान् थे, उत्तम बात लाते किसके घर से?
[ईसा का प्रमाण के साथ आना]
१४७. और जब आया ईसा साथ प्रमाण प्रत्यक्ष के…..।६३।
मं॰ ६। सि॰ २५। सू॰ ४३। आ॰ ६३॥
[फिर क़ुरान इंजील में परस्पर विरोध क्यों]
समीक्षक―यदि ईसा भी भेजा हुआ ख़ुदा का है तो उसके उपदेश से विरुद्ध 'क़ुरान' ख़ुदा ने क्यों बनाया? और 'क़ुरान' से विरुद्ध 'इंजील' क्यों की? इसीलिये ये किताबें ईश्वरकृत नहीं हैं॥१४७॥
[दोज़ख़ में घसीटना; विवाह कराना]
१४८. पकड़ो उसको, बस, घसीटो उसको बीचों-बीच दोज़ख़ के।४७। इसी प्रकार रहेंगे और विवाह देंगे उनको साथ गोरियों, अच्छी आंखोंवालियों के।५४।
मं॰ ६। सि॰ २५। सू॰ ४४। आ॰ ४७। ५४॥
[ये काम तो मनुष्य के हैं, ख़ुदा इन्हें कैसे कर सकता है]
समीक्षक―वाह! क्या ख़ुदा न्यायकारी होकर पकड़वाता और घसीटवाता है प्राणियों को? जब मुसलमानों का ख़ुदा ही ऐसा है तो उसके उपासक मुसलमान अनाथ-निर्बलों को पकड़ें-घसीटें तो इसमें क्या आश्चर्य है!! और वह संसारी मनुष्यों के समान विवाह भी कराता है, जानो कि मुसलमानों का पुरोहित ही है॥१४८॥
[काफ़िरों की गर्दन काटो; बहिश्त में क्या कुछ है]
१४९. बस, जब तुम मिलो उन लोगों से कि काफ़िर हुए, बस, मारो गर्दन उनकी, यहां तक कि जब चूर कर दो उनको, बस, दृढ़ करो क़ैद करना….।४। और बहुत बस्तियां हैं कि वे बहुत कठिन थीं शक्ति में बस्ती तेरी से, जिसने निकाल दिया तुझको, मारा हमने उनको; बस, न कोई हुआ सहाय्य देनेवाला उनका।१३। तारीफ़ उस बहिश्त की कि प्रतिज्ञा किये गये हैं परहेज़गार, बीच उसके नहरें हैं बिन बिगड़े पानी की, और नहरें हैं दूध की कि नहीं बदला मज़ा उनका, और नहरें हैं शराब की मज़ा देनेवाली वास्ते पीनेवालों के, और नहरें हैं शहद साफ़ किये गये की, और वास्ते उनके बीच उसके मेवे हैं, प्रत्येक प्रकार से दान मालिक उनके से।१५।
मं॰ ६। सि॰ २६। सू॰ ४७। आ॰ ४। १३। १५॥
[काफ़िरों को मारने की बातें अशान्ति फैलाने वाली हैं]
समीक्षक―इसी से यह 'क़ुरान', ख़ुदा और मुसलमान ग़दर मचानेवाले, सबको दुःख देने वाले [और] अपना मतलब साधनेवाले दयाहीन हैं। जैसा यहां लिखा है वैसा ही दूसरा=कोई दूसरे मत-वाला मुसलमानों पर करे, तो मुसलमानों को वैसा ही दुःख, जैसा कि अन्य को देते हैं, हो वा नहीं?
[मुहम्मद साहब के विरोधियों को मारना पक्षपात]
और खुदा बड़ा पक्षपाती है कि जिन्होंने मुहम्मद साहब को [अपनी बस्तियों से] निकाल दिया, उनको ख़ुदा ने मारा।
[उस बहिश्त में यहां से विशेष कुछ नहीं]
भला, जिसमें शुद्ध पानी, दूध, मद्य और शहद की नहरें हैं, वह संसार से अधिक हो सकता है। और दूध की नहरें कभी नहीं हो सकती, क्योंकि वह थोड़े समय में बिगड़ जाता है। इसीलिये बुद्धिमान् लोग 'क़ुरान' के मत को नहीं मानते॥१४९॥
[पृथिवी का हिलाना, पहाड़ का उड़ाना; बहिश्त में क्या मिलेगा ?]
१५०. जब कि हिलाई जावेगी पृथिवी हिलाये जाने कर।४। उड़ाये जावेंगे पहाड़ उड़ाये जाने कर।५। बस हो जावेंगे भुनगे टुकड़े-टुकड़े।६। बस, साहब दाहनी ओर वाले, क्या हैं साहब दाहिनी ओर के।८। और बाईं ओर वाले क्या हैं बाईं ओर वाले।९। ऊपर पलंग सोने के तारों से बुने हुए हैं। तकिये किये हुए हैं ऊपर उनके आमने-सामने।१५। और फिरेंगे ऊपर उनके लड़के सदा रहनेवाले।१६। साथ आबखोरों के, और आफ़ताबों के और प्यालों के शराब साफ़ से।१७। नहीं माथा दुखाये जावेंगे उससे और न विरुद्ध बोलेंगे।१८। और मेवे उस क़िस्म के कि पसन्द करें। और गोश्त ज़ानवर-पक्षियों के उस क़िस्म से कि पसन्द करें।१९। और वास्ते उनके औरतें हैं अच्छी आंखोंवालियां।२०। मानिन्द मोतियों छिपाये हुओं की।२१। और बिछौने बड़े।२२। निश्चय हमने उत्पन्न किया है औरतों को एक प्रकार का उत्पन्न करना है।२३। बस किया है हमने उनको कुमारी।३४। सुहागवालियां बराबर अवस्थावालियां।३५। बस, भरनेवाले हो उससे पेटों को।३६। बस, क़सम खाता हूं मैं साथ गिरने तारों के।३७।
मं॰ ७। सि॰ २७। सू॰ ५६। आ॰ ४-६। ८। ९। १५-२३। ३४-३७। ५३। ७५॥
[क्या पृथिवी स्थिर है ? पहाड़ क्या पक्षी हैं, जो उड़ेंगे ?]
समीक्षक―अब देखिये 'क़ुरान' बनानेवाले की लीला को! भला, पृथिवी तो हिलती ही रहती है, उस समय भी हिलती रहेगी। इससे यह सिद्ध होता है कि 'क़ुरान' बनानेवाला पृथिवी को स्थिर जानता था! भला, पहाड़ों को क्या पक्षीवत् उड़ा देगा? यदि भुनगे हो जावेंगे तो भी सूक्ष्म शरीरधारी रहेंगे, तो फिर उनका दूसरा जन्म क्यों नहीं?
[ख़ुदा के दायें-बायें कैसे खड़े हुए हैं]
वाह जी! जो ख़ुदा शरीरधारी न होता तो उसके दाहिनी ओर और बाईं ओर कैसे खड़े हो सकते?
[फिर तो बहिश्त में बड़ी दुर्गति होती होगी]
जब वहां पलंग सोने के तारों से बुने हुए हैं तो बढ़ई-सुनार भी वहां रहते होंगे? और खटमल काटते होंगे, जो उनको रात्रि में सोने भी नहीं देते होंगे? क्या वे तक़िये लगाकर बहिश्त में निकम्मे बैठे ही रहते हैं वा कुछ काम किया करते हैं?
[अपच से रोग भी बढ़ते होंगे ?]
यदि बैठे ही रहते होंगे, तो उनको अन्न का पचन न होने से वे रोगी होकर शीघ्र मर भी जाते होंगे? और जो काम किया करते होंगे, तो जैसे मेहनत-मज़दूरी यहां करते हैं, वैसे ही वहां मेहनत=परिश्रम करके निर्वाह करते होंगे? फिर यहां से वहां बहिश्त में विशेष क्या है? कुछ भी नहीं।
[उन लड़कों के मा-बाप भी होंगे और रिश्तेदार भी]
यदि वहां लड़के सदा रहते हैं तो उनके मा-बाप भी रहते होंगे और सास-श्वसुर भी रहते होंगे? तब तो बड़ा भारी शहर बसता होगा? फिर मल-मूत्रादि के बढ़ने से रोग भी बहुत-से होते होंगे?
[वहां कसाइयों की दुकानें भी होंगी, पशु-पक्षी भी होंगे ?]
क्योंकि जब यथेष्ट मेवे खावेंगे, गिलासों में पानी पीवेंगे, और प्यालों में मद्य पीवेंगे, तो उनका शिर दूखेगा, और कोई विरुद्ध बोलेगा। यथेष्ट मेवे खायेंगे और जानवरों तथा पक्षियों के मांस भी खावेंगे, तो अनेक प्रकार के दुःख, पक्षी, जानवर वहाँ होंगे, हत्या होगी और हाड़ जहां-तहां बिखरे रहेंगे, और कसाइयों की दुकानें भी होंगी; वाह, क्या कहना इनके बहिश्त की प्रशंसा का कि वह अरब देश से भी बढ़कर दीखती है!
[मद्य मांस खायेंगे तो स्त्रियां और लौंडे भी वहां होने ही चाहिये]
और जो मद्य-मांस पी-खाके उन्मत्त होते हैं, इसीलिये अच्छी-अच्छी स्त्रियां और लौंडे भी वहां अवश्य रहने चाहियें, नहीं तो ऐसे नशेबाज़ों के शिर में गरमी चढ़के प्रमत्त हो जावेंगे। अवश्य, बहुत स्त्री-पुरुषों के बैठने-सोने के लिये बिछौने बड़े-बड़े चाहियें।
जब ख़ुदा कुमारियों को बहिश्त में उत्पन्न करता है, तभी कुमारे लड़कों को उत्पन्न करता है।
[वहां के लड़कों का विवाह कुमारियों से क्यों न किया ?]
भला, कुमारियों का तो विवाह जो यहां से उम्मीदवार होकर गये हैं, उनके साथ ख़ुदा ने लिखा, परन्तु उन सदा रहनेवाले लड़कों का किन्हीं कुमारियों के साथ विवाह न लिखा, तो क्या वे भी उन्हीं उम्मीदवारों के साथ कुमारीवत् दे दिये?, इसकी व्यवस्था कुछ भी न लिखी। यह ख़ुदा में बड़ी भूल क्यों हुई?
[स्त्री पुरुष की बराबर आयु में शादी होना ठीक नहीं]
यदि बराबर अवस्थावाली सुहागिन स्त्रियां पतियों को पाके बहिश्त में रहती हैं, तो ठीक नहीं हुआ, क्योंकि स्त्रियों से पुरुष का आयु डेढ़ गुना या दूना चाहिये। यह तो मुसलमानों के बहिश्त की कथा है!
[दोज़ख़ में कटीले वृक्षों के कांटे भी लगते होंगे ?]
और नरक-वाले, सिंहोड़ अर्थात् थोर के वृक्षों को खाके पेट भरेंगे, तो कण्टक वृक्ष भी दोज़ख़ में होंगे? तो कांटे भी लगते होंगे? गर्म पानी पीयेंगे, इत्यादि दुःख दोज़ख़ में पावेंगे।
[क़सम खाना झूठों का काम है]
क़सम का खाना प्रायः झूठों का काम है, सच्चों का नहीं। यदि ख़ुदा ही क़सम खाता है तो वह भी झूठ से अलग नहीं हो सकता॥१५०॥
१५१. वही है जिसने उत्पन्न किया आसमानों को और पृथिवी को बीज छः दिनों के, फिर करार पकड़ा ऊपर अर्श के….।४। ईमान लाओ साथ अल्लाह के और रसूल उसके के….।७। कौन मनुष्य है कि उधार देवे अल्लाह को, उधार अच्छा बस, दुगुना करे उसको वास्ते उसके।११।
मं॰ ७। सि॰ २७। सू॰ ५७। आ॰ ४। ७। ११॥
समीक्षक―यदि छः दिनों में पृथिवी और आकाश को बनाकर आकाश में आराम किया तो वह शरीरधारी, एकदेशी, असमर्थ और थकनेवाला होने से ईश्वर ही नहीं हो सकता। यदि ईमान में पैग़म्बर भी शरीक है तो ख़ुदा का शरीक हुआ वा नहीं? और मुसलमानों के मत में ख़ुदा के सिवाय [पैग़म्बर] पर भी ईमान रखना आवश्यक होने से ख़ुदा को 'लाशरीक' कहना व्यर्थ है। क्या ख़ुदा के खजाने में टोटा पड़ गया, वा कोई लूट गया, अथवा ख़ुदा ने फैल-फतूरी में नाश कर दिया कि जिस किसी से उधार मांगता है और दूना देना स्वीकार करता है? भला, ऐसी-ऐसी बातें ईश्वर और ईश्वरकृत पुस्तक की कभी हो सकती हैं?
१५२. अल्लाह ने क्रोध किया ऊपर काफ़िरों के….।१४। और विशेषतः यहूदियों पर गालिब आया उनके शैतान, बस, भुला दी उनको याद ख़ुदा की, ये लोग-समुदाय शैतान के हैं….।११।
मं॰ ७। सि॰ २८। सू॰ ५८। आ॰ १४। १९॥
समीक्षक―यदि मुसलमानी मजहब को न मानें और वे अच्छे हों, उन पर ख़ुदा क्रोध करेगा तो अन्यायी होगा वा नहीं? और जो मुसलमानों में दुष्ट हों, उनसे प्रेम करेगा तो भी पक्षपाती होकर पापी होगा। यदि ख़ुदा की सृष्टि में शैतान प्रबल होता है और उसको ख़ुदा न पकड़ [सकता है], न दण्ड [दे सकता है] और न मार सकता है, इसलिये ख़ुदा सर्वशक्तिमान्, न्यायकारी भी नहीं है॥१५२॥
१५३. वह पृथिवी अल्लाह ने लूट के प्रकार से न बटवाई, हज़रत के इख़्तियार में रक्खी।६। यह ही भेद रक्खा लूट में और फ़ी में, जो माल लड़ाई से हाथ लगा वह लूट पांचवां भाग अल्लाह की भेंट, और चार भाग लश्कर को बांटने…..।७।
मं॰ ७। सि॰ २८। सू॰ ५९। आ॰ ६। ७॥
समीक्षक―क्या कहना है! तभी तो मुसलमान लोग लूट-मार और फ़साद करने में नहीं डरते कि जिनके ख़ुदा और पैग़म्बर ने लूट की पृथिवी आदि को भी स्वीकार कर लिया! क्योंकि उस लूट के माल में से पांचवां भाग अल्लाह का भी है। क्या यह ख़ुदा वा पैग़म्बर लूट के करानेवाले नहीं हुए? ऐसे ख़ुदा और पैग़म्बर को कोई बुद्धिमान् न मान सकेगा। और क्या ऐसे की बात का प्रमाण हो सकता है?॥१५३॥
[अल्लाह के मित्र]
१५४. निश्चय, अल्लाह मित्र रखता है उन लोगों को कि लड़ते हैं बीच मार्ग उसके के….।४।
मं॰ ७। सि॰ २८। सू॰ ६१। आ॰ ४॥
[मज़हब के नाम पर लड़ाई कराना अनुचित]
समीक्षक―वाह, ठीक है! ऐसी-ऐसी बातों का उपदेश करके बेचारे अरबदेश-वासियों को सबसे लड़ाके शत्रु बनाकर परस्पर दुःख दिलाया। और मज़हब का झंडा खड़ा करके लड़ाई फैलावे, ऐसे को ईश्वर, बुद्धिमान् कभी नहीं मान सकते। जो मनुष्य-जाति में विरोध बढ़ावे वही सबको दुःखदाता होता है॥१५४॥
१५५. यदि क़र्ज़ दो तुम अल्लाह को, क़र्ज़ अच्छा, दुगुना करेगा उसको वास्ते, तुम्हारे क्षमा करेगा वास्ते तुम्हारे पाप….।१७।
मं॰ ७। सि॰ २८। सू॰ ६४। आ॰ १७॥
समीक्षक―यह क़र्ज़ का लेना-देना सब मुहम्मद साहब के मतलब की बात है। जैसे मूर्तिपूजक मूर्ति के नाम से लोगों से धन लेकर स्वकार्य सिद्ध करते हैं, ऐसी ही मुहम्मद साहब की लीला है; क्योंकि ईश्वर को क़र्ज़ लेने का कोई भी प्रयोजन नहीं॥१५५॥
नोट―हज़रत ने एक बीबी अपनी मोक़ूफ़ कर दी खातिर से और बीबियों से। हजरत की मरियम नामी एक बांदी से प्रीति बहुत थी। और इस बात को जानकर उनकी एक बीबी ने उनको रोका। हज़रत ने खफ़ा होकर उसको तलाक़ दे दिया। ये आयत हज़रत की औरतों की तरफ है। किसी दिन कोई बीबी रूस गई होगी, उस बात पर यह आयत उतरी कि 'ऐ नबी की स्त्रियों! यह घमंड मत करो कि पैग़म्बर के लिये हम ही हैं, नहीं सिवाय तुम्हारे और भी बीबियां बदल सकते हैं―'
[रसूल के घरेलू मामलों में हस्तक्षेप]
१५६. ऐ नबी! क्यों हराम करता है उस वस्तु को कि हलाल किया है ख़ुदा ने तेरे लिये, चाहता है तू प्रसन्नता बीबियों अपनी की, और अल्लाह क्षमा करनेवाला दयालु है।१। जल्दी है मालिक उसका जो वह तुमको छोड़ दे, तो यह है कि उसको तुमसे अच्छी मुसलमान और ईमानवालियाँ बीबियाँ बदल दे सेवा करनेवालियाँ, तौबा करनेवालियाँ, भक्ति करनेवालियाँ, रोज़ा रखनेवालियाँ, पुरुष देखी हुई और बिन देखी हुई।५।
मं॰ ७। सि॰ २८। सू॰ ६६। आ॰ १। ५॥
[पैग़म्बर के घरेलू झगड़े से ख़ुदा भी चिन्तित]
समीक्षक―ध्यान देकर देखना चाहिये कि ख़ुदा क्या हुआ, मुहम्मद साहब के घर का भीतरी और बाहरी प्रबन्ध करने वाला भृत्य ठहरा!!
[प्रथम आयत पर दो रोचक कहानियां]
प्रथम आयत पर दो कहानियाँ हैं―एक तो यह कि मुहम्मद साहब को शहद का शर्बत प्रिय था। उनकी कई बीबियाँ थीं उनमें से एक के घर पीने में देर लगी तो दूसरियों को असह्य प्रतीत हुआ। उनके कहने-सुनने के पीछे मुहम्मद साहब सौगन्द खा गये कि हम न पीवेंगे।
दूसरी यह कि उनकी कई बीबियों में से एक की बारी थी। उसके यहाँ रात्री को गये तो वह न थी, अपने बाप के यहाँ गई थी। मुहम्मद साहब ने एक लौंडी अर्थात् दासी को बुलाकर पवित्र किया। जब बीबी को इसकी ख़बर मिली तो वह अप्रसन्न हो गई। तब मुहम्मद साहब ने सौगन्द खाई कि मैं ऐसा न करूँगा, और बीबी से भी कह दिया तुम किसी से यह बात मत कहना। बीबी ने स्वीकार किया कि न कहूँगी। फिर उन्होंने दूसरी बीबी से जा कहा। इस पर यह आयत ख़ुदा ने उतारी "जिस वस्तु को हमने तेरे पर हलाल किया, उसको तू हराम क्यों करता है?"
बुद्धिमान् लोग विचारें कि भला, कहीं ख़ुदा भी किसी के घर का निमटेरा करता फिरता है? और मुहम्मद साहब के तो आचरण इन बातों से प्रकट ही हैं, कहने की क्या बात है?
[पैग़म्बर के लिये नयी बीबियां लाने की पेशकश]
और दूसरी आयत से प्रतीत होता है कि मुहम्मद साहब से उनकी कोई बीबी अप्रसन्न हो गई होगी। उसपर खुदा ने यह आयत उतारकर उसको धमकाया होगा कि यदि तू गड़बड़ करेगी और मुहम्मद साहब तुझे छोड़ देंगे तो उनको ख़ुदा तुझसे अच्छी बीबियाँ देगा कि जो पुरुष से न मिली हों।
जिस मनुष्य को तनिक-सी बुद्धि है वह विचार ले सकता है कि खुदा-वुदा के काम हैं वा अपने प्रयोजन सिद्धि के? ऐसी-ऐसी बातों से ठीक सिद्ध है कि खुदा कोई नहीं कहता था, केवल देश-काल देखकर अपने प्रयोजन के सिद्धि होने के लिये खुदा की तरफ़ से मुहम्मद साहब कह देते थे। जो लोग खुदा की ही तरफ़ लगाते हैं उनको हम क्या, सब बुद्धिमान् यही कहेंगे कि खुदा क्या ठहरा, मानो मुहम्मद साहब के लिये बीबियाँ लानेवाला नाई ठहरा!!!
[अनेक स्त्रियों के कारण पैग़म्बर साहब की दुर्दशा]
भला, जो अनेक स्त्रियों को रक्खे वह ईश्वर का भक्त वा पैग़म्बर कैसे हो सके?
[अपनी औरतों को छोड़ बांदियों में फसना लज्जाजनक]
और जो एक स्त्री का पक्षपात से अपमान करे और दूसरी का मान्य करे, वह पक्षपाती होकर अधर्मी क्यों नहीं? और जो बहुत-सी स्त्रियों से भी सन्तुष्ट न होकर, बांदियों के साथ फसे, उसको लज्जा, भय और धर्म कहां से रहे? किसी ने कहा है कि—
कामातुराणां न भयं न लज्जा
=जो कामी मनुष्य हैं उनको अधर्म से भय वा लज्जा नहीं होती।
[ख़ुदा पैग़म्बर के घरेलू झगड़े में सरपंच]
और इनका ख़ुदा भी मुहम्मद साहब की स्त्रियों और पैग़म्बर के झगड़े को फैसला करने में जानो सरपंच बना है। अब बुद्धिमान् लोग विचार लें कि यह 'क़ुरान' किसी विद्वान्-कृत वा ईश्वर-कृत है वा किसी अविद्वान् मतलबसिन्धु का बनाया, स्पष्ट विदित हो जायगा॥१५६॥
[काफ़िरों से झगड़ने की आज्ञा]
१५७. ऐ नबी! झगड़ा कर काफ़िरों और गुप्त शत्रुओं से, और सख्ती कर ऊपर उनके….।९।
मं॰ ७। सि॰ २८। सू॰ ६६। आ॰ ९॥
[लड़ाई के लिये मुसलमानों को उकसाना अदूरदर्शिता]
समीक्षक―और देखिये मुसलमानों के ख़ुदा की लीला! अन्य मत-वालों से लड़ने के लिये पैग़म्बर और मुसलमानों को उचकाता है, इसीलिये आज तक मुसलमान लोग उपद्रव करने में प्रवृत्त रहते हैं। परमात्मा मुसलमानों पर कृपादृष्टि करे जिससे ये लोग उपद्रव करना छोड़के, सबसे मित्रता से वर्त्तें॥१५७॥
[आठ जनों द्वारा ख़ुदा का तख्त उठाना, हाथों में कर्म पत्र देना]
१५८. फट जावेगा आसमान, बस, वह उस दिन सुस्त होगा।१६। और फ़रिश्ते होंगे ऊपर किनारों उसके के, और उठावेंगे तख़्त मालिक तेरे का ऊपर अपने, उस दिन आठ जन।१७। उस दिन सामने लाये जाओगे तुम, न छिपी रहेगी कोई बात छिपी हुई।१८। बस, जो कोई दिया गया कर्मपत्र अपना बीच दाहिने हाथ अपने के, बस कहेगा―'लो पढ़ो कर्मपत्र मेरा'।१९। और जो कोई दिया गया कर्मपत्र बीच बायें हाथ अपने के, बस कहेगा हाय न दिया गया होता मैं कर्मपत्र अपना।२५।
मं॰ ७। सि॰ २९। सू॰ ६९। आ॰ १६। १७। १८। १९। २५॥
[क्या आसमान कभी फट सकता है ?]
समीक्षक―वाह क्या 'फ़िलासफ़ी' और 'न्याय' की बात है! भला, आकाश भी कभी फट सकता है? क्या वह वस्त्र के समान है जो फट जावे? यदि ऊपर के लोक को आसमान कहते हैं तो यह बात विद्या से विरुद्ध है।
[क़ुरान का ख़ुदा निःसन्देह शरीरधारी है]
अब 'क़ुरान' का ख़ुदा शरीरधारी होने में कुछ संदिग्ध न रहा, क्योंकि तख़्त पर बैठना, आठ कहारों से उठवाना, विना मूर्त्तिमान् के कुछ भी नहीं हो सकता। और सामने वा पीछे भी आना-जाना मूर्तिमान् का ही हो सकता है। जब वह मूर्त्तिमान् है, तो एकदेशी होने से सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सर्वशक्तिमान् नहीं हो सकता और सब जीवों के सब कर्मों को कभी नहीं जान सकता।
[कर्म पत्र बांच के न्याय करना सर्वज्ञ का काम नहीं]
यह बड़े आश्चर्य की बात है कि पुण्यात्माओं के दाहिने हाथ में पत्र देना, बँचवाना, बहिश्त में भेजना; और पापात्माओं के बांये हाथ में कर्मपत्र का देना, नरक में भेजना, कर्मपत्र बाँचके न्याय करना सर्वज्ञ का काम नहीं। यह सब लीला लड़केपन की है॥१५८॥
[पचास हजार वर्ष का दिन; कब्रों में से निकलकर दौड़ना]
१५९. चढ़ते हैं फ़रिश्ते और रूह तरफ़ उसकी, वह अज़ाब होगा बीच उस दिन के कि है परिमाण उसका पचास हज़ार वर्ष।४। जबकि निकलेंगे क़ब्रों में से दौड़ते हुए मानो कि वे बुतों के स्थानों की ओर दौड़ते हैं।४३।
मं॰ ७। सि॰ २९। सू॰ ७०। आ॰ ४। ४३॥
[पचास हजार वर्ष तक ख़ुदा फ़रिश्ते आदि क्या करेंगे ?]
समीक्षक―यदि पचास हज़ार वर्ष दिन का परिमाण है, तो पचास हज़ार वर्षों की रात्रि क्यों नहीं? यदि उतनी बड़ी रात्रि नहीं है, तो उतना बड़ा दिन कभी नहीं हो सकता। रात्रि में न्याय करना अच्छा नहीं किन्तु दिन ही न्याय के लिए है। क्या पचास हज़ार वर्षों तक ख़ुदा, फ़रिश्ते और कर्मपत्र वाले खड़े वा बैठे अथवा जागते ही रहेंगे? यदि ऐसा है, तो सब रोगी होकर पुनः मर ही जायेंगे।
[क्या आजकल ख़ुदा की कचहरी बन्द है ?]
क्या क़ब्रों से निकलकर ख़ुदा की कचहरी की ओर दौड़ेंगे? उनके पास सम्मन क़ब्रों में क्योंकर पहुंचेंगे? और उन बेचारों को जो कि पुण्यात्मा, पापात्मा हैं इतने समय तक सभी को क़ब्रों में दौरासुपुर्द क़ैद क्यों रक्खा? और आजकल ख़ुदा की कचहरी बन्द होगी और ख़ुदा तथा फ़रिश्ते निकम्मे बैठे होंगे? अथवा क्या काम करते हैं? अपने-अपने स्थानों में बैठे इधर-उधर घूमते, सोते, नाच-तमाशा देखते वा ऐश-आराम कर रहे होंगे? ऐसा अन्धेर किसी के राज्य में न होगा। ऐसी-ऐसी बातों को सिवाय जंगलियों के दूसरा कौन मानेगा?॥१५९॥
[ऊपर तले सात आसमान बनाना]
१६०. निश्चय, उत्पन्न किया तुमको कई प्रकार से।१४। क्या नहीं देखा तुमने कैसे उत्पन्न किया अल्लाह ने सात आसमानों को ऊपर-तले?।१५। और किया चांद को बीच उनके प्रकाशक और किया सूर्य को दीपक।१६।
मं॰ ७। सि॰ २९। सू॰ ७१। आ॰ १४। १५। १६॥
[जीवों को उत्पन्न किया, तो बहिश्त में सदा कैसे रहेंगे ?]
समीक्षक―यदि जीवों को ख़ुदा ने उत्पन्न किया है तो वे नित्य, अमर कभी नहीं रह सकते? फिर बहिश्त में सदा क्योंकर रह सकेंगे? जो उत्पन्न होता है, वह वस्तु अवश्य नष्ट हो जाता है।
[आकाश निराकार पदार्थ है उसे ऊपर तले कैसे बनाया ?]
आसमान को [ख़ुदा] ऊपर-तले कैसे बना सकता है? क्योंकि वह निराकार और विभु पदार्थ है। यदि दूसरी चीज़ का नाम आकाश रखते हो, तो भी उसका आकाश नाम रखना व्यर्थ है।
[सात-आसमानों में प्रकाश कैसे ?]
यदि ऊपर-तले आसमानों को बनाया है, तो उन सबके बीच में चाँद-सूर्य कभी नहीं रह सकते। जो बीच में रक्खा जाय, तो एक ऊपर और एक नीचे का पदार्थ प्रकाशित हो। दूसरे से लेकर सबमें अन्धकार रहना चाहिये। ऐसा नहीं दीखता, इसलिये यह बात सर्वथा मिथ्या है॥१६०॥
[अल्लाह के साथ किसी को मत पुकारो]
१६१. और यह कि मस्जिदें वास्ते अल्लाह के हैं; बस, मत पुकारो साथ अल्लाह के किसी को।१८।
मं॰ ७। सि॰ २९। सू॰ ७२। आ॰ १८॥
[कलमें में पैग़म्बर का नाम ख़ुदा के साथ कैसे ?]
समीक्षक―यदि यह बात सत्य है तो मुसलमान लोग ‘लाइलाह इल्लिलाः मुहम्मदर्रसूलल्लाः’ इस कलमे में ख़ुदा के साथ मुहम्मद साहब को क्यों पुकारते हैं? यह बात 'क़ुरान' से विरुद्ध है। और जो विरुद्ध नहीं करते, तो इस 'क़ुरान' की बात को झूठ करते हैं।
[मस्जिदें ख़ुदा के घर हैं, तो यह बुतपरस्ती है]
जब मस्जिदें ख़ुदा के घर हैं, तो मुसलमान महाबुतरस्त हुए, क्योंकि जैसे पुराणी, जैनी छोटी-सी मूर्त्ति को ईश्वर का घर मानने से बुतपरस्त ठहरते हैं, [वैसे] ये लोग क्यों नहीं?॥१६१॥
[सूर्य और चांद को इकट्ठा करना]
१६२. इकट्ठा किया जावेगा सूर्य और चाँद को।९।
मं॰ ७। सि॰ २९। सू॰ ७५। आ॰ ९॥
[सूर्य और चांद कभी इकट्ठे नहीं हो सकते]
समीक्षक―भला, सूर्य-चाँद कभी इकट्ठे हो सकते हैं? देखिये, यह कितनी बेसमझी की बात है। और सूर्य-चन्द्र के ही इकट्ठे करने में क्या प्रयोजन? तथा अन्य सब लोकों को इकट्ठे न करने में क्या युक्ति है? ऐसी-ऐसी असम्भव बातें परमेश्वरकृत कभी हो सकती हैं? विना अविद्वानों के अन्य किसी विद्वान् की भी नहीं होतीं॥१६२॥
[बहिश्त में लड़के; ख़ुदा का उन्हें शराब पिलाना]
१६३. और फिरेंगे ऊपर उनके पास लड़के सदा [एक अवस्था में] रहनेवाले, जब देखेगा तू उनको, अनुमान करेगा तू उनको मोती बिखरे हुए जैसे।१९। ….और पहनाये जावेंगे कंगन चांदी के, और पिलावेगा उनको रब उनका शराब तहूरा।२१।
मं॰ ७। सि॰ २९। सू॰ ७६। आ॰ १९। २१॥
[बहिश्त में लड़के किसलिये हैं ?]
समीक्षक―क्यों जी! मोती के वर्ण-से लड़के किसलिये वहां रक्खे जाते हैं? क्या जवान लोग सेवा [से] वा स्त्रीजन उनको तृप्त नहीं कर सकतीं? क्या आश्चर्य है कि जो यह महा-बुराकर्म लड़कों के साथ दुष्टजन करते हैं उसका मूल यही 'क़ुरान' का वचन हो!
[ख़ुदा स्वयं शराब पिलावेगा, तो उसकी महत्ता समाप्त]
और बहिश्त में स्वामी-सेवकभाव होने से स्वामी को आनन्द और सेवक को परिश्रम होने से स्वर्ग में दुःख तथा पक्षपात क्यों होता है? और जब ख़ुदा ही उनको मद्य पिलावेगा तो वह भी उनका सेवकवत् ठहरेगा, फिर ख़ुदा की बड़ाई क्योंकर रह सकेगी?
[वहां बाल-बच्चे भी होंगे, तो वे जीव कहां से आये ?]
और वहां बहिश्त में स्त्री-पुरुष का समागम और गर्भस्थिति और लड़के-बाले भी होते हैं वा नहीं? यदि नहीं होते तो उनका विषयसेवन करना व्यर्थ हुआ? और जो होते हैं तो वे जीव कहां से आये?
[विना ख़ुदा की सेवा के बहिश्त की प्राप्ति अन्याय]
और विना ख़ुदा की सेवा के बहिश्त में क्यों जन्मे? यदि जन्मे तो उनको विना ईमान लाये और ख़ुदा की भक्ति किये विना बहिश्त मुफ्त मिल गया। किन्हीं को तो ईमान लाने और किन्हीं को विना धर्म के सुख मिल जाने से दूसरा बड़ा अन्याय कौन-सा होगा?॥१६३॥
[कर्मानुसार फल]
१६४. बदला दिये जावेंगे कर्मानुसार।२६। और प्याले हैं भरे हुए।३४। जिस दिन खड़े होंगे रूह और फ़रिश्ते सफ़ बांध कर….।३८।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ७८। आ॰ २६। ३४। ३८॥
[फ़रिश्तों हूरों और लड़कों को बहिश्त कैसे मिला ?]
समीक्षक―यदि कर्मानुसार फल दिया जाता है तो सदा बहिश्त में रहनेवाली हूरों, फ़रिश्तों और मोती के सदृश लड़कों को कौन कर्म के अनुसार सदा के लिये बहिश्त मिला? जब प्याले भर-भर शराब पीयेंगे तो मस्त होकर क्यों न लड़ेंगे? और रूह निराकार होने से वहां खड़ी क्योंकर हो सकेगी? और ख़ुदा उस समय खड़ा होगा वा बैठा?
[क्या फ़रिश्ते जीवों को सजा देंगे ?]
'रूह' नाम यहां एक फ़रिश्ते का है, जो सब फ़रिश्तों से बड़ा है। क्या ख़ुदा रूह तथा अन्य फ़रिश्तों को पंक्तिबद्ध खड़े करके पलटन बांधेगा? क्या पलटन से सब जीवों को सजा दिलावेगा? और खुदा उस समय खड़ा होगा वा बैठा? यदि क़यामत तक ख़ुदा अपनी सब पलटन एकत्र करके शैतान को पकड़ ले तो उसका राज्य निष्कण्टक हो जाय। इसका नाम खुदाई है॥१६४॥
[सूर्य को लपेटना; आसमान की खाल उतारना]
१६५. जबकि सूर्य लपेटा जावे।१। और जबकि तारे गदले हो जावें।२। और जबकि पहाड़ चलाये जावें।३। और जब आसमान की खाल उतारी जावे।११।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ८१। आ॰ १। २। ३। ११॥
[ये सब बातें जङ्गलीपन की हैं]
समीक्षक―यह बड़ी बेसमझ की बात है कि गोल सूर्यलोक कैसे लपेटा जावेगा? और तारे गदले क्योंकर हो सकेंगे? और पहाड़ जड़ होने से चलेंगे कैसे? और आकाश को क्या पशु समझा कि उसकी खाल निकाली जावेगी? यह बड़ी ही मूर्खता और जंगलीपन की बात है॥१६५॥
[आसमान का फटना; तारों का झड़ना; दरिया को चीरना]
१६६. और जबकि आसमान फट जावे।९। और जब तारे उड़ जावें।२। और जब दरिया चीरे जावें।३। और जब क़ब्रें जिलाकर उठाई जावें।४।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ८२। आ॰ १। २। ३। ४॥
[ये सब बातें भी बालकों के सदृश हैं]
समीक्षक―वाह जी 'क़ुरान' के बनानेवाले 'फ़िलासफ़र'! आकाश को क्योंकर फाड़ सकेगा? और तारों को कैसे उड़ा सकेगा? और दरिया क्या लकड़ी है जो चीर डालेगा? और क़ब्रें क्या मुर्दे हैं जो जिला सकेगा? ये सब बातें लड़कों के सदृश हैं॥१६६॥
[बुर्जों वाला आसमान]
१६७. क़सम है आसमान बुर्जों वाले की।१। किन्तु वह 'क़ुरान' है बड़ा।२१। बीच महफ़ूज लौह रक्षा के।२२।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ८५। आ॰ १। २१। २२॥
[आकाश को किले के समान बुर्जों वाला बताना अज्ञानता]
समीक्षक―इस 'कुरान' के बनानेवाले ने भूगोल-खगोल भी नहीं पढ़ा था, नहीं तो आकाश को क़िले के समान बुर्जों-वाला क्यों कहता? यदि मेषादि राशियों को बुर्ज कहता है, तो अन्य बुर्ज क्यों नहीं? इसलिये ये बुर्ज नहीं हैं, किन्तु सब तारे लोक हैं।
[फिर तो वह ख़ुदा भी विद्यारहित ही होगा]
क्या वह 'क़ुरान' ख़ुदा के पास है? यदि वह 'क़ुरान' उसका किया है, तो वह भी इससे अधिक विद्या और युक्ति से विरुद्ध होकर अविद्या से अधिक भरा होगा॥१६७॥
[ख़ुदा का मकर के बदले मकर करना]
१६८. निश्चय, वे मकर करते हैं एक मकर।१५। और मैं भी मकर करता हूं एक मकर।१६।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ८६। आ॰ १५।१६॥
[क्या ख़ुदा भी ठगी करने लगा]
समीक्षक―मकर कहते हैं ठगपन को। क्या ख़ुदा भी ठग है? और क्या चोरी का जवाब चोरी और झूठ का जवाब झूठ है? क्या कोई चोर भले आदमी के घर में चोरी करे, तो क्या भले आदमी को चाहिये कि उसके घर में जाके चोरी करे?॥१६८॥
[ख़ुदा और फ़रिश्तों का आना]
१६९. और जब आवेगा मालिक तेरा और फ़रिश्ते पंक्ति बांध के।२२। और लाया जावेगा उस दिन दोज़ख़ को….।२३।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ८९। आ॰ २२। २३॥
[क्या दोज़ख़ भी इधर-उधर ले जाने की वस्तु है ?]
समीक्षक―कहो जी! जैसे कोटपाल वा सेनाध्यक्ष अपनी सेना को लेकर पंक्ति बांध फिरा करे वैसा ही इनका ख़ुदा है। क्या दोज़ख़ घड़ा-सा है कि जिसको उठाके जहाँ चाहे वहाँ ले जावें? यदि इतना छोटा है तो असंख्य क़ैदी उसमें कैसे समा सकेंगे?॥१६९॥
[ख़ुदा की ऊंटनी; मरी डालना]
१७०. बस, कहा था वास्ते उनके पैग़म्बर ख़ुदा के ने, रक्षा करो ऊंटनी ख़ुदा की को, और पानी पिलाना उसके को।१३। बस झुठलाया उसको, बस पांव काटे उसके, बस मरी डाली ऊपर उनके, रब उनके ने।१४।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ९१। आ॰ १३। १४॥
[ख़ुदा ऊंटनी क्यों रखता है; क़यामत से पूर्व ही मरी कैसे ?]
समीक्षक―क्या ख़ुदा भी ऊंटनी पर चढ़के सैल किया करता है? नहीं तो किसलिये रक्खी? और विना क़यामत के अपना नियम तोड़ उन पर मरी क्यों डाली? यदि डाला तो उनको दण्ड किया। फिर क़यामत की रात में न्याय और उस रात का होना झूठ समझा जायगा? इस ऊंटनी के लेख से यह अनुमान होता है कि अरब देश में ऊंट-ऊंटनी के सिवाय दूसरी कोई सवारी नहीं होती हैं। इसीलिये किसी अरब देशी ने 'क़ुरान' बनाया है॥१७०॥
[बाल पकड़कर घसीटना]
१७१. यों जो न रुकेगा, अवश्य घसीटेंगे उसको हम साथ बालों माथे के।१५। वह माथा, कि झूठा है और अपराधी।१६। हम बुलावेंगे फ़रिश्ते [जो उन्हें ले जायेंगे] दोज़ख़ के।१८।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ९६। आ॰ १५। १६। १८॥
[माथा भी कहीं झूठा वा अपराधी होता है ?]
समीक्षक―चपरासियों के इस नीच काम 'घसीटने से' भी ख़ुदा न बचा। भला, माथा भी कभी झूठा और अपराधी हो सकता है सिवाय जीव के? भला, यह भी कभी ख़ुदा हो सकता है कि जैसे जेलखाने के दरोग़ा को जिले का हाक़िम बुलावा भेजे॥१७१॥
[क़ुरान को अंधेरी रात में उतारा]
१७२. निश्चय, उतारा हमने क़ुरान को बीच रात क़द्र के।१। और क्या जाने तू क्या है रात क़द्र की?।२। उतरते हैं फ़रिश्ते और पवित्रात्मा बीच उसके, साथ आज्ञा मालिक अपने की, वास्ते हर काम के।४।
मं॰ ७। सि॰ ३०। सू॰ ९७। आ॰ १। २। ४॥
[एक ही रात में क़ुरान उतरने की बात असत्य]
समीक्षक―यदि एक ही रात में 'क़ुरान' उतारा, तो वह आयत अर्थात् [अमुक आयत] उस समय में उतरी और [उसको] धीरे-धीरे उतारा, यह बात सत्य क्योंकर हो सकेगी? और रात्रि अन्धेरी है, इसमें क्या पूछना है?
[हरकाम फ़रिश्तों से ही क्यों कराता है ?]
वहाँ लिख आये हैं ऊपर-नीचे कुछ भी नहीं हो सकता और यहां लिखते हैं कि फ़रिश्ते और 'पवित्रात्मा' ख़ुदा के हुक्म से संसार का प्रबंध करने के लिये आते हैं। इससे स्पष्ट हुआ कि ख़ुदा मनुष्यवत् एकदेशी है।
[यह पवित्रात्मा चौथा और कहां से आ गया ?]
अब तक देखा था कि खुदा, फ़रिश्ते और पैग़म्बर तीन की कथा है। अब एक 'पवित्रात्मा' चौथा निकल पड़ा! अब न जाने यह चौथा 'पवित्रात्मा' क्या है? यह तो ईसाइयों के मत अर्थात् पिता, पुत्र और 'पवित्रात्मा' तीन के मानने से चौथा भी बढ़ गया।
[पवित्रात्मा पृथक् है तो क्या शेष तीन वैसे नहीं है ?]
यदि कहो कि हम इन तीनों को ख़ुदा नहीं मानते, ऐसा भी हो, परन्तु जब 'पवित्रात्मा' पृथक् है, तो ख़ुदा, फ़रिश्ते और पैग़म्बर को 'पवित्रात्मा' कहना चाहिये वा नहीं? यदि 'पवित्रात्मा' है, तो एक का ही नाम 'पवित्रात्मा' क्यों? और घोड़े आदि जानवरों, रात-दिन और 'क़ुरान' आदि की ख़ुदा क़समें खाता है। क़समें खाना भले लोगों का काम नहीं॥१७२॥
[क़ुरान के विषय में लेखक के संक्षिप्त विचार]
अब इस 'क़ुरान' के विषय को लिखके बुद्धिमानों के सम्मुख स्थापित करता हूं कि यह पुस्तक कैसा है? मुझसे पूछो तो यह किताब न ईश्वर की, न विद्वान् की बनाई और न विद्या की हो सकती है। यह तो बहुत थोड़ा-सा दोष प्रकट किया, इसलिये कि लोग धोखे में पड़कर अपना जन्म व्यर्थ न गमावें। जो कुछ थोड़ा-सा इसमें सत्य है, वह वेदादि विद्या-पुस्तकों के अनुकूल होने से जैसे मुझको ग्राह्य है, वैसे अन्य भी मज़हब के हठ और पक्षपातरहित विद्वानों और बुद्धिमानों को ग्राह्य है। इसके विना जो कुछ इसमें है, वह सब अविद्या, भ्रमजाल और मनुष्य के आत्मा को पशुवत् बनाकर, शान्तिभंग कराके, उपद्रव मचा, मनुष्यों में विद्रोह फैला, परस्पर दुःखोन्नति करनेवाला विषय है। और पुनरुक्त दोषों का तो 'क़ुरान' जानो भंडार ही है।
परमात्मा सब मनुष्यों पर कृपा करे कि सब सबसे प्रीति, परस्पर मेल और एक दूसरे के सुख की उन्नति करने में प्रवृत्त हों। जैसे मैं अपना वा दूसरे मतमतान्तरों के दोष पक्षपातरहित होकर प्रकाशित करता हूं, इसी प्रकार यदि सब विद्वान् लोग करें, तो क्या कठिनता है कि परस्पर का विरोध छूट, मेल होकर आनन्द में एकमत होके, सत्य की प्राप्ति सिद्ध न हो?
यह थोड़ा 'क़ुरान' के विषय में लिखा, इससे बुद्धिमान् धार्मिक लोग ग्रन्थकार के अभिप्राय को समझ लाभ लेवें।
यदि कहीं भ्रम से अन्यथा लिखा गया हो तो उसको शुद्ध कर लेवें।
[मुसलमान मत की बात तो वेदों में भी लिखी है ?]
अब एक बात यह शेष है कि बहुत से मुसलमान ऐसा कहा करते और लिखा वा छपवाया करते हैं कि "हमारे मज़हब की बात 'अथर्ववेद' में लिखी हैं।" इसका यह उत्तर है कि 'अथर्ववेद' में इस बात का नाम- निशान भी नहीं है।
प्रश्न―क्या तुमने सब 'अथर्ववेद' देखा है? यदि देखा है तो 'अल्लोपनिषद्' देखो। यह साक्षात् उसमें लिखी है। फिर क्यों कहते हो कि 'अथर्ववेद' में मुसलमानों का नाम-निशान भी नहीं है?
अथ-'अल्लोपनिषदं’ व्याख्यास्यामः
अस्माल्लां इल्ले मित्रावरुणा दिव्यानि धत्ते।
इल्लल्ले वरुणो राजा पुनर्द्ददुः।
हया मित्रो इल्लां इल्लल्ले इल्लां वरुणो मित्रस्तेजस्कामः॥१॥
होतारमिन्द्रो होतारमिन्द्र महासुरिन्द्राः।
अल्लो ज्येष्ठं श्रेष्ठं परमं पूर्णं ब्रह्माणं अल्लाम्॥२॥
अल्लोरसूलमहामदरकबरस्य अल्लो अल्लाम्॥३॥
आदल्लाबूकमेककम्॥ अल्लाबूक निखातकम्॥४॥
अल्लो यज्ञेन हुतहुत्वा। अल्ला सूर्यचन्द्रसर्वनक्षत्राः॥५॥
अल्ला ऋषीणां सर्वदिव्यां इन्द्राय पूर्वं माया परममन्तरिक्षाः॥६॥
अल्लः पृथिव्या अन्तरिक्षं विश्वरूपम्॥७॥
इल्लां कबर इल्लां कबर इल्लां इल्लल्लेति इल्लल्लाः॥८॥
ओम् अल्लाइल्लल्ला अनादिस्वरूपाय अथर्वणाश्यामा हुं ह्रीं जनान् पशून् सिद्धान् जलचरान् अदृष्टं कुरु कुरु फट्॥९॥
असुरसंहारिणी हुं ह्रीं अल्लोरसूलमहामदरकबरस्य अल्लो अल्लाम् इल्लल्लेति इल्लल्लाः॥१०॥
इति-'अल्लोपनिषत्' समाप्ता॥
जो इसमें प्रत्यक्ष मुहम्मद साहब [को] रसूल लिखा है इससे सिद्ध होता है कि मुसलमानों का मत वेदमूलक है।
[अथर्ववेद में कहीं भी पैग़म्बर वा उसके मत का उल्लेख नहीं]
उत्तर―यदि तुमने 'अथर्ववेद' न देखा हो, तो हमारे पास आओ, आदि से पूर्त्ति तक देखो। अथवा जिस किसी अथर्ववेदी के पास बीस काण्डयुक्त मन्त्रसंहिता 'अथर्ववेद' को देख लो। कहीं तुम्हारे पैग़म्बर साहब का नाम वा मत का निशान न देखोगे।
[अल्लोपनिषद् की रचना अकबर के समय में हुई]
और जो यह 'अल्लोपनिषद्' है वह न 'अथर्ववेद' में, न उसके 'गोपथ ब्राह्मण' में है वा किसी शाखा में है। यह तो अकबर शाह के समय में, अनुमान है कि किसी [मुसलमान] ने बनाई है। इसका बनानेवाला कुछ अरबी और कुछ संस्कृत भी पढ़ा हुआ दीखता है, क्योंकि इसमें अरबी और संस्कृत के पद लिखे हुये दीखते हैं।
[अरबी और संस्कृत शब्दों का निरर्थक मिश्रण]
देखो, "अस्माल्लां इल्ले मित्रावरुणा दिव्यानि धत्ते" इत्यादि में जो कि दश अङ्क में लिखा है, जैसे—इसमें "अस्माल्लां" और "इल्ले" अरबी और "मित्रावरुणा दिव्यानि धत्ते" ये संस्कृत-पद लिखे हैं, वैसे ही सर्वत्र देखने में आने से किसी संस्कृत और अरबी के पढ़े हुए ने बनाई है। यदि इसका अर्थ देखा जाता है तो यह कृत्रिम, अयुक्त, वेद और व्याकरण-रीति से विरुद्ध सिद्ध होती है।
[अन्य लोगों ने भी ऐसी ही उपनिषदें बना लीं]
जैसी यह उपनिषद् बनाई है, वैसी बहुत-सी उपनिषदें मतमतान्तरवाले पक्षपातियों ने बना ली हैं। जैसे 'स्वरूपोपनिषद्', 'नृसिंहतापनी', 'रामतापनी', 'गोपालतापनी' बहुत-सी बना ली हैं।
[अथर्ववेद की किसी शाखा में भी यह वर्णन नहीं]
प्रश्न―आज तक किसी ने ऐसा नहीं कहा, अब तुम कहते हो, हम तुम्हारी बात सच कैसे मानें?
उत्तर―तुम्हारे मानने वा न मानने से हमारी बात झूठ नहीं हो सकती। हां, जिस प्रकार से मैंने इसको अयुक्त ठहराया है, उसी प्रकार से जब तुम 'अथर्ववेद', 'गोपथ' वा इसकी शाखाओं से प्राचीन लिखित पुस्तकों में जैसा का तैसा लेख दिखलाओ, और अर्थसंगति से भी शुद्ध करो, तब तो [तुम्हारा लेख] सप्रमाण हो सकता है।
[सभी अपने मतों को अच्छा बताते हैं किसे सत्य मानें]
प्रश्न―देखो, हमारा मत कैसा अच्छा है कि जिसमें सब प्रकार का सुख और अन्त में मुक्ति होती है।
उत्तर—ऐसे ही अपने-अपने मत-वाले सब कहते हैं कि हमारा ही मत अच्छा है, बाक़ी सब बुरे। विना हमारे मत के दूसरे मत से मुक्ति नहीं हो सकती। अब हम तुम्हारी बात को सच्ची मानें वा उनकी? हम तो यही मानते हैं कि सत्यभाषण, अहिंसा, दया आदि शुभगुण सब मतों में अच्छे हैं और बाक़ी वाद-विवाद, ईर्ष्या-द्वेष, मिथ्याभाषणादि कर्म सब मतों में बुरे हैं। यदि तुमको सत्य मत-ग्रहण की इच्छा हो, तो वैदिक मत को ग्रहण करो।
इसके आगे 'स्वन्तव्यामन्तव्य का प्रकाश' संक्षेप से लिखा जायगा।
इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे
सुभाषाविभूषिते यवनमतविषये चतुर्दशःसमुल्लासः सम्पूर्णः॥१४॥
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