अष्टमः समुल्लासः

अष्टम-समुल्लास


ब्रह्म से जगदुत्पत्ति में प्रमाण 

ईश्वर जगत् का निमित्त कारण है

ईश्वर, जीव और प्रकृति के अनादित्व में प्रमाण

प्रकृति का स्वरूप

जगत् का उपादान कारण प्रकृति है, ब्रह्म नहीं

सदेव सौम्यादि का शुद्धार्थ 

जगत् की उत्पत्ति में तीन कारण 

ईश्वर जगत् का अभिन्न-निमित्तोपादान कारण नहीं

मकड़ी का दृष्टान्त ठीक नहीं 

सृष्टिरचना का प्रयोजन

कारण सदा कार्य से पूर्ववर्ती

'सर्वशक्तिमान्' का शुद्धार्थ

ईश्वर निराकार है, साकार नहीं

असम्भव कार्य ईश्वर भी नहीं कर सकता

कारण का कारण नहीं होता

सृष्टि रचना के विविध मत

शून्य ही एकमात्र पदार्थ नहीं

अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं

कर्मानुसार ही फल मिलता है 

बिना कारण के कार्य नहीं होता

सब पदार्थ अनित्य नहीं

उत्पत्तिमान पदार्थ नित्य नहीं होता

पृथक्-पृथक् पदार्थों में एक पदार्थ भी है

सब पदार्थ अभाव-रूप नहीं

स्वभाव से जगदुत्पत्ति नहीं

यह जगत् अनादि नहीं

जीव कभी ईश्वर नहीं हो सकता

प्रतिकल्प सृष्टि की समानता

सृष्टि विषय में शास्त्रों में अविरोध

कारण का कारण नहीं होता

सृष्टि का लक्षण

कारण-कार्य-विवेचन

सृष्टि की रचना

सृष्टि की आदि में मनुष्योत्पत्ति कैसे

आदि सृष्टि में युवा उत्पत्ति

सृष्टि प्रवाह से अनादि

कर्मानुसार विविध योनियाँ

मनुष्यों की प्रथम सृष्टि कहाँ

आर्यों का भारत में आगमन

आर्यावर्त्त की प्राचीन सीमा

आर्य-दस्यु युद्ध

दस्यु-देश और म्लेच्छ-देश

भारत में विदेशी शासन का कारण

स्वराज्य की महत्ता

सृष्टि-उत्पत्ति का काल

पृथिवी का धारक ईश्वर

शेष और उक्षा का सत्यार्थ

लोक-लोकान्तर का धारक ईश्वर

पृथिवी द्वारा सूर्य की परिक्रमा

पृथिवी के भ्रमण में हेतु

अन्य लोकों में भी प्राणी

लोकान्तरों में आकृतिभेद संभव

वेदों का प्रकाश अन्य लोकों में भी 

जीव और प्रकृति ईश्वराधीन



अथाष्टमसमुल्लासारम्भः 


अथ सृष्ट्युत्पत्तिस्थितिप्रलयविषयान् व्याख्यास्यामः 


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

Click now


[अब सृष्ट्युत्पत्ति-स्थिति-प्रलय-विषयों का वर्णन करेंगे]


[ब्रह्म से जगदुत्पत्ति में प्रमाण]

इ॒यं विसृ॑ष्टि॒र्यत॑ आब॒भूव॒ यदि॑ वा द॒धे यदि॑ वा॒ न।

यो अ॒स्याध्य॑क्षः पर॒मे व्यो॑म॒न्सो अ॒ङ्ग वे॑द॒ यदि॑ वा॒ न वेद॑॥१॥ 

ऋ॰, म॰ १०। सूक्त १२९। मं॰ ७॥ 

तम॑ आसी॒त्तम॑सा गू॒ळ्हमग्रे॑ऽप्रके॒तं स॑लि॒लं सर्व॑मा इ॒दम्।

तु॒च्छ्येना॒भ्वपि॑हितं॒ यदासी॒त्तप॑स॒स्तन्म॑हि॒ना जा॑य॒तैक॑म्॥२॥ 

ऋ॰, म॰ [१०]। सूक्त [१२९]। मं॰ [३]॥


हि॒र॒ण्य॒ग॒र्भः सम॑वर्त्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत्।

स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम॥३॥ 

ऋ॰, म॰ १०। सूक्त १२९। मं॰ १॥

पुरु॑षऽए॒वेदꣳ सर्वं॒ यद्भू॒तं यच्च॑ भा॒व्य॒म्।

उ॒तामृ॑त॒त्वस्येशा॑नो॒ यदन्ने॑नाति॒रोह॑ति॥४॥ 

यजुः, अ॰ ३१। मं॰ २॥

यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते येन जातानि जीवन्ति।

यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद्विजिज्ञासस्व, तद् ब्रह्मेति॥५॥ 

तैत्तिरीयोप॰ [भृगु० १]।

 

हे (अङ्ग) मनुष्य! जिससे यह विविध सृष्टि प्रकाशित हुई है, जो धारण और प्रलयकर्त्ता है, जो इस जगत् का स्वामी [है], जिस व्यापक में यह सब जगत् उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय को प्राप्त होता है, सो परमात्मा है; उसको तू जान और दूसरे को सृष्टिकर्त्ता मत मान॥१॥ 


यह सब जगत् सृष्टि से पहले अन्धकार से आवृत, रात्रि-रूप में [होने से] जानने के अयोग्य, तथा आकाश-रूप सब जगत् था 'तुच्छ्य' अर्थात् अनन्त परमेश्वर के सामने एकदेशी, आच्छादित था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने महिना=सामर्थ्य से कारणरूप से कार्यरूप कर दिया है॥२॥


हे मनुष्यो! जो सब सूर्यादि तेजस्वी पदार्थों का आधार [है], और जो यह जगत् हुआ, है, और होगा, उसका एक अद्वितीय पति परमात्मा इस जगत् की उत्पत्ति के पूर्व विद्यमान था। और जिसने पृथिवी से लेकर सूर्यपर्यन्त जगत् को उत्पन्न किया है, उस परमात्मा देव की प्रेम से हम भक्ति किया करें॥३॥ 


हे मनुष्यो! जो सबमें पूर्ण पुरुष [है], और जो नाशरहित कारण, और जीव का स्वामी [है], जो पृथिव्यादि जड़ और जीव से अतिरिक्त है, वही पुरुष इस सब भूत, भविष्यत् और वर्तमानस्थ जगत् को बनानेवाला है॥४॥


जिस परमात्मा की रचना से ये सब पृथिव्यादि भूत उत्पन्न होते हैं, जिससे जीते और जिसमें प्रलय को प्राप्त होते हैं, वह 'ब्रह्म' है; उसको जानने की इच्छा करो॥५॥


"जन्माद्यस्य यतः॥" 

शारीरकसूत्र अ॰ १। [पा० १]। सू॰ २॥ 


जिससे इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय होता [है], वही 'ब्रह्म' जानने के योग्य है। 

[परमेश्वर जगत् का निमित्त कारण है, उपादान कारण नहीं]

प्रश्न―यह जगत् परमेश्वर से उत्पन्न हुआ है, वा अन्य से?


उत्तर―निमित्त कारण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, परन्तु इसका उपादान कारण प्रकृति है। 


प्रश्न―क्या प्रकृति परमेश्वर ने उत्पन्न नहीं की?


उत्तर―नहीं, वह अनादि है।


प्रश्न―अनादि किसको कहते हैं? और कितने पदार्थ अनादि हैं?


उत्तर―जिसका कोई आदि कारण वा समय न हो, उसको 'अनादि' कहते हैं। ईश्वर, जीव और जगत् का कारण, ये तीन 'अनादि' हैं?

[ईश्वर, जीव और प्रकृति के अनादित्व में प्रमाण]

प्रश्न―इसमें क्या प्रमाण है? 


उत्तर―   द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑ षस्वजाते। 

तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भि चा॑कशीति॥१॥ 

ऋ॰, म॰ १। सूक्त १६४। मं॰ २०॥ 

शाश्व॒तीभ्यः॒ समा॑भ्यः॥२॥ 

यजुः॰ अ॰ ४०। मं॰ ८॥


अर्थ―(द्वा) जो ब्रह्म और जीव दोनों (सुपर्णा) चेतनता और पालनादि गुणों से कुछ सदृश हैं (सयुजा) व्याप्य-व्यापक भाव से संयुक्त [हैं] (सखाया) परस्पर मित्रतायुक्त, सनातन, अनादि हैं; और (समानम्) वैसा ही (वृक्षम्) अनादि, मूलरूप कारण और शाखारूप कार्ययुक्त वृक्ष अर्थात् जो स्थूल होकर प्रलय में छिन्न-भिन्न हो जाता है, वह तीसरा अनादि पदार्थ हैं; इन तीनों के गुण, कर्म, स्वभाव भी अनादि हैं। (तयोरन्यः) इन जीव और ब्रह्म में से एक जो जीव [है] वह इस वृक्षरूप संसार में [पिप्पलम्] पाप-पुण्य-रूप फलों को (स्वाद्वत्ति) अच्छे प्रकार भोगता है। और दूसरा परमात्मा कर्मों के फलों को (अनश्नन् अन्यः) न भोगता हुआ [अभि-चाकशीति] चारों ओर अर्थात् भीतर-बाहर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है। जीव से ईश्वर, ईश्वर से जीव और दोनों से प्रकृति भिन्न-स्वरूप है, और तीनों 'अनादि' हैं॥१॥ 


(शाश्वती॰) अर्थात् अनादि, सनातन, जीवरूप प्रजा के लिये वेद द्वारा परमात्मा ने सब विद्याओं का बोध किया है॥२॥ 


अजामेकां लोहितशुक्लकृष्णां, बह्‌वीः प्रजाः सृजमानां सरूपाः। 

अजो ह्येको जुषमाणोऽनुशेते, जहात्येनां भुक्तभोगामजोऽन्यः॥ 

यह उपनिषद् का वचन है [श्वेताश्वतर उप०। अ० ४। मं० ५]॥


प्रकृति, जीव और परमात्मा तीनों 'अज' अर्थात् जिनका जन्म कभी नहीं होता=कभी ये जन्म नहीं लेते; अर्थात् ये तीन सब जगत् के कारण हैं, इनका कारण कोई नहीं। इस अनादि प्रकृति का भोग अनादि जीव करता हुआ फसता है और उसमें परमात्मा न फसता और न उसका भोग करता है। 

[प्रकृति का स्वरूप]

ईश्वर और जीव का लक्षण ईश्वर-विषय में कह आये। अब प्रकृति का लक्षण लिखते हैं— 

सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्था प्रकृतिः प्रकृतेर्महान् महतोऽहङ्कारोऽहङ्कारात् पञ्चतन्मात्राण्युभय-मिन्द्रियं पञ्चतन्मात्रेभ्यः स्थूलभूतानि पुरुष इति पञ्चविंशतिर्गणः॥ 

यह सांख्यसूत्र है [अ० १। सू० ६१]

(सत्त्व-) शुद्ध, (रजः) मध्य, (तमसाम्) जाड्‍य अर्थात् जड़ता तीन वस्तुयें मिलकर जो एक संघात है, उसका नाम 'प्रकृति' है। उससे 'महत्तत्त्व'=बुद्धि, उससे 'अहङ्कार', अहंकार से पांच 'तन्मात्रायें', सूक्ष्म-भूत और 'दश इन्द्रियां' तथा ग्यारहवां 'मन', पांच तन्मात्राओं से पृथिव्यादि 'पांच भूत' ये चौबीस, और पच्चीसवां 'पुरुष' अर्थात् जीव और परमेश्वर है। इनमें से प्रकृति अविकारिणी; और महत्तत्त्व, अहङ्कार तथा पांच सूक्ष्म-भूत प्रकृति के कार्य और इन्द्रियों, मन तथा स्थूल-भूतों के कारण हैं। और पुरुष न किसी की प्रकृति=उपादानकारण और न किसी का कार्य है। 

[जगत् का उपादानकारण प्रकृति है, ब्रह्म नहीं]

प्रश्न―"सदेव सोम्येदमग्र आसीत्॥१॥"

[छान्दोग्य-उप०, अ० ६। खं० २। मं० १]

"असद्वा इदमग्र आसीत्॥२॥"

[तैत्ति० उप०, ब्रह्म० वल्ली। अनु० ७] 

"आत्मा-वा-इदमग्र आसीत्॥३॥"

 [बृह० उप०, अ० १। ब्रा० ४। कं० १]

"ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्॥४॥" 

ये उपनिषदों के वचन हैं [बृह० १। ४। १०, ११]॥


हे श्वेतकेतो! यह जगत् सृष्टि के पूर्व― १.सत् २.असत् ३.आत्मा और ४. ब्रह्मरूप था। पश्चात्—

"तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति॥१॥"

 [छान्दोग्य-उप०, अ० ६। खं० २। मं० ३]

"सोऽकामयत बहु स्यां प्रजायेयेति॥२॥" 

यह तैत्तिरीयोपनिषद् का वचन है [ब्रह्म० 

वल्ली। अनु० ६]॥

वही परमात्मा अपनी इच्छा से बहुरूप हो गया है॥१-२॥ 


"सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन॥३॥"

यह उपनिषद् का वचन है [निरालम्बोपनिषद् ११]॥


जो यह जगत् है, वह सब निश्चय करके ब्रह्म है। उसमें दूसरे नाना प्रकार के पदार्थ कुछ भी नहीं, किन्तु सब ब्रह्मरूप है॥३॥


उत्तर―क्यों इन वचनों का अनर्थ करते हो? क्योंकि उन्हीं उपनिषदों में—


सोम्यान्नेन शुङ्गेनापो मूलमन्विच्छ, अद्भिस्सोम्य शुङ्गेन तेजोमूलमन्विच्छ, तेजसा सोम्य शुङ्गेन सन्मूलमन्विच्छ, सन्मूलाः सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः सदायतनाः सत्प्रतिष्ठाः॥ 

छान्दोग्य उपनिषद् [अ० ६। खं० ८। मं० ४]॥ 


'हे श्वेतकेतो! अन्नरूप पृथिवी-कार्य से 'जलरूप' मूल कारण को तू जान। कार्यरूप जल से 'तेजोरूप' मूल और तेजोरूप कार्य से 'सद्रूप' कारण जो नित्य प्रकृति है, उसको जान। यही सत्यस्वरूप प्रकृति सब जगत् का मूल, घर और स्थिति का स्थान है।' यह सब जगत् सृष्टि के पूर्व असत् के सदृश, आत्मा=ब्रह्म और प्रकृति में लीन होकर वर्त्तमान था, अभाव न था। और जो "सर्वं खलु॰" यह वचन [है यह] ‘कहीं की ईंट कहीं का रोड़ा, भानमती ने कुटबाँ जोड़ा’ ऐसी लीला का है। क्योंकि—


सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलानिति शान्त उपासीत॥ 

छान्दोग्य० [उप०, प्र० ३। खं० १४। मं० १] और 

"नेह नानास्ति किंचन॥" 

कठोपनिषद् का वचन है। [कठोप० २। ४। ११]॥


जैसे शरीर के अङ्ग जब तक शरीर के साथ रहते हैं, तब तक काम के [होते हैं] और अलग होने से निकम्मे हो जाते हैं, वैसे ही प्रकरणस्थ वाक्य सार्थक [होते हैं] और प्रकरण से अलग करने वा किसी अन्य के साथ जोड़ने से अनर्थक हो जाते हैं। सुनो! इनका अर्थ यह है—


'हे जीव! तू उस ब्रह्म की उपासना कर, जिस ब्रह्म से जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय होते हैं; जिसके बनाने और धारण से यह सब जगत् विद्यमान हुआ है, वा ब्रह्म से सहचरित है, उसको छोड़ दूसरे की उपासना न करनी [चाहिये]'। इस चेतनमात्र, अखण्डैकरस ब्रह्मस्वरूप में नाना वस्तुओं का मेल नहीं है, किन्तु ये सब पृथक्-पृथक् स्वरूप में परमेश्वर के आधार में स्थित हैं। 

[जगत् की उत्पत्ति में तीन कारण]

प्रश्न―जगत् के कारण कितने होते हैं?


उत्तर―तीन। एक निमित्त, दूसरा उपादान, तीसरा साधारण। 'निमित्त कारण' उसको कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने; आप स्वयं बने नहीं, दूसरे को प्रकारान्तर [रूप में] बना देवे।


दूसरा―'उपादान कारण' उसको कहते हैं जिसके विना कुछ न बने, वही अवस्थान्तर रूप होके बने और बिगड़े भी।


तीसरा―'साधारण कारण' उसको कहते हैं कि जो बनाने में साधन और साधारण निमित्त हो। 


निमित्त कारण दो प्रकार के होते हैं। एक―सब सृष्टि को कारण से बनाने, धारने और प्रलय करने तथा सबकी व्यवस्था रखनेवाला 'मुख्य निमित्त कारण' परमात्मा। दूसरा―परमेश्वर की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेकविध कार्यान्तर [रूप] बनानेवाला 'साधारण निमित्त कारण' जीव।


उपादानकारण—'प्रकृति', 'परमाणु', जिसको सब संसार के बनाने की सामग्री कहते हैं, वह जड़ होने से आपसे-आप न बन और न बिगड़ सकती है किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और दूसरे के बिगाड़ने से बिगड़ती है। कहीं-कहीं जड़ के निमित्त से जड़ भी बन और बिगड़ भी जाता है। जैसे, परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी में गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड़ के संयोग से बिगड़ भी जाते हैं। परन्तु इनका नियमपूर्वक बनना वा बिगड़ना परमेश्वर और जीव के आधीन है।

 

[साधारण कारण―] जब कोई वस्तु बनाई जाती है, तब जिन-जिन साधनों से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, बल, दिशा, काल और आकाश आदि निराकर, हाथ और नाना प्रकार के  साकार साधन आदि 'साधारण कारण' [हैं]। 


जैसे, घड़े को बनानेवाला कुम्हार निमित्त; मिट्टी उपादान; और दण्ड, चक्र आदि सामान्य निमित्त; दिशा, काल, आकाश, प्रकाश, आंख, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि निमित्त 'साधारण' और 'निमित्त कारण' भी होते हैं। इन तीन कारणों के विना कोई भी वस्तु नहीं बन सकती और न बिगड़ सकती [है]। 

[क्या ईश्वर जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादानकारण है?]

प्रश्न―नवीन वेदान्ती केवल परमेश्वर को ही जगत् का 'अभिन्न-निमित्तोपादान कारण' मानते हैं—

"यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च।" 

यह उपनिषद् का वचन है [मुण्डक-उप० १। ख० १। मं० ७] 


जैसे मकड़ी बाहर से कोई पदार्थ नहीं लेती, अपने में से ही तन्तु निकाल जाला बनाकर आप ही उसमें खेलती है, वैसे ब्रह्म अपने में से जगत् को बना, आप जगदाकार बन, आप ही क्रीड़ा कर रहा है। सो ब्रह्म इच्छा और कामना करता हुआ कि 'मैं बहुरूप अर्थात् जगदाकार हो जाऊं', [इस] सङ्कल्पमात्र से सब जगद्रूप बन गया। क्योंकि—


आदावन्ते च यन्नास्ति वर्त्तमानेऽपि तत्तथा॥ 

यह माण्डूक्योपनिषद् पर कारिका है [माण्डूक्योपनिषत्कारिका, वैतथ्याख्य प्रकरण २।६, अलातशान्ताख्य प्रकरण ४।३१]


जो प्रथम न हो, अन्त में न रहै, वह वर्तमान में भी नहीं है। किन्तु सृष्टि के आदि में [अर्थात् सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व] जगत् न था, ब्रह्म था। प्रलय [अर्थात् सृष्टि के] अन्त में संसार न रहेगा, और केवल ब्रह्म रहेगा तो वर्त्तमान में सब जगत् ब्रह्म क्यों नहीं?


उत्तर―जो तुम्हारे कहने के अनुसार जगत् [का] उपादान कारण ब्रह्म होवे तो वह परिणामी, अवस्थान्तरयुक्त, विकारी हो जावे; और उपादानकारण के गुण-कर्म- स्वभाव कार्य में भी आते हैं—

कारणगुणपूर्वकः कार्यगुणो दृष्टः॥ 

वैशेषिकसूत्र [अ० २। आ० १। सू० २४]॥


उपादानकारण के सृदश कार्य में गुण होते हैं; तो ब्रह्म सच्चिदानन्द-स्वरूप [और] जगत् कार्यरूप से असत्, जड़ और आनन्दरहित [है]; ब्रह्म अज और जगत् उत्पन्न हुआ है; ब्रह्म अदृश्य और जगत् दृश्य है; ब्रह्म अखण्ड और जगत् खण्डरूप है। जो ब्रह्म से पृथिव्यादि कार्य उत्पन्न होवें, तो पृथिव्यादि कार्य के जड़ादि गुण ब्रह्म में भी होवें; अर्थात् जैसे पृथिव्यादि जड़ हैं, वैसे ब्रह्म भी जड़ हो जाय और जैसे परमेश्वर चेतन है, वैसे पृथिव्यादि 'कार्य' भी चेतन होने चाहियें। और जो मकड़ी का दृष्टान्त दिया, वह तुम्हारे मत का साधक नहीं किन्तु बाधक है; क्योंकि वह जड़रूप-शरीर तन्तु का उपादान और जीवात्मा निमित्तकारण है। और यह भी परमात्मा की अद्भुत रचना का प्रभाव है, क्योंकि अन्य जन्तु के शरीर से [कोई] जीव-तन्तु नहीं निकाल सकता। वैसे ही व्यापक ब्रह्म अपने भीतर व्याप्य प्रकृति और परमाणु कारण से स्थूल जगत् को बनाकर, बाहर स्थूलरूप कर, आप उसी में व्यापक रहके साक्षीभूत [और] आनन्दमय हो रहा है। 


और जो परमात्मा ने 'ईक्षण' अर्थात् दर्शन, विचार और कामना की कि मैं सब जगत् को बनाकर प्रसिद्ध होऊं, अर्थात् जब जगत् उत्पन्न होता है तभी जीवों के विचार, ज्ञान, ध्यान, उपदेश-श्रवण में परमेश्वर प्रसिद्ध और बहुत स्थूल पदार्थों से सह वर्त्तमान होता है। जब प्रलय होता है तब परमेश्वर और मुक्त जीवों को छोड़के उसको कोई नहीं जानता। 


और जो वह कारिका है वह भ्रममूलक है; क्योंकि सृष्टि के आदि अर्थात् प्रलय में [सृष्टि-उत्पत्ति के पूर्व] जगत् प्रसिद्ध नहीं था और सृष्टि के अन्त अर्थात् प्रलय के आरम्भ से जब तक दूसरी वार सृष्टि न होती तब तक भी जगत् का कारण सूक्ष्म होकर अप्रसिद्ध है। क्योंकि—


"तम॑ आसी॒त्तम॑सा गू॒ळ्हमग्रे॑॥१॥"

 यह ऋग्वेद का वचन है [म० १०। सू० १२९। मं० ३]।

आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्।

अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः॥२॥

मनु० [१।५]॥


यह सब जगत् सृष्टि के पहले=प्रलय में अन्धकार से आवृत=आच्छादित था और प्रलयारम्भ के पश्चात् भी वैसा ही होता है। उस समय न किसी के जानने, न तर्क में लाने और न प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त, न इन्द्रियों से जानने योग्य था, और न होगा; किन्तु वर्तमान में जाना जाता है [अर्थात्] प्रसिद्ध चिह्नों से युक्त जानने के योग्य होता [है] और यथावत् उपलब्ध है॥१-२॥


पुनः उस कारिकाकार ने वर्तमान में भी जगत् का अभाव लिखा, सो सर्वथा अप्रमाण है; क्योंकि जिसको 'प्रमाता' प्रमाणों से जानता और प्राप्त होता है, वह अन्यथा कभी नहीं हो सकता। 

[सृष्टि-रचना का प्रयोजन]

प्रश्न―जगत् के बनाने में परमेश्वर का क्या प्रयोजन है?


उत्तर―नहीं बनाने में क्या प्रयोजन है?


प्रश्न―जो न बनाता तो आनन्द में बना रहता और जीवों को भी सुख-दुःख प्राप्त न होता। 


उत्तर―ये आलसी और दरिद्र लोगों की बातें हैं, पुरुषार्थीयों की नहीं। और जीवों को प्रलय में क्या सुख वा दुःख है? [वे तो] प्रलय में 'निकम्मे' अर्थात् जैसे सुषुप्ति में पड़े रहते हैं, वैसे रहते हैं। जो सृष्टि के सुख-दुःख की तुलना की जाय तो सुख कई गुना अधिक होता है और बहुत-से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधन कर मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं। और प्रलय के पूर्व सृष्टि में जीवों के किये पाप-पुण्य-कर्मों का फल ईश्वर कैसे दे सकता और जीव क्योंकर भोग सकते? जो तुमसे कोई पूछे कि आँख के होने में क्या प्रयोजन है? तुम यही कहोगे कि 'देखना'; तो जो ईश्वर में जगत् की रचना करने का विज्ञान, बल और क्रिया है, उसका क्या प्रयोजन [है]? विना जगत् की उत्पत्ति करने के दूसरा कुछ भी न कह सकोगे। और परमात्मा के न्याय, धारण, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं कि जब जगत् को बनावे। उसका अनन्त सामर्थ्य जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय और व्यवस्था करने से ही सफल है। जैसे नेत्र का स्वाभाविक गुण देखना है, वैसे परमेश्वर का स्वाभाविक गुण जगत् की उत्पत्ति करके सब जीवों को असंख्य पदार्थ देकर परोपकार करना है।

[कारण सदा कार्य से पूर्व होता है]

प्रश्न―बीज पहले है वा वृक्ष?


उत्तर―बीज; क्योंकि बीज, हेतु, निदान, निमित्त और कारण इत्यादि शब्द एकार्थवाचक हैं। कारण का नाम बीज होने से कार्य के प्रथम ही होता है। 

['सर्वशक्तिमान्' का वास्तविक अर्थ]

प्रश्न―जब परमेश्वर सर्वशक्तिमान् है, तो वह कारण और जीव को भी उत्पन्न कर सकता है। जो नहीं कर सकता तो सर्वशक्तिमान् भी नहीं रह सकता?


उत्तर―सर्वशक्तिमान् शब्द का अर्थ पूर्व लिख आये हैं। परन्तु क्या सर्वशक्तिमान् वह कहाता है कि जो असम्भव बात को भी कर सके? जो असम्भव बात अर्थात् जैसा कारण के विना कार्य को कर सकता है, तो विना कारण दूसरे ईश्वर की उत्पत्ति कर और स्वयं मृत्यु को प्राप्त, जड़, दुःखी, अन्यायकारी, अपवित्र और कुकर्मी आदि हो सकता है वा नहीं? जो स्वाभाविक नियम अर्थात् जैसे अग्नि उष्ण, जल शीतल और पृथिव्यादि सब जड़ों को विपरीत गुणवाले ईश्वर भी नहीं कर सकता। जैसे आप जड़ नहीं हो सकता, वैसे जड़ को चेतन भी नहीं कर सकता। और ईश्वर के नियम सत्य और पूरे हैं, इसलिये परिवर्तन नहीं कर सकता। इसलिये 'सर्वशक्तिमान्' का अर्थ इतना ही है कि परमात्मा विना किसी के सहाय के अपने सब कार्य पूर्ण कर सकता है। 

[ईश्वर निराकार है, साकार नहीं]

प्रश्न―ईश्वर साकार है वा निराकार? जो निराकार है तो विना हाथ आदि साधनों के जगत् को न बना सकेगा और जो साकार है तो कोई दोष नहीं आता।


उत्तर―ईश्वर निराकार है; जो साकार अर्थात् शरीरयुक्त है वह ईश्वर ही नहीं, क्योंकि जो परिच्छिन्न [स्वरूप], परिमित शक्तियुक्त, देश-काल-वस्तुओं में परिच्छिन्न, क्षुधा-तृषा, छेदन-भेदन, शीत- उष्ण, ज्वर-पीड़ा-आदि सहित होवे, उसमें सिवाय जीव के, ईश्वर के गुण कभी नहीं घट सकते। जैसे तुम और हम 'साकार' अर्थात् शरीरधारी हैं, इससे त्रसरेणु, अणु, परमाणु और प्रकृति को अपने वश में नहीं ला सकते और न उन सूक्ष्म पदार्थों को पकड़कर स्थूल बना सकते हैं; वैसे ही स्थूल देहधारी परमेश्वर भी उन सूक्ष्म पदार्थों से स्थूल जगत् नहीं बना सकता। जो परमेश्वर भौतिक इन्द्रियगोलक हस्त-पादादि अवयवों से रहित है, परन्तु उसकी अनन्तशक्ति, बल, पराक्रम हैं, वह उनसे सब काम करता है, जो जीव और प्रकृति से कभी न हो सकते। जब वह प्रकृति से भी सूक्ष्म और उनमें व्यापक है, तभी उनको पकड़कर जगदाकार कर देता है, और सर्वगत होने से सबका धारण और प्रलय भी कर सकता है। 


प्रश्न―जैसे मनुष्यादि के मा-बाप साकार हैं, उनके सन्तान भी साकार होते हैं, जो ये निराकार होते, तो इनके लड़के भी निराकार होते, वैसे परमेश्वर निराकार हो, तो उसका बनाया जगत् भी निराकार होना चाहिये? 


उत्तर―यह तुम्हारा प्रश्न 'अविद्या के लड़के' के समान है; क्योंकि हम अभी कह चुके हैं कि परमेश्वर जगत् का उपादानकारण नहीं किन्तु निमित्तकारण है। और जो स्थूल होता है वह प्रकृति और परमाणु जगत् का उपादानकारण है; और वे सर्वथा निराकार नहीं किन्तु परमेश्वर से स्थूल और अन्य कार्य से सूक्ष्म आकार रखते हैं। 

[असम्भव कार्य ईश्वर भी नहीं कर सकता]

प्रश्न―क्या कारण के विना परमेश्वर कार्य को नहीं कर सकता?


उत्तर―नहीं; क्योंकि जिसका 'अभाव' अर्थात् जो वर्तमान ही नहीं है, उसका 'भाव'=वर्तमान होना सर्वथा असम्भव है। जैसे कोई गपोड़ा हाँक दे कि 'मैंने वन्ध्या के पुत्र और पुत्री का विवाह देखा, वह नरशृङ्ग का धनुष [धारण किये था], और वे दोनों खपुष्प की माला पहरे हुए थे, मृगतृष्णिका के जल में स्नान करते और गन्धर्वनगर में रहते थे, वहां बद्दल के विना वर्षा,  पृथिवी के विना सब अन्नों की उत्पत्ति होती थी,' आदि। वैसे ही कारण के विना कार्य का होना असम्भव है। जैसे, कोई कहे कि―"मम मातापितरौ न स्तः, अहमेव जातः।" "मम मुखे जिह्वा नास्ति वदामि च।"=अर्थात् 'मेरे माता-पिता न थे, वैसे ही मैं उत्पन्न हुआ हूँ; मेरे मुख में जीभ नहीं है, परन्तु बोलता हूँ; बाम्बी में सर्प न था, निकल आया; मैं कहीं नहीं था, ये भी कहीं नहीं थे और हम सब जने आये हैं;' ऐसी असम्भव बात प्रमत्तगीत अर्थात् पागल लोगों की है। 

[कारण का कारण नहीं होता]

प्रश्न―जो कारण के विना कार्य नहीं होता तो कारण का कारण कौन है? 


उत्तर―जो केवल कारणरूप ही हैं, वे कार्य किसी के नहीं होते। और जो किसी का कारण और किसी का कार्य होता है, वह दूसरा [कारण-कार्य] कहाता है; जैसे, 'पृथिवी' घट और घर आदि का कारण और जल आदि का कार्य होता है, परन्तु जो आदिकारण प्रकृति है, वह अनादि है। 


मूले मूलाभावादमूलं मूलम्॥      

         सांख्यसूत्र [अ० १। सू० ६७]॥


मूल का मूल अर्थात् कारण का कारण नहीं होता। इससे 'अकारण' सब कार्यों का कारण होता है; क्योंकि किसी कार्य के आरम्भ-समय के पूर्व तीनों कारण अवश्य होते हैं। जैसे, कपड़े बनाने के पूर्व तन्तुवाय, रूई का सूत और नलिका आदि पूर्व वर्तमान होने से वस्त्र बनता है; वैसे जगत् की उत्पत्ति के पूर्व परमेश्वर, प्रकृति, काल और आकाश तथा जीवों के अनादि होने से इस जगत् की उत्पत्ति होती है। यदि इनमें से एक भी न हो तो जगत् भी न हो। 

[सृष्टि-रचना-विषयक विविध मतों पर विचार]

अत्र नास्तिका आहुः—


शून्यं तत्त्वं भावो विनश्यति वस्तुधर्मत्वाद्विनाशस्य॥१॥ 

सांख्यसूत्र [अ० १। सू० ४४]॥ 

अभावाद् भावोत्पत्तिर्नानुपमृद्य प्रादुर्भावात्॥२॥

ईश्वरः कारणं पुरुषकर्माफल्यदर्शनात्॥३॥

अनिमित्ततो भावोत्पत्तिः कण्टकतैक्ष्ण्यादिदर्शनात्॥४॥

सर्वमनित्यमुत्पत्तिविनाशधर्मकत्वात्॥५॥ 

सर्वं नित्यं पञ्चभूतनित्यत्वात्॥६॥ 

सर्वं पृथग् भावलक्षणपृथक्त्वात्॥७॥ 

सर्वमभावो भावेष्वितरेतराभावसिद्धेः॥८॥ 

न्यायसूत्र॥ अ॰ ४। आह्नि॰ १ [सू० १४, १९, २२, २५, २९, ३४, ३७]॥ 

[शून्य ही एकमात्र पदार्थ नहीं]

यहां नास्तिक लोग ऐसा कहते हैं कि—


[पहला नास्तिक कहता है―] 'शून्य' ही एक पदार्थ है। सृष्टि के पूर्व शून्य था, अन्त में शून्य होगा; क्योंकि जो 'भाव' है अर्थात् वर्त्तमान पदार्थ है, उसका अभाव होकर शून्य हो जायगा।


उत्तर―'शून्य' आकाश=अदृश्य अवकाश और बिन्दु को भी कहते हैं। शून्य जड़ पदार्थ [है]। इस शून्य में सब पदार्थ अदृश्य रहते हैं; जैसे, एक बिन्दु से रेखा, रेखाओं से वर्तुलाकार करने से भूमि-पर्वतादि ईश्वर की रचना से बनते हैं। और शून्य का जानने वाला शून्य नहीं होता॥१॥ 

[अभाव से भाव की उत्पत्ति नहीं होती]

दूसरा नास्तिक—अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है। जैसे, बीज का मर्दन किये विना अंकुर उत्पन्न नहीं होता और बीज को तोड़कर देखें तो अंकुर का अभाव है। जब प्रथम अंकुर नहीं दीखता था तो अभाव से उत्पत्ति हुई।


उत्तर―जो बीज का उपमर्दन करता है, वह प्रथम ही बीज में था। जो न होता तो उत्पन्न कभी नहीं होता॥२॥

[कर्मानुसार ही फल मिलता है]

तीसरा नास्तिक कहता है, कि कर्मों का फल पुरुष के कर्म करने से नहीं प्राप्त होता। कितने ही कर्म निष्फल दीखने में आते हैं; इसलिये अनुमान किया जाता है कि कर्मों का फल प्राप्त होना ईश्वर के आधीन है। जिस कर्म का फल ईश्वर देना चाहे, देता है; जिस कर्म का फल देना नहीं चाहता, नहीं देता। इस बात से कर्मफल ईश्वराधीन है। 


उत्तर―जो कर्म का फल ईश्वराधीन हो तो विना कर्म किये ईश्वर फल क्यों नहीं देता? इसलिये जैसा कर्म मनुष्य करता है, वैसा ही फल ईश्वर देता है। इससे ईश्वर स्वतन्त्रता-पूर्वक पुरुष को कर्म का फल नहीं दे सकता, किन्तु जैसा कर्म जीव करता है, वैसा ही फल ईश्वर देता है॥३॥ 

[बिना कारण के कार्य नहीं होता]

चौथा नास्तिक कहता है, कि विना निमित्त के पदार्थों की उत्पत्ति होती है, जैसा कि बबूल आदि वृक्षों के काँटे तीक्ष्ण अणिवाले देखने में आते हैं। इससे विदित होता है कि जब-जब सृष्टि का आरम्भ होता है, तब-तब शरीरादि पदार्थ विना निमित्त के होते हैं। 


उत्तर―जिससे पदार्थ उत्पन्न होता है, वही उसका निमित्त है। विना बीज, कण्टकी वृक्ष के काँटे उत्पन्न क्यों नहीं होते?॥४॥ 

[सब पदार्थ अनित्य नहीं हैं]

पांचवाँ नास्तिक कहता है कि सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाशवाले हैं, इसलिये सब अनित्य हैं―


श्लोकार्धेन प्रवक्ष्यामि यदुक्तं ग्रन्थकोटिभिः। 

ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः॥ 

यह किसी ग्रन्थ का श्लोक है [अष्टावक्रगीता ५, तुलना―शंकराचार्यकृत ब्रह्मनामावलीस्तोत्र २०]॥


नवीन वेदान्ती लोग पांचवें नास्तिक की कोटी में हैं, क्योंकि वे ऐसा कहते हैं कि करोड़ों ग्रन्थों का यह सिद्धान्त है—"ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या और जीव ब्रह्म से भिन्न नहीं।"


उत्तर―जो सबकी अनित्यता नित्य है, तो सब अनित्य नहीं हो सकता।


प्रश्न―सबकी अनित्यता भी अनित्य है, जैसे अग्नि काष्ठों को नष्टकर आप भी नष्ट हो जाता है।


उत्तर―जो यथावत् उपलब्ध होता है उसका वर्त्तमान में अनित्यत्व और परमसूक्ष्म कारण की अनित्यता कभी नहीं हो सकती। जो वेदान्ती लोग ब्रह्म से जगत् की उत्पत्ति मानते हैं, तो ब्रह्म के सत्य होने से, उसका कार्य असत्य कभी नहीं हो सकता। जो स्वप्न, रज्जु, सर्पादिवत् कल्पित कहैं तो भी ठीक नहीं बन सकता; क्योंकि कल्पना गुण है, गुण से द्रव्य और द्रव्य से गुण पृथक् नहीं रह सकता। जब कल्पना का कर्त्ता नित्य है तो उसकी कल्पना भी नित्य होनी चाहिये, नहीं तो उसको भी अनित्य मानो; जैसे, स्वप्न विना देखे-सुने कभी नहीं आता। जो जाग्रत अर्थात् वर्त्तमान समय में सत्य पदार्थ हैं, उनके साक्षात् सम्बन्ध से प्रत्यक्षादि ज्ञान होने पर संस्कार अर्थात् उनका वासनारूप ज्ञान आत्मा में स्थित होता है, स्वप्न में उन्हीं को प्रत्यक्ष देखता है। जैसे, सुषुप्ति होने से बाह्य पदार्थों के ज्ञान के अभाव में भी बाह्य पदार्थ विद्यमान रहते हैं, वैसे प्रलय में भी कारण द्रव्य वर्त्तमान रहता है। जो संस्कार के विना स्वप्न होवे, तो जन्मान्ध को भी रूप का स्वप्न होवे। इसलिये वहां उनका ज्ञानमात्र है और बाहर सब पदार्थ वर्त्तमान हैं।


प्रश्न―जैसे जाग्रत के पदार्थ स्वप्न में और दोनों के सुषुप्ति में अनित्य हो जाते हैं, वैसे जाग्रत के पदार्थों को भी स्वप्न के तुल्य मानना चाहिये। 


उत्तर―ऐसा कभी नहीं मान सकते; क्योंकि स्वप्न और सुषप्ति में बाह्य पदार्थों का अज्ञानमात्र होता है, अभाव नहीं। जैसे, किसी के पीछे की ओर बहुत-से पदार्थ अदृष्ट रहते हैं, उनका अभाव नहीं होता, वैसे ही स्वप्न और सुषुप्ति की बात है। इसलिये जो पूर्व कह आये कि ब्रह्म, जीव और जगत् का कारण अनादि, नित्य है; वही सत्य है॥५॥ 

[उत्पत्तिमान पदार्थ नित्य नहीं होता]

छठा नास्तिक कहता है कि पांच भूतों के नित्य होने से सब जगत् नित्य है।


उत्तर―यह बात सत्य नहीं; क्योंकि जिन पदार्थों की उत्पत्ति और विनाश का कारण देखने में आता है, वे सब नित्य हों। तो सब स्थूल जगत्, शरीर तथा घट-पटादि पदार्थों को उत्पन्न और विनष्ट होते देखते ही हैं, इससे 'कार्य' को नित्य नहीं मान सकते॥६॥

[पृथक्-पृथक् पदार्थों में एक पदार्थ भी है]

सातवां नास्तिक कहता है कि सब पृथक्-पृथक् हैं, कोई एक पदार्थ नहीं है। जिस-जिस पदार्थ को हम देखते हैं, उनमें दूसरा एक पदार्थ कोई भी नहीं दीखता।


उत्तर―अवयवों में अवयवी, वर्त्तमानकाल, आकाश, परमात्मा और जाति पृथक्- पृथक् पदार्थ-समूहों में एक-एक हैं। उनसे पृथक् कोई पदार्थ नहीं हो सकता। इसलिये सब पृथक् पदार्थ नहीं, किन्तु स्वरूप से पृथक्-पृथक् हैं और पृथक्-पृथक् पदार्थों में एक पदार्थ भी है॥७॥ 

[सब पदार्थ अभावरूप नहीं हो सकते]

आठवां नास्तिक कहता है, कि सब पदार्थों में इतरेतर-अभाव की सिद्धि होने से सब अभावरूप हैं। जैसे ‘अनश्वो गौः, अगौरश्वः’=गाय घोड़ा नहीं और घोड़ा गाय नहीं, इसलिये सबको अभावरूप मानना चाहिये।


उत्तर―सब पदार्थों में इतरेतर-अभाव का योग हो, परन्तु ‘गवि गौरश्वेऽश्वो भावरूपो वर्तत एव’=गाय में गाय और घोड़े में घोड़े का भाव ही है, अभाव कभी नहीं हो सकता। जो पदार्थों का भाव न हो तो 'इतरेतराभाव' भी किसमें कहा जावे?॥८॥ 

[स्वभाव से जगत् की उत्पत्ति नहीं]

नौवां नास्तिक कहता है कि स्वभाव से सब जगत् की उत्पत्ति होती है। जैसे पानी, अन्न एकत्र हो सड़ने से कृमि उत्पन्न होते हैं और बीज, पृथिवी, जल के मिलने से घास, वृक्षादि और पाषाणादि उत्पन्न होते हैं। जैसे, समुद्र और वायु के योग से तरङ्ग; और तरङ्गों से समुद्रफेन; हल्दी, चूना और नींबू का रस मिलने से रोरी बनती है; वैसे सब जगत् तत्त्वों के स्वभाविक-गुणों से उत्पन्न हुआ है। इसका बनानेवाला कोई भी नहीं।


उत्तर―जो स्वभाव से जगत् की उत्पत्ति होवे तो विनाश कभी न होवे। और जो विनाश भी स्वभाव से मानो, तो उत्पत्ति न होगी। और जो द्रव्यों में दोनों स्वभाव युगपत् मानोगे तो उत्पत्ति और विनाश की व्यवस्था कभी न हो सकेगी। और जो 'निमित्त' के होने से उत्पत्ति और नाश मानोगे तो ‘निमित्त’ को उत्पत्ति और विनाश होनेवाले द्रव्यों से पृथक् मानना पड़ेगा। जो स्वभाव से उत्पत्ति और विनाश होता तो एक समय में ही उत्पत्ति और विनाश का होना सम्भव नहीं। जो स्वभाव से उत्पन्न होता हो, तो इस भूगोल के निकट में दूसरा भूगोल, चन्द्र-सूर्य आदि उत्पन्न क्यों नहीं होते?


और जिस-जिस के योग से जो-जो उत्पन्न होता है, वह-वह ईश्वर के उत्पन्न किये हुए बीज-अन्न-जलादि के संयोग से घास-वृक्ष और कृमि आदि उत्पन्न होते हैं, विना उनके नहीं। जैसे हल्दी, चूना और नींबू का रस दूर-दूर देश से आकर आप नहीं मिलते, किसी के मिलाने से मिलते हैं। उसमें भी यथायोग्य मिलाने से रोरी होती है, अधिक, न्यून वा अन्यथा करने से रोरी नहीं होती। वैसे ही प्रकृति, परमाणुओं को ज्ञान और युक्ति से परमेश्वर के मिलाये विना जड़ पदार्थ स्वयं कुछ भी कार्यसिद्धि के लिये विशेष पदार्थ नहीं बन सकते। इसलिये स्वभावादि से सृष्टि नहीं होती, किन्तु परमेश्वर की रचना से होती है॥९॥

[यह जगत् अनादि नहीं]

प्रश्न―इस जगत् का कर्ता न था, न है, और न होगा; किन्तु अनादि काल से यह जैसा का वैसा बना है। न कभी इसकी उत्पत्ति हुई, न कभी विनाश होगा। 


उत्तर―विना कर्त्ता के कोई भी क्रिया [नहीं हो सकती], वा क्रियाजन्य पदार्थ नहीं बन सकता। जिन पृथिवी आदि पदार्थों में संयोग-विशेष से रचना दीखती है, वे अनादि कभी नहीं हो सकते; और जो संयोग से बनता है, वह संयोग के पूर्व नहीं होता और वियोग के अन्त में नहीं रहता। जो तुम इसको न मानो तो कठिन से कठिन पाषाण, हीरा और फौलाद आदि तोड़के, टुकड़े कर, गला, वा भस्म कर देखो कि इनमें परमाणु पृथक्-पृथक् मिले हैं वा नहीं? जो मिले हैं तो वे समय पाकर अलग-अलग भी अवश्य होते हैं॥ 

[जीव कभी ईश्वर नहीं हो सकता]

प्रश्न―अनादि ईश्वर कोई नहीं, किन्तु जो योगाभ्यास से अणिमादि ऐश्वर्य को प्राप्त होकर सर्वज्ञता-आदि गुणयुक्त 'केवल- ज्ञानी' होता है, वही जीव 'ईश्वर', 'परमेश्वर' कहाता है। 


उत्तर―जो अनादि ईश्वर जगत् का स्रष्टा न हो, तो साधनों से सिद्ध होनेवाले जीवों का आधार जीवनरूप जगत्, शरीर और इन्द्रियों के गोलक कैसे बनते? इनके विना जीव साधन ही न कर सकता। जब साधन न होते, तो सिद्ध कहां से होता?


जीव चाहे जैसा साधन कर सिद्ध होवे, तो भी ईश्वर, जो कि स्वयं सनातन, अनादि सिद्धि है, जिसमें अनन्त सिद्धियां हैं, उसके तुल्य कोई भी जीव नहीं हो सकता; क्योंकि जीव का परम-अवधि तक ज्ञान बढ़े, तो भी परिमित ज्ञान और सामर्थ्यवाला होता है; अनन्त ज्ञान और सामर्थ्यवाला कभी नहीं हो सकता। देखो, कोई भी योगी आज तक ईश्वरकृत सृष्टिक्रम को बदलनेहारा नहीं हुआ है, और न होगा। अनादि-सिद्ध परमेश्वर ने नेत्र से देखने और कानों से सुनने का जैसा निबन्ध किया है, इसको कोई भी योगी बदल नहीं सका है। [अतः कोई भी] जीव, 'ईश्वर' कभी नहीं हो सकता। 

[प्रतिकल्प सृष्टि की समानता]

प्रश्न―कल्प-कल्पान्तरों में ईश्वर सृष्टि विलक्षण-विलक्षण बनाता है, अथवा एक-सी?


उत्तर―जैसी कि अब है, वैसी पहले थी और आगे होगी, भेद नहीं करता―


सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ धा॒ता य॑थापू॒र्वम॑कल्पयत्। 

दिवं॑ च पृथि॒वीं चा॒न्तरि॑क्ष॒मथो॒ स्वः॑॥१॥

ऋ॰, म॰ १०। सूक्त १९०। मं॰ ३॥ 

(धाता) परमेश्वर ने जैसे पूर्व-कल्प में सूर्य, चन्द्र, विद्युत्, पृथिवी, अन्तरिक्ष, आदित्य बनाये थे, वैसे ही अब बनाये हैं; और आगे भी वैसे ही बनावेगा॥१॥


इसलिये परमेश्वर के काम विना भूल-चूक के होने से सदा एक-से ही हुआ करते हैं। जो अल्पज्ञ है और जिसका ज्ञान वृद्धि-क्षय को प्राप्त होता है, उसी के काम में भूल-चूक होती है, ईश्वर के काम में नहीं।

[सृष्टि के विषय में शास्त्रों में विरोध नहीं]

प्रश्न―सृष्टि-विषय में वेदादि-शास्त्रों का अविरोध है, वा विरोध?


उत्तर―अविरोध है। 


प्रश्न―जो अविरोध है तो—


तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः सम्भूतः, आकाशाद्वायुः, वायोरग्निः, अग्नेरापः, अद्‍भ्यः पृथिवी, पृथिव्या ओषधयः, ओषधिभ्योऽन्नम्, अन्नाद्रेतः, रेतसः पुरुषः, स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः॥ 

यह तैत्तिरीय उपनिषद् का वचन है [ब्रह्म० वल्ली। अनु० १]॥


उस परमेश्वर और प्रकृति से आकाश= अवकाश अर्थात् जो कारणरूप द्रव्य सर्वत्र फैल रहा था, उसको इकट्ठा करने से आकाश उत्पन्न-सा होता है। वास्तव में आकाश की उत्पत्ति नहीं होती; क्योंकि विना आकाश के प्रकृति और परमाणु कहाँ ठहर सकें? आकाश के पश्चात् वायु, वायु के पश्चात् अग्नि, अग्नि के पश्चात् जल, जल के पश्चात् पृथिवी, पृथिवी से ओषधि, ओषधियों से अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से पुरुष अर्थात् शरीर उत्पन्न होता है।

यहां आकाशादि क्रम से, और 'छान्दोग्य' में अग्न्यादि, 'ऐतरेय' में जलादि क्रम से सृष्टि हुई मानी है। वेदों में कहीं पुरुष, कहीं हिरण्यगर्भ आदि से; 'मीमांसा' में कर्म [से], 'वैशेषिक' में काल [से], 'न्याय' में परमाणु [से], 'योग' में पुरुषार्थ [से], 'सांख्य' में प्रकृति [से] और 'वेदान्त' में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है। अब किसको सच्चा और किसको झूठा मानें?


उत्तर―इसमें सब सच्चे [हैं], कोई झूठा नहीं। झूठा वह है जो विपरीत समझता है; क्योंकि परमेश्वर निमित्त और प्रकृति जगत् का उपादान कारण है। जब महाप्रलय होता है, उसके पश्चात् आकाशादि क्रम [से], और जब आकाश और वायु का प्रलय नहीं होता और अग्न्यादि का होता है [तब] अग्न्यादि क्रम से, और जब विद्युत्=अग्नि का भी प्रलय (नाश) नहीं होता तब जलादि क्रम से सृष्टि होती है, अर्थात् जिस-जिस प्रलय में जहाँ-जहाँ तक प्रलय होता है, वहाँ-वहाँ से सृष्टि की उत्पत्ति होती है। 


'पुरुष' और 'हिरण्यगर्भ' आदि सब नाम परमेश्वर के ही हैं, [यह] प्रथम समुल्लास में लिख भी आये हैं।


शास्त्रों के अविरोध के विषय में भी पूर्व लिख आये हैं, परन्तु विरोध उसको कहते हैं कि एक कार्य में एक ही विषय पर विरुद्ध वाद होवे। छः शास्त्रों में अविरोध, देखो इस प्रकार है—


मीमांसा में—ऐसा कोई भी कार्य जगत् में नहीं होता कि जिसके बनाने में कर्मचेष्टा न की जाय। 


वैशेषिक में—समय लगे विना, बने ही नहीं। 


न्याय में—उपादानकारण न होने से कुछ भी नहीं बन सकता। 


योग में—विद्या, ज्ञान, विचार न किया जाय, तो नहीं बन सकता। 


सांख्य में—तत्त्वों का मेल न होने से, नहीं बन सकता। और― 


वेदान्त में—बनानेवाला न बनावे, तो कोई भी पदार्थ उत्पन्न हो न सके। 


इसलिये सृष्टि छः कारणों से बनती है। उन छः कारणों की व्याख्या एक-एक की एक-एक शास्त्र में है। इसलिये उनमें विरोध कुछ भी नहीं। जैसे छः पुरुष मिलके एक छप्पर उठाकर भित्तियों पर धरें, वैसे ही सृष्टिरूप एक कार्य की व्याख्या छः शास्त्रकारों ने मिलकर पूरी की है।


जैसे पांच अन्धों और एक मन्ददृष्टि को किसी ने हाथी का एक-एक देश बतलाया। फिर उनसे पूछा कि हाथी कैसा है? उनमें से एक ने कहा—खम्भे [जैसा], दूसरे ने कहा—सूप [जैसा], तीसरे ने कहा—मूसल [जैसा], चौथे ने कहा—झाड़ू [जैसा], पांचवें ने कहा—चौतरे [जैसा], और छठे ने कहा—काला-काला चार खम्भों के ऊपर कुछ भैंसे-जैसा आकारवाला है। 


इसी प्रकार आजकल के अनार्ष, नवीन ग्रन्थों के पढ़नेवालों और प्राकृत- भाषावालों ने ऋषिप्रणीत ग्रन्थ न पढ़कर, नवीन क्षुद्रबुद्धि-कल्पित संस्कृत और भाषाओं के ग्रन्थ पढ़कर, एक दूसरे की निन्दा में तत्पर होके झूठा झगड़ा मचाया है। इनका कथन बुद्धिमानों के वा अन्य के मानने योग्य नहीं। क्योंकि जो 'अन्धों के पीछे अन्धे चलें' तो दुःख क्यों न पावें? वैसे ही आजकल के अल्प-विद्यायुक्त, स्वार्थी, इन्द्रियाराम पुरुषों की लीला संसार का नाश करनेवाली है। 

[कारण और कार्य तथा सृष्टि का विवेचन]

प्रश्न―जब कारण के विना कार्य नहीं होता तो कारण का कारण क्यों नहीं?


उत्तर―अरे भोले भाइयो! कुछ अपनी बुद्धि को काम में क्यों नहीं लाते? देखो, संसार में दो ही पदार्थ होते हैं, एक कारण दूसरा कार्य। जो कारण है, वह [उस समय] कार्य नहीं, और जो जिस समय कार्य है, वह कारण नहीं। जब तक मनुष्य सृष्टि को यथावत् नहीं समझता, तब तक उसको यथावत् ज्ञान प्राप्त नहीं होता—

नित्यायाः सत्त्वरजस्तमसां साम्यावस्थायाः प्रकृतेरुत्पन्नानां परम-सूक्ष्माणां पृथक् पृथग्वर्त्तमानानां तत्त्वपरमाणूनां प्रथमः संयोगारम्भः संयोगविशेषाद-वस्थान्तरस्य स्थूलाकारप्राप्तिः सृष्टिरुच्यते॥ 


अनादि, नित्यस्वरूप सत्त्व, रजस् और तमोगुणों की एकावस्थारूप प्रकृति से उत्पन्न जो परमसूक्ष्म, पृथक्-पृथक् तत्त्वावयव विद्यमान हैं, उन्हीं का प्रथम ही जो संयोग का आरम्भ है, और [उन] संयोग-विशेषों से अवस्थान्तर [होकर] दूसरी-दूसरी अवस्था को सूक्ष्म से स्थूल-स्थूल बनते-बनाते विचित्ररूप बनी है। इसी से यह संसर्ग होने से 'सृष्टि' कहाती है। 


भला, जो प्रथम संयोग में मिलने और मिलाने-वाला पदार्थ है, जो संयोग का आदि और वियोग का अन्त अर्थात् जिसका विभाग नहीं हो सकता, वह 'कारण' और जो संयोग के पीछे बनता और वियोग के पश्चात् वैसा नहीं रहता, वह 'कार्य' कहाता है। जो उस कारण का कारण, कार्य का कार्य, कर्त्ता का कर्त्ता, साधन का साधन और साध्य का साध्य कहता है, वह देखता [हुआ] अन्धा, सुनता [हुआ] बहिरा और जानता हुआ मूढ़ है। क्या आँख की आँख, दीपक का दीपक और सूर्य का सूर्य कभी हो सकता है? जो जिससे उत्पन्न होता है वह 'कारण', और जो उत्पन्न होता है वह 'कार्य' है; और जो कारण को कार्यरूप बनानेहारा है, वह 'कर्त्ता' कहाता है।

नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।

उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्त्वदर्शिभिः॥

भगवद्गीता [अ० २। श्लोक १७]॥ 


कभी 'असत्' का भाव=वर्त्तमान और 'सत्' का अभाव=अवर्त्तमान, नहीं होता। इन दोनों का निर्णय तत्त्वदर्शी लोगों ने जाना है। अन्य पक्षपाती, आग्रही, मलिनात्मा, अविद्वान् लोग इस बात को सहज में कैसे जान सकते हैं? क्योंकि जो मनुष्य, विद्वान्, सत्सङ्गी होकर पूरा विचार नहीं करता, वह सदा भ्रमजाल में पड़ा रहता है। धन्य हैं वे पुरुष कि जो सब विद्याओं के सिद्धान्तों को जानते हैं और जानने के लिये परिश्रम करते हैं, जानकर अन्यों को निष्कपटता से जनाते हैं! इससे जो कोई कारण के विना सृष्टि मानता है, वह कुछ भी नहीं जानता। 

[सृष्टि की रचना]

जब सृष्टि का समय आता है, तब परमात्मा उन परमसूक्ष्म पदार्थों को इकट्ठा करता है। उसकी प्रथम अवस्था में जो परमसूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है, उसका नाम 'महत्तत्त्व', और जो उससे कुछ स्थूल होता है, उसका नाम 'अहङ्कार', और अहङ्कार से भिन्न- भिन्न पांच 'सूक्ष्मभूत'; श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, घ्राण 'पांच ज्ञानेन्द्रियाँ'; वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा ये पांच 'कर्म-इन्द्रियां' हैं और ग्यारहवां 'मन' [ये] कुछ स्थूल उत्पन्न होते हैं। और उन 'पञ्चतन्मात्राओं' से अनेक स्थूल- अवस्थाओं को प्राप्त होते हुए क्रम से 'पांच स्थूलभूत' जिनको हमलोग प्रत्यक्ष देखते हैं, उत्पन्न होते हैं। उनसे नाना प्रकार की औषधियां, वृक्ष आदि, उनसे अन्न, अन्न से वीर्य और वीर्य से शरीर होता है। परन्तु आदि-सृष्टि मैथुनी सृष्टि नहीं होती, क्योकि जब परमात्मा स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर, उनमें जीवों का संयोग कर देता है, तदनन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है। 


देखो! शरीर में किस प्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिसको विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाड़ों का जोड़; नाड़ियों का बन्धन; मांस का लेपन; चमड़ी का ढक्कन; प्लीहा, यकृत्, फेफड़ा पंखा-कला का स्थापन; रुधिरशोधन- प्रचालन; विद्युत् का स्थापन; जीव का संयोजन; शिरोरूप मूलरचन; लोम-नखादि का स्थापन; आँख की अतीव सूक्ष्म शिराओं का तारवत् ग्रन्थन; इन्द्रियों के मार्गों का प्रकाशन; जीव के जागृत, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्थाओं के भोगने के लिये स्थानविशेषों का निर्माण; सब धातुओं का विभागीकरण; कला-कौशल-स्थापनादि अद्भुत सृष्टि को विना परमेश्वर के कौन कर सकता है? इसके अतिरिक्त नाना प्रकार के रत्नों-धातुओं से जड़ित भूमि; विविध प्रकार के वटवृक्ष आदि के बीजों में अति सूक्ष्मरचना; असंख्य रक्त, हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्र, मध्यरूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूल-निर्माण; मिष्ट, क्षार, कटुक, कषाय, तिक्त, अम्लादि विविध रस; सुगन्धादियुक्त पत्र, पुष्प, फल, अन्न, कन्द, मूलादि-रचन; अनेकानेक करोड़ों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोक- निर्माण, धारण, भ्रामण, नियमों में रखना आदि परमेश्वर के विना कोई भी नहीं कर सकता।


जब कोई किसी पदार्थ को देखता है, तो दो प्रकार का ज्ञान उत्पन्न होता है। एक―जैसा वह पदार्थ है [उसका ज्ञान] और दूसरा―उसकी रचना देखकर बनानेवाले का ज्ञान, जैसे किसी पुरुष ने सुन्दर आभूषण जंगल में पाया। देखा, तो विदित हुआ कि यह सुवर्ण का है और किसी बुद्धिमान् कारीगर ने बनाया है। इसी प्रकार इस नाना प्रकार [की] सृष्टि में विविध रचनायें, [इसके] बनानेवाले 'परमेश्वर' को सिद्ध करती है। 

[सृष्टि की आदि में मनुष्योत्पत्ति का विवेचन]

प्रश्न―मनुष्य की सृष्टि प्रथम हुई, वा पृथिवी आदि की?


उत्तर―पृथिवी आदि की; क्योंकि पृथिव्यादि के विना मनुष्य की स्थिति और पालन नहीं हो सकता। 


प्रश्न―सृष्टि के आदि में एक-दो मनुष्य उत्पन्न किये थे, वा अनेक?


उत्तर―अनेक; क्योंकि जिन जीवों के कर्म ऐश्वरी सृष्टि में उत्पन्न होने के थे, उनका जन्म ईश्वर ने आदिसृष्टि में किया क्योंकि― 


"सा॒ध्या ऋष॑यश्च॒ ये"॥ 

"ततो मनुष्या अजायन्त"

यह यजुर्वेद [और उसके ब्राह्मण] में लिखा है।

[यजु० ३१। ९; शत० ब्रा० कां० १४। प्रपा० १। ब्रा० २ कं० ५]

इन प्रमाणों से यही निश्चय है कि आदि में अनेक अर्थात् सैकड़ों-सहस्रों मनुष्य उत्पन्न हुए। और सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता है कि मनुष्य अनेक मा-बाप के सन्तान हैं।


प्रश्न―आदि सृष्टि में मनुष्य आदि की बाल्य, युवा वा वृद्ध-अवस्था में सृष्टि हुई थी, अथवा तीनों में?


उत्तर―युवावस्था में; क्योंकि जो बालक उत्पन्न करता, तो उनके पालन के लिये दूसरे मनुष्य आवश्यक होते, और वृद्धावस्था में बनाता, तो मैथुनी-सृष्टि न होती। इसलिये युवावस्था में सृष्टि की है। 

[सृष्टि प्रवाह से अनादि है]

प्रश्न―कभी सृष्टि का प्रथमारम्भ है, वा नहीं?


उत्तर―नहीं। जैसे दिन के पूर्व रात और रात के पूर्व दिन तथा दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन बराबर चला आता है, इसी प्रकार सृष्टि के पूर्व प्रलय और प्रलय के पूर्व सृष्टि तथा सृष्टि के पीछे प्रलय और प्रलय के आगे सृष्टि, [यह] अनादिकाल से चक्र चला आता है। इसका आदि वा अन्त नहीं। किन्तु जैसे दिन वा रात का आरम्भ और अन्त देखने में आता है, उसी प्रकार सृष्टि और प्रलय का आदि-अन्त होता रहता है। क्योंकि जैसे परमात्मा, जीव, जगत् का कारण, ये तीन स्वरूप से अनादि हैं, वैसे जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय प्रवाह से अनादि हैं। जैसे, नदी का प्रवाह वैसा ही दीखता है, कभी सूख जाता, कभी नहीं दीखता, फिर बरसात में दीखता और उष्णकाल में नहीं दीखता, ऐसे व्यवहारों को प्रवाहरूप जानना चाहिये। जैसे परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव अनादि हैं, वैसे ही उसके जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, प्रलय करना भी अनादि हैं। जैसे कभी ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव का आरम्भ और अन्त नहीं, उसी प्रकार उसके कर्त्तव्य-कर्मों का भी आरम्भ और अन्त नहीं। 

[कर्मानुसार विविध योनियां]

प्रश्न―ईश्वर ने किन्हीं जीवों को मनुष्य जन्म; किन्हीं को सिंह-आदि क्रूर जन्म; किन्हीं को हिरण, गाय आदि पशु [जन्म]; किन्हीं को वृक्ष-आदि, किन्हीं को कृमि, कीट, पतङ्ग-आदि जन्म दिये हैं। इससे परमात्मा में पक्षपात आता है। 


उत्तर―पक्षपात नहीं आता; क्योंकि उन जीवों के पूर्व-सृष्टि में किये हुए कर्मों के अनुसार व्यवस्था करने से। जो कर्म के विना जन्म देता, तो पक्षपात आता।

[मनुष्यों की प्रथम सृष्टि]

प्रश्न―मनुष्यों की आदि-सृष्टि किस स्थल में हुई?


उत्तर―'त्रिविष्टप' अर्थात् जिसको ‘तिब्बत’ कहते हैं। 


प्रश्न―आदि-सृष्टि में एक जाति थी, वा अनेक?


उत्तर―एक मनुष्यजाति थी, पश्चात्―

"विजा॑नी॒ह्यार्या॒न् ये च॒ दस्य॑वः"।

 यह ऋग्वेद का वचन है [१। ५१। ८]॥


श्रेष्ठों का नाम आर्य, विद्वान्, देव; और दुष्टों का 'दस्यु' अर्थात् डाकू, मूर्ख और अनाड़ी नाम होने से 'आर्य' और 'दस्यु' दो नाम हुए। [उसके पश्चात्―]


"उ॒त शू॒द्र-उ॒तार्ये॑"

 अथर्ववेद का वचन है [१९। ६२। १]।


आर्यों में पूर्वोक्त प्रकार से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार भेद हुए। विद्वानों का नाम 'आर्य' और द्विज, मूर्खों [=विद्यारहितों] का नाम 'शूद्र' और 'अनार्य' अर्थात् 'अनाड़ी' नाम हुआ।

[आर्यों का भारत में आगमन]

प्रश्न―फिर वे यहां कैसे आये?


उत्तर―जब आर्य और दस्युओं में अर्थात् विद्वान् जो देव, अविद्वान् जो असुर, उनमें सदा लड़ाई-बखेड़ा हुआ किया। जब बहुत उपद्रव होने लगा, तब आर्य लोग सब भूगोल में उत्तम इस भूमि के खण्ड को जानकर यहीं आकर बसे। इसी से इस देश का नाम ‘आर्यावर्त’ हुआ।

[आर्यावर्त्त की प्राचीन सीमा]

प्रश्न―आर्यावर्त की अवधि कहां तक है?


उत्तर―आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्।

तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः॥१॥

सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्। 

तं देवनिर्मितं देशमार्यावर्तं प्रचक्षते॥२॥

मनु॰ [२। २२; १७]॥ 


उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र॥१॥


तथा सरस्वती पश्चिम में 'अटक' नदी, जो उत्तर के पहाड़ों से निकलके [अपने से] दक्षिण के समुद्र की खाड़ी [अर्थात् पश्चिमी समुद्र] में मिली है। और पूर्व में 'दृषद्वती' जो नेपाल के पूर्व भाग पहाड़ से निकलके, बङ्गाले के और आसाम के पूर्व और ब्रह्मा के पश्चिम ओर होकर [अपने से] दक्षिण के समुद्र [अर्थात् पूर्वी समुद्र] में मिली है, जिसको 'ब्रह्मपुत्रा' कहते हैं। हिमालय की मध्यरेखा से दक्षिण और पहाड़ों के भीतर और रामेश्वर-पर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं, उन सबको 'आर्यावर्त' कहते हैं। यह देश 'देवनिर्मित आर्यावर्त' इसलिये कहाता है कि 'देव' अर्थात् नाम विद्वानों ने बसाया और आर्यजनों के निवास करने से 'आर्यावर्त' कहाया है॥२॥


प्रश्न―प्रथम इस देश का नाम क्या था और इसमें कौन बसते थे?


उत्तर―इसके पूर्व इस देश का नाम कोई भी नहीं था और न कोई आर्यों के पूर्व इस देश में बसते थे। क्योंकि आर्य लोग सृष्टि के आदि में कुछ काल के पश्चात् तिब्बत से सूधे इसी देश में आकर बसे थे। 

[आर्य दस्यु युद्ध]

प्रश्न―कोई कहते हैं कि ये लोग ईरान से आये। इसी से इन लोगों का नाम 'आर्य' हुआ है। इनके पूर्व यहां जंगली लोग बसते थे कि जिनको असुर' और 'राक्षस' कहते थे। आर्य लोग अपने को देवता बतलाते थे और उनका जब संग्राम हुआ, उसका नाम 'देवासुर-संग्राम' कथाओं में ठहराया। 


उत्तर―यह बात सर्वथा झूठ है। क्योंकि—


"वि जा॑नी॒ह्यार्या॒न् ये च॒ दस्य॑वो ब॒र्हिष्म॑ते रन्धया॒ शास॑दव्र॒तान्॥" 

ऋ॰, म॰ १। सूक्त ५१। मं॰ ८॥ 


"उ॒त शू॒द्र-उ॒तार्ये॑॥" 

यह भी अथर्ववेद का प्रमाण है [कां० १९। सूक्त ६२। मं० १]॥


हम लिख चुके हैं कि 'आर्य' नाम धार्मिक, विद्वान्, आप्त पुरुषों का और इनसे विपरीत जनों का नाम 'दस्यु' अर्थात् डाकू, दुष्ट, अधार्मिक और अविद्वान् है। तथा ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विजों का नाम 'आर्य' और शूद्र का नाम 'अनार्य' अर्थात् 'अनाड़ी' है।


जब वेद यह कहता है तो दूसरे विदेशियों के कपोलकल्पित [कथन] को बुद्धिमान् लोग कभी नहीं मान सकते। और देवासुर-संग्राम में आर्यवर्तीय अर्जुन तथा महाराजे दशरथ आदि जो कि हिमालय पहाड़ [के क्षेत्र] में आर्य=विद्वानों और दस्युओं, म्लेच्छों, असुरों का जो युद्ध हुआ था, उसमें 'देवों' अर्थात् आर्यों की रक्षा और असुरों का पराजय करने को सहायक हुए थे। इससे यही सिद्ध होता है कि आर्यावर्त के बाहर चारों ओर जो हिमालय के पूर्व, आग्नेय, दक्षिण, नैर्ऋत, पश्चिम, वायव्य, उत्तर, ईशान [दिशाओं के] देशों में जो मनुष्य रहते हैं उन्हीं का नाम 'असुर' सिद्ध होता है; क्योंकि वे जब-जब हिमालय-प्रदेशस्थ आर्यों पर लड़ने को चढ़ाई करते थे, तब-तब यहां के राजे- महाराजे लोग उन्हीं उत्तर आदि [दिशा के] देशों में आर्यों के सहायक होते थे। और जो श्री रामचन्द्र जी से दक्षिण में युद्ध हुआ है, उसका नाम 'देवासुर-संग्राम' नहीं है, किन्तु उसको 'राम-रावण' अथवा 'आर्य और राक्षसों का संग्राम' कहते हैं। 


किसी संस्कृत ग्रन्थ में वा इतिहास में नहीं लिखा कि आर्य लोग ईरान से आये और यहां के जंगलियों को, लड़कर, जय पाके, निकालके, इस देश के राजा हुए। पुनः विदेशियों का लेख माननीय कैसे हो सकता है? और—


म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः॥१॥ 

मनु॰ [१०। ४५]॥ 

"म्लेच्छदेशस्त्वतः परः॥२॥"

मनु॰ [२। २३]॥ 

जो आर्यावर्त देश से भिन्न देश हैं, वे 'दस्युदेश' और 'म्लेच्छदेश' कहाते हैं। इससे भी यह सिद्ध होता है कि आर्यावर्त से भिन्न पूर्व [के] देशों से लेकर ईशान, उत्तर, वायव्य और पश्चिम [के] देशों में रहने वालों का नाम 'दस्यु' और 'म्लेच्छ' तथा 'असुर' है। और नैर्ऋत, दक्षिण तथा आग्नेय दिशाओं में आर्यावर्त देश से भिन्न [देशों में] रहनेवाले मनुष्यों का नाम 'राक्षस' है। 


और आर्यावर्त की सूध पर नीचे रहनेवालों का नाम 'नाग' और उस देश का नाम 'पाताल' इसलिये कहते हैं कि वह देश आर्यवर्तीय मनुष्यों के 'पाद' अर्थात् पगों के तले है। और उनके 'नागवंशी', अर्थात् नाग नामवाले पुरुष के वंश के राजा होते थे। उसी [के वंश] की 'उलूपी' राजकन्या से अजुर्न का विवाह हुआ था, अर्थात् इक्ष्वाकु से लेकर कौरवों-पाण्डवों तक सर्व-भूगोल में आर्यों का राज्य रहा और वेदों का थोड़ा-थोड़ा प्रचार आर्यावर्त से भिन्न देशों में भी रहता रहा। इसमें यह प्रमाण है कि ब्रह्मा का पुत्र विराट्, विराट् का मनु, मनु के मरीची-आदि दश, इनके स्वायंभुवादि सात राजा और उनके सन्तान इक्ष्वाकु आदि राजा जो आर्यावर्त के प्रथम राजा हुए, जिन्होंने यह आर्यवर्त बसाया है।

[भारत में विदेशी शासन का कारण]

अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य, प्रमाद, परस्पर के विरोध से अन्य देशों का राज्य करने की तो कथा ही क्या कहनी, किन्तु आर्यावर्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्य इस समय नहीं है। जो कुछ है सो भी विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहा है। कुछ थोड़े राजा स्वतन्त्र हैं। दुर्दिन जब आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार का दुःख भोगना पड़ता है।

[स्वराज्य की महत्ता]

कोई कितना ही करे, परन्तु जो स्वदेशीय राज्य होता है, वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रहरहित, अपने और पराये का पक्षपातशून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ विदेशियों का राज्य भी पूर्ण सुखदायक नहीं है। 


परन्तु भिन्न-भिन्न भाषा, पृथक्-पृथक् शिक्षा, अलग-अलग व्यवहार का विरोध छूटना अति दुष्कर है। विना इसके छूटे परस्पर का पूरा उपकार और अभिप्राय सिद्ध होना कठिन है। इसलिये जो कुछ वेदादिशास्त्रों में व्यवस्था वा [शास्त्रों में] इतिहास लिखे हैं, उसी का मान्य करना भद्रपुरुषों का काम है। 

[सृष्टि-उत्पत्ति का काल]

प्रश्न―जगत् की उत्पत्ति में कितना समय व्यतीत हुआ?


उत्तर―एक अर्ब, छानवें करोड़, कई लाख और कई सहस्र वर्ष जगत् की उत्पत्ति और वेदों के प्रकाश होने में हुए हैं। इसका स्पष्ट व्याख्यान मेरी बनाई 'भूमिका'* में लिखा है, देख लीजिये।


इत्यादि प्रकार सृष्टि के बनाने और बनने में हैं और यह भी है कि सबसे सूक्ष्म टुकड़ा अर्थात् जो काटा नहीं जाता, उसका नाम परमाणु, साठ परमाणुओं के मिले हुए का नाम अणु, दो अणु का एक द्व्यणुक जो कि स्थूल वायु है, तीन द्वयणुक का अग्नि, चार द्व्यणुक का जल, पाँच द्व्यणुक की पृथिवी। अथवा तीन द्व्यणुक का त्रसरेणु और उसका [लगभग] दूना होने से पृथिवी आदि दृश्य पदार्थ होते हैं। इसी प्रकार क्रम से मिलाकर भूगोल-आदि परमात्मा ने बनाये हैं। 

[पृथिवी का धारक परमात्मा; शेष तथा उक्षा का सत्यार्थ]

प्रश्न―इसका धारण कौन करता है? कोई कहता है―'शेष' अर्थात् सहस्र फणवाले सर्प के शिर पर पृथिवी है। दूसरा कहता है कि―'बैल के सींग पर [है]'। तीसरा कहता है कि 'किसी पर नहीं।' चौथा कहता है कि 'वायु के आधार पर [है]'। पाँचवाँ कहता है कि 'सूर्य के आकर्षण से खैंची हुई अपने ठिकाने पर स्थित [है]'। छठा कहता है कि―'पृथिवी भारी होने से नीचे-नीचे आकाश में चली जाती है', इत्यादि में किस बात को सत्य मानें?


उत्तर―जो 'शेष=सर्प और बैल के सींग पर धरी हुई पृथिवी स्थित [है]', कहता है, उससे पूछना चाहिये कि 'सर्प और बैल के मा-बाप के जन्म समय किस पर थी? तथा सर्प और बैल आदि किस पर हैं?' बैल-वाले मुसलमान तो चुप ही कर जायेंगे। परन्तु सर्प वाले कहेंगे कि 'सर्प कूर्म पर, कूर्म जल पर, जल अग्नि पर, अग्नि वायु पर और वायु आकाश में ठहरा है।' उनसे पूछना चाहिये कि 'ये सब किस पर हैं?' तो अवश्य कहेंगे कि 'परमेश्वर पर।' जब उनसे कोई पूछेगा कि 'शेष और बैल किसका बच्चा है?' तो कहेंगे कि 'शेष कश्यप-कद्रू का और बैल गाय का।' कश्यप मरीची [का], मरीची मनु [का], मनु विराट् [का], और विराट् ब्रह्मा का पुत्र; ब्रह्मा आदि सृष्टि का था। जब शेष का जन्म न हुआ था, उसके पहले पाँच पीढ़ीयां हो चुकी हैं, तब किसने धारण की थी? अर्थात् कश्यप के जन्म-समय में पृथिवी किस पर थी? तो ‘तेरी चुप, मेरी भी चुप’ और लड़ने लग जायेंगे। अर्थात् इसका सच्चा अभिप्राय यह है कि जो ‘बाकी’ रहता है, उसको 'शेष' कहते हैं। सो किसी कवि ने ‘शेषाधारा पृथिवीत्युक्तम्’=पृथिवी 'शेष के आधार पर है' ऐसा कहा―दूसरे ने उसके अभिप्राय को न समझकर सर्प की मिथ्या कल्पना कर ली। परन्तु जिसलिये परमेश्वर उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक् रहता है, इसी से उसको ‘शेष’ कहते हैं और उसी के आधार पर पृथिवी है—


"स॒त्येनोत्त॑भिता॒ भूमिः॒॥" 

यह ऋग्वेद के मन्त्र का भाग है [१०। ८५। १]। 


सत्य अर्थात् जो त्रैकाल्य-अबाध्य, जिसका कभी नाश नहीं होता, उस परमेश्वर ने भूमि आदि सब लोकों को धारण किया है।


*'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' के 'वेदोत्पत्ति विषय' को देखो। 

[दयानन्द सरस्वती]

"अ॒न॒ड्वान् दा॑धार पृथि॒वीमु॒त द्याम्॥"

यह भी अथर्ववेद का वचन है [अथर्व० ४। ११। १]॥

["उ॒क्षा स द्यावा॑पृथिवी बि॑भर्ति"]

[ऋग्वेद १०। ३१। ८]


इसी 'उक्षा' शब्द को देखकर किसी ने 'बैल' का ग्रहण किया होगा; क्योंकि 'उक्षा' बैल का भी नाम है। परन्तु उस मूढ़ को यह विदित न हुआ कि इतने बड़े भूगोल के धारण करने का सामर्थ्य बैल मे कहां से आवेगा? इसलिये 'उक्षा' वर्षा द्वारा भूगोल का सेचन करने से 'सूर्य' का नाम है। उसने अपने आकर्षण से पृथिवी को धारण किया है। परन्तु सूर्यादि का धारण करनेवाला विना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं है। 

[सब लोक-लोकान्तरों का धारक ईश्वर ही है]

प्रश्न―इतने-इतने बड़े भूगोलों को परमेश्वर कैसे धारण कर सकता होगा?


उत्तर―जैसे अनन्त आकाश के सामने बड़े-बड़े भूगोल कुछ भी अर्थात् समुद्र के आगे जल के छोटे कण के तुल्य भी नहीं हैं, वैसे अनन्त परमेश्वर के सामने असंख्यात लोक एक परमाणु के तुल्य भी नहीं कह सकते। वह बाहर-भीतर सर्वत्र व्यापक अर्थात्―

 

वि॒भूः प्र॒जासु॑

यह यजुर्वेद का वचन है [३२। ८]।

=वह परमात्मा सब प्रजाओं में व्यापक होकर सबका धारण कर रहा है। जो वह ईसाईयों, मुसलमानों, पुराणियों के कथनानुसार [एकदेशी होता और] विभु न होता तो इस सब सृष्टि का धारण कभी नहीं कर सकता; क्योंकि विना प्राप्ति के किसी को कोई धारण नहीं कर सकता। 


कोई कहै कि ये सब लोक परस्पर आकर्षण से धारण किये हुए होंगे, पुनः परमेश्वर के धारण करने की क्या अपेक्षा है? उनको यह उत्तर देना चाहिये कि यह सृष्टि अनन्त है, वा सान्त? जो अनन्त कहैं तो आकारवाला वस्तु अनन्त कभी नहीं हो सकता और जो सान्त कहैं तो उनकी परभाग-सीमा अर्थात् जिसके परे कोई भी दूसरा लोक नहीं है, वहां किसके आकर्षण से धारण होगा? जैसे समष्टि और व्यष्टि अर्थात् जब सब समुदाय का नाम वन रखते हैं तो 'समष्टि' कहाता है और एक-एक वृक्षादि की भिन्न-भिन्न गणना करें, तो 'व्यष्टि' कहाता है; वैसे सब भूगोलों को समष्टि गिन कर जगत् कहैं, तो सब जगत् का धारण और आकर्षण का कर्त्ता विना परमेश्वर के दूसरा कोई भी नहीं। इसलिये जो सब जगत् को रचता है, वही— 


"स दा॑धार पृथि॒वीं द्यामु॒तेमाम्॥" 

यह यजुर्वेद का वचन है [१३। ४]।

पृथिव्यादि प्रकाशरहित लोक-लोकान्तरों तथा सूर्यादि प्रकाशसहित लोकों और पदार्थों का रचन-धारण वही परमात्मा करता है जो सबमें व्यापक हो रहा है।

[पृथिवी का सूर्य के चारों ओर भ्रमण]


प्रश्न―पृथिव्यादि लोक घूमते हैं, वा स्थिर हैं?


उत्तर―घूमते हैं। 


प्रश्न―कितने ही लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता है और पृथिवी नहीं घूमती। दूसरे कहते हैं कि पृथिवी घूमती है, सूर्य नहीं घूमता। इसमें सत्य क्या माना जाय?


उत्तर―ये दोनों आधे झूठे हैं। क्योंकि वेद में लिखा है कि— 


आयं गौः पृश्नि॑रक्रमी॒दस॑दन्मा॒तरं॑ पु॒रः। पि॒तरं॑ च प्र॒यन्त्स्वः॑॥ 

यजु॰, अ॰ ३। मं॰ ६॥ 


अर्थात् यह भूगोल जल के सहित सूर्य के चारों ओर आकाश में घूमता जाता है, अर्थात् सूर्य के चारों ओर इसलिये भूमि घूमा करती है। 


आ कृ॒ष्णेन रज॑सा॒ वर्त्त॑मानो निवे॒शय॑न्न॒मृतं॒ मर्त्यं॑ च।

हि॒र॒ण्यये॑न सवि॒ता रथे॒ना देवो या॑ति॒ भुव॑नानि॒ पश्य॑न्॥ 

यजु॰, अ॰ ३३। मं॰ ४३॥

जो सविता अर्थात् सूर्य, वर्षादि का कर्त्ता, प्रकाशस्वरूप, तेजोमय, रमणीयस्वरूप के साथ वर्त्तमान, सब प्राणी-अप्राणियों में अमृतरूप वृष्टि वा किरण द्वारा अमृत का प्रवेश करा और सब मूर्तिमान् द्रव्यों को दिखलाता हुआ, सब लोकों के साथ आकर्षण गुण से सह वर्त्तमान, अपनी परिधि में घूमता रहता है, किन्तु किसी लोक के चारों ओर नहीं घूमता। वैसे ही एक-एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं, जैसे—


"दि॒वि सोमो॒ अधि॑ श्रि॒तः॥"    

 अथर्व॰, कां॰ १४। [सू० १] अनु॰ १। मं॰ १॥ 


जैसे यह चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है, वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं। परन्तु रात और दिन सर्वदा वर्त्तमान रहते हैं, क्योंकि पृथिव्यादि लोक घूमकर उनका जितना भाग सूर्य के सामने आता-जाता है उतने में दिन [होता है] और जितना पृष्ठ में अर्थात् आड़ में होता जाता है, उतने में रात [होती है]। अर्थात् उदय, अस्त, संध्या, मध्याह्न, मध्यरात्रि आदि जितने कालावयव हैं, वे देश-देशान्तरों में सदा वर्त्तमान रहते हैं। जैसे, जब आर्यावर्त में सूर्योदय होता है, उसी समय 'पाताल' अर्थात् अमेरिका में अस्त होता है और जब आर्यावर्त में अस्त होता है, तब पाताल-देश में उदय होता है। जब आर्यावर्त में मध्य दिन वा मध्य रात है, उसी समय पाताल-देश में मध्य रात और मध्य दिन रहता है।

[पृथिवी के भ्रमण में हेतु]

जो लोग कहते हैं कि सूर्य घूमता और पृथिवी नहीं घूमती, वे सब अज्ञ हैं; क्योंकि जो ऐसा होता तो कई सहस्रों वर्ष के दिन और रात होते। अर्थात् सूर्य का नाम 'ब्रध्नः' [है, वह] पृथिवी से लाखों गुना बड़ा और करोड़ों कोश दूर है। जैसे, राई के सामने पहाड़ घूमे तो बहुत देर लगती और राई के घूमने में बहुत समय नहीं लगता, वैसे ही पृथिवी के घूमने से यथायोग्य रात-दिन होते हैं, सूर्य के घूमने से नहीं। और जो सूर्य को स्थिर कहते हैं, वे भी ज्योतिर्विद्यावित् नहीं; क्योंकि यदि सूर्य न घूमता होता तो एक राशि=स्थान से दूसरी 'राशि' अर्थात् स्थान को प्राप्त न होता। और गुरु पदार्थ विना घूमे आकाश में नियत स्थान पर कभी नहीं रह सकता। और जो जैनी आदि कहते हैं कि पृथिवी घूमती नहीं, किन्तु नीचे चली जाती है और दो सूर्य और दो चन्द्र केवल जम्बूद्वीप में बतलाते हैं, वे तो 'बारह लोटा गहरी भांग के नशे में निमग्न' हैं; क्योंकि जो नीचे-नीचे चलती जाती तो चारों ओर वायु के चक्र न बनने से पृथिवी छिन्न-भिन्न होती और निम्न-स्थल पृथिवी में रहनेवालों को वायु का स्पर्श न होता, नीचेवालों को अधिक होता और एक-सी वायु की गति होती। और दो सूर्य-चन्द्र होते, तो रात और कृष्णपक्ष का होना ही नष्ट-भ्रष्ट होता। इसलिये एक भूमि के पास एक चन्द्र और अनेक चन्द्रों अनेक भूमियों के मध्य में एक सूर्य रहता है। 

[अन्य लोकों में भी प्राणी हैं]

प्रश्न―सूर्य, चन्द्र और तारे क्या वस्तु हैं और उनमें मनुष्य-आदि सृष्टि है, वा नहीं?


उत्तर―ये सब भूगोल-लोक [हैं] और इनमें मनुष्य-आदि प्रजा भी रहती हैं, क्योंकि—


एतेषु हीदꣳ सर्वं वसु हितमेते हीदꣳ सर्वं वासयन्ते तद्यदिदꣳ सर्वं वासयन्ते तस्माद्वसव इति॥ 

    शत॰ कां॰ १४ [प्रपा० ३। ब्रा० ७। कं० ४]॥


पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य इनका 'वसु' नाम इसलिये है कि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजायें वसती हैं, और ये ही सबको वसाते हैं, इसलिये वास के=निवास करने के घर हैं, इसलिये इनका नाम 'वसु' है। जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र और नक्षत्र वसु हैं, पश्चात् उनमें इसी प्रकार प्रजा के होने में क्या सन्देह? और जैसे परमेश्वर का यह छोटा-सा लोक मनुष्य-आदि सृष्टि से भरा हुआ है, तो क्या ये सब लोक शून्य होंगे? परमेश्वर का कोई भी काम निष्प्रयोजन नहीं होता, तो क्या इतने असंख्य लोकों में मनुष्य-आदि सृष्टि न हो, तो सफल कभी हो सकता है? इसलिये सर्वत्र मनुष्य-आदि सृष्टि है। 

[लोकान्तरों के प्राणियों में आकृति-भेद सम्भव]

प्रश्न―जैसे इस देश में मनुष्य-आदि सृष्टि के आकृति-अवयव हैं, वैसे ही अन्य लोकों में भी होंगे वा विपरीत होंगे?


उत्तर―कुछ-कुछ आकृति में भेद होने का सम्भव है, जैसे इस देश में चीने, हबशी और आर्यावर्त, यूरोप में अवयव और रङ्ग-रूप और आकृति का भी थोड़ा-थोड़ा भेद होता है, इसी प्रकार लोक-लोकान्तरों में भी भेद होते हैं। परन्तु जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश में है, वैसी जाति की ही सृष्टि अन्य लोकों में भी है। जिस-जिस शरीर के प्रदेश में नेत्रादि अङ्ग हैं, उसी-उसी प्रदेश में लोकान्तर में भी उसी जाति के अवयव भी वैसे ही होते हैं। क्योंकि—


सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ धा॒ता य॑थापू॒र्वम॑कल्पयत्। 

दिवं॑ च पृथि॒वीं चा॒न्तरि॑क्ष॒मथो॒ स्वः॑॥   

ऋ॰, म॰ १०। सूक्त १९० [मं० ३]॥ 


धाता=परमात्मा ने जिस प्रकार के सूर्य, चन्द्र, द्यौ, भूमि, अन्तरिक्ष और तत्रस्थ सुख विशेष पदार्थ पूर्वकल्प में रचे थे, वैसे ही इस कल्प अर्थात् इस सृष्टि में रचे हैं, तथा सब लोक-लोकान्तरों में भी बनाये हैं। भेद किंचित्-मात्र नहीं होता। 

[वेदों का प्रकाश अन्य लोकों में भी]

प्रश्न―जिन वेदों का इस लोक में प्रकाश है, उन्हीं वेदों का उन लोकों में भी प्रकाश है, वा नहीं?


उत्तर―उन्हीं का है। जैसे, एक राजा की राज्यव्यवस्था, नीति सब देशों में समान होती है, उसी प्रकार परमात्मा राजराजेश्वर की वेदोक्त नीति अपने सृष्टिरूप सब राज्य में एक-सी है।

[जीव और प्रकृति ईश्वर के अधीन है]

प्रश्न―जब ये जीव और प्रकृतिस्थ तत्त्व अनादि और ईश्वर के बनाये नहीं हैं, तो ईश्वर का अधिकार भी इन पर न होना चाहिये; क्योंकि सब स्वतन्त्र हुए?


उत्तर―जैसे राजा और प्रजा समकाल में होते हैं और राजा के आधीन प्रजा होती है, वैसे ही परमेश्वर के आधीन जीव और जड़ पदार्थ हैं। जब परमेश्वर सब सृष्टि का बनानेवाला, जीवों के कर्मफलों का देनेवाला, सबका यथावत् रक्षक और अनन्त सामर्थ्यवाला है, तो अल्पसामर्थ्य [जीव] और जड़ पदार्थ उसके आधीन क्यों न हों? इसलिये जीव कर्म करने में स्वतन्त्र, परन्तु कर्मों के फल भोगने में ईश्वर की व्यवस्था से परतन्त्र हैं। वैसे ही वह सर्वशक्तिमान् [परमेश्वर] सृष्टि, पालन और संहार सब विश्व का करता है। 


इसके आगे विद्या, अविद्या, बन्ध और मोक्ष के विषय में लिखा जायगा। यह [सृष्टि-उत्पत्ति-स्थिति प्रलय-विषयक] आठवां समुल्लास पूरा हुआ।


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे 

सुभाषाविभूषिते सृष्ट्युत्पत्तिस्थितिप्रलय-

विषयेऽष्टमः समुल्लासः सम्पूर्णः॥८॥

Comments

Popular posts from this blog

सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश

चतुर्थः समुल्लासः

वैदिक गीता