नवमः समुल्लासः

नवम-समुल्लास


विद्या से मोक्ष

अविद्या का लक्षण

विद्या का लक्षण

मन्त्रस्थ 'अविद्या' शब्द का अर्थ

बन्ध-मोक्ष और नवीन वेदान्त

आत्मा के निर्लेपत्व का खण्डन

जीव ब्रह्म का प्रतिबिम्ब नहीं

उपाधि-भेद से ब्रह्म के ईश्वर और जीव नाम नहीं

ब्रह्म के कारण अन्तःकरणों में चैतन्य नहीं

ब्रह्म में अध्यारोप का खण्डन 

मुक्ति और बन्ध का विवेचन 

मुक्ति और बन्ध के कारण

मुक्ति में जीव का ब्रह्म में लय नहीं

मुक्ति में जीव का स्वाभाविक शक्तियों से आनन्द भोग

चौबीस प्रकार के जीव के सामर्थ्य

मुक्ति में जीव तथा मन का अस्तित्व

संकल्पमय शरीर से आनन्द-भोग 

मुक्ति से पुनरावृत्ति

मुक्ति से पुनरावृत्ति न होने में अनेक दोष

मुक्ति का काल

जीव ईश्वर-सदृश कभी नहीं होता

मुक्ति जन्म-मरण के सदृश नहीं

मुक्ति के साधन-चतुष्टय

मुक्ति का प्रथम साधन विवेक

पञ्चकोश तीन शरीरादि

मुक्ति का द्वितीय साधन वैराग्य

मुक्ति का तृतीय साधन षट्क सम्पत्ति

मुक्ति का चतुर्थ साधन मुमुक्षुत्व

अनुबन्ध-चतुष्टय

श्रवण-चतुष्टय

मुक्ति के अन्य साधन

आत्मा शरीर से पृथक् है

पाँच प्रकार के क्लेश

तथाकथित मुक्तियों की आलोचना

पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं ?

पूर्व जन्म के विस्मृत कर्मों का फल देना निरर्थक

कर्मानुसार ही भोगादि

प्राणिमात्र में जीव की समानता

पाप-पुण्य के कारण विभिन्न योनियों की प्राप्ति

यमराज और धर्मराज कौन ?

मुक्ति अनेक जन्मों के प्रयत्न से

मुक्ति में जीव का ब्रह्म में लय नहीं होता

विना शरीर के स्वशक्ति से आनन्द-भोग

स्वर्ग-नरक की व्यवस्था

पाप-पुण्य की गति

सत्त्व-रज-तम गुणों के लक्षण वा प्रतीति

किस गुण से कौन योनि ?

चित्तवृत्ति का निरोध

त्रिविध दुःख से निवृत्ति



अथ नवमसमुल्लासारम्भः

 

अथ विद्याऽविद्याबन्धमोक्षविषयान् व्याख्यास्यामः 


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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[अब विद्या-अविद्या-बन्ध-मोक्ष विषयों की व्याख्या करेंगे]


[विद्या से मोक्ष की प्राप्ति]

वि॒द्यां चाऽवि॑द्यां च॒ यस्तद्वेदो॒भय॑ᳬ स॒ह। 

अवि॑द्यया मृ॒त्युं ती॒र्त्वा वि॒द्यया॒ऽमृत॑मश्नुते॥ 

यजुः, अ॰ ४०। मं॰ १४॥

 

जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ ही साथ जानता है, वह 'अविद्या' अर्थात् 'कर्म-उपासना' से मृत्यु को तरके 'विद्या' अर्थात् यथार्थ ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है। [किन्तु वह 'कर्म-उपासना'-रूप 'अविद्या' अशुद्ध कर्म, अशुद्ध उपासना और मिथ्या ज्ञानयुक्त 'अविद्या' नहीं होनी चाहिये। उस मिथ्या ज्ञानयुक्त] 

[बन्ध के कारण भूत अविद्या का लक्षण]

अविद्या का लक्षण है— 

अनित्याशुचिदुःखानात्मसु नित्यशुचिसुखात्मख्यातिरविद्या॥ 

यह योगसूत्र का वचन है [साधनपाद, सू० ५]

जो 'अनित्य' संसार और देहादि में 'नित्य' अर्थात् जो कार्य-जगत् देखा-सुना जाता है, [वह] सदा रहेगा, सदा से है और योगबल से यही देवों का शरीर सदा रहता है, वैसी विपरीत-बुद्धि होना, अविद्या का प्रथमभाग है। अशुचि अर्थात् मलमय स्त्र्यादि के [शरीरों में] और मिथ्याभाषण, चोरी आदि अपवित्र में पवित्र-बुद्धि [करना], दूसरा; अत्यन्त विषयसेवनरूप 'दुःख' में सुखबुद्धि [करना] आदि, तीसरा; 'अनात्मा' में आत्मबुद्धि करना, अविद्या का चौथा भाग है। इस चार प्रकार के विपरीत ज्ञान को 'अविद्या' कहते है।

[विद्या का लक्षण]

इससे विपरीत अर्थात् अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दुःख में दुःख, सुख में सुख, अनात्मा में अनात्मा और आत्मा में आत्मा का ज्ञान होना 'विद्या' है। अर्थात् ‘वेत्ति यथावत् तत्त्वं पदार्थ-स्वरूपं यया सा विद्या, यया तत्त्वस्वरूपं न जानाति भ्रमादन्यस्मिन्नन्यन्निश्चिनोति साऽविद्या।’= जिससे पदार्थों का यथार्थ स्वरूप बोध होवे, वह 'विद्या' और जिससे तत्त्वस्वरूप न जान पड़े, अन्य में अन्य-बुद्धि होवे, वह 'अविद्या' कहाती है।

[मन्त्रस्थ 'अविद्या' शब्द का अर्थ]

अर्थात् 'कर्म और उपासना' 'अविद्या' इसलिये है कि यह बाह्य और आन्तर-क्रियाविशेष नाम है, ज्ञानविशेष का नहीं। इसी से मन्त्र में कहा है कि विना 'शुद्ध कर्म' और 'परमेश्वर की [शुद्ध] उपासना' के मृत्यु-दुःख से पार कोई नहीं होता, अर्थात् पवित्र कर्म, पवित्र-उपासना और पवित्र ज्ञान से ही मुक्ति और अपवित्र मिथ्याभाषणादि कर्म, पाषाणमूर्त्त्यादि की उपासना और मिथ्याज्ञान से 'बन्ध' होता है। कोई भी मनुष्य क्षणमात्र भी कर्म, उपासना और ज्ञान से रहित नहीं होता। इसलिये धर्मयुक्त सत्य-भाषणादि कर्म करना और मिथ्याभाषणादि अधर्म को छोड़ देना मुक्ति का साधन है। 

[बन्ध-मोक्ष विषयक नवीन वेदान्त-मत की समीक्षा]

प्रश्न―मुक्ति किसको प्राप्त नहीं होती?


उत्तर―जो बद्ध है! 


प्रश्न―बद्ध कौन है?


उत्तर―जो अधर्म-अज्ञान में फसा हुआ जीव है। 


प्रश्न―बन्ध और मोक्ष स्वभाव से होता है, वा निमित्त से?


उत्तर―निमित्त से; क्योंकि जो स्वभाव से होता तो बन्ध और मुक्ति की निवृत्ति कभी नहीं होती। 


प्रश्न― न निरोधो न चोत्पत्तिर्न बद्धो न च साधकः।

न मुमुक्षुर्न वै मुक्तिरित्येषा परमार्थता॥ 

यह माण्डूक्योपनिषद् पर कारिका है [गौडपादीयकारिका, प्रकरण २। कां० ३२]॥

जीव ब्रह्म होने से वस्तुतः जीव का निरोध अर्थात् न कभी आवरण में आता, न जन्म लेता, न बंधा है और न साधक अर्थात् न कुछ साधना करनेहारा है, न छूटने की इच्छा करता और न इसकी कभी मुक्ति है; क्योंकि जब परमार्थ से 'बन्ध' ही नहीं हुआ तो 'मुक्ति' क्या?


उत्तर―यह नवीन वेदान्तियों का कहना सत्य नहीं; क्योंकि जीव का स्वरूप अल्प होने से आवरण में आता, शरीर के साथ प्रकट होनेरूप जन्म लेता, पापरूप कर्मों के फलभोगरूप बन्धन में फसता, उसके छुड़ाने का साधन करता, दुःख से छूटने की इच्छा करता और दुःखों से छूटकर परमानन्द परमेश्वर को प्राप्त होकर मुक्ति को भी भोगता है। 

[आत्मा के निर्लेपत्व का खण्डन]

प्रश्न―ये सब धर्म देह और अन्तःकरण के हैं, जीव के नहीं; क्योंकि जीव तो पाप-पुण्य से रहित साक्षीमात्र है। शीत-उष्ण-आदि शरीरादि के धर्म हैं, क्षुधा-तृषा प्राण के और हर्ष-शोक मन के धर्म हैं; आत्मा निर्लेप है। 


उत्तर―देह और अन्तःकरण जड़ हैं, उनको शीतोष्ण की प्राप्ति और भोग नहीं है, जैसे पत्थर को शीत और उष्ण का भान वा भोग नहीं हैं। जो चेतन मनुष्यादि प्राणी उसको स्पर्श करते हैं, उन्हीं को शीत-उष्ण का भान और भोग होता है। वैसे [ही] प्राण भी जड़ हैं, न उनको भूख और न पिपासा [लगती है], किन्तु प्राणवाले जीव को क्षुधा-तृषा लगती है। वैसे ही मन भी जड़ है, न उसको हर्ष और न शोक हो सकता है, किन्तु मन से हर्ष-शोक, सुख-दुःख का भोग जीव करता है। जैसे बहिष्करण=श्रोत्रादि इन्द्रियों से अच्छे-बुरे शब्दादि विषयों का ग्रहण करके जीव सुखी-दुःखी होता है, वैसे ही अन्तःकरण अर्थात् मन, बुद्धि, चित्त, अहङ्कार से [क्रमशः] सङ्कल्प-विकल्प, निश्चय, स्मरण और अभिमान का करनेवाला जीव [सुखी-दुःखी होता] है। जैसे तलवार आदि किसी शस्त्र से किसी को मारने वा रक्षा करनेवाले कर्म का कर्त्ता दण्ड और मान्य का भागी होता है, तलवार नहीं होती; वैसे ही देहे, इन्द्रिय, अन्तःकरण और प्राणरूप साधनों से अच्छे-बुरे कर्मों का कर्त्ता जीव सुख-दुःख का भोक्ता होता है। जीव कर्मों का साक्षी नहीं, किन्तु कर्त्ता है। कर्मों का साक्षी तो एक परमात्मा है। जो कर्म का करनेवाला जीव है वही कर्मों में लिप्त होता है; वह साक्षी और ईश्वर नहीं है। 

[जीव ब्रह्म का प्रतिबिम्ब नहीं]

प्रश्न―जीव ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है। जैसे दर्पण के टूटने-फूटने से बिम्ब की कुछ हानि नहीं होती, उसी प्रकार अन्तःकरण में ब्रह्म का प्रतिबिम्ब जीव तब तक है कि जब तक वह 'अन्तःकरणोपाधि' है। जब अन्तःकरण नष्ट हो गया, तब वह जीव मुक्त है। 


उत्तर―यह बालकपन की बात है; क्योंकि प्रतिबिम्ब साकार का साकार में होता है। जैसे मुख और दर्पण आकारवाले हैं और पृथक् भी हैं। जो पृथक् न हो, तो भी प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता। ब्रह्म निराकार, सर्वव्यापक होने से, उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता।


प्रश्न―देखो, गम्भीर, स्वच्छ, स्थिर जल में निराकार और व्यापक आकाश का आभास पड़ता है। इसी प्रकार स्वच्छ अन्तःकरण में परमात्मा का आभास है। इसलिये इसको 'चिदाभास' कहते हैं।


उत्तर―यह बालबुद्धि का मिथ्या-प्रलाप है; क्योंकि आकाश दृश्य [ही] नहीं, तो उसको आंख से कोई भी नहीं देख सकता। जब आकाश से भी स्थूल वायु को आँख से [कोई] नहीं देख सकता, तो आकाश को क्योंकर देख सकेगा?


प्रश्न―यह जो ऊपर को नीला और धुंधला दीखता है, वह आकाश ही नीला [-धुंधला] दीखता है, वा नहीं?


उत्तर―नहीं। 


प्रश्न―तो वह क्या है?


उत्तर―जल, पृथिवी और अग्नि के त्रसरेणु दीखते हैं। उसमें जो नीलता दीखती है वह अधिक जल जो वर्षता है सो वही नीला, जो धुंधलापन दीखता है वह पृथिवी से धूली [आकाश में] उड़कर वायु में घूमती है, वह दीखती है; और उसी का प्रतिबिम्ब जल वा दर्पण में दीखता है; आकाश का कभी नहीं।

[उपाधिभेद से ब्रह्म के ईश्वर और जीव नाम नहीं]

प्रश्न―जैसे घटाकाश, मठाकाश, मेघाकाश और महदाकाश के भेद-व्यवहार में होते हैं, वैसे ही ब्रह्म के ब्रह्माण्ड और अन्तःकरण-उपाधि के भेद से ईश्वर और जीव नाम होता हैं। जब घटादि नष्ट हो जाते हैं, तब महदाकाश ही कहाता है। 


उत्तर―यह भी बात अविद्वानों की है; क्योंकि आकाश कभी छिन्न-भिन्न नहीं होता। व्यवहार में भी ‘घड़ा लाओ’ इत्यादि व्यवहार होते हैं, कोई नहीं कहता कि 'घड़े का आकाश' लाओ। इसलिये यह बात ठीक नहीं। 

[ब्रह्म के कारण अन्तःकरणों में चैतन्य नहीं]

प्रश्न―जैसे समुद्र के बीच में मच्छी, कीड़े और आकाश के बीच में पक्षी आदि घूमते हैं, वैसे ही 'चिदाकाश' ब्रह्म में सब अन्तःकरण घूमते हैं। वे स्वयं तो जड़ हैं, परन्तु सर्वव्यापक परमात्मा की सत्ता से, जैसे कि अग्नि से लोहा [दाहयुक्त और प्रकाशमान होता है] वैसे चेतन हो रहे हैं। जैसे वे चलते-फिरते [हैं], और आकाश तथा ब्रह्म स्थिर है, वैसे जीव को ब्रह्म मानने में कोई भी दोष नहीं आता। 


उत्तर―यह भी तुम्हारा दृष्टान्त सत्य नहीं; क्योंकि जो सर्वव्यापी ब्रह्म सब अन्तःकरणों में प्रकाशमान होकर जीव होता है, तो सर्वज्ञता-आदि गुण उसमें होते हैं वा नहीं? जो कहो कि आवरण होने से सर्वज्ञता नहीं होती, तो कहो कि ब्रह्म आवृत और खण्डित है वा अखण्डित? जो कहो कि अखण्डित है, तो बीच में कोई भी परदा नहीं हो सकता। जब परदा नहीं, तो सर्वज्ञता क्यों नहीं? जो कहो कि अपने स्वरूप को भूलकर अन्तःकरण में ब्रह्म फस गया है, तो ब्रह्म 'नित्य-मुक्त' नहीं। और ब्रह्म अन्तःकरण के साथ चलता है वा नहीं? तो यही कहोगे कि नहीं। जब स्वयं नहीं चलता, तो अन्तःकरण जितना-जितना पूर्व-प्राप्त देश छोड़ता और आगे-आगे जहां-जहां सरकता जायगा, वहां-वहां का ब्रह्म भ्रान्त, अज्ञानी होता जायगा और जितना-जितना छूटता जायगा, वहां-वहां का ज्ञानी, पवित्र और मुक्त होता जायगा। इसी प्रकार सर्वत्र सृष्टि के ब्रह्म को अन्तःकरण बिगाड़ा करेंगे और बन्ध-मुक्ति भी क्षण-क्षण में हुआ करेगी। तुम्हारे कहे प्रमाणे वैसा होता, तो किसी जीव को पूर्व देखे-सुने का स्मरण न होता; क्योंकि जिस ब्रह्म ने देखा वह पृथक् रहा, और दूसरे देश में दूसरे ब्रह्म का सम्बन्ध होता है। जैसे लोहे में अग्नि का ही दाह और प्रकाश है लोहे का नहीं, वैसे अन्तःकरण में चेतनता ब्रह्म की है, जीव की अपनी नहीं; तो ब्रह्म ही कर्ता, भोक्ता, बद्ध और मुक्त हो जायगा; इसलिये जीव सब पृथक्-पृथक् हैं। ब्रह्म जीव, वा जीव ब्रह्म, एक कभी नहीं होते, सदा पृथक्-पृथक् हैं। 

[ब्रह्म में अध्यारोप का खण्डन]

प्रश्न―यह सब 'अध्यारोप'-मात्र है; अर्थात् अन्य वस्तु में अवस्तु का स्थापन करना 'अध्यारोप' कहाता है, वैसे ही ब्रह्म-वस्तु में सब जगत् और इसके व्यवहार का 'अध्यारोप' करने से जिज्ञासु को बोध कराना होता है, वास्तव में सब ब्रह्म ही है। 


उत्तर―'अध्यारोप' का करनेवाला कौन है?


प्रश्न―जीव। 


उत्तर―जीव किसको कहते हैं?


प्रश्न―'अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन' को। 


उत्तर―'अन्तःकरणावच्छिन्न चेतन' दूसरा है, वा वही ब्रह्म है?


प्रश्न―वही ब्रह्म है। 


उत्तर―तो क्या ब्रह्म ने ही अपने में जगत् की झूठी कल्पना कर ली?


प्रश्न―हो, ब्रह्म की इससे क्या हानि है?


उत्तर―जो मिथ्या कल्पना करता है, क्या वह झूठा नहीं होता?


प्रश्न―नहीं; क्योंकि जो मन, वाणी से कल्पित वा कथित है, वह सब झूठा है। 


उत्तर―फिर मन, वाणी से झूठी कल्पना करने और मिथ्या बोलनेवाला ब्रह्म 'कल्पक' और मिथ्यावादी हुआ वा नहीं?


प्रश्न―हो, हमको इष्टापत्ति है। 


उत्तर―वाह रे झूठे वेदान्तियो! तुमने सत्यस्वरूप, सत्यकाम, सत्यसङ्कल्प परमात्मा को भी मिथ्याचारी कर दिया। क्या यह तुम्हारी दुर्गति का कारण नहीं है? किस उपनिषद्, सूत्र वा वेद में लिखा है कि परमेश्वर मिथ्यासङ्कल्प और मिथ्यावादी है? क्योंकि जैसे 'किसी चोर ने कोतवाल को दण्ड दिया' अर्थात् ‘उलटि चोर कोतवाल को दण्डे’ इस कहावत के सदृश तुम्हारी बात हुई। यह तो बात उचित है कि कोतवाल चोर को दण्डे, परन्तु यह बात विपरीत है कि चोर कोतवाल को दण्ड देवे। वैसे ही तुम 'मिथ्यासङ्कल्प' और मिथ्यावादी होकर, वही अपना दोष ब्रह्म में व्यर्थ लगाते हो। जो ब्रह्म मिथ्याज्ञानी, मिथ्यावादी, मिथ्याकारी होवे, तो सब अनन्त ब्रह्म वैसा ही हो जाय, क्योंकि वह एकरस है, सत्यस्वरूप, सत्यमानी, सत्यवादी और सत्यकारी है। ये सब दोष तुम्हारे हैं, ब्रह्म के नहीं। 


जिसको तुम विद्या कहते हो वह अविद्या है और तुम्हारा 'अध्यारोप' भी मिथ्या है, क्योंकि आप ब्रह्म न होकर अपने को ब्रह्म और ब्रह्म को जीव मानना, यह अविद्या और मिथ्याज्ञान नहीं तो क्या है? जो सर्वव्यापक है वह परिच्छिन्न, अज्ञानी [नहीं होता] और बन्ध में कभी नहीं गिरता; क्योंकि अज्ञानी, परिच्छिन्न, एकदेशी अल्प, अल्पज्ञ जीव होता है; सर्वज्ञ, सर्वव्यापी ब्रह्म नहीं।

[मुक्ति और बन्ध का विवेचन]

अब मुक्ति-बन्ध का वर्णन करते हैं― 


प्रश्न―मुक्ति किसको कहते हैं?


उत्तर―‘मुञ्चन्ति पृथग्भवन्ति जना यस्यां सा मुक्तिः’=जिसमें छूट जाना हो, उसका नाम मुक्ति है। 


प्रश्न―किससे छूट जाना?


उत्तर―जिससे छूटने की इच्छा सब जीव करते हैं।


प्रश्न―किससे छूटने की इच्छा करते हैं?


उत्तर―जिससे छूटना चाहते हैं।


प्रश्न―किससे छूटना चाहते हैं?


उत्तर―दुःख से। 


प्रश्न―छूटकर किसको प्राप्त होते और कहां रहते हैं?


उत्तर―सुख को प्राप्त होते और ब्रह्म में रहते हैं।

 [मुक्ति और बन्ध के कारण]

प्रश्न―मुक्ति और बन्ध किन-किन बातों से होते हैं?


उत्तर―परमेश्वर की आज्ञा पालना; अधर्म, अविद्या, कुसङ्ग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहना; और सत्यभाषण, परोपकार, विद्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करना। पूर्वोक्त प्रकार से परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और 'उपासना' अर्थात् योगाभ्यास करना; विद्या पढ़ना-पढ़ाना और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करना; [इनमें भी] सबसे उत्तम साधन उपासना अर्थात् जिसका नाम योगाभ्यास है उसको करना; और जो कुछ करे वह सब पक्षपातरहित न्याय धर्मानुसार ही करे, इत्यादि साधनों से 'मुक्ति' [होती है]; और इनसे विपरीत ईश्वराज्ञा भङ्ग करना आदि कामों से 'बन्ध' होता है। 

[मुक्ति में जीव का ब्रह्म में लय नहीं]

प्रश्न―मुक्ति में जीव का लय होता है, वा विद्यमान रहता है? 


उत्तर―विद्यमान रहता है। 


प्रश्न―कहां रहता है?


उत्तर―ब्रह्म में।


प्रश्न―ब्रह्म कहां है? और वह मुक्त जीव एक ठिकाने रहता है, वा स्वेच्छाचारी होकर सर्वत्र विचरता है?


उत्तर―जो ब्रह्म सर्वत्र पूर्ण है, उसी में मुक्त जीव सर्वत्र अव्याहतगति [रहता है] अर्थात् उसको कहीं रुकावट नहीं [होती। वह] विज्ञान-आनन्द-पूर्वक स्वतन्त्र विचरता है। 

[मुक्ति में जीव स्वाभाविक शक्तियों से आनन्द भोगता है]

प्रश्न―मुक्त जीव का स्थूल शरीर रहता है, वा नहीं?


उत्तर―नहीं रहता। 


प्रश्न―फिर वह सुख अर्थात् आनन्द का भोग कैसे करता है?


उत्तर―उसके सत्य-सङ्कल्पादि स्वाभाविक-गुण-सामर्थ्य सब रहते हैं, भौतिक [शरीर] सङ्ग नहीं रहता। जैसे—


शृण्वन् श्रोत्रं भवति, स्पर्शयन् त्वग्भवति, पश्यन् चक्षुर्भवति, रसयन् रसना भवति, जिघ्रन् घ्राणं भवति, मन्वानो मनो भवति, बोधयन् बुद्धिर्भवति, चेतयँश्चित्तम्भवत्यहङ्कुर्वाणोऽहङ्कारो भवति॥ 

[तुलना―शतपथ कां॰ १४। १। २। १७॥ [छान्दोग्य-उप० अ० ८। खं० १२। प्रवाक ४-५]

मोक्ष में भौतिक शरीर वा इन्द्रियों के गोलक जीव के साथ नहीं रहते, किन्तु अपने स्वाभाविक शुद्ध गुण रहते हैं। जब सुनना चाहता है तब श्रोत्र, स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के सङ्कल्प से चक्षु, स्वाद के अर्थ रसना, गन्ध के लिये घ्राण, सङ्कल्प-विकल्प करते समय मन, निश्चय करने के लिये बुद्धि, स्मरण करने के लिये चित्त और अहङ्कार करने के अर्थ अहङ्काररूप अपनी शक्ति से जीवात्मा मुक्ति में हो जाता है और सङ्कल्प= 'इच्छामात्र शरीर' होता है। जैसे शरीर के आधार में रहकर इन्द्रियों के गोलकों के द्वारा जीव स्वकार्य करता है, वैसे अपनी शक्ति से मुक्ति में सब आनन्द भोग लेता है। 

[चौबीस प्रकार के जीव के सामर्थ्य]

प्रश्न―उसकी शक्ति कै प्रकार की और कितनी है?


उत्तर―मुख्य एक प्रकार की शक्ति है; परन्तु बल, पराक्रम, आकर्षण, प्रेरणा, गति, भाषण, विवेचन, क्रिया, उत्साह, स्मरण, निश्चय, इच्छा, प्रेम, द्वेष, संयोग, विभाग, संयोजक, विभाजक, श्रवण, स्पर्शन, दर्शन, स्वादन और गन्धग्रहण तथा ज्ञान इस २४ चौवीस प्रकार के सामर्थ्ययुक्त जीव है। इससे मुक्ति में भी आनन्द की प्राप्ति [और] भोग करता है। 


जो मुक्ति में जीव का लय होता, तो मुक्ति का सुख कौन भोगता? और जो जीव का लय मानते हैं, वे जीव के नाश को ही मुक्ति समझते हैं; वे तो महामूढ़ हैं। क्योंकि मुक्ति जीव की यह है कि दुःखों से छूटकर आनन्दस्वरूप, सर्वव्यापक, अनन्त परमेश्वर में जीव का आनन्द में रहना। देखो, 'वेदान्त'=शारीरक सूत्रों में—

[मुक्ति में जीव तथा मन आदि का अस्तित्व]

अभावं बादरिराह ह्येवम्। 

[वेदान्त०, अ० ४। पा० ४। सू० १०]


जो बादरि, व्यास जी का पिता है, वह मुक्ति में [भौतिक सूक्ष्म शरीर, प्राणों और इन्द्रियों का अभाव मानता है और], जीव और उसके साथ मन का भाव मानता है; अर्थात् जीव और मन का लय पराशर जी नहीं मानते हैं। वैसे ही—


भावं जैमिनिर्विकल्पामननात्। 

[वेदान्त०, अ० ४। पा० ४। सू० ११]॥


और जैमिनि आचार्य मुक्तपुरुष के, मन के समान सूक्ष्म शरीर, इन्द्रियों, प्राणों आदि को भी विद्यमान मानते हैं, अभाव नहीं। 


द्वादशाहवदुभयविधं बादरायणोऽतः॥

 [वेदान्त०, अ० ४। पा० ४। सू० १२]॥


व्यास मुनि मुक्ति में भाव और अभाव दोनों मानते हैं, अर्थात् दोष=अविद्यादि क्लेशों का अभाव और जीव, अन्तःकरण, आनन्द, प्राणों, इन्द्रियों का शुद्ध भाव रहता है; अर्थात् शुद्ध सामर्थ्ययुक्त जीव मुक्ति में बना रहता है। 


यदा पञ्चावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह। 

बुद्धिश्च न विचेष्टते तामाहुः परमां गतिम्॥ 

यह उपनिषद् का वचन है [कठ० अ० २। वल्ली ६। मं० १०] 


जब शुद्ध मन के साथ पाँच ज्ञानेन्द्रियां जीव के साथ रहती हैं और बुद्धि का निश्चय स्थिर होता है, उसको परमगति अर्थात् मोक्ष कहते हैं। 


य आत्मा-अपहतपाप्मा विजरो विमृत्युर्विशोकोविजिघत्सोऽपिपासः सत्यकामः सत्यसङ्कल्पः सोऽन्वेष्टव्यः स विजिज्ञासितव्यः ससर्वांश्च लोकानाप्नोति सर्वांश्च कामान् यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति०॥ 

[छान्दोग्य-उप०, अ० ८। खं० ७। प्रवाक १]॥


स वा एष एतेन दैवेन चक्षुषा मनसैतान् कामान् पश्यन् रमते॥ 

[छान्दोग्य-उप०, अ० ८। खं० १२। प्रवाक ५]


य एते ब्रह्मलोके तं वा एतं देवा आत्मानमुपासते तस्मात्तेषांᳬ सर्वे च लोका आत्ताः सर्वे च कामाः स सर्वांश्च लोकानाप्नोति सर्वांश्च कामान् यस्तमात्मानमनुविद्य विजानातीति०॥

 [छान्दोग्य-उप०, अ० ८। खं० १२। प्रवाक ६]॥

मघवन्मर्त्यं वा इदꣳ शरीरमात्तं मृत्युना तदस्याऽमृतस्याऽशरीरस्यात्मनोऽधिष्ठानमात्तो वै सशरीरः प्रियाप्रियाभ्यां न वै सशरीरस्य सतः प्रियाप्रिययोरपहतिरस्त्यशरीरं वाव सन्तं न प्रियाप्रिये स्पृशतः॥ 

[छान्दोग्य-उप०, अ० ८। खं० १२। प्रवाक १]॥


जो परमात्मा अपहतपाप्मा [है, और], सर्वपाप, जरा, मृत्यु, शोक, क्षुधा, पिपासा से रहित, सत्यकाम, सत्यसंकल्प है, उसकी खोज और उसी को जानने की इच्छा करनी चाहिये। जिस परमात्मा के सम्बन्ध से मुक्त जीव सब लोकों और सब कामों को प्राप्त होता है, जो परमात्मा को जानके मोक्ष के साधन और अपने को शुद्ध करना जानता है॥ सो यह मुक्ति को प्राप्त जीव शुद्ध-दिव्य नेत्र और शुद्ध मन से कामों को देखता, प्राप्त होता हुआ रमण करता है॥ 


जो ये ब्रह्मलोक अर्थात् दर्शनीय परमात्मा में स्थित होके मोक्ष-सुख को भोगते हैं, और उसी परमात्मा का जो कि सबका अन्तर्यामी आत्मा है, उसकी उपासना मुक्ति की प्राप्ति करनेवाले विद्वान् लोग करते हैं, उससे उनको सब लोक और सब काम प्राप्त होते हैं। अर्थात् जो-जो संकल्प करते हैं, वह-वह लोक और वह-वह काम प्राप्त होता है और वे मुक्त जीव स्थूल शरीर छोड़कर सङ्कल्पमय शरीर से आकाश में, परमेश्वर में विचरते हैं; क्योंकि जो शरीरवाले होते हैं, वे सांसारिक दुःख से रहित नहीं हो सकते॥


जैसे इन्द्र से प्रजापति ने कहा है कि 'हे परमपूजित धनयुक्त पुरुष! यह स्थूल शरीर मरणधर्मा है और जैसे सिंह के मुख में बकरी होवे, वैसे यह शरीर मृत्यु के मुख के बीच है। सो शरीर इस 'मरण और शरीर-रहित' जीवात्मा का निवासस्थान है। इसीलिये यह जीव सुख और दुःख से सदा ग्रस्त रहता है। क्योंकि शरीरसहित जीव की सांसारिक प्रसन्नता-अप्रसन्नता की निवृत्ति नहीं होती और जो शरीररहित मुक्त जीवात्मा ब्रह्म में रहता है, उसको सांसारिक सुख-दुःख का स्पर्श भी नहीं होता, किन्तु सदा आनन्द में रहता है। 

[मुक्ति से पुनरावृत्ति]

प्रश्न―जीव मुक्ति को प्राप्त होकर पुनः जन्म-मरणरूप दुःख में कभी आते हैं, वा नहीं? क्योंकि—

न च पुनरावर्त्तते न च पुनरावर्त्तत इति॥

उपनिषद्वचनम् [छान्दोग्य-उप०, अ० ८। खं० १५। प्र० १]॥ 

अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात्॥

शारीरकसूत्र [वेदान्त०, अ० ४। पा० ४। सू० २२]॥ 

यद् गत्वा न निवर्त्तन्ते तद्धाम परमं मम॥

भगवद्गीता [अ० १५। श्लोक० ६]॥

इत्यादि वचनों से विदित होता है कि मुक्ति वही है जिससे निवृत्त होकर पुनः संसार में कभी नहीं आता।


उत्तर―यह बात ठीक नहीं; क्योंकि वेद में इस बात का निषेध किया है—

कस्य॑ नू॒नं क॑त॒मस्या॒मृता॑नां॒ मना॑महे॒ चारु॑ दे॒वस्य॒ नाम॑। 

को नो॑ म॒ह्या अदि॑तये॒ पुन॑र्दात् पि॒तरं॑ च दृ॒शेयं॑ मा॒तरं॑ च॥१॥ 

अ॒ग्नेर्व॒यं प्र॑थ॒मस्या॒मृता॑नां॒ मना॑महे॒ चारु॑ दे॒वस्य॒ नाम॑।

स नो॑ म॒ह्या अदि॑तये॒ पुन॑र्दात् पि॒तरं॑ च दृ॒शेयं॑ मा॒तरं॑ च॥२॥ 

ऋ॰, म॰ १। सूक्त  २४। मं॰ १-२॥ 

इदानीमिव सर्वत्र नात्यन्तोच्छेदः॥३॥ 

सांख्यसूत्र [अ० १। सू० १५९]॥


(प्रश्न)―हम लोग किसका नाम पवित्र जानें? कौन नाशरहित पदार्थों के मध्य में वर्त्तमान देव सदा प्रकाशस्वरूप है, हमको मुक्ति का सुख भुगाकर पुनः इस संसार में जन्म देता और माता तथा पिता का दर्शन कराता है?॥१॥


उत्तर―हम इस स्वप्रकाशस्वरूप, अनादि, सदा-मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जानें, जो हमको मुक्ति में आनन्द भुगाकर पृथिवी में पुनः माता-पिता के सम्बन्ध में जन्म देकर माता-पिता का दर्शन कराता है। वही परमात्मा इस प्रकार मुक्ति की व्यवस्था करता [है और] सबका स्वामी है॥२॥ 


जैसे इस समय बद्ध-मुक्त जीव हैं, वैसे ही सर्वदा रहते हैं। अत्यन्त विच्छेद, 'बन्ध' वा मुक्ति का कभी नहीं होता तथा बन्ध और मुक्ति सदा नहीं रहते॥३॥


प्रश्न―तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः। 

[न्यायसूत्र, अ० १। आ० १। सू० २२]

दुःखजन्मप्रवृत्तिदोषमिथ्याज्ञानानामुत्तरोत्तरापाये तदनन्तरापायादपवर्गः॥ 

न्यायसूत्र, [अ० १। आ० १। सू० २]॥

जो दुःख का अत्यन्त विच्छेद होता है, वही 'मुक्ति' कहाती है।


क्योंकि मिथ्याज्ञान=अविद्या, लोभादि दोष, विषय-दुष्टव्यसनों में प्रवृत्ति, जन्म और दुःख के, [सूत्रोक्त क्रम से] उत्तर-उत्तर के छूटने पर पूर्व-पूर्व के निवृत्त होने से ही 'मोक्ष' होता है, जो कि सदा बना रहता है। 


उत्तर―यह आवश्यक नहीं है कि 'अत्यन्त' शब्द 'अत्यन्ताभाव' का ही नाम होवे। जैसे ‘अत्यन्तं दुःखमत्यन्तं सुखं चास्य वर्त्तते’=अत्यन्त दुःख और अत्यन्त सुख इस मनुष्य को है। इससे यही विदित होता है कि इसको बहुत दुःख वा [बहुत] सुख है। इसी प्रकार यहां भी 'अत्यन्त' शब्द का अर्थ जानना चाहिये। 

[मुक्ति का काल]

प्रश्न―जो मुक्ति से भी जीव फिर आता है, तो वह कितने समय तक मुक्ति में रहता है?


उत्तर―ते ब्रह्मलोके ह परान्तकाले परामृतात् परिमुच्यन्ति सर्वे। 

यह मुण्डक-उपनिषद् का वचन है [३। खं० २। मं ६]

वे मुक्तिप्राप्त लोग ब्रह्म में आनन्द को भोगके 'महाकल्प' के पश्चात् पुनः मुक्ति-सुख को छोड़के संसार में आते हैं। इसकी संख्या यह है कि―तेंतालीस लाख बीस सहस्र वर्षों की एक 'चतुर्युगी', दो सहस्र चतुर्युगियों का एक 'अहोरात्र', ऐसे तीस अहोरात्रों का एक 'महीना', ऐसे बारह महीनों का एक 'वर्ष', ऐसे शत-वर्षों का 'परान्तकाल' होता है। इसको 'गणित' की रीति से यथावत् समझ लीजिये। इतना समय मुक्ति में सुख भोगने का है। 

[मुक्ति से पुनरावृत्ति न होने में अनेक दोष]

प्रश्न―सब संसार और ग्रन्थकारों का यही मत है कि जिससे [जीव] पुनः जन्म-मरण में कभी न आवें, [उसका नाम ही मुक्ति है]


उत्तर―यह बात कभी नहीं हो सकती; क्योंकि प्रथम तो जीवों का सामर्थ्य, शरीरादि पदार्थ और साधन परिमित हैं, पुनः उनका फल अनन्त कैसे हो सकता है? अनन्त आनन्द को भोगने का असीम सामर्थ्य, कर्म और साधन जीवों में नहीं, इसलिये अनन्त सुख नहीं भोग सकते। जिनके साधन अनित्य हैं, उनका फल नित्य कभी नहीं हो सकता। और जो मुक्ति में से लौटकर कोई भी जीव इस संसार में न आवे, तो संसार का 'उच्छेद' अथार्त् जीव निश्शेष हो जाने चाहियें। 


प्रश्न―जितने जीव मुक्त होते हैं, ईश्वर उतने नये जीव उत्पन्न करके संसार में रख देता है, इसलिये निश्शेष नहीं होते।


उत्तर―जो ऐसा होवे तो जीव अनित्य हो जायें; क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है, उसका नाश अवश्य होता है। फिर तुम्हारे मतानुसार मुक्ति पाकर भी विनष्ट हो जायेंगे। [इस प्रकार] मुक्ति भी अनित्य हो गई। और मुक्ति के स्थान में बहुत-सा भीड़-भड़क्का हो जायगा; क्योंकि वहां आगम अधिक और व्यय कुछ भी नहीं होने से बढ़ती का पारावार न रहेगा।


और दुःख के अनुभव के विना, सुख कुछ भी नहीं हो सकता। जैसे कटु न हो, तो मधुर क्या? जो मधुर न हो, तो कटु क्या कहावे? क्योंकि एक स्वाद के दूसरे रस के विरुद्ध होने से दोनों की परीक्षा होती है। जैसे कोई मनुष्य मीठा=मधुर ही खाता=पीता जाय, उसको वैसा सुख नहीं होता, जैसा सब प्रकार के रसों के भोगनेवाले को होता है। 


और जो ईश्वर अन्तवाले कर्मों का अनन्त फल देवे, तो उसका न्याय नष्ट हो जाय। जो जितना भार उठा सके, उतना उसपर धरना बुद्धिमानों का काम है। जैसे एक मन-भार उठानेवाले के शिर पर दश मन धरने से भार धरनेवाले की निन्दा होती है, वैसे अल्पज्ञ, अल्प-सामर्थ्य वाले जीव पर अनन्त सुख का भार धरना, ईश्वर के लिये ठीक नहीं। 


और जो परमेश्वर नये जीव उत्पन्न करता है, तो जिस कारण से उत्पन्न होते हैं, वह चुक जायगा; क्योंकि चाहे कितना ही बड़ा धनकोश हो, परन्तु जिसमें व्यय है और आय नहीं, उसका कभी न कभी दिवाला निकल ही जाता है। इसलिये यही व्यवस्था ठीक है कि मुक्ति में जाना, वहां से पुनः आना ही अच्छा है। क्या थोड़े कारावास से 'जन्म-कारावास' वा 'कालापानी' अथवा 'फांसी' को कोई अच्छा मानता है? जब वहां से आना ही न हो, तो 'जन्म-कारावास' से इतना ही अन्तर है कि वहां मजदूरी नहीं करनी पड़ती। और ब्रह्म में लय होना [मानो] समुद्र में डूब मरना है। 

[जीव ईश्वर के सदृश कभी नहीं होता]

प्रश्न―जैसे परमेश्वर नित्यमुक्त, पूर्ण-सुखी है, वैसे ही जीव भी नित्यमुक्त और सुखी रहेगा तो कोई भी दोष न आवेगा। 


उत्तर―परमेश्वर अनन्त-स्वरूप-सामर्थ्य- गुण-कर्म-स्वभाव-वाला है, इसलिये वह कभी अविद्या और दुःख-बन्धन में नहीं गिर सकता। जीव मुक्त होकर भी शुद्धस्वरूप, अल्पज्ञ और परिमित-गुण-कर्म- स्वभाववाला रहता है, [इसलिये वह] परमेश्वर के सदृश कभी नहीं होता। 

[मुक्ति जन्म-मरण के सदृश नहीं]

प्रश्न―जब ऐसा है, तो मुक्ति भी जन्म-मरण के सदृश हुई। इसके लिये परिश्रम करना व्यर्थ है। 


उत्तर―मुक्ति जन्म-मरण के सदृश नहीं; क्योंकि जब-तक ३६००० (छत्तीस सहस्र) वार [सृष्टि] उत्पत्ति और प्रलय का जितना समय होता है, उतने समय पर्यन्त जीवों का मुक्ति के आनन्द में रहना और दुःख का न होना, क्या छोटी बात है? जब आज खाते-पीते हो, कल भूख लगनेवाली है, पुनः इसका उपाय क्यों करते हो? जब क्षुधा, तृषा, क्षुद्र धन, राज्य, प्रतिष्ठा, स्त्री, सन्तान आदि के लिये उपाय करना आवश्यक है, तो मुक्ति के लिये क्यों न करना? जैसे मरना अवश्य है, तो भी जीवन का उपाय किया जाता है, वैसे ही मुक्ति से लौटकर जन्म में आना है, तथापि उसका उपाय करना अत्यावश्यक है? 

['साधन चतुष्टय' अर्थात् मुक्ति के चार साधन]

प्रश्न―मुक्ति के क्या-क्या साधन हैं? 


उत्तर―कुछ साधन तो प्रथम लिख आये हैं, परन्तु विशेष उपाय ये हैं―जो मुक्ति चाहे वह 'जीवन्मुक्त' अर्थात् जिन मिथ्याभाषणादि पाप-कर्मों का फल दुःख है उनको छोड़, सुखरूप फल को देनेवाले सत्यभाषणादि धर्माचरण अवश्य करे। जो कोई दुःख को छुड़ाना और सुख को प्राप्त होना चाहे, वह अधर्म को छोड़, धर्म अवश्य करे; क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का 'धर्माचरण' मूल कारण है। 

[मुक्ति का प्रथम साधन-विवेक]

[१. पहला साधन, विवेक से सत्यासत्य निर्णय और पंचकोषादि-विवेचन―] सत्पुरुषों के संग से 'विवेक' अर्थात् सत्यासत्य, धर्माधर्म, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निश्चय अवश्य करें, [उनको] पृथक्-पृथक् जानें; और 'शरीर' अर्थात् 'जीव के पंचकोषों' का विवेचन करें―

[पंचकोष-] एक―‘अन्नमय’―जो त्वचा से लेकर अस्थिपर्यन्त का समुदाय पृथिवीमय है। दूसरा―‘प्राणमय’ जिसमें ‘प्राण’ अर्थात् जो भीतर से बाहर जाता, ‘अपान’ जो बाहर से भीतर आता, ‘समान’ जो नाभिस्थ होकर सर्वत्र शरीर में रस पहुँचाता, ‘उदान’ जिससे कंठस्थ अन्न-पान खैंचा जाता और बल-पराक्रम होता है, ‘व्यान’ जिससे सब शरीर में चेष्टा आदि कर्म जीव करता है। तीसरा―‘मनोमय’―जिसमें मन के साथ अहङ्कार [और] वाक्, पाद, पाणि, पायु और उपस्थ पांच कर्म-इन्द्रियाँ हैं। चौथा―‘विज्ञानमय’ जिसमें बुद्धि, चित्त [और] श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा और नासिका ये पांच ज्ञान-इन्द्रियाँ [हैं], जिनसे जीव ज्ञानादि व्यवहार करता है। पाँचवाँ―‘आनन्दमयकोष’= जिसमें प्रीति, प्रसन्नता, न्यून आनन्द, अधिकानन्द, 'ब्रह्म-आनन्द', और [उसका] आधाररूप= कारणरूप प्रकृति [=कारणशरीर] है। ये 'पांच कोष' कहाते हैं। इन्हीं से जीव सब प्रकार के कर्म, उपासना और ज्ञानादि व्यवहारों को करता है।


तीन अवस्थायें ये हैं—एक ‘जागृत’ दूसरी ‘स्वप्न’ और तीसरी ‘सुषुप्ति’ अवस्था कहाती है। 


तीन शरीर हैं—एक―‘स्थूल’ जो यह दीखता है। दूसरा―पांच प्राण, पांच ज्ञानेन्द्रिय, पांच सूक्ष्म-भूत और मन तथा बुद्धि इन सत्तरह तत्त्वों का समुदाय ‘सूक्ष्मशरीर’ कहाता है। यह सूक्ष्मशरीर जन्ममरणादि में भी जीव के साथ रहता है। इसके दो भेद हैं— एक 'भौतिक' अर्थात् जो सूक्ष्म-भूतों के अंशों से बना है। दूसरा 'स्वाभाविक' जो जीव का स्वाभाविक गुणरूप है। यह दूसरा [स्वाभाविक=] 'अभौतिक शरीर' मुक्ति में भी रहता है। इसी से जीव मुक्ति में सुख को भोगता है। तीसरा कारण―जिसमें सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है, वह प्रकृतिरूप होने से सर्वत्र विभु और सब जीवों के लिये एक है। [किन्हीं के मत में इसका एक अन्य भेद] चौथा 'तुरीय शरीर' कहाता है―जिसमें जीव समाधि से परमात्मा के आनन्दस्वरूप में मग्न होते हैं। इसी समाधि-संस्कारजन्य 'शुद्ध शरीर' का पराक्रम मुक्ति में भी यथावत् सहायक रहता है। 


इन सब कोषों और अवस्थाओं से जीव पृथक् है। क्योंकि जब मृत्यु होता है, तब सब कोई कहते हैं कि जीव निकल गया। यही जीव सबका प्रेरक, सबका धर्त्ता, साक्षी, कर्त्ता, भोक्ता कहाता है। जो कोई ऐसा कहे कि जीव कर्त्ता-भोक्ता नहीं, तो उसको जानो कि वह अज्ञानी, अविवेकी है; क्योंकि विना जीव के जो ये सब जड़ पदार्थ हैं, इनको सुख-दुःख का भोग वा पुण्य-पाप-कर्तृत्व कभी नहीं हो सकता। हां, इनके सम्बन्ध से जीव पुण्य-पापों का कर्त्ता और सुख-दुःखों का भोक्ता है।


जब इन्द्रियां अर्थों में, मन इन्द्रियों और आत्मा मन के साथ संयुक्त होकर प्राणों को प्रेरणा करके अच्छे वा बुरे कर्मों में लगता है, तभी वह बहिर्मुख हो जाता है। उसी समय भीतर से [अच्छे कर्मों में] आनन्द, उत्साह, निर्भयता और बुरे कर्मों में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न होती है, वह अन्तर्यामी परमात्मा की शिक्षा है। जो कोई इस शिक्षा के अनुकूल वर्तता है, वही मुक्तिजन्य सुखों को प्राप्त होता है और जो विपरीत वर्तता है, वह बन्धजन्य दुःख भोगता है।

[मुक्ति का द्वितीय साधन- वैराग्य]

[२] दूसरा साधन ―‘वैराग्य’ अर्थात् जो विवेक से सत्यासत्य को जाना हो, उसमें से सत्याचरण का ग्रहण और असत्याचरण का त्याग करना।


विवेक यह है कि जो पृथिवी से लेकर परमेश्वर-पर्यन्त पदार्थों को गुण-कर्म-स्वभाव से जानकर परमेश्वर की आज्ञा का पालन और उपासना में तत्पर होना, उससे विरुद्ध न चलना। सृष्टि से उपकार लेना [भी] विवेक कहाता है।

[मुक्ति का तृतीय साधन षट्क सम्पत्ति]

[३] तत्पश्चात् तीसरा साधन—‘षट्क सम्पत्ति’ अर्थात् छः प्रकार के कर्म करना। एक―‘शम’=जिससे अपने आत्मा और अन्तःकरण को अधर्माचरण से हटाकर, धर्माचरण में सदा प्रवृत्त रखना। दूसरा―‘दम’=जिससे श्रोत्रादि इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचारादि बुरे कर्मों से हटाकर, जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मों में प्रवृत्त रखना। तीसरा―‘उपरति’=जिससे दुष्ट कर्म करनेवाले पुरुषों से सदा दूर रहना। चौथा―‘तितिक्षा’=चाहे निन्दा- स्तुति, हानि-लाभ कितना ही क्यों न हो, परन्तु हर्ष-शोक को छोड़, मुक्तिसाधनों में सदा लगे रहना। पाँचवाँ―‘श्रद्धा’=जो वेदादि सत्य-शास्त्रों और इनके बोध से पूर्ण आप्त विद्वान्, सत्योपदेष्टा महाशयों के वचनों पर विश्वास करना। छठा―‘समाधान’=चित्त की एकाग्रता। ये छः मिलकर एक साधन तीसरा कहाता है।

[मुक्ति का चतुर्थ साधन ‘मुमुक्षुत्व’]

[४] चौथा [साधन]―‘मुमुक्षुत्व’ अर्थात् जैसे क्षुधा-तृषातुर को सिवाय अन्न-जल के दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता, वैसे विना मुक्ति के साधन और मुक्ति के, दूसरे में प्रीति न होना। ये चार साधन हैं।

[अनुबन्ध-चतुष्टय]

और चार 'अनुबन्ध' अर्थात् साधनों के पश्चात् ये कर्म करने होते हैं―


[प्रथम, अधिकारी―] इनमें से जो इन चार साधनों से युक्त पुरुष होता है, वही मोक्ष का 'अधिकारी' होता है। 

दूसरा, ‘सम्बन्ध’―ब्रह्म की प्राप्तिरूप मुक्ति प्रतिपाद्य और वेदादि-शास्त्र- प्रतिपादक को यथावत् समझकर अन्वित करना।  

तीसरा, ‘विषय’―सब शास्त्रों का प्रतिपादन-विषय ब्रह्म और उसकी प्राप्तिरूप विषयवाले पुरुष का नाम विषयी है। 

चौथा, ‘प्रयोजन’―सब दुःखों की निवृत्ति और परमानन्द को प्राप्त होकर मुक्ति-सुख का होना। ये चार 'अनुबन्ध' कहाते हैं।

[श्रवण-चतुष्टय]

तदनन्तर ‘श्रवणचतुष्टय’―एक ‘श्रवण’ ―जब कोई विद्वान् उपदेश करे तब शान्त [हो], ध्यान देकर सुनना। विशेषतः 'ब्रह्मविद्या' के सुनने में अत्यन्त ध्यान देना चाहिये, क्योंकि यह सब विद्याओं में सूक्ष्म विद्या है। [उसको] सुनकर, दूसरा ‘मनन’―एकान्त देश में बैठके सुने हुए का विचार करना, जिस बात में शङ्का हो [उसको] पुनः पूछना, और सुनते समय भी वक्ता और श्रोता उचित समझें तो पूछना और समाधान करना। तीसरा ‘निदिध्यासन’―जब सुनने और मनन करने से निःसन्देह हो जाय तब समाधिस्थ होकर उस बात को ध्यान-योग से देखना-समझना कि वह जैसा सुना या विचारा था, वैसा है वा नहीं। चौथा ‘साक्षात्कार’―अर्थात् जैसा पदार्थ का स्वरूप, गुण और स्वभाव हो, वैसा याथातथ्य जान लेना। यह ‘श्रवणचतुष्टय’ कहाता है। 

[मुक्ति के अन्य साधन]

[अन्य साधन―] सदा 'तमोगुण' अर्थात् क्रोध, मलीनता, आलस्य, प्रमाद, आदि; 'रजोगुण' अर्थात् ईर्ष्या, द्वेष, काम, अभिमान, विक्षेप आदि दोषों से अलग होके 'सत्त्व' अर्थात् शान्त प्रकृति, पवित्रता, विद्या, विचारशीलता आदि गुणों को धारण करे। 


["मैत्री करुणामुदितोपेक्षाणाम्०"]

 योगदर्शन १। ३३]


(मैत्री) सुखी जनों में मित्रता, (करुणा) दुःखी जनों पर दया, (मुदिता) पुण्यात्माओं से हर्षित होना, (उपेक्षा) दुष्टात्माओं में न प्रीति और न वैर करना।


नित्यप्रति न्यून से न्यून दो घण्टा-पर्यन्त मुमुक्षु ध्यान अवश्य करे, जिससे भीतर के मन आदि पदार्थ साक्षात् हों।

[आत्मा शरीर से पृथक् है]

देखो, अपने चेतनस्वरूप हैं; इसी से ज्ञानस्वरूप और मन के साक्षी हैं; क्योंकि जब मन शान्त, चञ्चल, आनन्दित वा विषादयुक्त होता है, उसको यथावत् देखते हैं। वैसे ही इन्द्रियों, प्राणों आदि का ज्ञाता, पूर्वदृष्‍ट के स्मरणकर्त्ता और एक काल में अनेक पदार्थों के वेत्ता, धारण-आकर्षण- कर्त्ता और सबसे पृथक् हैं। जो पृथक् न होते तो स्वतन्त्र कर्त्ता, इनके प्रेरक, अधिष्ठाता कभी नहीं हो सकते।

[पाँच प्रकार के क्लेश]

अविद्याऽस्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः पञ्च क्लेशाः। 

योगशास्त्रे पाद २। सू॰ ३॥ 


इनमें से 'अविद्या' का स्वरूप कह आये। पृथक् वर्त्तमान बुद्धि को आत्मा से भिन्न न समझना 'अस्मिता', सुख में प्रीति 'राग', दुःख में अप्रीति 'द्वेष', और सब प्राणिमात्र को यह इच्छा सदा रहती है [कि] ‘मैं सदा शरीरस्थ रहूं, मरूं नहीं’, इस मृत्यु-दुःख से त्रास 'अभिनिवेश' कहाता है। इन पांच क्लेशों को योगाभ्यास और विज्ञान से छुड़ाके, ब्रह्म को प्राप्त होके, मुक्ति के परमानन्द को भोगना चाहिये। 

[तथा कथित मुक्तियों की आलोचना]

प्रश्न―जैसी मुक्ति आप मानते हैं, वैसी अन्य कोई नहीं मानता। देखो, जैनी लोग मोक्षशिला और शिवपुर में जाके चुप-चाप बैठे रहना; ईसाई चौथे आसमान, जिसमें विवाह, लड़ाई [होना], बाजे-गाजे, वस्त्रादि-धारण से आनन्द भोगना; वैसे ही मुसलमान सातवें आसमान; वाममार्गी श्रीपुर; शैव कैलाश; वैष्णव वैकुण्ठ और गोकुलिये गोसांई गोलोक आदि में जाकर उत्तम स्त्री, अन्न, पान, वस्त्र, स्थान आदि को प्राप्त होकर आनन्द में रहने को मुक्ति मानते हैं। पौराणिक लोग सालोक्य=ईश्वर के लोक में निवास, सानुज्य=छोटे भाई के सदृश ईश्वर के साथ रहना, [वा] सारूप्य=जैसी उपासनीय देव की आकृति है, वैसा बन जाना, सामीप्य=सेवक के समान ईश्वर के समीप रहना, सायुज्य= ईश्वर से संयुक्त हो जाना; ये चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं। वेदान्ती लोग ब्रह्म में लय होने को मोक्ष समझते हैं। 


उत्तर―जैनियों की बारहवें, ईसाइयों की तेरहवें और चौदहवें समुल्लास में मुसलमानों की मुक्ति आदि का विषय विशेषकर लिखेंगे। जो वाममार्गी श्रीपुर में जाकर लक्ष्मी के सदृश स्त्रियाँ, [प्राप्त होना] मद्य-मांसादि खाना-पीना, रंग-राग भोग करना मानते हैं, वह यहाँ से कुछ विशेष नहीं। वैसे ही महादेव और विष्णु के सदृश आकृतिवाले [तथा] पार्वती और लक्ष्मी के सदृश स्त्रीयुक्त होकर आनन्द भोगना [आदि को मुक्ति मानते हैं। वे] यहां के धनाढ्य राजाओं से अधिक इतना ही लिखते हैं कि 'वहां रोग न होंगे और युवावस्था रहेगी'। यह उनकी बात मिथ्या है; क्योंकि जहां भोग वहां रोग, जहां रोग वहाँ वृद्धावस्था अवश्य होती है। 


और पौराणिकों से पूछना चाहिये कि जैसी तुम्हारी चार प्रकार की मुक्ति है, वैसी तो कृमि-कीट-पतङ्ग-पश्वादिकों को भी स्वतःसिद्ध [और] प्राप्त है; क्योंकि ये जितने लोक हैं वे सब ईश्वर के हैं, इन्हीं में सब जीव रहते हैं, इसलिये ‘सालोक्य’ मुक्ति अनायास प्राप्त है। ‘सामीप्य’― ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने से सब उसके समीप हैं, इसलिये ‘सामीप्य’ मुक्ति स्वतःसिद्ध है। ‘सानुज्य’―जीव ईश्वर से सब प्रकार छोटा और चेतन होने से स्वतः बन्धुवत् है, इससे ‘सानुज्य’ मुक्ति भी विना प्रयत्न के सिद्ध है। और सब जीव सर्वव्यापक परमात्मा में व्याप्य होने से संयुक्त हैं, इससे ‘सायुज्य’ मुक्ति भी स्वतःसिद्ध है। 


और जो अन्य साधारण 'नास्तिक लोग' मरने पर तत्त्वों में तत्त्व मिलने को मुक्ति मानते हैं, वह तो कुत्ते, गधे आदि को भी प्राप्त है। 


ये मुक्तियां नहीं हैं किन्तु एक प्रकार का बन्धन हैं; क्योंकि ये लोग शिवपुर, मोक्षशिला, चौथे आसमान, सातवें आसमान, श्रीपुर, कैलाश, वैकुण्ठ, गोलोक को एकदेश में स्थान-विशेष मानते हैं। जो वे उन स्थानों से पृथक् हों, तो मुक्ति छूट जाय। इसीलिये जैसे 'बारह पत्थर के भीतर दृष्टिबन्ध' होते हैं, उसके समान बन्धन में होंगे। मुक्ति तो यही है कि जहां इच्छा हो वहां विचरे, कहीं अटके नहीं, न भय, न शङ्का, न दुःख होता है। जो जन्म है वह 'उत्पत्ति' और मरना 'प्रलय' कहा है। समय पर [पुनः] जन्म लेते हैं। 

[पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं होता]

प्रश्न―जन्म एक है वा अनेक?


उत्तर―अनेक।


प्रश्न―जो अनेक हों, तो पूर्व जन्म और मृत्यु की बातों का स्मरण क्यों नहीं? 


उत्तर―जीव अल्पज्ञ है, त्रिकालदर्शी नहीं, इसलिये स्मरण नहीं रहता। और जिस मन से ज्ञान करता है, वह भी एक समय में दो ज्ञान नहीं कर सकता। भला, पूर्व जन्म की बात तो दूर रहने दीजिये, इसी देह में जब गर्भ में जीव था, शरीर बना, पश्चात् जन्मा, पाँचवें वर्ष से पूर्व तक जो-जो बातें हुई हैं, उनका स्मरण क्यों नहीं कर सकता? और जाग्रत वा स्वप्न में बहुत-सा व्यवहार प्रत्यक्ष करके जब सुषुप्ति अर्थात् गाढ़ निद्रा होती है, तब जाग्रतादि के व्यवहार का स्मरण क्यों नहीं कर सकता? और तुमसे कोई पूछे कि बारह वर्ष के पूर्व तेरहवें वर्ष के पाँचवें महीने के नवमे दिन दस बजे पर पहली मिनट में तुमने क्या किया था? तुम्हारा मुख, हाथ, कान, शरीर किस ओर, किस प्रकार का था? और मन में क्या विचार था? जब इसी शरीर में ऐसा है, तो पूर्व-जन्म की बातों के स्मरण में शङ्का करना केवल लड़केपन की बात है। 


और जो स्मरण नहीं होता है, इसी से जीव सुखी है; नहीं तो सब जन्मों के दुःखों को देख-देखकर दुखित होकर मर जाता। जो कोई पूर्व और पीछे जन्म के वर्तमान को जानना चाहे, तो भी नहीं जान सकता; क्योंकि जीव का ज्ञान और स्वरूप अल्प है। यह बात ईश्वर के जानने योग्य है, जीव के नहीं।

[पूर्व जन्म के विस्मृत कर्मों का फल देना निरर्थक नहीं]

प्रश्न―जब जीव को पूर्व [किये पापों] का ज्ञान नहीं और ईश्वर उनको दण्ड देता है, तो जीवों का सुधार नहीं हो सकता; क्योंकि यदि उनके पापकर्मों को जानकर दण्ड देवे [अर्थात्] उनको ज्ञान हो कि हमने अमुक काम किया था, उसी का यह फल है, तभी वे जीव उन बुरे कर्मों से बच सकें।


उत्तर―तुम ज्ञान कै प्रकार का मानते हो? 


प्रश्न―प्रत्यक्षादि प्रमाणों से आठ प्रकार का। 


उत्तर―तो तुम जन्म से लेकर समय-समय में [प्राप्त] राज्य, धन, बुद्धि, विद्या, [तथा] दारिद्र्य, निर्बुद्धिता, मूर्खता आदि सुख-दुःख संसार में देखकर पूर्व-जन्म का ज्ञान क्यों नहीं करते? जैसे एक अवैद्य और एक वैद्य को कोई रोग हो, उसका निदान अर्थात् कारण वैद्य जान लेता [है] और अवैद्य नहीं जान सकता। उसने 'वैद्यकविद्या' पढ़ी है और दूसरे ने नहीं। परन्तु ज्वरादि रोग के होने से अवैद्य भी इतना जान सकता है कि मुझसे कोई कुपथ्य हो गया है, जिससे मुझे यह रोग हुआ है। वैसे ही जगत् में सुख-दुःख आदि की विचित्र घटती-बढ़ती देखके पूर्वजन्म को अनुमान से क्यों नहीं जान लेते? और जो पूर्वजन्म को न मानोगे, तो परमेश्वर पक्षपाती हो जाता है; क्योंकि विना पाप के दारिद्र्यादि दुःख और विना पूर्वसञ्चित पुण्य के राज्य, धनाढ्यता और बुद्धि उसको क्यों दी? और पूर्वजन्म के पाप-पुण्य के अनुसार दुःख-सुख के देने से परमेश्वर न्यायकारी यथावत् रहता है।


प्रश्न―एक जन्म होने से भी परमेश्वर न्यायकारी हो सकता है। जैसे, सर्वोपरि राजा जो करे सो न्याय। जैसे, माली अपने उपवन में छोटे और बड़े वृक्ष लगाता, किसी को काटता, उखाड़ता और किसी की रक्षा करता, बढ़ाता है। जिसका जो वस्तु है, उसको वह चाहे जैसे रक्खे। उसके ऊपर कोई भी दूसरा न्याय करनेवाला नहीं, जो उसको दण्ड दे सके, वा ईश्वर, [जो] किसी से डरे। 


उत्तर―परमात्मा जिसलिये न्याय चाहता [है, अतः] करता है; अन्याय कभी नहीं करता। इसीलिये वह पूजनीय और बड़ा है। जो न्यायविरुद्ध करे, वह ईश्वर ही नहीं। जैसे माली युक्ति के विना, सड़क में अथवा अस्थान में वृक्ष लगाने, न काटने योग्य को काटने, अयोग्य को बढ़ाने, योग्य को न बढ़ाने से दूषित होता है, इसी प्रकार विना कारण के [अन्याय] करने से ईश्वर को दोष लगे। परमेश्वर के लिये न्याययुक्त काम करना आवश्यक है, क्योंकि वह स्वभाव से पवित्र और न्यायकारी है। जो उन्मत्त के समान काम करे तो जगत् के अश्रेष्ठ न्यायाधीश से भी न्यून और अप्रतिष्ठित होवे। क्या इस जगत् में विना योग्यता के और विना उत्तम काम किये प्रतिष्ठा और दुष्ट काम किये विना दण्ड देनेवाला निन्दनीय [और] अप्रतिष्ठित नहीं होता? इसीलिये ईश्वर अन्याय नहीं करता, इसी से किसी से नहीं डरता।

[कर्मानुसार ही भोगादि]

प्रश्न―परमात्मा ने प्रथम से ही जिसके लिये जितना देना विचारा है, उतना देता और जितना कम करना है, उतना कम करता है। 


उत्तर―उसका विचार जीवों के कर्मानुसार होता है, अन्यथा नहीं। जो अन्यथा हो, तो वही अपराधी और अन्यायकारी होवे। 


प्रश्न―बड़ों और छोटों को एक-सा ही सुख-दुःख है। बड़ों को बड़ी चिन्ता और छोटों को छोटी। जैसे, किसी साहूकार का विवाद राजघर में लाख रुपयों का हो, तो वह अपने घर से पालकी में बैठकर कचहरी में उष्णकाल में जाता हो। बाजार में होके उसको जाता देखकर अज्ञानी लोग कहते हैं कि―'देखो, पूर्वजन्म के पुण्य और पाप का प्रत्यक्ष फल यही है कि एक पालकी में आनन्दपूर्वक बैठा है और दूसरे विना जूते पहरे ऊपर-नीचे से तप्यमान होते हुए पालकी को उठाकर ले जाते हैं।' परन्तु बुद्धिमान् लोग इसमें यह जानते हैं कि जैसे-जैसे कचहरी निकट आती जाती है, वैसे-वैसे साहूकार को बड़ा शोक और सन्देह बढ़ता जाता और कहारों को आनन्द होता है। जब कचहरी में पहुंचते हैं तब सेठ जी इधर-उधर जाने का विचार करते हैं कि प्राड्विवाक् (=वकील) के पास जाऊं वा सरिश्तःदार के पास? आज हारूंगा वा जीतूंगा, न जाने क्या होगा? और कहार लोग तमाखू पीते, और प्रसन्न होकर आनन्द में सोते हैं। जो वह जीत जाये तो कुछ सुख और जो हार जाये तो सेठ जी दुःखसागर में डूब जायें और वे कहार जैसे के तैसे रहते हैं।


इसी प्रकार जब राजा सुन्दर कोमल बिछौने पर सोता है तो भी शीघ्र निद्रा नहीं आती और मजूर कंकर, पत्थर, मिट्टी, और ऊंचे-नीचे स्थल पर सोता है, उसको झट निद्रा आती है। वैसे सर्वत्र समझ लो। 


उत्तर―यह समझ अज्ञानियों की है। क्या किसी साहूकार से कहें कि 'तू कहार बन जा' और कहार से कहें कि 'तू साहूकार बन जा', तो साहूकार कभी कहार बनना नहीं [चाहता] और कहार साहूकार बनना चाहता है। जो सुख-दुःख बराबर होता तो अपनी-अपनी अवस्था छोड़ नीच और ऊँच बनना दोनों न चाहते? 


देखो, एक जीव विद्वान्, पुण्यात्मा, श्रीमान् राजा की राणी के गर्भ में आता है और दूसरा महादरिद्र घसियारी के गर्भ में आता है। एक को गर्भ से लेकर सर्वथा सुख और दूसरे को सब प्रकार दुःख मिलता है। पहला जब जन्मता है, युक्ति से नाड़ी-छेदन, सुन्दर-सुगन्धियुक्त जलादि से स्नान, दुग्धपानादि यथायोग्य प्राप्त होते हैं। जब वह दूध पीना चाहता है तो उसके साथ मिश्री आदि मिलाकर यथेष्ट मिलता है। उसको प्रसन्न रखने के लिये नौकर-चाकर, खिलौने, सवारी [होते हैं] उत्तम स्थानों में लाड़ से आनन्द होता है। दूसरे का जन्म जंगल में होता, स्नान के लिये जल भी नहीं मिलता। जब दूध पीना चाहता, तब दूध के बदले में घुरकाया और घूंसा-थपेड़ा आदि से पीटा जाता है। अत्यन्त आर्तस्वर से रोता है, कोई नहीं पूछता; इत्यादि। जीवों को विना पुण्य-पाप के सुख-दुःख होने से परमेश्वर पर दोष आता है।


दूसरा, जैसे विना किये कर्मों के सुख-दुःख मिलते हैं, तो आगे स्वर्ग-नरक भी न होना चाहिये; क्योंकि जैसे परमेश्वर ने इस समय विना कर्मों के सुख-दुःख दिया है, वैसे मरे पीछे भी जिसको चाहेगा उसको स्वर्ग में और जिसको चाहेगा नरक में भेज देगा। पुनः सब जीव अधर्मयुक्त हो जायेंगे। धर्म क्यों करें? क्योंकि धर्म का फल मिलने में सन्देह है, [वह] परमेश्वर के हाथ में है। जैसी उसकी प्रसन्नता होगी वैसा करेगा, तो [जीवों को] पाप-कर्मों में भय न होकर संसार में पाप की वृद्धि और धर्म का क्षय हो जायगा। इसलिये पूर्वजन्म के पुण्य-पाप के अनुसार वर्तमान जन्म, और वर्तमान तथा पूर्वजन्म के कर्मानुसार भविष्यत् के जन्म होते हैं। 

[प्राणिमात्र में जीव की समानता]

प्रश्न―मनुष्यों और अन्य पश्वादि के शरीरों में जीव एक-से हैं, वा भिन्न-भिन्न जाति के?


उत्तर―जीव एक-से हैं; परन्तु पाप-पुण्य के योग से मलिन और पवित्र होते हैं।

[पाप-पुण्य के कारण विभिन्न योनियों की प्राप्ति]

प्रश्न―मनुष्य का जीव पश्वादि में और पश्वादि का जीव मनुष्य के शरीर में और स्त्री का पुरुष के, पुरुष का स्त्री के शरीर में जाता-आता है, वा नहीं?


उत्तर―हाँ! जाता-आता है।


प्रश्न―किस प्रकार जाता-आता है?


उत्तर―जब पाप बढ़ जाता, पुण्य न्यून होता है तब मनुष्य के जीव को पश्वादि नीच शरीर, और जब धर्म अधिक तथा अधर्म न्यून होता है तब 'देव' अर्थात् विद्वान् का शरीर मिलता है। और जब पुण्य-पाप बराबर होता है, तब साधारण मनुष्य-जन्म होता है। इसमें भी पुण्य-पाप के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने से मनुष्यादि में भी उत्तम, मध्यम, निकृष्ट शरीरादि सामग्रीवाले होते हैं। और जब अधिक पाप का फल पश्वादि शरीरों में भोग लेता है, पुनः पुण्य-पाप के तुल्य रहने से मनुष्य शरीर में आता; और [अधिक] पुण्य के फल भोगकर फिर भी मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है। 


जब शरीर से [जीव] निकलता है उसी का नाम ‘मृत्यु’ और शरीर के साथ संयोग होने का नाम ‘जन्म’ है। जब शरीर छोड़ता तब 'यमालय' अर्थात् आकाशस्थ वायु में रहता है। क्योंकि "यमेन=वायुना" [ऋग्० महर्षिकृत वेदभाष्य ७। ३३। १२] वेद में लिखा है कि 'यम' नाम वायु का है, 'गरुडपुराण' का कल्पित यम नहीं। इसका विशेष खण्डन-मण्डन ग्यारहवें समुल्लास में लिखेंगे। 


पश्चात् 'धर्मराज' अर्थात् परमेश्वर उस जीव के पाप-पुण्यानुसार जन्म देता है। वह वायु, अन्न, जल अथवा शरीर के छिद्र द्वारा दूसरे के शरीर में ईश्वर की प्रेरणा से प्रविष्ट होता है। जो प्रविष्ट होकर क्रमशः वीर्य में जा, गर्भ में स्थित हो, शरीर धारण कर, बाहर आता है। जो स्त्री का शरीर धारण करने योग्य कर्म हों तो स्त्री, और पुरुष का शरीर धारण करने योग्य कर्म हों, तो पुरुष के शरीर में प्रवेश करता है। और नपुंसक-गर्भ की स्थिति, स्त्री-पुरुष का शरीर-सम्बन्ध होने पर रज-वीर्य के बराबर होने से होती है। इसी प्रकार नाना प्रकार के जन्म-मरण में तब तक जीव पड़ा रहता है कि जब तक उत्तम कर्म-उपासना-ज्ञान को करके मुक्ति को नहीं पाता। क्योंकि उत्तम कर्मादि करने से मनुष्यों में उत्तम जन्म और मुक्ति में महाकल्प पर्यन्त जन्म-मरण-दुःखों से रहित होकर आनन्द में रहता है। 

[मुक्ति अनेक जन्मों के प्रयत्न से]

प्रश्न―मुक्ति एक जन्म में होती है, वा अनेक जन्मों में?


उत्तर―अनेक जन्मों में। क्योंकि— 


भिद्यते हृदयग्रन्थिश्छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। 

क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन्दृष्टे पराऽवरे॥१॥ 

मुण्डक० [उप०, २। खं० २। मं० ८]॥

 

जब इस जीव के हृदय की अविद्या= अज्ञानरूपी गांठ कट जाती [है], सब संशय छिन्न होते और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त होते हैं, तभी उस परमात्मा में, जो कि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है, निवास करता है।

[मुक्ति में जीव का ब्रह्म में लय नहीं होता]

प्रश्न―मुक्ति में परमेश्वर में जीव मिल जाता है, वा पृथक् रहता है? 


उत्तर―पृथक् रहता है; क्योंकि जो मिल जाय तो मुक्ति का सुख कौन भोगे? और मुक्ति के जितने साधन हैं, वे सब निष्फल हो जावें। वह मुक्ति तो नहीं, किन्तु जीव का प्रलय जानना चाहिये। जो जीव, परमेश्वर की आज्ञा का पालन, उत्तम कर्म, सत्सङ्ग, योगाभ्यास, पूर्वोक्त सब साधन करता है, वही मुक्ति को पाता है।


सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म यो वेद निहितं गुहायां परमे व्योमन्। 

सोऽश्नुते सर्वान् कामान् सह ब्रह्मणा विपश्चितेति॥ 

तैत्तिरीय [उप॰, ब्रह्म० वल्ली। अनु० १]॥ 


जो जीवात्मा अपनी बुद्धि और आत्मा में स्थित सत्य, ज्ञान और अनन्त आनन्द-स्वरूप परमात्मा को जानता है, वह उस व्यापकरूप ब्रह्म में स्थित होके, उस ‘विपश्चित्’=अनन्तविद्यायुक्त ब्रह्म के साथ सब कामनाओं को प्राप्त होता है अर्थात् जिस-जिस आनन्द की कामना करता है, उस-उस आनन्द को प्राप्त होता है। यही 'मुक्ति' कहाती है। 

[विना शरीर के स्वशक्ति से आनन्द का भोग]

प्रश्न―जैसे शरीर के विना सांसारिक सुख नहीं भोग सकता, वैसे मुक्ति में विना शरीर [के] आनन्द कैसे भोग सकेगा?


उत्तर―इसका समाधान पूर्व कह आये हैं और इतना अधिक सुनो―जैसे सांसारिक सुख शरीर के आधार से भोगता है, वैसे परमेश्वर के आधार [से] मुक्ति के आनन्द को जीवात्मा भोगता है। वह मुक्त जीव अनन्त, व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द घूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के साथ मिलता, 'सृष्टिविद्या' को क्रम से देखता हुआ सब लोक-लोकान्तरों में अर्थात् जितने ये लोक दीखते हैं और नहीं दीखते, उन सबमें घूमता है। वह उन पदार्थों को, जो कि उसके ज्ञान के सामने हैं, सबको देखता है। जितना ज्ञान अधिक होता है, उसको उतना ही आनन्द अधिक होता है। 

[स्वर्ग-नरक की व्याख्या]

मुक्ति में जीवात्मा निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर, उसको सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यही सुखविशेष 'स्वर्ग', और विषय-तृष्णा में फस कर दुःखविशेष भोग करना 'नरक' कहाता है। ‘स्वः’ सुख का नाम है। ‘स्वः सुखं गच्छति यस्मिन् स स्वर्गः, अतो विपरीतो दुःखभोगो नरक इति’। जो सांसारिक सुख है, वह 'सामान्य स्वर्ग' और जो परमेश्वर की प्राप्ति से आनन्द है वही 'विशेष स्वर्ग' कहाता है। 


सब जीव स्वभाव से सुखप्राप्ति की इच्छा [करते हैं] और दुःख का वियोग होना चाहते हैं; परन्तु जब-तक धर्म नहीं करते और पाप नहीं छोड़ते, तब-तक उनको सुख का मिलना और दुःख का छूटना न होगा; क्योंकि जिसका 'कारण' अर्थात् मूल होता है, वह नष्ट कभी नहीं होता। जैसे— 


'छिन्ने मूले वृक्षो नश्यति तथा पापे क्षीणे दुःखं नश्यति'=जैसे मूल कट जाने से वृक्ष नष्ट होता है, वैसे पाप को छोड़ने से दुःख नष्ट होता है। 

[पाप-पुण्य की गति; सत्त्वादि के लक्षण वा प्रतीति]

देखो, 'मनुस्मृति' में पाप और पुण्य की बहुत प्रकार की गतियां— 


मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाऽशुभम्। 

वाचा वाचा कृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्॥१॥

शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः। 

वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्॥२॥ 

यो यदैषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते। 

स तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम्॥३॥ 

सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजः स्मृतम्।

एतद्व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः॥४॥ 

तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किञ्चिदात्मनि लक्षयेत्।

प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत्॥५॥ 

यत्तु दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः। 

तद्रजोऽप्रतिपं विद्यात् सततं हारि देहिनाम्॥६॥ 

यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम्।

अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्॥७॥ 

त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः। 

अग्र्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥८॥

वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम्॥९॥

आरम्भरुचिताऽधैर्यमसत्कार्यपरिग्रहः। 

विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम्॥१०॥

लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तिता।

याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम्॥११॥

यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति। 

तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम्॥१२॥

येनास्मिन्कर्मणा लोके ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम्। 

न च शोचत्यसम्पत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम्॥१३॥

यत्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन्। 

येन तुष्यति चात्मास्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम्॥१४॥

तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते। 

सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रैष्ठ्यमेषां यथोत्तरम्॥१५॥     

मनु॰, अ॰ १२ [श्लो० ८-९, २५-३३, ३५-३८]॥ 


मनुष्य इस प्रकार अपने श्रेष्ठ, मध्य और निकृष्ट स्वभाव को जानकर उत्तम स्वभाव का ग्रहण; मध्य और निकृष्ट का त्याग करे।


और यह भी निश्चय जाने कि यह जीव जिस शुभ वा अशुभ कर्म को करता है उसके सुख-दुःख को, मन से किये को मन से, वाणी से किये को वाणी से और शरीर से किये को शरीर से भोगता है॥१॥ 


जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारना आदि दुष्ट कर्म करता है, उसको वृक्षादि स्थावर का जन्म, वाणी से किये पाप-कर्मों से पक्षी और मृगादि, तथा मन से किये दुष्ट कर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है॥२॥ 


जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से वर्त्तता है, वह गुण उस जीव को अपने सदृश कर देता है॥३॥ 


जब आत्मा में ज्ञान हो तब 'सत्त्व', जब अज्ञान रहे तब 'तम', और जब राग-द्वेष में आत्मा लगे तब 'रजोगुण' जानना चाहिये। ये तीन प्रकृति के गुण सब संसारस्थ पदार्थों में व्याप्त होकर रहते हैं॥४॥ 


उसका विवेक इस प्रकार करना चाहिये कि जब आत्मा में प्रसन्नता, मन प्रसन्न, प्रशान्त के सदृश शुद्धभानयुक्त वर्त्ते, तब समझना कि सत्त्वगुण प्रधान और रजोगुण तथा तमोगुण अप्रधान हैं॥५॥


जब आत्मा और मन दुःखसंयुक्त, प्रसन्नतारहित, विषय में इधर-उधर गमन-आगमन में लगें, तब समझना कि रजोगुण प्रधान, सत्त्वगुण और तमोगुण अप्रधान हैं॥६॥


जब 'मोह' अर्थात् सांसारिक पदार्थों में फसा हुआ आत्मा और मन हो, जब आत्मा और मन में कुछ विवेक न रहै,  विषयों में आसक्त, तर्क-वितर्क-रहित, जानने के योग्य न हो, तब निश्चय समझना चाहिये कि इस समय मुझमें  तमोगुण प्रधान और सत्त्वगुण तथा रजोगुण अप्रधान हैं॥७॥


अब जो इन तीनों गुणों का उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय होता है, उसको पूर्णभाव से कहते हैं॥८॥ 


जब सत्त्वगुण का उदय होता है, तब वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि, पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह, धर्म-क्रिया और आत्मा का चिन्तन होता है, यही सत्त्वगुण का लक्षण है॥९॥ 


जब रजोगुण का उदय, सत्त्व और तमोगुण का अन्तर्भाव होता है, तभी आरम्भ में रुचिता, धैर्यत्याग, असत् कर्मों का ग्रहण, निरन्तर विषयों की सेवा में प्रीति होती है, तभी समझना कि रजोगुण प्रधानता से मुझमें वर्त रहा है॥१०॥


जब तमोगुण का उदय और [सत्त्व-रज] दोनों का अस्तभाव होता है, तब अत्यन्त लोभ अर्थात् सब पापों का मूल बढ़ता [है], अत्यन्त आलस्य और निद्रा, धैर्य का नाश, क्रूरता का होना, नास्तिक्य अर्थात् वेद और ईश्वर में श्रद्धा का न रहना, अन्तःकरण की भिन्न-भिन्न वृत्तियां होना, और एकाग्रता का अभाव [होना], जिस किसी से याचना अर्थात् मांगना, प्रमाद अर्थात् मद्यपानादि दुष्ट व्यसनों में फसना होवे, तब समझना कि तमोगुण मुझमें बढ़कर वर्तता है॥११॥ 


यह सब तमोगुण का लक्षण विद्वान् को जानने योग्य है कि जब अपना आत्मा जिस कर्म को करके, करता हुआ और करने की इच्छा से लज्जा, शङ्का और भय को प्राप्त होवे, तब जानो कि मुझमें प्रवृद्ध तमोगुण है॥१२॥


जिस कर्म से इस लोक में जीवात्मा पुष्कल प्रसिद्धि चाहता, दरिद्रता होने पर भी चारण, भाट आदि को दान देना नहीं छोड़ता, तब समझना कि मुझमें रजोगुण प्रबल है॥१३॥ 


और जब मनुष्य का आत्मा सबसे जानने को चाहे, गुण ग्रहण करता जाय, अच्छे कर्मों में लज्जा न करे और जिस कर्म से आत्मा प्रसन्न होवे अर्थात् धर्माचरण में ही रुचि रहै, तब समझना कि मुझमें सत्त्वगुण प्रबल है॥१४॥


तमोगुण का लक्षण काम, रजोगुण का अर्थ-संग्रह की इच्छा और सत्त्वगुण का लक्षण धर्म-सेवन करना है, परन्तु तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्त्वगुण श्रेष्ठ है॥१५॥ 

[किस-किस गुण से कौन-कौन योनि प्राप्ति होती है।]

अब जिस-जिस गुण से जिस-जिस गति को जीव प्राप्त होता है, सो-सो आगे लिखते हैं— 


देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः।

तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः॥१॥

स्थावरा कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाश्च कच्छपाः।

पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः॥२॥

हस्तिनश्च तुरङ्गश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः। 

सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः॥३॥

चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः। 

रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः॥४॥

झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः।

द्यूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः॥५॥

राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः।

वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः॥६॥ 

गन्धर्वा गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये।

तथैवाप्सरसः सर्वाः, राजसीषूत्तमा गतिः॥७॥

तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गणाः।

नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः॥८॥

यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः।

पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः॥९॥

ब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महानव्यक्तमेव च। 

उत्तमां सात्त्विकीमेतां गतिमाहुर्मनीषिणः॥१०॥

इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन धर्मस्यासेवनेन च। 

पापान्संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः॥११॥ 

[मनु०, अ० १२। श्लोक० ४०, ४२-५०, ५२]


जो मनुष्य सात्त्विक हैं वे देव अर्थात् विद्वान्; जो रजोगुणी होते हैं वे मध्यम मनुष्य; और जो तमोगुणयुक्त होते हैं, वे नीच गति को प्राप्त होते हैं॥१॥ 


जो अत्यन्त तमोगुणी हैं, वे स्थावर वृक्षादि, कृमि, कीड़े, मत्स्य, सर्प, कच्छप, पशु और मृग [आदि] के जन्म को प्राप्त होते हैं॥२॥ 


जो मध्यम तमोगुणी हैं, वे हाथी, घोड़ा, शूद्र, म्लेच्छ, निन्दित काम करनेवाले, सिंह, व्याघ्र, वराह अर्थात् सूअर के जन्म को प्राप्त होते हैं॥३॥ 


जो उत्तम तमोगुणी हैं, वे चारण=जो कि कवित्त, दोहा आदि बनाकर मनुष्यों की प्रशंसा करते हैं, सुन्दर पक्षी और दांभिक पुरुष अर्थात् अपने मुख से अपनी प्रशंसा करनेहारे, राक्षस=जो हिंसक, पिशाच और अनाचारी अर्थात् मद्यादि के आहारकर्त्ता और मलिन रहते हैं, वह उत्तम तमोगुण के कर्म का फल है॥४॥ 


जो अत्यन्त रजोगुणी हैं, वे 'झल्ला' अर्थात् कुद्दाले आदि से तालाब आदि खोदनेहारे, मल्ला अर्थात् नौका आदि के चलानेवाले, नट जो बांस आदि पर कला=कूदना-चढ़ना-उतरना आदि करते हैं, शस्त्रधारी भृत्य, जो द्यूत और मद्यपान में आसक्त हों, ऐसे जन्म नीच रजोगुण के फल हैं॥५॥ 


जो मध्यम रजोगुणी होते हैं, वे राजा, क्षत्रियवर्णस्थ राजाओं के पुरोहित, वादविवाद करनेवाले, दूत, प्राड्विवाक (वकील, बैरिष्टर), युद्ध-विभाग के अध्यक्ष के जन्म पाते हैं॥६॥ 


जो उत्तम रजोगुणी हैं, वे (गन्धर्व) गानेवाले, (गुह्यक) वादित्र बजानेहारे, (यक्ष) धनाढ्य, विद्वानों के सेवक और अप्सरा अर्थात् उत्तम रूपवाली स्त्री का जन्म पाते हैं॥७॥ 


जो तपस्वी, यति=संन्यासी, वेदपाठी, विमान के चलानेवाले, ज्योतिषी और दैत्य अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं, उनको प्रथम सत्त्वगुण के कर्म का फल जानो॥८॥


जो मध्यम सत्त्वगुण युक्त होकर कर्म करते हैं, वे जीव यज्ञकर्त्ता, वेदार्थवित्, विद्वान्, वेद, 'विद्युत्' आदि और 'काल-विद्या' के ज्ञाता, रक्षक-ज्ञानी और साध्य=कार्यसिद्धि के लिये सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं॥९॥ 


जो उत्तम सत्त्वगुणयुक्त होके उत्तम कर्म करते हैं, वे ब्रह्मा=सब वेदों का वेत्ता, विश्वसृज=सब 'सृष्टिक्रम-विद्या' को जानकर विविध विमानादि यानों को बनानेहारे; धार्मिक, सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं॥१०॥ 


जो इन्द्रियों के वश होकर विषयी, धर्म को छोड़कर अधर्म करनेहारे, अविद्वान् हैं, वे मनुष्यों में 'नीच-जन' बुरे-बुरे दुःखरूप जन्म को पाते हैं॥११॥ 


इस प्रकार सत्त्व, रज और तमोगुण-युक्त वेग से जिस-जिस प्रकार का कर्म जीव करता है, उस-उसको उसी-उसी प्रकार फल प्राप्त होता है। 

[चित्त वृत्ति का निरोध]

जो मुक्त होना चाहते हैं, वे गुणातीत अर्थात् सब गुणों के स्वभावों में न फसकर, महायोगी होके मुक्ति का साधन करें। क्योंकि— 

योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः॥१॥ 

योगशास्त्र [समाधिपाद, सू० २]

तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थानम्॥२॥

 योगशास्त्र [समाधिपाद, सू० ३]

मनुष्य रजोगुण-तमोगुण-युक्त कर्मों से मन को रोक, शुद्ध-सत्त्वगुणयुक्त हो, पश्चात् उसका [भी] निरोध कर, एकाग्र अर्थात् एक परमात्मा और धर्मयुक्त कर्म इनके अग्रभाग में चित्त को ठहराके रखे। 'निरुद्ध' अर्थात् सब ओर से मन की वृत्ति को रोकना॥१॥ 


जब चित्त 'एकाग्र' और 'निरुद्ध' होता है तब सबके द्रष्टा ईश्वर के स्वरूप में जीवात्मा की स्थिति होती है॥२॥


इत्यादि साधन मुक्ति के लिये करें। और— 

अथ त्रिविधदुःखात्यन्तनिवृत्तिरत्यन्तपुरुषार्थः॥ 

सांख्यसूत्र [अ० १। सू० १]॥

जो 'आध्यात्मिक' अर्थात् शरीर-सम्बन्धी पीड़ा, 'जो आधिभौतिक' दूसरे प्राणियों से दुःखित होना, 'आधिदैविक' जो अतिवृष्टि, अतिताप, अतिशीत, मन- इन्द्रियों की चञ्चलता से होता है, इस 'त्रिविध दुःख' को छुड़ाकर मुक्ति पाना 'अत्यन्त पुरुषार्थ' है। 


[यह विद्या-अविद्या, बन्ध और मोक्ष के विषय में लिखा, अब] इसके आगे आचार- अनाचार और भक्ष्य-अभक्ष्य का विषय लिखेंगे॥ 


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे 

सुभाषाविभूषिते विद्याऽविद्याबन्धमोक्षविषये

नवमः समुल्लासः सम्पूर्णः॥९॥

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