दशमः समुल्लासः

दशम-समुल्लास


आचार-अनाचार का लक्षण

वेदोक्त धर्म का सेवन

धर्म के चार लक्षण

मनुष्यों के कुछ विशेष कर्त्तव्य

जितेन्द्रिय का लक्षण

बालक और वृद्ध कौन

आचार की महत्ता

देवपूजा और श्रेष्ठाचार

विदेशगमन से आचारभ्रष्ट नहीं

विदेशयात्रा में प्रमाण

विदेशयात्रा से अनेक लाभ

अनार्यों से व्यवहार और गुणग्रहण में दोष नहीं

पाखण्ड-खण्डन सीखकर विदेश गमन

विदेशों से व्यापार द्वारा उन्नति

पाखण्डियों की झूठी आशङ्का

युद्ध के समय का आचार-अनाचार 

चौके के चक्कर में देश का नाश

पाकशाला की शुद्धि आवश्यक

सखरी-निखरी का पाखण्ड

रसोई कौन बनावे ?

मीठा-मीठा गड़प, कड़वा कड़वा थू

क्या अदृष्ट में दोष नहीं ?

खान-पान की एकता ही से सुधार नहीं

आर्यावर्त्त में विदेशियों का राज्य होने के कारण

आपस की फूट का फल

भक्ष्याभक्ष्य के दो भेद

गाय आदि की हिंसा से हानि, और रक्षा से लाभ

गाय की विशेषता

अन्य पशुओं से लाभ

गोहत्या का कारण विदेशी शासन

व्याघ्रादि से गवादि की रक्षा

मारे गये हिंस्र पशुओं के मांस का क्या करें ?

भक्ष्याभक्ष्य की परिभाषा

वैद्यक शास्त्रोक्त भक्ष्याभक्ष्य

सह-भोजन में दोष

'उच्छिष्ट' शब्द का अर्थ

उच्छिष्ट पर विशेष विचार

मनुष्य मात्र के हाथ का क्यों न खावें ? 

गोबर से चौका लगाने के लाभ

भोजन अच्छे स्थान में करना

आर्यों द्वारा शुद्ध रीति से बनाया भोजन भोज्य

भोजन सम्बन्धी प्राचीन आर्यों का व्यवहार

पूर्वार्ध-उत्तरार्ध का सम्बन्ध

उत्तरार्ध के समुल्लासों का विभाग

ग्रन्थकार की पाठकों से अभ्यर्थना



अथ दशमसमुल्लासारम्भः 


अथाऽऽचाराऽनाचारभक्ष्याऽभक्ष्यविषयान् व्याख्यास्यामः 


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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[आचार-अनाचार का लक्षण]

अब, जो धर्मयुक्त कामों का आचरण, सुशीलता, सत्पुरुषों का सङ्ग और सद्विद्या के ग्रहण में रुचि आदि 'आचार' और इनसे विपरीत 'अनाचार' कहाता है, उसको लिखते हैं— 

[वेदोक्त धर्म का सेवन]

विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभिः। 

हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तन्निबोधत॥१॥ 

कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता। 

काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥२॥ 

सङ्कल्पमूलः कामो वै यज्ञाः सङ्कल्पसम्भवाः। 

व्रतानि यमधर्माश्च सर्वे सङ्कल्पजाः स्मृताः॥३॥ 

अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्। 

यद्यद्धि कुरुते किञ्चित् तत्तत्कामस्य चेष्टितम्॥४॥ 

वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। 

आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च॥५॥ 

सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा। 

श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान् स्वधर्मे निविशेत वै॥६॥ 

श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन् हि मानवः। 

इह कीर्त्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्॥७॥ 

[श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः।

ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥८॥]

योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः। 

स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥९॥ 

वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः। 

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥१०॥ 

अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। 

धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः॥११॥ 

वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्। 

कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च॥१२॥ 

केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते। 

राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य द्व्यधिके ततः॥१३॥ 

मनु॰, अ॰ २। [श्लोक० १-४, ६, ८, ९, [१०], ११-१३, २६, ६५]॥

 

मनुष्यों को सदा इस बात पर ध्यान रखना चाहिये कि जिसका सेवन राग-द्वेष रहित विद्वान् लोग नित्य करें, जिसको हृदय अर्थात् आत्मा से सत्य-कर्त्तव्य जानें, वही धर्म माननीय और करणीय समझें॥१॥


इस संसार में अत्यन्त कामात्मता और निष्कामता श्रेष्ठ नहीं है, क्योंकि वेदार्थ-ज्ञान और वेदोक्त-कर्म, ये सब कामना से ही सिद्ध होते हैं॥२॥ 


जो कोई कहै कि मैं निरिच्छ और निष्काम हूं, वा हो जाऊं, तो वह कभी नहीं हो सकता; क्योंकि सब काम अर्थात् यज्ञ, सत्यभाषणादि-व्रत, यम-नियमरूपी धर्म आदि संकल्प से ही बनते हैं॥३॥ 


क्योंकि जो-जो हस्त, पाद, नेत्र, मन आदि चलाये जाते हैं, वे सब कामना से ही चलते हैं। जो इच्छा न हो तो आँख का खोलना और मीचना भी नहीं हो सकता॥४॥ 


इसलिये सम्पूर्ण वेद, 'मनुस्मृति' तथा ऋषिप्रणीत शास्त्र, सत्पुरुषों का आचार और जिस-जिस कर्म में अपने आत्मा प्रसन्न रहैं अर्थात् भय, शङ्का, लज्जा जिसमें न हो, उन कर्मों का सेवन करना उचित है। देखो, जब कोई मनुष्य मिथ्याभाषण, चोरी आदि की इच्छा करता है, तभी उसके आत्मा में भय, शङ्का, लज्जा अवश्य उत्पन्न होती है, इसलिये वह कर्म करने योग्य नहीं॥५॥ 


मनुष्य सम्पूर्ण-शास्त्र=वेद, सत्पुरुषों का आचार, अपने आत्मा के अविरुद्ध अच्छे प्रकार विचारकर, ज्ञाननेत्र से देख करके, श्रुति-प्रमाण से स्वात्मानुकूल धर्म में प्रवेश करे॥६॥


क्योंकि जो मनुष्य वेदोक्त-धर्म और जो वेद से अविरुद्ध स्मृत्युक्त धर्म का अनुष्ठान करता है, वह इस लोक में कीर्ति और मरके सर्वोत्तम सुख को प्राप्त होता है॥७॥ 


'श्रुति' वेद और 'स्मृति' धर्मशास्त्र को कहते हैं, इनसे सब कर्त्तव्य-अकर्त्तव्य का निश्चय करना चाहिये॥८॥ 


जो कोई मनुष्य वेद और वेदानुकूल आप्तग्रन्थों का अपमान करे, उसको श्रेष्ठ लोग जातिबाह्य कर दें; क्योंकि जो वेद की निन्दा करता है, वही 'नास्तिक' कहाता है॥९॥ 


इसलिये वेद, स्मृति, सत्पुरुषों का आचार और अपने आत्मा के ज्ञान से अविरुद्ध प्रियाचरण, ये चार धर्म के 'लक्षण' [हैं] अर्थात् इन्हीं से धर्म लक्षित होता है॥१०॥ 


परन्तु जो द्रव्यों के लोभ और काम अर्थात् विषयसेवा में फसा हुआ नहीं होता, उसी को धर्म का ज्ञान होता है। जो धर्म को जानने की इच्छा करें, उनके लिये वेद ही परम प्रमाण है॥११॥ 


इसी से सब मनुष्यों को उचित है कि वेदोक्त पुण्यरूप कर्मों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने सन्तानों का निषेकादि संस्कार करें, जो इस जन्म वा परजन्म में पवित्र करनेवाला है॥१२॥


ब्राह्मण वर्ण का सोलहवें, क्षत्रिय का बाईसवें और वैश्य का चौबीसवें वर्ष में केशान्त-कर्म 'क्षौर'=मुण्डन हो जाना चाहिये अर्थात् इस विधि के पश्चात् केवल शिखा को रखके अन्य डाढ़ी, मूंछ और शिर के बाल सदा मुंडवाते रहना चाहिये अर्थात् पुनः कभी न रखना। और जो शीतप्रधान देश हो तो कामचार है, चाहे जितने केश रक्खे। और जो अति उष्ण देश हो तो शिखा-सहित सब छेदन करा देना चाहिये, क्योंकि शिर में बाल रहने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। डाढ़ी-मूंछ रखने से भोजन-पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट भी बालों में रह जाता है॥१३॥ 

[मनुष्यों के कुछ विशेष कर्तव्य]

इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु। 

संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्॥१॥

इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्। 

सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति॥२॥ 

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। 

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥३॥

वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च। 

न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्॥४॥

वशे कृत्वेन्द्रियग्रामं संयम्य च मनस्तथा। 

सर्वान् संसाधयेदर्थानक्षिण्वन् योगतस्तनुम्॥५॥

श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः।

न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः॥६॥

नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः।

जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्॥७॥ 

वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी। 

एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्॥८॥ 

अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः। 

अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम्॥९॥ 

न हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न बन्धुभिः। 

ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्॥१०॥ 

विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः। 

वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणामेव जन्मतः॥११॥ 

न तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः। 

यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः॥१२॥ 

यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः। 

यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति॥१३॥ 

अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्। 

वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता॥१४॥ 

मनु॰, अ॰ २। [श्लो० ८८, ९३, ९४, ९७, १००, ९८। ११०, १३६, १५३-१५७, १५९]॥ 


मनुष्य का यही मुख्य आचार है कि जो इन्द्रियाँ चित्त का हरण करनेवाले विषयों में प्रवृत्त कराती हैं, उनको रोकने का प्रयत्न करे। जैसे सारथि घोड़ो को रोककर शुद्ध मार्ग में चलाता है, इस प्रकार इनको अपने वश में करके अधर्ममार्ग से हटाके धर्ममार्ग में सदा चलाया करे॥१॥ 


क्योंकि इन्द्रियों को विषयासक्ति और अधर्म में चलाने से मनुष्य निश्चित दोष को प्राप्त होता है। और जब इनको जीतकर धर्म में चलाता है तभी अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है॥२॥ 


यह निश्चय है कि जैसे अग्नि में इन्धन और घी डालने से बढ़ता जाता है, वैसे ही कामों के उपभोग से काम शान्त कभी नहीं होता, किन्तु बढ़ता ही जाता है; इसलिये मनुष्य को विषयासक्त कभी न होना चाहिये॥३॥ 


जो अजितेन्द्रिय पुरुष है उसको ‘विप्रदुष्ट’ कहते हैं। उसके करने से न वेदज्ञान, न त्याग, न यज्ञ, न नियम और न धर्माचरण सिद्धि को प्राप्त होते हैं; किन्तु ये सब जितेन्द्रिय, धार्मिकजन को सिद्ध होते हैं॥४॥ 


इसलिये पांच कर्मेन्द्रियों, पांच ज्ञानेन्द्रियों और ग्यारहवें मन को अपने वश में करके युक्ताहारविहार-[पूर्वक] योग से शरीर की रक्षा करता हुआ सब अर्थों को सिद्ध करे॥५॥ 


'जितेन्द्रिय' उसको कहते हैं जो स्तुति सुनके हर्ष और निन्दा सुनके शोक, अच्छा स्पर्श करके सुख और दुष्ट स्पर्श से दुःख [अनुभव नहीं करता], सुन्दर रूप देखके प्रसन्न और दुष्टरूप देखके अप्रसन्न, उत्तम भोजन करके आनन्दित और निकृष्ट भोजन करके दुःखित [नहीं होता और] सुगन्ध में रुचि और दुर्गन्ध में अरुचि नहीं करता॥६॥ 


कभी विना पूछे वा अन्याय से पूछनेवाले को कि जो कपट से पूछता हो, उसको उत्तर न देवे। उनके सामने बुद्धिमान् जड़ के समान रहै। हां, जो निष्कपट और जिज्ञासु हों, उनको विना पूछे भी उपदेश करे॥७॥ 


एक धन, दूसरे बन्धु-कुटुम्ब-कुल, तीसरी अवस्था, चौथा उत्तम कर्म और पांचवीं श्रेष्ठ विद्या, ये पांच मान्य के स्थान हैं; परन्तु धन से उत्तम बन्धु, बन्धु से अधिक अवस्था, अवस्था से श्रेष्ठ कर्म और कर्म से पवित्र विद्यावाले उत्तरोत्तर अधिक माननीय हैं॥८॥ 


क्योंकि चाहे सौ वर्ष का भी हो परन्तु जो विद्या-विज्ञान-रहित है वह 'बालक' और जो विद्या-विज्ञान का दाता है, उस बालक को भी 'वृद्ध' मानना चाहिये; क्योंकि सब शास्त्र [और] आप्त विद्वान् अज्ञानी को 'बालक' और ज्ञानी को 'पिता' कहते हैं॥९॥ 


अधिक वर्षों के बीतने से, श्वेत बालों के होने [से], अधिक धन से और बड़े कुटुम्ब से [कोई] 'वृद्ध' नहीं होता, किन्तु ऋषि-महात्माओं का यही निश्चय है कि जो हमारे बीच में विद्या-विज्ञान में अधिक है, वही 'वृद्ध' पुरुष कहाता है॥१०॥


ब्राह्मण ज्ञान [से], क्षत्रिय बल [से], वैश्य धनधान्य से और शूद्र जन्म से अर्थात् अधिक आयु से 'वृद्ध' होता है॥११॥ 


शिर के बाल श्वेत होने से 'वृद्ध' नहीं होता, किन्तु जो युवा [भी] विद्या पढ़ा हुआ है, उसी को विद्वान् लोग 'बड़ा' जानते हैं॥१२॥ 


और जो विद्या नहीं पढ़ा है, वह जैसा लकड़े का हाथी, चमड़े का मृग होता है [वैसा होता है]; वैसा अविद्वान् मनुष्य जगत् में नाममात्र मनुष्य कहाता है॥१३॥ 


इसलिये विद्या पढ़, विद्वान्, धर्मात्मा होकर, निर्वैरता से सब प्राणियों के कल्याण का उपदेश करे। उपदेश में वाणी मधुर और कोमल बोले। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं॥१४॥ 


नित्य स्नान [करे], वस्त्र, अन्न, पान, स्थान सब शुद्ध रक्खे; क्योंकि इनके शुद्ध होने पर चित्त की शुद्धि और आरोग्यता प्राप्त होकर पुरुषार्थ बढ़ता है। 'शौच' उतना करना योग्य है कि जितने से मल-दुर्गन्ध दूर हो जाय। 

[आचार की महत्ता]

"आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च॥"

मनु॰ [१। १०८]॥

जो सत्यभाषणादि कर्मों का आचरण करना है, वही वेद और स्मृति में कहा हुआ 'आचार' है। 


"मा नो॑ वधीः पि॒तरं॒ मोत मा॒तर॒म्॥"

[यजुः०, अ० १६। मं० १५] 

"आ॒चा॒र्य उप॒नय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं॑ कृणुते॒०॥"

[अथर्व०, कां० ११। सूक्त ५। मं० ३]॥

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव॥ 

तैत्तिरीय [आरण्यक प्र० ७। अनु० ११; तै० उप० शि० व० अनु० ११]॥ 


माता, पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा करना 'देवपूजा' कहाती है। और जिस-जिस कर्म से जगत् का उपकार हो, वह-वह कर्म करना और हानिकारक छोड़ देना ही मनुष्य का मुख्य कर्म है। कभी नास्तिक, लम्पट, विश्वासघाती, चोर, मिथ्यावादी, स्वार्थी, कपटी-छली आदि दुष्ट मनुष्यों का सङ्ग न करे। जो 'आप्त'=सत्यवादी, धर्मात्मा, परोपकारप्रिय [विद्वद्]जन हैं, उनका सङ्ग करना 'श्रेष्ठाचार' है। 

[क्या विदेशगमन से आचार का नाश होता है?]

प्रश्न―आर्यावर्त-वासियों का, आर्यावर्त से भिन्न देशों में जाने से आचार नष्ट हो जाता है, वा नहीं? 


उत्तर―यह बात मिथ्या है; क्योंकि जो बाहर-भीतर की पवित्रता करनी [और], सत्यभाषणादि आचरण करना है, वह जहां कहीं करेगा, [वहां] आचार [भ्रष्ट] और धर्मभ्रष्ट कभी न होगा। और जो आर्यावर्त में रहकर भी दुष्टाचार करेगा, वही धर्म-[भ्रष्ट] और आचारभ्रष्ट कहावेगा। 

[देश-देशान्तर में जाने-आने में प्रमाण]

जो ऐसा होता तो— 


मेरोर्हरेश्च द्वे वर्षे वर्षं हैमवतं ततः। 

क्रमेणैवं व्यतिक्रम्य भारतं वर्षमासदत्॥१॥ 

स देशान् विविधान् पश्यन् चीनहूणनिषेवितान्॥२॥ 


ये महाभारत, शान्तिपर्व, मोक्षधर्म में व्यास-शुकसंवाद के वचन हैं [अ० ३२५। श्लोक० १४-१५]॥


अर्थात् एक समय में व्यास जी अपने पुत्र और शिष्य शुक सहित मेरु-पर्वत पर निवास करते थे। शुकाचार्य ने पिता से एक प्रश्न पूछा कि 'आत्मविद्या' इतनी ही है वा अधिक ? व्यास जी ने जानकर उसका उत्तर न दिया, क्योंकि पूर्व इस बात का उपदेश कर चुके थे। दूसरे के साक्ष्य के लिये अपने पुत्र शुक से कहा कि―"तू मिथिला में जाकर यही प्रश्न जनक राजा से कर। वह इसका यथायोग्य उत्तर देगा।" पिता का वचन सुनकर शुकाचार्य मेरुपर्वत से मिथिला की ओर चले। प्रथम, 'मेरु [वर्ष' और हरिवर्ष] अर्थात् हिमालय से ईशान, उत्तर और वायव्य दिशा में जो देश बसते हैं, उनका नाम 'हरिवर्ष' था। अर्थात् हरि कहते हैं बन्दर को, उस देश के मनुष्य अब भी 'रक्तमुख' बन्दर के कुछ-कुछ समान और भूरे नेत्रवाले होते हैं। जिन देशों का नाम इस समय यूरोप है, उन्हीं को संस्कृत में ‘हरिवर्ष’ कहते थे; उन देशों को देखते हुए, और जिनको 'हूण' भी कहते हैं उन देशों को देखकर 'चीन' में आये। चीन से हिमालय [=हैमवत] और हिमालय से मिथिलापुरी को आये। 


और श्रीकृष्ण तथा अर्जुन 'पाताल' में अश्वतरी अर्थात् जिसको अग्नियान नौका कहते हैं, उस पर बैठके 'पाताल' में जाके महाराजे युधिष्ठिर के यज्ञ में उद्दालक ऋषि को ले आये थे। धृतराष्ट्र का विवाह 'गान्धार' जिसको ‘कंधार’ कहते हैं, वहां की राजपुत्री से हुआ। माद्री जो कि पाण्डु की स्त्री थी, ईरान के राजा की कन्या थी और अर्जुन का विवाह 'पाताल' में जिसको अमेरिका कहते हैं, वहां के राजा की लड़की उलूपी के साथ हुआ था। जो देशदेशान्तरों, द्वीपद्वीपान्तरों में न जाते होते, तो ये सब बातें क्योंकर हो सकती थीं? 


'मनुस्मृति' में जो समुद्र में जानेवाली नौका पर 'कर' लेना लिखा है, वह भी आर्यावर्त से द्वीपान्तरों में जाने के कारण है। और जब महाराजे युधिष्ठिर ने राजसूय-यज्ञ किया था, उसमें सब भूगोल के राजाओं को बुलाने को निमन्त्रण देने के लिये भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव चारों दिशाओं में गये थे। जो दोष मानते होते तो कभी न जाते। सो प्रथम आर्यावर्तदेशीय लोग व्यापार, राजकार्य और भ्रमण के लिये सब भूगोल में जाते थे।

[देश-देशान्तर में जाने-आने से अनेक लाभ]

जो आजकल छूतछात और [उससे] धर्म नष्ट होने की शङ्का है, वह केवल मूर्खों के बहकाने और अज्ञान बढ़ने से है।  जो मनुष्य देश-देशान्तरों और द्वीप-द्वीपान्तरों में जाने-आने में शङ्का नहीं करते, वे देश-देशान्तरों के अनेकविध मनुष्यों के समागम [से], रीति-भाँति देखने [से], अपना राज्य और व्यवहार बढ़ाने से निर्भय, शूरवीर होने लगते [हैं] और अच्छे व्यवहार के ग्रहण और बुरी बातों के छोड़ने में तत्पर होके, बड़े ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं। 


भला, जो महाभ्रष्ट, म्लेच्छकुलोत्पन्न, वेश्या आदि के समागम से आचारभ्रष्ट धर्महीन होना नहीं मानते, किन्तु वे देश-देशान्तरों के उत्तम पुरुषों के साथ समागम में छूत और दोष मानते हैं; यह केवल मूर्खता की बात नहीं तो क्या है?

[अनार्यों से व्यवहार और गुण ग्रहण में कोई दोष नहीं]

हाँ, इतना कारण तो है कि जो लोग मांसभक्षण और मद्यपान करते हैं उनके शरीर और वीर्यादि धातु भी दुर्गन्धादि से दूषित होते हैं, इसलिये उनका सङ्ग करने से आर्यों को भी ये कुलक्षण न लग जायें, यह तो बात ठीक है, परन्तु उनसे व्यवहार और गुणग्रहण करने में कोई भी दोष नहीं है। यदि उनके मद्यपानादि दोषों को छोड़, गुणों को ग्रहण करें, तो कुछ भी हानि नहीं। जब उनके स्पर्श और देखने में भी मूर्ख-जन पाप गिनते हैं, इसी से उनसे युद्ध कभी नहीं कर सकते; क्योंकि युद्ध में उनको देखना और स्पर्श होना आवश्यक है।

[पाखण्ड-खण्डन सीखकर ही विदेशों में जावें]

सज्जन लोगों को राग-द्वेष, अन्याय, मिथ्याभाषणादि दोषों को छोड़ निर्वैरता, प्रीति, परोपकार, सज्जनतादि का धारण करना उत्तम आचार है। और यह भी समझ लें कि धर्म हमारे आत्मा और कर्त्तव्य के साथ है। जब हम अच्छे काम करते हैं तो हमको देश-देशान्तरों और द्वीप-द्वीपान्तरों [में] जाने में कुछ भी दोष नहीं लग सकता। दोष तो पाप के काम करने में लगते हैं। हाँ, इतना अवश्य चाहिये कि वेदोक्त-धर्म का निश्चय और पाखण्डमत का खण्डन करना अवश्य सीख लें, जिससे कोई हमको झूठा निश्चय न करा सके।

[देश-देशान्तर में व्यापार किये विना उन्नति नहीं होती]

क्या देश-देशान्तरों और द्वीप-द्वीपान्तरों में राज्य वा व्यापार किये विना स्वदेश की उन्नति कभी हो सकती है? जब स्वदेश में ही स्वदेशी लोग व्यवहार करते और परदेशी स्वदेश [=हमारे देश] में व्यवहार वा राज्य करें तो सिवाय दारिद्र्य और दुःख के दूसरा कुछ भी नहीं हो सकता। 

[पाखण्डियों की झूठी आशङ्का]

पाखण्डी लोग यह समझते हैं कि जो हम इनको विद्या पढ़ावेंगे, देश-देशान्तरों में जाने की आज्ञा देवेंगे, तो ये बुद्धिमान् होकर हमारे पाखण्ड-जाल में नहीं फसेंगे जिससे हमारी प्रतिष्ठा और जीविका नष्ट हो जावेगी। इसीलिये भोजन-छादन में बखेड़ा डालते हैं कि वे दूसरे देश में न जा सकें। हां, इतना अवश्य चाहिये कि मद्य-मांस का ग्रहण कदापि भूलकर भी न करें।

[युद्ध के समय का आचार-अनाचार]

क्या सब बुद्धिमानों ने यह निश्चय नहीं किया है कि जो राजपुरुषों में युद्ध-समय में भी चौका लगाकर रसोई बनाके खाना [है, वह] अवश्य पराजय का हेतु है? किन्तु क्षत्रिय लोगों का युद्ध में एक हाथ से रोटी खाते-जल पीते जाना और दूसरे हाथ से शत्रुओं को घोड़े, हाथी, रथ पर चढ़ वा पैदल होके मारते जाना और अपना विजय करना ही आचार और पराजित होना अनाचार है। 

[चौके के चक्कर में देश का नाश कर दिया]

इसी मूढ़ता से ये लोग चौका लगाते-लगाते, विरोध करते-कराते, सब स्वातन्त्र्य, आनन्द, धन, राज्य, विद्या और पुरुषार्थ पर चौका लगा बैठे। इच्छा करते हैं कि कुछ पदार्थ मिले तो पका कर खावें, परन्तु वैसा न होने पर जानो सब देश-भर में चौका लगाके [उसका] सर्वथा नाश कर दिया है।

[पाकशाला की शुद्धि आवश्यक]

हां, जहां पाक बने उस स्थान को धोने, लेपन करने, झाड़ू लगाने, कूड़ा-कर्कट दूर करने में प्रयत्न अवश्य करना चाहिये, न कि मुसलमान वा ईसाइयों के समान भ्रष्ट पाकशाला करनी [चाहिये]। 

[सखरी-निखरी का पाखण्ड]

प्रश्न―सखरी-निखरी क्या है? 


उत्तर―'सखरी' जो जल आदि में अन्न पकाये जाते [हैं], और जो घी-दूध में पकाते हैं वह 'निखरी' अर्थात् चोखी। यह भी इन धूर्तों का चलाया पाखण्ड है, क्योंकि जिसमें घी-दूध अधिक लगे, उसको खाने में [स्वाद आये और] उदर में चिकना पदार्थ अधिक जावे, इसलिये यह प्रपंच रचा है। नहीं तो जो अग्नि वा काल से पका हुआ 'पक्का', और न पका हुआ 'कच्चा' है। जो पक्का खाना और कच्चा न खाना है, यह भी सर्वत्र ठीक नहीं; क्योंकि चणे आदि कच्चे भी खाये जाते हैं।

[रसोई कौन बनाये?]

प्रश्न―द्विज अपने हाथ से रसोई बनाके खावें; वा शूद्र के हाथ की बनाई खावें?


उत्तर―शूद्र के हाथ की बनाई खावें; क्योंकि ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्यवर्णस्थ स्त्री-पुरुष [क्रमशः] विद्या पढ़ाने; राज्य पालने; और पशुपालन, खेती और व्यापार के काम में तत्पर रहैं। सुनो प्रमाण— 


"आर्याधिष्ठिता वा शूद्राः संस्कर्तारः स्युः।" 

यह आपस्तम्ब का सूत्र है [आपस्तम्ब धर्मसूत्र, प्रश्न २। पटल २। खण्ड ३। सूत्र ४]॥

=आर्यों [=द्विजों] के घर में शूद्र अर्थात् मूर्ख [=अशिक्षित] स्त्री-पुरुष पाकादि सेवा करें, परन्तु वे शरीर, वस्त्र आदि से पवित्र रहैं। आर्यों [=द्विजों] के घर में जब रसोई बनावें तब मुख बांधके बनावें; क्योंकि उनके मुख से उच्छिष्ट और निकला हुआ श्वास भी अन्न में न पड़े। आठवें दिन क्षौर, नखच्छेदन करावें। स्नान करके पाक बनाया करें। आर्यों [=द्विजों] को खिलाके आप खावें।

[मीठा-मीठी गड़प, कड़वा-कड़वा थू]

प्रश्न―शूद्र के छुए हुये पके अन्न के खाने में जब दोष लगाते हैं, तो उसके हाथ का बनाया कैसे खा सकते हैं? 


उत्तर―यह बात कपोलकल्पित [और] झूठी है; क्योंकि जिन्होंने गुड़, चीनी, घृत, दूध, पिसान, शाक, फल, मूल खाया, उन्होंने जानो सब जगत्-भर के हाथ का बनाया और उच्छिष्ट खा लिया। क्योंकि जब शूद्र, मुसलमान, ईसाई आदि लोग खेतों में से ईख को काटते, छीलते, पीलकर रस निकालते हैं, तब मल-मूत्रोत्सर्ग कर, उन्हीं विना धोये हाथों से छूते, उठाते, धरते, आधा सांठा चूस, रस पीके, आधा उसी में डाल देते और रस पकाते समय उस रस में रोटी भी पकाकर खाते हैं। जब चीनी बनाते हैं, तब पुराने जूते कि जिसके तले में विष्ठा, मूत्र, गोबर, धूली लगी रहती है, उन्हीं जूतों से उसको रगड़ते हैं। दूध में अपने घर के उच्छिष्ट पात्रों का जल डालते, उसी में घृतादि रखते और आटा पीसते समय भी वैसे ही उच्छिष्ट हाथों से उठाते और पसीना भी आटे में टपकता है। शाक, फल, फूल, कन्द में भी ऐसी ही लीला होती है। जब इन पदार्थों को खाया, तो जानो सबके हाथ का खा लिया। 

[क्या अदृष्ट में दोष नहीं?]

प्रश्न―रस, फल, फूल, कन्द, मूल और अदृष्ट में दोष [हम] नहीं मानते।


उत्तर―वाह जी वाह! सत्य है कि जो ऐसा उत्तर न देते तो क्या धूल-राख खाते? गुड़-शक्कर मीठे लगते, दूध-घी पुष्टि करता है, इसीलिये यह मतलबसिन्धु क्या नहीं रचा है? 


अच्छा, जो अदृष्ट में दोष नहीं [मानते], तो भङ्गी वा मुसलमान अपने हाथों से दूसरे स्थान में बनाकर तुमको आके देवे तो खा लोगे वा नहीं? जो कहो कि नहीं, तो [तुम्हारे मतानुसार] अदृष्ट में भी दोष है। 


हाँ, मुसलमान, ईसाई आदि मद्य-मांसाहारियों के हाथ का खाने में आर्यों को भी मद्य-मांसादि खाना-पीना अपराध पीछे लग पड़ता है, परन्तु आपस में आर्यों का एक भोजन होने में कोई भी दोष नहीं दीखता। 

[केवल खाना-पीना ही एक होने से सुधार न होगा]

जब-तक एक मत, एक हानि-लाभ, एक सुख-दुःख परस्पर न मानें, तब-तक उन्नति होना बहुत कठिन है। परन्तु केवल खाना-पीना ही एक होने से सुधार नहीं हो सकता, किन्तु जब-तक बुरी बातें नहीं छोड़ते और अच्छी बातें नहीं करते, तब-तक बढ़ती के बदले हानि होती है। 

[आर्यावर्त में विदेशियों का राज्य होने के कारण]

आर्यावर्त में विदेशियों का राज्य होने के कारण, आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढ़नी-पढ़ानी, बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्याभाषणादि कुलक्षण, वेदविद्या का अप्रचार आदि कुकर्म हैं।

जब आपस में भाई-भाई लड़ते हैं, तभी तीसरा विदेशी आकर पंच बन बैठता है।

[आपस की फूट का फल]

क्या तुम लोग महाभारत की बातें जो पाँच सहस्र वर्षों के पहले हुई थीं, उनको भी भूल गये? देखो, महाभारत युद्ध में सब लोग लड़ाई में सवारियों पर खाते-पीते थे। आपस की फूट से कौरवों, पाण्डवों और यादवों का सत्यानाश हो गया, सो तो हो गया; परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है। न जाने यह भयङ्कर राक्षस कभी छूटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुड़ाकर दुःखसागर में डुबा मारेगा? उसी दुष्ट दुर्योधन गोत्रहत्यारे, स्वदेशविनाशक, नीच के दुष्ट-मार्ग में आर्य लोग अब तक भी चलकर दुःख बढ़ा रहे हैं। परमेश्वर कृपा करे कि यह राजरोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाय।

[भक्ष्याऽभक्ष्य के दो भेद]

भक्ष्याभक्ष्य दो प्रकार के होते हैं। एक धर्मशास्त्रोक्त, दूसरा वैद्यकशास्त्रोक्त। जैसे धर्मशास्त्र में— 


"अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च॥"

मनु॰ [५। ५]॥


='द्विजों' अर्थात् ब्राह्मणों-क्षत्रियों-वैश्यों; और शूद्रों को मलिन, विष्ठा-मूत्रादि के संसर्ग से उत्पन्न हुए शाक, फल, मूलादि न खाने चाहियें। जैसे―

"वर्जयेन्मधु मांसं च॥"

मनु॰ [२। १७७]

बुद्धिं लुम्पति यद् द्रव्यं मदकारी तदुच्यते॥ 

[शार्ङ्गधर० अ० ४। श्लोक २१]

=अनेक प्रकार के मद्य, गांजा, भांग, अफीम आदि जो-जो बुद्धि का नाश करने वाले पदार्थ [तथा मांस] हैं, उनका सेवन कभी न करें। और जितने अन्न सड़े, बिगड़े, दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए और मद्यमांसाहारी म्लेच्छ कि जिनका शरीर मद्यमांस के परमाणुओं से ही पूरित है, उनके हाथ का न खावें।

[गाय आदि की हिंसा से हानि, और रक्षा से लाभ]

जिसमें उपकारक प्राणियों की हिंसा [होती है] अर्थात् जैसे एक गाय के शरीर से दूध, घी, बैल, गाय उत्पन्न होने से एक पीढ़ी में कुछ अधिक चार लाख मनुष्यों को सुख पहुँचता है; वैसे पशुओं को न मारें, न मारने दें। 


जैसे किसी गाय से वीस सेर और किसी से दो सेर दूध प्रतिदिन होवे, उसका मध्यभाग ग्यारह सेर दूध प्रत्येक गाय से दूध होता है। कोई गाय अठारह और कोई छः महीने तक दूध देती है, उसका मध्यभाग बारह महीने हुए। अब प्रत्येक गाय के जन्म-भर के दूध से २४९६० (चौवीस सहस्र नौ-सौ साठ) मनुष्य एक वार तृप्त होते हैं। उसके छः बछियाँ, छः बछड़े होते हैं। उनमें से दो मर जायें, तो भी दश रहे। उनमें से पांच बछड़ियों के जन्म-भर के दूध को मिलाकर १२४८०० (एक लाख चौवीस सहस्र आठ-सौ) मनुष्य तृप्त हो सकते हैं। अब रहे पांच बैल, वे जन्म भर में ५००० (पाँच सहस्र) मन अन्न न्यून से न्यून उत्पन्न करते हैं। उस अन्न में से प्रत्येक मनुष्य के भोजनार्थ ६० रुपये भर [=६० तोले]= तीन पाव अन्न खाने का भाग देने से २,६६,६६६ (दो लाख, छियासठ हजार, छः सौ छियासठ) मनुष्यों की तृप्ति होती है। दूध और अन्न मिला ३,९१, ४६६ (तीन लाख, इक्यानवे हजार, चार सौ छियासठ) मनुष्य तृप्त होते हैं। दोनों संख्यायें मिलाके एक गाय की एक पीढ़ी में ४,१६,४२६ (चार लाख, सोलह हजार, चार सौ छब्बीस) मनुष्य एक वार पालित होते हैं और पीढ़ी-परपीढ़ी बढ़ाकर लेखा करें तो असंख्य मनुष्यों का पालन होता है। 

[गाय की विशेषता]

इससे भिन्न बैल, गाड़ी, सवारी, भार उठाने आदि कर्मों से मनुष्यों के बड़े उपकारक होते हैं, परन्तु जैसे बैल उपकारक होते हैं वैसे भैंसे नहीं, तथा भैंसें गाय से दूध [की मात्रा] में अधिक उपकारक होती हैं परन्तु गाय के दूध-घी से जितने बुद्धिवृद्धि से लाभ होते हैं उतने भैंस के दूध से नहीं। इससे मुख्य-उपकारक आर्यों ने गाय को गिना है। और जो कोई अन्य विद्वान् होगा, वह भी इसी प्रकार समझेगा। 

[अन्य पशुओं से लाभ]

बकरी के दूध से २५९२० (पच्चीस सहस्र नौ-सौ वीस) आदमियों का पालन होता है। वैसे हाथी, घोड़े, ऊंट, भेड़, गधे आदि से भी बड़े उपकार होते हैं। इन सब पशुओं को मारनेवालों को मनुष्यों की हत्या करनेवाले जानियेगा।

[गोहत्या विदेशियों के शासन से आरम्भ हुई]


देखो, जब आर्यों का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तब आर्यावर्त वा अन्य भूगोल के देशों में बड़े आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्तते थे। क्योंकि [गाय] बैल आदि पशुओं की बहुताई होने से दूध, घी, अन्न, रस पुष्कल प्राप्त होते थे। जब से इस देश में आके गौ आदि पशुओं के मारनेवाले, मद्यपायी-मांसाहारी विदेशी राज्याधिकारी हुए हैं, तब से क्रमशः आर्यों के दुःख की बढ़ती होती जाती है। क्योंकि— 


"नष्टे मूले नैव फलं न पुष्पम्।" 

[चाणक्यनीति, अ० १०। श्लो० १३]॥


=जब वृक्ष का मूल ही काट दिया जाय तो फल-फूल कहाँ से हों?


[व्याघ्रादि से गौ आदि पशुओं की रक्षा]


प्रश्न―जो सभी अहिंसक हो जायें तो व्याघ्रादि पशु इतने बढ़ जायें कि सब गाय आदि पशुओं को मार खायें। तुम्हारा पुरुषार्थ व्यर्थ कर दें।


उत्तर―यह राजपुरुषों का काम है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों, उनको दण्ड देवें और प्राण से भी वियुक्त कर दें।

[मारे गये हिंस्र पशुओं वा मनुष्यों के मांस का क्या करें]

प्रश्न―फिर क्या उनका मांस फेंक देंवे?


उत्तर―[पशुओं का मांस] चाहें फेंक दें, चाहें कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें, [और मनुष्यों को दाहकर्मपूर्वक] जला देवें। अथवा [पशुओं का मांस] चाहे कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की हानि नहीं होती, किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी होकर हिंसक हो सकता है। 

[भक्ष्य-अभक्ष्य की परिभाषा]

जितना हिंसा और चोरी, विश्वासघात, छल आदि से पदार्थों को प्राप्त करके भोग करना है, वह 'अभक्ष्य', और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त करके भोजनादि करना 'भक्ष्य' है। जिन पदार्थों से स्वास्थ्य [-प्राप्ति और] रोगनाश [तथा] बुद्धि, बल, पराक्रम और वृद्धि होवे, उन तण्डुल, गोधूम, फल, फूल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्टादि का सेवन [करना और] उन पदार्थों का यथायोग्य मेल करके पाक [बनाकर] यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना सब 'भक्ष्य' कहाता है। 

[वैद्यकशास्त्रोक्त भक्ष्याऽभक्ष्य]

जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध और विकार करनेवाले हैं, जिस-जिस के लिये जो-जो पदार्थ 'वैद्यकशास्त्र' में वर्जित किये हैं, उन-उन का त्याग करना और जो-जो जिस-जिसके लिये विहित हैं, उन-उन का ग्रहण करना 'भक्ष्य' है।

[सह भोजन में दोष]

प्रश्न―एक साथ खाने में कुछ दोष है, वा नहीं? 


उत्तर―दोष है; क्योंकि एक के साथ दूसरे का स्वभाव और प्रकृति नहीं मिलती। जैसे कुष्ठी आदि के साथ खाने से अच्छे मनुष्य का भी रुधिर बिगड़ता है, वैसे दूसरे के साथ खाने से भी कुछ बिगाड़ ही होता है, सुधार नहीं। इसीलिये— 


नोच्छिष्टं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याच्चैव तथान्तरा। 

न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद् व्रजेत्॥ 

मनु॰ [२। ५६]॥


न किसी को अपना उच्छिष्ट=जूठा पदार्थ दे और न किसी के भोजन के बीच में आप खावे। न अधिक भोजन करे और न उच्छिष्ट अर्थात् भोजन किये पश्चात् मुख-हाथ धोये विना कहीं इधर-उधर जाय।

['उच्छिष्ट' शब्द का अर्थ]

प्रश्न―‘गुरोरुच्छिष्टभोजनम्’ इस वाक्य का क्या अर्थ होगा?


उत्तर―इसका यह अर्थ है कि गुरु के भोजन के पश्चात् जो पृथक् अन्न शुद्ध स्थित है, उसका भोजन करना, अर्थात् प्रथम गुरु को भोजन कराके पश्चात् शिष्य भोजन करे।

['उच्छिष्ट' पर विशेष विचार]

प्रश्न―जो उच्छिष्टमात्र का निषेध है, तो मक्खियों का उच्छिष्ट सहत, बछड़े का उच्छिष्ट दूध और एक ग्रास खाने के पश्चात् अपना भी उच्छिष्ट होता है, इनको भी न खाना चाहिये। 


उत्तर―सहत कहने मात्र ही उच्छिष्ट होता है। वह बहुत-सी ओषधियों का सार [होने से] ग्राह्य [है]। बछड़ा बाहिर का दूध पीता है, भीतर के दूध को नहीं छू सकता, इसलिये उच्छिष्ट नहीं; परन्तु बछड़े के पीये पश्चात् जल से उसकी मा के स्तन धोकर शुद्ध पात्र में [दूध] दोहना चाहिये। 


और अपना उच्छिष्ट, अपने को विकारकारक नहीं होता। और देखो, स्वभाव से यह बात सिद्ध है कि किसी का उच्छिष्ट कोई भी न खावे। जैसे अपने मुख, नाक, कान, आँख, उपस्थ और गुदा इन्द्रियों के मल-मूत्रादि के स्पर्श में घृणा नहीं होती, किन्तु किसी दूसरे के मल-मूत्र के स्पर्श में होती है। इससे सिद्ध होता है कि यह व्यवहार सृष्टिक्रम से विपरीत ही है; इसलिये मनुष्यमात्र को उचित है कि किसी का उच्छिष्ट अर्थात् जूठा कोई भी न खाये। 


प्रश्न―क्या स्त्री-पुरुष भी परस्पर उच्छिष्ट न खावें?


उत्तर―नहीं; क्योंकि उनके भी शरीरों का स्वभाव भिन्न-भिन्न है।

[मनुष्य मात्र के हाथ का क्यों न खावें]

प्रश्न―चाहे ब्राह्मण वा चाण्डाल हो, सबके हाथ चमड़े के हैं और जैसे रुधिरादि ब्राह्मण के शरीर में होते हैं, वैसे ही चाण्डाल के [शरीर में हैं]; पुनः चाण्डाल के हाथ का खाने में क्या दोष है? 


उत्तर―दोष है; क्योंकि जिन उत्तम पदार्थों के खान-पान से ब्राह्मण और ब्राह्मणी के शरीर में दुर्गन्धादि रहित [रक्त], शुद्ध वीर्य और रज होता है, वैसा चाण्डाल-चाण्डाली के शरीर में नहीं। क्योंकि जैसा चाण्डाल का शरीर दुर्गन्ध के परमाणुओं से भरा हुआ [=संयुक्त] होता है, वैसा ब्राह्मणादि का नहीं। इसलिये ब्राह्मणादि उत्तम वर्णों के हाथ का खाना और चाण्डाल आदि के हाथ का नहीं। 


जब तुमसे कोई पूछेगा कि जैसा चमड़े का शरीर माता, सास, बहिन, कन्या, पुत्रवधू का है, वैसा ही अपनी स्त्री का है, तो क्या माता आदि के साथ भी स्वस्त्री के समान वर्तोगे? तब तुमको संकुचित होकर चुप ही रहना पड़ेगा। जैसे उत्तम अन्न हाथ और मुख से खाया जाता है, वैसे दुर्गन्धमय पदार्थ भी खाया जा सकता है, तो क्या मल आदि भी खाओगे? क्या ऐसा भी कोई हो सकता है?

[गोबर से चौका लगाने के लाभ]

प्रश्न―जो गाय के गोबर से चौका लगाते हो, तो अपने गोबर से क्यों नहीं लगाते? और चौके में गोबर के जाने से चौका अशुद्ध क्यों नहीं होता?


उत्तर―गाय के गोबर से वैसा दुर्गन्ध नहीं होता जैसा कि मनुष्य के मल से। यह चिकना होने से शीघ्र नहीं उखड़ता, न कपड़ा बिगड़ता, न मलिन होता है। जैसा मिट्टी से मैल चढ़ता है, वैसा सूखे गोबर से नहीं होता। मिट्टी और गोबर से जिस स्थान का लेपन करते हैं, वह देखने में अतिसुन्दर होता है। और जहां रसोई बनती है वहां भोजनादि करने से घी, मिष्ट और उच्छिष्ट भी गिरता है, उससे मक्खी, कीड़ी आदि बहुत जीव आते हैं। जब उसका झाड़ू लगाके लेपन कर दिया जाय, वा पक्का मकान हो तो धो दिया जाय तो वे दोष नहीं रहते। जैसे मियाँ जी के चौके में कहीं कोयले, कहीं राख, कहीं लकड़ी और कहीं फूटी हांडी के टुकड़े, कहीं जूठे पत्तल, कहीं हाड़-गोड़ पड़े रहने से देखने में बुरा लगता और सहस्त्रों मक्खियों और कीड़ियों से भरा हुआ होता है; यदि गोबर से अशुद्ध मानते हो तो जब चूल्हे में छाने (कंडे) रखने, उसी की आगी से तमाखू पीने, घर की भित्ति पर लेपन करने आदि से मियाँ जी [आदि] का भी चौका भी भ्रष्ट हो जाता होगा?

[भोजन अच्छे स्थान में करना]

प्रश्न―चौके में खाना अच्छा, वा बाहर? 


उत्तर―जहाँ अच्छा दीखे वहां भोजन करना चाहिये; परन्तु आवश्यक युद्धादि कर्मों में तो घोड़े आदि यानों पर बैठ वा खड़े-खड़े भी खाना अत्यन्त उचित है।

[आर्यों द्वारा शुद्ध रीति से बनाया भोजन भोज्य है]

प्रश्न―क्या अपने ही हाथ का खाना, दूसरे के हाथ का नहीं? 


उत्तर―जो आर्यों में शुद्ध रीति से बनावे तो बराबर सब आर्यों के हाथ का खाने में कुछ भी हानि नहीं; क्योंकि जो ब्राह्मणादि वर्णस्थ स्त्री-पुरुष रसोई बनाने, चौका देने, बर्तन-मांजने आदि बखेड़ों में पड़े रहैं, तो विद्यादि शुभगुणों की वृद्धि कभी नहीं हो सके। 

[भोजन-सम्बन्धी प्राचीन आर्यों का व्यवहार]

देखो, महाराजे युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में भूगोल के राजा, ऋषि-महर्षि आये थे। एक ही पाकशाला से भोजन किया करते थे। जब से ईसाई, मुसलमान आदि के मतमतान्तर चले, आपस में वैर-विरोध हुआ, उन्होंने मद्यपान, गोमांसादि का खाना स्वीकार किया। उसी समय से भोजनादि में बखेड़ा हो गया। 


देखो, क़ाबुल, कन्धार, ईरान, अमेरिका, यूरोप आदि के देशों के राजाओं की कन्याओं गान्धारी, माद्री, उलूपी आदि के साथ आर्यावर्तीय राजा-लोग विवाह करते थे। शकुनि आदि कौरव-पाण्डवों के साथ खाते-पीते थे, कुछ विरोध नहीं करते थे। क्योंकि उस समय सर्व-भूगोल में वेदोक्त एक मत था, उसी में सबकी निष्ठा थी और एक दूसरे का सुख-दुःख, हानि-लाभ आपस में अपने समान समझते थे, तभी भूगोल में सुख था। अब तो बहुत मत-वाले होने से बहुत-सा दुःख और विरोध बढ़ गया है। इसका निवारण करना बुद्धिमानों का काम है। परमात्मा सबके मन में सत्य-मत का ऐसा अंकुर डाले कि जिससे मिथ्या-मत शीघ्र ही प्रलय को प्राप्त हों। इसमें सब विद्वान् लोग विचार कर, विरोध छोड़के अविरुद्धमत के स्वीकार से सब जन मिलकर सबके आनन्द को बढ़ावें।

[पूर्वार्ध-उत्तरार्ध का सम्बन्ध]

यह थोड़ा-सा आचार-अनाचार, भक्ष्याभक्ष्य-विषय में लिखा।


इस ग्रन्थ का 'पूर्वार्द्ध' इसी दशमे समुल्लास पर्यन्त पूरा हो गया। इन समुल्लासों में विशेष खण्डन-मण्डन इसलिये नहीं लिखा कि जब-तक मनुष्य सत्यासत्य के विचार में कुछ भी सामर्थ्य न बढ़ाते, तब-तक स्थूल और सूक्ष्म खण्डनों के अभिप्राय को नहीं समझ सकते। इसलिये प्रथम सबको सत्य-शिक्षा का उपदेश करके अब 'उत्तरार्द्ध' अर्थात् जिसमें चार समुल्लास हैं, उसमें विशेष खण्डन-मण्डन लिखेंगे। 

[उत्तरार्द्ध के समुल्लासों का विभाग]

इन चारों में से प्रथम समुल्लास में आर्यावर्तीय मतमतान्तरों के, दूसरे में जैनियों के, तीसरे में ईसाइयों और चौथे में मुसलमानों के मत के खण्डन-मण्डन के विषय में लिखेंगे। और पश्चात् चौदहवें समुल्लास के अन्त में स्वमत भी दिखलाया जायगा। जो कोई विशेष खण्डन-मण्डन देखना चाहें, वे इन चारों समुल्लासों में देखें; परन्तु सामान्य करके कहीं-कहीं दश समुल्लासों में भी कुछ थोड़ा-सा खण्डन-मण्डन किया है।

[ग्रन्थकार की पाठकों से अभ्यर्थना]

इन चौदह समुल्लासों को जो पक्षपात छोड़ न्यायदृष्टि से देखेगा, उसके आत्मा में सत्य-अर्थ का प्रकाश होकर आनन्द होगा। और जो हठ, दुराग्रह और ईर्ष्या से देखे-सुनेगा, उसको इस ग्रन्थ का यथार्थ अभिप्राय विदित होना बहुत कठिन है। इसलिये जो कोई इसको यथावत् विचारेगा वह इस ग्रन्थ को सुभूषित करेगा, और न विचारेगा वह इसका अभिप्राय न पाकर गोता खाया करेगा। विद्वानों का यही काम है कि सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण, और असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं। वे ही गुणग्राहक पुरुष विद्वान् होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप फलों को प्राप्त होकर प्रसन्न रहते हैं॥ 


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिकृते सत्यार्थप्रकाशे 

सुभाषाविभूषिते, आचाराऽनाचारभक्ष्याऽभक्ष्यविषये 

दशमः समुल्लासः सम्पूर्णः॥१०॥ 


समाप्तोऽयं पूर्वार्द्धः॥

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