व्यवहारभानु
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व्यवहारभानु
ग्रन्थ परिचय
जैसाकि ग्रन्थ के नाम से विदित होता है―व्यवहार का सूर्य या व्यवहार रूपी सूर्य। जैसे सूर्य के प्रकाश में अन्धकार समाप्त होकर सब कार्य भली प्रकार सिद्ध होते हैं, उसी प्रकार जो व्यक्ति व्यवहार में कुशल होता है, वह जीवन में सुख एवं सफलता प्राप्त करता है। अतः महर्षि ने सबको, विशेषकर बालकों को, यथायोग्य व्यवहार की शिक्षा देने के लिए इस ग्रन्थ को रचा। महर्षि के अपने शब्दों में, "व्यवहारभानु ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करता हूँ कि जिसको देख-दिखा, पढ़-पढ़ाकर मनुष्य अपने और अपने-अपने संतान तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें।"
व्यवहार के अतिरिक्त विद्या-अविद्या, धर्म-अधर्म, कर्त्तव्यअकर्त्तव्य, सत्य-असत्य, मूर्ख-अमूर्ख, पण्डित-अपण्डित, न्यायअन्याय आदि अनेक विषयों का परिचय और ज्ञान प्रश्न-उत्तर के माध्यम से कराया गया है। इसके अतिरिक्त, शिक्षा प्रदान करने की विधि, ब्रह्मचर्य, राजा आदि अनेक विषयों को भी लिया गया है।
इस ग्रन्थ में माता-पिता तथा सन्तान के आपस में व्यवहार के अतिरिक्त बालक से लेकर वृद्ध पर्यन्त मनुष्यों के सुधार के लिए आचार्य, विद्यार्थी, राजा-प्रजा, धार्मिक, अधार्मिक, मूर्ख, बुद्धिमान्, पतिपत्नी इन सबको आपसी व्यवहार में कुशलता प्राप्त करने की शिक्षा प्रदान की गई है।
यह ग्रन्थ सरल आर्यभाषा (हिन्दी) में लिखा गया है, जिससे सभी इसे सुखपूर्वक समझकर अपना व्यवहार और स्वभाव सुधार कर उत्तम कार्य कर सकें। बीच-बीच में संस्कृत भाषा में प्रमाण भी दिये गये हैं। अनेक मनोरंजक दृष्टान्त देकर अभिप्राय स्पष्ट किया गया है। इससे ग्रन्थ बहुत अधिक सरल एवं रुचिकर बन गया है।
इस ग्रन्थ का रचना काल संवत् १९३६, फाल्गुन मास, शुक्ल पक्ष की १५वीं तिथि है। इसे महर्षि ने काशी में लिखा था। (सम्पादक)
भूमिका
मैंने परीक्षा करके निश्चय किया है कि जो धर्मयुक्त व्यवहार में ठीक ठीक वर्त्तता है उसको सर्वत्र सुखलाभ और जो विपरीत वर्त्तता है वह सदा दुःखी होकर अपनी हानि कर लेता है। देखिये जब कोई सभ्य मनुष्य विद्वानों की सभा में वा किसी के पास जाकर अपनी योग्यता के अनुसार नम्रतापूर्वक 'नमस्ते' आदि करके बैठ के दूसरे की बात ध्यान दे सुन, उसका सिद्धान्त जान निरभिमानी होकर युक्त प्रत्युत्तर करता है, तब सज्जन लोग प्रसन्न होकर उसका सत्कार और जो अण्डबण्ड बकता है उसका तिरस्कार करते हैं।
जब मनुष्य धार्मिक होता है तब उसका विश्वास और मान्य शत्रु भी करते हैं और जब अधर्मी होता है तब उसका विश्वास और मान्य मित्र भी नहीं करते। इससे जो थोड़ी विद्या वाला भी मनुष्य श्रेष्ठ शिक्षा पाकर सुशील होता है उसका कोई भी कार्य नहीं बिगड़ता।
इसलिये मैं मनुष्यों की उत्तम शिक्षा के अर्थ सब वेदादिशास्त्र और सत्याचारी विद्वानों की रीतियुक्त इस 'व्यवहारभानु' ग्रन्थ को बनाकर प्रसिद्ध करता हूं कि जिसको देख दिखा, पढ़ पढ़ाकर मनुष्य अपने और अपने अपने संतान तथा विद्यार्थियों का आचार अत्युत्तम करें कि जिससे आप और वे सब दिन सुखी रहें।
इस ग्रन्थ में कहीं कहीं प्रमाण के लिए संस्कृत और सुगम भाषा लिखी और अनेक उपयुक्त दृष्टान्त देकर सुधार का अभिप्राय प्रकाशित किया है कि जिसको सब कोई सुख से समझ के अपना अपना स्वभाव सुधार के सब उत्तम व्यवहारों को सिद्ध किया करें।
सं० १९३६ फाल्गुन शुक्ला १५
दयानन्द सरस्वती
काशी
ओ३म्
सर्वान्तर्यामिणेऽखिलगुरवे विश्वम्भराय नमः
अथ व्यवहारभानुः
ऐसा किस मनुष्य का आत्मा होगा कि जो सुखों को सिद्ध करनेवाले व्यवहारों को छोड़कर उलटा आचरण करने में प्रसन्न होता हो। क्या यथायोग्य व्यवहार किये विना किसी को सर्वसुख हो सकता है? क्या कोई मनुष्य अपनी और पुत्रादि सम्बन्धियों की उन्नति न चाहता हो? क्या कोई मनुष्य अच्छी शिक्षा से धर्मार्थ, काम और मोक्ष फलों को सिद्ध नहीं कर सकता? और इसके विना पशु के समान होकर दु:खी नहीं रहता है? इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि श्रेष्ठ शिक्षा और धर्मयुक्त व्यवहारों से वर्त्तकर सुखी होके दुःखों का विनाश करे। इसलिये सब मनुष्यों को सुशिक्षा से युक्त होना अवश्य है, इसलिये यह बालक से लेके वृद्धपर्य्यन्त मनुष्यों के सुधार के अर्थ व्यवहार-सम्बन्धी शिक्षा का विधान किया जाता है। इसलिये यहां वेदादि शास्त्रों के प्रमाण भी कहीं-कहीं दीखेंगे। क्योंकि उनके अर्थों को समझने का ठीक-ठीक सामर्थ्य बालक आदि का नहीं रहता। जो विद्वान् प्रमाण देखना चाहे तो वेदादि अथवा मेरे बनाये ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका आदि ग्रन्थों में देख लेवे।
प्रश्न―कैसे पुरुष पढ़ाने और शिक्षा करनेहारे होने चाहिये?
उत्तर―पढ़ानेवालों के लक्षण―
आत्मज्ञानं समारम्भस्तितिक्षा धर्मनित्यता।
यमर्था नापकर्षन्ति स वै पण्डित उच्यते॥१॥
जिसको परमात्मा और जीवात्मा का यथार्थ ज्ञान, जो आलस्य को छोड़कर सदा उद्योगी, सुखदुःखादि का सहन, धर्म का नित्य सेवन करने वाला, जिसको कोई पदार्थ धर्म से छुड़ा कर अधर्म की ओर न खेंच सके, वह 'पण्डित' कहाता है॥ १॥
निषेवते प्रशस्तानि निन्दितानि न सेवते।
अनास्तिकः श्रद्दधान एतत् पण्डितलक्षणम्॥२॥
जो सदा प्रशस्त धर्मयुक्त कर्मों का करने और निन्दित अधर्मयुक्त कर्मों को कभी न सेवनेहारा; जो न कदापि ईश्वर, वेद और धर्म का विरोधी और परमात्मा, सत्यविद्या और धर्म में दृढ़ विश्वासी है, वही मनुष्य 'पण्डित' के लक्षणयुक्त होता है ॥ २॥
क्षिप्रं विजानाति चिरं शृणोति, विज्ञाय चार्थं भजते न कामात्।
नासंपृष्टो झुपयुङ्क्ते परार्थे, तत् प्रज्ञानं प्रथमं पण्डितस्य॥३॥
जो वेदादि शास्त्र और दूसरे के कहे अभिप्राय को शीघ्र ही जानने, दीर्घकाल पर्यन्त वेदादि शास्त्र और धार्मिक विद्वानों के वचनों को ध्यान देकर सुनके, ठीक-ठीक समझ, निरभिमानी शान्त होकर, दूसरों से प्रत्युत्तर करने; परमेश्वर से लेके पृथिवी पर्यन्त पदार्थों को जान के उनसे उपकार लेने में तन, मन, धन से प्रवृत्त होकर काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोकादि दुष्टगुणों से पृथक् वर्तमान; किसी के पूछने वा दोनों के संवाद में विना प्रसङ्ग के अयुक्त भाषणादि व्यवहार न करने वाला मनुष्य है, यही पण्डित का प्रथम बुद्धिमत्ता का लक्षण है॥३॥
नाप्राप्यमभिवाञ्छन्ति नष्टं नेच्छन्ति शोचितुम्।
आपत्सु च न मुह्यन्ति नरा: पण्डितबुद्धयः॥४॥
जो मनुष्य प्राप्ति होने के अयोग्य पदार्थों की कभी इच्छा नहीं करते; अदृष्ट वा किसी पदार्थ के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर शोक करने की अभिलाषा नहीं करते, और बड़े-बड़े दु:खों से युक्त व्यवहारों की प्राप्ति में भी मूढ़ होकर नहीं घबराते हैं, वे मनुष्य पण्डितों की बुद्धि से युक्त कहाते हैं ॥४॥प्रवृत्तवाक् चित्रकथ ऊहवान् प्रतिभानवान्।
आशु ग्रन्थस्य वक्ता च यः स पण्डित उच्यते॥५॥
जिसकी वाणी सब विद्याओं में चलने वाली, अत्यन्त अद्भुत विद्याओं की कथाओं को करने, विना जाने पदार्थों को तर्क से शीघ्र जानने-जनाने, सुनी-विचारी विद्याओं को सदा उपस्थित रखने और जो सब विद्याओं के ग्रन्थों को अन्य मनुष्यों को शीघ्र पढ़ाने वाला मनुष्य है, वही पण्डित कहाता है॥५॥
श्रुतं प्रज्ञानुगं यस्य प्रज्ञा चैव श्रुतानुगा।
असंभिन्नार्यमादः पण्डिताख्यां लभेत सः॥६॥
जिसकी सुनी हुई, और पठित विद्या अपनी बुद्धि के सदा अनुकूल और बुद्धि और क्रिया सुनी पढ़ी हुई विद्याओं के अनुसार, जो धार्मिक श्रेष्ठ पुरुषों की मर्यादा का रक्षक, और दष्ट डाकओं की रीति को विदीर्ण करनेहारा मनुष्य है, वही पण्डित नाम धराने के योग्य होता है॥६॥
जहाँ ऐसे-ऐसे सतपरुष पढाने और बद्धिमान पढनेवाले होते हैं वहां विद्या और धर्म की वृद्धि होकर सदा आनन्द ही बढ़ता जाता है और जहां निम्नलिखित मूढ़ पढ़ने-पढ़ानेहारे होते हैं, वहां अविद्या और अधर्म की उन्नति होकर दुःख ही बढ़ता जाता है।
प्रश्न―कैसे मनुष्य पढ़ाने और उपदेश करनेवाले न होने चाहियें?
मूर्ख के लक्षण
उत्तर―अश्रुतश्च समुन्नद्धो दरिद्रश्च महामनाः।
अर्थांश्चाकर्मणा प्रेप्सुर्मूढ इत्युच्यते बुधैः॥१॥
जो किसी विद्या को न पढ़, और किसी विद्वान् का उपदेश न सुनकर बड़ा घमंडी, दरिद्र होकर बड़े-बड़े कामों की इच्छा करनेहारा और विना परिश्रम के पदार्थों की प्राप्ति में उत्साही होता है, उसी मनुष्य को विद्वान् लोग मूर्ख कहते हैं ॥१॥
दृष्टान्त
जैसे―एक कोई दरिद्र शेखसेली नामक किसी ग्राम में था। वहां किसी नगर का बनिया दश रुपैये उधार लेकर घी लेने आया था। वह घी लेकर, घड़ा में भर, किसी मजूर के खोज में था। वहां शेखसेली आ निकला। उससे पूछा कि इस घड़े को तीन कोस पर ले जाने की क्या मजूरी लेगा। उसने कहा कि आठ आना। बनिये ने कहा कि चार आना लेना हो तो ले। उसने कहा―अच्छा। शेखसेली घड़ा उठा आगे चला और बनिया पीछे-पीछे चलता हुआ मन में मनोरथ करने लगा कि दश रुपैयों के इस घी के ग्यारह रुपैये आवेंगे। दश रुपैये सेठ को दूंगा, और एक रुपैया घर की पूंजी रहेगी। वैसे ही दश फेरे में दश रुपैये हो जायंगे। इसी प्रकार दश से सौ, सौ से सहस्र, सहस्र से लक्ष, लक्ष से करोड़। फिर करोड़ से सब जगह कोठियां करूंगा, और सब राजा लोग मेरे कर्जदार हो जायंगे। इत्यादि बड़े-बड़े मनोरथ करने लगा।
और शेखसेली ने विचारा कि चार आने की रुई ले सूत कात कर बेचूंगा, आठ आना मिलेगा। फिर आठ आना से एक रुपैया हो जायगा, फिर वैसे ही एक से दो रुपैये होंगे। उनसे एक बकरी लूँगा। जब उसके कच्चे-बच्चे होंगे तब उनको बेच एक गाय लँगा। उसके कच्चे-बच्चे बेच, एक भैंस लूँगा। उसके कच्चे-बच्चे बेच एक घोड़ी लूँगा। उसके कच्चेबच्चे बेच एक हथिनी लूँगा और उसके कच्चे-बच्चे बेच दो बीबियां ब्याहूँगा। एक का नाम प्यारी और दूसरी का नाम बेप्यारी रक्खूगा। जब प्यारी के लड़के गोद में बैठने आवेंगे तब कहूँगा-बच्चे! आओ बैठो, और जब बेप्यारी के लड़के आकर कहेंगे कि हम भी बैठें, तब कहूँगा-ॐ हूं ऊँ हूं ॐ हूं, नहीं, नहीं। ऐसा कहकर शिर हिला दिया। घड़ा गिर पड़ा, फूट गया और घी भूमि पर फैल के धूर में मिल गया। बनिया रोने लगा, और शेखसेली भी रोने लगा। बनिया ने शेखसेली को धमकाया कि घी क्यों गिरा दिया, और रोता क्यों है? तेरा क्या नुकसान हुआ?
(शेखसेली) तेरा क्या बिगाड़ हुआ? तू क्यों रोता है ?
(बनिया) मैंने दश रुपैये उधार लेकर प्रथम ही घी खरीदा था, उस पर बड़े-बड़े लाभ का विचार किया था। वह मेरा सब बिगड़ गया। मैं क्यों न रोऊं!
(शेखसेली) तेरी तो दश रुपये आदि की ही हानि हुई, मेरा तो घर ही बना बनाया बिगड़ गया। मैं क्यों न रोऊं?
(बनिया) क्या तेरे रोने से मेरा घी आ जायगा?
(शेखसेली) अच्छा तो तेरे रोने से मेरा घर भी न बन जायेगा। तू बड़ा मूर्ख है।
(बनिया) तू मूर्ख, तेरा बाप।
दोनों आपस में एक दूसरे को मारने लगे। फिर मारपीट कर शेखसेली अपने घर की ओर भाग गया, और उस बनिये ने धूर मिले हुए घी को ठीकरे में उठाकर, अपने घर की राह ली। ऐसे ही स्वसामर्थ्य के विना अशक्य मनोरथ किया करना मूल् का काम है और जो विना परिश्रम के पदार्थों की प्राप्ति में उत्साही होता है, उसी मनुष्य को विद्वान् लोग मूर्ख कहते हैं ॥१॥
अनाहूतः प्रविशति अपृष्टो बहु भाषते।
अविश्वस्ते विश्वसिति मूढचेता नराधमः॥२॥
(महाभारत, उद्योगपर्व, विदुरप्रजागर, अ० ३२)
जो विना बुलाये जहां-तहां सभादि स्थानों में प्रवेश कर सत्कार और उच्चासन को चाहे, वा ऐसे रीति से बैठे, कि सब सत्पुरुषों को उसका आचरण अप्रिय विदित हो, विना पूछे बहत अण्डबण्ड बके और अविश्वासियों में विश्वासी होकर सुखों की हानि कर लेवे, वही मनुष्य मूढ़बुद्धि और मनुष्यों में नीच कहाता है॥ २॥
जहाँ ऐसे-ऐसे मूढ़ मनुष्य पठन-पाठन आदि व्यवहारों को करनेहारे होते हैं, वहाँ सुखों का तो दर्शन कहां? किन्तु दुःखों की भरमार तो हुआ ही करती है। इसलिये बुद्धिमान् लोग ऐसे-ऐसे मूढों का प्रसंग वा इनके साथ पठन-पाठनक्रिया को व्यर्थ समझकर, पूर्वोक्त धार्मिक विद्वानों का प्रसङ्ग, और उन ही से विद्या का अभ्यास किया करें और सुशील बुद्धिमान् विद्यार्थियों ही को पढ़ाया करें।
ये विद्वान् और मूर्ख के लक्षण-विधायक श्लोक विदुरप्रजागर के अध्याय ३२ में एक ही ठिकाने लिखे हैं।
जो विद्या पढ़ें और पढ़ावें वे निम्नलिखित दोषयुक्त न हों―
आलस्यं मदमोहौ च चापल्यं गोष्ठिरेव च।
स्तब्धता चाभिमानित्वं तथाऽत्यागित्वमेव च।
एते वै सप्त दोषाः स्युः सदा विद्यार्थिनां मताः॥
सुखार्थिनः कुतो विद्या नास्ति विद्यार्थिनः सुखम्।
सुखार्थी वा त्यजेद्विद्यां विद्यार्थी वा त्यजेत्सुखम्॥
आलस्य, नशा करना―मूढ़ता, चपलता, व्यर्थ इधर-उधर की अण्डबण्ड बातें करना, जड़ता―कभी पढ़ना कभी न पढना, अभिमान और लोभलालच ये सात (७) विद्यार्थियों के लिये विद्या के विरोधी दोष हैं। क्योंकि जिसको सुख-चैन करने की इच्छा है, उसको विद्या कहां, और जिसका चित्त विद्या ग्रहण करने-कराने में लगा है उसको विषयसम्बन्धी सुख-चैन कहां? इसलिये विषयसुखार्थी विद्या को छोड़े, और विद्यार्थी विषयसुख से अवश्य अलग रहें। नहीं तो परमधर्म रूप विद्या का पढ़ना-पढ़ाना कभी नहीं हो सकेगा। ३-४॥
ये साढे तीन श्लोक भी महाभारत विदुरप्रजागर अध्याय ३९ में लिखे हैं।
प्रश्न―कैसे-कैसे मनुष्य सब विद्याओं की प्राप्ति कर और करा सकते हैं?
उत्तर―ब्रह्मचर्यस्य च गुणं शृणु त्वं वसुधाधिप।
आजन्ममरणावस्तु ब्रह्मचारी भवेदिह॥१॥
न तस्य किञ्चिदप्राप्यमिति विद्धि नराधिप।
बह्वयः कोट्यस्त्वृषीणां च ब्रह्मलोके वसन्त्युत॥२॥
सत्ये रतानां सततं दान्तानामूर्ध्वरेतसाम्।
ब्रह्मचर्यं दहेद्राजन् सर्वपापान्युपासितम्॥३॥
भीष्म जी युधिष्ठिर से कहते हैं कि-हे राजन् ! तू ब्रह्मचर्य के गुण सुन। जो मनुष्य इस संसार में जन्म से लेके मरणपर्य्यन्त ब्रह्मचारी होता है॥१॥
उसको कोई शुभगुण अप्राप्त नहीं रहता, ऐसा तू जान कि जिसके प्रताप से अनेक करोड़ों ऋषि और मनुष्य ब्रह्मलोक अर्थात् सर्वानन्दस्वरूप परमात्मा में वास करते और इस लोक में भी अनेक सुखों को प्राप्त होते हैं॥ २॥
जो निरन्तर सत्य में रमण, जितेन्द्रिय, शान्तात्मा, उत्कृष्ट, शुभगुणस्वभावयुक्त और रोगरहित पराक्रमयुक्त शरीर, ब्रह्मचर्य अर्थात् वेदादि सत्यशास्त्र और परमात्मा की उपासना का अभ्यास कर्मादि हैं, वे सब बुरे काम और दुःखों को नष्ट कर सर्वोत्तम धर्मयुक्त कर्म और सब सुखों की प्राप्ति करानेहारे होते और इन्हीं के सेवन से मनुष्य उत्तम अध्यापक और उत्तम विद्यार्थी हो सकते हैं॥३॥
प्रश्न―विद्या पढ़ने और पढ़ाने वालों के विरोधी व्यवहार कौन-कौन हैं?
उत्तर―अशुश्रूषा त्वरा श्लाघा विद्यायाः शत्रवस्त्रयः॥४॥
जो विद्या और विद्वानों की सेवा न करना, अतिशीघ्रता और अपनी वा अन्य पुरुषों की प्रशंसा में प्रवृत्त होना है, ये तीन विद्या के शत्रु हैं? इनको पढ़ने और पढ़ानेहारे जो हैं, वे छोड़ दें।
प्रश्न―'शूरवीर' किनको कहते हैं ?
(उ०) वेदाऽध्ययनशूराश्च शूराश्चाऽध्ययने रताः।
गुरुशुश्रूषया शूराः पितृशुश्रूषयाऽपरे॥१॥
मातृशुश्रूषया शूरा भैक्ष्यशूरास्तथाऽपरे।
अरण्ये गृहवासे च शूराश्चाऽतिथिपूजने॥२॥
जो कोई मनुष्य वेदादि शास्त्रों के पढ़ने-पढ़ाने में शूरवीर, जो दुष्टों के दलन और श्रेष्ठों के पालन में शूरवीर अर्थात् दृढ़ोत्साही उद्योगी, जो निष्कपट, परोपकारक, अध्यापकों की सेवा करके शूरवीर, जो अपने जनक की सेवा करके शूरवीर ॥१॥
जो माता की परिचर्या से शूर, जो संन्यासाश्रम से युक्त अतिथिरूप होकर सर्वत्र भ्रमण करके परोपकार करने के लिये भिक्षावृत्ति में शूर, जो वानप्रस्थाश्रम के कर्म और जो गृहाश्रम के व्यवहारों में शूर होते हैं, वे ही सब सुखों के लाभ करने-कराने में अत्युत्तम होके धन्यवाद के पात्र होते हैं, कि जो अपना तन, मन, धन, विद्या और धर्मादि शुभ ग्रहण में सदा उपयुक्त करते हैं ॥२॥
प्रश्न―शिक्षा किसको कहते हैं?
उत्तर―जिससे मनुष्य विद्या आदि शुभ गुणों की प्राप्ति और अविद्यादि दोषों को छोड़ के सदा आनन्दित हो सकें, वह शिक्षा कहाती है।
प्रश्न―विद्या और अविद्या किसको कहते हैं?
उत्तर―जिससे पदार्थ का स्वरूप यथावत जानकर, उससे उपकार लेके, अपने और दूसरों के लिये सब सुखों को सिद्ध कर सकें वह विद्या; और जिससे पदार्थों के स्वरूप को अन्यथा (उलटा) जानकर अपना और पराया अनुपकार कर लेवे, वह अविद्या कहाती है
प्रश्न―मनुष्यों को विद्या की प्राप्ति और अविद्या के नाश के लिये क्या-क्या कर्म करना चाहिये?
उत्तर―वर्णोच्चारण से लेके वेदार्थज्ञान के लिये ब्रह्मचर्य आदि कर्म करना योग्य है।
प्रश्न―ब्रह्मचारी किसको कहते हैं?
उत्तर―जो जितेन्द्रिय होके ब्रह्म अर्थात् वेदविद्या के लिये आचार्यकुल में जाकर विद्याग्रहण के लिये प्रयत्न करे। वह ब्रह्मचारी कहाता है।
प्रश्न―आचार्य किसको कहते हैं?
उत्तर―जो विद्यार्थियों को अत्यन्त प्रेम से विद्या और धर्मयुक्त व्यवहार की शिक्षा पूर्वक विद्या होने के लिये तन, मन और धन से प्रयत्न करे। उसको 'आचार्य' कहते हैं।
प्रश्न―अपने सन्तानों के लिये माता-पिता और आचार्य क्या-क्या शिक्षा करें?
उत्तर―मातृमान् पितृमानाचार्य्यवान् पुरुषो वेद। शतपथब्राह्मण॥
अहोभाग्य उस मनुष्य का है कि जिसका जन्म धार्मिक विद्वान् मातापिता और आचार्य के सम्बन्ध में हो। क्योंकि इन तीनों ही की शिक्षा से मनुष्य उत्तम होता है। ये अपने सन्तान और विद्यार्थियों को अच्छी भाषा बोलने, खाने, पीने, बैठने, उठने, वस्त्रधारणे, माता-पिता आदि का मान्य करने, उनके सामने यथेष्टाचारी न होने, विरुद्ध चेष्टा न करने आदि के लिये प्रयत्न से नित्यप्रति उपदेश किया करें, और जैसा-जैसा उसका सामर्थ्य बढ़ता जाय, वैसी-वैसी उत्तम बातें सिखलाते जायं। इसी प्रकार लड़के और लडकियों को पांच वा आठ वर्ष की अवस्था पर्यन्त माता-पिता की और इसके उपरान्त आचार्य की शिक्षा होनी चाहिये।
प्रश्न―क्या माता-पिता जैसी चाहें वैसी शिक्षा करें?
उत्तर―नहीं, जो अपने पुत्र-पुत्री और विद्यार्थियों को सुनावें कि सुन मेरे बेटे-बिटियां और विद्यार्थी ! तेरा शीघ्र विवाह करेंगे, तू इसकी डाढ़ीमूंछ पकड़ ले, इसकी जटा पकड़ ले, इसका जूड़ा पकड़ के ओढ़नी फेंक दे, धौल मार, गाली दे, इसका कपड़ा छीन ले, पगड़ी वा टोपी फेंक दे, खेल, कूद, हँस, रो, तुम्हारे विवाह में फुलवारी निकालेंगे इत्यादि कुशिक्षा करते हैं, उनको माता-पिता और आचार्य न समझने चाहियें, किन्तु सन्तान और शिष्यों के पक्के शत्रु और दुःखदायक हैं। क्योंकि जो बुरी चेष्टा देखकर लड़कों को न घुडकते और न दंड देते हैं, वे क्योंकर माता, पिता और आचार्य हो सकते हैं। और जो अपने सामने यथा-तथा बकने, निर्लज्ज होने, व्यर्थ चेष्टा करने आदि बुरे कर्मों से हटाकर, विद्या आदि शुभगुणों के लिए उपदेश कर तन, मन, धन लगा के उत्तम विद्या व्यवहार का सेवन कराकर अपने सन्तानों को सदा श्रेष्ठ करते जाते हैं, वे माता, पिता और आचार्य कहाकर धन्यवाद के पात्र हैं।
फिर वे अपने सन्तान और शिष्यों को ईश्वर की उपासना, धर्म, अधर्म, प्रमाण, प्रमेय, सत्य, मिथ्या, पाखण्ड, वेद, शास्त्र आदि के लक्षण, और उनके स्वरूप का यथावत् बोध करा, और सामर्थ्य के अनुकूल उनको वेदशास्त्रों के वचन भी कण्ठस्थ कराकर विद्या पढने, आचार्य के अनकल रहने की रीति भी जना देवें कि जिससे विद्या प्राप्ति आदि प्रयोजन निर्विघ्न सिद्ध हों, वे ही माता, पिता और आचार्य कहाते हैं।
प्रश्न―विद्या किस-किस प्रकार और कर्मों से होती है ? ॥
उत्तर―
चतुर्भिः प्रकारैर्विद्योपयुक्ता भवति।आगमकालेन
स्वाध्यायकालेन प्रवचनकालेन व्यवहारकालेनेति॥
महा० अ० १।१।१ । आ० १
विद्या चार प्रकार में काम आती है―आगम, स्वाध्याय, प्रवचन और व्यवहारकाल। आगमकाल उसको कहते हैं कि जिससे मनष्य पढाने वाले से सावधान होकर, ध्यान देके, विद्यादि पदार्थ ग्रहण कर सकें। स्वाध्याय-काल उसको कहते हैं कि जो पठन समय में आचार्य के मुख से शब्द, अर्थ और सम्बन्धों की बातें प्रकाशित हों उनको एकान्त में स्वस्थचित्त होकर पूर्वापर विचार के ठीक-ठीक हृदय में दृढ़ कर सकें। प्रवचनकाल उसको कहते हैं कि जिससे दूसरे को प्रीति से विद्याओं को पढ़ा सकना। व्यवहारकाल उसको कहते हैं कि जब अपने आत्मा में सत्यविद्या होती है, तब यह करना, यह न करना है, वह ठीक-ठीक सिद्ध हो के वैसा ही आचरण करना हो सके। ये चार प्रयोजन हैं।
तथा अन्य भी चार कर्म विद्याप्राप्ति के लिये हैं―श्रवण, मनन, निदिध्यासन और साक्षात्कार।
'श्रवण' उसको कहते हैं कि आत्मा मन के, और मन श्रोत्र इन्द्रिय के साथ यथावत् युक्त करके अध्यापक के मुख से जो-जो अर्थ और सम्बन्ध के प्रकाश करनेहारे शब्द निकलें, उनको श्रोत्र से मन और मन से आत्मा में एकत्र करते जाना।।
'मनन' उसको कहते हैं कि जो-जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध आत्मा में एकत्र हुए हैं उनका एकान्त में स्वस्थचित्त होकर विचार करना कि कौन शब्द किस अर्थ के साथ, कौन अर्थ किस शब्द के साथ और कौन सम्बन्ध किस-किस शब्द और अर्थ के साथ सम्बन्ध अर्थात् मेल रखता और इनके मेल में किस प्रयोजन की सिद्धि और उलटे होने में क्या-क्या हानि होती है इत्यादि।
और 'निदिध्यासन' उसको कहते हैं कि जो-जो शब्द, अर्थ और सम्बन्ध सुने, विचारे हैं वे ठीक-ठीक हैं वा नहीं? इस बात की विशेष परीक्षा करके दृढ़ निश्चय करना।
और 'साक्षात्कार' उसको कहते हैं कि जिन अर्थों के शब्द और सम्बन्ध सुने, विचारे और निश्चय किये हैं, उनको यथावत् ज्ञान और क्रिया से प्रत्यक्ष करके व्यवहारों की सिद्धि से अपना और पराया उपकार करना आदि विद्या की प्राप्ति के साधन हैं।
प्रश्न―आचार्य के साथ विद्यार्थी कैसा-कैसा वर्तमान करें, और कैसा-कैसा न करें?
उत्तर―सत्य बोलें, मिथ्या न बोलें, सरल रहें, अभिमान न करें, आज्ञापालन करें आज्ञा भंग न करें स्तति करें निन्दा न करें नीचे आसन पर बैठें, ऊंचे न बैठें, शान्त रहे, चपलता न करें, आचार्य की ताड़ना पर प्रसन्न रहें, क्रोध कभी न करें, जब कुछ पूछे, हाथ जोड़ के नम्र होकर उत्तर देवें, घमण्ड से न बोलें, जब वे शिक्षा करें चित्त देकर सुनें, ठट्टे में न उड़ावें।
शरीर और वस्त्र शुद्ध रक्खें, मैले न रक्खें। जो कुछ प्रतिज्ञा करें उसको पूरी करें। जितेन्द्रिय होवें, लम्पटपन व्यभिचार कभी न करें। उत्तमों का सदा मान्य करें, अपमान कभी न करें। उपकार मान के कृतज्ञ होवें, किसी के अनुपकारी होकर कृतघ्न न होवें। पुरुषार्थी रहें, आलसी कभी न हों. जिस-जिस कर्म से विद्याप्राप्ति हो उस-उस को करते जायं। जोजो बुरे काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक आदि विद्याविरोधी हों, उनको छोड़कर सदा उत्तम गुणों की कामना करें, बुरे कामों पर क्रोध, विद्याग्रहण में लोभ, सज्जनों में मोह, बुरे कामों से भय, अच्छे काम न होने में शोक सदा करके विद्यादि शुभगुणों से आत्मा और जितेन्द्रिय हो वीर्य आदि धातुओं की रक्षा से शरीर का बल सदा बढ़ाते जायं।
प्रश्न―आचार्य विद्यार्थियों के साथ कैसे वर्ते?
उत्तर―जिस प्रकार से विद्यार्थी विद्वान्, सुशील, निरभिमान, सत्यवादी, धर्मात्मा, आस्तिक, निरालस्य, उद्योगी, परोपकारी, वीर, धीर, गम्भीर, पवित्राचरण, शान्तियुक्त, दमनशील, जितेन्द्रिय, ऋजु, प्रसन्नवदन होकर माता, पिता, आचार्य, अतिथि, बन्धु, मित्र, राजा, प्रजा आदि के प्रियकारी हों। जब कभी किसी से बातचीत करें तब जो-जो उसके मुख से अक्षर, पद, वाक्य निकलें उनको शान्त होकर सुनके प्रत्युत्तर देवें। जब कभी कोई बुरी चेष्टा, मलीनता, मैले वस्त्रधारण, बैठने-उठने में विपरीताचरण, निन्दा, ईर्ष्या, द्रोह, विवाद, लड़ाई, बखेड़ा, चुगली, किसी पर मिथ्यादोष लगाना, चोरी, जारी, अनभ्यास, आलस्य, अतिनिद्रा, अतिभोजन, अतिजागरण, व्यर्थ खेलना, इधर-उधर अट्ट-सट्ट मारना, विषयसेवन वा बुरे व्यवहारों की कथा करना वा सुनना, दुष्टों के सङ्ग बैठना आदि दुष्ट व्यवहार करे तो उसको यथाऽपराध कठिन दण्ड देवें। इसमें प्रमाण―
सामृतैः पाणिभिनन्ति गुरवो न विषोक्षितैः।लालनाश्रयिणो दोषास्ताडनाश्रयिणो गुणाः॥१॥
महाभाष्य अ० ८। पा० १। सू०८ । आ० १॥
आचार्य लोग अपने विद्यार्थियों को विद्या और सुशिक्षा होने के लिए प्रेमभाव से अपने हाथों से ताड़ना करते हैं, क्योंकि सन्तान और विद्यार्थियों का जितना लाड़न करना है उतना ही उनके लिए बिगाड़, और जितनी ताड़ना करनी है, उतना उनके लिये सुधार है, परन्तु ऐसी ताड़ना न करे कि जिससे अंगभंग वा मर्म में लगने से विद्यार्थी लोग व्यथा को प्राप्त हो जायं ॥ १॥
प्रश्न―क्यों जी!
पठितव्यं तदपि मर्त्तव्यं, [न पठितव्यं तदपि मर्त्तव्यं], दन्तकटाकटेति किं कर्त्तव्यम्?
हुड़दङ्गोवाच―हुड़दङ्गा कहता है कि जो पढ़ता है वह भी मरता है, और जो नहीं पढ़ता वह भी मरता है, फिर पढ़ने-पढ़ाने में दाँत कटाकट क्यों करना?
(उत्तर) न विद्यया विना सौख्यं नराणां जायते ध्रुवम्।
अतो धर्मार्थमोक्षेभ्यो विद्याभ्यासं समाचरेत्॥१॥
सज्जन उवाच―सज्जन कहता है कि सुन भाई हुड़दंगे! जो तू जानता है सो विद्या का फल नहीं कि विद्या के पढ़ने से जन्म-मरण, आंख से देखना, कान से सुनना आदि ये ईश्वरीय नियम अन्यथा हो जायं, किन्तु विद्या से यथार्थज्ञान होकर यथायोग्य व्यवहार करने-कराने से आप और दूसरों को आनन्दयुक्त करना विद्या का फल है। क्योंकि विना विद्या के किसी मनुष्य को निश्चल सुख नहीं हो सकता। क्या भया कि किसी को क्षण भर सुख हुआ, न हुआ-सा है। किसी का सामर्थ्य नहीं है कि जो अविद्वान् होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के स्वरूप को यथावत् जानकर सिद्ध कर सके। इसलिये सब को उचित है कि इनकी सिद्धि के लिये विद्या का अभ्यास तन, मन, धन से किया और कराया करें॥ १॥
हुड़दंगा―हम देखते हैं कि बहुत से मनुष्य विद्या पढ़े हुए दरिद्र और भीख मांगते तथा विना पढ़े हुए राज्य धन का आनन्द भोगते हैं।
सज्जन―सुनो प्रिय! सुख-दुःख का योग आत्मा में हुआ करता है। जहाँ विद्यारूप सर्य का अभाव और अविद्यान्धकार का भाव है. वहाँ द:खों की तो भरमार सख की क्या ही कथा कहना है! और जहाँ विद्यार्क प्रकाशित होकर अविद्यान्धकार को नष्ट कर देता है, उस आत्मा में सदा आनन्द का योग और दुःख को ठिकाना भी नहीं मिलता है।
हुड़दंगा शिर धुनकर चुप हो गया।
प्रश्न―आचार्य किस रीति से विद्या और सुशिक्षा का ग्रहण करावें और विद्यार्थी लोग करें?
उत्तर―आचार्य समाहित होकर ऐसी रीति से विद्या और सुशिक्षा करें कि जिससे उसके आत्मा के भीतर सुनिश्चित अर्थ होकर, उत्साह ही बढ़ता जाय। ऐसी चेष्टा वा कर्म कभी न करें कि जिसको देख वा करके विद्यार्थी अधर्मयुक्त हो जावें।
दृष्टान्त, हस्तक्रिया, यन्त्र, कलाकौशल विचार आदि से विद्यार्थियों के आत्मा में पदार्थ इस प्रकार साक्षात् करावें कि एक के जानने से हजारों पदार्थ यथावत् जानते जायं। अपने आत्मा में इस बात का ध्यान रक्खें कि जिस-जिस प्रकार से संसार में विद्या धर्माचरण की बढती, और मेरे पढाये मनुष्य अविद्वान् और कुशिक्षित होकर मेरी निन्दा का कारण न हो जायं, कि मैं ही विद्या के रोकने और अविद्या की वृद्धि का निमित्त गिना जाऊं। ऐसा न हो कि सर्वात्मा परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव से मेरे गुण, कर्म, स्वभाव विरुद्ध होने से मुझ को महादु:ख भोगना पड़े। धन्य वे मनुष्य हैं, कि जो अपने आत्मा के समान सख में सख और द:ख में दःख अन्य मनुष्यों का जानकर धार्मिकता को कदापि नहीं छोड़ते, इत्यादि उत्तम व्यवहार आचार्य लोग नित्य करते जायं।
विद्यार्थी लोग भी जिन कर्मों से आचार्य की प्रसन्नता होती जाय, वैसे कर्म करें, जिससे उसका आत्मा सन्तुष्ट होकर चाहे कि ये लोग विद्या से युक्त होकर सदा प्रसन्न रहें। रात-दिन विद्या ही के विचार में लगकर एक-दूसरे के साथ प्रेम से परस्पर विद्या को बढ़ाते जावें। जहाँ विषय वा अधर्म की चर्चा भी होती हो, वहाँ कभी खड़े भी न रहें। जहाँ-जहाँ विद्यादि व्यवहार और धर्म का व्याख्यान होता हो, वहाँ से अलग कभी न रहें। भोजन छादन ऐसी रीति से करें कि जिससे कभी रोग, वीर्यहानि वा प्रमाद न बढे। जो-जो बद्धि के नाश करनेहारे नशा के पदार्थ हों उनको ग्रहण कभी न करें, किन्तु जो-जो ज्ञान बढ़ाने और रोग-नाश करनेहारे पदार्थ हों, उन का सेवन सदा किया करें। नित्यप्रति परमेश्वर का ध्यान, योगाभ्यास, बुद्धि का बढ़ाना, सत्य धर्म की निष्ठा और अधर्म का सर्वथा त्याग करते रहें। जो-जो पढ़ने में विघ्नरूप कर्म हों उनको छोड़कर पूर्ण विद्या की प्राप्ति करें, ये दोनों के गुण कर्म हैं।
प्रश्न―सत्य और असत्य का निश्चय किस प्रकार से होता है? क्योंकि जिसको एक सत्य कहता है, दूसरा उसी को मिथ्या बतलाता है, उसके निर्णय करने में क्या-क्या निश्चित साधन हैं?
उत्तर―पांच हैं―
उनमें से―प्रथम―ईश्वर, उसके गुण, कर्म, स्वभाव और वेदविद्या।
दूसरा―सृष्टिक्रम।
तीसरा―प्रत्यक्षादि आठ प्रमाण।
चौथा―आप्तों का आचार, उपदेश, ग्रन्थ और सिद्धान्त।
और पांचवाँ―अपने आत्मा की साक्षी, अनुकूलता, जिज्ञासुता, पवित्रता और विज्ञान।
१ ईश्वरादि से परीक्षा करना उसको कहते हैं कि जो-जो ईश्वर, ईश्वर के न्याय आदि गुण पक्षपातरहित, सृष्टि बनाने का कर्म और सत्य, न्याय, दयालुता, परोपकारिता आदि स्वभाव और वेदोपदेश से सत्य और धर्म ठहरे वही सत्य और धर्म; और जो-जो असत्य और अधर्म ठहरे, वही असत्य और अधर्म है। जैसे कोई कहे कि विना कारण और कर्ता के कार्य होता है, सो सर्वथा मिथ्या जानना। इससे यह सिद्ध होता है कि जो सृष्टि की रचना करनेहारा पदार्थ है वही ईश्वर और उसके गुण कर्म स्वभाव वेद और सृष्टिक्रम से ही निश्चित जाने जाते हैं।
२ सृष्टिक्रम उसको कहते हैं कि जो-जो सृष्टिक्रम अर्थात् सृष्टि के गुण, कर्म और स्वभाव से विरुद्ध हो वह मिथ्या और अनुकूल हो वह सत्य कहाता है। जैसे कहे कि विना मा-बाप के लड़का, कान से देखना, आंख से बोलना आदि होता वा हुआ है। ऐसी-ऐसी बातें सृष्टिक्रम से विरुद्ध होने से मिथ्या और माता-पिता से सन्तान, कान से सुनना और आंख से देखना, आदि सृष्टिक्रम के अनुकूल होने से सत्य ही हैं।
३ प्रत्यक्ष आदि आठ प्रमाणों से परीक्षा करना उसको कहते हैं कि जो-जो प्रत्यक्षादि प्रमाणों से ठीक-ठीक ठहरे, वह सत्य और जो-जो विरुद्ध ठहरे वह मिथ्या समझना चाहिये। जैसे किसी ने किसी से कहा कि यह क्या है ? दूसरे ने कहा कि पृथिवी, यह प्रत्यक्ष । इसको देखकर इसके कारण का निश्चय करना यह अनुमान। जैसे विना बनानेहारे के घर नहीं बन सकता, वैसा ही सृष्टि का बनानेहारा ईश्वर भी बड़ा कारीगर है, यह दृष्टान्त उपमान। सत्योपदेष्टाओं का उपदेश शब्द। भूतकालस्थ पुरुषों की चेष्टा, सष्टि आदि पदार्थों की कथा ऐतिह्य। एक बात सुनकर दूसरी बात को विना सुने-कहे, प्रसङ्ग से जान लेना यह अर्थापत्ति । कारण से कार्य होना आदि को सम्भव। और आठवां अभाव अर्थात् किसी ने किसी से कहा कि जल ले आ। उसने वहाँ जल के अभाव को जानकर तर्क से जाना कि जहाँ जल है वहाँ से ले आके देना चाहिए, यह अभाव प्रमाण कहाता है। इन आठ प्रमाणों से जो-जो विपरीत न हो, वह-वह सत्य और जो-जो उलटा हो वह-वह मिथ्या है।
४ आप्तों के आचार और सिद्धान्त से परीक्षा करना उसको कहते हैं कि जो सत्यवादी, सत्यकारी, सत्यमानी, पक्षपातरहित, सब के हितैषी, विद्वान् सब के सुख के लिए प्रयत्न करें वे धार्मिक लोग आप्त कहाते हैं। जो-जो उनके उपदेश, आचार, ग्रन्थ और सिद्धान्त से युक्त हो वह-वह सत्य और जो-जो विपरीत हो वह-वह असत्य है।
५ आत्मा से परीक्षा उसको कहते हैं कि जो-जो अपना आत्मा अपने लिए चाहे, सो सब के लिए चाहना और जो-जो न चाहे, सो-सो किसी के लिए न चाहना। जैसा आत्मा में वैसा मन में, जैसा मन में वैसा क्रिया में होने को, जानने जनाने की इच्छा, शुद्ध भाव और विद्या के नेत्र से देखके सत्य और असत्य का निश्चय करना चाहिये।
इन पांच प्रकार की परीक्षाओं से पढ़ाने और पढ़नेहारे तथा सब मनुष्य सत्याऽसत्य का निर्णय करके धर्म का ग्रहण और अधर्म का परित्याग करें और करावें॥
प्रश्न―धर्म और अधर्म किसको कहते हैं ?
उत्तर―जो पक्षपात रहित न्याय, सत्य का ग्रहण, असत्य का परित्याग, पांचों परीक्षाओं के अनुकूल आचरण, ईश्वराज्ञा का पालन, परोपकार अवस्था में दोनों की प्रसन्नतापूर्वक विवाह करना, किसी की करोड़ों की चीज जंगल में भी पड़ी देखकर कभी ग्रहण करने की मन में भी इच्छा कर्म किया करते हैं। जो-जो तुम्हारे उत्तम कर्म और उपदेश हैं, उन-उनको तो हम ग्रहण करते हैं अन्य को नहीं। परन्तु तुम कैसे ही हो। हमको तन, मन, धन से तुम्हारी सेवा करना परमधर्म है, क्योंकि जैसी तुमने बाल्यावस्था में हमारी सेवा की है वैसी तुम्हारी सेवा हम क्यों न करें?
कुसन्तान आह―श्रेष्ठ माता, पिता, आचार्य, अतिथियों से अभागिये सन्तान कहते हैं कि हमको खूब खिलाओ, पिलाओ, खेलने दो, हमारे लिये कमाया करो, जब तुम मर जाओगे, तब हम ही को सब काम करना पडेगा। शीघ्र विवाह कर दो, नहीं तो हम इधर-उधर लीला करें हीगें। बाग में जाके नाच-तमाशे करेंगे वा भाग जायंगे वा वैरागी हो जायंगे। पढ़ने में बड़ा कष्ट होता है, हमको पढ़के क्या करना है। क्योंकि हमारी सेवा करने वाले तुम तो बने ही हो। हमको सैल-सपट्टा, सवारी, शिकारी, नाच, तमाशे, खाने, पीने, ओढ़ने, पहरने के लिये खूब दिया करो, नहीं तो जब हम जवान होंगे तब तुमको समझ लेंगे। "दण्डादण्डि, नखानखि, केशाकेशि, मुष्टामुष्टि, युद्धमेव भविष्यत्यन्यत्किम्''। ऐसे-ऐसे सन्तान दुष्ट कहाते हैं।
उत्तम माता आदि कहते हैं कि सुनो लड़को! अभी तुम्हारी पढ़ने, गुणने, सत्संग करने, अच्छी-अच्छी बात सीखने, वीर्य-निग्रहण करने; आचार्य आदि की सेवा कर विद्वान् होने, शरीर और आत्मा की पूर्ण युवा अवस्था आदि उत्तम कर्म करने की अवस्था है। जो चूकोगे तो फिर पछतावोगे। पुनः ऐसा समय तुमको मिलना अति कठिन है, क्योंकि जब तक हम घर का और तुम्हारे खाने-पीने आदि का प्रबन्ध करने वाले हैं, तब तक तुम सुशिक्षाग्रहणपूर्वक सर्वोत्कृष्ट विद्या रूपी धन को संचित करो। यही अक्षय धन है कि जिसको चोर आदि न ले सकते, न भार होता और जितना दान करो उतना ही अधिक-अधिक बढ़ता जाता है। इससे युक्त होकर जहाँ रहोगे वहाँ सुखी और प्रतिष्ठा पाओगे। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के सम्बन्धी कर्मों को जानकर सिद्ध कर सकोगे। हम जब तुमको विद्यारूप श्रेष्ठगुणों से अलंकृत देखेंगे, तभी हमको परम सन्तोष होगा और जो तुम कोई दुष्ट काम करोगे तो हम अपना भी अभाग्य समझ लेंगे। क्योंकि हमारे कौन से पापों के फल से हमको दुष्ट सन्तान मिले। क्या तम नहीं देखते कि जिन मनष्यों को राज्य धन प्राप्त भी है परन्त वे विद्या और उत्तम शिक्षा से विना नष्ट-भ्रष्ट हो जाते और श्रेष्ठ विद्या सशिक्षा से युक्त दरिद्र भी राज्य और ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं। तुमको चाहिये―
कियान्यस्माक सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि॥१॥
तैत्तिरीयारण्यके प्रपाठके ७। अनुवाके ११
जो-जो हमारे उत्तम चरित्र हैं सो-सो करो और जो कभी हम भी बुरे काम करें, उनको कभी मत करो। इत्यादि उत्तम उपदेश और कर्म करने और कराने हारे माता, पिता और आचार्य आदि श्रेष्ठ कहाते हैं।
प्रश्न―राजा, प्रजा और इष्ट मित्र आदि के साथ कैसा-कैसा व्यवहार करें?
उत्तर―राजपुरुष प्रजा के लिए सुमाता और सुपिता के समान, और प्रजापुरुष राजसम्बन्ध में सुसन्तान के सदृश वर्त्तकर परस्पर आनन्द बढ़ावें। मित्र, मित्र के साथ सत्य व्यवहारों के लिए आत्मा के समान प्रीति से वर्ते, परन्तु अधर्म के लिए नहीं। पड़ौसी पड़ौसी के साथ ऐसा वर्तमान करें कि जैसा अपने शरीर के लिए करते हैं। वैसे ही मित्रादि के लिए भी कर्म किया करें। स्वामी सेवक के साथ ऐसे वर्ते कि जैसा अपने हस्तपादादि अंगों की रक्षा के लिये वर्त्तते हैं। सेवक स्वामियों के लिये ऐसे वर्ते कि जैसे अन्न, जल, वस्त्र और घर आदि शरीर की रक्षा के लिए होते हैं।
प्रश्न―ब्रह्मचर्य का क्या-क्या नियम है?
उत्तर―कम से कम पच्चीस २५ वर्ष पर्यन्त पुरुष और सोलह वर्ष पर्यन्त कन्या को ब्रह्मचर्य सेवन अवश्य करना चाहिये और अड़तालीसवें वर्ष से अधिक पुरुष और चौबीस से अधिक कन्या ब्रह्मचर्य का सेवन न करें किन्तु इसके उपरान्त गृहाश्रम का समय है।
प्रश्न―प्रमादी ब्रूते―पागल मनुष्य कहता है कि सुनो जी! कन्याओं का पढ़ना शास्त्रोक्त नहीं, क्योंकि जब वे पढ़ जावेंगी तो मूर्ख पति का अपमान कर इधर-उधर पत्र भेजकर, अन्य पुरुषों से प्रीति जमा के व्यभिचार किया करेंगी।
उत्तर―सज्जनः समाधत्ते―श्रेष्ठ मनुष्य उसको उत्तर देता है। सुनो जी! तुम्हारे कहने से यह आया कि किसी पुरुष को भी न पढ़ना चाहिये, क्योंकि वह भी पढ़कर मूर्ख स्त्री का अपमान और डाकगाड़ी चलाकर इधर-उधर अन्य स्त्रियों के साथ सैल-सपाटा किया करेगा।
प्रश्न―प्रमादी―हां। पुरुष भी न पढ़ें तो अच्छी बात है, क्योंकि पढ़े भए मनुष्य चतुराई से दूसरों को धोखा देकर, अपमान करके अपना मतलब सिद्ध कर लेते हैं।
उत्तर―सज्जन―सुनो जी! यह विद्या पढ़ने का दोष नहीं, किन्तु आप जैसे मनुष्यों के सङ्ग का दोष है, और जो पढ़ना-पढ़ाना धर्म और ईश्वर की विद्या से रहित है, सो तो प्रायः बुरे काम का कारण देखने में आता और जो पढ़ना-पढ़ाना उक्त विद्या से सहित है, वह तो सबके सुख और उपकार ही के लिये होता है।
प्रश्न―कन्याओं के पढ़ने में वैदिक प्रमाण कहां है?
उत्तर―सुनो प्रमाण―
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम्॥
―अथर्ववेद कां० ११ । अ०३। सू० ५। मं १८
अर्थ―जैसे लड़के लोग ब्रह्मचर्य करते हैं, वैसे कन्या लोग ब्रह्मचर्य करके वर्णोच्चारण से लेकर वेदपर्यन्त शास्त्रों को पढ़कर, प्रसन्न करके, स्वेच्छा से पूर्ण युवा अवस्थावाले विद्वान् पति को वेदोक्त रीति से ग्रहण करें।
क्या अधर्मी से भिन्न कोई ऐसा भी मनुष्य होगा कि किसी पुरुष वा स्त्री को विद्या के पढ़ने से रोककर मूर्ख रक्खा चाहे? और वेदोक्त प्रमाण का अपमान करके अपना अकल्याण किया चाहे ? ।
प्रश्न―विद्या को किस-किस कर्म से प्राप्त हो सकता है?
उत्तर―शुद्ध वर्णोच्चारण, व्यवहार की शुद्धि, पुरुषार्थ, धार्मिक विद्वानों का सङ्ग, विषयकथाप्रसङ्ग का त्याग, सुविचार से व्याकरण आदि से शब्द, अर्थ और सम्बन्धों को यथावत् जानकर, उत्तम क्रिया करके सर्वथा साक्षात् करता जाय। जिस-जिस विद्या के लिये जो-जो साधनरूप सत्यग्रन्थ हैं, उन को पढ़कर वेदादि साध्य ग्रन्थों के अर्थों को जानना आदि कर्म शीघ्र विद्वान् होने के साधन हैं।
प्रश्न―विना पढ़े हुए मनुष्यों की क्या गति होगी?
उत्तर―दो। एक अच्छी और दूसरी बुरी। अच्छी उसको कहते हैं कि जो मनुष्य विद्या पढ़ने का सामर्थ्य तो नहीं रखता परन्तु वह धर्माचरण किया चाहे तो विद्वानों के सङ्ग और अपने आत्मा की पवित्रता और अविरुद्धता से धर्मात्मा अवश्य हो सकता है। क्योंकि सब मनुष्यों को विद्वान् होने का तो सम्भव ही नहीं, परन्तु धार्मिक होने का सम्भव सब के लिये है क्योंकि जैसे अपने लिये सख की प्राप्ति और दःख के त्याग, मान्य के होने, अपमान के न होने आदि की अभिलाषा करते हैं तो दूसरों के लिये क्यों न करनी चाहिये? जब किसी की कोई चोरी वा किसी से झूठा जाल लगाता है तो क्या उसको अच्छा लगता है अर्थात् जिस-जिस कर्म के करने में अपने आत्मा को शङ्का, लज्जा और भय नहीं होता, वहवह धर्म और जिस-जिस कर्म में शंकादि होते हैं वह-वह अधर्म किसी को विदित क्या नहीं होता? क्या जो कोई आत्म-विरोध अर्थात् आत्मा में कुछ और, वाणी में कुछ भिन्न, और क्रिया में विलक्षणता करता है वह अधर्मी, और जिसके जैसा आत्मा में वैसा वाणी, और जैसा वाणी में वैसा ही क्रिया में आचरण है, वह धर्मात्मा नहीं है? प्रमाण―
असुर्य्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः।
तांस्ते प्रेत्याभिगच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः॥१॥
यजुर्वेद अ० ४० । मं० ३॥
अर्थ―(ये) जो (आत्महनः) आत्महत्यारे अर्थात् आत्मस्थ ज्ञान से विरुद्ध कहने, मानने और करनेहारे हैं (ते) वे ही (लोकाः) लोग (असुऱ्या नाम) असुर अर्थात् दैत्य, राक्षस नामवाले मनुष्य हैं वे ही (अन्धेन तमसावृताः) बड़े अधर्मरूप अन्धकार से युक्त होके जीते हुए और मरण को प्राप्त होकर (तान्) दुःखदायक देहादि पदार्थों को (अभि-गच्छन्ति) सर्वथा प्राप्त होते हैं और जो आत्मरक्षक अर्थात् आत्मा के अनुकूल ही कहते, मानते और आचरण करते हैं वे मनुष्य विद्यारूप शुद्ध प्रकाश से युक्त होकर देव अर्थात् विद्वान् नाम से प्रख्यात हैं, वे सर्वदा सुख को प्राप्त होकर मरणे के पीछे भी आनन्दयुक्त देहादि पदार्थों को प्राप्त होते हैं।
प्रश्न―विद्या और अविद्या किसको कहते हैं?
उत्तर―जिससे पदार्थ यथावत् जानकर न्याययुक्त कर्म किये जावें वह विद्या, और जिससे किसी पदार्थ का यथावत् ज्ञान न होकर अन्यायरूप कर्म किये जायं, वह अविद्या कहाती है।
प्रश्न―न्याय और अन्याय किसको कहते हैं? उत्तर-जो पक्षपात रहित सत्याचरण करना है, वह न्याय और जो पक्षपात से मिथ्याचरण करना है, वह अन्याय कहाता है।
प्रश्न―धर्म और अधर्म किसको कहते हैं ?
उत्तर―जो न्यायाचरण है उसको धर्म, और जो अन्यायाचरण करना है, उसको अधर्म जानो॥
महामूर्ख का लक्षण
एक प्रियादास का चेला भगवान्दास अपने गुरु से बारह वर्ष पर्यन्त पढ़ा। एक दिन उनसे पूछा कि महाराज! मुझको सस्कृत बोलना नहीं आया। गुरु बोले-सुन बे! पढ़ने-पढ़ाने से विद्या नहीं आती, किन्तु गुरु की कृपा से आ जाती है। जब गुरु सेवा से प्रसन्न होता है, तब जैसे कुंजियों से ताला खोल कर मकान के सब पदार्थ झट देखने में आते हैं, वे ऐसी युक्ति बतला देते हैं, कि हृदय के कपाट खुल जाकर सब पदार्थविद्या तत्क्षण आ जाती है। सुन! संस्कृत बोलने की तो सहज युक्ति है।
वह क्या है महाराज जी?
संसार में जितने शब्द संस्कृत वा देशभाषा में हों, उन पर एक-एक बिन्दु धरने से सब शुद्ध संस्कृत हो जाते हैं।
अच्छा तो महाराज जी! लोटा, जल, रोटी, दाल, शाक आदि शब्दों पर बिन्दु धर के कैसे संस्कृत हो जाते हैं ?
देखो! लोंटां। जंलं। रोंटीं। दालं। शांकं।
वाह-वाह गुरु के विना क्षणमात्र में पूरी विद्या कौन बतला सकता है? भगवान्दास ने अपने आसन पर जाकर विचार के यह श्लोक बनाया―
बांपं आंजां नमस्कृत्यं परं पांजं तथैवं चं।
मंयां भंगंवांन दांसेंनं गीतां टींकां कंरोंम्यहं।
जब उसने प्रात:काल उठकर हर्षित होके गुरु के पास जाकर श्लोक सुनाया, तब तो प्रियादास जी भी बहुत प्रसन्न हुए कि चेले हों तो तेरे ही समान गुरु के वचन पर विश्वासी और जो गुरु हो तो मेरे सदृश हो।
ऐसे मनुष्यों का क्या औषध है, विना अलग रहने के?
प्रश्न―विद्या पढ़ते समय वा पढ़के किसी को पढ़ावें वा नहीं?
उत्तर―बराबर पढ़ाता जाय, क्योंकि पढ़ने से पढ़ाने में विद्या की वृद्धि अधिक होती है। पढ़के आप अकेला विद्वान् रहता है, पढ़ाने से दूसरा भी हो जाता है। उत्तरोत्तर काल में विद्या की वृद्धि होती ही है। जो विद्या को प्राप्त होता है वह मनुष्य परोपकारी, धार्मिक मनुष्य अवश्य होता है। क्योंकि जैसे अन्धा कुएँ में गिर पड़ता है। वैसे देखनेहारा कभी नहीं गिरता, और अविद्या की हानि होने आदि प्रयोजन पढ़ाने से ही सिद्ध होते हैं।
प्रश्न (क्षुद्रबुद्धिरुवाच) सभी विद्वान् हो जावेंगे तो हमको कौन पोगे? और आप ही आप सब पुस्तकों को बांचकर अर्थ समझ लेंगे, पूजापाठ में भी न बुलावेंगे। विशेष विघ्न धनाढ्य और राजाओं के पढ़ाने में है, क्योंकि उनसे हम लोगों की बड़ी जीविका होती है।
किसी शूद्र ने उनके पास पढ़ने की इच्छा से जाके कहा कि मुझको आप कुछ पढ़ाइये
(अल्पबुद्धि पोप)―तू कौन है, क्या काम करता है और तेरे घर में क्या व्यवहार होता है?
उत्तर―मैं तो महाराज आपका दास शूद्र हूँ। कुछ जिमीदारी-खेतीबाड़ी भी होती और घर में कुछ लेन-देन का भी व्यवहार है।
(नष्टमति पोप) छी! छी! छी! तुझको सुनने और हमको सुनाने का भी अधिकार नहीं है। जो तू अपना धर्म छोडकर हमारा धर्म करेगा तो क्या नरक में न पड़ेगा? हां, तुझको वेदों से भिन्न ग्रन्थों की कथा सुनने का तो अधिकार है। जब तेरी सनने की इच्छा हो तब हमको बला लेना; सुना देंगे। परन्तु आप से आप मत बांच लेना, नहीं तो अधर्मी हो जावेगा। जो कुछ भेट पूजा लाया हो सो धरके चला जा, और सुन! हमारे वचन को मान ले, नहीं तो तेरी मक्ति कभी नहीं होगी। खब कमा और हमारी सेवा किया कर। इसी में तेरा कल्याण, और तझ पर ईश्वर प्रसन्न होगा।
(दास) महाराज! मुझको तो पढ़ने की बहुत इच्छा है, क्या विद्या का पढ़ना बुरी चीज है कि दोष लग जाय?
(बकवृत्ति पोप) बस-बस तुझको किसी ने बहका दिया है, जो हमारे सामने उत्तर-प्रत्युत्तर करता है। हाय! क्या करें, कलियुग आ गया। विद्या को पढ़कर हमारा उपदेश नहीं मानते। बिगड़ गये।
(दास) क्या महाराज ! हमारे ही ऊपर कलियुग ने चढ़ाई कर दी, कि जो हम ही को पढ़ने और मुक्ति से रोकता है।
(स्वार्थी पोप) हां-हां, जो सतयुग होता तो तू हमारे सामने, ऐसा बर-बर कर सकता?
(दास) अच्छा तो महाराज जी! आप नहीं पढ़ाते तो हम को जो कोई पढ़ावेगा, उसके चेले हो जावेंगे।
(अन्धकारी पोप) सुन-सुन! कलियुग में और क्या होना है। (दास) आपकी हम सेवा करें, उसके बदले आप हमको क्या देंगे?
(मार्जारलिङ्गी पोप) आशीर्वाद।
(दास) उस आशीर्वाद से क्या होगा?
(धूर्त पोप) तुम्हारा कल्याण।
(दास) जब आप हमारा कल्याण चाहते हैं तो क्या विद्या के पढ़ने से अकल्याण होता है?
(पोप उवाच) अब क्या तू हम से शास्त्रार्थ करता है?
प्रश्न―पोप का क्या अर्थ है ?
उत्तर―यह शब्द अन्य देश की भाषा का है। वहां तो इसका अर्थ पिता और बड़े का है, परन्तु यहां जो केवल धूर्तता करके अपने मतलब सिद्ध करनेहारा हो उसी का नाम है।
प्रश्न―जो विद्या पढ़ा हो और उसमें धार्मिकता न हो तो उसको विद्या का फल होगा वा नहीं?
उत्तर―कभी नहीं, क्योंकि विद्या का यही फल है कि मनुष्य को धार्मिक होना अवश्य है। जिसने विद्या के प्रकाश से अच्छा जानकर न किया, और बुरा जानकर न छोड़ा तो क्या वह चोर के समान नहीं है? क्योंकि जैसे चोर भी चोरी को बुरी जानता हुआ करता है और साहूकारी को अच्छी जानके भी नहीं करता, वैसा ही जो पढ़ के भी अधर्म को नहीं छोड़ता और धर्म को नहीं करनेहारा मनुष्य है।
प्रश्न―जब कोई मनुष्य मन से बुरा जानता है, परन्तु किसी विशेष भय आदि निमित्तों से नहीं छोड़ सकता, और अच्छे काम को नहीं कर सकता, तब भी क्या उसको दोष वा गुण होता है अथवा नहीं?
उत्तर―दोष ही होता है क्योंकि जो उसने अधर्म कर लिया उसका फल अवश्य होगा और जानकर भी धर्म को न किया उसको सुखरूप फल कुछ भी नहीं होगा। जैसे कोई मनुष्य कुए में गिरना बुरा जानके भी गिरे, क्या उसको दुःख न, और अच्छे मार्ग में चलना उत्तम जानकर भी न चले, उसको सुख कभी होगा? इसलिये―
यथा मतिस्तथोक्तिर्यथोक्तिस्तथा कृति-
स्सत्पुरुषस्य लक्षणमतो विपरीतमसत्पुरुषस्येति॥
वही सत्पुरुष का लक्षण है कि जैसा आत्मा का ज्ञान वैसा वचन, और जैसा वचन वैसा ही कर्म करना। और जिसका आत्मा से मन, उससे वचन और वचन से विरुद्ध कर्म करना है, वही असत्पुरुष का लक्षण है।
इसलिये मनुष्यों को उचित है कि सब प्रकार का पुरुषार्थ करके अवश्य धार्मिक होना चाहिए।
प्रश्न―पुरुषार्थ किसको कहते और उसके कितने भेद हैं?
उत्तर―उद्योग का नाम पुरुषार्थ और उसके चार भेद हैं। एक―अप्राप्त की इच्छा। दूसरा―प्राप्त की यथावत् रक्षा। तीसरा―रक्षित की वृद्धि और चौथा―बढ़ाये हुए पदार्थों का धर्म में खर्च करना पुरुषार्थ के भेद हैं। जो-जो न्याय, धर्म से युक्त क्रिया से अप्राप्त पदार्थों की अभिलाषा करके उद्योग करना। उसी प्रकार उसकी सब प्रकार से रक्षा करनी कि वह पदार्थ किसी प्रकार से नष्ट-भ्रष्ट न हो जाय। उसको धर्मयुक्त व्यवहार से बढ़ाते जाना, और बढ़े हुए पदार्थों को उत्तम व्यवहारों में खर्च करना; ये चार भेद हैं।
प्रश्न―किस-किस प्रकार से किस-किस व्यवहार में तन, मन, धन लगाना चाहिए?
उत्तर―निम्नलिखित चारों में विद्या की वृद्धि परोपकार, अनाथों का पालन और अपने सम्बन्धियों की रक्षा। विद्या के लिए शरीर को आरोग्य और उससे यथायोग्य क्रिया करनी, मन से अत्यन्त विचार करना-कराना और धन से अपने सन्तान और अन्य मनुष्यों को विद्यादान करना-कराना चाहिए। परोपकार के लिये शरीर और मन से अत्यन्त उद्योग और धन से नाना प्रकार के व्यवहार तथा कारखाने खड़े करने कि जिनमें अनेक मनुष्य कर्म करके अपना-अपना जीवन सुख से [व्यतीत] किया करें। अनाथ उनको कहते हैं कि जिनका सामर्थ्य अपने पालन करने का भी न हो, जैसे कि बालक, वृद्ध, रोगी, अङ्ग-भङ्ग आदि हैं, उनको भी तन, मन, धन लगाकर सुखी रख के जिस-जिससे जो-जो काम बन सके, उसउस से वह-वह कार्य सिद्ध कराना चाहिये, कि जिससे कोई आलसी होके नष्टबुद्धि न हो, और अपने सन्तान आदि मनुष्यों के खान-पान अथवा विद्या की प्राप्ति के लिये जितना तन मन धन लगाया जाय उतना थोडा है। परन्तु किसी को निकम्मा कभी न रहना, और न रखना चाहिये।
प्रश्न―विवाह करके स्त्री पुरुष आपस में कैसे-कैसे वर्ते ?
उत्तर―कभी कोई किसी का अप्रियाचरण, अर्थात् जिस-जिस व्यवहार से एक दूसरे को कष्ट हो वैसा व्यवहार कभी न करें, जैसे कि व्यभिचार आदि। एक दूसरे को देखकर प्रसन्न हों, एक दूसरे की सेवा करें। पुरुष भोजन (खान-पान), वस्त्र, आभूषण और प्रियवचन आदि व्यवहारों से स्त्री को सदा प्रसन्न रक्खे और घर के सब कृत्य उसके आधीन करे। स्त्री भी अपने पति से प्रसन्नवदन, खान-पान, प्रेमभाव आदि से उसको सदा प्रसन्न रक्खे।
प्रश्न―ऐसा न करें तो क्या बिगाड़ है?
उत्तर―सर्वस्वनाश, क्योंकि परस्पर प्रीति के विना न गृहाश्रम का किञ्चित् सुख, न उत्तम सन्तान और न प्रतिष्ठा वा लक्ष्मी आदि श्रेष्ठ पदार्थों की प्राप्ति कभी होती है। सुनो! मनु जी क्या कहते हैं―
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता, भर्ना भार्या तथैव च।
यस्मिन्नेव कुले नित्यं, कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥
मनु० अ० ३।६०
जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री आनन्दित रहती है, उसी में निश्चित कल्याण की स्थिति रहती है। परन्तु यह बात कब होगी कि जब ब्रह्मचर्य से विद्या, शिक्षा ग्रहण करके युवावस्था में परस्पर परीक्षा करके, प्रसन्नतापूर्वक स्वयंवर ही विवाह करेंगे। जितनी हानि विद्या, उत्तम प्रजा और सुख की बाल्यावस्था में विवाह और व्यभिचार से होती है, उतना ही सुखलाभ ब्रह्मचर्य से शरीर और आत्मा की पूर्ण युवा अवस्था में परस्पर प्रीति से विवाह करने से होता है। जो मनुष्य परस्पर प्रीति से स्वयंवर विवाह करके सन्तानों को उत्पन्न करते हैं, उनके सन्तान भी ऐसे योग्य होते हैं कि लाखों में एक ही होता है कि जिनमें बुद्धि, बल, पराक्रम, धर्म, सुशीलता आदि शुभगुण पूर्ण होते हैं कि जो महाभाग्यशाली कहाके, अपने कुल को अति प्रशंसित कर देते हैं।
प्रश्न―मनुष्यपन किसको कहते हैं?
उत्तर―इस मनुष्य जाति में एक ऐसा गुण है कि वैसा किसी दूसरी जाति में नहीं पाया जाता।
प्रश्न―वह कौन-सा है?
उत्तर―जितने मनुष्य से भिन्न जातिस्थ प्राणी हैं, उनमें दो प्रकार का स्वभाव है-बलवान् से डरना, निर्बल को डराना और पीड़ा देकर अर्थात् दूसरे का प्राण तक निकाल के अपना मतलब साध लेना। देखने में आता है जो मनुष्य ऐसा ही स्वभाव रखता है, उसको भी इन्हीं जातियों में गिणना उचित है। परन्तु जो निर्बलों पर दया, उनका उपकार और निर्बलों को पीड़ा देने वाले अधर्मी बलवानों से किञ्चिन्मात्र भी भय शंका न करके, इनको परपीड़ा से हटा के निर्बलों की रक्षा तन, मन, धन से सदा करना ही मनुष्य जाति का निज गुण है। क्योंकि जो बुरे कामों के करने में भय और सत्य कामों के करने में किञ्चित् भी भय, शंका नहीं करते, वे ही मनुष्य धन्यवाद के पात्र कहाते हैं।
प्रश्न―क्यों जी! सर्वथा सत्य से तो कोई व्यवहार सिद्ध नहीं हो सकता। देखो! व्यापार में सत्य बात कह दें तो किसी पदार्थ का विक्रय न हो। हार-जीत के व्यवहारों में मिथ्या साक्षी न खड़े करें तो हार हो जाये। इत्यादि हेतुओं से सब ठिकानों में सत्यभाषणादि कैसे कर सकते हैं?
उत्तर―यह बात महामूर्खता की है। जैसे किसी ग्राम में एक लालबुझक्कड़ रहता था, कि जिसको पांच सौ ग्राम वाले महापण्डित और एक गुरु मानते थे। एक रात में किसी राजा का हाथी उसी ग्राम के समीप होकर कहीं स्थानान्तर को चला गया था। उसके पग के चिह्न जहां-तहां मार्ग में बन रहे थे। उनको देख के खेती करनेहारे ग्रामीण लोगों ने परस्पर पूछा कि भाई! यह किस का खोज है? सबने कहा कि हम नहीं जानते, हम नहीं जानते। फिर सब की सम्मति से लालबुझक्कड़ को बुलाके पूछा कि तुम्हारे विना कोई भी दूसरा मनुष्य इसका समाधान नहीं कर सकता। कहो यह किसके पग का चिह्न है? जब वह रोया और रोकर हंसा, तब सब ने पूछा कि तुम क्यों रोये और हँसे? तब वह बोला कि जब मैं मर जाऊंगा, तब ऐसी-ऐसी बातों का उत्तर विना मेरे कौन दे सकेगा, और हंसा इसलिए कि इसका उत्तर तो सहज है। सुनो―
लालबुझक्कड़ बूझिया और न बूझा कोय।
पग में चक्की बांध के हिरना कूदा होय॥
जो जंगल में हिरण होता है, वह किसी जंगली मनुष्य की चक्की के पाटों को अपने पगों में बांध के कूदता चला गया है। तब सुनकर सब लोगों ने वाह-वाह बोलकर उसको धन्यवाद दिया, और बोले कि तुम्हारे सदृश पृथिवी में कोई भी पण्डित नहीं है, कि ऐसी-ऐसी बातों का उत्तर दे सके।
जब वह लालबुझक्कड़ ग्राम की ओर आता ही था, इतने में एक ग्रामीण की स्त्री ने जंगल से बेर लाके, जो अपना लड़का छप्पर के खम्भे को पकड़ के खड़ा था, उसको कहा कि बेटा! बेर ले। तब उसने हाथों की अंजली बांध के बेरों को ले लिया। परन्तु जब छप्पर की थूनी हाथों के बीच में रहने से उसका मुख बेर तक नहीं पहुंचा, तब लड़का रोने लगा। लड़के को रोते देखकर उसकी मा भी रोने लगी कि हाय रे मेरे लड़के को खम्भे ने पकड़ लिया रे! तब उसका बाप सुनकर आया, वह भी रोने लगा कि हाय रे! थूणी ने मेरे लड़के को सचमुच पकड़ लिया। तब उसको सुनके अड़ौसी-पड़ौसी भी रोने लगे कि हाय रे दैया ! इसके लड़के को खम्भे ने कैसा पकड़ लिया है। तब किसी ने कहा कि लालबुझक्कड़ को बुलाओ। उसके विना कोई भी लड़के को नहीं छुड़ा सकेगा। तब एक मनुष्य उसको शीघ्र बुला लाया। फिर उसको पूछा कि यह लड़का कैसे छूट सकता है? तब वह वैसे ही हंस और रो के स्वमुख से अपनी बड़ाई करके बोला कि सुनो लोगो! दो प्रकार से यह लड़का छूट सकता है, एक तो यह है कि कुहाड़ा लाके लड़के का एक हाथ काट डालो, अभी छूट जायगा और दूसरा उपाय यह है कि प्रथम छप्पर को उठा के नीचे धरो, फिर लड़के को धूनी के ऊपर से उतार ले आओ। तब लड़के का बाप बोला, कि हम दरिद्र मनुष्य हैं, हमारा छप्पर टूट जायेगा तो फिर छावना कठिन है। तब लालबुझक्कड़ बोला कि लाओ कुहाड़ा, फिर क्या देख रहे हो। कुहाड़ा लाके जब तक हाथ काटने को तैय्यार हुए तब तक दूसरे ग्राम से एक कुछ बुद्धिमती स्त्री भी हल्ला सुनकर वहां पहुँच कर, देख के बोली कि इसका हाथ मत काटो। देखो! मैं इस लड़के को छुड़ा देती हूँ। तब वह खम्भे के पास जाके लड़के की अंजलि के नीचे अपनी अंजलि करके बोली कि बेटा! मेरे हाथ में बेर छोड़ दे। जब वह बेर छोड़के अलग हो गया, फिर उसको बेर दे दिये; खाने लगा। तब तो बहुत क्रुद्ध होकर लालबुझक्कड़ बोला कि यह लड़का छ: महीने के बीच मर जायगा। क्योंकि जैसा मैंने कहा था वैसा ही करते तो न मरता। तब तो उसके मा-बाप घबरा के बोले कि अब क्या करना चाहिये? तब उस स्त्री ने समझाये कि यह बात झूठ है, और हाथ के काटने से तो अभी यह मर जाता तो तुम क्या करते? मरण से बचने का कोई औषध नहीं। तब उनका घबराहट छूट गया।
वैसे जो मनुष्य महामूर्ख हैं, वे ऐसा समझते हैं कि सत्य से व्यवहार का नाश और झूठ से ही व्यवहार की सिद्धि होती है। परन्तु जब किसी को कोई एक व्यवहार में झूठा समझ ले तो उसकी प्रतिष्ठा, प्रतीति और विश्वास सब नष्ट होकर उसके सब व्यवहार नष्ट होते जाते, और जो सब व्यवहारों में झूठ को छोड़कर सत्य ही करते हैं, उनको लाभ ही लाभ होते हैं, हानि कभी नहीं। क्योंकि सत्य व्यवहार करने का नाम धर्म और विपरीत का अधर्म है। क्या धर्म का सुख के लाभरूपी और अधर्म का दुःखरूपी फल नहीं होता? प्रमाण―
इदमहमनृतात्सत्यमुपैमि॥१॥
यजु० । अ० १। मं० ५॥
सत्यमेव जयति नाऽनृतं सत्येन पन्था विततो देवयानः।
येनाक्रमन्त्षयो ह्याप्तकामा ह्यत्र तत्सत्यस्य परमं निधानम्॥२॥
मुण्ड० ३। खं० १। मं० ६॥
नहि सत्यात्परो धर्मो नानृतात्पातकं परम्॥३॥ इत्यादि
अर्थ―मनुष्य में मनुष्यपन यही है कि सर्वथा झूठ व्यवहारों को छोड़कर सत्य व्यवहारों का ग्रहण सदा करे॥१॥
क्योंकि―सर्वदा सत्य ही का विजय और झूठ का पराजय होता है। इसलिए जिस सत्य से चलके धार्मिक ऋषि लोग जहाँ सत्य की निधि परमात्मा है, उसको प्राप्त होकर आनन्दित हुए थे और अब भी होते हैं, उसका सेवन मनुष्य लोग क्यों न करें॥२॥
यह निश्चित है कि न सत्य से परे कोई धर्म और न असत्य से परे कोई अधर्म है॥३॥
इससे धन्य मनुष्य वे हैं जो सब व्यवहारों को सत्य ही से करते और झूठ से युक्त कर्म किञ्चिन्मात्र भी नहीं करते है।
दृष्टान्त―एक किसी अधर्मी मनुष्य ने किसी अधर्मी बजाज की दुकान पर जाकर कहा कि यह वस्त्र के आने गज देगा?
वह बोला कि सोलह आने।
तुम भी कुछ कहो।
बजाज और ग्राहक दोनों जानते ही थे कि यह दश आने गज का कपड़ा है, परन्तु अधर्मी झूठ बोलने में कभी नहीं डरते।
ग्राहक―छ: आने गज दो, और सच-सच लेने देने की बात करो।
बज़ाज―अच्छा तो तुम को दो आने छोड़ देते हैं, चौदह आने दो।
ग्राहक―है तो टोटा, परन्तु सात आने ले लो।
बज़ाज―अच्छा तो सच-सच कहें।
ग्राहक―हां, हां।
बज़ाज―चलो एक आना टोटा भी सही, तेरह आने दो, तुमको लेना हो तो लो।
ग्राहक―मैं सत्य सत्य कहता हूँ कि इसका आठ आने से अधिक कोई भी तुमको न देगा।
बज़ाज―तुमको लेना हो तो लो, न लेना हो मत लो, परमेश्वर की सौगन्द, बारह आने गज तो मुझको पड़ा है, तुम को भला मनुष्य जानकर मैं दे देता हूँ।
ग्राहक―धर्म की सौगन्द, मैं सच कहता हूँ, तुझको देना हो तो दे, पीछे पछतावेगा। मैं तो दूसरे की दुकान से ले लूंगा, क्या तुम्हारी एक ही दुकान है? नव आने गज दे दो, नहीं तो मैं जाता हूँ।
बज़ाज―तुमने ऐसा कभी खरीदा भी है ? नव आने गज लाओ, मैं सौ रुपये का लेता हूँ।
ग्राहक धीरे-धीरे चला कि मुझको यह बुलाता है वा नहीं। बजाज तिरछी नजर से देखता रहा कि देखें यह लौटता है वा नहीं। जब न लौटा तब बोला, सुनो! सुनो! इधर आओ।
ग्राहक―क्या कहते हो, नव आने पर दोगे? बज़ाज-ए लो धर्म से कहता हूँ, कि ग्यारह आने भी दोगे?
ग्राहक―मैं भी धर्म से कहता हूँ। साढ़े नव आने लो, कह कर कुछ आगे चला। बजाज ने समझा कि गया हाथ से, अजी इधर आओ-आओ।
ग्राहक―क्यों तुम देर लगाते हो, व्यर्थ काल जाता है।
बज़ाज―मेरे बेटे की सौगन्द, तुम इसको न लोगे तो पछताओगे, अब मैं सत्य ही कहता हूँ, साढ़े दश आने दे दो, नहीं तो तुम्हारी राजी।
ग्राहक―मेरी सौगन्द, तुमने दो आने अधिक लिए हैं। अच्छा दश आने देता हूँ, इतने का है तो नहीं।
बज़ाज―अच्छा सवा दश आने भी दोगे?
ग्राहक―नहीं-नहीं।
बज़ाज―अच्छा आओ बैठो, कै गज लोगे?
ग्राहक―सवा गज।
बज़ाज―अजी, कुछ अधिक लो।
ग्राहक―अच्छा, नमूना ले जाते हैं। अब तो तुम्हारी दुकान देख ली, फिर कभी आवेंगे तो बहुत लेंगे।
बजाज ने नापने में कुछ सरकाया।
ग्राहक―अजी देखें तो तुमने कैसा नापा?
बज़ाज―क्या विश्वास नहीं करते हो, हम साहूकार हैं वा ठट्ठा हैं। हम कभी झूठ कहते और करते हैं?
ग्राहक―हां जी, तुम बड़े सच्चे हो। एक रुपैया कहकर दश आने तक आये, छ: आना घट गये, अनेक सौगन्दें खाईं।
बज़ाज―वाह जी वाह ! तुम भी बड़े सच्चे हो, छ: आने कहकर दश आने तक देने को तैयार हो। अनेक सौगन्दें खा-खा कर आये, सौदा झूठ के विना कभी नहीं हो सकता।
ग्राहक―तू तो बड़ा झूठा है।
बज़ाज―क्या तू नहीं है? क्योंकि एक गज कपड़े के लिये कोई भी भला मनुष्य इतना झगड़ा करता है।
ग्राहक―तू झूठा, तेरा बाप, हमारी सात पीढ़ी में कोई झूठा भी हुआ है?
बज़ाज―तू झूठा, तेरी सात पीढ़ी भी झूठी।
ग्राहक ने ले जूता, एक मार दिया। बजाज ने गज चट मारा। आड़ोसी-पाड़ोसी दुकानदारों ने जैसे-तैसे छुड़ाया।
बज़ाज―चल-चल, जा, तेरे जैसे लाखों देखे हैं।
ग्राहक―चल बे, तेरे जैसे जुबांचोर, टटपूंजिये दुकानदार मैंने करोड़ों देखे हैं।
आड़ोसी-पाड़ोसी―अजी झूठ के विना कभी सौदा भी होता है? जाओ जी तुम अपनी दुकान पर बैठो, और जाओ तुम अपने घर को।
बज़ाज―यह बड़ा दुष्ट मनुष्य है।
ग्राहक―अबे, मुख सम्भाल के बोल।
बज़ाज―तू क्या कर लेगा?
ग्राहक―जो मैंने किया सो तैने देख लिया, और कुछ देखना हो तो दिखला हूँ?
बज़ाज―क्या तू गज से न पीटा जायगा?
फिर दोनों लड़ने को दौड़े। जैसे-तैसे लोगों ने अलग-अलग कर दिये। ऐसे ही सर्वत्र झूठे लोगों की दुर्दशा होती है।
धार्मिकों का दृष्टान्त
ग्राहक―इस दुशाले का क्या मूल्य है?
बज़ाज―पांच सौ रुपये।
ग्राहक―अच्छा, लीजिये।
बज़ाज―लो दुशाला।
सच्चे दुकान वाले के पास कोई झूठा ग्राहक गया। इस दुशाले का क्या लोगे?
बज़ाज―अढ़ाई सौ रुपये।
ग्राहक―दो सौ लो। सेठ-जाओ, यहाँ तुम्हारे लिये सौदा नहीं है।
ग्राहक―अजी, कुछ तो कम लो।
साहूकार―यहाँ झूठ का व्यवहार नहीं है, बहुत मत बोलो, लेना हो तो लो, नहीं तो चले जाओ।
ग्राहक दूसरी बहुत दुकानों में माल देख, मूल्य करके, फिर वहीं आके, अढ़ाई सौ रुपये देकर दुशाला ले गया।
सच्चा ग्राहक झूठे दुकानदार के पास जाकर बोला कि इस पीताम्बर का क्या लोगे?
बज़ाज―पच्चीस रुपये।
ग्राहक―बारह रुपये का है, देना हो तो दो, कहकर चलने लगा।
बज़ाज―अजी, अठारह दो।
ग्राहक―नहीं।
बज़ाज―सोलह दो।
ग्राहक―नहीं।
बज़ाज―चौदह दो।
ग्राहक―नहीं।
बज़ाज―तेरह दो।
ग्राहक―नहीं।
बज़ाज―अच्छा तो साढ़े बारह ही दो।
ग्राहक―नहीं।
बज़ाज―सवा बारह दो।
ग्राहक―नहीं।
बज़ाज―अच्छा बारह का ही ले जाओ।
ग्राहक―लाओ, लो रुपये।
ऐसे धार्मिकों को सदा लाभ ही लाभ होता है, और झूठों की दुर्दशा होकर दिवाले ही निकल जाते हैं। इसलिये सब मनुष्यों को अत्यन्त उचित है, कि सर्वथा झूठ को छोड़कर सत्य ही से सब व्यवहार करें। जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होकर सदा आनन्द में रहें।
प्रश्न―मनुष्य का आत्मा सदा धर्म और अधर्मयुक्त किस-किस कर्म से होता है?
उत्तर―सर्वान्तर्यामी, सर्वद्रष्टा, सर्व-व्यापक, सर्वकर्मों के साक्षी परमात्मा से डरने से अर्थात् कोई कर्म ऐसा नहीं है कि जिसको वह न जानता हो। सत्यविद्या, सुशिक्षा, सत्पुरुषों का सङ्ग, उद्योग, जितेन्द्रियता, ब्रह्मचर्य आदि शुभ गुणों के होने, और लाभ के अनुसार व्यय करने से मनुष्य धर्मात्मा होता है, और जो इससे विपरीत है वह धर्मात्मा कभी नहीं हो सकता, क्योंकि जो राजा आदि अल्पज्ञ मनुष्यों से भय करता, और परमेश्वर से भय नहीं करता वह क्योंकर धर्मात्मा हो सकता है? क्योंकि राजा आदि के सामने बाहर की अधर्मयुक्त चेष्टा करने में तो भय होता है, परन्तु आत्मा और मन में बुरी चेष्टा करने में कुछ भी भय नहीं होता, क्योंकि ये भीतर का कर्म नहीं जान सकते। इससे आत्मा और मन का नियम करने हारा राजा एक आत्मा और दूसरा परमेश्वर ही है; मनुष्य नहीं। और वे जहाँ एकान्त में राजादि मनुष्यों को नहीं देखते वहाँ तो बाहर से भी चोरी आदि दुष्ट कर्म करने में कुछ भी शंका नहीं करते।
दृष्टान्त―जैसे एक धार्मिक विद्वान् के पास पढ़ने के लिए दो नवीन विद्यार्थियों ने आके कहा, कि आप हमको पढ़ाइये।
विद्वान्―अच्छा हम तुमको पढ़ावेंगे, परन्तु हम कहें सो एक काम तुम दोनों जने कर लाओ। इस एक-एक लडके को एकान्त में ले जाके, जहाँ कोई भी न देखता हो, वहां इसका कान पकड़ कर, दो चार वार शीघ्र उठा-बैठा के, धीरे से एक चपेटिका मार देना। दोनों दोनों को ले के चले। एक ने तो चारों ओर देखा कि यहाँ कोई नहीं देखता। उक्त काम करके झट चला आया। दूसरा पण्डित के वचन के अभिप्राय को विचारने लगा, कि मुझको लड़का, और मैं लड़के को भी देखता ही हूँ, फिर वह काम कैसे कर सकता हूँ? पण्डित के पास आया। तब जो प्रथम आया था उससे पण्डित ने पूछा कि जो हमने कहा था सो तू कर आया? उस ने कहा―हां। दूसरे को पूछा कि तू भी कर आया वा नहीं? उसने कहानहीं, क्योंकि आपने मुझको ऐसा कहा था कि जहाँ कोई न देखता हो, वहाँ यह काम करना, सो ऐसा स्थान मुझको कहीं भी नहीं मिल सकता। प्रथम तो मैं इस लड़के को, और लड़का मुझको देखता ही था। पण्डित ने कहा कि तू बुद्धिमान् और धार्मिक है, मुझसे पढ़। दूसरे से कहा कि तू पढ़ने के योग्य नहीं है; यहाँ से चला जा।
वैसे ही क्या कोई भी स्थान वा कर्म है कि जिसको आत्मा और परमात्मा न देखता हो। जो मनुष्य इस प्रकार आत्मा और परमात्मा की साक्षी से अनुकूल कर्म करते हैं, वे ही धर्मात्मा कहाते हैं।
प्रश्न―सब मनुष्यों को विद्वान् वा धर्मात्मा होने का सम्भव है वा नहीं?
उत्तर―विद्वान् होने का तो सम्भव नहीं परन्तु जो धर्मात्मा हुआ चाहें तो सभी हो सकते हैं। अविद्वान् लोग दूसरों को धर्म में निश्चय नहीं करा सकते, और विद्वान् लोग धार्मिक होकर अनेक मनुष्यों को भी धार्मिक कर सकते हैं, और कोई धूर्त मनुष्य अविद्वान् को बहका के अधर्म में प्रवृत्त कर सकता है, परन्तु विद्वान् को अधर्म में कभी नहीं चला सकता, क्योंकि जैसे देखता हआ मनष्य कए में कभी नहीं गिरता, परन्तु अन्धे के तो गिरने का सम्भव है। वैसे विद्वान् सत्यासत्य को जान के उस में निश्चित रह सकते, और अविद्वान् ठीक-ठीक स्थिर नहीं रह सकते।
दृष्टान्त―जैसे एक कोई अविद्वान् राजा था। उसके राज्य में किसी ग्राम में कोई मुर्ख भिक्षक ब्राह्मण था। उसकी स्त्री ने कहा कि आजकल भोजन भी नहीं मिलता, बहुत कष्ट है। तुम पहले दानाध्यक्ष के पास जाना। वह राजा के पास लेजा के कुछ जप-अनुष्ठान लगवा देगा। उसने वैसा ही किया। जब उसने दानाध्यक्ष के पास जाके अपना हाल कहा कि आप मेरी कुछ जीविका करा दीजिये।
दानाभक्ष―मुझको क्या देगा?
अर्थी―जो तुम कहो।
दानाभक्ष―"अर्द्धमर्द्ध स्वाहा'।
अर्थी―महाराज! मैं नहीं समझा तुमने क्या कहा?
दानाभक्ष―जो तू आधा हमको दे, और आधा तू ले, तो तेरी जीविका लगादें।
स्वार्थी―जैसी तुम्हारी इच्छा हो, वैसा करो।
अच्छा तो चल राजा के पास।
स्वार्थी―चलो।
खुशामिदियों से सभा भरी थी, वहाँ दोनों पहुँचे। दानाभक्ष ने कहा कि यह गोब्राह्मण है। इस की कुछ जीविका कर दीजिये। यह आपका जप, अनुष्ठान किया करेगा।
राजा―अच्छा जो आप कहें।
दानाभक्ष―दश रुपैये मासिक होने चाहिये।
राजा―बहुत अच्छा।
दानाभक्ष―छ: महीने का प्रथम मिल जाना चाहिये।
राजा―अच्छा कोषाध्यक्ष! इसको छः महीने का जोड़ कर दे दो।
कोषाध्यक्ष―जो आज्ञा ! जब स्वार्थी गया रुपैये लेने को, तब कोषाभक्ष बोले, मुझ को क्या देगा?
स्वार्थी―आप भी एक-दो ले लीजिये।
कोषाभक्ष―छी छी !! दश से कम हम नहीं लेंगे। नहीं तो आज रुपये न मिलेंगे। फिर आना।
जब तक दानाभक्ष ने एक नौकर भेज दिया, कि उस को हमारे पास ले आओ। तब तक कोषाभक्ष जी ने भी दश रुपैये उड़ा लिये। स्वार्थी पचास रुपैये लेके चला। मार्ग में नौकर―कुछ मुझे भी दे।
स्वार्थी―अच्छा भाई, तू भी एक रुपया लेले।
नौकर―लाओ। जब दरवाजे पर आया तब सिपाहियों ने रोका। कौन हो तुम, क्या ले जाते हो?
नौकर―मैं दानाध्यक्ष का नौकर हूँ।
सिपाही―यह कौन है?
नौकर―जपानुष्ठानी!
सिपाही―कुछ मिला?
नौकर―यही जाने!
सिपाही―कहो भाई क्या मिला?
स्वार्थी―जितना तुम लोगों से बचकर घर पहुँचे, सो ही मिला।
सिपाही―हम को भी कुछ देता जा।
स्वार्थी―लो ॥) आठ आने।
सिपाही―लाओ।
जब तक दानाभक्ष घबराया कि वह भाग तो नहीं गया। दूसरे नौकर से बोले देखो तो वह कहाँ गया? तब तक वे स्वार्थी आदि आ पहुंचे।
दानाभक्ष―लाओ, रुपये कहाँ हैं ?
स्वार्थी―ये हैं अड़तालीस।
दानाभक्ष―वाह-वाह ? बारह रुपये कहाँ गये! स्वार्थी ने जैसा हुआ था वैसा कह दिया।
दानाभक्ष―अच्छा तो चार मेरे गये और आठ तेरे।
स्वार्थी―अच्छा जैसी आपकी इच्छा हो।
तब छब्बीस लिये दानाभक्ष ने और बाईस स्वार्थी ने ले के कहा कि मैं घर हो आऊँ, कल आ जाऊंगा।
वह दूसरे दिन आया। उससे दानाभक्ष ने कहा कि तू गंगाजी पर जाकर राजा का जप कर, और ले यह धोती, अंगोछा, पंचपात्र, माला और गोमुखी। वह लेके गंगा पर गया। वहाँ स्नान कर माला लेके जप करने बैठा। विचारा कि जो दानाध्यक्ष ने कहा था वही मन्त्र है, ऐसा वह मूर्ख समझ गया। "सरप माला खटक मणका, मैं राजा का जप करूं, मैं राजा का जप करूं, मैं राजा का जप करूं" जपने लगा।
तब किसी दूसरे मूर्ख ने विचारा कि जब उसका लग गया तो मेरा भी लग जायगा। चलो। वह गया। वैसा ही हुआ। चलते समय दानाभक्ष बोले कि तू जा, जैसा वह करता है वैसा करना। वह गया। वैसे ही आसन पर बैठ कर पहले वाले का मन्त्र सुनकर जपने लगा कि "तू करे सो मैं करूं, तू करे सो मैं करूं''।
वैसे ही तीसरा कोई धूर्त जाके सब कुछ कर-करा लाया। चलते समय दानाभक्ष ने कहा कि जब तक निर्वाह होता दीखे तब तक करना। वह भी इसी अभिप्राय को मन्त्र समझ के वहाँ जाकर जप करने को बैठ के जपने लगा कि "ऐसा निभेगा कब तक, ऐसा निभेगा कब तक"। ऐसा निभेगा कब तक।
वैसे ही चौथा कोई मूर्ख सब प्रबन्ध कर-कराके गंगा पर जाने लगा, तब दानाभक्ष ने कहा कि जब तक निभे तब तक निभाना। वह भी इसको मन्त्र ही समझ के गंगा पर जाके जप करने को बैठ के उन तीनों का मन्त्र सुना कि एक कहता है―"मैं राजा का जप करूं, मैं राजा का जप करूं"। दूसरा―"तू करे सो मैं करूं, तू करे सो मैं करूं" तीसरा―"ऐसा निभेगा कब तक, ऐसा निभेगा कब तक''! और चौथा जपने लगा कि "जब तक निभे तब तक, जब तक निभे तब तक"।
ध्यान में रक्खो कि सब अधर्मी और स्वार्थी लोगों की लीला ऐसी ही हुआ करती है, कि अपने मतलब के लिये अनेक अन्याय रूप कर्म करके अन्य मनुष्यों को ठग लेते हैं। अभाग्य है ऐसे मनुष्यों का, कि जिनके आत्मा अविद्या और अधर्मान्धकार में गिरके कदापि सुख को प्राप्त नहीं होते।
यहां एक किसी धार्मिक राजा का दृष्टान्त सुनो―
कोई एक विद्वान् धर्मात्मा राजा था। उसके दानाध्यक्ष के पास किसी ऐसे ही धूर्त ने जाकर कहा कि मेरी जीविका करा दो।
दानाध्यक्ष―तुमने कौन-कौन शास्त्र पढ़ा और क्या-क्या काम करते हो?
अर्थीमैं कुछ भी नहीं पढ़ा हूँ। बीस वर्ष तक खेलता-कूदता गाय, भैंस चराता और खेतों में डोलता और माता-पिता के सामने आनन्द करता था। अब सब घर का बोझ पड़ गया है। आपके पास आया हूँ, कुछ करा दीजिये।
दानाध्यक्ष―नौकरी-चाकरी करो तो करा देंगे।
अर्थी―मैं ब्राह्मण साधु और जहाँ-तहाँ बाजारों में उपदेश करने वाला हूँ। मुझ से ऐसा परिश्रम कहाँ बन सकता है ?
दानाध्यक्ष―तू विद्या के विना ब्राह्मण, परोपकार के विना साधु और विज्ञान के विना उपदेश कैसे कर सकता होगा? इसलिये नौकरी-चाकरी करना हो तो कर, नहीं तो चला जा।
वह मूर्ख वहाँ से निराश हो कर चला, कि यहाँ मेरी दाल न गलेगी, चलो राजा से कहें। जब राजा के पास जाके वैसे ही कहा। तब राजा ने वैसा ही जवाब दिया कि जैसा दानाध्यक्ष जी ने कहा है वैसा करना हो तो कर नहीं तो चला जा। वह वहाँ से चला गया।
इसके पश्चात् एक योग्य विद्वान् ने आके दानाध्यक्ष से मिल के बातचीत की तो दानाध्यक्ष ने समझ लिया कि यह बहुत अच्छा सुपात्र विद्वान् है। जाके राजा से मिलाके कहा कि इन पण्डित जी से आप भी कुछ बातचीत कीजिये। वैसा ही किया। तब राजा ने परीक्षा करके जाना कि यह अति श्रेष्ठ विद्वान् है, ऐसा जान कर उनसे कहा कि आप को हजार रुपैये मासिक मिलेंगे। आप सदा हमारी पाठशाला में विद्यार्थियों को पढ़ाया और धर्मोपदेश किया कीजिये। वैसा ही हुआ।
धन्य ऐसे राजा और दानाध्यक्षादि हैं, कि जिनके हृदय में विद्या, परमात्मा और धर्म रूप सूर्य प्रकाशित होता है।
प्रश्न―दानाभक्ष और दानाध्यक्ष किसको कहते हैं?
उत्तर―जो दाता के दान का भक्षण करके अपना स्वार्थ सिद्ध करता जाय, वह दानाभक्ष और जो दाता के दान को सुपात्र विद्वानों को देकर उनसे विद्या और धर्म की उन्नति कराता जाय, वह दानाध्यक्ष कहाता है।
प्रश्न―राजा किसको कहते हैं?
उत्तर―जो विद्या, न्याय, जितेन्द्रियता, शौर्य, धैर्य आदि गुणों से यक्त होकर अपने पत्र के समान प्रजा के पालन में श्रेष्ठों की यथायोग्य रक्षा और दष्टों को दण्ड देकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति से युक्त होकर, अपनी प्रजा को कराके, आनन्दित रहता और सबको सुख से युक्त करता है, वह राजा कहाता है।
प्रश्न―प्रजा किसको कहते हैं ?
उत्तर―जैसे पुत्रादि तन, मन, धन से अपने माता-पितादि की सेवा करके उनको सर्वदा प्रसन्न रखते हैं, वैसे प्रजा अनेक प्रकार के धर्मयुक्त व्यवहारों से पदार्थों को सिद्ध करके, राजसभा को कर देकर, उनको सदा प्रसन्न रक्खे, वह प्रजा कहाती है और जो अपना हित और प्रजा का अहित करना चाहे, वह न राजा और अपना हित और राजा का अहित चाहे वह प्रजा भी नहीं है, किन्तु उनको एक-दूसरे का शत्रु, डाकू, चोर समझना चाहिये। क्योंकि दोनों धार्मिक होके एक-दूसरे का हित करने में नित्य प्रवर्त्तमान हों, तभी उनकी राजा और प्रजा संज्ञा होती है, विपरीत की नहीं। जैसे
अन्धेर नगरी गवर्गण्ड राजा। टके सेर भाजी टके सेर खाजा॥
एक बड़ा धार्मिक विद्वान् सभाध्यक्ष राजा यथावत् राजनीति से युक्त प्रजापालनादि उचित समय में ठीक-ठीक करता था। उसकी नगरी का नाम, 'प्रकाशवती', राजा का नाम 'धर्मपाल' और व्यवस्था का नाम 'यथायोग्य करनेहारी' था। वह तो मर गया। पश्चात् उसका लड़का जो महा अधर्मी मूर्ख था, उसने गद्दी पर बैठ के सभा से कहा कि जो मेरी आज्ञा माने, वह मेरे पास रहे और जो न माने वह यहाँ से निकाला जाय। तब बड़े-बड़े धार्मिक सभासद् बोले कि जैसे आपके पिता सभा की सम्मति के अनुकूल वर्त्तते थे, वैसे आपको भी वर्त्तना चाहिये।
राजा―उनका काम उनके साथ गया, अब मेरी जैसी इच्छा होगी, वैसा करूंगा।
सभा―जो आप सभा का कहा न करेंगे तो राज्य का नाश अथवा आपका ही नाश हो जावेगा।
राजा―मेरा तो जब होगा तब होगा परन्तु तुम यहाँ से चले जाओ, नहीं तो तुम्हारा नाश तो मैं अभी कर दूंगा।
सभासदों ने कहा कि "विनाशकाले विपरीतबुद्धिः" जिसका शीघ्र नाश होना होता है, उसकी बुद्धि पहले ही से विपरीत हो जाती है। चलिये। यहाँ अपना निर्वाह न होगा। वे चले गये और महामर्ख धर्त खुशामदी लोगों की मण्डली उसके साथ हो गई। राजा ने कहा कि आज से मेरा नाम "गवर्गण्ड", नगरी का नाम “अन्धेर" और जो जो मेरा पिता और सभा करती थी, उससे सब काम मैं उलटा ही करूंगा। जैसे मेरा पिता और सभासद् रात में सोते और दिन में राज्यकार्य करते थे। हम लोग दिन में सोवें, और रात में राज्यकार्य करेंगे। उनके सामने उनके राज्य में सब चीज अपने-अपने भाव पर बिकती थी, हमारे राज्य में केशर-कस्तूरी से लेके मट्टी पर्यन्त सब चीज एक टके सेर बिकेगी।
जब ऐसी प्रसिद्धि देश-देशान्तरों में हुई तब किसी स्थान में दो गुरु शिष्य वैरागी अखाड़ों में मल्लविद्या करते, पांच-पांच सेर खाते और बड़े मोटे थे। चेले ने गुरु से कहा कि चलिये अन्धेर नगरी में वहाँ दश (१०) टकों से दश (१०) सेर मलाई आदि माल चाब के खूब तैयार होंगे। गुरु ने कहा कि वहाँ गवर्गण्ड के राज्य में कभी न जाना चाहिये क्योंकि किसी दिन खाया-पिया सब निकल जावेगा वरन् प्राण भी बचना कठिन होगा। फिर जब चेले ने हठ किया तब गुरु भी मोह से, साथ चला गया। वहाँ जाके अन्धेर नगरी के समीप बगीचे में निवास किया और खूब माल चाबते और कुश्ती करते रहते थे। इतने में कभी एक आधी रात में किसी साहूकार का नौकर एक हजार रुपैयों की थैली लेके किसी साहूकार की दुकान पर जमा करने को जाता था। बीच में उचक्के आकर रुपैयों की थेली छीन कर भागे। उसने जब पुकारा तब थाने के सिपाहियों ने आकर पूछा कि क्या है? उसने कहा कि अभी उचक्के मुझसे रुपैयों को छीनकर इधर जाते हैं। सिपाही धीरे-धीरे चलके किसी भले आदमी को पकड़ लिया कि तू ही चोर है। उसने उनसे कहा कि मैं फलाने साहूकार का नौकर हूँ; चलो पूछ लो।
सिपाही―हम नहीं पूंछते, चल राजा के पास। पकड़ कर राजा के पास ले जा के कहा कि इसने हजार रुपैयों की थेली चोर ली है। गवर्गण्ड और आस-पास वालों में से किसी ने कुछ भी न पूछा, न गाछा। वह पुकारता ही रहा, किसी ने न सुना। हुक्म चढ़ा दिया कि इसको शूली पर चढ़ा दो। शूली लोहे की बरछी और सरों के वृक्ष के समान अणीदार होती है। उस पर मनुष्य को चढ़ा उलटा कर, नाभि में उसकी अणी लगा देने से पार निकल जाने पर वह कछ विलम्ब में मर जाता है। गवर्गण्ड के नौकर भी उसके सदृश क्यों न हों? क्योंकि "स जिनका स्वभाव एक सा होता है उन्हीं की परस्पर मित्रता भी होती है। जैसे धर्मात्माओं की धर्मात्माओं. पण्डितों की पण्डितों, दष्टों की दष्टों और व्यभिचारियों की व्यभिचारियों के साथ मित्रता होती है। न कभी धर्मात्मादि का अधर्मात्मादि और न अधर्मात्माओं का धर्मात्माओं के साथ मेल हो सकता है।
गर्वगण्ड के सिपाहियों ने विचारा कि शूली तो मोटी और मनुष्य है पतला; अब क्या करना चाहिये। तब राजा के पास जाके सब बात कही। उस पर गवर्गण्ड ने हुक्म दिया कि अच्छा तो इसको छोड़ दो और जो कोई शूली के सदृश मोटा आदमी हो उसको पकड़ के इसके बदले चढ़ा दो। तब गवर्गण्ड के सिपाहियों ने विचारा कि शूली के सदृश खोजो। तब किसी ने कहा कि इस शूली के सदृश तो बगीचे वाले गुरु चेला दोनों वैरागी ही हैं। सब बोले कि ठीक-ठीक तो उसका चेला ही है। जब बहुत से सिपाहियों ने बगीची में जाके उसके चेले से कहा कि तुझको महाराज का हुक्म है, शूली पर चढ़ने के लिये चल। तब तो वह घबरा के बोला कि हमने तो कोई अपराध नहीं किया है।
सिपाही―अपराध तो नहीं किया, परन्तु तू ही शूली के समतुल्य है; हम क्या करें?
साधु―क्या दूसरा कोई नहीं है?
सिपाही―नहीं! बहुत बर-बर मत कर, चल । महाराज का हुक्म है। तब चेला गुरु से बोला कि महाराज! अब क्या करना चाहिये?
गुरु―हमने तुझ से प्रथम ही कहा था कि अन्धेर नगरी गवर्गण्ड के राज्य में मुफ्त के माल चाबने को मत चलो; तूने नहीं माना। अब हम क्या करें? जैसे हो वैसा भोग। देख! अब सब खाया पिया निकल जावेगा।
चेला―अब किसी प्रकार बचाओ तो यहाँ से दूसरे राज्य में चले जावें।
गुरु―एक युक्ति है बचने की, सो करो तो बचने का सम्भव है कि शूली पर चढ़ते समय तू मुझको हठा; मैं तुझको हठाऊं। इस प्रकार परस्पर लड़ने से कुछ बचने का उपाय निकल आवेगा।
चेला―अच्छा तो चलिये।
ये सब बातें दूसरे देश की भाषा में की। इससे सिपाही कुछ भी न समझे।
सिपाहियों ने कहा―चलो, देर मत लगाओ, नहीं तो बांध के ले जायंगे। साधुओं ने कहा कि हम प्रसन्नता पूर्वक चलते हैं; तुम क्यों बांधो?
सिपाही―अच्छा तो चलो।
जब शूली के पास पहुंचे तब दोनों लंगोट बाँध के मट्टी लगा के खूब लड़ने लगे। गुरु ने कहा कि शूली पर मैं ही चढूंगा।
चेला―चेला का धर्म नहीं कि मेरे होते गुरु शूली पर चढ़े।
गुरु―मेरा भी धर्म नहीं कि मेरे सामने चेला शूली पर चढ़ जाय। हां! मुझको मार कर पीछे भले ही शूली पर चढ़ जाना। क्यों बकता है? चुप रह। समय चला जाता है।
ऐसा कह कर शूली पर चढ़ने लगा। तब चेले ने गुरु को पकड़ कर धक्का देकर अलग किया। आप चढने लगा। फिर गरु ने भी वैसा ही किया। तब तो गवर्गण्ड के सिपाही कामदार सब तमाशा देखते थे। उन्होंने पूछा कि तुम शूली पर चढ़ने के लिए क्यों लड़ते हो?
तब दोनों साधु बोले कि हम से इस बात को मत पूछो। चढ़ने दो। क्योंकि हमको ऐसा समय मिलना दुर्लभ है।
यह बात तो यहां ऐसी ही होती रही और गवर्गण्ड के पास खुशामदियों की सभा भरी हुई थी। आप वहाँ से उठ और भोजन करके सिंहासन पर बैठकर सब से बोला कि बैंगन का शाक अत्युत्तम होता है। सुनकर खुशामदी लोग बोले कि धन्य है महाराज की बुद्धि को। बैंगन के शाक को चाखते ही शीघ्र उसकी परीक्षा कर ली। सुनिये महाराज! जब बैंगन अच्छा है, तभी तो परमेश्वर ने उसके ऊपर मुकुट, चारों ओर कलंगी, ऊपर वर्ण घनश्याम और भीतर का वर्ण मक्खन के समान बनाया है। ऐसा सुनकर गवर्गण्ड और सब सभा के लोग अति प्रसन्न होकर हँसे। जब गवर्गण्ड अपने महलों में सोने को गया। ड्यौढ़ी बन्द हुई। तब खुशामदी लोगों ने चौकी पहरे वालों से कहा कि जब तक प्रात:काल हम न आवें, तब तक किसी का मिलाप महाराज के साथ मत होने देना। उनने कहा कि अच्छा, आज के दिन कुछ गहरी प्राप्ति नहीं हुई।
खुशामदी―आज न हुई कल हो जावेगी, हमारा और तुम्हारा तो साझा ही है। जो कुछ खजाने और प्रजा से निकाल कर अपने घर में पहुँचे वही अपना है। जब राजा को नशा और रंडीबाजी खेल में सब लोग मिलकर लगा देंगे, तभी अपना गहरा होगा। और सब खजाना अपना ही है, आपस में मिले रहो; फूटना न चाहिये। सब ने कहा, हां जी हां, हां! ठीक है।
वे तो चले गये। जब गवर्गण्ड सोने को गया, तब गर्म मसाले पड़े हुए बैंगन के शाक ने गर्मी की, और जंगल की हाजत हुई। ले लोटा जाजरू में गया, रात भर खूब जुलाब लगा। घड़ी-घड़ी में कोई तीस ३० दस्त हुए। रात्रि भर नींद न आई। बड़ा व्याकुल रहा। उसी समय वैद्यों को बुलाया। वे भी गवर्गण्ड के सदृश ही थे, ऊटपटांग ओषधियां दीं। उनने और भी बिगाड़ किया। क्योंकि गवर्गण्ड के पास बुद्धिमान् क्यों कर ठहर सकते हैं?
जब प्रात:काल हुआ तब खुशामदियों की मण्डली ने सभा का स्थान घेर के दासियों से पूछा कि महाराज क्या करते हैं?
दासी―आज रात भर जुलाब लगा, और व्याकुल रहे।
खुशामदी―क्या कोई रात्रि में महाराज के पास आया भी था?
दासी―दश बारह जने आये थे।
खुशामदी―कौन-कौन आये थे? उनके नाम भी जानती हो?
दासी―हां तीन के नाम जानती हूँ; अन्य के नहीं।
तब तो खुशामदी लोग विचारने लगे कि किसी ने अपनी निन्दा तो न कर दी हो, इसलिये आज से हम में से एक-दो पुरुषों को रात में ढ्यौढ़ी में अवश्य रहना चाहिये। सब ने कहा बहुत ठीक है। इतने में जब आठ बजे के समय, मुखमलीन गवर्गण्ड आकर गद्दी पर बैठा। तब खुशामदियों ने भी उससे सौगुणा मुख बिगाड़ कर, शोकाकृति मुख होकर, ऊपर से झूठमूठ अपनी चेष्टा जनाई।
गवर्गण्ड―बैंगन का शाक खाने में तो स्वादु होता है, परन्तु बादी करता है। उससे हमको बहुत दस्त लगने से रात्रि भर दुःख हुआ।
खुशामदी―वाह-वाह जी वाह महाराज! आपके सदृश न कोई राजा हुआ, न होगा, और न कोई इस समय है क्योंकि महाराज ने खाते समय तो उसके गुणों की परीक्षा और रात्रि भर में दोष भी जान लिये। देखिये महाराज! जब बैंगन दुष्ट है तभी तो परमेश्वर ने उसके ऊपर खूटी, चारों ओर कांटे लगा दिये। ऊपर का वर्ण कोयलों के समान और भीतर का रंग कोढ़ी की चमड़ी के सदृश किया है।
गवर्गण्ड―क्यो जी! कल रात को तुमने इसकी प्रशंसा में मुकुट आदि का अलंकार और इस समय उन्हीं को निन्दा में खूटी आदि की उपमा दे दी? हम किसको सच्ची मानें?
खुशामदी घबरा के बोले कि धन्य, धन्य, धन्य है, आपकी विशालबुद्धि को! क्योंकि कल सन्ध्या की बात अब तक भी नहीं भूले। सुनिये महाराज! हमको साले बैंगन से क्या लेना देना था। हमको तो आपकी प्रसन्नता में प्रसन्नता, और अप्रसन्नता में अप्रसन्नता है। जो आप रात को दिन और दिन को रात, सत्य को झूठ वा झूठ को सत्य कहें; सो सभी ठीक है।
गवर्गण्ड―हां-हां नौकरों का यही धर्म है कि कभी स्वामी की किसी बात में प्रत्युत्तर न दें, किन्तु हां जी हां जी, ही करते जाय।
खुशामदी―ठीक है! राजाओं का यही धर्म है कि किसी बात की चिन्ता कभी न करें। रात दिन अपने सुख में मगन रहें। नौकर-चाकरों पर सदा विश्वास करके सब काम उनके आधीन रक्खें। बनिये बक्काल के समान हिसाब-किताब कभी न देखें। जो कछ सपेद का काला और काले का सुपेद करें सो ही ठीक रक्खें। जिस दरख्त को लगावें, उसको कभी न काटें। जिसको ग्रहण किया, उसको कभी न छोड़ें, चाहे कितना ही अपराध करें, क्योंकि जब राजा होके भी किसी काम पर ध्यान देकर आप अपने आत्मा, मन और शरीर से यदि परिश्रम किया तो जानो उनका कर्म फूट गया और जब हिसाब आदि में दृष्टि की तो वह महादरिद्र है। राजा नहीं।
गवर्गण्ड―क्यों जी! कोई मेरे समान राजा और तुम्हारे सदृश सभासद् कभी हुए होंगे और आगे कोई होंगे वा नहीं?
खुशामदी―नहीं-नहीं-नहीं कदापि नहीं। न हुआ, न होगा और न है। गवर्गण्ड-सत्य है। क्या ईश्वर भी हम से अधिक उत्तम होगा?
खुशामदी―कभी नहीं हो सकता। क्योंकि उसको किसने देखा है। आप तो साक्षात् परमेश्वर हैं, क्योंकि आप की कृपा से दरिद्र का धनाढ्य, अयोग्य से योग्य और अकृपा से धनाढ्य का दरिद्र, योग्य से अयोग्य तत्काल ही हो सकता है।
इतने में नियत किये प्रात:काल को सायंकाल मानकर सोने को सब लोग गये। जब सायंकाल हुआ तब जागे और फिर सभा लगी।
इतने में सिपाहियों ने आकर साधुओं के झगड़े की बात कही। सुनकर गवर्गण्ड ने सभासहित वहाँ जाके साधुओं से पूछा कि तुम शूली पर चढ़ने के लिये क्यों सुख मानते हो?
साधु―तुम हम से मत पूछो। चढ़ने दो। समय चला जाता है। ऐसा समय हमको बड़े भाग्य से मिला है।
गवर्गण्ड―इस समय में शूली पर चढ़ने से क्या फल होगा?
साधु―हम नहीं कहते। जो चढ़ेगा वह फल देख लेगा। हमको चढ़ने दो।
गवर्गण्ड―नहीं-नहीं, जो फल होता हो, सो कहो। सिपाहियो!
इनको इधर पकड़ लाओ।
पकड़ लाये।
साधु―हमको क्यों नहीं चढ़ने देते? झगड़ा क्यों करते हो?
गवर्गण्ड―जब तक तुम इसका फल न कहोगे तब तक हम कभी न चढ़ने देंगे।
साधु―दूसरे को कहने की तो बात नहीं है, परन्तु तुम हठ करते हो तो सुनो। जो कोई मनुष्य इस समय में शूली पर चढ़कर प्राण को छोड़ेगा, वह चतुर्भुज होकर, विमान में बैठ के, आनन्दरूप स्वर्ग को प्राप्त होगा।
गवर्गण्ड―अहो! ऐसी बात है तो मैं ही चढ़ता हूँ। तुमको न चढ़ने दूंगा।
ऐसा कहकर झट आप शूली पर चढ़कर प्राण छोड़ दिये। साधु अपने आसन पर आये। चेले ने कहा कि महाराज चलिये; यहाँ अब रहना न चाहिये। गुरु ने कहा कि अब कुछ चिन्ता नहीं; जो पाप की जड़ गवर्गण्ड था वह मर गया। अब धर्म का राज्य होगा। क्या चिन्ता है? यहीं रहो।
उसी समय उसका छोटा भाई बड़ा विद्वान्, पिता के सदृश धार्मिक, और जो उसके पिता के सामने धार्मिक सभासद् और प्रजा में से सत्पुरुष जो कि उसके पिता के मरने के पश्चात् गवर्गण्ड ने निकाल दिये थे, वे सब आके सुनीत नामक छोटे भाई को राज्याधिकारी करके, उसके मुरदे को शूली पर से उतार के जलवा दिया और खुशामदियों की मण्डली को अत्युग्र दण्ड देके कुछ कैद कर दिये और बहुतों को नौका में बैठाकर किसी समद्र के बीच निर्जन द्वीपान्तर में बन्धीखाने में डालकर अत्यत्तम विद्वान् धार्मिकों की सम्मति से श्रेष्ठों का पालन, दुष्टों का ताड़न, विद्या, विज्ञान और सत्य धर्म की वद्धि आदि उत्तम कर्म करके परुषार्थ से यथायोग्य राज्य की व्यवस्था चलाने लगे। और पुनः 'प्रकाशवती' नगरी का प्रकाश हुआ, और उचित समय पर सब उत्तम काम होने लगे।
जब जिस देशस्थ प्राणियों का अभाग्योदय होता है तब गवर्गण्ड के सदृश स्वार्थी, अधर्मी, प्रजा का विनाश करनेहारा राजा, धनाढ्य और खुशामदियों की सभा और उनके समतुल्य अधर्मी, उपद्रवी, राजविद्रोही प्रजा भी होती है। और जब जिस देशस्थ प्राणियों का सौभाग्योदय होने वाला होता है, तब सुनीत के समान धार्मिक, विद्वान् , पुत्रवत् प्रजा का पालन करने वाली राजसहित सभा और धार्मिक पुरुषार्थी पिता के समान राजसम्बन्ध में प्रीतियुक्त, मंगलकारिणी प्रजा होती है। जहाँ अभाग्योदय, वहाँ विपरीतबुद्धि मनुष्य परस्पर द्रोहादिस्वरूप धर्म से विपरीत दु:ख के ही काम करते जाते हैं, और जहां सौभाग्योदय, वहाँ परस्पर उपकार, प्रीति, विद्या, सत्य, धर्म आदि उत्तम कार्य अधर्म से अलग होकर करते रहते हैं। वे सदा आनन्द को प्राप्त होते हैं।
जो मनुष्य विद्या कम भी जानता हो परन्तु पूर्वोक्त दुष्ट व्यवहारों को छोड़ कर धार्मिक होके खाने, पीने, बोलने, सुनने, बैठने, उठने, लेने, देने आदि व्यवहार सत्य से युक्त यथायोग्य करता है, वह कहीं कभी दु:ख को नहीं प्राप्त होता, और जो सम्पूर्ण विद्या पढ़ के पूर्वोक्त उत्तम व्यवहारों को छोड़ के दुष्ट कर्मों को करता है, वह कहीं, कभी सुख को प्राप्त नहीं हो सकता। इसलिये सब मनुष्यों को उचित है कि आप अपने लड़के, लड़की, इष्ट मित्र, आड़ोसी-पाड़ोसी और स्वामी, भृत्य आदि को विद्या और सुशिक्षा से युक्त करके सर्वदा आनन्द करते रहें।
इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीरचितो
व्यवहारभानुः समाप्तः॥
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