त्रयोदशः समुल्लासः

अनुभूमिका (३)

बाइबिल ईसाइयों और यहूदियों का धर्म ग्रन्थ

सत्याऽसत्य के निर्णय में सुविधा 

पक्षपाती अपने तथा पराये गुण-दोष नहीं जान सकता 


त्रयोदश-समुल्लास


ईसाई मतानुसार आकाश तथा पृथिवी की रचना 

बाइबिल के सृष्टि-सम्बन्धी मत की आलोचना 

आकाश-रचना से पूर्व ईश्वर कहाँ था ? 

ईश्वर की सृष्टि को बेडौल बताना भूल 

व्यापक ईश्वर सनाई पर्वत वा चौथे आसमान पर कैसे ? 

सर्वव्यापक ईश्वर जल पर कैसे डोला ? 

ईसाई मतानुसार सूर्यादि की उत्पत्ति 

जड़ उजियाले ने ईश्वर की बात कैसे सुन ली ?

पानियों के मध्य आकाश को बनाकर उन्हें विभक्त करना

बिना आकाश के जल कहाँ और कैसे रहा

स्वर्ग ऊपर कैसे ?

आदम की ईश्वर के स्वरूप में उत्पत्ति

आदम ईश्वर-सदृश क्यों न हुआ ?

ईसाई मतानुसार ईश्वर के अतिरिक्त कोई वस्तु न था

कारण के विना सृष्टि कहाँ से बनी ? 

आदम को बनाकर अदन के बाग में रखा

धूल से बना आदम ईश्वर का स्वरूप कैसे ?

आदम की पसली से नारी की रचना

स्त्री को धूलि से न बनाकर हड्डी से क्यों बनाया ?

पसली से नारी बनी तो मनुष्य में एक पसली कम क्यों नहीं ?

शैतान ने आदम और उसकी पत्नी को बहकाया

आदम की पत्नी, आदम और शैतान को शाप

विना पूर्व अपराध के शैतान को दुष्ट क्यों बनाया ?

झूठे को शैतान कहते हैं, सत्यवादी को नहीं

आजकल ज्ञानदाता वृक्ष क्यों नहीं ? 

विना अपराध तीनो को शाप क्यों दिया ?

क्या विना पीड़ा के बच्चा हो सकता था ?

आदम निर्दोष था, फिर सन्तान अपराधी क्यों?

आदम का अदन के बाग से निष्कासन

ईसाइयों का ईश्वर कोई भ्रान्त मनुष्य था

ईर्ष्या करना, तलवार का पहरा मनुष्य का काम

हाबील को भेंट का आदर और काइन की भेंट का आदर नहीं 

ईसाइयों का ईश्वर मांसाहारी था, वह लोगों से बातें भी करता है 

लोहू का भूमि से पुकारना 

क्या लोहू का शब्द किसी को पुकार सकता है?

तीन सौ वर्ष तक ईश्वर कैसे चला ? 

ईश्वर का पछताना और सृष्टि का संहार

जिसके पुत्र वह ईश्वर कैसे ? 

पश्चात्ताप-अज्ञानता मानव का धर्म ? 

वह सर्वज्ञ होता तो विषादी न होता 

नूह की नाव में सब प्राणियों का एक-एक जोड़ा

नूह की नाव में करोड़ों जीव कैसे समाये ?

पशु-पक्षियों से होम; ईश्वर ने सुगन्ध सूँघा

क्या ईश्वर सुगन्ध भी सूँघता है ? 

पछताना व शाप देना ईश्वर के काम नही

नूह परिवार को पशु-पक्षी खाने का आशीर्वाद

ऐसा निर्दय ईश्वर पापी क्यों नहीं ?

ईश्वर का डरकर उतरना व भाषा भेद करना

भाषा भेद करना शैतान से भी बुरा काम

अबिरहाम का संकट में पत्नी को बहन बनाना

असत्यवादी पैगम्बरों से कल्याण नहीं

खतनः करने का कठोर आदेश 

खतनः ईश्वर को इष्ट था तो वह चमड़ी क्यों बनाई ?

ईसाई अब खतनः क्यों नहीं करते ? 

अबिरहाम की ईश्वर से बातें 

यह ईश्वर इन्द्रजाली पुरुषवत् था ? 

ईश्वर ने रोटी, मक्खन और मांस खाया

यह ईश्वर जंगलियों का कोई सरदार था ?

ईश्वर का स्त्रियों के समान ताने मारना

ईश्वर का कुद्ध होकर नगरों पर आग बरसाना

निरपराधों को कष्ट देना अन्याय है 

लूत का अपनी पुत्रियों से संभोग

शराब के नशे में ऐसे ही कुकर्म होते हैं

परमेश्वर से सर का गर्भिणी होना

क्या ईश्वर परस्त्रीगमन करता था ?

हाजिरः को घर से निकलवाना

बाइबिल में साधारण लोगों की बातें

अबिरहाम से बेटे की बली मांगना 

बाइबिल का ईश्वर अल्पज्ञ है

मृतकों को गाड़ने का आदेश

मुर्दों को गाड़ने में अनेक दोष 

विधिपूर्वक मुर्दे जलाना उत्तम 

थोड़ी-सी भूमि में लाखों की क्रिया

अबिरहाम की ईश्वर द्वारा अगवानी

अब ईश्वर द्वारा मार्गदर्शन क्यों नहीं ? 

इसमअऐल के बेटों के नाम

भाटों की पोथीवत् इसमअऐल के बेटों के नाम गिनाना

छलकपट से आशीर्वाद लेना

क्या छली-कपटी भी पैगम्बर है ?

ईश्वर का घर बनाना

पत्थर को ईश्वर का घर बताना मूर्खता

ईश्वर ने राखिल की कोख खोली 

क्या उसके पास ऐसे डाक्टरी के औजार थे ?

लाबन को स्वप्न में ईश्वर मिला 

अब ईश्वर किसी को क्यों नहीं मिलता ?

ये जंगली मूर्त्तिपूजा करते थे

याकूब ने ईश्वर की सेना देखी

ईश्वर को सेना की क्या आवश्यकता थी ?

ईश्वर के साथ याकूब का मल्लयुद्ध

ईश्वर ने कुश्ती में याकूब की नस चढ़ा दी

याकूब का नाम इसरायेल रखना

मल्लयुद्ध करने वाले का मनुष्य होना निसंदेह

भक्त की जांघ क्यों न ठीक की ?

क्या ईश्वर के मुंह भी है ?

नियोग न करने पर ओनान की हत्या

नियोग-प्रथा पहले से प्रचलित 

तौरेत यात्रा की पुस्तक 

मूसा का एक मिस्री को मार डर कर भागना

मूसा आदि विद्याहीन लड़ाकू थे 

पवित्र स्थान में जूता उतारने का आदेश

ईसाई पवित्र स्थान में जूता क्यों लाते हो ?

मूसा को जादू के खेल दिखाये 

जादू का खेल दिखाना क्या ईश्वर का काम है?

रक्त-छाप देख घरों की पहचान 

क्या बिना छाप न पहचानता था ? 

परमेश्वर द्वारा आधी रात में मिस्रियों की हत्या

निरपराधों की हत्या करना ईश्वर का काम नहीं

इसरायेल के लिये ईश्वर का युद्ध

इसरायेल की सहायता अब क्यों नहीं करता ?

चौथी पीढ़ी तक बैर निकालना

विना अपराध चार पीढ़ी तक दण्ड देना अपराध है।

रविवार ईश्वर का विश्रामदिन 

रविवार को ही क्यों पवित्र माना ?

पड़ौसी की वस्तु का लालच न करो

क्या परदेशी का माल हजम करें ?

मनुष्य के हत्यारे को अवश्य दण्ड 

मनुष्य-हत्या के दोषी मूसा को दण्ड क्यों न दिया ?

परमेश्वर के लिये बैल की बलि

मूसा को पहाड़ पर पास बुलाना

बैल की बलि लेना व वेदी पर लोहू छिड़कना जंगलीपन

क्या ईश्वर को स्याही कलम और कागज का भी ज्ञान न था ?

परमेश्वर का मूसा से प्रपञ्च करना

प्रपञ्च दिखा ईश्वर बन बैठा

लैव्य व्यवस्था की पुस्तक, (तौरेत)

परमेश्वर का मूसा के द्वारा बैल की भेंट माँगना

ईसाइयों का ईश्वर मांसाहारी था

यज्ञवेदी में पशु भूनकर खाना

बैल की बलि लेने वाला पापी

बछिया के बलिदान से पापनिवृत्ति

पापनिवृत्ति के निकृष्ट प्रायश्चित्त

मेंमने की भेंट से पापनिवृत्ति

फिर अध्यक्षादि पाप से क्यों डरेंगे ?

कबूतर के बच्चों से पापनिवृत्ति

निर्धन हो तो कुछ आटा ही सही

पाप से पाप नहीं छूटता

जहाँ ऐसे उपदेश वहाँ दया कहाँ 

पशु की खाल वा भोजन याजक का

ईसाई पुजारी देवी के भोपों से बढ़कर 

ईश्वर की दृष्टि में सब प्राणी पुत्रवत्

गिनती की पुस्तक [तौरेत]

गदही की ईश्वर के दूत बलआम से बातचीत

अब वे दूत क्यों नहीं दीखते ?

सबको मार कुमारियों को अपने लिये जीवित रखना

मूसा हिंसक और विषयी था

समुएल की दूसरी पुस्तक 

ईश्वर का तम्बू में निवास

तम्बू में तो मनुष्य रहते हैं

राजाओं की [दूसरी] पुस्तक 

परमेश्वर का घर और यरूसलम का विनाश

जो ईश्वर अपना घर न बचा सका वह क्या ईश्वर

ज़बूर दूसरा भाग 

काल के समाचार की पहली पुस्तक 

मरी भेजकर ७० सहस्र का संहार 

अपने भक्तों को मारना ईश्वर का काम नहीं

ऐयूब की पुस्तक 

शैतान से ऐयूब के प्राणों की भिक्षा माँगना

शैतान से ईश्वर-भक्तों की रक्षा करने में असमर्थ क्या ईश्वर ?

उपदेश की पुस्तक 

बुद्धिवृद्धि से शोकवृद्धि 

बुद्धिवृद्धि में शोक वा दुःख मानना मूर्खता

मत्ती रचित इंजील

यीशु ख्रीष्ट की कुमारी मरियम से उत्पत्ति

कुमारी से पुत्रोत्पत्ति सृष्टिनियम से विपरीत

सभी कुमारियों के बच्चे ईश्वर के क्यों न माने जायें

सूर्य से कुन्ती का गर्भवती होना भी ऐसा ही पाखण्ड

यीशु का बपतिस्मा लेके जल से ऊपर आना

ईश्वर का आत्मा आँख से कभी नहीं दिखता

यीशु की परीक्षा, उसका ४० दिन भूखा रहना

शैतान से ईसा परीक्षा क्यों ?

यीशु न तो ईश्वर का बेटा न उसमें कुछ सिद्धि थी

ईश्वर भी पूर्वकृत नियम को उलटा नहीं कर सकता

योहन का सुनके बन्दीगृह में डाला जाना

सुनके जानना असर्वज्ञ जीवों का काम

मनुष्यों के मछुवे बनाने का लोभ 

इसी से ईसाई गरीबों को अपने जाल में फँसाते हैं

आर्य लोग भोले लोगों को ईसाई होने से बचावें 

ईसा का रोगियों को नीरोग करना 

रोगी ठीक करने की बात झूठ 

जो मन में दीन उन्हीं को स्वर्ग 

सब दीन स्वर्ग में तो उनका राजा कौन ?

आज्ञा का लोपकर्त्ता स्वर्ग में सबसे छोटा

सबसे छोटा गिने जाने की बात भयमात्र

तौरेत, जबूर की अच्छी बात वेदोक्त होने से अखण्डनीय और मन्तव्य

धर्म अध्यापकों और फरीसियों से अधिक होने पर स्वर्ग के अधिकारी

ईसा का पिता परमेश्वर को कहना भूल

अपने लिये धन संचय न करो

फिर ईसाई धनसंचयी क्यों ?

यीशु को प्रभु कहने वाले को स्वर्ग नहीं

तब तो सारे पादरी नरक में जायेंगे 

स्वर्ग में ईसा का कुकर्मियों को सहयोग नहीं 

यह भोले लोगों को प्रलोभन

यीशु द्वारा हाथ से छूते ही कोढ़ी का कोढ़ दूर

फिर पुराणों की ऐसी बातें असत्य क्यों

भूतों को सूअरों में बिठाया

मुर्दों का कबर से निकल कर आना असम्भव

बेचारे सूअर क्यों मरवा दिये ?

एक अर्द्धांगी का रोग दूर करना

अर्धांगी का ठीक होना ढोंग

पाप कभी क्षमा नहीं होते

पापियों को पश्चात्ताप के लिये बुलाना

धर्मादि आचरण ही मुक्ति के साधन हैं

बारह शिष्यों का भूतों पर अधिकार देना

भूतों का आना और विना इलाज रोग दूर होना असम्भव

पिता का आत्मा में बोलना

जीव में यदि ईश्वर बोलता है तो वही फल भोगेगा

पृथिवी पर मिलाप करवाने नहीं, किन्तु खड्ग चलवाने आया हूँ

लोगों में फूट डालना बुरी बात है

मेरी माता और भाई कौन हैं ?

माता पिता का अपमान केवल हठ की बात

सात रोटियों और थोड़ी-सी छोटी मछलियों से ४ सहस्र की तृप्ति

ईसा ऐसा सिद्ध था तो भूख में गूलर क्यों खाता था ?

हर एक कर्मानुसार फल पावेगा

कर्मानुसार फल मिलेगा तो पाप क्षमा की बात व्यर्थ

तनिक से विश्वास से असम्भव भी संभव

विश्वास कराकर शिष्यों को क्यों न पवित्र किया

विश्वासरहित चेलों की बनाई इञ्जील प्रमाण के अयोग्य

एक छोटा भी विश्वास ईसाइयों में नहीं 

असम्भव बात कहने से ईसा की अज्ञानता प्रकट होती है

इस शिक्षा के युग में ईसा की क्या गणना ?

बालक जैसे बने विना स्वर्ग नहीं

विद्या-विरुद्ध बातें बालबुद्धि ही मान सकते हैं

धनवानों का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कठिन

क्या सभी धनवान दुष्ट होते हैं ?

क्या ईश्वर का राज्य सर्वत्र नहीं ?

ईसा मतानुसार सब धनिक ईसाई नरकगामी होंगे

ईसाइयों को स्वर्ग में सिंहासन 

त्याग का १०० गुणा फल

स्वर्ग में ईसाइयों को ही सिंहासन की बात पक्षपात पूर्ण 

इस्रायेल के कुल का न्याय क्यों न किया जायेगा ?

एक साथ सबका न्याय होना अन्याय

सदा के लिये स्वर्ग, नरक दोषपूर्ण

सबके कर्म समान नहीं तो फल समान कैसे ?

स्वर्ग में प्रत्येक वस्तु का १०० गुणा मिलना हास्यास्पद

गूलर के वृक्ष को शाप

वृक्षों तक को शाप देना क्रोध की पराकाष्ठा

तारों का गिरना और आकाश की सेना का डिगना

तारों का गिरना आकाश की सेना बताना अज्ञानता

मेरी बात कभी न टलेगी

क्या आकाश कभी हिल सकता है ? 

वाम पक्षी नरक की अनन्त आग में

अपने शिष्य को स्वर्ग और दूसरों को नरक की बात पक्षपातपूर्ण 

जो शैतान को भी वश में न कर सका वह क्या ईश्वर

एक शिष्य ने लोभ के वश हो यीशु को पकड़वाया

जिससे शिष्य भी पवित्र न हुआ, वह क्या करामाती ?

रोटी मेरी देह पानी लोहू

गुरु के मांस लोहू में खाने-पीने की भावना करना जंगलीपन 

यीशु का शोक करना और उदास रहना

ईसा केवल साधारण, सूधा, सच्चा, अविद्वान् था

शिष्य ने यीशु को पकड़वाया, बड़ी दुर्गति हुई

अन्त समय में किसी ने साथ न दिया

ईसा कोई करामात न दिखा सका

इस दुर्गति से तो समाधि चढ़ा प्राण छोड़ना अच्छा था

याजकों को स्वर्ग से १२ सेनाओं के आने की धमकी

ईश्वर की सेना पर झूठा भरोसा; सच क्यों न बोला ?

झूठा दोष लगाकर ईसा को मारना ठीक न था

झूंठ मूठ अपने को ईश्वरपुत्र बताना अच्छा न था

यीशू पर अभियोग और शूली 

ईसा की अन्त समय दुर्गति 

अपने को ईश्वरपुत्र कहना ठीक न था

अन्त समय कोई करामात काम न आई

सत्य अवश्य उजागर होकर रहता है

ईसा उस समय के जंगलियों में कुछ अच्छा था

यीशू का जी उठना

पृथिवी और स्वर्ग का राज्य 

ईसा के पुनः जीवित होने की बात गप्प

वह शरीर तो सड़ गया होगा फिर जीवित कैसे हुआ ? 

मरकर अब जीवित क्यों नहीं होते ? 

मार्क रचित इंजील

बढ़ई का बेटा पैगम्बर हो ईश्वरपुत्र ही बन बैठा

लूक रचित इंजील 

एक ईश्वर को छोड़ तीन की कल्पना क्यों ?

हेरोद को करामात क्यों न दिखाई ?

योहन रचित सुसमाचार 

सब कुछ वचन द्वारा बना 

कारण के विना वचन द्वारा सृष्टि नहीं हो सकती

जीवन मनुष्यों का ही उजियाला क्यों है ?

शैतान ने यिहूदा को बहकाया 

शैतान को कौन बहकाता है

शैतान तो ईसा को ईश्वरपुत्र बताने वाले हैं

विना मेरे ईश्वर के पास नहीं पहुँच सकते

क्या ईसा ने ईश्वर का ठेका ले रक्खा था ?

अपने को ही सत्य और जीवन बताना दम्भ

मुझसे विश्वास से मेरे-सदृश कर्म करेगा

ईसा पर विश्वास, पर आश्चर्य कर्म एक भी नहीं

अद्वैत का सिद्धान्त मानते हो तो तीन कैसे ?

योहन के प्रकाशित वाक्य 

योहन के स्वप्न में स्वर्ग के ठाट-बाट

आगे-पीछे नेत्रों का होना असंभव

सात छापों में बन्द एक पुस्तक

ईसा के अतिरिक्त उसे खोलने वाला कोई न था

मेम्ने-ईसा के ७ सींग ७ नेत्र

स्वर्ग में ईसा के भी सींग लग गये

चारों प्राणी और चौबीसों प्राचीन मेम्ने के आगे झुक गये

ईसाइयों का स्वर्ग बुतपरस्ती का घर

स्वप्न में पुस्तक में से घोड़े और सवारों का निकलना

स्वप्न की बातों पर विश्वास अज्ञानता की पराकाष्ठा 

स्वर्ग में न्याय के लिये प्रतीक्षा 

ईसाई न्याय के लिये रोते ही रहेंगे 

ये लोग सदा अशान्त ही रहेंगे 

तारों का गिरना, आकाश का लपेटना 

तारे पृथिवी पर कैसे गिर सकते हैं ?

निराकार आकाश को चटाई के समान कैसे लपेटा ?

इस्रायेल और यिहूदा के कुलों पर छाप लगाना 

क्या बाइबिल का ईश्वर केवल इस्रायलियों का ही है ? 

ईश्वर की रात-दिन सेवा 

रात-दिन पूजा तो सोना कब ?

वेदी की आग से गर्जन वा भूकम्प 

वैरागियों के मन्दिर से ईसाइयों का स्वर्ग कम नहीं 

पहले दूत द्वारा पृथिवी पर ओले और आग बरसाये 

योहन को स्वर्ग के विषय में कुछ भी पता न था

पाँचवें दूत द्वारा पृथिवी पर टिड्डियों की भरमार 

क्या तारों और टिड्डियों ने छाप वालों को पहचान लिया ? 

२० करोड़ घोड़ों की लीद से स्वर्ग भी नरक 

मेघ को ओढ़े हुए विशाल दूत

स्वर्ग में ईश्वर के मन्दिर और वेदी को नापा

बुतपरस्ती से स्वर्ग भी न बचा

स्वर्ग के मन्दिर में नियमों का संदूक

क्या ईश्वर का भी मन्दिर है ?

स्वर्ग के दो आश्चर्य 

छोटी-सी पृथिवी पर तारे कैसे समाये ?

जहाँ उपद्रव वह क्या स्वर्ग

शैतान को भूमि पर गिराना

शैतान स्वर्ग में भी बहकाता होगा 

शैतान से ईसाइयों का ईश्वर भी डरता होगा

शैतान को पृथिवी पर क्यों भेजा ?

शैतान को युद्ध करने वा बहकाने का अधिकार

ईसाइयों के ईश्वर के डाकुओं वाले काम

लाखों लोगों के साथ मेम्ना सियान पर्वत पर

ये लाखों लोग स्वर्ग से पृथिवी पर कैसे आये

फिर तो ब्रह्माण्ड के शासने के लिये अनेक ईश्वर चाहिये

आत्मा के कर्म उसके संग

कर्मानुसार फल, तो क्षमा व्यर्थ

ईश्वर के कोप के कुण्ड

क्या कोप द्रवित पदार्थ है ?

स्वर्ग में साक्षी के तम्बू का मन्दिर

ईश्वर को साक्षी क्यों चाहिये ?

कर्मों का दूना फल

कर्म का दूना फल देना अन्याय है

मेम्ने ( = यीशू) का विवाह

स्वर्ग में विवाह, तो श्वसुर, सासादि कौन थे ?

शैतान को सील बन्द किया

शैतान को सदा के लिये कैद क्यों न रक्खा ?

शैतान का डर दिखा भोले लोगों को फँसाना

पृथिवी का भागना

पुस्तक देखकर कर्मफल देना

पृथिवी आकाश भाग गये, तो वह किस पर ठहरा ?

क्या परमेश्वर के पास बही है ? उसे कौन लिखता है ?

मेम्ने की दुल्हिन को दिखावा 

ईसा स्वर्ग में जाकर विषय-भोग में क्यों पड़ा ?

ईसाइयों के स्वर्ग की रचना

सीमित नगर में अपार जनसमूह कैसे समा सकता है ?

नगर के निर्माण और चमक-दमक का वर्णन कल्पित

घृणित कर्म करने वालों और और झूठ बोलने वालों को स्वर्ग नहीं

योहन्ना जैसे असत्य वक्ता को स्वर्ग कैसे ?

अनेक पापियों के पाप-भार से युक्त ईसा को भी स्वर्ग कैसे ?

ईसाइयों के स्वर्ग में क्या-कुछ होगा

सिंहासन पर ईसा और ईश्वर का बैठना

यह स्वर्ग भी बन्धन है

जो मुखवाला है वह ईश्वर सर्वज्ञ नहीं

कर्मानुसार ही फल मिलेगा

कर्मानुसार फल मिलेगा, तो पापक्षमा की बात व्यर्थ


ओ३म्


अनुभूमिका (३)

[बाइबिल ईसाइयों और यहूदियों का धर्म ग्रन्थ]

जो यह 'बाइबल' का मत है, वह केवल 'ईसाइयों' का है सो नहीं, किन्तु इससे यहूदी आदि भी गृहीत होते हैं। जो यहाँ (१३) तेरहवें समुल्लास में ईसाई मत के विषय में लिखा है, इसका यही अभिप्राय है कि आजकल 'बाइबल' के मत में 'ईसाई' मुख्य हो रहे हैं और 'यहूदी' आदि गौण हैं। मुख्य के ग्रहण से गौण का ग्रहण हो जाता है, इससे यहूदियों का भी ग्रहण समझ लीजिये। 


इनका जो विषय यहां लिखा है सो केवल 'बाइबल' में से [है] कि जिसको ईसाई और यहूदी आदि सब मानते हैं और इसी पुस्तक को अपने धर्म का मूलकारण समझते हैं। इस पुस्तक के भाषान्तर बहुत-से हुए हैं, जो कि इनके मत में बड़े-बड़े पादरी हैं, उन्हीं ने किये हैं। उनमें से देवनागरी व संस्कृत भाषान्तर देखकर मुझको 'बाइबल' में बहुत-सी शङ्कायें हुई हैं, उनमें से कुछ थोड़ी-सी इस १३ तेरहवें समुल्लास में सबके विचारार्थ लिखी हैं। 

[सत्याऽसत्य के निर्णय में सुविधा]

यह लेख केवल सत्य की वृद्धि और असत्य के ह्रास होने के लिये है, न कि किसी को दुःख देने वा हानि करने अथवा मिथ्या दोष लगाने के अर्थ है। इसका अभिप्राय उत्तर-लेख में सब कोई समझ लेंगे कि यह पुस्तक कैसा है और इनका मत भी कैसा है?


इस लेख से यही प्रयोजन है कि सब मनुष्यमात्र को देखना, सुनना, लिखना आदि करना सहज होगा और पक्षी-प्रतिपक्षी होके विचारकर ईसाई मत का आन्दोलन सब कोई कर सकेंगे। इससे एक यह प्रयोजन सिद्ध होगा कि मनुष्यों को धर्मविषयक ज्ञान बढ़कर यथायोग्य सत्यासत्य मत और कर्त्तव्याकर्त्तव्य कर्मसम्बन्धी विषय विदित होकर सत्य और कर्त्तव्य कर्म का स्वीकार, असत्य और अकर्त्तव्य कर्म का परित्याग करना सहजता से हो सकेगा। 


सब मनुष्यों को उचित है कि सबके मतविषयक पुस्तकों को देख-समझकर कुछ सम्मति वा असम्मति देवें वा लिखें, नहीं तो सुना करें; क्योंकि जैसे पढ़ने से 'पण्डित' होता है, वैसे सुनने से 'बहुश्रुत' होता है। यदि श्रोता दूसरे को नहीं समझा सके, तथापि आप स्वयं तो समझ ही जाता है। जो कोई पक्षपातरूप यानारूढ़ होके देखते हैं, उनको न अपने, न पराये गुण-दोष विदित हो सकते हैं। 

[पक्षपाती अपने तथा पराये गुण-दोष नहीं जान सकता]

मनुष्य का आत्मा सत्यासत्य का यथायोग्य निर्णय करने का सामर्थ्य रखता है। जितना अपना पठित वा श्रुत है, उतना निश्चय कर सकता है। यदि एक मत-वाले दूसरे मत-वालों के विषयों को जानें और अन्य न जानें तो यथावत् संवाद नहीं हो सकता, किन्तु अज्ञानी किसी भ्रमरूप बाड़े में घिर जाते हैं। ऐसा न हो, इसलिए इस ग्रंथ में प्रचरित सब मतों का विषय थोड़ा-थोड़ा लिखा है। इतने से ही शेष विषयों में अनुमान कर सकता है कि वे सच्चे हैं वा झूठे?


जो-जो सर्वमान्य सत्य विषय हैं वे तो सबमें एक-से हैं, झगड़ा झूठे विषयों में होता है। अथवा एक सच्चा और दूसरा झूठा हो, तो भी कुछ थोड़ा-सा विवाद चलता है। यदि वादी-प्रतिवादी सत्यासत्य निश्चय के लिये वाद-प्रतिवाद करें, तो अवश्य निश्चय हो जाय।


अब मैं इस १३वें समुल्लास में ईसाईमत विषयक थोड़ा-सा लिखकर सबके सम्मुख स्थापित करता हूँ, विचारिये कि कैसा है?


अलमतिलेखेन विचक्षणवरेषु


अथ त्रयोदशसमुल्लासारम्भः 


अथ कृश्चीनाख्यमतविषयं व्याख्यास्यामः 


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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अब इसके आगे ईसाइयों के मत-विषय में लिखते हैं, जिससे सबको विदित हो जायगा कि इनका मत निर्दोष और इनकी 'बाइबल' पुस्तक ईश्वरकृत है वा नहीं? प्रथम 'बाइबल' के 'तौरेत' का विषय लिखा जायगा। उसमें से प्रथम 'उत्पत्ति' के विषय में कुछ-कुछ विषय दिखलाया जाता है— 

[ईसाई मतानुसार आकाश और पृथिवी की रचना]

मूल―१. आरंभ में ईश्वर ने आकाश और पृथिवी को सृजा।१। और पृथिवी बेडौल और सूनी थी और गहिराव पर अंधियारा था और ईश्वर का आत्मा जल पर डोलता था।२।


[इलाहबाद मिशन प्रेस से सन् १८६६ में मुद्रित, पुराने नियम का पहला भाग अर्थात् तौरेत की पुस्तक 'उत्पत्ति']  

[उत्पत्ति], पर्व १। आयत १।२॥ 

[बाइबिल के सृष्टि-सम्बन्धी मत की आलोचना]

समीक्षक―आरम्भ किसको कहते हो?

ईसाई―सृष्टि के प्रथमोत्पत्ति को। 


समीक्षक―क्या यही सृष्टि प्रथम हुई, इसके पूर्व कभी नहीं हुई थी? 


ईसाई―हम नहीं जानते हुई थी वा नहीं, ईश्वर जाने।


समीक्षक―जब नहीं जानते तो तुमने इस पुस्तक पर विश्वास क्यों किया कि जिससे सन्देह का निवारण नहीं हो सकता? और इसी के भरोसे लोगों को उपदेश कर इस सन्देह से भरे हुये मत में क्यों फसाते हो? और निःसन्देह सर्वशङ्कानिवारक वेदमत का स्वीकार क्यों नहीं करते? जब तुम ईश्वर की सृष्टि का हाल नहीं जानते, तो ईश्वर को कैसे जानते होगे? 


आकाश किसको मानते हो? 


ईसाई―पोल और ऊपर को।

[जब आकाश नहीं सृजा था, तब ईश्वर, जगत् का कारण व जीव कहां रहते थे ?]

समीक्षक―पोल की उत्पत्ति किस प्रकार हुई? क्योंकि यह पदार्थ विभु और अति सूक्ष्म है और ऊपर-नीचे एक-सा है। जब आकाश नहीं सृजा था तब पोल और अवकाश था वा नहीं? जो नहीं था तो ईश्वर, जगत् का कारण और जीव कहाँ रहते थे? विना अवकाश के कोई पदार्थ स्थित नहीं हो सकता, इसलिये तुम्हारी 'बाइबल' का कथन युक्त नहीं।

[ईश्वर की सृष्टि को बेडौल बताना भूल है]

ईश्वर बेडौल [और] उसके ज्ञान, कर्म=कार्य 'बेडौल' होते हैं वा सब डौलवाले?


ईसाई―सब डौलवाले होते है। 


समीक्षक―तो यहाँ ईश्वर की बनाई पृथिवी "बेडौल थी", ऐसा क्यों लिखा? 


ईसाई―'बेडौल' का अर्थ यह है कि ऊँची-नीची थी, बराबर नहीं थी। 


समीक्षक―फिर बराबर किसने की? और क्या अब भी ऊँची-नीची नहीं है? इसलिये ईश्वर का काम बेडौल नहीं हो सकता, क्योंकि वह सर्वज्ञ है। उसके काम में भूल-चूक कभी नहीं होती है। और 'बाइबल' में ईश्वर की सृष्टि बेडौल लिखी [है], इसलिये यह पुस्तक ईश्वरकृत नहीं हो सकता। 

[व्यापक ईश्वर सनाई पर्वत वा चौथे आसमान पर कैसे ?]

प्रश्न―'ईश्वर का आत्मा' क्या पदार्थ है? 


ईसाई―चेतन। 


समीक्षक―वह साकार है वा निराकार तथा व्यापक है वा एकदेशी?

ईसाई―निराकार, चेतन और व्यापक है, परन्तु किसी एक 'सनाई पर्वत', 'चौथा आसमान' आदि स्थानों में विशेष करके रहता है। 

[सर्वव्यापक ईश्वर का जल पर डोलना नहीं हो सकता]

समीक्षक―जो निराकार है तो उसको किसने देखा? और व्यापक का जल पर डोलना कभी नहीं हो सकता। भला, जब ईश्वर का आत्मा जल पर डोलता था, तब ईश्वर कहाँ था? इससे यही सिद्ध होता है कि ईश्वर का शरीर कहीं अन्यत्र स्थित होगा अथवा अपने आत्मा के कुछ-एक टुकड़े को जल पर डोलाया होगा। जो ऐसा है तो विभु और सर्वज्ञ कभी नहीं हो सकता। जो विभु नहीं तो जगत् की रचना, धारण, पालन और जीवों के कर्मों की व्यवस्था वा प्रलय कभी नहीं कर सकता; क्योंकि जिस पदार्थ का स्वरूप एकदेशी है उसके गुण, कर्म, स्वभाव भी एकदेशी होते हैं, जो ऐसा है, तो वह ईश्वर नहीं हो सकता; क्योंकि ईश्वर सर्वव्यापक, अनन्त गुण-कर्म-स्वभावयुक्त, सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्य-शुद्ध-बुद्ध- मुक्त-स्वभाव, अनादि, अनन्तादि लक्षणयुक्त वेदों में कहा है, उसी को मानो तभी तुम्हारा कल्याण होगा, अन्यथा नहीं॥१॥ 

[ईसाई मतानुसार सूर्यादि की उत्पत्ति]

२. और ईश्वर ने कहा कि उजियाला होवे और उजियाला हो गया।३। और ईश्वर ने उजियाले को देखा कि अच्छा है….।४। 

[तौरेत, उत्पत्ति], पर्व १। आ॰ ३। ४॥ 

[जड़ उजियाले ने ईश्वर की बात कैसे सुन ली ?]

समीक्षक―क्या ईश्वर की बात जड़स्वरूप उजियाले ने सुन ली? जो सुनी हो, तो इस समय भी सूर्य और दीप-अग्नि का प्रकाश हमारी-तुम्हारी बात क्यों नहीं सुनता? प्रकाश जड़ होता है, वह कभी किसी की बात नहीं सुन सकता। क्या जब ईश्वर ने उजियाले को देखा तभी जाना कि उजियाला अच्छा है? पहले नहीं जानता था? जो जानता होता, तो देखकर अच्छा क्यों कहता? जो नहीं जानता था, तो वह ईश्वर ही नहीं। इसीलिये तुम्हारी 'बाइबल' ईश्वरोक्त और उसमें कहा हुआ ईश्वर सर्वज्ञ नहीं है॥२॥ 

[पानियों के मध्य आकाश बनाकर उन्हें विभक्त करना]

३. और ईश्वर ने कहा कि पानियों के मध्य में आकाश होवे और पानियों को पानियों से विभाग करे।६। तब ईश्वर ने आकाश को बनाया और आकाश के नीचे के पानियों को आकाश के ऊपर के पानियों से विभाग किया और ऐसा हो गया।७। और ईश्वर ने आकाश को स्वर्ग कहा और सांझ और बिहान दूसरा दिन हुआ।८। 

[तौरेत, उत्पत्ति], पर्व १। आ॰ ६। ७। ८॥

[विना आकाश के जल कहां और कैसे रहा ?]

समीक्षक―क्या आकाश और जल ने भी ईश्वर की बात सुन ली? और जो जल के बीच में आकाश न होता तो जल रहता ही कहाँ? प्रथम आयत में "आकाश को सृजा था", [यह लिखा है], पुनः आकाश का बनाना व्यर्थ हुआ। 

[आकाश सर्वव्यापक है, फिर स्वर्ग ऊपर कैसे ?]

जो आकाश को स्वर्ग कहा, तो वह सर्वव्यापक है, इसलिये सर्वत्र स्वर्ग हुआ। फिर ऊपर को स्वर्ग है, यह कहना व्यर्थ है। जब सूर्य उत्पन्न ही नहीं हुआ था, तो पुनः दिन और रात कहां से हो गये? ऐसी ही असम्भव बातें आगे की आयतों में भरी हैं॥३॥

[आदम की ईश्वर के स्वरूप में उत्पत्ति]

४. तब ईश्वर ने कहा कि हम आदम को अपने स्वरूप में अपने समान बनावें….।२६। तब ईश्वर ने आदम को अपने स्वरूप में उत्पन्न किया, उसने उसे ईश्वर के स्वरूप में उत्पन्न किया, उसने उन्हें नर और नारी बनाया।२७। और ईश्वर ने उन्हें आशीष दिया….।२८।

[तौरेत, उत्पत्ति], पर्व० १। आ॰ २६। २७। २८॥ 

[ईश्वर से उत्पत्ति हुई, तो आदम ईश्वर-सदृश क्यों न हुआ ?]

समीक्षक―यदि आदम को ईश्वर ने अपने स्वरूप में बनाया तो ईश्वर का स्वरूप पवित्र, ज्ञानस्वरूप, आनन्दमय आदि लक्षणयुक्त है, उसके सदृश आदम क्यों नहीं हुआ? जो नहीं हुआ, तो उसके स्वरूप में नहीं बना। और आदम को उत्पन्न किया तो ईश्वर ने अपने स्वरूप को ही उत्पत्तिवाला किया, पुनः वह अनित्य क्यों नहीं? 

[ईसाई मतानुसार ईश्वर के अतिरिक्त कोई वस्तु न था]

और आदम को उत्पन्न कहाँ से किया?


ईसाई―मिट्टी से बनाया। 


समीक्षक―मिट्टी कहां से बनाई?


ईसाई―अपनी कुदरत अर्थात् सामर्थ्य से।

समीक्षक―ईश्वर का सामर्थ्य अनादि है वा नवीन?


ईसाई―अनादि है।


समीक्षक―जब अनादि है तो जगत् का कारण सनातन हुआ, फिर अभाव से भाव क्यों मानते हो? 


ईसाई―सृष्टि के पूर्व ईश्वर के विना कोई वस्तु नहीं था।

[जगत् का कारण कुछ नहीं था, तो सृष्टि कहां से बनी ?]

समीक्षक―जो नहीं था तो यह जगत् कहाँ से बना? और ईश्वर का सामर्थ्य द्रव्य है वा गुण? जो द्रव्य है तो ईश्वर से भिन्न दूसरा पदार्थ था, और जो गुण है तो गुण से द्रव्य कभी नहीं बन सकता, जैसे रूप से अग्नि और रस से जल नहीं बन सकता। और जो ईश्वर से जगत् बना होता तो ईश्वर के सदृश गुण-कर्म-स्वभाववाला होता। उसके गुण-कर्म-स्वभाव के सदृश न होने से यही निश्चय है कि ईश्वर से नहीं बना, किन्तु 'जगत् के कारण' अर्थात् 'परमाणु' आदि नामवाले जड़ से बना है। 


जैसी जगत् की उत्पत्ति वेदादि शास्त्रों में लिखी है, वैसी ही मान लो, जिससे ईश्वर जगत् को बनाता है। जो आदम के भीतर का स्वरूप जीव और बाहर का मनुष्य के सदृश है तो वैसा ईश्वर का स्वरूप क्यों नहीं? क्योंकि जब आदम ईश्वर के सदृश बना तो ईश्वर आदम के सदृश अवश्य होना चाहिये॥४॥

[आदम को बनाकर अदन के बाग में रखा]

५. तब परमेश्वर ईश्वर ने भूमि की धूली से आदम को बनाया और उसके नथुनों में जीवन का श्वास फूंका और आदम जीवता प्राणी हुआ।७। और परमेश्वर ईश्वर ने अदन * में पूर्व की ओर एक बाड़ी लगाई और उस आदम को जिसे उसने पहले बनाया था, उसमें रक्खा।८। और उस बाड़ी के मध्य में जीवन का पेड़ और भले-बुरे के ज्ञान का पेड़ भूमि से उगाया।९। 

तौरेत उत्पत्ति की पुस्तक, पर्व २। आ॰ ७। ८। ९॥

[आदम को धूल से बनाया, तो वह ईश्वर का स्वरूप नहीं था]

समीक्षक―जब ईश्वर ने अदन में बाड़ी बनाकर उसमें आदम को रक्खा तब ईश्वर नहीं जानता था कि इसको वहां से पुनः निकालना पड़ेगा? और जब ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया तो ईश्वर का स्वरूप नहीं हुआ, और जो है तो ईश्वर भी धूली से बना होगा? जब उसके नथुनों में ईश्वर ने श्वास फूंका तो वह श्वास ईश्वर का स्वरूप था वा भिन्न? जो भिन्न था, तो आदम ईश्वर के स्वरूप में नहीं बना। जो एक है, तो आदम और ईश्वर एक-से हुए। और जो एक-से हैं, तो आदम के सदृश जन्म-मरण, वृद्धि-क्षय, क्षुधा-तृषा आदि दोष ईश्वर में आये; फिर वह ईश्वर क्योंकर हो सकता है? इसलिये यह 'तौरेत' की बात ठीक नहीं विदित होती, और यह पुस्तक भी ईश्वरकृत नहीं है॥५॥


* अदन―इस विषयक मत है कि 'अदन' संस्कृत 'उद्यान' का अपभ्रंश है। दोनों का भाव एक है और ध्वनिसाम्य भी है।

[आदम की पसली से नारी की रचना]

६. और परमेश्वर ईश्वर ने आदम को बड़ी नींद में डाला और वह सो गया। तब उसने उसकी पसलियों में से एक पसली निकाली और उसकी संति मांस भर दिया।२१। और परमेश्वर ईश्वर ने आदम की उस पसली से एक नारी बनाई और उसे आदम पास लाया।२२। 

[तौरेत उत्पत्ति] पर्व २॥ आ॰ २१। २२॥

[स्त्री को धूली से न बनाकर, हड्डी से क्यों बनाया ?]

समीक्षक―जो ईश्वर ने आदम को धूली से बनाया तो उसकी स्त्री को धूली से क्यों नहीं बनाया? और जो नारी को हड्डी से बनाया तो आदम को हड्डी से क्यों नहीं बनाया? और जैसे नर से निकलने से नारी नाम हुआ तो नारी से निकलकर नर भी होना चाहिये। और उनमें परस्पर प्रेम भी रहै, जैसे स्त्री के साथ पुरुष प्रेम करे वैसे ही स्त्री भी पुरुष के साथ प्रेम करे।

[पसली से नारी बनी, तो मनुष्यों में एक पसली कम क्यों नहीं ?]

देखो विद्वान् लोगो! ईश्वर की कैसी पदार्थविद्या अर्थात् ‘फिलासफ़ी’ चलकती है! जो आदम की एक पसली निकालकर नारी बनाई तो सब मनुष्यों की एक पसली कम क्यों नहीं होती? और स्त्री के शरीर में एक ही पसली होनी चाहिये, क्योंकि वह एक पसली से बनी है। क्या जिस सामग्री से सब जगत् बनाया, उस सामग्री से स्त्री का शरीर नहीं बन सकता था ? इसलिये यह 'बाइबल' का सृष्टिक्रम सृष्टिविद्या से विरुद्ध है॥६॥

[शैतान ने आदम और उसकी स्त्री को बहकाया, तीनों को शाप]

७. अब सर्प भूमि के हर एक पशु से, जिसे परमेश्वर ईश्वर ने बनाया था, धूर्त था। और उसने स्त्री से कहा, "क्या निश्चय ईश्वर ने कहा है कि तुम इस बाड़ी के हर एक पेड़ से न खाना?।१।" और स्त्री ने सर्प से कहा कि "हम तो इस बाड़ी के पेड़ों का फल खाते हैं।२। परन्तु उस पेड़ का फल जो बाड़ी के बीच में है, ईश्वर ने कहा है कि तुम उससे न खाना और न छूना, न हो कि मर जाओ।३।" तब सर्प ने स्त्री से कहा कि "तुम निश्चय न मरोगे।४। क्योंकि ईश्वर जानता है कि जिस दिन तुम उससे खाओगे, तुम्हारी आँखें खुल जायेंगी और तुम भले और बुरे की पहचान में ईश्वर के समान हो जाओगे।५।" और जब स्त्री ने देखा वह पेड़ खाने में सुस्वाद और दृष्टि में सुन्दर और बुद्धि देने के योग्य है तो उसके फल में से लिया और खाया और अपने पति को भी दिया और उसने खाया।६। तब उन दोनों की आँखें खुल गईं और वे जान गये कि हम नंगे हैं। सो उन्होंने गूलर के पत्तों को मिलाके सीआ और अपने लिये ओढ़ना बनाया।७। 


तब परमेश्वर ईश्वर ने सर्प से कहा कि "जो तूने यह किया है, इस कारण तू सारे ढोर और हर एक वन के पशुन से अधिक शापित होगा, तू अपने पेट के बल चलेगा और अपने जीवनभर धूल खाया करेगा।१४। और मैं तुझमें और स्त्री में और तेरे वंश और उसके वंश में बैर डालूंगा। वह तेरे शिर को कुचलेगा और तू उसकी एड़ी को काटेगा।१५।" और उसने स्त्री को कहा कि "मैं तेरी पीड़ा और गर्भधारण को बहुत बढ़ाऊँगा। तू पीड़ा से बालक जनेगी और तेरी इच्छा तेरे पति पर होगी और वह तुझपर प्रभुता करेगा।१६।" और उसने आदम से कहा कि "तूने जो अपनी पत्नी का शब्द माना है और जिस पेड़ का फल मैंने तुझे खाने से वर्जा था, तूने खाया है; इस कारण भूमि तेरे लिये शापित है। अपने जीवनभर तू उससे पीड़ा के साथ खायेगा।१७। और वह काँटे और ऊँटकटारे तेरे लिये उगायेगी और तू खेत का साग-पात खायेगा।१८।"

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व॰ ३। आ॰ १। २। ३। ४। ५। ६। ७। १४। १५। १६। १७। १८॥ 

[विना पूर्व अपराध के शैतान को दुष्ट क्यों बनाया ?]

समीक्षक―जो ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ होता तो इस 'धूर्त सर्प' अर्थात् 'शैतान' को क्यों बनाता? और जो बनाया, तो वही ईश्वर अपराध का भागी है, क्योंकि जो वह उसको दुष्ट न बनाता तो वह दुष्टता क्यों करता? और वह पूर्वजन्म नहीं मानता, तो विना अपराध उसको पापी क्यों बनाया? और सच पूछो तो वह सर्प नहीं था किन्तु मनुष्य था; क्योंकि जो मनुष्य न होता; तो मनुष्य की भाषा क्योंकर बोल सकता? 

[झूठे को शैतान कहते हैं, सत्यवादी को नहीं]

और जो आप झूठा [हो] और दूसरे को झूठ में चलावे, उसको 'शैतान' कहना चाहिये। सो यहां शैतान सत्यवादी [है], इससे कि उसने उस स्त्री को नहीं बहकाया किन्तु सच कहा। और ईश्वर ने आदम और हव्वा से झूठ कहा कि इसके खाने से तुम मर जाओगे। जब वह पेड़ ज्ञानदाता और अमर करनेवाला था, तो उसके फल खाने से क्यों वर्जा? और जो वर्जा तो वह ईश्वर झूठा और बहकानेवाला ठहरा, क्योंकि उस वृक्ष के फल मनुष्यों को ज्ञान और सुख-कारक थे, अज्ञान और मृत्यु-कारक नहीं। 

[आजकल ज्ञानदाता वृक्ष क्यों नहीं होते ?]

जब ईश्वर ने फल खाने से वर्जा तो उस वृक्ष की उत्पत्ति किसलिये की थी? जो अपने लिये की, तो क्या आप अज्ञानी और मृत्युधर्मवाला था? और जो दूसरों के लिये बनाया तो फल खाने में अपराध कुछ भी न हुआ। और आजकल कोई भी वृक्ष ज्ञानकारक और मृत्युनिवारक देखने में नहीं आता, क्या ईश्वर ने उसका बीज भी नष्ट कर दिया? 

[विना अपराध तीनों को शाप देना अन्याय था]

ऐसी बातों से मनुष्य छली-कपटी होता है, तो ईश्वर वैसा क्यों नहीं हुआ? क्योंकि जो कोई दूसरे से छल-कपट करेगा, वह [स्वयं] छली-कपटी क्यों न होगा? और जो इन तीनों को शाप दिया, वह विना अपराध के है, पुनः वह ईश्वर अन्यायकारी भी हुआ। और यह शाप ईश्वर को होना चाहिये, क्योंकि उसने झूठ बोला और उनको बहकाया। 

[क्या विना पीड़ा के बच्चा पैदा हो सकता था ?]

यह ‘फिलासफी’ देखो! क्या विना पीड़ा के गर्भधारण और बालक का जन्म हो सकता था? और विना श्रम के कोई अपनी जीविका कर सकता है? क्या प्रथम काँटे आदि के वृक्ष न थे? और जब शाक-पात खाना सब मनुष्यों को ईश्वर के कहने से उचित हुआ, तो जो उत्तर में मांस का खाना 'बाइबल' में लिखा, वह झूठा क्यों नहीं? और जो वह सच्चा हो, तो यह झूठा है।

[आदम निर्दोष था, फिर उसकी सन्तान अपराधी क्यों ?]

जब आदम का कुछ भी अपराध सिद्ध नहीं होता तो ईसाई लोग सब मनुष्यों को आदम के अपराध से सन्तान होने पर अपराधी क्यों कहते हैं? भला, ऐसा पुस्तक और ऐसा ईश्वर कभी बुद्धिमानों के मानने योग्य हो सकता है?॥७॥ 

[आदम को अदन के बाग से निकालना]

८. और परमेश्वर ईश्वर ने कहा कि देखो, आदम भले-बुरे के जानने में हममें से एक की नाईं हुआ और अब ऐसा न होवे कि वह अपना हाथ डाले और जीवन के पेड़ में से भी लेकर खावे, और अमर हो जाय।२२। सो उसने आदम को निकाल दिया और अदन की बाड़ी की पूर्व ओर करोबीम ठहराये। चमकते हुए खड्ग को, जो चारों ओर घूमता था, जिसतें जीवन के पेड़ के मार्ग की रखवाली करें।२४॥ 

[तौरेत, उत्पत्ति], पर्व ३। आ॰ २२। २४॥

[ईसाइयों का ईश्वर कोई भ्रान्त मनुष्य था]

समीक्षक―भला, ईश्वर को ऐसी ईर्ष्या और भ्रम क्यों हुआ कि ज्ञान में [आदम] हमारे तुल्य हुआ? क्या यह बुरी बात हुई? यह शङ्का ही क्यों पड़ी? क्योंकि ईश्वर के तुल्य कभी कोई नहीं हो सकता। परन्तु इस लेख से यह भी सिद्ध होता है कि वह ईश्वर नहीं था किन्तु मनुष्यविशेष था। 'बाइबल' में जहाँ कहीं ईश्वर की बात आती है वहां मनुष्य के तुल्य ही लिखी आती है।

[ईर्ष्या करना, तलवार का पहरा रखना मनुष्य के काम हैं]

अब देखो, आदम के ज्ञान की बढ़ती में ईश्वर कितना दुःखी हुआ और फिर 'अमर-वृक्ष' के फल खाने में कितनी ईर्ष्या की! और प्रथम जब उसको बारी में रक्खा तब उसको भविष्य का ज्ञान नहीं था कि इसको पुनः निकालना पड़ेगा? इसलिये ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ नहीं था। और चमकते खड्ग का पहरा रक्खा यह भी मनुष्य का काम है, ईश्वर का नहीं। हमको बड़ा आश्चर्य होता है कि ऐसे गुणवाले को ईसाई लोग ईश्वर क्यों मानते हैं, क्योंकि ये सब बातें मनुष्य के स्वभाव में घट सकती हैं, ईश्वर में नहीं॥८॥ 

[हाबील और उसकी भेंट का आदर, क़ाइन व उसकी भेंट का नहीं]

९. और कितने दिनों के पीछे यों हुआ कि काइन भूमि के फलों में से परमेश्वर के लिये भेंट लाया॥ और हाबिल भी अपने [भेड़-बकरियों के] झुंड में से पहलौठी और मोटी-मोटी लाया और परमेश्वर ने हाबील का और उसकी भेंट का आदर किया।४। परन्तु काइन का और उसकी भेंट का आदर न किया, इसलिये काइन अति कुपित हुआ और अपना मुंह फुलाया।५। तब परमेश्वर ने काइन से कहा कि "तू क्यों क्रुद्ध है? और तेरा मुंह क्यों फूल गया?"।६। 

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व ४। आ॰ ३। ४। ५। ६॥

[ईसाइयों का मांसाहारी ईश्वर लोगों से बातें भी करता था]

समीक्षक―यदि ईश्वर मांसाहारी न होता तो भेड़ की भेंट और हाबिल का सत्कार, और काइन तथा उसकी भेंट का तिरस्कार क्यों करता? और ऐसा झगड़ा लगाने और हाबिल के मृत्यु का कारण भी ईश्वर ही हुआ। और जैसी आपस में मनुष्य लोग एक दूसरे से बातें करते हैं, वैसी ही ईसाइयों के ईश्वर की बातें हैं। बगीचे में आना-जाना, उसका बनाना भी मनुष्यों का कर्म है। इससे विदित होता है कि यह 'बाइबल' मनुष्यों की बनाई है, ईश्वर की नहीं॥९॥ 

[लोहू का भूमि से पुकारना]

१०. तब परमेश्वर ने काइन से कहा―"तेरा भाई हाबिल कहाँ है?" और वह बोला, "मैं नहीं जानता, क्या मैं अपने भाई का रखवाला हूँ?"।९। तब उसने कहा―"तूने क्या किया?" तेरे भाई के लोहू का शब्द भूमि से मुझे पुकारता है।१०। …..और अब तू पृथिवी से शापित है….।११।

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व ४। आ॰ ९। १०। ११॥

[क्या लोहू का शब्द किसी को पुकार सकता है ?]

समीक्षक―क्या ईश्वर काइन से पूछे विना हाबिल का हाल नहीं जानता था? और लोहू का शब्द भूमि से किसी को कभी पुकार सकता है? ये सब बातें अविद्वानों की हैं। इसीलिये यह पुस्तक न ईश्वर और न विद्वान् का बनाया हो सकता है॥१०॥

[तीन सौ वर्ष तक ईश्वर के चलने की बात मूर्खतापूर्ण]

११. और हनूक मतूसिलह की उत्पत्ति के पीछे तीन-सौ वर्ष लों ईश्वर के साथ-साथ चलता था….।२२। 

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व ५। आ॰ २२॥

समीक्षक―भला, ईसाइयों का ईश्वर मनुष्य न होता, तो हनूक के साथ-साथ क्यों चलता? इससे जो वेदोक्त निराकार, व्यापक ईश्वर है, उसी को ईसाई लोग मानें, तो उनका कल्याण होवे॥११॥ 

[ईश्वर का पछताना और सृष्टि को नष्ट करना]

१२. (और यों हुआ कि) जब आदमी पृथिवी पर बढ़ने लगे और उनसे बेटियाँ उत्पन्न हुई।९। तो ईश्वर के पुत्रों ने आदमी की पुत्रियों को देखा कि वे सुन्दरी हैं और उनमें से जिन्हें उन्होंने चाहा उन्हें ब्याहा।२। और उन दिनों में पृथिवी पर दानव थे और उसके पीछे भी जब ईश्वर के पुत्र आदमी की पुत्रियों से मिले तो उनसे बालक उत्पन्न हुए, जो बलवान् हुए, जो आगे से नामी थे।४। और ईश्वर ने देखा कि आदमियों की दुष्टता पृथिवी पर बहुत हुई और उनके मन की चिन्ता और भावना प्रतिदिन केवल बुरी होती है।५। तब आदमी को पृथिवी पर उत्पन्न करने से परमेश्वर पछताया और उसे अति शोक हुआ।६। तब परमेश्वर ने कहा कि आदमी को, जिसे मैंने उत्पन्न किया, आदमी से लेके पशुन लों और रेंगवैयों को और आकाश के पक्षियों को पृथिवी पर से नष्ट करूँगा क्योंकि उन्हें बनाने से मैं पछताता हूँ।७। 

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व ६। आ॰ १। २। ४। ५। ६। ७॥

[जब ईश्वर के पुत्र थे, तो उसके मनुष्य होने में क्या संदेह ?]

समीक्षक―ईसाइयों से पूछना चाहिये कि ईश्वर के बेटे कौन हैं? और ईश्वर की स्त्री, सास, ससुर, साला और सम्बन्धी कौन हैं? क्योंकि अब तो आदमी की बेटियों के साथ विवाह होने से ईश्वर इनका सम्बन्धी हुआ, और जो उनसे उत्पन्न होते हैं, वे पुत्र और प्रपौत्र हुए। क्या ऐसी बात ईश्वर और ईश्वर के पुस्तक की हो सकती है? किन्तु यह सिद्ध होता है कि उन जंगली मनुष्यों ने यह पुस्तक बनाया है। 

[पश्चात्ताप और अज्ञानता मानव का धर्म है]

वह ईश्वर ही नहीं, क्योंकि जो सर्वज्ञ न हो, और न भविष्यत् की बात जाने; वह तो जीव है। क्या जब सृष्टि की थी तब 'आगे मनुष्य दुष्ट होंगे' ऐसा नहीं जानता था? और पछताना, अति-शोकादि होना, भूल से काम करके पीछे पश्चात्ताप करना आदि ईसाइयों के ईश्वर में घट सकता है, वेदोक्त ईश्वर में नहीं। और इससे यह भी सिद्ध होता है कि ईसाइयों का ईश्वर पूर्ण विद्वान्, योगी भी नहीं था, नहीं तो शान्ति और विज्ञान से अति-शोकादि से पृथक् हो सकता था। भला पशु-पक्षी भी दुष्ट हो गये!

[ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ होता तो विषादी न होता]

यदि वह ईश्वर सर्वज्ञ होता तो ऐसा विषादी क्यों होता? इसलिये न वह ईश्वर और न यह ईश्वरकृत पुस्तक हो सकता है। जैसे वेदोक्त परमेश्वर सब पाप, क्लेश, दुःख, शोकादि से रहित ‘सच्चिदानन्दस्वरूप’ है, उसको ईसाई लोग [पहले से] मानते, वा अब भी मानें, तो अपने मनुष्यजन्म को सफल कर सकें॥१२॥ 

[नूह ने नाव में सब प्राणियों का एक-एक जोड़ा रक्खा]

१३. ….उस नाव की लम्बाई तीन-सौ हाथ और चौड़ाई पचास हाथ और ऊँचाई तीस हाथ की होवे….।१५। ….तू नाव में जाना, तू और तेरे बेटे और तेरी पत्नी और तेरे बेटों की पत्नियां तेरे साथ।१८। और सारे शरीरों में से जीवते जन्तु दो-दो अपने साथ नाव में लेना, जिससे वे तेरे साथ जीते रहें, वे नर और नारी होंवे।१९। पंछियों में से उसके भाँति-भाँति के और ढोरों में से उसके भाँति-भाँति के और पृथिवी के हर एक रेंगवैयों में से भाँति-भाँति के, हर एक में से दो-दो तुझ पास आवें, जिसतें जीते रहें।२०। और तू अपने लिये खाने को सब सामग्री अपने पास इकट्ठा कर। वह तुम्हारे और उनके लिये भोजन होगा।२१। सो ईश्वर की सारी आज्ञा के अनुसार नूह ने किया।२२। 

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व ६। आ॰ १५। १८। १९। २०। २१। २२॥ 

[नूह की उस नाव में करोड़ों जीव कैसे समा गये ?]

समीक्षक―भला, कोई भी विद्वान् ऐसी विद्या से विरुद्ध असम्भव बात के वक्ता को ईश्वर मान सकता है? क्योंकि इतनी [कम] बड़ी, चौड़ी, ऊँची नाव में हाथी-हथनी, ऊँट-ऊँटनी आदि करोड़ों जन्तु और उनके खाने-पीने की चीजें, वे सब और कुटुम्ब के भी [जन क्या] समा सकते हैं? इसीलिये यह मनुष्यकृत पुस्तक है। जिसने यह लेख किया है, वह विद्वान् भी नहीं था॥१३॥ 

[पशु-पक्षियों से होम, और ईश्वर का उनकी सुगन्ध सूंघना]

१४. और नूह ने परमेश्वर के लिये एक वेदी बनाई और सारे पवित्र पशु और हर एक पवित्र पंछियों में से लिये, और होम की भेंट उस वेदी पर चढ़ाई।२०। और परमेश्वर ने सुगंध सूंघा और परमेश्वर ने अपने मन में कहा कि 'आदमी के लिये मैं पृथिवी को फिर कभी शाप न दूंगा, इस कारण कि आदमी के मन की भावना उसकी लड़काई से बुरी है, और जिस रीति से मैंने सारे जीवधारियों को मारा, फिर कभी न मारूंगा।२१।' 

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व ८। आ॰ २०। २१॥

[क्या ईश्वर सुगन्ध भी सूंघता है, और पछताता भी है ?]

समीक्षक―वेदी के बनाने, होम करने के लेख से यही सिद्ध होता है कि ये बातें वेदों से 'बाइबल' में गई हैं। 


क्या परमेश्वर के नाक भी है कि जिससे उसने सुगन्ध सूंघा? क्या यह ईसाइयों का ईश्वर मनुष्यवत् अल्पज्ञ नहीं है कि कभी शाप देता है और कभी पछताता है? कभी कहता है शाप न दूंगा। पहले दिया था और फिर भी देगा। प्रथम सबको मार डाला और अब कहता है कि कभी न मारूंगा। ये सब बातें लड़केपन की हैं, ईश्वर की नहीं, और न किसी विद्वान् की; क्योंकि विद्वान् की भी बात और प्रतिज्ञा स्थिर होती है॥१४॥ 

[नूह परिवार को पशु-पक्षी खाने का आशीर्वाद]

१५. और ईश्वर ने नूह को और उसके बेटों को आशीष दिया और उन्हें कहा कि….।१। "हर एक जीता-चलता जन्तु तुम्हारे भोजन के लिये होगा, मैंने हरी तरकारी के समान सारी वस्तु तुम्हें दीं।३। केवल मांस उसके जीव अर्थात् उसके लोहू समेत मत खाना।४।" 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व ९। आ॰ १। ३। ४॥

[ईसाइयों का ईश्वर निर्दय होने से पापी क्यों नहीं ?]

समीक्षक―क्या एक को प्राणकष्ट देकर दूसरों को आनन्द कराने से ईसाइयों का ईश्वर दयाहीन नहीं है? जो माता-पिता एक लड़के को मरवाकर दूसरे को खिलावें तो महापापी नहीं हों? इसी प्रकार यह बात है; क्योंकि ईश्वर के लिये सब प्राणी पुत्रवत् हैं। ऐसा न होने से इनका ईश्वर कसाईवत् काम करता है और सब मनुष्यों को हिंसक भी इसी ने बनाया है। इसलिये ईसाइयों का ईश्वर निर्दय होने से पापी क्यों नहीं?॥१५॥ 

[ईश्वर का डरकर नीचे उतरना, और भाषा-भेद करना]

१६. और सारी पृथिवी पर एक ही बोली और एक ही भाषा थी।१। फिर उन्होंने कहा कि आओ हम एक नगर और एक गुम्मट जिसकी चोटी स्वर्ग लों पहुँचे अपने लिये बनावें और अपना नाम करें, न हो कि हम सारी पृथिवी पर छिन्न-भिन्न हो जायें।४। तब ईश्वर उस नगर और उस गुम्मट को जिसे आदम के सन्तान बनाते थे, देखने को उतरा।५। तब परमेश्वर ने कहा कि 'देखो ! ये लोग एक ही हैं और इन सबकी एक ही बोली है।' अब वे ऐसा-ऐसा कुछ करने लगे सो वे जिस पर मन लगावेंगे उससे अलग न किये जायेंगे।६। आओ, हम उतरें और वहाँ उनकी भाषा को गड़बड़ावें, जिससे एक-दूसरे की बोली न समझें।७। तब परमेश्वर ने उन्हें वहाँ से सारी पृथिवी पर छिन्न-भिन्न किया और वे उस नगर के बनाने से अलग रहे।८। 

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व ११। आ॰ १। ४। ५। ६। ७। ८॥

[एक भाषा-भाषियों की भाषा को बिगाड़ना शैतान से भी बुरा काम]

समीक्षक―जब सारी पृथिवी पर एक भाषा और बोली होगी, उस समय सब मनुष्यों को परस्पर अत्यन्त आनन्द प्राप्त हुआ होगा। परन्तु क्या किया जाय, ईसाइयों के ईर्ष्यक ईश्वर ने सबकी भाषा गड़बड़ाके यह सबका सत्यानाश किया!! उसने यह बड़ा अपराध किया। क्या यह शैतान के काम से भी बुरा काम नहीं है? और इससे यह भी विदित होता है कि ईसाइयों का ईश्वर 'सनाई पहाड़' आदि पर रहता था और जीवों की उन्नति भी नहीं चाहता था। यह विना एक अविद्वान् के ईश्वर की बात [क्योंकर हो सकती है?] और यह पुस्तक ईश्वरोक्त क्योंकर हो सकता है?॥१६॥ 

[अबिरहाम का संकट में पत्नी को बहन बनाना]

१७. ….तब उसने अपनी पत्नी सारै से कहा कि देख मैं जानता हूँ कि तू देखने में सुन्दर स्त्री है।११। इसलिये यों होगा कि जब मिश्री तुझे देखेंगे तब वे कहेंगे कि यह उसकी पत्नी है और मुझे मार डालेंगे, परन्तु तुझे जीती रखेंगे।१२। तू कहियो कि मैं उसकी बहिन हूँ, जिसतें तेरे कारण मेरा भला होय और मेरा प्राण तेरे हेतु से जीता रहे।१३। 

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व १२। आ॰ ११। १२। १३॥

[जिनके ऐसे पैगम्बर हों, उनका कल्याण कैसे हो ?]

समीक्षक―अब देखिये! जो अबिरहाम 'बड़ा पैग़म्बर' ईसाई और मुसलमानों का बजता है और उसके कर्म मिथ्याभाषणादि बुरे हैं। और अपनी स्त्री का पातिव्रत्य धर्म भंग कराके व्यभिचारिणी बनाता है। भला, जिनके ऐसे पैग़म्बर हों, उनको विद्या वा कल्याण का मार्ग कैसे मिल सके?॥१७॥

[ईश्वर का खतनः करने का कठोर आदेश]

१८. और ईश्वर ने इब्राहीम से कहा तू और तेरे पीछे तेरा वंश उनकी पीढ़ियों में मेरे नियम को माने।९। तुम मेरा नियम जो मुझसे और तुमसे और तेरे पीछे तेरे वंश से है जिसे तुम मानोगे सो यह है कि तुममें से हर एक पुरुष का खतनः (खतना) किया जाय।१०। और तुम अपने शरीर [के गुप्तांग] की खलड़ी काटो और वह मेरे और तुम्हारे मध्य में नियम का चिह्न होगा।११। और तुम्हारी पीढ़ियों में हर एक आठ दिन के पुरुष का खतनः किया जाय, जो घर में उत्पन्न होय अथवा जो किसी परदेशी से जो तेरे वंश का न हो, रूपे से मोल लिया जाय॥१२। जो तेरे घर में उत्पन्न हुआ हो और जो तेरे रूपे से मोल लिया गया हो, अवश्य उसका खतनः किया जाय, और मेरा नियम तुम्हारे मांस [=देह] में सर्वदा नियम के लिये होगा।१३। और जो अखतनः बालक जिसकी खलड़ी का खतनः न हुआ हो, सो प्राणी अपने लोगों से कट जाय कि उसने मेरा नियम तोड़ा है।१४॥

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व १७। आ॰ ९। १०। ११। १२। १३। १४॥ 

[खतनः ईश्वर को इष्ट था, तो वह चमड़ी क्यों बनाई ?]

समीक्षक―अब देखिये ईश्वर की अन्यथा आज्ञा कि जो यह खतना करना ईश्वर को इष्ट होता तो उस चमड़े को आदि-सृष्टि में नहीं बनाता। और जो यह बनाया गया है वह रक्षार्थ है, जैसा आँख के ऊपर का चमड़ा। क्योंकि वह गुप्तस्थान अति कोमल है, जो उस पर चमड़ा न हो तो एक कीड़ी के भी काटने और थोड़ी-सी चोट लगने से बहुत-सा दुःख होवे; और लघुशंका के पश्चात् कुछ मूत्रांश कपड़ों में न लगे, इत्यादि बातों के लिये इसका काटना बुरा है। 

[ईसाई इस आज्ञा को अब क्यों नहीं मानते]

और अब ईसाई लोग इस आज्ञा को क्यों नहीं करते? यह आज्ञा सदा के लिये है, इसके न करने से ईसा की गवाही जो कि 'व्यवस्था के पुस्तक का एक बिन्दु भी झूठा नहीं है,' मिथ्या हो गई। इसका सोच-विचार ईसाई कुछ भी नहीं करते॥१८॥

[अबिरहाम से बातें कर ईश्वर का ऊपर जाना]

१९. तब उससे बात करने से रह गया और इब्राहीम के पास से ईश्वर ऊपर जाता रहा।२२।

 तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व॰ १७। आ॰ २२॥

[इनका ईश्वर कोई इन्द्रजाली पुरुषवत् था]

समीक्षक―इससे यह सिद्ध होता है कि [ईसाइयों का] ईश्वर मनुष्य वा पक्षिवत् था जो ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर आता-जाता रहता था। यह कोई इन्द्रजाली पुरुषवत् विदित होता है॥१९॥ 

[ईश्वर ने रोटी मक्खन और बछड़े का मांस खाया]

२०. फिर ईश्वर उसे ममरे के बलूतों में दिखाई दिया और वह दिन को घाम के समय में अपने तम्बू के द्वार पर बैठा था।१। और उसने अपनी आँखें उठाईं और देखा कि तीन मनुष्य उसके पास खड़े हैं और उन्हें देखके वह तम्बू के द्वार पर से उनकी भेंट को दौड़ा और भूमि लों दंडवत् किया।२। और कहा―"हे  मेरे स्वामी ! यदि मैंने अब आपकी दृष्टि में अनुग्रह पाया है तो मैं आपकी विनती करता हूँ कि अपने दास के पास से चले न जाइये।३। इच्छा होय तो थोड़ा जल लाया जाय और अपने चरण धोइये और पेड़ तले विश्राम कीजिये।४। और मैं एक कौर रोटी लाऊँ और आप तृप्त हूजिये। उसके पीछे आगे बढ़िये, क्योंकि आप इसीलिये अपने दास के पास आये हैं।" तब वे बोले कि "जैसा तूने कहा तैसा कर।५।" और इब्राहीम तंबू में सरः पास उतावली से गया और उसे कहा कि "फुरती कर और तीन नपुआ चोखा पिसान लेके गूंध और उसके फुलके पका।६।" और इब्राहीम झुंड की ओर दौड़ा गया और एक अच्छा कोमल बछड़ा लेके दास को दिया। उसने भी उसे सिद्ध करने में चटक किया।७। और उसने मक्खन और दूध और वह बछड़ा जो पकाया था, लिया और उनके आगे धरा और आप उनके पास पेड़ तले खड़ा रहा और उन्होंने खाया।८। 

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व १८। आ॰ १। २। ३। ४। ५। ६। ७। ८॥ 

[यह ईश्वर जंगली लोगों की मण्डली का कोई सरदार था]

समीक्षक―अब देखिये सज्जन लोगो ! जिनका ईश्वर बछड़े का मांस खावे, उसके उपासक गाय, बछड़े आदि पशुओं को क्यों छोड़ें? जिसको कुछ दया नहीं, मांस के खाने में आतुर रहे, वह विना हिंसक मनुष्य के, 'ईश्वर' कभी हो सकता है? और ईश्वर के साथ दो मनुष्य न जाने कौन थे? इससे विदित होता है कि जंगली मनुष्यों की एक मण्डली थी। उनका जो प्रधान मनुष्य था, उसका नाम 'बाइबल' में 'ईश्वर' रक्खा होगा। इन्हीं बातों से बुद्धिमान् लोग इनके पुस्तक को ईश्वरकृत नहीं मान सकते और न ऐसे को ईश्वर समझते हैं॥२०॥

[ईश्वर का स्त्रियों के समान ताना मारना]

२१. और परमेश्वर ने इब्राहीम से कहा कि "सरः क्यों यह कहके मुस्कुराई कि जो मैं बुढ़िया हूँ सचमुच बालक जनूंगी?।१३। क्या परमेश्वर के लिये कोई बात असाध्य है?"…..।१४।

तौरेत, [उत्पत्ति], पर्व १८। आ॰ १३। १४॥

समीक्षक―अब देखिये कि क्या-क्या ईसाइयों के ईश्वर की लीला है कि जो लड़कों वा स्त्रियों के समान चिड़ता और ताना मारता है !!॥२१॥ 

[ईश्वर का क्रुद्ध होकर नगरों पर आग बरसाना]

२२. तब परमेश्वर ने सदूम और अमूरः पर गंधक और आग परमेश्वर की ओर से स्वर्ग से वर्षाई।२४। और उन नगरों को, सारे चौगानें को और नगरों के सारे निवासियों को और जो कुछ भूमि पर उगता था, उलट दिया।२५। 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व १९। आ॰ २४। २५॥

[निरपराधों को कष्ट देना अन्याय है]

समीक्षक―अब यह भी लीला 'बाइबल' के ईश्वर की देखिये कि जिसको बालक आदि पर भी कुछ दया न आई! क्या वे सब ही अपराधी थे, जो सबको भूमि उलटाके दबा मारा? यह न्याय, दया और विवेक से विरुद्ध है। जिनका ईश्वर ऐसा काम करे, उसके उपासक क्यों न करें?॥२२॥ 

[लूत का अपनी पुत्रियों से संभोग करना]

२३. आओ, हम अपने पिता को दाख रस पिलावें और हम उनके साथ शयन करें कि हम अपने पिता से वंश जुगावें।३२। तब उन्होंने उस रात अपने पिता को दाखरस पिलाया और पहलौठी गई और अपने पिता के साथ शयन किया….।३३। हम उसे आज रात भी दाखरस पिलावें, तू जाके उसके साथ शयन कर….।३४। सो लूत की दोनों बेटियाँ अपने पिता से गर्भिणी हुईं….।३६।

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व १९। आ॰ ३२। ३३। ३४। ३६॥

[शराब के नशे में ऐसे ही कुकर्म होते हैं]

समीक्षक―देखिये! जब पिता-पुत्री भी जिस मद्यपान के नशे में कुकर्म करने से न बच सके, ऐसे दुष्ट मद्य को जो ईसाई आदि पीते हैं, उनकी बुराई का क्या पारावार है? इसलिये सज्जन लोगों को मद्य के पीने का नाम भी न लेना चाहिये॥२३॥

[परमेश्वर से सरः का गर्भिणी होना]

२४. और अपने कहने के समान परमेश्वर ने सरः से भेंट की और अपने वचन के समान परमेश्वर ने सरः के विषय में किया।१। और सरः गर्भिणी हुई….।२।

तौरेत, उत्पति, पर्व २१। आ॰ १। २॥

[ईसाइयों का ईश्वर परस्त्रीगमन भी करता था]

समीक्षक―अब विचारिये कि सरः से भेंट कर उसको गर्भवती किया, यह काम कैसे हुआ? क्या विना परमेश्वर और सरः के तीसरा कोई गर्भस्थापना का कारण दीखता है? ऐसा विदित होता है कि सरः परमेश्वर की कृपा से गर्भवती हुई॥२४॥

[हाजिर: को घर से निकलवाना]

२५. तब इब्राहीम ने बड़े तड़के उठके रोटी और एक पखाल में जल लिया और हाजिरः के कन्धे पर धर दिया और लड़के को भी उसे सौंपके उसे विदा किया….।१४। …..उसने उस लड़के को एक झाड़ी के तले डाल दिया।१५। …..और वह उसके सम्मुख बैठके चिल्ला-चिल्ला रोई।१६। तब ईश्वर ने उस बालक का शब्द सुना……।१७।

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व २१। आ॰ १४। १५। १६। १७॥

[बाइबिल में साधारण लोगों की बातें भरी हैं]

समीक्षक―अब देखिये ईसाइयों के ईश्वर की लीला कि प्रथम तो सरः का पक्षपात करके हाजिरः को वहाँ से निकलवा दी, और चिल्ला-चिल्ला रोई हाजिरः, और शब्द सुना लड़के का, यह कैसी अद्भुत बात है? यह ऐसा हुआ होगा कि ईश्वर को भ्रम हुआ होगा कि यह बालक ही रोता है। भला, यह ईश्वर और ईश्वर के पुस्तक की बात कभी हो सकती है, विना साधारण मनुष्य के वचन के? इस पुस्तक में थोड़ी-सी सत्य बात के अतिरिक्त सब असार भरा है॥२५॥ 

[ईश्वर का अबिरहाम से बेटे की बलि मांगना]

२६. और इन बातों के पीछे यों हुआ कि ईश्वर ने इब्राहीम की परीक्षा की और उसे कहा―"हे इब्राहीम….।१। तू अपने बेटे को, अपने इकलौते इज़हाक को जिसे तू प्यार करता है ले….उसे होम की भेंट के लिये चढ़ा।२।"…..और अपने बेटे इज़हाक को बाँधके उस वेदी में लकड़ियों पर धरा।९। और इब्राहीम ने छुरी लेके अपने बेटे को घात करने के लिये हाथ बढ़ाया।१०। तब परमेश्वर के दूत ने स्वर्ग पर से उसी को पुकारा कि "हे इब्राहीम-इब्राहीम !….।११।….अपना हाथ लड़के पर मत बढ़ा और उसे कुछ मत कर, क्योंकि अब मैं जानता हूं कि तू ईश्वर से डरता है"….।१२॥ 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व २२। आ॰ १। २। ९। १०। ११। १२॥

[क्यों न अपनी सर्वज्ञता से उसकी भक्ति को जाना ?]

समीक्षक―अब स्पष्ट हो गया कि यह 'बाइबल' का ईश्वर अल्पज्ञ है, सर्वज्ञ नहीं। और इब्राहीम भी एक भोला मनुष्य था, नहीं तो ऐसी चेष्टा क्यों करता? 'बाइबल' का ईश्वर सर्वज्ञ होता तो क्यों कराता और उसकी भविष्यत्-श्रद्धा को भी सर्वज्ञता से जान लेता?॥२६॥ 

[मृतकों को गाड़ने का आदेश]

२७. ….सो आप हमारी समाधिन में से चुनके एक में अपने मृतक को गाड़िये….जिसतें आप अपने मृतक को गाड़ें…….॥।६। 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व २३। आ॰ ६॥ 

[मुर्दों को गाड़ने में अनेक दोष हैं]

समीक्षक―मुर्दों के गाड़ने से संसार की बड़ी हानि होती है, क्योंकि वह सड़के वायु को दुर्गन्धमय कर रोग फैला देता है। 


प्रश्न―देखो, जिससे प्रीति हो उसको जलाना अच्छी बात नहीं। और गाड़ना [ऐसा है] जैसा कि उसको सुला देना है। इसलिये गाड़ना अच्छा है।

उत्तर―जो मृतक से प्रीति करते हो तो अपने घर में क्यों नहीं रखते? और गाड़ते भी क्यों हो? जिस जीवात्मा से प्रीति थी वह निकल गया, अब दुर्गन्धमय मिट्टी से क्या प्रीति? और जो प्रीति करते हो तो उसको पृथिवी में क्यों गाड़ते हो? क्योंकि किसी से कोई कहे कि 'तुझको भूमि में गाड़ देवें' तो वह सुनकर प्रसन्न कभी नहीं होता। उसके मुख, आँख, और शरीर पर धूल, पत्थर, ईंट, चूना डालना, छाती पर पत्थर रखना कौन-सा प्रीति का काम है? 


और सन्दूक में डालके गाड़ने से बहुत दुर्गन्ध होकर पृथिवी से निकल, वायु को बिगाड़कर दारुण रोगोत्पत्ति करता है। 


दूसरा, एक मुर्दे के लिये कम से कम ६ हाथ लम्बी और ४ हाथ चौड़ी भूमि चाहिये। इसी हिसाब से सौ, हजार वा लाख अथवा करोंड़ों मनुष्यों के लिये कितनी भूमि व्यर्थ रुक जाती है! न वह खेत, न बग़ीचा, और न वसने के काम की रहती है। इसलिये सबसे बुरा गाड़ना है।


उससे कुछ थोड़ा बुरा जल में डालना है, क्योंकि उसको जलजन्तु उसी समय चीर-फाड़के खा लेते हैं परन्तु जो कुछ हाड़ वा मल जल में रहेगा वह सड़कर जगत् को दुःखदायक होगा।

उससे कुछ-एक थोड़ा बुरा जंगल में छोड़ना है, क्योंकि उसको मांसाहारी पशु-पक्षी लूंच खायेंगे, तथापि जो उसके हाड़, हाड़ की मज्जा और मल सड़कर जितना दुर्गन्ध करेगा, उतना जगत् का अनुपकार होगा। 


और जो जलाना है वह सर्वोत्तम है, क्योंकि उसके सब पदार्थ अणु होकर वायु में उड़ जायेंगे। 

[विधि पूर्वक मुर्दे को जलाना सर्वोत्तम है]

प्रश्न―क्या मुर्दे के धुएं से दुर्गन्ध नहीं होता? 


उत्तर―हाँ, जो अविधि से जलावे तो थोड़ा-सा होता है, परन्तु गाड़ने आदि से बहुत कम होता है। 


और जो विधिपूर्वक जैसा कि वेद में लिखा है—वेदी, मुर्दे के तीन हाथ गहिरी, साढ़े तीन हाथ चौड़ी, पांच हाथ लम्बी, तले में डेढ़ बीता अर्थात् चढ़ा- उतार खोदकर शरीर के बराबर घी, उसमें एक सेर में रत्तीभर कस्तूरी, मासाभर केशर डाल, न्यून से न्यून आध मन चन्दन लें, अधिक चाहें जितना लें। अगर, तगर, कपूर आदि और पलाश आदि की लकड़ियों को वेदी में जमा, उस पर मुर्दा रखके पुनः चारों ओर ऊपर वेदी के मुख से एक बीता तक, भरके, उस घी की आहुति देकर जलाना लिखा है। इस प्रकार से दाह करें तो कुछ भी दुर्गन्ध न हो। इसी का नाम अन्त्येष्टि, नरमेध, पुरुषमेध यज्ञ है। और जो दरिद्र हो तो वीस सेर से कम घी चिता में न डाले, चाहे वह भीख मांगने वा जातिवालों के देने अथवा राज्य से मिलने से प्राप्त हो, परन्तु उसी प्रकार दाह करे। और जो घृतादि किसी प्रकार न मिल सके तथापि गाड़ने आदि से केवल लकड़ी से भी मृतक का जलाना उत्तम है, क्योंकि एक बिस्वाभर भूमि में अथवा एक वेदी में लाखों-करोड़ों मृतक जल सकते हैं। भूमि भी गाड़ने के समान अधिक नहीं बिगड़ती। और क़ब्र के देखने से भय भी होता है। इससे गाड़ना आदि सर्वथा निषिद्ध है॥२७॥

[ईश्वर का अबिरहाम की अगुवाई करना]

२८. ….परमेश्वर मेरे स्वामी इब्राहीम का ईश्वर धन्य है जिसने मेरे स्वामी को अपनी दया और अपनी सच्चाई विना न छोड़ा, मार्ग में परमेश्वर ने मेरे स्वामी के भाइयों के घर की ओर मेरी अगुआई की।२७।

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व २४। आ॰ २७॥

[ईश्वर अब क्यों बातें और अगुवाई नहीं करता]

समीक्षक―क्या वह इब्राहीम का ही ईश्वर था? और जैसे आजकल बेगारी वा अगवे लोग अगुआई अर्थात् आगे-आगे चलकर मार्ग दिखलाते हैं, वैसा ईश्वर ने भी किया तो आजकल मार्ग क्यों नहीं दिखलाता? और मनुष्यों से बातें क्यों नहीं करता? इसलिये ऐसी बातें ईश्वर वा ईश्वर के पुस्तक की कभी नहीं हो सकतीं, किन्तु जंगली मनुष्य की हैं॥२८॥

[भाटों की पोथीवत् इसमअऐल के बेटों के नाम गिनाना]

२९. इश्माएल के बेटों के नाम ये हैं—इश्माएल का पहिलौठा नबायोत और केदार और अदबेल और मिबसाम।१३। और मिश्मा और दूमः और मस्सा।१४। हदर और तेमा, यतूर, नफीस और किदमः।१५। 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व २५। आ॰ १३। १४। १५॥


समीक्षक―यह इश्माएल, इब्राहीम से उसकी हाजिरः दासी का पुत्र हुआ था॥२९॥ 

[याकूब का छल-कपट से आशीर्वाद लेना]

३०. ….मैं तेरे पिता की रुचि के समान स्वादित भोजन बनाऊंगी।९। और तू अपने पिता के पास ले जाइयो जिसतें वह खाय और अपने मरने से आगे तुझे आशीष देवे।१०। और रिबकः ने घर में से अपने जेठे बेटे एसाव का अच्छा पहरावा लिया और अपने छोटे बेटे याक़ूब को पहनाया।१५। और बकरी के मेम्नों का चमड़ा उसके हाथों और गले की चिकनाई पर लपेटा।१६। तब याक़ूब अपने पिता से बोला कि "मैं आपका पहिलौठा एसाव हूं, आपके कहने के समान मैंने किया है, उठ बैठिये और मेरे अहेर के मांस में से खाइये, जिसतें आपका प्राण मुझे आशीष दे।१९।"

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व २७। आ॰ ९। १०। १५। १६। १९॥

[छल कपट करने वाले भी पैगम्बर बने]

समीक्षक―देखिये, ऐसे झूठ-कपट से आशीर्वाद लेके पश्चात् सिद्ध और पैग़म्बर बनते हैं, क्या यह आश्चर्य की बात नहीं है? और ऐसे ईसाइयों के ऐसे 'अगुआ' हुए हैं! पुनः इनके मत की गड़बड़ में क्या न्यूनता हो॥३०॥

[पत्थर का खंभा खड़ा कर ईश्वर का घर बनाना]

३१. और याक़ूब बिहान को तड़के उठा और उस पत्थर को जिसे उसने अपना उसीसा किया था, खंभा खड़ा किया और उस पर तेल डाला।१८। और उस स्थान का नाम बेतएल रक्खा….।१९। और यह पत्थर जो मैंने खंभा-सा खड़ा किया, ईश्वर का घर होगा….।२२। 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व २८। आ॰ १८। १९। २२॥

[क्या 'बैतएलमुकद्दस' ही ईश्वर का घर था ?]

समीक्षक―अब देखिये, जंगलियों के काम! इन्होंने पत्थर पूजे और पुजवाये। और इसको मुसलमान लोग [भी] ‘बैतएलमुकद्दस’ कहते हैं। क्या यही पत्थर ईश्वर का घर [है], और उसी पत्थरमात्र में ईश्वर रहता था? वाह-वाह! क्या कहना है ईसाई लोगो! महाबुतपरस्त तो तुम ही हो॥३१॥ 

[ईश्वर ने राखिल की कोख खोली]

३२. और ईश्वर ने राख़िल को स्मरण किया और ईश्वर ने उसकी सुनी और उसकी कोख को खोला।२२। और वह गर्भिणी हुई और बेटा जनी और बोली कि ईश्वर ने मेरी निन्दा दूर की।२३। 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व ३०। आ॰ २२। २३॥

[क्या ईश्वर के पास डाक्टरी के औजार भी थे]

समीक्षक―वाह-वाह! ईसाइयों का ईश्वर क्या बड़ा डाक्टर है! स्त्रियों की कोख खोलने को कौन-से शस्त्र वा औषध थे जिनसे खोली? ये सब बातें अन्धाधुन्ध की हैं॥३२॥

[लाबन को ईश्वर का स्वप्न में मिलना]

३३. परन्तु ईश्वर अरामी लाबान कने स्वप्न में रात को आया और उसे कहा कि चौकस रह, तू याक़ूब को भला बुरा मत कहना….।२४। क्योंकि तू अपने पिता के घर का निपट अभिलाषी है, तूने किसलिये मेरे देवों को चुराया है?।३०।

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व ३१। आ॰ २४। ३०॥

[अब ईश्वर स्वप्न वा जाग्रत में किसी को क्यों नहीं मिलता ?]

समीक्षक―यह हम नमूना लिखते हैं, हजारों मनुष्यों को स्वप्न में आया, बातें की; जाग्रत में साक्षात् मिला; खाया-पीया, आया-गया आदि 'बाइबल' में लिखा है; परन्तु अब न जाने वह है वा नहीं? क्योंकि अब किसी को स्वप्न वा जाग्रत में भी ईश्वर नहीं मिलता और यह भी विदित हुआ कि ये जंगली लोग पाषाणादि मूर्तियों को देव मानकर पूजते थे। परन्तु ईसाइयों का ईश्वर भी पत्थर को ही देव मानता है, नहीं तो देवों का चुराना कैसे घटे?॥३३॥ 

[याकूब ने ईश्वर की सेना को देखा]

३४. और याक़ूब अपने मार्ग चला गया और ईश्वर के दूत उसे आ मिले।१। और याक़ूब ने उन्हें देखके कहा कि यह ईश्वर की सेना है….।२। 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व ३२। आ॰ १। २॥

[ईश्वर को सेना रखने की क्या आवश्यकता थी ?]

समीक्षक―अब ईसाइयों के ईश्वर का मनुष्य होना कुछ भी संदिग्ध नहीं रहा, क्योंकि ईश्वर के पास सेना भी है जब सेना हुई तो सब शस्त्र भी होंगे तथा किसी से लड़ाई-बखेड़े भी होते होंगे; नहीं तो सेना रखने का क्या प्रयोजन है?॥३४॥ 

[ईश्वर के साथ याकूब का मल्लयुद्ध]

३५. और याक़ूब अकेला रह गया और वहाँ पौ फटे लों एक जन उससे मल्ल युद्ध करता रहा।२४। और जब उसने देखा कि वह प्रबल न हुआ तो उसकी जांघ को भीतर से छूआ, तब याक़ूब के जांघ की नस उसके संग मल्लयुद्ध करने में चढ़ गई।२५। तब वह बोला कि "मुझे जाने दे क्योंकि पौ फटती है" और वह बोला "मैं तुझे जाने न देऊंगा जब लों तू मुझे आशीष न देवे।२६।" तब उसने उसे कहा कि "तेरा नाम क्या [है]?" और वह बोला कि "याक़ूब"।२७। तब उसने कहा कि "तेरा नाम आगे को याक़ूब न होगा परन्तु इस्राएल, क्योंकि तूने ईश्वर के और मनुष्यों के आगे राजा की नाईं मल्लयुद्ध किया और जीता।२८।" तब याक़ूब ने उससे पूछा कि "अपना नाम बताइये" और वह बोला कि "तू मेरा नाम क्यों पूछता है?" और उसने उसे वहाँ आशीष दिया।२९। और याक़ूब ने उस स्थान का नाम पनीएल रक्खा, क्योंकि मैंने ईश्वर को प्रत्यक्ष देखा और मेरा प्राण बचा है।३०। और जब वह पनूएल से पार चला तो सूर्य की ज्योति उस पर पड़ी और वह अपनी जांघ से लंगड़ाता था।३१। इसलिये इस्राएल के वंशज [पशुओं की] उस जांघ की नस को, जो [याक़ूब की] चढ़ गई थी, आज लों नहीं खाते, क्योंकि उसने याक़ूब के जांघ की नस को, जो चढ़ गई थी, छूआ था।३२।

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व ३२। आ॰ २४। २५। २६। २७। २८। २९। ३०। ३१। ३२॥ 

[मल्लयुद्ध करने वाले के मनुष्य होने में क्या सन्देह ?]

समीक्षक―ईसाइयों का ईश्वर अखाड़मल्ल है! तभी तो सरः और राख़िल पर पुत्र होने की कृपा की। भला, यह कभी ईश्वर हो सकता है? और देखो लीला कि एक जन नाम पूछे तो दूसरा अपना नाम ही न बतालावे! 

[अपने भक्त की जांघ क्यों न ठीक की ?]

और ईश्वर ने उसकी नाड़ी चढ़ा तो दी और जीत गया परन्तु जो डाक्टर होता तो जांघ की नाड़ी को अच्छा भी करता। और ऐसे ईश्वर की भक्ति से जैसा कि याक़ूब लंगड़ाता रहा तो अन्य भक्त भी लंगड़ाते होंगे। जब ईश्वर को प्रत्यक्ष देखा और मल्लयुद्ध किया, यह बात विना शरीरवाले के कैसे हो सकती है? यह केवल लड़केपन की लीला है॥३५॥ 

[क्या ईश्वर के मुंह भी है ?]

३६. ……ईश्वर का मुंह देखा….।१०। 

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व ३३। आ॰ १०॥ 


समीक्षक―जब ईश्वर के मुँह है तो और भी सब अवयव होंगे और वह जन्म-मरणवाला भी होगा॥३६॥

[नियोग की बात न मानने पर ओनान को मारा]

३७. और यहूदाह का पहिलौठा एर परमेश्वर की दृष्टि में दुष्ट था, सो परमेश्वर ने उसे मार डाला।७। तब यहूदाह ने ओनान को कहा कि "अपने भाई की पत्नी के पास जा और उससे ब्याह कर और अपने भाई के लिये वंश चला।८।" और ओनान ने जाना कि यह वंश मेरा न होगा और यों हुआ कि जब वह अपने भाई की पत्नी पास गया तो वीर्य को भूमि पर गिरा दिया….।९। और उसका वह कार्य परमेश्वर की दृष्टि में बुरा था, इसलिये उसने उसे भी मार डाला।१०।

तौरेत, उत्पत्ति, पर्व ३८। आ॰ ७। ८। ९। १०॥

[नियोग की प्रथा पहले से ही चली आ रही थी]

समीक्षक―अब देख लीजिये! ये मनुष्यों के काम हैं कि ईश्वर के? जब उसके साथ नियोग हुआ तो उसको क्यों मार डाला? उसकी बुद्धि शुद्ध क्यों न कर दी? और वेदोक्त नियोग भी प्रथम सर्वत्र चलता था। यह निश्चय हुआ कि नियोग की बातें सब देशों में चलती थीं॥३७॥

 

"तौरेत यात्रा की पुस्तक" 


[मूसा का एक मिस्री को मार डर कर भागना]

३८. …जब मूसा सयाना हुआ… और अपने भाइयों में से एक इबरानी को देखा कि मिश्री उसे मार रहा है।११। तब उसने इधर-उधर दृष्टि की और देखा कि कोई नहीं, तब उसने उस मिश्री को मार डाला और बालू में उसे छिपा दिया।१२। जब वह दूसरे दिन बाहर गया तो देखा कि दो इबरानी आपस में झगड़ रहे हैं। तब उसने उस अंधेरी को कहा कि तू अपने पड़ोसी को क्यों मारता है?।१३। तब उसने कहा कि किसने तुझे हम पर अध्यक्ष अथवा न्यायी ठहराया? क्या तू चाहता है कि जिस रीति से तूने मिश्री को मार डाला, मुझे भी मार डाले? तब मूसा डरा और कहा कि निश्चय यह बात खुल गई।१४। जब फ़िरौन ने यह बात सुनी तो चाहा कि मूसा को मार डाले। परन्तु मूसा फ़िरौन के आगे से भाग निकला…..।१५। 

तौ०, यात्रा, प० २। आ॰ ११, १२, १३, १४, १५॥

[मूसा आदि विद्याहीन और लड़ाकू लोग थे] 

समीक्षक―अब देखिये, ऐसे कर्मों का करनेहारा मूसा पैगम्बर बन गया!! जो 'बाइबल' का मुख्य सिद्धकर्त्ता, मत का आचार्य मूसा कि जिसका चरित्र क्रोधादि दुर्गुणों से युक्त, मनुष्य की हत्या करनेवाला और चोरवत् राजदण्ड से बचनेहारा अर्थात् जब बात को छिपाता था तो झूठ बोलनेवाला भी अवश्य होगा। ऐसे को भी जो ईश्वर मिला, वह पैगम्बर बना। उसने यहूदी आदि का मत चलाया। वह भी ईश्वर के ही सदृश हुआ। इसलिये ईसाइयों के जो मूल पुरुषा हुए हैं, वे सब मूसा आदि से ले करके जंगली अवस्था में थे, विद्यावस्था में नहीं, इत्यादि॥३८॥ 

[पवित्र स्थान पर जूता उतारने का आदेश]

३९. जब परमेश्वर ने देखा कि वह देखने को एक अलंग फिरा तो ईश्वर ने झाड़ी के मध्य में से उसे पुकारके कहा कि "हे मूसा! हे मूसा!" तब वह बोला "मैं यहां हूँ।४।" तब उसने कहा कि "इधर पास मत आ, अपने पाओं से जूता उतार, क्योंकि यह स्थान जिस पर तू खड़ा है पवित्र भूमि है।५।" 

तौ॰ यात्रा, प॰ ३। आ॰ ४। ५॥

[फिर ईसाई पवित्र स्थान पर जूते क्यों ले जाते हैं]

समीक्षक―देखिये ऐसे मनुष्य को, जो कि मनुष्य को मारके बालू में गाड़नेवाले से अपने ईश्वर की मित्रता और उसको पैग़म्बर मानते हैं! और देखो, जब तुम्हारे ईश्वर ने मूसा से कहा कि पवित्र स्थान में जूती न ले जानी चाहिये, तुम ईसाई इस आज्ञा के विरुद्ध क्यों चलते हो?॥ 


प्रश्न―हम जूती के स्थान में टोपी उतार लेते हैं।


उत्तर―यह दूसरा अपराध तुमने किया, क्योंकि टोपी उतारना न ईश्वर ने कहा, न तुम्हारे पुस्तक में लिखा है। और उतारने योग्य को नहीं उतारते, जो नहीं उतारना चाहिये उसको उतारते हो। ये दोनों प्रकार तुम्हारे पुस्तक से विरुद्ध हैं। 


प्रश्न―हमारे यूरोप देश में शीत अधिक है, इसलिये हम लोग जूती नहीं उतारते।


उत्तर―क्या शिर में शीत नहीं लगता? जो यही है तो जब यूरोप देश में जाओ तब ऐसा ही करना। परन्तु जब हमारे घर में वा बिछौने में आया करो तब तो जूती उतार दिया करो और जो न उतारोगे तो तुम अपने 'बाइबल' पुस्तक के विरुद्ध चलते हो। ऐसा तुमको न करना चाहिये॥३९॥

[ईश्वर ने मूसा को जादू का खेल दिखाया]

४०. तब परमेश्वर ने उससे कहा कि 'तेरे हाथ में यह क्या है?' और वह बोला कि "छड़ी"॥ तब उसने कहा कि "उसे भूमि पर डाल दे" और उसने उसे भूमि पर डाल दिया और वह सर्प बन गई और मूसा उसके आगे से भागा।२। तब परमेश्वर ने मूसा से कहा कि "अपना हाथ बढ़ा और उसकी पूंछ पकड़ ले," तब उसने अपना हाथ बढ़ाया और उसे पकड़ लिया……।३।……और वह उसके हाथ में छड़ी हो गई।४। तब परमेश्वर ने उसे कहा कि "फिर तू अपना हाथ अपनी गोद में कर" और उसने अपना हाथ अपनी गोद में किया, जब उसने उसे निकाला तो देखा कि उसका हाथ हिम के समान कोढ़ी था।६। और उसने कहा कि अपना हाथ फिर अपनी गोद में कर, उसने फिर अपने हाथ को अपनी गोद में किया और अपनी गोद से उसे निकाला तो देखा कि जैसी उसकी सारी देह थी वह वैसा फिर हो गया।७। ……तू नील नदी का जल लेके सूखी [भूमि] पर डालियो और वह जो जल तू नदी से निकालेगा सो सूखी [भूमि] पर लोहू हो जायगा।९। 

तौ॰, यात्रा, प॰ ४। आ॰ २। ३। ४। ६। ७। ९॥

[जादूगरी के खेल दिखाना क्या ईश्वर का काम है ?]

समीक्षक―अब देखिये, कैसा बाजीगर का खेल है! खिलाड़ी ईश्वर, उसका सेवक मूसा! और इन बातों को माननेहारे कैसे हैं? क्या आजकल बाजीगर लोग इससे कम करामात करते हैं? यह ईश्वर क्या, यह तो बड़ा खिलाड़ी है ! इन बातों को विद्वान् क्योंकर मानेंगे? और हर-एक वार मैं परमेश्वर हूँ और मैं इब्राहीम, इज़हाक और याक़ूब का ईश्वर हूँ, इत्यादि हर-एक से अपने मुख से अपनी प्रशंसा करता-फिरता है। यह बात उत्तम जन की नहीं हो सकती, किन्तु किसी दंभी मनुष्य की हो सकती है॥४०॥

[खून की छाप देख ईश्वर का भक्तों के घरों को पहचानना]

४१. ….और फसह का मेम्‍ना मारो।२१। और एक मूठी जूफा लेओ और उसे उस लोहू में, जो बासन में है, बोरके, ऊपर की चौखट के और द्वार की दोनों ओर उससे छापो और तुममें से कोई बिहान लों अपने घर के द्वार से बाहर न जावे।२२। क्योंकि परमेश्वर मिश्र के मारने के लिये आर-पार जायगा और जब वह ऊपर की चौखट पर और द्वार की दोनों ओर लोहू को देखेगा तब परमेश्वर द्वार से बीत जायगा और नाशक तुम्हारे घरों में न जाने देगा कि मारे।२३।

तौ॰, यात्रा, प॰ १२। आ॰ २१। २२। २३॥

[क्या ईश्वर विना छाप के घरों को न पहचानता ?]

समीक्षक―भला, यह जो टोने-टामन करनेवाले के समान है, वह ईश्वर सर्वज्ञ कभी हो सकता है? जब लोहू का छापा देखे तभी इस्राएल-कुल का घर जाने, अन्यथा नहीं। यह काम क्षुद्रबुद्धि वाले मनुष्य के सदृश है। इससे यह विदित होता है कि ये बातें किसी जंगली मनुष्य की लिखी हैं॥४१॥ 

[परमेश्वर द्वारा आधी रात को मिस्रियों की हत्या]

४२. और यों हुआ कि परमेश्वर ने आधी रात को मिश्र के देश में सारे पहिलौठों को फ़िरौन के पहिलौठे से लेके जो अपने सिंहासन पर बैठता था उस बंधुआ के पहिलौठे लों, जो बंदीगृह में था, पशुन के पहिलौठों समेत नाश किये।२९। और रात को फ़िरौन उठा, वह और उसके सब सेवक और सारे मिश्री उठे और मिश्र में बड़ा विलाप था, क्योंकि कोई घर न रहा जिसमें एक न मरा।३०। 

तौ॰, यात्रा, प॰ १२। आ॰ २९। ३०॥ 

[निरपराधों की हत्या करना ईश्वर का काम नहीं]

समीक्षक―वाह!! अच्छा! आधी रात को डाकू के समान निर्दयी होकर ईसाइयों के ईश्वर ने लड़के-बाले, वृद्ध और पशु तक भी विना अपराध मार दिये और कुछ भी दया न आयी और मिश्र में बड़ा विलाप होता रहा, तो भी ईसाइयों के ईश्वर के चित्त से निष्ठुरता नष्ट न हुई! ऐसा काम ईश्वर के तो क्या किन्तु किसी साधारण मनुष्य के भी करने का नहीं है। यह आश्चर्य नहीं, क्योंकि यह लिखा है कि ‘मांसाहारिणः कुतो दया’=जब ईसाइयों का ईश्वर मांसाहारी है तो उसको दया का क्या काम है?॥४२॥ 

[परमेश्वर का इस्रायेल के लिये युद्ध करना]

४३. परमेश्वर तुम्हारे लिये युद्ध करेगा….।१४। …..इस्राएल के संतान से कह कि वे आगे बढ़ें।१५। परन्तु तू अपनी छड़ी उठा और समुद्र पर अपना हाथ बढ़ा और उसे दो भाग कर और इस्राएल के सन्तान समुद्र के बीचों-बीच में से सूखी भूमि में होकर चले जायेंगे।१६। 

तौ॰, यात्रा, प॰ १४। आ॰ १४। १५। १६॥

[ईश्वर इसरायेल की सहायता अब क्यों नहीं करता ?]

समीक्षक―क्यों जी! आगे तो ईश्वर भेड़ों के पीछे गड़रिये के समान इस्राएल कुल के पीछे-पीछे डोला करता था, अब न जाने कहाँ गया? नहीं तो समुद्र के बीच में से चारों ओर की रेलगाड़ियों की सड़क बनवा लेते, जिससे सब संसार का उपकार होता और नाव आदि बनाने का श्रम छूट जाता। परन्तु क्या किया जाय, ईसाइयों का ईश्वर न जाने कहाँ छिप रहा है? इत्यादि बहुत-सी असम्भव लीलायें मूसा के साथ ईश्वर ने की हैं। परन्तु यह विदित हुआ कि ऐसा ईश्वर, ऐसे उसके सेवक और ऐसा ईश्वरकृत पुस्तक हम लोगों से दूर रहै॥४३॥

[परमेश्वर का चौथी पीढ़ी तक बैर निकालना]

४४. ….क्योंकि मैं परमेश्वर तेरा ईश्वर ज्वलित सर्वशक्तिमान् हूँ। पितरों के अपराध का दण्ड, उनके पुत्रों को, जो मेरा वैर रखते हैं, उनकी तीसरी और चौथी पीढ़ी लों देवैया हूँ।५।

तौ॰ यात्रा, प॰ २०। आ॰ ५॥

[पिता के अपराध से चार पीढ़ी तक दण्ड देना अन्याय है]

समीक्षक―भला, यह किस घर का न्याय है कि जो पिता के अपराध से चार पीढ़ी तक दण्ड देना, अच्छा मानना। क्या अच्छे पिता के दुष्ट और दुष्ट के श्रेष्ठ सन्तान नहीं होते? जो ऐसा होगा तो चौथी पीढ़ी तक दण्ड कैसे दे सकेगा? और जो पाँचवीं पीढ़ी से आगे दुष्ट होगा उसको दण्ड न दे सकेगा। विना अपराध किसी को दण्ड देना अन्यायकारी की बात है॥४४॥ 

[रविवार ईश्वर के विश्राम का दिन]

४५. विश्राम के दिन को उसे पवित्र रखने के लिये स्मरण कर।८। छः दिन लों तू परिश्रम कर….।९। और सातवां दिन परमेश्वर तेरे ईश्वर का विश्राम है….।१०।….परमेश्वर ने विश्राम दिन को आशीष दी….।११।

तौ॰ यात्रा, प॰ २०। आ॰ ८। ९। १०। ११॥

[रविवार में क्या विशेषता थी जो उसे पवित्र माना]

समीक्षक―क्या रविवार एक ही पवित्र दिन है और छः दिन अपवित्र हैं? और क्या परमेश्वर ने छः दिन तक बड़ा परिश्रम किया था कि जिससे थकके सातवें दिन सो गया? और जो रविवार को आशीर्वाद दिया तो सोमवार आदि छः दिनों को क्या दिया? अर्थात् शाप दिया होगा! ऐसा काम विद्वान् का भी नहीं [हो सकता] तो ईश्वर का क्योंकर हो सकता है? भला, रविवार में क्या गुण था और सोमवार आदि ने क्या दोष किया था कि जिससे एक को पवित्रता का वर दिया और अन्यों को ऐसे ही अपवित्र कर दिया!॥४५॥ 

[पड़ौसी की वस्तु का लालच न करो]

४६. अपने पड़ोसी पर झूठा साक्ष्य मत दे।१६। ….अपने पड़ोसी की स्त्री और उसके दास, उसकी दासी और उसके बैल और उसके गदहे और किसी वस्तु का जो तेरे पड़ोसी की है, लालच मत कर।१७।

तौ॰, यात्रा, प॰ २०। आ॰ १६। १७॥

[क्या परदेशी के माल को हजम कर लें ?]

समीक्षक―वाह! तभी तो ईसाई लोग परदेशियों के माल पर ऐसे झुकते हैं कि जानो प्यासा जल पर, भूखा अन्न पर। जैसी यह केवल मतलबसिन्धु और पक्षपात की बात है, ऐसा ही ईसाइयों का ईश्वर भी है। यदि कोई कहे कि हम सब मनुष्यमात्र को पड़ोसी मानते हैं तो सिवाय मनुष्यों के अन्य कौन स्त्री और दासी आदि वाले हैं कि जिनको अपड़ोसी गिनें? इसलिये ये बातें स्वार्थी मनुष्यों की हैं, ईश्वर की नहीं॥४६॥ 

[मनुष्य के हत्यारे को अवश्य दण्ड मिले]

४७. जो कोई किसी मनुष्य को मारे और वह मर जाय, वह निश्चय घात किया जाय।१२। और यदि वह मनुष्य घात में न लगा हो परन्तु ईश्वर ने उसके हाथ में सौंप दिया हो, तब मैं तुझे भागने का स्थान बता दूँगा।१३। 

तौ॰, यात्रा, प॰ २१। आ॰ १२। १३॥ 

[मनुष्य हत्या के दोषी मूसा को दण्ड क्यों न दिया ?]

समीक्षक―जो यह ईश्वर का न्याय सच्चा है, तो मूसा एक आदमी को मार, गाड़कर भाग गया था, उसको यह दण्ड क्यों नहीं हुआ? जो कहो ईश्वर ने मूसा को मारने के निमित्त सौंपा था तो ईश्वर पक्षपाती हुआ, क्योंकि उस मूसा का राजा से न्याय क्यों न होने दिया?॥४७॥

[परमेश्वर के लिये बैल की बलि]

४८. .…और कुशल का बलिदान बैलों से परमेश्वर के लिये चढ़ाया।५। और मूसा ने आधा लोहू लेके पात्रों में रक्खा और आधा लोहू वेदी पर छिड़का….।६। और मूसा ने उस लोहू को लेके लोगों पर छिड़का और कहा कि यह लोहू उस नियम का है जिसे परमेश्वर ने इन बातों के कारण तुम्हारे साथ किया है।८। और परमेश्वर ने मूसा से कहा कि "पहाड़ पर मुझ पास आ और वहाँ रह, और मैं तुझे पत्थर की पटियाँ और व्यवस्था और आज्ञा जो मैंने लिखी है, दूंगा।१२।"

तौ॰, यात्रा, प॰ २४। आ॰ ५। ६। ८। १२॥  

[बैल की बलि लेना, वेदी पर लोहू छिड़कना जंगलीपन है]

समीक्षक―अब देखिये, ये सब जंगली लोगों की बातें हैं वा नहीं? और परमेश्वर बैलों का बलिदान लेता, और वेदी पर लोहू छिड़कना, यह कैसी जंगलीपन और असभ्यता की बात है! जब ईसाइयों का खुदा भी बैलों का बलिदान लेवे तो उसके भक्त बैल-गाय के बलिदान की प्रसादी से पेट क्यों न भरें? और जगत् की हानि क्यों न करें? 

[क्या ईश्वर को स्याही कलम और क़ाग़ज का भी ज्ञान न था ?]

ऐसी-ऐसी बुरी बातें 'बाइबल' में भरी हैं। इन्हीं के कुसंस्कारों से वेदों में भी ऐसा झूठा दोष लगाना चाहते हैं परन्तु वेदों में ऐसी बातों का नाम भी नहीं। 


और यह भी निश्चय हुआ कि ईसाइयों का ईश्वर एक पहाड़ी मनुष्य था, पहाड़ पर रहता था। जब वह खुदा स्याही, लेखनी, काग़ज नहीं बना जानता [था] और न उसको प्राप्त था, इसीलिये पत्थर की पटियों पर लिख-लिख देता था और इन्हीं जंगलियों के सामने ईश्वर भी बन बैठा॥४८॥ 

[परमेश्वर का मूसा से प्रपञ्च करना]

४९. और बोला कि "तू मेरा रूप नहीं देख सकता, क्योंकि मुझे देखके कोई मनुष्य न जीयेगा।२०।" और परमेश्वर ने कहा कि "देख, एक स्थान मेरे पास है और तू उस टीले पर खड़ा रह।२१। और यों होगा कि जब मेरा विभव चलकर निकलेगा, तो मैं तुझे पहाड़ के दरार में रक्खूंगा और जब लों जा निकलूं तुझे अपने हाथ से ढांपूंगा।२२। फिर अपना हाथ उठा लूंगा और तू मेरा पीछा देखेगा परन्तु मेरा रूप दिखाई न देगा।२३।" 

तौ॰, यात्रा, प॰ ३३। आ॰ २०। २१। २२। २३॥

[मूसा को प्रपञ्च दिखा कोई व्यक्ति ईश्वर बन बैठा]

समीक्षक―अब देखिये, ईसाइयों का ईश्वर केवल मनुष्यवत् शरीरधारी है और मूसा से कैसा प्रपञ्च रचके आप स्वयं ईश्वर बन गया! जो पीछा देखेगा, रूप न देखेगा, तो हाथ से उसको ढांप भी दिया होगा। जब खुदा ने अपने हाथ से मूसा को ढांपा होगा तब क्या उसके हाथ का रूप उसने न देखा होगा?॥४९॥ 


"लैव्य व्यवस्था की पुस्तक" (तौरेत) 


[परमेश्वर का मूसा के द्वारा बैल की भेंट मांगना]

५०. और परमेश्वर ने मूसा को बुलाया और मंडली के तम्बू में से यह वचन उसे कहा।१। कि इस्राएल के सन्तानों से बोल और उन्हें कह, यदि कोई तुममें से परमेश्वर के लिये भेंट लावे तो तुम ढोर में से अर्थात् गाय-बैल और भेड़ बकरी में से अपनी भेंट लाओ।२। 

तौ॰, लैव्य व्यवस्था की पुस्तक, प॰ १। आ॰ १। २॥

[ईसाइयों का ईश्वर निश्चय ही मांसाहारी था]

समीक्षक―अब विचारिये! ईसाइयों का परमेश्वर गाय, बैल आदि की भेंट लेने वाला, जो कि अपने लिये बलिदान कराने के लिये उपदेश करता है वह बैल, गाय आदि पशुओं के लोहू-मांस का प्यासा-भूखा है वा नहीं? इसी से वह अहिंसक और ईश्वर कोटि में गिना कभी नहीं जा सकता किन्तु मांसाहारी, प्रपञ्‍ची मनुष्य के सदृश है॥५०॥

[पशुओं को यज्ञवेदी में भूनकर खाना]

५१. और वह उस बैल को परमेश्वर के आगे बलि करे और हारून के बेटे याजक लोहू को निकट लावें और लोहू को यज्ञवेदी के चारों ओर जो मंडली के तंबू के द्वार पर है, छिड़कें।५। तब वह उस भेंट के बलिदान की खाल निकाले और उसे टुकड़ा-टुकड़ा करे।६। और हारून के बेटे याजक यज्ञवेदी पर आग रक्खें और उसपर लकड़ी चुनें।७। और हारून के बेटे याजक उसके टुकड़ों को ओर शिर और चिकनाई को उन लकड़ियों पर जो यज्ञवेदी की आग पर हैं, विधि से धरें।८। ….जिसतें बलिदान की भेंट होवे, जो आग से परमेश्वर के सुगंध के लिये भेंट किया गया।९। 

तौ॰, लै॰ व्यवस्था की पुस्तक, प॰ १। आ॰ ५। ६। ७। ८। ९॥ 

[जो ईश्वर बैल आदि की बलि मांगे वह पापी है]

समीक्षक―तनिक विचारिये! कि बैल को परमेश्वर के आगे उसके भक्त मारें और वह मरवावे और लोहू को चारों ओर छिड़कें, अग्नि में होम करें, ईश्वर सुगन्ध लेवे, भला, यह कसाई के घर से कुछ कमती लीला है? इसी से न 'बाइबल' ईश्वरकृत, और न वह, जंगली मनुष्य के सदृश लीलाधारी 'ईश्वर' हो सकता है॥५१॥

[बछिया के बलिदान से पाप की निवृत्ति]

५२. फिर परमेश्वर मूसा से यह कहके बोला।१। कि यदि वह अभिषेक किया हुआ याजक लोगों के पाप के समान पाप करे, तो वह अपने पाप के कारण, जो उसने किया है, अपने पाप की भेंट के लिये निष्खोट एक बछिया परमेश्वर के लिये लावे।३। ….और बछिया के शिर पर अपना हाथ रक्खे और बछिया को परमेश्वर के आगे बलि करे।४। 

तौ॰, लै॰ व्य॰, प॰ ४। आ॰ १। ३। ४॥ 

[पापों को छुड़ाने के निकृष्टतम प्रायश्चित्त]

समीक्षक―अब देखिये पापों के छुड़ाने के प्रायश्चित्त! स्वयं पाप करें, गाय आदि उत्तम पशुओं की हत्या करें, और परमेश्वर करवावे! धन्य हैं ईसाई लोग कि जो ऐसी बातों के करने-करानेहारे को भी ईश्वर मानकर अपनी मुक्ति आदि की आशा करते हैं!!॥५२॥ 

[बकरी के बच्चे की भेंट से भी पापों की निवृत्ति]

५३. जब कोई अध्यक्ष पाप करे….।२२।….तब वह बकरी का निष्खोट नर मेम्‍ना अपनी भेंट के लिये लावे।२३। और….उसे….परमेश्वर के आगे बलि करे …यह पाप की भेंट है।२४। 

तौ॰, लै॰ व्य, पु, प॰ ४। आ॰ २२। २३। २४॥

[फिर तो अध्यक्षादि पाप करने से क्यों डरेंगे ?]

समीक्षक―वाह जी, वाह! यदि ऐसा है तो इनके अध्यक्ष अर्थात् न्यायाधीश तथा सेनापति आदि पाप करने से क्यों डरते होंगे? आप तो यथेष्ट पाप करें और प्रायश्चित्त के बदले में गाय, बछिया, बकरे आदि के प्राण लेवें, तभी तो ईसाई लोग किसी पशु वा पक्षी के प्राण लेने में शङ्कित नहीं होते। 


सुनो ईसाई लोगो! अब तो इस जंगली मत को छोड़के सुसभ्य, धर्ममय वेदमत को स्वीकार करो कि जिससे तुम्हारा कल्याण हो॥५३॥ 

[भेड़ न मिले, तो कबूतर के दो बच्चे ही सही]

५४. और यदि उसके पास भेड़ लाने की पूँजी न हो तो वह अपने किये हुए अपराध के लिए दो पिंडुकियां और कपोत के दो बच्चे परमेश्वर के लिये लावे….।७।…..और उसका शिर उसके गले के पास से मरोड़ डाले परन्तु अलग न करे।८। ….उसके किये हुए पाप का प्रायश्चित्त करे और उसके लिये क्षमा किया जायगा।१०। 

[यदि निर्धन हो तो कुछ आटा ही ले आवे]

पर यदि उसके पास दो पिंडुकियां और कपोत के दो बच्चे लाने की पूंजी न हो तो ….सेर भर चोखा पिसान का दशवां हिस्सा पाप की भेंट के लिये लावे,* उस पर तैल न डाले….।११। ….और वह क्षमा किया जायगा।१३। 

तौ॰, लै॰ व्य० पु०, प॰ ५। आ॰ ७। ८। १०। ११। १३॥

[पाप के द्वारा पाप से छुटकारा नहीं मिल सकता]

समीक्षक―अब सुनिये! ईसाइयों में पाप करने से कोई धनाढ्य न डरता होगा और न दरिद्र ही; क्योंकि इनके ईश्वर ने पापों का प्रायश्चित्त करना सहज कर रक्खा है। एक यह बात ईसाइयों की 'बाइबल' में बड़ी अद्भुत है कि विना कष्ट पाये पाप से पाप छूट जाय! क्योंकि एक तो पाप किया और दूसरी जीवों की हिंसा की और खूब आनन्द से मांस खाया, और पाप भी छूट गया!! 

[जहां ऐसे उपदेश हों वहां दया का क्या काम]

भला! कपोत के बच्चे का गला मरोड़ने से वह बहुत देर तक तड़पता होगा, तब भी ईसाइयों को दया नहीं आती! दया क्योंकर आवे? इनके ईश्वर का उपदेश ही हिंसा करने का है। और जब सब पापों का ऐसा ही प्रायश्चित्त है, तो 'ईसा के विश्वास से पाप छूट जाता है', यह बड़ा आडम्बर क्यों करते हैं?॥५४॥


* इस ईश्‍वर को धन्य है कि जिसने बछड़ा, भेड़ी और बकरी का बच्चा, कपोत और पिसान (आटे) तक लेने का नियम किया ! अद्‍भुत बात तो यह है कि कपोत के बच्चे 'गर्दन मरोड़वाके' लेता था अर्थात् गर्दन तोड़ने का परिश्रम न करना पड़े। इन सब बातों के देखने से विदित होता है कि जंगलियों में कोई चतुर पुरुष था, वह पहाड़ पर जा बैठा और अपने को ईश्‍वर प्रसिद्ध किया। जंगली अज्ञानी थे, उन्होंने उसी को ईश्‍वर स्वीकार कर लिया। अपनी युक्‍तियों से वह पहाड़ पर ही खाने के लिए पशु, पक्षी और अन्‍नादि मँगा लिया करता था और मौज करता था। उसके दूत=फरिश्ते काम किया करते थे। सज्जन लोग विचारें कि कहाँ तो बाइबल में बछड़ा, भेड़ी, बकरी का बच्चा, कपोत और 'अच्छे' पिसान का खानेवाला ईश्‍वर और कहाँ सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, अजन्मा, निराकार, सर्वशक्‍तिमान् और न्यायकारी इत्यादि उत्तम गुणयुक्‍त वेदोक्‍त ईश्‍वर?


[बलि-पशु की खाल वा भोजन याजक का]

५५. ….सो उसी बलिदान की खाल उसी याजक की होगी, जिसने उसे चढ़ाया।८। और समस्त भोजन की भेंट जो तन्दूर में पकाई जावें और सब जो कड़ाही में अथवा तवे पर, सो उसी याजक की होगी।९। 

तौ॰, लै॰ व्य० पु०, प॰ ७। आ॰ ८। ९॥ 

[ईसाई-पुजारी देवी के भोपों से भी बढ़ गये]

समीक्षक―हम जानते थे कि यहां देवी के भोपों और मन्दिरों के पुजारियों की पोपलीला विचित्र है, परन्तु ईसाइयों के ईश्वर और उनके पुजारियों की पोपलीला इससे सहस्रगुणा बढ़कर है, क्योंकि चाम के दाम और भोजन के पदार्थ खाने को आवें तो फिर ईसाइयों के याजकों ने खूब मौज उड़ाई होगी, और अब भी उड़ाते होंगे! 

[ईश्वर की दृष्टि में सब प्राणी पुत्रवत् हैं]

भला, कोई मनुष्य एक लड़के को मरवावे और दूसरे लड़के को उसका मांस खिलावे, ऐसा कभी हो सकता है? वैसे ही मनुष्य और पशु, पक्षी आदि सब जीव ईश्वर के पुत्रवत् हैं। परमेश्वर ऐसा काम कभी नहीं कर सकता। इसी से यह 'बाइबल' ईश्वरकृत और इसमें लिखा ईश्वर और इसके माननेवाले धर्मत्मा कभी नहीं हो सकते। ऐसे ही सब बातें 'लैव्य व्यवस्था' आदि पुस्तकों में भरी है, कहां तक गिनावें?॥५५॥ 


"गिनती की पुस्तक" [तौरेत] 


[गदही की ईश्वर के दूत बलआम से बातचीत]

५६. सो गदही ने परमेश्वर के दूत को अपने हाथ में तलवार खींचे हुए मार्ग में खड़े देखा, तब गदही मार्ग से अलग खेत में फिर गई, उसे मार्ग में फिरने के लिये बलआम ने गदही को लाठी से मारा।२३। तब परमेश्वर ने गदही का मुंह खोला और उसने बलआम से कहा कि "मैंने तेरा क्या किया है कि तूने मुझे अब तीन वार मारा।२८।" 

तौ॰, गिनती, प॰ २२। आ॰ २३। २८॥

[अब ईसाई-पदारियों तक को भी दूत क्यों नहीं दीखते ?]

समीक्षक―प्रथम तो गदहे तक ईश्वर के दूतों को देखते थे और आज कल बिशप, पादरी आदि श्रेष्ठ वा अश्रेष्ठ मनुष्यों को भी खुदा वा उसके दूत नहीं दीखते हैं! क्या आजकल परमेश्वर और उसके दूत हैं वा नहीं? यदि हैं तो क्या बड़ी नींद में सोते हैं, वा रोगी [हैं?] अथवा किसी अन्य भूगोल में चले गये? वा किसी अन्य धन्धे में लग गये? वा अब ईसाइयों से रुष्ट हो गये? अथवा मर गये? विदित नहीं होता कि क्या हुआ? अनुमान तो ऐसा होता है कि जो अब नहीं हैं, नहीं दीखते, तो तब भी नहीं थे और नहीं दीखते होंगे। ये केवल मनमाने गपोड़े उड़ाये हैं॥५६॥

[सबको मार कुमारियों को अपने लिये जीवित रखना]

५७. सो अब लड़कों में से हर एक बेटे को और हर एक स्त्री को जो पुरुष से संयुक्त हुई हो प्राण से मारो।१७। परन्तु वे बेटियां जो पुरुष से संयुक्त नहीं हुई हैं, उन्हें अपने लिये जीती रक्खो।१८। 

तौ॰, गिनती०, प॰ ३१। आ॰ १७। १८॥

[यह मूसा हिंसक और विषयी व्यक्ति था]

समीक्षक―वाह जी! मूसा पैग़म्बर और तुम्हारा ईश्वर धन्य है कि जो स्त्री-बाल-वृद्ध और पशु-हत्या करने से भी अलग न रहै। और इससे स्पष्ट निश्चित होता है कि मूसा विषयी था; क्योंकि जो विषयी न होता तो अक्षतयोनि अर्थात् पुरुषों से समागम न की हुई कन्याओं को अपने लिये क्यों मँगाता? वा उनको ऐसी निर्दयी वा विषयीपन की आज्ञा क्यों देता?॥५७॥ 


"समुएल की दूसरी पुस्तक" 


[शरणार्थियों की भांति ईश्वर का तम्बू में रहना]

५८. और उसी रात ऐसा हुआ कि परमेश्वर का वचन यह कहके नाता को पहुंचा।४। कि जा और मेरे सेवक दाऊ से कह कि परमेश्वर यों कहता है कि क्या मेरे निवास के लिये तू एक घर बनावेगा।५। क्योंकि जब से इस्राएल के सन्तानों को मिश्र से निकाल लाया, मैंने तो आज के दिन लों घर में वास न किया, परन्तु तंबू में और डेरे में फिरा किया।६। 

तौ॰, समुएल की दूसरी पु॰, प॰ ७। आ॰ ४। ५। ६॥

[तम्बू में ईश्वर नहीं, मनुष्य ही रह सकता है]

समीक्षक―अब [इसमें] कुछ सन्देह न रहा कि 'ईसाइयों का ईश्वर मनुष्यवत् देहधारी नहीं है।' और उलाहना देता है कि मैंने बहुत परिश्रम किया, इधर-उधर डोलता फिरा, अब दाऊद घर बनादे तो उसमें आराम करूं। ईसाइयों को ऐसे ईश्वर और ऐसे पुस्तक को मानने में लज्जा नहीं आती? परन्तु क्या करें बिचारे फस गये। सो फस ही गये। अब निकलने के लिये बड़ा पुरुषार्थ करना उचित है॥५८॥ 


"राजाओं की पुस्तक" (२) 


[परमेश्वर के घर और यरूसलम का विनाश]

५९. और बाबुल के राजा नबूख़ुदनज़र के राज्य के उन्नीसवें बरस के पाँचवें मास सातवीं तिथि में बाबुल के राजा का एक सेवक नबूसरअदान जो निजसेना का प्रधान अध्यक्ष था, यरुसलम में आया।८। और उसने परमेश्वर के मन्दिर और राजा के भवन और यरुसलम के सारे घर और हर एक बड़े घर को जला दिया।९। और कसदियों की सारी सेना ने जो उस निजसेना के अध्यक्ष के साथ थीं, यरुसलम की भीतों को चारों ओर से ढा दिया।१०। 

तौ॰, रा॰ पु॰, प॰ २५। आ॰ ८। ९। १०॥

[जो ईश्वर अपना घर भी न बचा सका, वह क्या ईश्वर ?]

समीक्षक―क्या किया जाय, ईसाइयों के ईश्वर ने तो अपने आराम के लिये दाऊद आदि से घर बनवाया था, उसमें आराम करता होगा। परन्तु नबूसरअदान ने ईश्वर के घर को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया और ईश्वर वा उसके दूतों की सेना कुछ भी न कर सकी। 


प्रथम तो, इनका ईश्वर बड़ी-बड़ी लड़ाइयाँ मारता था और विजयी होता था परन्तु अब अपना घर जला-तुड़वा बैठा। न जाने चुपचाप क्यों बैठा रहा? और न जाने उसके दूत किधर भाग गये? ऐसे समय पर कोई भी काम न आया और ईश्वर का पराक्रम भी न जाने कहाँ उड़ गया? यदि यह बात सच्ची हो तो जो-जो विजय की बातें प्रथम लिखीं सो-सो सब व्यर्थ हो गईं। क्या मिश्र के लड़के-लड़कियों को मारने में ही शूरवीर बना था? अब शूरवीरों के सामने चुपचाप हो बैठा? यह तो ईसाइयों के ईश्वर ने अपनी निन्दा और अप्रतिष्ठा करा ली!! ऐसी ही हज़ारों निकम्मी कहानियाँ इस पुस्तक में भरी हैं॥५९॥ 


ज़बूर का दूसरा भाग 


"काल के समाचार की पहली पुस्तक [इतिहास-१]"


[मरी भेजकर ७० सहस्र पुरुषों को मारना]

६०. सो परमेश्वर मेरे ईश्वर ने इस्राएल पर मरी भेजी और इस्राएल में से सत्तर सहस्र पुरुष गिर गये।१४।

जबूर, काल०, प० २१ । आ० १४॥ 

[अपने ही भक्तों को मारना ईश्वर का काम नहीं]

समीक्षक―अब देखिये, इस्राएल के ईसाइयों के ईश्वर की लीला! जिस इस्राएल कुल को बहुत से वर दिये थे और रात-दिन जिनके पालन में डोलता था, अब झट क्रोधित होकर मरी डालके ७०००० (सत्तर सहस्र) मनुष्यों को मार डाला। जो यह किसी कवि ने लिखा है, सत्य है कि―


क्षणे रुष्टः क्षणे तुष्टो रुष्टस्तुष्टः क्षणे क्षणे।

अव्यवस्थितचित्तस्य प्रसादोऽपि भयङ्करः॥

[सुभाषितरत्नभाण्डागार, प्रक० ३। श्लोक १७४]

जैसे कोई मनुष्य क्षण में प्रसन्न, क्षण में अप्रसन्न होता है अर्थात् क्षण-क्षण में प्रसन्न-अप्रसन्न होवे, उसकी प्रसन्नता भी भयदायक होती है, वैसी लीला ईसाइयों के ईश्वर की है॥६०॥


"ऐयूब की पुस्तक" 


[शैतान से ऐयूब के प्राणों की भिक्षा मांगना]

६१. और एक दिन ऐसा हुआ कि परमेश्वर के आगे ईश्वर के पुत्र आ खड़े हुये और शैतान भी उनके मध्य में परमेश्वर के आगे आ खड़ा हुआ।१। और परमेश्वर ने शैतान से कहा कि "तू कहां से आता है?" तब शैतान ने उत्तर देके परमेश्वर से कहा कि "पृथिवी पर घूमते और इघर-उघर से फिरते चला आता हूं।२।" तब परमेश्वर ने शैतान से पूछा कि "तूने मेरे दास ऐयूब को जांचा है कि उसके समान पृथिवी पर कोई नहीं है, वह सिद्ध और खरा जन ईश्वर से डरता और पाप से अलग रहता है और अब लों अपनी सच्चाई को धर रक्खा है और तूने मुझे उसे अकारण नाश करने को उभारा है।३।" तब शैतान ने उत्तर देके परमेश्वर से कहा कि "चाम के लिये चाम; हां, जो मनुष्य का है सो अपने प्राण के लिये देगा।४। परन्तु अब अपना हाथ बढ़ा और उसके हाड़-माँस को छू, तब वह नि:सन्देह तुझे तेरे सामने त्यागेगा।५।" तब परमेश्वर ने शैतान से कहा कि "देख, वह तेरे हाथ में है, केवल उसके प्राण को बचा।६।" तब शैतान परमेश्वर के आगे से चला गया और ऐयूब को सिर से तलवे लों बुरे फोड़ों से मारा।७।

जबूर, ऐयूब, प० २। आ० १।२।३।४।५।६।७॥

[जो शैतान से भक्तों को नहीं बचा सका, वह क्या ईश्वर ?]

समीक्षक―अब देखिये ईसाइयों के ईश्वर का सामर्थ्य कि शैतान उसके सामने उसके भक्तों को दुःख देता है!! न शैतान को दण्ड दे सकता है, न अपने भक्तों को बचा सकता है और न उसके दूतों में से कोई उसका सामना कर सकता है। एक शैतान ने सबको भयभीत कर रक्खा है। और ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ भी नहीं, जो सर्वज्ञ होता तो ऐयूब की परीक्षा शैतान से क्यों कराता?॥६१॥

"उपदेश की पुस्तक [सभोपदेशक]"


[बुद्धि की वृद्धि से शोक की वृद्धि]

६२. ….हां, मेरे अन्त:करण ने बुद्धि और ज्ञान बहुत देखा है।१६। और मैंने बुद्धि और बौड़ाहपन और मूढ़ता जानने को मन लगाया, मैंने जान लिया कि यह भी मन का झंझट है।१७। क्योंकि अधिक बुद्धि में बड़ा शोक है और जो ज्ञान में बढ़ता है सो दुःख में बढ़ता है।१८।

जबूर, उ० पु०, प० १। आ० १६। १७। १८॥

[बुद्धि वृद्धि में शोक वा दुःख मानना मूर्खता है] 

समीक्षक―अब देखिये! [यहाँ] जो बुद्धि और ज्ञान पर्यायवाची हैं, उनको दो मानते हैं। और बुद्धि की वृद्धि में शोक और दुःख मानना, विना अविद्वान् के ऐसा लेख कौन लिख सकता है? इसलिये यह 'बाइबल' ईश्वर की बनाई तो क्या किसी विद्वान् की भी बनाई नहीं है॥६२॥


यह थोड़ा-सा तौरेत और ज़बूर के विषय में लिखा। इसके आगे थोड़ा-सा 'मत्ती-रचित इंजील' आदि के विषय में लिखा जायगा। अब जिसको ईसाई लोग बहुत प्रमाणभूत मानते हैं, जिसका नाम, 'इंजील' रक्खा है, उसकी परीक्षा थोड़ी-सी लिखते हैं कि यह कैसी है―

"मत्ती-रचित इंजील" 


[यीशु ख्रीष्ट की कुमारी मरियम से उत्पत्ति]

६३. यीशु ख्रीष्ट का जन्म इस रीति से हुआ―उसकी मां मरियम की यूसुफ से मंगनी हुई थी परन्तु उनके इकट्ठे होने के पहिले वह देख पड़ी कि 'पवित्र-आत्मा' से गर्भवती है।१८। ....देखो, परमेश्वर के एक दूत ने स्वप्न में उसे दर्शन दे कहा―"हे दाऊद के सन्तान यूसुफ! तू अपनी स्त्री मरियम को यहां लाने से मत डर, क्योंकि उसको जो गर्भ रहा है सो 'पवित्र-आत्मा' से है।२०।"

मत्तीरचित इंजील, प० १। आ० १८। २०॥

[कुमारी से पुत्रोत्पत्ति सृष्टि-नियम से विपरीत है]

समीक्षक―इन बातों को कोई विद्वान् नहीं मान सकता कि जो प्रत्यक्षादि प्रमाण और सृष्टिक्रम से विरुद्ध हैं। इन बातों का मानना मूर्ख मनुष्यों, जंगलियों का काम है, सभ्य विद्वानों का नहीं। भला, जो परमेश्वर का नियम है उसको कोई तोड़ सकता है? और जो परमेश्वर भी अपने नियम को उलटा-पलटा करे तो उसकी आज्ञा को कोई न माने, और वह भी सर्वज्ञ और निर्भ्रम न रहै। 

[क्यों न सब कुमारियों के बालक ईश्वर के माने जायें ?]

ऐसे तो जिस-जिस कुमारिका के गर्भ रह जाय, तब सब कोई ऐसे कह सकते हैं कि इसमें गर्भ का रहना ईश्वर की ओर से है। और झूठ-मूठ कह दे कि परमेश्वर के दूत ने मुझको स्वप्न में कह दिया है कि यह गर्भ परमात्मा की ओर से है। 

[सूर्य से कुन्ती का गर्भवती होना भी ऐसा ही पाखण्ड है]

जैसा यह असम्भव प्रपंच रचा है, वैसा ही सूर्य से कुन्ती का गर्भवती होना भी पुराणों में असम्भव लिखा है। ऐसी-ऐसी बातों को 'आँख के अन्धे गाँठ के पूरे' लोग मानकर भ्रमजाल में गिरते हैं। यह ऐसी बात हुई होगी कि किसी पुरुष के साथ समागम होने से मरियम गर्भवती हुई होगी, उसने वा किसी दूसरे ने ऐसी असम्भव बात उड़ा दी होगी कि इसमें गर्भ ईश्वर की ओर से है॥६३॥

[यीशु का बपतिस्मा लेके जल से ऊपर आना]

६४. यीशु बपतिस्मा लेके तुरन्त जल से ऊपर आया, और देखो! उसके लिये स्वर्ग खुल गया और उसने ईश्वर के आत्मा को कपोत की नांईं उतरते और अपने ऊपर आते देखा।१६।

मत्ती इं०, प० ३, आ० १६॥ 

[ईश्वर का आत्मा आंख से कभी नहीं दिखता]

समीक्षक―भला, ईश्वर का आत्मा आंख से कभी दीख सकता है? और व्यापक ईश्वर कपोत की नाईं न कभी उतरता, न चढ़ता है। और जो चढ़ता-उतरता है, वह ईश्वर ही नहीं होता॥६४॥

[यीशु की परीक्षा; उसका ४० दिन भूखा रहना]

६५. तब आत्मा यीशु को जंगल में ले गया कि शैतान से उसकी परीक्षा की जाय।१। वह चालीस दिन और चालीस रात उपवास करके पीछे भूखा हुआ।२। तब परीक्षा करनेहारे ने कहा कि "जो तू ईश्वर का पुत्र है तो कह दे कि ये पत्थर रोटियां बन जावें।३।"

मत्ती इं०, प० ४। आ० १।२।३॥ 

[ईश्वर ने शैतान से ईसा की परीक्षा क्यों कराई ?]

समीक्षक―इससे स्पष्ट सिद्ध होता है कि ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ नहीं, क्योंकि जो सर्वज्ञ होता तो उसकी परीक्षा शैतान से क्यों कराता? स्वयं जान लेता। भला, किसी ईसाई को आजकल चालीस रात-दिन भूखा रक्खें तो कभी बच सकेगा? 

[यीशु न तो ईश्वर का बेटा था न उसमें कुछ सिद्धि थी]

और इससे यह भी सिद्ध हुआ कि न वह ईश्वर का बेटा [था] और न कुछ उसमें करामात अर्थात् सिद्धि थी। नहीं तो शैतान के सामने पत्थर को रोटियां क्यों न बना देता? और आप भूखा क्यों रहता? 

[ईश्वर भी पूर्वकृत नियम को उलटा नहीं कर सकता]

और सिद्धान्त यह है कि जो परमेश्वर ने पत्थर बनाये हैं, उनको रोटी कोई भी नहीं बना सकता। और ईश्वर भी पूर्वकृत नियम को उलटा नहीं कर सकता, क्योंकि वह सर्वज्ञ [है] और उसके सब काम विना भूल-चूक के हैं॥६५॥ 

[योहन का बन्दीगृह में डाला जाना सुनके जाना]

६६. जब यीशु ने सुना कि योहन बन्दीगृह में डाला…..।१२।

मत्ती इं०, प० ४। आ० १२॥

[सुन के जानना असर्वज्ञ जीवों का काम]

समीक्षक―जब 'सुनकर' योहन का बन्दीगृह में पड़ना जाना, तो [ईसाइयों का ईश्वर] सर्वज्ञ नहीं; क्योंकि सुनके जानना असर्वज्ञ जीवों का काम है। यह सुनके जानना, जानके भूलना यह ईश्वर का स्वभाव नहीं, किन्तु जीव का स्वभाव है॥६६॥

[मछुवों को मनुष्यों के मछुवे बनाने का प्रलोभन]

६७. उसने उनसे कहा―"तुम मेरे पीछे आओ, मैं तुमको मनुष्यों के मछुवे बनाऊंगा।१९।" वे तुरन्त जालों को छोड़के उसके पीछे हो लिये।२॥

मत्ती० इं०, प० ४। आ० १९। २०॥

[इसी से ईसाई गरीबों को अपने जाल में फसाते हैं]

समीक्षक―विदित होता है कि इसी पाप अर्थात् जो 'तौरेत' में 'दश-आज्ञाओं' में लिखा है कि 'सन्तान लोग अपने माता-पिता की सेवा और मान्य करें जिससे उनकी उमर बढ़े' और ईसा ने न अपने माता-पिता की सेवा की और दूसरों को भी माता-पिता की सेवा से छुड़ाया, इसी अपराध से चिरंजीवी न रहा। और यह भी विदित हुआ कि ईसा ने मनुष्यों को फसाने के लिये एक मत चलाया है कि जाल में मच्छी के समान मनुष्यों को स्वमत के जाल में फसाकर अपना प्रयोजन साधें।


जब ईसा ही ऐसा था तो आजकल के पादरी लोग अपने जाल में मनुष्यों को फसावें तो क्या आश्चर्य है? क्योंकि जैसे बड़ी-बड़ी और बहुत मच्छियों को जाल में फसानेवाले की प्रतिष्ठा और जीविका अच्छी होती है, इसी से जो बहुतों को अपने मत में फसा ले, उसकी अधिक प्रतिष्ठा और जीविका होती है। 

[आर्य लोग भोले लोगों को ईसाई होनेसे बचावें]

इसी से ये लोग, जिन्होंने वेद और शास्त्रों को न पढ़ा, न सुना, उन बेचारे भोले मनुष्यों को अपने जाल में फसाके, उनके मा-बाप, कुटुम्ब आदि से पृथक् कर देते हैं, इससे सब विद्वान् आर्यों को उचित है कि आप इनके भ्रमजाल से बचें और अन्य भोले-भाले अपने भाइयों को भी बचावें॥६७॥

[ईसा का सब तरह के रोगियों को नीरोग करना]

६८. तब यीशु सारे गलील देश में उनकी सभाओं में उपदेश करता हुआ और राज्य का सुसमाचार प्रचार करता हुआ और लोगों में हर एक रोग और हर एक व्याधि को चंगा करता हुआ फिरा किया।२३।....सब रोगियों को जो नाना प्रकार के रोगों और पीडाओं से दु:खी थे और भूतग्रस्तों और मृगी-वालों और अर्धांगियों को उसके पास लाये और उसने उन्हें चंगा किया।२४।

मत्ती० इं०, प० ४। आ० २३। २४॥ 

[रोगियों को ठीक करने का प्रचार पाखण्ड है]

समीक्षक―जैसे आजकल पोपलीला, भूत निकालने के मन्त्र और भस्म की चुटकी देने से भूतों को निकालना, पुरश्चरण, आशीर्वाद, ताबीज और रोगों को छुड़ाना सच्चा हो, तो वह 'इंजील' की बात भी सच्ची होवे। इसलिये भोले मनुष्यों को भ्रम में फसाने के लिये ये बातें हैं। जो ईसाई लोग ईसा की बातों को मानते हैं, तो यहाँ के देवी-भोपों की बातें क्यों नहीं मानते? क्योंकि ये बातें उन्हीं के सदृश हैं॥६८॥

[जो मन में दीन हैं उन्हीं को स्वर्ग मिलेगा]

६९. धन्य हैं वे जो मन में दीन हैं, क्योंकि स्वर्ग का राज्य उन्हीं का है।३।

मत्ती० इं०, प० ५ । आ० ३॥ 

[सब दीन स्वर्ग में जायेंगे तो वहां का राज्याधिकारी कौन होगा ?]

समीक्षक―जो स्वर्ग एक है तो राजा भी एक होना चाहिये। इसलिये जितने दीन हैं, वे सब स्वर्ग को जावेंगे, तो स्वर्ग में राज्य का अधिकार किसको होगा? अर्थात् परस्पर लड़ाई-भिड़ाई करेंगे और राज्यव्यवस्था खण्ड-बण्ड हो जायगी। और 'दीन' के कहने से जो कंगला अर्थ लोगे, तब तो ठीक नहीं; जो निरभिमानी [अर्थ] लोगे, तो भी ठीक नहीं, क्योंकि दीन और निरभिमानी का एकार्थ नहीं। किन्तु जो मन में दीन होता है, उसको सन्तोष कभी नहीं होता, इसलिये यह बात ठीक नहीं॥६९॥

[आज्ञा का लोपकर्त्ता स्वर्ग में सबसे छोटा कहावेगा]

७०. ….क्योंकि मैं तुमसे सच कहता हूँ कि जब लों आकाश और पृथिवी टल न जायें, तब लों व्यवस्था से एक मात्रा अथवा एक बिन्दु विना पूरा हुए नहीं टलेगा।१८। इसलिये जो कोई इन अति छोटी आज्ञाओं में से एक को लोप करे और लोगों को वैसे ही सिखावे, वह स्वर्ग के राज्य में सबसे छोटा कहावेगा।१९।

मत्ती इं०, प० ५, आ० १८।१९॥

[स्वर्ग में सबसे छोटा गिने जाने की बात भयमात्र है]

समीक्षक―जब आकाश और पृथिवी टल जायें तब व्यवस्था भी टल जायगी। ऐसी अनित्य व्यवस्था मनुष्यों की होती है, सर्वज्ञ ईश्वर की नहीं। और यह एक प्रलोभन और भयमात्र दिया है कि जो इन आज्ञाओं को न मानेगा वह स्वर्ग में सबसे छोटा गिना जायगा॥

[तौरेत, जबूर की अच्छी बातें वेदोक्त होने से अखण्डनीय और मन्तव्य]

जब यह ईसा की साक्षी है तो 'तौरेत' और 'जबूर' के लेख को भी ईसाई लोगों को अवश्य मानना होगा। यद्यपि उन पुस्तकों में जो बातें अच्छी हैं, वे वेदानुकूल होने से खण्डनीय नहीं हो सकतीं, किन्तु मन्तव्य हैं। परन्तु उनमें जितने दोष हैं, उनका उत्तर देना ईसाइयों पर निर्भर रखता है। उस पुस्तक में बहुतांश तो इतिहास ही भरा है और बहुत-सी बातें असम्भव भी हैं। ऐसे पुस्तक के सत्य होने में ईसा का साक्ष्य देना ईसा को अविद्वान् [सिद्ध] कर देता है॥७०॥

[धर्म अध्यापकों और फरीसियों से अधिक होने पर स्वर्ग के अधिकारी]

७१. मैं तुमसे कहता हूं, यदि तुम्हारा धर्म अध्यापकों और फरीसियों के धर्म से अधिक न होवे, तो तुम स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करने न पाओगे।२०।

[मत्ती इं०, प० ५, आ० २०॥]


समीक्षक―जब धर्माचरण से ही स्वर्ग प्राप्त है, तो चाहे वहां, चाहे उस समय में, चाहे जो कोई मनुष्य धर्मात्मा होगा, वह स्वर्ग पावेगा। ईसा के मानने की आवश्यकता नहीं ॥७१॥

[केवल ईसा का पिता परमेश्वर को कहना ईसाइयों की भूल है]

७२. सो जैसा तुम्हारा स्वर्गवासी पिता सिद्ध है तैसे तुम भी सिद्ध होओ।४८।

मत्ती इं०, प० ५, आ० ४८॥ 

समीक्षक―जब सबका पिता परमेश्वर है, तो ईसाई लोग केवल ईसा का पिता परमेश्वर को कहते हैं, यह इनकी बड़ी भूल की बात है॥७२॥

[अपने लिये पृथिवी पर धन-संचय न करो]

७३. हमारी दिनभर की रोटी आज हमें दे।१०। अपने लिये पृथिवी पर धन का संचय मत करो....।११।

 मत्ती इं०, ६ । आ० ११। १९॥

[फिर ईसाई लोग क्यों धन संचय करते हैं ?]

समीक्षक―इससे विदित होता है कि जिस समय ईसा का जन्म हुआ था, उस समय लोग जंगली और दरिद्र थे तथा ईसा भी वैसा ही दरिद्र था। इसी से तो दिनभर की रोटी की प्राप्ति के लिये ईश्वर से प्रार्थना करता और सिखलाता है॥ जब ऐसा है तो ईसाई लोग धनसंचय क्यों करते हैं? उनको चाहिये कि ईसा के वचन से विरुद्ध न चलकर सब दान-पुण्य करके दीन हो जायें॥७३॥

[यीशु को प्रभु कहने वालों को स्वर्ग न मिलेगा]

७४. हर एक जो मुझसे "हे प्रभु! हे प्रभु!" कहता है, स्वर्ग के राज्य में प्रवेश नहीं करेगा....।२१।

मत्ती इं०, ७। आ० २१॥

[तब तो सारे पादरी नरक में जायेंगे ?]

समीक्षक―अब विचारिये, बड़े-बड़े पादरी-बिशप साहब और कृश्चीन लोग, 'जो यह ईसा का वचन सत्य है', ऐसा समझें, तो ईसा को प्रभु अर्थात् ईश्वर कभी न कहें, यदि इस बात को न मानेंगे, तो पाप से कभी नहीं बच सकेंगे॥७४॥

[ईसा स्वर्ग में कुकर्मियों को सहयोग न देगा]

७५. उस दिन में बहुतेरे मुझसे कहेंगे....।२२। तब मैं उनसे खोलके कहूँगा―"मैंने तुमको कभी नहीं जाना है। हे कुकर्म करनेहारो मुझसे दूर होओ।२३।"

मत्ती इं०, प०७। आ० २२। २३॥ 

[यह केवल भोले लोगों को प्रलोभन देने की बात है]

समीक्षक―देखिये, ईसा जंगली मनुष्यों को विश्वास कराने के लिए स्वर्ग में न्यायाधीश बनना चाहता था। यह केवल भोले मनुष्यों को प्रलोभन देने की बात है॥७५॥

[यीशु द्वारा हाथ से छूते ही कोढ़ी का कोढ़ दूर]

७६. और देखो, एक कोढ़ी ने आ उसको प्रणाम कर कहा―"हे प्रभु! जो आप चाहें तो मुझे शुद्ध कर सकते हैं।२।" यीशु ने हाथ बढ़ा उसे छूके कहा―'मैं तो चाहता हूँ शुद्ध होजा', और उसका कोढ़ तुरन्त शुद्ध हो गया।३।

मत्ती इं०, प० ८ । आ० २। ३॥

[फिर पुराणों की ऐसी ही बातें असत्य क्यों ?]

समीक्षक―ये सब बातें भोले मनुष्यों के फसाने की हैं, क्योंकि जब ईसाई लोग इन विद्या और सृष्टिक्रमविरुद्ध बातों को सत्य मानते हैं तो शुक्राचार्य, धन्वन्तरि, कश्यप आदि की बातें, जो कि पुराणों और 'महाभारत' में [वर्णित है कि] अनेक दैत्यों की मरी हुई सेना को जिला दिया; बृहस्पति के पुत्र कच को टुकड़े-टुकड़े कर जानवरों और मच्छियों को खिला दिया, फिर भी शुक्राचार्य ने जीवित कर दिया; पश्चात् कच को मारकर शुक्राचार्य को खिला दिया, फिर उसको पेट में जीवित कर बाहर निकाला; आप मर गया उसको कच ने जीवित किया; कश्यप ऋषि ने मनुष्यसहित वृक्ष को तक्षक से भस्म हुए पीछे, पुनः वृक्ष और मनुष्य को जिला दिया; धन्वन्तरि ने लाखों मुर्दे जिलाये, लाखों कोढ़ी आदि रोगियों को चंगा किया, लाखों अन्धों और बहिरों को आँख और कान दिये, आदि कथाओं को मिथ्या क्यों कहते हैं? जो उनकी बातें मिथ्या हैं, तो ईसा की बातें मिथ्या क्यों नहीं? जो दूसरों की [सच्ची] बातों को मिथ्या और अपनी झूठी को सच्ची कहते हैं, तो वे हठी क्यों नहीं? इसलिये ईसाइयों की बातें केवल हठ और लड़कों के समान हैं॥७६॥

[तथा कथित भूतों को सूअरों में बिठाया]

७७. ……….. तब दो भूतग्रस्त मनुष्य कब्र-स्थान से निकलकर उससे आ मिले, जो यहाँ लों अतिप्रचंड थे कि उस मार्ग से कोई नहीं जा सकता था।२८। और देखो, उन्होंने चिल्लाके कहा―"हे यीशु ईश्वर के पुत्र! आपको हमसे क्या काम, क्या आप समय के आगे हमें पीड़ा देने को यहाँ आये हैं।२९।" बहुत-से सुअरों का झुण्ड उनसे कुछ दूर चरता था।३०। सो भूतों ने उससे विनति कर कहा―"जो आप हमको निकालते हैं तो सूअरों के झुंड में पैठने दीजिये"।३१। उसने उनसे कहा―"जाओ", और वे निकल के सुअरों के झुंड में पैठे और देखो सुअरों का सारा झुंड कड़ाड़े पर से समुद्र में दौड़के गिर गया और पानी में डूब मरा।३२।

मत्ती इं०, प० ८। आ० २८। २९। ३०।  ३१। ३२॥

[मुर्दों का कबर से निकल कर आना असम्भव है]

समीक्षक―भला, यहाँ तनिक विचार करें तो ये बातें सब झूठी हैं, क्योंकि मरा हुआ मनुष्य कब्र-स्थान से कभी नहीं निकल सकता। वे किसी पर न जाते, न संवाद करते हैं, ये सब बातें अज्ञानी लोगों की हैं। जो कि महाजंगली हैं, वे ऐसी बातों पर विश्वास लाते हैं। 

[तथाकथित भूतों के साथ बेचारे सूअर क्यों मरवा दिये ?]

और उन सुअरों की हत्या कराई। सूअरवालों की हानि करने का पाप ईसा को हुआ होगा। और ईसाई लोग ईसा को 'पाप को क्षमा और पवित्र करनेवाला' मानते हैं, तो उन भूतों को पवित्र क्यों न कर सका? और सूअरवालों की हानि क्यों न भर दी? क्या आजकल के सुशिक्षित ईसाई अंगरेज लोग इन गपोड़ों को भी मानते होंगे? यदि मानते हैं, तो भ्रमजाल में पड़े हैं॥७७॥

[एक अर्द्धांगी का रोग दूर करना]

७८. देखो! लोग एक अर्धांगी को, जो खटोले पर पड़ा था, उसके पास लाये और यीशु ने उनका विश्वास देखके कहा―"हे पुत्र! ढाढ़स कर, तेरे पाप क्षमा किये गये हैं।२।"

मत्ती इं०, प० ९ । आ० २॥ 

[पाप कभी क्षमा नहीं होते; अर्धांगी का ठीक होना ढोंग]

समीक्षक―यह भी वैसी ही असम्भव बात है, जैसी पूर्व लिख आये हैं। और जो पाप को क्षमा करने की बात है, वह केवल भोले लोगों को प्रलोभन देकर फसाना है। जैसे दूसरे के पीये मद्य, भांग और अफीम खाये का नशा दूसरे को नहीं प्राप्त हो सकता, वैसे ही किसी का किया हुआ पाप किसी के पास नहीं जाता, किन्तु जो करता है वही भोगता है; यही ईश्वर का न्याय है। यदि दूसरे का किया पाप-पुण्य दूसरे को प्राप्त होवे अथवा न्यायाधीश स्वयं ले लेवे वा कर्त्ताओं को ही यथायोग्य फल ईश्वर न देवे, वह अन्यायकारी हो जावे॥७८॥

[पापियों को पश्चात्ताप के लिये बुलाना]

७९. …..क्योंकि मैं धर्मियों को नहीं, परन्तु पापियों को पश्चात्ताप के लिये बुलाने को आया हूँ।१३।

मत्ती इं०, प० ९ । आ० १३॥ 

[धर्मादि आचरण ही मुक्ति के साधन हैं]

समीक्षक―अब विचारिये कि धर्मात्माओं को ईसाई होना कुछ आवश्यक नहीं, क्योंकि वे तो धर्म से ही मुक्ति को जायेंगे। और इससे यह सिद्ध हुआ कि धर्मादि आचरण ही मुक्ति के साधन हैं, ईसा नहीं; क्योंकि ईसाई भी जब तक धर्म न करेंगे, तब तक उनकी भी सद्गति नहीं होगी॥७९॥

[बारह शिष्यों को भूतों पर अधिकार देना]

८०. यीशु ने अपने बारह शिष्यों को अपने पास बुलाके उन्हें अशुद्ध भूतों पर अधिकार दिया कि उन्हें निकालें और हर-एक रोग और हर-एक व्याधि को चंगा करें।१।

मत्ती इं०, प० १० । आ० १॥ 

[भूतों का आना, और विना इलाज रोग दूर होना असम्भव]

समीक्षक―ये वे ही शिष्य हैं, जिनमें से एक ३०) रुपयों के लोभ पर ईसा को पकड़ावावेगा और अन्य बदलकर अलग-अलग भागेंगे। भला, जब ये बातें विद्या से ही विरुद्ध हैं कि भूतों का आना वा निकालना, विना औषधि वा पथ्य के व्याधियों का छूटना, सृष्टिक्रम के अनुसार असम्भव है, इसलिये ऐसी-ऐसी बातों का मानना अज्ञानियों का काम है॥८०॥

[पिता का आत्मा में बोलना]

८१. बोलनेहारे तो तुम नहीं हो, परन्तु तुम्हारे पिता का आत्मा तुममें बोलता है।२०।

मत्ती इं०, प० १० । आ० २० ॥ 

[जीव में यदि ईश्वर बोलता है, तो वही फल भोगेगा]

समीक्षक―जब 'परमेश्वर का आत्मा' ही सबमें बोलता है तो वही मिथ्याभाषणादि पापों से लिप्त होकर दुःखरूपी नरक में पड़ेगा। जो ऐसा है, तो मूसा ने 'दश आज्ञा' -विषय में उपदेश किया कि 'मिथ्या मत बोलो', [फिर] यह उपदेश क्यों किया? इसलिये जीवों के व्यवहार में जीव ही बोलते हैं, ईश्वर नहीं ॥८१॥

[पृथिवी पर मिलाप करवाने नहीं किन्तु खड्ग चलवाने आया हूं]

८२. मत समझो कि मैं पृथिवी पर मिलाप करवाने को आया हूँ, मैं मिलाप कराने नहीं, परन्तु खड्ग चलवाने को आया हूँ।३४। मैं मनुष्य को उसके पिता से, बेटी को उसकी माँ से, और पतोहू को उसकी सास से अलग करने आया हूँ।३५। मनुष्य के घर के ही लोग उसके वैरी होंगे।३६।

मत्ती इं०, प० १० । आ० ३४ । ३५। ३६॥

[लोगों में फूट डालना बुरी बात है]

समीक्षक―ऐसी फूट कराके, लड़ाई-झगड़ा मचाके मनुष्यों को दुःख देनेहारे और खड्ग चलानेहारे पिता-पुत्र, मा-बेटी, पतोहू-सास आदि में फूट करा परस्पर वैर बढ़ानेहारे मनुष्य के लिये यह बहुत बुरा काम है। विदित होता है कि इसी उपदेश को ईसाई लोगों ने अधिक प्रचार में लाया है। जहाँ ये लोग जाते हैं, वहीं भरपूर फूट हो जाती है। मेल का नाम-निशान भी नहीं रहता। इसी से अपने पड़ोसियों का, आपस में उनको लड़ाकर माल मारना, किसी के लड़के को बहकाकर माता-पिता से अलग कर [जीवन] नष्ट कर देना सिखलाया है। यह केवल दोष है। इसको 'तर्क कर देना' बहुत अच्छी बात है ॥८२॥

[मेरी माता और भाई कौन है ?]

८३. यीशु लोगों से बात करता ही था कि देखो, उसकी माता और उसके भाई बाहर खड़े हुए उससे बोलना चाहते थे।४६। तब किसी ने उससे कहा―"देखिये! आपकी माता और आपके भाई बाहर खड़े हुए आपसे बोलना चाहते हैं।४७।" …. उसने कहनेहारे को उत्तर दिया कि "मेरी माता कौन है?॥ और मेरे भाई कौन हैं?"….।४८।

 मत्ती इं०, प० १२ । आ० ४६ । ४७। ४८॥

[माता पिता का अपमान करना केवल हठ की बात है]

समीक्षक―देखिये, प्रथम तो 'तौरेत' और 'ज़बूर' की ईसा साक्षी देता है कि उसका एक बिन्दु भी झूठा नहीं। और उसमें अपने माता, पिता का मान करना लिखा है। और यहाँ माता आदि का अपमान करता है। यह केवल हठ की बात है। और इसी से उसने आयुविशेष न पाया। क्योंकि जो ईसा अपने माता-पिता की सेवा करता तो उसका आयु भी बढ़ता। और यह पूर्वापरविरुद्ध बात होने से ईसा कुछ विद्वान् भी नहीं था। हाँ, उन जंगली मनुष्यों में कुछ अच्छा था॥८३॥

[सात रोटियों और थोड़ी सी छोटी मछलियों से ४ सहस्र की तृप्ति]

८४. तब यीशु ने उनसे कहा―"तुम्हारे पास कितनी रोटियाँ हैं?" उन्होंने कहा―"सात और थोड़ी-सी छोटी मछलियाँ।३४।" तब उसने लोगों को भूमि पर बैठने की आज्ञा दी।३५। तब उसने उन सात रोटियों को और मछलियों को लेके धन्य मानके तोड़ा और अपने शिष्यों को दिया और शिष्यों ने लोगों को दिया।३६। सो सब खाके तृप्त हुए और जो टुकड़े बच रहे, उनके सात टोकरे भरे उठाये।३७। जिन्होंने खाया सो स्त्रियों और बालकों को छोड़ चार सहस्र पुरुष थे।३८।

मत्ती इं०, प० १५ । आ० ३४। ३५। ३६। ३७। ३८॥

[ईसा ऐसा सिद्ध था, तो भूख में गूलर क्यों खाता था ?]

समीक्षक―अब देखिये, क्या यह आजकल के झूठे सिद्धों और इन्द्रजाली आदि के समान छल की बात नहीं है? उन रोटियों में अन्य रोटियाँ कहां से आ गईं? यदि ईसा में ऐसी सिद्धियाँ होतीं तो आप भूखा हुआ गूलर के फल खाने को क्यों भटका करता था? अपने लिये मिट्टी, पानी और पत्थर आदि से मोहनभोग और रोटियाँ क्यों न बना लीं? ये सब बातें लड़कों के खेलपन की हैं। जैसे, कितने ही साधु, वैरागी ऐसी छल की बातें करके भोले मनुष्यों को ठगते हैं, वैसे ही ये भी हैं॥८४॥

[हर एक कर्मानुसार फल पावेगा]

८५. ....और तब वह हर एक मनुष्य को उसके कार्य के अनुसार फल देगा।२७।

मत्ती इं०, प० १६ । आ० २७॥ 

[कर्मानुसार फल मिलेगा तो पाप क्षमा की बात व्यर्थ]

समीक्षक―जब कर्मानुसार फल दिया जायगा तो ईसाइयों का पाप-क्षमा होने का उपदेश करना व्यर्थ है। और वह सच्चा हो, तो यह झूठा होवे। यदि कोई कहे कि क्षमा करने के योग्य क्षमा किये जाते और क्षमा न करने योग्य क्षमा नहीं किये जाते हैं, यह भी ठीक नहीं; क्योंकि सब कर्मों के फल यथायोग्य देने से ही न्याय और दया पूरी होती है॥८५॥

[तनिक से विश्वास से असम्भव भी संभव]

८६. ....हे अविश्वासी और हठीले लोगो!....।१७। मैं तुमसे सत्य कहता हूँ, यदि तुमको राई के एक दाने के तुल्य विश्वास हो, तो तुम इस पहाड़ से जो कहोगे कि यहाँ से वहां चला जा, वह चला जायगा और कोई काम तुमसे असाध्य नहीं होगा।२०।

मत्ती इं०, प० १७ आ० १७। २०॥

[विश्वास कराकर शिष्यों को क्यों न पवित्र किया]

समीक्षक―अब, जो ईसाई लोग उपदेश करते-फिरते हैं कि 'आओ, हमारे मत में पाप-क्षमा कराओ, मुक्ति पाओ' आदि, वह सब मिथ्या है; क्योंकि जो ईसा में पाप छुड़ाने, विश्वास जमाने और पवित्र करने का सामर्थ्य होता, तो अपने शिष्यों के आत्माओं को निष्पाप, विश्वासी, पवित्र क्यों न कर देता जो ईसा के साथ-साथ घूमते थे? जब उन्हीं को शुद्ध, विश्वासी, और उनका कल्याण न कर सका, तो वह मरे पर न जाने कहाँ है? इस समय किसी को पवित्र नहीं कर सकेगा।

[विश्वास रहित चेलों की बनाई इंजील प्रमाण के अयोग्य]

जब ईसा के चेले राई-भर विश्वास से [भी] रहित थे, और उन्हीं ने यह 'इंजील' पुस्तक बनाई है, तब इसका प्रमाण नहीं हो सकता, क्योंकि जो अविश्वासी, अपवित्रात्मा, अधर्मी मनुष्यों का लेख होता है, उस पर विश्वास करना कल्याण की इच्छा करनेवाले मनुष्यों का काम नहीं। और इसी से यह भी सिद्ध हो सकता है कि जो ईसा का यह वचन सच्चा है, तो किसी ईसाई में एक राई के दाने के समान 'विश्वास' अर्थात् ईमान नहीं है।

[एक छोटा भी विश्वास ईसाइयों में नहीं]

जो कोई कहे कि हम में पूरा वा थोड़ा विश्वास है, तो उससे कहना कि आप इस पहाड को मार्ग में से हटा देवें। यदि उनके हटाने से हट जाय, तो भी पूरा विश्वास नहीं, किन्तु एक राई के दाने के बराबर है और जो न हटा सके तो समझो एक छींटा भी विश्वास अर्थात् धर्म का 'ईमान' ईसाइयों में नहीं है। 

[असम्भव बात कहने से ईसा की अज्ञानता प्रकट होती है]

यदि कोई कहे कि यहाँ अभिमान आदि दोषों का नाम पहाड़ है, तो भी ठीक नहीं; क्योंकि जो ऐसा हो तो मुर्दों, अन्धों, कोढ़ियों, भूतग्रस्तों को चंगा करना भी आलसी, अज्ञानी, विषयी और भ्रान्तों को बोध कराके सचेत, कुशल किया होगा। जो ऐसा मानें, तो भी ठीक नहीं; क्योंकि जो ऐसा होता, तो स्वशिष्यों को ऐसा क्यों न कर सका? इसलिये ऐसी असम्भव बातें कहना ईसा की अज्ञानता को प्रकट करता है।

[इस शिक्षा के युग में ईसा की क्या गणना ?]

भला, जो कुछ भी विद्या ईसा में होती, तो ऐसी अटाटूट जंगलीपन की बातें क्यों कहता? तथापि―'यत्र देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते'=जिस देश में कोई भी वृक्ष न हो, तो उस देश में एरण्ड का ही वृक्ष सबसे बड़ा और अच्छा गिना जाता है, वैसे महाजंगली देश में ईसा का भी होना ठीक था। आजकल ईसा की क्या गणना हो सकती है?॥८६॥

[बालक जैसे बने बिना स्वर्ग नहीं]

८७. ....मैं तुम्हें सच कहता हूँ, जो तुम मन न फिरावो और बालकों के समान न हो जावो, तो स्वर्ग के राज्य में प्रवेश न करने पाओगे।३।

मत्ती इं०, प० १८। आ० ३॥ 

[विद्या-विरुद्ध बातें बाल-बुद्धि ही मान सकते हैं]

समीक्षक―जब अपनी ही इच्छा से मन का फिराना स्वर्ग का कारण और न फिराना नरक का कारण है, तो किसी का पाप-पुण्य कभी नहीं ले सकता, ऐसा सिद्ध होता है। और बालक के समान होने के लेख से यह विदित होता है कि ईसा की बहुत-सी बातें विद्या और सृष्टिक्रम से विरुद्ध थीं और यह भी उसके मन में था कि लोग मेरी बातों को बालक के समान मान लेंवें, पूछें-गाछें कुछ भी नहीं, आँख मीचके मान लेवें। बहुत-से ईसाइयों की बालबुद्धिवत् चेष्टा है, नहीं तो ऐसी युक्ति और विद्या से विरुद्ध बातों को क्यों मानते? और यह भी सिद्ध हुआ कि जो ईसा आप विद्याहीन, बालबुद्धि न होता, तो अन्य को बालवत् बनने का उपदेश क्यों करता? क्योंकि जो जैसा होता है, वह दूसरे को भी अपने सदृश बनाना चाहता ही है ॥८७॥

[धनवानों का स्वर्ग के राज्य में प्रवेश कठिन]

८८. ....मैं तुमसे सच कहता हूं कि धनवान् को स्वर्ग के राज्य में प्रवेश करना कठिन होगा।२३। फिर भी मैं तुमसे कहता हूं कि ईश्वर के राज्य में धनवान् के प्रवेश करने से 'ऊंट का सूई के नाके में से जाना' सहज है।२४।

मत्ती इं०,  प० १९ । आ० २३ । २४॥

[क्या सभी धनवान् दुष्ट होते हैं ?]

समीक्षक―इससे यह सिद्ध होता है कि ईसा दरिद्र था। धनवान् लोग उसकी प्रतिष्ठा नहीं करते होंगे, इसलिये यह लिखा होगा। परन्तु यह बात सच नहीं, क्योंकि धनाढ्यों और दरिद्रों में अच्छे-बुरे होते हैं। जो कोई अच्छा काम करेगा, सुख पावेगा। 

[क्या ईश्वर का राज्य सर्वत्र नहीं है ?]

और इससे यह भी सिद्ध होता है कि ईसा ईश्वर का राज्य किसी एक देश में मानता था, सर्वत्र नहीं। जब ऐसा है, तो वह ईश्वर ही नहीं, जो ईश्वर है उसका राज्य सर्वत्र है; पुनः उसमें प्रवेश करेगा वा न करेगा, यह कहना केवल अविद्या की बात है। 

[ईसा के मतानुसार सब धनिक ईसाई नरकगामी होंगे]

और इससे यह भी आया कि जितने ईसाई धनाढ्य हैं, वे सब नरक में ही जायेंगे? और दरिद्र सब स्वर्ग में जायेंगे। भला, तनिक-सा विचार तो ईसा मसीह करते कि जितनी सामग्री धनाढ्यों के पास होती है, उतनी दरिद्रों के पास नहीं। यदि धनाढ्य लोग विवेक से धर्ममार्ग में व्यय करें, तो दरिद्र नीच गति में पड़े रह सकते हैं और धनाढ्य उत्तम गति को प्राप्त हो सकते हैं॥८८॥

[ईसाइयों को स्वर्ग में सिंहासन, त्याग का १०० गुणाफल]

८९. यीशु ने उनसे कहा―"मैं तुमसे सच कहता हूं कि नई सृष्टि में जब मनुष्य का पुत्र अपने ऐश्वर्य के सिंहासन पर बैठेगा, तब तुम भी जो मेरे पीछे हो लिये हो, बारह सिंहासनों पर बैठके इस्राएल के बारह कुलों का न्याय करोगे।२८। जिस किसी ने मेरे नाम के लिये घरों वा भाइयों वा बहिनों वा पिता वा माता वा स्त्री वा लड़कों वा भूमि को त्यागा है, सो सौ-गुणा पावेगा और अनन्त जीवन का अधिकारी होगा।२९।

मत्ती इं०, प० १९ । आ० २८। २९॥ 

[स्वर्ग में ईसाइयों को ही सिंहासन की बात पक्षपात पूर्ण]

समीक्षक―अब देखिये ईसा के भीतर की लीला! [यह इसलिये है] कि मेरे जाल से मरे पीछे भी लोग न निकल जायें! और जिसने ३०) रुपयों के लोभ से अपने गुरु को पकड़वाके मरवाया, वैसे पापी भी उसके पास सिंहासन पर बैठेंगे। 

[इस्रायेल के कुल का न्याय क्यों न किया जायेगा ?]

और इस्राएल के कुल का पक्षपात के कारण न्याय ही न किया जायगा, किन्तु उनके सब गुनाह माफ़ और अन्य कुलों का न्याय करेंगे। अनुमान होता है कि इसी से ईसाई लोग ईसाइयों का बहुत पक्षपात कर किसी गोरे ने काले को मार दिया हो तो भी बहुधा पक्षपात से [उसको] निरपराधी कर छोड़ देते हैं, ऐसा ही ईसा के स्वर्ग का भी न्याय होगा।

[एक साथ ही सबका न्याय होना अन्याय है]

और इससे बड़ा दोष आता है, क्योंकि एक सृष्टि के आदि में मरा और एक 'क़यामत की रात' के निकट मरा; एक तो आदि से अन्त तक आशा में ही पड़ा रहा कि कब न्याय होगा और दूसरे का उसी समय न्याय हो गया, यह कितना बड़ा अन्याय है!

[सदा के लिये स्वर्ग नरक की प्राप्ति भी दोष पूर्ण]

और जो नरक में जायगा, सो अनन्तकाल तक नरक भोगेगा और जो स्वर्ग में जायगा, वह सदा स्वर्ग भोगेगा, यह भी बड़ा अन्याय है; क्योंकि अन्तवाले साधनों और कर्मों का फल भी अन्तवाला होना चाहिये। 

[सब के कर्म समान नहीं तो फल समान कैसे]

और तुल्य पाप वा पुण्य दो जीवों का भी नहीं हो सकता, इसलिये तारतम्य से अधिक-न्यून सुख-दुःखवाले अनेक स्वर्ग और नरक हों, तभी सुख-दुःख भोग सकते हैं। सो ईसाइयों के पुस्तक में कहीं व्यवस्था नहीं, इसलिये यह पुस्तक ईश्वरकृत और ईसा 'ईश्वर का बेटा' कभी नहीं हो सकता। 

[स्वर्ग में प्रत्येक वस्तु का सौगुण मिलना हास्य जनक]

यह बड़े अनर्थ की बात है कि कदापि किसी के मा-बाप सौ-सौ नहीं हो सकते किंतु एक की एक मा और एक ही बाप होता है। अनुमान है कि मुसलमानों ने 'एक को ७२ स्त्रियाँ बहिश्त में मिलती हैं' लिखा है, [सो यहीं से लिया होगा]॥८९॥

[गूलर के वृक्ष को शाप]

९०. भोर को जब वह नगर को फिर जाता था तब उसको भूख लगी।१८। और मार्ग में एक गूलर का वृक्ष देखके वह उस पास आया, परन्तु उसमें और कुछ न पाया, केवल पत्ते। और उसको कहा तुझमें फिर कभी फल न लगें, इस पर गूलर का वृक्ष तुरन्त सूख गया।१९।

मत्ती इं०, प० २१ । आ० १८। १९॥

[वृक्षों तक को स्राप देना क्रोध की पराकाष्ठा]

समीक्षक―सब ईसाई पादरी लोग कहते हैं कि वह ईसा बड़ा शान्त, क्षमान्वित, क्रोधादि दोषरहित था, परन्तु इस बात को देख [ज्ञात होता है कि ईसा] क्रोधी और ऋतु के ज्ञान से रहित था और वह जंगली मनुष्यपन के स्वभावयुक्त वर्तता था। भला, जो वृक्ष जड़ पदार्थ है, उसका क्या अपराध था कि उसको शाप दिया और वह सूख गया! इसके शाप से तो न सूखा होगा, किन्तु कोई औषधी डालने से सूख गया हो, तो आश्चर्य नहीं॥९०॥

[तारों का गिरना, और आकाश की सेना का डिगना]

९१. उन दिनों के क्लेश के पीछे तुरन्त सूर्य अन्धियारा हो जायगा और चांद अपनी ज्योति न देगा, तारे आकाश से गिर पड़ेंगे और आकाश की सेना डिग जायगी।२९।

मत्ती इं०, प० २४। आ० २९॥ 

[तारों का गिरना और आकाश की सेना बताना अज्ञानता]

समीक्षक―वाह जी ईसा! तारों को किस विद्या से गिर पड़ना आपने जाना? और आकाश की सेना कौन-सी है, जो डिग जायगी? जो कभी ईसा थोड़ी भी विद्या पढ़ता, तो अवश्य जान लेता कि ये सब तारे भूगोल हैं, [और वे] क्योंकर गिरेंगे? इससे विदित होता है कि वह ईसा बढ़ई के कुल में उत्पन्न हुआ था, सदा लकड़े चीरना, छीलना, काटना और जोड़ना करता रहा होगा। जब तरंग उठी कि मैं भी इस जंगली देश में पैगम्बर हो जाऊँ तो वैसी ही बातें करने लगा। कितनी बातें उसके मुख से अच्छी भी निकलीं और बहुत-सी बुरी [भी]। वहां के लोग जंगली थे, [अतः सबको] मान बैठे। 


जैसा आजकल यूरोप उन्नतियुक्त है, वैसा पूर्व होता तो ईसा की सिद्धाई कुछ भी न चलती। अब कुछ विद्या हुए पश्चात् भी व्यवहार के पेच और हठ से इस पोकल मत को न छोड़कर सर्वथा सत्य वेदमार्ग की ओर नहीं झुकते, यही इनमें कमी है॥९१॥

[मेरी बात कभी न टलेगी]

९२. आकाश और पृथिवी टल जायेंगे, परन्तु मेरी बातें कभी न टलेंगी।३५।

मत्ती इं०, प० २४। आ० ३५॥ 

[क्या आकाश भी कभी हिल सकता है]

समीक्षक―यह भी बात अविद्या और मूर्खता की है। भला, आकाश हिलकर कहाँ जायगा? जब आकाश अतिसूक्ष्म होने से नेत्र से दीखता ही नहीं तो इसका हिलना कौन देख सकता है? और अपने मुख से अपनी बड़ाई करना अच्छे मनुष्यों का काम नहीं॥९२॥

[वाम पक्षी नरक की अनन्त आग में]

९३. तब वह उनसे जो बाईं ओर हैं, कहेगा―"हे शापित लोगो! मेरे पास से उस अनन्त आग में जाओ, जो शैतान और उसके दूतों के लिये तैयार की गई है।४१।"

मत्ती इं०, प० २५ । आ० ४१॥ 

[अपने शिष्यों को स्वर्ग और दूसरों को नरक की बात पक्षपात पूर्ण]

समीक्षक―भला, यह कितनी बड़ी पक्षपात की बात है, जो अपने शिष्य हैं उनको स्वर्ग [देना] और जो दूसरे हैं उनको 'अनन्त आग' में गिराना! परन्तु जब 'आकाश ही न रहेगा' लिखा, तो 'अनन्त आग, नरक, बहिश्त कहां रहेंगे? 

[जो शैतान को भी वश में न कर सका वह क्या ईश्वर ?]

जो शैतान और उसके दूतों को ईश्वर न बनाता, तो नरक की इतनी तैयारी क्यों करनी पड़ती? और एक शैतान ही ईश्वर के भय से न डरा तो वह ईश्वर ही क्या है? क्योंकि वह उसी का दूत होकर बागी हो गया और ईश्वर उसको प्रथम ही पकड़कर बन्दीगृह में न डाल सका, न मार सका, पुनः उसकी ईश्वरता क्या? जिसने ईसा को भी चालीस दिन दुःख दिया, ईसा भी उसका कुछ न कर सका, तो 'ईश्वर का बेटा' होना व्यर्थ हुआ। इसलिये ईसा ईश्वर का न बेटा और 'बाइबल' का ईश्वर न ईश्वर हो सकता है॥९३॥

[एक शिष्य ने लोभ के वश हो यीशु को पकड़वाया]

९४. तब बारह शिष्यों में से एक यहूदा इस्करियोती नामक एक शिष्य प्रधान याजकों के पास गया और कहा।१४। जो मैं यीशु को आप लोगों के हाथ पकड़वाऊँ तो आप लोग मुझे क्या देंगे? उन्होंने उसे तीस रुपये देने को ठहराया।१५।

मत्ती इं०, प० २६ । आ० १४। १५॥ 

[जिससे शिष्य भी पवित्र न हुआ, वह क्या करामाती]

समीक्षक―अब देखिये, ईसा की सब करामात और ईश्वरता यहाँ खुल गई! क्योंकि जो उसका प्रधान शिष्य था, वह भी उसके साक्षात् संग से पवित्रात्मा न हुआ, तो औरों को वह मरे पीछे पवित्रात्मा क्या कर सकेगा? और उसके विश्वासी लोग उसके भरोसे में कितने ठगाये जाते हैं, क्योंकि जिसने साक्षात् सम्बन्ध में शिष्य का कुछ कल्याण न किया, वह मरे पीछे किसी का कल्याण क्या कर सकेगा?॥९४॥

[रोटी मेरी देह है, और पानी लोहू]

९५. ….जब वे खाते थे तब यीशु ने रोटी लेके धन्यवाद किया और उसे तोड़के शिष्यों को दिया और कहा―"लेओ, खाओ यह मेरा देह है।२६।" और उसने कटोरा लेके धन्य माना और उनको देके कहा―"तुम सब इससे पीओ।२७। क्योंकि यह मेरा लोहू अर्थात् नये नियम का लोहू है"......।२८।

मत्ती इं०, प० २६ । आ० २६ । २७। २८॥

[गुरु के मांस-लोहू में खाने पीने की भावना जंगलीपन]

समीक्षक―भला, यह ऐसी बात कोई भी सभ्य करेगा विना अविद्वान् और जंगली मनुष्य के? शिष्यों से, खाने की चीज को अपना मांस और पीने की चीजों को लोहू [कोई] नहीं कह सकता। और इसी बात को आजकल के ईसाई लोग 'प्रभु-भोजन' कहते हैं, अर्थात् खाने-पीने की चीजों में ईसा के मांस और लोहू की भावना कर खाते-पीते हैं, यह कितनी बुरी बात है? जिन्होंने अपने गुरु के मांस और लोहू को भी खाने-पीने की भावना से न छोड़ा, तो और का कैसे छोड़ सकते हैं?॥९५॥

[यीशु का शोक करना और उदास रहना]

९६. और वह पितर को और जब्दी के दोनों पुत्रों को अपने संग ले गया और शोक करने और बहुत उदास होने लगा।३७। तब उसने उनसे कहा कि "मेरा मन यहाँ लों अति उदास है कि मैं मरने पर हूं...."।३८। और थोड़ा आगे बढ़के वह मुंह के बल गिरा और प्रार्थना की―"हे मेरे पिता! जो हो सके तो यह कटोरा मेरे पास से टल जाय"….।३९।

मत्ती इं०, प० २६ । आ० ३७। ३८। ३९॥

[ईसा केवल साधारण, सुधा, सच्चा, अविद्वान् था]

समीक्षक―देखो, जो वह केवल मनुष्य न होता, 'ईश्वर का बेटा' और त्रिकालदर्शी और विद्वान् होता, तो ऐसी अयोग्य चेष्टा न करता। इससे स्पष्ट विदित होता है कि यह प्रपञ्च ईसा ने अथवा उनके चेलों ने झूठमूठ बनाया है कि 'वह ईश्वर का बेटा है, भूत-भविष्यत् का वेत्ता और पाप का क्षमा-कर्त्ता है। इससे समझना चाहिये कि वह केवल साधारण, सूधा-सच्चा अविद्वान् था; न विद्वान्, न योगी, न सिद्ध था॥९६॥

[शिष्य ने यीशू को पकड़वाया; बड़ी दुर्गति हुई]

९७. वह बोलता ही था कि देखो यहूदा, जो बारह शिष्यों में से एक था, आ पहुंचा और लोगों के प्रधान याजकों और प्राचीनों की ओर से बहुत लोग खड्ग और लाठियाँ लिये उसके संग।४७। यीशु के पकड़वानेहारे ने उन्हें यह पता दिया था 'जिसको मैं चूमूं, उसको पकड़ो'।४८। और वह तुरन्त यीशु पास आ बोला―"हे गुरु प्रणाम" और उसको चूमा।४९।....तब उन्होंने यीशु पर हाथ डालके उसे पकड़ा।५०। ....तब सब शिष्य उसे छोड़के भागे।५६।….अन्त में दो झूठे साक्षी आके बोले, इसने कहा कि "मैं ईश्वर का मन्दिर ढा सकता और उसे तीन दिन में फिर बना सकता हूं।६१।" तब महायाजक ने खड़ा हो यीशु से कहा―"क्या तू कुछ उत्तर नहीं देता है, ये लोग तेरे विरुद्ध क्या साक्ष्य देते हैं।" परन्तु यीशु चुप रहा। इसपर महायाजक ने उससे कहा―।६२। "मैं तुझे जीवते ईश्वर की क्रिया देता हूं, हमसे कह तू 'ईश्वर का पुत्र' ख्रीष्ट है कि नहीं?।६३।" यीशु उससे बोला―"तू तो कह चुका।६४।" ….तब महायाजक ने अपने वस्त्र फाड़के कहा―"यह ईश्वर की निन्दा कर चुका है, अब हमें साक्षियों का और क्या प्रयोजन?"।६५। "देखो, तुमने अभी उसके मुख से ईश्वर की निन्दा सुनी है। अब क्या विचार करते हो?" तब उन्होंने उत्तर दिया―"यह वध के योग्य है।६६।" तब उन्होंने उसके मुंह पर थूका और उसे घूंसे मारे। औरों ने थपेड़े मारके कहा―।६७। "हे ख्रीष्ट! हमसे भविष्यद्वाणी बोल, किसने तुझे मारा?।६८।" पितर बाहर अंगने में बैठा था और एक दासी उस पास आके बोली―"तू भी यीशु गलीली के संग था?।६९।" उसने सभों के सामने मुकरके कहा―"मैं नहीं जानता तू क्या कहती है।७०।" जब वह बाहर डेवढ़ी में गया तो दूसरी दासी ने उसे देखके, जो लोग वहां थे, उनसे कहा―"यह भी यीशु नासरी के संग था"।७१। वह क्रिया खाके फिर मुकरा कि मैं उस मनुष्य को नहीं जानता हूं।७२। तब वह धिक्कार देने और क्रिया खाने लगा कि "मैं उस मनुष्य को नहीं जानता हूं....।७४।"

मत्ती इं०, प० २६ । आ० ४७-५०। ५६। ६१-७२। ७४॥

[अन्त समय में एक भी शिष्य ने साथ नहीं दिया]

समीक्षक―अब देख लीजिये कि उसका इतना भी सामर्थ्य वा प्रताप नहीं था कि अपने चेले को भी दृढ़ विश्वास करा सके और वे चेले भी चाहे प्राण भी क्यों न जाते, तो भी अपने गुरु को लोभ से न पकड़ाते, न मुकरते, न मिथ्याभाषण करते, न झूठी क्रिया खाते।

[ईसा भी अपनी कोई करामात न दिखा सका]

और ईसा भी कुछ करामाती नहीं था। नहीं तो 'तौरेत' में लिखा है कि―"लूत के घर पर पाहुनों को बहुत से मारने को चढ़ आये थे, वहाँ ईश्वर के दो दूत थे, उन्होंने उन्हीं को अन्धा कर दिया।" [बाइबल उत्पत्ति, पर्व १९। आ० ११] यद्यपि वह भी बात असंभव है तथापि ईसा में तो इतना भी सामर्थ्य न था। 

[इस दुर्गति से तो समाधि चढ़ा प्राण छोड़ना अच्छा था]

और आजकल कितना भडम्बा उसके नाम पर ईसाइयों ने बढ़ा रक्खा है। भला, ऐसी दुर्दशा से मरने से आप स्वयं जूझ वा समाधि चढ़ा अथवा किसी प्रकार से प्राण छोड़ता, तो अच्छा था, परन्तु वह बुद्धि विना विद्या के कहाँ से उपस्थित हो?॥९७॥

वह ईसा यह भी कहता है कि―

[याजकों को स्वर्ग से १२ सेनाओं के आने की धमकी देना]

९८. मैं अभी अपने पिता से विनति नहीं करता हूँ, वह मेरे पास स्वर्गदूतों की बारह सेनाओं से अधिक पहुँचा देगा।५३।

मत्ती इं०, प० २६ । आ० ५३॥

[ईश्वर की सेना पर झूठा विश्वास; सच क्यों न बोला ?]

समीक्षक―धमकाता जाता, अपनी और अपने पिता की बड़ाई भी करता जाता, और उसका कुछ भी नहीं कर सका। देखो, आश्चर्य की बात! जब महायाजक ने पूछा था कि 'ये लोग तेरे विरुद्ध साक्ष्य देते हैं, इसका उत्तर दे' तो ईसा चुप रहा। यह भी ईसा ने अच्छा न किया; क्योंकि जो सच था, वह वहाँ अवश्य कह देता, तो भी अच्छा होता। बहुत-सी अपने घमण्ड की बातें करनी उचित न थीं। 

[झूठा दोष लगाकर ईसा को मारना ठीक न था]

और जिन्होंने ईसा पर झूठ-फरेब डालकर बुरे हाल कर मारा, उनको भी उचित न था; क्योंकि ईसा का उस प्रकार का अपराध नहीं था, जैसा उसके विषय में उन्होंने किया। परन्तु वे भी तो जंगली थे। न्याय की बातों को क्या समझें? 

[झूठ मूठ अपने को ईश्वर पुत्र बताना अच्छा न था]

यदि ईसा झूठ-मूठ 'ईश्वर का बेटा' न बनता और वे उसके साथ ऐसी बुराई न वर्तते, तो दोनों के लिये उत्तम काम था। परन्तु इतनी विद्या, धर्मात्मता और न्यायशीलता कहाँ से लावें?॥९८॥

[यीशु पर अभियोग और उसे क्रूस पर चढ़ाना]

९९. यीशु, अध्यक्ष के आगे खड़ा हुआ और अध्यक्ष ने उससे पूछा―"क्या तू यहूदियों का राजा है?" यीशु ने उससे कहा―"आप ही तो कहते हैं।११।" जब प्रधान याजक और प्राचीन लोग उसपर दोष लगाते थे, तब उसने कुछ उत्तर नहीं दिया।१२। तब पिलातुस ने उससे कहा―"क्या तू नहीं सुनता कि ये लोग तेरे विरुद्ध कितने साक्ष्य देते हैं।१३।" परन्तु उसने एक वार भी उसको उत्तर न दिया, यहाँ लों कि अध्यक्ष ने बहुत अचम्भा किया।१४। पिलातुस ने उनसे कहा―"तो मैं यीशु से, जो 'ख्रीष्ट' कहावता है, क्या करूँ?", सभों ने उससे कहा―"वह क्रूस पर चढ़ाया जाय....।२२।" और यीशु को कोड़े मारके क्रूस पर चढ़ाये जाने को सौंप दिया।२६। तब अध्यक्ष के योद्धाओं ने यीशु को अध्यक्ष-भवन में ले जाके सारी पलटन उस पास इकट्ठी की।२७। और उन्होंने उसका वस्त्र उतारके उसे लाल बागा पहिराया।२८। और कांटों का मुकुट गूंथके उसके सिर पर रक्खा और उसके दाहिने हाथ में नरकट दिया और उसके आगे घुटने टेकके यह कहके उससे ठट्टा किया―"हे यहूदियों के राजा! प्रणाम।२९।" और उन्होंने उसपर थूका और उस नरकट को ले उसके शिर पर मारा।३०। जब वे उससे ठट्ठा कर चुके तब उससे वह बागा उतारके मसीह का वस्त्र पहिराके उसे क्रूस पर चढ़ाने को ले गये।३१।

जब वे एक स्थान पर जो गलगथा अर्थात् खोपड़ी का स्थान कहाता है, पहुंचे।३३। तब उन्होंने सिरके में पित्त मिलाके उसे पीने को दिया परन्तु उसने चीखके पीना न चाहा।३४। तब उन्होंने उसे क्रूस पर चढ़ाया....।३५। और उन्होंने उसका दोषपत्र उसके शिर के ऊपर लगाया....।३६। तब दो डाकू, एक दाहिनी ओर और दूसरा बाईं ओर उसके संग क्रूसों पर चढ़ाये गये।३८।


जो लोग उधर से आते-जाते थे, उन्होंने अपने सिर हिलाके और यह कहके उसकी निन्दा की।३९। 'हे मन्दिर के ढानेहारे! अपने को बचा; जो तू ईश्वर का पुत्र है तो क्रुस पर से उतर आ।४०।' इसी रीति से प्रधान याजकों ने भी अध्यापकों और प्राचीनों के संगियों ने ठट्ठा कर कहा―'उसने और को बचाया, अपने को बचा नहीं सकता है।४१। जो वह इस्राएल का राजा है तो क्रूस पर से अब उतर आवे और हम उसका विश्वास करेंगे।४२। वह ईश्वर पर भरोसा रखता है, यदि ईश्वर उसको चाहता है, तो उसको अब बचावे। क्योंकि उसने कहा―"मैं ईश्वर का पुत्र हूँ।४३।" जो डाकू उसके संग चढ़ाये गये, उन्होंने भी इसी रीति से उसकी निन्दा की।४४।


दो पहर से तीसरे पहर लों सारे देश में अंधकार हो गया।४५। तीसरे पहर के निकट यीशु ने बड़े शब्द से पुकारके कहा―"एली एली लमा शबक्तनी" अर्थात् 'हे मेरे ईश्वर! हे मेरे ईश्वर! तूने क्यों मुझे त्यागा है।४६।' जो लोग वहाँ खड़े थे उनमें से कितनों ने यह सुन के कहा, वह एलियाह को बुलाता है।४७। उनमें से एक ने तुरन्त दौड़के इस्पंज लेके सिरके में भिगोया और नरकट पर रख के उसे पीने [=चूसने] को दिया।४८। ….तब यीशु ने फिर बड़े शब्द से पुकार के प्राण त्यागा।५०।

मत्ती इं०, प० २७। आ० ११-१४। २२। २६-३१। ३३-३५। ३७-४८। ५०॥

[अपने को ईश्वर पुत्र कहना ठीक न था]

समीक्षक―सर्वथा, यीशु के साथ उन दुष्टों ने बुरा काम किया, परन्तु यीशु का भी दोष है, क्योंकि ईश्वर का न कोई पुत्र, न वह किसी का बाप है; क्योंकि जो वह किसी का बाप होवे, तो किसी का श्वसुर, साला, सम्बन्धी आदि भी होवे। 

[अन्त समय कोई करामात न दिखा सका]

और जब अध्यक्ष ने पूछा था, तब जैसा सच था, उत्तर देना था। और यह ठीक है कि जो-जो आश्चर्यकर्म प्रथम किये हुए सच्चे होते, तो अब भी क्रूस पर से उतर, आ, सबको अपना शिष्य बना लेता। और जो वह 'ईश्वर का पुत्र' होता तो ईश्वर भी उसको बचा लेता। 

[सत्य अवश्य उजागर होकर रहता है]

जो वह त्रिकालदर्शी होता, तो सिरके में पित्त मिले हुए को चीखके क्यों छोड़ता? वह पहले से ही जानता होता। और जो वह करामाती होता, तो पुकार-पुकार के प्राण क्यों त्यागता? अर्थात् चाहे कितने ही कोई चतुराई करे, परन्तु अन्त में सच, सच और झूठ, झूठ हो जाता है। 

[हां ईसा उस समय के जंगलियों में कुछ अच्छा था]

इससे यह सिद्ध हुआ कि यीशु एक उस समय के जंगली मनुष्यों में से कुछ अच्छा था। न वह करामाती, न 'ईश्वर का पुत्र' और न विद्वान् था, क्योंकि जो ऐसा होता, तो वह दुःख क्यों भोगता?॥९९॥

[यीशु का जी उठना और पृथिवी स्वर्ग का राज्य मिलना]

१००. और देखो, बड़ा भुईंडोल हुआ कि परमेश्वर का एक दूत [स्वर्ग से] उतरा और आके कब्र के द्वार पर से पत्थर लुढ़काके उसपर बैठा।२। ….वह यहाँ नहीं है, जैसे उसने कहा वैसे जी उठा है।६। जब वे उसके शिष्यों को सन्देश देने जाती थीं, देखो, यीशु उनसे आ मिला, कहा―"कल्याण हो" और उन्होंने निकट आ उसके पांव पकड़के उसको प्रणाम किया।९। तब यीशु ने कहा―मत डरो, जाके मेरे भाइयों से कह दो, कि वे गलील को जावें और वहाँ वे मुझे देखेंगे।१०।


ग्यारह शिष्य गलील में उस पर्वत पर गये जो यीशु ने उन्हें बताया था।१६। और उन्होंने उसे देखके उसको प्रणाम किया, पर कितनों को सन्देह हुआ।१७। यीशु ने उनके पास आ उनसे कहा―"स्वर्ग में और पृथिवी पर समस्त अधिकार मुझको दिया गया है।१८। ....और देखो मैं जगत् के अन्त लों सब दिन तुम्हारे संग हूँ।२०।"

मत्ती इं०, प० २८ । आ० २।६।९।१०।१६।१७।१८।२०॥

[ईसा के पुनः जीवित होने की बात कोरी गप्प]

समीक्षक―यह बात भी मानने योग्य नहीं, क्योंकि सृष्टिक्रम और विद्याविरुद्ध है। प्रथम, ईश्वर के पास दूतों का होना, उनको जहाँ-तहाँ भेजना, ऊपर से उतरना [आदि बातों ने] क्या तहसीलदार, कलेक्टर के समान ईश्वर को बना दिया? 

[वह शरीर तो सड़ गया होगा, फिर जीवित कैसे हुआ]

क्या उसी शरीर से स्वर्ग को गया और जी उठा? क्योंकि उन स्त्रियों ने उसके पग पकड़के प्रणाम किया तो क्या वही शरीर था? और वह तीन दिन लों सड़ क्यों न गया? 

[मरकर अब क्यों नहीं जीवित होते ?]

और अपने मुख से सबका अधिकारी बनना केवल दम्भ की बात है। शिष्यों से मिलना और उनसे सब बातें करना असंभव है; क्योंकि जो ये बातें सच हों, तो आजकल भी कोई क्यों नहीं जी उठते? और उसी शरीर से स्वर्ग को क्यों नहीं जाते॥१००॥


यह 'मत्ती-रचित्त इंजील' का विषय हो चुका। अब 'मार्क-रचित-इंजील' के विषय में लिखा जाता है।


"मार्क रचित इंजील"


[बढ़ई का बेटा पैग़म्बर हो ईश्वर पुत्र ही बन बैठा]

१०१. यह क्या बढ़ई नहीं है…...।३।

मार्क इं०, प० ६। आ० ३॥ 

समीक्षक―असल में यूसुफ बढ़ई था, इसलिये ईसा भी बढ़ई था। कितने ही वर्ष तक बढ़ई का काम करता था। पश्चात् पैगम्बर बनता-बनता 'ईश्वर का बेटा' ही बन गया और जंगली लोगों ने बना लिया। तभी बड़ी कारीगरी चलाई। काट-कूट, फूट-फाट करना उसका काम है॥१०१॥


"लूक रचित इंजील"


[एक ईश्वर को छोड़ तीन की कल्पना क्यों]

१०२. यीशु ने उससे कहा―"तू मुझे उत्तम क्यों कहता है, कोई उत्तम नहीं, [केवल] एक अर्थात् ईश्वर के।१९।"

लूक इं०, प० १८ । आ० १९॥ 

समीक्षक―जब ईसा ही एक अद्वितीय ईश्वर कहता है, तो ईसाइयों ने 'पवित्रात्मा', 'पिता' और 'पुत्र' तीन कहाँ से बना लिये?॥१०२॥

[हेरोद को करामात क्यों न दिखाई ?]

१०३. …..तब उसे हेरोद के पास भेजा….।७। हेरोद यीशु को देखके अति आनन्दित हुआ, क्योंकि वह उसको बहुत दिनों से देखना चाहता था, इसलिये कि उसके विषय में बहुत-सी बातें सुनी थीं और उसका कुछ 'आश्चर्य-कर्म' देखने की उसको आशा हुई।८। उसने उससे बहुत बातें पूछीं, परन्तु उसने उसे कुछ उत्तर न दिया।९।

लूक इं०, प० २३ । आ० ७।८।९॥ 


समीक्षक―यह बात 'मत्ती-रचित' में नहीं है। [ईसा ने किसी भी प्रश्न का उत्तर नहीं दिया] इसलिये वे साक्षी बिगड़ गये। और जो ईसा चतुर और करामाती होता तो हेरोद को उत्तर देता और करामात भी दिखलाता, इससे विदित होता है कि ईसा में विद्या और करामात कुछ भी न थे॥१०३॥


"योहन (योहन्ना) रचित सुसमाचार" 


[सब कुछ वचन द्वारा बना]

१०४. आदि में वचन था और वचन ईश्वर के संग था और वचन ईश्वर था….।१। वह आदि में ईश्वर के संग था।२। सब कुछ उसके द्वारा सृजा गया, और जो सृजा गया है कुछ भी उस विना नहीं सृजा गया।३। उसमें जीवन था और वह जीवन मनुष्यों का उजियाला था।४।

[योहनरचित सु०], प० १ । आ० १।२।३।४॥

[कारण के विना वचन द्वारा सृष्टि नहीं हो सकती]

समीक्षक―आदि में वचन विना वक्ता के नहीं हो सकता, और जो वचन ईश्वर के संग था, तो "आदि में वचन था" यह कहना व्यर्थ हुआ। और वचन ईश्वर कभी नहीं हो सकता, क्योंकि जब वह आदि में ईश्वर के संग था, तो पूर्व वचन वा ईश्वर था, यह नहीं घट सकता। वचन के द्वारा सृष्टि कभी नहीं हो सकती, जब तक उसका कारण न हो। और वचन के विना भी चुपचाप रहकर कर्त्ता सृष्टि कर सकता है। 

[जीवन मनुष्यों का ही उजियाला क्यों है ?]

जीवन किसमें वा क्या था, इस वचन से जीव अनादि मानोगे। जो अनादि है, तो आदम के नथुनों में श्वास फूंकना झूठा हुआ और क्या जीवन मनुष्यों का ही उजियाला है, पशु-आदि का नहीं?॥१०४॥ 

[शैतान ने यहूदा को बहकाया]

१०५. और बियारी के समय में जब शैतान शिमोन के पुत्र यहूदा इस्करियोती के मन में उसे पकड़वाने का मत डाल चुका था।२।

[योहन० सु०], प० १३। आ० २॥ 

[सब को बहकाने वाले शैतान को कौन बहकाता है ?]

समीक्षक―यह बात सच नहीं, क्योंकि जब कोई ईसाइयों से पूछेगा कि शैतान सबको बहकाता है, तो शैतान को कौन बहकाता है? जो कहो शैतान आप से आप बहकता है, तो मनुष्य भी आप से आप बहक सकते हैं, पुनः शैतान का क्या काम? और यदि शैतान का बनाने और बहकानेवाला परमेश्वर है, तो वही 'शैतान का शैतान' ईसाइयों का 'ईश्वर' ठहरा। परमेश्वर ने ही सबको उसके द्वारा बहकाया। 

[शैतान तो ईसा को ईश्वर पुत्र बताने वाले हैं]

भला, ऐसे काम ईश्वर के हो सकते हैं? सच तो यही है कि यह पुस्तक ईसाइयों का और ईसा को 'ईश्वर का बेटा' जिन्होंने बनाया, वे शैतान हों तो हों, किन्तु न यह ईश्वरकृत पुस्तक, न इसमें कहा ईश्वर और न ईसा 'ईश्वर का बेटा' हो सकता है॥१०५॥

[विना मेरे ईश्वर के पास नहीं पहुंच सकते]

१०६. तुम्हारा मन व्याकुल न होवे, ईश्वर पर विश्वास करो और मुझपर विश्वास करो।१। मेरे पिता के घर में बहुत से रहने के स्थान हैं, नहीं तो मैं तुमसे कहता हूं, मैं तुम्हारे लिये स्थान तैयार करने जाता हूं।२। और जो मैं जाके तुम्हारे लिये स्थान तैयार करूं, तो फिर आके तुम्हें अपने यहां ले जाऊंगा कि जहां मैं रहूं वहां तुम भी रहो।३। यीशु ने उससे कहा―"मैं ही मार्ग और सत्य और जीवन हूं, विना मेरे द्वारा कोई पिता के पास नहीं पहुंचता है।६। जो तुम मुझे जानते, तो मेरे पिता को भी जानते....।७।"

[योहन० सु०], प० १४ । आ० १।२।३।६।७॥

[क्या ईसा ने ईश्वर का ठेका ले रक्खा था ?]

समीक्षक―अब देखिये, ये ईसा के वचन क्या पोपलीला से कमती हैं? जो ऐसा प्रपञ्च न रचता, तो उसके मत में कौन फसता? क्या ईसा ने अपने पिता को ठेके में ले लिया है? और जो वह ईसा के वश्य है, तो पराधीन होने से वह ईश्वर ही नहीं, क्योंकि ईश्वर किसी की सिफारिश नहीं सुनता। 

[अपने को ही मार्ग सत्य व जीवन बताना दम्भ है]

क्या ईसा के पहले कोई भी ईश्वर को प्राप्त न हुआ होगा? जो ऐसा स्थान आदि का प्रलोभन देता और जो अपने मुख से आप मार्ग, सत्य और जीवन बनता है, वह सब प्रकार से दम्भी कहाता है, इससे यह 

बात सत्य कभी नहीं हो सकती॥१०६॥

[मुझ पर विश्वास से मेरे सदृश कर्म करेगा]

१०७. मैं तुमसे सच-सच कहता हूं जो मुझपर विश्वास करे, जो काम मैं करता हूं उन्हें वह भी करेगा और इनसे बड़े काम भी करेगा तो वह सब आश्चर्यकर्म करेगा।१२।

[योहन० सु०], प० १४ । आ० १२॥

[ईसा पर विश्वास, पर आश्चर्य कर्म एक भी नहीं]

समीक्षक―अब देखिये, जो ईसाई लोग ईसा पर पूरा विश्वास रखते हैं, वैसे ही मुर्दे जिलाने आदि का काम क्यों नहीं कर सकते? और जो विश्वास से भी 'आश्चर्य-कर्म' नहीं कर सकते, तो ईसा ने भी 'आश्चर्य-कर्म' नहीं किये थे, ऐसा निश्चित जानना चाहिये। क्योंकि स्वयं ईसा ही कहता है कि तुम भी 'आश्चर्य-कार्य' करोगे, तो भी इस समय ईसाई कोई एक भी नहीं कर सकता, तो किसकी 'हिये की आँख फूट गई है' कि वह ईसा को मुर्दे जिलाना आदि काम का कर्त्ता मान लेवे?॥१०७॥

[अद्वैत का सिद्धान्त मानते हो, तो तीन क्यों कहते हो]

१०८. ....जो अद्वैत सत्य ईश्वर है....।३।

[योहन० सु०], प० १७। आ० ३॥


समीक्षक―जब अद्वैत=एक ईश्वर है, तो ईसाइयों का 'तीन कहना' सर्वथा मिथ्या है॥१०८॥


इसी प्रकार बहुत ठिकाने 'इंजील' में अन्यथा बातें भरी हैं॥


"योहन [योहन्ना] के प्रकाशित वाक्य"


अब योहन की अद्भुत बातें सुनो―


[योहन के स्वप्न में स्वर्ग के ठाठ-बाट]

१०९. ....और अपने-अपने शिर पर सोने के मुकुट दिये हुए थे।४। ....और सात अग्निदीपक सिंहासन के आगे जलते हैं, जो ईश्वर के सातों आत्मा हैं।५। और सिंहासन के आगे कांच का समुद्र है ....और सिंहासन के आस-पास चार प्राणी हैं जो आगे और पीछे नेत्रों से भरे हैं।६।

यो० प्र०, प० ४ आ० ४।५।६॥

[आगे पीछे नेत्रों का होना असम्भव]

समीक्षक―अब देखिये, एक नगर के तुल्य ईसाइयों का स्वर्ग है। और इनका ईश्वर भी दीपक के समान अग्नि है। और [उसके द्वारा] सोने का मुकुटादि आभूषण धारण करना और आगे-पीछे नेत्रों का होना असम्भावित है। इन बातों को कौन मान सकता है? और वहां सिंहादि चार पशु भी लिखे हैं॥१०९॥

[सात छापों में बन्द एक पुस्तक]

११०. और मैंने सिंहासन पर बैठनेहारे के दहिने हाथ में एक पुस्तक देखा जो भीतर और पीठ पर लिखा हुआ था और सात छापों से उस पर छाप दी हुई थी।१। ....यह पुस्तक खोलने और उसकी छापें तोड़ने के योग्य कौन है।२। और न स्वर्ग में और न पृथिवी पर, न पृथिवी के नीचे कोई वह पुस्तक खोलने अथवा उसे देखने सकता था।३। और मैं बहुत रोने लगा, इसलिये कि पुस्तक खोलने और पढ़ने अथवा उसे देखने के योग्य कोई नहीं मिला।४।

 यो० प्र०, पर्व ५ । आ० १।२।३।४॥

[उस पुस्तक को ईसा के अतिरिक्त कोई खोलने वाला न था]

समीक्षक―अब देखिये, ईसाइयों के स्वर्ग में सिंहासनों और मनुष्यों के ठाठ! और पुस्तक कई छापों से बंद किया हुआ जिसको खोलने आदि कर्म करनेवाला स्वर्ग और पृथिवी पर कोई नहीं मिला। योहन का रोना और पश्चात् एक प्राचीन ने कहा कि वही ईसा खोलनेवाला है। प्रयोजन यह है कि 'जिसका विवाह उसके गीत'। देखो, ईसा के ही ऊपर सब माहात्म्य झुकाते जाते हैं; परन्तु ये बातें केवल कथन-मात्र हैं॥११०॥

[मेम्ने = ईसा के ७ सींग ७ नेत्र]

१११. और मैंने दृष्टि की, और देखो सिंहासन के और चारों प्राणियों के बीच में और प्राचीनों के बीच में एक मेम्ना जैसा वध किया हुआ खड़ा है, जिसके सात सींग और सात नेत्र हैं, जो सारी पृथिवी में भेजे हुए ईश्वर के सातों आत्मा हैं।६।

यो० प्र०, प० ५। आ० ६॥ 

[स्वर्ग में जाकर बेचारे ईसा के सात सींग लग गये]

समीक्षक―अब देखिये, इस योहन के स्वप्न का मनोव्यापार! उस स्वर्ग के बीच में सब ईसाई और चार पशु तथा ईसा भी है और कोई नहीं! यह बड़ी अद्भुत बात हुई कि यहां तो ईसा के दो नेत्र थे और सींग का नाम-निशान भी न था और स्वर्ग में जाके सात सींग और सात आंखवाला हुआ! और वे सातों ईश्वर के आत्मा ईसा के सींग और नेत्र बन गये! हाय! ऐसी बातों को ईसाइयों ने क्यों मान लिया? भला, कुछ तो बुद्धि काम में लाते!॥१११॥

[चारों प्राणी और २४ प्राचीन मेम्ने के आगे झुक गये]

११२. और जब उसने पुस्तक लिया तब चारों प्राणी और चौबीसों प्राचीन उस मेम्ने के आगे गिर पड़े और हर एक के पास बीण थी और धूप से भरे हुए सोने के प्याले; ये पवित्र लोगों की प्रार्थनाएँ हैं॥

यो० प्र०, म० ५। आ० ८॥

[ईसाइयों का स्वर्ग बुतपरस्ती का घर]

समीक्षक―भला, जब ईसा स्वर्ग में न होगा तब ये बिचारे धूप, दीप, नैवेद्य, आर्ती (आरती) आदि पूजा किसकी करते होंगे? और यहां प्रोटस्टेंट ईसाई लोग बुतपरस्ती (मूर्त्तिपूजा) का तो खण्डन करते हैं किन्तु इनका स्वर्ग बुतपरस्ती का घर बन रहा है॥११२॥

[स्वप्न में पुस्तक में से घोड़े और सवारों का निकलना]

११३. और जब मेम्ने ने छापों में से एक को खोला तब मैंने दृष्टि की, चारों प्राणियों में से एक को जैसे, मेघ के गर्जन के शब्द को यह कहते सुना कि आ और देख।१। और मैंने दृष्टि की, और देखो, एक श्वेत घोड़ा है, और जो उसपर बैठा है उसके पास धनुष और उसे मुकुट दिया गया और वह जय करता हुआ और जय करने को निकला।२।


और जब उसने दूसरी छाप खोली.... ।३। ....दूसरा घोड़ा जो लाल था, निकला; उसको यह दिया गया कि पृथिवी पर से मेल उठा देवे....।४।


और जब उसने तीसरी छाप खोली ....देखो काला घोड़ा है....।५। और जब उसने चौथी छाप खोली.... ।७। ....और देखो एक पीला-सा घोड़ा और जो उस पर बैठा है उसका नाम मृत्यु है, इत्यादि।८।

यो० प्र०, प० ६। आ० १।२।३।४।५।७।८॥

[स्वप्न की बातों पर विश्वास अज्ञानता की पराकाष्ठा] 

समीक्षक―अब देखिये, यह पुराणों से भी अधिक मिथ्या लीला है, वा नहीं? भला, पुस्तकों के बन्धनों के छापे के भीतर घोड़ा-सवार क्योंकर रह सके होंगे? यह स्वप्ने का बरड़ाना, जिन्होंने इसको भी सत्य माना है, उनमें अविद्या जितनी कहें, उतनी ही थोड़ी है॥११३॥

[स्वर्ग में न्याय के लिये प्रतीक्षा]

११४. और वे बड़े शब्द से पुकारते थे कि "हे स्वामी, पवित्र और सत्य! कब लों तू न्याय नहीं करता है और पृथिवी के निवासियों से हमारे लोहू का पलटा नहीं लेता है।१०।" और हर एक को उजला वस्त्र दिया गया और उनसे कहा गया कि जब लों तुम्हारे संगी दास भी और तुम्हारे भाई तुम्हारे नाईं वध किये जाने पर हैं, पूरे न हों, तब लों और थोड़ी देर विश्राम करो।११।

यो० प्र०, प० ६। आ० १०। ११॥

[ईसाई न्याय के लिये रोते ही रहेंगे]

समीक्षक―जो कोई ईसाई होंगे, वे दौरासुपुर्द होकर ऐसे न्याय कराने के लिये रोया करेंगे। जो वेदमार्ग का स्वीकार करेगा, उसके न्याय होने में कुछ भी देर न होगी। ईसाइयों से पूछना चाहिये―'क्या ईश्वर की कचहरी आजकल बन्द है, और न्याय का काम भी नहीं होता? न्यायाधीश निकम्मे बैठे हैं?' तो कुछ भी ठीक-ठीक उत्तर न दे सकेंगे।

[ये लोग सदा अशान्त ही रहेंगे]

और ईश्वर को भी बहकाते हैं, और इनका ईश्वर बहक भी जाता है, क्योंकि इनके कहने से झट इनके शत्रुओं से पलटा लेने लगता है। और दंशिले स्वभाववाले हैं कि मरे पीछे स्व-वैर लिया करते हैं, शान्ति कुछ भी नहीं और जहां शान्ति नहीं, वहां दु:ख का क्या पारावार होगा?॥११४॥

[तारों का गिरना, आकाश का लपेटना]

११५. और जैसे बड़ी बयार से हिलाये जाने पर गूलर के वृक्ष से उसके कच्चे गूलर झड़ते हैं, तैसे आकाश के तारे पृथिवी पर पड़े।१३। और आकाश पत्र की नाईं जो लपेटा जाता है, अलग हो गया....।१४।

यो० प्र०, प० ६। आ० १३ । १४॥

[तारे पृथिवी पर कैसे गिर सकते हैं]

समीक्षक―अब देखिये, योहन भविष्यद्वक्ता ने, जब विद्या नहीं है तभी तो, ऐसी अण्ड-बण्ड कथा गाई [है]। भला, तारे सब भूगोल हैं, एक पृथिवी पर कैसे गिर सकते हैं? और सूर्यादि का आकर्षण उनको इधर-उधर क्यों आने-जाने देगा? 

[निराकार आकाश को चटाई के समान कैसे लपेटा]

और क्या आकाश को चटाई के समान समझता है? यह आकाश साकार पदार्थ नहीं है, जिसको कोई लपेटे वा इकठ्ठा कर सके। इसलिये योहन आदि सब जंगली मनुष्य थे, उनको इन बातों की क्या समझ?॥११५॥

[इस्रायेल और यिहूदा के कुलों पर छाप लगाना]

११६. ....मैंने उनकी संख्या सुनी, इस्राएल के संतानों के समस्त कुलों में से एक लाख चवालीस सहस्र पर छाप दी गई।४। यहूदा के कुल में से बारह सहस्र पर छाप दी गई….।५।

यो० प्र०, प० ७। आ० ४ । ५॥

[क्या बाइबिल का ईश्वर केवल इस्रायेलियों का ही है]

समीक्षक―क्या जो 'बाइबल' में ईश्वर लिखा है, वह इस्राएल आदि कुलों का स्वामी है, वा सब संसार का? जो ऐसा न होता तो उन्हीं जंगलियों का साथ क्यों देता? और उन्हीं का सहाय्य करता था, दूसरे का नाम-निशान भी नहीं लेता, इससे वह ईश्वर नहीं। और इस्राएल कुलादि के मनुष्यों पर छाप लगाना अल्पज्ञता अथवा योहन की मिथ्या कल्पना है॥११६॥

[ईश्वर की रात-दिन सेवा]

११७. इस कारण वे ईश्वर के सिंहासन के आगे हैं और उस मन्दिर में रात-दिन उसकी सेवा करते हैं....।१५।

यो० प्र०, प० ७। आ० १५॥ 

[जहां रात दिन पूजा चले, वहां सोने का क्या काम ?]

समीक्षक―क्या यह महाबुतपरस्ती नहीं है? अथवा उनका ईश्वर देहधारी मनुष्य के तुल्य एकदेशी नहीं है? और ईसाइयों का ईश्वर रात में सोता भी नहीं है। यदि सोता है, तो रात में पूजा क्योंकर करते होंगे? तथा उसकी नींद भी उड़ जाती होगी? और जो रात-दिन जागता होगा तो विक्षिप्त वा अति-रोगी होगा॥११७॥

[वेदी की आग से गर्जना वा भूकम्प का होना]

११८. और दूसरा दूत आके वेदी के निकट खड़ा हुआ जिसके पास सोने की धूपदानी थी और उसको बहुत धूप दिया गया....।३। और धूप का धुंआ पवित्र लोगों की प्रार्थनाओं के संग दूत के हाथ में से ईश्वर के आगे चढ़ गया।४। और दूत ने वह धूपदानी लेके उसमें वेदी की आग भरके उसे पृथिवी पर डाला और शब्द और गर्जन और बिजलियाँ और भुईंडोल हुए।५।

यो० प्र०, प० ८। आ० ३ । ४ । ५॥ 

[वैरागियों के मन्दिर से ईसाइयों का स्वर्ग कम नहीं]

समीक्षक―अब देखिये, स्वर्ग तक वेदी, धूप, दीप, नैवेद्य, तुरही के शब्द होते हैं! क्या वैरागियों के मन्दिर से ईसाइयों का स्वर्ग कम है? कुछ धूम-धाम अधिक ही है॥११८॥

[पहले दूत ने पृथिवी पर ओले और आग बरसाये]

११९. पहले दूत ने तुरही फूंकी और लोहू से मिले हुए ओले और आग हुए, वे पृथिवी पर डाले और पृथिवी की एक तिहाई जल गई....।७।

यो० प्र०, प०८ । आ० ७॥

[योहन को प्रलय के विषय में कुछ भी पता न था]

समीक्षक―वाह रे ईसाइयों के भविष्यद्वक्ता ईश्वर! ईश्वर के दूत! तुरही का शब्द और प्रलय की लीला केवल लड़कों का ही खेल दीखता है॥११९॥

[पांचवे दूत द्वारा पृथिवी पर टिड्डियों की भरमार]

१२०. और पाँचवें दूत ने तुरही फूंकी और मैंने एक तारे को देखा जो स्वर्ग में से पृथिवी पर गिरा हुआ था और अथाह कुंड के कूप की कुंजी उसको दी गई।१। और उसने अथाह कुंड का कूप खोला और कूप में से बड़ी भट्ठी के धूएँ की नाईं धुआँ उठा....।२। और उस धुएं में से टिड्डियां पृथिवी पर निकल गईं और जैसा पृथिवी के बिच्छुओं को अधिकार होता है तैसा उन्हें दिया गया।३। और उनसे कहा गया कि ….'उन मनुष्यों को जिनके माथे पर ईश्वर की छाप नहीं है।४। ....पाँच मास उन्हें पीड़ा दी जाय।५।'

  यो० प्र०, प० ९ । आ० १।२।३।४।५॥

[क्या तारों और टिड्डियों ने छाप वालों को पहचान लिया]

समीक्षक―तुरही का शब्द सुनकर तारे क्या उन्हीं दूतों पर और उसी स्वर्ग में गिरे होंगे? यहाँ तो नहीं गिरे। भला, वह कूप और टिड्डियां भी प्रलय के लिये ईश्वर ने पाली होंगी। और छाप को देख बांच भी लेती होंगी कि छापवालों को मत काटो! यह केवल भोले मनष्यों को डराके ईसाई बना लेने का धोखा देना है कि जो तुम ईसाई न होगे, तो तुमको टिड्डियां काटेंगी। परन्तु ऐसी बातें विद्याहीन देश में चल सकती हैं, आर्यावर्त में नहीं। और क्या वह प्रलय की बात हो सकती है?॥१२०॥ 

[२० करोड़ घोड़े की लीद से स्वर्ग भी नरक हो गया होगा]

१२१. और घुड़चढ़ों की सेनाओं की संख्या बीस करोड़ थी....।१६।

यो० प्र०, प० ९ । आ० १६॥ 


समीक्षक―भला, इतने घोड़े स्वर्ग में कहां ठहरते, कहाँ चरते और कहाँ रहते और कितनी लीद करते थे? उसका दुर्गन्ध भी स्वर्ग में कितना हुआ होगा?


बस ऐसे स्वर्ग, ऐसे ईश्वर और ऐसे मत के लिये हम सब आर्यों ने [उत्तम वैदिक मत को] तिलाञ्जलि दे दी है। ऐसा बखेड़ा ईसाइयों के शिर पर से भी सर्वशक्तिमान् की कृपा से दूर हो जाय, तो बहुत अच्छा हो॥१२१॥

[मेघ को ओढ़े हुए विशालाकृति स्वर्गदूत]

१२२. और मैंने दूसरे पराक्रमी दूत को स्वर्ग से उतरते देखा जो मेघ को ओढ़े था और उसके शिर पर मेघधनुष था और उसका मुख सूर्य की नाईं और उसके पांव आग के खम्भे ऐसे थे।१। ....और उसने अपना दाहिना पावं समुद्र पर और बायां पृथिवी पर रक्खा।२।

यो० प्र०, प० १०। आ० १।२॥

समीक्षक―अब देखिये इन दूतों की कथा! जो पुराणों वा भाटों की कथाओं से भी बढ़कर है॥१२२॥

[स्वर्ग में ईश्वर के मन्दिर और वेदी को नापा]

१२३. और लग्गी के समान एक नरकट मुझे दिया गया और कहा गया कि उठ! ईश्वर के मन्दिर को और वेदी को और उसमें के भजन करनेहारों को नाप।१।

यो० प्र०, प० ११ । आ० १॥ 

[बुतपरस्ती से स्वर्ग भी न बच सका]

समीक्षक―यहां तो क्या, परन्तु ईसाइयों के तो स्वर्ग में भी मन्दिर बनाये और नापे जाते हैं। अच्छा है, उनका जैसा स्वर्ग है, वैसी ही बातें हैं। इसीलिये यहां 'प्रभुभोजन' में ईसा के शरीरावयव मांस, लोहू की भावना करके खाते-पीते हैं, और गिरजा में भी क्रूस आदि का आकार बनाना आदि भी बुतपरस्ती है॥१२३॥

[स्वर्ग के मन्दिर में नियमों का सन्दूक]

१२४. और स्वर्ग में ईश्वर का मन्दिर खोला गया और उसके नियम का सन्दूक उसके मन्दिर में दिखाई दिया....।१९।

यो० प्र०, प० ११ । आ० १९॥ 

[क्या परमेश्वर का भी मन्दिर हो सकता है]

समीक्षक―स्वर्ग में जो मन्दिर है सो हर समय बन्द रहता होगा, कभी-कभी खोला जाता होगा। क्या परमेश्वर का भी कोई मन्दिर हो सकता है? जो वेदोक्त परमात्मा सर्वव्यापक है, उसका कोई भी मन्दिर नहीं हो सकता। हां, ईसाइयों का जो परमेश्वर 'आकारवाला' है, उसका [मन्दिर] चाहे स्वर्ग में हो चाहे भूमि पर होता [होगा]। और जैसी लीला 'टं टन् पूँ पूँ' की यहां होती है, वैसी ही ईसाइयों के स्वर्ग में भी [होती होगी]। और नियम का संदूक भी कभी-कभी ईसाई लोग देखते होंगे, उससे न जाने क्या प्रयोजन सिद्ध करते हैं? सच तो यह है कि ये सब बातें मनुष्यों को भुलाने की हैं॥१२४॥

[स्वर्ग के दो आश्चर्य]

१२५. एक बड़ा आश्चर्य स्वर्ग में दिखाई दिया अर्थात् एक स्त्री जो सूर्य पहने है और चाँद उसके पांवों तले है और उसके शिर पर बारह तारों का मुकुट है।१। और वह गर्भवती होके चिल्लाती है, क्योंकि प्रसव की पीड़ा उसे लगी है और वह जनने को पीड़ित है।२। और दूसरा आश्चर्य स्वर्ग में दिखाई दिया है; देखो, एक बड़ा लाल अजगर है, जिसके सात शिर और दश सींग हैं और उसके शिरों पर सात राजमुकुट हैं।३। और उसकी पूंछ ने आकाश के तारों की एक तिहाई को खींचके उन्हें पृथिवी पर डाला....।४।

 यो० प्र०, प० १२ । आ० १।२।३।४॥

[छोटी सी पृथिवी पर एक तिहाई तारे कैसे समाये ?]

समीक्षक―अब देखिये लम्बे-चौड़े गपोड़े!! इनके स्वर्ग में भी बिचारी स्त्री चिल्लाती है, उसका दु:ख कोई नहीं सुनता, न मिटा सकता है। और उस अजगर की पूंछ इतनी बड़ी थी कि जिसने तारों के एक तिहाई पृथिवी पर डाले!! भला, पृथिवी तो छोटी है और तारे बड़े-बड़े भी लोक हैं, इस पृथिवी पर एक भी नहीं समा सकता। किन्तु यहाँ यही अनुमान करना चाहिये कि ये तारों की तिहाई इस बात के लिखनेवाले के घर पर गिरे होगें, और जिस अजगर की पूंछ इतनी बड़ी थी कि जिससे सब तारों की तिहाई लपेटकर भूमि पर गिरा दी, वह अजगर भी उसी के घर में रहता होगा!॥१२५॥

[जिस स्वर्ग में उपद्रव हो, वह क्या स्वर्ग ?]

१२६. और स्वर्ग में युद्ध हुआ, मीकाईल और उसके दूत अजगर से लड़े और अजगर और उसके दूत उससे लड़े।७।

यो० प्र०, प० १२ । आ० ७॥ 


समीक्षक―जो कोई ईसाइयों के स्वर्ग में जाता होगा, वह भी लड़ाई में दुःख पाता होगा। ऐसे स्वर्ग की यहीं से आश छोड़, हाथ-जोड़ बैठ रहो। जहां शान्तिभंग और उपद्रव मचा रहे, वह [स्वर्ग] ईसाइयों के ही योग्य है॥१२६॥

[शैतान को भूमि पर गिराना]

१२७. और वह बड़ा अजगर गिराया गया; हां, वह प्राचीन सांप जो दियाबल और शैतान कहाता है, जो सारे संसार का भरमानेहारा है....।९।

यो० प्र०, प० १२ । आ० ९॥

[शैतान स्वर्ग में भी लोगों को बहकाता होगा]

समीक्षक―क्या जब वह शैतान स्वर्ग में था तब लोगों को नहीं भरमाता था? और उसको जन्मभर बंदीगृह में अथवा मार क्यों न डाला? उसको पृथिवी पर क्यों डाल दिया? जो सब संसार को भरमानेवाला शैतान है, तो शैतान को भरमानेवाला कौन है ? यदि शैतान स्वयं भरमा है, तो शैतान के विना भरमानेहारे भरमेंगे और जो उसको भरमानेहारा परमेश्वर है, तो वह 'ईश्वर' ही नहीं ठहरा।

[शैतान से ईसाइयों का ईश्वर भी डरता था]

विदित तो यह होता है कि ईसाइयों का ईश्वर भी शैतान से डरता होगा? क्योंकि जो शैतान से प्रबल होता तो ईश्वर ने उसको अपराध करने समय ही दण्ड क्यों न दिया? जगत् में शैतान का जितना राज है उसके सामने सहस्रांश भी ईसाइयों के ईश्वर का राज्य नहीं। इसीलिये ईसाइयों का ईश्वर उसको हटा नहीं सकता होगा। इससे यह सिद्ध हुआ कि जैसा इस समय के ईसाई राज्याधिकारी, डाकू-चोर आदि को शीघ्र दण्ड देते हैं, वैसा [दण्ड] भी ईसाइयों के ईश्वर का नहीं। पुनः कौन ऐसा निर्बुद्धि मनुष्य है कि जो वैदिकमत को छोड़ पोकल ईसाईमत का स्वीकार करे?॥१२७॥

[शैतान को यहां क्यों भेजा ? वहीं क्यों न मार दिया ?]

१२८. ……हाय, पृथिवी और समुद्र के निवासियो! क्योंकि शैतान तुम पास उतरा है....।१२।

यो० प्र०, प० १२ । आ० १२॥

समीक्षक―क्या वह ईश्वर वहाँ का रक्षक और स्वामी है? पृथिवी के मनुष्यादि प्राणियों का रक्षक और स्वामी नहीं है? यदि भूमि का भी राजा है, तो शैतान को क्यों न मार सका? ईश्वर देखता रहता है और शैतान बहकाता फिरता है, तो भी उसको वर्जता नहीं। विदित तो यह होता है कि एक अच्छा ईश्वर है, और एक समर्थ दुष्ट दूसरा ईश्वर [शैतान] हो रहा है॥१२८॥

[शैतान को युद्ध करने वा बहकाने का अधिकार]

१२९. ....और बयालीस मास लों युद्ध करने का अधिकार उसे दिया गया।५। और उसने ईश्वर के विरुद्ध निन्दा करने को अपना मुंह खोला कि उसके नाम की और उसके तम्बू की और स्वर्ग में वास करनेहारों की निन्दा करे।६। और उसको यह दिया गया कि पवित्र लोगों से युद्ध करे और उन पर जय करे और हर एक कुल और भाषा और देश पर उसको अधिकार दिया गया।७।

 यो० प्र०, प० १३ । आ० ५।६।७॥

[ईसाइयों के ईश्वर के डाकुओं वाले काम हैं]

समीक्षक―भला, जो पृथिवी के लोगों को बहकाने के लिये शैतान और पशु आदि को भेजे और पवित्र मनुष्यों से युद्ध करावे, वह काम डाकुओं के सरदार के समान नहीं है? ऐसा काम ईश्वर वा ईश्वर के भक्तों का नहीं हो सकता॥१२९॥

[लाखों लोगों के साथ मेम्ना सियोन पर्वत पर]

१३०. और मैंने दृष्टि की, और देखो मेम्ना सियोन पर्वत पर खड़ा है। और उसके संग एक लाख, चवालीस सहस्र जन थे जिनके माथे पर उनका नाम और उनके पिता का नाम लिखा है।१।

यो० प्र०, प० १४ । आ० १॥ 

[ये लाखों लोग स्वर्ग से पृथिवी पर कैसे आये ?]

समीक्षक―अब देखिये, जहाँ ईसा का बाप रहता था, वहीं उसी 'सियोन' पहाड़ पर उसका लड़का भी रहता है। परन्तु एक लाख चवालीस सहस्र मनुष्यों की गणना क्योंकर की? एक लाख चवालीस सहस्र ही स्वर्गवासी हुए, शेष करोड़ों ईसाइयों के शिर पर मोहर न लगी, क्या ये सब नरक में गये? ईसाइयों को चाहिये कि 'सियोन' पर्वत पर जाके देखें कि ईसा का उक्त बाप और उनकी सेना वहां है वा नहीं? जो हों तो यह लेख ठीक है, नहीं तो मिथ्या। यदि कहीं से वहां आया, तो कहां से आया? जो कहो स्वर्ग से, तो क्या वे पक्षी हैं कि इतनी बड़ी सेना और आप ऊपर-नीचे उड़कर आया-जाया करते [हैं]? 

[फिर तो ब्रह्माण्ड के शासन के लिये अनेक ईश्वर चाहिये]

यदि वह आया-जाया करता है, तो एक जिले के न्यायाधीश के समान हुआ। और वह एक, दो वा तीन हो, तो नहीं बन सकेगा, किन्तु न्यून से न्यून एक-एक भूगोल में एक-एक ईश्वर चाहिये; क्योंकि वे एक, दो, तीन अनेक ब्रह्माण्डों का न्याय करने और सर्वत्र युगपत् घूमने में समर्थ कभी नहीं हो सकते॥१३०॥

[आत्मा के कर्म आत्मा के संग]

१३१. ....आत्मा कहता है, "हां, कि वे अपने परिश्रम से विश्राम करेंगे परन्तु उनके कार्य उनके संग हो लेते हैं।१॥"

यो० प्र०, प० १४। आ० १३॥

 [कर्मानुसार फल मिलेगा, तो पाप क्षमा की बात व्यर्थ]

समीक्षक―देखिये, ईसाइयों का ईश्वर तो कहता है 'उनके कर्म उनके संग रहेंगे' अर्थात् कर्मानुसार फल सबको दिये जायेंगे, और ये लोग कहते हैं कि ईसा पापों को ले लेगा और क्षमा भी किये जायेंगे। यहां बुद्धिमान् विचारें कि ईश्वर का वचन सच्चा है वा ईसाइयों का? एक बात में दोनों तो सच्चा हो ही नहीं सकते? इनमें से एक झूठा अवश्य होगा। हमको क्या, चाहे ईसाइयों का ईश्वर झूठा हो, वा ईसाई लोग!!॥१३१॥

[ईश्वर के कोप के कुण्ड]

१३२. ....और उसे ईश्वर के कोप के बड़े रस के कुण्ड में डाला।१९। और रस के कुण्ड का रौंदन नगर के बाहर किया गया और रस के कुण्ड में से घोड़ों की लगाम तक लोहू एक-सौ कोश तक बह निकला।२०।

यो० प्र०, प० १४। आ० १९ । २०॥

[क्या ईश्वर का कोप कोई द्रवित पदार्थ है ?]

समीक्षक―अब देखिये, इनके गपोड़े पुराणों से भी बढ़कर हैं, वा नहीं? ईसाइयों का ईश्वर कोप करते समय बहुत दुःखित हो जाता होगा, और जो उसके कोप के कुण्ड भरे हैं, क्या उसका कोप जल है वा अन्य द्रवित पदार्थ है कि जिससे कुण्ड भरे हैं? और सौ कोश तक रुधिर का बहना असम्भव है, क्योंकि रुधिर वायु लगने से झट जम जाता है, पुनः क्योंकर बह सकता है? इसलिये ऐसी बातें मिथ्या होती हैं॥१३२॥ 

[स्वर्ग में साक्षी के तम्बू का मन्दिर]

१३३. ....और देखो, स्वर्ग में साक्षी के तम्बू का मन्दिर खोला गया।५।

यो० प्र०, प० १५ । आ० ५॥ 

[ईश्वर को साक्षियों की क्या आवश्यकता पड़ी ?]

समीक्षक―जो ईसाइयों का ईश्वर सर्वज्ञ होता तो साक्षियों का क्या काम? क्योंकि वह स्वयं सब कुछ जानता होता। इससे सर्वथा यही निश्चय होता है कि इनका ईश्वर सर्वज्ञ नहीं, किन्तु मनुष्यवत् अल्पज्ञ है। क्या वह ईश्वरता कर सकता है? नहीं, नहीं, नहीं!! और इसी प्रकरण में दूतों की बड़ी-बड़ी असम्भव बातें लिखी हैं, उनको सत्य कोई नहीं मान सकता। कहाँ तक लिखें, इस प्रकरण में सर्वथा ऐसी ही बातें भरी हैं॥१३३॥

[कर्मों का दूना फल]

१३४. ....और ईश्वर ने उसके कुकर्मों को स्मरण किया है।५। जैसा तुम्हें उसने दिया है तैसा उसको भर देओ और उसके कर्मों के अनुसार दूना उसे दे देओ....।६।

यो० प्र० प० १८ । आ० ५।६॥

[कर्म का दूना फल देना अन्याय]

समीक्षक―देखो, प्रत्यक्षतः ईसाइयों का ईश्वर अन्यायकारी है। क्योंकि न्याय उसी को कहते हैं कि जिसने जैसा वा जितना कर्म किया उसको वैसा और उतना ही फल देना। उससे अधिक-न्यून देना अन्याय है। जो अन्यायकारी की उपासना करते हैं, वे अन्यायकारी क्यों न हों?॥१३४॥

[मेम्ने ( = यीशू ) का विवाह]

१३५. ....क्योंकि मेम्ने का विवाह आ पहुँचा है और उसकी स्त्री ने अपने को तैयार किया है।७।

यो० प्र०, प० १९ । आ० ७॥ 

[स्वर्ग में विवाह हुआ, तो श्वसुर, सास, साले आदि कौन थे]

समीक्षक―अब सुनिये, ईसाइयों के स्वर्ग में विवाह भी होते हैं! क्योंकि ईसा का विवाह ईश्वर ने वहीं किया। पूछना चाहिये कि उसका श्वसुर, सास, साला आदि कौन थे और लड़के-बाले कितने हुए? और वीर्य के नाश होने से बल, बुद्धि, पराक्रम, आयु आदि भी घटके अब तक ईसा ने वहां शरीर त्याग कर दिया होगा, क्योंकि संयोगजन्य पदार्थ का वियोग अवश्य होता है। अब तक ईसाइयों ने उसके विश्वास में धोखा खाया और न जाने कब तक धोखे में रहेंगे॥१३५॥

[शैतान को सीलबन्द कर दिया]

१३६. ....और उसने अजगर को अर्थात् प्राचीन सांप को जो दियाबल और शयतान (शैतान) है, पकड़के उसे सहस्र वर्ष लों बाँध रक्खा।२। और उसको अथाह कुण्ड में डाला और बन्द ऊपर करके उसके छाप दी, जिसतें वह जब लों सहस्र वर्ष पूरे न हों, तब लों फिर देशों के लोगों को न भरमावे…..।३।

यो० प्र०, प० २० । आ० २।३॥


[शैतान को सदा के लिये कैद में क्यों न रक्खा ?]

समीक्षक―देखो, मरूँ-मरूँ करके शयतान (शैतान) को पकड़ा और सहस्र वर्ष तक बन्द किया; फिर भी छूटेगा। क्या फिर न भरमावेगा? ऐसे दुष्ट को तो बन्दीगृह में सदा रखना वा मारे विना छोड़ना ही नहीं [चाहिये]। 

[शैतान का डर दिखा भोले लोगों को फसाना]

परन्तु यह शयतान (शैतान) का होना ईसाइयों का भ्रममात्र है, वास्तव में कुछ भी नहीं। केवल लोगों को डराके अपने जाल में लाने का उपाय रचा है। 


जैसे किसी धूर्त्त ने किन्हीं भोले मनुष्यों से कहा कि 'चलो, तुमको देवता का दर्शन कराऊँ,' किसी एकान्त देश में ले जाके एक मनुष्य को चतुर्भुज बनाकर रक्खा। झाड़ी में खड़ा करके कहा कि 'आँख मीच लो। जब मैं कहूँ तब खोलना और फिर जब कहूँ तभी मीच लेना। जो न मीचेगा वह अन्धा हो जायगा।' जब वह सामने आया तब कहा―'देखो'। पुनः शीघ्र कहा कि 'मीच लो।' जब फिर झाड़ी में छिप गया, तब कहा―'खोलो, देखा, नारायण का सबने दर्शन किया'।

वैसी लीला इन मज़हबियों की है कि 'जो हमारे मज़हब को न मानेगा, वह शयतान (शैतान) का बहकाया हुआ है', ऐसे उसको फसा लेते हैं। इसलिये इनकी माया में किसी को न फसना चाहिये॥१३६॥

[पृथिवी आकाश का भागना, पुस्तक देखकर कर्म फल देना]

१३७. ....जिसके सम्मुख से पृथिवी और आकाश भाग गये और उनके लिये जगह न मिली।११। और मैंने क्या छोटे, क्या बड़े, सब मृतकों को ईश्वर के आगे खड़े देखा और पुस्तक खोले गये और दूसरा पुस्तक अर्थात् जीवन का पुस्तक खोला गया और पुस्तकों में लिखी हुई बातों से मृतकों का विचार उनके कर्मों के अनुसार किया गया।१२।

यो० प्र०, प० २० । आ० ११।१२॥

[पृथिवी आकाश भाग गये, तो वह किस पर ठहरा ?]

समीक्षक―यह देखो लड़केपन की बात! भला, पृथिवी और आकाश कैसे भाग सकेंगे? और वे किस पर ठहरेंगे, जिनके सामने से भागें। और उसका सिंहासन और वह कहाँ ठहरा थे? 

[क्या परमेश्वर के पास भी बही है ? उसे कौन लिखता है ?]

और मुर्दे परमेश्वर के सामने खड़े किये गये तो परमेश्वर भी बैठा वा खड़ा होगा? क्या यहां की कचहरी और दूकान के समान ईश्वर का व्यवहार है जो कि पुस्तक लेखानुसार होता है? और सब जीवों का हाल ईश्वर ने लिखा वा उसके गुमाश्तों ने? ऐसी-ऐसी बातों से अनीश्वर को ईश्वर और ईश्वर को अनीश्वर ईसाई आदि मत-वालों ने बना दिया॥१३७॥

[मेम्ने की दुल्हिन को दिखाना]

१३८. ....उनमें से एक मेरे पास आया और मेरे संग बोला कि आ मैं दुलहिन को अर्थात् मेम्ने की स्त्री को तुझे दिखाऊँगा।९।

यो० प्र०, प० २१ । आ० ९॥

[ईसा स्वर्ग में जाकर विषय भोग में क्यों पड़ा ?]

समीक्षक―भला, ईसा ने स्वर्ग में 'दुलहिन' अर्थात् अच्छी स्त्री पाई! मौज करता होगा! जो-जो ईसाई वहाँ जाते होंगे, उनको भी स्त्रियाँ मिलती होंगी, लड़के-बाले होते होंगे और बहुत भीड़ के हो जाने से रोगोत्पत्ति होकर मरते भी होंगे। ऐसे स्वर्ग को दूर से ही हाथ ही जोड़ना अच्छा है॥१३८॥

[ईसाइयों के स्वर्ग की रचना]

१३९. ....और उसने उस नल से नगर को नापा कि साढ़े सात-सौ कोश का है, उसकी लंबाई और चौड़ाई और ऊंचाई एक समान हैं।१६। और उसने उसकी भीत को मनुष्य के अर्थात् दूत के नाप से नापा कि एक सौ चवालीस हाथ की है।१७। और उसकी भीत की जोड़ाई सूर्यकान्त की थी और नगर निर्मल सोने का था, जो निर्मल कांच के समान था।१८। और नगर की भीत की नेवें हर एक बहुमूल्य पत्थर से सँवारी हुई थीं; पहिली नेव सूर्यकान्त की थी, दूसरी नीलमणि की, तीसरी लालड़ी की, चौथी मरकत की।१९। पांचवीं गोमेदक की, छठवीं माणिक्य की, सातवीं पीतमणि की, आठवीं पेरोज की, नवीं पुखराज की, दशवीं लहसनिये की, ग्यारहवीं धूम्रकान्त की, बारहवीं मर्टीष की।२०। और बारह फाटक बारह मोतीयों के थे, एक-एक मोती से एक-एक फाटक बना था और नगर की सड़क स्वच्छ कांच के ऐसे निर्मल सोने की थी।२१।

यो० प्र०, प० २१ । आ० १६।१७।१८।१९।२०।२१॥

[सीमित नगर में अपार जन समूह कैसे समा सकता है ?]

समीक्षक―सुनो ईसाइयों के स्वर्ग का वर्णन! यदि ईसाई मरते जाते और [वहां] जन्मते जाते हैं तो इतने बड़े शहर में [भी] कैसे समा सकेंगे? क्योंकि उसमें मनुष्यों का आगम तो होता है और उससे निकलते नहीं। 

[नगर के निर्माण और चमक-दमक का वर्णन कल्पित]

और जो यह बहुमूल्य रत्नों की बनी हुई नगरी मानी है, और सर्व सोने की है, इत्यादि लेख केवल भोले-भाले मनुष्यों को बहकाकर फसाने की लीला है। भला, लंबाई-चौड़ाई तो जो उस नगर की लिखी, सो हो सकती है; परन्तु ऊंचाई साढ़े सात-सौ कोश क्योंकर हो सकती है? यह सर्वथा मिथ्या, कपोलकल्पना की बात है। और इतने बड़े मोती कहाँ से आये होंगे? इस लेख के लिखनेवाले के घर के घड़े में से? यह गपोड़ा पुराण का भी बाप है॥१३९॥

[घृणित कर्म करने वाले और झूठ बोलने वालों को स्वर्ग नहीं]

१४०. और कोई अपवित्र वस्तु अथवा घिनित कर्म करनेहारा अथवा झूठ पर चलनेहारा उसमें किसी रीति से प्रवेश न करेगा....।२७।

यो० प्र० प० २१ । आ० २७॥

[योहन्ना जैसे असत्य वक्ता को स्वर्ग कैसे मिला]

समीक्षक―जो ऐसी बात है, तो ईसाई लोग क्यों कहते हैं कि "पापी लोग भी ईसाई होने से स्वर्ग में जा सकते हैं", यह झूठ बात है। यदि ऐसा है, तो योहन्ना स्वप्ने की मिथ्या बातों का कहनेहारा स्वर्ग में प्रवेश कभी न कर सका होगा, 

[अनेक पापियों के पाप-भार से युक्त ईसा को भी स्वर्ग कैसे ?]

और ईसा भी स्वर्ग में न गया होगा, क्योंकि जब अकेला पापी स्वर्ग को प्राप्त नहीं हो सकता, तो जो अनेक पापियों के पाप के भार से युक्त है क्योंकर स्वर्गवासी हो सकता है?॥१४०॥

[ईसाइयों के स्वर्ग में क्या कुछ होगा]

१४१. और अब कोई शाप न होगा और ईश्वर का और मेम्ने का सिंहासन उसमें होगा और उसके दास उसकी सेवा करेंगे।३। और उसका मुंह देखेंगे और उसका नाम उनके माथे पर होगा।४। और वहां रात न होगी और उन्हें दीपक का अथवा सूर्य की ज्योति का प्रयोजन नहीं, क्योंकि परमेश्वर ईश्वर उन्हें ज्योति देगा वे सदा-सर्वदा राज्य करेंगे।५।

यो० प्र०, प० २२ । आ० ३।४।५॥ 

[क्या सिंहासन पर ईसा और ईश्वर निरन्तर बैठे रहेंगे ?]

समीक्षक―देखिये, यही ईसाइयों का स्वर्ग-वास! क्या ईश्वर और ईसा सिंहासन पर निरन्तर बैठे रहेंगे? और उनके दास उनके सामने सदा मुंह देखा करेंगे? अब यह तो कहिये तुम्हारे ईश्वर का मुंह यूरोपियन के सदृश गोरा है वा अफ्रीकावालों के सदृश काला अथवा अन्य देशवालों के समान है? 

[यह स्वर्ग भी बन्धन है, जो मुखवाला है वह ईश्वर सर्वज्ञ नहीं]

यह तुम्हारा स्वर्ग भी बन्धन है, क्योंकि जहाँ छोटाई-बड़ाई है और उसी एक नगर में रहना अवश्य है, तो वहाँ दुःख क्यों न होता होगा? जो मुखवाला है, वह ईश्वर सर्वज्ञ, सर्वेश्वर कभी नहीं हो सकता॥१४१॥

[कर्मानुसार ही फल मिलेगा]

१४२. देख, मैं शीघ्र आता हूँ और मेरा प्रतिफल मेरे साथ है जिसतें हर एक को जैसा उसका कार्य ठहरेगा, वैसा फल देऊं।१२।

यो० प्र०, प० २२ । आ० १२॥ 

[जो कर्मानुसार फल मिलेगा, तो पापक्षमा की बात व्यर्थ]

समीक्षक―जब यही बात है कि कर्मानुसार फल पाते हैं तो पापों की क्षमा कभी नहीं होती, और जो क्षमा होती है तो 'इंजील' की बातें झूठी [हैं]। यदि कोई कहे कि क्षमा करना भी 'इंजील' में लिखा है तो 'पूर्वापरविरुद्ध' अर्थात् 'हल्फ़दरोगी' हुई तो वह झूठ है, इसका मानना छोड़ दो॥१४२॥


अब कहाँ तक लिखें। इनकी 'बाइबल' में लाखों बातें खण्डनीय हैं। यह तो थोड़ा-सा चिह्नमात्र ईसाइयों की 'बाइबल' पुस्तक का दिखलाया है, इतने से ही बुद्धिमान् लोग बहुत-सा समझ लेंगे। थोड़ी-सी बातों को छोड़ शेष सब झूठ भरा है। जैसे झूठ के संग से सत्य भी शुद्ध नहीं रहता, वैसा ही 'बाइबल' पुस्तक भी माननीय नहीं हो सकता, किन्तु वह सत्य तो वेदों के स्वीकार में गृहीत होता ही है॥


[यह कृश्चीन मत के विषय में लिखा, इसके आगे मुसलमानों के मत के विषय में लिखा जायगा]।


इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिनिर्मिते सत्यार्थप्रकाशे

सुभाषाविभूषिते कृश्चीनाख्यमतविषये 

त्रयोदशः समुल्लासः सम्पूर्णः॥१३॥

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