एकादशः समुल्लासः

उत्तरार्द्ध:


अनुभूमिका (१) 


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

Click now


यह सिद्ध बात है कि पांच सहस्र वर्षों के पूर्व वेद-मत से भिन्न दूसरा कोई भी मत न था, क्योंकि वेदोक्त सब बातें विद्या से अविरुद्ध हैं। वेदों की अप्रवृत्ति होने का कारण महाभारत-युद्ध हुआ। इनकी अप्रवृत्ति से अविद्यान्धकार के भूगोल में विस्तृत होने से मनुष्यों की बुद्धि भ्रमयुक्त होकर जिसके मन में जैसा आया, वैसा मत चलाया।


उन सब मतों में ४ (चार) मत अर्थात् जो वेदविरुद्ध पुराणी, जैनी, किरानी, और कुरानी सभी मतों के मूल हैं, वे क्रम से एक के पीछे दूसरा, तीसरा, चौथा चला है। अब इन चारों की शाखायें एक सहस्र से कम नहीं हैं। इन सब मतवादियों, इनके चेलों और अन्य सबको परस्पर सत्यासत्य के विचार करने में अधिक परिश्रम न हो, इसलिये यह ग्रन्थ बनाया है। जो-जो इसमें सत्य-मत का मण्डन और असत्य का खण्डन लिखा है, वह सबको जनाना ही प्रयोजन समझा गया है। इसमें जैसी मेरी बुद्धि, जितनी विद्या है, और जितना इन चारों मतों के मूल ग्रन्थ देखने से बोध हुआ है, उसको सबके आगे निवेदित कर देना मैंने उत्तम समझा है, क्योंकि लुप्त हुए विज्ञान का पुनर्मिलना सहज नहीं है। पक्षपात छोड़कर इसको देखने से सत्यासत्य मत सबको विदित हो जायगा। पश्चात् सबको अपनी-अपनी समझ के अनुसार सत्य मत का ग्रहण करना और असत्य मत को छोड़ना सहज होगा। इनमें से जो पुराणादि ग्रन्थों से शाखा-शाखान्तररूप मत आर्यावर्त देश में चले हैं, उनके संक्षेप से गुण-दोष इस ११वें समुल्लास में दिखाये जाते हैं।


इस मेरे कर्म से यदि उपकार न मानें तो विरोध भी न करें; क्योंकि मेरा तात्पर्य किसी की हानि वा विरोध करने में नहीं किन्तु सत्यासत्य का निर्णय करने-कराने का है। इसी प्रकार सब मनुष्यों को न्यायदृष्टि से वर्तना अति उचित है। मनुष्य-जन्म का होना सत्यासत्य के निर्णय करने-कराने के लिये है, न कि वादविवाद-विरोध करने-कराने के लिये।


इसी मतमतान्तर के विवाद से जगत् में जो-जो अनिष्ट फल हुए, होते हैं और होंगे, उनको पक्षपातरहित विद्वज्जन जान सकते हैं। जब-तक इस मनुष्य जाति में परस्पर मिथ्या मतमतान्तर का विरुद्धवाद न छूटेगा तब-तक अन्योन्य को आनन्द न होगा। यदि हम सब मनुष्य और विशेषकर विद्वज्जन ईर्ष्या-द्वेष छोड़ सत्यासत्य का निर्णय करके सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना-कराना चाहें तो हमारे लिये यह बात असाध्य नहीं है। 


यह निश्चय है कि इन [मत-मतान्तर वाले] विद्वानों के विरोध ने ही सबको विरोध-जाल में फसा रक्खा है। यदि ये लोग अपने प्रयोजन में न फसकर सबके प्रयोजन को सिद्ध करना चाहैं तो अभी ऐक्यमत हो जायें। इसके होने की युक्ति इस ग्रन्थ की पूर्त्ति में लिखेंगे। सर्वशक्तिमान् परमात्मा एक मत में प्रवृत्त होने का उत्साह सब मनुष्यों के आत्माओं में प्रकाशित करे।


 ॥अलमतिविस्तरेण विपश्चिद्वरशिरोमणिषु॥



अथैकादशसमुल्लासारम्भः


अथाऽऽर्यावर्तीयमतखण्डनमण्डने विधास्यामः


अब आर्य लोगों के, जो कि 'आर्यावर्त' देश में वसनेवाले हैं उनके मत का खण्डन तथा मण्डन का विधान करेंगे।


यह आर्यावर्त देश ऐसा देश है जिसके सदृश भूगोल में दूसरा कोई देश नहीं है, इसीलिये इस भूमि का नाम 'सुवर्णभूमि' है; क्योंकि यही सुवर्णादि रत्नों को उत्पन्न करती है। इसीलिये सृष्टि के आदि में आर्य लोग इसी देश में आकर वसे। इसलिये हम सृष्टिविषय में कह आये हैं कि 'आर्य' नाम ‘उत्तम पुरुषों' का है और आर्यों से भिन्न मनुष्यों का नाम 'दस्यु' है। जितने भूगोल में देश हैं, वे सब इसी देश की प्रशंसा करते और [इसी से] आशा रखते हैं। 'पारसमणि' पत्थर सुना जाता है, वह बात तो झूठी है, परन्तु आर्यावर्त देश ही सच्चा ‘पारसमणि' है कि जिसको लोहेरूप दरिद्र विदेशी छूते के साथ ही ‘सुवर्ण' अर्थात् धनाढ्य हो जाते हैं।


सृष्टि से लेके पांच सहस्र वर्षों से पूर्व समय पर्यन्त आर्यों का 'सार्वभौम चक्रवर्ती' अर्थात् भूगोल में सर्वोपरि एकमात्र राज्य था; अन्य देशों में माण्डलिक अर्थात् छोटे-छोटे राजा रहते थे, क्योंकि कौरव-पाण्डव पर्यन्त यहां के राजा और राज-शासन में सब भूगोल के सब राजा और प्रजा चलते थे, यह, 'मनुस्मृति' जो सृष्टि के आदि में हुई है, उसका प्रमाण है―


एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। 

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन् पृथिव्यां सर्वमानवाः॥


मनु० [२।२०] ॥


'इसी आर्यावर्त देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मण अर्थात् विद्वानों से भूगोल के सब मनुष्य ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, दस्यु, म्लेच्छ आदि अपने-अपने योग्य चरित्रों की शिक्षा और विद्याभ्यास करें।'


और महाराजे युधिष्ठिर जी के राजसूय-यज्ञ और महाभारतयुद्ध पर्यन्त यहां के राज्याधीन सब राज्य थे। सुनो! चीन का भगदत्त, अमेरिका का बभ्रुवाहन, यूरोप का विडालाक्ष अर्थात् मार्जार के सदृश आँखवाला 'यवन' जिसको 'यूनान' कह आये और ईरान का शल्य आदि सब राजा राजसूय-यज्ञ और महाभारत-युद्ध में आज्ञानुसार आये थे। जब रघुगण राजा थे, तब रावण भी यहां के आधीन था। जब रामचन्द्र के समय में विरुद्ध हो गया, तो उसको रामचन्द्र ने दण्ड देकर राज्य से नष्ट कर उसके भाई विभीषण को राज्य दिया।


स्वायंभुव [मनु] राजा से लेकर पाण्डवपर्यन्त आर्यों का चक्रवर्ती राज्य रहा। तत्पश्चात् आपस के विरोध से लड़कर नष्ट हो गये; क्योंकि परमात्मा की इस सृष्टि में अभिमानी, अन्यायकारी, अविद्वान् लोगों का राज्य बहुत दिन नहीं चलता। और यह संसार की स्वाभाविक प्रवृत्ति है कि जब असंख्य=बहुत-सा धन प्रयोजन से अधिक होता है तब आलस्य, पुरुषार्थरहितता, ईर्ष्या-द्वेष, विषयासक्ति और प्रमाद बढ़ता है। इससे देश में विद्या, सुशिक्षा नष्ट होकर दुर्गुण और दुष्ट व्यसन बढ़ जाते हैं, जैसे कि मद्य-मांस का सेवन, बाल्यावस्था में विवाह और स्वेच्छाचारादि दोष बढ़ जाते हैं। और जब युद्धविभाग में युद्धविद्या का कौशल और सेना इतनी बढ़े कि जिसका सामना करनेवाला भूगोल में दूसरा न हो, तब उन लोगों में पक्षपात, अभिमान बढ़कर अन्याय बढ़ जाता है। जब ये दोष हो जाते हैं तब आपस में विरोध होकर अथवा उनसे अधिक दूसरे छोटे कुलों में से कोई ऐसा समर्थ पुरुष खड़ा होता है कि उनका पराजय करने में समर्थ होवे, जैसे मुसलमानों की बादशाही के सामने शिवाजी, गोविन्दसिंह जी ने खड़े होकर मुसलमानों के राज्य को छिन्न-भिन्न कर दिया।


अथ किमेतैर्वा परेऽन्ये महाधनुर्धराश्चक्रवर्तिनः केचित् सुद्युम्नभूरिद्युम्नेन्द्रद्युम्नकुवलयाश्वयौवनाश्ववद्ध्यश्वाश्वपतिः शशविन्दुर्हरिश्चन्द्रोऽम्बरीषोननक्तुशर्यातिययातिरनरण्याक्षसेनोऽथ मरुत्तभरतप्रभृतयो राजानः॥


मैत्रायणी उप० [प्रपा० १। खं० ५]

 

इत्यादि प्रमाणों से सिद्ध है कि सृष्टि से लेकर महाभारत-पर्यन्त चक्रवर्ती= सार्वभौम राजा आर्यकुल में ही हुए थे। अब इनके सन्तानों का अभाग्योदय होने से, राजभ्रष्ट होकर विदेशियों के पादाक्रान्त हो रहे हैं। जैसे यहां सुद्युम्न, भूरिद्युम्न, इन्द्रद्युम्न, कुवलयाश्व, यौवनाश्व, वद्धृयश्व, अश्वपति, शशविन्दु, हरिश्चन्द्र, अम्बरीष, ननक्तु, शर्याति, ययाति, अनरण्य, अक्षसेन, मरुत्त और भरत सार्वभौम= सब भूमि में प्रसिद्ध' चक्रवर्ती राजाओं के नाम लिखे हैं, वैसे स्वायम्भुव-आदि चक्रवर्ती राजाओं के नाम 'मनुस्मृति', 'महाभारत'-आदि ग्रन्थों में स्पष्ट लिखे हैं। इसको मिथ्या करना अज्ञानी और पक्षपातियों का काम है।


प्रश्न―जो आग्नेयास्त्र आदि विद्यायें लिखी हैं, सो सत्य हैं वा नहीं? और तोप तथा बन्दूक उस समय में थीं, वा नहीं?


उत्तर―ये बातें सच्ची हैं, ये शस्त्र भी थे। क्योंकि ‘पदार्थविद्या' से इन सब बातों का सम्भव है। 


प्रश्न―क्या ये देवताओं के मन्त्रों से सिद्ध होते थे?


उत्तर―नहीं, ये सब अस्त्र पदार्थों से सिद्ध करते थे। 'मन्त्र' अर्थात् विचार से सिद्ध करते और चलाते थे, और जो मन्त्र अर्थात् शब्दमय होता है, उससे कोई द्रव्य उत्पन्न नहीं होता। और जो कोई कहे कि मन्त्र से अग्नि उत्पन्न होता है तो वह मन्त्र के जप करनेवाले के हृदय और जीभ में मन्त्र से अग्नि उत्पन्न होकर हृदय और जिह्वा को भस्म कर देवे, ‘मारने जाय शत्रु को और मर रहे आप'। इसलिये 'मन्त्र' नाम है विचार का, जैसे राजमन्त्री अर्थात् 'राजकर्मों का विचार करने वाला' कहाता है, वैसे 'मन्त्र' अर्थात् विचार से सब सृष्टि के पदार्थों का प्रथम ज्ञान और पश्चात् क्रिया करने से अनेक प्रकार के पदार्थ और क्रियाकौशल उत्पन्न होते हैं।


जैसे, कोई एक लोहे का बाण वा गोला बनाकर उसमें ऐसे पदार्थ रक्खे कि जो अग्नि के लगाने से वायु में धुआं फैलने और सूर्य की किरण वा वायु का स्पर्श होने से अग्नि जल उठे, इसी का नाम 'आग्नेयास्त्र' है। जब दूसरा इसका निवारण करना चाहे, तो उसी पर 'वारुणास्त्र' छोड़ दे; अर्थात् जैसे शत्रु ने शत्रु की सेना पर आग्नेयास्त्र छोड़कर नष्ट करना चाहा, वैसे ही अपनी सेना के रक्षार्थ सेनापति वारुणास्त्र से आग्नेयास्त्र का निवारण करे। वह ऐसे द्रव्यों के योग से होता है जिसका धुआं वायु का स्पर्श होते ही बद्दल होके झट वर्षने लग जावे, [ और ] अग्नि को बुझा देवे। ऐसे ही 'नागपाश' अर्थात् जो शत्रु पर छोड़ने से उसके अङ्गों को जकड़के बांध लेता है। वैसे ही एक 'मोहनास्त्र' अर्थात् जिसमें नशे की चीज डालने से, जिसके धुएँ के लगने से, सब शत्रु की सेना निद्रास्थ अर्थात् मूर्छित हो जाय। इसी प्रकार सब शस्त्रास्त्र होते थे। और एक तार से, वा सीसे से अथवा किसी और पदार्थ से विद्युत् उत्पन्न करके शत्रुओं का नाश करते थे, उसको भी 'आग्नेयास्त्र' तथा 'पाशुपतास्त्र' कहते हैं।


'तोप' और 'बन्दूक' नाम अन्य देश-भाषाओं के हैं, ये संस्कृत और आर्यावर्तीय भाषाओं के नहीं। जिसको विदेशी लोग 'तोप' कहते हैं, संस्कृत और आर्यभाषा में उसका नाम 'शतघ्नी', है, और जिसको 'बन्दूक' कहते हैं, उसका नाम संस्कृत और आर्यभाषा में 'भुशुण्डी' है। जो 'संस्कृत-विद्या' को नहीं पढ़े और इस देश की भाषाओं को भी ठीक-ठीक नहीं जानते, वे भ्रम में पड़कर कुछ-का-कुछ लिखते और कुछ-का-कुछ बकते हैं, उसका बुद्धिमान् लोग प्रमाण नहीं कर सकते।


और जितनी विद्या भूगोल में फैली है, वह सब आर्यावर्त देश से मिश्र-वालों, उनसे यूनान, उनसे रोम और उनसे यूरोपीय-देशों में, उनसे अमेरिका आदि देशों में फैली है। अब तक जितना प्रचार 'संस्कृत-विद्या' का आर्यावर्त देश में है उतना किसी अन्य देश में नहीं। जो लोग कहते हैं कि जर्मन देश में 'संस्कृत-विद्या' का बहुत प्रचार है, और जितना संस्कृत मोक्षमूलर साहब पढ़े हैं उतना कोई नहीं पढ़ा, यह बात कहना मात्र है; क्योंकि 'यस्मिन्देशे द्रुमो नास्ति तत्रैरण्डोऽपि द्रुमायते' अर्थात् जिस देश में कोई वृक्ष नहीं होता, उस देश में एरण्ड को ही बड़ा वृक्ष मान लेते हैं। वैसे ही यूरोपीय-देशों में संस्कृत विद्या का प्रचार न होने से जर्मन लोगों और मोक्षमूलर साहब ने थोड़ा-सा पढ़ा, वही उस देश के लिये अधिक है; परन्तु आर्यावर्त देश की ओर देखें, तो उनकी बहुत न्यून गणना है, क्योंकि मैंने जर्मन देश के निवासी एक प्रिन्सिपल के पत्र से जाना कि जर्मन देश में संस्कृत-चिट्ठी का पूर्ण अर्थ करनेवाले भी बहुत कम हैं। और मोक्षमूलर साहब का संस्कृत-साहित्य और थोड़ी-सी वेद की व्याख्या देखकर मुझको विदित होता है कि मोक्षमूलर साहब ने इधर-उधर आर्यावर्तीय लोगों की की हुई टीकायें देखकर कुछ-कुछ यथा-तथा लिखा है। जैसे कि―


'यु॒ञ्जन्ति ब्र॒ध्नम॑रु॒षं चर॑न्तं॒ परि॑ त॒स्थुषः॑। रोच॑न्ते रोच॒ना दि॒वि॥'


 [ऋग्० १।६।१]


इस मन्त्र का अर्थ 'घोड़ा' [-परक] किया है। इससे तो जो सायणाचार्य ने 'सूर्य' [-परक] अर्थ किया है, सो अच्छा है। परन्तु इसका ठीक अर्थ 'परमात्मा' [ -परक ] है, सो मेरी बनाई 'ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका' में देख लीजिये। उसमें इस मन्त्र का अर्थ 'यथार्थ' किया है। इतने से जान लीजिये कि जर्मन देश और मोक्षमूलर साहब में 'संस्कृत-विद्या' का कितना पाण्डित्य है।


यह निश्चय है कि जितनी विद्या और मत भूगोल में फैले हैं, वे सब आर्यावर्त देश से ही प्रचरित हुए हैं। देखो, एक जैकालियट साहब पेरिस अर्थात् फ्रांस देश निवासी अपनी 'द बाइबल इन इण्डिया' में लिखते हैं कि―"सब विद्याओं और भलाइयों का भण्डार आर्यावर्त देश है और सब विद्यायें तथा मत इसी देश से फैले हैं, और परमात्मा से प्रार्थना करते हैं कि "हे परमेश्वर! जैसी उन्नति आर्यावर्त देश की पूर्व काल में थी, वैसी ही हमारे देश की कीजिये", सो उस ग्रन्थ में देख लो। तथा दाराशिकोह बादशाह ने भी यही निश्चय किया था कि 'जैसी पूरी विद्या संस्कृत में है, वैसी किसी भाषा में नहीं।' वे ऐसा उपनिषदों के भाषान्तर में लिखते हैं कि―"मैंने अरबी आदि बहुत-सी भाषायें पढ़ीं, परन्तु मेरे मन का सन्देह छूटकर आनन्द न हुआ। जब संस्कृत देखा और सुना तब निःसन्देह होकर मुझको बड़ा आनन्द हुआ है।"


देखो, काशी के 'मान-मन्दिर' में शिशुमारचक्र को, कि जिसकी पूरी रक्षा भी नहीं रही है, तो भी कितना उत्तम है कि जिसमें अब तक भी खगोल का बहुत-सा वृत्तान्त विदित होता है। जो 'सवाई जयपुराधीश' उसकी संभाल और टूटे-फूटे को बनवाया करेंगे तो बहुत अच्छा होगा।


परन्तु ऐसे शिरोमणि देश को महाभारत-युद्ध ने ऐसा धक्का दिया कि अब तक भी यह अपनी पूर्व दशा में नहीं आया। क्योंकि जब भाई को भाई मारने लगे तो नाश होने में क्या सन्देह? 


विनाशकाले विपरीतबुद्धिः॥


[चाणक्यनीतिदर्पण अ० १६ । श्लो० ५]॥ 


यह किसी कवि का वचन ठीक है कि 'जब नाश होने का समय निकट आता है तब उलटी बुद्धि होकर उलटे काम करते हैं।' कोई उनको सूधा समझावे तो उलटा मानें और उलटा समझावें उसको सूधा मानें। जब बड़े-बड़े विद्वान्, राजे- महाराजे, ऋषि-महर्षि लोग, महाभारत युद्ध में बहुत-से मारे गये और बहुत-से मर गये, तब विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार नष्ट हो चला। ईर्ष्या, द्वेष, अभिमान आपस में करने लगे, जो बलवान् हुआ वह देश को दाबकर राजा बन बैठा। वैसे ही सर्वत्र आर्यावर्त देश में खण्ड-बण्ड राज्य हो गया। पुनः द्वीप-द्वीपान्तरों के राज्य की व्यवस्था कौन करे? 


जब ब्राह्मण लोग विद्याहीन हुये तब क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों के अविद्वान् होने की तो कथा ही क्या कहनी? जो परम्परा से वेदादि शास्त्रों का अर्थसहित पढ़ने का प्रचार था, वह भी छूट गया। केवल जीविकार्थ पाठमात्र ब्राह्मण लोग पढ़ते रहे, सो पाठमात्र भी क्षत्रिय आदि को न पढ़ाया। क्योंकि जब 'अविद्वान् हुए' गुरु बन गये, तब छल-कपट, अधर्म भी उनमें बढ़ता चला। ब्राह्मणों ने विचारा कि अपनी जीविका का प्रबन्ध बांधना चाहिये। सम्मति करके, यही निश्चय कर, क्षत्रिय आदि को उपदेश करने लगे कि 'हम ही तुम्हारे पूज्यदेव हैं'। विना हमारी सेवा किये तुमको स्वर्ग वा मुक्ति न मिलेगी। किन्तु जो तुम हमारी सेवा न करोगे, तो घोर नरक में पड़ोगे। जो-जो पूर्ण विद्यावाले धार्मिकों का नाम 'ब्राह्मण' [है], और वे पूजनीय [हैं, ऐसा] ऋषि-मुनियों के शास्त्रों में लिखा था, उसको अपने मूर्ख, विषयी, कपटी, लम्पट, अधर्मियों पर घटा बैठे। भला, वे आप्त विद्वानों के लक्षण इन मूर्खो में कब घट सकते हैं? परन्तु जब क्षत्रियादि यजमान ‘संस्कृत-विद्या' से अत्यन्त रहित हुये, तब उनके सामने जो-जो गप्पें मारी, सो-सो बेचारों ने सब मान ली। तब इन नाममात्र ब्राह्मणों की बन पड़ी। सबको अपने वचन-जाल में बाँधकर वशीभूत कर लिया; और कहने लगे कि―ब्रह्मवाक्यं जनार्दनः॥


अर्थात् जो ब्राह्मणों के मुख से वचन निकलता है, वह जानो साक्षात् भगवान् के मुख से निकला है।


जब क्षत्रियादि वर्ण 'आंख के अन्धे और गांठ के पूरे' अर्थात् भीतर विद्या की आँख फूटी हुई और जिनके पास धन पुष्कल है, ऐसे-ऐसे चेले मिले; फिर इन व्यर्थ 'ब्राह्मण' नाम-वालों को विषयानन्द का उपवन मिल गया। यह भी उन लोगों ने प्रसिद्ध किया कि जो कुछ पृथिवी में उत्तम पदार्थ हैं, वे सब ब्राह्मणों के लिये हैं, अर्थात् जो गुण, कर्म, स्वभाव से ब्राह्मणादि वर्णव्यवस्था थी, उसको नष्टकर, जन्म पर रखा और मृतक तथा स्त्री पर्यन्त का भी दान यजमानों से लेने लगे। जैसी अपनी इच्छा हुई वैसा करते चले। यहां तक कहा कि 'हम भूदेव हैं', हमारी सेवा के विना देवलोक किसी को नहीं मिल सकता। इनसे पूछना चाहिये कि तुम किस लोक में पधारोगे? तुम्हारे काम तो घोर नरक भोगने के हैं; [अतः] कृमि, कीट बनोगे। तब तो बड़े क्रोधित होकर कहते हैं―"हम शाप देंगे, तुम्हारा नाश हो जायगा, क्योंकि लिखा है―


'ब्रह्मद्वेषी विनश्यति'=ब्राह्मणों से द्वेष करनेवाला नष्ट हो जाता है।"


हाँ, यह बात तो सच्ची है कि सम्पूर्ण वेद और परमात्मा को जाननेवाले, धर्मात्मा, सब जगत् के उपकारक पुरुषों से जो कोई द्वेष करेगा, वह अवश्य नष्ट होगा। परन्तु जो ब्राह्मण नहीं हों उनका न 'ब्राह्मण' नाम और न उनकी सेवा करनी योग्य है। परन्तु तुम तो ब्राह्मण' [ही] नहीं हो।


प्रश्न―तो हम कौन हैं? 


उत्तर―तुम ‘पोप' हो। 


प्रश्न―'पोप' किसको कहते हैं?


उत्तर―असल इसकी, रोमन भाषा में तो 'बड़े' का और 'पिता' का नाम 'पोप' है, परन्तु अब छलकपट से दूसरे को ठगकर अपना प्रयोजन साधनेवाले को 'पोप' कहते हैं।


प्रश्न―हम तो ब्राह्मण और साधु हैं; क्योंकि हमारा पिता ब्राह्मण और माता ब्राह्मणी [है] तथा हम अमुक साधु के चेले हैं।


उत्तर―यह सच है, परन्तु सुनो भाई! मा-बाप ब्राह्मणी-ब्राह्मण होने से और किसी साधु के शिष्य होने पर ब्राह्मण वा साधु नहीं हो सकते, किन्तु ब्राह्मण और साधु अपने उत्तम गुण, कर्म, स्वभाव से होते हैं, जो कि परोपकारी हों। 


सुना है कि जैसे रोम के 'पोप' अपने चेलों को कहते थे कि तुम अपने पाप हमारे सामने कहोगे, तो हम क्षमा कर देंगे। विना हमारी सेवा और आज्ञा के कोई भी स्वर्ग में नहीं जा सकता। जो तुम स्वर्ग में जाना चाहो तो हमारे पास जितने रुपये जमा करोगे उतने [रुपयों ]की ही सामग्री स्वर्ग में तुमको मिलेगी। जब कोई लाख रुपये स्वर्ग की इच्छा करके 'पोप जी' को देता था, तब वे 'पोप जी' ईसा और मरियम की मूर्ति के सामने ऐसी हुण्डी लिखकर देते थे―


"हे खुदाबन्द ईसा मसी! अमुक मनुष्य ने तेरे नाम पर लाख रुपये स्वर्ग में आने के लिये हमारे पास जमा कर दिये हैं। जब वह स्वर्ग में आवे तब तू अपने पिता के स्वर्ग के राज्य में पच्चीस सहस्र रुपयों में बाग-बगीचे, मकान; पच्चीस सहस्र में सवारी, नौकर-चाकर; पच्चीस सहस्र में खाने-पीने, कपड़ों, सोने-बैठने का सब सराजाम२ और पच्चीस सहस्र इसके इष्ट मित्रों की जियाफ़त आदि के वास्ते दिला देना। वैसे हुंडी सिकार देना।" ―सही, पोप जी की। 


फिर उस हुण्डी के नीचे पोप जी आप 'सही' करके हुण्डी उसको देकर कहते थे कि “जब तू मरे तब यह हुण्डी भी कब्र में अपने सिरहाने गाड़ने के लिये अपने कुटुम्ब को कह रखना। जब तुझे ले जाने के लिये फरिश्ते आवेंगे तब तुझको और हुण्डी को ले जायेंगे और उसमें लिखे प्रमाणे चीजें तुझे दिला लेंगे।


अब देखिये, जानो, स्वर्ग के ठेकेदार पोप जी ही हैं। जब-तक यूरोपीय देशों में मूर्खता थी, तब तक वहां पोपलीला चलती थी। अब विद्या के होने से झूठी लीला बहुत करके नहीं चलती, किन्तु निर्मूल भी नहीं हुई।


वैसे ही आर्यावर्त देश में भी 'पोप' जी जानो लाखों अवतार लेकर लीला फैला रहे हैं; अर्थात् राजा और प्रजा को विद्या न पढ़ाने, अच्छे पुरुषों का सत्सङ्ग न होने देने, [और] रात-दिन बहकाने के सिवाय दूसरा कुछ भी काम नहीं करते। परन्तु यह ध्यान में रखना कि जो-जो कपट-छल की लीला करते हैं, वे ही 'पोप' कहाते हैं; जो उनमें भी धार्मिक विद्वान्, परोपकारी हैं, वे सच्चे ब्राह्मण और साधु हैं। अब उन्हीं छली-कपटी स्वार्थी लोगों, 'मनुष्यों को ठगकर अपने प्रयोजन सिद्ध करनेवालों' का ही ग्रहण 'पोप' शब्द से करना और 'ब्राह्मण' तथा 'साधु' नाम से उत्तम पुरुषों का स्वीकार करना योग्य है।


देखो, जो कोई भी उत्तम ब्राह्मण वा साधु न होता, तो वेद-शास्त्र-आदि पुस्तकों का स्वरसहित पठन-पाठन, जैन, मुसलमान और ईसाई आदि से बचाकर आर्यों को वेदादि शास्त्रों में प्रीतियुक्त और वर्णाश्रम में रखना कौन कर सकता? 


'विषादप्यमृतं ग्राह्यम्।'


मनु० [२।२३९]॥

 

विष से भी अमृत के ग्रहण करने के समान, पोपलीला से बहकाने से भी आर्यों का जैन आदि मतों से बच रहना, विष में अमृत के समान गुण समझना चाहिये।


जब यजमान विद्याहीन हुए और आप कुछ पाठ-पूजा पढ़कर, अभिमान में आके, सब लोगों ने सम्मति करके राजा आदि से कहा कि 'ब्राह्मण और साधु अदण्ड्य हैं,' देखो― 'ब्राह्मणो न हन्तव्यः' (महाभाष्य १.२.६४) 'साधुन हन्तव्यः', ऐसे-ऐसे वचन जो कि सच्चे ब्राह्मण और सच्चे साधुओं के विषय में थे, सो पोपों ने अपने ऊपर घटा लिये। और बहुत-से झूठे-झूठे वचनयुक्त ग्रन्थ बनाकर, उनमें ऋषि-मुनियों के नाम धरके, उन्हीं के नाम से सुनाते रहे। उन प्रतिष्ठित ऋषि-महर्षियों के नाम से 'अविद्वान्' लोगों को मानने लगे। पश्चात् जब अपने ऊपर से दण्ड की व्यवस्था उठवा दी, तो पुनः यथेष्टाचार करने लगे, अर्थात् ऐसे कड़े नियम चलाये कि उन पोपों की आज्ञा के विना सोना, उठना-बैठना, जाना-आना, खाना-पीना आदि भी नहीं कर सकते थे। राजाओं को ऐसा निश्चय कराया कि पोपसंज्ञक कहनेमात्र के ब्राह्मण [और] साधु चाहे सो करें, उनको कभी दण्ड न देना अर्थात् उन पर मन में दण्ड देने की इच्छा [भी] न करनी चाहिये। 


जब ऐसी मूर्खता हुई, तब जैसी 'पोपों' की इच्छा हुई, वैसा करने-कराने लगे। अर्थात् इस बिगाड़ के मूल महाभारत युद्ध से पूर्व एक सहस्त्र वर्ष से प्रवृत्त हुए थे। क्योंकि उस समय में ऋषि-मुनि भी थे तथापि कुछ-कुछ आलस्य, प्रमाद, ईर्ष्या, द्वेष के अंकुर उगे थे; वे बढ़ते-बढ़ते वृक्ष हो गये। जब सच्चा उपदेश न रहा तब आर्यावर्त में अविद्या फैलने से परस्पर लड़ने-झगड़ने लगे क्योंकि―


उपदेश्योपदेष्टृत्वात् तत्सिद्धिः॥ इतरथान्धपरम्परा॥ 


सांख्यसूत्र हैं। [अ० ३ । सू० ७९, ८१]


जब उत्तम-उत्तम उपदेशक होते हैं तब अच्छे प्रकार धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष सिद्ध होते हैं, और जब उत्तम उपदेशक और श्रोता नहीं रहते तब अन्धपरम्परा चलती है। फिर भी जब सत्पुरुष होकर सत्योपदेश करते हैं, तभी अन्धपरम्परा नष्ट होकर प्रकाश की परम्परा चलती है।


पुन: वे 'पोप' लोग अपनी और अपने चरणों की पूजा कराने लगे और कहने लगे कि इसी में तुम्हारा कल्याण है। जब ये लोग उनके वश में हो गये, तब प्रमाद और विषयासक्ति में निमग्न होकर गडरिये के समान झूठे गुरु और चेले फसे। विद्या, बल, बुद्धि, पराक्रम, शूरवीरतादि शुभगुण सब नष्ट होते चले गये। पश्चात् जब विषयाक्त हुए तो मांस-मद्य का सेवन गुप्त-गुप्त करने लगे।


पश्चात् उन्हीं में से एक वाममार्ग खड़ा किया। 'शिव उवाच' 'पार्वत्युवाच' 'भैरव उवाच' इत्यादि नाम लिखकर उन [ग्रन्थों] का 'तन्त्र' नाम धरा। उनमें ऐसी-ऐसी विचित्र लीला की बातें लिखीं कि―


मद्यं मांसं च मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च। 

एते पञ्च मकाराः स्युर्मोक्षदा हि युगे युगे॥१॥


[तुलना-कौलावलीनिर्णय ४ । २४-२८; महानिर्वाणतन्त्र १।५७, ५। २२ आदि]॥ 


प्रवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णा द्विजातयः। 

निवृत्ते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णाः पृथक्-पृथक्॥२॥


[कौलावलीनिर्णय ८।४८-४९; महानिर्वाणतन्त्र ८।१७-९; कुलार्णवतन्त्र ८।९६]॥


पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावत्पतति भूतले। 

पुनरुत्थाय वै पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते॥३॥


 [कुलार्णवतन्त्र ७।१००]॥


मातृयोनिं परित्यज्य विहरेत् सर्वयोनिषु॥४॥  

वेदशास्त्रपुराणानि सामान्यगणिका इव। 

एकैव शाम्भवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव॥५॥


[ज्ञानसंकलनीतन्त्र; हठयोगप्रदीपिका उपदेश ४।३५]॥ 


देखो, इन गवरगण्ड पोपों की लीला कि जो वेदविरुद्ध महा-अधर्म के काम हैं उन्हीं को श्रेष्ठ, वाममार्गियों ने माना। मद्य, मांस, मीन अर्थात् मच्छी; मुद्रा=पूरी, बड़े, रोटी आदि चर्वण, योनि अर्थात् पात्राधार मुद्रा और पांचवां मैथुन अर्थात् पुरुष सब 'शिव' और स्त्रियां सब 'पार्वती' के समान मानकर―


"अहं भैरवस्त्वं भैरवी ह्यावयोरस्तु सङ्गमः॥" 


 [कुलार्णवतन्त्र, उल्लास ८।९७, १०२]॥


चाहे कोई पुरुष वा स्त्री हो, इस ऊट-पटांग वचन को पढ़के, समागम करने में वे वाममार्गी दोष नहीं मानते। अर्थात् जिन अपवित्र स्त्रियों को छूना [उचित] नहीं, उनको अतिपवित्र उन्होंने माना है; जैसे, शास्त्रों में रजस्वला आदि स्त्रियों के स्पर्श का निषेध है, उनको वाममार्गियों ने अतिपवित्र माना है। सुनो, इनका श्लोक अंड-बंड―


रजस्वला पुष्करं तीर्थं चाण्डाली तु स्वयं काशी चर्मकारी प्रयागः स्याद्रजकी मथुरा मता। अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता॥ 


इत्यादि [रुद्रयामलतन्त्र] ॥


रजस्वला के साथ समागम करने से जानो पुष्कर का स्नान, चाण्डाली से समागम से काशी की यात्रा, चमारी से समागम करने से मानो प्रयागस्नान, धोबी की स्त्री के साथ समागम करने से मथुरायात्रा और कंजरी के साथ लीला करने से मानो अयोध्या-तीर्थ कर आये। मद्य का नाम 'तीर्थ', मांस का नाम 'शुद्धि' और 'पुष्प', मच्छी का नाम 'तृतीया' और 'जलतुम्बिका', मुद्रा का नाम 'चतुर्थी', और मैथुन का नाम 'पञ्चमी'; इसलिये ये नाम रक्खे हैं कि जिससे दूसरा न समझ सके। अपने नाम कौल, आर्द्र, वीर, शाम्भव और गण आदि रक्खे हैं और जो वाममार्ग मत में नहीं हैं, उनके 'कण्टक', 'विमुख', 'शुष्कपशु' आदि नाम धरे हैं॥१॥ 


और कहते हैं कि जब भैरवीचक्र [प्रवृत्त] हो तब उसमें ब्राह्मण से लेकर चाण्डाल-पर्यन्त का नाम 'द्विज' हो जाता है और जब भैरवीचक्र से अलग हों, तब सब अपने-अपने वर्णस्थ हो जायें॥२॥


भैरवीचक्र में वाममार्गी लोग भूमि वा पट्टे पर एक बिन्दु, त्रिकोण, चतुष्कोण [वा] वर्तुलाकार बनाकर उसपर मद्य का घड़ा रखके उसकी पूजा करते हैं; फिर ऐसा मन्त्र पढ़ते हैं―


'ब्रह्मशापं विमोचथ'= हे मद्य! तू ब्रह्मा आदि के शाप से रहित हो।


एक गुप्त स्थान में, कि जहां सिवाय वाममार्गी के दूसरे को नहीं आने देते, वहां स्त्री और पुरुष इकट्ठे होते हैं। [पुरुष] एक स्त्री को नंगी कर पूजते और स्त्री लोग किसी पुरुष को नंगा कर पूजती हैं। वहां कोई किसी की स्त्री, कोई अपनी वा दूसरे की कन्या, कोई किसी की वा अपनी माता, भगिनी, पूत्रवधू आदि आती हैं। पश्चात् एक पात्र में मद्य भरके, मांस और 'बड़े' आदि एक स्थाली में धर रखते हैं। उस मद्य के प्याले को, जो कि उनका आचार्य होता है, हाथ में लेकर 'भैरवोऽहम्' 'शिवोऽहम्'= 'मैं भैरव वा शिव हूँ' बोलके पी जाता है। उसी जूठे पात्र से सब पीते हैं।


और जब किसी की स्त्री वा वेश्या को नंगी कर अथवा किसी पुरुष को नंगा कर हाथ में तलवार देके उसका नाम देवी और पुरुष का नाम महादेव धरते हैं, और उनकी उपस्थ इन्द्रिय की पूजा करते हैं, तब उस देवी वा शिव को मद्य का प्याला पिलाकर, उसी जूठे पात्र से सब लोग एक-एक प्याला पीते हैं। फिर उसी प्रकार क्रम से पी-पीके उन्मत्त होकर, चाहे कोई किसी की बहिन, कन्या वा माता हो, जिसके साथ जिसकी इच्छा हो, कुकर्म करते हैं। कभी-कभी बहुत नशा चढ़ने से जूतों-लातों से और 'मुष्टामुष्टि'=मुक्का-मुक्की, 'केशा-केशि' एक-दूसरे के [केश नोच-नोचकर] आपस में लड़ते हैं। किसी-किसी को वहीं वमन होता है। उनमें जो पहुँचा हुआ 'अघोरी' अर्थात् सब में सिद्ध गिना जाता है, वह वमन हुई चीज को भी खा लेता है। अर्थात् इनके सबसे बड़े सिद्ध की ये बातें हैं कि―


हालां पिबति दीक्षितस्य मन्दिरे, सुप्तो निशायां गणिकागृहेषु। 

विराजते कौलवचक्रवर्ती॥


[कुलार्णवतन्त्र, उल्लास ९]॥

 

जो 'दीक्षित' अर्थात् कलार के घर में जाके बोतल पर बोतल चढ़ावे, रण्डियों के घर में जाके उनसे कुकर्म करके सोवे इत्यादि कर्म जो निर्लज्ज, निःशंक होकर करे, वही वाममार्गियों में सर्वोपरि-मुख्य, चक्रवर्ती राजा के समान माना जाता है; अर्थात् जो बड़ा कुकर्मी वही उनमें बड़ा, और जो अच्छे काम करे और बुरे कामों से डरे वही छोटा। क्योंकि―


पाशबद्धो भवेज्जीवः पाशमुक्तः सदा शिवः॥


[ज्ञानसंकलनीतन्त्र, श्लो० ४३]॥ 


ऐसा 'तन्त्र' में कहते हैं कि जो लोकलज्जा, शास्त्रलज्जा, कुललज्जा, देशलज्जा आदि पाशों में बँधा है वह 'जीव', और जो निर्लज्ज होकर बुरे काम करे, वही 'सदा-शिव' है॥२॥ 


'उड्डीस तन्त्र' आदि में एक प्रयोग लिखा है कि एक घर में चारों ओर आलय हों। उनमें मद्य की बोतल भरके धर देवे। इस आलय से एक बोतल पीके, दूसरे आलय पर जावे। उसमें से पीके तीसरे और तीसरे में से पीके चौथे आलय पर जावे। खड़ा-खड़ा तब तक मद्य पीवे कि जब तक लकड़ी के तुल्य पृथिवी पर न गिर पड़े। फिर जब नशा उतरे तब उसी प्रकार पीके गिर पड़े। और पुनः तीसरी वार इसी प्रकार पीके, गिरके उठे, तो उसका पुनर्जन्म न हो; अर्थात् सच तो यह है कि ऐसे मनुष्यों का पुनः मनुष्यजन्म होना ही कठिन है, अपितु वे नीच योनि में [गिरकर] बहुकालपर्यन्त पड़े रहेंगे॥३॥ 


वामियों के तन्त्र-ग्रन्थों में यह नियम है कि एक माता को छोड़के किसी स्त्री को न छोड़ना चाहिये' अर्थात् चाहे कन्या वा भगिनी आदि क्यों न हो; सबके साथ संगम करना चाहिये। इन वाममार्गियों में दश महाविद्यायें प्रसिद्ध हैं, उनमें से एक मातङ्गी विद्यावाला कहता है कि 'मातरमपि न त्यजेत्' अर्थात् माता को भी समागम किये विना न छोड़ना चाहिये। और स्त्री-पुरुष के समागम समय में मन्त्र जपते हैं कि हमको सिद्धि प्राप्त हो जाय। ऐसे पागल मनुष्य भी संसार में बहुत न्यून होंगे॥४॥


जो मनुष्य झूठ चलाना चाहता है, वह सत्य की निन्दा अवश्य ही करता है। देखो, ये वाममार्गी क्या कहते हैं―'वेद, शास्त्र और पुराण ये सब सामान्य वेश्याओं के तुल्य हैं और जो यह 'शाम्भवी' वाममार्ग की मुद्रा है, वह गुप्त-कुल की स्त्री के तुल्य है'॥५॥


इसीलिये इन लोगों ने सर्वथा वेदविरुद्ध मत खड़ा किया है। पश्चात् इन लोगों का मत बहुत चला। तब धूर्तता करके वेदों के नाम से भी वाममार्ग की लीला थोड़ी-थोड़ी चलाई। अर्थात्―


सौत्रामण्यां सुरां पिबेत्॥१॥ 


[तु० शत० ब्रा०, कां० १२।३।५।२ तथा ब० ४। कं० ५]॥ 


प्रोक्षितं भक्षयेन्मांसम्॥२॥


[मनु० ५।२७]॥


वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति॥३॥


[तुलना-मनु० ५। ४४]॥

 

न मांसभक्षणे दोषो न मद्ये न च मैथुने। 

प्रवृत्तिरेषा भूतानां निवृत्तिस्तु महाफला॥४॥


मनु० [५ ।५६]

 

'सौत्रामणी' यज्ञ में मद्य पीवे।' इसका [सत्य] अर्थ तो यह है कि सौत्रामणी यज्ञ में 'सोमरस' अर्थात् सोमवल्ली का रस पीये॥१॥


'प्रोक्षित' अर्थात् यज्ञ में मांस खाने में दोष नहीं।' ऐसी पामरपन की बातें वाममार्गियों ने चलाई हैं॥२॥


उनसे पूछना चाहिये कि जो वैदिकी हिंसा हिंसा न हो तो तुझको और तेरे कुटुम्ब को मारके होम कर डालें तो क्या चिन्ता है?॥३॥


मांसभक्षण करने, मद्य पीने, परस्त्रीगमन करने आदि में दोष नहीं है, यह कहना छोकरपन है; क्योंकि विना प्राणियों को पीड़ा दिये मांस प्राप्त ही नहीं होता, और विना अपराध के पीड़ा देना धर्म का काम नहीं। मद्यपान का तो सर्वथा निषेध ही है; क्योंकि अब तक वाममार्गियों के ग्रन्थों के सिवाय किसी ग्रन्थ में नहीं लिखा, किन्तु सर्वत्र निषेध है। और विना विवाह के मैथुन में भी दोष है, इसको निर्दोष कहनेवाला सदोष है॥४॥


ऐसे-ऐसे वचन ऋषियों के ग्रन्थों में भी डालके, कितने ही ऋषि-मुनियों के नाम से ग्रन्थ बनाकर 'गोमेध', 'अश्वमेध' नाम के यज्ञ भी कराने लगे थे। अर्थात् 'इन पशुओं को मारके होम करने से यजमान और पशु को स्वर्ग की प्राप्ति होती है' ऐसी प्रसिद्धि की। निश्चय तो यह है कि जो ब्राह्मणग्रन्थों में अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्द हैं, उनका ठीक-ठीक अर्थ नहीं जाना है; क्योंकि जो जानते तो ऐसा अनर्थ क्यों करते?


प्रश्न―अश्वमेध, गोमेध, नरमेध आदि शब्दों का अर्थ क्या है? 


उत्तर―इनका अर्थ यह है कि―


राष्ट्र वा अश्वमेधः॥


शतपथब्राह्मणे [१३।१।६।३]॥

 

अग्निर्वा अश्वः॥


[३।६।२।५]॥ 


आज्यं मेधः॥ ["मेधो वा आज्यम्"


तैत्ति०ब्रा० ३।९।१२।१]॥ 


अन्नꣳहि गौः॥


[शत० ब्रा० ४।३।१।२५]॥

 

घोड़े, गाय आदि पशुओं तथा मनुष्यों को मारके होम करना कहीं नहीं लिखा। किन्तु यह भी बात वाममार्गियों ने चलाई [है] और जहां-जहां लेख है, वह-वह भी वाममार्गियों ने प्रक्षेप किया है। देखो, राजा द्वारा न्याय-धर्म से प्रजा का पालन करना, विद्यादि का देनेहारा [होना], यजमान होकर अग्नि में घी आदि का होम करना 'अश्वमेध'; अन्न, इन्द्रियाँ, किरण, पृथिवी आदि को पवित्र रखना 'गोमेध'; जब मनुष्य मर जाय, तब उसके शरीर का विधिपूर्वक दाह करना 'नरमेध' कहाता है।


प्रश्न―यज्ञकर्त्ता कहते हैं कि 'यज्ञ करने से यजमान और पशु स्वर्गगामी [होते हैं] ' तथा होम करके फिर पशु को जीवित करते थे; यह बात सच्ची है वा नहीं?


उत्तर―नहीं। जो स्वर्ग को जाते हों तो ऐसी बात कहनेवाले को मार, होमकर, स्वर्ग में पहुँचाना चाहिये; वा उसके प्रिय माता, पिता, स्त्री और पुत्रादि को मार होमकर स्वर्ग में क्यों नहीं पहुँचाते? वा वेदी में से पुन: क्यों नहीं जिला लेते?


प्रश्न―जब यज्ञ करते हैं तब वेदों के मन्त्र पढ़ते हैं। जो वेदों में न होते तो कहां से पढ़ते?


उत्तर―मन्त्र किसी को कहीं पढ़ने से नहीं रोकता, क्योंकि वह एक शब्द है। परन्तु उनका अर्थ ऐसा नहीं है कि ‘पशु को मारके होम करना।' जैसे 'अग्नये स्वाहा' [गो०गृ०सू० १।८।२४] इत्यादि मन्त्रों का अर्थ है―'अग्नि में हवि, पुष्ट्यादिकारक घृतादि उत्तम पदार्थों का होम करने से वायु, वृष्टि, जल शुद्ध होकर जगत् को सुखकारक होते हैं, परन्तु इन सत्य अर्थों को वे मूढ़ नहीं समझते थे; क्योंकि जो स्वार्थबुद्धि होते हैं, वे अपने स्वार्थ को पूरा करने के अतिरिक्त दूसरा कुछ भी नहीं जानते-मानते।


जब इन पोपों का ऐसा अनाचार देखा, और दूसरा, मरे का तर्पण-श्राद्धादि करने को देखकर एक महाभयंकर वेदादि-शास्त्रनिन्दक, 'बौद्ध वा जैन' मत प्रचलित हुआ है। सुनते हैं कि इसी देश में गोरखपुर का राजा था, उससे पोपों ने यज्ञ कराया। उसकी प्रिय राणी का समागम घोड़े के साथ कराने से मरने पर, वैराग्यवान् होकर अपने पुत्र को राज्य दे, साधु हो, पोपों की पोल निकालने लगा। इसी [प्रकार के कारणों से नास्तिक मत] के शाखारूप ‘चार्वाक' और 'आभाणक' मत भी हुए थे। उन्होंने इस प्रकार श्लोक बनाये हैं―


पशुश्चेन्निहतः स्वर्गं ज्योतिष्टोमे गमिष्यति। 

स्वपिता यजमानेन तत्र कथं न हिंस्यते॥१॥

मृतानामिह जन्तूनां श्राद्धं चेत्तृप्तिकारणम्।

गच्छतामिह जन्तूनां व्यर्थं पाथेयकल्पनम्॥२॥


[सर्वदर्शनसंग्रह, चार्वाकदर्शन, श्लो० ४-५]॥ 


जो पशु मारकर अग्नि में होम करने से वह स्वर्ग को जाता है, तो यजमान अपने पिता आदि को मारके स्वर्ग में क्यों नहीं भेजता?॥१॥ 


जो मरे हुए मनुष्यों की तृप्ति के लिये श्राद्ध और तर्पण होता है, तो विदेश में जानेवाले मनुष्य को मार्ग का खर्च खाने-पीने के लिये बाँधना व्यर्थ है; क्योंकि जब मृतक को श्राद्ध-तर्पण से अन्न-जल पहुंचता है, तो जीते हुए परदेश में रहनेवालों वा मार्ग में चलनेहारों को, घर में बनी हुई रसोई का पत्तल परोस, लोटा भरके उसके नाम पर रखने से, क्यों नहीं पहुंचता? जो जीते हुये दूर देश अथवा दश हाथ पर दूर बैठे हुये को दिया हुआ नहीं पहुंचता तो मरे हुए के पास किसी प्रकार नहीं पहुँच सकता ॥२॥ 


उनके ऐसे युक्तिसिद्ध उपदेशों को [प्रजाजन] मानने लगे और उनका मत बढ़ने लगा। जब बहुतसे राजा-रईस उनके मत में हुए, तब पोप जी भी उनकी ओर झुके; क्योंकि इनको जिधर गफ्फा अच्छा मिले, वहीं चले जायें। झट जैन बनने चले। जैनियों में भी और प्रकार की पोपलीला बहुत है, सो १२ वें समुल्लास में लिखेंगे। बहुतों ने इनका मत स्वीकार किया परन्तु कितनेक ही जो पर्वत, काशी, कन्नौज, पश्चिम, दक्षिण देशवाले थे, उन्होंने जैनों का मत स्वीकार नहीं किया था। वे जैनी वेद का अर्थ न जानकर, बाहर की पोपलीला को भ्रान्ति से वेदों पर मानकर, वेदों की भी निन्दा करने लगे। उनके पठन-पाठन, यज्ञोपवीतादि और ब्रह्मचर्यादि नियमों का भी नाश किया। जहाँ जितने पुस्तक वेदादि के पाये, नष्ट किये। आर्यों पर बहुत-सी राजसत्ता भी चलाई, दु:ख दिया। जब उनको भय-शंका न रही, तब अपने मतवाले गृहस्थ और साधुओं की प्रतिष्ठा और वेदमार्गियों का अपमान [करने लगे] और पक्षपात से दण्ड भी देने लगे; और आप ऐशो-आराम और घमण्ड में आ फूलकर, फिरने लगे। ऋषभदेव से लेके महावीर-पर्यन्त अपने तीर्थंकरों की बड़ी-बड़ी मूर्त्तियाँ बनाकर पूजा करने लगे अर्थात् पाषाणादि मूर्त्तिपूजा की जड़ जैनियों से चली, परमेश्वर का मानना न्यून हुआ, पाषाणादि मूर्तिपूजा में लग गये। ऐसा तीन-सौ वर्ष पर्यन्त आर्यावर्त में जैनों का राज रहा। प्रायः आर्य लोग उनमें मिलकर शूद्रप्रायः और वेदार्थ-ज्ञान से शून्य हो गये थे। इस बात को अनुमान से कोई अढ़ाई सहस्त्र वर्ष व्यतीत हुए होंगे।


बाइस-सौ वर्ष हुये कि एक 'शंकराचार्य' द्रविड़देशोत्पन्न ब्राह्मण, ब्रह्मचर्य से व्याकरणादि सब शास्त्रों को पढ़कर सोचने लगे कि 'अहह! सत्य आस्तिक वेद मत का छूटना और जैन नास्तिक मत का चलना, बड़ी ही हानि की बात हुई है, इसको हटाना चाहिये।' शंकराचार्य ने शास्त्र तो पढ़े ही थे, परन्तु जैन मत के भी पुस्तक पढ़े थे; और उनकी युक्ति भी बहुत प्रबल थी। उन्होंने विचारा कि इसको किस प्रकार हटावें? निश्चय हुआ कि उपदेश और शास्त्रार्थ करने से [जैन मत से] ये लोग हटेंगे। ऐसा विचार कर उज्जैन नगरी में आये। वहाँ उस समय 'सुधन्वा' राजा था, जो जैनियों के ग्रन्थ और कुछ संस्कृत भी पढ़ा था। वहाँ जाकर वेद का उपदेश करने लगे और राजा से मिलकर कहा कि आप संस्कृत और जैनियों के भी ग्रन्थों को पढ़े हो, और जैन मत को मानते हो, इसलिये मैं आपको कहता हूँ कि जैनियों के पण्डितों के साथ मेरा शास्त्रार्थ कराइये; इस प्रतिज्ञा पर कि जो हारे सो जीतनेवाले का मत स्वीकार करले और आप भी जीतनेवाले का मत स्वीकार कीजियेगा।' 


यद्यपि सुधन्वा जैन मत में थे तथापि संस्कृत-ग्रन्थ पढ़ने से उनकी बुद्धि में विद्या का कुछ प्रकाश था। इससे उनके मन में अत्यन्त पशुता नहीं छाई थी, क्योंकि जो विद्वान् होता है वह सत्य और असत्य की परीक्षा करके, सत्य को ग्रहण कर लेता है और असत्य को छोड़ देता है। जब तक सुधन्वा राजा को बड़ा विद्वान् उपदेशक नहीं मिला था तब तक सन्देह में थे कि इनमें कौन-सा सत्य और कौन-सा असत्य है? जब शंकराचार्य की यह बात सुनी, तो बड़ी प्रसन्नता के साथ बोले कि हम शास्त्रार्थ कराके सत्यासत्य का निर्णय अवश्य करावेंगे। जैनियों के पण्डितों को दूर-दूर से बुलाकर सभा कराई। उसमें शंकराचार्य का 'वेदमत' और जैनियों का 'वेदविरुद्ध मत' था, अर्थात् शंकराचार्य का पक्ष वेदमत का स्थापन और जैनियों का खण्डन [था]; जैनियों का पक्ष अपने मत का स्थापन और वेद का खण्डन था। शास्त्रार्थ कई दिनों तक हुआ। जैनियों का मत यह था कि―'सृष्टि का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं; ये जगत् और जीव अनादि हैं, इन दोनों की उत्पत्ति और नाश कभी नहीं होता।' इससे विरुद्ध शंकराचार्य का मत था कि―'अनादि सिद्ध परमात्मा ही जगत् का कर्त्ता है; यह जगत् और जीव झूठा है; क्योंकि उसी परमेश्वर ने अपनी माया से जगत् बनाया; वही धारण और प्रलय करता है; और यह जीव और प्रपञ्च स्वप्नवत् हैं; परमेश्वर आप ही सब रूप होकर लीला कर रहा है।'


बहुत दिनों तक शास्त्रार्थ होता रहा, परन्तु अन्त में युक्ति और प्रमाण से जैनियों का मत खण्डित और शंकराचार्य का मत अखण्डित रहा। तब उन जैनियों के पण्डित और सुधन्वा राजा ने वेदमत को स्वीकार कर लिया, जैनमत को छोड़ दिया। पुनः बड़ा हल्ला हुआ और सुधन्वा ने अपने मित्र राजाओं को लिखकर शंकराचार्य से शास्त्रार्थ कराया; परन्तु जैनियों का पराजय-समय होने से पराजित होते गये। 


पश्चात् शंकराचार्य के आर्यावर्त में सर्वत्र घूमने का प्रबन्ध सुधन्वादि राजाओं ने कर दिया और उनकी रक्षा के लिये साथ में नौकर-चाकर भी रख दिये। उसी समय से सबके यज्ञोपवीत होने लगे और वेदों का पठन-पाठन भी चला। दस वर्ष के भीतर सर्वत्र आर्यावर्त में घूमकर जैनियों का खण्डन और वेदों का मण्डन किया; परन्तु शंकराचार्य के समय में 'जैन-विध्वंस' [हुआ] अर्थात् जैनियों की जितनी मूर्तियाँ टूटी हुई [भूमि में से] निकलती हैं, वे शंकराचार्य के समय में टूटी थीं, और जो विना टूटी निकलती हैं वे जैनियों ने भूमि में गाड़ दी थीं कि तोड़ी न जायें। वे अब तक कहीं-कहीं भूमि में से निकलती हैं। 


शंकराचार्य के पूर्व 'शैवमत' भी थोड़ा-सा प्रचरित था, उसका भी खण्डन किया। 'वाममार्ग' का भी खण्डन किया। उस समय इस देश में धन बहुत था और स्वदेशभक्ति भी थी। जैनियों के मन्दिर शंकराचार्य और सुधन्वा राजा ने नहीं तुड़वाये थे, क्योंकि उनमें वेदादि की पाठशाला करने की इच्छा थी। जब वेदमत का स्थापन हो चुका, और विद्या-प्रचार करने का विचार करते ही थे, उतने में, दो जैन जो ऊपर से वेदमतस्थ और भीतर से कट्टर जैन थे, अर्थात् कपटमुनि थे, शंकराचार्य उन पर अतिप्रसन्न थे; उन दोनों ने अवसर पाकर शंकराचार्य को ऐसी विषयुक्त वस्तु खिलाई कि उनकी भूख मन्द हो गई। पश्चात् शरीर में बहुत-से फोड़े-फुन्सी होकर छ: महीने के भीतर शरीर छूट गया। तब सब निरुत्साहित हो गये और जो विद्या का प्रचार होनेवाला था, वह भी न होने पाया। 


जो-जो उन्होंने 'शारीरक-भाष्य' -आदि बनाये थे, उनका प्रचार शंकराचार्य के शिष्य करने लगे, अर्थात् जो जैनियों के खण्डन के लिये "ब्रह्म सत्य, जगत् मिथ्या और जीव-ब्रह्म की एकता" कथन की थी, उसका उपदेश करने लगे। दक्षिण में शृङ्गेरी, पूर्व में भूगोवर्धन, उत्तर में जोशी और द्वारिका में शारदामठ बाँधकर शंकराचार्य के शिष्य महन्त बनकर और श्रीमान् होकर आनन्द करने लगे; क्योंकि शंकराचार्य के पश्चात् उनके शिष्यों की बड़ी प्रतिष्ठा होने लगी। 


अब इसमें विचार करना चाहिये कि जो "जीव-ब्रह्म की एकता, जगत् मिथ्या" शङ्कराचार्य का निज मत था, तो वह अच्छा मत नहीं, और जो जैनियों के खण्डन के लिये उस मत का स्वीकार किया हो, तो कुछ अच्छा है। नवीन वेदान्तियों का मत ऐसा है―


प्रश्न―जगत् स्वप्नवत् है; रज्जु में सर्प, सीप में चाँदी, मृगतृष्णिका में जल, गन्धर्वनगर- इन्द्रजालवत्, यह संसार 'झूठा' है, एक ब्रह्म ही सच्चा है।


सिद्धान्ती―'झूठा' तुम किसको कहते हो? 


नवीन वेदान्ती―'जो वस्तु न हो और प्रतीत होवे।' 


सिद्धान्ती―जो वस्तु ही नहीं, उसकी प्रतीति कैसे हो सकती है? 


नवीन०―'अध्यारोप' से। 


सिद्धान्ती―'अध्यारोप' किसको कहते हो?


नवीन०―'वस्तुन्यवस्त्वारोपणमध्यासः'

 

[तु०-सदानन्दविरचित वेदान्तसार खण्ड ६]


'अध्यारोपापवादाभ्यां निष्प्रपञ्चं प्रपञ्च्यते'।


[विद्यारण्यविरचित अनुभूतिप्रकाश अ० १। श्लो० १८] 


=पदार्थ कुछ और हो, उसमें अवस्तु का आरोपण करना 'अध्यास' वा अध्यारोप और उसका निराकरण करना 'अपवाद' कहाता है। इन दोनों से प्रपञ्चरहित ब्रह्म में प्रपञ्चरूप जगत् [का] विस्तार करते हैं।


सिद्धान्ती―तुम रज्जु को वस्तु और सर्प को अवस्तु मान कर इस भ्रमजाल में पड़े हो। क्या सर्प वस्तु नहीं है? जो कहो कि रज्जु में नहीं तो देशान्तर में [है]; और उसका संस्कारमात्र हृदय में है। फिर वह सर्प भी अवस्तु नहीं रहा। वैसे ही स्थाणु में पुरुष, सीप में चांदी आदि की व्यवस्था समझ लेना; और स्वप्न में भी जिनका भान होता है, वे देशान्तर में हैं और उनके संस्कार आत्मा में भी हैं। इसलिये वह स्वप्न भी वस्तु में अवस्तु के आरोपण के समान नहीं।


नवीन०―जो कभी न देखा, न सुना, जैसा कि अपना शिर कटा है और आप रोता है, जल की धारा ऊपर चली जाती है, जो कभी नहीं हुआ था, [वह स्वप्न में] देखा जाता है, वह सत्य क्योंकर हो सके?


सिद्धान्ती―यह भी दृष्टान्त तुम्हारे पक्ष को सिद्ध नहीं करता, क्योंकि विना देखे-सुने संस्कार नहीं होता। संस्कार के विना स्मृति और स्मृति के विना साक्षात् [स्वप्न में और आत्मा में] अनुभव नहीं होता। जब किसी ने सुना वा देखा कि अमुक का लड़ाई में शिर कटा और उसके भाई वा बाप आदि को प्रत्यक्ष रोते देखा। और फुहारे का जल ऊपर चढ़ते देखा वा सुना, उसका संस्कार उसी के आत्मा में होता है। जब यह जाग्रत के पदार्थ से अलग होके देखता है तब अपने आत्मा में उन्हीं पदार्थों को, जिनको देखा वा सुना होता है, देखता है। जब अपने में ही देखता है तब जानो अपना शिर कटा, आप रोता और ऊपर जाती जल की धारा को देखता है। यह भी वस्तु में अवस्तु के आरोपण के सदृश नहीं, किन्तु जैसे नक़्शा निकालनेवाला पूर्व दृष्ट, श्रुत वा किये हुओं को आत्मा में से निकालकर कागज पर लिख देता है अथवा प्रतिबिम्ब का उतारनेवाला बिम्ब को देख, आत्मा में आकृति को धर, बराबर लिख देता है, [वैसे आत्मा पूर्व दृष्ट-श्रुत-कृत का अनुभव करता है]।


हाँ, इतना है कि कभी-कभी स्वप्न में स्मरणयुक्त प्रतीति, जैसे कि अपने अध्यापक को देखता है, और [फिर कभी बहुत काल [बाद उस वस्तु को] देखने और सुनने पर अतीत ज्ञान का साक्षात्कार करता है; तब स्मरण नहीं रहता कि जो मैंने उस समय देखा, सुना वा किया था उसी को मैं देखता, सुनता वा करता हूं। जैसा जाग्रत में स्मरण करता है, वैसा स्वप्न में नियमपूर्वक नहीं होता। देखो, जन्मान्ध को रूप का स्वप्न नहीं आता। इसलिये तुम्हारा ‘अध्यास' और 'अध्यारोप' का लक्षण झूठा है। और जो वेदान्ती लोग 'विवर्तवाद' अर्थात् रज्जु में सर्पादि के भान होने का दृष्टान्त, ब्रह्म में जगत् के भान होने में देते हैं, वह भी ठीक नहीं।


नवीन०―अधिष्ठान के विना अध्यस्त प्रतीत नहीं होता। जैसे रज्जु न हो तो सर्प का भान भी नहीं हो सकता। जैसे रज्जु में सर्प तीन काल में नहीं है परन्तु अन्धकार और कुछ प्रकाश के मेल में अकस्मात् रज्जु को देखने से सर्प का भ्रम होकर [मनुष्य] भय से कँपता है। जब उसको दीप आदि से देख लेता है, उसी समय भ्रम और भय निवृत्त हो जाता है। वैसे ब्रह्म में जो जगत् की मिथ्या प्रतीति हुई है, ब्रह्म के साक्षात्कार होने पर उस जगत् की वह निवृत्ति और ब्रह्म की प्रतीति होती है, जैसे कि सर्प की निवृत्ति और रज्जु की प्रतीति होती है।


सिद्धान्ती―ब्रह्म में जगत् का भान किसको हुआ? 


नवीन०―जीव को। 


सिद्धान्ती―जीव कहाँ से हुआ? 


नवीन०―अज्ञान से। 


सिद्धान्ती―अज्ञान कहां से हुआ और कहां रहता है? 


नवीन०―अज्ञान अनादि है और ब्रह्म में रहता है। 


सिद्धान्ती―ब्रह्म में ब्रह्म का अज्ञान हुआ वा किसी अन्य का? और वह अज्ञान किसको हुआ?


नवीन०―'चिदाभास' को।


सिद्धान्ती―'चिदाभास' का स्वरूप क्या है? 


नवीन०―ब्रह्म। ब्रह्म को ब्रह्म का अज्ञान अर्थात् अपने स्वरूप को आप ही भूल जाता है। 


सिद्धान्ती―उसके भूलने में निमित्त क्या है? 


नवीन०―अविद्या। 


सिद्धान्ती―अविद्या सर्वव्यापी सर्वज्ञ का गुण है, वा अल्पज्ञ का? 


नवीन०―अल्पज्ञ का। 


सिद्धान्ती―तो तुम्हारे मत में विना एक अनन्त, सर्वज्ञ चेतन' के दूसरा कोई चेतन है वा नहीं? और अल्पज्ञ कहां से आया? हां, जो अल्पज्ञ 'चेतन' ब्रह्म से भिन्न मानो तो ठीक है। जब एक ठिकाने ब्रह्म को अपने स्वरूप का अज्ञान हो तो सर्वत्र अज्ञान फैल जाये। जैसे शरीर में फोड़े की पीड़ा सब शरीर के अवयवों को निकम्मा कर देती है, इसी प्रकार ब्रह्म भी एकदेश में अज्ञानी और क्लेशयुक्त हो तो सब ब्रह्म अज्ञानी और पीड़ा के अनुभवयुक्त हो जाय।


नवीन०―यह सब 'उपाधि' का धर्म है, ब्रह्म का नहीं। 


सिद्धान्ती―'उपाधि' जड़ है वा चेतन? और सत्य है वा असत्य? 


नवीन०―अनिर्वचनीय है, अर्थात् जिसको जड़ वा चेतन, सत्य वा असत्य नहीं कह सकते।


सिद्धान्ती―यह तुम्हारा कहना ‘वदतो व्याघातः' के तुल्य है; क्योंकि [पहले] कहते हो अविद्या है, [फिर कहते हो] “जिसको जड़-चेतन, सत्य-असत्य नहीं कह सकते।" यह ऐसी बात है कि जैसे सोने में पीतल मिला हो, उसको सर्राफ के पास परीक्षा करावे कि यह सोना है वा पीतल। तब यही कहेगा कि इसको हम न सोना, न पीतल कह सकते हैं, किन्तु इसमें दोनों धातुयें मिली हैं। 


नवीन०―देखो, जैसे घटाकाश, मठाकाश, मेघाकाश और महदाकाश-उपाधि अर्थात् घड़ा, मठ और मेघ के होने से [आकाश के रूप] भिन्न-भिन्न प्रतीत होते हैं, वास्तव में महदाकाश ही है। ऐसे ही माया, अविद्या, समष्टि, व्यष्टि और अन्तःकरणों की उपाधियों से ब्रह्म अज्ञानियों को पृथक्-पृथक् प्रतीत हो रहा है; वास्तव में एक ही है। देखो, अग्रिम प्रमाण में क्या कहा है―


अग्निर्यथैको भुवनं प्रविष्टो रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव।  

एकस्तथा सर्वभूतान्तरात्मा रूपं रूपं प्रतिरूपो बहिश्च॥


 [कठ उप०, वल्ली ५ । मं० ९]॥


जैसे अग्नि लम्बे, चौड़े, गोल, छोटे, बड़े सब आकृतिवाले पदार्थों में व्यापक होकर तदाकार दीखता है, किन्तु उनसे पृथक् है, वैसे सर्वव्यापक परमात्मा अन्तःकरणों में व्यापक होके अन्त:करणाकार हो रहा है, परन्तु उनसे अलग है।


सिद्धान्ती―यह भी तुम्हारा कहना व्यर्थ है; क्योंकि जैसे घट, मठ, मेघ और आकाश को भिन्न मानते हो, वैसे [ही] कारण-कार्य-रूप जगत् और जीव को ब्रह्म से और ब्रह्म को इनसे भिन्न मान लो।


नवीन०―जैसे अग्नि सबमें प्रविष्ट होकर देखने में तदाकार दीखता है, इसी प्रकार परमात्मा जड़ और जीव में व्यापक होकर, जड़ और जीवाकारयुक्त अज्ञानियों को दीखता है। वास्तव में ब्रह्म न जड़ और न जीव है। जैसे सहस्र जल के कुंडे धरे हों, उनमें सूर्य के सहस्र प्रतिबिम्ब दीखते हैं, वस्तुतः सूर्य एक है। कुंडों के नष्ट होने से, जल के चलने वा फैलने से सूर्य न नष्ट होता, न चलता और न फैलता [है]; इसी प्रकार अन्त:करणों में ब्रह्म का आभास जिसको 'चिदाभास' कहते हैं, पड़ा है। जब तक अन्तःकरण है, तभी तक जीव है। जब अन्तःकरण ज्ञान से नष्ट होता है, तब जीव ब्रह्मस्वरूप है। इस 'चिदाभास' को अपने ब्रह्मस्वरूप का अज्ञान [जब तक रहता है और जब तक] कर्ता-भोक्ता, सुखी-दुःखी, पापी-पुण्यात्मा, जन्म-मरण [की स्थितियों को ]अपने में आरोपित करता है, तब-तक संसार के बन्धनों से नहीं छूटता।


सिद्धान्ती―यह दृष्टान्त तुम्हारा व्यर्थ है; क्योंकि सूर्य आकारवाला, जल-कुंडे भी आकारवाले हैं। सूर्य जल-कुंडों से भिन्न और सूर्य से जल-कुंडे भिन्न हैं। तभी प्रतिबिम्ब पड़ता है। यदि निराकार होता तो उसका प्रतिबिम्ब कभी न होता। जैसे परमेश्वर निराकार [है], सर्वत्र आकाशवत् व्यापक होने से ब्रह्म से कोई पदार्थ वा पदार्थों से ब्रह्म पृथक् नहीं हो सकता और व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध से एक भी नहीं हो सकता; अर्थात् अन्वय-व्यतिरेकभाव से देखने से व्याप्य-व्यापक मिले हुए और [वस्तुतः] सदा पृथक् रहते हैं। जो एक हों तो अपने में व्याप्य-व्यापकभाव सम्बन्ध कभी नहीं घट सकता। सो 'बृहदारण्यक' के अन्तर्यामी ब्राह्मण में स्पष्ट लिखा है। और ब्रह्म का आभास भी नहीं पड़ सकता, क्योंकि विना आकार के आभास का होना असम्भव है। 


जो अन्तःकरणोपाधि से ब्रह्म को जीव मानते हो, सो तुम्हारी बात बालक के समान है; क्योंकि अन्त:करण चलायमान, खण्ड-खण्ड [ है] और ब्रह्म अचल और अखण्ड है। यदि तुम ब्रह्म और जीव को पृथक्-पृथक् न मानोगे तो इसका उत्तर दीजिये कि जहाँ-जहाँ अन्त:करण चलता जायेगा, वहाँ-वहाँ के ब्रह्म को अज्ञानी और जिस-जिस देश को छोड़ेगा, वहाँ-वहाँ के ब्रह्म को ज्ञानी कर देवेगा वा नहीं? जैसे छाता प्रकाश के बीच में जहाँ-जहाँ जाता है वहाँ-वहाँ के प्रकाश को आवरणयुक्त [कर देता है] और जहाँजहाँ से हटता है वहाँ-वहाँ के प्रकाश को आवरणरहित कर देता है, वैसे ही अन्तःकरण ब्रह्म को क्षण-क्षण में अज्ञानी, ज्ञानी, बद्ध और मुक्त करता जायगा। और अखण्ड ब्रह्म के एकदेश में आवरण का प्रभाव सर्वदेश में होने से सब ब्रह्म अज्ञानी हो जायगा, क्योंकि वह चेतन है।


और मथुरा में अन्तःकरणस्थ जिस ब्रह्म ने जो चीज=वस्तु देखी उसका स्मरण उसी अन्त:करणस्थ [ब्रह्म] से काशी में नहीं हो सकता। क्योंकि―


'अन्यदृष्टमन्यो न स्मरतीति न्यायात्'।


 [योगदर्शन, विभूतिपाद, सूत्र १४, व्यासभाष्य]


='और के देखे का स्मरण और को नहीं होता।' जिस 'चिदाभास' ने मथुरा में देखा वह 'चिदाभास' काशी में नहीं रहता, क्योंकि जो मथुरास्थ अन्त:करण का प्रकाशक है, वह काशीस्थ ब्रह्म नहीं होता।


जो ब्रह्म ही जीव है, पृथक् नहीं; तो सब जीवों को सर्वज्ञ होना चाहिये। यदि ब्रह्म का प्रतिबिम्ब [अन्त:करण से] पृथक् है, तो प्रत्यभिज्ञा अर्थात् पूर्व दृष्ट-श्रुत का ज्ञान किसी को नहीं हो सकेगा। जो कहो कि ब्रह्म एक है इसलिये स्मरण होता है, तो एक ठिकाने अज्ञान वा दुःख होने से सब ब्रह्म को अज्ञान वा दुःख हो जाना चाहिये। और ऐसे दृष्टान्तों से नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्त-स्वभाव ब्रह्म को तुमने अशुद्ध, अज्ञानी और बद्ध कर दिया है, और अखण्ड को खण्ड-खण्ड कर दिया [है।]


नवीन०―निराकार का भी आभास होता है, जैसा कि दर्पण वा जलादि में आकाश का आभास पड़ता है, वह नीला वा किसी अन्य प्रकार गम्भीर=गहरा दीखता है, वैसे ब्रह्म का भी सब अन्तःकरणों में आभास पड़ता है।


सिद्धान्ती―जब आकाश में रूप ही नहीं है, तो उसको आँख से कोई भी नहीं देख सकता। जो पदार्थ दीखता ही नहीं, वह दर्पण और जलादि में कैसे दीखेगा? गहरा वा छितरा साकार वस्तु दीखता है, निराकार नहीं।


नवीन०―तो फिर जो यह ऊपर नीला-सा दीखता है, उसी का आदर्श वा जल में भान होता है, वह क्या पदार्थ है?


सिद्धान्ती―वे पृथिवी से उड़कर [ऊपर गये] जल, पृथिवी और अग्नि के त्रसरेणु हैं। जहाँ से वर्षा होती है, वहाँ जल न हो तो वर्षा कहाँ से होवे? इसलिये जो दूर-दूर तम्बू के समान दीखता है, वह जल का चक्र है। जैसे कुहरा दूर से घनाकार दीखता है और निकट से छितरा, और [जैसे] डेरे के समान भी दीखता है, वैसे आकाश में जल दीखता है।


नवीन०―क्या हमारे रज्जु, सर्प और स्वप्नादि के दृष्टान्त मिथ्या हैं? 


सिद्धान्ती―नहीं, तुम्हारी समझ मिथ्या है, सो हमने पूर्व लिख दिया। भला, यह तो कहो कि प्रथम अज्ञान किसको होता है?


नवीन०―ब्रह्म को। 


सिद्धान्ती―ब्रह्म अल्पज्ञ है वा सर्वज्ञ?


नवीन०―न सर्वज्ञ और न अल्पज्ञ, क्योंकि सर्वज्ञता और अल्पज्ञता उपाधिसहित में होती है।


सिद्धान्ती―'उपाधि' से सहित कौन है? 


नवीन०―ब्रह्म। 


सिद्धान्ती―तो ब्रह्म ही सर्वज्ञ और अल्पज्ञ हुआ। तो तुमने सर्वज्ञ और अल्पज्ञ का निषेध क्यों किया था? जो कहो कि 'उपाधि' कल्पित अर्थात् मिथ्या है, तो कल्पक अर्थात् कल्पना करनेवाला कौन है?


नवीन०―जीव-ब्रह्म है; वा अन्य?


सिद्धान्ती―अन्य है; क्योंकि जो ब्रह्मस्वरूप है, और जिसने मिथ्या कल्पना की, वह ब्रह्म ही नहीं हो सकता। जिसकी कल्पना मिथ्या है, वह सच्चा कब हो सकता है?


नवीन०―हम सत्य और असत्य को झूठ मानते हैं और वाणी से बोलना भी मिथ्या है। 


सिद्धान्ती―जब तुम झूठ कहने और माननेवाले हो, तो झूठे क्यों नहीं? 


नवीन०―रहो; झूठ और सच हमारे में ही कल्पित है और हम दोनों के साक्षी―अधिष्ठान हैं।


सिद्धान्ती―जब तुम सत्य और झूठ के आधार हुए तो साहूकार और चोर के सदृश तुम्हीं हुए। इससे तुम प्रामाणिक भी नहीं रहे; क्योंकि प्रामाणिक वह होता है जो सर्वदा सत्य माने, सत्य बोले, सत्य करे; झूठ न माने, झूठ न बोले, झूठ न करे। जब तुम अपनी बात को आप ही झूठ करते हो तो तुम अपने आप मिथ्यावादी हो।


नवीन०―अनादि 'माया' जो कि ब्रह्म के आश्रय [में रहती है] और ब्रह्म का ही आवरण करती है, उसको मानते हो, वा नहीं?


सिद्धान्ती―नहीं मानते; क्योंकि तुम 'माया' का अर्थ ऐसा करते हो कि 'जो वस्तु न हो और भासे है', तो इस बात को वह मानेगा जिसके 'हृदय की आँख फूट गई' हो। क्योंकि जो वस्तु नहीं, उसका भासमान होना सर्वथा असम्भव है; जैसे वन्ध्या के पुत्र का प्रतिबिम्ब कभी नहीं हो सकता। और यह 'सन्मूला: सोम्येमाः सर्वाः प्रजाः' इत्यादि छान्दोग्य [आदि] उपनिषदों [प्रपा० ६। खं० ८। प्रवाक ४]

के वचनों से विरुद्ध कहते हो। 


नवीन०―क्या तुम वसिष्ठ, शंकराचार्य आदि और निश्चलदास पर्यन्त [जो पण्डित हुए हैं उन] से अधिक पण्डित हो? उन्होंने जो लिखा है, सो विचार करके लिखा है, वे तुमसे बड़े पण्डित थे।


सिद्धान्ती―तुमको क्या दीखता है? 


नवीन०―हमको तो वसिष्ठ, शंकराचार्य और निश्चलदास आदि अधिक [पण्डित] दीखते हैं।


सिद्धान्ती―तुम विद्वान् हो वा अविद्वान्?


नवीन०―हम भी कुछ विद्वान् हैं।


सिद्धान्ती―अच्छा, तो आओ, वसिष्ठ, शंकराचार्य और निश्चलदास आदि के पक्ष का हमारे सामने स्थापन करो, हम खण्डन करते हैं। जिसका पक्ष सिद्ध हो, वही बड़ा है। जो उनकी और तुम्हारी बात अखण्डनीय होती तो तुम उनकी युक्तियाँ लेकर हमारी बात का खण्डन क्यों न कर सकते? [जब हमारी बात का खण्डन कर सको] तब तुम्हारी और उनकी बात माननीय होवे। अनुमान है कि शङ्कराचार्य आदि ने तो जैनमत का खण्डन करने के ही लिये यह मत स्वीकार किया हो, क्योंकि देश-काल के अनुकूल अपने पक्ष को सिद्ध करने के लिये बहुत-से स्वार्थी विद्वान् अपने आत्मा के ज्ञान से विरुद्ध भी कर लेते हैं। और जो इन बातों को अर्थात् जीव-ईश्वर की एकता, जगत्-मिथ्या आदि व्यवहार को सच्चा ही मानते थे, तो उनकी बात सच्ची नहीं हो सकती।


और निश्चलदास का पाण्डित्य देखो ऐसा है―"जीवो ब्रह्माऽभिन्नश्चेतन-त्वात्', उन्होंने 'वृत्तिप्रभाकर' [२।९] में जीव-ब्रह्म की एकता के लिये अनुमान लिखा है कि 'चेतन होने से जीव ब्रह्म से अभिन्न है'। यह बहुत कम-समझ पुरुष की बात के सदृश बात है; क्योंकि [किंचित्] 'साधर्म्य'-मात्र से एक दूसरे के साथ एकता नहीं होती, 'वैधर्म्य' भेदक होता है। जैसे कोई कहे कि 'पृथिवी जलाऽभिन्ना जडत्वात्'='जड़ होने से पृथिवी जल से अभिन्न है।' जैसे यह वाक्य संगत कभी नहीं हो सकता, वैसे निश्चलदास जी का भी लक्षण व्यर्थ है; क्योंकि जो अल्पता, अल्पज्ञता और भ्रान्तिमत्त्वादि धर्म जीव में ब्रह्म से और सर्वगत, सर्वज्ञता और निर्धान्तिमत्वादि वैधर्म्य ब्रह्म में जीव से विरुद्ध हैं; इससे जीव और ब्रह्म भिन्न-भिन्न हैं। जैसे गन्धवत्त्व, कठिनत्व आदि भूमि के धर्म; रसवत्त्व, द्रवत्वादि जल के धर्म से विरुद्ध होने से पृथिवी और जल एक नहीं, वैसे जीव और ब्रह्म के वैधर्म्ययुक्त होने से जीव और ब्रह्म एक न कभी थे, न हैं और न कभी होंगे। इतने से ही निश्चलदास-आदि को समझ लीजिये कि उनमें कितना पाण्डित्य था।


और जिसने 'योगवासिष्ठ' बनाया है, वह कोई आधुनिक वेदान्ती था; न वाल्मीकि, न वसिष्ठ जी का और न रामचन्द्र का बनाया वा कहा-सुना है; क्योंकि वे सब वेदानुयायी थे, वेद से विरुद्ध न बना सकते और न कह-सुन सकते थे।


प्रश्न―व्यास जी ने जो 'शारीरकसूत्र' बनाये हैं, उनमें भी जीव ब्रह्म की एकता दीखती है; देखो―


सम्पद्याऽऽविर्भावः स्वेन शब्दात्॥१॥

ब्राह्मण जैमिनिरुपन्यासादिभ्यः॥२॥ 

चितितन्मात्रेण तदात्मकत्वादित्यौडुलौमिः॥३॥

एवमप्युपन्यासात् पूर्वभावादविरोधं बादरायणः॥४॥ 

अत एव चानन्याधिपतिः॥५॥


[वेदान्त०, अ० ४। पा० ५। सू० १, ५-७, ९]॥ 


अर्थ―जीव अपने ‘स्वरूप' को प्राप्त होकर प्रकट होता है जो कि पूर्व ब्रह्मस्वरूप था, क्योंकि 'स्व' शब्द से अपने ब्रह्मस्वरूप का ग्रहण होता है॥१॥ 


‘य आत्मा-अपहतपाप्मा'


[छांदोग्य-उप० ८।७।१] 


इत्यादि 'उपन्यासों' [से सिद्ध है कि] ऐश्वर्यप्राप्ति पर्यन्त हेतुओं से ब्रह्मस्वरूप जीव स्थित होता है, ऐसा जैमिनि आचार्य का मत है॥२॥


और औडुलोमि आचार्य [का मत है कि] तदात्मकस्वरूप-निरूपणादि बृहदारण्यक [३।७।३-२३; ४।५।१३] के हेतुरूप वचनों से [ज्ञात होता है कि] चैतन्यमात्र स्वरूप से जीव मुक्ति में स्थित रहता है॥३॥


व्यास जी इन्हीं पूर्वोक्त उपन्यासादि ऐश्वर्यप्राप्तिरूप हेतुओं से जीव के ब्रह्मस्वरूप होने में अविरोध मानते हैं॥४॥ 


योगी ऐश्वर्यसहित अपने ब्रह्मस्वरूप को प्राप्त होकर अन्य अधिपति से रहित' अर्थात् आप अपने और सबके अधिपतिरूप ब्रह्मस्वरूप से मुक्ति में स्थित रहता है॥५॥


उत्तर―इन सूत्रों का अर्थ इस प्रकार का नहीं, किन्तु इनका यथार्थ यह है, सुनिये। जब तक जीव अपने= स्वकीय शुद्धस्वरूप को प्राप्त, सब मलों से रहित होकर पवित्र नहीं होता, तब तक योग से ऐश्वर्य को प्राप्त होकर अपने अन्तर्यामी ब्रह्म को प्राप्त होके आनन्द में स्थित नहीं हो सकता॥१॥


इसी प्रकार जब पापादिरहित ऐश्वर्ययुक्त योगी होता है तभी ब्रह्म के साथ मुक्ति के आनन्द को भोग सकता है, ऐसा जैमिनि आचार्य का मत है॥२॥ 


जब अविद्यादि दोषों से छूट, शुद्ध चैतन्यमात्र स्वरूप से जीव [ब्रह्म में] स्थिर होता है, तभी 'तदात्मकत्व' अर्थात् ब्रह्मस्वरूप के साथ सम्बन्ध को प्राप्त होता है [ऐसा औडुलोमि आचार्य का मत है।] ॥३॥ 


जब ब्रह्म के साथ ऐश्वर्य और शुद्ध विज्ञान को [प्राप्त करके] जीते ही जीवन्मुक्त होता है, तब अपने पूर्व निर्मल स्वरूप को प्राप्त होकर आनन्दित होता है, ऐसा व्यासमुनि का मत है॥४॥ 


जब योगी का सत्यसंकल्प होता है, तब स्वयं परमेश्वर को प्राप्त होकर मुक्तिसुख को पाता है और वहाँ स्वाधीन स्वतन्त्र रहता है। जैसे संसार में एक प्रधान, दूसरा अप्रधान होता है वैसे मुक्ति में नहीं, किन्तु सब मुक्त जीव एक-से रहते हैं॥५॥ जो ऐसा न हो तो―


नेतरोऽनुपपत्तेः॥१॥


वेदान्तसूत्र [१।१।१६]

 

भेदव्यपदेशाच्च॥२॥


[१।१।१७]

 

विशेषणभेदव्यपदेशाभ्यां च नेतरौ॥३॥


[१।२।२२]

 

अस्मिन्नस्य च तद्योगं शास्ति॥४॥


[१।१।१९]

 

अन्तस्तद्धर्मोपदेशात्॥५॥


[१।१।२०]

 

भेदव्यपदेशाच्चान्यः॥६॥


[१।१।२१]

 

गुहां प्रविष्टावात्मानौ हि तद्दर्शनात्॥७॥


[१।२।११]


अनुपपत्तेस्तु न शारीरः॥८॥


[१।२।३] 


अन्तर्याम्यधिदेवादिषु तद्धर्मव्यपदेशात्॥९॥


[१।२।१८]

 

शारीरश्चोभयेऽपि हि भेदेनैनमधीयते॥१०॥ 


व्यासमुनिकृत वेदान्तसूत्र [१।२।२०]॥


अर्थ―ब्रह्म से इतर जीव सृष्टिकर्ता नहीं है, क्योंकि इस अल्प, अल्पज्ञ, [अल्प] सामर्थ्यवाले जीव में सृष्टिकर्तृत्व नहीं घट सकता, इससे जीव ब्रह्म नहीं॥१॥


'रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति' यह उपनिषद का वचन है। 


[तैत्तिरीय उप० ब्र० वल्ली अनु०७]


जीव और ब्रह्म भिन्न हैं, क्योंकि इन दोनों का भेद प्रतिपादित किया है। जो ऐसा न होता तो 'रस' अर्थात् 'आनन्दस्वरूप ब्रह्म को प्राप्त होकर जीव आनन्दस्वरूप होता है', प्राप्तिविषय ब्रह्म और प्राप्त होनेवाले जीव का यह निरूपण नहीं घट सकता, इसलिये जीव और ब्रह्म एक नहीं ॥२॥


दिव्यो ह्यमूर्त्तः पुरुषः स बाह्याभ्यन्तरो ह्यजः।

अप्राणो ह्यमनाः शुभ्रो ह्यक्षरात्परतः परः॥


मुण्डक उप० [२।१।२]


दिव्य=शुद्ध, मूर्तिमत्त्वरहित, सबमें पूर्ण, बाहर-भीतर निरन्तर व्यापक, अज=जन्म-मरण-शरीरधारणादि रहित, श्वास-प्रश्वास, शरीर और मन के सम्बन्ध से रहित, प्रकाशस्वरूप इत्यादि परमात्मा के विशेषण हैं।


और अक्षर=नाशरहित प्रकृति से ‘परे' अर्थात् 'सूक्ष्म जीव [और] उससे भी परमेश्वर परे है अर्थात् ब्रह्म सूक्ष्म है। प्रकृति और जीवों से ब्रह्म के भेद प्रतिपादनरूप हेतुओं से [सिद्ध होता है कि] प्रकृति और जीवों से ब्रह्म भिन्न है॥३॥ 


इसी सर्वव्यापक ब्रह्म में जीव का योग वा जीव में ब्रह्म का योग प्रतिपादित करने से [सिद्ध है कि] जीव और ब्रह्म भिन्न हैं, क्योंकि योग भिन्न पदार्थों का हुआ करता है॥४॥ 


इस ब्रह्म के अन्तर्यामी आदि धर्म कथन किये हैं और जीव के भीतर व्यापक होने से व्याप्य जीव व्यापक ब्रह्म से भिन्न है; क्योंकि व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध भी भेद में संघटित होता है॥५॥


जैसे परमात्मा जीव से भिन्नस्वरूप है, वैसे इन्द्रियों, अन्तःकरण, वायु, पृथिवी आदि भूतों, दिशा, सूर्यादि से तथा दिव्यगुणों के योग से 'देवता'-वाच्य विद्वानों से भी परमात्मा भिन्न है॥६॥


सुकृतस्य लोके गुहां प्रविष्टौ" [कठ०, अ० १।३।१] इत्यादि उपनिषदों के वचनों से [स्पष्ट होता है कि] जीव और परमात्मा भिन्न हैं। वैसा ही उपनिषदों में बहुत ठिकाने दिखलाया है॥७॥


'शरीरे भवः शारीरः', [ =शरीर में रहने से जीवात्मा को 'शारीर' कहते हैं], शरीरधारी जीव ब्रह्म नहीं हैं, क्योंकि ब्रह्म के गुण, कर्म, स्वभाव जीव में नहीं घटते ॥८॥


अधिदेव=सब दिव्य मन, इन्द्रियादि पदार्थों, अधिभूत=पृथिव्यादि भूतों, अध्यात्म= सब जीवों में परमात्मा अन्तर्यामी रूप से स्थित है; क्योंकि उसी परमात्मा के व्यापकत्वादि धर्म सर्वत्र उपनिषदों में व्याख्यात हैं॥९॥


शरीरधारी जीव ब्रह्म नहीं है, क्योंकि ब्रह्म से जीव का भेद स्वरूप से सिद्ध है॥१०॥ 


इत्यादि 'शारीरक-सूत्रों' से भी स्वरूप से ब्रह्म और जीव का भेद सिद्ध है।


वैसे ही वेदान्तियों के उपक्रम और उपसंहार भी नहीं घट सकते, क्योंकि 'उपक्रम' अर्थात् आरम्भ ब्रह्म से और 'उपसंहार' अर्थात् प्रलय भी ब्रह्म में ही करते हैं। जब दूसरा कोई वस्तु नहीं मानते तो उत्पत्ति और प्रलय भी ब्रह्म के धर्म हो जाते हैं। और उत्पत्ति-विनाशरहित ब्रह्म का प्रतिपादन वेदादि सत्यशास्त्रों में किया है। वह नवीन वेदान्तियों पर कोप करेगा, क्योंकि निर्विकार, अपरिणामी, शुद्ध, सनातन, निर्धान्त आदि विशेषणयुक्त ब्रह्म में विकार, उत्पत्ति और अज्ञान आदि का सम्भव किसी प्रकार नहीं हो सकता। तथा उपसंहार (=प्रलय) के होने पर भी ब्रह्म, कारणात्मक जड़ और जीव बराबर बने रहते हैं। इसलिये 'उपक्रम' और 'उपसंहार' भी इन वेदान्तियों के ठीक नहीं है। इसी प्रकार की, इन नवीन वेदान्तियों की कल्पनायें झूठी हैं। ऐसी अन्य बहुत-सी अशुद्ध बातें हैं कि जो शास्त्रों और प्रत्यक्षादि प्रमाणों से विरुद्ध हैं।


इसके पश्चात् कुछ जैनियों और कुछ शंकराचार्य के अनुयायी लोगों के उपदेश के संस्कार आर्यावर्त में फैले थे और आपस में खण्डन-मण्डन भी चलता था।


शंकराचार्य के तीन-सौ वर्ष के पश्चात् उज्जैन नगरी में विक्रमादित्य राजा कुछ प्रतापी हुआ, जिसने सब राजाओं के मध्य प्रवृत्त हुई लड़ाई को मिटाकर शान्ति-स्थापना की।


तत्पश्चात् भर्तृहरि राजा काव्यादि-शास्त्रों और अन्य [विषयों] में भी कुछ-कुछ विद्वान् हुआ, उसने वैराग्यवान् होकर राज्य को छोड़ दिया। 


विक्रमादित्य के पांच-सौ वर्ष के पश्चात् राजा भोज हुआ। उसने थोड़ा-सा व्याकरण और काव्यालङ्कार-आदि का इतना प्रचार किया कि जिसके राज्य में कालिदास बकरी चरानेवाला भी 'रघुवंश' काव्य का कर्ता हुआ। राजा भोज के पास जो कोई अच्छा श्लोक बनाकर ले जाता था उसको बहुत-सा धन देते और प्रतिष्ठा करते थे। उसके पश्चात् राजाओं और श्रीमानों ने पढ़ना ही छोड़ दिया।


यद्यपि शंकराचार्य जी के पूर्व [हुए] वाममार्गियों के पश्चात् शैव आदि सम्प्रदायस्थ मतवादी भी हुए थे, परन्तु उनका बहुत बल नहीं हुआ था। महाराजे विक्रमादित्य से लेके शैवों का बल बढ़ता आया। शैवों में पाशुपतादि बहुत-सी शाखायें हुई थीं, जैसे वाममार्गियों में दश महाविद्यादि शाखायें हैं। लोगों ने शङ्कराचार्य को शिव का अवतार ठहराया। उनके अनुयायी संन्यासी भी शैवमत में प्रवृत्त हो गये और वाममार्गियों को भी मिलाते रहे। वाममार्गी, 'देवी' जो शिव की पत्नी है उसके उपासक, और शैव 'महादेव' के उपासक हुए। ये दोनों रुद्राक्ष और भस्म अद्यावधि धारण करते हैं; परन्तु जितने वाममार्गी वेदविरोधी हैं, उतने शैव वेदविरोधी नहीं है। इन लोगों ने


धिग् धिक् कपालं भस्मरुद्राक्षविहीनम्॥१॥ 

रुद्राक्षान् कण्ठदेशे दशनपरिमितान् मस्तके विंशती द्वे, षट् षट् कर्णप्रदेशे करयुगलगतान् द्वादशान् द्वादशैव। बाह्वोरिन्दोः कलाभिः पृथगिति गदितमेकमेवं शिखायाम्, वक्षस्यष्टाऽधिकं यः कलयति शतकं स स्वयं नीलकण्ठः॥२॥


[तुलना-शिवपुराण, विश्वेश्वर संहिता १ । अ० २५ । श्लो० ३७-३८]॥


इत्यादि बहुत प्रकार के श्लोक बनाये और कहने लगे कि जिसके कपाल में भस्म और कण्ठ में रुद्राक्ष नहीं है, उसको धिक्कार है। 'तं त्यजेदन्त्यजं यथा' [तुलना-भविष्यपुराण विश्वेश्वर संहिता १।३० अ० २३ । श्लो० १३] =उसका चाण्डाल के तुल्य त्याग करना चाहिये ॥१॥ 


जो कण्ठ में ३२, शिर में ४०, कानों में छ:-छ:, करों में बारह-बारह, भुजाओं में सोलह-सोलह, शिखा में एक और हृदय पर एक-सौ आठ रुद्राक्ष धारण करता है, वह साक्षात् महादेव के सदृश है॥२॥ ऐसा ही शाक्त भी मानते हैं।


पश्चात् उन वाममार्गियों और शैवों ने सम्मति करके भग-लिङ्ग का स्थापन किया, जिसको जलाधारी और लिङ्ग कहते हैं, और उसकी पूजा करने लगे। उन निर्लज्जों को लज्जा भी न आई कि यह पामरपन का काम हम क्यों करते हैं? किसी कवि ने कहा है कि 'स्वार्थी दोषं न पश्यति' [चाणक्यनीति ६।८] =स्वार्थी लोग अपनी स्वार्थ-सिद्धि करने में दुष्ट कामों को भी श्रेष्ठ मान, दोष को नहीं देखते हैं। ये उसी पाषाणादि मूर्ति और भग-लिङ्ग की पूजा में ही धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष मानने लगे। 


जब राजा भोज के पश्चात् जैनी लोग अपने मन्दिरों में मूर्तिस्थापन करने और दर्शन को आने-जाने लगे। तब तो इन 'पोपों' के चेले भी जैनमन्दिर में जाने-आने लगे और उधर पश्चिम से कुछ दूसरे मतों के और यवन लोग भी आर्यावर्त में आने-जाने लगे। तब पोपों ने यह श्लोक बनाया―


न वदेद्यावनी भाषां प्राणैः कण्ठगतैरपि। 

हस्तिना ताड्यमानोऽपि न गच्छेज्जैनमन्दिरम्॥


[तुलना-भविष्यपुराण, प्रतिसर्ग पर्व ३। खं० ३। अध्याय २८ । श्लो० ५३]

 

चाहे कितना ही दुःख प्राप्त हो, प्राण कण्ठगत अर्थात् मृत्यु का समय भी क्यों न आया हो, तो भी यावनी अर्थात् म्लेच्छ-भाषा मुख से न बोलनी [चाहिये । और [किसी को] उन्मत्त हाथी मारने को क्यों न दौड़ा आता हो [और उसके] जैन के मन्दिर में जाने से प्राण बचते हों, तो भी जैन-मन्दिर में प्रवेश न करे; किन्तु जैन-मन्दिर में प्रवेश कर बचने से, हाथी के सामने जाकर मर जाना उससे अच्छा है।


ऐसे-ऐसे उपदेश अपने चेलों को करने लगे। जब उनसे कोई प्रमाण पूछता था कि 'तुम्हारे मत में किसी माननीय ग्रन्थ का भी प्रमाण है?' तो कहते थे कि हाँ है।' जब वे पूछते थे कि 'दिखलाओ?' तब 'मार्कण्डेय पुराण' आदि के वचन पढ़कर सुना देते थे, जैसा कि 'दुर्गापाठ' में देवी का वर्णन लिखा है।


राजा भोज के राज्य में व्यास जी के नाम से 'मार्कण्डेय' और 'शिवपुराण' किसी ने बनाकर खड़ा किया था। उसका समाचार राजा भोज को होने से उन पण्डितों को हस्तच्छेदनादि दण्ड दिया और उनसे कहा कि जो कोई काव्यादि ग्रन्थ बनावे तो अपने नाम से बनावे, ऋषि-मुनियों के नाम से नहीं।' यह बात राजा भोज के बनाये 'संजीवनी' नामक इतिहास में लिखी है कि जो ग्वालियर राज्य के 'भिंड' नामक नगर के तिवाडी ब्राह्मणों के घर में है। जिसको लखना के राव साहब और उनके गुमाश्ते रामदयाल चौबे जी ने अपनी आँख से देखा है। उसमें स्पष्ट लिखा है कि व्यास जी ने चार सहस्र चार-सौ और उनके शिष्यों ने पांच सहस्र छ:-सौ श्लोकयुक्त अर्थात् दस सहस्र श्लोकों के प्रमाण [का] 'भारत' बनाया था। वह महाराजे विक्रमादित्य के समय में वीस सहस्र [श्लोक प्रमाण का हुआ] महाराजे भोज कहते हैं कि मेरे पिता के समय में पच्चीस, और मेरी आधी उमर में तीस सहस्र श्लोकयुक्त 'महाभारत' का पुस्तक मिलता है। जो ऐसे ही बढ़ता चला तो 'महाभारत' का पुस्तक एक ऊंट का बोझ हो जायगा और ऋषि-मुनियों के नाम से पुराणादि ग्रन्थ बनावेंगे तो आर्यावर्तीय लोग भ्रमजाल में पड़के वैदिकधर्मविहीन होकर भ्रष्ट हो जायेंगे। इससे विदित होता है कि राजा भोज को कुछ-कुछ वेदों का संस्कार था। इनके [सम्बन्ध में लिखे] 'भोजप्रबन्ध' में लिखा है कि―


घट्यैकया क्रोशदशैकमश्वः सुकृत्रिमो गच्छति चारुगत्या। 

वायुं ददाति व्यजनं सुपुष्कलं विना मनुष्येण चलत्यजत्रम्॥ 


राजा भोज के राज्य में और [उनके] पास ऐसे शिल्पीलोग थे कि जिन्होंने घोड़े के आकार का एक यान कलायन्त्रयुक्त बनाया था कि जो एक कच्ची घड़ी में ग्यारह कोस और एक घण्टे में साढ़े सत्ताईस कोस जाता था। वह भूमि और अन्तरिक्ष में भी चलता था। और दूसरा पंखा ऐसा बनाया था कि विना मनुष्य के चलाये कलायन्त्र के बल से नित्य चला करता और पुष्कल वायु देता था। जो ये दोनों पदार्थ आज तक बने रहते तो यूरोपियन इतने अभिमान में न चढ़ जाते।


जब पोप जी अपने चेलों को जैनियों से रोकने लगे तो भी मन्दिरों में जाने से न रुक सके और जैनियों की कथा में भी लोग जाने लगे। 'जैनियों के पोप' इन 'पुराणी पोपों' के चेलों को बहकाने लगे। तब 'पुराणी पोपों' ने विचारा कि इसका कोई उपाय करना चाहिये, नहीं तो अपने चेले जैनी हो जायेंगे। पश्चात् 'पोपों' ने यही सम्मति की कि जैनियों के सदृश अपने भी अवतार, मन्दिर, मूर्ति और कथा के पुस्तक बनावें। इन लोगों ने जैनियों के चौबीस तीर्थंकरों के सदृश चौबीस अवतार, मन्दिर और मूर्तियाँ बनाईं और जैसे जैनियों के 'आदि [ पुराण]' और 'उत्तर पुराण' आदि हैं वैसे अठारह पुराण बनाने लगे। 


राजा भोज के डेढ़-सौ वर्ष के पश्चात् वैष्णव-मत का आरम्भ हुआ। एक शठकोप नामक कंजर कुल में उत्पन्न हुआ था, उससे थोड़ा-सा चला। उसके पश्चात् मुनिवाहन भंगी-कुलोत्पन्न और तीसरा यावनाचार्य यवन-कुलोत्पन्न आचार्य हुआ। तत्पश्चात् ब्राह्मण कुलज चौथा रामानुज हुआ। उन्होंने अपना मत फैलाया।


शैवों ने 'शिवपुराण' आदि, शाक्तों ने 'देवीभागवत' आदि, वैष्णवों ने 'विष्णुपुराण' आदि बनाये। उनमें अपना नाम इसलिये नहीं धरा कि हमारे नाम से बनेंगे तो कोई प्रमाण न करेगा, इसलिये व्यास आदि ऋषि-मुनियों के नाम धरके 'पुराण' बनाये। नाम भी इनका वास्तव में 'नवीन' रखना चाहिये था, परन्तु जैसे कोई दरिद्र अपने बेटे का नाम 'महाराजाधिराज' और आधुनिक पदार्थ का नाम 'सनातन' रख दे, तो क्या आश्चर्य है? अब इनके आपस के जैसे झगड़े हैं, वैसे ही पुराणों में भी धरे हैं।


देखो, 'देवीभागवत' में [लिखा है कि] 'श्री' नामा एक 'देवी' स्त्री जो श्रीपुर की स्वामिनी लिखी है, उसी ने सब जगत् को बनाया और ब्रह्मा, विष्णु, महादेव को भी उसी ने रचा है। जब उस देवी की इच्छा हुई तब उसने अपना हाथ घिसा । उससे हाथ में छाला हुआ। उसमें से 'ब्रह्मा' की उत्पत्ति हुई। उससे देवी ने कहा कि 'तू मुझसे विवाह कर।' ब्रह्मा ने कहा कि 'तू मेरी माता लगती है, मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता।' यह सुनकर माता को क्रोध चढ़ा और लड़के को भस्म कर दिया। और फिर हाथ घिसके उसी प्रकार दूसरा लड़का उत्पन्न करके उसका नाम 'विष्णु' रक्खा। उससे भी उसी प्रकार कहा। उसने न माना तो उसको भी भस्म कर दिया। पुनः उसी प्रकार तीसरे लड़के को उत्पन्न किया। उसका नाम 'महादेव' रक्खा और उससे कहा कि 'तू मुझसे विवाह कर।' महादेव बोला कि 'मैं तुझसे विवाह नहीं कर सकता, तू दूसरी स्त्री का शरीर धारण कर।' वैसा ही देवी ने किया। तब महादेव बोला कि 'यह दो ठिकाने राख क्या पड़ी है?' देवी ने कहा कि ये दोनों तेरे भाई हैं, इन्होंने मेरी आज्ञा न मानी, इसलिये भस्म कर दिये।' महादेव ने कहा कि मैं अकेला क्या करूँगा, इनको जिला दे और दो स्त्रियां और उत्पन्न कर, तीनों का विवाह तीनों से होगा।' ऐसा ही देवी ने किया। फिर तीनों का तीनों के साथ विवाह हुआ। वाह रे! माता से विवाह न किया और बहिन से कर लिया! क्या इसको उचित समझना चाहिये? पश्चात् 'इन्द्र'-आदि को उत्पन्न किया। ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्र इनको पालकी को उठानेवाला कहार बनाया, इत्यादि गपोड़े लम्बे-चौड़े, मनमाने लिखे हैं। 


कोई उनसे पूछे कि उस देवी का शरीर और उस श्रीपुर का बनानेवाला और देवी के पिता-माता कौन थे? जो कहो कि देवी अनादि है, तो जो संयोगजन्य वस्तु है वह अनादि कभी नहीं हो सकता। जो माता-पुत्र के विवाह करने में डरे, तो भाई-बहिन के विवाह में कौन-सी अच्छी बात निकलती है? जैसे इस 'देवीभागवत' में महादेव, विष्णु और ब्रह्मादि की क्षुद्रता और देवी की बड़ाई लिखी है, इसी प्रकार 'शिवपुराण' में देवी आदि की बहुत क्षुद्रता लिखी है, अर्थात् ये सब महादेव के दास हैं और महादेव सबका ईश्वर है। जो ‘रुद्राक्ष' अर्थात् एक वृक्ष के फल की गुठली और राख धारण करने से मुक्ति मानते हैं, तो राख में लोटनेहारे गधे आदि पशु और घुंघची आदि के धारण करनेवाले भील, कंजर आदि मुक्ति को जावें। [फिर धुंघची आदि धारण करनेवाले भील, कंजर आदि की] और सुअर, कुत्ते, गधे आदि राख में लोटनेवाले पशुओं की मुक्ति क्यों नहीं होती?


प्रश्न―'कालाग्निरुद्रोपनिषद्' में भस्म लगाने का विधान लिखा है। वह क्या झूठा है? और 'त्र्या॒यु॒षं ज॒मद॑ग्नेः०' यजुर्वेदवचन है [३।६२], इत्यादि वेदमन्त्रों से भी भस्म-धारण का विधान [है।] और पुराणों में, रुद्र की आँख के अश्रुपात से जो वृक्ष हुआ उसी का नाम रुद्राक्ष है, इसीलिये उसके धारण में पुण्य लिखा है। [यह भी लिखा है कि] एक भी रुद्राक्ष धारण करे तो सब पापों से छूट स्वर्ग को जाय, यमराज और नरक का डर न रहै। 


उत्तर―'कालाग्निरुद्रोपनिषद्' किसी 'रखोडिया' मनुष्य अर्थात् राख धारण करनेवाले ने बनाई है। क्योंकि "यास्य प्रथमा रेखा सा [गार्हपत्याग्निश्चकारो रजो] भूर्लोकः" [४] इत्यादि वचन उसमें अनर्थक हैं। जो प्रतिदिन हाथ से बनाई रेखा है, वह भूलोक वा इसकी वाचक कैसे हो सकती है? और जो―"त्र्या॒यु॒षं ज॒मद॑ग्नेः०" यजुः [३।६२] इत्यादि मन्त्र हैं, वे भस्म वा त्रिपुण्ड्र धारण के वाची नहीं, किन्तु


"चक्षुर्वै जमदग्निर्ऋषिः" शतपथ [८।१।२।३] ='हे परमेश्वर! मेरे नेत्र की ज्योति (त्र्यायुषम्) तिगुणी अर्थात् तीन-सौ वर्ष पर्यन्त रहै, और मैं भी ऐसे धर्म के काम करूं कि जिससे दृष्टि-नाश न हो', [इस अर्थ के बोधक हैं]।


भला, यह कितनी बड़ी मूर्खता की बात है!! आँख के अश्रुपात से भी कभी वृक्ष उत्पन्न होता है? क्या परमेश्वर के सृष्टिक्रम को कोई अन्यथा कर सकता है? जैसा जिस वृक्ष का बीज परमात्मा ने रचा है, उसी से वह वृक्ष उत्पन्न हो सकता है, अन्यथा नहीं। इससे, जितना रुद्राक्ष, भस्म, तुलसी, कमलाक्ष, घास, चन्दन आदि को कण्ठ में धारण करना है, वह सब जंगली [और] पशुवत् मनुष्य का काम है। ऐसे वाममार्गी और शैव बहुत मिथ्याचारी, विरोधी और कर्त्तव्य कर्म के त्यागी होते हैं। उनमें जो कोई श्रेष्ठ पुरुष है, वह इन बातों का विश्वास न करके, अच्छे कर्म करता है। जो रुद्राक्ष [और] भस्म-धारण से यमराज के दूत डरते हैं, तो पुलिस के सिपाही भी डरते होंगे? जब रुद्राक्ष [और] भस्म-धारण करनेवालों से कुत्ता, सिंह, सर्प, बिच्छू, मक्खी और मच्छर आदि भी नहीं डरते, तो न्यायाधीश के गण क्यों डरेंगे?


प्रश्न―वाममार्गी और शैव तो अच्छे नहीं, परन्तु वैष्णव तो अच्छे हैं? 


उत्तर―ये भी वेदविरोधी होने से उनसे भी अधिक बुरे हैं।


प्रश्न―''नम॑स्ते रुद्र म॒न्यवे॑'' [यजुः १६।१], "शि॒वाय॑ च शि॒वत॑राय च" [यजुः १६।४१], ''वै॒ष्ण॒वम॑सि॒'' [यजुः ५।२१], ''वाम॒नाय॑ च॒'' [यजुः १६।३०], ''ग॒णानां॑ त्वा ग॒णप॑तिꣳहवामहे'' [यजुः २३ । १९], "भग॑वती॒ हि भू॒याः" [अथर्व० ९।१०।२०] ''सूर्य्य॑ आ॒त्मा जग॑तस्त॒स्थुष॑श्च''॥ [यजु:० १३।४६], इत्यादि वेद-प्रमाणों से शैवादि मत सिद्ध होते हैं। पुनः क्यों खण्डन करते हो?


उत्तर―इन वचनों से शैवादि सम्प्रदाय सिद्ध नहीं होते, क्योंकि 'रुद्र' परमेश्वर, प्राण-वायु, जीव, अग्रि आदि का नाम है। क्रोधकर्ता रुद्र अर्थात दष्टों को रुलानेवाले परमात्मा को नमस्कार करना, प्राण और जाठराग्नि को अन्न देना [चाहिये]―"नम इति अन्ननाम" निघण्टु [२।७], जो [शिव=] मङ्गलकारी, सब संसार का अत्यन्त कल्याण करनेवाला है, उस परमात्मा को नमस्कार करना चाहिये। ‘शिवस्य परमेश्वरस्यायं भक्तः शैवः'। 'विष्णोः परमात्मनोऽयं भक्तो वैष्णवः'। 'गणपतेः सकलजगत्स्वामिनोऽयं सेवको गाणपतः।' भगवत्या वाण्या अयं सेवको भागवतः'। 'सूर्यस्य चराचरात्मनोऽयं सेवकः सौर: '। ये सब रुद्र, शिव, विष्णु, गणपति, सूर्यादि परमेश्वर के और भगवती' सत्यभाषणयुक्त वाणी का नाम है। इसमें विना समझे ऐसा झगड़ा मचाया है, जैसे―


किसी एक वैरागी के दो चेले थे। वे गुरु के पग दाबा करते थे। एक ने दक्षिण पग और दूसरे ने बायें पग की सेवा करना बाँट लिया था। एक दिन एक चेला कहीं गया था और दूसरा अपने सेव्य पग की सेवा कर रहा था। इतने में गुरु ने करवट फेरी, तो उसके पग पर दूसरे गुरुभाई का सेव्य पग पड़ा। उसने ले डण्डा पग पर धर मारा । गुरु ने कहा कि' अरे दुष्ट ! तूने यह क्या किया?' चेला बोला―'मेरे पग के ऊपर यह पग क्यों चढ़ा?' इतने में दूसरा चेला आया। वह भी सेवा करने लगा। देखा तो पग सूजा पड़ा है। गुरु से पूछा कि 'यह मेरे सेव्य पग में क्या हुआ?' गुरु ने सब वृत्तान्त सुना दिया। वह भी मूर्ख न बोला-न चाला। चुपचाप डण्डा उठाकर बड़े बल से गुरु के दूसरे पग में मारा। तो गुरु ने उच्च स्वर से पुकार मचाई। फिर दोनों चेले डण्डा लेके गुरु के पगों को पीटने लगे। तब तो बड़ा कोलाहल मचा और लोग सुनकर आये। तब किसी बुद्धिमान् पुरुष ने आके छुड़ाया। पश्चात् उन दोनों मूर्खों को उपदेश किया―''देखो, ये दोनों पग तुम्हारे गुरु के हैं। दोनों की सेवा करने से उसी को सुख' और दुःख देने से उसी एक को दुःख होता है।"


जैसे एक गुरु की सेवा में चेलों ने लीला की, वैसे हीन, पामर, महामूर्ख, सम्प्रदायी लोगों ने की है। विष्णु, रुद्रादि सब नाम परमेश्वर के हैं, जैसा कि प्रथम समुल्लास में लिख आये हैं; उनको न जानकर शाक्त, शैव और वैष्णवादि परस्पर एक दूसरे के नाम की निन्दा करते है।


अब देखिये 'चक्रांकित' वैष्णवों की अद्भुत माया―


तापः पुण्ड्रं तथा नाम माला मन्त्रस्तथैव च। 

अमी हि पञ्च संस्काराः परमैकान्तहेतवः॥१॥ "अतप्ततनूर्न तदामो अश्नुते" इति श्रुतेः॥


[ऋ० ९।८३।१]

 [भरद्वाजसंहिता, परिशिष्ट, अ० २। श्लोक० २॥ रामानुजपटलपद्धति] 


(तापः) अर्थात् शंख, चक्र, गदा और पद्म के चिह्नों को अग्नि में तपा, भुजा के मूल में दाग देकर, दूध के पात्र में बुझाते हैं। फिर कोई-कोई उस दूध को भी पी लेते हैं; अर्थात् उसमें कुछ मनुष्य के शरीर के मांस का भी अंश आता होगा। ऐसे कर्मों से परमेश्वर को प्राप्त होने की आशा करते हैं और कहते हैं कि विना शंख, चक्रादि से शरीर तपाये जीव परमेश्वर को प्राप्त नहीं होता; क्योंकि वह (आमः) अर्थात् कच्चा है। और जैसे राज्य के चपरास आदि चिह्नों के होने से राजपुरुष जान, उससे सब लोग डरते हैं, वैसे ही विष्णु के शंख [तथा] चक्रादि आयुधों के चिह्नों को देखकर यम और यम के गण डरते हैं, और कहते हैं कि―


दोहा― बाना बड़ा दयाल का, तिलक छाप अरु माल।  

यम डरपै कालू कहै, भय माने भूपाल॥


[भक्तमाल, निष्ठा ६]


अर्थात् भगवान् का बाना=तिलक, छाप और माला धारण करना बड़ा है। जिससे यमराज और राजा भी डरता है। 


(पुण्ड्रम्) त्रिशूल के सदृश ललाट में चित्र निकालना, (नाम) नारायणदास, विष्णुदास आदि दासशब्दान्त नाम रखना, (माला) कमलगट्टे आदि की माला धारण करना और पांचवां (मन्त्र) अर्थात् “ओं नमो नारायणाय" [पद्म० भाग ६। उत्तर० अ० ७२। श्लोक ११७] जपना॥१॥ यह इन्होंने साधारण मनुष्यों के लिये मन्त्र बना रक्खा है। तथा―


श्रीमन्नारायणचरणं शरणं प्रपद्ये ॥२॥ श्रीमते नारायणाय नमः॥३॥ श्रीमते रामानुजाय नमः॥४॥


 [भक्तमाल]


इत्यादि मन्त्र धनाढ्य और माननीयों के लिये हैं। देखिये, यह भी एक दुकान ठहरी ! जैसा मुख वैसा तिलक! इन पाँच संस्कारों को 'चक्रांकित' मुक्ति के हेतु मानते हैं। इन मन्त्रों का अर्थ―


मैं नारायण को नमस्कार करता हूं॥१॥ 


और मैं लक्ष्मीयुक्त नारायण के चरणारविन्द के शरण को प्राप्त होता हूं॥२॥


और श्रीयुत नारायण को नमस्कार करता हूं अर्थात् जो शोभायुक्त नारायण है, उसको मेरा नमस्कार होवे ॥३॥


[श्रीयुत रामानुज को मैं नमस्कार करता हूं॥४॥]


जैसे 'वाममार्गी' पाँच मकार मानते हैं, वैसे 'चक्रांकित' पाँच संस्कार मानते हैं; और अपने को शंख-चक्र से दाग देने के लिये जो वेदमन्त्र का प्रमाण रखा है, उसका इस प्रकार का पाठ और अर्थ है―


प॒वित्रं॑ ते॒ वित॑तं ब्रह्मणस्पते प्र॒भुर्गात्रा॑णि॒ पर्ये॑षि वि॒श्वत॑:। 

अत॑प्ततनू॒र्न तदा॒मो अ॑श्नुते शृ॒तास॒ इद्वह॑न्त॒स्तत्समा॑शत॥१॥ 

तपो॑ष्प॒वित्रं॒ वित॑तं दि॒वस्प॒दे॥२॥


ऋ० म० ९ । सूक्त ८३ । मन्त्र १, २॥


हे ब्रह्माण्ड और वेदों के पालन करनेवाले प्रभु! सर्वसामर्थ्ययुक्त! सर्वशक्तिमान्! आपने अपनी व्याप्ति से संसार के सब अवयवों को व्याप्त कर रक्खा है। उस आपका जो व्यापक पवित्र स्वरूप है उसको, ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण, शम, दम, योगाभ्यास, जितेन्द्रिय, सत्सङ्गादि तपश्चर्या से रहित जो अपरिपक्व आत्मा-अन्तःकरणयुक्त है वह, प्राप्त नहीं होता और जो पूर्वोक्त तप से शुद्ध हैं, वे ही उस तप का आचरण करते हुये, उस तेरे शुद्धस्वरूप को अच्छे प्रकार प्राप्त होते हैं॥१॥


जो प्रकाशरूप परमेश्वर की सृष्टि में विस्तृत पवित्राचरण रूप तप करते हैं, वे ही परमात्मा को प्राप्त होने के योग्य होते हैं॥२॥ 


अब विचार कीजिये कि रामानुजीयादि लोग इस मन्त्र से 'चक्रांकित' होना क्योंकर निकालते हैं? वे विद्वान् थे वा अविद्वान्? जो विद्वान् होते तो ऐसा असम्भावित अर्थ इस मन्त्र का क्यों करते? क्योंकि इस मन्त्र में "अतप्ततनूः" शब्द है किन्तु "अतप्तभुजैकदेशः" शब्द नहीं। जो 'अतप्ततनूः' [है] यह नखाग्रशिखापर्यंत समुदाय का अर्थबोधक है, इसका प्रमाण करके अग्नि से ही तपाना [यदि] 'चक्रांकित' लोग स्वीकार करें, तो अपने-अपने शरीर को भाड़ में झोंकके सब शरीर को जला लेवें? वह भी इस मन्त्र के अर्थ से विरुद्ध है; क्योंकि इस मन्त्र में सत्यभाषणादि पवित्र कर्म करना 'तप' लिया है।


"ऋतं तपः सत्यं तपो दमस्तपः स्वाध्यायस्तपः॥” 


तैत्तिरीय० [तैत्ति० आरण्यक १०।८]


इत्यादि तप कहाता है। अर्थात् (ऋतं तपः०) यथार्थ शुद्धभाव, [सत्यम् तपः] सत्य मानना-सत्य बोलना-सत्य करना, [दमः तपः] मन को अधर्म में न जाने देना, बाह्य इन्द्रियों को अन्यायाचरण में जाने से रोक रखना अर्थात् शरीर, इन्द्रिय और मन से शुभ कर्मों का आचरण करना, [स्वाध्यायः तपः] वेदादि सत्यविद्याओं का पढ़ना-पढ़ाना, वेदानुसार आचरण करना आदि उत्तम धर्मयुक्त कर्मों का नाम 'तप' है। धातु को तपाके चमड़ी को जलाना तप नहीं कहाता।


देखो, 'चक्रांकित' लोग अपने को बड़े वैष्णव मानते हैं, परन्तु अपनी परम्परा और कुकर्म की ओर ध्यान नहीं देते कि प्रथम इनका मूलपुरुष 'शठकोप' हुआ। 'चक्रांकितों' के ही ग्रन्थों में और 'भक्तमाल' ग्रन्थ जो नाभा डूम ने बनाया है उनमें―


विक्रीय शूर्प विचचार योगी॥


 [दिव्यसूरिचरितकाव्य सर्ग २ । ५२] इत्यादि वचन लिखे हैं।


अर्थात्―शठकोप योगी सूप को बना, बेचकर, विचरता था अर्थात् कंजर जाति में उत्पन्न हुआ था। जब उसने ब्राह्मणों से पढ़ना वा सुनना चाहा होगा, तब ब्राह्मणों ने तिरस्कार किया होगा। उसने ब्राह्मणों के विरुद्ध सम्प्रदाय, तिलक, चक्रांकित होना आदि शास्त्रविरुद्ध मनमानी बातें चलाई होंगी। उसका चेला 'मुनिवाहन' जो कि चाण्डाल कुल में उत्पन्न हुआ, उसका चेला 'यावनाचार्य' [था] जो यवनकुलोत्पन्न था, जिसको नाम बदलके कोई-कोई 'यामुनाचार्य' भी कहते हैं। उनके पश्चात् रामानुज ब्राह्मणकुल में उत्पन्न होकर चक्रांकित हुआ। उसके पूर्व भाषा के कुछ ग्रन्थ बनाते थे। रामानुज ने कुछ संस्कृत पढ़के, संस्कृत में श्लोकबद्ध ग्रन्थ [बनाये] और 'शारीरकसूत्र' और 'उपनिषदों की टीका' शंकराचार्य की टीका से विरुद्ध बनाई और शंकराचार्य की बहुत-सी निन्दा की। जैसे शंकराचार्य का मत है―'जीव ब्रह्म की एकता, जगत् प्रपञ्च, सब मिथ्या मायारूप अनित्य है', इससे विरुद्ध रामानुज का [मत है कि] जीव, ब्रह्म और माया तीनों नित्य हैं। यहाँ शङ्कराचार्य का मत है कि अद्वैत अर्थात् जीव-ब्रह्म एक हैं, और ब्रह्म एक ही है दूसरा कोई वस्तु वास्तविक नहीं। यहां शंकराचार्य का मत 'ब्रह्म से अतिरिक्त जीव और कारण वस्तु का न मानना', अच्छा नहीं। रामानुज का मत इस अंश में, जो कि 'विशिष्टाद्वैत जीव और मायासहित परमेश्वर एक है', तीन का मानना और अद्वैत का कहना सर्वथा व्यर्थ है। जीव को सर्वथा ईश्वर के आधीन=परतन्त्र मानना; कण्ठी, तिलक, माला, मूर्तिपूजादि पाखण्ड-मत चलाना आदि बुरी बातें 'चक्रांकित' आदि में हैं। जैसे 'चक्राङ्कित' आदि वेदविरोध करते हैं, वैसे शंकराचार्य के मत के नहीं।


प्रश्न―मूर्त्तिपूजा कहाँ से चली? 


उत्तर―जैनियों से। 


प्रश्न―जैनियों ने कहाँ से चलाई? 


उत्तर―अपनी मूर्खता से।


प्रश्न―जैनी लोग कहते हैं कि शान्त, ध्यानावस्थित बैठी हुई मूर्ति देखके अपने जीव का भी शुभ परिणाम वैसा ही होता है।


उत्तर―जीव चेतन और मूर्त्ति जड़ [है]। क्या मूर्त्ति के सदृश जीव भी जड़ हो जायगा? यह मूर्त्तिपूजा केवल पाखण्ड मत है। जैनियों ने चलाई है, इसलिये इनका खण्डन १२वें समुल्लास में करेंगे। 


प्रश्न―वैष्णव आदि ने मूर्त्तियों में जैनियों का अनुकरण नहीं किया है, क्योंकि जैनियों की मूर्त्तियों के सदृश वैष्णवादि की मूर्त्तियाँ नहीं हैं। 


उत्तर―हाँ, यह ठीक है। जो जैनियों के तुल्य बनाते तो जैनमत में मिल जाते, इसलिये जैनों की मूर्त्तियों से विरुद्ध बनाईं; क्योंकि जैनों से विरोध करना इनका और इनसे विरोध करना जैनियों का मुख्य काम था। जैसे जैनियों ने मूर्ति नंगी, ध्यानावस्थित और विरक्त मनुष्य के समान बनाई हैं, उनसे विरुद्ध वैष्णवादि ने खूब शृङ्गारित, स्त्री के सहित, रङ्ग-राग-भोग-विषयासक्ति-सहिताकार खड़ी और बैठी मूर्त्तियां बनाई हैं। जैनी लोग बहुत से शंख, घंटा, घड़ियाल नहीं बजाते। ये लोग बड़ा कोलाहल करते हैं। तब तो ऐसी लीला के रचने से वैष्णवादि सम्प्रदायी पोपों के चेले जैनियों के जाल से बचके इनकी लीला में आ फसे और बहुत-से व्यासादि महर्षियों के नाम से मनमानी असम्भव गाथायुक्त ग्रन्थ बनाये, उनका नाम 'पुराण' रखकर कथा भी सुनाने लगे। और फिर ऐसी-ऐसी विचित्र माया रचने लगे कि पाषाण की मूर्त्तियां बनाकर गुप्त कहीं पहाड़ वा जंगलादि में धर आये वा भूमि में गाड़ दी। पश्चात् अपने चेलों में प्रसिद्ध किया कि मुझ को रात्रि को स्वप्न में महादेव, पार्वती, राधा, कृष्ण, सीता, राम वा लक्ष्मी, नारायण और भैरव, हनुमान् आदि ने कहा है कि हम अमुक-अमुक ठिकाने हैं। हमको वहां से ला, मन्दिर में स्थापन कर और तू ही हमारा पुजारी होवे तो हम मनोवांछित फल देवें। 


जब ‘आंख के अन्धे और गांठ के पूरे’ लोगों ने पोप जी की लीला सुनी तब तो सच ही मान ली और उनसे पूछा कि ऐसी वह मूर्त्ति कहां पर है? जब तो पोप जी बोले कि अमुक पहाड़ वा जंगल में है, चलो मेरे साथ दिखला दूं। तब तो वे अन्धे उस धूर्त्त के साथ चले और वहां पहुंच कर देखा। साश्चर्य होकर उस पोप के पगों में गिर कर कहा कि आपके ऊपर इस देवता की बड़ी ही कृपा है। अब आप ले चलिये और हम मन्दिर बनवा देवेंगे। उसमें इस देवता की स्थापना कर आप ही पूजा करना और हम लोग भी इस प्रतापी देवता के दर्शन-पर्सन करके मनोवांछित फल पावेंगे। इसी प्रकार जब एक ने लीला रची तब तो उसको देख सब पोप लोगों ने अपनी जीविकार्थ छल-कपट से मूर्त्तियां स्थापित कीं। 


प्रश्न―परमेश्वर निराकार है, वह ध्यान में नहीं आ सकता; इसलिये मूर्त्ति का होना आवश्यक है। भला, कुछ भी नहीं करें, तो जब मूर्त्ति के सामने जाते हैं तब कुछ परमेश्वर का स्मरण करते और नाम तो लेते ही हैं। 


उत्तर―जब परमेश्वर निराकार सर्वव्यापक है, तब उसकी मूर्त्ति ही नहीं बन सकती। जो मूर्त्ति के दर्शनमात्र से परमेश्वर का स्मरण होवे तो परमेश्वर के बनाये पृथिवी, जल, अग्नि, वनस्पति आदि अनेक पदार्थ, जिनमें ईश्वर ने अद्भुत रचना की है, क्या ऐसी रचनायुक्त पृथिवी, पहाड़ आदि परमेश्वर-रचित महामूर्त्तियाँ कि जिन पहाड़ आदि से ये मनुष्यकृत मूर्त्तियाँ बनती हैं, उनको देखकर परमेश्वर का स्मरण क्या नहीं हो सकता? जो किसी दूसरे को देख परमेश्वर का स्मरण करे, तो जब वह सामने न रहे, तब परमेश्वर को भी भूल जायें और जब परमेश्वर को मनुष्य भूल जाता है, तभी वह एकान्त पाकर अपराध कर लेता है कि यहाँ मुझको कोई नहीं देखता। जो मूर्त्ति को न मान परमेश्वर को व्यापक माने तो वह उसके डर से कि मुझको परमेश्वर देखता है, पाप न करे। नामस्मरण मात्र से कुछ भी फल नहीं होता, जैसा कि मिश्री-मिश्री कहने से मुख न मीठा और नीम-नीम कहने से कडुवा नहीं होता, किन्तु उनको जीभ से चखने से मीठा[पन] वा कडुवापन जाना जाता है। 


प्रश्न―क्या नाम लेना सर्वथा मिथ्या है, जो सर्वत्र पुराणों में नामस्मरण का बड़ा माहात्म्य लिखा है? 


उत्तर―नाम लेने की तुम्हारी रीति उत्तम नहीं। जिस प्रकार तुम नाम स्मरण करते हो, वह रीति झूठी है। 


प्रश्न―हमारी कैसी रीति है? 


उत्तर―वेदविरुद्ध। 


प्रश्न―भला, अब आप हमको नामस्मरण की वेदोक्त रीति बतलाइये? 


उत्तर―नामस्मरण इस प्रकार करना चाहिये―जैसे 'न्यायकारी' ईश्वर का एक नाम है। इस नाम से जो इसका अर्थ है कि जैसे पक्षपातरहित होकर परमात्मा सबका यथावत् न्याय करता है, वैसे उसको ग्रहण कर न्याययुक्त व्यवहार सर्वदा करना, अन्याय कभी न करना। इस प्रकार एक नाम से भी मनुष्य का कल्याण हो सकता है। 


प्रश्न―हम भी जानते हैं कि परमेश्वर निराकार है, परन्तु उसने शिव, विष्णु, गणेश, सूर्य, राम, कृष्णादि और देवी आदि के शरीर धारण करके अवतार लिये। इससे उसकी मूर्त्ति बनती है। क्या यह भी बात झूठी है? 


उत्तर―हाँ-हाँ झूठी; क्योंकि―


"अज एकपात्" [ऋ०७।३५।१३], "अकायम्" [यजुः ४०।८] 


इत्यादि विशेषणों से परमेश्वर को जन्म और शरीरधारणरहित वेद में कहा है, तथा युक्ति से भी परमेश्वर का अवतार कभी नहीं हो सकता; क्योंकि जो आकाशवत् सर्वत्र व्यापक, अनन्त और सुख, दुःख, दृश्यादि गुणरहित है, वह एक छोटे से वीर्य, गर्भाशय और शरीर में क्योंकर आ सकता है? आता-जाता वह है कि जो एकदेशी हो। जो अचल, अदृश्य [है], जिसके विना एक परमाणु भी खाली नहीं है, उसका अवतार कहना जानो 'वन्ध्या के पुत्र का विवाह कर, उसके पौत्र के दर्शन करने की बात कहना' है। 


प्रश्न―जब परमेश्वर व्यापक है तो मूर्त्ति में भी है, पुन: चाहे किसी पदार्थ में भावना करके पूजा करना अच्छा क्यों नहीं? देखो―


न काष्ठे विद्यते देवो न पाषाणे न मृण्मये। 

भावे हि विद्यते देवस्तस्माद्भावो हि कारणम्॥ 


[तुलना― गरुडपुराण, ध० कां० प्रेतखण्ड ३८।१३॥] 


परमेश्वर देव न काष्ठ, न पाषाण, न मृत्तिका के बनाये पदार्थों में है किन्तु परमेश्वर तो भाव में विद्यमान है। जहाँ भाव करें, वहीं परमेश्वर प्रसिद्ध होता है। 


उत्तर―जब परमेश्वर सर्वत्र व्यापक है तो किसी एक वस्तु में परमेश्वर की भावना करना, अन्यत्र न करना, यह ऐसी बात है कि जैसी चक्रवर्ती राजा को सब राज्य की सत्ता से छुड़ाके एक छोटी-सी कुटी का स्वामी मानना। देखो, यह कितना बड़ा अपमान है!! वैसा तुम परमेश्वर का भी अपमान करते हो। जब व्यापक मानते हो तो वाटिका में से पुष्प-पत्र तोड़, लाके, क्यों चढ़ाते [हो]? चन्दन को घिस क्यों लगाते [हो]? धूप को जला, क्यों देते हो? घण्टा, घड़ियाल, झाँज, पखावजों को लकड़ी से कूटना-पीटना क्यों करते हो? तुम्हारे हाथों में है, क्यों जोडते हो? शिर में है, क्यों नमाते हो? अन्न-जलादि में है, क्यों नैवेद्य धरते हो? जल में है, स्नान क्यों कराते हो? क्योंकि उन सबमें व्यापक परमात्मा है। और तुम व्यापक की पूजा करते हो वा व्याप्य की? जो व्यापक की करते हो, तो पाषाण, लकड़ी आदि पर चन्दन, पुष्पादि क्यों चढ़ाते हो? और जो व्याप्य की करते हो तो ‘हम परमेश्वर की पूजा करते हैं’, ऐसा झूठ क्यों बोलते हो? 'हम पाषाणादि के पुजारी हैं', ऐसा सत्य क्यों नहीं बोलते?


'भाव' सच्चा है वा झूठा? जो कहो 'सच्चा' है, तो तुम्हारे भाव के आधीन होकर परमेश्वर बद्ध हो जायगा; और तुम मिट्टी में सुवर्ण की, पाषाण में हीरा-पन्ना की, समुद्रफेन में मोती की, जल में घी-दूध की, बर्फ़ में दही आदि की, धूल में मैदा-शक्कर की भावना करके उनको वैसा क्यों नहीं बना लेते हो? दुःख की भावना कोई नहीं करता, फिर दुःख क्यों होता है? और सुख की भावना करते हो, वह क्यों नहीं होता? अन्धा नेत्र की भावना करके क्यों नहीं देखता? मरने की भावना नहीं है, क्यों मर जाते हो? इसलिये तुम्हारी भावना सच्ची नहीं; क्योंकि 'भावना' 'जैसे में वैसा भाव करने' को कहते हैं, जैसे अग्नि में अग्नि, जल में जल जानना। और जल में अग्नि, अग्नि में जल समझना अभावना है; क्योंकि जैसे को वैसा जानना 'ज्ञान' और अन्यथा जानना 'अज्ञान' है। इसलिये तुम अभावना को भावना और भावना को अभावना कहते हो। 


प्रश्न―अजी! जब तक वेदमन्त्रों से आवाहन नहीं करते, देवता नहीं आता, और आवाहन करने से झट आता और विसर्जन करने से चला जाता है। 


उत्तर―जो मन्त्र से आवाहन करने से देवता आ जाता है, तो मूर्त्ति चेतन क्यों नहीं हो जाती? और विसर्जन करने से चला जाता है, तो वह कहाँ से आता और कहाँ जाता है? 


सुनो भाई! पूर्ण परमात्मा न आता, न जाता है। जो तुम मन्त्र से परमेश्वर को बुला लेते हो, तो उन्हीं मन्त्रों से अपने मरे हुए पुत्र के शरीर में जीव को क्यों नहीं बुला लेते? और शत्रु के शरीर से जीवात्मा का विसर्जन करके क्यों नहीं मार सकते? 


सुनो भाई भोले लोगो! ये 'पोप' जी तुमको ठगकर अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वेदों में पाषाणादि मूर्त्तिपूजा और परमेश्वर के आवाहन-विसर्जन करने का एक अक्षर भी नहीं है। 


प्रश्न― प्राणा इहागच्छन्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा॥ आत्मेहागच्छतु सुखं चिरं तिष्ठतु स्वाहा॥ इन्द्रियाणीहागच्छन्तु सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा॥  


[प्रतिष्ठामयूख, तन्त्रग्रन्थ] 


इत्यादि वेद के मन्त्र हैं, क्यों कहते हो नहीं हैं? 


उत्तर―अरे भाई! बुद्धि को थोड़ी-सी तो अपने काम में लाओ। ये सब वाममार्गियों के वेदविरुद्ध कपोलकल्पित तन्त्रग्रन्थों की पोपरचित पंक्तियाँ हैं, वेदवचन नहीं। 


प्रश्न―क्या तन्त्र झूठा है? 


उत्तर―हां, सर्वथा झूठा है। जैसे आवाहन, प्राणप्रतिष्ठादि, पाषाण-आदि मूर्त्तिविषयक एक मन्त्र भी वेदों में नहीं, वैसे 'स्नानं समर्पयामि' इत्यादि वचन भी नहीं। अर्थात् इतना भी नहीं है कि 'पाषाणादिमूर्त्तिं रचयित्वा मन्दिरेषु संस्थाप्य गन्धादिभिरर्चयेत्'=पाषाण की मूर्त्ति बना, मन्दिरों में स्थापन कर चन्दन-अक्षतादि से पूजे। ऐसा लेशमात्र भी नहीं। 


प्रश्न―जो वेदों में विधि नहीं, तो खण्डन भी नहीं है; और जो खण्डन है तो 'प्राप्तौ सत्यां निषेधः' =मूर्त्ति के होने से ही खण्डन संगत हो सकता है। 


उत्तर―विधि तो [है ही] नहीं, अपितु परमेश्वर के स्थान में किसी अन्य पदार्थ को पूजनीय मानने का भी सर्वथा निषेध किया है। क्या अपूर्वविधि नहीं होता? सुनो! यह है―


अ॒न्धन्तमः॒ प्र वि॑शन्ति॒ येऽस॑म्भूतिमु॒पास॑ते।

ततो॒ भूय॑ऽइव॒ ते तमो॒ यऽउ॒ सम्भू॑त्याᳬ र॒ताः॥[१॥] 


यजुः० अ० ४०। मं० ९॥


न तस्य॑ प्रति॒माऽअ॑स्ति॒॥ [२॥] 


यजुः० अ० ३२।मं० ३॥

 

यद्वाचानभ्युदितं येन वागभ्युद्यते। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥३॥ 

यन्मनसा न मनुते येनाहुर्मनो मतम्। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥४॥ 

यच्चक्षुषा न पश्यति येन चक्षूँषि पश्यति। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥५॥ 

यच्छ्रोत्रेण न शृणोति येन श्रोत्रमिदं श्रुतम्। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥६॥ 

यत्प्राणेन न प्राणिति येन प्राणः प्राणीयते। 

तदेव ब्रह्म त्वं विद्धि नेदं यदिदमुपासते॥७॥ 


केनोप० [खं० १। मं० ४-८]॥


जो असम्भूति अर्थात् अनुत्पन्न अनादि प्रकृति= कारण की, ब्रह्म के स्थान में उपासना करते हैं, वे अन्धकार अर्थात् अज्ञान और दुःखसागर में डूबते हैं; और सम्भूति=जो कारण से उत्पन्न हुए कार्यरूप पृथिवी आदि भूत, पाषाण और वृक्षादि अवयव और मनुष्यादि के शरीर की उपासना ब्रह्म के स्थान में करते हैं, वे महामूर्ख उस अन्धकार से भी अधिक अन्धकार अर्थात् चिरकाल [तक] घोर दुःखरूप नरक में गिरके महाक्लेश भोगते हैं॥१॥ 


जो सब जगत् में व्यापक है उस निराकार परमात्मा की प्रतिमा, परिमाण, सादृश्य वा मूर्त्ति नहीं है॥२॥ 


जो वाणी का 'इदंता' अर्थात् 'यह जल है लीजिये', वैसा विषय नहीं, और जिसके धारण और सत्ता से वाणी की प्रवृत्ति होती है, उसी को ब्रह्म जान और [उसी की] उपासना कर; और जो उससे भिन्न है, वह उपासनीय नहीं॥३॥ 


जो मन से 'इयत्ता' करके मनन में नहीं आता, जो मन को जानता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर; जो उससे भिन्न जीव और अन्तःकरण है, उसकी उपासना ब्रह्म के स्थान में मत कर॥४॥ 


जो आँखों से नहीं दीख पड़ता और जिससे सब आँखें देखती हैं, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। और जो उससे भिन्न सूर्य, विद्युत् और अग्नि आदि जड़ पदार्थ हैं, उनकी उपासना मत कर॥५॥ 


जो श्रोत्र से नहीं सुना जाता और जिससे श्रोत्र सुनता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। उससे भिन्न शब्दादि की उपासना उसके स्थान में मत कर॥६॥ 


जो प्राणों से चलायमान नहीं होता, जिससे प्राण गमन को प्राप्त होता है, उसी को तू ब्रह्म जान और उसी की उपासना कर। जो यह उससे भिन्न वायु है, उसकी उपासना मत कर॥५॥ 


इत्यादि बहुत से निषेध हैं।


निषेध प्राप्त और अप्राप्त का भी होता है। ‘प्राप्त’ का जैसे―कोई कहीं बैठा हो, उसको वहाँ से उठा देना। ‘अप्राप्त’ का जैसे―'हे पुत्र! तू चोरी कभी मत करना, कुए में मत गिरना, दुष्टों का सङ्ग मत करना, विद्याहीन मत रहना', इत्यादि अप्राप्त का भी निषेध होता है। सो मनुष्यों के ज्ञान में अप्राप्त का और परमेश्वर के ज्ञान में प्राप्त का निषेध किया है। इसलिये पाषाणादि मूर्त्तिपूजा अत्यन्त निषिद्ध है। 


प्रश्न―मूर्त्तिपूजा में पुण्य नहीं, तो पाप तो नहीं है? 


उत्तर―कर्म दो ही प्रकार के होते हैं―एक विहित=जो वेद में कर्त्तव्यता से सत्यभाषणादि प्रतिपादित हैं। दूसरा निषिद्ध=जो अकर्त्तव्यता से मिथ्याभाषणादि वेद में निषिद्ध हैं। जैसे विहित का अनुष्ठान करना वह धर्म, उसका न करना अधर्म है, वैसे ही निषिद्ध कर्म का करना अधर्म और न करना धर्म है। जब वेद में निषिद्ध मूर्त्तिपूजादि कर्म तुम करते हो, तो पापी क्यों नहीं? 


प्रश्न―देखो, वेद अनादि हैं। उस समय मूर्त्ति का क्या काम था? क्योंकि पहले तो देवता प्रत्यक्ष थे। यह रीति तो पीछे से तन्त्र और पुराणों से चली है। जब मनुष्यों का ज्ञान और सामर्थ्य न्यून हो गया, परमेश्वर को ध्यान में नहीं ला सके, तब मूर्त्ति का ध्यान करने लगे। इस कारण अज्ञानियों के लिये मूर्त्तिपूजा है। क्योंकि सीढ़ी-सीढ़ी से चढ़े तो भवन पर पहुँच जाय। पहली सीढ़ी छोड़कर ऊपर जाना चाहे तो नहीं जा सकता, इसलिये मूर्त्ति प्रथम सीढ़ी है। इसको पूजता-पूजता जब ज्ञानी होगा और अन्तःकरण पवित्र होगा, तब परमात्मा का ध्यान कर सकेगा। जैसे लक्ष्य पर मारनेवाला प्रथम स्थूल लक्ष्य में तीर, गोली वा गोला आदि मारता-मारता पश्चात् सूक्ष्म पर निशाना भी मार सकता है, वैसे स्थूल मूर्त्ति की पूजा करता-करता सूक्ष्म ब्रह्म को भी प्राप्त होता है। जैसे लड़कियाँ गुड़ियों का खेल तब तक करती हैं, जब तक सच्चे पति को प्राप्त नहीं होतीं, इत्यादि प्रकार से मूर्त्तिपूजा करना दुष्ट काम नहीं। 


उत्तर―जब वेदविहित में धर्म और वेदविरुद्धाचरण में अधर्म है, तो तुम्हारे कहने से भी मूर्त्तिपूजा करना, अधर्म ठहरा। जो ग्रन्थ वेद से विरुद्ध हैं उनका प्रमाण करना, जानो 'नास्तिक' होना है। सुनो―


नास्तिको वेदनिन्दकः॥१॥      

       

[मनु० २।११]॥

 

या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः। 

सर्वास्ता निष्फलाः प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृताः॥२॥ 

उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित्। 

तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च॥३॥ 


मनु०, अ० १२ [श्लो० ९५-९६]॥ 


मनु जी कहते हैं―जो वेदों की निन्दा अर्थात् अपमान, त्याग, विरुद्धाचरण करता है, वह 'नास्तिक' कहाता है॥१॥ 


जो ग्रन्थ वेदबाह्य, कुत्सित पुरुषों के बनाये, संसार को दुःखसागर में डुबानेवाले हैं, वे सब निष्फल, असत्य, अन्धकाररूप, इस लोक और परलोक में दुःखदायक हैं॥२॥ 


जो इन वेदों से विरुद्ध ग्रन्थ उत्पन्न होते हैं, वे आधुनिक होने से शीघ्र नष्ट हो जाते हैं। उनका मानना निष्फल और झूठा है॥३॥ 


इसी प्रकार ब्रह्मा से लेकर जैमिनि मुनि पर्यन्त का मत है कि वेदविरुद्ध को न मानना, किन्तु वेदानुकूल का ही आचरण करना धर्म है। क्योंकि वेद सत्य अर्थ का प्रतिपादक है, इससे विरुद्ध जितने तन्त्र और पुराण हैं, वे वेदविरुद्ध होने से झूठे हैं, वे वेद से विरुद्ध चलते हैं। उनमें कही हुई मूर्त्तिपूजा भी अधर्मरूप है। मनुष्यों का ज्ञान जड़ की पूजा से नहीं बढ़ सकता किन्तु जो कुछ ज्ञान है, सो भी नष्ट हो जाता है। इसलिये ज्ञानियों की सेवा-सङ्ग से ज्ञान बढ़ता है, पाषाणादि से नहीं। क्या पाषाणादि मूर्त्तिपूजा से परमेश्वर को ध्यान में कभी [कोई] ला सकता है? नहीं-नहीं। 


मूर्त्तिपूजा सीढ़ी नहीं किन्तु एक बड़ी खाई है जिसमें गिरकर [मनुष्य] चकनाचूर हो जाता है। पुनः उस खाई से निकल नहीं सकता, किन्तु उसी में मर जाता है। हां, छोटे धार्मिक विद्वानों से लेकर परम विद्वान् योगियों के संग से सद्विद्या और सत्यभाषणादि परमेश्वर की प्राप्ति की सीढ़ियाँ हैं, जैसी कि ऊपर घर में जाने की निःश्रेणी होती है। किन्तु मूर्त्तिपूजा करते-करते ज्ञानी तो कोई न हुआ, प्रत्युत सब मूर्त्तिपूजक अज्ञानी रहकर, मनुष्यजन्म व्यर्थ खोके, बहुत मर गये; और जो अब हैं वा होंगे, वे भी मनुष्यजन्म के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्तिरूप फलों से विमुख होकर निरर्थ नष्ट हो जायेंगे। मूर्त्तिपूजा ब्रह्म की प्राप्ति में स्थूल लक्ष्यवत् नहीं, किन्तु धार्मिक, विद्वान् [होना] और सृष्टिविद्या [का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना लक्ष्य] है; इसको बढ़ाता-बढ़ाता ब्रह्म को भी पाता है। और मूर्त्ति गुड़ियों के खेलवत् नहीं, किन्तु प्रथम अक्षराभ्यास, सुशिक्षा का होना, गुड़ियों के खेलवत् ब्रह्म की प्राप्ति के साधन हैं। सुनिये, जब अच्छी शिक्षा और विद्या को प्राप्त होगा, तब सच्चे स्वामी परमात्मा को भी प्राप्त हो जायगा। 


प्रश्न―साकार में मन स्थिर होता है और निराकार में स्थिर होना कठिन है, इसलिये मूर्त्तिपूजा रहनी चाहिये। 


उत्तर―साकार में मन स्थिर कभी नहीं हो सकता; क्योंकि―


[प्रथम दोष-] उसको मन झट ग्रहण करके उसी के एक-एक अवयव में घूमता और दूसरे में दौड़ जाता है, और निराकार अनन्त परमात्मा के ग्रहण में यावत्सामर्थ्य मन अत्यन्त दौड़ता है, तो भी अन्त नहीं पाता। निरवयव होने से चञ्चल भी नहीं रहता किन्तु उसी के गुण-कर्म-स्वभाव का विचार करता-करता आनन्द में मग्न होकर स्थिर हो जाता है। और जो साकार में स्थिर होता तो सब जगत् का मन स्थिर हो जाता; क्योंकि जगत् में मनुष्य, स्त्री, पुत्र, धन, मित्र आदि साकार में फसा रहता है, परन्तु किसी का मन स्थिर नहीं होता, जब तक निराकार में न लगावे; क्योंकि उसके निरवयव होने से उसमें मन स्थिर हो जाता है, इसलिये मूर्त्तिपूजा करना अधर्म है। 


दूसरा―उसमें करोड़ों रुपये मन्दिरों में व्यय करके दरिद्र हो जाते हैं और उसमें प्रमाद होता है। 


तीसरा―स्त्री-पुरुषों का मन्दिरों में मेला होने से व्यभिचार, लड़ाई-बखेड़ा और रोग आदि उत्पन्न होते हैं। 


चौथा―उसी को धर्म, अर्थ, काम और मुक्ति का साधन मानके पुरुषार्थरहित होकर मनुष्यजन्म व्यर्थ गमाते हैं। 


पाँचवाँ―नाना प्रकार की विरुद्ध-स्वरूप-नाम-चरित्रयुक्त मूर्त्तियों के पुजारियों का ऐक्यमत नष्ट होके, विरुद्धमत में चलकर, आपस में फूट बढ़ाके, देश का नाश करते हैं। 


छठा―उसीके भरोसे में शत्रु का पराजय और अपना विजय मान बैठे रहते हैं। उनका पराजय होकर राज्य, स्वातन्त्र्य और धन का सुख [आदि] उनके शत्रुओं के आधीन होते हैं। आप पराधीन 'भठियारे के टट्टू' और 'कुम्हार के गधे' के तुल्य शत्रुओं के वश में होकर अनेकविध दुःख पाते हैं। 


सातवाँ―जब कोई किसी को कहे कि हम तेरे बैठने के आसन वा नाम पर पत्थर धरें, तो जैसे वह उन पर क्रोधित होकर मारता है वा गाली प्रदान करता है, वैसे ही जो परमेश्वर के उपासना के स्थान हृदय और नाम पर पाषाणादि मूर्त्तियाँ धरते हैं, उनका सत्यानाश परमेश्वर क्यों न करे? 


आठवाँ―भ्रान्त होकर मन्दिर-मन्दिर, देश-देशान्तर में घूमते-घूमते दुःख पाते; धर्म, संसार और परमार्थ का काम नष्ट करते; चोर आदि से पीड़ित होते, ठगों से ठगाते रहते हैं। 


नववाँ―दुष्ट पुजारियों को धन देते हैं, वे उस धन को वेश्या-परस्त्रीगमन, मद्य-मांसाहार, लड़ाई-बखेड़ों में व्यय करते हैं, जिससे दाता के सुख का मूल नष्ट होकर दुःख होता है। 


दशवाँ―माता-पिता आदि माननीयों का अपमान और पाषाणादि मूर्त्तियों का मान करके कृतघ्न हो जाते हैं। 


ग्यारहवाँ―उन मूर्त्तियों को कोई तोड़ डालता वा चोर ले जाता है तब ‘हा-हा' करके रोते रहते हैं। 


बारहवाँ―पुजारी परस्त्रियों के संग और पुजारिन परपुरुषों के संग से प्रायः दूषित होकर स्त्री-पुरुष के प्रेम के आनन्द को हाथ से खो बैठते हैं। 


तेरहवाँ―स्वामी-सेवक की आज्ञा का पालन यथावत् न होने से, आपस में विरुद्ध होकर, नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं। 


चौदहवाँ―जड़ का ध्यान करनेवाले का आत्मा भी जड़बुद्धि होता है, क्योंकि ध्येय का जड़त्व-धर्म अन्तःकरण द्वारा आत्मा में अवश्य आता है। 


पन्द्रहवाँ―परमेश्वर ने पुष्पादि सुगन्ध के लिये, वायु-जल के दुर्गन्ध निवारण और आरोग्यता के लिये बनाये हैं। उनको पुजारी तोड़कर, पूर्ण सुगन्ध के समय तक उनका सुगन्ध होता, परन्तु उनका नाश मध्य में ही कर देते हैं। पुष्पादि, कीच के साथ मिल-सड़कर उलटा दुर्गन्ध उत्पन्न करते हैं। क्या परमात्मा ने पत्थर पर चढ़ाने के लिये पुष्पादि सुगन्धियुक्त पदार्थ रचे हैंध? इसलिये मूर्त्तिपूजा करने में पाप होता है। 


सोलहवां―पत्थर पर चढ़े हुए चन्दन और अक्षत आदि सबका जल और मृत्तिका का संयोग होने से मोरी वा कुण्ड में आकर, सड़के, इतना दुर्गन्ध उससे आकाश में चढ़ता है कि जितना मनुष्य के मल का। और सहस्रों जीव उसमें पड़ते, उसी में मरते, और सड़ते। 


इत्यादि पापों का मूलकारण पाषाणादि-मूर्त्तिपूजा ही है। मूर्त्तिपूजा के करने में ऐसे-ऐसे अनेक दोष आते हैं, इसलिये पाषाणादि-मूर्त्तिपूजा सज्जन लोगों को सर्वथा त्यक्तव्य है। और जिन्होंने पाषाणमयी मूर्त्ति की पूजा की है, करते हैं और करेंगे, वे पूर्वोक्त दोषों से न बचे, न बचते हैं और न बचेंगे। 


प्रश्न―किसी प्रकार की मूर्त्तिपूजा करनी [चाहिये] वा नहीं? और जो अपने आर्यावर्त में 'पंचदेवपूजा' शब्द प्राचीन परम्परा से चला आता है, उसका यही 'पंचायतनपूजा' जो कि शिव, विष्णु, अम्बिका, गणेश और सूर्य की मूर्त्ति बनाकर पूजते हैं [अर्थ] है वा नहीं? 


उत्तर―किसी प्रकार की मूर्त्तिपूजा न करनी चाहिये; किन्तु 'मूर्त्तिमान्' जो नीचे कहेंगे, उनकी 'पूजा' अर्थात् सत्कार करना चाहिये। यह 'पंचदेवपूजा', [और] 'पंचायतनपूजा' शब्द बहुत अच्छे अर्थवाला था, परन्तु मूढ़ों ने उस सदर्थ को छोड़कर, असत्य अर्थ को पकड़ लिया, जो आजकल शिवादि पाँचों की मूर्त्तियाँ बनाकर पूजते हैं। उनका खण्डन तो अभी कर चुके हैं; पर जो सच्ची ‘पंचायतन' वेदोक्त और 

वेदानुकूल देवपूजा और मूर्त्तिपूजा यह है, सुनो ―


मा नो॑ वधीः पि॒तरं॒ मोत मा॒त॒रम्॥१॥ 


यजुः० [१६।१५] 


आ॒चा॒र्य उप॒नय॑मानो ब्रह्मचा॒रिणं॑ कृणुते॥२॥ 


[अथर्व० ११।५।३]

 

अति॑थिर्गृ॒हाना॒गच्छे॑त्॥३॥


 अथर्व० [१५।१२।१] 


अर्च॑त प्रार्च॑त॒ प्रिय॑मेधासो॒ अर्च॑त॥४॥ 


ऋग्वेद [८।६९।८] 


त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि॥५॥


तैत्तिरीयोपनि० [१।१]

 

कतम एको देव इति स ब्रह्म त्यदित्याचक्षते॥६॥ 


शतपथ० [कां० १४] प्रपाठक ५। ब्राह्मण ७। कण्डिका १० ॥

 

मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव॥७॥ 


तैत्तिरीयोप० [शिक्षावल्ली। अनु० ११।२]

 

पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। 

पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥८॥ 


मनु [३।५५]


पूज्यो देववत्पतिः॥९॥ 


मनुस्मृति [तुलना―५।१५४] 


प्रथम―'माता' मूर्त्तिमती पूजनीय देवता [है], अर्थात् सन्तानों को, तन-मन धन से वा सेवा करके माता को प्रसन्न रखना चाहिये और हिंसा अर्थात् ताड़ना कभी न करनी चाहिये। 


दूसरा―'पिता' सत्कर्त्तव्य देव [है]। उसकी भी माता के समान सेवा करनी चाहिये॥१॥ 


तीसरा―'आचार्य' जो विद्या का देनेवाला है, उसकी तन, मन से सेवा करनी चाहिये॥२॥ 


चौथा 'अतिथि'―जो विद्वान् धार्मिक, निष्कपटी, सबकी उन्नति चाहनेवाला, [हो और जो] जगत् में भ्रमण करता हुआ, सत्य उपदेश से सबको सुखी करता रहे, उसकी सेवा करें॥३॥ 


पाँचवाँ―स्त्री के लिये पति [पूजनीय] और पुरुष के लिये स्वपत्नी पूजनीया है॥८९॥ 


ये पाँच मूर्त्तिमान् देव हैं, जिनके संग से मनुष्यदेह की उत्पत्ति, पालन, सत्यशिक्षा-विद्या और सत्योपदेश की प्राप्ति होती है। ये ही परमेश्वर को प्राप्त करने की सीढ़ियाँ है। इनकी सेवा न करके जो पाषाणादि-मूर्त्तियाँ पूजते हैं, वे अतीव पामर, नरकगामी हैं। 


प्रश्न―माता-पिता आदि की सेवा करें और मूर्त्तिपूजा भी करें, तब तो कोई दोष नहीं? 


उत्तर―पाषाणादि-मूर्त्तिपूजा तो सर्वथा छोड़ने और मातादि मूर्त्तिमानों की सेवा करने में ही कल्याण है। बड़े अनर्थ की बात है कि साक्षात् माता आदि प्रत्यक्ष सुखदायक देवों को छोड़के अदेव पाषाणादि में शिर मारना स्वीकार किया। इसको मूढों ने इसीलिये स्वीकार किया है कि जो माता-पितादि के सामने नैवेद्य वा भेंट-पूजा धरेंगे तो वे स्वयं खा लेंगे और भेंट-पूजा ले लेंगे, हमारे मुख वा हाथ में न पड़ेगी। इससे पाषाणादि की मूर्त्ति बना, उसके आगे नैवेद्य धर, टं टं घंटा, और पूँ-पूँ शंख बजा, अंगूठा दिखला 'त्वमङ्गुष्ठं गृहाण, भोजनं पदार्थं वाऽहं ग्रहीष्यामि'=जैसे कोई किसी को छले वा चिड़ावे कि 'तू अंगूठा ले' और अंगूठा दिखलावे, उसके आगे से सब पदार्थ ले आप भोगे, वैसी ही लीला इन 'पूजारियों' अर्थात् 'पूजा' नाम सत्कर्म के शत्रुओं की है। [ये] मूढ़ों को चटक-मटक, चलक-झलक दिखा, मूर्त्तियों को बना-ठना, आप ठगों के तुल्य बन-ठनके, बेचारे निर्बुद्धियों, अनाथों का माल मारके मौज करते हैं। जो कोई धार्मिक राजा होता तो इन पाषाणप्रियों को पत्थर तोड़ने, बनाने और घर रचने आदि कामों में लगाके खाने-पीने को देता, निर्वाह कराता। 


प्रश्न―जैसे स्त्री आदि की पाषाणादि मूर्त्ति देखने से कामोत्पत्ति होती है, वैसे वीतराग शान्त की मूर्त्ति देखने से वैराग्य और शान्ति की प्राप्ति क्यों न होगी? 


उत्तर―नहीं हो सकती; क्योंकि मूर्त्ति के जड़त्व धर्म आत्मा में आने से विचारशक्ति घट जाती है। विवेक के विना न वैराग्य, और वैराग्य के विना न विज्ञान होता है, विज्ञान के विना शान्ति नहीं होती। और जो कुछ होता है सो उनके संग, उपदेश और उनके इतिहासादि के देखने से होता है, क्योंकि किसी का गुण वा दोष जाने विना, उसकी मूर्त्तिमात्र देखने से प्रीति ही नहीं होती। प्रीति होने का कारण गुणज्ञान है। ऐसे मूर्त्तिपूजा आदि बुरे कारणों से ही आर्यावर्त में निकम्मे ‘पूजारी’, भिक्षुक, आलसी, पुरुषार्थरहित करोड़ों मनुष्य हुए हैं। स्वयं मूढ होने से सब संसार में मूढ़ता उन्हींने फैलाई है, झूठ-छल भी बहुत-सा फैलाया है। 


प्रश्न―देखो, काशी में 'अवरङ्गजेब' (औरंगजेब)' बादशाह को 'लाटभैरव' आदि ने बड़े चमत्कार दिखलाये थे। जब मुसलमान उनको तोड़ने गये, और उन्होंने जब उन पर तोप के गोले मारे, तब बड़े-बड़े भमरों ने निकलकर, सब फ़ौज को व्याकुल कर, भगा दिया। 


उत्तर―यह पाषाण का चमत्कार नहीं, किन्तु वहाँ भमरों के छत्ते लग रहे होंगे। उनका स्वभाव है, जब कोई उनको छेड़े, तो काटने दौड़ते हैं। और जो दूध की धारा का चमत्कार होता था, वह पुजारी की लीला थी। 


प्रश्न―देखो, महादेव म्लेच्छ को दर्शन न देने के लिये कूप में और वेणीमाधव एक ब्राह्मण के घर में जा छिपे। क्या यह भी चमत्कार नहीं है? 


उत्तर―भला, जिसके कोटपाल कालभैरव, लाटभैरव आदि भूत-प्रेत और गरुड़ आदि [गण हैं, उन] गणों ने मुसलमानों को लड़के क्यों न हटाया? जब महादेव और विष्णु की पुराणों में कथा है कि अनेक त्रिपुरासुर आदि बड़े भयंकर दुष्टों को भस्म कर दिया, तो मुसलमानों को भस्म क्यों न किया? इससे यह सिद्ध होता है कि वे बेचारे पाषाण क्या लड़ते-लड़ाते? जब मुसलमान मन्दिर और मूर्त्तियों को तोड़ते-फोडते हुए काशी के पास आये, तब पुजारियों ने उस पाषाण के लिङ्ग को कूप में डाल [दिया] और वेणीमाधव को ब्राह्मण के घर में छिपा दिया। जब काशी में कालभैरव के डर के मारे यमदूत नहीं जाते, प्रलय में भी काशी का नाश होने नहीं देते, तो म्लेच्छों के दूतों को क्यों न डराया? और अपने राजा के मन्दिर का क्यों नाश होने दिया? यह सब पोपलीला है। 


प्रश्न―गया में श्राद्ध करने से पितरों के पाप छूटकर वहाँ के श्राद्ध के पुण्यप्रभाव से पितर स्वर्ग में जाते और पितर अपना हाथ निकालकर पिण्ड लेते हैं, क्या यह भी बात झूठ है? 


उत्तर―सर्वथा झठ। जो वहां पिण्ड देने का यही प्रभाव है, तो जिन पण्डों को पितरों के सुख के लिये लाखों रुपये देते हैं, उनका व्यय गयावाले [पण्डे] वेश्यागमनादि पापों में करते हैं, वह पाप क्यों नहीं छूटता? और हाथ निकलता आजकल कहीं नहीं दीखता, विना पण्डों के हाथों के। यहाँ यह कि कभी किसी धूर्त्त ने पृथिवी में गुफा (गड्ढा) खोद उसमें एक मनुष्य बैठाकर उसके मुख पर कुश बिछा, पिण्ड दिया होगा। उस कपटी मनुष्य ने उठा लिया होगा। किसी 'आँख के अन्धे गाँठ के पूरे' को इस प्रकार ठगा हो तो आश्चर्य नहीं। वैसे ही ‘वैजनाथ’ को रावण लाया था, यह भी मिथ्या बात है। 


प्रश्न―देखो, कलकत्ते की 'काली' और 'कामाक्षा' आदि देवियों को लाखों मनुष्य मानते हैं, क्या यह चमत्कार नहीं है?


उत्तर―कुछ भी नहीं। ये अन्धे लोग भेड़ के तुल्य ‘एक के पीछे दूसरे’ चलते हैं, कूप-खाड़े में गिरते हैं, हट नहीं सकते; वैसे ही एक मूर्ख के पीछे दूसरे चलकर मूर्त्तिपूजा रूप गढ़े में फसकर दुःख पाते हैं। 


प्रश्न―भला, यह तो जाने दो, परन्तु 'जगन्नाथ' में प्रत्यक्ष चमत्कार है। प्रत्येक कलेवर बदलने के समय चन्दन का लकड़ा समुद्र में से स्वयमेव आता है। चूल्हे पर ऊपर-ऊपर सात हंडे धरने से ऊपर-ऊपर के पहले-पहले पकते हैं। जो कोई वहाँ जगन्नाथ की प्रसादी न खावे तो कुष्ठी हो जाता है और रथ आप से आप चलता है, पापी को दर्शन नहीं होता। 'इन्द्रदमन' के राज्य में देवताओं ने मन्दिर बनाया है। कलेवर बदलने के समय एक राजा, एक पण्डा, एक बढ़ई [का] मर जाना आदि चमत्कारों को तुम झूठ न कर सकोगे। 


उत्तर―जिसने बारह वर्ष पर्यन्त जगन्नाथ की पूजा की थी, वह विरक्त होकर मथुरा में आया था। मुझसे मिला था। मैंने इन बातों का उत्तर पूछा था। उन्होंने ये सब बातें झूठ बतलाईं। किन्तु विचार से निश्चय यह है कि जब कलेवर बदलने का समय आता है, तब नौका में चन्दन की लकड़ी ले समुद्र में डालते हैं। वह समुद्र की लहरियों से किनारे लग जाती है। उसको ले सुतार लोग मूर्त्तियाँ बनाते हैं। जब रसोई बनती है, तब किवाड़ी बंद करके, विना रसोइयों के अन्य किसी को न जाने, न देखने देते हैं। भूमि पर चारों ओर छ: और बीच में एक, चक्राकार चूल्हे बनाते हैं। उन हंडों के नीचे घी, मिट्टी और राख लगा, छ: चूल्हों पर चावल चुड़ा (=पका), उनके तले माँज कर, उस बीच के हंडे में उसी समय चावल डाल, छ: चूल्हों के मुख लोहे के तवों से बंध कर, दर्शन करनेवालों को जो कि धनाढ्य हों, बुलाके दिखलाते हैं। ऊपर-ऊपर के हंडों से चावल निकाल, चुड़े हुए चावलों को दिखला, नीचे के कच्चे चावल निकाल, दिखाके, उनसे कहते हैं कि "कुछ हंडे के लिये धरो।" 'आँख के अन्धे गाँठ के पूरे' रुपये-अशर्फी धरते और कोई-कोई मासिक भी बांध देते हैं। 


शूद्र और नीच लोग मन्दिर में नैवेद्य लाते हैं। जब नैवेद्य हो चुकता है तब वे शूद्र और नीच लोग जूठा कर देते हैं। पश्चात् जो कोई रुपया देकर हंडा लेवे, उसके घर पहुँचाते। और गरीब गृहस्थ और साधु-सन्तों से लेके शूद्र और अन्त्यज पर्यन्त एक पंक्ति में बैठ, जूठा भोजन करते हैं। जब वह पंक्ति उठती है, तब उन्हीं पत्तलों पर दूसरों को बैठाते जाते हैं। महा-अनाचार है। और बहुत से मनुष्य वहां जाकर उनका जूठा न खाके, अपने हाथ से बना, खाकर चले आते हैं। बहुत से प्रसादी नहीं खाते, उनको कुछ भी कुष्ठादि रोग नहीं होते। और उस जगन्नाथपुरी में भी बहुत-से कुष्ठी हैं, नित्यप्रति जूठ खाने से भी उनका रोग नहीं छूटता। 


और यह जगन्नाथ में वाममार्गियों ने 'भैरवीचक्र' बनाया है; क्योंकि सुभद्रा श्रीकृष्ण और बलदेव की बहिन लगती है। उसी को दोनों भाइयों के बीच में स्त्री और माता के स्थान पर बैठाया है। जो 'भैरवीचक्र' न होता तो यह बात कभी न होती। 


और रथ के पहियों के साथ 'कला' बनाई है। जब उसको सूधी घुमाते हैं वह सूधी घूमती है, तब रथ चलता है। जब मेले के बीच में पहुंचता है तभी उसकी कील को उलटी घुमा देने से रथ खड़ा रह जाता है। पुजारी लोग पुकारते हैं―"दान दो, पुण्य करो, जिससे जगन्नाथ प्रसन्न होकर रथ चलावें, अपना धर्म रहै।" जब तक भेंट आती-जाती है तब तक ऐसे ही पुकारते जाते हैं। जब आ चुकती है, तब एक व्रजवासी अच्छे कपड़े, दुशाला ओढ़कर, आगे खड़ा रहके, हाथ जोड़ स्तुति करता है कि "हे जगन्नाथ स्वामिन्! आप कृपा करके रथ को चलाइये, हमारा धर्म रक्खो" इत्यादि बोलके साष्टांग दण्डवत् प्रणाम कर रथ पर चढ़ता है। उसी समय कील को सूधी घुमा देते हैं और 'जय-जय' शब्द बोल, सहस्रों मनुष्य रस्सा खींचते हैं, रथ चलता है। 


जब बहुत-से लोग दर्शन को जाते हैं, तब इतना बड़ा मन्दिर है कि जिसमें दिन में भी अन्धेरा रहता और दीप जलाना पड़ता है। उन मूर्त्तियों के आगे, खींचकर लगाने के परदे, दोनों ओर रहते हैं। पण्डे-पुजारी भीतर खड़े रहते हैं। जब बगलवाले ने परदे को खींचा, झट मूर्त्ति आड़ में आ जाती है। तब सब पण्डे और पुजारी पुकारते हैं कि "तुम भेंट धरो, तुम्हारे पाप छूट जायेंगे, तब दर्शन होगा। शीघ्र करो।" वे बेचारे भोले मनुष्य धूर्त्तों के हाथों लुट जाते हैं। और दूसरा झट परदा खींच लेता है, तभी दर्शन होता है। तब 'जय' शब्द बोल के, प्रसन्न होकर, धक्के खाके, तिरस्कृत हो, चले आते हैं। 


इन्द्रदमन वही है कि जिसके कुल के अब तक 'कलकत्ता' में हैं। वह धनाढ्य राजा [था] और देवी का उपासक था। उसने लाखों रुपये लगाकर मन्दिर बनवाया था। इसलिये कि आर्यावर्त के भोजन का बखेड़ा इस रीति से छुड़ावें। परन्तु वे मूर्ख कब छोड़ते हैं? 'देव' मानो तो उन्हीं कारीगरों को मानो कि जिन शिल्पियों ने मन्दिर बनाया। 


राजा, पण्डा और बढ़ई उस समय नहीं मरते, परन्तु वे तीनों वहां प्रधान रहते हैं। छोटों को दुःख देते होंगे। उसी समय अर्थात् कलेवर बदलने के समय वे तीनों उपस्थित रहते हैं। मूर्त्ति का हृदय पोला रक्खा है। उसमें सोने के सम्पुट में एक सालगराम रखते हैं कि जिसको प्रतिदिन धोके चरणामृत बनाते हैं, उस पर रात्रि की शयन आर्ती (आरती) में उन्होंने सम्मति करके विषयुक्त तेजाब लपेट दिया होगा। उसको धोके उन्हीं तीनों को पिलाया होगा कि जिससे वे कभी मर गये होंगे। मरे इस प्रकार होंगे और भोजनभट्टों ने प्रसिद्ध किया होगा कि जगन्नाथ जी अपना शरीर बदलने के समय तीनों भक्तों को भी साथ ले गये। ऐसी झूठी बातें पराया धन ठगने के लिये बहुत-सी हुआ करती हैं। 


प्रश्न―जो रामेश्वर में गङ्गोत्तरी का जल चढ़ाने के समय लिङ्ग बढ़ जाता है, क्या यह भी बात झूठी है? 


उत्तर―झूठी; क्योंकि उस मन्दिर में भी दिन में अन्धेरा रहता है। दीपक रात-दिन जला करता है। जब जल की धारा छोड़ते हैं, तब उस जल में बिजुली के समान दीपक का प्रतिबिम्ब झलकता है, और कुछ भी नहीं। न पाषाण घटे, न बढ़े, जितना का उतना रहता है। ऐसी लीला करके बेचारे निर्बुद्धियों को ठगते हैं। 


प्रश्न―रामेश्वर को रामचन्द्र ने स्थापित किया है। जो मूर्त्तिपूजा वेदविरुद्ध होती तो रामचन्द्र मूर्त्तिस्थापना क्यों करते और वाल्मीकि जी रामायण में क्यों लिखते? 


उत्तर―रामचन्द्र के समय में उस लिंग वा मन्दिर का नाम-निशान भी नहीं था; किन्तु यह ठीक है कि दक्षिण देशस्थ 'राम' नामक राजा ने मन्दिर बनवा, लिंग का नाम 'रामेश्वर' धर दिया है। जब रामचन्द्र सीता जी को ले हनुमान् आदि के साथ लंका से विमान पर बैठ, आकाश मार्ग से अयोध्या को आते थे, तब सीता जी से कहा था कि―


“अत्र पूर्वं महादेवः प्रसादमकरोद्विभुः॥" "सेतुबन्ध इति ख्यातम्॥" 


वाल्मीकि०, लंकाकाण्ड [युद्धकाण्ड, सर्ग १२३ । श्लो० २०-२१] 


हे सीते! तेरे वियोग से हम व्याकुल होकर घूमते थे और इसी स्थान में चातुर्मास्य किया था और परमेश्वर की उपासना-ध्यान भी करते थे। वही जो सर्वत्र विभु, व्यापक, महान् देवों का देव ‘महादेव’ परमात्मा है, उसकी कृपा से हमको सब सामग्री यहाँ प्राप्त हुई। और देख! यह सेतु बाँधकर, लंका में जाके, उस रावण को मार, तुझको ले आये। इसके सिवाय वहाँ वाल्मीकि ने अन्य कुछ भी नहीं लिखा। 


प्रश्न―'रंग है कालियाकन्त को। जिसने हुक्का पिलाया सन्त को'॥ दक्षिण में एक कालियाकन्त की मूर्त्ति है। वह अब तक हुक्का पीया करती है। जो मूर्त्तिपूजा झूठी होती तो यह चमत्कार भी झूठा होवे।


उत्तर―झूठा, झुठा, झूठा!! यह सब पोपलीला है; क्योंकि उस मूर्त्ति का मुख पोला होगा। उसका छिद्र पृष्ठ में निकालके, भित्ति के पार, दूसरे मकान में नल लगा होगा। जब पुजारी हुक्का भरवा, पेंचवान लगा, मुख में नली जमाके, परदे डाल, निकल आता होगा, तभी पीछेवाला आदमी मुख से खींचता होगा तो इधर हुक्का गड़-गड़ बोलता होगा। दूसरा छिद्र नाक और मुख के साथ लगा होगा। जब पीछे फूकें मार देता होगा तब नाक और मुख के छिद्रों से धुआँ निकलता होगा। उस समय बहुतेरे मूढ़ों को, धनादि पदार्थ को लूटकर धनरहित करते होंगे। 


प्रश्न―देखो, डाकोर जी की मूर्त्ति द्वारिका से भक्त के साथ चली आई। एक सवा रत्ती सोने में कई मन की मूर्त्ति तुल गई। क्या यह भी चमत्कार नहीं? 


उत्तर―नहीं; वह भक्त मूर्त्ति को चुरा ले आया होगा। और 'सवा रत्ती के बराबर मूर्त्ति का तुलना', यह किसी भंगड़ आदमी ने गप्प मारा होगा।

 

प्रश्न―देखो, सोमनाथ जी पृथिवी से ऊपर रहते थे और बड़ा चमत्कार था, क्या यह भी मिथ्या बात है? 


उत्तर―हाँ, मिथ्या बात है; क्योंकि वह लोहे की पोली मूर्ति थी। ऊपर-नीचे चुम्बक-पाषाण लगा रक्खे थे। उनके आकर्षण से वह मूर्ति अधर खड़ी थी। 


जब महमूद-ग़जनवी आकर लड़ा, तब यह चमत्कार हुआ कि उसका मन्दिर तोड़ा गया और पुजारी-भक्तों की दुर्दशा हो गई, और लाखों फ़ौज दश सहस्त्र फ़ौज से भाग गई। जो पोप-पुजारी पूजा, पुरश्चरण, स्तुति-प्रार्थना करते थे कि 'हे महादेव! इस म्लेच्छ को तू मार डाल, हमारी रक्षा कर' और जो उनके चेले राजाओं को समझाते थे कि, 'आप निश्चिन्त रहिये। महादेव जी भैरव अथवा वीरभद्र को भेज देंगे। वे सब म्लेच्छों को मार डालेंगे वा अन्धा कर देंगे। अभी हमारा देवता प्रसिद्ध होता है। हनुमान्, दुर्गा और भैरव ने स्वप्न दिया है कि हम सब काम कर देंगे।' बेचारे भोले राजा और क्षत्रिय 'पोपों' के बहकाने से उनके विश्वास में रहे। 


कितने ही ज्योतिषी 'पोपों' ने कहा कि अभी तुम्हारी चढ़ाई का मुहूर्त्त नहीं है। एक ने आठवाँ चन्द्रमा बतलाया। दूसरे ने ‘योगिनी’ सामने दिखलाई, इत्यादि बहकावट में रहे। 


जब म्लेच्छों की फौज ने आकर घेर लिया, तब दुर्दशा से भागे। कितने ही पोप-पुजारी और उनके चेले पकड़े गये। पुजारियों ने हाथ जोड़ यह भी कहा कि "तीन करोड़ रुपये ले लो, मन्दिर और मूर्तियां मत तोड़ो।" मुसलमानों ने कहा कि "हम 'बुतपरस्त' नहीं किन्तु 'बुतशिकन' [हैं] अर्थात् मूर्त्तिपूजक नहीं, किन्तु मूर्त्तिभंजक हैं।" जाके मन्दिर तोड़ दिया। जब ऊपर की छत तूटी, तब चुम्बक-पाषाण पृथक् होने से मूर्त्ति गिर पड़ी। जब मूर्त्ति तोड़ी, सुनते हैं कि तब अठारह करोड़ के रत्न निकले। जब पुजारियों और पोपों पर कोड़े पड़े, तब रोने लगे। उनसे कहा कि कोष बतलाओ। मार के मारे झट बतला दिया। तब सब कोष लूट-मार कर, कूट [-पीट] कर पोपों और पोपों के चेलों को 'गुलाम, बेगारी' बना, पिसना पिसवाया, घास खुदवाया, मल-मूत्रादि उठवाया और चने खाने को दिये। 


हाय! क्यों पत्थर की पूजा कर सत्यानाश को प्राप्त हुए? क्यों परमेश्वर की भक्ति न की, जो 'म्लेच्छों के दाँत तोड़ डालते' और अपना विजय करते। देखो, जितनी मूर्तियाँ हैं, उतने शूरवीरों की पूजा करते तो भी कितनी रक्षा होती! पुजारियों ने इतनी भक्ति इन पाषाणों की की, परन्तु एक भी 'मूर्ति उन [म्लेच्छों] के शिर पर उड़के न लगी।' जो किसी एक शूरवीर पुरुष की भी मूर्त्ति के सदृश सेवा करते, तो वह अपने सेवकों को यथाशक्ति बचाता और उन शत्रुओं को मारता।


प्रश्न―द्वारिका जी के 'रणछोड़ जी' कि जिसने 'नर्सी महिता' के पास हुण्डी भेज दी और उसका ऋण चुका दिया, इत्यादि बातें भी क्या झूठ हैं? 


उत्तर―किसी साहूकार ने रुपये दे दिये होंगे। किसी ने झूठा नाम उड़ा दिया होगा कि श्रीकृष्ण ने भेजे [हैं]।


जब संवत् १९१४ के वर्ष में तोपों की मार से, मन्दिर और मूर्त्तियां अंगरेजों ने उड़ा दी थीं, तब मूर्त्तियां कहाँ गई थीं? प्रत्युत बाघेर लोगों ने कितनी वीरता की और लड़े, शत्रुओं को मारा, परन्तु 'मूर्त्ति मक्खी की एक टाँग भी न तोड़ सकी।' जो श्रीकृष्ण के सदृश कोई होता तो इनके 'धुर्रे उड़ा देता' और ये भागते फिरते। भला, यह तो कहो कि जिसका रक्षक मार खाय, उसके शरणागत क्यों न पीटे जायें?


प्रश्न―ज्वालामुखी तो प्रत्यक्ष देवी है, सबको खा जाती है और प्रसाद देवे तो आधा खा जाती और आधा छोड़ देती है। मुसलमान बादशाहों ने उस पर जल की नहर छुड़वाई और लोहे के तवे जड़वाये थे, तो भी ज्वाला नहीं बुझी, न रुकी। वैसे हिंगलाज भी आधी रात को सवारी कर पहाड़ पर दिखाई देती, पहाड़ को गर्जना कराती है। चन्द्रकूप बोलता है और योनियन्त्र से निकलने से पुनर्जन्म नहीं होता। ठूमरा बाँधने से पूरा महापुरुष कहाता [है]। जब तक हिंगलाज न हो आवे, तब तक आधा महापुरुष बजता है; इत्यादि सब बातें क्या मानने योग्य नहीं?


उत्तर―नहीं; क्योंकि वह ज्वालामुखी पहाड़ में से आगी निकलती है। उसमें पुजारियों-पोपों की विचित्र लीला है। जैसे बघार के घी के चमचे में ज्वाला आ जाती, अलग करने से वा फूंक मारने से बुझ जाती, थोड़े-से घी को खा जाती, शेष छोड़ जाती; उसी के समान वहाँ भी है। जैसे चूल्हे की ज्वाला में जो डाला जाय, वह सब भस्म हो जाता है, वैसे जंगल वा घर में [आग] लग जाने से सबको खा जाती है। इससे वहाँ क्या विशेष है विना एक मन्दिर, कुण्ड और इधर-उधर नल रचना के? हिंगलाज में न कोई सवारी होती, और जो कुछ होता है वह सब पोप-पुजारियों की लीला से दूसरा कुछ भी नहीं। एक जल और दलदल का कुण्ड बना रक्खा है, जिसके नीचे से बुद्बुदे उठते हैं, उसको [देख] सफल यात्रा होना, मूढ़ मानते हैं। योनि का यन्त्र पोप जी ने धन हरने के लिये बनवा रक्खा है और ठुमरे भी उसी प्रकार पोपलीला के हैं। उनसे महापुरुष होता हो, तो एक पशु पर ठुमरों का बोझा लाद दें, तो क्या महापुरुष हो जायगा? महापुरुष तो बड़े उत्तम, धर्मयुक्त पुरुषार्थ से होता है।


प्रश्न―अमृतसर का तालाब अमृतरूप है, एक रीठे का फल आधा मीठा है, एक भित्ति नमती और गिरती नहीं, रेवालसर में बेड़े तैरते, अमरनाथ में आप से आप लिंग बन जाते, हिमालय से कबूतर के जोड़े आके सबको दर्शन देकर चले जाते; क्या यह भी मानने योग्य नहीं?


उत्तर―नहीं; उस तालाब का नाममात्र अमृतसर है। जब कभी जंगल होगा, तब उसका जल अच्छा होगा। इससे उसका नाम अमृतसर धरा होगा। जो अमृत होता तो पुराणियों के मानने के तुल्य कोई क्यों मरता? भित्ति की कुछ बनावट वैसी होगी जिससे नमती होगी और गिरती न होगी। रीठे कलम के पैबन्दी होंगे अथवा गपोड़ा होगा। रेवालसर में बेड़ा तैरने में कुछ कारीगरी होगी। अमरनाथ में बर्फ के पहाड़ बनते हैं तो जल जमके छोटे लिंग का बनना कौन-सा आश्चर्य है? और कबूतर के जोडे़ पालित होंगे, पहाड की आड़ में से पोप जी छोड़ते होंगे; दिखलाकर टका हरते होंगे। 


प्रश्न―'हरद्वार' स्वर्ग का द्वार है, 'हर की पौड़ी' में स्नान करे तो पाप छूट जाते है, 'तपोवन' में रहने से तपस्वी होता है। देवप्रयाग, गङ्गोत्तरी में 'गोमुख', उत्तरकाशी में 'गुप्तकाशी', 'त्रियुगीनारायण' के दर्शन होते हैं। 'केदार' और 'बदरीनारायण' की पूजा छ: महीने तक मनुष्य और छ: महीने तक देवता करते हैं। महादेव का मुख नैपाल में पशुपति; चूतड़ केदार और तुङ्गनाथ में; जानु और पग अमरनाथ में। इनके दर्शन-पर्शन और [वहां] स्नान करने से मुक्ति हो जाती है। वहाँ केदार और बदरी से स्वर्ग जाना चाहे तो जा सकता है, इत्यादि बातें कैसी हैं? 


उत्तर―हरद्वार उत्तर के पहाड़ों में जाने के एक मार्ग का आरम्भ है। 'हर की पौड़ी' स्नान के लिये एक कुण्ड की सीढ़ियों को बनाया है। सच पूछो तो 'हाड़पौड़ी' है, क्योंकि देशदेशान्तरों के मृतकों के हाड़ उसमें पड़ा करते हैं। पाप कभी कहीं नहीं छूट सकते विना भोगे, अथवा नहीं कटते। 'तपोवन' जब होगा तब होगा, अब तो 'भिक्षुकवन' है। 'तपोवन' में जाने, रहने से तप नहीं होता, किन्तु तप तो करने से होता है, क्योंकि वहाँ बहुत-से दुकानदार झूठ बोलनेवाले भी रहते हैं। 'हिमवतः प्रभवति गङ्गा'=पहाड़ के ऊपर से जल गिरता है। गोमुख का आकार पोपलीला से बनाया होगा और वही पहाड़ 'पोप' का स्वर्ग है। वहाँ उत्तरकाशी आदि स्थान ध्यानियों के लिये अच्छा है, परन्तु दुकानदारों के लिये वहाँ भी दुकानदारी है। देवप्रयाग पुराणों के गपोड़ों की लीला है, अर्थात् जहाँ अलकनन्दा और गङ्गा मिली हैं इसलिये वहाँ देवता वसते हैं, ऐसे गपोड़े न मारें तो वहाँ कौन जाय और टका कौन देवे? गुप्तकाशी तो नहीं है, वह तो प्रसिद्ध काशी है। तीन युग की धूनी तो नहीं दिखती परन्तु पोपों की दश-वीस पीढ़ी की होगी, जैसी खाखियों की धूनी और पारसियों की 'अग्यारी' सदैव जलती रहती है। तप्तकुण्ड भी [इस प्रकार बना है कि] पहाड़ों के भीतर ऊष्मा=गर्मी होती है, उसमें तपकर जल आता है। उसके पास दूसरे कुण्ड में ऊपर का जल वा जहाँ गर्मी नहीं, वहाँ का आता है, इससे ठण्डा है। 'केदार का स्थान'―वह भूमि बहुत अच्छी है, परन्तु वहाँ भी एक जमे हुए पत्थर पर 'पोप' वा पोप के चेलों ने मन्दिर बना रक्खा है। वहाँ महन्त, पुजारी, पण्डे 'आँख के अन्धों गाँठ के पूरों' से माल लेकर विषयानन्द करते हैं। वैसे ही 'बदरीनारायण' में ठग-विद्यावाले बहुत-से बैठे हैं। रावल जी वहाँ के मुख्य हैं। एक स्त्री छोड़ अनेक स्त्रियां रख बैठे हैं। पशुपति एक मन्दिर और पञ्चमुखी मूर्त्ति का नाम धर रक्खा है। जब कोई न पूछे तभी पोपलीला बलवती होती है। परन्तु जैसे तीर्थों के लोग धूर्त और धनहरे होते हैं, वैसे पहाड़ी लोग नहीं होते। वहाँ की भूमि बड़ी रमणीय और पवित्र है।


प्रश्न―विन्ध्याचल में 'विन्ध्येश्वरी', 'काली', 'अष्टभुजा' प्रत्यक्ष सत्य है। विन्ध्येश्वरी तीन समय में तीन रूप बदलती है और उसके बाड़े में मक्खी एक भी नहीं होती। प्रयाग तीर्थराज है, वहाँ मुंड मुंडाये सिद्धि [और] गङ्गा-जमुना के संगम में स्नान करने से इच्छासिद्धि होती है। वैसे ही अयोध्या कई वार उड़कर सब वस्ती सहित स्वर्ग में चली गई। मथुरा सब तीर्थों से अधिक है, वृन्दावन लीलास्थान और गोवर्धन व्रज-यात्रा बड़े भाग्य से होती है। सूर्यग्रहण में कुरुक्षेत्र में लाखों मनुष्यों का मेला लगता है। क्या ये सब बातें अन्यथा हैं? 


उत्तर―प्रत्यक्ष तो आँखों से तीनों मूर्त्तियाँ दीखती हैं कि पाषाण की मूर्त्तियाँ हैं। और तीन कालों में तीन प्रकार के रूप होने का कारण पुजारी लोगों की वस्त्र-आभूषण पहराने की चतुराई है और मक्खियाँ सहस्रों-लाखों होती हैं, मैंने अपनी आँखों से [यह सब] देखा है। प्रयाग में कोई नापित श्लोक बनानेहारा [हुआ होगा] अथवा पोप जी को कुछ धन देके मुण्डन कराने का माहात्म्य बनाया वा बनवाया होगा। प्रयाग में स्नान करके स्वर्ग को जाता, तो घर में लौटकर आता कोई भी नहीं दीखता; किन्तु घर को सब आते हुये दीखते हैं। अथवा जो कोई वहाँ डूब मरता [होगा] और उसका जीव भी आकाश में वायु के साथ घूम कर जन्म लेता होगा। तीर्थराज भी नाम पोपों ने धरा है। जड़ में राजा-प्रजा-भाव कभी नहीं हो सकता। यह बड़ी असम्भव बात है कि अयोध्या नगरी वस्ती, कुत्ते, गधे, भंगी, जाजरूर सहित तीन वार स्वर्ग में गई। स्वर्ग में तो नहीं गई, वहीं की वहीं है, परन्तु पोप जी के मुख-गपोड़ों में अयोध्या स्वर्ग को उड़ गई। यह गपोड़ा शब्दरूप उड़ता फिरता है। ऐसे ही नैमिषारण्य आदि की भी पोपलीला जाननी [चाहिये]। 


'मथुरा तीन लोक से न्यारी' तो नहीं, परन्तु उसमें तीन जन्तु बड़े लीलाधारी हैं कि जिनके मारे जल, स्थल और अन्तरिक्ष में किसी को सुख मिलना कठिन है। एक चौबे, जो कोई स्नान करने जाय, तो अपना कर लेने को खड़े रहकर बकते रहते हैं―"लाओ यजमान! भांग-मर्ची पीवें और लड्डू खावें। यजमान की जै-जै मनावें" दूसरे, जल में कछुवे काट ही खाते हैं, जिनके मारे स्नान करना भी घाट पर कठिन पड़ता है। तीसरे, आकाश में ऊपर लाल मुख के बन्दर पगड़ी, टोपी, गहने, जूते तक भी न छोड़ें, काट खावें, धक्के दे गिरा मार डालें। और ये तीनों पोप और पोप जी के चेलों के पूजनीय हैं। मनों चना आदि अन्न से कछुओं की, और बन्दरों की चना-गुड़ आदि से, और चौबों की दक्षिणा और लड्डुओं से सेवा उनके सेवक किया करते हैं। वृन्दावन जब था तब था, अब तो वेश्यावनवत् लल्ला-लल्ली और गुरु-चेली आदि की लीला फैल रही है। वैसे ही दीपमालिका का मेला, 'गोवर्धन' और व्रजयात्रा में भी पोपों की बन पड़ती है। कुरुक्षेत्र में भी वही जीविका की लीला समझ लो। इनमें जो कोई धार्मिक, परोपकारी पुरुष है, इस पोपलीला से पृथक् हो जाता है।


प्रश्न―यह मूर्त्तिपूजा और तीर्थ सनातन से चले आते हैं, झूठे क्योंकर हो सकते हैं? 


उत्तर―तुम सनातन किसको कहते हो? 


[प्रश्न―] जो सदा से चला आता है।


[उत्तर―] जो यह सदा से होता तो वेद, और ऋषि-मुनि-कृत ब्राह्मणादि पुस्तकों में इनका नाम क्यों नहीं? यह मूर्त्तिपूजा अढ़ाई-तीन सहस्र वर्ष के इधर-इधर वाममार्गियों और जैनियों से चली है। प्रथम आर्यावर्त में नहीं थी, और ये तीर्थ भी नहीं थे। जब जैनियों ने गिरनार, पालिटाना, शिखर, शत्रुञ्जय और आबू आदि तीर्थ बनाये, उनके अनुकूल इन लोगों ने भी बना लिये। जो कोई इनके आरम्भ की परीक्षा करना चाहें, वे पण्डों की पुरानी से पुरानी बही, तांबे के पत्र, लेख आदि देखें, तो निश्चय हो जायगा कि ये सब तीर्थ पाँच-सौ अथवा एक-सहस्र वर्ष से इधर ही बने हैं। सहस्र वर्ष के उधर का लेख किसी के पास नहीं निकलता; इससे आधुनिक है।


प्रश्न―जो-जो तीर्थ वा नाम का माहात्म्य अर्थात् जैसे 'अन्यक्षेत्रे कृतं पापं काशीक्षेत्रे विनश्यति' [काशीमाहात्म्य, काशीखण्ड] इत्यादि बातें हैं, वे सच्ची हैं वा नहीं?


उत्तर―नहीं; क्योंकि जो पाप छूट जाते हों तो दरिद्रों को धन और राज-पाट मिल जाता; अन्धों को आँखें मिल जाती तथा कोढ़ियों के कोढ़ आदि रोग छूट जाते; किन्तु ऐसा नहीं होता। इसलिये पाप वा पुण्य किसी का नहीं छूटता। 


प्रश्न―गङ्गा गङ्गेति यो ब्रूयाद् योजनानां शतैरपि। 

मुच्यते सर्वपापेभ्यो विष्णुलोकं स गच्छति॥१॥


[ब्रह्म

पुराण अ० १७५ । श्लो० ८२; पद्मपुराण उत्तरखण्ड अ० २३।२]


हरिर्हरति पापानि हरिरित्यक्षरद्वयम्॥२॥


[पद्मपुराण उ० ख० ७२।१२]

 

प्रातःकाले शिवं दृष्ट्वा निशिपापं विनश्यति। 

आजन्मकृतं मध्याह्ने सायाह्ने सप्तजन्मनाम्॥३॥ 


ये पोप-पुराण के श्लोक हैं।

[तीर्थदर्पण पण्डाअर्पण-परिच्छेद २]


जो सैकड़ों-सहस्रों कोश दूर से भी गंगा-गंगा कहै, तो उसके सब पाप नष्ट होकर वह विष्णुलोक अर्थात् वैकुण्ठ को जाता है॥१॥ 


'हरि' इन दो अक्षरों का नामोच्चारण सब पापों को हर लेता है, वैसे ही राम, कृष्ण, शिव, भगवती आदि नामों का माहात्म्य है॥२॥


और जो मनुष्य प्रात:काल में 'शिव' अर्थात् लिंग वा उसकी मूर्त्ति का दर्शन करे तो रात्रि में किये हुये, मध्याह्न में दर्शन से जन्म-भर के, सायंकाल में दर्शन करने से सात जन्मों के पाप छूट जाते हैं॥३॥ 


यह दर्शन का माहात्म्य क्या झूठा हो जायगा? 


उत्तर―मिथ्या होने में क्या शंका? क्योंकि गंगा वा हरि, राम, कृष्ण, नारायण, शिव और भगवती के नामस्मरण से पाप कभी नहीं छूटता। जो छूटे तो दुःखी कोई न रहै, और पाप करने से कोई भी न डरे, जैसे आजकल पोपलीला में पाप बढ़कर हो रहे हैं; क्योंकि मूढ़ों को विश्वास है कि हम पाप कर, नामस्मरण वा तीर्थयात्रा करेंगे तो पापों की निवृत्ति हो जायगी। इसी विश्वास पर पाप करके इस लोक और परलोक का नाश करते हैं, परन्तु किया हुआ पाप भोगना ही पड़ता है।


प्रश्न―तो कोई तीर्थ, नामस्मरण सत्य है वा नहीं?


उत्तर―है। वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, धार्मिक विद्वानों का संग; परोपकार, धर्मानुष्ठान, योगाभ्यास, निर्वैरता, निष्कपटता, सत्यभाषण, सत्य मानना, सत्य करना; ब्रह्मचर्य; आचार्य-अतिथि-माता-पिता की सेवा; परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना-उपासना; शान्ति, जितेन्द्रियता, सुशीलता, धर्मयुक्तपुरुषार्थ, ज्ञान-विज्ञान आदि शुभ-गुण-कर्म दुःखों से तारनेवाले होने से तीर्थ हैं। और जो जल-स्थलमय हैं, वे तीर्थ कभी नहीं हो सकते; क्योंकि 'जना यैस्तरन्ति तानि तीर्थानि'=मनुष्य जिनको करके दुःखों से तरें, उनका नाम 'तीर्थ' है। जल-स्थल तरानेवाले नहीं, किन्तु डुबाकर मारनेवाले हैं। प्रत्युत नौका आदि का नाम 'तीर्थ' हो सकता है, क्योंकि उनसे भी समुद्र आदि को तरते हैं। 


समानतीर्थे वासी॥१॥


अष्टा० ४।४।१०७

 

नम॒स्तीर्थ्या॑य च॒ ॥२॥


यजुः अ० १६ [मं० ४२]

 

जो ब्रह्मचारी एक आचार्य से और एक शास्त्र को साथ-साथ पढ़ते हों, वे सब सतीर्थ्य अर्थात् समानतीर्थसेवी होते हैं॥१॥


जो वेदादिशास्त्र और सत्यभाषणादि धर्म-लक्षणों में साधु हों, उनको अन्नादि पदार्थ देने और उनसे विद्या लेनी, इत्यादि 'तीर्थ' कहाते हैं॥२॥


'नामस्मरण' इसको कहते हैं कि― 


यस्य॒ नाम॑ म॒हद्यशः॑॥


यजुः [३२।३] 


परमेश्वर का नाम बड़े यश अर्थात् धर्मयुक्त कामों का करना है। जैसे ब्रह्म, परमेश्वर, ईश्वर, न्यायकारी, दयालु, सर्वशक्तिमान् आदि नाम परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव से हैं। जैसे ब्रह्म=सबसे बड़ा, परमेश्वर=ईश्वरों का ईश्वर, ईश्वर=सामर्थ्ययुक्त, न्यायकारी=कभी अन्याय नहीं करता, दयालु=सब पर कृपादृष्टि रखता, सर्वशक्तिमान्=जो अपने सामर्थ्य से ही सब जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करता, सहाय किसी का नहीं लेता; ब्रह्मा=विविध जगत् के पदार्थों का बनानेहारा, विष्णु=जो सबमें व्यापक होकर रक्षा करता, महादेव=सब देवों का देव, रुद्र=प्रलय करनेहारा आदि नामों के अर्थों को अपने में धारण करे; अर्थात् बड़े कामों से बड़ा हो, समर्थों में समर्थ हो, सामर्थ्यों को बढ़ाता जाय, अधर्म कभी न करे, सब पर दया रक्खे, सब प्रकार के साधनों को समर्थ करे, शिल्पविद्या से नाना प्रकार के पदार्थों को बनावे, सब संसार में अपने आत्मा के तुल्य सुख-दुःख समझे, सबकी रक्षा करे, विद्वानों में विद्वान् होवे, दुष्ट कर्म का प्रलय [करे] और दुष्ट कर्म करनेवालों को प्रयत्न से दण्ड [देवे] और सज्जनों की रक्षा करे। इस प्रकार परमेश्वर के नामों का अर्थ जानकर परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल अपने गुण-कर्मस्वभाव को करते जाना ही परमेश्वर का नामस्मरण है। 


प्रश्न―गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णुर्गुरुर्देवो महेश्वरः। 

गुरुरेव परं ब्रह्म तस्मै श्रीगुरवे नमः॥


[गुरुगीता, गुरुमाहात्म्य प्रकरण, श्लोक १९] 


इत्यादि गुरुमाहात्म्य तो सच्चा है? गुरु के पग धोके पीना, जैसी आज्ञा करे वैसा करना। गुरु लोभी हो तो वामन के समान, क्रोधी हो तो नरसिंह के सदृश, मोही हो तो राम के तुल्य और कामी हो तो कृष्ण के समान गुरु को जानना। चाहे गुरु जी कैसा ही पाप करें तो भी अश्रद्धा न करनी। सन्त वा गुरु के दर्शन को जाने में पग-पग में 'अश्वमेध' का फल होता है, यह बात ठीक है वा नहीं? 


उत्तर―ठीक नहीं। ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर और परब्रह्म परमेश्वर के नाम हैं। उसके तुल्य गुरु कभी नहीं हो सकता। यह 'गुरुमाहात्म्य', 'गुरुगीता' भी एक बड़ी पोपलीला है। गुरु तो माता, पिता, आचार्य और अतिथि होते हैं, उनकी सेवा करनी चाहिये। उनसे विद्या-शिक्षा लेना-देना, शिष्य और गुरु का काम है; परन्तु जो गुरु लोभी, क्रोधी, मोही और कामी हो, तो उसको सर्वथा छोड़ देना [चाहिये, अथवा पहले उसको] शिक्षा करनी चाहिये, सहज शिक्षा से न माने तो 'अर्घ्य पाद्य' अर्थात् ताड़ना, दण्ड, प्राणहरण तक भी करने में कुछ भी दोष नहीं। जिनमें विद्यादि सद्गुणों का 'गुरुत्व' नहीं है, झूठ-मूठ कण्ठी-तिलक [धारण], वेदविरुद्ध मन्त्रोपदेश करनेवाले हैं, वे गुरु ही नहीं, किन्तु गडरिये जैसे हैं। जैसे गडरिये अपनी भेड़-बकरियों से, [उनके] दूध आदि से प्रयोजन सिद्ध करते हैं, वैसे ही वे शिष्यों के=चेले-चेलियों का धन हरके अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वे―


गुरु लोभी चेला लालची, दोनों खेलें दाव। 

भवसागर में डूबते, बैठ पत्थर की नाव॥


[तुलना-भक्तमाल १०६ की टीका, पृ० ६९]


गुरु समझें कि चेला-चेली कुछ न कुछ देवेंगे ही, और चेला समझे कि चलो गुरु झूठी सौगंद खाने, पाप छुड़ाने आदि [के काम आवेंगे, इत्यादि] लालच से, दोनों कपटमुनि भवसागर के दुःख में डूबते हैं, जैसे पत्थर की नौका में बैठनेवाले समुद्र में डूब मरते हैं। ऐसे गुरुओं और चेलों के मुख पर धूड़-राख पड़े। उसके पास कोई भी खड़ा न रहै, जो रहै वह दुःखसागर में पड़ेगा। जैसी पोपलीला पुजारियों, पुराणियों ने चलाई है, वैसी इन गडरिये गुरुओं ने भी लीला मचाई है। यह सब काम स्वार्थी लोगों का है। जो परमार्थी लोग हैं, वे आप दुःख पावें तो भी जगत् का उपकार करना नहीं छोड़ते। और 'गुरुमाहात्म्य' तथा 'गुरुगीता' आदि भी इन्हीं लोभी, कुकर्मी गुरुओं ने बनाई हैं। 


प्रश्न―अष्टादशपुराणानां कर्त्ता सत्यवतीसुतः॥१॥


[शिवपुराण रेवाखण्ड]


इतिहासपुराणाभ्यां वेदार्थमुपबृंहयेत्॥२॥


महाभारत [आदिपर्व ३।२६७]

 

पुराणानि खिलानि च॥३॥


मनु० [३।२३२]

 

इतिहासपुराणः पञ्चमो वेदानां वेदः॥४॥


छान्दोग्य० [७।१।४]

 

दशमेऽहनि किंचित्पुराणमाचक्षीत॥५॥


[तुलना―शतपथ ब्रा०, १३।३।१।१३] 


पुराणविद्या वेदः॥६॥


सूत्रम् [तु०-शतपथ ब्रा०, १३।३।१।१३]

 

अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यास जी हैं। व्यासवचन का प्रमाण अवश्य करना चाहिये॥१॥


इतिहास='महाभारत', [और] अठारह पुराणों से वेदों का अर्थ पढ़ें-पढ़ावें, क्योंकि इतिहास और पुराण वेदों के ही अर्थ और अनुकूल हैं॥२॥


पितृकर्म में पुराण और खिल अर्थात् 'हरिवंश' की कथा सुनें॥३॥


इतिहास और पुराण पञ्चमवेद कहाते हैं॥४॥ 


'अश्वमेध' की समाप्ति में दशमे दिन थोड़ी-सी पुराण की कथा सुनें॥५॥ 


'पुराणविद्या' वेदार्थ के जनाने से ही 'वेद' है॥६॥


इत्यादि प्रमाणों से पुराणों का प्रमाण और इनके प्रमाणों से मूर्त्तिपूजा और तीर्थों का भी प्रमाण है, क्योंकि पुराणों में मूर्त्तिपूजा और तीर्थों का विधान है।


उत्तर―जो अठारह पुराणों के कर्त्ता व्यास जी होते तो उनमें इतने गपोड़े न होते। क्योंकि शारीरकसूत्र, 'योगशास्त्र के भाष्य' आदि व्यासोक्त ग्रन्थों के देखने से विदित होता है कि व्यास जी बड़े विद्वान्, सत्यवादी, धार्मिक, योगी थे। वे ऐसी मिथ्या कथा कभी न लिखते। और इससे यह सिद्ध होता है कि जिन सम्प्रदायी परस्परविरोधी लोगों ने 'भागवत'-आदि नवीन कपोलकल्पित ग्रन्थ बनाये हैं, उनमें व्यास जी के गुणों का लेश भी नहीं है। और वेदशास्त्रविरुद्ध असत्यवाद लिखना व्यास जी सदृश विद्वानों का काम नहीं, किन्तु यह काम विरोधी, स्वार्थी, अविद्वान् लोगों का है। इतिहास और पुराण ‘शिवपुराण' आदि का नाम नहीं, किन्तु―


ब्राह्मणानीतिहासान् पुराणानि कल्पान् गाथानाराशंसीरिति॥ यह ब्राह्मण और सूत्रों का वचन है॥


[तैत्ति० आरण्यक २।९; आश्वलायन गृह्यसूत्र ३।३।१] 


'ऐतरेय', 'शतपथ', 'साम' और 'गोपथ' ब्राह्मण ग्रन्थों के ही इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा और नाराशंसी ये पांच नाम हैं। (इतिहास) जैसे जनक और याज्ञवल्क्य का संवाद। (पुराण) जगदुत्पत्ति आदि का वर्णन, आख्यान। (कल्प) वेद-शब्दों के सामर्थ्य का वर्णन, अर्थ निरूपण करना। (गाथा) किसी का दृष्टान्त-दार्ष्टान्तरूप कथा-प्रसङ्ग कहना। (नाराशंसी) मनुष्यों के प्रशंसनीय वा अप्रशंसनीय कर्मों का कथन करना। इन्हीं से वेदार्थ का बोध होता है।


'पितृकर्म' अर्थात् ज्ञानियों के प्रसंग में कुछ सुनना, 'अश्वमेध' के अन्त में भी इन्हीं का सुनना लिखा है, क्योंकि जो व्यासकृत ग्रन्थ हैं, उनका सुनना-सुनाना व्यास जी के जन्म के पश्चात् ही हो सकता है, पूर्व नहीं। जब व्यास जी का जन्म भी नहीं था तब भी वेदार्थ को पढ़ते-पढ़ाते, सुनते-सुनाते थे। इसीलिये सबसे प्राचीन ब्राह्मण-ग्रन्थों में ही यह सब घटना हो सकता है, इन 'श्रीमद्भागवत', 'शिवपुराण' आदि मिथ्यावाद दूषित ग्रन्थों में नहीं घट सकता। 


जो व्यास जी ने वेद पढ़े, और पढ़ाकर वेदार्थ फैलाया, इसीलिये उनका नाम 'वेदव्यास' हुआ; क्योंकि व्यास कहते हैं वार-पार की मध्य रेखा को, अर्थात् 'ऋग्वेद' के आरम्भ से लेकर 'अथर्ववेद' के पार पर्यन्त चारों वेद पढ़े थे और शुकदेव तथा जैमिनि आदि शिष्यों को पढ़ाये भी थे, नहीं तो उनका जन्म का नाम 'कृष्णद्वैपायन' था। जो कोई यह कहते हैं कि "वेदों को व्यास जी ने इकट्ठा किया" यह बात झूठी है, क्योंकि व्यास जी के पिता, पितामह, प्रपितामह; पराशर, शक्ति और वशिष्ठ; और ब्रह्मा आदि ने भी चारों वेद पढे थे; यह बात क्योंकर घट सके?


प्रश्न―पुराणों में सब बातें झूठी हैं, वा कोई सच्ची भी है? 


उत्तर―बहुत-सी बातें झूठी हैं और कोई-कोई 'घुणाक्षरन्याय' से सच्ची भी है। जो सच्ची है वह वेदादि सत्यशास्त्रों की और जो झूठी हैं वे इन पोपों के पुराणरूप घर की हैं। जैसे 'शिवपुराण' में शैवों ने शिव को परमेश्वर मानके विष्णु, ब्रह्मा, इन्द्र, गणेश और सूर्यादि उनके दास ठहराये। वैष्णवों ने 'विष्णुपुराण' आदि में विष्णु को परमात्मा माना और शिव आदि विष्णु के दास। 'देवीभागवत' में देवी को परमेश्वरी [माना] और शिव, विष्णु आदि उसके किङ्कर बनाये। 'गणेशखण्ड' में गणेश को ईश्वर [माना] और शेष सब दास बनाये। भला, यह बात इन सम्प्रदायी पोपों की नहीं तो किनकी है? एक [सामान्य] मनुष्य के बनाये [ग्रन्थ] में ऐसी परस्परविरुद्ध बातें नहीं होती, तो विद्वान् के बनाये में कभी नहीं आ सकतीं। इसमें एक बात को सच्ची मानें तो दूसरी झूठी और जो दूसरी को सच्ची मानें, तो अन्य सब झूठी होती हैं।


शिवपुराण-वाले ने शिव से, विष्णुपुराण-वाले ने विष्णु से, देवीपुराण-वाले ने देवी से, गणेशखण्ड-वाले ने गणेश से, सूर्यपुराण-वाले ने सूर्य से और वायुपुराण-वाले ने वायु से सृष्टि की उत्पत्ति-प्रलय लिखके, एक-एक से एक-एक जगत् का कारण लिखा; पुनः उनकी उत्पत्ति एक-एक से लिखी। कोई पूछे कि जो जगत् की उत्पत्ति-स्थिति-प्रलय करनेवाला है, वह उत्पन्न कभी [हो सकता है?] और जो उत्पन्न होता है, वह सृष्टि का कारण कभी हो सकता है? तो सिवाय चुप रहने के कुछ भी नहीं कह सकते। और इन सबके शरीर की उत्पत्ति भी इसी से हुई होगी, फिर वे आप सृष्ट-पदार्थ और परिच्छिन्न होकर संसार की उत्पत्ति के कर्त्ता क्योंकर हो सकते हैं? और [जगत् की] उत्पत्ति भी विलक्षण-विलक्षण प्रकार से मानी है जो कि सर्वथा असम्भव है। जैसे―


'शिवपुराण' में [लिखा है कि] शिव ने इच्छा की, 'मैं सृष्टि करूँ', तो एक 'नारायण-जलाशय' को उत्पन्न किया, उसकी नाभि से कमल, कमल में से ब्रह्मा उत्पन्न हुआ। उसने देखा कि सब जलमय है। जल की अञ्जलि उठा, देख, जल में पटक दी। उससे एक बुद्बुदा उठा और बुद्बुदे में से एक पुरुष हुआ। उसने ब्रह्मा से कहा कि "हे पुत्र! सृष्टि उत्पन्न कर।"


ब्रह्मा ने उससे कहा कि “मैं तेरा पुत्र नहीं किन्तु तू मेरा पुत्र है।" उनमें विवाद हुआ और दिव्यसहस्रवर्ष-पर्यन्त दोनों जल पर लड़ते रहे। तब महादेव ने विचार किया कि जिनको मैंने सृष्टि करने के लिये भेजा था, वे दोनों आपस में लड़ रहे हैं। तब उन दोनों के बीच में से एक तेजोमय लिंग उत्पन्न हुआ और वह शीघ्र आकाश में चला गया। उसको देखके दोनों साश्चर्य हो गये। विचारा कि इसका आदि-अन्त लेना चाहिये। जो आदि-अन्त लेके शीघ्र आवे वह पिता और जो पीछे [आवे] वा थाह लेके न आवे वह पुत्र कहावे। विष्णु कूर्म का स्वरूप धरके नीचे को चला और ब्रह्मा हंस का शरीर धारण करके ऊपर को उड़ा। दोनों मनोवेग से चले। दिव्यसहस्र-वर्षपर्यन्त दोनों चलते रहे तो भी उसका अन्त न पाया। तब नीचे से ऊपर विष्णु और ऊपर से नीचे ब्रह्मा चला। ब्रह्मा ने विचारा कि जो वह छेड़ा ले आया होगा तो मुझको पुत्र बनना पड़ेगा। ऐसा सोच रहा था कि उसी समय एक गाय और एक केतकी का वृक्ष ऊपर से उतर आये। उनसे ब्रह्मा ने पूछा कि―"कि तुम कहाँ से आये?"


उन्होंने कहा―"हम सहस्र वर्षों से इस लिंग के आधार से चले आते हैं।" 


ब्रह्मा ने पूछा कि―"इस लिंग का थाह है वा नहीं?" 


उन्होंने कहा कि "नहीं"।


ब्रह्मा ने उनसे कहा कि "तुम हमारे साथ चलो और ऐसी साक्षिता दो कि 'मैं इस लिंग के शिर पर दूध की धारा वर्षाती थी' और वृक्ष कहे कि 'मैं फूल वर्षाता था', ऐसी साक्षिता दो तो मैं तुमको ठिकाने पर ले चलूं।"


उन्होंने कहा कि “हम झूठी साक्षिता नहीं देंगे।" 


तब ब्रह्मा कुपित होकर बोला―"जो साक्षिता न दोगे तो मैं तुमको अभी भस्म कर देता हूँ।" 


तब दोनों ने डरके कहा―"हम, जैसा तुम कहते हो, वैसी साक्षिता देवेंगे।"


तब तीनों नीचे की ओर चले। विष्णु पहले ही आ गये थे, ब्रह्मा भी पहुँचा। विष्णु से पूछा कि "तू थाह ले आया वा नहीं?"


तब विष्णु बोला―"मुझको इसका थाह नहीं मिला।" 


ब्रह्मा ने कहा―"मैं ले आया।" 


विष्णु ने कहा―"कोई साक्षी दो।" 


तब गाय और वृक्ष ने साक्षिता दी―"हम दोनों लिंग के शिर पर थे।"


तब लिंग में से शब्द निकला और [वृक्ष को] शाप दिया―"जो तूने झूठ बोला, इसलिये तेरा फूल मुझ वा अन्य देवता पर जगत् में कहीं नहीं चढ़ेगा और जो कोई चढ़ावेगा उसका सत्यानाश होगा।" गाय को शाप दिया कि "जिस मुख से तूने झूठ बोला, उसी से विष्ठा खाया करेगी। तेरे मुख की पूजा कोई न करेगा, किन्तु पूंछ की करेंगे।" और ब्रह्मा को शाप दिया “कि जिससे तू मिथ्या बोला, इससे तेरी पूजा संसार में कहीं न होगी।" और विष्णु को वर दिया―"जिससे तू सत्य बोला, इससे तेरी पूजा सर्वत्र होगी।" 


पुनः दोनों ने लिंग की स्तुति की। उससे प्रसन्न होकर उस लिंग में से एक जटाजूट मूर्त्ति निकल आई और कहा कि "तुमको मैंने सृष्टि करने के लिये भेजा था, झगड़े में क्यों लगे रहे?"


ब्रह्मा और विष्णु ने कहा कि "हम विना सामग्री सृष्टि कहाँ से करें।"


तब महादेव ने अपनी जटा में से भस्म का गोला निकाल कर दिया कि "जाओ, इसमें से सब सृष्टि बनाओ" इत्यादि।


कोई इन पुराणों के बनानेवाले पोपों से पूछे कि जब सृष्टितत्त्व और पञ्चमहाभूत भी नहीं थे, तो ब्रह्मा, विष्णु, महादेव के शरीर, जल, कमल, लिंग, गाय और केतकी का वृक्ष और भस्म तुम्हारे बाबा के घर में से आ गिरे? 


वैसे ही 'भागवत' में [लिखा है कि] विष्णु की नाभि से कमल, कमल से ब्रह्मा और ब्रह्मा के दाहिने पग के अंगूठे से स्वायंभुव [मनु] हुआ और बायें अंगूठे से शतरूपा राणी, ललाट से रुद्र और मरीचि आदि दश पुत्र, उनसे दक्ष प्रजापति उत्पन्न हुआ, उनकी तेरह लड़कियों का विवाह कश्यप से हुआ, उनमें से दिति से दैत्य, दनु से दानव, अदिति से आदित्य, विनता से पक्षी, कद्रू से सर्प, सरमा से कुत्ते, स्याल आदि और अन्य स्त्रियों से हाथी, घोड़े, ऊँट, गधे, भैंसे, सिंह, घास-फूस और बबूल आदि के वृक्ष काँटे सहित उत्पन्न हो गये। 


वाह रे 'भागवत' के बनानेवाले लालबुझक्कड़! तुमको ऐसी मिथ्या बातें लिखने में तनिक भी लज्जा-शर्म न आई। भला, स्त्री-परुष के रज-वीर्य से मनष्य तो बनते हैं परन्त परमेश्वर के सृष्टिक्रम के विरुद्ध पशु, पक्षी, सर्प आदि कभी उत्पन्न हो सकते हैं? हाथी, ऊँट, सिंह, कुत्ते, गधे वृक्षादि के स्थित होने का अवकाश स्त्री के गर्भाशय में कहां हो सकता है? और सिंह आदि उत्पन्न होकर अपने मा-बाप को क्यों न खा गये? इत्यादि झूठी बातों को वे अन्धे 'पोप' और भीतर-बाहर की आँख फूटे हुये उनके चेले सुनते-मानते हैं। ये मनुष्य हैं वा अन्य कोई? इन 'भागवत'-आदि पुराणों के बनानेवाले जन्मते नहीं, [अपितु] गर्भ में ही नष्ट हो जाते, वा जन्म कर उसी समय मर जाते [तो अच्छा होता] !! क्योंकि इन पोपों से बचते तो आर्यावर्त देश दुःखों से बच जाता! 


प्रश्न―इन बातों में विरोध नहीं आ सकता, क्योंकि 'जिसका विवाह उसी के गीत'। जब विष्णु की स्तुति करने लगे तब विष्णु को परमेश्वर, अन्यों को दास; जब शिव के गुण गाने लगे तब शिव को परमात्मा, अन्यों को किङ्कर बनाया। और परमेश्वर की माया में सब बन सकता है। मनुष्य से पशु आदि और पशु आदि से मनुष्यादि की उत्पत्ति परमेश्वर कर सकता है। देखो, विना कारण अपनी माया से सब सृष्टि खड़ी कर दी है। उसमें कौन-सी बात अघटित है? जो करना चाहे, सो सब कर सकता है। 


उत्तर―अरे भोले लोगो। विवाह में जिसके गीत गाते हैं, उसको सबसे बड़ा और दूसरों को छोटा वा निन्दा [का पात्र] अथवा उसको सबका बाप तो नहीं बनाते? कहो पोप जी! तुम भाट और खुशामदी चारणों से बढ़कर गप्पी हो अथवा नहीं कि जिसके पीछे लगो, उसी को सबसे बड़ा बनाओ और जिससे विरोध करो उसको सबसे नीच ठहराओ? तुमको सत्य और धर्म से क्या प्रयोजन? किन्तु तुमको तो अपने स्वार्थ से ही काम है। माया मनुष्य में हो सकती है, जो कि छली-कपटी हैं उन्हीं को 'मायावी' कहते हैं; परमेश्वर में छल-कपटादि दोष न होने से, उसको 'मायावी' नहीं कह सकते। जो आदिसृष्टि में कश्यप और कश्यप की स्त्रियों से पशु, पक्षी, सर्प, वृक्षादि हुए होते तो आजकल भी वैसे सन्तान क्यों नहीं होते? सृष्टिक्रम जो पहले लिख आये वही ठीक है। और अनुमान है कि पोप जी यहीं से धोखा खाकर बहके होंगे―


तस्मात् काश्यप्य इमाः प्रजाः॥


[तुलना―शत० ब्रा०, ७।४।१।५] 


शतपथ में यह लिखा है कि यह सब सृष्टि कश्यप की बनाई हुई है। 


कश्यपः कस्मात् पश्यको भवतीति॥ 


निरु० [अ० २। खं० १; तुलना―तैत्ति० आ० १।८]


सृष्टिकर्त्ता परमेश्वर का नाम 'कश्यप' इसलिये है कि 'पश्यकः' अर्थात् 'पश्यतीति पश्यः, पश्य एव पश्यकः'=जो निर्भ्रम होकर चराचर जगत्, सब जीवों और इनके कर्मों, सकल विद्याओं को यथावत् देखता है; और 'आद्यन्त-विपर्ययश्च' इस महाभाष्य [३।१।२३] के वचन से आदि का अक्षर अन्त और अन्त का वर्ण आदि में आने से ‘पश्यक' से 'कश्यप' बन गया है। इसका अर्थ न जानके, भाँग के लोटे चढ़ा, अपना जन्म सृष्टिविरुद्ध कथन करने में नष्ट कर दिया। 


जैसे 'मार्कण्डेयपुराण' के दुर्गापाठ में, देवों के शरीरों से तेज निकलके एक देवी बनी, उसने 'महिषासुर' को मारा; रक्तबीज' [राक्षस] के शरीर से एक बिन्दु भूमि पर पड़ने से उसके सदृश रक्तबीजों के उत्पन्न होने से सब जगत् में रक्तबीज भर जाना, रुधिर की नदियाँ चलना आदि गपोड़े बहुत-से लिख रक्खे हैं। 


जब 'रक्तबीज' [राक्षसों] से सब जगत् भर गया था तो देवी का सिंह और देवी कहां ठहरे थे? जो कहो कि देवी से दूर-दूर 'रक्तबीज' थे, तो सब जगत् 'रक्तबीज' से नहीं भरा था! और जो भर गया था, तो पशु, पक्षी, मनुष्यादि प्राणी और जलस्थ मगरमच्छ, कच्छप, मत्स्यादि [तथा] वृक्ष आदि कहाँ रहे थे? यहाँ यही निश्चित जानना कि 'दुर्गापाठ' बनानेवाले 'पोप' के घर में भागकर चले गये होंगे!! देखिये, क्या ही असम्भव कथा का गपोड़ा भंग की लहरी में उड़ाया, जिसका ठौर न ठिकाना! 


जिसको 'श्रीमद्भागवत' कहते हैं, उसकी लीला सुनो। ब्रह्मा जी को नारायण ने 'चतुःश्लोकी' 'भागवत' का उपदेश किया है―


ज्ञानं परमगुह्यं मे यद्विज्ञानसमन्वितम्। 

सरहस्यं तदङ्गञ्च गृहाण गदितं मया॥


भागवत [स्कं० २।९।३०] 


=हे ब्रह्मा जी! तू मेरा परमगुह्य ज्ञान, जो विज्ञान और रहस्ययुक्त और धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का अङ्ग है, उसी को मुझसे ग्रहण कर। 


जब विज्ञानयुक्त ज्ञान कहा तो 'परम' अर्थात् ज्ञान का विशेषण रखना व्यर्थ है और 'गुह्य' विशेषण से 'रहस्य' भी पुनरुक्त है। जब मूल श्लोक अनर्थक हैं तो ग्रन्थ अनर्थक क्यों नहीं? जब भागवत का मूल ही झूठा है तो उसका वृक्ष झूठा क्यों नहीं होगा? ब्रह्मा जी को वर दिया कि―


भवान् कल्पविकल्पेषु न विमुह्यति कर्हिचित्॥ 


भागवत० श्लोक [स्कं० २।९] [३६]


'आप कल्प=सृष्टि और विकल्प=प्रलय में मोह को प्राप्त कभी नहीं होंगे, 'ऐसा लिखके पुनः दशमस्कन्ध में मोहित होके वत्सहरण किया, [लिखा है]। इन दोनों में से एक बात सच्ची है तो दूसरी झूठी है। ऐसा होकर दोनों बातें झूठी हुईं। जब वैकुण्ठ में राग, द्वेष, क्रोध, ईर्ष्या, दु:ख नहीं हैं, तो सनक-आदिकों को वैकुण्ठ के द्वार में क्रोध क्यों हुआ? जो क्रोध हुआ तो वह स्वर्ग ही नहीं। जब जय, विजय द्वारपाल थे, [तो] स्वामी की आज्ञा पालनी आवश्यक थी। उन्होंने सनक-आदिकों को रोका, तो क्या [यह कोई] अपराध हुआ? इस पर विना अपराध शाप ही नहीं लग सकता। जब शाप लगा कि 'तुम पृथिवी पर गिर पड़ो', इसके कहने से यह सिद्ध होता है कि वहां पृथिवी न होगी। आकाश, वायु, अग्नि और जल होगा। जो ऐसा है, तो द्वार, मन्दिर और जल किसके आधार पर थे? पुनः जय, विजय ने सनकादिकों की स्तुति की―"महाराज! पुनः हम वैकुण्ठ में कब आवेंगे?" उन्होंने उनसे कहा कि "जो प्रेम से नारायण की भक्ति करोगे तो सातवें जन्म और जो विरोध से भक्ति करोगे तो तीसरे जन्म वैकुण्ठ को प्राप्त होगे।" इसमें विचारना चाहिये कि जय, विजय नारायण के नौकर थे। उनकी रक्षा और सहाय करना नारायण का कर्तव्य काम था। जो किसी के नौकरों को विना अपराध दुःख देवें, उनको उनका स्वामी दण्ड न देवे तो उसके नौकरों की दुर्दशा हर कोई कर डाले। नारायण को उचित था कि जय, विजय का सत्कार और सनक-आदिकों को खूब दण्ड देते, क्योंकि उन्होंने भीतर आने के लिये हठ क्यों किया? और नौकरों से लड़े क्यों? [क्यों उनको] शाप दिया? उनके बदले सनक-आदिकों को पृथिवी पर डाल देना नारायण का न्याय होता। जब इतना अन्धेर नारायण के घर में है, तो उसके सेवक जो कि 'वैष्णव' कहाते हैं, उनकी जितनी दुर्दशा हो, उतनी थोड़ी है। 


पुनः हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु उत्पन्न हुए। उनमें से हिरण्याक्ष को वराह ने मारा। उसकी कथा इस प्रकार से लिखी है कि वह पृथिवी को चटाई के समान लपेट कर सिरहाने धर सो गया। विष्णु ने वराह का स्वरूप धारण करके, उसके शिर के नीचे से [निकालकर] पृथिवी को मुख में धर लिया। वह उठा। दोनों की लड़ाई हुई। वराह ने हिरण्याक्ष को मार डाला। 


इन पोपों से कोई पूछे कि पृथिवी गोल है वा चटाई के तुल्य? तो कुछ न कह सकेंगे; क्योंकि पौराणिक लोग 'भूगोलविद्या' के शत्रु हैं। भला, जब लपेटकर सिरहाने धरली तो आप किस पर सोया? और वराह जी किस पर पग धर दौड़ आये? और फिर पृथिवी को तो वराह जी ने मुख में रक्खा, फिर दोनों किस पर ठड़े होकर लड़े? वहाँ और कोई ठहरने की जगह नहीं थी, अतः 'भागवत'-आदि पुराण बनानेवाले पोप जी की छाती पर ठड़े होके लड़े होंगे! और फिर उस समय पोप जी किस पर सोये होंगे? यह बात जैसे―'गप्पी के घर गप्पी आये, बोले गप्पी जी'=जब मिथ्यावादियों के घरों में दूसरे गप्पी लोग आते हैं फिर गप्प मारने में क्या कमती, इस प्रकार की है।


अब रहा हिरण्यकशिपु। उसका लड़का जो प्रह्लाद था वह भक्त हुआ था। उसका पिता पढ़ने को पाठशाला में भेजता था। तब वह अध्यापकों से कहता था―"मेरी पट्टी पर 'राम-राम' लिख दो।" जब उसके बाप ने सुना तो उससे कहा―"तू हमारे शत्रु का भजन क्यों करता है?" छोकरे ने न माना। तब उसके बाप ने उसको बाँधके पहाड़ से गिराया, कूप में डाला, परन्तु उसको कुछ न हुआ। तब वह एक लोहे का खम्भा आग में तपाके उससे बोला―"जो तेरा इष्टदेव 'राम' सच्चा हो तो तू इसको पकड़ने से न जलेगा।" प्रह्लाद पकड़ने को चला। मन में शंका हुई―'जलने से बचूंगा वा नहीं?' नारायण ने उस खम्भे पर छोटी-छोटी चीटियों की पंक्ति चलाई। उसको निश्चय हुआ, [उसने] झट खम्भे को जा पकड़ा। वह फट गया, उसमें से नृसिंह निकला। [उसने] उसके बाप को पकड़, पेट चीर, मार डाला और तब वह प्रह्लाद को चाटने लगा। [नृसिंह ने] प्रह्लाद से कहा―“वर माँग।" उसने अपने पिता की सद्गति होनी मांगी। नृसिंह ने वर दिया―"तेरे इक्कीस पुरुषे सद्गति को गये।"


देखिये, यह भी दूसरे गपोड़े का भाई गपोड़ा। किसी 'भागवत' बाँचने वा सुननेवाले को पकड़के ऊपर पहाड़ से गिरावे तो कोई न बचे, किन्तु चकनाचूर होकर मर जावे। प्रह्लाद को उसका पिता पढ़ने के लिये भेजता था, [तो उसने] क्या बुरा काम किया था? और वह प्रह्लाद ऐसा मूर्ख [था कि] पढ़ना छोड़ वैरागी होना चाहता था। जो जलते हुए खम्भे के स्पर्श से कीड़ी और प्रह्लाद न जले, इस बात को जो सच्ची माने उसको भी खम्भे के साथ लगा देना चाहिये। जो वह न जले तो जानो वह भी न जला होगा। और नृसिंह भी क्यों न जला? प्रथम, तीसरे जन्म में वैकुण्ठ में आने का वर सनक-आदिक का था। क्या उसको तुम्हारा नारायण भूल गया? 'भागवत' की रीति से ब्रह्मा, प्रजापति, कश्यप से आगे हिरण्याक्ष और हिरण्यकशिपु चौथी पीढ़ी में होते हैं। इक्कीस पीढ़ियां प्रह्लाद की हुई ही नहीं, पुनः “इक्कीस पुरुषे सद्गति को गये" कहना कितना प्रमाद है! और फिर वे ही हिरण्याक्ष-हिरण्यकशिपु, पुनः रावण-कुम्भकर्ण, पुनः शिशुपाल-दन्तवक्त्र उत्पन्न हुए तो नृसिंह का वर कहाँ उड़ गया? ऐसी प्रमाद की बातें प्रमादी करते, सुनते और मानते हैं, विद्वान् नहीं।


पूतना और अक्रूर जी के विषय में देखो― 


जगाम गोकुलं प्रति॥ [रथमास्थाय प्रययौ नन्दगोकुलम्]


[भागवत० स्कं० १०।३८।१] 


"रथेन वायुवेगेन"


[भागवत० स्कं० १०।३९।३८] 


अक्रूर जी, कंस के भेजने से, वायु के समान दौड़नेवाले घोड़ों के रथ में बैठके सूर्योदय से चले और चार मील गोकुल में सूर्यास्त समय पहुँचे! शायद, घोड़े 'भागवत' बनानेवाले की परिक्रमा करते रहे होंगे? वा मार्ग भूलकर 'भागवत' बनानेवाले के घर में आकर घोड़े हांकनेवाले और अक्रूर जी सो गये होंगे?


पूतना का शरीर छ: कोश चौड़ा और बहुत-सा लम्बा लिखा है। मथुरा और गोकुल के बीच में उसको मारकर श्रीकृष्ण ने डाल दिया। जो ऐसा होता तो मथुरा और गोकुल दोनों दबकर इन पोप जी का घर भी दब गया होता। 


अजामिल की कथा ऊटपटाँग लिखी है। उसने नारद के कहने से अपने लड़के का नाम नारायण रक्खा था। मरते समय अपने पुत्र को पुकारा। बीच में नारायण कूद पड़े। क्या नारायण उसके अन्तःकरण के भाव को नहीं जानते थे कि वह अपने पुत्र को पुकारता है, मुझको नहीं। जो ऐसा ही नाम-माहात्म्य है तो आजकल भी नारायण अपने स्मरण करनेवालों के दुःख छुड़ाने को क्यों नहीं आता? यदि यह बात सच्ची हो, तो क़ैदी लोग 'नारायण-नारायण' करके क्यों नहीं छूट जाते? 


ऐसे ही 'ज्योतिष शास्त्र' से विरुद्ध 'सुमेरु' का परिमाण लिखा है। प्रियव्रत के रथ के चक्र की लीक से समुद्र हुए, पचास कोटि योजन पृथिवी है, इत्यादि मिथ्या बातों का 'भागवत' में कुछ पारावार नहीं। 


और यह 'भागवत' बोपदेव का बनाया है, जिसके भाई जयदेव ने 'गीतगोविन्द' बनाया है। देखो, उसने ये श्लोक अपने बनाये 'हेमाद्रि' में लिखे हैं कि 'श्रीमद्भागवत' मैंने बनाया है। उस लेख के तीन पत्र हमारे पास थे। उनमें से एक पत्र खो गया है। उस पत्र में श्लोकों का जो आशय था उस आशय के हमने दो श्लोक बनाके नीचे लिखे हैं― जिसको देखना हो, वह 'हेमाद्रि' ग्रन्थ में देख लेवे। श्लोक―


हेमाद्रेः सचिवस्यार्थे सूचना क्रियतेऽधुना। 

स्कन्धाऽध्यायकथानां च यत्प्रमाणं समासतः॥१॥ 

श्रीमद्भागवतं नाम पुराणं च मयेरितम्।

विदुषा बोपदेवेन श्रीकृष्णस्य यशोन्वितम्॥२॥


इसी प्रकार के श्लोक नष्टपत्र में थे। अर्थात् राजा के सचिव हेमाद्रि ने बोपदेव पण्डित से कहा कि 'मुझको तुम्हारे बनाये 'श्रीमद्भागवत' को सम्पूर्ण सुनने का अवकाश नहीं है, इसलिये तुम संक्षेप से श्लोकबद्ध सूचीपत्र बनाओ, जिसको देखके मैं 'श्रीमद्भागवत' की कथा को संक्षेप से जान लूं।' सो नीचे लिखा हुआ सूचीपत्र उस बोपदेव ने बनाया। उसमें से उस नष्टपत्र में नौ श्लोक खो गये हैं, दशवें श्लोक से लिखते हैं। ये नीचे लिखे श्लोक सब बोपदेव के बनाये हैं। वे श्लोक हैं―


बोधयन्तीति हि प्राहुः श्रीमद्भागवतं पुनः। 

पञ्च प्रश्नाः शौनकस्य सूतस्यात्रोत्तरं त्रिषु॥१०॥ 

प्रश्नावतारयोश्चैव व्यासस्यानिवृतिः कृतात्। 

नारदस्यात्र हेतूक्तिः प्रतीत्यर्थं स्वजन्म च॥११॥ 

सुप्तघ्नं द्रोण्यभिभवस्तदस्त्रात्पाण्डवावनम्। 

भीष्मस्य स्वपदप्राप्तिः कृष्णस्य द्वारकागमः॥१२॥

श्रोतुः परीक्षितो जन्म धृतराष्ट्रस्य निर्गमः। कृष्णमर्त्यत्यागसूचा ततः पार्थमहापथः॥१३॥ 

भूधर्मयोः कलेर्भीतिस्ततस्त्राणं परीक्षिता। 

परीक्षितो ब्रह्मशापः प्रायेण शुकसंगमः ॥१४॥ इत्यष्टादशभिः पादैरध्यायार्थः क्रमात् स्मृतः। स्वपरप्रतिबन्धोनं स्फीतं राज्यं जहौ नृपः॥१५॥

इति वै राज्ञो दार्ढ्योक्तौ प्रोक्ता द्रौणिजयादयः॥[१६]


इति प्रथमः स्कन्धः॥१॥ 


इत्यादि बारह स्कन्धों का सूचीपत्र इसी प्रकार बोपदेव पण्डित ने बनाकर हेमाद्रि [नामक] सचिव को दिया। जो विस्तार देखना चाहे, वह बोपदेव के बनाये 'हेमाद्रि' ग्रन्थ में देख लेवे। इसी प्रकार अन्य पुराणों की लीला भी उन्नीस-वीस-इक्कीस एक-दूसरे से बढ़कर है।


देखो, श्री कृष्ण का इतिहास महाभारत में अत्युत्तम है; उनका गुण, कर्म, स्वभाव, चरित्र आप्त पुरुषों के सदृश है; जिसमें, श्री कृष्ण ने जन्म से मरणपर्यन्त कोई अधर्म का आचरण कुछ भी किया हो, ऐसा नहीं लिखा। और 'भागवत' में दूध, दही, मक्खन की चोरी, कुब्जा दासी से समागम, परस्त्रियों से रासमण्डल, क्रीडा आदि मिथ्या दोष श्री कृष्ण पर लगाये हैं। इसको पढ़-पढ़ा, सुन-सुनाके, अन्य मत-वाले श्री कृष्ण की बहुत-सी निन्दा करते हैं। जो यह 'भागवत' न होता तो श्री कृष्ण जी के सदृश महात्माओं की झूठी निन्दा क्यों होती?


'शिवपुराण' में बारह ज्योतिर्लिंग' लिखे हैं। उनकी कथा सर्वथा असम्भव है। नाम धरा है 'ज्योतिर्लिंग' और जिनमें प्रकाश का लेश भी नहीं। रात्रि को विना दीप किये लिंग भी अन्धेरे में नहीं दीखते, ये सब लीलायें पोप जी की हैं।


प्रश्न―जब वेद पढ़ने का सामर्थ्य नहीं रहा तब स्मृतियां [बनाई], जब स्मृतियों के पढ़ने की बुद्धि नहीं रही तब शास्त्र [और] जब शास्त्र पढ़ने का सामर्थ्य न रहा तब पुराण बनाये, केवल स्त्री-शूद्रों के लिये; क्योंकि इनको वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार नहीं है।


उत्तर―यह बात मिथ्या है; क्योंकि सामर्थ्य पढ़ने-पढ़ाने से ही होता है और वेद पढ़ने-सुनने का अधिकार सबको है। देखो, गार्गी आदि स्त्रियाँ [वेदविदुषी थीं] और 'छान्दोग्य' में [लिखा है कि] जानश्रुति शूद्र ने भी रैक्यमुनि के पास वेद पढ़ा था। और 'यजुर्वेद' के २६वें अध्याय के दूसरे मन्त्र में स्पष्ट लिखा है कि वेदों के पढ़ने-सुनने का अधिकार मनुष्यमात्र को है। पुन: जो ऐसे-ऐसे मिथ्याग्रन्थ बना, लोगों को सत्यग्रन्थों से विमुख रख, जाल में फसा, अपने प्रयोजन को साधते हैं, वे महापापी क्यों नहीं?


देखो, ग्रहों का चक्र कैसा चलाया है कि जिसने विद्याहीन मनुष्यों को ग्रस्त कर लिया है―


'आ कृ॒ष्णेन॒ रज॑सा॒०'॥१॥ [यजुः ३३।४३] सूर्य का मन्त्र, 'इ॒मं दे॑वाऽअसप॒त्नᳬ सु॑वध्वम्०'॥२॥ [यजुः ९।४०] चन्द्र, 'अ॒ग्निर्मू॒र्द्धा दि॒वः क॒कुत्पतिः॑०'॥३॥ [यजुः ३।१२] मङ्गल, 'उद्बु॑ध्यस्वाग्ने॒०' ॥४॥ [यजुः १५।५४] बुध, 'बृह॑स्पते॒ऽअति॒यद॒र्यो०'॥५॥ [यजुः २६।३] बृहस्पति, 'शु॒क्रमन्ध॑स॒:'॥६॥ [यजुः १९।७२] शुक्र, 'शन्नो॑ दे॒वीर॒भिष्ट॑य॒०'॥७॥ [यजुः ३६।१२] शनि, 'कया॑ नश्चि॒च॒त्रऽआ भु॑व०'॥८॥ [यजुः २७।३९] राहु, 'के॒तुं कृ॒ण्वन्न॑के॒तवे॒०'॥९॥ [यजुः २९।३७] इसको 'केतु' की कण्डिका कहते हैं।


(आ कृष्णे०) यह सूर्य और भूमि का आकर्षण॥१॥ दूसरा―राजगुण विधायक॥२॥ तीसरा―अग्नि॥३॥ और चौथा―यजमान॥४॥ पाँचवाँ―विद्वान्॥५॥ छठा―वीर्य, अन्न॥६॥ सातवाँ―जल, प्राण और परमेश्वर॥७॥ आठवाँ―मित्र॥८॥ नववाँ―ज्ञानग्रहण॥९॥ ये इनके विधायक मन्त्र हैं, ग्रहों के वाचक नहीं। अर्थ न जानने से भ्रमजाल में पड़े हैं।


प्रश्न―ग्रहों का फल होता है, वा नहीं?


उत्तर―जैसा पोपलीला का [कहा हुआ] है, वैसा नहीं; किन्तु जैसे सूर्य-चन्द्रमा किरणों द्वारा उष्णता-शीतता अथवा ऋतुवत्कालचक्र के सम्बन्धमात्र से अपनी प्रकृति के अनुकूल-प्रतिकूल सुख-दुःख के निमित्त होते हैं, [वैसा फल होता है]। परन्तु जो पोपलीलावाले कहते हैं “सुनो महाराज! सेठजी! यजमानो! तुम्हारे आज चन्द्र-सूर्यादि क्रूर ग्रह आठवें घर में आये हैं। अढ़ाई वर्ष का शनैश्चर पग में आया है। तुमको बड़ा विघ्न होगा। घर-द्वार छुड़ाकर परदेश में घुमावेगा। परन्तु जो तुम ग्रहों का दान, जप, पाठ, पूजा कराओगे तो दुःख से बचोगे।" इनसे पूछना चाहिये कि "सुनो पोप जी! तुम्हारा और ग्रहों का क्या सम्बन्ध है? ग्रह क्या वस्तु है?"


पोप जी― दैवाधीनं जगत्सर्वं मन्त्राधीनाश्च देवताः।

ते मन्त्रा ब्राह्मणाधीनास्तस्माद् ब्राह्मणदैवतम्॥


देखो, कैसा प्रमाण है! देवताओं के आधीन सब जगत्, मन्त्रों के आधीन सब देवता और वे मन्त्र ब्राह्मणों के आधीन हैं, इसलिये ब्राह्मण 'देवता' कहाते हैं; क्योंकि [जब] चाहें, उस देवता को मन्त्र के बल से बुला, प्रसन्न कर, काम सिद्ध कराने का हमारा ही अधिकार है। जो हममें मन्त्रशक्ति न होती तो तुम्हारे जैसे नास्तिक हमको संसार में रहने ही न देते। 


सत्यवादी―जो चोर, डाकू, कुकर्मी लोग हैं, वे भी तुम्हारे देवताओं के आधीन होंगे? देवता ही उनसे दुष्ट काम कराते होंगे? जो वैसा है तो तुम्हारे देवता और राक्षसों में कुछ भेद न रहेगा। जो तुम्हारे आधीन मन्त्र हैं, [और] उनसे तुम चाहो सो करा सकते हो, तो उन मन्त्रों से देवताओं को वश में कर राजाओं के कोष उठवाकर, अपने घर में भरकर, बैठके आनन्द क्यों नहीं भोगते? घर-घर में शनैश्चरादि के तैल आदि का छायादान लेने को मारे-मारे क्यों फिरते हो? और जिसको तुम कुबेर मानते हो उसको वश में करके चाहो जितना धन लिया करो, बेचारे गरीबों को क्यों लूटते हो?


तुमको दान देने से ग्रह प्रसन्न, न देने से अप्रसन्न होते हों, तो हमको सूर्यादि ग्रहों की प्रसन्नता-अप्रसन्नता प्रत्यक्ष दिखलाओ। जिसको ८ वाँ सूर्य-चन्द्र, और दूसरे को तीसरा हो, उन दोनों को ज्येष्ठ महीने में विना जूते पहने हुये तपी हुई भूमि पर चलाओ। जिस पर प्रसन्न हैं उसके पग-शरीर न जलने, और जिस पर क्रोधित हैं उसके जल जाने चाहियें। तथा पौष-माघ में दोनों को नंगे कर पौर्णमासी की रात्रिभर मैदान में रक्खें। एक को शीत लगे दूसरे को नहीं, तो जानो कि ग्रह क्रूर और सौम्य दृष्टिवाले होते हैं। और क्या ग्रह तुम्हारे सम्बन्धी हैं? और तुम्हारी डाक वा तार उनके पास आते-जाते हैं? अथवा तुम उनके वा वे तुम्हारे पास आते-जाते हैं?


जो तुममें मन्त्रशक्ति हो तो तुम स्वयं राजा वा धनाढ्य क्यों नहीं बन जाओ? वा शत्रुओं को अपने वश में क्यों नहीं कर लेते हो? नास्तिक वह होता है, जो वेद और ईश्वर की आज्ञा [को न माने और] वेदविरुद्ध पोपलीला चलावे। जब तुमको ग्रहदान न देवे जिस पर ग्रह है, वही ग्रहदान को भोगे तो क्या चिन्ता है? जो तुम कहो कि नहीं, हमको ही देने से वे प्रसन्न होते हैं, अन्य को देने से नहीं, तो क्या तुमने ग्रहों का ठेका ले लिया है? जो ठेका लिया हो तो सूर्यादि को अपने घर में बुलाके जल मरो। 


सच तो यह है कि सूर्यादि लोक जड़ हैं। वे न किसी को दुःख और न सुख देने की चेष्टा कर सकते हैं किन्तु जितने तुम ग्रहदानोपजीवी हो, वे तुम सब ग्रहों की मूर्त्तियाँ हो; क्योंकि 'ग्रह' शब्द का अर्थ भी तुममें ही घटित होता है। 'ये गृह्णन्ति ते ग्रहाः'=जो ग्रहण करते हैं, उनका नाम ‘ग्रह' है। जब तक तुम्हारे चरण राजा, रईस, सेठ, साहूकार और दरिद्रों के पास नहीं पहुँचते, तब तक किसी को ग्रह का स्मरण भी नहीं होता। जब तुम साक्षात् सूर्य-शनैश्चरादि मूर्त्तिमान् क्रूर रूप धर उन पर जा चढ़ते हो, तब विना ग्रहण किये उनको कभी नहीं छोड़ते। और जो कोई तुम्हारे ग्रास में न आवे, उसकी निन्दा 'नास्तिक' आदि शब्दों से करते फिरते हो। 


पोप जी―देखो, ज्योतिष का प्रत्यक्ष फल! आकाश में रहने वाले सूर्य, चन्द्र, राहु, केतु के संयोगरूप 'ग्रहण' को पहले ही कह देते हैं। जैसा यह प्रत्यक्ष होता है, वैसा ग्रहों का फल भी प्रत्यक्ष हो जाता है। देखो, धनाढ्य-दरिद्र, राजा-रंक, सुखी-दुःखी ग्रहों से ही होते हैं। 


सत्यवादी―जो यह ग्रहण रूप प्रत्यक्ष फल है सो गणितविद्या का है, फलित का नहीं। जो गणितविद्या है वह सच्ची और फलितविद्या स्वाभाविक सम्बन्धजन्य को छोड़के झूठी है। जैसे अनुलोम-प्रतिलोम घूमनेवाले पृथिवी और चन्द्र के गणित से स्पष्ट विदित होता है कि अमुक समय, अमुक देश, अमुक अवयव में सूर्य वा चन्द्र ग्रहण होगा। जैसे―


छादयत्यर्कमिन्दुर्विधुं भूमिभाः। 


[तुलना―सिद्धान्तशिरोमणि, गोलाध्याय ग्रहण प्रकरण; ग्रहलाघव, चन्द्रग्रहण० ५.४;

सूर्यसिद्धान्त चन्द्रग्रहणाधिकार ४।४] 


यह ग्रहलाघव का वचन है और इसी प्रकार 'सूर्यसिद्धान्त'-आदि में भी है। अर्थात् जब सूर्य और भूमि के मध्य में चन्द्रमा आता है तब 'सूर्यग्रहण' और जब सूर्य और चन्द्र के बीच में भूमि आती है तब 'चन्द्रग्रहण' होता है। अर्थात् चन्द्र की छाया भूमि पर और भूमि की छाया चन्द्रमा पर पड़ती है। सूर्य प्रकाशरूप होने से उसके सम्मुख छाया किसी की नहीं पड़ती किन्तु जैसे प्रकाशमान सूर्य वा दीप से देहादि की छाया उलटी जाती है, वैसे ही ग्रहण में समझो। 


जो धनाढ्य-दरिद्र, राजा-रंक होते हैं, वे अपने कर्मों से होते हैं, ग्रहों से नहीं। बहुत से ज्योतिषी लोग अपने लड़के-लड़की का विवाह ग्रहों की गणितविद्या के अनुसार करते हैं, पुनः उनमें विरोध वा वैधव्य अथवा मृतस्त्रीक पुरुष हो जाता है। जो फल सच्चा होता तो ऐसा क्यों होता? इसलिये कर्म की गति सच्ची है, और ग्रहों की गति सुख-दुःख भोग में कारण नहीं। भला, ग्रह आकाश में और पृथिवी भी आकाश में बहुत दूर पर हैं, इनका सम्बन्ध कर्त्ता और कर्मों के साथ साक्षात् नहीं। कर्म और कर्म के फल का कर्त्ता-भोक्ता जीव, और कर्मों के फल भोगानेहारा परमात्मा है। जो तुम ग्रहों का फल मानते हो तो इसका उत्तर दो कि जिस क्षण में एक मनुष्य का जन्म होता है, जिसको तुम 'ध्रुवात्रुटि' मानकर जन्मपत्र बनाते हो, उसी समय में भूगोल पर दूसरे का जन्म होता है वा नहीं? जो कहो नहीं, तो झूठ; और जो कहो होता है, तो एक चक्रवर्ती के सदृश दूसरा चक्रवर्ती राजा भूगोल पर क्यों नहीं होता? हाँ, इतना तुम कह सकते हो कि यह लीला हमारे उदर भरने की है, तो कोई मान भी लेवे।


प्रश्न―क्या ‘गरुडपुराण' भी झूठा है?


उत्तर―हाँ, असत्य है। 


प्रश्न―फिर मरे हुए जीव की क्या गति होती है? 


उत्तर―जैसे उसके कर्म हैं।


प्रश्न―जो यमराज राजा, चित्रगुप्त मन्त्री, उसके बड़े भयङ्कर गण कज्जल के पर्वत के तुल्य शरीरवाले, जीव को पकड़कर ले जाते हैं, पाप-पुण्य के अनुसार नरक-स्वर्ग में डालते हैं। उसके लिये दान, पुण्य, श्राद्ध, तर्पण, गोदानादि, वैतरणी नदी तरने के लिये करते हैं। ये सब बातें झूठी क्योंकर हो सकती हैं?


उत्तर―ये सब बातें पोपलीला के गपोड़े हैं। जो अन्यत्र के जीव वहाँ जाते हैं, उनका धर्मराज, चित्रगुप्त आदि न्याय करते हैं, तो उस यमलोक के जीव पाप करें तो दूसरा यमलोक मानना चाहिये कि वहाँ के न्यायाधीश उनका न्याय करें। और पर्वत के समान यमगणों के शरीर हों तो दीखते क्यों नहीं? और मरनेवाले जीव को लेने में छोटे द्वार में उनकी एक अंगुली भी नहीं जा सकती! और सड़क-गली में क्यों नहीं रुक जाते? जो कहो कि वे सूक्ष्म देह भी धारण कर लेते हैं, तो प्रथम पर्वतवत् शरीर के बड़े-बड़े हाड़, पोप जी विना, अपने घर के कहां धरेंगे? जब जङ्गल में आगी लगती है तब एकदम पिपीलिकादि जीवों के शरीर छूटते हैं। उनको पकड़ने के लिये असंख्य यम के गण आवे तो वहाँ अन्धकार हो जाना चाहिये। और जब आपस में जीवों को पकड़ने को दौड़ेंगे, तब कभी उनके शरीर ठोकरें खा जायेंगे, तो जैसे पहाड़ के बड़े-बड़े शिखर टूटकर पृथिवी पर गिरते हैं, वैसे उनके बड़े-बड़े अवयव 'गरुडपुराण' के बाँचने-सुननेवालों के आँगन में गिर पड़ेंगे तो वे दब मरेंगे, वा घर का द्वार अथवा सड़क रुक जायगी, तो वे कैसे निकल और चल सकेंगे?


श्राद्ध, तर्पण, पिण्डप्रदान उन मरे हुये जीवों को तो नहीं पहुँचता, किन्तु मृतकों के प्रतिनिधि पोप जी के घर, उदर और हाथ में पहुँचता है। जो वैतरणी के लिये गोदान लेते हैं, वह तो पोप जी के घर में अथवा कसाई आदि के घर में पहुँचता है। वैतरणी पर गाय नहीं जाती, पुनः किसकी पूँछ पकड़कर तरेगा? और हाथ तो यहीं जला वा गाड़ दिया गया, पूँछ को कैसे पकड़ेगा? यहां एक जाट का दृष्टान्त इस बात में उपयुक्त है―


एक जाट था। उसके घर में एक गाय वीस सेर दूध देनेवाली थी। उसका दूध बड़ा स्वादिष्ट होता था। कभी-कभी पोप जी के मुख में भी पड़ता था। उसका पुरोहित यही ध्यान कर रहा था कि जब जाट का बुड्ढा बाप मरने लगेगा तब इस गाय का सङ्कल्प करा लूंगा। कुछ दिनों में दैवयोग से उसके बाप का मरण समय आया। जीभ बन्द हो गई और खाट से नीचे उतार भूमि पर ले लिया अर्थात् प्राण छोड़ने का समय आ पहुंचा। जाट के बहुत-से सम्बन्धी उपस्थित थे। उस समय पोप जी ने पुकारा―"लो यजमान! इसके हाथ से गोदान कराओ।"


जाट दश रुपये निकाल, पिता के हाथ में रखकर बोला―"पढ़ो सङ्कल्प!"


पोप जी बोले―“वाह! क्या बाप वारम्वार मरता है? साक्षात् गाय को लाओ, वह दूध भी देती हो, बुड्ढी न हो, और सब प्रकार उत्तम हो।"


जाट जी―"एक ही गाय हमारे पास है, उसके विना हमारे लड़के-बालों का निर्वाह नहीं हो सकता। उसको न दूंगा। लो, ये वीस रुपये का सङ्कल्प पढ़ दो; और इन रुपयों से तुम दूसरी दुधार गाय ले लेना।" 


पोप जी―“वाह जी वाह!! तुम अपने बाप से भी गाय को अधिक समझते हो? अपने पिता को वैतरणी नदी में डुबाकर, दुःख देना चाहते हो? तुम अच्छे सुपुत्र हुए?"


तब तो पोप जी की ओर सब कुटुम्बी हो गये; क्योंकि उन सबको पहले से ही पोप जी ने बहका रक्खा था और उस समय भी इशारा कर दिया। सबने मिलकर हठ से उसी गाय का दान उस पोप जी को दिला दिया। उस समय जाट कुछ भी न बोला। उसका पिता मर गया। पोप जी गाय, बछड़ा और दूध दोहने की बटलोई लेकर, घर में जा, गाय-बछड़े को बांध, बटलोई को धर, यजमान के घर आये, और मृतक को श्मशान में ले जा, दाहकर्म किया। वहाँ भी कुछ-कुछ पोपलीला चलाई। पश्चात् दशगात्र सपिण्डी कराने आदि में भी उसको मूंडा। महाब्राह्मणों ने भी लूटा, भुक्खड़ों ने भी बहुत-सा माल पेट में भरा। जब तक सब क्रियायें हुईं, तब तक जाट ने जिस-किसी के घर से दूध माँग-मूँग निर्वाह किया। चौदहवें दिन प्रातःकाल पोप जी के घर गया। देखा तो गाय को दुह, बटलोई भर, पोप जी की उठने की तैयारी थी, इतने में ही जाट जी पहुँचे। पोप जी ने कहा―"आइये, बैठिये!"


जाट जी―"तुम भी इधर आओ।" 


पोप जी―"अच्छा दूध धर आऊँ।" 


जाट जी―"नहीं, दूध की बटलोई इधर लाओ।" पोप जी जा, बटलोई सामने धर, बैठे। 


जाट जी―"तुम बड़े झूठे हो।" 


पोप जी―"क्या झूठ किया?" 


जाट जी―"कहो, तुमने गाय किसलिये ली थी?" 


पोप जी―''तुम्हारे बाप के वैतरणी नदी तरने के लिये।"


जाट जी―"फिर तुमने वैतरणी के किनारे गाय क्यों न पहुँचाई? हम तुम्हारे भरोसे पर रहे और तुम अपने घर बांध बैठे। न जाने मेरे बाप ने वैतरणी में कितने गोते खाये होंगे?"


पोप जी―“नहीं-नहीं, वहाँ इस दान के पुण्य के प्रभाव से दूसरी गाय बन गई और तुम्हारे बाप को पार उतार दिया।"


जाट जी―"वैतरणी नदी यहाँ से कितनी दूर और किधर की ओर है?"


पोपजी―“अनुमान से तीस करोड़ कोश दूर है, क्योंकि पचास कोटि योजन पृथिवी है और दक्षिण-नैर्ऋत दिशा में वैतरणी नदी है।" 


जाट जी―"इतनी दूर से तुम्हारी चिट्ठी वा तार का समाचार गया हो [और] उसका उत्तर आया हो कि वहां पुण्य की गाय बन गई [और उसने] अमुक के पिता को पार उतार दिया, [तो] दिखलाओ?"


पोप जी―"हमारे पास 'गरुडपुराण' के लेख के विना डाक वा तारवर्की दूसरी कोई नहीं।" 


जाट जी―"इस गरुडपुराण को हम सच्चा कैसे मानें?" 


पोप जी―"जैसे सब मानते हैं।"


जाट जी―"यह पुस्तक तुम्हारे पुरुषाओं ने तुम्हारी जीविका के लिये बनाया है; क्योंकि पिता को अपने पुत्रों के विना कोई प्रिय नहीं। जब मेरा पिता मेरे पास चिट्ठी-पत्री वा तार भेजेगा तभी मैं वैतरणी के किनारे गाय पहुँचा दूंगा और उनको पार उतार, पुनः गाय को घर में ले आ, दूध को मैं और मेरे लड़के-बाले पीया करेंगे। लाओ दूध की भरी हुई बटलोई।"


गाय-बछड़ा लेकर जाट जी अपने घर को चले।


पोप जी―"तुम दान देकर लेते हो, तुम्हारा सत्यानाश हो जायगा।"


जाट जी―“चुप रहो! नहीं तो तेरह दिन तक दूध के विना जितना दुःख हमने पाया है, सब कसर निकाल दूंगा।" 


तब पोप जी चुप रहे और जाट जी गाय-बछड़ा ले, अपने घर पहुँचे। जब ऐसे ही जाट जी जैसे पुरुष हों तो पोपलीला संसार में न चले।


जो ये लोग कहते हैं कि दशगात्र के पिण्डों से दश अङ्ग, सपिण्डी करने से शरीर के साथ जीव का मेल होके, अङ्गुष्ठमात्र शरीर बनके, पश्चात् यमलोक को जाता है, तो मरते समय यमदूतों का आना व्यर्थ होता है। त्रयोदशाह के पश्चात् आना चाहिये। जो शरीर बन जाता हो तो अपनी स्त्री, सन्तान और मित्रों के मोह से क्यों नहीं आ जाता?


प्रश्न―स्वर्ग में कुछ भी नहीं मिलता, जो दान किया जाता है, वही वहाँ मिलता है। इसलिये सब दान करने चाहिये।


उत्तर―उस तुम्हारे स्वर्ग से यही लोक अच्छा है, जिसमें धर्मशालायें हैं, लोग दान देते हैं, इष्ट-मित्र और जाति में खूब निमन्त्रण होते हैं, अच्छे-अच्छे वस्त्र मिलते हैं, तुम्हारे कहने प्रमाणे स्वर्ग में कुछ भी नहीं मिलता है। ऐसे निर्दय, कृपण, कंगले स्वर्ग में पोप जी जाके खराब होवें। वहां भले मनुष्यों का क्या काम?


प्रश्न―जब तुम्हारे कहने से यमलोक और यम नहीं हैं, तो मरकर जीव कहाँ जाता है और इनका न्याय कौन करता है?


उत्तर―तुम्हारे 'गरुडपुराण' का कहा तो अप्रमाण है। परन्तु जो वेदोक्त है कि―


"यमेन=वायुना॥" [ऋ० भाष्य ७।३३ । १२],

"सत्यराजन्॥" [यजु० भाष्य २०।४]


इत्यादि वेदवचनों से निश्चय है कि 'यम' नाम वायु का है। शरीर छोड़ 'वायु' के साथ अन्तरिक्ष में जीव रहते हैं; और जो सत्यकर्त्ता, पक्षपातरहित परमात्मा 'धर्मराज' है, वही सबका न्याय करता है।


प्रश्न―तुम्हारे कहने से गोदानादि किसी को न देना और न कुछ दानपुण्य करना चाहिये, ऐसा सिद्ध होता है।


उत्तर―यह तुम्हारा कहना सर्वथा व्यर्थ है; क्योंकि सुपात्रों को, परोपकारियों को परोपकारार्थ सोना, चाँदी, हीरा, मोती, माणिक, अन्न, जल, स्थान, वस्त्र, गाय आदि दान अवश्य करना उचित है, किन्तु कुपात्रों को कभी न देना चाहिये।


प्रश्न―कुपात्र और सुपात्र का लक्षण क्या है?


उत्तर―जो छली, कपटी, स्वार्थी, विषयी, काम-क्रोध-लोभ-मोह से युक्त, परहानि करनेवाले, लम्पट, मिथ्यावादी, अविद्वान्, कुसङ्गी, आलसी, जो कोई दाता हो उसके पास वारम्वार माँगना, धरना देना, 'ना' किये पश्चात् भी हठ से माँगते जाना, सन्तोष न होना, जो न दे उसकी निन्दा, शाप [देना], गालि-प्रदानादि करना, अनेक वार जो सेवा करे और एक वार न करे तो उसका शत्रु बन जाना, ऊपर से साधु-वेश बना लोगों को बहकाकर ठगना और अपने पास पदार्थ हो, तो भी 'मेरे पास कुछ भी नहीं है' कहना, सबकी खुशामद करना, रात-दिन भीख माँगने में ही प्रवृत्त रहना, निमन्त्रण दिये पर खूब भांग आदि मादक द्रव्य खा-पीकर बहुत-सा पराया पदार्थ खाना, मस्त होकर पागल वा प्रमादी होना, सत्य-मार्ग का विरोध और झूठ-मार्ग में अपने प्रयोजनार्थ चलना, अपने चेलों को अपनी ही सेवा का उपदेश करना, अन्य योग्य पुरुषों की सेवा नहीं करना। सद्विद्यादि प्रवृत्ति के विरोधी, जगत् के व्यवहार अर्थात् स्त्री, पुरुष, माता, पिता, सन्तान, राजा, प्रजा, इष्टमित्रों में अप्रीति कराना कि 'ये सब असत्य हैं, जगत् भी मिथ्या है', इत्यादि दुष्ट उपदेश करना आदि 'कुपात्रों' के लक्षण हैं । 


और जो ब्रह्मचारी, जितेन्द्रिय, वेदादिविद्या के पढ़ने-पढ़ाने-हारे, सुशील, सत्यवादी, परोपकारप्रिय, पुरुषार्थी, उदार, विद्या-धर्म में निरन्तर उन्नति करनेहारे, धर्मात्मा, शान्त, निन्दा-स्तुति में हर्ष-शोकरहित, निर्भय, उत्साही, योगी, ज्ञानी, सृष्टिक्रम-वेदाज्ञा-ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभावानुकूल वर्तमान करनेहारे, न्याय की रीतियुक्त, पक्षपातरहित, सत्योपदेश और सत्यशास्त्रों के पढ़ने-पढ़ानेहारों के परीक्षक, किसी की खुशामद न करें, प्रश्नों के ठीक-ठीक समाधानकर्त्ता, अपने आत्मा के तुल्य अन्य का भी सुख-दुःख, हानि-लाभ समझनेवाले, अविद्यादि क्लेश-हठ-दुराग्रह-अभिमान-रहित, अमृत के तुल्य अपमान और मान को विष के तुल्य समझनेवाले, सन्तोषी, जो कोई प्रीति से जितना देवे उतने से ही प्रसन्न, एक वार आपत्काल में मांगे भी तो न देने वा वर्जने पर भी दु:ख वा बुरी चेष्टा न करना, वहाँ से झट लौट जाना [और] उसकी निन्दा न करना, सुखियों के साथ मित्रता, दुःखियों पर करुणा [करना], पुण्यात्माओं से आनन्द और पापियों से उपेक्षा अर्थात् राग-द्वेषरहित रहना, सत्यमानी, सत्यवादी, सत्यकारी, निष्कपट, ईर्ष्या-द्वेषरहित, गम्भीराशय, सत्पुरुष, धर्म से युक्त और सर्वथा दुष्टाचार से रहित, अपने तन-मन-धन को परोपकार में लगानेवाले, पराये सुख के लिये अपने प्राणों के भी समर्पितकर्त्ता, इत्यादि शुभलक्षणयुक्त 'सुपात्र' होते हैं; परन्तु दुर्भिक्षादि आपत्काल में अन्न, जल, वस्त्र, औषध, पथ्य और स्थान के अधिकारी सब प्राणी मात्र होते हैं।


प्रश्न―दाता कितने प्रकार के होते हैं?


उत्तर―तीन प्रकार के―उत्तम, मध्यम और निकृष्ट। 'उत्तम दाता' उसको कहते हैं जो देश, काल और पात्र को जानकर, सत्यविद्या, धर्म की उन्नतिरूप परोपकारार्थ दान देवे। 'मध्यम' वह है जो कीर्त्ति वा स्वार्थ के लिये दान करे। 'नीच' वह है कि जो अपना वा पराया कुछ उपकार न कर सके, किन्तु वेश्यागमनादि वा भांड-भाटों आदि को देवे, देते समय तिरस्कार-अपमानादि कुचेष्टा भी करे, पात्र-कुपात्र का कुछ भी भेद न जाने, किन्तु 'सब अन्न बारह पसेरी' बेचनेवालों के तुल्य विवाद-लड़ाई, दूसरे धर्मात्मा को दुःख देकर [अपने] सुखी होने के लिये दिया करे, वह 'अधम' दाता है। अर्थात् जो परीक्षापूर्वक विद्वान् धर्मात्माओं का सत्कार करे वह 'उत्तम', और कुछ परीक्षा करे वा न करे परन्तु जिसमें अपनी प्रशंसा हो उसको करे वह 'मध्यम', और जो अन्धाधुन्ध परीक्षारहित निष्फल दान दिया करे वह 'नीच' दाता कहाता है।


प्रश्न―दान के फल यहाँ होते हैं, वा परलोक में?   


उत्तर―सर्वत्र होते हैं।


प्रश्न―स्वयं होते हैं, वा कोई फल देनेवाला है?


उत्तर―फल देनेवाला ईश्वर है। जैसे कोई चोर-डाकू स्वयं बन्दीघर में जाना नहीं चाहता, राजा उसको अवश्य भेजता है। वह धर्मात्माओं के सुख की रक्षा करता, [कर्मफल] भुगाता, डाकू आदि से बचाकर उनको सुख में रखता है, वैसे ही परमात्मा सबको पाप-पुण्य के दुःख और सुखरूप फलों को यथावत् भुगाता है।


प्रश्न―जो ये 'गरुडपुराण'-आदि ग्रन्थ हैं, वे वेदार्थ वा वेद की पुष्टि करनेवाले हैं, वा नहीं?


उत्तर―नहीं, किन्तु वेद के विरोधी और उलटे चलते हैं; तथा तन्त्र भी वैसे ही हैं। जैसे कोई मनुष्य एक का मित्र, सब संसार का शत्रु हो, वैसे ही पुराणों और तन्त्रों का माननेवाला पुरुष होता है; क्योंकि एक दूसरे से विरोध करानेवाले ये ग्रन्थ हैं। इनका मानना किसी मनुष्य का काम नहीं, किन्तु इनको मानना पशुता है। देखो, 'शिवपुराण' में त्रयोदशी, सोमवार; 'आदित्यपुराण' में रवि; 'चन्द्रखण्ड' में सोम; ग्रहवालों के मङ्गल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनैश्चर, राहु, केतु; वैष्णव एकादशी; वामन की द्वादशी; नृसिंह वा अनन्त की चतुर्दशी; चन्द्रमा की पूर्णमासी; दिक्पालों की दशमी; दुर्गा की नवमी; वसुओं की अष्टमी, मुनियों की सप्तमी; कार्त्तिकेय स्वामी की षष्ठी; नाग की पञ्चमी; गणेश की चतुर्थी; गौरी की तृतीया; अश्विनीकुमार की द्वितीया; आद्यादेवी की प्रतिपदा और पितरों की अमावस्या; पुराणरीति से उपवास करने के दिन हैं। और सर्वत्र यही लिखा है कि जो मनुष्य इन वार और तिथियों में अन्न-पान ग्रहण करेगा वह नरकगामी होगा। अब पोप और पोप जी के चेलों को चाहिये कि किसी वार अथवा किसी तिथि में भोजन न करें; क्योंकि जो भोजन वा पान किया तो वे नरकगामी होंगे।


अब 'निर्णयसिन्धु' 'धर्मसिन्धु' 'व्रतार्क' आदि ग्रन्थ जो कि प्रमादी लोगों के बनाये हैं, उन्होंने एक-एक व्रत की ऐसी दुर्दशा की है कि जैसे एकादशी को शैव दशमीविद्धा, [मानते हैं], कोई द्वादशी में एकादशी व्रत करते हैं अर्थात् क्या बड़ी विचित्र पोपलीला है कि भूखे मरने में भी वाद-विवाद ही करते हैं। जिसने एकादशी का व्रत चलाया है, उसमें अपना स्वार्थपन ही है और दया कुछ भी नहीं। कहते हैं―


"एकादश्यामन्ने पापानि वसन्ति॥"


[पद्मपुराण, ब्रह्मखण्ड अ० १५, श्लो० ११ तथा एकादशी माहात्म्य] 


=जितने पाप हैं, सब एकादशी के दिन अन्न में वसते हैं। इस पोप जी से पूछना चाहिये कि किसके पाप उसमें वसते हैं? तेरे वा तेरे पिता आदि के? जो सबके सब पाप एकादशी में जा वसे तो एकादशी के दिन किसी को दुःख न रहना चाहिये। ऐसा तो नहीं होता किन्तु उलट क्षुधा आदि से दुःख होता है। दुःख पाप का फल है। इससे भूखा मरना पाप है। इसका बड़ा माहात्म्य बनाया है। जिसकी कथा बाँचके बहुत ठगे जाते हैं, उसमें एक गाथा है कि―


ब्रह्मलोक में एक वेश्या थी। उसने कुछ अपराध किया। उसको शाप हुआ―"तू पृथिवी पर गिर।" उसने स्तुति की, 'मैं पुनः स्वर्ग में क्योंकर आ सकूँगी?' उस [शापदाता ने] कहा―"जब कभी एकादशी के व्रत का फल तुझे कोई देगा, तभी तू स्वर्ग में आ जायगी।" वह विमान सहित किसी नगर में गिर पड़ी। वहाँ के राजा ने उससे पूछा कि "तू कौन है?" तब उसने सब वृत्तान्त कह सुनाया और कहा कि "जो कोई मुझको एकादशी का फल अर्पण करे, तो मैं फिर भी स्वर्ग को जा सकती हूँ।" राजा ने नगर में खोज कराई। कोई भी एकादशी का व्रत करनेवाला न मिला। किन्तु एक दिन किसी शूद्र स्त्री-पुरुष में लड़ाई हुई थी। क्रोध से स्त्री दिन-रात भूखी रही थी। दैवयोग से उस दिन एकादशी ही थी। उसने कहा कि “मैंने एकादशी जानकर तो व्रत नहीं किया, अकस्मात् उस दिन भूखी रह गई थी।", ऐसा राजा के सिपाहियों से कहा। तब तो सिपाही उसको राजा के सामने ले आये। उससे राजा ने कहा कि "तू इस विमान को छू।" उसने छूआ, तो उसी समय विमान ऊपर को उड़ गया। यह तो विना जाने एकादशी के व्रत का फल है, जो जानके करे तो उसके फल का क्या पारावार है!!! 


वाह रे आँख के अन्धे लोगो! जो यह बात सच्ची हो तो हम एक पान की बीड़ी जो कि स्वर्ग में नहीं होती, भेजना चाहते हैं। सब एकादशीवाले अपना फल दे दो। जो एक पानबीड़ी ऊपर को चली जायगी, तो पुनः लाखों-करोड़ों-पान वहाँ भेजेंगे और हम भी एकादशी किया करेंगे; और जो ऐसा न होगा तो तुम लोगों को इस भूखा मरनेरूप आपत्काल से बचावेंगे। 


इन चौबीस एकादशियों का नाम पृथक्-पृथक् रक्खा है। किसी का 'धनदा', किसी का 'कामदा', किसी का 'पुत्रदा' और किसी का 'निर्जला'। बहुत से दरिद्र, बहुत से कामी और बहुत से निर्वंशी लोग एकादशी करते बूढ़े हो गये और मर भी गये परन्तु धन, कामना और पुत्र प्राप्त न हुआ। और ज्येष्ठ महीने के शुक्लपक्ष में कि जिस समय एक घड़ी-भर जल न पावे तो मनुष्य व्याकुल हो जाता है, व्रत करनेवालों को महादुःख प्राप्त होता है। विशेषकर बङ्गाले में सब विधवा स्त्रियों की एकादशी के दिन बड़ी दुर्दशा होती है। इस निर्दयी कसाई को लिखते समय कुछ भी मन में दया नहीं आई, नहीं तो 'निर्जला' का नाम 'सजला' और पौष महीने की एकादशी का नाम 'निर्जला' रख देता तो भी कुछ अच्छा होता। परन्तु इस पोप को दया से क्या काम? 'कोई जीवो वा मरो, पोप जी का पेट पूरा भरो।' गर्भवती वा सद्योविवाहिता स्त्री, लड़कों वा युवा पुरुषों को तो कभी उपवास न करना चाहिये, परन्तु किसी को करना भी हो तो जिस दिन अजीर्ण हो, क्षुधा न लगे, उस दिन शर्करावत् (शर्बत) वा दूध पीकर रहना चाहिये। जो भूख में नहीं खाते और जो विना भूख के भोजन करते हैं, वे दोनों रोगसागर में गोते खा दुःख पाते हैं। इन प्रमादियों के कहने-लिखने का प्रमाण कोई भी न करे।


अब गुरुशिष्यमन्त्रोपदेश और मतमतान्तरों के चरित्रों का वर्तमान कहते हैं―


[प्रश्न―] मूर्त्तिपूजक सम्प्रदायी लोग प्रश्न करते हैं कि वेद अनन्त हैं। 'ऋग्वेद' की २१, 'यजुर्वेद' की १०१, 'सामवेद' की १००० और 'अथर्ववेद' की ९ शाखायें हैं। इनमें से थोड़ी-सी शाखायें मिलती है, शेष लुप्त हो गई हैं, उन्हीं में मूर्ति-पूजा और तीर्थों का प्रमाण होगा। जो न होता तो पुराणों में कहाँ से आता? जब कार्य देखकर कारण का अनुमान होता है, तब पुराणों को देखकर मूर्त्तिपूजा में क्या शंका है? 


उत्तर―जैसे शाखा जिस वृक्ष की होती है उसीके सदृश हुआ करती है, विरुद्ध नहीं। चाहे शाखायें छोटी-बड़ी हों परन्तु उनमें विरोध नहीं हो सकता। वैसे ही जितनी शाखायें मिलती हैं, जब इनमें पाषाणादि-मूर्त्ति और जल-स्थल-विशेष तीर्थों का प्रमाण नहीं मिलता तो उन लुप्त शाखाओं में भी नहीं था। और जो चार वेद पूर्ण मिलते हैं, उनसे विरुद्ध शाखायें कभी नहीं हो सकतीं, और जो विरुद्ध हैं उनको शाखायें कोई भी सिद्ध नहीं कर सकता। जब यह बात है तो 'पुराण' वेदों की शाखायें नहीं किन्तु सम्प्रदायी लोगों ने परस्परविरुद्ध रूप ग्रन्थ बना रक्खे हैं। वेदों को तुम परमेश्वरकृत मानते हो वा मनुष्यकृत?


[प्रश्नकर्त्ता―] परमेश्वरकृत।


[उत्तर―] जब परमेश्वरकृत मानते हो तो आश्वलायनादि ऋषि-मुनियों के नाम से प्रसिद्ध ग्रन्थों को वेद क्यों मानते हो? जैसे डाली और पत्तों के देखने से पीपल, बड़ और आम्र आदि वृक्षों की पहचान होती है, वैसे ही ऋषि-मुनियों के किये चारों ब्राह्मण, अंग, उपाङ्ग और उपवेद आदि से वेदार्थ पहचाना जाता है, इसीलिये इन ग्रन्थों को शाखा माना है। जो वेदों से विरुद्ध है उसका प्रमाण और अनुकूल का अप्रमाण नहीं हो सकता। 


जो तुम अदृष्ट शाखाओं में मूर्त्ति आदि के प्रमाण की कल्पना करोगे तो जब कोई ऐसा पक्ष करेगा कि लुप्त शाखाओं में वर्णाश्रम व्यवस्था उलटी अर्थात् अन्त्यज और शूद्र का नाम ब्राह्मणादि और ब्राह्मणादि का नाम शूद्र, अन्त्यजादि; अगमनीया गमनीया; अकर्त्तव्य कर्त्तव्य; मिथ्याभाषणादि धर्म, सत्यभाषणादि अधर्म आदि लिखा होगा, तो तुम उसको वही उत्तर दोगे जो कि हमने दिया। अर्थात् वेद और प्रसिद्ध शाखाओं में जैसा ब्राह्मणादि का नाम ब्राह्मणादि और शूद्रादि का नाम शूद्रादि लिखा है, वैसा ही अदृष्ट शाखाओं में भी मानना चाहिये, नहीं तो वर्णाश्रम व्यवस्था आदि सब अन्यथा हो जायेंगे। 


भला, जैमिनि, व्यास और पतञ्जलि के समय पर्यन्त तो सब शाखायें विद्यमान थी वा नहीं? यदि थी तो तुम कभी निषेध न कर सकोगे, और जो कहो कि नहीं थी तो फिर शाखाओं के होने का क्या प्रमाण है? देखो, जैमिनि ने 'मीमांसा' में सब 'कर्मकाण्ड', पतञ्जलि मुनि ने 'योगशास्त्र' में सब 'उपासनाकाण्ड' और व्यास मुनि ने 'शारीरक-सूत्रों' में सब 'ज्ञानकाण्ड' वेदानुकूल लिखा है। उनमें पाषाणादि-मूर्त्तिपूजा वा प्रयागादि तीर्थों का नाम तक भी नहीं लिखा। लिखें कहाँ से? कहीं वेदों में होता तो लिखे विना कभी नहीं छोड़ते। इसलिये लुप्त शाखाओं में भी इन मूर्त्तिपूजादि का प्रमाण नहीं था। 


ये सब शाखायें वेद नहीं है, क्योंकि इनमें ईश्वरकृत वेदों के प्रतीक धरके व्याख्या और संसारी जनों के इतिहासादि लिखे हैं, ये वेद में कभी नहीं हो सकते। वेदों में तो केवल मनुष्यों को विद्या का उपदेश किया है। किसी मनुष्य का नाममात्र भी नहीं। इसलिये मूर्त्तिपूजा का सर्वथा खण्डन है।


देखो, मूर्तिपूजा से श्री रामचन्द्र, श्री कृष्ण, नारायण और शिव आदि की बड़ी निन्दा और उपहास होता है। सब कोई जानते हैं कि वे बड़े महाराजाधिराज और उनकी स्त्री सीता, रुक्मिणी, लक्ष्मी, पार्वती आदि महाराणियां थीं, परन्तु जब उनकी मूर्त्तियाँ मन्दिर आदि में रखके पुजारी लोग उनके नाम से भीख माँगते हैं अर्थात् उनको भिखारी बनाते हैं कि "आओ महाराज! राजाजी! सेठ-साहूकारो! दर्शन कीजिये, बैठिये, चरणामृत लीजिये, कुछ भेंट चढाइये। महाराज! सीता-राम, रुक्मिणी-कृष्ण वा राधा-कृष्ण, लक्ष्मी-नारायण और पार्वती-महादेव जी को तीन दिन से 'बालभोग, वा 'राजभोग' अर्थात् जलपान वा खानपान भी नहीं मिला है। आज इनके पास कुछ भी नहीं है। सीता आदि को नथुनी आदि, राणी जी वा सेठानी जी! बनवा दीजिये। अन्न आदि भेजो तो राम, कृष्णादि को भोग लगावें। वस्त्र सब फट गये हैं। मन्दिर के कोने सब गिर पड़े हैं। ऊपर से चूता है, और दुष्ट चोर, जो कुछ था, उठा ले गये। कुछ ऊंदरों ने काट-कूट डाले। देखिये! एक दिन ऊँदरों ने ऐसा अनर्थ किया कि इनकी आँख भी निकाल के भाग गये। अब हम चाँदी की आँख न बनवा सके, इसलिये कौड़ी की लगा दी है।" 


रामलीला और रासमण्डल भी करवाते हैं। सीता-राम, राधा-कृष्ण नाच रहे हैं, राजा और महन्त आदि उनके सेवक आनन्द में बैठे हैं! मन्दिर में सीता, रामादि खड़े और पुजारी वा महन्त जी आसन अथवा गद्दी-तकिया लगा बैठते हैं। महा-गर्मी में भी ताला लगा भीतर बन्द कर देते हैं और आप सुन्दर वायु में पलङ्ग बिछा सोते हैं। बहुत-से पुजारी अपने नारायण को डब्बी में बन्द कर ऊपर से कपड़े आदि बाँध गले में लटका लेते हैं, जैसे कि वानरी अपने बच्चे को गले में लटका लेती है, वैसे पुजारियों के गले में भी लटकते हैं। जब कोई मूर्त्ति को तोड़ता है तब 'हाय-हाय' कर छाती पीट बकते हैं कि सीता-राम जी, राधा-कृष्ण जी और पार्वती-शिव जी को दुष्टों ने तोड़ डाला! अब दूसरी मूर्त्ति मँगवाकर जो कि अच्छे शिल्पी ने संगमरमर की बनाई हो, स्थापित कर पूजनी चाहिये, नारायण को घी के विना भोग नहीं लगता, बहुत नहीं तो थोडा़-सा अवश्य भेज देना, इत्यादि बातें इन पर ठहराते हैं। और रासमण्डल वा रामलीला के अन्त में राधा-कृष्ण वा सीता-राम से भीख मंगवाते हैं; जहाँ मेला-ठेला होता है, वहाँ [किसी] छोकरे पर मुकुट धर कन्हैया बना, मार्ग में बैठाकर भीख मंगवाते हैं; इत्यादि बातों को आप लोग विचार लीजिये कि कितने बड़े शोक की बातें हैं! भला, कहो तो, सीता-राम-आदि ऐसे दरिद्र और भिक्षुक थे? यह उनका उपहास और निन्दा नहीं तो क्या है? इससे अपने माननीय पुरुषों की बड़ी निन्दा होती है। 


भला, जिस समय ये विद्यमान थे, उस समय सीता, रुक्मिणी, लक्ष्मी, पार्वती को सड़क पर वा किसी मकान में खड़ी कर पुजारी कहते कि 'आओ इनका दर्शन करो और कुछ भेंट-पूजा धरो' तो सीता-राम आदि इन मूर्खों के कहने से ऐसा काम कभी न करते और न करने देते। जो कोई ऐसा उपहास उनका करता, तो उसको विना दण्ड दिये कभी न छोड़ते? हाँ, जब उनसे दण्ड न पाया, तो पुजारियों को इनके कर्मों ने मूर्त्तिविरोधियों से बहुत-सी 'प्रसादी' दिला दी और अब भी मिलती है और जब तक इस कर्म को न छोड़ेंगे तब तक मिलेगी भी। इसमें क्या संदेह है कि जो आर्यावर्त की प्रतिदिन महाहानि, पाषाणादि-मूर्त्तिपूजकों का पराजय इन्हीं कर्मों से होता है; क्योंकि पाप का फल दुःख है। इन्हीं पाषाणादि-मूर्त्तियों के विश्वास से बहुत-सी हानि हो गई, जो न छोड़ेंगे तो प्रतिदिन अधिक-अधिक होती जायगी।


इनमें से वाममार्गी बड़े-भारी अपराधी हैं। जब वे चेला करते हैं तब साधारण को―


दं दुर्गायै नमः। भं भैरवाय नमः। ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥


इत्यादि मन्त्रों का उपदेश कर देते हैं और बंगाले में विशेष करके एकाक्षरी मन्त्रोपदेश करते हैं, 


जैसा―"ह्रीं श्री, क्लीं" इत्यादि। 


[ऊह्य-श्रीकण्ठशिवपण्डितरचित शावरतन्त्र बं० प्रकी० प्र० ४४]


और धनाढ्यों का पूर्णाभिषेक करते हैं। ऐसे ही दश महाविद्याओं के मन्त्र [हैं]―


ह्रां ह्रीं ह्रूं वगलामुख्यै फट् स्वाहा॥


[ऊह्य―शावरतन्त्र ४१]


कहीं-कहीं―ह्रूं फट् स्वाहा॥


[ऊह्य―कामरत्न तन्त्र, बीजमन्त्र ४] 


और मारण, मोहन, उच्चाटन, विद्वेषण, वशीकरण, [शान्ति] आदि प्रयोग करते हैं। सो मन्त्र से तो कुछ भी नहीं होता किन्तु क्रिया से सब कुछ करते हैं। जब किसी को मारने का प्रयोग करते हैं तब इधर करानेवाले से धन लेके आटे वा मिट्टी का पुतला, जिसको मारना चाहते हैं, उसका बनाते हैं। उसकी छाती, नाभि, कण्ठ में छुरे प्रवेश कर देते हैं। आँख, हाथ, पग में कीलें ठोकते हैं। उसके ऊपर भैरव वा दुर्गा की मूर्त्ति बना, हाथ में त्रिशूल दे, उसके हृदय पर लगाते हैं। एक वेदी बनाकर मांस आदि का होम करने लगते हैं और उधर दूत आदि भेजके उसको विष आदि से मारने का उपाय करते हैं। जो अपने पुरश्चरण के बीच में उसको मार डाला, तो अपने को 'भैरव-देवी की सिद्धि'-वाले बतलाते हैं। 'भैरवो भूतनाथश्च' इत्यादि का पाठ करते हैं―


मारय-मारय, उच्चाटय-उच्चाटय, विद्वेषय-विद्वेषय, छिन्धि-छिन्धि, भिन्धि-भिन्धि, वशीकुरु-वशीकुरु, खादय-खादय, भक्षय-भक्षय, त्रोटय-त्रोटय, नाशय-नाशय, मम शत्रून् वशीकुरु, मम शत्रून् वशीकुरु, ह्रूंं फट् स्वाहा॥ 


[ऊह्य-कामरत्नतन्त्र, उच्चाटन प्रकरण, मं० ५-७]


इत्यादि मन्त्र जपते, मद्य-भांग खूब पीते, मांसादि खाते, भृकुटी के बीच में सिन्दूर रेखा देते, कभी-कभी 'काली' आदि के लिये किसी आदमी को पकड़, मार, होमकर, कुछ-कुछ उसका मांस भी खाते हैं। जो कोई भैरवीचक्र में जावे, मद्य-मांस न पीवे, न खावे तो उसको मार होम कर देते हैं। उनमें से जो 'अघोरी' होता है, वह मृतमनुष्य का भी मांस खाता है, 'अजरी-बजरी' करनेवाले विष्ठा-मूत्र भी खाते-पीते हैं। 


एक 'चोली मार्गी' और [दूसरे] 'बीजमार्गी' भी होते हैं। चोलीमार्गवाले एक गुप्त स्थान वा भूमि में एक स्थान बनाते हैं। वहाँ सबकी स्त्रियाँ, पुरुष, लड़का, लड़की, बहिन, माता, पुत्रवधू आदि सब इकट्ठे हो सब लोग मिल-मिलाकर मांस खाते, मद्य पीते, एक स्त्री को नङ्गी कर, उसकी गुप्त इन्द्रिय की पूजा सब पुरुष करते, उसका नाम 'दुर्गादेवी' धरते हैं। एक पुरुष को नङ्गा कर उसकी उपस्थ-इन्द्रिय की पूजा सब स्त्रियाँ करती हैं। जब मद्य पी-पी के उन्मत्त हो जाते हैं तब सब स्त्रियों की छाती का वस्त्र जिसको 'चोली' कहते हैं, सबके वस्त्र मिलाकर, एक बड़ी मिट्टी-की नाँद में रखके, एक-एक पुरुष उसमें हाथ डालके [एक वस्त्र निकालता है] जिसके हाथ में जिसका वस्त्र आवे, वह माता, बहिन, कन्या और पुत्रवधू क्यों न हो, उस समय के लिये वह उसकी स्त्री हो जाती है! फिर आपस में कुकर्म करते, और बहुत नशा चढ़ने से जूते आदि से लड़ते हैं। जब प्रात:काल कुछ अन्धेरे अपने-अपने घर को चले जाते हैं तब माता, माता; कन्या, कन्या; बहिन, बहिन; और पुत्रवधू, पुत्रवधू हो जाती है। और 'बीजमार्गी' स्त्री-पुरुष के समागम पर, जल में वीर्य डाल, मिलाकर पीते हैं। ये पामर ऐसे कर्मों को मुक्ति के साधन मानते हैं। ये विद्या, विचार, सज्जनतादि रहित होते हैं।


प्रश्न―शैव मत-वाले तो अच्छे होते हैं?


उत्तर―अच्छे कहाँ से होते हैं? 'जैसा प्रेतनाथ वैसा भूतनाथ'। जैसे वाममार्गी मन्त्रोपदेशादि से उनका धन हरते हैं, वैसे शैव भी 'ओं नमः शिवाय' [लिंगपुराण १।८५] इत्यादि पञ्चाक्षरादि मन्त्रों का उपदेश करते, रुद्राक्ष और भस्म धारण करते, मिट्टी के और पाषाणादि के लिंग बनाकर पूजते, 'हर-हर', 'बं-बं' और बकरे के शब्द के समान 'बड़-बड़-बड़' मुख से शब्द करते हैं। उसका कारण यह कहते हैं कि 'ताली बजाने' और 'बं-बं' शब्द बोलने से पार्वती प्रसन्न और महादेव अप्रसन्न होता है; क्योंकि जब भस्मासुर के आगे से महादेव भागे थे तब 'बं-बं' [शब्द बोले थे] और 'ठट्ठे की तालियाँ' बजी थीं। और 'गाल बजाने' से पार्वती अप्रसन्न और महादेव प्रसन्न होते हैं; क्योंकि पार्वती के पिता दक्ष प्रजापति का शिर काट, आगी में डाल, उसके धड़ पर बकरे का शिर लगा दिया था। उसी की नकल में 'गाल बजाना' बकरे के शब्द के तुल्य मानते हैं। शिवरात्रि-प्रदोष का व्रत करते हैं, इत्यादि से मुक्ति मानते हैं। इसीलिये जैसे वाममार्गी भ्रान्त हैं, वैसे शैव भी। इनमें विशेषकर कनफटे, नाथ, गिरि, पुरी, वन, आरण्य, पर्वत और सागर तथा गृहस्थ भी शैव होते हैं। कोई-कोई 'दोनों घोड़ों पर चढ़ते हैं' अर्थात् वाम और शैव दोनों मतों को मानते हैं और कितने ही वैष्णव भी रहते हैं। उनका―


अन्तःशाक्ता बहिश्शैवाः सभामध्ये च वैष्णवाः। नानारूपधराः कौला विचरन्तीह महीतले॥


 यह तन्त्र का श्लोक है। 

[ऊह्य―कौलोपनिषत् तथा कुलार्णवतन्त्र एकादश उल्लास ११।३०]


भीतर शाक्त अर्थात् वाममार्गी, बाहर शैव अर्थात् रुद्राक्ष [और] भस्म धारण करते हैं, सभा में 'वैष्णव' कहते हैं कि हम विष्णु के उपासक हैं। ऐसे नाना प्रकार के रूप धारण करके वाममार्गी लोग पृथिवी पर विचर रहे हैं।


प्रश्न―वैष्णव तो अच्छे हैं?


उत्तर―क्या धूड़ अच्छे हैं! जैसे वे, वैसे ये हैं। देख लो वैष्णवों की लीला! अपने को विष्णु का दास मानते हैं। उनमें से 'श्रीवैष्णव' जो कि 'चक्राङ्कित' होते हैं, वे अपने को सर्वोपरि मानते हैं, जो कुछ भी नहीं हैं।


प्रश्न―क्यों कुछ भी नहीं? सब कुछ हैं। देखो, ललाट में नारायण के चरणारविन्द के सदृश तिलक और बीच में पीली रेखा 'श्री' होती है, इसी वास्ते हम 'श्रीवैष्णव' कहाते हैं। एक नारायण को छोड़ दूसरे किसी को नहीं मानते। महादेव के लिंग का दर्शन भी नहीं करते, क्योंकि हमारे ललाट में 'श्री' विराजमान है, वह लज्जित होती है। 'आलमन्दार' आदि स्तोत्रों के पाठ करते हैं। नारायण की मन्त्रपूर्वक पूजा करते हैं, मांस नहीं खाते, मद्य नहीं पीते, फिर अच्छे क्यों नहीं?


उत्तर―इस तिलक को 'हरिपदाकृति', इस पीली रेखा को 'श्री' मानना व्यर्थ है; क्योंकि यह तो तुम्हारे हाथ की कारीगरी और ललाट का चित्र है, जैसे हाथी का ललाट चित्र-विचित्र करते हैं। तुम्हारे ललाट में विष्णु के पद का चिह्न कहाँ से आया? क्या कोई 'वैकुण्ठ' में जाकर विष्णु के पग का चिह्न ललाट में करा आया है?


विवेकी―और 'श्री' जड़ है वा चेतन?


वैष्णव―चेतन है। 


विवेकी―तो यह रेखा जड़ होने से 'श्री' नहीं है। हम पूछते हैं कि 'श्री' बनाई हुई है वा विना बनाई? जो विना बनाई है तो यह 'श्री' नहीं, क्योंकि इसको तो तुम नित्य अपने हाथ से बनाते हो, फिर 'श्री' नहीं हो सकती। जो तुम्हारे ललाट में 'श्री' हो तो कितने ही वैष्णवों का मुख बुरा अर्थात् शोभारहित क्यों दीखता है? ललाट में 'श्री' और घर-घर भीख माँगते और 'सदावर्त' लेकर पेट भरते क्यों फिरते हो? यह बात सिरड़ी और निर्लज्जों की है कि कपाल में 'श्री' और महादरिद्रों के काम करते हैं। 


इनमें एक परिकाल नामक वैष्णव भक्त था। वह चोरी-डाका मार, छल-कपट कर, पराया धन हर, [उस धन को] वैष्णवों के पास धर प्रसन्न होता था। एक समय उसको चोरी में कोई पदार्थ नहीं मिला कि जिसको लूटे। व्याकुल होकर फिरता था। नारायण ने समझा कि हमारा भक्त दुःख पाता है। सेठ जी का स्वरूप धर, अंगूठी आदि आभूषण पहन, रथ में बैठ, सामने आये। तब तो परिकाल रथ के पास गया। सेठ से कहा―“सब वस्तु शीघ्र उतार दो, नहीं तो मार डालूंगा।" उतारते-उतारते अंगूठी उतारने में देर लगी। परिकाल ने नारायण की अंगुली काट अंगूठी ले ली। नारायण ने बड़े प्रसन्न हो चतुर्भुज शरीर बना दर्शन दिया। कहा कि "तू मेरा बड़ा प्रिय भक्त है, क्योंकि सब धन मार, लूट-चोरी कर वैष्णवों की सेवा करता है, इसलिये तू धन्य है।" फिर उसने जाकर वैष्णवों के पास सब गहने धर दिये।


एक समय परिकाल को कोई साहूकार नौकर कर जहाज में बैठाके देशान्तर में ले गया। वहाँ से जहाज में सुपारी भरी। परिकाल ने एक सुपारी तोड़ आधा टुकड़ा कर बनिये से कहा―"यह मेरी आधी सुपारी जहाज में धर दो और लिख दो कि जहाज में आधी सुपारी परिकाल की है।" बनिये ने कहा कि "चाहे तुम हजार सुपारी ले लेना।" परिकाल ने कहा―"नहीं, हम अधर्मी नहीं हैं, जो हम झूठ-मूठ लें। हमको तो आधी चाहिये।" बनिया भोला था, उसने लिख दिया। जब अपने देश में बन्दर पर जहाज आया, सुपारी उतारने की तैयारी हुई, तब परिकाल ने कहा―"हमारी आधी सुपारी दे दो।" बनिया वही आधी सुपारी देने लगा। तब परिकाल झगड़ने लगा― "मेरी तो जहाज में आधी सुपारी है, आधी बांट लूंगा।" राजपुरुषों तक झगड़ा गया। परिकाल ने बनिये का लेख दिखलाया कि इसने आधी सुपारी देनी लिखी है। बनिया बहुत-सा कहता रहा परन्तु उसने न माना। आधी सुपारी लेकर वैष्णवों के अर्पण करदी। तब तो वैष्णव बड़े प्रसन्न हुए। अब तक उस डाकू-चोर परिकाल की मूर्त्ति मन्दिरों में रखते हैं। यह कथा 'भक्तमाल' में लिखी है। बुद्धिमान् देख लें कि वैष्णव, उनके सेवक और नारायण, तीनों चोरमण्डली है वा नहीं? 


यद्यपि मतमतान्तरों में कोई थोड़ा अच्छा भी होता है, तथापि उस मत में रहकर सर्वथा अच्छा नहीं हो सकता।


अब जैसी वैष्णवों में फूट-टूट [है, और] भिन्न-भिन्न तिलक-कण्ठी धारण करते हैं, [वह सुनो―] 'रामानन्दी' बगल में गोपीचन्दन, बीच में लाल [रेखा]; 'नीमावत' दोनों [ओर] पतली रेखा, बीच में काला बिन्दु; 'माध्व' काली रेखा और 'गौड़ बङ्गाली' कटारी के तुल्य और 'रामप्रसादवाले' दोनों चांदला रेखा के बीच में एक सफेद गोल टीका [लगाते हैं] इत्यादि। इनका कथन [भी] विलक्षण-विलक्षण है―'रामानन्दी' लाल रेखा को लक्ष्मी का चिह्न नारायण के हृदय में है, और श्री कृष्णचन्द्र जी के हृदय में राधा जी विराजमान  हैं: इत्यादि कथन करते हैं।


एक कथा 'भक्तमाल' में लिखी है। एक मनुष्य वृक्ष के नीचे सोता था। सोता-सोता मर गया। ऊपर से काक ने विष्ठा कर दी। वह ललाट पर तिलकाकार हो गई थी। वहां यम के दूत उसको लेने आये। इतने में विष्णु के दूत भी पहुँच गये। दोनों विवाद करते थे। [यम के दूतों ने कहा] कि 'यह हमारे स्वामी की आज्ञा है, हम [इसको] यमलोक में ले जायेंगे।' विष्णु के दूतों ने कहा कि “हमारे स्वामी की आज्ञा है वैकुण्ठ में ले जाने की। देखो! इसके ललाट में वैष्णवी तिलक है, तुम कैसे ले जाओगे?" तब तो यम के दूत चुप होकर चले गये। विष्णु के दूत सुख से उसको वैकुण्ठ में ले गये। नारायण ने उसको वैकुण्ठ में रक्खा। 


देखो, जब अकस्मात् तिलक बन जाने का ऐसा माहात्म्य है, तो जो अपनी प्रीति से हाथ से तिलक करते हैं वे नरक से छूट वैकुण्ठ में जावें तो इसमें क्या आश्चर्य है!! हम पूछते हैं कि जब छोटे-से तिलक के करने से वैकुण्ठ में जावें तो सब मुख के ऊपर लेपन करने वा काला-मुख करने वा शरीर पर लेपन करने से वैकुण्ठ से भी आगे सिधार जाते हैं, वा नहीं? इससे ये सब बातें व्यर्थ हैं। 


अब इनमें बहुत से 'खाखी' लकड़े की लंगोटी लगा धूनी तापते, जटा बढ़ाते, सिद्ध का वेश कर लेते हैं। बगुले के समान ध्यानावस्थित होते हैं। गांजा, भांग, चरस के दम लगाते; लाल-सुर्ख नेत्र कर रखते; सबसे चुटकी-चुटकी अन्न, पिसान, कौड़ी, पैसे मांगते; गृहस्थों के लड़कों को बहकाकर चेले बना लेते हैं। बहुत करके मजदूर लोग इनमें होते हैं। कोई विद्या को पढ़ता हो तो उसको पढ़ने नहीं देते, कहते हैं कि―


पठितव्यं तदपि मर्त्तव्यं दन्तकटाकटेति किं कर्त्तव्यम्?


सन्तों को विद्या पढ़ने से क्या काम? क्योंकि विद्या पढ़नेवाले भी मर जाते हैं, फिर दन्त-कटाकट क्यों करना? साधुओं को 'चार धाम' फिर-आना, सन्तों की सेवा करनी, राम जी का भजन करना, [बस, ये ही काम करने चाहियें]। 


जो किसी ने मूर्खता=अविद्या की मूर्त्ति न देखी हो तो 'खाखी जी' का दर्शन कर आवे। उनके पास जो कोई जाता है, उनको बच्चा-बच्ची कहते हैं, चाहे वे खाखी जी के बाप-मा के समान हों। जैसे खाखी जी हैं, वैसे ही रूँखड़-सूँखड़, गोदड़िये और जमात-वाले, सुथरेशाही और अकाली, कानफटे, जोगी,

औघड़ आदि सब एक-से हैं। 


एक खाखी का चेला 'स्त्रीगनेसाजन्नमें' घोखता-घोखता कुए पर जल भरने को गया। वहाँ पण्डित बैठा था। वह उसको 'स्त्रीगनेसाजन्नमें' घोखते देखकर बोला―"अरे साधु! अशुद्ध घोखता है, 'श्री गणेशाय नमः' ऐसा घोख।" 


उसने झट लोटा भर, गुरु जी के पास जा कहा कि "एक बम्मन मेरे घोखने को असुद्ध कहत है।" ऐसा सुनकर झट खाखी उठा, कुए पर गया, पण्डित से कहा―"तूं मेरे चेले को बहकाता है? तूं क्या पढ़ा है? देख तूं एक प्रकार का पाठ जानता है, हम तीन प्रकार का जानते हैं— 'स्त्रीगनेसाजन्नमें' 'स्त्रीगनेसायन्नमें' 'स्त्रीगनेसाय नमें।"


पण्डित―"सुनो साधु जी! विद्या की बात बहुत कठिन है, विना पढ़े नहीं आती।"


खाखी―"चल बे, सब विद्वान् को हमने रगड़ मारे, जो भांग में घोट एक दम सब उड़ा दिये। सन्तों का घर बड़ा है, तू बाबूड़ा क्या जाने!" 


पण्डित―"देखो, जो तुमने विद्या पढ़ी होती तो ऐसे अपशब्द क्यों बोलते? सब प्रकार का तुमको ज्ञान होता।"


खाखी―“अबे! तू हमारा 'गुरू' बनता है? तेरा उपदेश हम नहीं सुनते।"


पण्डित―"सुनो कहाँ से? बुद्धि ही नहीं है। उपदेश सुनने-समझने के लिये विद्या चाहिये।"


खाखी―"जो सब वेद-शास्त्र पढ़े, सन्तों को न माने, तो जानो कि वह कुछ भी नहीं पढ़ा।"


पण्डित―"हाँ, हम सन्तों की सेवा करते हैं परन्तु तुम्हारे-से हुड़दंगियों की नहीं करते। क्योंकि 'सन्त' सज्जन, विद्वान्, धार्मिक, परोपकारी पुरुषों को कहते हैं।"


खाखी―“देख! हम रात-दिन नंगे रहते, धूनी तापते, गांजा-चरस के सैकड़ों दम लगाते, तीन-तीन लोटे भांग पीते, गांजे-भांग-धतूरा की पत्ती की भाजी बना खाते, संखिया और अफीम भी चट निगल जाते, नशे में ग़र्क रात-दिन बे-ग़म रहते, दुनियाँ को कुछ नहीं समझते, भीख मांगकर टिक्कड़ बना खाते, रात-भर ऐसी खांसी उठती, जो पास में सोवे उसको भी निद्रा कभी न आवे, इत्यादि सिद्धियाँ और 'साधूपन' हम में है, फिर तू हमारी निन्दा क्यों करता? चेत बाबूड़े! जो हमको दिक़ करेगा, हम तुमको 'भसम' कर डालेगा।" 


पण्डित―"ये सब लक्षण असाधु, मूर्ख और गवर्गण्डों के हैं, साधुओं के नहीं। सुनो! 'साध्नोति पराणि धर्मकार्याणि स साधुः'=जो धर्मयुक्त उत्तम काम करे, सदा परोपकार में प्रवृत्त हो, कोई दुर्गुण जिसमें न हो, विद्वान्  [हो], सत्योपदेश से सबका उपकार करे, उसको ‘साधु' कहते हैं।"


खाखी―"चल बे! तू 'साधू' के कर्म क्या जाने? सन्तों का घर बड़ा है। किसी सन्त से अटकना नहीं। नहीं तो देख! एक 'चीमटा' उठाकर मारेगा, कपाल फुड़वा लेगा।"


पण्डित―"अच्छा खाखी! जाओ अपने आसन पर, हमसे बहुत गुस्से मत हो। जानते हो राज्य कैसा है? किसी को मारोगे तो पकड़े जाओगे, कारावास भोगोगे, बेंत खाओगे, वा कोई तुमको भी मार बैठेगा, क्या करोगे? यह साधु का लक्षण नहीं।"


खाखी―"चल बे चेले! किस राक्षस का मुख दिखलाया।" 


पण्डित―"तुमने कभी किसी महात्मा का सङ्ग नहीं किया है, नहीं तो ऐसे जड़-मूर्ख न रहते।"


खाखी—“हम आप ही महात्मा हैं। हमको किसी दूसरे की ग़रज़ नहीं।"


पण्डित―"जिनके भाग्य नष्ट होते हैं, उनकी तुम्हारी-सी बुद्धि और अभिमान होता है।" 


खाखी चला गया आसन पर, और पण्डित घर को।


जब सन्ध्या-आर्ती (आरती) हो गई तब उस खाखी को बुड्ढा समझ बहुत-से खाखी ‘डण्डोत-डण्डोत' कहते साष्टाङ्ग करके बैठे। उस खाखी ने पूछा―“अबे रामदासिये! तू क्या पढ़ा है?"


रामदास―"महाराज! मैंने 'बेस्नुसहसरनाम' पढ़ा है।" 


खाखी―“अबे गोविन्ददासिये! तू क्या पढ़ा है?" 


गोविन्ददास―"मैं 'रामसतबराज' पढ़ा हूँ, अमुक खाखी जी के पास से।" 


तब रामदास बोला कि "महाराज! आप क्या पढ़े हैं?" 


खाखी―"हम 'गीता' पढ़े हैं?"


रामदास―"किसके पास?"


खाखी―"चल बे छोकरे! हम किसी को 'गुरू' नहीं करते। देख, हम 'परागराज' में रहते थे। हमको अक्खर नहीं आता था। जब किसी लम्बी धोतीवाले पण्डित को देखता था तब 'गीता के गोटके' में पूछता था कि इस कलंगीवाले अक्खर का क्या नाम है? ऐसे पूछता-पूछता 'अठारा' अध्याय 'गीता' रगड़ मारी। 'गुरू' एक भी नहीं किया।"


भला, ऐसे विद्या के शत्रुओं को अविद्या घर करके ठहरे नहीं, तो कहाँ जाय? ये लोग नशा, प्रमाद, लड़ना, खाना, सोना, झांझ पीटना, घण्टा-घड़ियाल-शंख बजाना, धूनी-चिता-रखनी, नहाना-धोना, सब दिशाओं में व्यर्थ घूमते-फिरने के अन्य, कुछ भी अच्छा काम नहीं करते। चाहे कोई पत्थर को भी पिघला लेवे, परन्तु इन खाखियों के आत्माओं को बोध कराना कठिन है; क्योंकि बहुधा वे शूद्रवर्ण मजदूर, किसान, कहार आदि अपनी मजदूरी छोड़, खाख रमा के वैरागी, खाखी आदि हो जाते हैं, उनको विद्या वा सत्सङ्ग आदि का माहात्म्य नहीं जान पड़ सकता। इनमें से नाथों का मन्त्र 'नमः शिवाय', [लिंगपुराण १।८५] खाखियों का 'नृसिंहाय नमः', रामावतों का 'श्रीरामचन्द्राय नमः' अथवा 'सीतारामाभ्यां नमः', कृष्णोपासकों का 'श्रीराधा-कृष्णाभ्यां नमः' 'नमो भगवते वासुदेवाय' [नारदपु० १।१६।३८-३९] और बंगालियों का 'गोविन्दाय नमः' [है]। इन मन्त्रों को कान में पढ़ने-मात्र से शिष्य कर लेते हैं और ऐसी-ऐसी शिक्षा करते हैं, "बच्चे! तूंबे का मन्त्र पढ़ ले"―


जल पवितर सथल पवितर और पवितर कुआ। 

शिव कहे सुन पार्वती तूंबा पवितर हुआ॥


[ऊह्य-रामस्नेहधर्मप्रकाश ३९० तूंबामन्त्र, रामपटल पृ० ३]

 

भला, ऐसे की योग्यता साधु वा विद्वान् होने अथवा जगत् के उपकार करने की कभी हो सकती है? खाखी रात-दिन लक्कड़, छाने (जंगली कंडे) जलाया करते हैं। एक महीने में कई रुपयों की लकड़ी फूँक देते हैं। जो एक महीने की लकड़ी के मूल्य से कम्बलादि वस्त्र लेलें तो शतांश धन से आनन्द में रहैं। [किन्तु] उनको इतनी बुद्धि कहां से आवे? और अपना नाम उसी धूनी में तपने से ही तपस्वी धर रक्खा है। जो इस प्रकार तपस्वी हो सकें तो जङ्गली मनुष्य इनसे भी अधिक तपस्वी हो जावें। जो जटा बढ़ाने, राख लगाने, तिलक करने से तपस्वी हो जाय तो [इनको] सब कोई कर सके। ये ऊपर के त्यागस्वरूप और भीतर के महासंग्रही होते हैं।


प्रश्न―कबीरपन्थी तो अच्छे हैं?


उत्तर―नहीं।


प्रश्न―क्यों अच्छे नहीं? पाषाणादि मूर्त्तिपूजा का खण्डन करते हैं। कबीर साहब फूलों से उत्पन्न हुए और अन्त में भी फूल हो गये। ब्रह्मा, विष्णु, महादेव का जन्म जब नहीं था, तब भी कबीर साहब थे। बड़े सिद्ध थे। जिस बात को वेद-पुराण भी नहीं जान सकते, उसको कबीर जानते थे। सच्चा रास्ता है, सो कबीर ने ही दिखलाया है। इनके मन्त्र 'सत्यनाम कबीर' आदि हैं।


उत्तर―पाषाणादि को छोड़ पलंग, गद्दी-तकिये, खड़ाऊँ, ज्योति अर्थात् दीप आदि का पूजना पाषाणमूर्त्ति [पूजने] से न्यून नहीं। क्या कबीर साहब भुनगा था वा कलियाँ था, जो फूलों से उत्पन्न हुआ और अन्त में फूल हो गया?


यहाँ जो यह बात सुनी जाती है, वही सच्ची होगी कि कोई जुलाहा काशी में रहता था। उसका लड़का-बाला नहीं था। एक समय थोडी-सी रात्रि थी। एक गली में चला जाता था तो देखा सड़क के किनारे में एक टोकरी में फूलों के बीच में उसी रात का जन्मा बालक था। वह उसको उठा ले गया। अपनी स्त्री को दिया, उसने पालन किया। जब वह बड़ा हुआ तब जुलाहे का काम करता था। किसी पण्डित के पास संस्कृत पढ़ने के लिये गया। उसने उसका अपमान किया। कहा कि―"हम जुलाहे को नहीं पढ़ाते।" इसी प्रकार कई पण्डितों के पास फिरा परन्तु किसी ने न पढ़ाया। तब ऊटपटांग भाषा बनाकर जुलाहे आदि नीच लोगों [=नीची कही जाने वाली जातियों के लोगों] को समझाने लगा। तंबूरा लेकर गाता था, भजन बनाता था। विशेषकर पण्डितों, शास्त्रों, वेदों की निन्दा किया करता था। कुछ मूर्ख [=अशिक्षित] लोग उसके जाल में फस गये। जब मर गया, तब लोगों ने उसको सिद्ध बना लिया। 


जो-जो उसने जीते-जी बनाया था, उसको उसके चेले पढ़ते रहे। कान को मूंदके जो शब्द सुना जाता है उसको 'अनहत' शब्द सिद्धान्त ठहराया। मन की वृत्ति को 'सुरति' कहते हैं। उसको उस शब्द सुनने में लगाना, उसी को सन्त और परमेश्वर का ध्यान बतलाते हैं। वहाँ काल नहीं पहुँचता। बर्छी के तुल्य तिलक और चन्दनादि लकड़े की कण्ठी बाँधते हैं। भला, विचार कर देखो कि इसमें आत्मा की उन्नति और ज्ञान क्या बढ़ सकता है? यह केवल लड़कों के खेल के तुल्य लीला है।


प्रश्न―पंजाब देश में 'नानक जी' ने एक मार्ग चलाया है। क्योंकि वे भी मूर्त्ति का खण्डन करते थे, मुसलमान होने से बचाये, देखो, उन्होंने कुछ पाखण्ड नहीं चलाया। वे साधु भी नहीं हुए, किन्तु गृहस्थ बने रहे; देखो, उन्होंने यह मन्त्र उपदेश किया है, इसी से विदित होता है कि उनका आशय अच्छा था―


ओं सत्यनाम कर्त्ता पुरुष निर्भो निर्वैर अकालमूर्त अजोनि सहभं गुरु प्रसाद जप, आदि सच, जुगादि सच, है भी सच, नानक होसी भी सच॥


[जपजी पौड़ी १]


ओम् जिसका सत्य नाम है, वह कर्त्ता, पुरुष, भय और वैररहित, अकालमूर्त्ति=जो काल में और जोनि में नहीं आता, प्रकाशमान है, उसी का जप गुरु की कृपा से कर। वह परमात्मा आदि में सच था, जुगों के आदि में सच [था], वर्तमान में सच [है] और होगा भी सच।


उत्तर―नानक जी का आशय तो अच्छा था, परन्तु विद्या कुछ भी नहीं थी। हां, भाषा उस देश की, जो कि ग्रामों की है, जानते थे। वेदादि शास्त्र और संस्कृत कुछ भी नहीं जानते थे। जो जानते होते तो 'निर्भय' शब्द को 'निर्भो' न लिखते और इसका दृष्टान्त उनका बनाया 'संस्कृती स्तोत्र' है। चाहते थे कि मैं संस्कृत में भी पग अड़ाऊँ, परन्तु विना पढ़े संस्कृत कैसे आ सकता है? हाँ, उन ग्रामीणों के सामने कि जिन्होंने संस्कृत कभी सुना भी नहीं था 'संस्कृती स्तोत्र' बना कर संस्कृत के भी पण्डित बन गये होंगे। भला, यह बात अपने मान, प्रतिष्ठा और अपनी प्रख्याति की इच्छा के विना कभी न करते। उनको अपनी प्रतिष्ठा की इच्छा अवश्य थी, नहीं तो जैसी भाषा जानते थे, कहते रहते और यह भी कह देते कि मैंने संस्कृत नहीं पढ़ा। जब कुछ अभिमान था तो मान-प्रतिष्ठा के लिये कुछ दम्भ भी किया होगा; इसीलिये उनके ग्रन्थ में जहाँ-तहाँ वेदों की निन्दा और स्तुति भी है, क्योंकि जो ऐसा न करते तो उनसे भी कोई वेदों का अर्थ पूछता। जब न आता तब प्रतिष्ठा नष्ट होती। इसलिये पहले ही अपने शिष्यों के सामने कहीं-कहीं वेदों के विरुद्ध बोलते थे और कहीं-कहीं वेदों के लिये अच्छा भी कहा है; क्योंकि जो कहीं अच्छा न कहते तो लोग उनको नास्तिक बनाते। जैसे―


वेद पढ़त ब्रह्मा मरे चारों वेद कहानी। 

सन्त की महिमा वेद न जानी।


[सुखमनी, अष्टपदी ७, पद ८] 


ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर॥


[सुखमनी―सु० अष्ट० ८, पद ६] 


क्या वेद पढ़नेवाले मर गये? और नानक जी आदि अपने को अमर समझते थे? क्या वे नहीं मर गये? वेद तो सब विद्याओं का भण्डार है, परन्तु जो चारों वेदों को 'कहानी' कहे, उसकी सब बातें कहानी हैं। जो मूर्खों [=अशिक्षितों] का नाम सन्त होता है, वे बेचारे वेदों की महिमा कभी नहीं जान सकते। जो नानक जी वेदों का ही मान करते तो उनका सम्प्रदाय न चलता, न वे गुरु बन सकते थे; क्योंकि संस्कृत-विद्या तो पढ़े ही नहीं थे, तो दूसरे को पढ़ाकर शिष्य कैसे बना सकते थे?


यह सच है कि जिस समय नानक जी पंजाब में हुए थे, उस समय पंजाब 'संस्कृत-विद्या' से सर्वथा रहित, मुसलमानों से पीड़ित था। उस समय उन्होंने कुछ लोगों को बचाया। नानक जी के सामने कुछ उनका सम्प्रदाय वा बहुत-से शिष्य नहीं हुये थे; क्योंकि अविद्वानों में यह चाल है कि मरे पीछे उनको सिद्ध बना लेते हैं, पश्चात् बहुत-सा माहात्म्य करके ईश्वर के समान मान लेते हैं।


हां, नानक जी बड़े धनाढ्य, रईस भी नहीं थे, परन्तु उनके चेलों ने 'नानक-चन्द्रोदय' और 'जन्मसाखी' आदि में बड़े सिद्ध और बड़े ऐश्वर्यवाले थे; लिखा है। नानक जी ब्रह्मा आदि से मिले, बड़ी बातचीत की, सबने उनका मान्य किया; नानक जी के विवाह में बहुत से घोड़े, रथ, हाथी, सोने-चाँदी, मोती, रत्नों से सजे हुये [थे] और अमूल्य रत्नों का पारावार न था; लिखा है। भला, ये गपोड़े नहीं तो क्या हैं? इसमें इनके चेलों का दोष है, नानक जी का नहीं।


दूसरा―उनके पीछे उनके लड़के से 'उदासी' चले, और रामदास आदि से 'निर्मले'। कितने ही गद्दीवालों ने भाषा बनाकर ग्रन्थ में रक्खी है; अर्थात् इनके गुरु गोविन्दसिंह जी दशमे हुए। उनके पीछे उस ग्रन्थ में किसी की भाषा नहीं मिलाई गई, किन्तु वहाँ तक के जितने छोटे-छोटे पुस्तक थे, उन सबको इकट्ठा करके जिल्द बँधवा दी। इन लोगों ने भी नानक जी के पीछे बहुत-सी भाषा बनाई। कितनों ने ही नाना प्रकार की पुराणों की मिथ्या कथा के तुल्य [पुस्तक] बना दिये। परन्तु 'ब्रह्मज्ञानी आप परमेश्वर' बनके उस पर कर्म-उपासना छोड़कर इनके शिष्य झुकते आये। इसने बहुत बिगाड़ कर दिया। नहीं [तो], जो नानक जी ने कुछ भक्ति-विशेष ईश्वर की लिखी थी उसे करते आते तो अच्छा था। 


अब उदासी कहते हैं―"हम बड़े", निर्मले कहते हैं―"हम बड़े", अकाली तथा सुथरेशाही कहते हैं कि "सर्वोपरि हम हैं।" 


इनमें गोविन्दसिंह जी शूरवीर हुये। जो मुसलमानों ने उनके पुरुषाओं को बहुत-सा दु:ख दिया था, उनसे बदला लेना चाहते थे, परन्तु इनके पास कुछ सामग्री न थी और उधर मुसलमानों की बादशाही प्रज्वलित हो रही थी। उन्होंने एक पुरश्चरण करवाया। प्रसिद्धि की कि “मुझको देवी ने वर और खड्ग दिया है कि तुम मुसलमानों से लड़ो, तुम्हारा विजय होगा"। बहुत लोग उनके साथी हो गये और उन्होंने, जैसे वाममार्गियों ने 'पञ्च मकार', चक्राङ्कितों ने 'पञ्च संस्कार' चलाये थे, वैसे 'पञ्च ककार' [चलाये]; अर्थात् इनके पञ्च ककार [चलाये] ; अर्थात् इनके पञ्च ककार युद्ध के उपयोगी थे―


एक 'केश' अर्थात् जिसके रखने से लड़ाई में लकड़ी और तलवार से कुछ बचावट हो।


दूसरा ‘कंगण' जो शिर के ऊपर पगड़ी में अकाली लोग रखते हैं; और हाथ में 'कड़ा' जिससे हाथ और शिर बच सकें। 


तीसरा 'काछ' [=कच्छा] अर्थात् जानु के ऊपर एक जांघिया कि जो दौड़ने, कूदने में अच्छा होता है। बहुत करके अखाड़मल्ल और नट भी इसको इसीलिये धारण करते हैं कि जिससे शरीर का मर्मस्थान ढका रहै और अटकाव न हो।


चौथा 'कंघा' कि जिससे केश सुधरते हैं। 


पाँचवाँ काचू कि जिससे शत्रु से भेंट-भड़क्का होने से लड़ाई में काम आवे।


इसीलिये यह रीति गोविन्दसिंह जी ने अपनी बुद्धिमत्ता से उस समय के लिये की थी। अब इस समय में उनका रखना कुछ उपयोगी नहीं है। परन्तु जो युद्ध के प्रयोजन के लिये बातें कर्त्तव्य थीं, उनको अब धर्म के साथ मान लिया है।


मूर्त्तिपूजा तो नहीं करते परन्तु उससे विशेष ‘ग्रन्थ' की पूजा करते हैं। क्या यह मूर्त्तिपूजा नहीं है? किसी जड़ पदार्थ के सामने शिर झुकाना वा उसकी पूजा करना, सब मूर्त्तिपूजा है। जैसे मूर्त्तिवालों ने अपनी दुकान जमाकर जीविका ठाड़ी की है, वैसे इन लोगों ने भी कर ली है। जैसे पुजारी मूर्त्ति का दर्शन कराते, भेट चढ़वाते हैं, वैसे नानकपन्थी लोग ग्रन्थ की पूजा करते-कराते, भेंट भी चढ़वाते हैं, अर्थात् मूर्त्तिपूजावाले जितना वेदों का मान्य करते हैं, उतना भी ये 'ग्रन्थसाहब'-वाले लोग नहीं करते। हां, यह कहा जा सकता है कि इन्होंने वेदों को न सुना, न देखा, क्या करें? जो सुनने और देखने में आते तो बुद्धिमान् लोग जो कि हठी-दुराग्रही नहीं हैं, सब सम्प्रदाय-वाले वेदमत में आ जाते हैं। परन्तु इन सबने भोजन का बखेड़ा बहुत-सा हटा दिया है। जैसे इसको हटाया, वैसे विषयासक्ति और दुरभिमान को भी हटाकर वेदमत की उन्नति करें तो बहुत अच्छी बात है।


प्रश्न―दादूपन्थी का मार्ग तो अच्छा है?


उत्तर―अच्छा तो वेदमार्ग है, जो पकड़ा जाय तो पकड़ो, नहीं तो सदा गोते खाते रहोगे। इनके मत से दादू जी का जन्म गुजरात में हुआ था। पुनः जयपुर के पास 'आमेर' में रहते थे। तेली का काम करते थे। ईश्वर की सृष्टि की विचित्र लीला है कि दादू जी भी पुजाने लग गये। अब वेदादि शास्त्रों की सब बातें छोड़कर 'दादूराम-दादूराम' में ही मुक्ति मानली है। जब सत्योपदेशक नहीं होता तब ऐसे-ऐसे ही बखेड़े चला करते हैं।


थोड़े दिन हुए कि एक 'रामस्नेही' मत शाहपुरा से चला है। वे सब वेदोक्त धर्म छोड़ 'राम-राम' पुकार रहे हैं। उसी में ज्ञान, ध्यान, मुक्ति मानते हैं। परन्तु जब भूख लगती है, तब 'रामनाम' में से रोटी नहीं निकलती; क्योंकि खानपान आदि तो गृहस्थों के घर ही में मिलते हैं। वे भी मूर्त्तिपूजा को धिक्कारते हैं परन्तु आप स्वयं मूर्त्ति बन रहे हैं। स्त्रियों के सङ्ग में बहुत रहते हैं, क्योंकि 'रामजी'-'रामकी' के विना आनन्द ही नहीं मिल सकता। 


अब थोड़ा-सा विशेष 'रामस्नेही' मत के विषय में लिखते हैं―


एक 'रामचरण' नामक साधु हुआ है, जिसका मत मुख्यकरके 'शाहपुरा' स्थान, मेवाड़ से चला है। वे 'राम-राम' करने को ही परममन्त्र और इसी को सिद्धान्त मानते हैं। उनका एक ग्रन्थ कि जिसमें 'सन्तदास जी आदि की वाणी' है, [उसमें] ऐसा लिखते हैं। उनका वचन―


भरम रोग तब ही मिट्या, रट्या निरंजन राइ। 

जब जम का कागज फट्या, कट्या करम तब जाइ॥१॥


 [सुमरण को अङ्ग १७]


अब बुद्धिमान् लोग विचार लेवें कि 'राम-राम' करने से भ्रम, जो कि अज्ञान है, वा यमराज का पापानुकूल शासन अथवा किये हुये कर्म कभी छूट सकते हैं, वा नहीं? यह केवल मनुष्यों को पापों में फसाना और मनुष्य जन्म को नष्ट कर देना है। अब इनका जो मुख्य गुरु हुआ है 'रामचरण', उसके वचन―


महमा नांव प्रताप की, सुणौ सरवण चित लाइ। 

रांमचरण रसना रटौ, क्रम सकल झड़ जाइ॥१॥ 

जिन जिन सुमर्या नांव कूं, सो सब उतर्या पार। 

रांमचरण जो बीसर्या, सो ही जम के द्वार॥२॥ 

रांम विना सब झूठ बतायो॥ 

रांम भजत छूट्या सब क्रम्मा। 

चंद अरु सूर देइ परकम्मा॥ 

रांम कहे तिन कूं भै नाहीं। 

तीन लोक में कीरतिं गाहीं॥ 

रांम रटत जम जोर न लागै॥

रांम नाम लिष पथर तराई।

भगति हेति औतार ही धराई॥ 

ऊंच नीच कुल भेद बिचारै। 

सो तो जनम आपणो हारै॥ 

सन्तां के कुल दीसै नाहीं। 

रामं रामं कह रांम सम्हांहीं॥

ऐसो कुण जो कीरति गावै। 

हरि हरिजन कौ पार न पावै॥ 

रांम संतां का अन्त न आवै। 

आप आपकी बुद्धि सम गावै॥


 [रामचरण की वाणी] 


इनका खण्डन―प्रथम तो रामचरण आदि के ग्रन्थ देखने से विदित होता है कि यह ग्रामीण एक सादा-सीधा मनुष्य था। न वह कुछ पढ़ा था, नहीं तो ऐसी गपड़चौथ क्यों लिखता? यह केवल इनको भ्रम है कि 'राम-राम' कहने से कर्म छूट जायेंगे। केवल ये अपना और दूसरों का जन्म खोते हैं। 


'जम' का भय तो बड़ा भारी है परन्तु राजसिपाही, चोर, डाकू, व्याघ्र, सर्प, बिच्छू और मच्छर आदि का भय कभी नहीं छूटता। चाहे रात-दिन 'राम-राम' किया करे, कुछ भी नहीं होगा। जैसे शक्कर-शक्कर कहने से मुख मीठा नहीं होता, वैसे सत्यभाषणादि कर्म किये विना 'राम-राम' करने से कुछ भी नहीं होगा। और यदि 'राम-राम' करना इनका राम नहीं सुनता, तो जन्म-भर कहने से भी नहीं सुनेगा, और जो सुनता है तो दूसरी वार भी 'राम-राम' कहना व्यर्थ है। इन लोगों ने अपना पेट भरने और दूसरों का भी जन्म नष्ट करने के लिये एक पाखण्ड खड़ा किया है। सो यह बड़ा आश्चर्य है, हम सुनते और देखते हैं कि नाम तो धरा ‘रामस्नेही' और काम करते हैं 'रांडस्नेही' का। जहाँ देखो वहाँ रांड ही रांड सन्तों को घेर रही हैं। यदि ऐसे-ऐसे पाखण्ड न चलते तो आर्यावर्त देश की दुर्दशा क्यों होती? ये लोग अपने चेलों को जूठन खिलाते हैं, स्त्रियाँ भी लम्बी पड़के दण्डवत् प्रणाम करती हैं। एकान्त में भी स्त्रियों और साधुओं की लीला होती रहती है। 


दूसरी इनकी शाखा 'खेड़ापा'* ग्राम मारवाड़ देश से चली है, उसका इतिहास—एक रामदास नामक जाति का ढेढ़ बड़ा चालाक था। उसकी दो स्त्रियाँ थी। वह प्रथम बहुत दिन तक औघड़ होकर कुत्तों के साथ खाता रहा। पीछे वामी कुंडापन्थी, पीछे 'रामदेव का कामड़िया'☆ बना। अपनी दोनों स्त्रियों के साथ गाता था। ऐसे घूमता-घूमता ‘सीथल'★ में ढेढ़ों का गुरु 'हररामदास' था, उससे मिला। उसने उसको 'रामदेव' का पन्थ बताके अपना चेला बनाया। उस रामदास ने खेड़ापा ग्राम में जगह बनाई और उसका इधर मत चला; उधर शाहपुरा में रामचरण का। 


उसका भी इतिहास ऐसा सुना है कि वह जयपुर का बनिया था। उसने 'दांतड़ा'◇ ग्राम में एक साधु से वेश लिया और उसको गुरु किया और शाहपुरा में आके टिक्की जमाई। भोले मनुष्यों में पाखण्ड की जड़ शीघ्र जम जाती है, जम गई। इन सबमें ऊपर के रामचरण के वचनों के प्रमाण से चेला करके, ऊँच-नीच का कुछ भेद नहीं [करके] ब्राह्मण से अन्त्यज पर्यन्त इनमें चेले बनते हैं। अब भी कुंडापन्थी से ही हैं, क्योंकि मिट्टी के कुंडों में ही खाते हैं और साधुओं की जूठन खाते हैं। [लोगों को] वेदधर्म से, माता-पिता-संसार के व्यवहार से, बहकाकर छुड़ा देते और चेला बना लेते हैं और राम नाम को महामन्त्र मानते हैं; और इसी को 'छुच्छम◆ वेद' भी कहते हैं। [और कहते हैं कि] राम-राम कहने से अनन्त जन्मों के पाप छूट जाते हैं, इसके विना मुक्ति किसी की नहीं होती।


जो श्वास और प्रश्वास के साथ 'राम-राम' करना बतावे, उसको 'सत्यगुरु' कहते हैं और सत्यगुरु




* खेड़ापा ग्राम―खेड़ापा ग्राम राजस्थान के नागौर जिले में नागौर-जोधपुर सड़क=मार्ग पर स्थित है। यही 'रामस्नेही' सम्प्रदाय का मूल केन्द्र है। ―समर्थदान 

☆ कामड़िये―राजपूताने में 'चमार' लोग भगवे वस्त्र रंगकर 'रामदेव' आदि के गीत, जिनको वे 'शब्द' कहते हैं, चमारों और अन्य जातियों को सुनाते हैं; वे 'कामड़िये' कहलाते हैं। ―समर्थदान 

★ सीथल ग्राम―'सीथल' जोधपुर के राज्य में एक बड़ा ग्राम है। ―समर्थदान

◇ दांतड़ा गांव―दांतड़ा गांव जिला जयपुर (राजस्थान) में है। ―समर्थदान

◆ छुच्छम वेद―छुच्छम अर्थात् सूक्ष्म। ―समर्थदान


को परमेश्वर से भी बड़ा मानते हैं और उसकी मूर्त्ति का ध्यान करते हैं। साधुओं के चरण धोके पीते हैं। जब गुरु से चेला दूर जावे तो गुरु के नख और दाढ़ी के बाल अपने पास रख लेते और उसका चरणामृत नित्य लेते हैं। 'रामदास और हररामदास की वाणी' के पुस्तकों को वेद से अधिक मानते हैं। उसकी परिक्रमा और आठ दण्डवत् प्रणाम करते हैं और जो गुरु समीप हो तो गुरु को दण्डवत् प्रणाम कर लेते हैं। स्त्री वा पुरुष को 'राम-राम' एक-सा ही उपदेश करते हैं। नामस्मरण से ही कल्याण मानते हैं और पढ़ने में पाप समझते हैं। उनकी साखी―


पंडताइ पाने पड़ी, ओ पूरब लो पाप। राम-राम सुमर्यां विना, रइग्यौ रीतो आप॥१॥ 

वेद पुराण पढ़े पढ़ 'गीता', रांमभजन बिन रइ गए रीता॥


ऐसे-ऐसे पुस्तक बनाये हैं। स्त्री को पति की सेवा में पाप और गुरु-साधु की सेवा में धर्म बतलाते हैं। वर्णाश्रम को नहीं मानते। जो ब्राह्मण रामस्नेही न हो तो उसको नीच और चाण्डाल, रामस्नेही हो तो उसको उत्तम जानते हैं। ईश्वर का अवतार नहीं मानते और रामचरण का वचन जो ऊपर लिख आये कि―"भगति हेति औतार ही धराई" सन्तों के हित [राम के] अवतार को भी मानते हैं, इत्यादि पाखण्ड-प्रपञ्च इनका जितना है, सो सब आर्यावर्त देश का अहितकारक है। इतने से ही बुद्धिमान् बहुत-सा समझ लें।


प्रश्न―'गोकुलिये गोसाँइयों' का मत तो बहुत अच्छा है। देखो, कैसा ऐश्वर्य भोगते हैं! क्या लीला के विना ऐसा यह ऐश्वर्य हो सकता है?


उत्तर―यह ऐश्वर्य गृहस्थ लोगों का है, गोसाँइयों का कुछ नहीं। 


प्रश्न―वाह-वाह! यह गोसाँइयों के प्रताप से है, क्योंकि ऐसा ऐश्वर्य दूसरों को क्यों नहीं मिलता?


उत्तर―दूसरे भी इसी प्रकार का छल-प्रपञ्च रचें तो ऐश्वर्य मिलने में क्या सन्देह है? और जो इनसे अधिक धूर्त्तता करें तो अधिक ऐश्वर्य भी हो सकता है।


प्रश्न―वाह, वाह! इसमें धूर्त्तता क्या है? सब गोलोक की लीला है। 


उत्तर―गोलोक की लीला नहीं किन्तु गोसाँइयों की लीला है। जो गोलोक की लीला है तो गोलोक भी ऐसा ही होगा। 


यह मत 'तैलंग' देश से चला है; क्योंकि एक तैलंगी लक्ष्मणभट्ट नामक ब्राह्मण ने विवाह कर, [फिर] किसी कारण से माता-पिता, स्त्री को छोड़, काशी में जाके, संन्यास ले लिया था और झूठ बोला था कि मेरा विवाह नहीं हुआ। दैवयोग से उसके माता-पिता और स्त्री ने सुना कि काशी में संन्यासी हो गया है। उसके माता-पिता और स्त्री ने काशी में पहुँचकर जिसने उसको संन्यास दिया था, उससे कहा कि “इसको संन्यासी क्यों किया? देखो! इसकी यह स्त्री युवती है।" और स्त्री ने कहा कि "यदि आप मेरे पति को मेरे साथ न करें तो मुझको भी संन्यास दे दीजिये।" तब तो उसको बुलाके [संन्यास-गुरु ने] कहा कि "तू बड़ा मिथ्यावादी है, संन्यास छोड़, गृहाश्रम कर; क्योंकि तूने झूठ बोलकर संन्यास लिया है।" उसने वैसा ही किया। संन्यास छोड़ उसके साथ हो लिया।


देखो, इस मत का मूल ही झूठ-कपट से चला। जब तैलङ्ग देश में वे गये, उनको जाति में किसी ने न लिया। वहाँ से निकलकर घूमने लगे। 'चरणारगढ' जो काशी के पास है, उसके पास 'चम्पारण्य' जंगल में चले जाते थे। वहाँ कोई एक लड़के को जंगल में छोड़ चारों ओर दूर-दूर आगी जलाकर चला गया था; क्योंकि छोड़नेवाले ने यह समझा था कि जो आगी न जलाऊंगा तो अभी कोई जानवर मार डालेगा। लक्ष्मणभट्ट और उसकी स्त्री ने लड़के को लेकर अपना पुत्र बना लिया। फिर काशी में जा रहे। जब वह लड़का बड़ा हुआ तब उसके मा-बाप का शरीर छूट गया। काशी में बाल्यावस्था से युवावस्था तक कुछ पढ़ता भी रहा, फिर और कहीं जाके एक विष्णुस्वामी के मन्दिर में चेला हो गया। वहाँ से भी कुछ खटपट होने से काशी को फिर चला गया और संन्यास ले लिया। फिर, कोई वैसा ही जातिबहिष्कृत ब्राह्मण काशी में रहता था। उसकी लड़की युवती थी। उसने इससे कहा कि "तू संन्यास छोड़ मेरी लड़की से विवाह कर ले।" वैसा ही हुआ। जिसके बाप ने जैसी लीला की थी वैसी पुत्र क्यों न करे? उस स्त्री को लेकर वहीं चला गया कि जहाँ प्रथम विष्णुस्वामी के मन्दिर में चेला हुआ था। विवाह करने से उनको वहाँ से निकाल दिया। फिर व्रजदेश में कि जहाँ अविद्या ने घर कर रक्खा है, जाकर, अपना प्रपञ्च अनेक प्रकार की छल-युक्तियों से फैलाने लगा और मिथ्या बातों की प्रसिद्धि करने लगा कि श्रीकृष्ण मुझसे मिले और कहा है कि "जो गोलोक से 'दैवीजीव' मर्त्यलोक में आये हैं, उनको ब्रह्मसम्बन्ध आदि से पवित्र करके गोलोक में भेजो।" इत्यादि प्रलोभन की बातें कहके थोड़े-से लोग अर्थात् ८४ चौरासी वैष्णव बनाये और निम्नलिखित मन्त्र बना लिये, उनमें भी भेद रक्खा, जैसे―


श्रीकृष्णः शरणं मम॥१॥ 

क्लीं कृष्णाय गोपीजनवल्लभाय स्वाहा॥२॥


[गोपालसहस्रनाम तथा पद्मपुराण (६) उत्तर खण्ड ७२।१२२] 


ये दोनों साधारण मन्त्र हैं; परन्तु यह निम्नोक्त ब्रह्मसम्बन्ध और समर्पण का मन्त्र कहाता है―


श्रीकृष्णः शरणं मम सहस्रपरिवत्सरमितकालजातकृष्णवियोगजनितता-पक्लेशानन्ततिरोभावोऽहं भगवते कृष्णाय देहेन्द्रियप्राणान्तःकरणतद्धर्मांश्च दारागारपुत्राप्तवित्तेहपराण्यात्मना सह समर्पयामि, दासोऽहं कृष्ण तवास्मि॥ 


इस मन्त्र का उपदेश करके शिष्य-शिष्याओं का समर्पण कराते हैं। 'क्लीं कृष्णायेति'―यह 'क्लीं' तन्त्र ग्रन्थ का है। इससे विदित होता है कि यह वल्लभमत भी वाममार्गियों का भेद है। इसी से स्त्री-संग गोसाँईं लोग बहुत करते हैं। 'गोपी-वल्लभेति'―क्या कृष्ण गोपियों को ही प्रिय थे, अन्यों को नहीं? स्त्रियों को प्रिय वह होता है जो ‘स्त्रैण' अर्थात् स्त्रीभोग में फसा हो। क्या कृष्ण जी ऐसे थे? 


अब 'सहस्त्रपरिवत्सरेति'―सहस्र वर्षों की गणना व्यर्थ है; क्योंकि वल्लभ और उसके शिष्य सर्वज्ञ नहीं हैं। क्या कृष्ण का वियोग सहस्र वर्षों से हुआ, और आज लों अर्थात् जब लों वल्लभ का मत न था, न वल्लभ जन्मा था, उसके पूर्व अपने दैवी जीवों के उद्धार करने को क्यों न आया? 'ताप' और 'क्लेश' दोनों पर्यायवाची हैं। इनमें से एक का ग्रहण करना उचित था, दो का नहीं। 'अनन्त' शब्द का पाठ रखना व्यर्थ है, क्योंकि जो 'अनन्त' शब्द रक्खो तो 'सहस्र' का पाठ न रखना चाहिये। और जो 'सहस्र' शब्द का पाठ रक्खो तो अनन्त शब्द का पाठ रखना सर्वथा व्यर्थ है। और जो अनन्तकाल लों 'तिरोहित' अर्थात् आच्छादित रहै, उसकी मुक्ति के लिये वल्लभ का होना व्यर्थ है, क्योंकि अनन्त का अन्त नहीं होता।


भला, देह, इन्द्रिय, प्राण, अन्त:करण और उसके धर्म; स्त्री, स्थान, पुत्र, प्राप्त-धन का अर्पण कृष्ण को क्यों करना? क्योंकि कृष्ण पूर्णकाम होने से किसी के देहादि की इच्छा नहीं कर सकते। और देहादि का अर्पण करना भी नहीं हो सकता, क्योंकि देह के अर्पण से नखाग्र-शिखा-पर्यन्त देह कहाता है, उसमें जो कुछ अच्छा-बुरा वस्तु है, [जैसे] मल-मूत्रादि का भी अर्पण कैसे कर सकोगे? और जो पाप-पुण्यरूप कर्म होते हैं, उनको कृष्णार्पण करने से उनका फलभागी भी कृष्ण ही होवे। अर्थात् नाम तो कृष्ण का लेते हैं और अर्पण अपने लिये कराते हैं। जो कुछ शरीर में मलमूत्रादि होता है, वह भी गोसाँई जी के अर्पण क्यों नहीं होता? 'क्या मीठा-मीठा गड़प्प और कड़ुवा कड़ुवा थू'? और यह भी लिखा है कि गोसाँई जी के अर्पण करना, अन्य मत-वाले के नहीं। यह सब मतलब-सिन्धुपन [है] और पराये धनादि पदार्थ हरने, वेदोक्त धर्म का नाश करने की लीला रची है। देखो, यह वल्लभ की लीला है―


श्रावणस्यामले पक्षे, एकादश्यां महानिशि। 

साक्षाद्भगवता प्रोक्तं तदक्षरश उच्यते॥१॥ 

ब्रह्मसम्बन्धकरणात् सर्वेषां देहजीवयोः। 

सर्वदोषनिवृत्तिर्हि दोषाः पञ्चविधाः स्मृताः॥२॥ 

सहजा देशकालोत्था लोकवेदनिरूपिताः। 

संयोगजाः स्पर्शजाश्च न मन्तव्याः कदाचन॥३॥ 

अन्यथा सर्वदोषाणां न निवृत्तिः कथञ्चन। 

असमर्पितवस्तूनां तस्माद्वर्जनमाचरेत्॥४॥ 

निवेदिभिः समर्प्यैव सर्वं कुर्यादिति स्थितिः। 

न मतं देवदेवस्य स्वामिभुक्तिसमर्पणम्॥५॥ 

तस्मादादौ सर्वकार्ये सर्ववस्तुसमर्पणम्। 

दत्तापहारवचनं तथा च सकलं हरेः॥६॥ 

न ग्राह्यमिति वाक्यं हि भिन्नमार्गपरं मतम्। 

सेवकानां यथा लोके व्यवहारः प्रसिध्यति॥७॥ 

तथा कार्य्यं समर्प्यैव सर्वेषां ब्रह्मता ततः। 

गङ्गात्वे गुणदोषाणां गुणदोषादिवर्णनम्॥८॥


ये श्लोक गोसाँइयों के 'सिद्धान्तरहस्य'-आदि ग्रन्थों में लिखे हैं। यही गोसाँइयों के मत का मूल तत्त्व है। भला, कोई पूछे कि श्री कृष्ण का देहान्त हुए कुछ कम पाँच सहस्र वर्ष बीते हैं। वे वल्लभ से श्रावण मास की आधी रात को कैसे मिल सके?॥१॥


'जो गोसाँई का चेला होता है और उसको सब पदार्थों का समर्पण करता है, [उससे] उसके शरीर और जीव के सब दोषों की निवृत्ति हो जाती है।' वल्लभ का यही प्रपञ्च मूर्खों को बहकाकर अपने मत में लाने का है। जो गोसाँई के चेले-चेलियों के सब दोष निवृत्त हो जायें, तो रोग-दारिद्र्यादि दुःखों से पीड़ित क्यों रहैं? और वे दोष पाँच प्रकार के होते हैं॥२॥


एक―सहजदोष अर्थात् जो स्वाभाविक काम-क्रोधादि से उत्पन्न होते हैं। 


दूसरे―किसी देश, काल में नाना प्रकार के पाप किये जायें। 


तीसरे―लोक में जिनको भक्ष्याभक्ष्य कहते और वेदोक्त जो कि मिथ्याभाषणादि हैं।


चौथे―संयोगज=जो बुरे सङ्ग अर्थात् चोरी, जारी, माता, भगिनी, कन्या, पुत्रवधू, गुरुपत्नी आदि से संयोग करना। 


पाँचवें―'स्पर्शज=अस्पर्शनीयों का स्पर्श करना। इन पाँच दोषों को गोसाँइयों के मतवाले कभी न माने अर्थात् यथेष्टाचार करें'॥३॥


'अन्य कोई प्रकार दोषों की निवृत्ति के लिये नहीं है, विना गोसाँई के मत के। इसलिये विना समर्पण किये पदार्थों को गोसाँइयों के चेले न भोगें।'॥४॥ इसीलिये इनके चेले अपनी स्त्री, कन्या, पुत्रवधू और धनादि पदार्थों को भी समर्पित करते हैं। परन्तु 'समर्पण का नियम यह है कि जब लों गोसाँई जी की चरणसेवा में समर्पित न हो, तब लों उसका स्वामी स्वस्त्री का स्पर्श न करे।'


'इससे गोसाँइयों के चेले समर्पण करके अपने-अपने पदार्थों का भोग करें', क्योंकि स्वामी के भोग के पश्चात् समर्पण नहीं हो सकता॥५॥


'इससे प्रथम, सब कामों में सब वस्तुओं का समर्पण करें। प्रथम गोसाँई जी को भार्यादि का समर्पण करके पश्चात् ग्रहण करें, वैसे ही हरि के दिये सम्पूर्ण पदार्थ समर्पण करके ग्रहण करें'॥६॥


'गोसाँई के मत से भिन्न-मार्ग के वाक्य-मात्र को भी गोसाँइयों के शिष्य कभी न सुनें, न ग्रहण करें, यही उनके शिष्यों का व्यवहार प्रसिद्ध है'॥७॥ 


'वैसे ही सब वस्तुओं का समर्पण करके सबके बीच में ब्रह्मबुद्धि करे। उसके पश्चात् जैसे गंगा में अन्य जल मिलकर गंगारूप हो जाते हैं, वैसे ही अपने मत के [दोषों को भी गुण और दूसरे मत के [गुणों को भी] दोष [मानकर उन] का वर्णन किया करें'॥८॥ 


अब देखिये कि गोसाइयों का मत सब मतों से अधिक अपना प्रयोजन सिद्ध करनेहारा है। भला, इन गोसाँइयों को कोई पूछे कि ब्रह्म का एक लक्षण भी तुम नहीं जानते तो शिष्यों और शिष्याओं का ब्रह्मसम्बन्ध कैसे करा सकोगे? जो कहो कि हम ही ब्रह्म हैं, हमारे साथ सम्बन्ध होने से ब्रह्मसम्बन्ध होता है; तो तुममें ब्रह्म का गुण-कर्म-स्वभाव एक भी नहीं है, पुन: क्या तुम केवल भोग-विलास के लिये ब्रह्म बने हो?


भला, शिष्यों और शिष्याओं को तो तुम अपने लिये समर्पित करके शुद्ध करते हो और तुम और तुम्हारी भार्या, कन्या, पुत्रवधू तथा पुत्रादि असमर्पित रहने से अशुद्ध रह गये वा नहीं? जो असमर्पित वस्तु को अशुद्ध मानते हो तो तुम अशुद्ध क्यों नहीं? इसलिये तुम और तुम्हारी भार्या और पुत्रादि अन्य के लिये समर्पित होने चाहियें वा नहीं? जो कहो कि नहीं, तो अन्य को अपने लिये समर्पित क्यों करते हो? इसलिये तुमको उचित है कि वेदमत को मानो और मिथ्या प्रपञ्चादि बुराइयों को छोड़ो, जिससे इस लोक और परलोक की शुद्धि होकर आनन्द पाओ। 


ये अपने सम्प्रदाय को 'पुष्टिमार्ग' कहते हैं अर्थात् खाना-पीना, पुष्ट होना, सब स्त्रियों से यथेष्ट भोग-विलास करना। परन्तु जब भगन्दरादि रोग हो जाते हैं तो यही मत साक्षात् नरक-मार्ग हो जाता है। बड़े आश्चर्य की बात है कि ऐसे-ऐसे पशुवत् क्रीड़ा करनेवालों का भी मत संसार में चल जाता है। कहाँ तक लिखें, इनकी सब लीलायें ऐसी ही शास्त्रविरुद्ध [और] पापवर्द्धक हैं।


इसी प्रकार मिथ्याजाल रचके बेचारे भोले मनुष्यों को जाल में फसाया [करते हैं] और अपने आपको श्री कृष्ण मानकर सबके स्वामी मानते हैं। यह कहते हैं कि "जितने दैवी जीव गोलोक से आये हैं, उनका उद्धार करने के लिये हम लीला पुरुषोत्तम जन्मे हैं। जब तक हमारा उपदेश न ले तब तक गोलोक की प्राप्ति नहीं होती। वहाँ एक श्री कृष्ण पुरुष और सब स्त्रियाँ हैं।" 


वाह जी वाह! अच्छा मत है!! गोसाँइयों के जितने चेले हैं, वे सब गोपियाँ बन जावेंगी। भला, जिस एक पुरुष की दो स्त्रियां हैं, उसकी बड़ी दुर्दशा होती है, तो जहाँ एक पुरुष और करोड़ों स्त्रियां एक के पीछे लगी हैं, उसके दुःख का पार नहीं। जो कहो कि श्री कृष्ण में बड़ा सामर्थ्य है, सबको प्रसन्न करते हैं तो जो उसकी स्त्री जिसको 'स्वामिनी जी' कहते हैं, उसमें भी श्री कृष्ण के तुल्य सामर्थ्य होगा, क्योंकि वह उनकी अर्धांगिनी है। जैसे यहाँ स्त्री-पुरुष की कामचेष्टा तुल्य अथवा पुरुष से स्त्री की अधिक होती है, तो गोलोक में क्यों नहीं? जब ऐसा है तो अन्य स्त्रियों और 'स्वामिनी जी' की अत्यन्त लड़ाई भी होती होगी, क्योंकि सपत्नीभाव बहुत बुरा होता है। पुन: गोलोक स्वर्ग के बदले नरकवत् हो गया होगा। अथवा जैसे बहुत स्त्रीगामी पुरुष भगन्दरादि रोगों से पीड़ित रहता है, वैसा गोलोक में भी होगा। ऐसे गोलोक से मर्त्यलोक ही अच्छा है।


देखो, जैसे यहाँ गोसाँई लोग अपने को कृष्ण मानते हैं, बहुत स्त्रियों के संग से भगन्दर, प्रमेहादि रोगों से पीड़ित हैं तो अब जिनके स्वरूप गोसाँई पीड़ित होते हैं, तो गोलोक का स्वामी श्री कृष्ण इन रोगों से पीड़ित क्यों नहीं होगा? और जो नहीं है, तो उनके स्वरूप गोसाँई पीड़ित क्यों होते हैं?


प्रश्न―मर्त्यलोक में लीलावतार धारण करने से रोग-दोष होता है, गोलोक में नहीं, क्योंकि वहाँ रोग-दोष नहीं।


उत्तर―'भोगे रोगभयम्' [वैराग्यशतक, श्लोक ३३] =जहाँ भोग है, वहाँ रोग अवश्य होता है। और श्री कृष्ण के करोड़ों-करोड़ों स्त्रियों से सन्तान होते हैं, वा नहीं? जो होते हैं तो लड़के-लड़के होते हैं वा लड़कियां-लड़कियां? अथवा दोनों? जो लड़कियां-लड़कियां होती हैं तो उनका विवाह किनके साथ होता होगा? क्योंकि वहाँ दूसरा कोई पुरुष नहीं। जो दूसरा है तो तुम्हारी प्रतिज्ञा-हानि हुई। और जो कहो लड़के ही लड़के होते हैं, तो भी यही दोष आन पड़ेगा कि उनका विवाह कहाँ और किनके साथ होता है? अथवा घर में ही वर्त लेते हैं? अन्य के लड़के हैं तो भी तुम्हारी प्रतिज्ञा ‘गोलोक में एक ही श्री कृष्ण पुरुष है' नष्ट हो जायेगी। और जो सन्तान होते ही नहीं, तो कृष्ण अथवा उनकी स्त्रियों के शरीर में वीर्यहीनता वा वन्ध्यापन दोष होगा। यह गोलोक क्या है, जानो दिल्ली के बादशाह की बीबियों की सेना है!


और गोसाँई लोग शिष्यों-शिष्याओं का तन-मन-धन अपने अर्पण करा लेते हैं, सो भी ठीक नहीं; क्योंकि जो तन है वह विवाहित पति के समर्पण हो जाता है, और मन भी फिर दूसरे पुरुष के समर्पण नहीं हो सकता। जो हो सकता है तो वह स्त्री दो पति वाली होकर व्यभिचारिणी कहावेगी। और जो नखाग्र-शिखा-पर्यन्त शरीर गोसाँई जी के अर्पण है तो उसमें उत्पन्न हुये धातु, मल, मूत्रादि भी गोसाँई जी के अर्पित हो चुके; और धन का अर्पण इसलिये कराते हैं कि कमावें चेले और भोगें गोसाँई। जितने गोसाँई हैं, वे अब तक तैलङ्ग की जाति में नहीं हैं। जो कोई इनको लड़की देता है, वह भी जातिबाह्य होकर भ्रष्ट हो जाता है, क्योंकि ये जाति से पतित किये गये और विद्याहीन रात-दिन प्रमाद में रहते हैं।


और देखो, जब कोई गोसाँई जी की पधरावनी करता है, तब जाकर चुपचाप 'काठ की पुतली-सा' बैठा रहता है, न कुछ बोलता-न-चालता; क्योंकि बोले तो तब जो मूर्ख न हो! 'मूर्खाणां बलं मौनम्'=मूर्खों का बल मौन में है। जो बोले तो उसकी पोल निकल जाय। परन्त स्त्रियों की ओर खब ताकता रहता है। जिसकी ओर गोसाँई जी देखें तो जानो बड़े भाग्य की बात है। और वह स्त्री, उसके पति, भाई, बन्धु, माता, पिता बड़े प्रसन्न होते हैं। सब स्त्रियाँ पग छूती हैं। जिस पर गोसाँई का मन लगे उसका हाथ पग के अंगूठे से दाब देता है। वह स्त्री और उसके सम्बन्धी अपना धन्य भाग्य समझते हैं। उसके पति आदि उस स्त्री से कहते हैं कि तू गोसाँई जी की चरणसेवा में जा। और जहाँ कहीं उसके पति आदि प्रसन्न नहीं होते, वहाँ दूती और कुटनियों से काम सिद्ध करते हैं। सच पूछो, तो ऐसे भड़ुवापन के काम करने-करानेवाले उनके मन्दिरों में और उनके पास बहुत हैं। 


अब इनकी दक्षिणा की लीला [देखिए―] अर्थात् इस प्रकार माँगते हैं, "लाओ भेंट गोसाईं जी की, बहू जी की, लाल जी की, बेटी जी की, मुखिया बाहरिया जी की, गवैया जी की, ठाकुर जी की" इन सात दुकानों से खूब माल मारते हैं। जब कोई उनका सेवक मरने लगता है तब उसकी छाती में पग छुवा, जो कुछ मिलता है, गोसाँई जी ले लेते हैं। क्या यह काम महाब्राह्मण, करटिया वा, मुर्दावली के समान नहीं है? कोई-कोई विवाह में भी गोसाँई जी को बुलाते हैं और उन्हीं से लड़के-लड़की का पाणिग्रहण कराते हैं। कोई-कोई सेवक जब 'केशरिया स्नान' अर्थात् गोसाँई जी के शरीर पर स्त्री-लोग केशर का उबटन करके एक बड़े पात्र में पट्टा डालके गोसाँई जी को स्त्री-पुरुष मिलके स्नान कराते हैं, परन्तु विशेषकर स्त्रियां स्नान कराती हैं। पुनः जब गोसाईं जी पीताम्बर पहर, खड़ाऊँ पर पग धर बाहर निकल आते हैं और धोती उसी में पटक देते हैं। उस जल का आचमन उसके सेवक करते हैं और अच्छी मसालेदार पान-बीड़ी गोसाँई जी को देते हैं। वह चाबकर कुछ निगल जाते हैं, शेष एक चाँदी के कटोरे में, जिसको उनका सेवक मुख के आगे कर देता है, उसमें पीक उगल देते हैं। उसकी भी प्रसादी बंटती है, जिसको 'खास प्रसादी' कहते हैं। अब विचारिये कि ये लोग किस प्रकार के मनुष्य हैं? 


जो मूढ़पन और अनाचार होगा, तो क्या इतना ही होगा? [क्योंकि ये] बहुत-से समर्पण लेते हैं। उनमें से कितने ही वैष्णवों के हाथ का खाते हैं, अन्य का नहीं। कितने अपने ही हाथ का बनाया खाते हैं। लकड़े तक को धो लेते हैं परन्तु आटा, गुड़, चीनी, घी आदि धोये विना उनका 'अस्पर्श' बिगड़ जाता है। क्या करें बेचारे! जो इनको धोवें तो पदार्थ ही हाथ से खोवें। वे कहते हैं कि हम ठाकुर जी के रंग-राग, भोग में बहुत-सा धन लगा देते हैं, परन्तु रंग-राग, भोग आप करते हैं!! और सच पूछो तो बड़े-बड़े अनर्थ होते हैं अर्थात् होली के समय पिचकारियाँ भरकर स्त्रियों के अस्पर्शनीय अवयवों पर मारते हैं। और रसविक्रय ब्राह्मण के लिये निषिद्ध है, सो भी करते हैं। 


प्रश्न―गोसाँई जी रोटी, दाल, कढ़ी, भात, मठरी, लड्डू आदि को प्रत्यक्ष हाट में बैठके तो नहीं बेचते, किन्तु अपने नौकर-चाकरों को पत्तल बाँट देते हैं, वे लोग बेचते हैं, गोसाँई जी नहीं।


उत्तर―जो गोसाँई जी उनको मासिक रुपये दें तो वे पत्तल क्यों लेवें? गोसाँई जी अपने नौकरों के हाथ दाल-भात आदि नौकरी के बदले बेच देते हैं और वे ले जाकर बाहर हाट बाजार में बेचते हैं। जो गोसाँई जी बाहर बेचते, तो नौकर जो ब्राह्मणादि हैं वे तो रसविक्रय दोष से बचते, अकेले गोसाँई जी ही रसविक्रय के पाप में फसते। प्रथम आप फसे और फिर अन्यों को फसा दिया। कहीं-कहीं नाथद्वारा आदि में गोसाँई जी भी बेचते हैं। रसविक्रय करना नीचों का काम है, उत्तमों का नहीं। ऐसे-ऐसे लोगों ने आर्यावर्त की अधोगति कर दी।


प्रश्न―'स्वामीनारायण' का मत कैसा है?


उत्तर―'यादृशी शीतला देवी, तादृशो वाहनः खरः' जैसी धनहरणादि में गोसाँई-लीला है, वैसी ही स्वामीनारायण की भी है।


देखिए, एक 'सहजानन्द' अयोध्या के पास एक ग्राम का जन्मा हुआ था, वह ब्रह्मचारी होकर गुजरात, काठियावाड़, कच्छ, भुज आदि देशों में फिरता था। उसने देखा कि यह देश मूर्ख और भोला है; चाहें वैसे इनको अपने मत में झुका लेवेंगे। उसने दो-चार शिष्य बनाये। उन्होंने आपस में सम्मति कर प्रसिद्ध किया कि सहजानन्द 'नारायण का अवतार' और बड़ा सिद्ध है और भक्तों को 'चतुर्भुज-मूर्ति' धारणकर साक्षात् दर्शन भी देता है।


एक वार काठियावाड़ में किसी 'काठी', अर्थात् जिसका नाम 'दादाखाचर' था, गढडे का भूमिया (=जमींदार) था, उसको शिष्यों ने कहा कि "तुम 'चतुर्भुज-नारायण' का दर्शन करना चाहो तो हम सहजानन्द जी से प्रार्थना करें?" उसने कहा―"बहुत अच्छी बात है।" वह भोला आदमी था। एक कोठरी में सहजानन्द ने मुकुट धारणकर, शंख-चक्र अपने हाथ में ऊपर को धारण किये और एक दूसरा आदमी उसके पीछे खड़ा रहकर गदा-पद्म अपने हाथ में लेकर सहजानन्द की बगल में से आगे को हाथ निकाल [कर दोनों] चतुर्भुज के तुल्य बन-ठन गये। दादाखाचर से उनके चेलों ने कहा कि “एक वार आँख उठा देखके आँख मींच लेना और झट इधर को चले आना। जो बहुत देखोगे तो नारायण कोप करेंगे।" अर्थात् चेलों के मन में तो यह था कि कहीं हमारे कपट की परीक्षा न कर लेवे। उसको ले गये। वह सहजानन्द कलाबत्तू और चलकते रेशमी कपडे़ धारण किये था, अंधेरी कोठरी में खड़ा था। उसके चेलों ने एक दम लालटेन से कोठरी की ओर उजाला किया। दादाखाचर ने देखा तो 'चतुर्भुज-मूर्त्ति' दिखी, फिर झट दीपक को आड़ में कर दिया। वे सब नीचे गिर, नमस्कार कर दूसरी ओर चले आये और उसी समय बीच में बातें की "तुम्हारा भाग्य धन्य है। अब तुम महाराज के चेले हो जाओ"। उसने कहा―"बहुत अच्छी बात।" जब तक फिरके दूसरे स्थान में गये तबतक वस्त्र बदलके सहजानन्द गद्दी पर बैठा था। तब चेलों ने कहा कि "देखो! अब दूसरा स्वरूप धारण करके यहाँ बैठे हैं।"


वह दादाखाचर इनके जाल में फस गया। वहीं से उनके मत की जड़ जम गई। क्योंकि वह एक बड़ा भूमिया था, वहीं अपनी जड़ जमा ली। पुनः इधर-उधर घूमता रहा, सबको उपदेश करता था, बहुतों को साधु भी बनाता था। कभी-कभी साधु की कण्ठ की नाड़ी को मलकर मूर्छित भी कर देता था और सबसे कहता था कि हमने इनको समाधि चढ़ा दी है। ऐसी-ऐसी धूर्त्तता में काठियावाड़ के भोले लोग उसके पेच में फस गये। जब वह मर गया तब उसके चेलों ने बहुत-सा पाखण्ड फैलाया।


इसमें यह दृष्टान्त उचित होगा कि जैसे कोई एक चोरी करता पकड़ा गया था। न्यायाधीश ने उसको नाक काट डालने का दण्ड किया। जब उसकी नाक काटी गई तब वह धूर्त्त फ नाचने-गाने और हँसने लगा। लोगों ने पूछा कि "तू क्यों हँसता है?"


उसने कहा―"कुछ कहने की बात नहीं है।" 


लोगों ने पूछा―"ऐसी कौन-सी बात है?" 


उसने कहा―"बड़े भारी आश्चर्य की बात है, हमने ऐसी कभी नहीं देखी!" 


लोगों ने कहा―"कह! क्या बात है?"


उसने कहा कि "मेरे सामने साक्षात् 'चतुर्भुज-नारायण' खड़े हैं। मैं देखकर बड़ा प्रसन्न होकर नाचता-गाता अपने भाग्य को धन्यवाद देता हूं कि मैं नारायण का साक्षात् दर्शन कर रहा हूँ।"


लोगों ने कहा―"हमको दर्शन क्यों नहीं होता?" 


वह बोला―"नाक की आड़ हो रही है। जो नाक कटवा लो तो नारायण दीखे, नहीं तो नहीं।"


उनमें से किसी मूर्ख ने चाहा कि नाक जाय तो जाय परन्तु नारायण का दर्शन अवश्य करना चाहिये। उसने कहा कि "मेरी भी नाक काटो और नारायण को दिखलाओ।" 


उसने उसकी नाक काटकर कान में कहा कि "तू भी ऐसा ही कर, नहीं तो मेरा और तेरा उपहास होगा।"

 

उसने भी समझा कि अब नाक तो आती नहीं, ऐसा ही करना ठीक है। वह भी वैसे ही नाचने, कूदने, गाने, हँसने लगा और कहने लगा कि "मुझको भी नारायण दीखता है।"


वैसे होते-होते एक सहस्र मनुष्यों का झुण्ड हो गया, बड़ा कोलाहल हुआ, अपने सम्प्रदाय का नाम 'नारायणदर्शी' रक्खा।


किसी मूर्ख राजा ने सुना, उनको बुलाया। जब राजा उनके पास गया तब वे बहुत नाचने-कूदने, हँसने लगे। तब राजा ने पूछा कि “यह क्या बात है?"


उन्होंने कहा कि "साक्षात् नारायण हमको दीखता है।" 


राजा―हमको क्यों नहीं दीखता?


नारायणदर्शी―जब तक नाक है तब तक नहीं दीखेगा और जब नाक कटवा लोगे, नारायण प्रत्यक्ष दीखेंगे।


राजा ने विचारा 'ठीक है।' राजा ने कहा―"ज्योतिषी जी! मुहूर्त्त देखिये।"


ज्योतिषी जी ने उत्तर दिया―"जो हुक्म अन्नदाता! दशमी के दिन प्रातःकाल आठ बजे तक नाक कटवाने और नारायण के दर्शन करने का बड़ा अच्छा मुहूर्त्त है।"


वाह रे पोप जी! अपनी पोथी में नाक काटने-कटवाने का भी मुहूर्त्त लिख दिया!!


जब राजा की इच्छा हुई और उन सहस्र नकटों के सीधे बाँध दिये, तब तो वे बड़े ही प्रसन्न होकर नाचने-कूदने गाने लगे। यह बात राजा के दीवान आदि कुछ-कुछ बुद्धिवालों को अच्छी न लगी। राजा के यहां एक चार पीढ़ी का, बूड्ढा ९० वर्ष का दीवान था। उसको उसके परपोते ने, जो कि उस समय दीवान था, जाकर वह बात सुनाई। तब उस वृद्ध ने कहा कि "वे धूर्त्त हैं। तू मुझको राजा के पास ले चल।" वह ले गया। बैठते समय राजा ने बड़े हर्षित होके उन नाककटों की बातें सुनाईं। 


दीवान ने कहा कि “सुनिये महाराज! ऐसी शीघ्रता न करनी चाहिये। विना परीक्षा किये पश्चात्ताप होता है।"


राजा―क्या ये सहस्र पुरुष झूठ बोलते होंगे?


दीवान―झूठ बोलते हैं वा सच, विना परीक्षा के सच-झूठ कैसे कह सकते हैं? 


राजा―परीक्षा किस प्रकार करनी चाहिये? 


दीवान―विद्या, सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाणों से।


राजा―जो पढ़ा न हो, वह परीक्षा कैसे करे? 


दीवान―विद्वानों के संग से ज्ञान की वृद्धि करके। 


राजा―जो विद्वान् न मिले तो? 


दीवान―पुरुषार्थी को कोई बात दुर्लभ नहीं है।


राजा―तो आप कहिये, कैसे किया जाय?


दीवान―मैं बुड्ढा [हूं] और घर में बैठा रहता हूँ, थोड़े दिन जीवोंगा। मैं प्रथम परीक्षा कर लेऊँ, तत्पश्चात् जैसा उचित समझें वैसा कीजियेगा।


राजा―बहुत अच्छी बात है। ज्योतिषी जी! दीवान के लिये मुहूर्त्त देखो।


ज्योतिषी―जो महाराज की आज्ञा। यही शुक्ल पञ्चमी १० बजे का मुहूर्त्त अच्छा है। जब पञ्चमी आई तब राजा जी के पास आ, आठ बजे बुड्ढे दीवान ने राजा से कहा कि "सहस्र-दो सहस्र सेना लेके चलना चाहिये।"


राजा―वहाँ सेना का क्या काम? 


दीवान―आपको बहुत-से राज्यव्यवहार की जानकारी नहीं है। जैसा मैं कहता हूँ, वैसा कीजिये।


राजा―अच्छा, जाओ भाई! सेना को तैयार करो। साढ़े नौ बजे सवारी करके राजा सबको लेकर गया। उनको देखकर वे नाचने-गाने लगे। जाकर बैठे। उनके महन्त जिसने यह सम्प्रदाय चलाया था, जिसकी प्रथम नाक कटी थी, उसको बुलाकर कहा कि “आज हमारे दीवान जी को नारायण का दर्शन कराओ।"


उसने कहा―“अच्छा।" 


दश बजे का समय आया। तब एक मनुष्य ने थाली नाक के नीचे पकड़ रक्खी। उसने पैना चाकू ले, नाक काट, थाली में फेंक दी और रुधिर गिरने लगा। दीवान जी का मुख बिगड़ गया। फिर उस धूर्त्त ने दीवान जी के कान में मन्त्रोपदेश दिया कि “आप भी हँसकर सबसे कहिये कि मुझको नारायण दीखता है। अब नाक कटी हुई नहीं आवेगी। जो ऐसा न कहोगे तो तुम्हारा बहुत-सा ठट्ठा होगा।" वह कहकर अलग हुआ।


दीवान जी ने अंगोछा हाथ में ले नाक की आड़ में लगा दिया। जब दीवान जी से राजा ने पूछा―"कहिये, नारायण दीखता है वा नहीं?


दीवान ने राजा जी के कान में कहा―"कुछ भी नहीं दीखता, वृथा इस धूर्त्त ने सहस्र मनुष्यों को खराब किया।"


राजा ने दीवान से कहा―"अब क्या करना चाहिये?"


दीवान ने कहा―"इनको पकड़के कठोर दण्ड देना चाहिये। जब तक जीवें तब तक बन्दीघर में रखना चाहिये और इस दुष्ट को कि जिसने इन सबको खराब किया है, गधे पर चढ़ा, बड़ी दुर्दशा से मारना चाहिये।"


जब राजा और दीवान कान में बातें करने लगे तब उन्होंने डरके भागने की तैयारी की, परन्तु चारों ओर फौज ने घेरा दे रक्खा था, न भाग सके। राजा ने आज्ञा दी―“सबको पकड़ बेड़ियाँ डाल दो और इस दुष्ट का काला मुख कर, गधे पर चढ़ा, इसके कण्ठ में फटे जूतों का हार पहना, सर्वत्र घुमा, छोकरों से धूड़-राख इस पर डलवा, चौक-चौक में जूतों से पिटवा, कुत्तों से लुँचवा, मरवा डाला जावे। जो ऐसा न होवे तो पुन: दूसरे भी ऐसा काम करते न डरेंगे।"


जब ऐसा हुआ तब 'नाककटे का सम्प्रदाय' बन्द हुआ। इसी प्रकार सब वेदविरोधी दूसरों का धन हरने में बड़े चतुर हैं। ऐसी ही सब सम्प्रदायों की लीला है। 


ये स्वामीनारायण वाले धनहरे=दूसरों के धन हरने में बड़े चतुर हैं, छल-कपटयुक्त काम करते हैं। कितने ही मूर्खों को बहकाने के लिये मरते समय कहते हैं कि "सफेद घोड़े पर बैठ सहजानन्द जी मुझको बुलाने आये हैं, नित्य इस मन्दिर में आते हैं।" 


जब मेला होता है तब मन्दिर में पुजारी रहते हैं और नीचे दुकान रखते हैं। मन्दिर में से दुकान के मध्य छिद्र रखते हैं। जो किसी ने नारियल चढ़ाया, वही दुकान में फेंक दिया, अर्थात् इसी प्रकार एक नारियल दिन में सहस्त्र वार बिकता है। ऐसे ही सब पदार्थों को बेचते हैं।


जिस जाति का साधु हो, उससे वही काम कराते हैं; जैसे नापित हो उससे नापित का, कुम्हार से कुम्हार का, शिल्पी से शिल्पी का, बनिये से बनिये का काम लेते हैं। अपने चेलों पर अनेक प्रकार के टिक्कस(=कर) बाँध रक्खे हैं। लाखों-करोड़ों रुपये ठगके एकत्र कर लिये और करते जाते हैं। जो गद्दी पर बैठता है, वह गृहस्थ=विवाह करता है, आभूषणादि पहनता है। जहाँ कहीं पधरावनी होती है, वहाँ गोकुलियों के समान गोसाँई जी, बहू जी आदि के नाम से भेंट-पूजा लेते हैं। अपने को 'सत्संगी' और दूसरे मत-वालों को 'कुसंगी' कहते हैं। अपने सिवाय दूसरा कैसा ही उत्तम धार्मिक पुरुष हो, उसका मान्य और सेवा नहीं करते, अन्य की सेवा में पाप गिनते हैं।


प्रसिद्धि में उनके साधु स्त्री का मुख नहीं देखते, परन्तु गुप्त क्या लीला होती होगी, इसकी प्रसिद्धि सर्वत्र न्यून हुई है। कहीं-कहीं साधुओं की परस्त्रीगमन-आदि लीला प्रसिद्ध हो गई है। 


और उनमें जो बड़े-बड़े हैं, वे जब मरते हैं तब उनको गुप्त कुए में फेंक कर प्रसिद्धि करते हैं कि अमुक महाराज सदेह वैकुण्ठ में गये। सहजानन्द जी आके ले गये। हमने बहुत प्रार्थना करी कि "महाराज! इनको न ले जाइये, क्योंकि इस महात्मा का यहाँ रहना अच्छा है। सहजानन्द जी ने कहा कि "नहीं, अब इनकी वैकुण्ठ में बहुत आवश्यकता है, इसलिये ले जाते हैं।" हमने अपनी आँख से सहजानन्द जी को और विमान को देखा तथा जो मरनेवाले थे उनको विमान में बैठा दिया, ऊपर को उड़ गये, पुष्पों की वर्षा करते गये। 


और जब कोई साधु बीमार पड़ता है, बचने की आशा नहीं होती, तब कहता है कि "मैं कल रात को वैकुण्ठ में जाऊंगा।" सुना है कि उस रात में जो उसके प्राण न छूटे, मूर्च्छित हो गया हो, तो भी कुए में फेंक देते हैं, क्योंकि जो उस रात को न फेंक दें तो झूठे पड़ें, इसलिये ऐसा काम करते होंगे। ऐसे ही जब गोकुलिया गोसाँई मरता है तब उनके चेले कहते हैं कि "गोसाँई जी लीला विस्तार कर गये।" 


जो इन गोसाँई और स्वामीनारायण वालों का उपदेश करने का मन्त्र है वह एक ही है―'श्रीकृष्ण: शरणं मम'। इसका अर्थ ऐसा करते हैं―"श्रीकृष्ण मेरा शरण है, अर्थात् मैं श्रीकृष्ण के शरणागत हूँ," परन्तु इसका अर्थ 'श्रीकृष्ण मेरे शरण को प्राप्त अर्थात् मेरे शरणागत हों' ऐसा भी हो सकता है। ये सब जितने मत हैं, वे विद्याहीन होने से ऊटपटांग शास्त्रविरुद्ध वाक्यरचना करते हैं; क्योंकि उनको विद्या के नियमों की जानकारी नहीं।


प्रश्न―'माध्वमत' तो अच्छा है?


उत्तर―जैसे अन्य हैं, वैसा यह भी है, क्योंकि ये भी 'चक्रांकित' होते हैं। इनमें चक्रांकितों से इतना विशेष है कि रामानुजीय एक वार चक्रांकित होते हैं और माध्व वर्ष-वर्ष में फिर-फिर चक्रांकित होते जाते हैं। चक्रांकित कपाल में पीली रेखा और माध्व काली लगाते हैं। एक माध्व पण्डित से किसी एक महात्मा का संवाद हुआ था―


महात्मा―"तुमने यह काली रेखा और चाँदला क्यों किया?"


शास्त्री―"इसके करने से हम वैकुण्ठ को जायेंगे और श्री कृष्ण का स्वरूप भी श्याम था, इसलिये हम काला तिलक करते हैं।"


महात्मा―"जो काली रेखा और चाँदला लगाने से वैकुण्ठ में जाते हों, तो सब मुख काला कर लो, तो कहाँ जाओगे? क्या वैकुण्ठ के भी पार उतर जाओगे? और जैसा श्री कृष्ण का सब शरीर काला था, वैसा तुम भी सब शरीर काला कर लिया करो, तब श्रीकृष्ण का सादृश्य हो सकता है।"


इसलिये यह भी पूर्वों के सदृश है। 


प्रश्न―'लिंगांकित' का मत कैसा है?


उत्तर―जैसा चक्रांकित का। जैसे चक्रांकित चक्र से दागे जाते हैं और नारायण के सिवाय किसी को नहीं मानते वैसे लिंगांकित लिंगाकृति से दागे जाते हैं और सिवाय महादेव के अन्य किसी को नहीं मानते। इनमें विशेष यह है कि लिंगांकित पाषाण का एक लिंग सोने, चाँदी में मढ़वा गले में डाले रखते हैं। जब पानी भी पीते हैं तब उसको दिखलाकर पीते हैं, उनका भी मन्त्र शैवों के तुल्य रहता है।


ब्राह्मसमाज और प्रार्थनासमाज के गुण-दोष कथन―


प्रश्न―'ब्राह्मसमाज' और 'प्रार्थनासमाज' तो अच्छा है, वा नहीं? 


उत्तर―कुछ बातें अच्छी और बहुत-सी बुरी हैं। 


प्रश्न―'ब्राह्मसमाज' और 'प्रार्थनासमाज' सबसे अच्छा है, क्योंकि इसके नियम बहुत अच्छे हैं।


उत्तर―नियम सर्वांश में अच्छे नहीं, क्योंकि वेदविद्याहीन लोगों की कल्पना सर्वथा सत्य क्योंकर हो सकती है? जो कुछ ब्राह्मसमाज और प्रार्थनासमाजियों ने ईसाई मत में मिलने से थोड़े मनुष्यों को बचाया, कुछ मूर्त्तिपूजा को हटाया, अन्य जालग्रन्थों के फंद से भी कुछ बचाये, इत्यादि अच्छी बातें हैं, परन्तु―


१. इन लोगों में स्वदेशभक्ति बहुत न्यून है। ईसाइयों के आचरण बहुत-से ले लिये हैं। खानपान, विवाहादि के नियम भी बदल दिये हैं।


२. अपने देश की प्रशंसा वा पूर्वजों की बड़ाई करनी तो दूर रही, उसके स्थान पर भरपेट निन्दा करते हैं, व्याख्यानों में ईसाई आदि अंगरेजों की प्रशंसा भरपेट करते हैं। ब्रह्मादि महर्षियों का नाम भी नहीं लेते, प्रत्युत ऐसा कहते हैं कि विना अंगरेजों के सृष्टि में आज पर्यन्त कोई भी विद्वान् नहीं हुआ, आर्यावर्तीय लोग सदा से मूर्ख चले आये हैं, इनकी उन्नति कभी नहीं हुई।


३. वेदादिकों की प्रतिष्ठा तो दूर रही, परन्तु निन्दा करने से भी पृथक नहीं रहते। ब्राह्मसमाज के उद्देश्य के पुस्तक में साधुओं की संख्या में 'ईसा' 'मूसा' 'मुहम्मद' 'नानक' और 'चैतन्य' लिखे हैं, किसी ऋषि-महर्षि का नाम भी नहीं लिखा। इससे जाना जाता है कि ये लोग, जिनका नाम लिखा है, उन्हीं के मतानुसारी=मत-वाले हैं। 


भला, जब आर्यावर्त में उत्पन्न हुए हैं और आर्यावर्त देश का अन्न-जल खाया-पीया [है और] अब भी खाते-पीते हैं, अपने माता, पिता, पितामहादि के मार्ग को छोड़ दूसरे विदेशी मतों पर अधिक झुक जाना, ब्राह्मसमाजियों और प्रार्थनासमाजियों का एतद्देशस्थ संस्कृत-विद्या से रहित [होकर भी] अपने को विद्वान् प्रकाशित करना, इंगलिश भाषा पढ़के पण्डिताभिमानी होकर झटिति एक मत चलाने में प्रवृत्त होना, [यह] मनुष्यों का स्थिर और वृद्धिकारक काम क्योंकर हो सकता है? 


४. अंगरेज, यवन, अन्त्यजादि से भी खाने-पीने का भेद नहीं रक्खा। इन्होंने यही समझा होगा कि खाने-पीने और जातिभेद तोड़ने से हम और हमारा देश सुधर जायगा, परन्तु ऐसी बातों से सुधार तो कहाँ है? उलटा बिगाड़ होता है।


५. प्रश्न―जातिभेद ईश्वरकृत है, वा मनुष्यकृत?


उत्तर―ईश्वरकृत, और मनुष्यकृत भी जातिभेद है।


प्रश्न―कौन-से ईश्वरकृत और कौन-से मनुष्यकृत हैं?


उत्तर―मनुष्य, पशु, पक्षी, वृक्ष, जलजन्तु आदि जातियाँ परमेश्वरकृत हैं। जैसे पशुओं में गौ, अश्व, हस्ति आदि जातियाँ; वृक्षों में पीपल, वट, आम्र आदि; पक्षियों में हंस, काक, वकादि; जलजन्तुओं में मत्स्य, मकरादि जातिभेद ईश्वरकृत हैं; वैसे मनुष्यों में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, अन्त्यज जातिभेद [मनुष्यकृत] हैं, परन्तु मनुष्यों में ब्राह्मणादि को सामान्य जाति में नहीं किन्तु सामान्य-विशेषात्मक जाति में गिनते हैं। जैसे पूर्व वर्णाश्रमव्यवस्था में लिख आये, वैसे ही गुण, कर्म, स्वभाव से वर्णव्यवस्था माननी आवश्यक है। इसमें मनुष्यकृतत्व [अर्थात् ] उनके गुण, कर्म, स्वभाव से पूर्वोक्तानुसार ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्रादि वर्णों की परीक्षापूर्वक व्यवस्था करनी राजा और विद्वानों का काम है।


भोजनभेद ईश्वरकृत भी और मनुष्यकृत भी है। जैसे, सिंह मांसाहारी [होते हैं] और अरणा भैंसे घास आदि का आहार करते हैं, यह ईश्वरकृत; और देश-काल-वस्तु-भेद से भोजनभेद मनुष्यकृत है। 


प्रश्न―देखो, यूरोपियन लोग मुंडे जूते, कोट-पतलून पहरते, होटल में सबके हाथ का खाते हैं, इसीलिये अपनी बढ़ती करते जाते हैं। 


उत्तर―यह तुम्हारी भूल है; क्योंकि मुसलमान, अन्त्यज लोग सबके हाथ का खाते हैं, पुनः उनकी उन्नति क्यों नहीं होती? जो यूरोपियनों में बाल्यावस्था में विवाह न करना, लड़कों और लड़कियों को विद्या-सुशिक्षा करना-कराना, स्वयम्वर विवाह होना, बुरे-बुरे आदमियों का उपदेश नहीं होना है; इससे वे विद्वान् होकर जिस किसी के पाखण्ड में नहीं फसते। जो कुछ करते हैं वह सब परस्पर विचार और सभा से निश्चित करके करते हैं। स्वजाति की उन्नति के लिये तन-मन-धन व्यय करते हैं। आलस्य को छोड़ उद्योग किया करते हैं। देखो, अपने देश के बने हुए जूते को कार्यालय (=आफिस) और कचहरी में जाने देते हैं, इस देशी जूते को नहीं। इतने में ही समझ लो कि अपने देश के बने जूतों की भी कितनी प्रतिष्ठा करते हैं, उतनी अन्य-देशस्थ मनुष्यों की भी नहीं करते! देखो, सौ-वर्ष से कुछ ऊपर यूरोपियनों को आये इस देश में बीते हैं, और आज तक वे लोग मोटे कपड़े आदि पहरते हैं जैसे कि स्वदेश में पहरते हैं, उनको नहीं छोड़ा; और तुम में से बहुत से लोगों ने उनका अनुकरण कर लिया, इसी से तुम निर्बुद्धि [ठहरते हो] और वे बुद्धिमान् ठहरते हैं। अनुकरण करना बुद्धिमानों का काम नहीं। और जो जिस काम पर रहता है, उसको यथोचित करता है। आज्ञानुवर्ती बराबर रहते हैं। अपने देशवालों को व्यापार आदि में सहाय देते हैं, इत्यादि गुणों और अच्छे कर्मों से उनकी उन्नति है, मुंडे जूते, कोट, पतलून, होटल में खाने आदि साधारण और बुरे कामों से नहीं बढ़े हैं।


और इनमें जातिभेद भी है। देखो, जब कोई यूरोपियन, चाहे कितने बड़े अधिकार पर और प्रतिष्ठित हो, किसी अन्य देश [वा] अन्य मत-वालों की लड़की [यूरोपियन से] वा यूरोपियन लड़की अन्य-देशवाले से विवाह कर लेती है, तो उसी समय उसका निमन्त्रण, साथ बैठकर खाना और विवाह आदि अन्य लोग बंद कर देते हैं। यह जातिभेद नहीं तो क्या [है]? और तुम भोलों को बहकाते हैं कि हममें जातिभेद नहीं। तुम अपनी मूर्खता से मान भी लेते हो। इसलिये जो कुछ करना, वह सोच-विचारकर करना चाहिये, जिसमें पुनः पश्चात्ताप करना न पड़े।


देखो, वैद्य और औषध की आवश्यकता रोगी के लिये है, नीरोग के लिये नहीं। विद्यावान् नीरोग और विद्यारहित अविद्यारोग से ग्रस्त रहता है। उस रोग को छुड़ाने के लिये सत्यविद्या और सत्योपदेश है। उनको अविद्या से यह रोग है कि खाने-पीने में ही धर्म रहता और जाता है। जब किसी को खाने-पीने में अनाचार करता देखते हैं तब कहते और जानते हैं कि वह धर्मभ्रष्ट हो गया, उसकी बात न सुनते और न उसके पास बैठते, न उसको अपने पास बैठने देते।


अब कहिये कि तुम्हारी विद्या स्वार्थ के लिये है, अथवा परमार्थ के लिये? परमार्थ तो तभी होता कि जब तुम्हारी विद्या से अज्ञानियों को लाभ पहुँचता। जो कहो कि वे नहीं लेते, हम क्या करें? यह तुम्हारा दोष है, उनका नहीं; क्योंकि तुम जो अपना आचरण अच्छा रखते तो तुमसे प्रेम कर वे उपकृत होते, सो तुमने सहस्रों का उपकार-नाश करके अपना ही सुख किया, सो यह तुमको बड़ा अपराध लगा। क्योंकि परोपकार करना धर्म और परहानि करना अधर्म कहाता है। इसलिये विद्वानों को यथायोग्य व्यवहार करके अज्ञानियों को दुःखसागर से तारने के लिये नौकारूप होना चाहिये। मूर्खों के सदृश कर्म सर्वथा न करने चाहियें, किन्तु जिनमें उनकी और अपनी उन्नति हो, वैसे कर्म करने उचित हैं।


प्रश्न―हम कोई पुस्तक ईश्वरप्रणीत वा सर्वांश-सत्य नहीं मानते; क्योंकि मनुष्यों की बुद्धि निर्भ्रान्त नहीं होती, इससे उनके बनाये ग्रन्थ सब भ्रान्त होते हैं। इसलिये हम सबसे 'सत्य' ग्रहण करते और 'असत्य' को छोड़ देते हैं। चाहे सत्य 'वेद' में, 'बाइबल' में, 'क़ुरान' में और अन्य किसी ग्रन्थ में हो, हमको ग्राह्य है, असत्य किसी का नहीं। 


उत्तर―जिस बात से तुम सत्यग्राही होना चाहते हो, उसी बात से असत्यग्राही भी ठहरते हो; क्योंकि जब सब मनुष्य भ्रान्तिरहित नहीं हो सकते तो तुम भी मनुष्य होने से भ्रान्तिसहित हो। जब भ्रान्तिसहित का वचन सर्वांश में प्रमाण नहीं होता तो तुम्हारे वचन का प्रमाण भी नहीं होगा। फिर तुम्हारे वचन पर भी सर्वथा विश्वास न करना चाहिये। जब ऐसा है तो विषयुक्त अन्न के समान त्याग के योग्य है। फिर तुम्हारे व्याख्यान-पुस्तक बनाये का प्रमाण किसी को न करना चाहिये। 'चले तो थे चौबे जी छब्बे जी बनने को, गाँठ के दो खोकर दूबे जी बन गये।'


तुम सर्वज्ञ [भी] नहीं, जैसे कि अन्य मनुष्य सर्वज्ञ नहीं हैं। कदाचित् भ्रम से असत्य को ग्रहणकर सत्य को छोड़ भी देते होगे, इसलिये सर्वज्ञ परमात्मा के वचन का सहाय हम अल्पज्ञों को अवश्य होना चाहिये। जैसा कि वेद के व्याख्यान में लिख आये हैं, वैसा तुमको मानना चाहिये, नहीं तो "यतो भ्रष्टः, ततो भ्रष्टः" हो जाना है।


जब सर्व सत्य वेदों से प्राप्त होता है, जिनमें असत्य कुछ भी नहीं, उनका ग्रहण करने में शङ्का करनी अपनी और पराई हानिमात्र कर लेनी है। इसी बात से तुमको आर्यावर्तीय लोग अपने नहीं समझते और तुम आर्यावर्त की उन्नति के कारण भी नहीं हो सके; क्योंकि तुम ‘सब घर के भिक्षुक' ठहरे हो। तुमने समझा है कि इस बात से हम लोग अपना और पराया उपकार कर सकेंगे, सो न कर सकोगे। जैसे, किसी के दो ही माता-पिता सब संसार के लड़कों का पालन करने लगें, [तो] सबका पालन करना तो असम्भव है किन्तु उस बात से अपने लड़कों को भी नष्ट कर बैठे; वैसे ही आप लोगों की गति है।


भला, वेदादिक को माने विना तुम अपने वचनों की सत्यता-असत्यता की परीक्षा और आर्यावर्त की उन्नति भी कभी कर सकते हो? जिस देश को रोग हुआ है, उसकी औषधि तुम्हारे पास नहीं। और यूरोपियन लोग तुम्हारी अपेक्षा नहीं करते और आर्य लोग तुमको अन्य-मतियों के सदृश समझते हैं। अब भी समझकर वेदादि के मान्य से देशोन्नति करने लगो तो भी अच्छा है।


जो तुम यह कहते हो कि सब सत्य परमेश्वर से प्रकाशित होता है, पुनः ऋषियों के आत्माओं में ईश्वर से प्रकाशित हुए सत्यार्थ-वेदों को क्यों नहीं मानते? हाँ, यही कारण है कि तुम लोग वेद नहीं पढ़े और न पढ़ने की इच्छा करते हो; क्योंकर तुमको वेदोक्त ज्ञान हो सकेगा?


६. दूसरा, जगत् के उपादान कारण के विना जगत् की उत्पत्ति, और जीव को भी उत्पन्न मानते हो; जैसे ईसाई और मुसलमान आदि मानते हैं। इसका उत्तर सृष्ट्युत्पत्ति और जीव-ईश्वर की व्याख्या में देख लीजिये। कारण के विना कार्य का होना सर्वथा असम्भव और उत्पन्न वस्तु का नाश न होना भी वैसे ही असम्भव है। 


७. एक यह भी तुम्हारा दोष है कि जो पश्चात्ताप और प्रार्थना से पापों की निवृत्ति मानते हो। इसी बात से जगत् में बहुत-से पाप बढ़ गये हैं। क्योंकि पुराणी लोग तीर्थादि यात्रा से; जैनी लोग भी नवकार मन्त्र, जप और तीर्थादि से; ईसाई लोग ईसा के विश्वास से; मुसलमान लोग 'तौबा' करने से पाप का छूट जाना विना भोग के मानते हैं। इससे पापों से भय न होकर पाप में प्रवृत्ति बहुत हो गई है। इस बात में ब्राह्मसमाजी और प्रार्थनासमाजी भी पुराणी आदि के समान हैं। जो वेदों को मानते तो विना भोग के पाप-पुण्य की निवृत्ति न होने से पापों से डरते और धर्म में सदा प्रवृत्त रहते। जो भोग के विना निवृत्ति मानें तो ईश्वर अन्यायकारी होता है।


८. जो तुम जीव की अनन्त उन्नति मानते हो, सो कभी नहीं हो सकती, क्योंकि ससीम जीव के गुण-कर्म-स्वभाव का फल भी ससीम होना आवश्यक है।


प्रश्न―परमेश्वर दयालु है, ससीम कर्मों का फल अनन्त दे देगा।


उत्तर―ऐसा करे तो परमेश्वर का न्याय नष्ट हो जाय, और सत्कर्मों की उन्नति भी कोई न करेगा, क्योंकि थोड़े-से भी सत्कर्मों का अनन्त फल परमेश्वर दे देगा! और पश्चात्ताप वा प्रार्थना से पाप चाहे जितने हों, छूट जायेंगे; ऐसी बातों से धर्म की हानि और पाप-कर्मों की वृद्धि होती है।


प्रश्न―हम ‘स्वाभाविक' ज्ञान को वेद से भी बड़ा मानते हैं, 'नैमित्तिक' को नहीं, क्योंकि जो स्वाभाविक ज्ञान परमेश्वरदत्त हममें न होता तो वेदों को भी कैसे पढ़-पढ़ा, समझ-समझा सकते [थे]; इसलिये हम लोगों का मत बहुत अच्छा है। 


उत्तर―यह तुम्हारी बात निरर्थक है; क्योंकि जो किसी का दिया हुआ ज्ञान होता है, वह स्वाभाविक नहीं होता। जो स्वाभाविक है, वह 'सहज ज्ञान' होता है और न वह बढ़-घट सकता, उससे उन्नति कोई भी नहीं कर सकता; क्योंकि जंगली मनुष्यों में भी स्वाभाविक ज्ञान है, तो भी वे अपनी उन्नति नहीं कर सकते, और जो नैमित्तिक ज्ञान है, वही उन्नति का कारण है। देखो, तुम-हम बाल्यावस्था में कर्त्तव्याकर्त्तव्य

और धर्माधर्म कुछ भी ठीक-ठीक नहीं जानते थे। जब हम विद्वानों से पढ़े, तभी कर्त्तव्याकर्त्तव्य और धर्माधर्म को समझने लगे। इसलिये स्वाभाविक ज्ञान को सर्वोपरि मानना ठीक नहीं। 


९. जो आप लोगों ने पूर्व और पुनर्जन्म नहीं माना है, वह ईसाई-मुसलमानों से लिया होगा। इसका भी उत्तर पुनर्जन्म की व्याख्या से समझ लेना। परन्तु इतना समझो कि जीव शाश्वत अर्थात् नित्य है और उसके कर्म भी प्रवाहरूप से नित्य हैं। कर्म और कर्मवान् का नित्य सम्बन्ध होता है। क्या वह जीव कहीं निकम्मा बैठा रहा था वा रहेगा? और परमेश्वर भी 'निकम्मा' तुम्हारे कहने से होता है। पूर्वापर जन्म न मानने से 'कृतहानि' और 'अकृताभ्यागम' 'नैर्घृण्य' और 'वैषम्य' दोष भी ईश्वर में आते हैं―[प्रथम]―क्योंकि जन्म न हो तो पाप-पुण्य के फल-भोग की हानि हो जाये। क्योंकि जिस प्रकार दूसरे को सुख-दुःख, हानि-लाभ पहुँचाया होता है, वैसा उसका फल विना शरीर धारण किये नहीं होता। दूसरा―पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के विना दु:ख-सुख की प्राप्ति इस जन्म में क्योंकर होवे? [तीसरा]―जो पूर्वजन्म के पाप-पुण्यानुसार न होवे तो परमेश्वर अन्यायकारी और [चौथा]―'विना भोग किये नाश' के समान कर्म का फल हो जावे। इसलिये यह भी बात आप लोगों की अच्छी नहीं।


१०. और एक यह कि ईश्वर के अतिरिक्त दिव्यगुणवाले पदार्थों और विद्वानों को भी 'देव' न मानना, ठीक नहीं; क्योंकि परमेश्वर महादेव है, और जो देव न होते तो सब देवों का स्वामी होने से 'महादेव' क्योंकर कहाता?


११. एक, अग्निहोत्रादि परोपकारक कर्मों को कर्त्तव्य न समझना अच्छा नहीं।


१२. ऋषि-महर्षियों के किये उपकारों को न मानकर ईसा आदि के पीछे झुक पड़ना, अच्छा नहीं। 


१३. और कारण विद्या [रूप] वेदों के विना अन्य कार्य विद्याओं की प्रवृत्ति मानना सर्वथा असम्भव

है।


१४. और जो विद्या के चिह्न 'यज्ञोपवीत' और 'शिखा' को छोड़ मुसलमानों-ईसाइयों के सदृश बन बैठना व्यर्थ है। जब पतलून आदि वस्त्र पहरते हो और 'तमगों' की इच्छा करते हो, तो क्या यज्ञोपवीत आदि का कुछ बड़ा भार हो गया था?


१५. और ब्रह्मा से लेकर पीछे-पीछे आर्यावर्त में बहुत से विद्वान् हो गये हैं; उनकी प्रशंसा न करके यूरोपियनों की ही स्तुति में उतर पड़ना, पक्षपात और खुशामद के विना क्या कहा जाय?


१६. और बीजाङ्कुर के समान जड़-चेतन के योग से जीवोत्पत्ति मानना, उत्पत्ति के पूर्व जीवतत्त्व का न मानना और उत्पन्न का नाश न मानना, पूर्वापर-विरुद्ध है। जो उत्पत्ति के पूर्व चेतन और जड़ वस्तु न था तो जीव कहाँ से आये? और संयोग किनका हुआ? जो इन दोनों को सनातन मानते हो तो ठीक है, परन्तु सृष्टि के पूर्व ईश्वर के विना दूसरे किसी तत्त्व को न मानना, यह आपका पक्ष व्यर्थ हो जायगा।


इसलिये जो उन्नति करना चाहो तो 'आर्यसमाज' के साथ मिलकर उसके उद्देश्यानुसार आचरण करना स्वीकार कीजिये, नहीं तो कुछ हाथ न लगेगा। क्योंकि हम और आपको अति उचित है कि जिस देश के पदार्थों से अपना शरीर बना, अब भी पालन होता है, आगे होगा, उसकी उन्नति तन-मन-धन से सब जने मिलकर प्रीति से करें। इसलिये जैसा आर्यसमाज आर्यावर्त देश की उन्नति का कारण है, वैसा दूसरा नहीं हो सकता। यदि इस समाज को यथावत् उन्नति देवें तो बहुत अच्छी बात है; क्योंकि समाज का सौभाग्य बढ़ाना 'समुदाय' का काम है, [किसी] 'एक' का नहीं।


प्रश्न―आप सबका खण्डन करते ही आते हो, परन्तु अपने-अपने धर्म में सब अच्छे हैं, खण्डन किसी का न करना चाहिये; और जो करते हो तो आप इनसे विशेष क्या बतलाते हो? जो बतलाते हो तो क्या 'आप से अधिक वा तुल्य कोई पुरुष न था, और न है, ऐसा अभिमान करना आपको उचित नहीं। क्योंकि परमात्मा की सृष्टि में एक, एक से अधिक, तुल्य और न्यून बहुत हैं; किसी को घमण्ड करना उचित नहीं। 


उत्तर―धर्म एक होता है वा अनेक? जो कहो अनेक होते हैं, तो एक-दूसरे से विरुद्ध होते हैं वा अविरुद्ध? जो कहो विरुद्ध होते हैं तो एक के विना दूसरा धर्म नहीं हो सकता, और जो कहो अविरुद्ध हैं तो पृथक्-पृथक् होना व्यर्थ है। इसलिये धर्म और अधर्म एक [-एक] ही हैं, अनेक नहीं; यही हम विशेष कहते हैं। 


जैसे, सब सम्प्रदायों के उपदेशकों को कोई राजा इकट्ठा करे तो एक सहस्र से कम नहीं होंगे, परन्तु इनका मुख्य भाग देखो तो पुराणी, किरानी, जैनी और कुरानी चार ही हैं; क्योंकि इन चारों में सब सम्प्रदाय आ जाते हैं। कोई राजा उनकी सभा करके [अथवा] कोई जिज्ञासु होकर प्रथम वाममार्गी से पूछे―“हे महाराज! मैंने आज तक न कोई गुरु और न किसी धर्म का ग्रहण किया है। कहिये, सब धर्मों में से उत्तम धर्म किसका है, जिसको मैं ग्रहण करूं?"


वाममार्गी―हमारा है।


जिज्ञासु―ये नौ-सौ निन्न्यानवे कैसे हैं?


वाममार्गी―सब झूठे और नरकगामी हैं, क्योंकि 'कौलात्परतरं नहि' [कुलार्णव तन्त्र २।८] इस वचन के प्रमाण से हमारे धर्म से परे कोई धर्म नहीं है।


जिज्ञासु―आपका धर्म क्या है?


वाममार्गी―भगवती का मानना, मद्य-मांसादि पञ्च मकारों का सेवन, 'रुद्रयामल' आदि चौंसठ तन्त्रों का मानना इत्यादि। जो तू मुक्ति की इच्छा करता है तो हमारा चेला हो जा।


जिज्ञासु―अच्छा, मैं औरों का भी दर्शन कर और पूछ आऊँ। पश्चात् जिसमें मेरी श्रद्धा और प्रीति होगी उसका चेला हो जाऊँगा।


वाममार्गी―अरे! क्यों भ्रान्ति में पड़ा है। ये लोग तुझको बहकाकर अपने जाल में फसा देंगे। किसी के पास मत जा, हमारे ही शरणागत हो जा, नहीं तो पछतावेगा। देख, हमारे मत में भोग और मोक्ष दोनों हैं।


जिज्ञासु―अच्छा, देख तो आऊँ।


आगे चलकर शैव के पास जाकर पूछा। उसने भी ऐसा ही उत्तर दिया। इतना विशेष कहा कि "विना शिव, रुद्राक्ष-भस्म-धारण और लिङ्गार्चन के मुक्ति कभी नहीं होती।"


वह उसको छोड़ नवीन वेदान्तियों के पास गया। 


जिज्ञासु―कहो महाराज! आपका धर्म क्या है?


वेदान्ती―हम धर्माधर्म कुछ भी नहीं मानते, हम साक्षात् ब्रह्म हैं, हममें धर्म-अधर्म कहाँ हैं? यह जगत् सब मिथ्या है। और जो ज्ञानी, शुद्ध-चेतन हुआ चाहे तो तू भी अपने को ब्रह्म मान, जीव-भाव को छोड़, नित्यमुक्त हो जायगा।


जिज्ञासु―जो तुम ब्रह्म नित्यमुक्त हो तो ब्रह्म के गुण-कर्म-स्वभाव तुममें क्यों नहीं? और शरीर में क्यों बंधे हो?


वेदान्ती―तुझको शरीर दीखता है, इसी से तू भ्रान्त है; हमको कुछ नहीं दीखता सिवाय ब्रह्म के। 


जिज्ञासु―तुम देखनेवाले कौन, और किसको देखते हो?


वेदान्ती―देखनेवाला ब्रह्म, और ब्रह्म को ब्रह्म देखता है।


जिज्ञासु―क्या दो ब्रह्म हैं? 


वेदान्ती―नहीं, अपने आपको देखता है।


जिज्ञासु―क्या कोई अपने कँधे पर आप चढ़ सकता है? तुम्हारी बात कुछ नहीं, यह पागलपन की बात है। 


उसने आगे चलकर जैनियों से पूछा। उन्होंने भी वैसा ही कहा। इतना विशेष कहा कि "जिनधर्म के विना सब धर्म खोटे हैं, जगत् का कर्त्ता अनादि ईश्वर कोई नहीं, जगत् अनादि काल से जैसा का वैसा बना है और बना रहेगा। आ, तू हमारा चेला हो जा, क्योंकि हम 'सम्यक्त्वी' अर्थात् सब प्रकार से अच्छे हैं, उत्तम बातों को मानते हैं, जैनमार्ग से भिन्न सब मिथ्यात्वी हैं।"


आगे चलके ईसाई से पूछा। उसने वाममार्गी के तुल्य सब जवाब-सवाल किये। इतना विशेष बतलाया―"सब मनुष्य पापी हैं, अपने सामर्थ्य से पाप नहीं छूटता। विना ईसा पर विश्वास के पवित्र होकर मुक्ति को नहीं पा सकता। ईसा ने सबके प्रायश्चित्त के लिये अपने प्राण देकर दया प्रकाशित की है। तू हमारा ही चेला हो जा।"


जिज्ञासु सुनकर मौलवी साहब के पास गया। उनसे भी ऐसे ही जवाब-सवाल हुए। [मौलवी ने] इतना विशेष कहा―"लाशरीक ख़ुदा, उसके पैग़म्बर और 'कुरान शरीफ़' को विना माने कोई निजात नहीं पा सकता। जो इस मज़हब को नहीं मानता, वह दोज़ख़ी और काफ़िर है, वाजिबुलक़त्ल है।" 


जिज्ञासु सुनकर वैष्णव के पास गया। वैसे ही संवाद हुआ। उसने इतना विशेष कहा कि "हमारे तिलक-छापे देखकर यमराज डर जाता है।" जिज्ञासु ने मन में समझा कि जब मच्छर, मक्खी, पुलिस के सिपाही, चोर, डाकू और शत्रु नहीं डरते तो यमराज के गण क्यों डरेंगे?


फिर आगे चला तो सब मत-वालों ने अपने-अपने को सच्चा कहा। कोई हमारा कबीर सच्चा, कोई नानक, कोई दादू, कोई वल्लभ, कोई सहजानन्द, कोई मध्व आदि को बड़ा और अवतार बतलाते सुना। सहस्र से पूछ, उनके परस्पर-विरोध देख, विशेष निश्चय किया कि इनमें कोई गुरु करने योग्य नहीं; क्योंकि एक-एक की झूठ में नौ-सौ निन्न्यानवे गवाह हो गये। जैसे झूठे दुकानदार वा वेश्या और भड़ुआ आदि अपने-अपने वस्तु की बड़ाई, दूसरे की बुराई करते हैं, वैसे ही ये हैं; ऐसा जान।


तद्विज्ञानार्थं स गुरुमेवाभिगच्छेत् समित्पाणिः श्रोत्रियं ब्रह्मनिष्ठम्॥१॥ 

तस्मै स विद्वानुपसन्नाय सम्यक् प्रशान्तचित्ताय शमान्विताय।

येनाक्षरं पुरुषं वेद सत्यं प्रोवाच तां तत्त्वतो ब्रह्मविद्याम्॥२॥            

मुण्डक [उप० १।२।१२-१३]


उस सत्य के विज्ञानार्थ वह 'समित्पाणि' अर्थात् हाथ जोड़, अरिक्तहस्त होकर, परमात्मा को जाननेहारे ब्रह्मनिष्ठ वेदवित् गुरु के पास जावे। इन पाखण्डियों के जाल में न गिरे॥१॥


जब ऐसा जिज्ञासु विद्वान् के पास आये, उस शान्तचित्त, जितेन्द्रिय, समीप-प्राप्त जिज्ञासु को यथार्थ ब्रह्मविद्या=परमात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव का उपदेश करे और जिस-जिस साधन से वह श्रोता धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष और परमात्मा को जान सके, वैसी शिक्षा किया करे॥२॥


जब वह ऐसे पुरुष के पास जाकर बोला कि 'महाराज! अब इन सम्प्रदायों के बखेड़ों से मेरा चित्त भ्रान्त हो गया, क्योंकि जो मैं इनमें से किसी एक का चेला होऊँगा तो नौ-सौ निन्यानवे से विरोधी होना पड़ेगा। जिसके नौ-सौ निन्न्यानवे शत्रु और एक मित्र है, उसको सुख कभी नहीं हो सकता। इसलिये आप मुझको उपदेश कीजिये, जिसको मैं ग्रहण करूं।


आप्तविद्वान्―ये सब मत अविद्याजन्य [और] विद्याविरोधी हैं। मूर्ख, पामर और जंगली मनुष्यों को बहकाकर अपने जाल में फसाके अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं। वे बेचारे अपने मनुष्यजन्म के फल से रहित होकर अपना मनुष्यजन्म व्यर्थ गमाते हैं। देख, जिस बात में ये सहस्र एकमत हों, वह वेदमत ग्राह्य है और जिसमें परस्परविरोध हो, वह कल्पित, झूठा अधर्म अग्राह्य है।


जिज्ञासु―इसकी परीक्षा कैसे हो?


आप्त―तू जाकर इन-इन बातों को पूछ। सबकी एक सम्मति हो जायगी। 


तब वह उन सहस्र की मण्डली के बीच में खड़ा होकर बोला कि “सुनो सब लोगो! सत्यभाषण में धर्म है वा मिथ्या में?"


सब एकस्वर होकर बोले कि "सत्यभाषण में धर्म और मिथ्याभाषण में अधर्म है।"


"वैसे ही विद्या पढ़ने, ब्रह्मचर्य करने, पूर्ण युवावस्था में विवाह, सत्सङ्ग, पुरुषार्थ, सत्य व्यवहार आदि में धर्म है अथवा अविद्या-ग्रहण, ब्रह्मचर्य न करने, व्यभिचार करने, कुसङ्ग, आलस्य, असत्य व्यवहार, छल, कपट, हिंसा, परहानि करने आदि कर्मों में?"


सबने एकमत होके कहा कि “विद्यादि के ग्रहण में धर्म और अविद्यादि के ग्रहण में अधर्म [है]।"


तब जिज्ञासु ने सबसे कहा कि तुम इसी प्रकार सब जने एकमत हो सत्यधर्म की उन्नति और मिथ्यामार्ग की हानि क्यों नहीं करते हो? 


वे सब बोले―"जो हम ऐसा करें तो हमको कौन पूछे? हमारे चेले हमारी आज्ञा में न रहें, जीविका नष्ट हो जाय, फिर जो हम आनन्द कर रहे हैं, सो सब हाथ से जाय। इसलिये हम जानते हैं तो भी अपने-अपने मत का उपदेश और आग्रह करते ही जाते हैं। क्योंकि 'रोटी खाइये शक्कर से और दुनिया ठगिये मक्कर से' ऐसी बात है। देखो, संसार में सूधे-सच्चे मनुष्य को कोई नहीं पूछता। जो कुछ ढोंग, धूर्त्तता करता है, वही पदार्थ पाता है।"


जिज्ञासु―जो तुम ऐसा पाखण्ड चलाकर अन्य मनुष्यों को ठगते हो, तुमको राजा दण्ड क्यों नहीं देता?


मत-वाले―हमने राजा को भी अपना चेला बना लिया है। हमने पक्का प्रबन्ध किया है, छूटेगा नहीं।


जिज्ञासु―जब तुम छल से अन्य मनुष्यों को ठग, उनकी हानि करते हो, परमेश्वर के सामने क्या उत्तर दोगे? और घोर नरक में पड़ोगे। थोड़े जीवन के लिये इतना बड़ा अपराध करना क्यों नहीं छोड़ते?


मत-वाले―देखा जायगा, नरक और परमेश्वर का दण्ड जब होगा तब होगा; अब तो आनन्द करते हैं। लोग हमको प्रसन्नता से धन देते हैं, बलात्कार से नहीं लेते; फिर राजा दण्ड क्यों देवे? 


जिज्ञासु―जैसे कोई छोटे बालक को फुसलाके धनादि पदार्थ हर लेता है, जैसे उसको दण्ड मिलता है, वैसे तुमको क्यों नहीं मिलता? क्योंकि―


अज्ञो भवति वै बाल: पिता भवति मन्त्रदः॥


मनुस्मृति [२।१५३] 


जो ज्ञानरहित होता है, वह 'बालक' और जो ज्ञान का देनेवाला है, वह 'पिता' और 'वृद्ध' कहाता है। जो बुद्धिमान् विद्वान् है, वह तो तुम्हारी बातों में नहीं फसता, किन्तु अज्ञानी जो बालक के सदृश हैं, उनको ठगने में तुमको राजदण्ड अवश्य होना चाहिये। 


मत-वाले―जब राजा-प्रजा सब हमारे मत में हैं, तो हमको दण्ड कौन देनेवाला है? जब ऐसी व्यवस्था होगी तब इन बातों को छोड़कर दूसरी व्यवस्था करेंगे।


जिज्ञासु―जो तुम बैठे-बैठे व्यर्थ माल मारते हो, जो विद्याभ्यास कर  गृहस्थों के लड़के-लड़कियों को पढ़ाओ तो तुम्हारा और गृहस्थों का कल्याण हो जाय।


मत-वाले―जो हम बाल्यावस्था से लेकर मरण तक के सुखों को छोड़ें, बाल्यावस्था से युवावस्था तक विद्या पढ़ने में, पश्चात् पढ़ाने में और उपदेश करने में जन्मभर परिश्रम करें, हमको क्या प्रयोजन? हमको ऐसे ही लाखों रुपये मिलते हैं, चैन उड़ाते हैं, उसको क्यों छोड़ें?


जिज्ञासु―इसका परिणाम तो बुरा है। देखो, तुमको बड़े रोग होते हैं, शीघ्र मर जाते हो, बुद्धिमानों में निन्दित होते हो, फिर भी क्यों नहीं समझते?


मत-वाले―अरे भाई! 


टका धर्मष्टका कर्म टका हि परमं पदम्। 

यस्य गृहे टका नास्ति हा! टकां टकटकायते॥१॥

आना अंशकलाः प्रोक्ता रूप्योऽसौ भगवान् स्वयम्। 

अतस्तं सर्व इच्छन्ति रूप्यं हि गुणवत्तमम्॥२॥


तू लड़का है, संसार की बातें नहीं जानता। देख, टका के विना धर्म, टका के विना कर्म, टका के विना परमपद नहीं होता। जिसके घर में टका नहीं है, वह 'हाय, टका-टका' करता-करता, उत्तम पदार्थों को टक-टक देखता रहता है कि हाय! मेरे पास टका होता तो इस उत्तम पदार्थ को मैं भोगता॥१॥


क्योंकि सब कोई सोलह कलायुक्त अदृश्य भगवान् का कथन-श्रवण करते हैं, सो तो नहीं दीखता, परन्तु सोलह आने और पैसे-कौड़ी-रूप अंश-कलायुक्त जो रुपया है, वही साक्षात् भगवान् है। इसीलिये सब कोई रुपयों की खोज में लगे हैं, क्योंकि सब काम रुपयों से सिद्ध होते हैं॥२॥ 


जिज्ञासु―ठीक है, तुम्हारी भीतर की लीला बाहर आ गई। तुमने जितना यह पाखण्ड खड़ा किया है, वह सब अपने सुख के लिये किया है, परन्तु इससे जगत् का नाश होता है; क्योंकि जैसे सत्योपदेश से संसार को लाभ पहुँचता है, वैसे ही असत्योपदेश से हानि होती है। जब तुमको धन का ही प्रयोजन था तो नौकरी, व्यापार आदि करके धन क्यों नहीं कमाते?


मत-वाले―उसमें परिश्रम अधिक [होता है] और हानि भी होती है, परन्तु इसमें हानि कभी नहीं होती लाभ ही लाभ होता है। देखो, तुलसी-दल डालके चरणामृत देकर कंठी बांध देते हैं, इस प्रकार चेला मूंडने से वह जन्मभर के लिए पशुवत् हो जाता है, फिर चाहें जैसे चलावें, वैसे ही चलता है।


जिज्ञासु―ये लोग तुमको बहुत-सा धन किसलिये देते हैं?


मत-वाले―धर्म, स्वर्ग और मुक्ति के अर्थ।


जिज्ञासु―जब तुम ही मुक्त नहीं, न मुक्ति का स्वरूप वा साधन जानते हो, तो तुम्हारी सेवा करनेवालों को क्या मिलेगा? 


मत-वाले―क्या इस लोक में मिलता है? नहीं, किन्तु परलोक में मिलता है। जितना हमको ये लोग देते वा सेवा करते हैं, वह सब परलोक में इन लोगों को मिल जाता है। 


जिज्ञासु―इनको तो दिया हुआ मिल जाता है वा नहीं [किन्तु] तुम लेनेवालों को क्या मिलेगा, नरक वा अन्य कुछ?

 

मत-वाले―हम भजन करते हैं, इसका सुख हमको मिलेगा।


जिज्ञासु―तुम्हारा भजन तो 'टका' के ही लिये है। वे सब टके यहीं पड़े रहेंगे, जिस मांसपिण्ड को यहाँ पालते हो, वह भस्म हो जायगा। जो तुम परमेश्वर का भजन करते होते तो तुम्हारा आत्मा भी पवित्र होता।


मत-वाले―क्या हम अशुद्ध हैं? 


जिज्ञासु―भीतर के बड़े मैले हो। 


मत-वाले―तुमने कैसे जाना?


जिज्ञासु―तुम्हारे चाल-चलन और व्यवहार से।


मत-वाले―महात्माओं का व्यवहार हाथी के दाँत के तुल्य होता है। जैसे हाथी के दाँत खाने के भिन्न, दिखलाने के पृथक् होते हैं, वैसे ही भीतर से हम पवित्र हैं और बाहर से लीलामात्र करते हैं।


जिज्ञासु―जो तुम भीतर से शुद्ध होते तो तुम्हारे बाहर के काम भी शुद्ध होते, इसलिये भीतर भी मैले हो।


मत-वाले―हम चाहे जैसे हों परन्तु हमारे चेले तो अच्छे हैं।


जिज्ञासु―जैसे तुम गुरु हो, वैसे तुम्हारे चेले भी होंगे।


मत-वाले―एक मत कभी नहीं हो सकता, क्योंकि मनुष्य के गुण-कर्म-स्वभाव भिन्न-भिन्न हैं।


जिज्ञासु―जो बाल्यावस्था में एक-सी शिक्षा हो, सत्यभाषणादि धर्म का ग्रहण और मिथ्याभाषणादि अधर्म का त्याग करें, तो एक मत अवश्य हो जाय। और दो मत अर्थात् धर्मात्मा और अधर्मात्मा सदा रहते हैं, वे तो रहें, परन्तु धर्मात्मा अधिक होने और अधर्मी न्यून होने से संसार में सुख बढ़ता है और जब अधर्मी अधिक होते हैं तब दुःख। जब सब विद्वान् एक-सा उपदेश करें तो एक मत होने में कुछ भी विलम्ब न हो।


मत-वाले―आजकल 'कलियुग' है, 'सत्य-युग' की बात मत चाहो।


जिज्ञासु―'कलियुग' नाम काल का है। काल निष्क्रिय होने से धर्माधर्म के करने में कुछ साधक-बाधक नहीं; किन्तु तुम ही कलियुग की मूर्त्तियाँ बन रहे हो। जो मनुष्य ही 'सत्ययुग'-'कलियुग' न हों तो कोई भी संसार में धर्मात्मा-[अधर्मात्मा] न होता। ये सब सङ्ग के गुण-दोष हैं, स्वाभाविक नहीं। 


इतना कहकर आप्त के पास गया। उनसे कहा कि 'महाराज ! तुमने मेरा उद्धार किया, नहीं तो मैं भी किसी के जाल में फसकर नष्ट हो जाता। अब मैं भी इन पाखण्डियों का खण्डन और वेदोक्त सत्य-मत का मण्डन किया करूँगा।' 


आप्त―यही सब मनुष्यों का, विशेषतः विद्वानों और संन्यासियों का काम है कि सब मनुष्यों को सत्य का मण्डन और असत्य का खण्डन पढ़ा-सुनाके सत्योपदेश से उपकार पहुँचाना चाहिये।


प्रश्न―ब्रह्मचारी, संन्यासी तो ठीक हैं?


उत्तर―ये आश्रम तो ठीक हैं, परन्तु आजकल इनमें भी बहुत-सी गड़बड़ है। कितने ही नाम 'ब्रह्मचारी' रखते, जटा बढ़ाकर झूठ-मूठ सिद्धाई करते, जप-पुरश्चरण आदि में फसे रहते, विद्या पढ़ने का नाम नहीं लेते कि जिस हेतु से 'ब्रह्मचारी' नाम होता है, उस 'ब्रह्म' अर्थात् वेद पढ़ने में परिश्रम कुछ भी नहीं करते। वे ब्रह्मचारी बकरी के गले के स्तन के सदृश निरर्थक हैं। और जो वैसे संन्यासी विद्याहीन, दण्ड-कमण्डलु ले, भिक्षा करते-फिरते हैं, जो कुछ भी वेदमार्ग की उन्नति नहीं करते, छोटी अवस्था में संन्यास लेकर घूमा करते, विद्याभ्यास को छोड़ देते हैं, ऐसे ब्रह्मचारी और संन्यासी इधर-उधर जल, स्थल, पाषाणादि मूर्त्तियों का दर्शन-पूजन करते-फिरते, विद्या जानकर भी मौन हो रहते, एकान्त देश में यथेष्ट खा-पीकर सोते पड़े रहते, ईर्ष्या-द्वेष में फसकर निन्दा-कुचेष्टा करके निर्वाह करते, काषाय वस्त्र और दण्ड-ग्रहणमात्र से अपने को कृतकृत्य समझते, अपने को सर्वोत्कृष्ट जान उत्तम काम नहीं करते, वैसे 'संन्यासी' भी जगत् में व्यर्थ वास करते हैं; और जो सब जगत् का हित साधते हैं, वे ठीक हैं।


प्रश्न―गिरि, पुरी, आदि गोसाँई लोग तो अच्छे हैं, क्योंकि मण्डलियाँ बाँधकर इधर-उधर घूमते हैं, सैकड़ों साधुओं को आनन्द कराते हैं, सर्वत्र अद्वैत मत का उपदेश करते हैं, और कुछ पढ़ते-पढ़ाते भी हैं, इसलिये वे अच्छे होंगे। 


उत्तर―ये सब दश नाम पीछे से कल्पित किये हैं, सनातन नहीं। उनकी मण्डलियाँ भोजनार्थ हैं। बहुत से साधु भोजन के ही लिये मण्डलियों में रहते हैं। दम्भी भी हैं, क्योंकि एक को महन्त बना [उसी को प्रणाम करते हैं], सायंकाल में एक महन्त जो कि उनमें प्रधान होता है, वह गद्दी पर बैठ जाता है। सब ब्राह्मण और साधु खड़े होकर हाथ में पुष्प ले―


नारायणं पद्मभवं वसिष्ठं शक्तिं च तत्पुत्रपराशरं च।

व्यासं शुकं गौडपदं महान्तम्..........................॥


[पुष्पाञ्जलि] 


इत्यादि श्लोक पढ़के 'हर-हर' बोल, उनके ऊपर पुष्पवर्षा कर साष्टांग नमस्कार करते हैं। जो कोई ऐसा न करे, उसका वहाँ रहना कठिन है। यह दम्भ संसार को दिखलाने के लिये करते हैं, जिससे जगत् में प्रतिष्ठा होकर माल मिले।


कितने ही मठधारी गृहस्थ होकर भी संन्यास का अभिमान मात्र करते हैं, कर्म कुछ नहीं। संन्यासी का वही कर्म है, जो पाँचवें समुल्लास में लिख आये। उसको न करके व्यर्थ समय खोते हैं। जो कोई अच्छा उपदेश करे, उसके भी विरोधी होते हैं। बहुधा ये लोग भस्म, रुद्राक्ष धारण करते और कोई-कोई शैव तथा वैष्णव आदि सम्प्रदाय का अभिमान रखते हैं। और जब कभी शास्त्रार्थ करते हैं तो अपने मत अर्थात् शंकराचार्योक्त का स्थापन और चक्रांकित आदि के खण्डन में प्रवृत्त रहते हैं। वेदमार्ग की उन्नति और यावत्पाखण्ड मार्ग हैं तावत् के खण्डन में प्रवृत्त नहीं होते। ये संन्यासी लोग ऐसा समझते हैं कि हमको खण्डन-मण्डन से क्या प्रयोजन? हम तो महात्मा हैं। ऐसे लोग भी संसार में भाररूप हैं।


जब ऐसे हैं, तभी तो वेदमार्गविरोधी वाममार्गादि सम्प्रदायी, ईसाई, मुसलमान, जैनी आदि बढ़ गये, और अब भी बढ़ते जाते हैं और इनका नाश होता जाता है तो भी इनकी आँख नहीं खुलती। खुले कहाँ से? जो कुछ उनके मन में परोपकार-बुद्धि और कर्त्तव्यकर्म करने में उत्साह होवे, किन्तु ये लोग अपनी प्रतिष्ठा खाने-पीने के सामने अन्य अधिक कुछ भी नहीं समझते और संसार की निन्दा से बहुत डरते हैं। पुनः लोकैषणा=अर्थात् लोक में प्रतिष्ठा, वित्तैषणा=धन बढ़ाने में तत्पर होकर विषयभोग, पुत्रैषणा=पुत्रवत् शिष्यों पर मोहित होना, इन तीन एषणाओं का त्याग करना उचित है। जब एषणा ही नहीं छूटी, पुनः संन्यास क्योंकर हो सकता है? अर्थात् पक्षपातरहित वेदमार्गोपदेश से जगत् के कल्याण करने में अहर्निश प्रवृत्त रहना संन्यासियों का मुख्य काम है। संन्यासी भी हुए, किन्तु जब अपने-अपने अधिकार के कर्मों को नहीं करते, पुनः संन्यासी आदि नाम धराना व्यर्थ है। नहीं तो जैसे गृहस्थ व्यवहार और स्वार्थ में परिश्रम करते हैं उनसे अधिक परिश्रमपूर्वक परोपकार करने में संन्यासी तत्पर रहैं, तभी सब आश्रम उन्नति पर रहैं। 


देखो, तुम्हारे सामने पाखण्ड-मत बढ़ते जाते हैं। ईसाई, मुसलमान तक हो रहे हैं। तनिक भी तुमसे अपने घर की रक्षा और दूसरों को मिलाना नहीं बन सकता। बने तो तब, जब तुम करना चाहो! जब तक वर्तमान और भविष्यत् में संन्यासी उन्नतिशील नहीं होते, तब तक आर्यावर्त और अन्य-देशस्थ मनुष्यों की वृद्धि नहीं होती। जब वृद्धि के कारण वेदादि शास्त्रों का पठनपाठन, ब्रह्मचर्यादि आश्रमों के यथावत् अनुष्ठान, सत्योपदेश होते हैं, तभी देशोन्नति होती है।


चेत रक्खो! बहुत-सी पाखण्ड की बातें तुमको सचमुच दीख पड़ती हैं। जैसे कोई साधु दुकानदार पुत्र देने की सिद्धि बतलाता है तब उसके पास बहुत स्त्रियां जाती हैं, सब पुत्र माँगती हैं, और बाबा जी सबको पुत्र होने का आशीर्वाद देता है। उनमें से जिस-जिस को पुत्र होता है, वह-वह समझती है कि बाबा जी के वचन से हुआ। जब उनसे कोई पूछे कि सुअरी, कुत्ती, गधी आदि पशु और मुर्गी आदि पक्षियों के कच्चे-बच्चे किस बाबा जी के वर से होते हैं? तो कुछ भी उत्तर न दे सकेगा। जो कोई कहे कि मैं लड़के को जीता रख सकता हूँ, तो आप ही क्यों मर जाता है? 


कितने ही धूर्त्त लोग ऐसी माया रचते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान् भी धोखा खा जाते हैं, जैसे धनसारी के ठग। ये लोग पाँच-सात मिलके दूर-दूर देश में जाते हैं। जो शरीर से डीलडौल में अच्छा होता है, उसको सिद्ध बनाते हैं। जिस नगर वा ग्राम में धनाढ्य होते हैं, उसके समीप जंगल में उस सिद्ध को बैठाते हैं। उसके साधक नगर में जाके अजान बनके जिस किसी को पूछते हैं―तुमने ऐसे महात्मा को यहाँ कहीं देखा? वह महात्मा कौन और कैसा है?


साधक―बड़ा सिद्ध पुरुष है। मन की बातें बतला देता है। जो मुख से कहता है, वह हो जाता है। बड़ा योगीराज है। उसके दर्शन के लिये हम अपने घर-द्वार छोड़कर देखते-फिरते हैं। मैंने किसी से सुना था कि वह महात्मा इधर की ओर आये हैं।


गृहस्थ―जब वह महात्मा तुमको मिलें तो हमसे कहना, दर्शन करेंगे और मन की बातें पूछेगे।


इसी प्रकार दिनभर नगर में फिरते और प्रत्येक को उस सिद्ध की बात कहकर रात्रि को सिद्ध-साधक इकट्ठे होकर खाते-पीते, सो रहते हैं। फिर भी प्रात:काल नगर वा ग्राम में जाके, उसी प्रकार दो-तीन दिन कहकर, फिर चारों साधक किसी एक-एक धनाढ्य से बोलते हैं कि वह महात्मा मिल गये। तुमको दर्शन करना हो तो चलो। वे जब तैयार हो जाते हैं तब साधक उनसे पूछते हैं कि तुम क्या बात पूछना चाहते हो? हमसे कहो। कोई पुत्र की इच्छा करता, कोई धन, कोई रोग-निवारण और कोई शत्रु [को] जीतने की। उनको वे साधक ले जाते हैं। 


सिद्ध-साधकों ने जैसा सङ्केत किया होता है अर्थात् जिसको धन की इच्छा हो उसको दाहिनी ओर, जिसको पुत्र की इच्छा हो उसको सम्मुख, जिसको रोग-निवारण की इच्छा हो उसको बाईं ओर, और जिसको शत्रु [को] जीतने की इच्छा हो उसको पीछे से ले जाके सामनेवाले के बीच में बैठाते हैं। जब नमस्कार करते हैं, उसी समय वह सिद्ध उनसे बोलता है कि हमारे पास पुत्र नहीं रक्खा है, जो तू पुत्र की इच्छा करके हमारे पास आया है। इसी प्रकार धन की इच्छावाले से बोलता है "तू धन की इच्छा करके आया है। 'फकीरों' के पास धन कहाँ धरा है?" रोगमुक्ति की इच्छावाले से―"तू रोग छुड़ाने की इच्छा करके आया है? हम वैद्य नहीं, जा किसी वैद्य के पास।"


परन्तु जब उसका पिता रोगी हो तो उसका साधक अंगूठा, जो माता रोगी हो तो तर्जनी, जो भाई रोगी हो तो मध्यमा, जो स्त्री रोगी है तो अनामिका, जो कन्या रोगी हो तो कनिष्ठिका अंगुली को चला देता है। उसको देख वह सिद्ध कहता है कि तेरा पिता रोगी है, तेरी माता, तेरा भाई, तेरी स्त्री और तेरी कन्या रोगी है। तब तो वे चारों बड़े मोहित हो जाते हैं। साधक लोग उनसे कहते हैं, देखो! जैसा हमने कहा था, वैसे हैं कि नहीं?


गृहस्थ बोलते हैं―हाँ, जैसा तुमने कहा था, वैसे ही हैं। तुमने बड़ा उपकार किया और हमारा बड़ा भाग्य था, जो ऐसे महात्मा का दर्शन हुआ। 


साधक लोग कहते हैं कि ये महात्मा बहुत दिन रहनेवाले नहीं हैं। जो कुछ इनसे आशीर्वाद लेना हो तो खूब सेवा करो।


वे गृहस्थ प्रशंसा करते घर की ओर चलते हैं। साधक भी उनके साथ-साथ जाते हैं, क्योंकि मार्ग में कोई उनका पाखण्ड खोल न देवे। उन धनाढ्यों का जो कोई मित्र मिला, उन सबसे प्रशंसा करते हैं। इसी प्रकार जो-जो साधकों के साथ जाते हैं उन-उन का वृत्तान्त सब कह देते हैं। 


जब नगर में हल्ला मचता है कि अमुक ठौर पर बड़े भारी सिद्ध आये हैं, चलो उनके पास। तब बहुत मनुष्यों का मेला जाकर बहुत से लोग पूछने लगते हैं कि महाराज! मेरे मन का वृत्तान्त कहिये। तब सिद्ध व्यवस्था बिगड़ जाने से चुपचाप हो जाता है और कहने लगता है कि हमको बहुत दिक़ मत करो। उनके साधक भी सबसे कहने लगते हैं―"जो तुम बहुत दिक़ करोगे तो चले जायेंगे।" उनमें से जो कोई बड़ा धनाढ्य होता है, वह उसके साधक को बुला लेता है और कहता है कि 'हमारे मन की बात कहला दो तो हम मानें।' साधक ने पूछा कि क्या बात है?' धनाढ्य ने जो कहा, उसको उसी प्रकार संकेत से ले जाके बैठाया। उसे सिद्ध ने समझके झट कह दिया। जब बात सब मेला-भर ने सुन ली कि अहो! बड़े सिद्ध पुरुष हैं तो कोई मिठाई, कोई पैसा, कोई रुपया, कोई अशर्फी, कोई कपड़ा और कोई सीधा-सामग्री धरने लगे। फिर जब तक मान्यता बहुत रही तब तक लूटते रहे और किसी 'आँख के अन्धे गाँठ के पूरे' को पुत्र होने के लिये आशीर्वाद दिया और सहस्र रुपये लेकर कहा कि तेरी सच्ची भक्ति होगी तो पुत्र होगा।


इस प्रकार के बहुत-से ठग होते हैं, जिनकी विद्वान् ही परीक्षा कर सकता है और कोई नहीं। इसलिये वेदादि-विद्या का पढ़ना [और] सत्संग करना होता है, जिससे कोई उसको ठगाई में न फसा सके, [और] औरों को भी बचा सके। क्योंकि मनुष्य का नेत्र विद्या ही है। विना विद्या-शिक्षा के ज्ञान नहीं होता। जो बाल्यावस्था से उत्तम शिक्षा पाते हैं, वही मनुष्य और विद्वान् होते हैं। जिनको कुसंग है, वे दुष्ट, पापी, महामूर्ख होकर बड़े दुःख पाते हैं। इसीलिये ज्ञान को विशेष कहा है कि जो जानता है, वही मानता है―


न वेत्ति यो यस्य गुणप्रकर्षं स तस्य निन्दां सततं करोति। 

यथा किराती करिकुम्भजाता मुक्ताः परित्यज्य बिभर्ति गुञ्जाः॥


यह किसी कवि का श्लोक है [चाणक्य० ११।८] 


जो जिसका गुण नहीं जानता, वह उसकी निन्दा निरन्तर करता है, जैसे जंगली भील गजमुक्ताओं को छोड़के गुंजा का हार पहन लेता है। वैसे ही [गुणज्ञ] जो पुरुष विद्वान्, ज्ञानी, धार्मिक, सत्पुरुषों का संगी, योगी, पुरुषार्थी, जितेन्द्रिय, सुशील होता है, वही धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष को प्राप्त होकर इस जन्म और परजन्म में सदा आनन्द में रहता है।


यह आर्यावर्तनिवासी लोगों के मत-विषय में संक्षेप से लिखा। इसके आगे जो थोड़ा-सा आर्य-राजाओं का इतिहास मिला है, इसको सब सज्जनों को जनाने के लिये प्रकाशित किया जाता है। 


अब थोड़ा-सा आर्यावर्तदेशीय राजवंश कि जिसमें श्रीमान् महाराजे 'युधिष्ठिर' से लेके महाराजे यशपाल तक हुए हैं, उसका इतिहास लिखते हैं। और श्रीमान् महाराजे 'स्वायम्भुव मनु जी' से लेके महाराजे युधिष्ठिर तक का इतिहास 'महाभारत' में लिखा ही है और इससे सज्जन लोगों को इधर के कुछ इतिहास का वर्तमान विदित होगा।


यद्यपि यह विषय “विद्यार्थी' सम्मिलित 'हरिश्चन्द्रचन्द्रिका' और 'मोहनचन्द्रिका" जो कि पाक्षिकपत्र श्रीनाथद्वारा से निकलता था, जो राजपूताना देश मेवाड़ राज उदयपुर-चित्तौड़गढ़ में सबको विदित है, उससे हमने अनुवाद किया है। यदि ऐसे ही हमारे आर्य सज्जन लोग इतिहास और विद्या-पुस्तकों की खोज कर प्रकाश करेंगे तो देश को बड़ा ही लाभ पहुँचेगा। उस पत्र-सम्पादक ने अपने मित्र से एक प्राचीन पुस्तक जो कि संवत् विक्रम के १७८२ (सत्रह-सौ बयासी) का लिखा हुआ था, उससे उक्त पत्र के सम्पादक महाशय ने ग्रहण कर अपने संवत् १९३९ मार्गशीर्ष शुक्ल और कृष्ण पक्ष १९-२० किरण अर्थात् दो पाक्षिक पत्रों में छापा है। सो निम्न लिखे प्रमाणे जानिये―


आर्यावर्तदेशीय राजवंशावली 


इन्द्रप्रस्थ में आर्य लोगों ने श्रीमन्महाराजे 'यशपाल' पर्यन्त राज्य किया। जिनमें श्रीमन्महाराजे 'युधिष्ठिर' से महाराजे 'यशपाल' तक वंश अर्थात् पीढ़ी अनुमान १२४ (एक सौ चौबीस राजा), वर्ष ४१५७, मास ९, दिन १४, समय में हुए हैं। इनका ब्यौरा―


राजा   शक   वर्ष   मास   दिन 

आर्यराजा   १२४   ४१५७    ९   १४


श्रीमन्महाराजे युधिष्ठिरादि वंश अनुमान पीढ़ी ३०, वर्ष १७७१, मास ११, दिन १० इनका विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन

 १      राजा युधिष्ठिर   ३६    ८   २५

 २      राजा परिक्षित   ६०    ०    ०

 ३      राजा जनमेजय   ८४    ७   २३

 ४      राजा अश्वमेध   ८२    ८   २२

 ५      द्वितीयराम   ८८    २    ८

 ६      छत्रमल   ८१   ११   २७

 ७      चित्ररथ   ७५    ३   १८

 ८      दुष्टशैल्य   ७५   १०   २४

 ९      राजा उग्रसेन   ७८    ७   २१

१०     राजा शूरसेन   ७९    ८    ७

११     भुवनपति   ६९    ५    ५

१२     रणजीत   ६५   १०    ४

१३     ऋक्षक   ६४    ७    ४

१४     सुखदेव   ६२    ०   २४

१५     नरहरिदेव   ५१   १०    २

१६     सुचिरथ   ४२   ११    २

१७     शूरसेन (दूसरा)   ५८   १०    ८

१८     पर्वतसेन   ५५    ८   १०

१९     मेधावी   ५२   १०   १०

२०     सोनचीर   ५०    ८   २१

२१     भीमदेव   ४७    ९   २०

२२     नृहरिदेव   ४५   ११   २३

२३     पूर्णमल   ४४    ८    ७

२४     करदवी   ४४   १०    ८

२५     अलंमिक   ५०   ११    ८

२६     उदयपाल   ३८    ९    ०

२७     दुवनमल   ४०   १०   २६ 

२८     दमात   ३२    ०    ० 

२९     भीमपाल   ५८    ५    ८ 

३०     क्षेमक   ४८   ११   २१ 


राजा क्षेमक के प्रधान विश्रवा ने क्षेमक राजा को मारकर राज्य किया। पीढ़ी १४, वर्ष ५००, मास ३, दिन १७, इनका विस्तार―


       आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन 

१      विश्रवा   १७    ३   २९ 

२      पुरसेनी   ४२    ८   २१

३      वीरसेनी   ५२   १०    ७ 

४      अनङ्गशायी   ४७    ८   २३

५      हरिजित   ३५    ९   १७ 

६      परमसेनी   ४४    २   २३

७      सुखपाताल   ३०    २   २१

८      कद्रुत   ४२    ९    २

९   सज्ज   ३२    २   १४

१०    अमरचूड़   २७    ३   १६

११    अमीपाल   २२   ११   २५

१२    दशरथ   २५    ४   १२

१३    वीरसाल   ३१    ८   ११

१४    वीरसालसेन   ४७    ०   १४


राजा वीरसालसेन को वीरमहा प्रधान ने मारकर राज्य किया। वंश १६, वर्ष ४४५, मास ५, दिन ३, इनका विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन

१       राजा वीरमहा   ३५   १०    ८

२       अजितसिंह   २७    ७   १९

३       सर्वदत्त   २८    ३   १०

४       भुवनपति   १५    ४   १०

५       वीरसेन   २१    २   १३

६       महीपाल   ४०    ८    ७

७       शत्रुसाल   २६    ४    ३

८       संघराज   १७    २   १०

९       तेजपाल   २८   ११   १०

१०     माणिकचन्द   ३७    ७   २१

११     कामसेनी   ४२    ५   १०

१२     शत्रुमर्दन    ८   ११   १३

१३     जीवनलोक   २८    ९   १७

१४     हरिराव   २६   १०   २९

२५     वीरसेन (दूसरा)   ३५    २   २०

२६     आदित्यकेतु   २३   ११   १३


राजा आदित्यकेतु मगधदेश के राजा को ‘धन्धर' नामक राजा प्रयाग के ने मारकर राज्य किया। वंशपीढ़ी ९, वर्ष ३७४, मास ११, दिन २६, इनका विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन

१       राजा धन्धर   ४२    ७   २४

२       महर्षी   ४१    २   २९

३       सनरच्ची   ५०   १०   १९

४       महायुद्ध   ३०    ३    ८

५       दुरनाथ   २८    ५   २५

६       जीवनराज   ४५    २    ५

७       रुद्रसेन   ४७    ४   २८

८       आरीलक   ५२   १०    ८

९       राजपाल   ३६    ०    ०


राजा राजपाल को सामन्त महानपाल ने मारकर राज्य किया। पीढ़ी १, वर्ष १४, मास ०, दिन ०, इनका विस्तार नहीं है। 


राजा महानपाल के राज्य पर राजा विक्रमादित्य ने 'अवन्तिका' (उज्जैन) से चढ़ाई करके राजा महानपाल को मारके राज्य किया। पीढ़ी १, वर्ष ९३, मास ०, दिन ०, इनका विस्तार नहीं है। 


राजा विक्रमादित्य को शालिवाहन के उमराव पैठण के समुद्रपाल योगी ने मारकर राज्य किया। पीढ़ी १६, वर्ष ३७२, मास ४, दिन २७, इनका विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन 

१       समुद्रपाल   ५४    २   २०

२       चन्द्रपाल   ३६    ५    ४

३       सहायपाल   ११    ४   ११

४       देवपाल   २७    १   २८

५       नरसिंहपाल   १८    ०   २०

६       सामपाल   २७    १   १७ 

७       रघुपाल   २२    ३   २५

८       गोविन्दपाल   २७    १   १७

९       अमृतपाल   ३६   १०   १३

१०     बलीपाल   १२    ५   २७

११     महीपाल   १३    ८    ४

१२     हरीपाल   १४    ८    ४

१३     सीसपाल*   ११   १०   १३ 

१४     मदनपाल   १७   १०   १९ 

१५     कर्मपाल   १६    २    २ 

१६     विक्रमपाल   २४   ११   १३ 


राजा विक्रमपाल ने, पश्चिम दिशा का राजा (मलुखचन्द बोहरा था), इन पर चढाई करके मैदान में लड़ाई की। इस लड़ाई में मलुखचन्द ने विक्रमपाल को मारकर इन्द्रप्रस्थ का राज्य किया। पीढ़ी १०, वर्ष १९१, मास १, दिन १६, इनका विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन 

१       मलुखचन्द   ५४    २   १० 

२       विक्रमचन्द   १२    ७   १२

३       अमीनचन्द**   १०    ०    ५

४       रामचन्द   १३   ११    ८ 

५       हरीचन्द   १४    ९   २४ 

६       कल्याणचन्द   १०    ५    ४

७       भीमचन्द   १६    २    ९ 

८       लोवचन्द   २६    ३   २२ 

९       गोविन्दचन्द   ३१    ७   १२ 

१०     रानी पद्मावती***    १    ०    ० 


रानी पद्मावती मर गई। इसके पुत्र भी कोई नहीं था। इसलिये सब मुतसद्दियों ने सलाह करके हरिप्रेम वैरागी को गद्दी पर बैठा के मुतसद्दी राज्य करने लगे। पीढ़ी ४, वर्ष ५०, मास ०, दिन २१, हरिप्रेम का विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन 

१       हरिप्रेम    ७    ५   १६ 

२       गोविन्दप्रेम   २०    २    ८ 

३       गोपालप्रेम   १५    ७   २८ 

४       महाबाहु    ६    ८   २९


राजा महाबाहु राज्य छोड़के वन में तपश्चर्या करने गये, यह बंगाल के राजा आधीसेन सुनके, इन्द्रप्रस्थ में आके आप राज्य करने लगे। पीढी १२, वर्ष १५१, मास ११, दिन २, इनका विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन 

१       राजा आधीसेन   १८    ५   २१

२       विलावलसेन   १२    ४    २ 

३       केशवसेन   १५    ७   १२

४       माधसेन   १२    ४    २ 

५       मयूरसेन   २०   ११   २७

६       भीमसेन    ५   १०    ९

७       कल्याणसेन    ४    ८   २१

८       हरीसेन   १२    ०   २५

९       क्षेमसेन    ८   ११   १५

१०     नारायणसेन    २    २   २९

११     लक्ष्मीसेन   २६   १०    ०




* किसी इतिहास में भीमपाल भी लिखा है। 

* * इनका नाम कहीं मानकचन्द भी लिखा है। 

(ये मुद्रणप्रति में भीमसेन शर्मा द्वारा लिखित टिप्पणी है―सम्पादक)

*** यह पद्मावती गोविन्दचन्द की रानी थी।

(यह दोनों हस्तलेख में नहीं है, मुद्रणकाल में द्वितीय प्रति में लिखी टिप्पणी है―सम्पादक)


१२     दामोदरसेन   ११    ५   १९ 


राजा दामोदरसेन ने अपने उमराव को बहुत दुःख दिया, इसलिये राजा के उमराव दीपसिंह ने सेना मिलाके राजा के साथ लड़ाई की। उस लड़ाई में राजा को मारकर दीपसिंह आप राज्य करने लगे। पीढी ६, वर्ष १०७, मास ६, दिन २२, इनका  विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन

१       दीपसिंह   १७    १   २६

२       राजसिंह   १४    ५    ० 

३       रणसिंह    ९    ८   ११

४       नरसिंह   ४५    ०   १५ 

५       हरिसिंह   १३    २   २९ 

६       जीवनसिंह    ८    ०    १


राजा जीवनसिंह ने कुछ कारण के लिये अपनी सब सेना उत्तर दिशा को भेज दी। यह खबर वैराट के राजा पृथ्वीराज चह्वाण सुनकर जीवनसिंह के ऊपर चढाई करके आये और लड़ाई में जीवनसिंह को मारकर इन्द्रप्रस्थ का राज्य किया।* पीढी ५, वर्ष ८६, मास ०, दिन २०, इनका विस्तार―


        आर्यराजा   वर्ष   मास   दिन

१       पृथिवीराज   १२    २   १९

२       अभयपाल   १४    ५   १७

३       दुर्जनपाल   ११    ४   १४

४       उदयपाल   ११    ७    ३

५       यशपाल   ३६    ४   २७


राजा यशपाल के ऊपर सुलतान शहाबुद्दीन ग़ोरी गढ़ ग़जनी से चढाई करके आया और राजा यशपाल को प्रयाग के किले में संवत् १२४९ साल में पकड़कर कैद किया। पश्चात् 'इन्द्रप्रस्थ' अर्थात् दिल्ली का राज्य आप (सुलतान शहाबुद्दीन) करने लगा। पीढ़ी ५३, वर्ष, ७४५, मास १, दिन १७। इनका विस्तार बहुत इतिहास पुस्तकों में लिखा है, इसलिये यहाँ नहीं लिखा। 


इसके आगे [चार्वाक]-बौद्ध-जैनमत विषय में लिखा जायगा।



इति श्रीमद्दयानन्दसरस्वतीस्वामिनिर्मिते सत्यार्थप्रकाशे सुभाषाविभूषिते-आर्यावर्तीयमतखण्डनमण्डनविषये

एकादशः समुल्लासः सम्पूर्णः॥११॥




*  इसके आगे और इतिहासों में इस प्रकार है कि महाराज पृथ्वीराज के ऊपर सुलतान शहाबुद्दीन गोरी चढ़कर आया और कई बार हारकर लौट गया। अन्त में संवत् १२४९ में आपस की फूट के कारण महाराज पृथ्वीराज को जीत, अन्धा कर अपने देश को ले गया। पश्चात् दिल्ली (इन्द्रप्रस्थ) का राज्य आप करने लगा। मुसलमानों का राज्य पीढ़ी ४५, वर्ष ६१३ रहा। (पण्डित लेखराम आर्यपथिक द्वारा पञ्चम संस्करण में लिखित टिप्पणी) 

विशेष—यह टिप्पणी मूलसं० में गृहीत है, द्वि०सं० और उदयपुर सं० में नहीं है।

Comments

Popular posts from this blog

सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश

चतुर्थः समुल्लासः

वैदिक गीता