प्राणायाम की सम्पूर्ण आठ प्रक्रियाएँ

 प्राणायाम की सम्पूर्ण आठ प्रक्रियाएँ

सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश 

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यद्यपि प्राणायाम की विभिन्न विधियाँ शास्रों में वर्णित हैं और प्रत्येक प्राणायाम का अपना एक विशेष महत्त्व है, तथापि प्रतिदिन सभी प्राणायामों का अभ्यास नहीं किया जा सकता। अतः हमने गुरुओं की कृपा एवं अपने अनुभव के आधार पर प्राणायाम की एक सम्पूर्ण प्रक्रिया को विशिष्ट वैज्ञानिक रीति एवं आध्यात्मिक विधि से आठ प्रक्रियाओं में निबद्ध किया है। प्राणायाम के इस सम्पूर्ण अभ्यास को करने से जो मुख्य लाभ होते हैं, वे संक्षेप में इस प्रकार हैं:


वात, पित्त और कफ, इन तीनों दोषों का संतुलन होता है। 


पाचनतन्त्र पूर्ण स्वस्थ हो जाता है तथा समस्त उदररोग दूर होते हैं। हृदय, फेफड़े एवं मस्तिष्क-सम्बन्धी समस्त रोग दूर होते हैं। 


मोटापा, मधुमेह, कॉलेस्ट्रॉल, कब्ज, गैस, अम्लपित्त, श्वास रोग, एलर्जी, माइग्रेन, रक्तचाप, किडनी के रोग, पुरुष और स्त्रियों के समस्त यौन रोग, सामान्य रोगों से कैन्सर तक सभी साध्य-असाध्य रोग दूर होते हैं।


रोग-प्रतिरोधक क्षमता अत्यधिक विकसित हो जाती है। 


वंशानुगत डायबिटीज़ एवं हृदयरोग आदि से बचा जा सकता है। 


बालों का झड़ना और सफेद होना, चेहरे पर झुर्रियाँ पड़ना, नेत्रज्योति के विकार, स्मृति-दौर्बल्य आदि से बचा जा सकता है, अर्थात् बुढ़ापा देर से आयेगा तथा आयु बढ़ेगी। 


मुख पर आभा, ओज, तेज एवं शान्ति आयेगी। 


चक्रों के शोधन, भेदन तथा जागरण द्वारा आध्यात्मिक शक्ति (कुण्डलिनी-जागरण) की प्राप्ति होगी। 


मन अत्यन्त स्थिर, शान्त और प्रसन्न तथा उत्साहित होगा, डिप्रेशन आदि रोगों से बचा जा सकेगा। 


ध्यान स्वतः लगने लगेगा तथा घण्टों तक ध्यान का अभ्यास करने का सामर्थ्य प्राप्त होगा। 


स्थूल एवं सूक्ष्म देह के समस्त रोग और काम, क्रोध, लोभ, मोह एवं अहंकार आदि दोष नष्ट होते हैं। 


शरीरगत समस्त विकार, विजातीय तत्त्व, टाक्सिन्स नष्ट हो जाते हैं।


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नकारात्मक विचार समाप्त होते हैं तथा प्राणायाम का अभ्यास करने वाला व्यक्ति सदा सकारात्मक विचार, ऊर्जा एवं आत्मविश्वास से भरा हुआ होता है।


प्रथम प्रक्रिया : भस्त्रिका प्राणायाम


किसी ध्यानोपयोगी आसन में सुविधानुसार बैठकर दोनों नासिकाओं से श्वास को पूरा अन्दर डायाफ्राम तक भरना तथा बाहर सहजता के साथ छोड़ना 'भस्त्रिका प्राणायाम' कहलाता है। 


भस्त्रिका के समय शिवसंकल्प


भस्त्रिका प्राणायाम में श्वास को अन्दर भरते हुए मन में विचार (संकल्प) करना चाहिए कि ब्रह्माण्ड में विद्यमान दिव्य शक्ति, ऊर्जा, पवित्रता, शान्ति और आनन्द आदि जो भी शुभ है, वह प्राण के साथ मेरे देह में प्रविष्ट हो रहा है। मैं दिव्य शक्तियों से ओत-प्रोत हो रहा हूँ। इस प्रकार दिव्य संकल्प के साथ किया हुआ प्राणायाम विशेष लाभप्रद होता है। 


भस्त्रिका प्राणायाम का समय


ढाई सेकण्ड में श्वास अन्दर लेना एवं ढाई सेकण्ड में श्वास को एक लय के साथ बाहर छोड़ना। इस प्रकार बिना रुके एक मिनट में 12 बार भस्त्रिका प्राणायाम होगा। एक आवृत्ति में पाँच मिनट करना चाहिए। प्रारम्भ में थोड़ा रुकना पड़ सकता है। लगभग एक सप्ताह में निरन्तर पाँच मिनट बिना व्यवधान के अभ्यास हो जाता है।


स्वस्थ एवं सामान्यतया रोगग्रस्त व्यक्तियों को प्रतिदिन 5 मिनट भस्त्रिका का अभ्यास करना चाहिए। कैंसर, लंग फाइब्रोसिस, मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी, एम. एस., एस.एल.ई. एवं अन्य असाध्य रोगों में 10 मिनट तक अभ्यास करना चाहिए। भस्त्रिका एक मिनट में 12 बार, इसी प्रकार पाँच मिनट में 60 बार अभ्यास हो जाता है। कैंसर आदि असाध्य रोगों में 2 आवृत्ति करने पर 120 बार प्राणायाम होता है। सामान्यतः प्राणायाम खाली पेट किया जाये तो उत्तम है। किसी कारणवश प्रातः प्राणायाम नहीं कर पायें तो दोपहर के खाने के 5 घंटे बाद भी प्राणायाम किया जा सकता है। असाध्य रोगी प्रातः सायं दोनों समय प्राणायाम करें तो शीघ्र ही अधिक लाभ होगा।


विशेष


जिनको उच्च रक्तचाप तथा हृदयरोग हो, उन्हें तीव्र गति से भस्त्रिका नहीं करनी चाहिए।


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इस प्राणायाम को करते समय जब श्वास को अन्दर भरें, तब पेट नहीं फुलाना चाहिए। श्वास डायाफ्राम तक भरें, इससे पेट नहीं फूलेगा, पसलियों तक छाती ही फूलेगी। डायाफ़्रैग्मेटिक डीप ब्रीदिंग का नाम ही भस्त्रिका है। 


ग्रीष्म ऋतु में धीमी गति से करें। 


कफ की अधिकता या साइनस आदि रोगों के कारण जिनके दोनों नासाछिद्र ठीक से खुले हुए नहीं होते, उन लोगों को पहले दायें स्वर को बन्द करके बायें से रेचक और पूरक करना चाहिए। फिर बायें को बन्द करके दायें से यथाशक्ति मन्द, मध्यम या तीव्र गति से रेचक तथा पूरक करना चाहिए। फिर, अन्त में दोनों स्वरों इडा एवं पिंगला से रेचक पूरक करते हुए भस्त्रिका प्राणयाम करें। इस प्राणायाम को पाँच मिनट तक प्रतिदिन अवश्य करें। प्राणायाम की क्रियाओं को करते समय आँखों को बन्द रखें और मन में प्रत्येक श्वास-प्रश्वास के साथ 'ओ३म्' का मानसिक रूप से चिन्तन और मनन करना चाहिए।


लाभ


सर्दी-जुकाम, एलर्जी, श्वासरोग, दमा, पुराना नजला, साइनस आदि समस्त कफ रोग दूर होते हैं। फेफड़े सबल बनते हैं तथा हृदय और मस्तिष्क को भी शुद्ध प्राणवायु मिलने से आरोग्य-लाभ होता है। 


थायरॉयड एवं टॉन्सिल आदि गले के समस्त रोग दूर होते हैं। 


त्रिदोष सम होते हैं। रक्त परिशुद्ध होता है तथा शरीर के विषाक्त, विजातीय द्रव्यों का निष्कासन होता है।


प्राण और मन स्थिर होते हैं। यह प्राणोत्थान और कुण्डलिनी-जागरण में सहायक है।


द्वितीय प्रक्रिया : कपालभाति प्राणायाम


कपाल, अर्थात् मस्तिष्क और भाति का अर्थ होता है- दीप्ति, आभा, तेज, प्रकाश आदि। जिस प्राणायाम के करने से मस्तिष्क (माथे) पर आभा, ओज एवं तेज बढ़ता हो, वह प्राणायाम है- कपालभाति। इस प्राणायाम की विधि भस्त्रिका से थोड़ी अलग है। भस्त्रिका में रेचक एवं पूरक में समानरूप से श्वास-प्रश्वास पर दबाव डालते हैं, जबकि कपालभाति में मात्र रेचक, अर्थात् श्वास को शक्तिपूर्वक बाहर छोड़ने में ही पूरा ध्यान दिया जाता है। श्वास को भरने के लिए प्रयत्न नहीं करते; अपितु सहज रूप से जितना श्वास अन्दर चला जाता है, जाने देते हैं, पूरी एकाग्रता श्वास को बाहर छोड़ने में ही होती है। ऐसा करते हुए स्वाभाविक रूप


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से पेट में भी आकुंचन और प्रसारण की क्रिया होती है तथा मूलाधार, स्वाधिष्ठान एवं मणिपूर चक्रों पर विशेष बल पड़ता है। 


कपालभाति के समय शिवसंकल्प


कपालभाति प्राणायाम को करते समय मन में ऐसा विचार करना चाहिए कि जैसे ही मैं श्वास को बाहर छोड़ रहा हूँ, इस प्रश्वास के साथ मेरे शरीर के समस्त रोग बाहर निकल रहे हैं, नष्ट हो रहे हैं। जिसको जो शारीरिक रोग हो, उस दोष या विकार, काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईर्ष्या, राग, द्वेष आदि के बाहर छोड़ने की भावना करते हुए रेचक करना चाहिए। इस प्रकार रोग के नष्ट होने का विचार श्वास छोड़ते वक्त करने का भी विशेष लाभ होता है। 


कपालभाति प्राणायाम का समय


एक सेकण्ड में एक बार श्वास को लय के साथ छोड़ना एवं सहज रूप से धारण करना चाहिए। बिना रुके एक मिनट में 60 बार तथा पाँच मिनट में 300 बार कपालभाति प्राणायाम होता है। अत्यधिक बीमार एवं कमजोर व्यक्ति प्रारम्भ में 2-3 मिनट में ही थक जाते हैं। परन्तु 10-15 दिन में प्रत्येक व्यक्ति 5 मिनट निरन्तर कपालभाति करने का सामर्थ्य अर्जित कर लेता है। कपालभाति की एक आवृत्ति 5 मिनट की अवश्य होनी चाहिए। इससे कम करने पर पूर्ण लाभ की प्राप्ति नहीं होती। लम्बे समय तक कपालभाति प्राणायाम करते-करते सामर्थ्य बढ़ने एवं अभ्यास के परिपक्व होने पर व्यक्ति 15 मिनट तक भी कपालभाति कर सकता है। स्वस्थ एवं सामान्यतया रोगग्रस्त व्यक्ति को कपालभाति 15 मिनट तक करना चाहिए। 15 मिनट में 3 आवृत्तियों में 900 बार कपालभाति हो जाता है।


कैंसर, एड्स, हेपेटाइटिस, सफेद दाग, सोरायसिस, अत्यधिक मोटापा, इन्फर्टिलिटी, गर्भाशय, ओवरी, ब्रेस्ट या शरीर में कहीं भी गांठ होने पर तथा एम. एस. व एस. एल. ई. जैसे असाध्य रोगों से पीड़ित रोगी आधा घंटा कपालभाति करें। असाध्य रोगी प्रातः-सायं दोनों समय कपालभाति आधा-आधा घंटा करें। स्वस्थ एवं सामान्य रोगग्रस्त व्यक्ति को दिन में एक बार प्राणायाम करना ही पर्याप्त है।


लाभ


मस्तिष्क और मुखमण्डल पर ओज, तेज, आभा तथा सौन्दर्य बढ़ता है।

 

समस्त कफरोग, दमा, श्वास, एलर्जी, साइनस आदि रोग नष्ट हो जाते हैं।


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हृदय, फेफड़ों एवं मस्तिष्क के समस्त रोग दूर होते हैं। 


मोटापा, मधुमेह, गैस, कब्ज, अम्लपित्त, किडनी तथा प्रॉस्टेट से सम्बन्धित सभी रोग निश्चित रूप से दूर होते हैं। 


कब्ज़ जैसा खतरनाक रोग इस प्राणायाम के नियमित रूप से लगभग 5 मिनट तक प्रतिदिन करने से मिट जाता है। मधुमेह बिना औषधि के नियंत्रित किया जा सकता है तथा पेट आदि का बढ़ा हुआ भार एक माह में 4 से 6 किलो तक कम किया जा सकता है। हृदय की धमनियों (arteries) में आये हुए अवरोध (blockage) खुल जाते हैं। 


मन स्थिर, शान्त तथा प्रसन्न रहता है। नकारात्मक विचार नष्ट हो जाते हैं, जिससे डिप्रेशन आदि रोगों से छुटकारा मिलता है। 


चक्रों का शोधन तथा मूलाधार-चक्र से सहस्त्रार-चक्र पर्यन्त समस्त चक्रों में एक दिव्य शक्ति का संचरण होने लगता है। 


इस प्राणायाम के करने से आमाशय, अग्न्याशय (पेन्क्रियाज़), यकृत्, प्लीहा, आँत, प्रॉस्टेट एवं किडनी का आरोग्य विशेष रूप से बढ़ता है। पेट के लिए बहुत से आसन करने पर भी जो लाभ नहीं हो पाता, मात्र इस प्राणायाम के करने से ही सब आसनों से भी अधिक लाभ हो जाता है। दुर्बल आँतों को सबल बनाने के लिए भी यह प्राणायाम सर्वोत्तम है।


तृतीय प्रक्रिया : बाह्य प्राणायाम (त्रिबन्ध के साथ)


विधि :


सिद्धासन या पद्मासन में विधिपूर्वक बैठ कर श्वास को एक ही बार में यथाशक्ति बाहर निकाल दें। 


श्वास बाहर निकालकर मूलबन्ध, उड्डीयान बन्ध एवं जालन्धर बन्ध लगाकर श्वास को यथाशक्ति बाहर ही रोककर रखें। 


जब श्वास लेने की इच्छा हो, तब बन्धों को हटाते हुए धीरे-धीरे श्वास लें। 


श्वास भीतर लेकर उसे बिना रोके ही पुनः पूर्ववत् श्वसन-क्रिया द्वारा बाहर निकाल दें।


बाह्य प्राणायाम के समय शिवसंकल्प


इस प्राणायाम में भी उक्त कपालभाति के समान श्वास को बाहर निकालते हुए समस्त विकारों, दोषों को भी बाहर निकाला जा रहा है, इस प्रकार की


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मानसिक चिन्तन-धारा बहनी चाहिए। विचार-शक्ति जितनी अधिक प्रबल होगी, समस्त कष्ट उतनी ही प्रबलता से दूर होंगे, यह निश्चित जानें। मन का शिव-संकल्प से युक्त होना हर प्रकार की आधि-व्याधि का संहारक और शीघ्र सुफलदायक होता है।


बाह्य प्राणायाम का समय


3 से 5 सेकण्ड में श्वास को सहजता से पूरा अन्दर भरना एवं 3 से 5 सेकण्ड में ही सहजता से श्वास को बाहर छोड़कर बाहर ही 10 से 15 सेकण्ड रोककर रखना एवं पुनः 3 से 5 सेकण्ड में श्वास को अन्दर भरना एवं बाहर छोड़कर बाह्य प्राणायाम करना, इस प्रकार लगभग 20 से 25 सेकण्ड में बाह्य प्राणायाम पूरा हो जाता है। एक के बाद दूसरा बाह्य प्राणायाम बिना रुके लगातार करें, तो उत्तम है। यदि प्रारम्भ में दो प्राणायामों के बीच 1-2 सामान्य श्वास लेने पड़ें तो ले सकते हैं। 2 मिनट में सामान्यतः 5 बार बाह्य प्राणायाम आराम से हो जाता है और 5 बार बाह्य प्राणायाम करना सामान्यतः पर्याप्त है। गुदाभ्रंश, पाइल्स, फिशर, फिस्टुला, योनिभ्रंश, बहुमूत्र, मूत्रकृच्छ्र एवं यौन रोगों से पीड़ित व्यक्ति इसका 11 बार तक अभ्यास कर सकते हैं। कुण्डलिनी जागरण के इच्छुक साधक एवं ऊर्ध्वरेता होने की इच्छा रखने वाले साधक इसका अधिकतम 21 बार तक अभ्यास कर सकते हैं।


लाभ


यह हानिरहित प्राणायाम है। इससे मन की चंचलता दूर होती है। जठराग्नि प्रदीप्त होती है। उदर रोगों में लाभप्रद है। बुद्धि सूक्ष्म और तीव्र होती है। शरीर का शोधक है। वीर्य की ऊर्ध्व गति करके स्वप्नदोष, शीघ्रपतन आदि धातु-विकारों की निवृत्ति करता है। बाह्य प्राणायाम करने से पेट के सभी अवयवों पर विशेष बल पड़ता है तथा प्रारम्भ में पेट के कमजोर या रोगग्रस्त भाग में हल्का दर्द का भी अनुभव होता है। अतः पेट को विश्राम तथा आरोग्य देने के लिए त्रिबन्ध-पूर्वक यह प्राणायाम करना चाहिए। 


चतुर्थ प्रक्रिया : उज्जायी प्राणायाम 


इस प्राणायाम में पूरक करते गले को सिकोड़ते हैं और जब गले को सिकोड़कर श्वास अन्दर भरते हैं तब जैसे खर्राटे लेते समय गले से आवाज होती है, वैसे ही इसमें पूरक करते हुए कण्ठ से ध्वनि होती है। ध्यानोपयोगी आसन में बैठकर दोनों नासिकाओं से वायु अन्दर खींचिए। कण्ठ को थोड़ा संकुचित करने से वायु का स्पर्श गले में अनुभव होगा। हवा का घर्षण नाक में नहीं होना


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चाहिए। कण्ठ में घर्षण होने से एक ध्वनि उत्पन्न होगी। प्रारम्भ में कुम्भक का प्रयोग न करके केवल पूरक-रेचक का ही अभ्यास करना चाहिए। पूरक के बाद धीरे-धीरे कुम्भक का समय पूरक जितना तथा कुछ दिनों के अभ्यास के बाद कुम्भक का समय पूरक से दुगुना कर दीजिए। कुम्भक 10 सेकण्ड से ज्यादा करना हो तो जालन्धर-बन्ध और मूलबन्ध भी लगायें। इस प्राणायाम में सदैव दाईं नासिका को बन्द करके बाईं नासिका से ही रेचक करना चाहिए।


लाभ


जो साल भर सर्दी, खाँसी, जुकाम से पीड़ित रहते हैं, तथा जिनको थायरॉइड, स्नोरिंग, स्लीपएप्निया, हृदयरोग, अस्थमा, फुफ्फुस एवं कंठविकार, टॉन्सिल, अनिद्रा, मानसिक तनाव और रक्तचाप, अजीर्ण, आमवात, जलोदर, क्षय, ज्वर, प्लीहा आदि रोग हों, उनके लिए यह लाभप्रद है। गले को ठीक, नीरोग एवं मधुर बनाने हेतु इसका नियमित अभ्यास करना चाहिए। कुण्डलिनी-जागरण, अजपा-जप, ध्यान आदि के लिए उत्तम प्राणायाम है। इससे बच्चों का तुतलाना भी ठीक होता है।


पंचम प्रक्रिया : अनुलोम-विलोम प्राणायाम 


नासिकाओं को बन्द करने की विधि


दायें हाथ को उठाकर दायें हाथ के अंगुष्ठ के द्वारा दायाँ स्वर (पिंगला नाड़ी) तथा अनामिका एवं मध्यमा अंगुलियों के द्वारा बायाँ स्वर बन्द करना चाहिए। हाथ की हथेली को नासिका के सामने न रखकर थोड़ा पार्श्वभाग में रखना चाहिए। 


(पुस्तक के प्रारम्भ में चित्र-सं० 2 और 3 देखें।) 


इड़ा नाड़ी (वाम स्वर) चूँकि सोम, चन्द्रशक्ति या शान्ति का प्रतीक है, इसलिए नाड़ी-शोधन हेतु अनुलोम-विलोम प्राणायाम को बाई नासिका से प्रारम्भ करते हैं। अंगुष्ठ के माध्यम से दाहिनी नासिका को बन्द करके बाई नाक से श्वास धीरे-धीरे अन्दर भरना चाहिए। श्वास पूरा अन्दर भरने पर, अनामिका एवं मध्यमा से वाम स्वर को बन्द करके दाहिनी नाक से पूरा श्वास बाहर छोड़ देना चाहिए। धीरे-धीरे श्वास-प्रश्वास की गति मध्यम और फिर तीव्र करनी चाहिए। तीव्र गति से पूरी शक्ति के साथ श्वास अन्दर भरें और बाहर निकालें एवं अपनी शक्ति के अनुसार श्वास-प्रश्वास के साथ गति मन्द, मध्यम और तीव्र करें। तीव्र गति से पूरक, रेचक करने से प्राण की तेज ध्वनि होती हैं। श्वास पूरा बाहर निकलने पर वाम स्वर को बन्द रखते हुए ही दाईं नाक से श्वास पूरा भरकर बाईं नासिका से बाहर छोड़ना चाहिए।


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यह एक प्रक्रिया पूरी हुईं। इस प्रकार इस विधि को सतत करते रहना, अर्थात् बाई नासिका से श्वास लेकर दाएँ से बाहर छोड़ देना, फिर दाएँ से लेकर बाई ओर से श्वास को बाहर छोड़ देना। इस क्रम को लगभग एक मिनट तक करने पर थकान होने लगती है। थकान होने पर बीच में थोड़ा विश्राम करके, थकान दूर होने पर पुनः प्राणायाम करें। इस प्रकार इस प्राणायाम को तीन मिनट से प्रारम्भ करके दस मिनट तक किया जा सकता है। कुछ दिन तक नियमित अभ्यास करने से साधक का सामर्थ्य बढ़ने लगता है, और लगभग एक सप्ताह में वह बिना रुके पाँच मिनट तक इस प्राणायाम को करने लगता है।


अनुलोम-विलोम के निरन्तर अभ्यास से मूलाधार-चक्र में सन्निहित शक्ति का जागरण होने लगता है। इसे ही वेदों में 'ऊर्ध्वरेतस्' होना और अर्वाचीन योग की भाषा में कुण्डलिनी-जागरण कहा जाता है। इस प्राणायाम को करते समय प्रत्येक श्वास-प्रश्वास के साथ 'ओ३म्' का मानसिक रूप से चिन्तन और मनन भी करते रहना चाहिए। ऐसा करने से मन ध्यान की उन्नत अवस्था में अवस्थित हो जाता है।


अनुलोम-विलोम करते समय शिवसंकल्प


इस प्राणायाम को करते समय मन में विचार करें कि इड़ा एवं पिंगला नाड़ियों में श्वास का घर्षण और मन्थन होने से सुषुम्णा नाड़ी जागृत हो रही है। अष्ट चक्रों से सहस्रार-चक्र पर्यन्त एक दिव्य ज्योति का ऊर्ध्वस्फुरण हो रहा है। 


मेरा पूरा देह दिव्य आलोक से देदीप्यमान हो रहा है। चित्र-संख्या 16 के अनुसार शरीर के बाहर और भीतर दिव्य आलोक, ज्योति एवं शक्ति का ध्यान करते हुए 'ओं खं ब्रह्म' का साक्षात्कार करें। यह विचार करें कि विश्वनियन्ता परमेश्वर अपनी दिव्यशक्ति, दिव्यज्ञान से मुझे ओतप्रोत कर रहा है। 'शक्तिपात' की दीक्षा से स्वयं को दीक्षित करें। शक्ति के लिए गुरु मात्र प्रेरक है, गुरु तो मात्र दिव्य संवेदनाओं से जोड़ता है। वास्तव में 'शक्तिपात' शक्ति के असीम सिन्धु ओम् परमेश्वर करते हैं। इस प्रकार दिव्य संवेदनाओं से ओतप्रोत होकर किये हुए इस अनुलोम-विलोम प्राणायाम से विशेष शारीरिक, मानसिक एवं आध्यात्मिक लाभ मिलेगा। मूलाधार-चक्र से स्वतः एक ज्योति स्फुरित होगी, कुण्डलिनी-जागरण होगा, आप ऊर्ध्वरेता बनेंगे और 'शक्तिपात' की दीक्षा में स्वतः दीक्षित हो जायेंगे।


अनुलोम-विलोम प्राणायाम का समय


बाईं नासिका से लगभग ढाई सेकण्ड में श्वास लय के साथ भरना एवं बिना


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रोके दाईं नासिका से लगभग ढाई सेकण्ड में श्वास को बाहर छोड़ देना तथा दाईं से छोड़ने के तुरन्त बाद दाईं से सहज रूप से ढाई सेकण्ड में श्वास लेना एवं बिना श्वास को रोके बाईं से लगभग ढाई सेकण्ड में ही श्वास को एक लय के साथ बाहर छोड़ना, इस प्रक्रिया को बिना रुके लगभग 5 मिनट तक निरन्तर जारी रखना। यद्यपि प्रारम्भ में थकान होगी। अधिक बल का प्रयोग न करें एवं कोहनी को अधिक ऊपर उठाकर अनुलोम-विलोम न करें तो आप धीरे-धीरे 5-7 दिन में निरन्तर 5 मिनट अनुलोम-विलोम करने में समर्थ हो जायेंगे।


10 सेकण्ड में अनुलोम-विलोम प्राणायाम एक बार निष्पन्न होगा एवं 1 मिनट में लगभग 6 बार। 5 मिनट की एक आवृत्ति में अनुलोम-विलोम लगभग 30 बार तथा स्वस्थ एवं सामान्य रोगों से ग्रस्त व्यक्ति के कुल निर्धारित समय 15 मिनट में लगभग 90 बार अनुलोम-विलोम निष्पन्न होगा। कैंसर, सफेद दाग, सोराइसिस, मस्क्यूलर डिस्ट्रॉफी, एस.एल.ई., इन्फर्टिलिटी, एच.आई.वी., एड्स व किडनी अन्य असाध्य रोग से पीड़ित व्यक्ति को अनुलोम-विलोम 30 मिनट तक करना चाहिए। अभ्यास परिपक्व होने पर अनुलोम-विलोम प्राणायाम को लगातार 15 मिनट या आधा घंटा भी किया जा सकता है।


लाभ


इस प्राणायाम से बहत्तर करोड़, बहत्तर लाख, दस हजार दो सौ दस नाड़ियाँ परिशुद्ध हो जाती हैं। सम्पूर्ण नाड़ियों की शुद्धि होने से देह पूर्ण स्वस्थ, कान्तिमय एवं बलिष्ठ बनता है। 


सन्धिवात, आमवात, गठिया, कम्पवात, स्रायु-दुर्बलता आदि समस्त वातरोग, मूत्ररोग, धातुरोग, शुक्रक्षय, अम्लपित्त, शीतपित्त आदि समस्त पित्त रोग, सर्दी, जुकाम, पुराना नजला, साइनस, अस्थमा, खाँसी, टॉन्सिल आदि समस्त कफरोग दूर होते हैं। त्रिदोष का प्रशमन होता है। 


हृदय की धमनियों (arteries) में आये हुए अवरोध (ब्लॉकेज) खुल जाते हैं। इस प्राणायाम का नियमित अभ्यास करने से लगभग तीन-चार माह में तीस प्रतिशत से चालीस प्रतिशत तक ब्लॉकेज खुल जाते हैं। ऐसा हमने अनेक रोगियों पर प्रयोग करके अनुभव किया है।


कॉलेस्ट्रॉल, ट्राइग्लिसराइड्स, एच.डी.एल. या एल.डी.एल. आदि की अनियमितताएँ दूर हो जाती हैं। 


नकारात्मक चिन्तन में परिवर्तन होकर सकारात्मक विचार बढ़ने लगते हैं। आनन्द, उत्साह एवं निर्भयता की प्राप्ति होने लगती है।


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संक्षेप में कह सकते हैं कि इस प्राणायाम से तन, मन, विचार एवं संस्कार सब परिशुद्ध होते हैं। देह के समस्त रोग नष्ट होते हैं। तथा मन परिशुद्ध होकर ओंकार के ध्यान में लीन होने लगता है।


इस प्राणायाम को 250 से 500 बार तक करने से मूलाधार-चक्र में सन्निहित कुण्डलिनी-शक्ति जो अधोमुख रहती है, वह ऊर्ध्वमुख हो जाती है, अर्थात् कुण्डलिनी-जागरण की प्रक्रिया प्रारम्भ हो जाती है।


टिप्पणी


अधिक जानकारी एवं सावधानियों के सम्बन्ध में जानने के लिए 'कुण्डलिनी जागरण के उपाय एवं सावधानियाँ' प्रकरण देखें।


षष्ठ प्रक्रिया : भ्रामरी प्राणायाम


श्वास पूरा अन्दर भरकर मध्यमा अंगुलियों से नासिका के मूल में आँख के पास से दोनों ओर से थोड़ा दबाएँ, मन को आज्ञाचक्र में केन्द्रित रखें। अंगूठों के द्वारा दोनों कानों को पूरा बन्द कर लें (देखें पुस्तक के प्रारम्भ में चित्र सं० 4)। अब भ्रमर की भाँति गुंजन करते हुए नाद रूप में 'ओ३म्' का उच्चारण करते हुए श्वास को बाहर छोड़ दें। पुनः इसी प्रकार आवृत्ति करें। 


भ्रामरी प्राणायाम के समय शिवसंकल्प


यह प्राणायाम अपनी चेतना ब्राह्मी चेतना, ईश्वरीय सत्ता के साथ तन्मय एवं तद्रूप करते हुए करना चाहिए। मन में यह दिव्य संकल्प या विचार होना चाहिए कि मुझपर भगवान् की करुणा, शान्ति तथा आनन्द बरस रहा है। मेरे आज्ञाचक्र में भगवान् दिव्य ज्योति के रूप में प्रकट होकर मेरे समस्त अज्ञान को दूर कर मुझे 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' से सम्पन्न बना रहे हैं। इस प्रकार शुद्ध भाव से यह प्राणायाम करने से एक दिव्य ज्योतिपुंज आज्ञाचक्र में प्रकट होता है और ध्यान स्वतः होने लगता है।


भ्रामरी प्राणायाम का समय


3 से 5 सेकण्ड में श्वास को अन्दर भरना एवं विधिपूर्वक कान, आंख आदि बन्द करके 15 से 20 सेकण्ड में श्वास बाहर छोड़ना। एक बार भ्रामरी पूरा होने पर तुरन्त पुनः 3 से 5 सेकण्ड में एक लय के साथ श्वास अन्दर भरना एवं पुनः 15 से 20 सेकण्ड में भ्रमर की ध्वनि को करते हुए विधिपूर्वक श्वास को बाहर छोड़ना। इस प्रकार प्रत्येक व्यक्ति को लगातार कम से कम 5 से 7 बार भ्रामरी प्राणायाम अवश्य करना चाहिए। यह पूरी प्रक्रिया लगभग 3 मिनट


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में पूरी हो जाती है। कैंसर, डिप्रेशन, पार्किसन, माइग्रेन, हृदय रोग, नेत्र रोग एवं अन्य किसी असाध्य रोग से पीड़ित रोगी या योग की गहराइयों में उतरने के इच्छुक योगी 11 से 21 बार तक भी भ्रामरी प्राणायाम कर सकते हैं।


लाभ


मन की चंचलता दूर होती है। मानसिक तनाव, उत्तेजना, उच्च रक्तचाप, हृदयरोग आदि में लाभप्रद है। ध्यान के लिए अति उपयोगी है। 


सप्तम प्रक्रिया : उद्गीथ प्राणायाम


3 से 5 सेकेण्ड में श्वास को एक लय के साथ अन्दर भरना एवं पवित्र ओ३म् शब्द का विधिपूर्वक उच्चारण करते हुए लगभग 15 से 20 सेकेण्ड में श्वास को बाहर छोड़ना। एक बार उच्चारण पूरा होने पर पुनः श्वास को लय के साथ 3 से 5 सेकण्ड में भीतर गहरा भरना एवं पुनः 15 से 20 सेकण्ड में ओ३म् की ध्वनिपूर्वक बाहर छोड़ना। इस प्रकार लगभग 3 मिनट में लगभग 7 बार प्रत्येक व्यक्ति को उद्गीथ प्राणायाम अवश्य करना चाहिए। असाध्य रोगों से ग्रस्त एवं ध्यान की गहराइयों में उतरने के इच्छुक साधक 5 से 10 मिनट या इससे भी अधिक समय तक उद्गीथ प्राणायाम कर सकते हैं। भ्रामरी एवं उद्गीथ दोनों ही सहज एवं सौम्य प्राणायाम हैं। अतः इनका यदि कोई साधक लम्बा अभ्यास भी करता है तो किसी प्रकार की कोई हानि होने की सम्भावना नहीं है।


अष्टम प्रक्रिया : प्रणव प्राणायाम


पूर्वनिर्दिष्ट सभी प्राणायाम करने के बाद श्वास-प्रश्वास पर अपने मन को टिकाकर प्राण के साथ उद्गीथ 'ओ३म्' का ध्यान करें। भगवान् ने ध्रुवों की आकृति ओंकारमयी बनाई है। यह पिण्ड (=देह) तथा समस्त ब्रह्माण्ड ओंकारमय है। 'ओंकार' कोई व्यक्ति या आकृति विशेष नहीं है, अपितु एक दिव्यशक्ति है, जो इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का संचालन कर रही है। द्रष्टा बनकर दीर्घ एवं सूक्ष्म गति से श्वास को लेते एवं छोड़ते समय श्वास की गति इतनी सूक्ष्म होनी चाहिए कि स्वयं को भी श्वास की ध्वनि की अनुभूति न हो तथा यदि नासिका के आगे रूई भी रख दें तो वह हिले नहीं। धीरे-धीरे अभ्यास बढ़ाकर प्रयास करें कि एक मिनट में एक श्वास तथा एक प्रश्वास चले। इस प्रकार श्वास को भीतर तक देखने का भी प्रयत्न करें। प्रारम्भ में श्वास के स्पर्श की अनुभूति मात्र नासिकाग्र पर होगी। धीरे-धीरे श्वास के गहरे स्पर्श को भी अनुभव कर सकेंगे। इस प्रकार कुछ समय तक श्वास के साथ द्रष्टा, अर्थात् साक्षीभावपूर्वक ओंकार का जप करने से ध्यान


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स्वतः होने लगता है। आपका मन अत्यन्त एकाग्र तथा ओंकार में तन्मय और तद्रूप हो जायेगा। प्रणव के साथ-साथ वेदों के महान् मन्त्र गायत्री का भी अर्थपूर्वक जप एवं ध्यान किया जा सकता है। इस प्रकार साधक ध्यान करते-करते सच्चिदानन्द-स्वरूप ब्रह्म के स्वरूप में तद्रूप होता हुआ समाधि के अनुपम दिव्य आनन्द को भी प्राप्त कर सकता है। सोते समय भी इस प्रकार ध्यान करते हुए सोना चाहिए। ऐसा करने से निद्रा भी योगमयी हो जाती है, दु:स्वप्न से भी छुटकारा मिलेगा तथा निद्रा शीघ्र आयेगी एवं प्रगाढ़ रहेगी।


प्रणव प्राणायाम का समय


द्रष्टा बनकर या साक्षी होकर जब एक लय के साथ श्वासों पर मन को केन्द्रित कर देते हैं तो प्राण स्वतः सूक्ष्म हो जाता है और 10 से 20 सेकण्ड में एक बार श्वास अन्दर जाता है और 10 से 20 सेकेण्ड में श्वास बाहर निकलता है। लम्बे अभ्यास से योगी का 1 मिनट में एक ही श्वास चलने लग जाता है। भस्त्रिका, कपालभाति, बाह्य, अनुलोम-विलोम, भ्रामरी एवं उद्गीथ के बाद यह विपश्यना या प्रेक्षाध्यान रूप प्रणव प्राणायाम किया जाता है। यह पूरी तरह ध्यानात्मक है। 3 से 5 मिनट प्रत्येक व्यक्ति को यह ध्यानात्मक प्राणायाम अवश्य करना चाहिए। समाधि के अभ्यासी योगी साधक प्रणव के ध्यान के साथ श्वासों की इस साधना को समय की उपलब्धता के अनुसार घंटों तक भी करते हैं। इस प्रक्रिया में श्वास से किसी तरह की ध्वनि नहीं होती अर्थात् यह ध्वनिरहित साधना साधक को भीतर के गहरे मौन में ले जाती है, जहाँ साधक की इन्द्रियों का मन में, मन का प्राण में, प्राण का आत्मा में और आत्मा का विश्वात्मा अथवा परमात्मा में लय हो जाता है, इस प्रकार साधक को ब्रह्म का साक्षात्कार हो जाता है। प्राणायाम से प्रारम्भ हुई साधना से, अर्थात् प्राणायाम की निरन्तरता से प्रत्याहार, प्रत्याहार की निरन्तरता से धारणा, धारणा की निरन्तरता व दृढ़ता से ध्यान एवं ध्यान की निरन्तरता से समाधि की सहज प्राप्ति होती है। इस प्राण साधना से धारणा, ध्यान एवं समाधि के संयोग से 'त्रयमेकत्र संयमः' संयम प्राप्त होता है। संयम से प्रज्ञालोक, प्रज्ञालोक से सैल्फ हीलिंग एवं सैल्फ रियलाइज़ेशन की अनुभूति को साधक प्राप्त कर लेता है। उसके चारों ओर एक प्रखर आभामंडल तैयार हो जाता है जो एक अभेद्य सुरक्षा कवच बनकर साधक की सब व्याधियों एवं विकारों से रक्षा करता है।


ओ३म्


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प्रस्तुति :― आर्य दीपक


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