बाल सत्यार्थ प्रकाश BAAL SATYARTHPRAKASH
Bal Satyartha Prakash
बाल सत्यार्थ प्रकाश
(संसार के महान् मार्गदर्शक ग्रन्थ का संक्षिप्त रूपान्तर)
प्रस्तुतकर्त्ता स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द
© गोविन्दराम हासानन्द
प्रकाशक : विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द
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वैदिक-ज्ञान-प्रकाश का गरिमापूर्ण 94वाँ वर्ष (1925-2019)
संस्करण : 2019
मूल्य : ₹40.00
मुद्रक : जयमाया ऑफसैट, दिल्ली
BAAL SATYARTHPRAKASH
by Swami Jagdishwaranand Saraswati
भूमिका
सत्य और असत्य का विवेक, धर्मं और अधर्म की व्याख्या, प्रभु से मिलने का मार्ग-दर्शन यदि किसी ग्रन्थ में एक स्थान पर खोजना हो तो वह ग्रन्थ है "सत्यार्थप्रकाश" |
सत्यार्थप्रकाश 'सत्य' का ऐसा प्रकाश-स्तम्भ है जिसे पढ़ कर मन और मस्तिष्क पर छाया अज्ञान-तिमिर स्वतः समाप्त हो, ज्ञान और सत्य प्रकट होकर, अन्तर को आलोक से भर देता है | धर्मं के नाम पर अधर्म, पुण्य के नाम पर पाप और सत्य के नाम पर असत्य तभी तक कहीं रह सकता है जब तक की वहां "सत्यार्थप्रकाश" नहीं पहुँचा |
वस्तुतः आज भटके हुए मानव समुदाय को मृत्यु-मार्ग से हटाने और जीवन-पथ पर चलाने की सामर्थ्य यदि किसी एक ग्रन्थ में है तो वह है 'सत्यार्थप्रकाश'
'सत्यार्थप्रकाश' उस महान् व्यक्ति की रचना है जिसने जीवनभर कभी असत्य से समझौता नहीं किया, जिसके मन मे कभी किसी के प्रति एक पल के लिए भी द्वेष नहीं उभरा, जो मनुष्यमात्र के उत्थान और कल्याण के लिये मृत्युपर्यन्त संघर्ष रत रहा | जिसके ह्रदय मे सभी के प्रति माँ की ममता और स्नेह का सागर उमडता था |
ऋषि दयानंद का खंडन किसी मतविशेष के प्रति विरोध का सूचक न होकर अज्ञान, अधर्म और असत्य की समाप्ति के लिए था | वे चाहते थे कि-
(१) मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य जाने और एक परमात्मा को अपना उपास्य देव मान मोक्ष-मार्ग का पथिक बने |
(२) वे मनुष्य और मनुष्य के मध्य खड़ी भेद-भाव की दीवारों को मानवजाति के पतन और द्वेष का कारण मानते थे, इसलिये उनका लक्ष्य मनुष्यों के चलाये मतवादों को समाप्त कर धर्म के उस स्वरुप को स्थापित करना था, जिसमें, व्यक्ति, देश, काल, जाति, वर्गविशेष के लिये कोई पक्षपात न हो |
(३) सत्य, प्रेम, न्याय और ज्ञान ऋषि के अस्त्र थे | इन्ही के बल पर, इन्ही का प्रसार उनका इष्ट और मनुष्यमात्र की उन्नति उनका परम लक्ष्य था |
उस महान् ग्रन्थ को बच्चों और जनसाधारण तक पंहुचाने के पवित्र उद्देश्य से स्वामी श्री जगदीश्वरानन्दजी सरस्वती ने अपने वर्षों के स्वाध्याय के आधार पर यह बाल सत्यार्थप्रकाश लिखकर महत्वपूर्ण कार्य किया है | इस ग्रन्थ को हम सत्यार्थप्रकाश की कुंजी भी कह सकते हैं |
जनमानस में ज्ञान के अंकुर उगाने मे यह प्रयत्न सफलता प्राप्त कर सकेगा, इस विश्वास के साथ सादर यह अनमोल ग्रन्थ आपकी सेवा मे प्रस्तुत है |
प्रभु हमारे मन और मस्तिष्क में ज्ञान ज्योति जाग्रत करें-
आशीर्वाद के साथ
-भारतेन्द्र नाथ
विषय-सूची
विषय
प्रथम समुल्लास
ईश्वरनामव्याख्या
द्वितीय समुल्लास
शिक्षा-विषयः
तृतीय समुल्लास
अध्ययनाध्यापन-विधिः
चतुर्थ समुल्लास
समावर्तन, विवाह और गृहस्थाश्रम-विधिः
पञ्चम समुल्लास
वानप्रस्थ एवं संन्यास-विधि:
षष्ठ समुल्लास
राज-प्रजा-धर्मविषयः
सप्तम समुल्लास
ईश्वर और वेदविषयः
अष्टम समुल्लास
सृष्टि-उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलयविषयः
नवम समुल्लास
विद्या-अविद्या, बन्ध और मोक्षविषयः
दशम समुल्लास
आचार-अनाचार, भक्ष्य और अभक्ष्यविषयः
Pratham Samullas
"ओ३म्"
प्रथम-समुल्लास:
ओ३म् शन्नों मित्र: शं वरुण: शन्नो भवत्वर्यमा | शन्न इन्द्रो ब्रहस्पति: शन्नो विष्णुरुरुक्रमः | नमो ब्रह्मणे नमस्ते वायो त्वमेव प्रत्यक्षं ब्रह्मासि | त्वामेव प्रत्यक्षं ब्रह्म वदिष्यामि | ऋतं वदिष्यामि | सत्यं वदिष्यामि | तन्मामवतु तद्वक्तारमवतु | अवतु मामवतु वक्तारम |
ओ३म् शान्तिश्शान्तिश्शान्तिः
परमेश्वर का निज एवं सर्वोतम नाम
परमात्मा के गुण -कर्म और स्वभाव अनन्त हैं, अतः उसके नाम भी अनन्त हैं | उन सब नामों में परमेश्वर का 'ओ३म्' नाम सर्वोतम है, क्योंकि यह उसका मुख्य और निज नाम है, इसके अतिरिक्त अन्य सभी नाम गौणिक है | जैसे हाथी के पैर में सभी के पैर आ जाते हैं, वैसे ही इस ओउम् नाम में परमात्मा के सभी नामों का समावेश हो जाता है | एक उदाहरण लीजिए | एक व्यक्ति का नाम कृष्णचंद्र है | यह किसी का पिता है, किसी का पुत्र, किसी का पति, किसी का भाई और किसी का चाचा, परन्तु ये पिता आदि उसके नाम नहीं हैं | उसका मुख्य और निज नाम तो कृष्णचंद्र है | ठीक इसी प्रकार परमात्मा का मुख्य और निज नाम तो ओ३म् ही है | वेदादि शास्त्रों में भी ऐसा ही प्रतिपादन किया गया है | कठोपनिषद् में लिखा है |
सर्वे वेदा यत्पदमामनन्ति तपांसि सर्वाणि च यद्वदन्ति | यदिच्छन्तो ब्रह्मचर्यं चरन्ति तत्ते पदं संग्रहेण ब्रवीम्योमित्येतत् || -कठो० २ | २५
सब वे़द जिस प्राप्त करने योग्य प्रभु का कथन करते हैं, सभी तपस्वी जिसका उपदेश करते हैं, जिसे प्राप्त करने के लिए ब्रह्मचर्य का धारण करते हैं, उसका नाम ओ३म् है |
यह ओम् शब्द तीन अक्षरों के मेल से बना है-अ, उ और म् | इन तीन अक्षरों से भी परमात्मा के अनेक नामों का ग्रहण होता है, जैसे –
अकार से -विराट, अग्नि और विश्वादि |
उकार से -हिरण्यगर्भ, वायु और तैजस आदि |
मकार से -ईश्वर, आदित्य और प्राज्ञ आदि |
यहाँ इतना और जान लेना चाहिए कि अग्नि आदि ये नाम प्रकरणानुकूल अन्य पदार्थों के भी होते हैं, जहाँ जिसका प्रकरण हो वहाँ उसका ग्रहण करना चाहिए | जैसे किसी स्वामी ने अपने सेवक से कहा -"हे भृत्य! तू सैन्धव ले-आ |' तब उसे प्रकरण अर्थात् समय का विचार करना चाहिए, क्योंकि सैन्धव के दो अर्थ हैं- एक घोड़ा और दूसरा नमक | यदि स्वामी का कहीं जाने का विचार हो तो घोड़ा लाना चाहिए और यदि स्वामी भोजन कर रहा हो तो नमक लाना चाहिए | जो नौकर गमन (जाने के) समय में नमक और भोजन के समय घोड़ा लाकर खड़ा कर दे तो उसका स्वामी यही कहेगा कि तू प्रकरणावित् नहीं है |
इस प्रकार जहाँ-जहाँ स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना हो और जहाँ सर्वज्ञ, व्यापक, शुद्ध, सनातन और सृष्टिकर्त्ता आदि विशेषण लिखें हों वहाँ अग्नि आदि नामों से परमेश्वर का ग्रहण होता है | इसके विपरीत वायोरग्निः (तैतिरियोपनिषद ब्रह्म० १) - वायु से अग्नि उत्पन्न हुआ -इत्यादि स्थलों में जहाँ उत्पत्ति, प्रलय आदि का वर्णन और जड़ तथा अल्पज्ञ आदि विशेषण होँ वहाँ अग्नि आदि नामों से परमेश्वर का ग्रहण नहीं होता | एक दृष्टान्त लीजिए | एक शब्द है 'स्वामी' | जहाँ उपासना का विषय हो वहाँ स्वामी शब्द से परमेश्वर का नाम ग्रहण करना चाहिए तथा अन्य व्यवहार करने की वस्तुओं में प्रकरणानुसार संसार की वस्तुओं का ग्रहण करना चाहिए | जैसे -'हे स्वामिन! तू मुक्ति-प्रदाता है, हम तेरी शरण में हैं- इस वाक्य में स्वामी शब्द परमेश्वर के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है, परन्तु 'हे स्वामिन! मास पूर्ण हो गया, हमारा वेतन दो'-यहाँ स्वामी से तात्पर्य ईश्वर से नहीं अपितु मनुष्य से है |
परमात्मा के सभी नाम सार्थक
जैसे संसार में दरिद्रादि का धनपति, अंधे का नयनसुख, वृद्ध का बालकराम और दुष्ट का भलेराम आदि नाम निरर्थक होते हैं वैसे परमात्मा का कोई भी नाम निरर्थक नहीं होता | परमात्मा के सभी नाम सार्थक हैं | परमात्मा के नाम कहीं गुणों के वाचक हैं, कहीं कर्मों के और कहीं स्वभाव के | जैसे स्वप्रकाश होने से 'अग्नि' है, विज्ञानस्वरूप होने 'मनु' है, सबका जीवनमूल होने से परमेश्वर का नाम 'ब्रह्म' है |
परमात्मा के सौ नाम
'ओ३म्' के अतिरिक्त प्रभु के अनन्त नाम हैं, क्योंकि प्रभु के गुण-कर्म और स्वभाव अनन्त हैं | प्रत्येक गुण-कर्म-स्वभाव का एक-एक नाम है | जैसे- सब जगत का रचयिता होने के कारण परमात्मा 'ब्रह्मा' है, इस जगत का निर्माण करके सबके अन्दर व्याप्त होकर वे ही ब्रह्माण्ड को धारण कर रहे हैं, अतः उनका नाम 'विष्णु' है | सारे संसार का संहार करने के कारण वे 'रूद्र' हैं | सबका कल्याण करने के कारण वे 'शिव' हैं | सबसे श्रेष्ठ होने के कारण उनका नाम 'वरुण' है | बड़ों से भी बड़ा होने के कारण वह 'बृहस्पति' हैं | देवों का देव होने के कारण वे 'महादेव' हैं | समर्थों में समर्थ होने के कारण वह 'परमेश्वर' है | स्वयं आनन्दस्वरूप और सबको आनन्द देने के कारण वह 'चन्द्र' है सबका कल्याण कर्ता होने के कारण उसका नाम 'मंगल' है | बलवानों-से-बलवान होने के कारण उसका नाम 'वायु' है | इस प्रकार महर्षि ने इस समुल्लास में परमात्मा के सौ१ नामों की निरुक्ति की है, परन्तु इन सौ नामों के अतिरिक्त भी परमात्मा के अनेक नाम हैं | ये सौ नाम-सिन्धु में बिन्दुवत ही हैं |
१. स्वामी वेदानन्दजी ने सत्यार्थ-प्रकाश के सौ नामों की गणना इस प्रकार दी है-
१.ओ३म् २.ख़म् ३.ब्रह्म ४.अग्नि ५.मनु ६.प्रजापति ७.इन्द्र ८.प्राण ९.ब्रह्मा १०.विष्णु ११.रूद्र १२.शिव १३.अक्षर १४.स्वराट १५.कालाग्नि १६.दिव्य १७.सुपर्ण १८.गुरुत्मान् १९.मातरिश्वा २०.भू २१.भूमि २२.अदिति २३.विश्वधाया २४.विराट २५.विश्व २६.हिरण्यगर्भ २७.वायु २८.तैजस् २९.ईश्वर ३०.आदित्य ३१.प्राज्ञ ३२.मित्र ३३.वरुण ३४.अर्यमा ३५.बृहस्पति ३६.उरुक्रम ३७.सूर्य ३८.आत्मा,परमात्मा ३९.परमेश्वर ४०.सविता ४१.देव, देवी ४२.कुबेर ४३.पृथिवी ४४.जल ४५.आकाश ४६.अन्न ४७.अन्नाद,अत्ता ४८.वसु ४९.नारायण ५०.चन्द्र ५१.मंगल ५२.बुध ५३.शुक्र ५४.शनैश्चर ५५.राहु ५६.केतू ५७.यज्ञ ५८. होता ५९.बन्धु ६०.पिता,पितामह,प्रपितामह ६१.माता ६२.आचार्य ६३.गुरु ६४.अज ६५.सत्य ६६.ज्ञान ६७.अनन्त ६८.अनादि ६९.सच्चिदानंद ७०.नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभाव ७१.निराकार ७२.निरञ्जन ७३.गणेश ७४.गणपति ७५.विश्वेश्वर ७६.कूटस्थ ७७.शक्ति ७८.श्री ७९.लक्ष्मी ८०.सरस्वती ८१.सर्वशक्तिमान् ८२.न्यायकारी ८३.दयालु ८४.अद्वैत ८५.निर्गुण ८६.सगुण ८७.अन्तर्यामी ८८.धर्मराज ८९.यम ९०.भगवान् ९१.पुरुष ९२.विश्वम्भर ९३.काल ९४.शेष ९५.आप्त ९६.शंकर ९७.महादेव ९८.प्रिय ९९.स्वयम्भूऔर १००.कवि |
सगुण और निर्गुण
सगुण और निर्गुण नाम परस्पर विरुद्ध से प्रतीत होते हैं, क्योंकि लोक में साकार को सगुण और निराकार को निर्गुण कहतें हैं, परन्तु सगुण का अर्थ साकार नहीं हो सकता | सगुण का अर्थ है गुण-सहित और निर्गुण का अर्थ है गुण-रहित | परमात्मा सर्वज्ञता, पवित्रता, बल, पराक्रम, दयालुता आदि गुणों से युक्त हैं, अतः वह सगुण है तथा रूप, रस, स्पर्श, गन्ध आदि जड़ के गुणों, अविद्या, राग, द्वेष आदि क्लेशों और नस, नाड़ी आदि के बन्धन से रहित होने के कारण परमात्मा को निर्गुण कहते हैं |
जैसे पृथिवी गन्धादिगुणों से युक्त होने के कारण सगुण और इच्छादि गुणों से रहित होने से निर्गुण है वैसे ही जगत और जीव के गुणों से पृथक होने से परमेश्वर निर्गुण और सर्वज्ञादि गुणों से युक्त होने से सगुण है, अर्थात् ऐसा कोई भी पदार्थ नहीं है जो सगुणता और निर्गुणता से पृथक हो | जैसे चेतन के गुणों से पृथक होने से जड़ पदार्थ निर्गुण और अपने गुणों से सहित होने से सगुण, वैसे ही जड़ के गुणों से पृथक होने से जीव निर्गुण और इच्छादि अपने गुणों से सहित होने से सगुण- ऐसे ही परमेश्व्वर में भी समझना चाहिए |
परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना व उपासना
स्तुति, प्रार्थना और उपासना श्रेष्ठ की ही करनी चाहिए | श्रेष्ठ उसको कहते हैं जो गुण-कर्म-स्वभाव और सत्य-व्यवहारों में सबसे अधिक हो | उन सब श्रेष्ठों में भी जो अत्यंत श्रेष्ठ, उसे परमेश्वर कहतें हैं, क्योंकि उसके तुल्य न कोई हुआ, न है और न होगा | जब उसके तुल्य ही नहीं तो उससे उत्तम कैसे हो सकता है? जैसे परमेश्वर के सत्य, न्याय, दया, सर्वसामार्थ्य, सर्वज्ञत्वादि अनन्त गुण हैं, वैसे अन्य किसी जड़पदार्थ या जीव के नहीं हैं | जो पदार्थ सत्य हैं उसके गुण-कर्म-स्वभाव भी सत्य ही होते हैं | इसलिए मनुष्यों को योग्य कि परमेश्वर की ही स्तुति, प्रार्थना और उपासना करें उससे भिन्न की कभी न करें, क्योंकि ब्रह्मा, विष्णु, महादेव नामक पूर्वज महाशय विद्वान, दैत्य-दानव आदि निकृष्ट मनुष्य और अन्य साधारण मनुष्यों नें भी परमेश्वर ही में विश्वास करके उसी की स्तुति, प्रार्थना और उपासना की, उससे भिन्न की नहीं | हम सबको भी ऐसा ही करना चाहिए क्योंकि-
योऽन्यां देवतामुपासते न स वेदयथा पशुरेव स देवानाम || -शतपथ० १४ | ४ | २ | २२
जो एक परमेश्वर को छोड़कर अन्य किसी देवता की उपासना करता है, वह कुछ भी नहीं जानता, वह विद्वानों में पशु ही है |
शान्तिः, शान्तिः, शान्तिः ||
इस तीन बार शान्तिपाठ का प्रयोगन यह है कि संसार में जो तीन प्रकार के दुःख हैं उनकी निवृति हो जाए | वे तीन प्रकार के दुःख हैं-
१. आध्यात्मिक दुःख- ये वे दुःख हैं जो आत्मा और शारीर में अविद्या, राग, द्वेष, मूर्खता और ज्वर आदि के कारण होते हैं |
२. आधिभौतिक दुःख- ये वे दुःख हैं जो शत्रु, व्याघ्र और सर्पादि दूसरे प्राणियों से प्राप्त होते हैं |
३. आधिदैविक दुःख- ये वे दुःख हैं जो अतिवृष्टि, अनावृष्टि, अतिशीत, अत्युष्णता, तथा मन और इन्द्रियों के विकार,अशुद्धि और चञ्चलता से उत्पन्न हैं|
मङ्गलाचरण
सब उत्तम कर्मों का आरम्भ 'ओउम्' का स्मरण करके ही करना चाहिए | ग्रन्थ के आरम्भ में भी 'ओउम्' अथवा 'अथ' लिखना चाहिए | प्राचीन् ऋषि-मुनि भी अपने ग्रन्थों के आरम्भ में 'ओउम्' या 'अथ' ही लिखते थे |
आजकल कुछ लोग 'श्रीगणेशाय नमः' 'हनुमते नमः' 'शिवाय नमः' 'दुर्गायै नमः' इत्यादि लिखते हैं- ये वेद और शास्त्रों के विरुद्ध होने से त्याज्य हैं।
इसी प्रकार-
नूतनजलधररुचये गोपवधुटीदुकूलचौराय |
तस्मै श्रीकृष्णाय नमः संसारमहीरुहस्य बीजाय ||
अर्थात- नवीन मेघ की कान्ति के समान कान्तिवाले, गोपों की स्त्रियों के वस्त्रों को चुरानेवाले और संसाररूपी वृक्ष के बीज श्रीकृष्ण को नमस्कार करता हूँ |
इस प्रकार के मंगलाचरण भी अवैदिक हैं | सांख्य- शास्त्र के अनुसार मंगलाचरण की परिभाषा निम्न है -
मंगलाचरणम् शिष्टाचारात्फलदर्शनात्श्रुतितश्चेति |
-सांख्य ५ | १
जो न्यायकारी, पक्षपात-रहित, सत्य, वेदोक्त ईश्वर की आज्ञा है उसी का यथावत् सर्वत्र और सदा आचरण करना मंगलाचरण कहलाता है | ग्रन्थ के आदि से लेकर समाप्ति पर्यन्त सत्याचार का करना ही मंगलाचरण है, न कि कहीं मंगल और कहीं अमंगल लिखना |
वैदिक लोग वेद के आरम्भ में 'हरिःओ३म्' लिखते और पढ़ते हैं यह भी पौराणिक और तान्त्रिक लोगों की मिथ्या कल्पना है | जब ओ३म् नाम सर्वश्रेष्ठ है तब उससे पूर्व किसी और नाम को स्थान देना ठीक नहीं | वेदादि शास्त्रों में हरि शब्द आदि में कहीं नहीं है, अतः हमें साम्प्रदायिक आग्रह से ऊपर उठकर तथा प्राचीन पद्धति को ध्यान में रखते हुए 'ओ३म्' या 'अथ' शब्द ही ग्रन्थ के आदि और अन्त में लिखने चाहिएँ |
इति प्रथमः समुल्लासः सम्पूर्ण: || १ ||
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Dvitiya Samullas
द्वितीय-समुल्लासः
शिक्षा-विषयः
तीन गुरु
शतपथब्राह्मणमें कहा है- मातृमान् पितृमान् आचार्यवान् पुरुषो वेद ||
वस्तुतः जब तीन उत्तम शिक्षक अर्थात् एक माता, दूसरा पिता और तीसरा आचार्य हो तभी मनुष्य ज्ञानवान् होता है |
वह कुल धन्य है! वह सन्तान बड़ा भाग्यवान्! जिसके माता-पिता धार्मिक विद्वान् होँ | इनमें भी जितना माता से सन्तानों को उपदेश और उपकार पहुँचता है उतना अन्य किसी से नहीं | जितना माता सन्तानों पर प्रेम और उनका हित करना चाहती है उतना अन्य कोई नहीं करता | महाभारत में ठीक ही कहा है- "गुरुणाञ्चैव सर्वेषां माता परमको गुरु:"- सब गुरुओं में माता परम गुरु है | धन्य है वह माता कि जो गर्भाधान से लेकर जबतक विद्या पूरी न हो तबतक सुशीलता का उपदेश करती है |
गर्भस्थ बालक पर माता की प्रत्येक चेष्टा और क्रिया का प्रभाव पड़ता है |
माता और पिता को उचित है कि बालक के गर्भ में आने से पूर्व, मध्य और पश्चात् मादक द्रव्य, मद्य, दुर्गंधयुक्त, रुक्ष, बुद्धिनाशक पदार्थों को छोड़के शान्ति, आरोग्य, बल, बुद्धि, पराक्रम को बढ़ानेवाले घृत, दुग्ध, मिष्ट आदि उत्तम पदार्थों का सेवन करें जिससे रज और वीर्य दोषों से रहित होकर उत्तम गुण युक्त होँ | भोजन के विषय में बहुत सावधान रहना चाहिए, क्योंकि- जैसा अन्न खाया जाता है वैसी ही सन्तान बनती है |
माता द्वारा शिक्षण
सबसे पूर्व बच्चा माता के गर्भ और गोद में पलता है, अतः
१. माता बालकों को सदा उत्तम शिक्षा किया करे जिससे सन्तान सभ्य होँ और किसी अंग से कुचेष्टा न करने पाएँ |
२. जब बालक बोलने लगे तब माता ऐसा उपाय करे कि बालक की जिह्वा कोमल होकर अक्षरों का स्पष्ट और मधुर उच्चारण कर सके | बालकों के साथ तोतली बोली में बोलना उचित नहीं |
३. जब वह कुछ-कुछ बोलने और समझने लगे तब सुन्दर वाणी और बड़े-छोटे, मान्य, माता-पिता, राजा, विद्वान् आदि से भाषण, उनके साथ व्यवहार तथा उनके पास बैठने आदि की शिक्षा करे१ जिससे उनकी सर्वत्र प्रतिष्ठा हुआ करे, कहीं अपमान न हो |
४. माता ऐसा प्रयत्न करे जिससे सन्तान जितेन्द्रिय, विद्याप्रिय और सत्संग में रूचि रखनेवाली बने | उन्हें ऐसी शिक्षा प्रदान की जाए कि व्यर्थ क्रीडा, रोदन, हास्य, लड़ाई-झगडा, हर्ष-शोक, किसी पदार्थ में लोलुपता और ईर्ष्या-द्वेष न करें |
५. सदा ऐसा प्रयत्न करें कि बालकों में सत्य-भाषण, शौर्य, धैर्य एवम् प्रसन्नता आदि गुणों का विकास हो |
६. जब बालक-बालिका पाँच-पाँच वर्ष के होँ तब उन्हें देवनागरी-अक्षरों का अभ्यास करावें | तत्पश्चात् अन्य देश की भाषाएँ भी सिखाएँ | फिर ऐसा, मन्त्र, श्लोक, सूत्रादि अर्थ-सहित कण्ठस्थ करा दें, जिनसे उन्हें अच्छी शिक्षा मिले; विद्या, धर्मं और ईश्वर के सम्बन्ध में ज्ञान प्राप्त हो तथा माता-पिता, आचार्य, विद्वान्, अतिथि, भाई-बहिन, नौकर-चाकर आदि से कैसे वर्तना इसकी शिक्षा भी मिल सके |
भूत-प्रेत खण्डन
माता को चाहिए कि जो-जो विद्या-धर्मविरुद्ध और भ्रान्तिजाल में गिराने वाले व्यवहार हैं उनका भी उपदेश कर दें, जिससे बालकों को भुत-प्रेत आदि मिथ्या बातों में विश्वास न हो |
मृतक शरीर का नाम 'प्रेत' है | जब शरीर का दाह हो जाता है तब उसका नाम भूत होता है, अर्थात् अमुक नाम का पुरुष था, वह अब नहीं रहा | संसार में जितने मनुष्य उत्पन्न हुए और काल के गाल में समा गये- वे भूतस्थ हैं, इससे उनका नाम भूत है | ऐसा ब्रह्मा से लेकर आज तक के विद्वानों का सिद्धान्त है, परन्तु जिसे शंका, कुसंग और कुसंस्कार होता है उसी को भय और शंकारूपी भूत-प्रेत, डाकिनी, शाकिनी आदि दुःखदायी होते हैं | अज्ञानी लोगों ने सन्निपात, ज्वर आदि शारीरिक और उन्मदादि मानसिक रोगों का नाम भूत-प्रेत रख दिया है | औषध आदि से चिकित्सा न कराके ये अज्ञानी भंगी, चमार, धूर्त और पाखण्डियों से झूठे यन्त्र और मन्त्र बँधवाते फिरते हैं | जब ये अज्ञानी धूर्तों के पास जा कर पूछते हैं-"महाराज! पता नहीं इस लड़का, लड़की, स्त्री अथवा पुरुष को क्या हो गया है?'' तब वे कहते हैं- "इसके शरीर में भूत प्रेत घुस गये हैं | यदि तुम इसका उपाय न करोगे तो ये न छूटेंगे और प्राण भी ले-लेंगे | जो तुम इतनी दक्षिणा दो तो हम झाड़ कर निकाल दें |" तब वे अज्ञानी और उनके सम्बन्धी कहते हैं- "महाराज! चाहे हमारा सर्वस्व ले-लीजिए, परन्तु इसे अच्छा कर दीजिए |" तब उन धूर्तों की बन पड़ती है | वे लोग झाँझ, मृदंग और ढोलक आदि ले के गाते और बजाते हैं | फिर उनमें से एक पाखण्डी उन्मत्त होकर नाच-कूदकर कहता है- "मैं इसके प्राण ले-लूँगा |" तब वे अज्ञानी उस भंगी-चमार के पाँव पकड़कर कहते हैं- "आप चाहे सो लीजिए इसको बचाइए |" तब वह धूर्त कहता है-"मैं हनुमान हूँ, लाओ पक्की मिठाई, तेल, सवा मन का रोट और लाल लँगोट |" "मैं देवी और भैरव हूँ, लाओ पाँच बोतल मद्य, बीस मुर्गी, पाँच बकरे, मिठाई और वस्त्र |" जब वे कहतें हैं कि "जो चाहो सो लो" तब तो वह पागल बहुत नाचने-कूदने लगता है, परन्तु कोई बुद्धिमान् उनकी भेंट पाँच जूता, दण्डा या चपेटा से करे तो उसके हनुमान, देवी या भैरव तुरन्त प्रसन्न होकर भाग जाते हैं, क्योंकि यह इनका धन ठगने का ढोंग है |
ज्योतिश्शाश्त्र और जन्मपत्र
इन धूर्तों की भांति ग्रहरूप ज्योतिषियों के पास जाकर कोई पूछे कि- "महाराज! इसको क्या है?" तो वे कहते हैं- "इसपर सूर्यादि क्रूर ग्रह चढ़े हैं |" माता-पिता को चाहिए कि बालकों को समझा दें कि सूर्यादि कोई क्रूर ग्रह नहीं हैं | जैसी यह पृथिवी जड़ है वैसे ही सूर्यादि लोक हैं | क्या ये चेतन हैं जो क्रोधित होकर दुःख और शांत हो कर सुख दे सकें? सुख-दुःख तो पुण्य और पाप का फल है, ग्रहों का नहीं | यहाँ कोई ऐसा प्रश्न करे कि- "क्या ज्योतिश्शास्त्र झूठा है और जन्मपत्र निष्फल है?" तो उसका उत्तर यह है कि ज्योतिश्शास्त्र में जो अंक, बीज, रेखागणित की विद्या है वह तो सत्य है, परन्तु फल की लीलावाला ज्योतिष् झूठा है | इस फलित-ज्योतिष् के आधार पर बने जन्मपत्र का नाम शोकपत्र ही है, क्योंकि जब सन्तान का जन्म होता है तब सबको आनन्द होता है, परन्तु वह आनन्द तभी तक होता है जबतक जन्मपत्र बनके ग्रहों का फल न सुन लिया जाए | यदि माता-पिता धनवान् होँ तो बहुत-सी लाल-पीली रेखाओं से चित्र-विचित्र और निर्धन होँ तो साधारण रीति से जन्मपत्र बनाकर जब पुरोहित सुनाने आता है तब बालक के माता-पिता ज्योतिषीजी के सामने बैठकर कहते हैं- "इसका जन्मपत्र अच्छा तो है?" ज्योतिषी कहता है- "जो है सुना देता हूँ | इसके जन्मग्रह बहुत अच्छे और मित्रग्रह भी बहुत अच्छे हैं, जिनका फल धनाढ्य और प्रतिष्ठावान् होना है, जिस सभा में जा बैठेगा तो सबके ऊपर इसका तेज पड़ेगा, शरीर से आरोग्य और राजमानी होगा |" इत्यादि बातें सुनकर माता-पिता आदि कहते हैं- "वाह-वाह ज्योतिषीजी! आप बहुत अच्छे हैं |" ज्योतिषी समझता है कि इन बातों से कार्य सिद्ध नहीं होगा | तब वह कहता है- "ये ग्रह तो ठीक हैं, परन्तु ये ग्रह क्रूर हैं, अर्थात् अमुक-अमुक ग्रह के योग से आठ वर्ष की अवस्था में इसका मृत्युयोग है |" यह सुनकर माता-पिता पुत्रजन्म के आनन्द को छोड़कर शोकसागर में डूबकर ज्योतिषी से कहते हैं- "महाराज! अब हम क्या करें?" तब ज्योतिषीजी कहते हैं- "उपाय करो | दान करो | ग्रह के मन्त्रों का जाप कराओ और नित्य ब्राह्मणों को दान करो तो अनुमान है कि नवग्रहों के विघ्न हट जाएँगे |" अनुमान शब्द इसलिए है कि यदि मर जाए तो कहेंगे हम क्या करें, परमेश्वर के ऊपर कोई नहीं है, हमने तो यत्न किया और तुमने कराया, परन्तु उसके कर्म ही ऐसे थे | यदि बच जाए तो कहते हैं कि देखो! हमारे मन्त्र, देवता और ब्राह्मणों की कैसी शक्ति है कि तुम्हारे लड़के को बचा लिया |
यहाँ यह होना चाहिए यदि इनके पूजा-पाठ से कुछ न हो तो दुगुने-तिगुने रूपये उन दूर्तों से लेने चाहिएँ और बच जाए तो भी ले-लेने चाहिएँ, क्योंकि जैसे ज्योतिषियों ने कहा कि- "इसके कर्म और परमेश्वर के नियम तोड़ने का सामर्थ्य किसी का नहीं" वैसे गृहस्थ भी कहें कि- यह अपने कर्म और परमेश्वर के नियम से बचा है तुम्हारे करने से नहीं |"
मारण-मोहन, मन्त्र-तन्त्र
मारण-मोहन, उच्चाटन, मन्त्र-तन्त्र, यन्त्र, शीतला आदि- ये सब भी ढोंग है | बाल्यावस्था से ही सन्तानों के हृदय में यह बात डाल दें कि मारण-मोहन, रसायन और वशीकरण आदि की बातें महापामरपनकी बातें हैं | बालकों को समझा दें कि यदि कोई कहे कि- "जो हम मन्त्र पढ़, डोरा या यन्त्र बना देवें तो परमेश्वर, देवता और पीर उस मन्त्र, तन्त्र के प्रभाव से कोई विघ्न नहीं होने देते |" उनको यही उत्तर देना चाहिए कि क्या तुम परमेश्वर के नियम और कर्म फल से भी बचा सकोगे? तुम्हारे इस प्रकार करने से भी कितने ही लड़के मर जाते हैं और क्या तुम स्वयं मृत्यु से बच सकोगे? ऐसा उत्तर देने पर वे कुछ नही कह सकते और वे धूर्त जान लेते हैं कि यहाँ हमारी दाल नहीं गलेगी |
वीर्य-रक्षा = ब्रह्मचर्य का महत्त्व
माता-पिता बालकों को यह भी समझा दें कि वीर्य की रक्षा में आनन्द और नाश करने में दुःख है | जैसे- "देखो! जिसके शरीर में वीर्य सुरक्षित रहता है तब उसको आरोग्य, बुद्धि, बल, पराक्रम बढ़के बहुत सुख की प्राप्ति होती है | इसके रक्षण में यही रीति है कि विषयों की कथा, विषयी लोगों का संग, विषयों का ध्यान, स्त्री का दर्शन, एकान्त सेवन, सम्भाषण और स्पर्श आदि कर्म से ब्रह्मचारी पृथक् रहकर उत्तम शिक्षा और पूर्ण विद्या को प्राप्त होवें | जिसके शरीर में वीर्य नहीं होता वह नपुंसक, महाकुलक्षणी और जिसको प्रमेह रोग होता है वह दुर्बल, निस्तेज, निर्बुद्धि होता है, उत्साह, साहस, धैर्य, बल, पराक्रमादि गुणों से रहित हो कर नष्ट हो जाता है |"
माता-पिता और आचार्य
जन्म से पाँचवें वर्ष तक माता बालकों को शिक्षित करे | माता का अर्थ ही निर्माण करनेवाली है, अतः वह बालक के चरित्र-निर्माण की ओर पूरा ध्यान दे| माता की गोद से उतरकर बालक पिता की अंगुली पकड़ता है, अतःछठे से आठवें वर्ष तक पिता को बालक के जीवन में शिष्टाचार की स्थापना करनी चाहिए | नववें वर्ष के प्रारम्भ में द्विज अपने सन्तानों का उपनयन-संस्कार करके आचार्य कुल में, अर्थात् जहाँ पूर्ण विद्वान् और पूर्ण विदुषी स्त्री शिक्षा और विद्यादान करनेवाली होँ, वहाँ लड़के और लड़कियों को भेज दें |
शिक्षा में दण्ड का स्थान
जो माता-पिता और आचार्य सन्तान और शिष्यों का ताडन करते हैं वे जानो अपने सन्तान और शिष्यों को अपने हाथ से अमृत पिला रहे हैं और जो सन्तानों वा शिष्यों का लाडन करतें हैं वे अपने सन्तानों और शिष्यों को विष पिलाके नष्ट-भ्रष्ट कर देते हैं, क्योंकि लाडन से सन्तान और शिष्य दोष-युक्त और ताडन से गुणयुक्त होते हैं, परन्तु माता-पिता तथा आचार्य ईर्ष्या-द्वेष से ताडन न करें अपितु ऊपर से भय-प्रदान और भीतर से कृपादृष्टि रखें | जैसे कुम्हार घड़े में अन्दर हाथ लगाकर बाहर से चोट लगाता है, ऐसे ही माता-पिता आदि भी करें |
आचार्य द्वारा शिक्षण
आचार्य को ज्ञान के साथ-साथ सदाचार की भी शिक्षा प्रदान करनी होती है, क्योंकि आचार्य का अर्थ ही है -आचारं ग्राह्यति- जो आचार का ग्रहण कराता है
शिक्षा के साथ-साथ आचार्य चोरी, जारी, आलस्य, प्रमाद, मादकद्रव्य-सेवन, मिथ्याभाषण, हिंसा, क्रूरता, ईर्ष्या, द्वेष, मोह आदि दोषों को छोड़ने और सत्याचार के ग्रहण करने की शिक्षा करे |
आचार्य बालकों के हृदयों में यह बात अच्छी तरह बैठा दे कि-
१. जिस पुरुष ने जिसके सामने एक बार चोरी-जारी, मिथ्याभाषण आदि कर्म किया उसकी प्रतिष्ठा उसके सामने मृत्युपर्यन्त नहीं होती |
२. कभी मिथ्याभाषण और मिथ्या प्रतिज्ञा नहीं करनी, क्योंकि जैसी हानि मिथ्या प्रतिज्ञा करनेवाले की होती है, वैसी अन्य की नहीं | इससे जिसके साथ जैसी प्रतिज्ञा करनी उसके साथ वैसी ही पूरी करनी चाहिए, अर्थात् जैसे किसी ने किसी से कहा कि "मै तुमको या तुम मुझसे अमुक समय में मिलूँगा या मिलना अथवा अमुक वस्तु अमुक समय तुमको मैं दूँगा" इसको वैसी ही पूरी करे नहीं तो उसका विश्वास कोई भी नहीं करेगा |
३. किसी को अभिमान न करना चाहिए |
४. किसी के साथ छल, कपट अथवा कृतघ्नता नही करनी चाहिए, क्योंकि छल, कपट वा कृतघ्नता से अपना ही हृदय दु:खित होता है तो दूसरे का क्यों न होगा |
'छल' और 'कपट' उसको कहते हैं जो भीतर और, बाहर और, रख दूसरे को मोह में डाल और दूसरे की हानि पर ध्यान न देकर स्वप्रयोजन सिद्ध करना |
कृतघ्नता का अर्थ है कि किसी के किये हुए उपकार को न मानना |
५. क्रोधादि दोष और कटुवचन को छोड़ शान्त और मधुर वचन ही बोलें और बहुत बकवाद न करें | यजुर्वेद (२३ | २५) में कहा है- ब्रह्मन्मा त्वं वदो बहु |
हे ज्ञानिन्! तू बहुत मत बोला कर, अतः जितना बोलना चाहिए उससे न्यून वा अधिक न बोले |
६. बड़ों को मान्य दे, उन्हें उच्चासन पर बैठावे | प्रथम नमस्ते करे | उनके सामने उच्चासन पर न बैठे |
७. सभा में वैसे स्थान बैठे जैसी अपनी योग्यता हो और दूसरा कोई न उठावे |
८. विरोध किसी से न करे |
९. सम्पन्न होकर गुणों का ग्रहण और दोषों का त्याग रखें | दुष्टों का संग त्याग कर सज्जनों का संग करना चाहिए |
१०. अपने माता-पिता और आचार्य की तन, मन और धनादि उत्तम-उत्तम पदार्थों से प्रीतिपूर्वक सेवा करे |
११. सदा परमात्मा की उपासना करे |
१२. जिस प्रकार आरोग्य, विद्या और बल प्राप्त हो उसी प्रकार का भोजन, छादन और व्यवहार करें-करावें, अर्थात् जितनी भूख हो उससे कुछ न्यून भोजन करें |
१३. मद्य, मांस आदि का सेवन न करें |
१४. अज्ञात् गम्भीरजल में प्रवेश न करें, क्योंकि जल-जंतु वा अन्य किसी पदार्थ से दुःख होना सम्भवहै | इसीलिए महर्षि मनु (६ | ४६)ने कहा है-नाविज्ञाते जलाशये-अविज्ञाता जलाशय में प्रविष्ट होकर स्नान आदि न करें |
१५. नीचे दृष्टि कर ऊँचे-नीचे स्थान को देखकर चले, वस्त्र से छानकर जल पिये, सत्य से पवित्र करके वचन बोले और मन से विचार कर आचरण करे |
आचार्य की अभिमान-शून्यता
आचार्य विद्यार्थी को ज्ञान से परिपूर्ण करने का प्रयत्न करता है | माता पिता ने अपने बालकों को जो धर्म, विद्या, उत्तम आचरण के श्लोक, निघंटु, निरुक्त, अष्टाध्यायी अथवा वेद-मन्त्र आदि कंठस्थ कराये होँ उन-उनका अर्थ विद्यार्थियों को जनाना अच्रार्य का कर्त्तव्य है | आचार्य विद्यार्थी को ज्ञान से भरपूर और सदाचारी बनाकर गुरुकुल से विदाई देते हुए उन्हें सम्बोधित करते हुए कहता है -
यान्यस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतरानि | -तैति० १ | ११
हमारे जो-जो श्रेष्ठ कर्म हैं उन्हीं का तुम सेवन करना, यदि हममें कोई दोष, दुर्गण अथवा त्रुटि हो तो उसे छोड़ देना | इन सब्दों में आचार्य की कितनी निरहंकारिता झलकती है! सचमुच ऐसे आदर्श आचार्य ही विद्यार्थियों का निर्माण कर सकते हैं |
माता-पिता का परम धर्म
वे माता और पिता अपने संतानों के पूर्ण वैरी हैं जो अपने सन्तानों को विद्या के भूषण से भूषित नहीं करते, क्योंकि विद्याहीन बालक विद्वानों की सभा में वैसे ही तिरस्कृत और कुशोभित होते हैं जैसे हँसों के बीच में बगुला | इसलिए माता-पिता का यही कर्तव्य-कर्म, परमधर्म और कीर्ति का काम है कि अपने सन्तानों को तन, मन, धन, से विद्या, धर्म, सभ्यता और उत्तम शिक्षा से युक्त करना |
इति द्वितीया: समुल्लास: सम्पूर्ण: || २ ||
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Tritiya Samullas
तृतीय-समुल्लास:
अध्ययनाध्यापन-विधि:
सच्चे एवं अमुल्याभूषण
सन्तानों को उत्तम विद्या, शिक्षा, गुण-कर्म और स्वभावरूप आभूषणों का धारण कराना माता, पिता, आचार्य और सम्बन्धियों का मुख्य कर्म है | सोने, चांदी, माणिक, मोती, मूंगा, आदि रत्नों से युक्त आभूषणों को धारण करने से मनुष्य की आत्मा सुभूषित कभी नहीं हो सकती, क्योंकि आभूषणों के धारण करने से केवल देहाभिमान, विषयासक्ति और चोर आदि का भय तथा मृत्यु का भी सम्भव है | संसार में देखने में आता है कि आभूषणों के योग से बालकादिकों का मृत्यु दुष्टों के हाथ से होता है |
सच्चे आभूषण कौन-से हैं- विद्याविलासमनसो धृतशीलशिक्षा: सत्यव्रता रहितमानमलापहारा: |
संसारदुःखदलनेन सुभूषिता ये धन्या नरा विहितकर्मपरोपकारा: ||
जिन पुरुषों का मन विद्या के विलास में तत्पर रहता, सुन्दर शीलस्वभावयुक्त, सत्यभाषणादि नियमपालनयुक्त और जो अभिमान, अपवित्रता से रहित, अन्य की मलिनता के नाशक, सत्योपदेश, विद्यादान से संसारी जनों के दु:खों के दूर करने से सुभूषित, वेदविहित कर्मों से परोपकार में तत्पर रहते हैं- वे नर और नारी धन्य हैं |
इसीलिए जब बालक आठ वर्ष के होँ तभी लड़कों को लड़कों की और लड़कियों को लड़कियों की पाठशाला में भेज दें |
गुरुकुल=शिक्षणालय के नियम
१. द्विज अपने घर में लड़कों का यज्ञोपवीत और कन्याओं का यथायोग्य [ मुंडन आदि पर बल ना देते हुए ] संस्कार करके यथोक्त आचार्यकुल अर्थात् अपनी-अपनी पाठशाला में भेज देवें |
२. जो अध्यापक पुरुष वा स्त्री दुष्टाचारी होँ उनसे शिक्षा ना दिलाएँ, किन्तु जो पूर्ण विद्यायुक्त, धार्मिक होँ उनसे ही शिक्षा दिलाएँ |
३. विद्या पढ़ने का स्थान ग्राम वा नगर से चार कोस दूर एकान्त, शान्त स्थान में होना चाहिए तथा लड़के लड़कियों की पाठशालाएँ भी एक दूसरे से एक कोस दूर होनी चाहिएँ | इन गुरुकुलों में जो अध्यापक, अध्यापिका, नौकर-चाकर होँ वे कन्याओं की पाठशाला में सब स्त्री और पुरुषों की पाठशाला में पुरुष होँ | स्त्रियों की पाठशाला में पाँच वर्ष का लड़का और पुरुषों की पाठशाला में पाँच वर्ष की लड़की भी न जाने पाए |
४. सबको तुल्य वस्त्र, खान-पान, आसन दिये जाएँ, चाहे वे राजकुमार वा राजकुमारी होँ, चाहे दरिद्र के सन्तान होँ- सबको तपस्वी होना चाहिए |
५. विद्यार्थीगण न तो अपने माता-पिता से मिल ही सकें और न किसी प्रकार का पत्र-व्यवहार ही कर सकें, जिससे वे संसार की चिंता से मुक्त होकर केवल विद्या बढानें की चिन्ता रखें | जब भ्रमण करने के लिये जाएँ, तब अध्यापक उनके साथ रहें जिससे किसी प्रकार की कुचेष्टा न कर सकें और न आलस्य-प्रमाद करें |
शिक्षा के लिए राज एवं जाति-नियम
इस प्रकार के राज-नियम और जाति-नियम होने चाहिएँ कि पाँचवें अथवा आठवें वर्ष के आगे कोई भी माता-पिता अपने लड़कों-लड़कियों को घर में न रख सकें, पाठशाला में अवश्य भेज दें | जो न भेजें वे दण्डनीय होँ | यही बात महर्षि मनु ने कन्यानां साम्प्रदानं च कुमाराणा च रक्षणम् | [ ७ | १५२ ] इन शब्दों में व्यक्त की है |
गायत्री-मन्त्र का उपदेश
माता-पिता वा अध्यापक पुत्र-पुत्रियों का यज्ञोपवीत करके उन्हें अर्थ-सहित गायत्री-मन्त्र का उपदेश कर दें | यह मन्त्र निम्न है-
ओ३म् भूर्भुवः स्वः | तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि | धियों यो नः प्रचोदयात् || -यजु० ३६ | ३
(ओ३म्) सर्वरक्षक प्रभु (भू:) सब जगत् के जीवन का आधार, प्राणों से भी प्रिय और स्वम्भू है (भूवः) वह सब दु:खों से रहित और उसके संग से जीव सब दु:खों से छूट जाते हैं (स्वः) वह जगत में व्यापक हो के सबको धारण कर रहा है, अतः उसका नाम 'स्वः' है | ये तीन महाव्याह्रतियाँ कहाती हैं |
(सवितुः) सब जगत् के उत्पादक और सब ऐश्वर्य के प्रदाता (देवस्य) सब सुखों के देने वाले ओर जिसकी प्राप्ति की सब कामना करते हैं, उस परमात्मा का जो (वरेण्यम्) स्वीकार करने योग्य, अतिश्रेष्ठ (भर्गः) शुद्धस्वरूप और पवित्र करनेवाला चेतन ब्रह्मस्वरूप है (तत्) उसी परमात्मा के स्वरूप को हम लोग (धीमहि) धारण करें | किस प्रयोजन के लिये कि (यः) जो सविता देव परमात्मा (नः) हमारी (धियः) बुध्दियों को (प्रचोदयात्) प्रेरणा करें, अर्थात् बुरे कर्मों से छुडाकर अच्छे कामों में प्रवृत करे |
ब्रह्मयज्ञ अथवा सन्ध्योपासन
गायत्री-मन्त्र का उपदेश करके जो स्नान, आचमन, प्राणायाम, आदि क्रियाएँ हैं, उन्हें सिखलावें | स्नान से शरीर के बाह्य अवयवों की शुद्धि और आरोग्यता प्राप्त होती है | आचमन- उतने जल को हथेली में लें कि वह जल कण्ठ के नीचे हृदय तक ही पहुँचे, न उससे अधिक और न न्यून | फिर हथेली के मूल और मध्यदेश में ओष्ठ लगा कर आचमन करें | आचमन से कण्ठस्थ कफ और पित्त की निवृति थोड़ी-सी होती है | तत्पश्चात् मार्जन अर्थात् मध्यमा और अनामिका अंगुली के अग्रभाग से नेत्रादि अँगों पर जल छिडकें | इससे आलस्य दूर होता है | जो आलस्य और जल प्राप्त न हो तो न करें | पुनः समन्त्रक प्राणायाम, अघमर्षण, अर्थात् पाप करने की इच्छा भी न करें, पश्चात् मनसा-परिक्रमण, उपस्थान तथा परमेश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना की रीति सिखलावें |
यह सन्ध्योपासन एकान्त, शान्त स्थान में एकाग्रचित्त होकर करें | संध्या और अग्निहोत्र सायं-प्रातः दो ही कालों में करें, क्योंकि दो ही रात-दिन की सन्धि बेलाएँ हैं, अन्य नहीं | न्यून-से-न्यून एक घंटा ध्यान अवश्य करें | जैसे समाधिस्थ होकर योगी लोग परमात्मा का ध्यान करते हैं वैसे ही सन्ध्योपासन भी किया करें | सन्ध्योपासन को ब्रह्मयज्ञ भी कहते हैं |
प्राणायाम की विधि और लाभ
जैसे अत्यन्तवेग से वमन होकर खाया-पिया अन्न और जल बाहर निकल जाता है, वैसे ही प्राण को बल से बाहर फेंकके बाहर ही यथाशक्ति रोक दे और मूलेन्द्रिय को ऊपर खींच रखे | ऐसा करने से प्राण बाहर अधिक ठहर सकता है | जब घबराहट हो तब धीरे-धीरे वायु को भीतर ले के फिर भी वैसा ही करता जाए, जितना सामर्थ्य तथा इच्छा हो और मन में 'ओउम्' का जप करता जाए | इस प्रकार करने से आत्मा तथा मन की पवित्रता और स्थिरता होती है |
प्राणायाम चार प्रकार का होता है -१.बाह्यविषय,२ आभ्यन्तर,३ स्तम्भवृति और ४.बाह्याभ्यन्तराक्षेपी |
१. बाह्यविषय- अर्थात् प्राण को बाहर ही अधिक रोकना |
२. आभ्यन्तर- अर्थात् भीतर जितना प्राण रोका जा सके उतना रोकना |
३. स्तम्भवृति- अर्थात् एक ही बार जहाँ-तहाँ प्राण को यथाशक्ति रोक देना |
४. बह्याभ्यान्तराक्षेपी- अर्थात् जब प्राण भीतर से बाहर निकलने लगे तब उससे विरुद्ध न निकलने देने के लिए बाहर से भीतर ले और जब बाहर से भीतर आने लगे तब भीतर से बाहर की ओर प्राण को धक्का देकर रोकता जाए | ऐसे एक-दूसरे के विरुद्ध क्रिया करें तो दोनों की गति रूककर प्राण अपने वश में हो जाता है, फिर मन और इन्द्रियाँ भी वश में आ जाती हैं |
प्राणायाम से अशुद्धि का नाश और ज्ञान का प्रकाश होता है- जबतक मुक्ति नहीं होती तबतक उसके आत्मा का ज्ञान बराबर बढ़ता जाता है | जैसे अग्नि में तपाने से सुवर्णादि धातुओं का मल नष्ट हो कर वे धातु शुद्ध हो जाते हैं, वैसे ही प्राणायाम के द्वारा मन आदि इन्द्रियों के दोष क्षीण हो जाते हैं | मन तथा इन्द्रियाँ निर्मल हो जाती हैं, बल और पुरुषार्थ बढ़ जाता है | बुद्धि इतनी तीव्र और सूक्ष्म हो जाती है कि वह कठिन-से-कठिन और सूक्ष्म-से-सूक्ष्म विषय को ग्रहण कर लेती है | प्राणायाम करने वाला सब शास्त्रों को थोड़े ही काल में समझकर उपस्थित कर लेता है | प्राणायाम मनुष्य-शरीर में वीर्य की वृद्धि कर स्थिर बल, पराक्रम और जितेन्द्रियता प्रदान करता है | पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी प्राणायाम और योगाभ्यास करना चाहिए |
देवयज्ञ और अग्निहोत्र
देवयज्ञ का अर्थ है अग्निहोत्र और विद्वानों का संग एवं सेवा आदि | अग्निहोत्र का समय सूर्योदय के पश्चात् सूर्यास्त के पूर्व है | अग्निहोत्र के लिए निम्न उपकरणों की आवश्यकता है-
१. एक धातु अथवा मिट्टी की चौकोर वेदी इस प्रकार बनवा लें कि ऊपर जितनी चौड़ी हो उतनी ही गहरी हो, परन्तु नीचे का तल चतुर्थांश=चौथाई हो |
२. अग्निहोत्र के लिए चन्दन, पलाश वा आम्र आदि श्रेष्ठ काष्ठों के टुकड़े वेदी के परिमाण से छोटे-बड़े काट लिये जाएँ |
३. घृत रखने का पात्र और चमचा, सामग्री के लिए तश्तरियाँ, आचमन-पात्र आदि जुटा लिये जाएँ | ये पात्र- सोने, चाँदी, ताँबे अथवा काष्ठ के हों |
इस तैयारी के पश्चात् 'पञ्चमहायज्ञविधि' में लिखे, सूर्योज्योति...... इत्यादि मन्त्रों से प्रत्येक मनुष्य को सोलह-सोलह आहुतियाँ देनी चाहिएँ | एक आहुति का परिमाण न्यून-से-न्यून छह-छह माशे घृतादि होना चाहिए और जो इससे अधिक करे तो बहुत अच्छा है | यदि अधिक आहुति देनी होँ तो 'विश्वानि देव' और 'गायत्री-मन्त्र' से दे लें | ब्रह्मचारियों के लिए केवल ब्रह्मयज्ञ और अग्निहोत्र ही करना होता है | शेष तीन महायज्ञों का विधान ब्रह्मचारी के लिए नहीं है |
यज्ञ के लाभ
प्रश्न- यज्ञ से क्या लाभ हैं?
उत्तर- सब लोग जानते हैं कि दुर्गन्धयुक्त वायु और जल से रोग, रोग से प्राणियों को दुःख और सुगन्धित वायु तथा जल से आरोग्य और रोग के नष्ट होने से सुख प्राप्त होता है |
प्रश्न- चन्दनादि घिस के किसी के लगावे या घृतादि खाने को देवे तो बड़ा उपकार हो, अग्नि में ड़ालकर व्यर्थ नष्ट करना बुद्धिमानों का काम नहीं |
उत्तर- जो तुम पदार्थ-विद्या जानते तो ऐसी बात कभी नहीं कहते, क्योंकि किसी भी द्रव्य का अभाव कभी नहीं होता | देखो! जहाँ हवनहोता है वहाँ से दूर देश में स्थित पुरुष के नासिका से सुगन्ध का ग्रहण होता है वैसे दुर्गन्ध का भी, इतने ही से समझ लो कि अग्नि में डाला हुआ पदार्थ सूक्ष्म हो तथा फैल कर वायु के साथ दूर देश में जाकर दुर्गन्ध की निवृति करता है |
प्रश्न- जब ऐसा ही है तो केशर, कस्तूरी, सुगन्धित पुष्प और इत्र आदि के घर में रखने से सुगन्धित वायु होकर सुखकारक होगा |
उत्तर- उस सुगन्ध का वह सामर्थ्य नहीं है कि दुर्गन्धयुक्त गृहस्थ वायु को बाहर निकाल कर शुद्ध वायु का प्रवेश करा सके, क्योंकि उसमें भेदक शक्ति नहीं होती | यह अग्नि का ही सामर्थ्य है कि उस वायु और दुर्गन्ध युक्त पदार्थों को छिन्न-भिन्न और हल्का करके बाहर निकालकर पवित्र वायु का प्रवेश कर देता है |
प्रश्न- मन्त्र पढ़कर यज्ञ करने का क्या प्रयोजन है?
उत्तर- मन्त्रों में वह व्याख्यान है कि जिससे होम करने के लाभ विदित हो जाएँ और मन्त्रों की आवृति होने से कण्ठस्थ रहें | वेद-पुस्तकों का पठन-पाठन और रक्षण भी हो |
प्रश्न- क्या यज्ञ न करने से पाप भी होता है?
उत्तर- हाँ, क्योंकि जिस मनुष्य के शरीर से जितना दुर्गन्ध उत्पन्न होके वायु और जल को बिगाड़कर रोगोत्पत्ति का कारण होने से प्राणियों को दुःख प्राप्त कराता है, उतना ही पाप उस मनुष्य को होता है, अतः उस पाप के निवारणार्थ उतना वा उससे अधिक सुगन्ध वायु और जल में फैलाना चाहिए | खिलाने-पिलाने से एक व्यक्ति को लाभ होता है | जितना घृत और सुगन्धादि पदार्थ एक मनुष्य खाता है उतने द्रव् य के होम से लाखों मनुष्यों का उपकार होता है, परन्तु यदि लोग घृतादि उत्तम पदार्थ न खाएँ तो उनके शरीर और आत्मा के बल की उन्नति न हो सके | इससे अच्छे पदार्थ खिलाना-पिलाना भी चाहिए, परन्तु उससे होम अधिक करना चाहिए | इसलिए प्राचीन आर्य शिरोमणि महाशय, ऋषि, महर्षि, राजे-महाराजे लोग बहुत-सा होम करते और कराते थे | जबतक होम करने का प्रचार रहा तबतक आर्यावर्त देश रोगों से रहित और सुखों से पूरित था, अब भी प्रचार हो तो वैसा ही हो जाए |
ब्रह्मचर्याश्रम
ब्रह्मचर्याश्रम में अपने समय की तन्मयता से विद्याध्ययन में बिताना ही उचित है | गुरु के समीप रहकर ३६ वर्ष, १८ वर्ष वा न्यून-से-न्यून ९ वर्ष तक अथवा जबतक विद्या पूर्ण न हो जाए तबतक ब्रह्मचर्य रखे |
ब्रह्मचर्य तीन प्रकार का होता है- कनिष्ठ, मध्यम और उत्तम | इनमें कनिष्ठ ब्रह्मचर्य यह है कि पुरुष, अर्थात् शरीर में शयन करने वाला जीवात्मा शुभ गुणों से संगत रहे | उसे आवश्यक है कि चौबीस वर्ष पर्यन्त जितेन्द्रिय अर्थात् ब्रह्मचारी रहकर वेदादि विद्या और सुशिक्षा को ग्रहण करे तथा विवाह करके भी लम्पटता न करे तो उसके शरीर में प्राण बलवान् होकर सब शुभ गुणों के वास कराने वाले होते हैं | इसे 'वसु' ब्रह्मचारी कहते हैं | इसकी आयु भी सत्तर वा अस्सी वर्ष की होगी |
मध्यम ब्रह्मचर्य यह है कि मनुष्य चालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचारी रह कर वेदाभ्यास करे | ऐसा करने से उसके प्राण, इन्द्रियाँ, अन्तःकरणऔर आत्मा बलयुक्त होके सब दुष्टों को रुलाने और श्रेष्ठों का पालन करनेवाले होते हैं | इसे 'रूद्र' ब्रह्मचारी कहते हैं इसकी आयु भी सवासौ, डेढ़सौ वर्ष की होगी |
उत्तम ब्रह्मचर्य अड़तालीस वर्षपर्यन्त होता है | अड़तालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य रखनेवाले के प्राण उसके अनुकूल होकर सकल विद्याओं को ग्रहण करते हैं | इसकी आयु चारसौ वर्ष तक बढ़ सकती है | इसे 'आदित्य' ब्रह्मचारी कहते हैं |
जो मनुष्य इस ब्रह्मचर्य को प्राप्त होकर इसका लोप नहीं करते, वे सब प्रकार के रोगों से रहित होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त होते हैं |
जीवन-यात्रा का सामान्य क्रम
आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सुश्रुत' के अनुसार शरीर की चार अवस्थाएं हैं-
१. वृद्धि- सोलहवें वर्ष तक धातुओं की तेजी के साथ वृद्धि होती है |
२. यौवन- यह अवस्था सत्रहवें वर्ष से पच्चीसवें वर्षपर्यन्त कहाती है |इसमें स्त्री और पुरुष युवक और युवती कहाते हैं |
३. सम्पूर्णता- यह अवस्था छब्बीसवें वर्ष से चालीसवें वर्ष तक होती है | इसमें सब धातुओं की पुष्टि होती है |
४. किन्चित्परिहाणि- यह अवस्था चालीसवें वर्ष के पश्चात् आती है | इसमें सब धातुएँ क्रमशः घटने लगती हैं |
यही चालीसवाँ अथवा अधिक-से-अधिक अड़तालीसवाँ वर्ष विवाह के लिए सर्वोत्तम है |
स्त्री और पुरुष की विवाह आयु में कुछ भिन्नता भी होती है जैसे- पुरुष पच्चीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे तो कन्या सोलह वर्ष तक, पुरुष तीस वर्ष ब्रह्मचारी रहे तो स्त्री सत्रह वर्ष तक, पुरुष छत्तीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य का पालन करे तो स्त्री अठारह वर्ष तक, पुरुष चालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचारी रहे तो स्त्री बाईस वर्षपर्यन्त और पुरुष अड़तालीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करे तो स्त्री चौबीस वर्षपर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करना चाहिए | अड़तालीस वर्ष के पश्चात् पुरुष और चौबीस वर्ष के पश्चात् स्त्री को ब्रह्मचर्य न रखना चाहिए, परन्तु यह नियम विवाह करनेवाले पुरुष और स्त्रियों का है | जो विवाह करना ही न चाहें वे मरणपर्यन्त ब्रह्मचारी रह सकते होँ तो रहें, परन्तु यह काम पूर्ण विद्यावाले, जितेन्द्रिय और निर्दोष, योगी, स्त्री-पुरुष का है, क्योंकि काम के वेग को थामके इन्द्रियों को अपने वश में रखना बड़ा कठिन काम है |
गृहस्थाश्रम में प्रवेश करके भी स्वाध्याय-प्रवचन=पठन-पाठन को तिलांजली नहीं देनी चाहिए अपितु उत्तम आचरण करते हुए पढ़ें और पढ़ावें | तप=धर्मानुष्ठान करते हुए, शम=बाह्येन्द्रियों को बुरे आचरण से रोकते हुए, दम=मन की वृत्ति को सब दोषों से हटाते हुए अग्निहोत्र, अतिथियों की सेवा, सन्तान और राज्य का पालन, तथा वीर्य की रक्षा करते हुए पढ़ते-पढ़ाते जाएँ |
ब्रह्मचारियों के लिए विशेष नियम
ब्रह्मचारी अहिंसा-वैरत्याग, सत्य-सत्य जानना, सत्य मानना, सत्य बोलना, सत्य लिखना और सत्य ही करना, अस्तेय-मन, वचन, कर्म से चोरी त्याग, ब्रह्मचर्य-उपस्थेन्द्रिय का संयम और अपरिग्रह-अत्यन्त लोलुपता, स्वत्वाभिमानरहित होना- इन पाँच यमों का सेवन सदा करता रहे | इसी प्रकार शौच-स्नानादि से बाह्य पवित्रता; सत्यभाषण, राग-द्वेषादि के त्याग से आन्तरिक पवित्रता, सन्तोष- निरुद्यम रहने का नाम सन्तोष नहीं है अपितु यथाशक्ति पुरुषार्थ करते हुए हानि-लाभ में हर्ष वा शोक न करना, तप- कष्ट सहन करते हुए भी धर्मयुक्त कर्मों का ही अनुष्ठान करना, स्वाध्याय-वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना और ईश्वरप्रणिधान- ईश्वर की भक्ति विशेष से अपने आत्मा को अर्पित रखना- इन पाँच नियमों का सेवन भी ब्रह्मचारी सदा करें |
यम और नियम दोनों का सेवन साथ-साथ करना चाहिए, क्योंकि जो यमों को छोड़ कर केवल नियमों का पालन करता है वह अधोगति को प्राप्त होता है | अत्यन्त कामातुरता और बिलकुल निष्कामता- ये दोनों ही उचित नहीं है, क्योंकि कामना के अभाव में वेदज्ञान एवं वेद-विहित कर्मों में भी प्रवृति नहीं होगी | स्वाध्याय, व्रत=ब्रह्मचर्य, सत्यभाषण आदि, अग्निहोत्र, वेदविहित कर्मोपासना आदि उत्तम कर्मों की कामना करनी ही चाहिए | साथ ही जैसे सारथि घोड़ों को नियम में रखता है वैसे ही मन और आत्मा को खोटे कर्मों में खेंच ले-जानेवाली, विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में सदा प्रयत्न करता रहे, क्योंकि इन्द्रियों के वश में होकर जीवात्मा बड़े-बड़े दोषों को प्राप्त होता है और इन्द्रियों को अपने वश में करके अभीष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है | जो दुष्ट- आचरण करनेवाला अजितेन्द्रिय पुरुष है उसके वेद, त्याग, यज्ञ, नियम और तप तथा अन्य अच्छे काम कभी सिद्धि को प्राप्त नहीं होते |
वेद के पढ़ने-पढ़ाने, सन्ध्योपासनादि पञ्चमहायज्ञों के करने और होम मन्त्रों में कभी अनध्याय=छुट्टी नहीं करनी चाहिए | जैसे श्वास-प्रश्वास सदा लिये जाते हैं, बन्द नहीं किये जाते वैसे ही नित्यकर्म प्रतिदिन करना चाहिए | जैसे झूठ बोलने में सदा पाप सत्य बोलने में सदा पुण्य होता है वैसे ही बुरे कर्म करने में सदा अनध्याय और अच्छे कर्म करने में सदा स्वाध्याय ही होता है |
ब्रह्मचारी को सदा नम्र तथा सुशील होना चाहिए और वृद्धों की सेवा करनी चाहिए | वृद्धों की सेवा से आयु, विद्या, यश और बल- ये चार सदा बढते हैं | विद्यार्थियों को सदा मधुर और शीतलता युक्त वाणीं ही बोलनी चाहिए | उपर्युक्त नियमों का पालन करते हुए ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी गुरु के समीप रहते हुए धीरे-धीरे वेद को पढ़ते जाएँ | जो वेद को न पढ़ कर अन्यत्र श्रम करता है वह अपने पुत्र-पौत्रों सहित शीघ्र ही शुद्रभाव को प्राप्त हो जाता है |
ब्रह्मचारी के व्रत
ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी- मद्य, मांस, गन्ध, माला, रस, स्त्री और पुरुष का संग, सभी प्रकार की खटाई, प्राणियों की हिंसा, तेल-मालिश, बिना निमित्त उपस्थेन्द्रिय का स्पर्श, आखों में अञ्जन, जुते और छत्र का धारण, काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष, नाचना, गाना, बाजा बजाना, जुआ खेलना, जिस किसी की मिथ्या कथा, निन्दा, मिथ्या-भाषण और दूसरे की हानि आदि कुकर्मों को सदा छोड़ देवें | सर्वत्र एकाकी सोवें और वीर्यस्खलित कभी न करें |
आचार्य को शिष्यों का उपदेश
आचार्य अपने शिष्यों को वेद-अध्ययन के पश्चात् समावर्तन के समय निम्न उपदेश देता है-
अब संसार में जाने पर प्रलोभन में फंसकर झूठ न बोलना अपितु सत्य ही बोलना, धर्म का ही आचरण करना अधर्म का नहीं, स्वाध्याय में कभी प्रमाद न करना | पूर्ण ब्रह्मचर्य से समस्त विद्याओं का ग्रहण और आचार्य के लिए प्रियधन [दक्षिणा] देकर विवाह करके सन्तानोत्पति करना | तू प्रमाद से सत्य को कभी मत छोडना, धर्म का त्याग कभी मत करना, आलस्य और प्रमाद से तू आरोग्य और चतुराई को, ऐश्वर्य की वृद्दि को और पढ़ने-पढ़ाने को कभी मत छोडना | विद्वानों, माता-पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा में कभी प्रमाद मत करना | माता-पिता, आचार्य, अतिथि, में देवबुद्धि रखते हुए सदा उनकी सेवा करना | सत्य-भाषण आदि जो धर्मयुक्त कर्म हैं तुने उन्ही का सेवन करना है मिथ्या-भाषण आदि का नहीं | हमारे भी जो उत्तम चरित्र अर्थात् धर्मयुक्त कर्म होँ उनका ही ग्रहण करना, जो हमारे पापाचरण होँ उनका ग्रहण मत करना | हमारे मध्य में जो उत्तम विद्वान और धर्मात्मा ब्राह्मण है, उन्हीं के समीप बैठ और उन्हीं का विश्वास किया कर | दानशील बनना | श्रद्धा से देना, अश्रद्धा से देना, शोभा से देना, लज्जा से देना, भय से देना और प्रतिज्ञा से भी देना चाहिये | यदि कभी तुझे कर्म या शील के विषय में किसी प्रकार का सन्देह उत्त्पन्न हो जाए तो जो विचारशील, पक्षपातरहित योगी, अयोगी१, करुणासागर, धर्मात्मा ज्ञानी पुरुष होँ,- जैसे वे धर्म-मार्ग में वर्तें वैसे तू भी वर्तना | यही हमारा आदेश, उपदेश, सन्देश तथा शिक्षा है और ऐसा ही तू आचरण करना |
१ योगी न होते हुए भी जो व्यक्ति धर्म की कामना करनेवाला हो | ।
धर्माचरण का महत्व
कहने, सुनने-सुनाने और पढ़ने-पढ़ाने का फल यही है की वेद और वेदानकूल स्मृतियों में प्रतिपादित धर्म का आचरण करना, क्योंकि जो धर्माचरण से रहित है वह वेद प्रतिपादित धर्मजन्य सुखरूप फल को प्राप्त नहीं हो सकता, जो विद्या पढ़कर धर्माचरण करता है वही सुख को प्राप्त होता है |
धर्माधर्म के लक्षण
वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः |
एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम् ||
-मनु० २ | १२
१. वेद, २. स्मृति, अर्थात् वेदानुकूल श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा लिखित मनुस्मृति आदि शास्त्र, ३. सत्पुरुषों का आचार और ४. अपने आत्मा को प्रिय सत्य-भाषण, चोरी-त्याग आदि- ये चार धर्म के लक्षण हैं | इन्ही से धर्म-अधर्म का निश्चय होता है | जो पक्षपातरहित न्याय, सत्य का ग्रहण तथा असत्य का सर्वथा परित्यागरूप आचार है, उसी का नाम धर्म और इससे विपरीत जो पक्षपातसहित अन्यायाचरण, सत्य का त्याग और असत्य का ग्रहणरूप कर्म है, उसी को अधर्म कहते हैं | जो पुरुष स्वर्ण आदि रत्न [अर्थ] और स्त्री-सेवन आदि [काम] में नहीं फँसते उन्हीं को धर्म का ज्ञान प्राप्त होता है | जो धर्म को जानने की इच्छा करें उन्हें वेद द्वारा धर्म का निश्चय बिना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता |
विद्याभ्यास सभी के लिए आवश्यक
राजा को चाहिए कि वह क्षत्रिय, वैश्य और उत्तम शुद्रजनों को भी विद्या का अभ्यास अवश्य करावें, क्योंकि ब्राह्मण ही विद्याभ्यास करें तो विद्या, धर्म, राज्य और धनादि की वृद्धि कभी नहीं हो सकती | जब क्षत्रिय आदि विद्वान् होते हैं तब ब्राह्मण भी अधिक विद्याभ्यास करते और धर्म पथ में चलते हैं तथा विद्वान् क्षत्रियों के सामने पाखण्ड भी नहीं कर सकते | जब क्षत्रिय आदि अविद्वान् होते हैं तब ब्राह्मण जैसा अपने मन में आता है वैसा करते-कराते हैं | जब सब वर्णों में विद्या और सुशिक्षा होती है तब कोई भी पाखण्डरूप, अधर्मयुक्त मिथ्या व्यवहार नहीं चला सकता | इससे यह सिद्ध हुआ कि क्षत्रियादि को नियम में चलानेवाले ब्राह्मण और संन्यासी तथा ब्राह्मण और संन्यासी को सुनियम में चलाने वाले क्षत्रिय आदि होते हैं, इसलिए सब वर्णों के स्त्री-पुरुष में विद्या और धर्म का प्रचार अवश्य होना चाहिए |
पाँच प्रकार की परीक्षा
जो-जो पढ़ाना हो वह-वह अच्छी प्रकार परीक्षा करके पढ़ाना चाहिए | परीक्षा पाँच प्रकार से होती है-
१. जो-जो ईश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव और वेदों के अनुकूल हो, वह-वह सत्य और उससे विरुद्ध असत्य है |
२. जो-जो सृष्टिक्रम के अनुकूल है वह सत्य और जो-जो सृष्टिक्रम के विरुद्ध है, वह सब असत्य है | जैसे कोई कहे कि 'बिना माता-पिता के संयोग से लड़का उत्पन्न हुआ'- ऐसा कथन सृष्टिक्रम के विरुद्ध होने से सर्वथा असत्य है |
३. आप्त अर्थात् जो धार्मिक, विद्वान्, सत्यवादी और निष्कपटी लोग हैं, जो-जो उनके आचार और उपदेश के अनुकूल है वह-वह ग्राह्य और जो-जो विरुद्ध है वह-वह अग्राह्य है |
४. जो अपने आत्मा की पवित्रता और विद्या के अनुकूल है वह ग्राह्य और जो प्रतिकूल है वह अग्राह्य है, अर्थात् जैसे अपने को सुख प्रिय और दुःख अप्रिय है वैसे ही सर्वत्र समझ लेना कि मैं भी किसी को सुख वा दुःख दूंगा तो वह भी प्रसन्न और अप्रसन्न होगा |
५. जो-जो आठों प्रमाणों के अनुकूल है वह ग्राह्य और जो प्रतिकूल है वह अग्राह्य है | आठ प्रमाण निम्न हैं-
१. प्रत्यक्ष- जो चक्षु आदि इन्द्रियों और रूप आदि विषयों के सम्बन्ध से सत्य ज्ञान उत्पन्न होता है उसे प्रत्यक्ष कहते हैं | जैसे रात्रि में खम्भे को देखकर सन्देह हुआ कि यह मनुष्य है या और कुछ, फिर उसके समीप जाने से निश्चय हुआ कि यह मनुष्य नहीं स्तम्भ है- इत्यादि प्रत्यक्ष के उदाहरण हैं |
२. अनुमान- किसी पदार्थ के चिन्ह देखने से उसी पदार्थ का यथावत् ज्ञान होने को अनुमान कहते हैं | जैसे पुत्र को देख के पिता का, पर्वत आदि में धुआँ देखकर अग्नि का ज्ञान होता है | अनुमान तीन प्रकार का होता है- १. पूर्ववत्- जहाँ कारण को देख के कार्य का ज्ञान हो वह पूर्ववत् कहलाता है जैसे बादलों को देखकर वर्षा का ज्ञान होता है | २. शेषवत्- जहाँ कार्य को देख के कारण का ज्ञान हो वह शेषवत् कहलाता है | जैसे नदी के बढ़े हुए प्रवाह को देखकर ऊपर हुई वर्षा का ज्ञान होता है ३. सामान्यतोदृष्ट- जो कोई किसी का कार्य-कारण न हो, परन्तु किसी प्रकार का साधर्म्य एक-दूसरे के साथ हो | जैसे कोई भी बिना चले दूसरे स्थान पर नहीं पहुँच सकता, वैसे ही दूसरों का भी स्थानान्तर में जाना बिना गमन के कभी नहीं हो सकता |
३. उपमान- प्रत्यक्ष साधर्म्य=तुल्यधर्म से जो ज्ञान होता है उसे उपमान कहते हैं | जैसे- "जैसा यह देवदत्त है वैसा ही विष्णुमित्र है" अथवा "जैसी गाय होती है वैसी ही नीलगाय होती है |"
४. शब्दप्रमाण- जो आप्त अर्थात् पूर्ण विद्वान्, धर्मात्मा सत्यवादी महापुरुषों का उपदेश तथा ईश्वर का उपदेश वेद हैं, उन्हीं को शब्दप्रमाण जानो |
५. ऐतिह्य- इति+ह अर्थात् इस प्रकार का था | उसने इस प्रकार किया अर्थात् किसी के जीवन-चरित्र का नाम ऐतिह्य है |
६. अर्थापत्ति- जहाँ एक बात कहने से उससे भिन्न दूसरी बात भी अनायास समझी जाए, उसे अर्थापत्ति कहते हैं | "जैसे बादल के होने से वर्षा होती है" इतना कहने से दूसरे ने जान लिया कि- "बादलों के बिना वृष्टि कभी नहीं हो सकती |"
७. सम्भव- जो बात सृष्टिक्रम के अनुकूल हो वह सम्भव कहलाती है | जैसे माता-पिता से सन्तान होती है, परन्तु यदि कोई कहे कि माता-पिता के संयोग के बिना सन्तानोत्पत्ति हुई, किसी ने मृतक जिलाये, समुद्र में पत्थर तैराये, चन्द्रमा के अंगुली से दो टुकड़े कर दिये- इत्यादि बातें असम्भव हैं, क्योंकि ये सब बातें सृष्टिक्रम के विरुद्ध हैं |
८. अभाव- जैसे किसी ने किसी से कहा कि "हाथी ले-आ"- वह वहाँ हाथी का अभाव देखकर जहाँ हाथी था वहाँ से ले-आया |
इन पाँच प्रकार की परीक्षाओं से मनुष्य सत्यासत्य का निश्चय कर सकता है, अन्यथा नहीं | इस प्रकार परीक्षा करके पढ़ें-पढाएँ अन्यथा विद्यार्थियों को सत्यबोध कभी नहीं हो सकता | जिन-जिन ग्रन्थों को गुरू लोग पढाएँ उन-उनकी पूर्वोक्त प्रकार परीक्षा करलें | जो इन परीक्षाओं पर सत्य ठहरें उन्हीं ग्रन्थों को पढाएँ और जो इन परीक्षाओं के विरुद्ध होँ उन ग्रन्थों को न पढाएँ |
पठन-पाठनविधि
सर्वप्रथम पाणिनि मुनिकृत 'शिक्षा' के द्वारा सब अक्षरों का उच्चारण माता, पिता एवं आचार्य सिखलाएँ | वर्णोंच्चारण शिक्षा से आरम्भ करके 'अष्टाध्यायी' और 'महाभाष्य' को तीन वर्ष में पढ़के पूर्ण वैयाकरण होके वैदिक एवं लौकिक शब्दों का ज्ञान प्राप्त कर फिर अन्य शास्त्रों को शीघ्रता से सहज में पढ़-पढ़ा सकते हैं, क्योंकि व्याकरण में जितना परिश्रम करना पड़ता है उतना परिश्रम अन्य शास्त्रों में नहीं करना पड़ता | अष्टाध्यायी और महाभाष्य के पढ़ने से जितना बोध तीन वर्ष में होता है उतना बोध कुग्रन्थ अर्थात् कौमुदी आदि पढ़ने से पचास वर्ष में भी नहीं होता, क्योंकि महर्षि लोगों का आशय जहाँ तक हो सके वहाँ तक सुगम और जिसके ग्रहण करने में समय थोड़ा लगे इस प्रकार का होता है और क्षुद्राशय लोगों की मनसा ऐसी होती है कि जहाँ तक बने वहाँ तक कठिन रचना करनी, जिससे बड़े परिश्रम से पढ़के अल्प लाभ उठा सकें, जैसे पहाड़ का खोदना, कौड़ी का लाभ होना और आर्षग्रंथों का पढ़ना ऐसा है जैसे एक गोता लगाना और बहुमूल्य मोतियों को पाना |
व्याकरण के पश्चात्, यास्कमुनिकृत निघन्टु और निरुक्त छह या आठ महीने में सार्थक पढ़ें या पढ़ावें, अमरकोषादि में अनेक वर्ष व्यर्थ न खोवें | तदन्तर पिंग्गलाचार्यकृत छन्दोंग्रन्थ चार मास में पढ़के श्लोक बनाने की रीति सीखें | तत्पश्चात् मनुस्मृति, बाल्मीकीय रामायण और महाभारत के उद्योगपर्वान्तर्गत विदुरनीति आदि अच्छे-अच्छे प्रकरण पढ़ें जिनसे दुष्ट व्यसन दूर होँ और उत्तमता, सभ्यता प्राप्त हो | इनको एक वर्ष में पढ़ लें | तदनु दो वर्षों में ज्योतिश्शास्त्र, सुर्यसिद्धान्तादि जिसमें बीजगणित, अंक, भूगोल, खगोल और भूगर्भ विद्या है, इसको यथावत् सीखें | तत्पश्चात् सब प्रकार की हस्तक्रिया, यन्त्रकला आदि को सीखें, परन्तु जितने ग्रह, नक्षत्र मुहूर्त के विधायक ग्रन्थ हैं उन्हें झूठ समझ के न पढ़ें न पढ़ावें | अब दो वर्ष में ऋषिकृत व्याख्यासहित पूर्वमीमांसा, वैशेषिक, न्याय, योग, सांख्य और वेदान्त- इन छह दर्शनों को पढ़ें, परन्तु वेदान्तसूत्रों को पढ़ने से पूर्व ईश आदि दश उपनिषदों को भी पढ़ लें | पश्चात् छह वर्षों में चारों ब्राह्मणोंसहित चारों वेदों को शब्द, अर्थसम्बन्ध सहित पढ़ें, क्योंकि बिना अर्थ के पढ़ना तो भार उठाना मात्र है | अर्थ-ज्ञानपूर्वक पढ़कर और ज्ञान से पापों को छोड़, पवित्र धर्माचरण के प्रताप से ही मनुष्य सर्वानन्द को प्राप्त होता है | विद्या विद्वान के लिए ही अपने स्वरूप को प्रकाशित करती है अविद्वानों के लिए नहीं, अतः जो कुछ पढ़ना-पढ़ाना वह अर्थ-ज्ञानसहित ही पढ़ना-पढ़ाना चाहिए |
इस प्रकार वेद पढ़कर 'चरक', 'सुश्रुत' आदि ऋषिप्रणीत वैद्यक शास्त्रों से आयुर्वेद का अध्ययन चार वर्षों में करें | जो शासन कार्य में जाना चाहें वे धनुर्वेद अर्थात् राजविद्या का अध्ययन करें | इसके दो भेद हैं- १. राजपुरुष-सम्बन्धी और २. प्रजा-सम्बन्धी | राजकार्य में सभा, सेना के अध्यक्ष, शस्त्रास्त्र विद्या और नाना प्रकार के व्यूहों का अभ्यास करना होता है | प्रजाकार्य में प्रजा का पालन और वृद्धि, दुष्टों को दण्ड देना आदि कार्य हैं इनको यथावत् सीखें | इस राजविद्या को दो-दो [चार] वर्ष में सीखें |
राजविद्या को सीखकर गन्धर्ववेद कि जिसको गानविद्या कहते हैं, उसमें राग, रागिणी, ताल आदि को और मुख्य करके सामवेद का गान वादित्र-वादनपूर्वक सीखें | इसके लिए नारदसंहिता आदि आर्षग्रन्थों को पढ़ें, परन्तु गदर्भ शब्दवत् व्यर्थालाप कभी न करें |
१.-यहाँ समय नहीं लिखा | आयुर्वेद और धनुर्वेद के अध्ययन के लिए महर्षि ने चार-चार वर्ष का समय लिखा है अतः इन दोनों का समय भी चार-चार वर्ष ही होना चाहिए |
अब अर्थवेद, जिसे शिल्पविद्या भी कहते हैं, का अध्ययन करें। जितनी विद्या इस रीति से तीस या इकतीस वर्षों में हो सकती है उतनी अन्य प्रकार से सौ वर्षों में भी नहीं हो सकती।
आर्षग्रन्थ-महत्त्व
ऋषिप्रणीत ग्रन्थों को इसलिए पढ़ना चाहिए कि इनके लेखक बड़े विद्वान्, सब शास्त्रवित् और धर्मात्मा थे और अनृषि अर्थात् जो अल्प शास्त्र पढ़े हैं और जिनका आत्मा पक्षपातसहित है, उनके बनाये हुए ग्रन्थ भी वैसे ही हैं |
त्याज्य-ग्रन्थ
ऋषिकृत ग्रन्थों में भी जो वेदविरुद्ध प्रतीत हो उसे छोड़ देना, क्योंकि वेद ईश्वरकृत होने से निर्भ्रान्त एवं स्वतःप्रमाण हैं, अर्थात् वेद का प्रमाण वेद से ही होता है | ब्राह्मण आदि सब ग्रन्थ परतःप्रमाण, अर्थात् इनका प्रमाण वेदाधीनहै | निम्न ग्रन्थ जालग्रन्थ हैं, इन्हें परित्याग के योग्य समझना चाहिए | व्याकरण में सारस्वत, मुग्धबोध, कौमुदी आदि | कोषों में अमरकोष आदि, ज्योतिष में शीघ्रबोध, मुहूर्त चिन्तामणि आदि | काव्य में नायिका भेद, रघुवंश, माघ, किरातार्जुनीय आदि | वैशेषिक में तर्कसंग्रह आदि | योग में हठयोगप्रदीपिका आदि | वेदान्त में योगवासिष्ठ, पञ्चदशी आदि | स्मृतियों में मनुस्मृति के प्रक्षिप्त श्लोक और अन्य सब स्मृतियाँ | सब तन्त्रग्रन्थ, सब पुराण, सब उपपुराण, तुलसीदासकृत भाषा-रामायण- ये सब कपोलकल्पित मिथ्या ग्रन्थ हैं | इन ग्रन्थों में थोड़ा सत्य भी है, परन्तु इनके साथ बहुत असत्य भी है, अतः ये उसी प्रकार त्याज्य हैं जैसे विष मिला हुआ अन्न | इनमें जो सत्य है वह वेदादि सत्य शास्त्रों का है और जो मिथ्या है वह उनके घर का है | वेदादि सत्य शास्त्रों के स्वीकार में सब सत्य का ग्रहण हो जाता है, अतः मिथ्या ग्रन्थों को छोड़ ही देना चाहिए | सबको वेद ही मान्य होने चाहिएँ | 'हमारा मत वेद है'- ऐसा ही मान कर सब मनुष्यों को विशेषकर आर्यों को एक मत होकर रहना चाहिए |
इतिहास, पुराण, कल्प, गाथा, नाराशंसी- ये पाँचों ब्राह्मणग्रन्थों के ही अंश हैं | इनसे भागवतादि पुराणों का ग्रहण करना ठीक नहीं |
विद्या में विघ्न
विद्या पढ़ने-पढ़ानें में जो विघ्न हैं उन्हें छोड़ देवें | वे विघ्न निम्न हैं-
१. कुसङ्ग अर्थात् दुष्ट विषयीजनों का सङ्ग |
२. दुष्ट व्यसन- मद्य आदि सेवन और वेश्यागमनादि |
३. बाल्यवस्था में विवाह अर्थात् पच्चीसवें वर्ष से पूर्व पुरुष और सोलहवें वर्ष से पूर्व कन्या का विवाह हो जाना |
४. पूर्ण ब्रहमचर्य का न होना | ब्रहम्चर्य से बल, बुद्दि, पराक्रम, आरोग्य, राज्य और धन कि वृद्धि न मानना |
५. राजा, माता-पिता और विद्वानों का प्रेम वेदादि शास्त्रों के प्रचार में न होना |
६. अतिभोजन और अतिजागरण करना |
७. पढ़ने-पढ़ाने, परीक्षा लेने वा देने में आलस्य वा कपट करना |
८. विद्या के लाभ को सर्वोपरि न समझना |
९. ईश्वर का ध्यान छोड़के अन्य पाषाण आदि जड़ मूर्तिपूजा में व्यर्थ समय खोना |
१०. लोभ से धनादि में प्रवृत होकर विद्या में प्रीति न रखना |
११. इधर -उधर व्यर्थ घूमते रहना |
इत्यादि विद्या के विघ्न हैं | राजा और प्रजा को इन विघ्नों को दूर कर अपने लड़के और लड़कियों को विद्वान् एवं विदुषी बनाने के लिये तन, मन, धन से प्रयत्न करना चाहिए |
स्त्री और शूद्र को वेदाधिकार
“स्त्रीशुद्रो नाधीयातामिति श्रुतेः” -स्त्री और शूद्र न पढ़ें यह श्रुति [वेद का वचन] है |
यह वाक्य कपोलकल्पित है, किसी प्रामाणिक ग्रन्थ का नहीं है | सब स्त्री और पुरुष, अर्थात् मनुष्य मात्र को वेदादि शास्त्र पढ़ने-सुनने का अधिकार यजुर्वेद [२६ | २] में दिया गया है-
यथेमां वाचं कल्याणीमावादनी जनेभ्यः |
ब्रह्मराजन्याभ्या शूद्राय चार्याय च स्वाय चारणाय च |
परमात्मा उपदेश देते हैं कि जैसे मैं सब मनुष्यों के लिए इस कल्याणकारिणी, संसार और मुक्ति के सुख को देनेवाली वेदवाणी का उपदेश किया करता हूँ वैसे तुम भी किया करो | हमने [प्रभु ने] ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र, अपने भृत्य वा स्त्री आदि और अतिशुद्रादि के लिए भी वेदों का प्रकाश किया है |
इससे स्पष्ट है कि परमात्मा की दृष्टि में मनुष्यमात्र को वेद पढ़ने का अधिकार है | क्या परमेश्वर स्त्री और शूद्रों का भला नहीं करना चाहता? क्या ईश्वर पक्षपाती है कि वेदों को पढ़ने-सुनने का शूद्रों के लिये निषेध और द्विजों के लिए विधि करे? जो परमेश्वर का अभिप्राय शुद्रादि के पढ़ाने-सुनाने का न होता तो इनके शरीर में वाक् और श्रोत्र-इन्द्रिय क्यों रचता? जैसे परमात्मा ने पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, चन्द्र, सूर्य और अन्न आदि पदार्थ सबके लिये बनाए हैं, वैसे ही वेद भी सबके लिए प्रकाशित किए हैं और जहाँ कहीं निषेध किया है उसका अभिप्राय यह है कि जिसको पढ़ने-पढ़ाने से कुछ भी न आये वह निर्बुद्धि और मुर्ख होने से शूद्र कहाता है, उसका पढ़ना-पढ़ाना व्यर्थ है | जो स्त्रियों के पढ़ने का निषेध करते हैं वह मूर्खता, स्वार्थपरता और निर्बुद्धिता का प्रभाव है | देखो अथर्ववेद [ ११ | ५ | १८ ] में कन्याओं के पढ़ने का प्रमाण-
ब्रह्मचर्येण कन्या युवानं विन्दते पतिम् |
अर्थ- ब्रह्मचर्य-सेवन से वेदादि शास्त्रों को पढ़कर, पूर्णविद्या और उत्तम शिक्षा को प्राप्त करके और युवती होकर पूर्ण युवावस्थायुक्त पुरुष को प्राप्त हो |
श्रौतसूत्रों में कहा है- 'इमं मन्त्रं पत्नी पठेत्'- अर्थात् यज्ञ में स्त्री इस मन्त्र को पढ़े | यदि स्त्री वेदादि शास्त्र को न पढ़ी हो तो यज्ञ में स्वर-सहित मन्त्रों का उच्चारण और संस्कृत सम्भाषण कैसे कर सकेगी? शतपथ-ब्राह्मण में लिखा है कि गार्गी आदि वेदादि शास्त्रों को पढ़कर पूर्ण विदुषी हुई थीं |
देखो! आर्यावर्त्त के राजपुरुषों की स्त्रियाँ धनुर्वेद अर्थात् युद्ध-विद्या भी अच्छे प्रकार जानती थी | यदि वे युद्ध-विद्या को न जानती होतीं तो कैकेयी आदि दशरथ आदि के साथ युद्ध में क्योंकर जा सकतीं और युद्ध कर सकतीं | सुशिक्षिता स्त्री ही घर को सुन्दर बना सकती है | वैद्यकविद्या-निपुण स्त्री घर को स्वर्ग बनाएँगी और शिल्पविद्या निपुण स्त्री घर को शोभावाला बनाएँगी, अतः स्त्रियों को वेद आदि शास्त्र पढ़ने और पढ़ाने ही चाहिएँ |
जिस देश में यथायोग्य ब्रह्मचर्य, विद्या और वेदोक्त धर्म का प्रचार होता है वही देश सौभाग्यवान् होता है, अतः जितना बन सके उतना प्रयत्न तन, मन, धन से विद्या-वृद्धि में करना चाहिए |
इति तृतीयः समुल्लासः सम्पूर्णः || ३ ||
VedicGranth.Org
Chaturth Samullas
चतुर्थ-समुल्लासः
समावर्तन, विवाह व गृहस्थाश्रम-विधि
समावर्तन
नियमपूर्वक आचार्यकुल में रहता हुआ, चारों, तीन, दो अथवा एक वेद का सांगोपांग अध्ययन करके, जिसका ब्रह्मचर्य खण्डित न हुआ हो, वह पुरुष वा स्त्री गृहस्थाश्रम में प्रवेश करे |
विवाह में गुरु की आज्ञा
विद्या व्रत में स्नान कर, गुरू की आज्ञा लेकर गुरुकुल से लौटकर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य अपने वर्णानुकुल सुन्दर और उत्तम लक्षणों से युक्त कन्या से विवाह करे |
दूर और निकट विवाह करने के गुण-दोष
जो कन्या माता के कुल की छह पीढ़ियों में और पिता के गोत्र की न हो, उस कन्या से विवाह करना उचित है, क्योंकि जैसी परोक्ष पदार्थ में प्रीति होती है, वैसी प्रत्यक्ष में नहीं | जैसे किसी ने मिश्री के गुण सुनें और खाई न हो तो उसका मन उसी में लगा रहता है, वैसे ही दूर देशस्थ अर्थात् जो अपने गोत्र वा माता के कुल में निकट सम्बन्ध की न हो, ऐसी कन्या के साथ विवाह से विशेष सुख प्राप्त होता है |
निकट विवाह करने में दोष औए दूर विवाह करने में गुण निम्न हैं-
१. जो बालक बाल्यावस्था से निकट रहते, परस्पर क्रीड़ा, लड़ाई और प्रेम करते, एक-दूसरे के गुण, दोष, स्वभाव, अथवा बाल्यावस्था के विपरीत आचरणों को जानते और जो नंगे भी एक-दूसरे को देखते हैं उनका परस्पर विवाह होने से प्रेम कभी नहीं हो सकता |
२. जैसे पानी में पानी मिलाने से विलक्षण गुण नहीं होता, वैसे एक गोत्र, पित्र वा मातृकुल में विवाह होने में धातुओं में अदल-बदल न होने से उन्नति नहीं होती |
३. जैसे दूध में, मिश्री अथवा शुंठयादि औषधियों का योग होने से उत्तमता होती है, वैसे ही भिन्न गोत्र, मातृ-पितृकुल से पृथक् वर्तमान स्त्री-पुरुषों का विवाह होना उत्तम है |
४. जैसे यदि कोई एक देश में रोगी है तो वह दूसरे देश में वायु और खान-पान के बदलने से रोगरहित हो जाता है, वैसे ही दूर देशस्थों के विवाह होने में उत्तमता है |
५. निकट सम्बन्ध करने में एक-दूसरे के निकट होने से सुख-दुःख का भान और विरोध होना भी सम्भव है, दूर देशस्थों में नहीं और दूरस्थों के विवाह में
प्रेम की डोरी लम्बी बढ़ जाती है, निकटस्थ विवाहों में नहीं |
६. दूर-दूर देश के वर्तमान और पदार्थों की प्राप्ति भी दूर सम्बन्ध होने से सहजता से हो सकती है, निकट विवाह में नहीं | इसलिए यास्क ने दुहिता की व्युत्पत्ति करते हुए कहा है- दुहिता दुर्हिता दुरे हिता भवतीति- कन्या का नाम दुहिता इसलिए है कि इसका विवाह दूर देश में होने से हितकारी होता है, निकट होने में नहीं |
७. कन्या के पितृकुल में दारिद्रय होने का भी सम्भव है, क्योंकि जब-जब कन्या पितृ कुल में आएगी तब-तब इसको कुछ-न-कुछ देना ही होगा |
८. निकट होने से एक-दूसरे को अपने-अपने पितृकुल के सहाय का घमण्ड और जब कुछ भी दोनों में वैमनस्य होगा तब स्त्री झट ही पिता के कुल में चली जाएगी | इस प्रकार एक-दूसरे में निन्दा होगी और विरोध भी, क्योंकि प्रायः स्त्रियों का स्वभाव तीक्ष्ण और मृदु होता है |
इन कारणों से पिता के गोत्र, माता की छह पीढ़ी और समीप देश में विवाह करना अच्छा नहीं |
विवाह में त्याज्य कुल
निम्न दश कुल चाहे धन-धान्य से पूर्ण और हाथी-घोड़े आदि से समृद्ध भी क्यों न होँ, इनके साथ विवाह-सम्बन्ध नहीं करना चाहिए-
१. सत्क्रिया=यज्ञादि उत्तम कर्मों से हीन, २. सत्पुरुषों से रहित, ३. वेदाध्ययन से विमुख, ४. शरीर पर बड़े-बड़े लोम्वाले, ५.बवासीर वाले ६. तपेदिक
७. जिस कुल में अग्निमन्दता से दमा, खाँसी आदि और आमाशय रोग हो, ८. मृगी हो, ९. श्वेतकुष्ट हो और १०. गलितकुष्ट हो- इन कुलों की कन्या और वर के साथ विवाह नहीं होना चाहिए, क्योंकि ये सब दुर्गुण और रोग विवाह करने वाले के कुल में भी प्रविष्ट हो जाते हैं |
इसी प्रकार पीले वर्ण वाली=निर्बल, पुरुष से लम्बी-चौडी, अधिक बलवाली, रोगयुक्त, भूत बकवाद करनेवाली, तथा ऋक्ष=नक्षत्र, वृक्ष, नदी, पर्वत [ गेंदा, चम्पा, गंगा, यमुना, पार्वती ] पक्षी, सर्प, आदि नामवाली तथा भयंकर नामवाली कन्याओं के साथ विवाह नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये नाम कुत्सित और अन्य पदार्थों के भी हैं |
जिस स्त्री के अंग सरल एवं सीधे होँ, जिसका नाम सुन्दर हो, जिसकी चाल हंस और हथनी के तुल्य हो, जिसके लोम, केश और दाँत सूक्ष्म होँ और जिसके सब अंग कोमल होँ- ऐसी स्त्री के साथ विवाह करना चाहिए |
विवाह का समय
सोलहवें वर्ष से लेकर चौबीसवें वर्ष तक कन्या और पच्चीसवें वर्ष से लेकर अड़तालीस वर्ष तक पुरुष के विवाह का समय उत्तम है | इसमें स्त्री और पुरुष क्रम से सोलह और पच्चीसवें वर्ष में विवाह करें तो निकृष्ट, अठारह-बीस की स्त्री तथा तीस, पैतीस वा चालीस वर्ष के पुरुष का मध्यम और चौबीस वर्ष की स्त्री तथा अड़तालीस वर्ष के पुरुष का विवाह होना उत्तम है | जिस देश में इस प्रकार के श्रेष्ठ विवाह, ब्रह्मचर्यपालन और विद्याभ्यास होता है, वह देश सुखी होता है | इसके विपरीत जिस देश में ब्रह्मचर्य और विद्याग्रहण में अरुचि, बाल्यावस्था में और अयोग्यों का विवाह होता है, वह देश दुःख में डूब जाता है |
अष्टवर्षा भवेद्गौरी नववर्षा च रोहिणी |
दशवर्षा भवेत्कन्या तत ऊर्ध्वं रजस्वला ||
ये और इस प्रकार के श्लोक महर्षि पराशर के नाम पर घड़ लिये गये हैं | वस्तुतः आठ, नौ और दश वर्ष में विवाह का तो कुछ भी फल नहीं है, क्योंकि सोलहवें वर्ष के पश्चात् ही स्त्री का गर्भाशय पूरा और शरीर भी होने से सन्तान उत्तम होते हैं | पुरुष भी पच्चीसवें वर्ष में पहुँचकर ही गर्भाधान के योग्य होता है | मुनिवर धनवंतरिजी 'सुश्रुत' में लिखते हैं-
ऊनषोडशवर्षायामप्राप्तः पंचविंशतिम् |
यद्याधत्ते पुमान् गर्भं कुक्षिस्था स विपद्यते ||
जातो वा न चिरं जीवेज्जीवेद्वा दुर्बलेन्द्रियः |
तस्मादत्यन्तबालायां गर्भाधानं न कारयेत् ||
-सुश्रुत० श० १० | ४७,४८
सोलह वर्ष से न्यून अवस्था वाली स्त्री में पच्चीस वर्ष से न्यून वयवाला पुरुष यदि गर्भ स्थापित करे तो वह कुक्षिस्थ गर्भ विपत्ति को प्राप्त होता है, अर्थात्
पूर्णकाल तक गर्भाशय में रहकर उत्पन्न नहीं होता | यदि उत्पन्न हो जाए तो चिरकाल तक नहीं जीता, यदि जी भी जाए तो दुर्बल रहता है, अतः बाल्यावस्थावाली स्त्री में गर्भ स्थापित न करे |
सदृश पति की खोज
कन्या रजस्वला होने के पश्चात् तीन वर्षपर्यन्त पति की खोज करके अपने तुल्य पति को प्राप्त होवे | चाहे लड़का-लड़की मरणपर्यन्त कुंवारे रहें, परन्तु असदृश, अर्थात् परस्पर विरूद्ध गुण-कर्म-स्वभाववालों का विवाह कभी नहीं होना चाहिए |
विवाह किसके अधीन
विवाह में मुख्य प्रयोजन वर और कन्या का है, माता-पिता का नहीं, अतः माता-पिता, लड़का-लड़की, की प्रसन्नता के बिना उनका विवाह कभी न करें, क्योंकि एक दूसरे की प्रसन्नता से विवाह होने में विरोध बहुत कम होता है और सन्तान उत्तम होते हैं | अप्रसन्नता के विवाह में नित्य क्लेश ही रहता है और-
सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च |
यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम् ||
-मनु० ३ | ३०
जिस कुल में स्त्री से पुरुष और पुरुष से स्त्री सदा प्रसन्न रहती है उसी कुल में आनन्द, लक्ष्मी और कीर्ति निवास करती है और जहाँ विरोध तथा कलह होता है, वहाँ दुःख, दरिद्रता और निन्दा निवास करती है |
इसलिए जैसी स्वयंवर की रीति आर्यावर्त्त में परम्परा से चली आती है वही विवाह उत्तम है | जबतक आर्य लोग ब्रह्मचर्य से विद्या पढ़कर स्वयंवर विवाह करते थे तबतक यह देश उन्नति पर था, परन्तु जब बाल्यावस्था में और माता-पिता की अधीनता में विवाह होने लगा तब से क्रमशः आर्यावर्त्त देश की हानि होती चली आई है अतः इस दुष्ट काम को छोड़कर सज्जन लोग स्वयंवर विवाह करें |
वर्ण-व्यवस्था
वर्ण-व्यवस्था गुण-कर्म-स्वभावानुसार होती है, जन्म से नहीं | क्षत्रिय, वैश्य और शुद्र कुल में उत्पन्न होकर भी वह ब्राह्मण हो सकता है | देखो, छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित जाबाल ऋषि अज्ञात कुल के, महाभारत में विश्वामित्र क्षत्रिय वर्ण और मातंग ऋषि चाण्डाल कुल के होने पर भी ब्राह्मण हो गये | अब भी जो उत्तम स्वभाववाला है वही ब्राह्मण के योग्य और मुर्ख शुद्र के योग्य होता है और आगे भी ऐसा ही होगा | रज-वीर्य के संयोग से ब्राह्मण शरीर नहीं बनता अपितु-
स्वध्यायेन जपैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः |
महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्यीयं क्रियते तनुः ||
-मनु० २ |२८
पढ़ने-पढ़ाने विचार करने-कराने, नानाविधि होम के अनुष्ठान, सम्पूर्ण वेदों को शब्द, अर्थ, सम्बन्धपूर्वक तथा स्वरोच्चारण के साथ पढ़ने-पढ़ाने, पौर्णमास आदि यज्ञों के करने, धर्म से सन्तानों की उत्पत्ति, पञ्च महायज्ञों और अग्निष्टोमादि यज्ञों के करने, विद्वानों का संग एवं सत्कार करने, सत्यभाषण, परोपकार आदि सत्कर्म और शिल्पविद्या आदि पढ़कर दुष्टाचार को छोड़कर श्रेष्ठाचार में वर्त्तने से यह शरीर ब्राह्मण का किया जाता है |
जो कोई रजवीर्य के योग से वर्णाश्रम व्यवस्था माने और गुण-कर्मों के योग से न माने तो उससे पूछना चाहिए कि जो कोई अपने वर्ण को छोड़ नीच, अन्त्यज अथवा क्रिश्चयन या मुसलमान हो गया हो तो उसको भी ब्राह्मण क्यों नहीं मानते? वह यही कहेगा कि उसने ब्राह्मण के कर्म छोड़ दिये, इसलिए वह ब्राह्मण नहीं है | इससे यह सिद्ध हुआ है कि जो ब्राह्मणादि उत्तम कर्म करते हैं वे ही ब्राह्मण आदि और जो नीच भी उत्तम गुण-कर्म-स्वभाववाला होवे तो उसको भी उत्तम वर्ण में गिनना चाहिए और जो उत्तम वर्णस्थ होकर नीच काम करे तो उसे नीच वर्ण में गिनना चाहिए | वेद में भी गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था का वर्णन है -
ब्राह्मणोsस्य मुखमासीद् बाहू राजन्यः कृतः |
ऊरू तदस्य यद्वैश्यः पद्भ्यांशूद्रो अजायत || -यजु० ३१ | ११
परमात्मा की इस सृष्टि में जो मुख के सदृश सबमें मुख्य, अर्थात् सर्वोत्तम हो वह ब्राह्मण, जिसमें बल-वीर्य अधिक हो वह क्षत्रिय, कटी के अधो भाग और जानु के ऊपर वाले भाग का नाम ऊरू है | अतः जो सब देशों में व्यापार के निमित्त ऊरू के बल से आए-जाए वह वैश्य और पग अर्थात् नीचे अंग के सदृश मूर्खत्वादि गुणवाला शूद्र है |
चारों वर्णों में जिस-जिस वर्ण के सदृश जो-जो पुरुष या स्त्री होँ वे उसी वर्ण में गिने जाएँ | महर्षि मनु ने भी कहा है-
शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम् |
क्षत्रीयाज्ज्तमेवं तू विद्याद्वैश्या त्तथैव च || -मनु० १० | ६५
जो शूद्रकुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के समान गुण-कर्म-स्वभाववाला हो तो वह शूद्र ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य हो जाए | वैसे ही जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यकुल में उत्पन्न हुआ हो, परन्तु उसके गुण-कर्म-स्वभाव शूद्र के तुल्य होँ तो वह शूद्र हो जाए | इसी प्रकार क्षत्रिय या वैश्य के कुल में उत्पन्न होके ब्राह्मण अथवा शूद्र के समान होने से ब्राह्मण और शूद्र भी हो जाता है |
इस विषय में आपस्तम्ब के निम्नलिखित दो सूत्र द्रष्टव्य हैं-
धर्मचर्यया जघन्यो वर्णः पूर्वं पूर्वं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ | अधर्मचर्यया पूर्वो वर्णो जघन्यं वर्णमापद्यते जातिपरिवृतौ ||
अर्थात् धर्माचरण से निकृष्ट वर्ण अपने से उत्तम-उत्तम वर्ण को प्राप्त होता है और वह उसी वर्ण में गिना जाता है, जिस-जिस वर्ण के वह योग्य होता है | अधर्माचरण से पूर्व-पूर्व अर्थात् उत्तम-उत्तम वर्णवाला मनुष्य अपने से नीचे-नीचे वर्णों को प्राप्त होता है और उसी वर्ण में गिना जाता है |
जैसे पुरुष अपने गुण कर्मों के अनुसार अपने वर्ण के योग्य होता है, वैसी ही व्यवस्था स्त्रियों के सम्बन्ध में भी समझनी चाहिए |
वर्ण-व्यवस्था के लाभ
गुण-कर्म-स्वभावानुसार वर्ण-व्यवस्था होने से सब वर्ण अपने-अपने गुण-कर्म और स्वभाव से युक्त होकर शुद्धता के साथ रहते हैं | वर्ण-व्यवस्था के ठीक परिपालन से ब्राह्मण के कुल में ऐसा कोई व्यक्ति न रह सकेगा जोकि क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र के गुण-कर्म-स्वभाववाला हो | इसी प्रकार अन्य वर्ण अर्थात् क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र भी अपने शूद्ध स्वरूप में रहेगें, वर्णसंकरता नहीं होगी |
गुण-कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था में किसी वर्ण की निन्दा या अयोग्यता का भी अवसर नहीं रहता |
ऐसी अवस्था रखने से मनुष्य उन्नतिशील होता है, क्योंकि उत्तम वर्णों को भय होगा कि यदि हमारी सन्तान मुर्खत्वादि दोषयुक्त होगी तो वह शूद्र हो जाएगी और सन्तान भी डरती रहेगी कि यदि हम उक्त चाल-चलनवाले और विद्यायुक्त न होंगे तो हमें शूद्र होना पड़ेगा |
गुण-कर्मानुसार वर्ण-व्यवस्था होने से नीच वर्णों का उत्तम वर्णस्थ होने के लिये उत्साह बढ़ता है |
गुण-कर्मों से वर्णों की यह व्यवस्था कन्याओं की सोलहवें और पुरुषों की पच्चीसवें वर्ष की परीक्षा में नियत करनी चाहिए और इसी क्रम से अर्थात् ब्राह्मण का ब्राह्मणी और शूद्र का शूद्रा के साथ विवाह होना चाहिए तभी अपने-अपने वर्णों के कर्म और परस्पर प्रीति भी यथायोग्य रहेगी |
वर्णों के कर्त्तव्य
इन चारों वर्णों के कर्तव्य-कर्म और गुण ये हैं | ब्राह्मण-
अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा |
दानं प्रतिग्रहश्चेव ब्राह्मणानामकल्प्यत् || -मनु० १ | ८८
शमो दमस्तपः शौचं क्षन्तिरार्जवमेव च |
ज्ञानं विज्ञानमास्तिवयं ब्रह्मकर्मस्वभावजम् || -गीता० १८ | ४२
ब्राह्मण के पढ़ना, पढ़ाना, यज्ञ करना, यज्ञ कराना, दान देना और दान लेना- ये छह कर्म हैं, परन्तु इनमे दान लेना नीच कर्म है | इनके साथ ही (शमः) मन से बुरे काम की इच्छा भी न करनी उसे अधर्म में कभी प्रवृत न होने देना (दमः) आँख, नाक, कान आदि इन्द्रियों को अन्यायाचरण से रोककर धर्म में चलाना (तपः) सदा ब्रह्मचारी जितेन्द्रिय होके धर्मानुष्ठान करना (शौच) जल से बाहर की अपवित्रता और राग-द्वेष आदि को दूर कर भीतर से पवित्र रहना, (क्षान्ति) निन्दा-स्तुति, सुख-दुःख, हानि-लाभ में हर्ष-शोक छोड़कर धर्मानुष्ठान में दृढ रहना (ज्ञान) वेदादि शास्त्रों को सांगोपांग पढ़के पढ़ाने का सामर्थ्य और विवेक- सत्यासत्य का निर्णय, जो वस्तु जैसी हो अर्थात् जड़ को जड़ और चेतन को चेतन मानना, (विज्ञान) पृथिवी से लेकर परमेश्वर पर्यन्त पदार्थों को जानकर उनसे यथायोग्य उपयोग लेना, (आस्तिक्य) वेद, ईश्वर, मुक्ति, पुनर्जन्म, धर्म, माता-पिता आदि की सेवा को न छोड़ना और इनकी निन्दा कभी न करना- ये कर्म और गुण ब्राह्मण-वर्णस्थ मनुष्यों में अवश्य होने चाहिएँ |
क्षत्रिय- प्रजानां रक्षणम् दानमिज्याध्ययनमेव च |
विषयेश्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः || -मनु० १ | ८९
शोर्य तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युद्धे चाप्यपलायनम् |
दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् || -गीता० १८ | ४३
(प्रजारक्षण) न्याय से प्रजा का पालन, (दान) विद्या और धर्म की वृद्धि के लिये सुपात्रों को दान देना, (इज्या) अग्निहोत्र आदि यज्ञ करना वा कराना, (अध्ययन) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़वाना, (विषयेश्वप्रसक्तिः) विषयों में न फँसकर जितेन्द्रिय रहके सदा शरीर और आत्मा से बलवान् रहना, (शौर्य) अकेला होने पर भी सैकड़ों, सहस्त्रों से भी युद्ध करने में भयभीत न होना, (तेजः) सदा तेजस्वी, दीनता रहित होना, (धृतिः) धैर्यवान् होना, (दाक्ष्यम्) राजा और प्रजा-सम्बन्धी व्यवहार और सब शास्त्रों में अति चतुर होना, (युध्ये चाप्यपलायनम्) युद्ध से पीठ न दिखाना, निर्भय और निःशंक होकर इस प्रकार से युद्ध करना कि अपनी विजय होवे और आप बचें | इसके लिए भागने और शत्रुओं को धोखा देने से जीत होती हो तो वैसा ही करना, (दानम्) दानशीलता रखना, (ईश्वरभावः) पक्षपातरहित होके सबके साथ यथायोग्य बर्त्तना, विचार के दण्ड देना, प्रतिज्ञा पूरी करना- ये ग्यारह क्षत्रिय वर्ण के कर्म और गुण हैं |
वैश्य- पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च |
वाणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च || -मनु० १ | ९०
(पशुरक्षा) गाय आदि पशुओं का पालन और वर्धन, (दानम्) विद्या और धर्म की वृद्धि करने-कराने के लिए धनादि का व्यय करना, (अध्ययनम्) वेदादि शास्त्रों का पढ़ना, (वाणिक्पथम्) सब प्रकार के व्यापार करना (कुसीदम्) एक सैकडे में चार, छह, बारह, सोलह, वा बीस आनों से अधिक व्याज और मूल से दुगुना अर्थात् एक रूपया दिया हो तो सौ वर्ष में भी दो रुपये से अधिक न लेना, न देना और (कृषि) खेती करना- ये वैश्य के गुण-कर्म हैं |
शुद्र- एकमेव तु शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत् |
ऐतेषामेव वर्णानां शुश्रुषामनसूयया || -मनु० १ | ९१
शूद्र को योग्य है कि निन्दा, ईर्ष्या, अभिमान आदि दोषों को छोड़के ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों की सेवा करते हुए अपने जीवन का निर्वाह करे | यही एक शूद्र का गुण-कर्म है |
ये चार वर्ण प्रत्येक देश और समाज के लिए आवश्यक हैं | इनके बिना राष्ट्र में सुव्यवस्था हो ही नहीं सकती | आधुनिक भाषा में इनका नामकरण इस प्रकार किया जा सकता है- १. अध्यापक=Teachers, २. रक्षक= Warriors, ३. पोषक= traders, और ४. सेवक= Servant.
आठ प्रकार के विवाह
ब्राह्मो दैवस्तथैवार्ष: प्राजापत्यस्तथासऽसुरः |
गान्धर्वो राक्षस२चैव पैशाचश्चाष्टमोsधमः || -मनु० ३ | २१
१. ब्राह्म- ब्रह्मचर्य से पूर्ण विद्वान् एवं विदुषी, धार्मिक और सुशील वर तथा कन्या का परस्पर प्रसन्नता से विवाह होना 'ब्राह्म' विवाह कहाता है |
२. दैव- विस्तृत यज्ञ करने में ऋत्विक कर्म करते हुए जमाता को अलंकारयुक्त कन्या का देना 'दैव' विवाह है |
३. आर्ष- वर से कुछ लेकर विवाह करना आर्ष विवाह कहलाता है, परन्तु यह मत किसी-किसी आचार्य का है | महर्षि मनु ने कुछ भी लेने का खण्डन किया है | कुछ भी न ले-देकर दोनों की प्रसन्नता से पाणिग्रहण होना 'आर्ष' विवाह है |
४. प्राजापत्य- धर्म की वृद्धि के लिए दोनों का विवाह होना 'प्राजापत्य' विवाह है |
५. आसुर- वर और कन्या को कुछ देके विवाह होना 'आसुर' विवाह है |
६. गान्धर्व- अनियम, असमय किसी कारण से वर-कन्या का इच्छा पूर्वक परस्पर संयोग होना ‘गान्धर्व' विवाह कहलाता है |
७ .राक्षस- लड़ाई करके बलात्कार अर्थात् छीन-झपट वा कपट से कन्या का ग्रहण करना 'राक्षस' विवाह कहलाता है |
८. पैशाच- शयन वा मद्यादि पी हुई पागल कन्या से बलात्कार, संभोग करना 'पैशाच' विवाह कहलाता है |
इन सब विवाहों में ब्राह्म विवाह सर्वोत्कृष्ट, दैव, प्राजापत्य, आर्ष मध्यम, आसुर और गान्धर्व विवाह निकृष्ट, राक्षस अधम और पैशाच महाभ्रष्ट है | ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य- इन चार विवाहों में पाणिग्रहण किये हुए स्त्री-पुरुषों से जो सन्तान उत्पन्न होते हैं वे ओजस्वी, तेजस्वी, संयमी, बुद्धि आदि उत्तम गुणयुक्त, धर्मात्मा और दीर्घायु होते हैं | शेष चार विवाहों द्वारा जो सन्तान उत्पन्न होती है वह मिथ्यावादी, वेदधर्म-द्वेषी और नीच स्वभाव वाली होती है |
कन्या और वर का विवाह से पूर्व एकान्त में मेल नहीं होना चाहिए, क्योंकि युवावस्था में स्त्री-पुरुष का एकान्तवास दूषणकारक, होता है, परन्तु जब कन्या वा वर के विवाह का समय हो, अर्थात् जब एक वर्ष वा छह महीने ब्रह्मचर्याश्रम और विद्या पूरी होने में शेष रहें तब उन कन्याओं और कुमारों का प्रतिबिम्ब, जिसे फोटोग्राफ भी कहते हैं, कन्याओं की अध्यापिकाओं के पास कुमारों की और कुमारों के अध्यापकों के पास कन्याओं की भेज दें | जिस-जिसका रूप मिल जाए, उस-उसका इतिहास अर्थात् जन्म से लेकर उस दिन पर्यन्त जन्म-चरित्र की पुस्तक अध्यापक लोग मँगवाकर देखें | जब दोनों के गुण-कर्म-स्वभाव सदृश होँ तब जिस-जिसके साथ जिस-जिसका विवाह होना योग्य समझें उस-उस पुरुष और कन्या का प्रतिबिम्ब और इतिहास, कन्या और वर के हाथ में देवें और कहें कि इसमें जो तुम्हारा अभिप्राय हो उससे हमें अवगत करा देना | जब उन दोनों का विवाह करने का निश्चय हो जाए तब उन दोनों का समावर्तन एक ही समय में होवे | जो वे दोनों अध्यापकों के सामने विवाह करना चाहें तो वहाँ अन्यथा कन्या के माता-पिता के घर में विवाह होना योग्य है |
'संस्कार विधि' के अनुसार सबके सामने पाणिग्रहण पूर्वक विवाह की विधि को पूर्ण कर एकान्त सेवन करें | गर्भ-स्थिति के पश्चात् एक वर्ष पर्यन्त स्त्री-पुरुष का समागम कभी न होना चाहिए | ऐसा करने से सन्तान उत्तम होते हैं अन्यथा वीर्य व्यर्थ जाता है, आयु कम होती है और अनेक प्रकार के रोग घेर लेते हैं | स्त्री इस समय भोजन, छादन इस प्रकार का करे कि गर्भ में बालक का शरीर अत्युत्तम रूप, लावण्य, पुष्टि, बल, पराक्रमयुक्त होकर दसवें मॉस में उत्पन्न हो |
गृहस्थ जीवन में स्त्री का महत्त्वपूर्ण स्थान
वैदिक धर्म में स्त्री पैर कि जूती नहीं अपितु सिर की पगड़ी है | नारी के इस गौरव और महत्व को स्वीकार करते हुए मनु ने कहा- "जिस कुल में भार्या से पति और पति से भार्या=पत्नी प्रसन्न रहते हैं उसी कुल में सब सौभाग्य और ऐश्वर्य निवास करते हैं, जिस घर में कलह होता है वहाँ दौर्भाग्य और दारिद्र्य निवास करता है | जिस घर में स्त्रियों का आदर-सम्मान होता है वहाँ दिव्य गुण और दिव्य पुरुषों का निवास होता है | जिन घरों में स्त्रियों का सत्कार नहीं होता वहाँ सब क्रियाएँ निष्फल हो जाती हैं | जिस घर वा कुल में स्त्रियां शोकातुर होकर दुःख पाती हैं वह कुल शीघ्र नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है | जिस घर में स्त्रियां आनन्द और प्रसन्नता से भरी रहती हैं वह कुल निरन्तर बढ़ता रहता है | इसलिए ऐश्वर्य की कामना करने वाले पुरुषों को चाहिए कि सत्कार और उत्सव के अवसरों पर इनका भूषण, वस्त्र और भोजन आदि से नित्यप्रति सत्कार करें | दिन और रात में जब-जब प्रथम मिलें वा पृथक होँ तब-तब प्रीतिपूर्वक नमस्ते एक-दूसरे से करे |
स्त्री के कर्त्तव्य
स्त्री को योग्य है कि सदा प्रसन्न रहे | गृह के सब कार्यों को चतुराई से करे | घर की शुद्धि और वस्तुओं को यथा योग्य स्थानों पर रखे तथा व्यय में अत्यन्त उदार न रहे |
स्त्री-पुरुषों के कर्तव्य
सदा सत्य और प्रिय बोलें, | हितकारी वचन ही बोलें | बिना अपराध किसी के साथ वैर या विवाद न करें | हितकारक वचन चाहे सुननेवाले को बुरा लगे तब भी कह दे | किसी की निन्दा न करें | अपने अवकाश के क्षणों में बुद्धि और धन वृद्धि करने वाले वेद को पढ़ें और पढाया करें |
पञ्च महायज्ञ
गृहस्थ ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ और भूतयज्ञ- इन पाँच यज्ञों को अवश्य किया करें |
१. ब्रह्मयज्ञ- वेदादि शास्त्रों का पढ़ना-पढ़ाना, सन्ध्योपासना और योगाभ्यास का नाम ही ब्रह्मयज्ञ है | इसे ऋषि-यज्ञ भी कहते हैं, क्योंकि स्वाध्याय द्वारा ही ऋषियों का तर्पण होता है |
२. देवयज्ञ- अग्निहोत्र, विद्वानों का संग, सेवा, पवित्रता, दिव्य गुणों का धारण, दात्रित्व, विद्या की उन्नति करना- देवयज्ञ है | होम के द्वारा अग्नि, वायु आदि की शुद्धि होती है |
सन्ध्या और अग्निहोत्र दो ही समय करना, क्योंकि दिन और रात की दो ही सन्धियाँ होती हैं |
३.पितृयज्ञ- देव अर्थात् विद्वान्, ऋषि अर्थात् पढ़ने-पढ़ाने वाले और पितर अर्थात् माता-पिता आदि वृद्ध, ज्ञानी तथा परम योगी जनों की सेवा करना पितृयज्ञ है | इसके दो भेद हैं- एक श्राद्ध और दूसरा तर्पण | 'श्रत्' का अर्थ है सत्य | जिस क्रिया से सत्य का ग्रहण किया जाए, उसे श्रद्धा और जो कर्म श्रद्धा से किया जाए उसका नाम श्राद्ध है | जिस-जिस कर्म से माता-पिता आदि प्रसन्न होँ और प्रसन्न किये जाएँ उसका नाम तर्पण है, परन्तु यह जीवितों के लिए है मृतकों के लिए नहीं |
४. बलिवैश्वदेव अर्थात् भूतयज्ञ- इस वैश्वदेव के तीन भाग हैं- (क)- जब भोजन तैयार हो जाए तब उसमें से खट्टे और लवणान्न को छोड़कर घृत तथा मिष्टयुक्त अन्न लेकर, चूल्हे से अग्नि अलग धर उसपर मन्त्रों से आहुति और भाग करें |
(ख)- तत्पश्चात् थाली में अथवा भूमि पर पत्ता रख कर पूर्व दिशा के क्रमानुसार मन्त्रपूर्वक भिन्न-भिन्न भाग रखना | इन भागों को कोई अतिथि हो तो उसे खिला दें अथवा अग्नि में छोड़ देवें |
(ग)- तदन्तर लवणान्न अर्थात् दाल, भात, शाक, रोटी आदि लेकर कुत्ते, पापी, चांडाल, पापरोगी, कौवे और कृमि अर्थात् चींटी आदि के लिए भाग धरें |
५. अतिथि-सेवा अथवा नृयज्ञ- अतिथि उसको कहते हैं जिसके आने-जाने की कोई तिथि निश्चित न हो, अर्थात् अकस्मात् कोई धार्मिक, सत्योपदेशक, सबके उपकारार्थ सर्वत्र घूमनेवाला, परमयोगी, सन्यासी गृहस्थ के यहाँ आवे तो गृहस्थी जल, आसन, खान-पान आदि से उसकी सेवा-सुश्रुषा कर उसे प्रसन्न करें, पश्चात् सत्संग कर उससे ज्ञान और विज्ञान-सम्बन्धी उपदेश श्रवण करें, जिससे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की प्राप्ति हो | साथ ही अपना चाल-चलन उसके सदुपदेशानुसार रखे | समयानुसार राजा और गृहस्थ भी अतिथिवत् सत्कार करने योग्य हैं, परन्तु आज-कल के जो हठी, दुराग्रही, वेदविरोधी एवं पाखण्डी वैरागी आदि हैं ऐसों का सत्कार गृहस्थ वाणी-मात्र से भी न करे, क्योंकि ऐसों का सत्कार करने से ये वृद्धि को प्राप्त होकर संसार को अधर्मयुक्त करते हैं | ये आप तो अवन्नत्ति के कम करते ही हैं साथ ही सेवक को भी अविद्यारूपी महासागर में डुबा देते हैं |
पञ्चमहायज्ञों का फल
ब्रह्मयज्ञ- के करने से विद्या, शिक्षा, धर्म, सभ्यता आदि शुभगुणों की वृद्धि होती है |
देवयज्ञ- अग्निहोत्र से वायु, वृष्टि और जल की शुद्धि होकर वृष्टि द्वारा संसार को सुख प्राप्त होता है |
पितृयज्ञ- का फल यह है कि गृहस्थी जब माता-पिता और ज्ञानी महात्माओं की सेवा करेगा तब उनकी कृपा से उसका ज्ञान बढ़ेगा | उससे गृहस्थी सत्यासत्य का निर्णय कर सत्य के ग्रहण और असत्य के त्याग से सुखी रहेगा | इसका दूसरा फल है कृतज्ञता- अर्थात् जैसी सेवा माता-पिता और आचार्य ने सन्तान और शिष्यों की की है उसका बदला देना उचित है |
बलिवैश्यदेवयज्ञ- इस होम से पाकशालास्थ वायु शुद्ध होती है | बिना जाने अदृश्य जीवों की जो हत्या होती है उसका प्रतिकार होता है तथा कुत्ते आदि प्राणियों को अन्न मिलता है |
अतिथियज्ञ- का फल यह है कि जब तक उतम अतिथि जगत् में नहीं होते तब तक उन्नति नहीं हो सकती | उनके सब देशों में घूमने और सत्योपदेश करने से पाखण्ड की वृद्धि नहीं होती | इनके द्वारा गृहस्थों को सहज ही सत्यज्ञान की प्राप्ति होती रहती है और मनुष्यमात्र में एक ही धर्म स्थिर रहता है | बिना अतिथियों के सन्देह की निवृति नहीं होती, सन्देह निवृति के बिना दृढ निश्चय नहीं होता, दृढ निश्चय के बिना सुख कहा ?
गृहस्थियों के कर्त्तव्य
प्रातः जागरण- स्त्री-पुरुषों को योग्य है कि रात्रि के चौथे प्रहर अथवा चार घड़ी रात्रि से उठें, फिर आवश्यक कार्य करके धर्म और अर्थ का, शरीर के रोग और उनके कारणों का तथा परमात्मा का ध्यान करें |
धर्माचरण- अधर्म का आचरण कभी न करें, क्योंकि किया हुआ अधर्म कभी निष्फल नहीं जाता | अधर्मात्मा पुरुष आरम्भ में फूलता-फलता है, परन्तु बाद में समूल नष्ट हो जाता है | स्त्री-पुरुष को चाहिए कि धीरे-धीरे धर्म का संचय करें, क्योंकि मरने के पश्चात् केवल धर्म ही सहायक होता है |
धर्म का स्वरूप- ऋत्विक, पुरोहित, आचार्य, माता-पिता, भाई, बहन, पुत्र, पुत्री, सम्बन्धी और सेवकों से विवाद अर्थात् विरुद्ध लड़ाई बखेड़ा कभी न करें | सदा कार्यों को दृढ़ता से करनेवाला, कोमलस्वभाव, जितेन्द्रिय, हिंसक एवं क्रूर-आचरण वालों से दूर रहनेवाला और मन को जीतनेवाला बनें | वाणी से ही सब व्यवहा सिद्ध होते हैं, अतः जो मिथ्या भाषण करता है वह चोरी आदि सब पापों का भागी होता है, इसलिए मिथ्याभाषणादि अधर्म को छोड़ दें |
आचार-महिमा- दुराचारी पुरुष संसार में निन्दा को प्राप्त होता है, वह दुःखों का ग्रास बनता है और उसका जीवन भी अल्प होता है इसके विपरीत आचार से आयु दीर्घ होती है, उत्तम प्रजा और अक्षय धन प्राप्त होता है तथा दुष्ट लक्षणों का नाश होता है |
परस्पर व्यवहार- जो कार्य एक-दूसरे के अधीन हैं वे अधीनता से ही करने चाहिएँ | स्त्री-पुरुष का और पुरुष-स्त्री का परस्पर प्रियाचरण, अनुकूल रहना, विरोध न करना | पुरुष की आज्ञानुसार घर के काम स्त्री करे और बाहर के काम पुरुष के अधीन रहें | दुष्ट व्यसन में फँसने से दोनों एक दूसरे को रोकें | जब विवाह होवे तब यही निश्चय जानना कि स्त्री के साथ पुरुष और पुरुष के साथ स्त्री बिक चुकी, अब स्त्री वा पुरुष परस्पर प्रसन्नता के बिना कोई भी व्यवहार न करें |
पति-पत्नी वियुक्त न रहें
स्त्री और पुरुष का कभी वियोग नहीं होना चाहिए, क्योंकि-
पानं दुर्जनसंसर्ग: पत्या च विरहोsटनम् |
स्वप्नोsन्यगेहवासश्च नारी सन्दूषणानि षट् || -मनु० ९ | १३
मद्य, भाँग आदि मादक द्रव्यों का सेवन, दुष्टपुरुषों का संग, पतिवियोग, अकेली जहाँ-तहाँ पाखण्डी आदि के दर्शन के मिस फिरती रहना, पराये घर में जाकर सोना अथवा रहना- ये छह दोष स्त्री को दूषित करनेवाले हैं और पुरुषों को भी | यदि पति दूर देश में यात्रार्थ जाए तो पत्नी को भी अपने साथ रखे, क्योंकि स्त्री-पुरुष का बहुत समय तक वियोग रहना ठीक नहीं |
पुनर्विवाह
एक समय में अनेक विवाह होना उचित नहीं है, परन्तु समयान्तर में अनेक विवाह हो सकते हैं | जिस स्त्री वा पुरुष का पाणिग्रहणमात्र संस्कार हुआ हो और संयोग न हुआ हो, अर्थात् अक्षतवीर्य पुरुष अक्षतयोनि स्त्री हो, उनका अन्य स्त्री-पुरुष के साथ पुनर्विवाह होना चाहिए, किन्तु ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्णों में क्षतयोनि स्त्री और क्षतवीर्य पुरुष का पुनर्विवाह न होना चाहिए | यदि सन्तान न हो तो कुल की परम्परा चलाने के लिए किसी अपने स्वजाति का लड़का गोद ले लें, उसी से कुल चलेगा |
विवाह की आवश्यकता
'विवाह क्यों करें ? क्योंकि विवाह करने से स्त्री पुरुष को बन्धन में पड़कर दुःख भोगना पड़ता है, अतः जब तक जिसकी जिसके साथ प्रीति हो तब तक मिले रहें जब प्रीति छूट जाए तो अलग हो जाएँ |' ये विचार अत्यन्त भ्रामक हैं | यह पशु-पक्षियों का व्यवहार है मनुष्यों का नहीं | जो मनुष्यों में विवाह का नियम न रहे तो गृहस्थाश्रम के सब उत्तम व्यवहार नष्ट हो जाएँ, कोई किसी की सेवा न करे और महाव्यभिचार बढ़कर सब रोगी, निर्बल और अल्पायु होकर शीघ्र मर जाएँ | कोई किसी से भय वा लज्जा न करे | वृद्धावस्था में कोई किसी की सेवा न करे |
गृहस्थाश्रम के कुछ आवश्यक कर्तव्य
अपने माता-पिता सास-श्वसुर की अत्यन्त सेवा-शुश्रुषा करें | मित्र और अड़ोसी-पड़ोसी, राजा, विद्वान्, वैद्य और सत्पुरुषों से प्रीति रखें | जो दुष्ट एवं अधर्मी हैं उनसे उपेक्षा अर्थात् द्रोह छोड़कर उनके सुधारने का यत्न किया करें | जहाँ तक बने वहाँ तक प्रेम से अपने सन्तानों को विद्वान् और सुशिक्षा करने-कराने में धनादि पदार्थों का व्यय करके उनको पूर्ण विद्वान् सुशिक्षायुक्त कर दें | धर्मयुक्त व्यवहार करके मोक्ष का साधन किया करें |
गृहस्थाश्रम का महत्त्व
अपने-अपने स्थान पर सभी आश्रम बड़े एवं महत्वपूर्ण हैं, परन्तु-
यथा नदीनदा: सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम् |
तथैवाश्रमीणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम् || -मनु० ३ | ९०
जैसे नदी और बड़े-बड़े नद तब तक भ्रमते ही रहते हैं जब तक समुद्र को प्राप्त नहीं होते, वैसे गृहस्थ-आश्रम से ही सब आश्रम स्थित रहते हैं | बिना इस आश्रम के किसी आश्रम का कोई व्यवहार सिद्ध नहीं होता |
ब्रह्मचारी, वानप्रस्थी और संन्यासी- इन तीनों आश्रमों को दान और अन्नादि देके गृहस्थ ही धारण करता है, इसलिए गृहस्थाश्रम ही सब आश्रमों में ज्येष्ठ और श्रेष्ठ है | जिसे इहलौकिक सुख और पारलौकिक आनन्द की इच्छा हो उसे प्रयत्नपूर्वक गृहस्थाश्रम को धारण करना चाहिए | जो यह गृहस्थाश्रम न होता तो संतानोत्पत्ति के न होने से ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास आश्रम कहाँ से हो सकते थे ? जो कोई गृहस्थाश्रम की निन्दा करता है वही निन्दनीय है और जो प्रशंसा करता है वही प्रशंसनीय है, परन्तु गृहस्थाश्रम में सुख तभी होता है जब स्त्री-पुरुष दोनों परस्पर प्रसन्न, विद्वान्, पुरुषार्थी और सब प्रकार के व्यवहारों के ज्ञाता होँ, अतः गृहस्थाश्रम के सुख का मुख्य कारण ब्रह्मचर्य और पूर्वोक्त स्वयंवर विवाह ही है |
इति चतुर्थः समुल्लासः सम्पूर्ण: || ४ ||
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Pancham Samullas
पञ्चम-समुल्लासः
वानप्रस्थ एवं संन्यास-विधिः
वानप्रस्थ का विधान
ब्रह्मचर्याश्रमं समाप्य गृही भवेत् गृही
भूत्वा वनी भवेद्वनी भूत्वा प्रव्रजेत् ||
मनुष्यों को योग्य है कि ब्रह्मचर्याश्रम को समाप्त करके गृहस्थ होकर वानप्रस्थ और वानप्रस्थ होके संन्यासी होवें | यह अनुक्रम से आश्रम विधान है |
गृहस्थाश्रम के पश्चात् पचासवें वर्ष की अवस्था में द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जब देखें कि सिर के केश श्वेत हो गये हैं, त्वचा ढीली हो गई है और लड़के के लड़का भी हो गया है तब वानप्रस्थ में प्रवेश करके वन में जाकर बसे |
वन की ओर प्रस्थान
वानप्रस्थी ग्राम के आहार और वस्त्रादि सब उत्तमोत्तम पदार्थों को छोड़, पुत्रों के पास स्त्री को रख अथवा अपने साथ लेकर वन में निवास करे | सांगोपांग अग्निहोत्र को लेके ग्राम से निकल दृढेन्द्रिय होकर जंगल में जाकर बसे |
वानप्रस्थी का जीवन
वानप्रस्थी को चाहिए कि नाना प्रकार के सामा आदि अन्न, सुन्दर शाक, मूल, फूल, फल, कन्दादि मुनियों के खाने के योग्य अन्नों से पञ्च- महायज्ञों को करता हुआ उसी से अतिथि सेवा और आप भी निर्वाह करे |
वानप्रस्थी नित्य स्वाध्याय किया करे, इन्द्रियों को जीते, प्राणीमात्र के साथ मित्रता का व्यवहार करे, विद्या का दान करे, सबपर दयालु हो और किसी से कुछ भी पदार्थ न लेवें | शरीर के सुख के लिए अति प्रयत्न न करे, ब्रह्मचारी रहे, भूमि पर सोवे, अपने आश्रित वा स्वकीय पदार्थों में ममता न करे, वृक्ष के मूल में बसे |
वानप्रस्थाश्रम में रहता हुआ मनुष्य नाना प्रकार की तपश्चर्या, सत्संग, योगाभ्यास और सुविचार से ज्ञान और पवित्रता को प्राप्त करे | पश्चात् जब संन्यास ग्रहण की इच्छा हो तब स्त्री को पुत्रों के पास भेज देवे और संन्यास ग्रहण कर लेवे |
संन्यास-विधिः
आयु का तीसरा भाग, अर्थात् पचासवें वर्ष से पचहत्तरवें वर्ष पर्यन्त, वन में बिताकर आयु के चौथे भाग में संगों को छोड़ के परिव्राट अर्थात् संन्यासी हो जाए | यदि इससे पूर्व भी वस्तुतः वैराग्य हो जाए तो पहले ही संन्यास ग्रहण किया जा सकता है | जाबालोपनिषद् में कहा है-
यदहरेव विरजेत्तदहरेव प्रव्रजेद्वनाद्वा
गृहाद्वा ब्रह्मचर्यादेव प्रव्रजेत् |
जिस दिन वैराग्य हो जाए उसी दिन घर से, वन से, अथवा ब्रह्मचर्याश्रम से संन्यास ग्रहण कर लेवे, परन्तु जो पूर्ण विद्वान्, जितेन्द्रिय, विषयभोग की कामना से रहित और परोपकार करने की इच्छा से युक्त पुरुष हो, वही ब्रह्मचर्याश्रम से संन्यास लेवे | जो बाल्यावस्था में विरक्त होकर विषयों में फँसे वह महापापी और जो न फँसे वह महापुण्यात्मा सत्पुरुष है |
परमेश्वर की प्राप्ति के लिए यज्ञ करके उसमें यज्ञोपवीत और शिखादि चिन्हों को छोड़, लोकैषणा, पुत्रैषणा और वितैषणा (धन की इच्छा) से ऊपर उठकर तथा बाह्य अग्नि को हृदय-मन्दिर में आरोपित करके ब्रह्मवित् ब्राह्मण घर से निकल कर संन्यासी हो जावे |
संन्यासी के कर्तव्य
संन्यासी सब भूतों=प्राणिमात्र को अभय दान देवे | यदि कोई संन्यासी पर क्रोध करे अथवा उसकी निन्दा करे तो भी संन्यासी को उचित है कि वह क्रोध न करे अपितु उसके कल्याणार्थ ही उपदेश करे | सात द्वारों में (मुख, दो नासिका-छिद्र, दो कान, दो आँखें) बिखरी हुई वाणी को मिथ्या कभी न बोले | अपने आत्मा और परमात्मा का चिन्तन करे | मद्य-मांस आदि का सेवन कभी न करे | धर्म और विद्या को बढ़ाने के लिए सदा उपदेश दिया करे | केश, नख, दाढ़ी, मूँछ का छेदन करावे, सुन्दर पात्र, दण्ड और कुसुम्भ आदि से रँगे हुए वस्त्रों को धारण करे, परन्तु अपने मन में यह निश्चय रखे कि दण्ड-कमण्डलु और काषायवस्त्र आदि चिन्ह-धारण धर्म का कारण नहीं है | संन्यासी इन्द्रियों को अधर्माचरण से रोक, राग-द्वेष को छोड़, सब प्राणियों से निर्वैर वर्त्तकर मोक्ष के लिए सामर्थ्य बढ़ाया करे | सत्योपदेश और विद्यादान से मनुष्यों की उन्नति करना संन्यासी का मुख्य कर्म है | ओंकारपूर्वक सप्त व्याहृतियों से विधिपूर्वक प्राणायाम यथाशक्ति करे, परन्तु तीन से न्यून कभी न करे, यही संन्यासी का परम तप है | संन्यासी लोग प्राणायाम से आत्मा, अन्तःकरण और इन्द्रियों के दोष, प्रत्याहार से संगदोष, धारणाओं से पाप और ध्यान से हर्ष-शोक और अविद्यादि दोषों को भस्म करे | सब भूतों से निर्वैर, इन्द्रियों के विषयों का त्याग, वेदोक्त धर्म और अत्युग्र तपश्चरण से ही संन्यासी मोक्ष पद को प्राप्त कर सकते हैं | संग-दोषों को छोड़ और हर्ष-शोकादि सब द्वन्द्वों से विमुक्त होकर संन्यासी ब्रह्म में अवस्थित होता है | संन्यासियों का कर्म यही है कि सब गृहस्थादि आश्रमों को सब प्रकार के व्यवहारों का सत्य निश्चय करा, अधर्म व्यवहारों से छुड़ा, सब संशयों का छेदन कर सत्य धर्मयुक्त व्यवहारों में प्रवृत्त कराया करें |
संन्यास का अधिकार
संन्यास ग्रहण करने का अधिकार ब्राह्मण को ही है | जो सब वर्णों में पूर्ण विद्वान, धार्मिक, परोपकारप्रिय मनुष्य है, उसी का नाम ब्राह्मण है | पूर्ण विद्या, धर्म और परमेश्वर में निष्ठा तथा वैराग्य के बिना संन्यास ग्रहण करने से संसार का विशेष उपकार नहीं होता, इसलिए लोकश्रुति है कि―ब्राह्मण को ही संन्यास का अधिकार है अन्य को नहीं |
संन्यासाश्रम की आवश्यकता
जैसे शरीर में सिर की आवश्यकता है, वैसे ही आश्रमों में संन्यासाश्रम की आवश्यकता है, क्यों कि इस आश्रम के बिना विद्या और धर्म की वृद्धि कभी नहीं हो सकती | दूसरे आश्रमों को विद्या-ग्रहण, गृहकृत्य और तपश्चर्यादि के कारण अवकाश बहुत कम मिल पाता है, अतः ये आश्रमी धर्म तथा परोपकार में अधिक अग्रसर नहीं हो सकते | संन्यासी के समान पक्षपात छोड़कर वर्त्तना दूसरे आश्रमवालों के लिये दुष्कर है | जैसा संन्यासी सर्वत्तोमुक्त होकर जगत् का उपकार करता है वैसा अन्य आश्रमी नहीं कर सकता, क्यों कि संन्यासी को सत्य विद्या से पदार्थों के विज्ञान की उन्नति का जितना अवकाश मिलता है उतना अन्य आश्रमी को नहीं मिल सकता, परन्तु जो ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यासी होकर और शिक्षा देकर जगत् की जितनी उन्नति कर सकता है उतनी उन्नति गृहस्थ अथवा वानप्रस्थाश्रम से संन्यास लेने वाला संन्यासी नहीं कर सकता | संन्यासी
संन्यासी का पुत्र
'संन्यास ग्रहण करना ईश्वर के अभिप्राय के विरुद्ध है, क्योंकि गृहस्थाश्रम न करने से कुलों का मूलोच्छेदन हो जाएगा'- यह कहना मिथ्या है, क्योंकि बहुतों के विवाह करने पर भी सन्तान हीन होते हैं और गृहस्थाश्रम से बहुत सन्तान होकर आपस में विरुद्धाचरण कर लड़ मरें तो कितनी हानि होती है, समझ के विरोध से लड़ाई होती ही है | जब संन्यासी एक वेदोक्त धर्म के उपदेश से परस्पर प्रीति उत्पन्न कराएगा तो लाखों मनुष्यों को बचा देगा, इस प्रकार सहस्त्रों गृहस्थों के समान मनुष्यों की उन्नति करेगा | जो-जो संन्यासी के उपदेश से धार्मिक मनुष्य होंगे वे सब जानों संन्यासी के पुत्र-तुल्य हैं और सब मनुष्य संन्यास ग्रहण कर ही नहीं सकते, क्योंकि सबकी विषयासक्ति नहीं छूट सकती |
संन्यासी और कर्म
जो संन्यासी कहते हैं- "हमको कुछ कर्तव्य नहीं | अस्त्र-वस्त्र लेकर आनन्द में रहना, अविद्यारूप संसार से माथापच्ची क्यों करना ? अपने को ब्रह्म मानना और दूसरों को भी वैसा उपदेश करते हैं" -यह सब मिथ्या प्रलाप है | क्या उनको अच्छे कर्म भी कर्त्तव्य नहीं ? महर्षि मनु के अनुसार "वैदिकैश्चेव कर्मभिः" धर्मयुक्त सत्य कर्म तो संन्यासी को भी करने चाहिएँ | जब वे भोजनादि कर्मों को नहीं छोड़ सकते तब उत्तम कर्मों को छोड़ने से वे पतित और पाप-भागी ही होंगे | यदि संन्यासी गृहस्थों से अन्न-वस्त्र आदि लेकर सत्योपदेश द्वारा उनका प्रत्युपकार नहीं करेगा तो ऋणी हो जाएगा | जैसे आँख से देखना कान से सुनना न हो तो आँख और कान का होना व्यर्थ है, वैसे ही जो संन्यासी सत्योपदेश और वेदादि सत्य शास्त्रों का विचार और प्रसार नहीं करते तो वे भी जगत् में व्यर्थ भाररूप हैं | जो "अविद्यारूप संसार से माथापच्ची क्यों करना" इत्यादि कहते हैं, वैसा उपदेश करने वाले ही मिथ्यारूप और पाप के बढ़ानेवाले पापी हैं | जो जीव को ब्रह्म बतलाते हैं वे अविद्यारूपी निद्रा में सोते हैं | 'संन्यासी सर्वकर्मनाशी' कहना भी मिथ्या है | संन्यास का अर्थ है- 'सम्यंग न्यस्यन्ति दुःखानि कर्माणि येन स संन्यासः' दुष्ट कर्मों को छोड़कर उत्तम कर्मों में अवस्थित होने का नाम ही संन्यास है | सत्योपदेश सब आश्रमी करें, परन्तु जितना अवकाश और निष्पक्षपातता संन्यासी को होती है उतनी गृहस्थों को नहीं | भ्रमण का जितना अवकाश संन्यासी को मिलता है उतना गृहस्थ ब्राह्मण आदि को कभी नहीं मिल सकता | इसके अतिरिक्त जब वेद विरुद्ध आचरण करें तब उनका नियन्ता भी संन्यास ही होता है |
कतिपय-प्रतिवाद-खण्डन
एक रात्रि निवास- 'एकरात्रिं वसेद् ग्रामे'- संन्यासी को एक रात्रि से अधिक एक ग्राम में नहीं रहना चाहिए- यह बात थोड़े अंश में तो अच्छी है कि एकत्र वास करने से जगत् का विशेष उपकार नहीं हो सकता | एक ही स्थान पर अधिक रहने से उस स्थान के साथ मोह-ममता और वहाँ के निवासियों के साथ राग-द्वेष होना भी सम्भव है, परन्तु यदि एकत्र रहने से विशेष उपकार होता है तो अवश्य रहे
जैसे जनक के यहाँ पञ्चशिख आदि संन्यासी महीनों और वर्षों निवास किया करते थे और 'एक स्थान पर न रहना '-यह बात आजकल के पाखण्डी सम्प्रदायियों ने बनाई है, क्योंकि जो संन्यासी एक स्थान पर अधिक रहेगा तो हमारा पाखण्ड खण्डित होकर अधिक न बढ़ सकेगा |
संन्यासी तथा धन- 'संन्यासियों को धन देने से दाता नरक में जाता है'-यह बात भी वर्णाश्रमविरोधी, सम्प्रदायी और स्वार्थसिन्धु पौराणिकों की कपोल कल्पना है क्योंकि संन्यासियों को धन मिलेगा तो वे हमारा खण्डन अधिक कर सकेंगे और हमारे अधीन भी नहीं रहेगें |
जब मुर्ख और स्वार्थियों को दान देते हैं तो विद्वान् और परोपकारी संन्यासियों को देने में कुछ भी दोष नहीं हो सकता | मनु महाराज के अनुसार भी -विविधानि च रत्नानि विविक्तेषूपपादयेत् -नाना प्रकार के रत्न और स्वर्ण आदि धन विविक्त अर्थात् संन्यासियों को देने चाहिएँ | हाँ, यदि संन्यासी योग-क्षेम से अधिक रखेगा तो चोर आदि से पीड़ित और मोहित भी हो जाएगा |
संन्यासी का श्राद्ध में आगमन- लोगों की यह धारणा भी है कि -'श्राद्ध में संन्यासी आवे या उसे श्राद्ध में खिलाये-पिलाये तो जिमानेवाले के पितर भाग जाएँ और नरक में गिरें' -मिथ्या ही है | मरे हुए पितरों का आना किया हुआ श्राद्ध पितरों को पहुँचना असम्भव, वेद और युक्ति-विरूद्ध होने से मिथ्या है | जब आते ही नहीं तो भाग कौन जाएँगे और नरक में कौन गिरेंगे | हाँ, यह बात तो ठीक है कि जहाँ संन्यासी जाएँगे वहाँ वेदादि शास्त्रों से विरुद्ध होने के कारण यह मृतक-श्राद्धरूपी पाखण्ड दूर भाग जाएगा |
ब्रह्मचर्य से संन्यास
ब्रह्मचर्य से संन्यास लेने का अधिकार है, परन्तु जो काम के वेग को न रोक सके वह ब्रहचर्य से संन्यास न ले अपितु गृहस्थाश्रम और वानप्रस्थ होकर जब वृद्ध हो जाए तभी संन्यास ले, परन्तु जो पूर्ण जितेन्द्रिय हो वह ब्रह्मचर्याश्रम से ही संन्यास क्यों न ले ? हाँ, इतनी बात अवश्य है कि
संन्यास अधिकारियों को ही लेना चाहिए जो अनधिकारी संन्यास ग्रहण करेगा तो आप भी डूबेगा और औरों को भी डुबाएगा |
भिन्न-भिन्न आश्रमों के कर्त्तव्य
विद्या पढ़ने, सुशिक्षा लेने और बलवान् होने आदि के लिए ब्रह्मचर्य, सब प्रकार के उत्तम व्यवहार सिद्ध करने के लिए गृहस्थ, विचार, ध्यान और विज्ञान बढ़ाने और तपश्चर्या कराने के लिए वानप्रस्थ एवं वेदादि सत्यशास्त्रों का प्रचार, धर्मव्यवहार का ग्रहण और दुष्ट व्यवहार का त्याग, सत्योपदेशादि और सबको निःसन्देह करने के लिए संन्यासश्रम है | जो इस संन्यास के मुख्य धर्म सत्योपदेश आदि नहीं करते वे पतित और नरकगामी हैं, अतः संन्यासियों को उचित है कि सत्योपदेश, शँका-समाधान, वेदादि सत्य शास्त्रों का अध्ययन और वेदोक्त धर्म की वृद्धि प्रयत्न से करके सब संसार की उन्नति किया करें |
साधु-वैरागी-गुसाईं
जो आजकल के साधु, वैरागी, गुसाईं, खाकी आदि हैं, उन्हें संन्यासाश्रम में नहीं गिना जा सकता, क्योंकि उनमें संन्यासाश्रम का एक भी लक्षण नहीं घटता | ये वेद विरुद्ध मार्ग में प्रवृत्त होकर वेद से अधिक अपने सम्प्रदाय के आचार्यों के वचन मानते और अपने ही मत की प्रशंसा करते, मिथ्या प्रपञ्च में फँसकर अपने स्वार्थ के लिए दूसरों को अपने मत में फँसाते हैं | सुधार करना तो दूर रहा उसके बदले में संसार को बहकाकर अधोगति को प्राप्त कराते और अपना प्रयोजन सिद्ध करते हैं, अतः इनको संन्यासाश्रम में नहीं गिन सकते | हाँ, ये स्वर्थाश्रमी तो पक्के हैं |
सभी संन्यासी
जो स्वयं धर्म में चलकर सब संसार को धर्म में चलाते हैं और इस प्रकार इस लोक तथा परलोक में सुख का भोग कराते हैं, वे ही धर्मात्माजन संन्यासी और महात्मा हैं |
संन्यास के साथ जीवन-यात्रा सम्पूर्ण हुई | इसके आगे 'राजप्रजाधर्म' विषय में लिखा जाएगा |
इति पञ्चमः समुल्लासः सम्पूर्ण: || ५ ||
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Shashtha Samullas
षष्ठ-समुल्लासः
राजा-प्रजाधर्मविषयः
राजा का कर्त्तव्य
क्षत्रिय को योग्य है कि सुशिक्षित होकर न्यायपूर्वक प्रजा की रक्षा और राज्य का पालन करे |
राष्ट्र की तीन सभाएँ
राज्य के सञ्चालन और प्रजा की रक्षा के लिए यह आवश्यक है कि राजा और प्रजा के पुरुष मिल कर, विद्यार्यसभा, धमार्यसभा, और राजार्यसभा- इन तीन सभाओं का निर्माण करें |
राजा स्वच्छन्द न हो
एक व्यक्ति को स्वतन्त्र राज्य का अधिकार नहीं देना चाहिए, क्योंकि स्वच्छन्द राजा प्रजा का नाशक होता है | स्वतन्त्र राजा प्रजा को अपने से अधिक नहीं होने देता, श्रीमानों को लूट-खसोटकर और अन्याय से दण्ड देके चौपट कर देता है |
राजा का चुनाव
वैदिक राजनीति में राष्ट्र के सब विद्वान् मिलकर राजा का निर्वाचन करते हैं | अयोग्य होने पर प्रजा उसे हटा भी सकती है | जिस पुरुष को राजा चुना जाए वह प्रजाओं में सर्वश्रेष्ठ, शत्रुओं को जितनेवाला, प्रशंसनीय गुण-कर्म-स्वभाव से युक्त, सत्करणीय एवं सुशिक्षित हो | वह राजा अथवा सभापति ‘इन्द्र’ अर्थात् राष्ट्र को शीघ्रता से ऐश्वर्य से युक्त करने वाला, ‘वायु’ के समान सबको प्राणवत् प्रिय, ‘यम’ पक्षपातरहित न्यायाधीश के समान वर्त्तनेवाला, ‘सूर्य’ के सामान न्याय, धर्म, विद्या का प्रकाशक और अविद्या, अन्याय का निरोधक, ‘अग्नि’ के समान दुष्टों को भस्म करनेवाला, ‘वरुण’ के समान दुष्टों को अनेक प्रकार से बाँधनेवाला, ‘चन्द्रमा’ के तुल्य श्रेष्ठ पुरुषों को आनन्ददाता और ‘वित्तेश’ के समान कोशों को पूर्ण करनेवाला हो |
इस राजा को राज्यव्यवस्था के निमित्त राज्यसभाओं के अधीन रहना चाहिए | यह राजा राज्यकार्य में स्वतन्त्र न होता हुआ सभाओं की सम्मति से, अर्थात् सभा के सभापति के रूप में कार्य किया करे |
सभासदों और सभापति के गुण
महाविद्वानों को विद्यासभाधिकारी, धार्मिक विद्वानों को धर्मसभाधिकारी तथा प्रशंसनीय धार्मिक पुरुषों को राज्यसभा के सभासद् और जो उन सब में सर्वोत्तम गुण-कर्म-स्वभावयुक्त महापुरुष हो उसको राजसभा का पति मान के सब प्रकार से उन्नति करें | राजा और राजसभा के सभासद् वे ही हो सकते हैं जो चारों वेदों की विद्याओं, सनातन दण्डनीति, न्यायविद्या, वार्ता [कृषि,पशु-पालन और व्यापार] और ब्रह्मविद्या को अच्छी प्रकार जानते होँ | सब सभासद् और सभापति इन्द्रियों को जीतकर सदा धर्म में वर्तें और अधर्म से हटे रहें | इसके लिए योगाभ्यास भी करते रहें, क्योंकि अपनी इन्द्रियों [कान, नाक, जिह्वा आदि] को जीते बिना बाहर की प्रजा को वश में रखना असम्भव है |
सभा के सभासदों की संख्या
न्यून-से-न्यून दस विद्वानों अथवा बहुत न्यून होँ तो तीन विद्वानों की सभा जैसी व्यवस्था करे उस व्यवस्था का उल्लंघन कोई भी न करे | दस विद्वानों की सभा [दशावरा परिषद् ] में निम्न दस विद्वान् होने चाहिएँ –ऋग्युजः, साम और अथर्व के ज्ञाता चार विद्वान्, न्यायशास्त्र का ज्ञाता, निरुक्त्त का ज्ञाता, धर्मशास्त्र का वेत्ता तथा ब्रह्मचारियों, गृहस्थियों और वानप्रस्थियों का एक-एक प्रतिनिधि | तीन विद्वानों की सभा [त्र्यवरा परिषद् ] में ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के ज्ञाता तीन विद्वान् होने चाहिए |
राष्ट्र के नियमों का निर्माण
राष्ट्र के नियमों का निर्माण बहुसम्मति से न होकर विद्वानों की सम्मति से होना चाहिए | महर्षि मनु कहते हैं-
एकोऽपि वेदविद्धर्मम् यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः |
स विज्ञेयो परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतै: || -मनु० १२ | ११३
सब वेदों को जाननेवाला, द्विजों में उत्तम, अकेला संन्यासी जिस धर्म की व्यवस्था करे, वही श्रेष्ठ धर्म है, उसी को मानना चाहिए और अज्ञानी सहस्त्रों, लाखों तथा करोड़ों भी मिलकर जो व्यवस्था करें उसे कभी न मानना चाहिए |
मुर्ख जिस धर्म की व्यवस्था करें उसे कभी न मानना चाहिए, क्योंकि मूर्खों के अनुसार चलने से मनुष्य के पीछे सैकड़ों पाप लग जाते हैं | विद्यार्यसभा आदि तीनों सभाओं में भी मूर्खों को कभी भर्ती न करें, अपितु सदा विद्वान् और धार्मिक पुरुषों की स्थापना करें |
उपर्युक्त तीनों सभाओं की सम्मति से राजनीति के उत्तम-उत्तम नियम बनाया करें और इन नियमों के अधीन सब लोग वर्ता करें | सबके हितकारी कामों में सभासद् अपनी-अपनी सम्मति दिया करें | सर्वहित करने में सब सभासद् परतन्त्र और निज धर्म युक्त कार्यों में सब स्वतन्त्र रहें |
राजा, राजसभाओं तथा प्रजा का परस्पर सम्बन्ध
किसी एक व्यक्ति को राज्य का स्वतन्त्र अधिकार नहीं देना चाहिए, किन्तु राजा [सभापति] के अधीन सभा और सभा के अधीन राजा, इसी प्रकार राजा और सभा प्रजा के अधीन तथा प्रजा सभा के अधीन रहे | यदि राजा और राजवर्ग पर प्रजा का अंकुश न रहे, वे स्वाधीन और स्वतन्त्र रहें तो प्रजा का नाश कर देते हैं |
राजा का व्यसन-शून्य जीवन
प्रजा राजा का ही अनुकरण करती है, अतः राजा का जीवन व्यसनशून्य और आदर्श होना चाहिए | राजा को दृढोत्साही होकर काम और क्रोध से उत्पन्न होनेवाले व्यसनों को छोड़ देना चाहिए | काम से उत्पन्न होनेवाले व्यसन ये हैं –मृगया=शिकार करना, अक्ष=जुआ खेलना, दिन में सोना, काम-कथा अथवा दूसरों की निन्दा करना, स्त्रियों का अतिसंग, मद्य आदि मादक द्रव्यों का सेवन, गाना, बजाना, नाचना और व्यर्थ इधर-उधर घुमते रहना | क्रोध से उत्पन्न होने वाले व्यसन ये हैं –चुगली करना, बिना विचारे बलात्कार से किसी की स्त्री से बुरा काम करना, द्रोह=वैर रखना, ईर्ष्या=दूसरों की उन्नति देखकर जलना, असूया=गुणों में दोष और दोषों में गुण आरोपित करना, अधर्म युक्त कार्यों में धन व्यय करना, बिना अपराध कठोर वचन कहना अथवा कठोर दण्ड देना | इन दोनों प्रकार के व्यसनों का मूल लोभ है, अतः लोभ का भी परित्याग कर देना चाहिए |
मन्त्रिमण्डल तथा राजपुरुष
विशेष सहाय के बिना सरल कार्य भी अत्यन्त कठिन हो जाते हैं फिर महान् राजकार्य एक व्यक्ति के द्वारा कैसे सम्भव हो सकता है? अतः एक को राज्यशक्ति देना और एक की बुद्धि पर सारे राज्यकार्य को छोड देना बहुत बुरा काम है। राज्य के सुसञ्चालनार्थ राजा को चाहिए कि स्वदेश में उत्पन्न, वेदादि शास्त्रों को जानने-वाले, शूरवीर, जिनका लक्ष्य अर्थात् विचार निष्फल न हो, ऐसे कुलीन, सुपरीक्षित, उत्तम, धार्मिक और चतुर सात वा आठ मन्त्रियों को नियुक्त करे। राजा स्वयं उस मन्त्रिमण्डल का सभापति होकर राजकार्यों में कुशल मन्त्रियों के साथ निम्नलिखित छह गुणों का विचार नित्यप्रति किया करे-
1- सन्धि- किसी राष्ट्र से मित्रता करना,
2- विग्रह- किसी राष्ट्र से विरोध करना,
3- स्थिति- समय को देखकर चुपचाप बैठे रहना अथवा अपने राज्य की रक्षा करके बैठे रहना,
4- समुदय- जब अपने राष्ट्र का उदय अर्थात् वृद्धि देखे तब दुष्ट शत्रु पर चढाई करना,
5- गुप्ति- राजसेना, कोश आदि की रक्षा करना और
6- लब्धप्रशमन- जिन-जिन देशों पर विजय प्राप्त हो उनमें शान्ति-स्थापन और उन्हें उपद्रव रहित करना।
उपर्युक्त मन्त्रियों के अतिरिक्त अन्य भी पवित्रात्मा, बुद्धिमान्, निश्चित बुद्धिवाले, पदार्थों के संग्रह में अति चतुर एवं सुपरीक्षित मन्त्रियों को नियुक्त करे। इनकी संख्या कार्य के विस्तार पर निर्भर करती है। जितने मनुष्यों से कार्य सिद्ध हो सके, उतने आलस्य रहित, बलवान् वा चतुर पुरुषों को अधिकारी नियुक्त करे।
दूत
प्रशंसित कुल में उत्पन्न, चतुर, पवित्र, हाव-भाव और चेष्टा से हृदयगत विचारों तथा भविष्य में होनेवाली बातों को जाननेवाला, सब शास्त्रों में विशारद दूत को नियुक्त करे। राजकार्य में अत्यन्त उत्साही, निष्कपटी, पवित्रात्मा, बहुत समय की बात को भी न भूलनेवाला, देश और काल अनुसार कार्य कानेवाला, सुन्दररूपयुक्त, निर्भय और सुवक्ता- ऐसा व्यक्ति ही दूत होने में प्रशस्त होता है। राजदूत में फूट में मेल कराने तथा मिले हुए दुष्टों को तोड-फोड देने का सामर्थ्य भी होना चाहिए।
कार्य-विभाग
अमात्य को दण्डाधिकार, दण्ड में विनय-क्रिया अर्थात् किसी के प्रति अन्यायरूप दण्ड न होने पाये, राजा के अधीन कोश और दण्डकार्य तथा सभा के अधीन सब कार्य दूत के अधीन सन्धि=मेल और विग्रह=विरोध करने का अधिकार देना चाहिए।
पुरोहित
पुरोहित और ॠत्विज का स्वीकार इसलिए करे कि वे अग्निहोत्र और पक्षेष्टि आदि राजघर के सब कर्म किया करें और आप सदा राजकार्य में तत्पर रहे, अर्थात् यही राजा का सन्ध्योपासनादि कर्म है जो रात-दिन राजकार्य में प्रवृत्त रहना और कोई राजकाम बिगडने न देना।
कर
राजा वार्षिक कर आप्त पुरुषों के द्वारा ग्रहण किया करे। जिसप्रकार राजा और राजपुरुष और प्रजाजन सुखरूप फल से युक्त हों, वैसा विचार कर राजा तथा राज्यसभा राज्य में ‘कर’ स्थापन करे। जैसे जौंक, बछडा और भ्रमर थोडे-थोडे भोग्य पदार्थ ग्रहण करते हैं वैसे ही राजा प्रजा से थोडा-थोडा कर लेवे। व्यापार करनेवाले वा शिल्पी सुवर्ण वा चाँदी का जितना लाभ हो उसमें से पचासवाँ भाग, चावला आदि अन्नों में से छठा, आठवाँ वा बारहवाँ भाग लिया करे और जो धन लेवे तो भी उस प्रकार से लेवे कि जिससे किसान आदि खाने-पीने और धन से रहित होकर दुःख न पाएँ। अतिलोभ से अपने और दूसरों के सुख के मूल को नष्ट न करे। राजा ‘कर’ के उतने ही अंश का भोग करे जितना सभा उसके लिए नियत करे।
शस्त्र, सेना और दुर्ग=किला
राष्ट्र में आग्नेय आदि अस्त्र, शतघ्नी अर्थात् तोप और भुशुण्डी अर्थात् बन्दूक, धनुष-बाण एवं तलवार आदि शस्त्र शत्रुओं को पराजित करने और उनके आक्रमण को विफल करने के लिए होने चाहिएँ। राष्ट्र की सेना प्रशंसनीय हो जिससे सदा अपना विजय हो। सब सेना और सेनापतियों के ऊपर मुख्य सेनापति को नियुक्त करना चाहिए।
स्थल-युद्ध के लिए रथों, अश्वों, हाथियों, पदातियों शस्त्रास्त्रों का, जल-युद्ध के लिए नौकाओं और जहाजों का तथा आकाश-युद्ध के लिए विमानों का प्रबन्ध राजा को करना चाहिए। राजा सब राजपुरुषों को युद्ध विद्या सीखाने का प्रबन्ध करे। प्रतिदिन प्रातःकाल राजा सेनाध्यक्षों के साथ मिला करे और उन्हें हर्षित किया करे। सेना की कवायद और हाथी, घोडों तथा शस्त्रास्त्रों का सदा ध्यान रखा करे।
राजा को चाहिए कि राष्ट्र में दुर्गों का निर्माण भी कराए, क्यों कि दुर्ग में स्थित अस्त्र-शस्त्रयुक्त एक वीरपुरुष सौ के साथ और सौ पुरुष दस सहस्त्र के साथ युद्ध कर सकते हैं। ये दुर्ग शस्त्रास्त्र, धन-धान्य, वाहन, कारीगर, अन्न, चारा, घास तथा जलादि से परिपूर्ण होने चाहिएँ।
युद्ध
राष्ट्र रक्षा के लिए कभी-कभी युद्ध भी आवश्यक हो जाता है। जब कभी कोई छोटा या बडा शत्रु राजा को युद्ध के लिए आहूत करे तो क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करके युद्ध में प्रवृत हों और अत्यन्त चतुराई से युद्ध करे जिससे अपना विजय हो। संग्राम में एक-दूसरे के मारने की इच्छा करते हुए जो राजा लोग अपने सामर्थ्य के अनुसार पीठ न दिखा युद्ध करते हैं, वे सुख को प्राप्त होते हैं, अतः युद्ध से कभी विमुख नहीं होना चाहिए। हाँ कभी-कभी शत्रु को जीतने के लिए उसके सामने से छिप जाना उचित है, क्योंकि जिस प्रकार से अपना विजय हो वैसा ही करे। जैसे सिंह क्रोध के कारण सामने आकर शस्त्राग्नि में भस्म हो जाता है, वैसे ही मूर्खता से नष्ट-भ्रष्ट न हो जाएँ।
युद्ध में शस्त्रपात के अयोग्य
युद्ध में दर्शनार्थ इधर-उधर खडे, नपुंसक, हाथ जोडे हुए, जिसके सिर के बाल खुले हों और “मैं तेरी शरण में हूँ”-ऐसा कहनेवाले पर शस्त्र-प्रहार न करे। सोये हुए, मूर्छित, नग्न, हथियार-रहित, अत्यन्त घायल, डरे हुए और युद्ध से पीठ दिखाकर भागते हुए पुरुष को योद्धा लोग सत्पुरुषों के धर्म का स्मरण करते हुए कभी न मारें।
युद्ध में पकडे हुए शत्रुओं के साथ व्यवहार
युद्ध में हारे हुए शत्रुओं को पकड ले। उनमें जो अच्छे हों उन्हें बन्दी गृह में रख दे। उन्हें भोजन-वस्त्र आदि यथावत् देवे। जो घायल हों उनकी चिकित्सा आदि विधि पूर्वक करे। उन्हें न चिडाए, न दुःख दे। जो उनके योग्य काम हो वह उनसे कराए। इस बातपर विशेष ध्यान रखे कि स्त्री, बालक, वृद्ध, आहत तथा शोकयुक्त पुरुषों पर शस्त्र कभी न चलाए। उनकी सन्तान को अपनी सन्तानवत् पाले और स्त्रियों को भी पाले। उनकी स्त्रियों को अपनी बहिन और कन्या के समान समझे। जब राज्य अच्छी प्रकार जम जाए तब जिससे पुनः युद्ध करने की आशङ्का न रहे उन्हें सत्कारपूर्वक छोडकर उनके घर वा देश भेज देवे और जिनसे भविष्य में विघ्न होने की आशङ्का हो उन्हें सदा कारागार में रखे।
पराजित राजा के साथ व्यवहार
जो धार्मिक राजा हो उससे विरोध कभी न करे अपितु उससे सदा मेल रखे। दुष्ट राजा चाहे महाबलवान् भी क्यों न हो उसे जीतने के लिए सब प्रकार से प्रयत्न किया करे। शत्रु पर विजय पाकर उससे प्रतिज्ञा लिखवा लेवे। यदि उचित समझे तो उसी के वंशस्थ किसी धार्मिक पुरुष को राजा कर दे और उससे लिखवा ले कि तुम्हें हमारी आज्ञा के अनुकूल, अर्थात् जैसी धर्मयुक्त राजनीति है उसके अनुसार चलकर न्याय से प्रजा का पालन करना होगा तथा उसके पास ऐसे पुरुष रखे कि जिससे पुनः उपद्रव न हो।
हारे युए राजा को बन्दी-गृह में रखे तो भी उसका सत्कार यथायोग्य करे जिससे वह हारने के शोक से रहित होकर आनन्द में रहे। उसे कभी चिडाए नहीं, उसके साथ हँसी-ठठ्ठा भी न करे।“हमने तुम्हें पराजित किया है”-ऐसा भी न कहे किन्तु “आप हमारे भाई हैं”-इत्यादि कहकर उसका मान और प्रतिष्ठा सदा किया करे।
युद्ध में छल-छिद्र का स्थान
युद्ध में छ्ल-छिद्र भी आवश्यक है। महर्षि मनु लिखते हैं –जैसे बगुला ध्यान अवस्थित होकर मछली के पकडने को ताकता है वैसे ही राजा अर्थ-संग्रह का विचार किया करे। द्रव्यादि पदार्थ और बल की वृद्धि कर शत्रु को जीतने केलिए सिंह के समान पराक्रम करे, चीते के समान छिपकर शत्रुओं को पकडे तथा समीप में आये बलवान् शत्रुओं से खरगोश के समान दूर भाग जाए और पश्चात् उनको छल से पकडे।
सैनिकों को प्रसन्न रखना
राजा सेनास्थ योद्धाओं को उस धन में से जो कि सबने मिलकर जीता हो सोलहवाँ भाग देवे और जो कोई युद्ध में मर गया हो उसकी स्त्री और सन्तान को वह भाग दे दे तथा मरे हुए सैनिक की स्त्री और असमर्थ लडकों का यथावत् पालन करे। जब उसके लडके समर्थ हो जाएँ तब उन्हें यथायोग्य अधिकार देवे। जो कोई अपने राज्य की वृद्धि, प्रतिष्ठा, विजय और आनन्द चाहता हो, वह इस मर्यादा का उल्लङ्घन कभी न करे।
राजा की दिनचर्या
राजा को योग्य है कि रात्रि के पिछले प्रहर में उठकर शौच, प्रभु-चिन्तन, अग्निहोत्र और धार्मिक विद्वानों का सत्कार कर सभा में प्रवेश करे। वहाँ ठहर कर जो प्रजाजन उपस्थित हों उन्हें मान्य दे और उन्हें विदाकर प्रमुख मन्त्रियों के साथ एकान्त में ‘सन्धि-विग्रह’ आदि की मन्त्रणा करे। मन्त्र को यथासम्भव गुप्त रखे। मन्त्रणा की समाप्ति पर राजा व्यायाम व स्नान करके मध्याह्न में भोजन के लिए अन्तःपुर में प्रविष्ट हो।
न्याय
मुख्य न्यायाधीश सब विद्याओं में पूर्ण होना चाहिए। प्रजावर्ग में अठारह बातों में विवाद उठ खडा होता है यथा- ॠण-विषयक विवाद, धरोहर का न देना, दूसरे के पदार्थ को बेच देना, मिल-मिलाकर किसी पर अत्याचार करना, लिए हुए पदार्थ को न देना, वेतन सम्बन्धी विवाद, प्रतिज्ञा के विरुद्ध वर्त्तना, क्रय-विक्रय-विषयक विवाद, पशु के स्वामी और पालनेवाले का झगडा, सीमा का विवाद, किसी को कठोर दण्ड देना, कठोर वाणी बोलना, चोरी-डाका, बलात्कार, किसी की स्त्री वापुरुष का व्यभिचारी होना, स्त्री और पुरुष का विवाद, दायभाग-विषयक विवाद और द्यूत अर्थात् जड पदार्थ तथा समाह्वय अर्थात् चेतन पदार्थ को दाव पर लगाना। न्याय-सभा में राजा और रजपुरुष देशाचार और शास्त्र-व्यवहार अनुकूल इन विवादों का निर्णय न्यायपूर्वक किया करें। जब राजसभा में पक्षपात से अन्याय किया जाता है तब वहाँ अधर्म के चार विभाग होकर उनमें से एक अधर्म के कर्त्ता को, दूसरा साक्षी, तीसरा सभासदों और चौथा पाद अधर्मी सभा के सभापति=राजा को प्राप्त होता है। जिस सभा में निन्दा के योग्य की निन्दा, स्तुति के योग्य की स्तुति और दण्ड के योग्य को दण्ड दिया जाता है वहाँ राजा और सब सभासद् पाप से रहित तथा पवित्र हो जाते हैं और पाप पापकर्त्ता को ही प्राप्त होता है।
न्याय-व्यवस्था केलिए न्यायालय में धार्मिक, विद्वान, निष्कपट, निर्लोभी और सत्यवादियों को ही साक्षी मानना चाहिए विपरितों को नहीं। स्त्रियों की साक्षी स्त्रियाँ, द्विजों के साक्षी द्विज, शुद्रों के शुद्र और अन्त्यजों के अन्त्यज हुआ करें। बलात्कार के कामों तथा व्यभिचार आदि अपराधों में साक्षी की आवश्यकता नहीं, क्योंकि ये सब काम गुप्त होते हैं।
दोनों ओर से साक्षियों को सुन, बहुपक्षानुसार न्याय करना चाहिए। यदि साक्षियाँ तुल्य हों तो उत्तम गुणी पुरुषों की साक्षी के अनुकूल निर्णय देना चाहिए। यदि दोनों के साक्षी उत्तम गुण और संख्या में तुल्य हों तो द्विजोत्तमों अर्थात् ॠषि, महर्षि और यतियों की साक्षी के अनुसार न्याय करें।
साक्षी सत्य बोलें तो उन्हें किसी प्रकार का दण्ड नहीं मिलना चाहिए। साक्षी के असत्य बोलने पर उसका जिह्वा-छेदन करा देना चाहिए। जब वादी और प्रतिवादी के समक्ष, न्यायसभा में साक्षी आवें तब न्यायाधीश और प्राड्विवाक अथवा वकील या बैरिस्टर उन्हें स्मरण करा दे कि- “हे कल्याण के इच्छुक पुरुष ! ‘जो तू मैं अकेला हूँ’- अपने आत्मा में ऐसा जानकर मिथ्या बोलता है सो ठीक नहीं, क्योंकि पाप और पुण्य को देखनेवाला वह परमात्मा तेरे हृदय में स्थित है, उससे डरकर तू सदा सत्य बोलाकर।” झुठे साक्षियों को धन दण्ड भी देना चाहिए। निर्धन होने की अवस्था में धन दण्ड कम भी किया जा सकता है, परन्तु धनिकों से तो दुगना, तिगुना और चौगुना भी लेना चाहिए।
दण्ड-विधान
अपराधों को रोकने केलिए दण्ड अत्यन्त आवश्यक है। वस्तुतः दण्द ही राजा है। जो राजा दण्डनीय को ददण्ड नहीं देता और अदण्दनीय को दण्ड देता है वह जीता हुआ बडी निन्दा को और मरने के पश्चात् बडे दुःख को प्राप्त होता है।
उपस्थेन्द्रिय, उदर, जिह्वा, हाथ, पैर, आँख, कान, नाक, धन और देह- इन दस स्थानों पर दण्ड दिया जाता है। सर्वप्रथम वाणी का दण्ड देना चाहिए अर्थात् उसकी ‘निन्दा’ करनी चाहिए। दूसरा ‘धिक् दण्ड’ अर्थात् तुझको धिक्कार है कि तूने ऐसा बुरा काम किया, तीसरा उससे ‘धन’ लेना और चौथा ‘वधदण्ड’ अर्थात् उसको कोडा या बेंत से मारना या शिर काट देना।
चोर जिस-जिस अङ्ग से विरुद्ध चेष्टा करता है उसके उस-उस अङ्ग को मनुष्यों को शिक्षा केलिए काट देना चाहिए। चाहे माता, पिता, आचार्य, पुत्र और पुरोहित ही क्यों न हों न्यायासन पर बैठकर किसी का पक्षपात नहीं करना चाहिए। जो जितनी ऊँची स्थिति में हो, अपराध करने पर वह उतना ही अधिक दण्डनीय हो। जिस अपराध में साधारण मनुष्य पर एक पैसा दण्ड हो उसी अपराध में राजा को सहस्त्र पैसा दण्ड हो, मन्त्री को आठ सौ गुणा, इसीप्रकार छोटे-से-छोटे भृत्य अर्थात् चपरासी को आठ गुणे दण्ड से कम नहीं होना चाहिए।
राजा बलात्कार काम करनेवाले डाकुओं को दण्ड देने में एक क्षण की भी देरी न करे। जो स्त्री अपनी रिश्तेदारी के घमण्ड से पति को छोडकर व्यभिचार करे उस स्त्री को राजा, स्त्री और पुरुषों के समक्ष जीती हुई को कुत्तों से कटवाकर मरवा डाले। उसी प्रकार जो पुरुष अपनी स्त्री को छोड-के पर-स्त्री वा वैश्या-गमन करे उस पापी को लोहे के पलङ्ग को अग्नि में तपा, लाल करके जीते हुए को उसपर सुलाके बहुत पुरुषों के सम्मुख भस्म कर दे।
इस दण्ड को कडा नहीं समझना चाहिए, क्योंकि एक व्यक्ति को ऐसा दण्ड देने से सब लोग बुरे काम करने से बचे रहेगें और यदि सुगम दण्ड दिया जाए तो दुष्ट काम बहुत बढ जाएँगे।
नदी और समुद्रों पर कर
लम्बे मार्ग में, समुद्र की खाडियों वा नदी तथा बडे नदों में जितना लम्बा देश हो उतना कर स्थापन करे। महासमुद्र में निश्चित कर स्थापन नहीं हो सकता, किन्तु जैसा अनुकूल देखे और जिससे राजा और नौका चलानेवाला दोनों लाभयुक्त हो, वैसी व्यवस्थाकरे। इस स्थल से यह भी सिद्ध है कि प्राचीन समय में जहाज़ चलते थे। राजा को चाहिए कि देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में नौका से जानेवाले अपने प्रजास्थ पुरुषों की सर्वत्र रक्षा कर उनको किसी प्रकार का दुःख न होने देवे।
अत्यन्त आवश्यक
राजा=सभापति इस बात का सदा ध्यान रखे कि बाल्यावस्था में विवाह न हों। युवावस्था में भी बिना परस्पर प्रसन्नता के विवाह न हों। ब्रह्मचर्य-पालन कराने पर विशेष ध्यान रखे। व्यभिचार और बहु-विवाह को बन्द करे कि जिससे शरीर और आत्मा में पूर्ण बल सदा रहे।
राजपुरुष प्रतिदिन यही प्रार्थना करें कि परमात्मा हमारा राजा और हम उसके सेवक हैं। वह कृपा करके अपनी सृष्टि में हमको राज्याधिकारी करे और हमारे हाथ से अपने सत्य-न्याय की प्रवृत्ति कराए।
इति षष्ठः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥6॥
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Saptam Samullas
सप्तम-समुल्लासः ईश्वर और वेद-विषय
1- ईश्वर-विषय
ईश्वर का स्वरूप
ईश्वर दिव्य गुण-कर्म-स्वभाववाला और विद्यायुक्त है। उस परमात्मा में ही पृथिवी और सूर्य आदि लोक स्थित हैं। वह आकाश के समान सर्वत्र व्यापक है। ईश्वर एक है, अनेक नहीं। देवों का देव होने से वह महादेव कहाता है। वही सब जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करनेवाला, न्यायाधीश एवं अधिष्ठाता है। वह सब जगत् में व्याप्त और सबका नियन्ता है। वह सबसे पूर्व विद्यमान, सब जगत् का पति तथा सनातन जगत्कारण है। वह सूर्य के समान सब जगत् का प्रकाशक है। वह न जन्म लेता है न मृत्यु को प्राप्त होता है। वही सब धनों का विजेता है, सब प्राणियों का पिता है। उस प्रभु की मित्रता में किसी का विनाश नहीं होता। वह परमात्मा वेदों का प्रकाशक, कर्मफल दाता, सुखस्वरूप, निराकार, न्यायकारी, दयालु, सर्वशक्तिमान्, सर्वान्तर्यामी तथा जगत् स्वामी है। जो मनुष्य उस परमात्मा को न जानते, न मानते और न उसका ध्यान करते हैं, वे नास्तिक, मन्दमति सदा दुःखसागर में डूबे रहते हैं।
ईश्वर की सिद्धि
ईश्वर की सिद्धि में निम्नलिखित प्रमाण हैं -
1- ईश्वर प्रत्यक्ष है। श्रोत्रादि इन्द्रियों के द्वारा जो शब्द आदि का निर्भ्रान्त ज्ञान होता है, उसे प्रत्यक्ष कहते हैं। इन्द्रिय और मन से गुणों का प्रत्यक्ष होता है, गुणी का नहीं। जैसे त्वचादि चारों इन्द्रियों से स्पर्श, रूप, रस और गन्ध का ज्ञान होकर गुणी जो पृथिवी उसका आत्मायुक्त मन से प्रत्यक्ष किया जाता है, वैसे इस प्रत्यक्ष सृष्टि में रचना-विशेष एवं ज्ञानादि गुणों के प्रत्यक्ष होने से परमेश्वर का भी प्रत्यक्ष है। सृष्टि की एक-एक रचना रचयिता का स्मरण कराती है ।
2- जब आत्मा, मन और मन इन्द्रियों को किसी विषय में लगाता अथवा चोरी आदि बुरी वा परोपकार आदि अच्छी बात करने का जिस क्षण में आरम्भ करता है उस समय जीव की इच्छा, ज्ञानादि उसी इच्छित विषय पर झुक जाती है उसी क्षण में आत्मा के भीतर से बुरे काम करने में भय, शङ्का और लज्जा तथा अच्छे कामों के करने में अभय, निशङ्कता और आनन्दोत्साह उठता है, वह जीवात्मा की और से नहीं, किन्तु परमात्मा की ओर से है। इससे भी परमात्मा का अस्तित्व प्रमाणित होता है।
3- जब जीवात्मा शुद्ध होकर परमात्मा का विचार करने में तत्पर होता है, उस समय उसे आत्मा और परमात्मा दोनों का प्रत्यक्ष होता है।
4- जब परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तब अनुमान आदि से परमेश्वर का ज्ञान होने में क्या सन्देह? अनुमानप्रमाण से भी ईश्वर सिद्ध है। किशी पदार्थ को देखकर दो प्रकार का ज्ञान होता है, एक तो उस पदार्थ का और दूसरे उस पदार्थ की रचना विशेष को देखकर उसके बनानेवाले का। जैसे किसी पुरुष को जङ्गल में कोई सुन्दर आभूषण मिला तो विदित हुआ कि वह स्वर्ण का है और किसी बुद्धिमान कारीगर ने इसे बनाया है। इसी प्रकार नानाप्रकार की रचनावाली सृष्टि भी अपने रचयिता परमेश्वर को सिद्ध करती है।
ईश्वर की सर्वव्यापकता
ईश्वर सर्वव्यापक है, वह किसी देश-विशेष में नहीं रहता, क्योंकि यदि एक देश में रहता तो सर्वान्तर्यामी, सर्वनियन्ता, सबका स्रष्टा, सबका पालक और प्रलयकर्त्ता नहीं हो सकता। अप्राप्त देश में कर्त्ता की क्रिया का होना असम्भव है, अतः परमात्मा सर्वव्यापक है।
ईश्वर दयालु एवं न्यायकारी
ईश्वर के गौणिक नामों में दो नाम दयालु और न्यायकारी भी है। ये नाम परस्पर विरुद्ध से लगते हैं। वस्तुतः न्याय और दया में कोई भेद नहीं है, क्योंकि न्याय से भी वही प्रयोजन सिद्ध होता है जो दया से सिद्ध होता है। दन्ड देने का प्रयोजन है कि मनुष्य अपराध करने से बन्द होकर दुःखों को प्राप्त न हो। दया का प्रयोजन भी “पराये दुःखों को छुडाना” है। जिसने जैसा और जितना बुरा कर्म किया हो उसको वैसा और उतना ही दण्ड देना न्याय कहाता है। यदि अपराधी को दण्ड न दिया जाए तो दया का नाश हो जाए, क्योंकि एक अपराधी डाकू को छोड देने से सहस्त्रों धर्मात्मा पुरुषों को दुःख पहुँचता है, फिर यह दया क्या हुई? उस डाकू को कारागार में रखकर पाप करने से बचाना डाकू पर तथा अन्य सहस्त्रों मनुष्यों को पीडा न पहुँचने से उनपर वास्तविक दया प्रकाशित होती है। देखो ! ईश्वर की पूर्ण दया तो यह है कि उसने जीवों की प्रयोजन-सिद्ध के लिए जगत् के सकल पदार्थ उत्पन्न करके उसे दान में दे रखे हैं। इससे बढकर और दया क्या हो सकती है? सुख-दुःख की व्यवस्था, अधिकता और न्युनता से न्याय का फल भी प्रत्यक्ष दीखता है। इन दोनों में इतना ही भेद है कि जो मन में सबको सुख होने और दुःख छुटने की इच्छा और क्रिया करता है वह दया और बाह्य चेष्टा अर्थात् बन्धन, छेदन यथावत् दण्ड देना न्याय कहाता है। दोनों का एक प्रयोजन यह है कि सबको पाप और दुःखों से पृथक् कर देना।
ईश्वर साकार या निराकार
ईश्वर निराकार है क्योंकि-
1- यदि ईश्वर साकार होता तो सर्वव्यापक न होता। जब व्यापक न होता सर्वज्ञत्वादि गुण भी परमात्मा में न घट सकते। परिमित वस्तु में गुण-कर्म-स्वभाव भी परिमित होते हैं।
2- परिमित होने पर प्रभु शीतोष्ण, भूख-प्यास, रोग-दोष, छेदन-भेदन, आदि से रहित नहीं हो सकता।
3- यदि ईश्वर साकार हो तो उसके नाक-कान आदि अवयवों को बनानेवाला दूसरा होना चाहिए, क्यों कि जो पदार्थ संयोग से उत्पन्न होता है उसे संयुक्त करनेवाला निराकार चेतन अवश्य होना चाहिए।
4- यदि यह कहें कि ईश्वर ने स्वेच्छा से आप ही अपना शरीर बना लिया तो भी यही सिद्ध हुआ कि शरीर बनाने से पूर्व वह निराकार था। परमात्मा कभी शरीर धारण नहीं करता, किन्तु निराकार होने से सब जगत् को सूक्ष्म कारणों से स्थूलाकार बना देता है।
‘सर्वशक्तिमान्’ शब्द का अर्थ
ईश्वर सर्वशक्तिमान् है, क्योंकि वह सृष्टि की उत्पत्ति, धारण और प्रलय तथा सब जीवों के पाप-पुण्य की यथायोग्य व्यवस्था करने में किसी की किञ्चित् भी सहायता नहीं लेता अपितु अपने अनन्त सामर्थ्य से ही अपना सब कार्य पूर्ण कर लेता है। सर्वशक्तिमान् का अभिप्राय यह नहीं कि वह प्रकृति के बिना अभाव से ही सृष्टि को उत्पन्न कर दे अथवा सर्वोपरि होने से वह मनमाना अत्याचार करने लगे। यदि परमात्मा सब-कुछ कर सकता है तो क्या अपने को मार, अनेक ईश्वर बना, स्वयं अविद्वान्, चोरी, व्यभिचार आदि पाप कर्म कर सकता और दुःखी भी हो सकता है? कदापि नहीं, अतः सर्वशक्तिमान् शब्द का उपर्युक्त अर्थ ही ठीक है।
ईश्वर की स्तुति-प्रार्थना और उपासना
ईश्वर की स्तुति आदि करने से वह अपना नियम छोडकर स्तुति-प्रार्थना और उपासना करनेवाले के पापों को क्षमा नहीं करता, परन्तु इनसे लाभ अवश्य होता है। स्तुति से ईश्वर में प्रीति उत्पन्न होती है। स्तुतिकर्त्ता ईश्वर के आदर्श गुण-कर्म एवं स्वभाव के अनुसार अपने गुण-कर्म और स्वभाव को सुधारता है। प्रार्थना करने से जीवन में निरभिमानता आती है, उत्साह बढता है और परमात्मा की सहायता प्राप्त होती है। उपासना से परब्रह्म से मेल और उसका साक्षात्कार होता है।
स्तुति के दो प्रकार
स्तुति दो प्रकार की होती है एक सगुण और दूसरी निर्गुण। जो-जो गुण परमात्मा में विद्यमान हैं उनके द्वारा परमात्मा की स्तुति करना सगुण स्तुति कहाती है। ‘हे परमात्मन् ! तू सर्वव्यापक, सर्वज्ञ, सर्वान्तर्यामी एवं सर्वैश्वर्य सम्पन्न है’– यह परमात्मा की सगुण स्तुति है और ‘हे प्रभो ! तू अजन्मा है, नस-नाडी के बन्धन से रहित है, राग द्वेषादि से रहित है’- यह परमात्मा कि निर्गुण स्तुति है। इसका फल यह हैकि जैसे परमेश्वर के गुण हैं वैसे गुण-कर्म-स्वभाव अपने भी करना। जैसे वह न्यायकारी है तो स्तोता भी न्यायकारी बने। जो केवल भाँड के समान परमेश्वर के गुण कीर्तन करता जाता और अपने चरित्र नहीं सुधारता उसका स्तुति करना व्यर्थ है।
प्रार्थना
किस प्रकार की प्रार्थना करें? ‘हे प्रभो ! तू मुझे आज की रोटी दे’- ऐसी प्रार्थनाएँ उचित नहीं। वैदिक धर्मी सर्व प्रथम ‘तया मामद्य मेधयाग्ने मेधाविनं कुरु’ अर्थात् प्रभो ! आप मुझे विद्वान्, ज्ञानी और योगी लोगों की बुद्धि से युक्त करो- कहकर बुद्धि की याचना करते हुए अपने मस्तिष्क को उत्तम बनाता है। तत्पश्चात् ‘तेजोऽसि तेजोमयि धेहि’ कहकर वह अपनी भुजाओं को शक्तिशाली बनाने की प्रार्थना करता है, फिर ‘तन्मे मनः शिव संकल्पमस्तु’ इस सूक्ति को छह बार दोहराता हुआ अपने मन को शिव संकल्पों से युक्त करता है। शिवसंकल्पयुक्त होकर वह प्रार्थना करता है- ‘अग्ने नय सुपथा राये’ हम सुपथ पर चलते हुए ही धन का उपार्जन करें। वह यह भी प्रार्थना करता है कि– ‘मा नो वधीः पितरं मोत मातरम्’ हम अपने माता, पिता, आचार्य एवं बडों का सम्मान करनेवाले बनें और अन्त में यह प्रार्थना करता है कि– हे प्रभो ! आप मुझे असत् से सन्मार्ग की ओर, अन्धकार से प्रकाश की ओर एवं मृत्यु से अमृत की ओर ले चलिए।
स्तुति की भाँति प्रार्थनाएँ भी सगुण और निर्गुण दो प्रकार की होती हैं। यहाँ ‘मुझमें तेज धारण कीजिए’ आदि विधिमुख प्रार्थनाएँ सगुण प्रार्थनाएँ हैं और मेरे अन्धकार को दूर कीजिए’- आदि निषेधमुख प्रार्थनाएँ निर्गुण प्रार्थनाएँ हैं।
जो मनुष्य जिस बात की प्रार्थना करता है उसको वैसा व्यवहार भी करना चाहिए। जैसे परमेश्वर से उत्तम बुद्धि के लिए प्रार्थना करे तो उसके लिए जितना अपने से हो सके उतना प्रयत्न स्वयं भी करना चाहिए। पुरुषार्थ के उपरान्त ही प्रार्थना करनी योग्य है। ऐसी प्रार्थनाएँ कभी न करें- हे परमेश्वर ! आप मेरे शत्रुओं का नाश और मुझे ही सबसे बडा और मेरी ही प्रतिष्ठा कीजिए।‘ ऐसी मुर्खता की प्रार्थना करते-करते कोई ऐसी भी प्रार्थना करेगा – ‘हे परमेश्वर ! आप हमको रोटी बनाकर खिलाइए, मेरे मकान में झाडू लगाइए, वस्त्र धो दीजिए और खेती-बाडी भी कीजिए’। जो पुरुषार्थ न करके परमेश्वर के भरोसे बैठे रहते हैं वे महामूर्ख हैं, क्योंकि परमात्मा तो हमें ‘कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छत- समाः’- सौ वर्षपर्यन्त कर्म करने का आदेश देते हैं। सारा संसार और संसार के सभी प्राणी गति में हैं, अतः मनुष्य को भी गतिशून्य होना ठीक नहीं। परमात्मा पुरुषार्थी की ही सहायता करते हैं। जो कोई ‘गुड मीठा है’ ऐसा कहता है उसके कहने मात्र से गुड या उसका स्वाद प्राप्त नहीं होता, परन्तु जो उसके लिए प्रयत्न करता है उसको शीघ्र या बिलम्ब से गुड मिल ही जाता है, अतः प्रार्थना के साथ पुरुषार्थ आवश्यक है।
उपासना
उपासना का अर्थ समीपस्थ होना है। अष्टाङ्ग-योग के द्वारा ही परमात्मा के समीपस्थ होना सम्भव है। जो उपासना आरम्भ करना चाहे उसके लिए यम-नियमों का पालन आवश्यक है। यम पाँच हैं-
तन्नाऽहिंसासत्यास्तेयब्रहमचर्यापरिग्रहा यमाः । -यो॰ 1।30
अहिंसा- उपासक किसी से वैर न रखे, सर्वदा सबसे प्रीति करे।
सत्य- सत्य बोले, मिथ्या कभी न बोले।
अस्तेय- चोरी न करे, सत्य व्यवहार करे।
ब्रह्मचर्य- जितेन्द्रिय हो, लम्पट न हो।
अपरिग्रह- निरभिमानी हो, अभिमान कभी न करे।
ये पाँच प्रकार के यम उपासना-योग के प्रथम अङ्ग हैं।
नियम भी पाँच हैं-
शौचसन्तोषतपःस्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि नियमाः ॥ -यो॰ 1।32
शौच- उपासक राग-द्वेष छोडकर भीतर से और जलादि से बाहर से पवित्र रहे।
सन्तोष- धर्म से पुरुषार्थ करते हुए लाभ में प्रसन्न और हानि में अप्रसन्न न होना।
तपः- प्रसन्न होकर तथा आलस्य छोड सदा पुरुषार्थ करना, सदा दुःख-सुख का सहन और धर्म ही का अनुष्ठान करे, अधर्म का नहीं।
स्वाध्याय- सदा सत्य शास्त्रों को पढे-पढावे, सत्पुरुषों का सङ्ग करे। परमात्मा के ‘ओम्’ नाम का अर्थ विचारकर नित्यप्रति जप किया करे।
ईश्वरप्रणिधान- अपने आत्मा को परमेश्वर की आज्ञानुकूल समर्पित कर देवे।
ये पाँच प्रकार के नियम उपासना योग का दूसरा अङ्ग कहाता है।
जब उपासना करना चाहें तब एकान्त, शुद्धदेश में जाकर आसन लगा, प्राणायाम कर, बाह्य विषयों से इन्द्रियों को रोक, मन को नाभिप्रदेश में वा हृदय, कण्ठ, शिखा अथवा मेरुदण्ड में किसी स्थान पर स्थिर कर अपने आत्मा और परमात्मा का विवेचन करके परमात्मा में मग्न हो जाने से संयमी होवें।
इन साधनों का अनुष्ठान करनेवाले उपासक का आत्मा और अन्तःकरण पवित्र होकर सत्य से पूर्ण हो जाता है। यह उपासक नित्यप्रति ज्ञान बढाकर मुक्ति तक पहुँच जाता है। जो आठ प्रहर में एक घडीभर [चौबीस मिनट] भी इस प्रकार ध्यान करता है वह सदा उन्नति को प्राप्त होता है।
उपासना का फल
जैसे शीत से आतुर पुरुष का अग्नि के पास जाने से शीत निवृत हो जाता है, वैसे परमात्मा का सामिप्य प्राप्त होने से सब दोष छूटकर परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण-कर्म-स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। आत्मा का बल इतना बढ जाता है कि वह पर्वत के समान दुःख आने पर भी नहीं घबराता, अपितु उन्हे सहन कर लेता है।
जो परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना नहीं करता वह कृतघ्न और महामूर्ख भी होता है, क्योंकि जिस परमात्मा ने इस जगत् के सब पदार्थ जीवों के सुख के लिए दे रखे हैं उसका गुण भूल जाना, ईश्वर ही को न मानना कृतघ्नता और मूर्खता है।
परमेश्वर का कर्तृत्व
ईश्वर निराकार है, उसके श्रोत्रादि इन्द्रियाँ नहीं हैं फिर भी अपने महान् सामर्थ्य से सब कर्म करता है। हाथरहित होते हुए भी वह सबका ग्रहण करता है, आँख नहीं है फिर भी देखता है, कान नहीं है फिर भी सुनता है, अन्तःकरण नहीं है फिर भी वह सबको जानता है। उस परमात्मा अनन्त ज्ञान, अनन्त बल और अनन्त क्रिया है और सब स्वाभाविक है, अतः परमात्मा को किन्हीं कारणों=साधनों की आवश्यकता नहीं। परमात्मा निष्क्रिय भी नहीं है। यदि वह निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय न कर सकता। वह परमात्मा विभु=सर्वव्यापक है तथापि चेतन होने से उसमें क्रिया भी है। सर्वशक्तिमान् और सर्वज्ञ होने के कारण वह जितने देश और काल में क्रिया करना उचित समझता है उतने ही देश और काल में क्रिया करता है, न अधिक न न्यून।
अवतार निषेध
वेद में ईश्वर को ‘अज’=अजन्मा और ‘अकायम’=शरीर रहित कहा है, अतः परमेश्वर का अवतार नहीं होता। ‘जो ईश्वर अवतार न ले तो कंस, रावण आदि दुष्टों का नाश कैसे हो’- यह शङ्का भी व्यर्थ है। जिसका जन्म हुआ है उसकी मृत्यु भी निश्चित है। जो ईश्वर अवतार धारण किये बिना जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करता है उसके सामने कंस और रावण आदि एक कीडी के समान भी नहीं। वह सर्वव्यापक होने से कंस, रावण आदि के शरीरों में भी परिपूर्ण हो रहा है जब चाहे उसी समय मर्मच्छेदन कर नाश कर सकता है। युक्ति से भी ईश्वर का जन्म सिद्ध नहीं होता। जैसे अनन्त आकाश का गर्भ में आना असम्भव है उसी प्रकार अनन्त, सर्वव्यापक परमात्मा का भी गर्भ में आना-जाना कभी सिद्ध नहीं हो सकता। जाना वा आना वहाँ हो सकता है जहाँ परमात्मा पहले विद्यमान न हो। क्या परमेश्वर गर्भ में व्यापक नहीं था जो कहीं से आया? और बाहर नहीं था जो भीतर से निकला। कोई भी बुद्धिमान् ईश्वर के विषय में ऐसा नहीं कह सकता। ‘ईसा’ आदि भी ईश्वर के अवतार नहीं थे। राग-द्वेष, जन्म और मरण आदि गुणयुक्त होने से वे भी मनुष्य ही थे।
ईश्वर और पाप-क्षमा
ईसाई, मुसलमान और पौराणिक लोग ऐसा मानते हैं कि ईश्वर अपने भक्तों के अपराध क्षमा कर देता है, परन्तु यह बात ठीक नहीं, क्योंकि यदि परमात्मा पाप क्षमा करे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए और सब मनुष्य महापापी हो जाएँ क्यों कि क्षमा की आशा से पापी पाप करनें में निर्भयता और उत्साह अनुभव करेंगें। सब कर्मों का यथावत् फल देना ही ईश्वर का काम है, क्षमा करना नहीं।
जीव स्वतन्त्र है या परतन्त्र
जीव अपने कर्तव्य कर्मों के करने में स्वतन्त्र और ईश्वर की व्यवस्था [फल भोगने] में परतन्त्र है। स्वतन्त्र उसे कहते हैं जिसके अधीन शरीर, प्राण, इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि हों। यदि जीव स्वतन्त्र न हो तो उसे पाप-पुण्य का फल कभी प्राप्त नहीं हो सकता। जैसे सैनिक सेनाध्यक्ष की आज्ञा से युद्ध में अनेक पुरुषों को मारकर भी अपराधी नहीं होता वैसे ही यदि जीव परमात्मा की अधीनता में कार्य करे तो उसे पाप और पुण्य कुछ न लगे। उसका फल भी परमेश्वर को ही प्राप्त हो। इसलिए यही सिद्धान्त ठीक है कि अपने सामर्थ्यानुकूल जीव कर्म करने मे स्वतन्त्र है, परन्तु जब वह पाप-पुण्य कर चुकता है तो ईश्वर की पराधीनता में पाप-पुण्य के फल भोगता है। परमात्मा ने जीव को बनाया नहीं, वह अनादि है। अनादि काल से परमात्मा जीव को कर्मानुसार शरीर और इन्द्रियाँ प्राप्त कराते हैं। वे सब जीव के अधीन हैं। इनके द्वारा पाप-पुण्य करने में जीव स्वतन्त्र है। स्वतन्त्रता से किये गये अपने कर्मों का फल भी जीव को ही भोगना होता है। जैसे तलवार से वध करनेवाला ही दण्ड का भागी होता है, तलवार बनानेवाला और बेचनेवाला नहीं। इस प्रकार शरीर आदि की उत्पत्ति करनेवाला परमेश्वर उसके कर्मों का भोक्ता नहीं होता, किन्तु जीव को भुगानेवाला होता है। यदि परमेश्वर कर्म कराता तो कोई भी जीव पाप नहीं करता ।
जीव और ईश्वर का स्वरूप
जीव और ईश्वर दोनों चेतन हैं, दोनों का स्वभाव पवित्र है, दोनों अविनाशी हैं तथा धार्मिकता आदि गुणों से युक्त हैं, परन्तु इसमें परस्पर भेद भी हैं। यथा॰
1- सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय करना, सबको नियम में रखना, तथा जीवों को पाप-पुण्य के फल देना आदि धर्मयुक्त कर्म परमेश्वर के हैं तथा जीव के सन्तानोत्पत्ति, उनका पालन-पोषण तथा शिल्प-विद्या आदि अच्छे और बुरे कर्म हैं।
2- ईश्वर के नित्यज्ञान, आनन्द और अनन्त बल आदि गुण हैं तथा जीव के इच्छा-द्वेष, सुख-दुःख, ज्ञान और प्रयत्न आदि गुण हैं।
3- जीव अल्प-परिमाणी तथा अल्पज्ञ है और ब्रह्म सर्वव्यापक तथा सर्वज्ञ है।
4- ब्रह्म नित्यशुद्ध, नित्यबुद्ध, नित्यमुक्त स्वभाव है, जीव कभी बद्ध होता और कभी मुक्त होता है।
5- ब्रह्म के सर्वव्यापक और सर्वज्ञ होने से उसे कभी भ्रम अथवा अविद्या नहीं हो सकती, परन्तु जीव को कभी तो विद्या और कभी अविद्या होती है।
जीव और ईश्वर का परस्पर सम्बन्ध
जीव और परमेश्वर का व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध है। यहाँ कोई ऐसी शङ्का करे कि जिस स्थान में एक वस्तु होती है उस स्थान में दूसरी वस्तु नहीं रह सकती, अतः जहाँ जीव है वहाँ परमेश्वर की सत्ता कैसे हो सकती है, तो इस शङ्का का समाधान यह है कि यह नियम समान आकारवाले पदार्थों में घट सकता है, असमान आकारवाले पदार्थों में नहीं है। जैसे लोहा स्थूल और अग्नि सूक्ष्म होता है, इसलिए लोहे में विद्युत् रूपी अग्नि व्यापक होकर एक ही स्थान में दोनों रहते हैं, वैसे ही जीव परमेश्वर से स्थूल और परमेश्वर जीव से सूक्ष्म होने से परमेश्वर व्यापक और जीव व्याप्य है। व्याप्य-व्यापक सम्बन्ध की भाँति ईश्वर और जीव का सेव्य-सेवक, आधाराधेय, स्वामी-भृत्य, राजा-प्रजा और पिता-पुत्र आदि सम्बन्ध भी है।
परमेश्वर का त्रिकालदर्शित्व
‘परमेश्वर त्रिकालदर्शी है, अतः वह भविष्यत् की बातें भी जानता है। वह जैसा निश्चय करेगा वैसा ही जीव कर्म करेगा। इसलिए जीव स्वतन्त्र नहीं और ईश्वर जीव को दण्ड भी नहीं दे सकता, क्योंकि जैसा ईश्वर ने अपने ज्ञान से निश्चित किया, जीव ने वैसा ही कर्म किया। ‘ऐसी शङ्का ठीक नहीं। ईश्वर को त्रिकालदर्शी कहना मूर्खता का काम है। भूत, भविष्यत् जीवों के लिए हैं, परमेश्वर का ज्ञान तो सदा एकरस एवं अखण्ड रहता है। हाँ, जीवों के कर्म की अपेक्षा से परमेश्वर में त्रिकालज्ञता है, स्वतः नहीं। जैसे स्वतन्त्रता से जीव कर्म करता है, वैसे ही सर्वज्ञता से ईश्वर जानता है ।
अद्वैतवाद खण्डन
जीव और ब्रह्म पृथक-पृथक हैं। जीव ब्रह्म नहीं हो सकता और ब्रह्म जीव नहीं हो सकता, परन्तु नवीनवेदान्ती- ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’, ‘अहं ब्रह्मास्मि’, तत्त्वमसि’ और ‘अयमात्मा ब्रह्म’ इन उपनिषद् वाक्यों से जीव-ब्रह्म एकता प्रतिपादित करते हैं। नवीनवेदान्तियों की यह मान्यता ठीक नहीं। ये उपनिषद् वाक्य तो स्पष्ट रूप में द्वैत की घोषणा कर रहे हैं। ‘प्रज्ञानं ब्रह्म’ का अर्थ है कि- जीव ज्ञानवाला और ब्रह्म प्रकृष्ट [सर्वोत्कृष्ट] ज्ञानवाला है। ‘अहं ब्रह्मास्मि’ का भाव यह है कि मैं ब्रह्मस्थ हूँ। जैसे ‘मञ्चाः क्रोशन्ति’ का अर्थ होता है- मञ्चस्थ पुरुष पुकारते हैं। इसी प्रकार यहाँ भी समझना चाहिए। जैसे कोई किसी से कहे मैं और वह एक हैं, अर्थात् अविरोधी हैं, वैसे ही जो समाधिस्थ जीव परमेश्वर में प्रेम-बद्ध होकर निमग्न होता है, वह कह सकता है कि मैं और ब्रह्म एक अर्थात् अविरोधी एक अवकाशस्थ हैं। जो जीव परमेश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल अपने गुण-कर्म-स्वभाव बनाता है वही साधर्म्य से ब्रह्म के साथ एकता कह सकता है। ‘तत्त्वमसि’ में आचार्य श्वेतकेतु से कह रहे हैं- हे श्वेतकेतो ! जो सत्यस्वरूप और अपना आत्मा आप ही है, तू उसी अन्तर्यामी परमात्मा से युक्त है। ‘अयमात्मा ब्रह्म’ का तात्पर्य है कि समाधिस्थ अवस्था में जब योगी को परमेश्वर का प्रत्यक्ष होता है तब वह कहता है कि जो ब्रह्म मुझमें व्यापक है वही ब्रह्म सर्वत्र व्यापक है।
यदि जीव भी ईश्वर है तो ईश्वर में इतने दोष आएँगे-
1- वह एकदेशी हो जाएगा।
2- एकदेशी होकर अल्पज्ञ और बन्धन में पडकर कर्म फल का भोक्ता हो जाएगा।
3- अविद्यारूप अन्तःकरण जहाँ-जहाँ जाएगा, वहाँ-वहाँ के ब्रह्म को अज्ञानी बना देगा।
4- बाहर और भीतर के ब्रह्म के टुकडे हो जाएँगे। यदि टुकडे हो गये तो अखण्ड नहीं रहा और जो अखण्ड है तो अज्ञानी नहीं।
5- जैसे शरीर के एकदेश में फोडा होने से सर्वत्र दुःख फैल जाता है वैसे ही ब्रह्म के एक देश [जीव] में अज्ञान, सुख, दुःख, क्लेशों की उपलब्धि होने से सब ब्रह्म दुःखादि के अनुभव से युक्त हो जाएगा।
सदेव सोम्येदमग्र आसीदेकमेवाद्वितीयम्- यह छान्दोग्य- वाक्य अद्वैत का प्रतिपादक न होकर यह कह रहा है कि जीव और प्रकृति ब्रह्म के सदृश नहीं, किन्तु उससे न्यून हैं। इससे जीव तथा प्रकृति का और कार्यरूप जगत् का अभाव और निषेध नहीं है। ये सब हैं, परन्तु ब्रह्म के तुल्य नहीं हैं। जैसे कोई किसी से कहे कि इस नगर में अद्वितीय धनाढ्य देवदत्त है, इससे यह सिद्ध हुआ कि देवदत्त के सदृश इस नगर में दूसरा धनाढ्य नहीं है, न्यून तो हैं। ऐसा ही प्रतिपादन उक्त उपनिषद्-वाक्य में है ।
सगुण और निर्गुण
प्रत्येक पदार्थ अपने-अपने स्वाभाविक गुणों से सहित होने के कारण सगुण और विरोधी गुणों से रहित होने से निर्गुण भी होता है। जैसे पृथिवी रूप, स्पर्श और गन्धादि गुणों से सहित और चेतन के ज्ञान आदि गुणों से रहित है, वैसे चेतन में इच्छादि गुण हैं, परन्तु रूप आदि जड के गुण नहीं हैं। इसी प्रकार परमेश्वर भी अपने अनन्त ज्ञान और बलादि गुणों से युक्त होने से सगुण और रूप आदि जड के तथा द्वेष आदि जीव के गुणों से रहित होने से निर्गुण कहाता है। ‘जब परमेश्वर जन्म नहीं लेता तब निर्गुण और जब अवतार लेता है तब सगुण कहलाता है’- यह अज्ञानियों का प्रलाप मात्र है। ईश्वर को अवतार लेने की कोई आवश्यकता नहीं। वे सर्वव्यापकता, सर्वज्ञता और सर्वशक्तिमत्ता के कारण अपने सब कार्य बिना किसी अन्य की सहायता लिये स्वयं कर लेते हैं।
परमेश्वर रागी है या विरक्त
परमेश्वर न रागी है और न विरक्त। राग अपने से भिन्न उत्तम पदार्थों में होता है। ईश्वर से कोई पदार्थ पृथक् वा उत्तम नहीं, इसलिए उसमें राग का सम्भव नहीं और जो प्राप्त को छोड देवें उसे विरक्त कहते हैं। ईश्वर व्यापक होने से किसी भी पदार्थ को छोड नहीं सकता, अतः वह विरक्त नहीं।
ईश्वर में इच्छा है या नहीं
जैसी इच्छा जीव में होती है वैसी ईश्वर में नहीं। इच्छा उस वस्तु की होती है जो अप्राप्त हो, उत्तम हो, जिसकी प्राप्ति से सुख विशेष की उपलब्धि हो। परमेश्वर को कोई वस्तु अप्राप्त नहीं, न कोई पदार्थ उससे उत्तम है, पूर्ण सुखयुक्त होने के कारण उसे सुख की अभिलाषा भी नहीं, इसलिए ईश्वर में इच्छा नहीं है। हाँ, ईश्वर में ‘ईक्षण’ [अर्थात् सब प्रकार की विद्या का दर्शन और सब सृष्टि का निर्माण करना] तो है।
2-वेद विषय
वेदज्ञान
यस्मादृचो अपातक्षन् यजुर्यस्मादपाकषन् ।
सामानि यस्य लोमान्यथर्वाङ्गिरसो मुखम् ।
स्कम्भन्तं ब्रूहि कतमः स्विदेव सः ॥ -अथर्व॰ 10।7।20
जो परमात्मा सबको उत्पन्न करके धारण कर रहा है, उसी परमात्मा से ॠग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद उत्पन्न हुए।
सृष्टि के आरम्भ में स्वयम्भू, सर्वव्यापक, शुद्ध, सनातन, निराकार, परमेश्वर सनातन जीवरूप प्रजा के कल्याणार्थ वेद द्वारा सब विद्याओं का उपदेश करते हैं। यहाँ कोई ऐसी शङ्का करे कि परमेश्वर निराकार है- उसका कोई मुख नहीं तो बिना मुख के उसने वर्णों का उच्चारण कैसे किया, क्यों कि वर्णों के उच्चारण में तालु आदि स्थान जिह्वा आदि का प्रयत्न आवश्यक है तो उसका उत्तर यह है परमेश्वर सर्वशक्तिमान् और सर्वव्यापक है। अपनी व्याप्ति के कारण परमात्मा को वेद-उपदेश करने के लिए मुखादि की अपेक्षा नहीं। वर्णोंच्चारण अपने से भिन्न के बोध होने के लिए किया जाता है, अपने लिए नहीं मन में जिह्वा के व्यापार बिना ही अनेक व्यवहारों का विचार और शब्दोच्चारण होता रहता है। कानों को बन्द करके देखो और सुनो कि बिना मुख और जिह्वा के कैसे अद्भुत शब्द हो रहे हैं। परमेश्वर सर्वव्यापक है। वह जीवों के भीतर भी अन्तर्यामिरूप में स्थित है। जीवों में स्थित होने के कारण बिना मुख से बोले ही वह परमात्मा अखिल वेदविद्या का उपदेश जीवात्मा में प्रकाशित कर देता है। सृष्टि के आरम्भ में परमात्मा ने ‘अग्नि’ के हृदय में ॠग्वेद का, ‘वायु’ के हृदय में यजुर्वेद का ‘आदित्य’ के हृदय में सामवेद का और ‘अङ्गिरा’ के हृदय में अथर्ववेद का प्रकाश किया। ये ही चार ॠषि सब जीवों से अधिक पवित्र आत्मा थे, अन्य उनके सदृश नहीं थे, अतः पवित्र विद्या का प्रकाश भी उन्ही के हृदय में वेद- [संस्कृत]- भाषा में किया। यह वेदभाषा ही आधुनिक सब भाषाओं का कारण है। वेदभाषा किसी देश-विदेश की भाषा नहीं है। इसके पढने में सबको एक-जैसा परिश्रम करना पडता है, अतः परमेश्वर पर पक्षपात का दोष नहीं आता।
वेद ईश्वरीय ज्ञान
वेद ईश्वरकृत हैं, इसमें निम्न प्रमाण हैं-
1- जैसा ईश्वर पवित्र, सर्वविद्यावत्, शुद्ध-गुणकर्मस्वभाव, न्यायकारी, दयालु आदि गुणवाला है, वैसे जिस पुस्तक में ईश्वर के गुण-कर्म-स्वभाव के अनुकूल कथन हो, वह ज्ञान ईश्वर-प्रदत्त होता है, अन्य नहीं।
2- जिसमें सृष्टिक्रम, प्रत्यक्षादि प्रमाण, आप्तों के और पवित्रात्मा के व्यवहार से विरूद्ध कथन न हो, वह ज्ञान ईश्वरोक्त होता है।
3- जैसा ईश्वर का निर्भ्रम ज्ञान वैसा जिस पुस्तक में भ्रान्तिरहित ज्ञान का प्रतिपादन हो वह ईश्वरोक्त है।
4- जैसा शिक्षक परमेश्वर है और जैसा सृष्टि क्रम रखा है, वैसा ही ईश्वर, सृष्टिकार्यकारण और जीव का प्रतिपादन जिसमें होवे वह परमेश्वरोक्त पुस्तक होता है।
5- जो प्रत्यक्षादि प्रमाण विषयों से अविरुद्ध, शुद्धात्मा के स्वभाव से विरुद्ध न हो वह ग्रन्थ परमेश्वरोक्त होता है।
वेद इसी प्रकार के ग्रन्थ हैं, अतः परमेश्वरप्रोक्त हैं। बाइबल, कुरान आदि पुस्तकें इन कसौटियों पर खरी नहीं उतरतीं, अतः वे ईश्वरोक्त नहीं हैं।
वेदज्ञान की आवश्यकता
‘वेदज्ञान की कोई आवश्यकता नहीं, क्योंकि मनुष्य लोग क्रमशः ज्ञान बढाकर पुस्तक भी रच लेगें’- यह तर्क ठीक नहीं। मनुष्य का ज्ञान स्वाभाविक नहीं अपितु नैमित्तिक है। ईश्वरीय ज्ञान कि सहायता के बिना मनुष्य पुस्तक रचना नहीं कर सकता। जङ्गली मनुष्य सृष्टि को देखकर भी विद्वान् नहीं होते, परन्तु जब उन्हें कोई शिक्षक मिल जाता है तब विद्वान् हो जाते हैं। साथ ही आजकल भी पढे बिना कोई भी विद्वान् नहीं होता। गुरु-शिष्य परम्परा से ही ज्ञानधारा का प्रवाह चला करता है। योगदर्शन में कहा है- स एष पूर्वेषामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात्– वह परमात्मा सृष्टि के आरम्भ में उत्पन्न हुए अग्नि आदि ॠषियों का भी गुरु, अध्यापक है। यदि परमात्मा उन आदि सृष्टि के ॠषियों को वेद-विद्या न पढाता और वे अन्यों को न पढाते तो सब लोग अविद्वान् ही रह जाते। किसी बालक को जन्म से एकान्त देश, अविद्वानों वा पशुओं के सङ्ग में रख दें तो वह जैसी संगति में रहेगा वैसा ही हो जाएगा। इसका दृष्टान्त जङ्गली भील आदि हैं। जब तक आर्यावर्त्त देश से शिक्षा नहीं गई तब तक मिस्र, यूनान तथा यूरोप आदि देशों के मनुष्यों में कुछ भी विद्या नहीं हुई थी। इससे यह स्पष्ट है कि सृष्टि के आदि में परमात्मा से विद्या और सुशिक्षा पाकर ही मनुष्य उतरोत्तर काल में विद्वान् होते चले आ रहे हैं।
ब्राह्मणग्रन्थ
जब बहुत से आत्माओं में वेदार्थ प्रकाश हुआ तब ॠषि-मुनियों ने वेदार्थ और ॠषि-मुनियों के इतिहासपूर्वक ग्रन्थ बनाये। ब्रह्म अर्थात् वेद का व्याख्यान होने से उन ग्रन्थों का नाम ब्राह्मण हुआ। सर्वप्रथम जिस-जिस मन्त्रार्थ का दर्शन जिस-जिस ॠषि को हुआ, उस-उस ॠषि का नाम स्मरणार्थ उस मन्त्र अथवा सूक्त के साथ लिखा आता है। ये ॠषि मन्त्र कर्त्ता नहीं थे, अपितु मन्त्रार्थ द्रष्टा थे।
ब्राह्मण ग्रन्थ वेद नहीं हैं। ब्राह्मणग्रन्थों के आरम्भ वा अध्याय समाप्ति पर कहीं वेद शब्द नहीं लिखा जाता। महर्षि यास्क भी जब वेद का प्रमाण देते हैं तब लिखते हैं- ‘इत्यपि निगमो भवति’ परन्तु ब्राह्मणग्रन्थों का उद्धारण देते हुए लिखते हैं- ‘इति ब्राह्मणम्’ इससे स्पष्ट है कि वेद और ब्राह्मण भिन्न-भिन्न हैं। ब्राह्मणग्रन्थों में ॠषि-महर्षि और राजाओं के इतिहास उपलब्ध होते हैं और इतिहास जन्म के पश्चात् लिखा जाता है। इससे भी यह सिद्ध है कि ब्राह्मण ग्रन्थ वेद नहीं हैं। वेदों में किसी का इतिहास नहीं है।
शाखा-ग्रन्थ
शाखा का अर्थ भी व्याख्यान होता है। इन शाखाओं की संख्या 1127 है। चार मूल वेद मिलकर यह संख्या 1131 हो जाती है। परमेश्वरकृत चारों वेद मूलवृक्ष और आश्वलायनादि सब शाखा ॠषि-मुनिकृत हैं, परमेश्वरकृत नहीं।
वेद का नित्यत्व
जैसे माता-पिता अपनी सन्तानों पर कृपादृष्टि कर उन्नति चाहते हैं वैसे ही परमात्मा ने सब मनुष्यों पर कृपा करके वेदों का प्रकाश किया है जिससे मनुष्य अविद्या-अन्धकार और भ्रमजाल से छूटकर विद्या-विज्ञानरूप सूर्य को प्राप्त होकर अत्यानन्द में रहें और विद्या तथा सुखों की वृद्धि करते जाएँ। परमेश्वर नित्य है, अतः उसके द्वारा प्रदत्त वेदज्ञान भी नित्य है। यह वेद ‘शब्द-अर्थ और सम्बन्ध’ रूप में नित्य हैं, पुस्तक रूप में नहीं, क्योंकि पत्र और स्याही की बनी पुस्तक नित्य नहीं हो सकती। ‘परमात्मा ने ॠषियों को ज्ञान दिया होगा और उस ज्ञान से उनलोगों ने वेद बना लिये होंगे’- यह कहना भी ठीक नहीं। ज्ञान ज्ञेय के बिना नहीं होता। सर्वज्ञ परमात्मा के बिना किसी की यह सामर्थ्य नहीं कि वह षड्जादि तथा उदात्तादि स्वर के ज्ञानपूर्वक तथा गायत्र्यादि छन्दों से युक्त सर्वज्ञानमय शास्त्र बना सके। हाँ वेद के पढने के पश्चात् व्याकरण, निरुक्त और छन्द आदि ग्रन्थ ॠषि-मुनियों ने विद्या के प्रकाश के लिए बनाये हैं। जो परमात्मा वेदों का प्रकाश न करे तो कोई कुछ भी नहीं बना सके। वेद परमेश्वरोक्त हैं, इसलिए इन्हीं के अनुसार सब लोगों को चलना चाहिए और जो कोई किसी से पूछे कि ‘तुम्हारा क्या मत है?’ तो उसको यही उत्तर देना कि हमारा मत वेद है, जो कुछ वेदों में कहा है हम उसको मानते हैं।
इति सप्तमः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥7॥
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Ashtam Samullas
अष्टम-समुल्लासः
सृष्टि-उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय
सर्गारम्भ के पूर्व जगत् की अवस्था
सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व यह जगत् अन्धकार से आवृत्त और जानने के अयोग्य था। उस समय न पृथिवी थी, न आकाश और न भूलोक। मनुष्य, पशु-पक्षी तथा कीट-पतङ्ग और वृक्षादि प्राणिजगत् भी उस समय नहीं था। पश्चात् परमेश्वर ने अपने सामर्थ्य से इसे कारणरूप से कार्यरूप में परिवर्तित कर दिया। जो परमात्मा इस विविध प्रकार की सृष्टि को उत्पन्न कर इसका धारण और अन्त में प्रलय करता है, वही परमात्मा जानने योग्य है। वेदान्त दर्शन में भी कहा है- ‘जन्माद्यस्य यतः’ जिस परमात्मा से इस जगत् का जन्म, स्थिति और प्रलय होता है, वही ब्रह्म जानने योग्य है।
सृष्टि का निमित्त कारण प्रभु
यह जगत् निमित्त कारण परमात्मा से उत्पन्न हुआ है, परन्तु इसका उपादान कारण प्रकृति है। ‘सलिलं सर्वमा इदम्’- यह सम्पूर्ण जगत की उत्पति से पूर्व अपने उपादान कारण प्रकृति में लीन था और प्रकृति से आवृत्त था। परमात्मा के तप की महिमा से यह संसार प्रकट हो जाता है। इस उत्पन्न हुए जगत् का धारण वे परमात्मा ही करते हैं, उसी के आधार में जीव रहते हैं और अन्ततः उसी में प्रवेश करते हैं। इस ब्रह्म को ही जानने की कामना करनी चाहिए।
तीन अनादि पदार्थ
तीन अनादि पदार्थ हैं। एक ईश्वर, दूसरा जीव और तीसरा जगत् का कारण- प्रकृति। ये न कभी उतपन्न होते हैं और न कभी नष्ट होते हैं। इसमें ॠग्वेद [1।164।20] का निम्न प्रमाण है-
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्त्यनश्नन्नन्यो अभि चाकाशीति॥
जीव और ब्रह्म दोनों परस्पर मित्रतायुक्त अनादि हैं। इसी प्रकार कारणरूप प्रकृति भी अनादि है। तीनों के गुण-कर्म-स्वभाव भी अनादि हैं। जीव और ब्रह्म में जीव तो इस वृक्षरूपी संसार में पाप-पुण्यरूपी फलों को भोगता है और परमात्मा कर्म फलों को न भोगता हुआ बाहर-भीतर सर्वत्र प्रकाशमान हो रहा है।
सृष्टि- उत्पत्ति
‘सदेव सौम्येदमग्र आसीत्’- हे सौम्य ! श्वेतकेतो ! सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयावस्था में भी यह जगत् अपने कारण में विद्यमान था। असद्वा इदमग्र आसीत्- सृष्टि के पूर्व ये सब लोक-लोकान्तर अदृश्य-से, असत्-से थे। आत्मैवेदमग्र आसीत्- सृष्टि से पूर्व प्रलयावस्था में भी आत्मा थे ही। ब्रह्म वा इदमग्र आसीत्- इन आत्माओं को कर्मानुसार फल देनें के लिए, सृष्टि का निर्माण करनेवाले ब्रह्म तो अनादि काल से हैं ही।
प्रलय की समाप्ति पर ‘तदैक्षत बहु स्याम प्रजायेयेति’ परमात्मा ने ईक्षण [ज्ञान, तप, प्रेरणा] के द्वारा प्रकृति से इस सृष्टि के लोक-लोकान्तरों का निर्माण कर दिया। प्रकृति सत् है, अनादि है, यह कभी उत्पन्न नहीं होती। वे सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् परमात्मा अपने ज्ञानरूप तप=ईक्षण से प्रकृति को इस सृष्टिरूप विकृति में ले-आते हैं। नियत समय तक इसके धारण के पश्चात् वे प्रलय कर देते हैं, विकृति पुनः प्रकृति के रूप में परिवर्तित हो जाती है।
‘सर्वं खल्विदं ब्रह्म’- इस उत्पन्न सृष्टि में प्रत्येक पिण्ड परमात्मा की सत्ता से व्याप्त है। सबमें समाया हुआ वह ब्रह्म ‘सर्व’ है। तज्जलानिति शान्त उपासीत्-तत्- वह परमात्मा ‘ज’ इस जगत् को उत्पन्न करनेवाले ‘ल’ अन्त में इसका प्रलय कर देनेवाले और ‘अन्’ वर्त्तमान में इसका धारण करनेवाले हैं। जीव को चाहिए कि वह शान्त होकर ‘जलान्’ उत्पत्ति, स्थिति और प्रलयकर्त्ता के रूप में परमात्मा की उपासना करे। नेह नानास्ति किञ्चन- उस चेतनमात्र, अखण्डैकरस ब्रह्म में नाना वस्तुओं का मेल नहीं है, किन्तु ये सभी लोक-लोकान्तर पृथक्-पृथक् स्वरूप में परमेश्वर के आधार में स्थित हैं।
जगत्-उत्पत्ति के तीन कारण
जगत् की उत्पत्ति के तीन कारण हैं यथा-
1- निमित्तकारण- निमित्तकारण उसको कहते हैं कि जिसके बनाने से कुछ बने, न बनाने से न बने। आप स्वयं बने नहीं, दूसरे को प्रकारान्त बना देवे। यह निमित्तकारण भी दो प्रकार का होता है- एक मुख्य और दूसरा गौण। सब सृष्टि को कारण से बनाने, और उसका धारण करने और प्रलय करने तथा सबकी व्यवस्था रखनेवाला मुख्य निमित्तकारण परमात्मा है। परमात्मा की सृष्टि में से पदार्थों को लेकर अनेकविध कार्यान्तर करनेवाला गौण निमित्त कारण जीव है।
2- उपादानकारण- उपादानकारण उसको कहते हैं जिसके बिना कुछ न बने, वही अवस्थान्तर रूप होके बने और बिगडे भी। प्रकृति उपादान-कारण है। यह संसार को बनाने की सामग्री है। यह जड होने से आप-से-आप न बन और बिगड सकती है, किन्तु दूसरे के बनाने से बनती और बिगाडने से बिगडती है। कहीं-कहीं जड के निमित्त से जड भी बन और बिगड जाते हैं। जैसे परमेश्वर के रचित बीज पृथिवी में गिरने और जल पाने से वृक्षाकार हो जाते हैं और अग्नि आदि जड के संयोग से बिगड भी जाते हैं, परन्तु इसका नियमपूर्वक बनाना और बिगाडना परमेश्वर और जीव के अधीन है।
3- साधारणकारण- साधारणकारण उसको कहते हैं जो बनाने में साधन और साधारणनिमित्त हो। जब कोई वस्तु बनाई जाती है तब जिन-जिन साधनों से अर्थात् ज्ञान, दर्शन, बल, हाथ और नाना प्रकार के साधन तथा दिशा, काल और आकाशादि साधारण निमित्तकारण कहाते हैं।
एक उदाहरण लीजिए। घडे को बनानेवाला कुम्हार निमित्तकारण है, मिट्टि घडे का उपादानकारण है और दण्ड, चक्र, दिशा, काल, प्रकाश, हाथ, ज्ञान, क्रिया आदि साधारण निमित्तकारण हैं। इन तीन कारणों के बिना न कोई भी वस्तु बन सकती है और न बिगड सकती है।
परमात्मा और जगत् में भेद
नवीनवेदान्ती ईश्वर को ही जगत् का अभिन्ननिमित्तोपादनकारण मानते हैं। वे कहते हैं कि ‘यथोर्णनाभिः सृजते गृह्णते च’- जैसे मकडी बाहर से कोई पदार्थ नहीं लेती, अपने ही में से तन्तु निकाल, जाला बनाकर आप ही उसमें खेलती है, वैसे ब्रह्म अपने में से जगत् को बना, आप जगदाकार बन आप ही क्रीडा कर रहा है, परन्तु यह बात ठीक नहीं है। वास्तव में यहाँ मकडी का जड-रूप शरीर तन्तुओं का उपादानकारण है और जीवात्मा निमित्तकारण है। इसीप्रकार व्यापक ब्रह्म ने अपने भीतर व्याप्त प्रकृति से इस जगत् जाल को तना है। यदि ब्रह्म को जगत् का उपादानकारण मानें तो ब्रह्म परिणामी, अवस्थान्तरयुक्त, विकारी हो जाए। तथा ‘उपादानकारण के गुण कार्य में आते हैं’- इस सिद्धान्त के अनुसार जगत् यदि परमात्मा का विकार होता तो पृथिव्यादि कार्य भी चेतन होने चाहिएँ।
जगत् में परमात्मा के गुण, धर्म नहीं हैं, इसे दर्शाने के लिए यहाँ जगत् और परमात्मा के गुणों की तुलना की जाती है-
1- परमात्मा सत्, चित् और आनन्दस्वरूप है, परन्तु जगत् कार्यरूप से असत् अर्थात् सदा न रहनेवाला, जड और आनन्द-रहित है।
2- परमात्मा अज अर्थात् उत्पन्न नहीं होता और जगत् उत्पन्न हुआ है।
3- परमात्मा अदृश्य है और जगत् दृश्य है।
4- परमात्मा अखण्ड है और जगत् के खण्ड हो सकते हैं।
5- परमात्मा विभु है और जगत् परिछिन्न है।
सृष्टि-उत्पत्ति का प्रयोजन
कुछ लोग यह कुतर्क किया करते हैं कि परमात्मा ने यह सृष्टि क्यों बनाई? यदि परमात्मा इस सृष्टि को न बनाते तो स्वयं भी आनन्द में रहते और जीवों को भी सुख-दुःख प्राप्त न होता। इस शङ्का का समाधान निम्न है-
1- ये आलसी और दरिद्र लोगों की बातें हैं, पुरुषार्थी की नहीं।
2- जीवों को प्रलय में क्या सुख वा दुःख है? सृष्टि में दुःख की तुलना में सुख कई गुणा अधिक है और बहुत-से पवित्रात्मा जीव मुक्ति के साधन करके मोक्ष के आनन्द को भी प्राप्त होते हैं। प्रलय में वे निक्कमें और सुषुप्ति में पडे रहते हैं।
3- यदि सृष्टि न बने तो प्रलय के पूर्व सृष्टि में किये पाप-पुण्यों का फल परमात्मा कैसे दे सके और जीव क्योंकर भोग सके।
4- ईश्वर में जगत् रचना का जो विज्ञान, बल और क्रिया है उसका जगत् की उत्पत्ति के अतिरिक्त और क्या प्रयोजन हो सकता है? परमात्मा के न्याय, दया आदि गुण भी तभी सार्थक हो सकते हैं जब वो जगत् को बनाए।
बीज पहले या वृक्ष
बीज पहले है और वृक्ष पीछे। बीज, हेतु, निदान, निमित्त और कारण इत्यादि शब्द एकार्थ- वाचक हैं। कारण का नाम बीज होने से वह कार्य के प्रथम ही होआ है। जैसे बीज से वृक्ष अंकुरित होता है वैसे ही प्रकृतिरूप बीज से संसारवृक्ष अंकुरित होता है। परमात्मा इस बीज रूपी प्रकृति से ही संसाररूपी वृक्ष को उत्पन्न करते हैं
निराकार ईश्वर से जगत् की उत्पत्ति
सृष्टि उत्पत्ति के लिए ईश्वर को साकार मानने की कोई आवश्यकता नहीं। वस्तुतः जो साकार है वह ईश्वर ही नहीं, क्योंकि साकार परिमित शक्तियुक्त तथा भूख-प्यास आदि से युक्त होगा। साकार ईश्वर सृष्टि का निर्माण कर ही नहीं सकता। यदि परमात्मा साकार होता तो हमारी भाँति त्रसरेणु, अणु, परमाणु और प्रकृति को अपने वश में ला ही नहीं सकता। परमात्मा अपनी अनन्त शक्ति, बल और पराक्रम द्वारा वह सब कार्य करता है जोकि जीव और प्रकृति से कभी हो ही नहीं सकते। देहधारी न होने से परमात्मा प्रकृति से भी सूक्ष्म और उसमें व्यापक है, अतः वह प्रकृति को पकडकर जगदाकार कर देता है। ‘निराकार परमात्मा का बनाया जगत् भी निराकार होना चाहिए’- ऐसा कहना लडकपन की बात है, क्योंकि परमात्मा जगत् का उपादानकारण नहीं है, अपितु निमित्तकारण है। इस जगत् का उपादानकारण प्रकृति है। यदि प्रकृति निराकार होती तो संसार भी निराकार होता। उपादानकारण प्रकृति के बिना प्रभु संसार को नहीं बना सकते। यह प्रकृति अनादि है। इस प्रकृति का और कोई कारण नहीं है। क्योंकि मूले मूलाभावादमूलं मूलम्- मूल-का-मूल अथवा कारण-का-कारण नहीं हुआ करता। जगत् की उत्पत्ति से पूर्व परमेश्वर, प्रकृति और जीव तीनों अनादिरूप से विद्यमान थे। यदि इनमें से एक भी न हो तो यह जगत् भी न हो।
सृष्टि के विषय में नास्तिकों के मत
पहला नास्तिक कहता है- “शून्य ही एक पदार्थ है। सृष्टि के पूर्व शून्य था, अन्त में शून्य होगा, क्योंकि जो भाव है उसका अभाव होकर शून्य हो जाएगा।“ इसका उत्तर यह है कि- शून्य आकाश, अदृश्य, अवकाश और बिन्दु को भी कहते हैं। शून्य जड पदार्थ है, इस शून्य में सब पदार्थ अदृश्य रहते हैं। जैसे एक बिन्दु से रेखा, रेखाओं के वर्तुलाकार होने से भूमि, पर्वतादि ईश्वर की रचना से बनते हैं और शून्य का जाननेवाला शून्य कभी नहीं होता।
दूसरा नास्तिक कहता है- “अभाव से भाव की उत्पत्ति होती है जैसे बीज का मर्दन किये बिना अंकुर उत्पन्न नहीं होता, परन्तु बीज को तोडकर देखें तो उसमें अंकुर का अभाव है, अतः अभाव से उत्पति हुई।” इसका उत्तर- बीज का उपमर्दन करनेवाला पहले ही बीज में था, जो न होता तो उपमर्दन कौन करता और उत्पन्न भी कभी न होता।
तीसरा नास्तिक कहता है-“कर्मों का फल प्राप्त होना ईश्वर के अधीन है। जिस कर्म का फल ईश्वर देना चाहे देता है, जिस कर्म का फल न देना चाहे नहीं देता।” इसका उत्तर यह है कि यदि कर्म फल ईश्वर के अधीन होता तो ईश्वर बिना कर्म किये भी फल दे देता, परन्तु बिना कर्म किये फल नहीं मिलता। वस्तुतः मनुष्य जैसा कर्म करता वैसा ही ईश्वर फल देता है।
चौथा नास्तिक कहता है- “बिना निमित्त के पदार्थ की उत्पत्ति होती है। जैसे बबूल आदि वृक्षों में तीक्ष्ण अणिवाले काँटे न जाने कहाँ से आ जाते हैं, ऐसे ही सृष्टि के आरम्भ में शरीर आदि पदार्थ बिना निमित्त के होते हैं।” इसका उत्तर स्पष्ट है। यदि अनिमित्त से ही पदार्थ उत्पन्न होते तो बिना काँटेवाले वृक्षों में भी काँटे उत्पन्न हो जाने चाहिएँ थे।
नवीन वेदान्ती पाँचवे नास्तिकों की कोटि में आते हैं, उनका कहना है कि- “सब पदार्थ उत्पत्ति और विनाशवाले हैं, इसलिए सब अनित्य हैं।” इसका उत्तर यह है कि जो उत्पति और विनाश वाले पदार्थ हैं वे निश्चय ही अनित्य हैं, परन्तु ब्रह्म, जीव तथा जगत् का उपादानकारण प्रकृति- ये तीनों उत्पत्ति, विनाशवाले न होने से अनादि, नित्य एवं सत्य हैं।
छठा नास्तिक कहता है कि- “पाँच भूतों के नित्य होने से सब जगत् नित्य है।” यह बात सत्य नहीं, क्योंकि स्थूलजगत्, शरीर तथा घट-पटादि पदार्थों को उत्पन्न और नष्ट होते हुए हम देखते ही हैं, अतः कार्यपदार्थों को नित्य नहीं माना जा सकता।
सातवाँ नास्तिक कहता है कि- “सब पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं उनसे भिन्न कोई सम्मिश्रित (अवयवी) पदार्थ नहीं हैं।” इसका उत्तर यह है कि स्वरूप से सब पदार्थ पृथक्-पृथक् हैं, परन्तु स्वरूपतः पृथक् होते हुए अवयवों में एक अवयवी भी है। एक वन में वृक्ष अलग-अलग हैं। उन सब वृक्षों से ही वन की सत्ता है।
आठवाँ नास्तिक कहता है कि- “सब पदार्थों में इतरेतर अभाव की सिद्धि होने से सब अभावरूप हैं, जैसे गाय घोडा नहीं और घोडा गाय नहीं, अतः सबको अभावरूप मानना चाहिए।” इसका उत्तर यह है कि चाहे सब पदार्थों में इतरेतराभाव का योग हो, परन्तु गाय-में-गाय और घोडे-में-घोडे का भाव ही है, अभाव नहीं। जो पदार्थों का भाव न हो तो इतरेतराभाव किसमें कहा जाए।
नववाँ नास्तिक कहता है- “स्वभाव से जगत् की उत्पत्ति होती है जैसे पानी, अन्न एकत्र हो, सडने से कृमि उत्पन्न होते हैं, हल्दी, चूना और नींबू का रस मिलने से ‘रोली’ बन जाती है, वैसे सब जगत् तत्त्वों के स्वाभाविक गुणों से उत्पन्न हुआ है, इसके बनानेवाला कोई भी नहीं।" इसका उत्तर यह है कि यदि उत्पत्ति स्वभाव से होती है तो उसका विनाश नहीं होना चाहिए और यदि विनाश भी स्वभाव से मानो तो उत्पत्ति नहीं हो सकेगी । जो उत्पत्ति और विनाश दोनों को एक साथ मानोगे तो उत्पत्ति नहीं हो सकेगी। जो उत्पत्ति और विनाश दोनों को एक साथ मानोगे तो उत्पत्ति और विनाश की व्यवस्था कभी नहीं हो सकेगी। जो पदार्थ संयोग से बनते हैं उनको भी कोई मिलानेवाला चाहिए जैसे हल्दी, चूना और नींबू का रस अपने-आप आकर नहीं मिलते, किसी के मिलाने से मिलते हैं। वैसे ही परमात्मा प्रकृति के पदार्थों को ज्ञान और युक्ति से मिलाते हैं। इसप्रकार सृष्टि-स्वभाव से नहीं अपितु ईश्वर की रचना से होती है।
ईश्वर की आवश्यकता
प्रश्न उत्पन्न होता है कि जगत्कर्त्ता ईश्वर के मानने की आवश्यकता ही क्या है? यह जगत् अनादि काल से जैसे-का-तैसा बना हुआ है। न कभी इसकी उत्पत्ति हुई और न कभी विनाश होगा। इसका उत्तर यह है कि कर्त्ता के बिना न कोई क्रिया हो सकती है और न क्रियाजन्य पदार्थ बन सकते हैं। पृथिवी आदि पदार्थों में संयोग विशेष से रचना दिखाई देती है, अतः वे अनादि कभी नहीं हो सकते। जो पदार्थ संयोग से बनता है वह संयोग के पूर्व नहीं होता और वियोग के अन्त में नहीं रहता। सृष्टि की उत्पति और प्रलय के लिए किसी चेतन कर्त्ता का मानना आवश्यक है।
देखो ! शरीर में किसप्रकार की ज्ञानपूर्वक सृष्टि रची है कि जिसको विद्वान् लोग देखकर आश्चर्य मानते हैं। भीतर हाडों का जोड, नाडियों का बन्धन, मांस का लेपन, चमडी का ढक्कन, प्लीहा, यकृत्, फेफडा, पंखा-कला का स्थापन, जीव का संयोजन, शिरोरूप मूलरचन, लोम-नखादि का स्थापन, आँख की अतीव सूक्ष्म शिरा का तारवत् ग्रन्थन, इन्द्रियों के भोगों का प्रकाशन, जीव के जाग्रत्, स्वप्न, सुषुप्ति अवस्था के भोगने के लिए स्थान विशेषों का निर्माण, सब धातु का विभागकरण, कला-कौशल से स्थापनादि अद्भुत् सृष्टि को बिना परमेश्वर के कौन कर सकता है? इसके बिना नाना प्रकार के रत्न-धातु से जडित भूमि, विविध प्रकार के वटवृक्षादि के बीजों में अतिसूक्ष्म रचना, असंख्य हरित, श्वेत, पीत, कृष्ण, चित्ररूपों से युक्त पत्र, पुष्प, फल, मूलनिर्माण, मिष्ट, क्षार, कटुक, कसाय, तिक्त, अम्लादि विविध पत्र, पुष्प, फल, अन्न कन्द-मूलादि रचन, अनेकानेक करोडों भूगोल, सूर्य, चन्द्रादि लोकनिर्माण, धारण, भ्रामण, नियमों में रखना आदि कार्यों को परमेश्वर के बिना कोई भी नहीं कर सकता।
जीव परमेश्वर नहीं हो सकता
जैन मतावलम्बियों के मत में ‘अनादि ईश्वर कोई नहीं, किन्तु जीव ही योगाभ्यास करते-करते परमेश्वर हो जाता है।’ यह मत ठीक नहीं। यदि जगत् सृष्टा अनादि ईश्वर न हो जीवों के शरीर और इन्द्रियों का निर्माण कौन करे? इनके बिना जीव साधन नहीं कर सकता और साधन न होने से सिद्ध भी नहीं हो सकता। एक बात और, जीव चाहे जितना साधन करे वह ईश्वर कभी नहीं हो सकता। जीव का ज्ञान परम अवधि तक बढे तो भी वह परिमित ज्ञान और सामर्थ्य-वाला होता है, अनन्त ज्ञान और सामर्थ्य-वाला कदापि नहीं हो सकता। आज तक कोई भी योगी ईश्वरकृत सृष्टि-नियम (आँख से देखना और कान से सुनना) को बदलनेवाला न हुआ है, न होगा।
कल्पनान्तर में एक-जैसी सृष्टि
परमात्मा पूर्ण है, उसका ज्ञान भी पूर्ण है, अतः परमात्मा द्वारा निर्मित्त यह सृष्टि भी पूर्ण है। इसमें परिवर्त्तन, परिवर्धन या सुधार की अपेक्षा नहीं होती। कल्प-कल्पान्तरों में परमात्मा विलक्षण सृष्टि (नये-नये मॉडल) नहीं बनाता अपितु जैसी अब है वैसी ही पहले थी और ऐसी ही आगे भी होगी। देखो-
सूर्याचन्द्रमसौ धाता यथापूर्वमकल्पयत्।
परमात्मा पूर्वकल्प के अनुसार ही सूर्य, चन्द्र आदि लोक-लोकान्तरों का निर्माण करते हैं। परमेश्वर के कार्य बिना भूल-चूक के होने से सदा एकरस हुआ करते हैं। जो अल्पज्ञ है और जिसका ज्ञान वृद्धि-क्षय को प्राप्त होता है, उसी के काम में भूल-चूक होती है, ईश्वर के काम में नहीं।
शास्त्रों में अविरोध
कुछ लोगों के मत में सृष्टि-उत्पत्तिक्रम में शास्त्रों में परस्पर विरोध है। ‘तैत्तिरीय उपनिषद्’ के अनुसार सर्वप्रथम आकाश हुआ, आकाश से वायु, वायु से अग्नि, अग्नि से जल और जल से पृथिवी। ‘छान्दोग्य उपनिषद्’ में अग्न्यादि क्रम से सृष्टि की उत्पत्ति का वर्णन है, ‘ऐतरेय’ में जलादि क्रम से सृष्टि हुई। वेदों में कहीं पुरुष कहीं हिरण्यगर्भादि से, मीमांसा में कर्म, वैशेषिक में काल, न्याय में परमाणु, योग में पुरुषार्थ, सांख्य में प्रकृति और वेदान्त में ब्रह्म से सृष्टि की उत्पत्ति मानी है।
यह विरोध-सा प्रतीत होता है वस्तुतः विरोध है नहीं। जब महाप्रलय होता है तब सृष्टि-उत्पत्ति आकाश आदि क्रमसे होती है। जब आकाश और वायु का प्रलय नहीं होता तब अग्नि आदि क्रम से और जब अग्नि का भी प्रलय नहीं होता तब जल के क्रम से सृष्टि होती है, अर्थात् जिस-जिस प्रलय में जहाँ-जहाँ तक प्रलय होता है वहाँ-वहाँ से सृष्टि की उत्पत्ति होती है।
पुरुष और हिरण्यगर्भादि नाम परमेश्वर के हैं, अतः यहाँ भी विरोध नहीं है।
दर्शनों में भी विरोध नहीं है अपितु यहाँ एक-दूसरे की पूरकता झलकती है। सृष्टि छह कारणों से बनी है। उन छह कारणों की व्याख्या एक-एक दर्शनकार ने की है, अतः उनमें परस्पर विरोध नहीं है।
सृष्टि-उत्पत्ति का क्रम
नासतो विद्यते भावः- अभाव से भाव नहीं हो सकता, अतः मूल उपादानकारण के बिना सृष्टि-रचना नहीं हो सकती। जब सृष्टि का समय आता है तब परमात्मा प्रकृति के परम सूक्ष्म परमाणुओं को इकट्ठा करता है। परमाणुओं के उस संघात का नाम, जो परम सूक्ष्म प्रकृतिरूप कारण से कुछ स्थूल होता है, महतत्त्व है। महतत्त्व से जो कुछ स्थूल होता है उसका नाम अहङ्कार, अहङ्कार से भिन्न-भिन्न पाँच सूक्ष्मभूत, श्रोत्र, त्वचा, नेत्र, जिह्वा, ध्राण- पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, वाक्, हस्त, पाद, उपस्थ और गुदा- पाँच कर्मेन्द्रियाँ और ग्यारहवाँ मन- ये कुछ स्थूल उत्पन्न होते हैं। उनसे नाना प्रकार की औषधियाँ, वृक्ष आदि, उनसे अन्न, अन्न से वीर्य, वीर्य से शरीर होता है।
आरम्भ में अमैथुनी सृष्टि
आदि सृष्टि मैथुनी नहीं होती। जब परमात्मा स्त्री-पुरुषों के शरीर बनाकर उनमें जीवन का संयोग कर देता है तदन्तर मैथुनी सृष्टि चलती है।
सृष्टि का आरम्भ तथा क्रम
पहले पृथिवी आदि की रचना हुई तत्पश्चात् मनुष्य आदि की उत्पत्ति हुई, क्यों कि यदि पृथिवी न होती तो मनुष्य कहाँ उत्पन्न होता और वनस्पति आदि के बिना उसका पालन-पोषण भी कैसे होता?
सृष्टि के आदि में एक नहीं अपितु अनेक मनुष्य उत्पन्न हुए थे जिन-जिन जीवों के कर्म अमैथुनी सृष्टि में उत्पन्न होने के थे, उन्हें परमात्मा ने सृष्टि के आदि में जन्म दिया। सृष्टि में देखने से भी निश्चित होता हैकि मनुष्य अनेक माता-पिता के सन्तान हैं।
आदि सृष्टि के आरम्भ में युवा
आदि सृष्टि में जो मनुष्य उत्पन्न हुए वे सब युवावस्था में उत्पन्न हुए थे, क्यों कि यदि बालक उत्पन्न होते तो उनका पालन-पोषण कौन करता? यदि वृद्धावस्था में उत्पन्न होते तो उनकी सन्तति आगे न चल सकती । अब पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस बात को स्वीकार कर लिया है। डा॰ क्लार्क ने लिखा है- Man aappeared able to think, walk and defand himself.
सृष्टि प्रवाह से अनादि
यह सृष्टि प्रवाह से अनादि है। इस सृष्टि का न तो कभी प्रारम्भ हुआ और न अन्त होगा, जैसे दिन के पूर्व रात और रात के पूर्व दिन तथा दिन के पीछे रात और रात के पीछे दिन बराबर चला आता है, इसीप्रकार सृष्टि के पूर्व प्रलय और प्रलय के पूर्व सृष्टि तथा सृष्टि के पीछे प्रलय और प्रलय के पीछे सृष्टि- यह चक्र अनादिकाल से चला आ रहा है। इस चक्र का न आदि है और न अन्त, परन्तु जैसे दिन और रात का आरम्भ और अन्त देखने में आता है, उसी प्रकार सृष्टि और प्रलय का आदि अन्त होता रहता है।
कर्मानुसार-जन्म
ईश्वर ने किन्हीं जीवों को मनुष्य जन्म, किन्हीं को सिंहादि क्रूर जन्म, किन्हीं कोहिरण, गाय आदि पशु, किन्हीं को वृक्षादि तथा किन्हीं को कृमि-कीट-पतङ्ग आदि जन्म दिये हैं, इससे परमात्मा में पक्षपात नहीं आता, क्योंकि परमात्मा ने ये जन्म उन जीवों के पूर्व सृष्टि में किये कर्मों के अनुसार दिये हैं। यदि बिना कर्मों के जन्म देता तो पक्षपाती होता।
मनुष्य सृष्टि का आदि स्थान
मनुष्यों की आदि त्रिविष्टप अर्थात तिब्बत में हुई। आदि सृष्टि में एक ही मनुष्यजाति थी। कालान्तर में इनमें आर्य और दस्यु दो भेद हो गये। जो श्रेष्ठ थे वे आर्य, विद्वान् अथवा देव कहलाये और जो दुष्ट और मुर्ख थे वे दस्यु अर्थात् डाकू कहलाये।
जब आर्यों और दस्युओं में लडाई-झगडा रहने लगा तब आर्यलोग भारत भूमि को भूगोल में सर्वोत्तम जानकर यहाँ आ बसे। इसी से इस देश का नाम आर्यावर्त्त हुआ।
आर्यावर्त्त की सीमा
उत्तर में हिमालय, दक्षिण में विन्ध्याचल, पूर्व और पश्चिम में समुद्र तथा सरस्वती, पश्चिम में अटक नदी, पूर्व में दृषद्वती=ब्रह्मपुत्रा तक जो फैला हुआ है, दूसरे शब्दों में हिमालय की मध्य रेखा से दक्षिण में रामेश्वरपर्यन्त विन्ध्याचल के भीतर जितने देश हैं उन सबको आर्यावर्त्त कहते हैं। आर्यों के आगमन से पूर्व इस देश में न तो और कोई लोग बसते थे और न इस देश का और कोई नाम था। आर्यलोग सृष्टि के आदि में कुछ काल पश्चात् तिब्बत से आकर इसी देश में बसे।
आर्य बाहर से नहीं आये
यह कहना कि आर्य लोग ईरान से यहाँ आये और यहाँ की जङ्गली जातियों कोल, भील, द्रविड आदि को मारकर यहाँ बस गये सर्वथा गप्प है। आर्यों से पहले यहाँ कोई नहीं रहता था यदि रहता था तो इस देश का नाम क्या था? इक्ष्वाकु से लेकर कौरव-पाण्डव तक भूगोल में सर्वथा आर्यों का राज्य और वेदों का प्रचार था।
स्वराज्य- महिमा
एक समय था जब समस्त भू मण्डल में आर्यों का चक्रवर्त्ती राज्य था, परन्तु अब अभाग्योदय से और आर्यों के आलस्य- प्रमाद तथा परस्पर के विरोध से अन्य देशों पर राज्य करने की कथा ही क्या, किन्तु आर्यावर्त्त में भी आर्यों का अखण्ड, स्वतन्त्र, स्वाधीन, निर्भय राज्यैस समय नहीं है। जो कुछ है वह भी विदेशियों से पादाक्रान्त हो रहा है। जब दुर्दिन आता है तब देशवासियों को अनेक प्रकार केदुःख भोगने पडते हैं। कोई कितना ही करे जो स्वदेशी राज्य होता है वह सर्वोपरि उत्तम होता है। अथवा मतमतान्तर के आग्रह रहित, अपने और पराये का पक्षपात शून्य, प्रजा पर पिता-माता के समान कृपा, न्याय और दया के साथ भी विदेशियों का राज्य पूर्ण सुखदायी नहीं होता।
सृष्टि-उत्पत्ति का समय
इस सृष्टि को उत्पन्न हुए एक अरब छियानवे करोड, आठ लाख, तरेपन हज़ार वर्ष हो गये हैं। इतना ही समय वेद को उत्पन्न हुए हो गया है।
पृथिवी का धारण
इस पृथिवी का धारण कौन करता है? कोई कहता है कि पृथिवी सहस्त्र फनवाले साँप के सिर पर खडी है, कोई कहता है कि यह बैल के सींगों पर ठहरी हुई है। इसी प्रकार अन्य मतवादी भी भिन्न-भिन्न वस्तुओं पृथिवी का आधार मानते हैं, परन्तु ये सभी विचार भ्रामक एवं मिथ्या हैं। यदि पृथिवी साँप और बैल के उपर स्थित है तो साँप और बैल के जन्म से पूर्व यह किसपर ठहरी हुई थीऔर साँप तथा बैल किसपर ठहरे हुए हैं? जो लोग शेष के फन पर पृथिवी का स्थिर होना मानते हैं वे शेष के वास्तविक अर्थ को न जानकर भ्रम में पडे हैं। शेष का अर्थ है ‘बाकी’। परमात्मा उत्पत्ति और प्रलय से बाकी अर्थात् पृथक् रहता है, इसी से उसे शेष कहते हैं। उसी परमात्मा के आधार पर यह पृथिवी ठहरी हुई है। किसी कवि ने ‘शेषाधारा पृथिवी’ ऐसा कहा होगा कि पृथिवी शेष के आधार पर है। किसी ने भ्रमवश शेष का अर्थ सर्प कर दिया। ॠग्वेद में कहा है- ‘सत्येनोत्तभिता भूमिः’- जो त्रैकाल्याबाध्य, जिसका कभी नाश नहीं होता उस परमात्मा ने भूमि, आदित्य=सूर्य और सब लोकों को धारण किया हुआ है।
शेष की भाँति किसी ने ‘अनड्वान् दाधार पृथिवीमुत द्याम्’- इस मन्त्र में अनड्वान् को बैल समझकर पृथिवी को बैलों के सींग पर स्थित मान लिया। यहाँ अनड्वान् का अर्थ परमात्मा ही है, क्योंकि वे ही संसाररूपी गाडी को खेंचते हैं। वस्तुतः ‘स दाधार पृथिवीं द्यामुतेमाम्’ वह परमात्मा ही इस द्युलोक, अन्तरिक्ष और पृथिवीलोक को धारण कर रहे हैं।
पृथिवी आदि लोकों का भ्रमण
ये पृथिवी आदि सभी लोक स्थिर न होकर गति में हैं। वेद में कहा है-
आयं गौः पृश्निरक्रमीदसदन् मातरं पुरः।
पितरं च प्रयन्त्स्वः॥ -यजुः-3।6
जल सहित यह पृथिवी सूर्य के चारों ओर घूमती है। सूर्य पृथिवी के चारों ओर नहीं घूमता अपितु अपनी परिधि में घूमता है। यदि सूर्य अपनी परिधि में न घूमता तो एक राशि से दूसरी राशि में गति न करता।
सूर्य प्रकाशक और चद्रमा आदि प्रकाश्य हैं
एक ब्रह्माण्ड में एक सूर्य प्रकाशक और दूसरे सब लोक-लोकान्तर प्रकाश्य हैं। वेद में कहा है- ‘दिवि सोमो अधिश्रितः’- जैसे चन्द्रलोक सूर्य से प्रकाशित होता है वैसे ही पृथिव्यादि लोक भी सूर्य के प्रकाश से ही प्रकाशित होते हैं।
चन्द्र और तारा आदि में मनुष्य सृष्टि और वैदिक ज्ञान
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, चन्द्र, नक्षत्र और सूर्य- इनका नाम वसु है, क्योंकि इन्हीं में सब पदार्थ और प्रजा बसती है और ये ही सबको बसाते हैं- ऐतेषु हीद\ँ सर्वं वसु हितमेते हीद\ँ सर्वं वासयन्ते। जब पृथिवी के समान सूर्य, चन्द्र, और नक्षत्र वसु हैं तब उनमें इस प्रकार की प्रजा होने में क्या सन्देह? इन सबलोक-लोकान्तरों में आकृति का थोडा-बहुत भेद सम्भव है, परन्तु जिस जाति की जैसी सृष्टि इस देश में है उस जाति की वैसी ही सृष्टि अन्य लोकों में भी है। जिन वेदों का प्रकाश इस लोक में है उन्हीं वेदों का प्रकाश अन्य लोकों में भी है। जैसे एक राजा की राज्य-व्यवस्था, नीति सब देशों में समान होती है, उसी प्रकार राजराजेश्वर परमात्मा की वेदोक्त नीति अपने-अपने सृष्टिरूप सब राज्यों में एक-सी है।
इति अष्टमः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥8॥
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Navam Samullas
नवम-समुल्लासः
विद्या-अविद्या, बन्ध और मोक्ष
विद्या और अविद्या
जो मनुष्य विद्या और अविद्या के स्वरूप को साथ-साथ जनता है वह अविद्या अर्थात् कर्मोपासना से मृत्यु को तरकर विद्या अर्थात् ज्ञान से मोक्ष को प्राप्त होता है।
योगदर्शन के अनुसार अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख और अनात्मा को आत्मा समझना अविद्या है। इसके विपरीत अनित्य में अनित्य और नित्य में नित्य, अपवित्र में अपवित्र और पवित्र में पवित्र, दुःख में दुःख तथा सुख में सुख, अनात्मा में अनात्मा और आत्मा में आत्मा काज्ञान होना विद्या है।
कर्म और उपासना अविद्या इसलिए है कि यह बाह्य और अन्तर क्रिया विशेष है ज्ञान विशेष नहीं। बिना शुद्धकर्म और परमेश्वर की उपासना के कोई भी मृत्यु-दुःख से पार नहीं हो सकता । पवित्र कर्म, पवित्रोपासना और पवित्र ज्ञान से ही मुक्ति और अपवित्र मिथ्याभाषणादि कर्म, पाषाणमूर्त्त्यादि की उपासना और मिथ्या ज्ञान से बन्ध होता है। अधर्म और अज्ञान में फँसा हुआ जीव ही बद्ध है।
बन्ध और मोक्ष स्वभाव से या निमित्त से
बन्ध और मोक्ष स्वभाव से न होकर निमित्त से होते हैं। यदि बन्ध और मोक्ष स्वाभाविक हों तो इनकी निवृत्ति कभी भी हो ही नहीं सकती।
जीव ब्रह्म नहीं
जीव ब्रह्म नहीं है, क्योंकि जीव अल्पज्ञ और ब्रह्म सर्वज्ञ है। अल्पज्ञता के कारण जीव बन्धन में आता है। जीव कर्मों का साक्षी नहीं है अपितु कर्मों का भोक्ता है। शरीर, इन्द्रिय, अन्तःकरण, प्राण और मन- ये सभी जड हैं। शीतोष्ण तथा भूख-प्यास का अनुभव चेतन आत्मा कि ही होता है। यदि भूख-प्यास आदि शरीर के धर्म होते तो मृतक शरीर को भूख-प्यास लगती । अतः आत्मा साक्षी नहीं, कर्त्ता-भोक्ता है। साक्षी तो अद्वितीय परमात्मा है ‘जीव-ब्रह्म का प्रतिबिम्ब है’ यह कहना भी ठीक नहीं, क्योंकि प्रतिबिम्ब साकार का साकार में होता है। ब्रह्म के निराकार और सर्वव्यापक होने से उसका प्रतिबिम्ब नहीं हो सकता। यदि सर्वव्यापक ब्रह्म अन्तःकरणों में प्रकाशमान होकर जीव हो जाता है तो उसमें भी सर्वज्ञादि गुण होने चाहिएँ । जीव अल्पज्ञ ही है सर्वज्ञ नहीं, अतः जीव ब्रह्म नहीं हो सकता । जीव और संसार को अध्यारोपमात्र समझना भी ठीक नहीं, क्योंकि जब ब्रह्म के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं तो क्या ब्रह्म ही अपने में जगत् की झूठी कल्पना करेगा? परन्तु जीव और प्रकृति भी अनादि हैं। जीव अल्पज्ञता के कारण प्रकृति के विषयों में फँसकर बन्ध का अनुभव करते हैं।
मुक्ति का अर्थ और मुक्ति के साधन
मुक्ति का अर्थ है दुःखों से छुटकर सुख को प्राप्त होना और ब्रह्म में रहना। यह मुक्ति परमेश्वर की आज्ञा पालने, अधर्म, अविद्या, कुसङ्ग, कुसंस्कार, बुरे व्यसनों से अलग रहने और सत्य-भाषण, परोपकार, व्द्या, पक्षपातरहित न्याय, धर्म की वृद्धि करने, परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना और उपासना अर्थात् योगाभ्यास करने, विद्या पढने-पढाने और धर्म से पुरुषार्थ कर ज्ञान की उन्नति करने- इत्यादि उत्तम साधनों के करने से होती है।
मुक्त जीव की अवस्था
मुक्ति में जीव का लय नहीं होता, क्योंकि ब्रह्म में लय होना समुद्र में डूब मरने के समान है। वह विद्यमान रहता है और स्वेच्छाचारी होकर बिना रुकावट आनन्दपूर्वक सर्वत्र विचरता है। मुक्ति में जीव का स्थूल शरीर नहीं होता तो भी वह अपने सत्य संकल्प आदि स्वाभाविक गुण और सामर्थ्य से सुख एवं आनन्द का अनुभव करता है। जब वह सुनना चाहता है तब श्रोत्र, जब स्पर्श करना चाहता है तब त्वचा, देखने के संकल्प से चक्षु, संकल्प-विकल्प करते समय मन आदि हो जाते हैं। मुक्ति में संकल्पमात्र शरीर होता है। यह मुक्त जीव अपनी शक्ति से सब आनन्द भोग लेता है।
मुक्ति का कार्यक्रम
मुक्तावस्था में जीव अत्यन्त व्यापक ब्रह्म में स्वच्छन्द गूमता, शुद्ध ज्ञान से सब सृष्टि को देखता, अन्य मुक्तों के साथ मिलता तथा सृष्टि-विद्या को क्रम से देखता हुआ सब लोक-लोकान्तरों में, अर्थात् जितने ये लोक प्रत्यक्ष दीखते हैं तथा जो नहीं दीखते उन सब में घूमता है। जिस जीवात्मा का जितना ज्ञान अधिक होता है मुक्ति में उसको उतना ही आनन्द भी अधिक आता है। मुक्ति में जीवात्मा के निर्मल होने से पूर्ण ज्ञानी होकर उसको सब सन्निहित पदार्थों का भान यथावत् होता है। यही सुख विशेष स्वर्ग और विषय-तृष्णा में फँसकर दुःखविशेष भोग करना नरक कहाता है।
मुक्ति से पुनरावृत्ति=लौटना
कुछ लोग ‘न च पुनरावर्तते न च पुनरावर्तते’ [छान्दोग्य उपनिषद्] ‘अनावृत्तिः शब्दादनावृत्तिः शब्दात्’ [वेदान्तदर्शन] और 'यद्गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ [गीता] इन प्रमाणों के आधार पर ऐसा कहते हैं कि मुक्ति के पश्चात् जीव पुनः संसार में नहीं आता, परन्तु यह अर्थ ठीक नहीं है। उनका ठीक अर्थ यही है कि मुक्ति का परन्तकाल पूर्ण होने से पूर्व ये नहीं लौटते। महाकल्प के पश्चात तो लौटते ही हैं। वेद में कहा है-
अग्नेर्वयं प्रथ्मस्यामृतानां मनामहे चारु देवस्य नाम।
स नो मह्या अदितये पुनर्दात् पितरं च दृशेयं मातरं च॥ –ॠ॰ 1।24।2
हम प्रकाशस्वरुप, अनादि तथा सदा मुक्त परमात्मा का नाम पवित्र जानें जो हमें मुक्ति में आनन्द भुगाकर पृथिवी में पुनः माता-पिता के द्वारा जन्म देकर माता-पिता का दर्शन कराता है।
इस प्रमाण से स्पष्ट हैकि मुक्ति के पश्चात् भी जीव लौटता है।
न्यायदर्शन में कहा है- ‘तदत्यन्तविमोक्षोऽपवर्गः’-जीव के दुःख का अत्यन्त विच्छेद होना ही मुक्ति है। यहाँ अत्यन्त का अर्थ अनन्त नहोकर ‘बहुत’ ही है जैसे ‘अत्यन्त दुखं चास्य वर्तते’-इस मनुष्य को अत्यन्त दुःख है। इसका तात्पर्य बहुत दुःख से ही है। उक्त सूत्र में भी अत्यन्त शब्द का अर्थ ‘बहुत’ ही है।
मुक्ति से लौटने में युक्तियाँ
मुक्ति से पुनरावृत्ति में निम्न युक्तियाँ हैं-
1- जीव का सामर्थ्य, शरीरादि पदार्थ और साधन परिमित हैं, पुनः उनका फल अनन्त कैसे हो सकता है? अनन्त आनन्द को भोगने का असीम सामर्थ्य, कर्म और साधन जीवों में नहीं, इसलिए अनन्त सुख नहीं भोग सकते। जिनके साधन अनित्य हैं उनका फल नित्य कभी नहीं हो सकता ।
2- यदि मुक्ति से लौटकर कोई भी जिवात्मा संसार में ना आये तो शनैः-शनैः संसार का उच्छेद अर्थात् जीवों की समाप्ति हो जाएगी।
यदि यहाँ यह कहा जाए कि जितने जीव मिक्त होते हैं ईश्वर उतने ही नये जीव बना लेता है तो भी ठीक नहीं। ऐसा होने पर जीव अनित्य हि जाएँगे, क्योंकि जिसकी उत्पत्ति होती है उसका नाश भी अवश्य होता है। मुक्ति पाकर भी वे नष्ट हो जाएँगे और मुक्ति अनित्य हो जाएगी ।
3- यदि मुक्ति से लौटते नहीं तो मुक्ति के स्थान म्त बहुत-सा भीड-भडक्का हो जाएगा, क्योंकि वहाँ आगम अधिक और व्यय कुछ भी न होने से बढती का पारावार न रहेगा।
4- सुख का अनुभव सापेक्ष अनुभव है। दुःख के अनुभव के बिना सुख का अनुभव नहीं हो सकता। जैसे कटु न हो तो मधुर क्या और मधुर न तो हो कटु क्या कहावे, क्योंकि एक स्वाद के एकरस के विरुद्ध होने से दोनों की परीक्षा होती है। जैसे कोई मनुष्य मीठा-ही-मीठा खाता जाए तो उसको वैसा सुख नहीं होता जैसा सब प्रकार के रसों को भोगनेवाले को होता है।
5- यदि ईश्वर अन्तवाले कर्मों का अनन्त फल देवे तो उसका न्याय नष्ट हो जाए। जो जितना भार उठा सके उसपर उतना ही धरना बुद्धिमानों का काम है। जैसे एक मन भार उठानेवाले के सिर पर दस मन भार धरने से भार धरनेवाले की निन्दा होती है वैसे अल्पज्ञ, अल्प सामर्थ्यवाले जीव पर अनन्त सुख का भार धरना ईश्वर के लिए ठीक नहीं।
6- यदि परमेश्वर नये जीव उत्पन्न करता है तो जिस कारण से वे जीव उत्पन्न होते हैं वह कारण चूक जाएगा, क्योंकि चाहे कितना भी बडा कोश हो जिसमें व्यय है और आय नहीं उसका कभी-न-कभी दिवाला निकल ही जाएगा।
7- यदि मुक्ति से पुनरावृत्ति नहीं होती तो वह जन्म-कारागार के समान हो जाएगी, बस इतना ही अन्तर रहेगा कि वहाँ मजदूरी नहीं करनी पडती।
मुक्ति के लिए उपाय आवश्यक
मुक्ति से भी लौटना पडता है, इसलिए मुक्ति जन्म-मरण के सदृश नहीं है, क्योंकि जब तक 36,000 बार सृष्टि उत्पत्ति और प्रलय होती है, इतने समय पर्यन्त जीवों का मुक्ति के आनन्द में रहना और दुःखी न होना क्या छोटी बात है? यह समय कोई कम है कि इतने काल तक निरन्तर सुख में रहने के लिए प्रयत्न न किया जाए। जब आज खाते- पीते हैं और कल भूख लगने वाली है फिर भी उपाय किया ही जाता है। ज भूख, प्यास, धन, राज्य, प्रतिष्ठा, स्त्री, सन्तान आदि के लिए उपाय करना आवश्यक हैतो मुक्ति केलिए क्यों न करना? जैसे मरना आवश्यक है फिर भी जीवन का उपाय किया जाता है, वैसे ही मुक्ति से लौटकर जन्म में आना है तथापि उसका उपाय करना अत्यावश्यक है।
मुक्ति के साधन
जो मुक्ति चाहे जीवनमुक्त बनेजिन मिथ्या-भाषणादि पाप-कर्मों का फल दुःख है उनको छोड सुख रूप फल को देनेवाले सत्य-भाषणादि धर्माचरण अवश्य करे। जो कोई दुःख को छुडाना और सुख को प्राप्त होना चाहे वह अधर्म को छोडकर धर्म अवश्य करे, क्योंकि दुःख का पापाचरण और सुख का धर्माचरण मूल कारण है । मुक्ति के लिए साधन चतुष्ट्य का अनुष्ठान करना चाहिए। यथा-
1- विवेक- सत्पुरुषों के संग से विवेक अर्थात् सत्यासत्य, धर्माधर्म, कर्त्तव्याकर्त्तव्य का निश्चय अवश्य करें विवेक द्वारा यह भी जानें कि आत्मा अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय- इन पाँच कोशों, जागृत्, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीय- इन चार अवस्थाओं, स्थूल, सूक्ष्म और कारण- इन तीन शरीरों से पृथक् है।
2- वैराग्य- विवेक से जिस सत्यासत्य को जाना हो उसमें से सत्याचरण का ग्रहण और असत्याचरण का त्याग करना वैराग्य है। दूसरे शब्दों में पृथिवी से लेकर परमेश्वर परयन्त पदार्थों के गुण-कर्म-स्वभावों को जानकर परमात्मा की आज्ञा का पालन और उपासना में तत्पर होना, उसके विरुद्ध न चलना, सृष्टि से उपकार लेना वैराग्य कहलाता है।
3- षट्क सम्पत्ति- षट्क सम्पत्ति का अर्थ है- छह प्रकार के कर्म करना-
(क) शम- अपने आत्मा और अन्तःकरण को अधर्माचरण से हटाकर धर्माचरण मेंसदा प्रवृत्त रखना।
(ख) दम- श्रोतादि इन्द्रियों और शरीर को व्यभिचार आदि बुरे कर्मों से हटाकर जितेन्द्रियत्वादि शुभ कर्मों में प्रवृत्त रखना।
(ग) उपरति=दुष्ट कर्म करनेवाले पुरुषों से सदा दूर रहना।
(घ) तितिक्षा- निन्दा-स्तुति, हानि-लाभ में हर्ष-शोक को छोडकर मुक्ति के साधनों में सदा लगे रहना।
(ङ) श्रद्धा- वेदादि सत्य शास्त्र और इनके बोध से पूर्ण आप्त विद्वान्, सत्योपदेशक महाशयों के वचनों पर विश्वास करना।
(च) समाधान- चित्त में एकाग्रता।
4- मुमुक्षुत्व- जैसे क्षुधा-तृषातुर को सिवाय अन्न-जल के दूसरा कुछ भी अच्छा नहीं लगता वैसे बिना मुक्ति के साधन दूसरे में प्रीति न होना।
अनुबन्ध चतुष्टय- साधन चतुष्टय के पश्चात चार अनुबन्धों का सेवन करना होता है
1- अधिकारी- जो उपर्युक्त चार साधनों से युक्त पुरुष होता है, वही मोक्ष का अधिकारी होता है।
2- सम्बन्ध- ब्रह्म की प्राप्तिरूप मुक्ति को प्रतिपाद्य और वेदादि शास्त्रों को प्रतिपादक समझकर उन्हें अन्वित करना, उन्हीं का अध्ययन आदि करना।
3- विषयी- सब शास्त्रों का प्रतिपादन विषय है ब्रह्म। उस ब्रह्म की प्राप्तिरूप विषयवाले पुरुष का विषयी है।
4- प्रयोजन- सब दुःखों की निवृति और परमानन्द को प्राप्त होकर मुक्ति का सुख होना। -ये चार अनुबन्ध कहलाते हैं।
श्रवण चतुष्टय- तदन्तर श्रवण चतुष्टय का अनुष्ठान करना होता है-
1- श्रवण- जब कोई विद्वान् उपदेश करे तब शान्त होकर और ध्यान देकर सुनना, ब्रहमविद्या के सुनने में विशेष ध्यान देना, क्योंकि यह सब विद्याओं में सूक्ष्म है।
2- मनन- सुनने के पश्चात् एकान्त देश में बैठकर सुने हुए का विचार करना, जिस बात में शङ्का हो उसे पुनः पूछना और सुनते समय भी वक्ता और श्रोता उचित समझें तो पूछना और समाधान करना।
3- निदिध्यासन- जब सुनने और मनन करने से निःसन्देह हो जाए तब समाधिस्थ होकर उस बात को देखना-समझना कि वह जैसा सुना और विचारा था वैसा ही है वा नहीं।
4- साक्षात्कार- जैसा पदार्थ का स्वरूप, गुण स्वभाव हो वैसा यथातथ्य जान लेना।
यह श्रवण चतुष्टय कहाता है।
सदा तमोगुण अर्थात्, क्रोध, मलीनता, आलस्य, प्रमाद आदि: रजोगुण अर्थात् ईर्ष्या, द्वेष, काम, अभिमान, विक्षेपविशेष आदि दोषों से अलग होके सत्त्व अर्थात् शान्त-प्रकृति, पवित्रता, विद्या, विचार आदि गुणों को धारण करे। सुखी जनों से मित्रता करें, दुःखी जनों पर दया करें, पुण्यात्माओं को देखकर हर्षित हो और दुष्ट-आत्माओं से न प्रीति करे न वैर रखे। ऐसा पुरुष ही जीवनमुक्त होता है। मुमुक्षु को चाहिए कि नित्यप्रति न्युन-से न्युन दो घण्टा पर्यन्त ध्यान अवश्य करे, जिससे भीतर के मन आदि पदार्थ साक्षात् हों।
पञ्च क्लेशों की निवृति
क्लेश पाँच हैं। अनित्य को नित्य, अपवित्र को पवित्र, दुःख को सुख और अनात्मा को आत्मा समझना ‘अविद्या’ रूप पहला क्लेश है।
बुद्धि को आत्मा से भिन्न न समझना ‘अस्मिता’ रूप दूसरा क्लेश है।
सुख में प्रीति ही ‘राग’ नामक तीसरा क्लेश है।
दुःख में अप्रीति ही ‘द्वेष’ नामक चौथा क्लेश है, और
मृत्युदुःख से त्रास ही ‘अभिनिवेश’ नामक पाँचवाँ क्लेश है।
योगाभ्यास और विज्ञान द्वारा इन पाँच क्लेशों को छुडाकर, ब्रह्म को प्राप्त होके मुक्ति के परमानन्द को भोगना चाहिए।
मतवादियों की मुक्ति का स्वरूप
जैनी लोग मोक्षशिला- शिवपुर में जाके चुपचाप बैठे रहना, ईसाई चौथे आसमान- जिसमें विवाह, लडाई, बाजे-गाजे, वस्त्र आदि धारण से आनन्द भोगना, वैसे ही मुसलमान सातवें आसमान, वाममार्गी श्रीपुर, शैव कैलाश, वैष्णव वैकुण्ठ गोकुलिये गुसाईं गोलोक आदि में जाके उत्तम स्त्री, अन्न-पान, वस्त्र, स्थान आदि को प्राप्त होकर आनन्द में रहने को मुक्ति मानते हैं। पौराणिक लोग सालोक्य- ईश्वर के लोक में निवास, सानुज्य- छोटे भाई के सदृश ईश्वर के साथ रहना, सायुज्य- ईश्वर से संयुक्त हो जाना। सामीप्य- सेवक के समान ईश्वर के समीप रहना- ये चार प्रकार की मुक्ति मानते हैं
वस्तुतः मोक्षशिला, शिवपुर, चौथे अथवा सातवें आसमान पर अथ्वा गोलोक आदि किसी स्थान में पहुँचकर शान्त एवं ऐश्वर्यमय जीवन बीताने का नाम मोक्ष नहीं है। ऐश्वर्य सम्पन्न एवं भोगमय जीवन में रोग अवश्यम्भावी है। रोगों को साथ वृद्धावस्था भी आएगी ही। यदि स्थानविशेष में रहना ही मुक्ति हो तो उन स्थानों से पृथक् होते ही मुक्ति समाप्त हो जाएगी। मुक्ति तो यही है कि जहाँ इच्छा हो वहाँ विचरे, कहीं अटके नहीं, कोई भय, शङ्का और दुःख न हो। पौराणिकों की मुक्ति तो कीट-पतङ्ग और पशु आदि को भी स्वयं प्राप्त है। ये सब लोक ईश्वर के हैं, इन्हीं में सब जीव रहते हैं, इसलिए सालोक्य मुक्ति अनायास प्राप्त है। ईश्वर सर्वत्र व्याप्त होने से सब उसके समीप हैं इसलिए सामीप्य मुक्ति स्वतः सिद्ध है। जीव ईश्वर से सब प्रकार छोटा और चेतन होने से स्वतः बन्धुवत् है अतः सानुज्य मुक्ति भी बिना प्रयत्न के सिद्ध है। सब जीव सर्वव्यापक परमात्मा में व्याप्त होने से संयुक्त है, इससे सायुज्य मुक्ति भी स्वतः सिद्ध है।
वदान्ती ब्रह्म में लय होने को मुक्ति मानते हैं। यह सिद्धान्त भी ठीक नहीं, क्योंकि जीव का विनाश नहीं होता और अपने विनाश के लिए कोई प्रयत्न भी नहीं करेगा।
पूर्व जन्म की स्मृति न होने के कारण
जन्म अनेक हैं, परन्तु मनुश्य को पूर्वजन्म की बातोंका स्मरण नहीं रहता, इसके अनेक कारण हैं-
1- जीव अल्पज्ञ हैं, त्रिकालदर्शी नहीं, अतः स्मरण नहीं रहता। जिस मन से ज्ञान प्राप्त होता है वह भी एकसमय में दो ज्ञान नहीं कर सकता । पूर्वजन्म की तो बात ही क्या इस जन्म की बातें भी स्मरण नहीं रहतीं।
2- पूर्वजन्म की बातें स्मरण नहीं रहतीं इसी से जीव सुखी है नहीं तो सब जन्मों के दुःखों को स्मरण कर दुःखित होकर मर जाता।
3- संसार में एक स्थान पर राज, धन, बुद्धि और विद्या है, दूसरे स्थान पर दारिद्र्य और मूर्खता है। सुख-दुःख को देखकर ही हमें पूर्वजन्म का ज्ञान कर लेना चाहिए। यदि पूर्वजन्म को न माना जाए तो परमात्मा पक्षपाती हो जाएगा।
कर्मानुसार जन्म
परमात्मा जीवों के कर्मानुसार ही उन्हें फल प्रदान करता है। यदि बिना हमारे कर्मों के स्वेच्छा से फल दे तो धर्म का फल मिलने में सन्देह होगा। परिणामस्वरूप पापों की वृद्धि और धर्म का क्षय हो जाएगा, अतः यही सत्य सिद्धान्त है कि परमात्मा पूर्वजन्म के पाप-पुण्यों के अनुसार वर्त्तमान जन्म और वर्त्तमान जन्म के कर्मानुसार भविष्यत् जन्म प्रदान करता है।
जीव अपने कर्मों के अनुसार परमात्मा की व्यवस्था में कभी पुरुष के शरीर में जाता है, कभी स्त्री के शरीर में तथा कभी पशु, कीट और पतङ्ग आदि के शरीर में जाता है। जब पाप बढ जाता है और पुण्य न्यून हो जाता है तब मनुष्य का जीव पशु आदि नीच शरीरों में जाता है, जब धर्म अधिक और अधर्म न्यून होता है तब देव अर्थात् विद्वानों का शरीर मिलता है, जब पाप और पुण्य बराबर होते हैं तब साधारण मनुष्य का जन्म होता है। इन साधारण मनुष्यों में भी जो दुःख-सुख की मात्रा का अन्तर दिखाई देता है वह उनके कर्मों के उत्तम, मध्यम और निकृष्ट होने के कारण है। जब अधिक पाप का फल पशु आदि के शरीर में भोग लिया जाता है तब पाप और पुण्य के बराबर हो जाने पर जीव पुनः मनुष्य के शरीर में आता है। पुण्यात्मा भी पुण्य के फल भोगकर फिर मध्यस्थ मनुष्य के शरीर में आता है।
इसप्रकार अपने कर्मों के अनुसार परमात्मा की व्यवस्था में बँधा हुआ जीव नाना प्रकार की योनियों में तब तक चक्कर काटता है जब तक वह उत्तम कर्मोपासना का अनुष्ठान कर और ज्ञान को बढाकर मुक्त नहीं हो जाता।
जब इस जीव के हृदय की अविद्या-अज्ञान रूपी गाँठ कट जाती है, सब संशय छिन्न हो जाते हैं और दुष्ट कर्म क्षय को प्राप्त हो जाते हैं तभी जीव उस परमात्मा में निवास करता है, जोकि अपने आत्मा के भीतर और बाहर व्याप रहा है। अविद्याग्रन्थि के काटने का सम्भव सामान्यतः अनेक जन्मों की अपेक्षा रखता है, अतः मुक्ति एक जन्म में न होकर अनेक जन्मों में होती है। मुक्ति में जीव परमेश्वर में विचरता है, उसका लय=नाश नहीं होता अपितु वह जीव सर्वव्यापक ब्रह्म में स्थित होकर जिस आनन्द की कामना करता है, उसी आनन्द को प्राप्त होता है।
बिना कर्मों का क्या फल मिलता है
जो मनुष्य शरीर से चोरी, पर-स्त्रीगमन व श्रेष्ठों को मारना आदि दुष्कर्म करता है उसको वृक्ष आदि स्थावर का जन्म, वाणी से किये पापों से पक्षी और मृगादि तथा मन से किये दुष्टकर्मों से चाण्डाल आदि का शरीर मिलता है। जो मनुष्य सात्विक हैं वे मध्यम और जो तमोगुणयुक्त होते हैं वे नीच गति को प्राप्त होते हैं। इन गुणों के स्वभावों में न फँस कर गुणातीत बनने का प्रयत्न करना ही मुक्ति का मार्ग है।
मुक्ति के लिए योगमार्ग का आलम्बन आवश्यक है। चित्त की वृत्ति के निरोध का नाम योग है। जब चित्त एकाग्र और निरुद्ध हो जाता है तब द्रष्टा जीवात्मा परमात्मा के स्वरूप में स्थित हो जाता है। यह ब्रह्मनिष्ठ व्यक्ति आध्यात्मिक, आधिदैविक और आधिभौतिक त्रिविध तापों से ऊपर उठकर मुक्ति को प्राप्त करता है, यही मनुष्य का अत्यन्त पुरुषार्थ है।
इति नवमः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥9॥
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Dasham Samullas
दशम-समुल्लासः
आचार, अनाचार भक्ष्य और अभक्ष्य
आचार और अनाचार की परिभाषा
धर्मयुक्त कामों का आचरण, सुशीलता, सत्पुरुषों का सङ्ग और सद्विद्या के ग्रहण में रुचि आदि आचार और इनसे अनाचार कहाता है।
धर्म और आचार के विषय में वेद परम प्रमाण
आचार और धर्म समान अर्थक हैं मनुष्यों को सदा ध्यान रखना चाहिए कि जिस कर्म, धर्म या आचार का सेवन राग-द्वेष रहित विद्वान् लोग करें, जिसको हृदय अर्थात् आत्मा से सत्य कर्त्तव्य जानें वही धर्म माननीय और करणीय है। सम्पूर्ण वेद, मनुस्मृति तथा ॠषिप्रणीत शास्त्र, सत्पुरुषों का आचार और अपने आत्मा के ज्ञान से अविरुद्ध प्रियाचरण- ये चार धर्म के लक्षण हैं, इन्हीं से धर्म लक्षित होता है, परन्तु जो धन के लोभ और काम-विषय-सेवन में फँसा हुआ नहीं, उसी को धर्म का ज्ञान होता है। धर्म को जानने की इच्छा करने वालों के लिए वेद ही परम प्रमाण हैं। जो वेदों को न मानकर उनकी निन्दा करता है, वह नास्तिक है।
केश=बाल
सब मनुष्यों को उचित है कि वेदोक्त पुण्यरूपकर्मों से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने सन्तानों के गर्भाधान आदि संस्कार अवश्य करें। ब्राह्मण का सोलहवें, क्षत्रिय का बाईसवें और वैश्य का चौबीसवें वर्षमें केशान्तकर्म=क्षौर=मुण्डन हो जाना चाहिए, अर्थात् इस विधि के पश्चात् केवल शिखा को रखके अन्य डाढी-मूँछ और सिर के बाल सदा मुँडवाते रहना चाहिए, पुनः कभी न रखना। यदि शीतप्रधान देश हो तो कामाचार है चाहे जितने केश रखें और जो अति उष्ण देश हो तो शिखासहित सब छेदन करा देना चाहिए, क्योंकि सिर में बाल रखने से उष्णता अधिक होती है और उससे बुद्धि कम हो जाती है। डाढी-मुँछ रखने से भोजन-पान अच्छे प्रकार नहीं होता और उच्छिष्ट भी बालों में रह जाता है।
जितेन्द्रियता
मनुष्य का यही मुख्य आचार है कि जो इन्द्रियाँ चित्त को हरण करनेवाले विषयों में प्रवृत्त करती है उन्हे रोकने का प्रयत्न करे। जैसे सारथी घोडे को रोककर उन्हें शुद्ध मार्ग पर चलाता है वैसे इनको अपने वश में करके अधर्म मार्ग से हटा के धर्म मार्ग में सदा चलाया करे। इन्द्रियों की विषयासक्ति और अधर्म में चलाने से मनुष्य निश्चय ही दोष को प्राप्त होता है और जब इन्हें जीतकर धर्म में चलाता है तभी अभिष्ट सिद्धि को प्राप्त होता है। इसीलिए पाँच ज्ञानेन्द्रिय, पाँच कर्मेन्द्रिय और ग्यारहवें मन को अपने वश में करके युक्त आहार-विहार और योगाभ्यास से शरीर की रक्षा करता हुआ सब अर्थों को सिद्ध करे। जितेन्द्रिय उसको कहते हैं जो स्तुति सुन के हर्ष और निन्दा सुन के शोक, अच्छा स्पर्श करके सुख और दुष्ट स्पर्श से दुःख, सुन्दर रूप देख के प्रसन्न और दुष्टरूप देख के अप्रसन्न उत्तम भोजन करके आनन्दित और निकृष्ट भोजा करके दुःखित, सुगन्ध में रुचि और दुर्गन्ध में अरुचि नहीं करता। जितेन्द्रियता ही सदाचार के वृत्त का केन्द्र है। इसके अभाव में सदाचार का प्रश्न ही नहीं उठता।
सत्य
सत्ये सर्वं प्रतिष्ठितम्- सत्य ही सबका आधार है, परन्तु इस सत्य को बडी सावधानी से बोलना चाहिए। अप्रिय सत्य कभी नहीं बोलना चाहिए। कभी बिना पूछे वा अन्याय से पूछनेवाले को कि जो कपट से पूछता हो, उत्तर न देवे। बुद्धिमान् को चाहिए कि उसके सामने जड के समान आचरण करे। हाँ जो निष्कपट और जिज्ञासु हों, उन्हें बिना पूछे भी उपदेश करें।
विद्या
जीवन में धन, बन्धु (कुटुम्ब, कुल) अवस्था, उत्तम कर्म और विद्या- ये पाँच मान्य के स्थान हैं। इनमें पिछला-पिछला अधिक माननीय है, अर्थात् धन से बन्धु, बन्धु से अवस्था आदि। इस प्रकार विद्या का स्थान सर्वोपरि है। अधिक वर्षों के बीतने, बालों के श्वेत होने, अधिक धन होने और बडा कुटुम्ब होने से कोई वृद्ध नहीं होता, किन्तु ॠषि-महात्माओं का यही निश्चय है कि जो विद्या-विज्ञान में अधिक होता है वही वृद्ध कहाता है। सिर के बाल सफेद होने से वृद्ध नहीं होता, किन्तु जो युवा पढा हुआ है उसी को विद्वान् लोग बडा जानते हैं।
अहिंसा तथा मधुर-भाषण
विद्या पढकर विद्वान् एवं धर्मात्मा होकर निर्वैरता से सब प्राणियों को कल्याण का उपदेश करे। उपदेश में वाणी मधुर और कोमल बोले। जो सत्योपदेश से धर्म की वृद्धि और अधर्म का नाश करते हैं, वे पुरुष धन्य हैं।
शौच-पवित्रता
नित्य स्नान करे तथा वस्त्र, अन्न, पान, स्थानa अदि सबको शुद्ध रखे, क्योंकि इनके शुद्ध होने से चित्त की शुद्धि और आरोग्यता प्राप्त होकर पुरुषार्थ बढता है। शौच उतना ही ठीक है जितने से मल, दुर्गन्ध दूर हो जाए।
शिष्टाचार
आचारः परमो धर्मः- सत्यभाषण आदि कर्मों का आचार करना ही वेद और स्मृति में कहा हुआ आचार है। सामाजिक मधुरता के लिए यह अत्यन्त आवश्यक है। मातृदेवो भव। पितृदेवो भव। आचार्यदेवो भव। अतिथिदेवो भव- इन उपनिषद् वाक्यों के अनुसार माता, पिता, आचार्य और अतिथि की सेवा करना देवपूजा कहाती है।
परोपकार
जिस-जिस कर्म से जगत् का उपकार हो वह-वह कर्म करना और हानिकारक कर्मों को छोड देना ही मनुष्य का मुख्य कर्त्तव्य-कर्म है।
सत्सङ्ग
कभी नास्तिक, लम्पट, विश्वाघाती, मिथ्यावादी, स्वार्थी, कपटी, छली आदि दुष्ट मनुष्यों का सङ्ग न करे। आप्त- जो सत्यवादी, धर्मात्मा और परोपकार-प्रियजन हैं, सदा उनका सङ्ग करने का ही नाम श्रेष्ठाचार है।
विदेश-यात्रा और सदाचार
पौराणिक लोगों ने यह माना है कि आर्यावर्त्त देशवासियों का आर्यावर्त्त देश से भिन्न-भिन्न देशों में जाने से आचार नष्ट हो जाता है- यह बात मिथ्या है, क्योंकि जो बाहर-भीतर की पवित्रता करनी तथा सत्यभाषणादि आचरण करना है वह जहाँ कहीं करेगा तो वह आचार और धर्म भ्रष्ट कभी नहीं होगा और जो आर्यावर्त्त में रहकर भी दुष्टाचार करेगा वही धर्म और आचार भ्रष्ट कहावेगा। देखो ! आर्यावर्त्त के हमारे प्राचीन पुरुष, देश-विदेश की यात्रा, विदेशियों से ज्ञान चर्चा, उनके साथ विवाह आदि सम्बन्ध किया करते थे। यथा-
1- महाभारत शान्तिपर्व में लिखा है कि किसी समय व्यासजी अपने पुत्र शुक और शिष्यों सहित पाताल अर्थात् अमेरिका में निवास करते थे। एक बार जब शुक ने अपने पिताजी से प्रश्न किया कि आत्मविद्या इतनी ही होती है या अधिक? तब व्यास जी ने कहा- हे पुत्र ! तू मिथिला पुरी में जा और यही प्रश्न वहाँ के राजा जनक से पूछ, वह इसका यथायोग्य उत्तर देगा। पिता का वचन सुन शुकदेव जी यूरोप और चीन होते हुए मिथिलापुरी आए। यदि विदेश यात्रा में पाप होता तो व्यासजी अमेरिका की यात्रा कभी न करते।
2- महाभारत में यह वर्णन है कि श्रीकृष्ण और अर्जुन अश्वतरी अर्थात् अग्नियान नौका में बैठकर अमेरिका गये थे और वहाँ से उद्दालक ॠषि को युधिष्ठिर के यज्ञ में लाए थे।
3- महाभारत में यह भी लिखा है कि धृतराष्ट्र का विवाह गान्धार (जिसको आजकल कन्धार कहते हैं और जो अफ़गानिस्तान में है) की राजपुत्री से हुआ था।
4- महाराज पाण्डु की स्त्री ‘माद्री’ ईरान के राजा की कन्या थी। देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में न जाते होते तो ये सब बातें क्योंकर हो सकतीं?
5- ‘मनुस्मृति’ में समुद्र में जानेवाली नौकाओं पर कर लेना लिखा है वह भी आर्यावर्त्त से द्वीपान्तरों में जाने की घोषणा करता है।
6- जब महाराज युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ किया थातब उसमें सब भूगोल के राजाओं को निमन्त्रित करने केलिये भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव चारों दिशाओं में गये थे, यदि वे विदेश-यात्रा में दोष मानते तो कभी न जाते।
पहले आर्यावर्त्तदेशीय लोग व्यापार, राजकार्य और भ्रमण केलिए सब भूगोल में घूमते थे। आजकल जो छूत-छात और धर्मभ्रष्ट होने की शङ्का है वह केवल मूर्खों के बहकाने और अज्ञानता के कारण है। जो मनुष्य देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में आने-जाने में शङ्का नहीं करते वे देश-देशान्तर के अनेकविध मनुष्यों के समागम, रीति-रिवाज देखने अपना राज्य और व्यापार बढाने से निर्भय और शूरवीर होने लगते हैं तथा अच्छे व्यवहार को ग्रहण और बुरी बातों को छोडने में तत्पर होके बडे ऐश्वर्य को प्राप्त होते हैं। भला ! जो महाभ्रष्ट म्लेच्छकुलोत्पन्न वेश्यादि के समागम से आचार-भ्रष्ट एवं धर्महीन नहीं होते, वे देश-देशान्तर के उत्तम पुरुषों के साथ समागम में छूत और दोष मानते हैं। यह मूर्खता की बात नहीं तो और क्या है? हाँ, उनके मांस-भक्षण और मद्यपान आदि दोषों का ग्रहण नहीं करना चाहिए। उनसे व्यवहार और गुणग्रहण करने में कोई भी दोष नहीं है। यदि विदेशियों के स्पर्श और देखने में भी पाप मानेगें तो अवसर पडने पर उनसे युद्ध भी नहीं कर सकते, क्योंकि युद्ध में उनका दर्शन और स्पर्श तो होगा ही।
सज्जन लोगों को राग, द्वेश, अन्याय, मिथ्याभाषण आदि दोषों को छोड निर्वैर, प्रीति, परोपकार, सज्जनता आदि का धारण करना उत्तम आचार है। धर्म हमारे आत्मा और कर्त्तव्य के साथ है। जब हम अच्छे काम करते हैं तो हमें देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर जाने में कुछ भी दोष नहीं लग सकता, दोष तो पाप के काम करने में लगते हैं। हाँ इतना अवश्य चाहिए कि वेदोक्त धर्म का निश्चय और पाखण्ड मत का खण्डन करना अवश्य सीख लें जिससे कोई हमको झूठा निश्चय न करा सके। क्या बिना देश-देशान्तर और द्वीप-द्वीपान्तर में राज्य वा व्यापार किये स्वदेश की उन्नति कभी हो सकती है? जब स्वदेश में स्वदेशी लोग व्यापार करते और परदेशी स्वदेश में आकर व्यापार वा राज्य करें तो बिना दारिद्र्य और दुःख के कुछ नहीं हो सकता।
चौका
विदेश यात्रा के समान ही भोजन खाने की बात है। यदि राजपुरुष युद्ध के समय भी चौका लगाकर रसोई बनाकर खाएँगे तो निश्चय ही पराजित होंगे। क्षत्रिय लोगों केलिए तो एक हाथ से रोटी खाते व जल पीते जाना और दूसरे हाथ से शत्रुओं को, घोडे आदि पर चढ या पैदल होके, मारते जाना, अपना विजय करना ही आचार और पराजित होना अनाचार है। इसी मूढता से ये लोग चौका लगाते-लगाते, विरिध करते-कराते सब स्वातन्त्र्य, आनन्द, धन, राज्य, विद्या और पुरुषार्थ पर चौका लगाकर हाथ-पर-हाथ धरे बैठे हैं और इच्छा करते हैं कि कुछ पदार्थ मिले तो पकाकर खावें। यह तो ठीक है कि जहाँ भोजन करें उस स्थान को धोने, लेपन करने, झाडू लगाने आदि से पवित्र रखा जाए, मुसलमान वा ईसाईयों के समान भ्रष्ट नहीं।
सखरी-निखरी
पाखण्डी लोग जल में पकाई वस्तु को सखरी [कच्चा भोजन] और घी, दूध आदि में पकाई वस्तु को निखरी अर्थात् चौखी [पक्का भोजन] कहते हैं। भोजन के सम्बन्ध में इस प्रकार का भेद पाखण्ड ही है। घी और दूध में पका भोजन स्वादु तथा पौष्टिक होता है और उदर में चिकना पदार्थ अधिक पहुँचता है, इसलिए भोजन भट्टों ने इसप्रकार के कच्चे-पक्के का प्रपञ्च रचा है अन्यथा अग्नि वा काल से पका हुआ पदार्थ पक्का और न पका हुआ कच्चा है।
पाककार्य शूद्र करें
अपने ही हाथ का भोजन खाना भी एक भ्रम है। आर्य लोगों को चाहिए कि शूद्र के हाथ का बनाया भोजन खाया करें। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य-वर्णस्थ स्त्री-पुरुषों को चाहिए कि वे अपने समय को विद्या पढानें, राज्यपालन, पशुपालन, खेती और व्यापार के कार्यों में लगाएँ और शूद्र इनके घर में रोटी पकाएँ। इस विषय में आपस्तम्ब धर्मसूत्र में लिखा है- आर्याधिष्ठाता वा शुद्राः संस्कर्त्तारः स्युः, अर्थात् आर्यों के घर में शूद्र अर्थात् मूर्ख स्त्री-पुरुष पाकादि सेवा करें, परन्तु वे शरीर एवं वस्त्रादि से पवित्र रहें। आठवें दिन उनका नख-छेदन और क्षौर कर्म करा देना चाहिए। वे नित्य स्नान करके भोजन बनाया करें। जो स्वच्छ शूद्र के हाथ का भोजन खाने में पाप समझते हैं उन्हें जानना चाहिए कि जिसने गुड, चीनी, घी, दूध खाये उन्होने जाने जगत् भर के हाथ का बनाया और उच्छिष्ट खा लिया। हाँ, मुसलमान, ईसाई आदि मद्य-मांसहारियों के हाथके खाने में आर्यों को भी मद्य-मांसादि खाना-पीना अपराध पीछे लग पडता है, परन्तु आपस में आर्यों का एक भोजन होने में कोई दोष नहीं दीखता। जब तक एकमत, एक हानि-लाभ, एक सुख-दुःख परस्पर न मानें तब तक उन्नति होना बहुत कठिन है। केवल खाना-पीना एक होने से सुधार नहीं हो सकता। जब तक बुरी बातें नहीं छोडते और अच्छी बातें नहीं करतें तब तक उन्नति के बदले अवनति होती है।
विदेशियों के आर्यावर्त्त में राज्य होने के कारण- आपस की फूट, मतभेद, ब्रह्मचर्य का सेवन न करना, विद्या न पढना-पढाना वा बाल्यावस्था में अस्वयंवर विवाह, विषयासक्ति, मिथ्याभाषणादि-कुलक्षण, वेदविद्या का अप्रचार आदि कुकर्म हैं। जब आपस में भाई-भाई लडते हैं तभी तीसरा विदेशी आकर पञ्च बन बैठता है। महाभारत युद्धा में सभी सवारियों पर खाते-पीते थे। आपस की फूट से कौरव, पाण्डव और यादवों का सत्यानाश हो गया सो तो हो गया, परन्तु अब तक भी वही रोग पीछे लगा है। न जाने ये भयङ्कर राक्षस कभी छूटेगा वा आर्यों को सब सुखों से छुडाकर दुःखसागर में डुबा मारेगा? उसी दुर्योधन, गोत्रहत्यारे, स्वदेश विनाशक, नीच के दुष्ट मार्ग में आर्य लोग अब तक भी चलकर दुःख बढा रहे हैं। परमेश्वर कृपा करे कि यह राजरोग हम आर्यों में से नष्ट हो जाए।
भक्ष्य-अभक्ष्य
भक्ष्य–अभक्ष्य दो प्रकार का होता है- एक धर्मशास्त्रोक्त, दूसरा वैद्यकशास्त्रोक्त, धर्म शास्त्र में कहा है कि द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को मलिन, विष्ठा, मूत्रादि के संसर्ग से उत्पन्न हुए शाक, फल, मूल आदि नहीं खाने चाहिएँ, इसी प्रकार मद्य, मांस, गाँजा, भाङ्ग, अफीम आदि बुद्धि का नाश करनेवाले पदार्थों का सेवन नहीं करना चाहिए। जितने अन्न सडे, बिगडे, दुर्गन्धादि से दूषित, अच्छे प्रकार न बने हुए हों उन्हें और मद्य-मांसाहारियों के हाथ का न खावें।
उपकारी पशुओं की हिंसा का निषेध
एक गाय की एक पीढी में चार लाख पचहत्तर सहस्त्र छह सौ मनुष्यों को सुख पहुँचता है। ऐसे पशुओं को न मारें, न मारने दें। इन महोपकारक पशुओं को मारनेवालों को सब मनुष्यों की हत्या करनेवाला जानना चाहिए। देखो ! जब आर्यों का राज्य था तब ये महोपकारक गाय आदि पशु नहीं मारे जाते थे, तभी आर्यावर्त्त वा अन्य भूगोलस्थ देशों में बडे आनन्द में मनुष्यादि प्राणी वर्त्तते थे, क्योंकि गाय-बैलादि पशुओं की बहुताई होने से दूध, घी, अन्न, रस पुष्प, फलादि प्राप्त होते थे।
मांस
राजपुरुषों का कर्त्तव्य है कि जो हानिकारक पशु वा मनुष्य हों उनको दण्ड देवें और प्राण से भी वियुक्त कर दें। इन मृत्त व्याघ्र, मृग आदि के मांस को चाहे कुत्ते आदि मांसाहारियों को खिला देवें अथवा कोई मांसाहारी खावे तो भी संसार की कुछ हानि नहीं होती, किन्तु उस मनुष्य का स्वभाव मांसाहारी हिंसक हो सकता है, अतः उसे जलाना या फेंकना ही उचित है।
भक्ष्याभक्ष्य के सम्बन्ध में कुछ निर्देश
1- जितना हिंसा, चोरी, विश्वासघात और छल-कपट आदि से पदार्थों को प्राप्त होकर भोग करना है वह अभक्ष्य और अहिंसा, धर्मादि कर्मों से प्राप्त करके भोजनादि करना भक्ष्य है।
2- जिन पदार्थों से स्वास्थ्य-प्राप्ति, रोगनाश, बुद्धि, बल-पराक्रमवृद्धि और आयु वृद्धि होवे उन चावल, गोधूम=गेहूँ, फल, मूल, कन्द, दूध, घी, मिष्ट आदि पदार्थों का सेवन यथायोग्य पाक, मेल करके यथोचित समय पर मिताहार भोजन करना भक्ष्य कहाता है।
3- जितने पदार्थ अपनी प्रकृति से विरुद्ध और विकार करने वाले हैं वे सब अभक्ष्य और जो-जो जिसके लिए विहित हैं उन-उन पदार्थों का ग्रहण करना भक्ष्य है।
एक पात्र में एक-साथ भोजन में दोष
एक ही थाली में एक-साथ भोजन करना ठीक नहीं क्योंकि एक के साथ दूसरे की प्रकृति और स्वभाव नहीं मिलते। कुष्ठी आदि के साथ भोजन करने से अच्छे मनुष्य का रुधिर भी बिगड जाता है। इसलिए- ‘नोच्छिष्टं कस्यचिद् दद्यात्’ न किसी को अपना जूठा पदार्थ देवे और न किसी का जूठा खाए। पति-पत्नी भी एक-दूसरे का जूठा न खाएँ। गुरु आदि का जूठा भी न खाए। गुरोरुच्छिष्टभोजनम्- का भाव केवल इतना ही है कि पहले गुरु को भोजन कराके फिर शिष्य को भोजन करना चाहिए।
शहद और दूध
शहद और दूध को उच्छिष्ट कहना ठीक नहीं। मधुमक्षिका के मुख में उच्छिष्ट करने वाला स्राव नहीं होता। मधु बहुत-सी औषधियों का सार होता है, अतः वह ग्राह्य है। बछडा अपनी माँ के बाहर का दूध पीता है, भीतर के दूध को नहीं पी सकता, अतः वह उच्छिष्ट नहीं। हाँ, बछडे के पीने के पश्चात् थनों को धोकर शुद्ध पात्र में धोना चाहिए।
भोजन का स्थान
चौके में बैठकर ही भोजन करना आवश्यक नहीं है जहाँ पर अच्छा, रमणीय, सुन्दर स्थान दीखे वहाँ भोजन करना चाहिए।
अन्तिम चार समुल्लास
यहाँ आचार-अनाचार, भक्ष्य-अभक्ष्य का विषय समाप्त होता है। आगे चार समुल्लासों में मुख्यतया खण्डन का विषय है। इन समुल्लासों में क्रमशः आर्यावर्त्तीय, जैन-बौद्ध, ईसाई और मुस्लिम मत-मतान्तरों का खण्डन-मण्डन है। अन्त में स्वमन्तव्यामन्तव्य हैं। जो इन चौदह समुल्लासों को पक्षपात छोड, न्यायदृष्टि से देखेगा उसके आत्मा में सत्य अर्थ का प्रकाश होकर आनन्द होगा और जो हठ, दुराग्रह और ईर्ष्या से देखे-सुनेगा उसको इस ग्रन्थ का अभिप्राय यथार्थ विदित होना बहुत कठिन है। विद्वानों का यही काम है कि सत्यासत्य का निर्णय करक्र सत्य का ग्रहण, असत्य का त्याग करके परम आनन्दित होते हैं। गुणग्राहक पुरुष ही विद्वान् होकर धर्म, अर्थ, काम और मोक्षरूप फलों को प्राप्त होकर प्रसन्न रहते हैं।
इति दशमः समुल्लासः सम्पूर्णः ॥10॥
बाल
सत्यार्थप्रकाश
स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
ओ३म्
संस्कृति, पुस्तक, माला
बाल
सत्यार्थप्रकाश
(संसार के महान् मार्गदर्शक ग्रन्थ का संक्षिप्त रूपान्तर)
प्रस्तुतकर्ता
स्वामी जगदीश्वरानन्द सरस्वती
विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द
© गोविन्दराम हासानन्द
प्रकाशक : विजयकुमार गोविन्दराम हासानन्द
4408, नई सड़क, दिल्ली-110 006
दूरभाष : 23977216, 23914945
e-mail: ajayarya16@gmail.com
Website : www.vedicbooks.com
वैदिक-ज्ञान-प्रकाश का गरिमापूर्ण 94वाँ वर्ष (1925-2019)
संस्करण : 2019
मूल्य : ₹40.00
मुद्रक : जयमाया ऑफसैट, दिल्ली
BAAL SATYARTHPRAKASH
by Swami Jagdishwaranand Saraswati
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