विशुद्ध मनुस्मृतिः― प्रथम अध्याय

मानवधर्मशास्त्रम् अथवा विशुद्ध मनुस्मृति


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

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अथ प्रथमोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


[सृष्टि-उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय 

१.५ से १.१४४ (२.२५) तक]


मनुस्मृति के प्रवचन की भूमिका (१.१ से १.४ तक)


महर्षियों का मनु के पास आगमन―


मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः। 

प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन्॥१॥ (१)


महर्षि लोग, एकाग्रतापूर्वक बैठे हुए मनु=स्वायम्भुव मनु के पास आकर, और उनका यथोचित सत्कार करके यह वचन बोले॥१॥ 


महर्षियों का मनु से वर्णाश्रम-धर्मों के विषय में प्रश्न―


भगवन् सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः। 

अन्तरप्रभवानां च धर्मान्नो वक्तुमर्हसि॥२॥ (२)


हे भगवन् ! आप सब वर्णों=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और सभी वर्णों के अन्तर्गत स्थिति वाले आश्रमों=ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के धर्मों-कर्तव्यों को ठीक-ठीक रूप से और क्रमानुसार अर्थात् वर्णों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के क्रम से तथा आश्रमों को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के क्रम से हमें बतलाने में समर्थ=योग्य हैं॥२॥


त्वमेको ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयम्भुवः। 

अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित्प्रभो॥३॥ (३)


क्योंकि वेदज्ञ होने से धर्मोपदेश में समर्थ हे विद्वन् ! इस समस्त जगत् के, जिनका चिन्तन से पार नहीं पाया जा सकता अथवा जिनमें असत्य कुछ भी नहीं है, और जिनमें अपरिमित सत्यविद्याओं का वर्णन है, अनन्त ज्ञान निहित है, उन स्वयम्भू परमात्मा द्वारा रचित विधानरूप वेदों के कार्य=कर्त्तव्यरूप धर्मों या प्रतिपाद्य विषयों के, तत्त्वार्थवित्=यथार्थरूप अथवा उनके रहस्यों को, और वेदार्थों को जाननेवाले वर्तमान में एक आप ही हैं॥३॥ 


मनु का महर्षियों को उत्तर―


स तैः पृष्टस्तथा सम्यगमितोजा महात्मभिः। 

प्रत्युवाचार्च्य तान् सर्वान् महर्षींश्रूयतामिति॥४॥ (४)


उन महर्षि लोगों द्वारा भलीभांति अर्थात् श्रद्धा-सत्कारपूर्वक उपर्युक्त प्रकार से पूछे जाने पर, वह अत्यधिक ज्ञानसम्पन्न महर्षि मनु उन सब महर्षियों का यथाविधि सत्कार करके 'सुनिए' ऐसा उत्तर में बोले ॥४॥ 


जगदुत्पत्ति-विषय (१.५ से १०७, १४४)


उत्पत्ति से पूर्व जगत् की स्थिति―


आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। 

अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः॥५॥ (५)


यह सब दृश्यमान जगत् सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयकाल में तम अर्थात् मूल प्रकृति रूप में एवं अन्धकार से आच्छादित था, स्पष्ट-प्रकट रूप में जाना जाने योग्य कुछ नहीं था, सृष्टि का कोई लक्षण=चिह्न उस समय नहीं था, न कुछ अनुमान करने योग्य था, सब कुछ अज्ञात था, मानो सब ओर, सब कुछ सोया-सा पड़ा था॥५॥ 


जगदुत्पत्ति और उसका क्रम―


ततः स्वयम्भूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम्। 

महाभूतादि वृत्तोजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः॥६॥ (६)


तब सृष्टि-उत्पत्ति के समय अपने कार्यों को करने में स्वयं समर्थ, किसी दूसरे की सहायता की अपेक्षा न रखने वाला स्थूल रूप में प्रकट न होने वाला 'तम' रूप मूल प्रकृति का प्रेरक=उसको प्रकटावस्था की ओर अभिमुख करने वाला अग्नि, वायु आदि महाभूतों को, 'आदि' शब्द से महत् अहङ्कार आदि को भी उत्पन्न करने की महान् शक्ति वाला परमात्मा इस समस्त संसार को प्रकटावस्था में लाते हुए प्रकट हुआ अर्थात् अव्यक्त-सूक्ष्म परमात्मा के अस्तित्व और सक्रियता का प्रकटीकरण जगत् की प्रकटता के रूप में हुआ॥६॥ 


प्रकृति से महान् आदि तत्त्वों की उत्पत्ति―


उद्बबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम्। 

मनसश्चाप्यहङ्कारमभिमन्तारमीश्वरम्॥१४॥ (७)

महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च। 

विषयाणां ग्रहीतॄणि शनैः पञ्चैन्द्रियाणि च॥१५॥ (८)


और फिर उस परमात्मा ने स्वाश्रयस्थित प्रकृति से जो प्रलय में कारणरूप में विद्यमान रहे और विकारी अंश से कार्यरूप में जो अविद्यमान रहे, ऐसे स्वभाव वाले 'महत्' नामक तत्त्व को और महत्तत्त्व से 'मैं हूँ' ऐसा अभिमान करनेवाले सामर्थ्यशाली 'अहंकार' नामक तत्त्व को और फिर उससे सब त्रिगुणात्मक पाँच तन्मात्राओं―शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध को तथा आत्मोपकारक अथवा निरन्तर गमनशील 'मन' इन्द्रिय को और विषयों को ग्रहण करने वाली दोनों वर्गों की इन्द्रियों अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रियों―आँख, नाक, कान, जिह्वा, त्वचा एवं पाँच कर्मेन्द्रियों―हाथ, पैर, वाक्, उपस्थ, पायु को यथाक्रम से उत्पन्न कर प्रकट किया॥१४-१५॥


पञ्चमहाभूतों की सृष्टि का वर्णन―


तेषां त्ववयवान् सूक्ष्मान् षण्णामप्यमितौजसाम्। 

संनिवेश्यात्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे॥१६॥ (९)


ऊपर वर्णन किये गये उन तत्त्वों में से अत्यधिक शक्तिवाले छहों तत्त्वों के सूक्ष्म अवयवों=शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये पाँच तन्मात्राएं तथा छठे अहंकार के सूक्ष्म अवयवों को उनके आत्मभूत तत्त्वों के विकारी अंशों अर्थात् कारणों में मिलाकर सब पाँचों सूक्ष्म महाभूतों―आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी की सृष्टि की॥१६॥ 


सूक्ष्म-शरीर से आत्मा का संयोग―


तदाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मभिः। 

मनश्चावयवैः सूक्ष्मैः सर्वभूतकृदव्ययम्॥१८॥ (१०)


तब जगत् के स्थूल महाभूत आदि तत्त्वों की सृष्टि होने पर अपने-अपने कर्मों के साथ शक्तिशाली सभी सूक्ष्म महाभूत और समस्त सूक्ष्म अवयवों अर्थात् इन्द्रियादि के साथ मन सब भौतिक प्राणि-शरीरों को जन्म=जीवनरूप देने वाले अविनाशी आत्मा को आवेष्टित करते हैं॥१८॥ 


समस्त विनश्वर संसार की उत्पत्ति―


तेषामिदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम्। 

सूक्ष्माभ्यो मूर्तिमात्राभ्यः सम्भवत्यव्ययाद्व्ययम्॥१९॥ (११)


इस प्रकार विनाशरहित परमात्मा से और द्वितीयार्थ में सृष्टि के मूल कारण अविनाशिनी प्रकृति से उन्हीं महाशक्तिशाली सात तत्त्वों―महत्, अहंकार तथा पांच तन्त्राओं के जगत् के पदार्थों का निर्माण करने वाले सूक्ष्म विकारी अंशों से यह दृश्यमान विनाशशील विकाररूप जगत् उत्पन्न होता है॥१९॥ 


पञ्चमहाभूतों के गुणों का कथन―


आद्याद्यस्य गुणं त्वेषामवाप्नोति परः परः। 

यो यो यावतिथश्चैषां स स तावद्गुणः स्मृतः॥२०॥ (१२)


इन पञ्चमहाभूतों में पूर्व-पूर्व के भूतों के गुण को परला-परला अर्थात् उत्तरोत्तर बाद में उत्पन्न होने वाला भूत प्राप्त करता है और जो-जो भूत जिस संख्या पर स्थित है वह-वह उतने ही अधिक गुणों से युक्त माना गया है॥२०॥ 


वेदशब्दों से नामकरण एवं विभाग―


सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक्। 

वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे॥२१॥ (१३)


उस परमात्मा ने सब पदार्थों के नाम और भिन्न-भिन्न कर्म तथा पृथक्-पृथक् विभाग या व्यवस्थाएँ सृष्टि के प्रारम्भ में वेदों के शब्दों से ही बनायीं अर्थात् वेदमन्त्रों के द्वारा यह ज्ञान दिया॥२१॥ 


उपसंहार रूप में समस्त जगत् की उत्पत्ति का वर्णन―


कर्मात्मनां च देवानां सोऽसृजत्प्राणिनां प्रभुः। 

साध्यानां च गणं सूक्ष्मं यज्ञं चैव सनातनम्॥२२॥ (१४)


उस परमात्मा ने कर्म ही स्वभाव है जिनका ऐसे सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवों के मनुष्य, पशुपक्षी आदि सामान्य प्राणियों के और साधक कोटि के विशेष विद्वानों के समुदाय को तथा सृष्टि-उत्पत्ति काल से प्रलय काल तक निरन्तर प्रवाहमान सूक्ष्म संसार अर्थात् महत् अहंकार पञ्चतन्मात्रा आदि सूक्ष्म रूपमय और सूक्ष्मशक्तियों से युक्त संसार को रचा॥२२॥ 


वेदों का आविर्भाव―


अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। 

दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्॥२३॥ (१५)


उस परमात्मा ने जगत् में समस्त धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि व्यवहारों की सिद्धि के लिए अथवा जगत् की सिद्धि अर्थात् जगत् के समस्त रूपों के ज्ञान के लिए अग्नि, वायु और रवि नामक ऋषियों से अर्थात् उनके माध्यम से क्रमश: ऋग्=ज्ञान, यजुः=कर्म, साम=उपासना रूप त्रिविध ज्ञान वाले ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद नामक नित्य वेदों को दुहकर प्रकट किया॥२३॥ 


धर्म-अधर्म, सुख-दुःख आदि का विभाग―


कर्मणां च विवेकार्थं धर्माधर्मौ व्यवेचयत्। 

द्वन्द्वैरयोजयच्चैमाः सुखदुःखादिभिः प्रजाः॥२६॥ (१६)


और फिर कर्मों के विवेचन के लिए धर्म-अधर्म का विभाग किया तथा इन प्रजाओं को सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों से संयुक्त किया॥२६॥ 


सूक्ष्म से स्थूल के क्रम से सृष्टि का वर्णन―


अण्व्यो मात्रा विनाशिन्यो दशार्धानां तु याः स्मृताः। 

ताभिः सार्धमिदं सर्वं सम्भवत्यनुपूर्वशः॥२७॥ (१७)


दश के आधे अर्थात् पांच महाभूतों की ही जो विनाशशील अर्थात् अपने अहंकार कारण में लीन होकर नष्ट होने के स्वभाव वाली सूक्ष्म तन्मात्राएँ कही गई हैं उनके साथ अर्थात् उनको मिलाकर ही यह समस्त संसार क्रमशः―सूक्ष्म से स्थूल, स्थूल से स्थूलतर, स्थूलतर से स्थूलतम के क्रम से उत्पन्न होता है॥२७॥ 


जीवों का कर्मों से संयोग―


यं तु कर्मणि यस्मिन् स न्ययुङ्क्त प्रथमं प्रभुः। 

स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः॥२८॥ (१८)


उस परमात्मा ने सृष्टि के आरम्भ में जिस प्राणी को जिस कर्म में लगाया प्रत्येक सृष्टि-उत्पत्ति समय में वह फिर उत्पन्न होता हुआ अर्थात् जन्म धारण करता हुआ उसी कर्म को ही अपने आप प्राप्त करने लगा॥२८॥ 


हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते। 

यद्यस्य सोऽदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयमाविशत्॥२९॥ (१९)


हिंसा अहिंसा दयायुक्त और कठोरतायुक्त धर्म तथा अधर्म असत्य और सत्य जिस प्राणी का जो कर्म सृष्टि के प्रारम्भ में उस परमात्मा ने धारण कराना था उस को वही कर्म परमात्मा की व्यवस्था से अपने आप ही प्राप्त हो गया॥२९॥ 


यथर्तुलिङ्गान्यर्तवः स्वयमेवर्तुपर्यये। 

स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः॥३०॥ (२०)


जैसे ऋतुएं ऋतु-परिवर्तन होने पर अपने आप ही अपने-अपने ऋतुचिह्नों―जैसे, वसन्त आने पर कुसुम-विकास, आम्रमञ्जरी आदि को प्राप्त करती है उसी प्रकार देहधारी प्राणी भी अपने-अपने कर्मों को प्राप्त करते हैं अर्थात् अपने-अपने कार्यों में संलग्न हो जाते हैं॥३०॥ 


चार वर्णों की व्यवस्था का निर्माण―


लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः। 

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥३१॥ (२१)


प्रजाओं अर्थात् समाज की विशेष वृद्धि=शान्ति, समृद्धि एवं प्रगति के लिए मनुष्यों के मुख, बाहु, जंघा और पैर के गुणों की तुलना के अनुसार क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण को निर्मित किया, अर्थात् सामाजिक चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का निर्धारण किया॥३१॥ 


प्राणियों की उत्पत्ति का प्रकार―


येषां तु यादृशं कर्म भूतानामिह कीर्तितम्। 

तत्तथा वोऽभिधास्यामि क्रमयोगं च जन्मनि॥४२॥ (२२)


इस संसार में जिन मनुष्यों का=वर्णस्थ मनुष्यों का जैसा कर्म वेदों में कहा है उसे वैसे ही और उत्पन्न होने में जीवों की जो एक निश्चित प्रक्रिया रहती है, उसे आप लोगों को कहूँगा॥४२॥ 


जरायुज-जीव―


पशवश्च मृगाश्चैव व्यालाश्चोभयतोदतः। 

रक्षांसि च पिशाचाश्च मनुष्याश्च जरायुजाः॥४३॥ (२३)


ग्राम्यपशु गौ आदि अहिंसक वृत्ति वाले वन्यपशु हिरण आदि और दोनों ओर दांत वाले हिंसक वृत्ति वाले पशु सिंह, व्याघ्र आदि तथा राक्षस पिशाच तथा मनुष्य ये सब 'जरायु' अर्थात् झिल्ली से पैदा होने वाले हैं॥४३॥ 


अण्डज-जीव―


अण्डजाः पक्षिणः सर्पा नक्रा मत्स्याश्च कच्छपाः। 

यानि चैवंप्रकाराणि स्थलजान्यौदकानि च॥४४॥ (२४)


पक्षी सांप मगरमच्छ मछलियाँ तथा कछुए और अन्य जो इस प्रकार के भूमि पर रहने वाले और जल में रहने वाले जीव हैं, वे सब 'अण्डज' अर्थात् अण्डे से उत्पन्न होने वाले हैं॥४४॥ 


स्वेदज-जीव―


स्वेदजं दंशमशकं यूकामक्षिकमत्कुणम्। 

ऊष्मणश्चोपजायन्ते यच्चान्यत्किं चिदीदृशम्॥४५॥ (२५)


डंक से काटने वाले डांस और मच्छर आदि जूँ मक्खियाँ खटमल जो और भी कोई इस प्रकार के जीव हैं, जो ऊष्मा अर्थात् सीलन और गर्मी से पैदा होते हैं, वे सब 'स्वेदज' अर्थात् पसीने या सीलन से उत्पन्न होने वाले कहाते हैं॥४५॥ 


उद्भिज्ज जीव और ओषधियाँ―


उद्भिज्जाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः। 

ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः॥४६॥ (२६)


बीज और शाखा-खण्ड से उत्पन्न होने वाले सब स्थावर जीव वृक्ष आदि 'उद्भिज्ज'― भूमि को फाड़कर उगने वाले कहाते हैं। इनमें— फल आने पर पककर सूख जाने वाले और जिन पर बहुत फूल-फल लगते हैं। वे 'ओषधि' कहलाते हैं ॥ ४६॥ 


वनस्पति तथा वृक्ष―


अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः। 

पुष्पिणः फलिनश्चैव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः॥४७॥ (२७)


जिन पर बिना फूल आये ही फल लगते हैं, वे 'वनस्पतियाँ' कहलाती हैं। और फूल लगकर फल लगने वाले दोनों से युक्त होने के कारण वे उद्भिज स्थावर जीव 'वृक्ष' कहलाते हैं॥४७॥ 


गुल्म, गुच्छ, तृण, प्रतान तथा बेल―


गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः। 

बीजकाण्डरुहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च॥४८॥ (२८)


अनेक प्रकार के जड़ से गुच्छे के रूप में बनने वाले 'झाड़' आदि एक जड़ से अनेक भागों में फूटने वाले 'ईख' आदि उसी प्रकार घास की सब जातियाँ, बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले उगकर फैलने वाली 'दूब' आदि और उगकर किसी का सहारा लेकर चढ़ने वाली बेलें ये सब स्थावर भी 'उद्भिज' कहलाते हैं॥४८॥ 


वृक्षों में अन्तश्चेतना―


तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना। 

अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः॥४९॥ (२९)


पूर्वजन्मों के बुरे कर्मफलों के कारण बहुत प्रकार के अज्ञान आदि तमोगुण से आवेष्टित=घिरे हुए या भूरपूर ये स्थावर जीव सुख और दुःख के भावों से संयुक्त हुए आन्तरिक चेतना वाले होते हैं। अर्थात् इनके भीतर चेतना तो होती है, किन्तु चर प्राणियों के समान बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती। अत्यधिक तमोगुण के कारण चेतना और भावों का प्रकटीकरण नहीं हो पाता है॥४९॥


परमात्मा की जाग्रत एवं सुषुप्ति अवस्थाएँ―


यदा स देवो जागर्ति तदेवं चेष्टते जगत्। 

यदा स्वपिति शान्तात्मा तदा सर्वं निमीलति॥५२॥ (३०)


जब वह परमात्मा जागता है अर्थात् सृष्ट्युत्पत्ति के लिए प्रवृत्त होता है तब यह समस्त संसार चेष्टायुक्त होता है, और जब यह शान्त आत्मा वाला सभी कार्यों से शान्त होकर सोता है अर्थात् सृष्टि-उत्पत्ति, स्थिति के कार्य से निवृत्त हो जाता है तब यह समस्त संसार प्रलय को प्राप्त हो जाता है॥५२॥


परमात्मा की सुषुप्ति अवस्था में जगत् की प्रलयावस्था―


तस्मिन् स्वपिति तु स्वस्थे कर्मात्मानः शरीरिणः। 

स्वपति स्वकर्मभ्यो निवर्तन्ते मनश्च ग्लानिमृच्छति॥५३॥ (३१)


सृष्टि-कर्म से निवृत्त हुए उस परमात्मा के सोने पर कर्मों―श्वास-प्रश्वास, चलना-सोना आदि कर्मों में लगे रहने का स्वभाव है जिनका, ऐसे देहधारी जीव भी अपने-अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं और 'महत्' तत्त्व उदासीनता=सब कार्यव्यापारों से विरत होने की अवस्था को या अपने कारण में लीन होने की अवस्था को प्राप्त करता है॥५३॥


युगपत्तु प्रलीयन्ते यदा तस्मिन् महात्मनि। 

तदाऽयं सर्वभूतात्मा सुखं स्वपिति निर्वृतः॥५४॥ (३२)


उस सर्वव्यापक परमात्मा के आश्रय में जब एक साथ ही सब प्राणी चेष्टाहीन होकर लीन हो जाते हैं तब यह सब प्राणियों का आश्रयस्थान परमात्मा सृष्टि-संचालन के कार्यों से निवृत्त हुआ-हुआ सुखपूर्वक सोता है॥५४॥


एवं स जाग्रत्स्वप्नाभ्यामिदं सर्वं चराचरम्। 

सञ्जीवयति चाजस्रं प्रमापयति चाव्ययः॥५७॥ (३३)


वह अविनाशी परमात्मा इस प्रकार जागने और सोने की अवस्थाओं के द्वारा इस समस्त जड़-चेतन जगत् को क्रमशः प्रलयकाल तक निरन्तर जिलाता है और फिर कारण में लीन करता है अर्थात् प्रलय करता है॥५७॥


निमेष, काष्ठा, कला, मुहूर्त्त और दिन-रात का काल-परिमाण―


निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला। 

त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः॥६४॥ (३४)


दश और आठ मिलाकर अर्थात् अठारह निमेषों की एक काष्ठा होती है उन तीस काष्ठाओं की एक कला होती है तीस कलाओं का मुहूर्त होता है, और उतने ही अर्थात् ३० मुहूर्तों के एक दिन-रात होते हैं॥६४॥


सूर्य द्वारा दिन-रात का विभाग―


अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषदैविके। 

रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः॥६५॥ (३५)


सूर्य मानुष=मनुष्य आदि प्राणियों के और दैवी=देवों के दिन-रातों का विभाग करता है, उनमें मनुष्य आदि प्राणियों के सोने के लिए 'रात' है और कामों के करने के लिए 'दिन' होता है॥६५॥


दैवी दिन-रात उत्तरायण-दक्षिणायन―


दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः। 

अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम्॥६७॥ (३६)


मनुष्यों का एक वर्ष एक दैवी 'दिन-रात' मिलकर होते हैं उन दैवी 'दिनरात' का भी फिर विभाग है― उसमें सूर्य की भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर स्थिति अर्थात् 'उत्तरायण' 'दैवी-दिन' कहलाता है, और 'दक्षिणायन' 'दैवी-रात' है॥६७॥


ब्रह्म के दिन-रात का वर्णन―


ब्राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समासतः। 

एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन्निबोधत॥६८॥ (३७)


ब्राह्म=ब्रह्म के रात-दिन का तथा एक-एक युगों का जो कालपरिमाण है उसे क्रमानुसार और संक्षेप से सुनो॥६८॥


सत्ययुग का परिमाण―


चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्। 

तस्य यावत्शती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः॥६९॥ (३८)


उन दैवी चार हजार दिव्य वर्षों का एक 'सत्ययुग' कहा है। इस सत्ययुग की जितने दिव्य सौ वर्ष की अर्थात् ४०० वर्ष की 'सन्ध्या' होती है और उतने ही वर्षों का अर्थात् ४०० वर्षों का 'सध्यांश' का समय होता है॥६९॥


त्रेता, द्वापर तथा कलियुग का परिणाम―


इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु। 

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥७०॥ (३९)


और शेष अन्य तीन―त्रेता, द्वापर, कलियुगों में 'सन्ध्या' नामक कालों में तथा 'संध्यांश' नामक कालों में क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ घटा देने से उनका अपना-अपना कालपरिमाण निकल आता है, अर्थात् ४८०० दिव्यवर्षों का सत्ययुग होता है, उसकी संख्या में से एक सहस्र वर्ष और उसकी संध्या वर्ष ४०० व संध्यांश वर्ष ४०० में से एक-एक सौ घटाने से ३००० दिव्यवर्ष+३०० संध्यावर्ष+३०० संध्यांशवर्ष-३६०० दिव्यवर्षों का त्रेता युग होता है। इसी प्रकार वेता के कालमान में से द्वापर के कालमान में से १०००+१००+१०० घटाने पर एक हजार और एक सौ वर्ष दिव्यवर्षों का द्वापर और १०००+१००+ १००=१२०० दिव्यवर्षों का कलियुग होता है॥७०॥


देवयुग का परिमाण―


यदेतत्परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम्। 

एतद्द्वादशसाहस्रं देवानां युगमुच्यते॥७१॥ (४०)


जो यह पहले चारों युगों का कालपरिमाण गिनाया है यह बारह हजार दिव्य वर्षों का काल देवताओं का एक 'युग' कहा जाता है॥७१॥


ब्रह्म के दिन-रात का परिमाण―


दैविकानां युगानां तु सहस्रं परिसंख्यया। 

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च॥७२॥ (४१)


देवयुगों को हजार से गुणा करने पर जो काल-परिमाण निकलता है, जैसे―चार मानुषयुगों के दिव्यवर्ष १२००० होते हैं, उनको हजार से गुणा करने पर १,२०,००,००० दिव्यवर्षों का परमात्मा का 'एक दिन' और उतने ही दिव्यवर्षों की उसकी एक 'रात' समझनी चाहिए॥७२॥


तद्वै युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः। 

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः॥७३॥ (४२)


जो लोग उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को और उतने ही युगों की परमात्मा की रात्रि को समझते हैं वे ही वास्तव में दिन-रात=सृष्टि-उत्पत्ति और प्रलय के काल-विज्ञान के वेत्ता लोग हैं॥७३॥


सुषुप्तावस्था से जागने पर सृष्टि-उत्पत्ति का प्रारम्भ―


तस्य सोऽहर्निशस्यान्ते प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते। 

प्रतिबुद्धश्च सृजति मनः सदसदात्मकम्॥७४॥ (४३)


वह प्रलय-अवस्था में सोया हुआ-सा परमात्मा उस दिन-रात के बाद जागता है=सृष्ट्युत्पत्ति में प्रवृत्त होता है और जागकर जो कारणरूप में विद्यमान रहे और जो विकारी अंश से कार्यरूप में अविद्यमान रहे, ऐसे स्वभाव वाले 'महत्' नामक प्रकृति के आद्यकार्यतत्त्व की सृष्टि करता है॥७४॥


सूक्ष्म पञ्चभूतों की उत्पत्ति के क्रम में आकाश की उत्पत्ति―


मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षय ।

आकाशं जायते तस्मात्तस्य शब्दं गुणं विदुः॥७५॥ (४४)


सृष्टि को रचने की इच्छा से फिर वह परमात्मा महत्तत्त्व की सृष्टि को विकारी भाव में लाता है अर्थात् अहंकार के रूप में उत्पन्न करता है फिर उस 'अहंकार' के विकारी अंश से प्रेरित हुआ-हुआ 'आकाश' उत्पन्न होता है। उस आकाश का गुण 'शब्द' को मानते हैं॥७५॥


वायु की उत्पत्ति―


आकाशात्तु विकुर्वाणात्सर्वगन्धवहः शुचिः।

बलवाञ्जायते वायुः स वै स्पर्शगुणो मतः॥७६॥ (४५)


उस आकाश के विकारोत्पादक अंश से सब गन्धों का वहन करने वाला शुद्ध और शक्तिशाली 'वायु' उत्पन्न होता है वह वायु निश्चय से 'स्पर्श' गुणवाला माना गया है॥७६॥


अग्नि की उत्पत्ति―


वायोरपि विकुर्वाणाद्विरोचिष्णुः तमोनुदम्।

ज्योतिरुत्पद्यते भास्वत्तद्रूपगुणमुच्यते॥७७॥ (४६)


उस वायु के भी विकारोत्पादक अंश से उज्ज्वल अन्धकार को नष्ट करने वाली प्रकाशक 'अग्नि' उत्पन्न होती है उसका गुण 'रूप' कहा है॥७७॥


जल और पृथिवी की उत्पत्ति―


ज्योतिषश्च विकुर्वाणादापो रसगुणा स्मृताः। 

अद्भ्यो गन्धगुणा भूमिरित्येषा सृष्टिरादितः ॥७८॥ (४७)


और अग्नि के विकारोत्पादक अंश से 'रस' गुण वाला जल उत्पन्न होता है और जल से 'गन्ध' गुण वाली भूमि उत्पन्न होती है यह इस प्रकार प्रारम्भ से लेकर यहाँ तक वर्णित सृष्टि उत्पन्न होने की प्रक्रिया है ॥७८॥


मन्वन्तर के काल-परिमाण―


यत्प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविकं युगम्।

तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते॥७९॥ (४८)


पहले श्लोकों में जो बारह हजार दिव्यवर्षों का एक 'देवयुग' कहा है उससे इकहत्तर गुणा समय अर्थात् १२०००×७१=८,५२,००० दिव्यवर्षों का अथवा ८,५२,००० दिव्यवर्ष x ३६०=३०,६७,२०,००० मानुष-वर्षों का यहाँ एक 'मन्वन्तर' का कालपरिमाण माना गया है॥७९॥


मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्गः संहार एव च।

क्रीडन्निवैतत्कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः॥८०॥ (४९)


वह सबसे महान् परमात्मा असंख्य 'मन्वन्तरों' को सृष्टि-उत्पत्ति और प्रलय को खेलता हुआ-सा बार-बार करता रहता है॥८०॥


चारों वर्णों के कर्मों का निर्धारण―


सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः। 

मुखबाहूरूपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्॥८७॥ (५०)


इस समस्त संसार की गुप्ति अर्थात् सुरक्षा, व्यवस्था एवं समृद्धि के लिए महातेजस्वी परमात्मा ने मुख, बाहु, जंघा और पैर के गुणों की तुलना से निर्मित वर्णों के अर्थात् क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के पृथक्-पृथक् कर्म वेदों के माध्यम से निर्धारित किये॥८७॥


ब्राह्मण वर्णस्थों के कर्म―


अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥८८॥ (५१)


ब्राह्मण वर्ण को धारण करने वाले मनुष्यों के लिए पढ़ना-पढ़ाना तथा यज्ञ करना-कराना, श्रेष्ठों को और श्रेष्ठ कार्यों में दान देना और लेना, ये छह कर्म निर्धारित किये हैं॥८८॥


क्षत्रिय वर्णस्थों के कर्म―


प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥८९॥ (५२)


प्रजाओं की सभी प्रकार की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना-करवाना, और वेदादि शास्त्रों को पढ़ना तथा विषयों में आसक्त न रहकर जितेन्द्रिय रहना, ये संक्षेप क्षत्रिय वर्ण धारण करने वाले मनुष्यों के कर्त्तव्य हैं॥८९॥


वैश्य वर्णस्थों के कर्म―


पशूनां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥९०॥ (५३)


पशुओं की सब प्रकार से रक्षा करना, श्रेष्ठों को और श्रेष्ठ कार्यों के लिए दान देना यज्ञ करना-करवाना, और वेदादि शास्त्रों को पढ़ना सब प्रकार का उत्तम व्यापार करना, और नियमानुसार ब्याज लेना, और खेती करना-करवाना, ये वैश्यवर्ण को धारण करने वाले व्यक्तियों के कर्त्तव्य हैं॥९०॥


शूद्र वर्णस्थों के कर्म―


एकमेव हि शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥९१॥ (५४)


परमात्मा ने शूद्र वर्ण को धारण करने वाले मनुष्यों का एक ही कर्त्तव्य निर्दिष्ट किया है, वह यह है कि इन्हीं चार वर्णों का ईर्ष्या-निन्दा रहित रहकर सेवा-कार्य करना ॥९१॥


धर्मोत्पत्ति विषय (१.१०८ से ११० तक)


सदाचार परमधर्म―


आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। 

तस्मादस्मिन्त्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः॥१०८॥ (५५)


वेदों और स्मृतियों में भी कहा हुआ जो सदाचरण है वही सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं, इसीलिए आत्मोन्नति चाहने वाले द्विज को चाहिए कि वह इस श्रेष्ठाचरण के पालन में सदा निष्ठापूर्वक प्रयत्नशील रहे॥१०८॥


आचारहीन को वैदिक कर्मों की फलप्राप्ति नहीं―


आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते। 

आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्॥१०९॥ (५६)


जो कोई द्विज सदाचार से रहित है वह वेदादि शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त पुण्य-फल को प्राप्त नहीं कर पाता, और सदाचार से जो युक्त है अर्थात् सदाचारी है वह सम्पूर्ण पुण्य फल को प्राप्त करता है॥१०९॥


सदाचार धर्म का मूल है―


एवमाचारतो दृष्ट्वा धर्मस्य मुनयो गतिम्। 

सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहुः परम्॥११०॥ (५७)


इस प्रकार श्रेष्ठाचरण=धर्माचरण से ही धर्म की प्राप्ति, सिद्धि एवं अभिवृद्धि देखकर मुनियों ने सब तपस्याओं का श्रेष्ठ मूल आधार श्रेष्ठाचरण=धर्माचरण को ही स्वीकार किया है॥११०॥


विद्वानों द्वारा सेवित धर्म का वर्णन-प्रारम्भ―


विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभिः।

हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत॥१२०॥ [२.१] (५८)


राग-द्वेष से रहित सदाचारवान् विद्वानों के द्वारा सदा आचरण में लाया जानेवाला जिसको हृदय अर्थात् आत्मा में धारण करने योग्य माना है अर्थात् जो आत्मानुकूल है उस धर्म को तुम सुनो और मानो॥१२०॥


सकामता-अकामता विवेचन कर्मपालन के विषय में―


कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता।

काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥१२१॥ [२.२] (५९)


इस संसार में अत्यन्त आसक्ति भाव होना श्रेयस्कर नहीं है, किन्तु अत्यन्त निष्काम भाव होना भी श्रेयस्कर नहीं है क्योंकि वेदाध्ययन एवं उससे प्राप्त ज्ञान-विज्ञान और वेदोक्त धर्म-कर्म काम्य हैं और कामनापूर्वक पालन करने योग्य होते हैं॥१२१॥


संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसम्भवाः। 

व्रतानि यमधर्मांश्च सर्वे सङ्कल्पजाः स्मृताः॥१२२॥ [२.३] (६०)


क्योंकि निश्चय से प्रत्येक कामना के मूल में संकल्प=इच्छाशक्ति होती है, सभी प्रकार के यज्ञ संकल्प=इच्छाशक्ति से ही सम्पन्न होते हैं, सत्यभाषण आदि व्रत और यम-नियम आदि धर्माचरण सभी श्रेष्ठ कार्य संकल्प=इच्छाशक्ति से ही सम्पन्न होने वाले माने गये हैं॥१२२॥


अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्। 

यद्यद्धि कुरुते किंचित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम् ॥१२३॥ [२.४] (६१)


क्योंकि इस जीवन और संसार में कभी भी कामनारहित इच्छारहित से कोई क्रिया होती दिखाई नहीं पड़ती, मनुष्य जो-जो कुछ भी क्रिया करता है वह सब कामना से ही किया गया होता है॥१२३॥


तेषु सम्यग्वर्तमानो गच्छत्यमरलोकताम्।

यथा सङ्कल्पितांश्चैव सर्वान्कामान्समश्नुते ॥१२४॥ [२.४] (६२)


उन वेदोक्त यज्ञ, यम-नियम, सत्याचरण आदि कर्मों में अच्छी प्रकार संलग्न रहने वाला व्यक्ति मोक्ष को प्राप्त करता है और संकल्प की गई सभी कामनाओं को, लक्ष्यों को भलीभांति प्राप्त करता है॥१२४॥


धर्म के मूलस्रोत और आधार―


वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। 

आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च॥१२५॥ [२.६] (६३)


सम्पूर्ण वेद और उन वेदों के पारंगत विद्वानों के रचे हुए स्मृतिग्रन्थ अर्थात् वेदानुकूल धर्मशास्त्र और वेदोक्त श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न शील और वेद-शास्त्रोक्त श्रेष्ठसत्याचरण करने वाले पुरुषों का 'सदाचरण' और ऐसे ही श्रेष्ठ-सदाचरण वाले व्यक्तियों की अपनी आत्मा की सन्तुष्टि एवं सात्त्विक ज्ञान एवं गुणयुक्त अनुकूलता अर्थात् जिस काम के करने में आत्मा में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न न हो, अपितु सन्तुष्टि और प्रसन्नता का अनुभव हो, ये चार धर्म के मूलस्रोत=उत्पत्तिस्थान या जानने के आधार हैं॥१२५॥


आत्मानुकूल धर्म का ग्रहण―


सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा।

श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै॥१२७॥ [२.८] (६४)


विद्वान् मनुष्य ज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा पूर्वोक्त वेद, धर्मशास्त्र, सदाचार और आत्मा के अविरुद्ध कार्य इन सब धर्मस्रोतों पर पूर्णतः भलीभांति विचार करके मुख्य प्रमाण वेद को मानते हुए स्वयं के अभीष्ट धर्म को धारण करे अर्थात् जिस धर्म का पालन करना चाहता है उस पर आचरण करे॥१२७॥


श्रुति-स्मृति-प्रोक्त धर्म के अनुष्ठान का फल―


श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः। 

इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्॥१२८॥ [२.९] (६५)


क्योंकि मनुष्य वेद और वेदानुकूल धर्मशास्त्र में कहे हुए धर्म का पालन करके उसके पुण्य के कारण इस संसार में यश को और मृत्यु के पश्चात् परजन्म में सर्वोत्तम सुख को प्राप्त करता है॥१२८॥


श्रुति और स्मृति का परिचय―


श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः। 

ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ ॥१२९॥ [२.१०] (६६)


श्रुति को 'वेद' समझना चाहिए, और धर्मशास्त्र को 'स्मृति' समझना चाहिए ये श्रुति और वेदानुकूल स्मृति शास्त्र सब स्थितियों और सब बातों में कुतर्क द्वारा आलोचनाय नहीं है अर्थात् इनमें प्रतिपादित धर्मों का कुतर्क का सहारा लेकर खण्डन नहीं करना चाहिए, क्योंकि उन दोनों प्रकार के शास्त्रों से धर्म उत्पन्न हुआ है, ये मनुष्यों को धर्म का ज्ञान कराते हैं और धर्मपालन की प्रेरणा देकर धर्म की रक्षा करते हैं॥१२९॥


श्रुति-स्मृति का अपमान करने वाला नास्तिक है―


योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः। 

स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः ॥१३०॥ [२.११] (६७)


जो कोई द्विज मनुष्य वेद और वेदानुकूल स्मृति शास्त्र का तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर कुतर्क से अपमान करे उसको श्रेष्ठ लोग अपनी संगति-सान्निध्य से बाह्य कर दें, क्योंकि जो वेद की निन्दा करता है वही नास्तिक होता है॥१३०॥


धर्म के चार आधाररूप लक्षण―


वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥१३१॥ [२.१२] (६८)


वेद, वेदोक्त स्मृति, वेदानुयायी सत्पुरुष का आचरण और अपने आत्मा के सात्विक ज्ञान-गुण से अविरुद्ध प्रियाचरण ये चार धर्म के ज्ञान या प्रत्यक्ष कराने वाले लक्षण हैं अर्थात् इन्हीं से धर्म का ज्ञान और निश्चय होता है॥१३१॥


धर्मजिज्ञासा में श्रुति परमप्रमाण और धर्मज्ञान के पात्र―


अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। 

धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः॥१३२॥ [२.१३] (६९)


जो पुरुष अर्थ=सुवर्णादि धन, रत्न, सम्पत्ति और काम भावना आदि इन्द्रियों के विषयों में नहीं फंसते हैं उन्हीं को धर्म का वास्तविक ज्ञान होता है जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें, उनके लिए वेद ही सर्वोच्च प्रमाण है अर्थात् मुख्यत: वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें, क्योंकि धर्म-अधर्म का निश्चय बिना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता॥१३२॥


वेदोक्त सब विधान धर्म हैं―


श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ। 

उभावपि हि तौ धर्मों सम्यगुक्तौ मनीषिभिः ॥१३३॥ [२.१४] (७०)


जहाँ कहीं श्रुति=वेद में दो पृथक् धर्मविषयक आदेश विहित हों ऐसे स्थलों पर वे दोनों ही विधान धर्म माने हैं मनीषी विद्वानों ने उन दोनों को ही श्रेष्ठ धर्म स्वीकार किया है॥१३३॥


दो आदेशों का उदाहरण और निष्कर्ष―


उदितेऽनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा। 

सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः॥१३४॥ [२.१५] (७१)


सूर्योदय के समय और सूर्यास्त के समय तथा समय के अतिक्रमण हो जाने पर अर्थात् प्रत्येक समय अथवा किसी भी निर्धारित किये समय में सब स्थितियों में यज्ञ कर लेना चाहिए इस प्रकार ये तीनों ही धर्म हैं, ऐसी वैदिक मान्यता है॥१३४॥


ब्रह्मावर्त्त देश की सीमा―


सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्।

तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते॥१३६॥ [२.१७] (७२)


देव अर्थात् दिव्यगुण और दिव्य आचरण वाले विद्वानों के निवास से युक्त सरस्वती और दृषद्वती नदी-प्रदेशों के जो बीच का स्थान है उस दिव्यगुण एवं आचरण वाले विद्वानों द्वारा बसाये और उनके निवास से सुशोभित देश को 'ब्रह्मावर्त' कहा जाता है॥१३६॥


सदाचार का लक्षण―


तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः।

वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते॥१३७॥ [२.१८] (७३) 


उस ब्रह्मावर्त्त देश में वर्णों और आश्रमों का जो परम्परागत अर्थात् वेदों के प्रारम्भ से लेकर उत्तरोत्तर क्रम से पालित जो वेद शास्त्रोक्त आचार है। वह 'सदाचार' कहलाता है॥१३७॥


सारे संसार के लोग ब्रह्मावर्त के विद्वानों से चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें―


एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। 

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः॥१३९॥ [२.२०] (७४)


इसी ब्रह्मावर्त देश में उत्पन्न हुए ब्राह्मण वर्णस्थ विद्वानों के सान्निध्य में रहकर पृथिवी पर रहने वाले सब मनुष्य अर्थात् बिना किसी देश, वर्ण और लिंग आधारित भेदभाव के और प्रतिबन्ध के सभी स्त्री-पुरुष आचरण, अपने-अपने कर्त्तव्यों और व्यवसायों की शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करें और अभीष्ट विद्याभ्यास करें॥१३९॥


मध्यदेश की सीमा―


हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि।

प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः॥१४०॥ [२.२१] (७५)


हिमालय पर्वत विन्ध्याचल के मध्यवर्ती विनशन प्रदेश पश्चिम में सरस्वती नदी के समुद्र में मिलने के स्थान से लेकर जो प्रयाग तक पूर्वदिशा का प्रदेश है और प्रयाग-प्रदेश के पश्चिम में जो सरस्वती समुद्र संगम तक का प्रदेश है, वह 'मध्यदेश' कहा जाता है॥१४०॥


आर्यावर्त्त देश की सीमा―


आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्। 

तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः॥१४१॥ [२.२२] (७६)


पूर्व समुद्र से लेकर पश्चिम समुद्रपर्यन्त विद्यमान उत्तर में स्थित हिमालय और दक्षिण में स्थित विध्याचल पर्वतों सहित जो मध्यवर्ती देश है, उसे विद्वान् ‘आर्यावर्त' कहते हैं॥१४१॥


वह आर्यावर्त यज्ञिय देश है, उससे परे म्लेच्छ देश―


कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः।

सज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः॥१४२॥ [२.२३] (७७)


और जिस देश में स्वभाविक रूप से कृष्णमृग विचरण करता है वह आर्यावर्त देश यज्ञों से सम्बद्ध, पवित्र, अथवा श्रेष्ठ आचरण वाले व्यक्तियों से युक्त देश है, ऐसा समझना। इस आर्यावर्त से आगे=परे तो म्लेच्छभाषाभाषी=अशुद्ध भाषा बोलने वाले व्यक्तियों अथवा आर्यों की वर्णव्यस्था से अदीक्षित व्यक्तियों के देश हैं॥१४२॥


सृष्टि एवं धर्मोत्पत्ति विषय की समाप्ति और वर्णधर्मों के प्रारम्भ का कथन―


एषा धर्मस्य वो योनिः समासेन प्रकीर्तिता। 

सम्भवश्चास्य सर्वस्य, वर्णधर्मान्निबोधत॥१४४॥ [२.२५] (७८)


यह धर्म की उत्पत्ति और उसका स्रोत और इस समस्त जगत् की उत्पति संक्षेप से आप लोगों को कही, अब पूर्वोक्त वर्णों के धर्मों को विस्तार से सुनो―॥१४४॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाषा-भाष्यसमन्वितायाम्, अनुशीलन-समीक्षा-विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ 'जगदुत्पत्ति-धर्मोत्पत्तिः' नामात्मकः प्रथमोऽध्यायः॥





मानवधर्मशास्त्रम् अथवा विशुद्ध मनुस्मृति


अथ प्रथमोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


[सृष्टि-उत्पत्ति एवं धर्मोत्पत्ति विषय 

१.५ से १.१४४ (२.२५) तक]


मनुस्मृति के प्रवचन की भूमिका (१.१ से १.४ तक)


महर्षियों का मनु के पास आगमन―


मनुमेकाग्रमासीनमभिगम्य महर्षयः। 

प्रतिपूज्य यथान्यायमिदं वचनमब्रुवन्॥१॥ (१)


(महर्षयः) महर्षि लोग, (एकाग्रम्+आसीनम्) एकाग्रतापूर्वक बैठे हुए (मनुम्) मनु=स्वायम्भुव मनु के (अभिगम्य) पास आकर, और उनका (यथान्यायम्) यथोचित (प्रतिपूज्य) सत्कार करके (इदम्) यह (वचनम्) वचन (अब्रुवन्) बोले॥१॥ 


महर्षियों का मनु से वर्णाश्रम-धर्मों के विषय में प्रश्न―


भगवन् सर्ववर्णानां यथावदनुपूर्वशः। 

अन्तरप्रभवानां च धर्मान्नो वक्तुमर्हसि॥२॥ (२)


(भगवन्)  हे भगवन्! आप (सर्ववर्णानाम्) सब वर्णों=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र (च) और (अन्तरप्रभवाणाम्) सभी वर्णों के अन्तर्गत स्थिति वाले आश्रमों=ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के [वर्णानां अन्तरे प्रभवः=उत्पत्तिः, स्थितिः, येषां ते अन्तरप्रभवाः=आश्रमाः] (धर्मान्) धर्मों-कर्तव्यों को (यथावत्) ठीक-ठीक रूप से और (अनुपूर्वशः) क्रमानुसार अर्थात् वर्णों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के क्रम से तथा आश्रमों को ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास के क्रम से (नः) हमें (वक्तुम्) बतलाने में (अर्हसि) समर्थ=योग्य हैं॥२॥ 


त्वमेको ह्यस्य सर्वस्य विधानस्य स्वयम्भुवः। 

अचिन्त्यस्याप्रमेयस्य कार्यतत्त्वार्थवित्प्रभो॥३॥ (३)


(हि) क्योंकि (प्रभो) वेदज्ञ होने से धर्मोपदेश में समर्थ हे विद्वन् ! (अस्य सर्वस्य) इस [१.५―१.१४४ (२.२५) में वर्णित] समस्त जगत् के, (अचिन्त्यस्य) जिनका चिन्तन से पार नहीं पाया जा सकता अथवा जिनमें असत्य कुछ भी नहीं है, और (अप्रमेयस्य) जिनमें अपरिमित सत्यविद्याओं का वर्णन है, अनन्त ज्ञान निहित है, उन (स्वयम्भुवः विधानस्य) स्वयम्भू [१.६] परमात्मा द्वारा रचित [१.२३] विधानरूप वेदों के (कार्य-तत्त्वार्थवित्) कार्य=कर्त्तव्यरूप धर्मों या प्रतिपाद्य विषयों के, तत्त्वार्थवित्=यथार्थरूप अथवा उनके रहस्यों को, और [द्वितीयार्थ में] वेदार्थों को जाननेवाले (एकः त्वम्) वर्तमान में एक आप ही हैं [अर्थात् इस समय धर्मों के विशेषज्ञ विद्वान आप ही दृष्टिगोचर हो रहे हैं, अतः आपके पास ही जिज्ञासा लेकर हम आयें हैं, आप ही उन्हें कहिये]॥३॥ 


मनु का महर्षियों को उत्तर―


स तैः पृष्टस्तथा सम्यगमितोजा महात्मभिः। 

प्रत्युवाचार्च्य तान् सर्वान् महर्षींश्रूयतामिति॥४॥ (४)


(तैः) उन (महात्मभिः) महर्षि लोगों द्वारा (सम्यक्) भलीभांति अर्थात् श्रद्धा-सत्कारपूर्वक (तथा) उपर्युक्त प्रकार से (पृष्टः) पूछे जाने पर, (सः अमितौजाः) वह अत्यधिक ज्ञानसम्पन्न महर्षि मनु (तान् सर्वान् महर्षीन्) उन सब महर्षियों का (अर्च्य) यथाविधि सत्कार करके (श्रूयताम् इति) 'सुनिए' ऐसा (प्रत्युवाच) उत्तर में बोले॥४॥ 


जगदुत्पत्ति-विषय (१.५ से १०७, १४४)


उत्पत्ति से पूर्व जगत् की स्थिति―


आसीदिदं तमोभूतमप्रज्ञातमलक्षणम्। 

अप्रतर्क्यमविज्ञेयं प्रसुप्तमिव सर्वतः॥५॥ (५)


(इदम्) यह सब दृश्यमान जगत् (तमोभूतम्) सृष्टि-उत्पत्ति से पूर्व प्रलयकाल में तम अर्थात् मूल प्रकृति रूप में एवं अन्धकार से आच्छादित था, (अप्रज्ञातम्) स्पष्ट-प्रकट रूप में जाना जाने योग्य कुछ नहीं था, (अलक्षणम्) सृष्टि का कोई लक्षण=चिह्न उस समय नहीं था, (अप्रतर्क्यम्) न कुछ अनुमान करने योग्य था, (अविज्ञेयम्) सब कुछ अज्ञात था, (सर्वतः प्रसुप्तम्-इव) मानो सब ओर, सब कुछ सोया-सा पड़ा था॥५॥ 


जगदुत्पत्ति और उसका क्रम―


ततः स्वयम्भूर्भगवानव्यक्तो व्यञ्जयन्निदम्। 

महाभूतादि वृत्तोजाः प्रादुरासीत्तमोनुदः॥६॥ (६)


(ततः) तब सृष्टि-उत्पत्ति के समय (स्वयम्भूः) अपने कार्यों को करने में स्वयं समर्थ, किसी दूसरे की सहायता की अपेक्षा न रखने वाला (अव्यक्तः) स्थूल रूप में प्रकट न होने वाला (तमोनुदः) 'तम' रूप मूल प्रकृति का प्रेरक=उसको प्रकटावस्था की ओर अभिमुख करने वाला (महाभूतादि वृत्तौजाः) अग्नि, वायु आदि महाभूतों को, 'आदि' शब्द से महत् अहङ्कार आदि को भी (१.१४-१५) उत्पन्न करने की महान् शक्ति वाला (भगवान्) परमात्मा (इदम्) इस समस्त संसार को (व्यञ्जयन्) प्रकटावस्था में लाते हुए (प्रादुरासीत्) प्रकट हुआ अर्थात् अव्यक्त-सूक्ष्म परमात्मा के अस्तित्व और सक्रियता का प्रकटीकरण जगत् की प्रकटता के रूप में हुआ॥६॥ 


प्रकृति से महान् आदि तत्त्वों की उत्पत्ति―


उद्बबर्हात्मनश्चैव मनः सदसदात्मकम्। 

मनसश्चाप्यहङ्कारमभिमन्तारमीश्वरम्॥१४॥ (७)

महान्तमेव चात्मानं सर्वाणि त्रिगुणानि च। 

विषयाणां ग्रहीतॄणि शनैः पञ्चैन्द्रियाणि च॥१५॥ (८)


(च) और फिर उस परमात्मा ने (आत्मनः एव) स्वाश्रयस्थित प्रकृति से (सद्-असद्+आत्मकम्) जो प्रलय में कारणरूप में विद्यमान रहे और विकारी अंश से कार्यरूप में जो अविद्यमान रहे, ऐसे स्वभाव वाले (मनः) 'महत्' नामक तत्त्व को (च) और (मनसः अपि) महत्तत्त्व से (अभिमन्तारम्) 'मैं हूँ' ऐसा अभिमान करनेवाले (ईश्वरम्) सामर्थ्यशाली (अहंकारम्) 'अहंकार' नामक तत्त्व को (च) और फिर उससे (सर्वाणि त्रिगुणानि) सब त्रिगुणात्मक पाँच तन्मात्राओं―शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध को (१.१९, २७) (च) तथा (आत्मानम् एव महान्तम्) आत्मोपकारक अथवा निरन्तर गमनशील 'मन' इन्द्रिय को (च) और (विषयाणां ग्रहीतृणि) विषयों को ग्रहण करने वाली (पञ्चेन्द्रियाणि) दोनों वर्गों की इन्द्रियों अर्थात् पाँच ज्ञानेन्द्रियों―आँख, नाक, कान, जिह्वा, त्वचा एवं पाँच कर्मेन्द्रियों―हाथ, पैर, वाक्, उपस्थ, पायु को (२.६४-६६) (शनैः) यथाक्रम से (उद्बबर्ह) उत्पन्न कर प्रकट किया॥१४-१५॥ 

[शेष उत्पत्ति अगले श्लोक में है] 


पञ्चमहाभूतों की सृष्टि का वर्णन―


तेषां त्ववयवान् सूक्ष्मान् षण्णामप्यमितौजसाम्। 

संनिवेश्यात्ममात्रासु सर्वभूतानि निर्ममे॥१६॥ (९)


(तेषां तु) ऊपर [१४-१५] वर्णन किये गये उन तत्त्वों में से (अमित-औजसाम्) अत्यधिक शक्तिवाले (षण्णाम्+अपि) छहों तत्त्वों के (सूक्ष्मान अवयवान्) सूक्ष्म अवयवों=शब्द, स्पर्श, रूप, रस और गन्ध ये पाँच तन्मात्राएं तथा छठे अहंकार के सूक्ष्म अवयवों को (आत्ममात्रासु) उनके आत्मभूत तत्त्वों के विकारी अंशों अर्थात् कारणों में मिलाकर (सर्वभूतानि) सब पाँचों सूक्ष्म महाभूतों― आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथिवी की (निर्ममे) सृष्टि की॥१६॥ 


सूक्ष्म-शरीर से आत्मा का संयोग―


तदाविशन्ति भूतानि महान्ति सह कर्मभिः। 

मनश्चावयवैः सूक्ष्मैः सर्वभूतकृदव्ययम्॥१८॥ (१०)


(तदा) तब जगत् के स्थूल महाभूत आदि तत्त्वों की सृष्टि होने पर (सह कर्मभिः) अपने-अपने कर्मों के साथ (महान्ति भूतानि) शक्तिशाली सभी सूक्ष्म महाभूत (च) और (सूक्ष्मैः अवयवैः मनः) समस्त सूक्ष्म अवयवों अर्थात् इन्द्रियादि के साथ मन (सर्वभूतकृत्+अव्ययम्) सब भौतिक प्राणि-शरीरों को जन्म=जीवनरूप देने वाले अविनाशी आत्मा को [क्योंकि जीवात्मा के संयोग से ही समस्त शरीरों में जीवन आता है और उसके वियोग से समाप्त हो जाता है] (आविशन्ति) आवेष्टित करते हैं [और इस प्रकार सूक्ष्म शरीर की रचना होती है]॥१८॥ 


समस्त विनश्वर संसार की उत्पत्ति―


तेषामिदं तु सप्तानां पुरुषाणां महौजसाम्। 

सूक्ष्माभ्यो मूर्तिमात्राभ्यः सम्भवत्यव्ययाद्व्ययम्॥१९॥ (११)


इस प्रकार (अव्ययात्) विनाशरहित परमात्मा से और द्वितीयार्थ में सृष्टि के मूल कारण अविनाशिनी प्रकृति से (तेषां तु) उन्हीं (१४-१६, १८ में वर्णित) (महौ-जसाम्) महाशक्तिशाली (सप्तानां पुरुषाणाम्) सात तत्त्वों―महत्, अहंकार तथा पांच तन्त्राओं के (सूक्ष्माभ्यः मूर्तिमात्राभ्यः) जगत् के पदार्थों का निर्माण करने वाले सूक्ष्म विकारी अंशों से (इदम् व्ययम्) यह दृश्यमान विनाशशील विकाररूप जगत् (सम्भवति) उत्पन्न होता है॥१९॥ 


पञ्चमहाभूतों के गुणों का कथन―


आद्याद्यस्य गुणं त्वेषामवाप्नोति परः परः। 

यो यो यावतिथश्चैषां स स तावद्गुणः स्मृतः॥२०॥ (१२)


(एषाम्) इन [१६वें में चर्चित] पञ्चमहाभूतों में (आद्य+आद्यस्य गुणं तु) पूर्व-पूर्व के भूतों के गुण को (परः परः) परला-परला अर्थात् उत्तरोत्तर बाद में उत्पन्न होने वाला भूत प्राप्त करता है (च) और (यः) जो-जो भूत (यावतिथः) जिस संख्या पर स्थित है (सः सः) वह-वह (तावद्गुणः) उतने ही अधिक गुणों से युक्त (स्मृतः) माना गया है॥२०॥ 


वेदशब्दों से नामकरण एवं विभाग―


सर्वेषां तु स नामानि कर्माणि च पृथक्पृथक्। 

वेदशब्देभ्य एवादौ पृथक्संस्थाश्च निर्ममे॥२१॥ (१३)


(सः) उस परमात्मा ने (सर्वेषां तु नामानि) सब पदार्थों के नाम  [यथा―गो-जाति का 'गौ', अश्व-जाति का 'अश्व' आदि] (च) और (पृथक्-पृथक् कर्माणि) भिन्न-भिन्न कर्म [यथा―ब्राह्मण के वेदाध्यापन, याजन; क्षत्रिय का रक्षा करना; वैश्य का कृषि, गोरक्षा, व्यापार आदि (१.८७-९१) अथवा मनुष्य तथा अन्य प्राणियो के अहिंस्त्र-हिंस्त्र आदि कर्म (१.२६-३०)] (च) तथा (पृथक् संस्थाः) पृथक्-पृथक् विभाग [जैसे―प्राणियों में मनुष्य, पशु-पक्षी आदि (१.४२-४९)] या व्यवस्थाएँ [यथा―चार वर्णों की व्यवस्था (१.३१, ८७-९१)] (आदौ) सृष्टि के प्रारम्भ में (वेदशब्देभ्यः एव) वेदों के शब्दों से ही (निर्ममे) बनायीं अर्थात् वेदमन्त्रों के द्वारा यह ज्ञान दिया॥२१॥ 


उपसंहार रूप में समस्त जगत् की उत्पत्ति का वर्णन―


कर्मात्मनां च देवानां सोऽसृजत्प्राणिनां प्रभुः। 

साध्यानां च गणं सूक्ष्मं यज्ञं चैव सनातनम्॥२२॥ (१४)


[इस प्रकार १.५-२० श्लोकों में वर्णित प्रक्रिया के अनुसार] (सः प्रभु) उस परमात्मा ने (कर्मात्मनां च देवानाम्) कर्म ही स्वभाव है जिनका ऐसे सूर्य, अग्नि, वायु आदि देवों के (प्राणिनाम्) मनुष्य, पशुपक्षी आदि सामान्य प्राणियों के (च) और (साध्यानाम्) साधक कोटि के विशेष विद्वानों के (गणम्) समुदाय को [१.२३ में वर्णित] (च) तथा (सनातनं सूक्ष्मं यज्ञम् एव) सृष्टि-उत्पत्ति काल से प्रलय काल तक निरन्तर प्रवाहमान सूक्ष्म संसार अर्थात् महत् अहंकार पञ्चतन्मात्रा आदि सूक्ष्म रूपमय और सूक्ष्मशक्तियों से युक्त संसार को (असृजत्) रचा॥२२॥ 


वेदों का आविर्भाव―


अग्निवायुरविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। 

दुदोह यज्ञसिद्ध्यर्थमृग्यजुःसामलक्षणम्॥२३॥ (१५)


उस परमात्मा ने (यज्ञसिद्धयर्थम्) जगत् में समस्त धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष आदि व्यवहारों की सिद्धि के लिए अथवा जगत् की सिद्धि अर्थात् जगत् के समस्त रूपों के ज्ञान के लिए [यज्ञे जगति प्राप्तव्या सिद्धिः यज्ञसिद्धिः, अथवा यज्ञस्य सिद्धिः यज्ञसिद्धिः] (अग्निः-वायु-रविभ्यः तु) अग्नि, वायु और रवि नामक ऋषियों से अर्थात् उनके माध्यम से क्रमशः (ऋग्यजुः सामलक्षणं त्रयं सनातनं ब्रह्म) ऋग्=ज्ञान, यजुः=कर्म, साम=उपासना रूप त्रिविध ज्ञान वाले ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद नामक नित्य वेदों को (दुदोह) दुहकर प्रकट किया॥२३॥ 


धर्म-अधर्म, सुख-दुःख आदि का विभाग―


कर्मणां च विवेकार्थं धर्माधर्मौ व्यवेचयत्। 

द्वन्द्वैरयोजयच्चैमाः सुखदुःखादिभिः प्रजाः॥२६॥ (१६)


(च) और फिर (कर्मणां विवेकार्थम्) कर्मों के विवेचन के लिए (धर्म-अधर्मों) धर्म-अधर्म का (व्यवेचयत्) विभाग किया (च) तथा (इमाः प्रजाः) इन प्रजाओं को (सुखदःखादिभिः द्वन्द्वैः) सुख-दुःख आदि द्वन्द्वों [=दो विरोधी गुणों या अवस्थाओं के जोड़ों] से (अयोजयत्) संयुक्त किया॥२६॥ 


सूक्ष्म से स्थूल के क्रम से सृष्टि का वर्णन―


अण्व्यो मात्रा विनाशिन्यो दशार्धानां तु याः स्मृताः। 

ताभिः सार्धमिदं सर्वं सम्भवत्यनुपूर्वशः॥२७॥ (१७)


(दशार्धानां तु) दश के आधे अर्थात् पांच महाभूतों की ही (याः) जो (विनाशिन्यः) विनाशशील अर्थात् अपने अहंकार कारण में लीन होकर नष्ट होने के स्वभाव वाली (अण्व्यः मात्राः स्मृताः) सूक्ष्म तन्मात्राएँ कही गई हैं (ताभिः) उनके (सार्धम्) साथ अर्थात् उनको मिलाकर ही (इदं सर्वम्) यह समस्त संसार (अनुपूर्वशः) क्रमशः―सूक्ष्म से स्थूल, स्थूल से स्थूलतर, स्थूलतर से स्थूलतम के क्रम से (सम्भवति) उत्पन्न होता है॥२७॥ 


जीवों का कर्मों से संयोग―


यं तु कर्मणि यस्मिन् स न्ययुङ्क्त प्रथमं प्रभुः। 

स तदेव स्वयं भेजे सृज्यमानः पुनः पुनः॥२८॥ (१८)


(सः प्रभुः) उस परमात्मा ने (प्रथमम्) सृष्टि के आरम्भ में (यं तु) जिस प्राणी को (यस्मिन् कर्मणि) जिस कर्म में (न्ययुङ्क्त) लगाया (पुनः पुनः) प्रत्येक सृष्टि-उत्पत्ति समय में [१.८०] (सः) वह फिर (सृज्यमानः) उत्पन्न होता हुआ अर्थात् जन्म धारण करता हुआ (तदेव) उसी कर्म को ही (स्वयम्) अपने आप (भेजे) प्राप्त करने लगा॥२८॥  


हिंस्राहिंस्रे मृदुक्रूरे धर्माधर्मावृतानृते। 

यद्यस्य सोऽदधात्सर्गे तत्तस्य स्वयमाविशत्॥२९॥ (१९)


(हिंस्त्र+अहिंस्त्रे) हिंसा [सिंह, व्याघ्र आदि का] अहिंसा [मृग आदि का] (मृदु-क्रूरे) दयायुक्त और कठोरतायुक्त (धर्म+अधर्मौं) धर्म तथा अधर्म (अनृत-ऋते) असत्य और सत्य (यस्य) जिस प्राणी का (यत्) जो कर्म (सर्गे) सृष्टि के प्रारम्भ में (सः अदधात्) उस परमात्मा ने धारण कराना था (तस्य तत्) उस को वही कर्म (स्वयम्) परमात्मा की व्यवस्था से अपने आप ही (आविशत्) प्राप्त हो गया॥२९॥ 


यथर्तुलिङ्गान्यर्तवः स्वयमेवर्तुपर्यये। 

स्वानि स्वान्यभिपद्यन्ते तथा कर्माणि देहिनः॥३०॥ (२०)


(यथा) जैसे (ऋतवः) ऋतुएं (ऋतुपर्यये) ऋतु-परिवर्तन होने पर (स्वयम्+एव) अपने आप ही (ऋतुलिंगानि) अपने-अपने ऋतुचिह्नों―जैसे, वसन्त आने पर कुसुम-विकास, आम्रमञ्जरी आदि को (अभिपद्यन्ते) प्राप्त करती है (तथा) उसी प्रकार (देहिनः) देहधारी प्राणी भी (स्वानि स्वानि कर्माणि) अपने-अपने कर्मों को प्राप्त करते हैं अर्थात् अपने-अपने कार्यों में संलग्न हो जाते हैं॥३०॥


चार वर्णों की व्यवस्था का निर्माण―


लोकानां तु विवृद्ध्यर्थं मुखबाहूरुपादतः। 

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं शूद्रं च निरवर्तयत्॥३१॥ (२१)


[फिर उस परमात्मा ने] (लोकानां तु) प्रजाओं अर्थात् समाज की (विवृद्ध्यर्थम्) विशेष वृद्धि=शान्ति, समृद्धि एवं प्रगति के लिए (मुखबाहु-ऊरूपादतः) मनुष्यों के मुख, बाहु, जंघा और पैर के गुणों की तुलना के अनुसार क्रमशः (ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं च शूद्रम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण को (निरवर्तयत्) निर्मित किया, अर्थात् सामाजिक चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था का निर्धारण किया॥३१॥ 


प्राणियों की उत्पत्ति का प्रकार―


येषां तु यादृशं कर्म भूतानामिह कीर्तितम्। 

तत्तथा वोऽभिधास्यामि क्रमयोगं च जन्मनि॥४२॥ (२२)


(इह) इस संसार में (येषां भूतानाम्) जिन मनुष्यों का=वर्णस्थ मनुष्यों का (यादृशं कर्म) जैसा कर्म (कीर्तितम्) वेदों में कहा है (तत्) उसे (तथा) वैसे ही (१.८७-९१) (च) और (जन्मनि) उत्पन्न होने में (क्रमयोगम्) जीवों की जो एक निश्चित प्रक्रिया रहती है, उसे (वः) आप लोगों को (अभिधास्यामि) कहूँगा॥४२॥ 


जरायुज-जीव―


पशवश्च मृगाश्चैव व्यालाश्चोभयतोदतः। 

रक्षांसि च पिशाचाश्च मनुष्याश्च जरायुजाः॥४३॥ (२३)


(पशवः) ग्राम्यपशु गौ आदि (मृगाः) अहिंसक वृत्ति वाले वन्यपशु हिरण आदि (च) और (उभयोदतः व्यालाः) दोनों ओर दांत वाले हिंसक वृत्ति वाले पशु सिंह, व्याघ्र आदि (च) तथा (रक्षांसि) राक्षस (पिशाचाः) पिशाच (च) तथा (मनुष्याः) मनुष्य (जरायुजाः) ये सब 'जरायु' अर्थात् झिल्ली से पैदा होने वाले हैं॥४३॥ 


अण्डज-जीव―


अण्डजाः पक्षिणः सर्पा नक्रा मत्स्याश्च कच्छपाः। 

यानि चैवंप्रकाराणि स्थलजान्यौदकानि च॥४४॥ (२४)


(पक्षिणः) पक्षी (सर्पाः) सांप (नक्राः) मगरमच्छ (मत्स्याः) मछलियाँ (च) तथा (कच्छपाः) कछुए (च) और (यानि) अन्य जो (एवं प्रकाराणि) इस प्रकार के (स्थलजानि) भूमि पर रहने वाले (च) और (औदकानि) जल में रहने वाले जीव हैं, वे सब (अण्डजाः) 'अण्डज' अर्थात् अण्डे से उत्पन्न होने वाले हैं ॥४४॥ 


स्वेदज-जीव―


स्वेदजं दंशमशकं यूकामक्षिकमत्कुणम्। 

ऊष्मणश्चोपजायन्ते यच्चान्यत्किं चिदीदृशम्॥४५॥ (२५)


(दंशमशकम्) डंक से काटने वाले डांस और मच्छर आदि (यूका) जूँ (मक्षिक) मक्खियाँ (मत्कुणम्) खटमल (यत् च अन्यत् किञ्चित् ईदृशम्) जो और भी कोई इस प्रकार के जीव हैं, जो (ऊष्मणः) ऊष्मा अर्थात् सीलन और गर्मी से (उपजायन्ते) पैदा होते हैं, वे सब (स्वेदजम्) 'स्वेदज' अर्थात् पसीने या सीलन से उत्पन्न होने वाले कहाते हैं॥४५॥ 


उद्भिज्ज जीव और ओषधियाँ―


उद्भिज्जाः स्थावराः सर्वे बीजकाण्डप्ररोहिणः। 

ओषध्यः फलपाकान्ता बहुपुष्पफलोपगाः॥४६॥ (२६)


(बीजकाण्डप्ररोहिणः) बीज और शाखा-खण्ड से उत्पन्न होने वाले (सर्वेस्थावराः) सब स्थावर जीव [एक स्थान पर टिके रहने वाले] वृक्ष आदि (उद्भिज्जाः) 'उद्भिज्ज'― भूमि को फाड़कर उगने वाले कहाते हैं। इनमें— (फलपाकान्ताः) फल आने पर पककर सूख जाने वाले और (बहुपुष्पफलोपगाः) जिन पर बहुत फूल-फल लगते हैं। (ओषध्यः) वे 'ओषधि' कहलाते हैं॥४६॥ 


वनस्पति तथा वृक्ष―


अपुष्पाः फलवन्तो ये ते वनस्पतयः स्मृताः। 

पुष्पिणः फलिनश्चैव वृक्षास्तूभयतः स्मृताः॥४७॥ (२७)


(ये अपुष्पाः फलवन्तः) जिन पर बिना फूल आये ही फल लगते हैं, (ते) वे (वनस्पतयः स्मृताः) 'वनस्पतियाँ' कहलाती हैं। [जैसे―बड़=वट, पीपल, गूलर आदि] (च) और (पुष्पिणः फलिनः एव) फूल लगकर फल लगने वाले (उभयतः) दोनों से युक्त होने के कारण (वृक्षाः) वे उद्भिज स्थावर जीव 'वृक्ष' कहलाते हैं॥४७॥ 


गुल्म, गुच्छ, तृण, प्रतान तथा बेल―


गुच्छगुल्मं तु विविधं तथैव तृणजातयः। 

बीजकाण्डरुहाण्येव प्रताना वल्ल्य एव च॥४८॥ (२८)


(विविधम्) अनेक प्रकार के (गुच्छ) जड़ से गुच्छे के रूप में बनने वाले 'झाड़' आदि (गुल्मम्) एक जड़ से अनेक भागों में फूटने वाले 'ईख' आदि (तथैव) उसी प्रकार (तृणजातयः) घास की सब जातियाँ, (बीजकाण्डरुहाणि) बीज और शाखा से उत्पन्न होने वाले (प्रतानाः) उगकर फैलने वाली 'दूब' आदि (च) और (वल्ल्यः) उगकर किसी का सहारा लेकर चढ़ने वाली बेलें (एव) ये सब स्थावर भी 'उद्भिज' कहलाते हैं॥४८॥ 


वृक्षों में अन्तश्चेतना―


तमसा बहुरूपेण वेष्टिताः कर्महेतुना। 

अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुखदुःखसमन्विताः॥४९॥ (२९)


(कर्महेतुना) पूर्वजन्मों के बुरे कर्मफलों के कारण (बहुरूपेण तमसा) बहुत प्रकार के अज्ञान आदि तमोगुण से (वेष्टिताः) आवेष्टित=घिरे हुए या भूरपूर (एते) ये स्थावर जीव (४६-४८) (सुख-दुःखसमन्विताः) सुख और दुःख के भावों से संयुक्त हुए (अन्तःसंज्ञाः भवन्ति) आन्तरिक चेतना वाले होते हैं। अर्थात् इनके भीतर चेतना तो होती है, किन्तु चर प्राणियों के समान बाहरी क्रियाओं में प्रकट नहीं होती। अत्यधिक तमोगुण के कारण चेतना और भावों का प्रकटीकरण नहीं हो पाता है॥४९॥


परमात्मा की जाग्रत एवं सुषुप्ति अवस्थाएँ―


यदा स देवो जागर्ति तदेवं चेष्टते जगत्। 

यदा स्वपिति शान्तात्मा तदा सर्वं निमीलति॥५२॥ (३०)


(यदा) जब (सः देवः) वह परमात्मा [१.६ में वर्णित] (जागर्ति) जागता है अर्थात् सृष्ट्युत्पत्ति के लिए प्रवृत्त होता है (तदा) तब (इदं जगत् चेष्टते) यह [ १.४२-४९ में वर्णित] समस्त संसार चेष्टायुक्त [प्रकृति से समस्त विकृतियों की उत्पत्ति पुनः प्राणियों का श्वास-प्रश्वास चलना आदि चेष्टाओं से युक्त] होता है, (यदा) और जब (शान्तात्मा) यह शान्त आत्मा वाला सभी कार्यों से शान्त होकर (स्वपिति) सोता है अर्थात् सृष्टि-उत्पत्ति, स्थिति के कार्य से निवृत्त हो जाता है (तदा) तब (सर्वम्) यह समस्त संसार (निमीलति) प्रलय को प्राप्त हो जाता है॥५२॥


परमात्मा की सुषुप्ति अवस्था में जगत् की प्रलयावस्था―


तस्मिन् स्वपिति तु स्वस्थे कर्मात्मानः शरीरिणः। 

स्वपति स्वकर्मभ्यो निवर्तन्ते मनश्च ग्लानिमृच्छति॥५३॥ (३१)


(सुस्थे) सृष्टि-कर्म से निवृत्त हुए (तस्मिन् स्वपिति तु) उस परमात्मा के सोने पर (कर्मात्मानः) कर्मों―श्वास-प्रश्वास, चलना-सोना आदि कर्मों में लगे रहने का स्वभाव है जिनका, ऐसे (शरीरिणः) देहधारी जीव भी (स्वकर्मभ्यः, निवर्तन्ते) अपने-अपने कर्मों से निवृत्त हो जाते हैं (च) और (मनः) 'महत्' तत्त्व (ग्लानिम्) उदासीनता=सब कार्यव्यापारों से विरत होने की अवस्था को या अपने कारण में लीन होने की अवस्था को (ऋच्छति) प्राप्त करता है॥५३॥


युगपत्तु प्रलीयन्ते यदा तस्मिन् महात्मनि। 

तदाऽयं सर्वभूतात्मा सुखं स्वपिति निर्वृतः॥५४॥ (३२)


(तस्मिन् महात्मनि) उस सर्वव्यापक परमात्मा के आश्रय में (यदा) जब (युगपत् तु प्रलीयन्ते) एक साथ ही सब प्राणी चेष्टाहीन होकर लीन हो जाते हैं (तदा) तब (अयं सर्वभूतात्मा) यह सब प्राणियों का आश्रयस्थान परमात्मा (निर्वृतः) सृष्टि-संचालन के कार्यों से निवृत्त हुआ-हुआ (सुखं स्वपिति) सुखपूर्वक सोता है॥५४॥


एवं स जाग्रत्स्वप्नाभ्यामिदं सर्वं चराचरम्। 

सञ्जीवयति चाजस्रं प्रमापयति चाव्ययः॥५७॥ (३३)


(सः अव्ययः) वह अविनाशी परमात्मा (एवम्) इस प्रकार [५१-५४ के अनुसार] (जाग्रत्स्वप्नाभ्याम्) जागने और सोने की अवस्थाओं के द्वारा (इदं सर्वं चर-अचरम्) इस समस्त जड़-चेतन जगत् को क्रमशः (अजस्त्रं सञ्जीवयति) प्रलयकाल तक निरन्तर जिलाता है (च) और फिर (प्रमापयति) कारण में लीन करता है अर्थात् प्रलय करता है॥५७॥


निमेष, काष्ठा, कला, मुहूर्त्त और दिन-रात का काल-परिमाण―


निमेषा दश चाष्टौ च काष्ठा त्रिंशत्तु ताः कला। 

त्रिंशत्कला मुहूर्तः स्यादहोरात्रं तु तावतः॥६४॥ (३४)


(दश च अष्टौ च) दश और आठ मिलाकर अर्थात् अठारह (निमेषाः) निमेषों [=पलक झपकने का समय] की (काष्ठा) एक काष्ठा होती है (ताः त्रिंशत्तु) उन तीस काष्ठाओं की (कला) एक कला होती है (त्रिंशत्कलाः) तीस कलाओं का (मुहूर्त्तः स्यात्) मुहूर्त्त [४८ मिनिट का] होता है, और (तावतः तु) उतने ही अर्थात् ३० मुहूर्तों के (अहोरात्रम्) एक दिन-रात होते हैं॥६४॥


सूर्य द्वारा दिन-रात का विभाग―


अहोरात्रे विभजते सूर्यो मानुषदैविके। 

रात्रिः स्वप्नाय भूतानां चेष्टायै कर्मणामहः॥६५॥ (३५)


(सूर्यः) सूर्य (मानुष-दैविके) मानुष=मनुष्य आदि प्राणियों के और दैवी=देवों के (अहोरात्रे) दिन-रातों का (विभजते) विभाग करता है, उनमें (भूतानां स्वप्नाय रात्रिः) मनुष्य आदि प्राणियों के सोने के लिए 'रात' है और (कर्मणां चेष्टायै अहः) कामों के करने के लिए 'दिन' होता है॥६५॥


दैवी दिन-रात उत्तरायण-दक्षिणायन―


दैवे रात्र्यहनी वर्षं प्रविभागस्तयोः पुनः। 

अहस्तत्रोदगयनं रात्रिः स्याद्दक्षिणायनम्॥६७॥ (३६)


(वर्षम्) मनुष्यों का एक वर्ष (दैवे रात्रि-अहनी) एक दैवी 'दिन-रात' मिलकर होते हैं (तयोः पुनः प्रविभागः) उन दैवी 'दिनरात' का भी फिर विभाग है― (तत्र+उदगयनम् अहः) उसमें सूर्य की भूमध्य रेखा से उत्तर की ओर स्थिति अर्थात् 'उत्तरायण' 'दैवी-दिन' कहलाता है, और 'दक्षिणायन' 'दैवी-रात' है॥६७॥


ब्रह्म के दिन-रात का वर्णन―


ब्राह्मस्य तु क्षपाहस्य यत्प्रमाणं समासतः। 

एकैकशो युगानां तु क्रमशस्तन्निबोधत॥६८॥ (३७)


[मनु महर्षियों से कहते हैं कि] (ब्राह्मस्य तु क्षपा+अहस्य) ब्राह्म=ब्रह्म के रात-दिन का (तु) तथा (एकैकशः युगानाम्) एक-एक युगों का (यत् प्रमाणम्) जो कालपरिमाण है (तत्) उसे (क्रमशः) क्रमानुसार और (समासतः) संक्षेप से (निबोधत) सुनो॥६८॥


सत्ययुग का परिमाण―


चत्वार्याहुः सहस्राणि वर्षाणां तत्कृतं युगम्। 

तस्य यावत्शती सन्ध्या सन्ध्यांशश्च तथाविधः॥६९॥ (३८)


(तत् चत्वारि सहस्राणि वर्षाणां कृतं युगम् आहुः) उन दैवी [६७वें श्लोक में जिनके दिन-रातों का वर्णन है] चार हजार दिव्य वर्षों का एक 'सत्ययुग' कहा है। (तस्य) इस सत्ययुग की (यावत्+शती सन्ध्या) जितने दिव्य सौ वर्ष की अर्थात् ४०० वर्ष की 'सन्ध्या' होती है और (तथाविधः) उतने ही वर्षों का अर्थात् ४०० वर्षों का (सन्ध्यांशः) 'सध्यांश' का समय होता है॥६९॥


त्रेता, द्वापर तथा कलियुग का परिणाम―


इतरेषु ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु च त्रिषु। 

एकापायेन वर्त्तन्ते सहस्राणि शतानि च॥७०॥ (३९)


(च) और (इतरेषु त्रिषु) शेष अन्य तीन―त्रेता, द्वापर, कलियुगों में (ससन्ध्येषु ससन्ध्यांशेषु) 'सन्ध्या' नामक कालों में तथा 'संध्यांश' नामक कालों में (सहस्राणि च शतानि एक-अपायेन) क्रमशः एक-एक हजार और एक-एक सौ घटा देने से (वर्तन्ते) उनका अपना-अपना कालपरिमाण निकल आता है, अर्थात् ४८०० दिव्यवर्षों का सत्ययुग होता है, उसकी संख्या में से एक सहस्र वर्ष और उसकी संध्या वर्ष ४०० व संध्यांश वर्ष ४०० में से एक-एक सौ घटाने से ३००० दिव्यवर्ष+३०० संध्यावर्ष+३०० संध्यांशवर्ष-३६०० दिव्यवर्षों का त्रेता युग होता है। इसी प्रकार वेता के कालमान में से द्वापर के कालमान में से १०००+१००+१०० घटाने पर एक हजार और एक सौ वर्ष दिव्यवर्षों का द्वापर और १०००+१००+ १००=१२०० दिव्यवर्षों का कलियुग होता है॥७०॥


देवयुग का परिमाण―


यदेतत्परिसंख्यातमादावेव चतुर्युगम्। 

एतद्द्वादशसाहस्रं देवानां युगमुच्यते॥७१॥ (४०)


(यद्+एतत्) जो यह (आदौ) पहले [६९-७० में] (चतुर्युगम्) चारों युगों का (परिसंख्यातम्) कालपरिमाण गिनाया है (एतद्) यह (द्वादशसाहस्रम्) बारह हजार दिव्य वर्षों का काल [=मनुष्यों का एक चतुर्युगी का काल] (देवानाम्) देवताओं का (युगम्) एक 'युग' (उच्यते) कहा जाता है॥७१॥


ब्रह्म के दिन-रात का परिमाण―


दैविकानां युगानां तु सहस्रं परिसंख्यया। 

ब्राह्ममेकमहर्ज्ञेयं तावतीं रात्रिमेव च॥७२॥ (४१)


(दैविकानां युगानाम् तु) देवयुगों को (सहस्त्रं परिसंख्यया) हजार से गुणा करने पर जो काल-परिमाण निकलता है, जैसे–चार मानुषयुगों के दिव्यवर्ष १२००० होते हैं, उनको हजार से गुणा करने पर १,२०,००,००० दिव्यवर्षों का (ब्राह्मम्) परमात्मा का (एकं अहः) 'एक दिन' (च) और (तावतीं रात्रिम्) उतने ही दिव्यवर्षों की उसकी एक 'रात' (ज्ञेयम्) समझनी चाहिए॥७२॥


तद्वै युगसहस्रान्तं ब्राह्मं पुण्यमहर्विदुः। 

रात्रिं च तावतीमेव तेऽहोरात्रविदो जनाः॥७३॥ (४२)


जो लोग (तत् युगसहस्त्रान्तं ब्राह्मं पुण्यम्+अहः) उस एक हजार दिव्य युगों के परमात्मा के पवित्र दिन को (च) और (तावतीम् एव रात्रिम्) उतने ही युगों की परमात्मा की रात्रि को (विदुः) समझते हैं (ते वै) वे ही (अहोरात्रविदः जनाः) वास्तव में दिन-रात=सृष्टि-उत्पत्ति और प्रलय के काल-विज्ञान के वेत्ता लोग हैं॥७३॥


सुषुप्तावस्था से जागने पर सृष्टि-उत्पत्ति का प्रारम्भ―


तस्य सोऽहर्निशस्यान्ते प्रसुप्तः प्रतिबुध्यते। 

प्रतिबुद्धश्च सृजति मनः सदसदात्मकम्॥७४॥ (४३)


(सः प्रसुप्तः) वह प्रलय-अवस्था में सोया हुआ-सा [१.५२-५७] परमात्मा (तस्य अहर्निशस्य+अन्ते) उस [१.६८-७२] दिन-रात के बाद (प्रतिबुध्यते) जागता है=सृष्ट्युत्पत्ति में प्रवृत्त होता है (च) और (प्रतिबुद्धः) जागकर (सद्-असद्+आत्मकम्) जो कारणरूप में विद्यमान रहे और जो विकारी अंश से कार्यरूप में अविद्यमान रहे, ऐसे स्वभाव वाले (मनः) 'महत्' नामक प्रकृति के आद्यकार्यतत्त्व की (सृजति) सृष्टि करता है॥७४॥


सूक्ष्म पञ्चभूतों की उत्पत्ति के क्रम में आकाश की उत्पत्ति―


मनः सृष्टिं विकुरुते चोद्यमानं सिसृक्षय।

आकाशं जायते तस्मात्तस्य शब्दं गुणं विदुः॥७५॥ (४४)


(सिसृक्षया) सृष्टि को रचने की इच्छा से फिर वह परमात्मा (मनः सृष्टिं विकुरुते) महत्तत्त्व की सृष्टि को विकारी भाव में लाता है अर्थात् अहंकार के रूप में उत्पन्न करता है (तस्मात्) फिर उस 'अहंकार' के विकारी अंश से (चोद्यमानम्) प्रेरित हुआ-हुआ (आकाशं जायते) 'आकाश' उत्पन्न होता है। (तस्य) उस आकाश का (गुणं शब्दं विदुः) गुण 'शब्द' को मानते हैं॥७५॥


वायु की उत्पत्ति―


आकाशात्तु विकुर्वाणात्सर्वगन्धवहः शुचिः।

बलवाञ्जायते वायुः स वै स्पर्शगुणो मतः॥७६॥ (४५)


(आकाशात् तु विकुर्वाणात्) उस आकाश के विकारोत्पादक अंश से (सर्वगन्धवहः) सब गन्धों का वहन करने वाला (शुचिः) शुद्ध और (बलवान्) शक्तिशाली (वायुः) 'वायु' (जायते) उत्पन्न होता है (सः वै) वह वायु निश्चय से (स्पर्शगुणः) 'स्पर्श' गुणवाला (मतः) माना गया है॥७६॥


अग्नि की उत्पत्ति―


वायोरपि विकुर्वाणाद्विरोचिष्णुः तमोनुदम्।

ज्योतिरुत्पद्यते भास्वत्तद्रूपगुणमुच्यते॥७७॥ (४६)


(वायो:+अपि) उस वायु के भी (विकुर्वाणात्) विकारोत्पादक अंश से (विरोचिष्णुः) उज्ज्वल (तमोनुदम्) अन्धकार को नष्ट करने वाली (भास्वत्) प्रकाशक (ज्योतिः+उत्पद्यते) 'अग्नि' उत्पन्न होती है (तत्+रूप गुणम्+उच्यते) उसका गुण 'रूप' कहा है॥७७॥


जल और पृथिवी की उत्पत्ति―


ज्योतिषश्च विकुर्वाणादापो रसगुणा स्मृताः। 

अद्भ्यो गन्धगुणा भूमिरित्येषा सृष्टिरादितः॥७८॥ (४७)


(च) और (ज्योतिषः विकुर्वाणात्) अग्नि के विकारोत्पादक अंश से (रसगुणाः आपः स्मृताः) 'रस' गुण वाला जल उत्पन्न होता है और (अद्भ्यः) जल से (गन्धगुणा भूमिः) 'गन्ध' गुण वाली भूमि उत्पन्न होती है (इति+एषा सृष्टिः+आदितः) यह इस प्रकार प्रारम्भ (१.१४) से लेकर यहाँ तक वर्णित सृष्टि उत्पन्न होने की प्रक्रिया है॥७८॥


मन्वन्तर के काल-परिमाण―


यत्प्राग्द्वादशसाहस्त्रमुदितं दैविकं युगम्।

तदेकसप्ततिगुणं मन्वन्तरमिहोच्यते॥७९॥ (४८)


(प्राक्) पहले श्लोकों में [१.७१] (यत्) जो (द्वादशसाहस्रम्) बारह हजार दिव्यवर्षों का (दैविकं युगम्+उदितम्) एक 'देवयुग' कहा है (तत्+एक-सप्ततिगुणम्) उससे इकहत्तर गुणा समय अर्थात् १२०००×७१=८,५२,००० दिव्यवर्षों का अथवा ८,५२,००० दिव्यवर्ष x ३६०=३०,६७,२०,००० मानुष-वर्षों का (इह मन्वन्तरम् उच्यते) यहाँ एक 'मन्वन्तर' का कालपरिमाण माना गया है॥७९॥


मन्वन्तराण्यसंख्यानि सर्गः संहार एव च।

क्रीडन्निवैतत्कुरुते परमेष्ठी पुनः पुनः॥८०॥ (४९)


(परमेष्ठी) वह सबसे महान् परमात्मा (असंख्यानि मन्वन्तराणि) असंख्य 'मन्वन्तरों' को (सर्गः) सृष्टि-उत्पत्ति (च) और (संहारः एव) प्रलय को (क्रीडन् इव) खेलता हुआ-सा (पुनः पुनः) बार-बार (कुरुते) करता रहता है॥८०॥


चारों वर्गों के कर्मों का निर्धारण―


सर्वस्यास्य तु सर्गस्य गुप्त्यर्थं स महाद्युतिः। 

मुखबाहूरूपज्जानां पृथक्कर्माण्यकल्पयत्॥८७॥ (५०)


(अस्य सर्वस्य सर्गस्य) इस [५-८० पर्यन्त श्लोकों में वर्णित] समस्त संसार की (गुप्त्यर्थम्) गुप्ति अर्थात् सुरक्षा, व्यवस्था एवं समृद्धि के लिए (सः महाद्युतिः) महातेजस्वी परमात्मा ने (मुख-बाहू-उरुपद्-जानाम्) मुख, बाहु, जंघा और पैर के गुणों की तुलना से निर्मित वर्णों के अर्थात् क्रमशः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों के (पृथक् कर्माणि+अकल्पयत्) पृथक्-पृथक् कर्म वेदों के माध्यम से [२.२१] निर्धारित किये॥८७॥


ब्राह्मण वर्णस्थों के कर्म―


अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा।

दानं प्रतिग्रहश्चैव ब्राह्मणानामकल्पयत्॥८८॥ (५१)


(ब्राह्मणानाम्) ब्राह्मण वर्ण को धारण करने वाले मनुष्यों के लिए (अध्ययनम्, अध्यापनम्) पढ़ना-पढ़ाना (तथा) तथा (यजन याजनम्) यज्ञ करना-कराना, (दानं च प्रतिग्रहः एव) श्रेष्ठों को और श्रेष्ठ कार्यों में दान देना [४.१८७-१९६, २२७] और लेना, ये छह कर्म (अकल्पयत्) निर्धारित किये हैं॥८८॥


क्षत्रिय वर्णस्थों के कर्म―


प्रजानां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासतः॥८९॥ (५२)


(प्रजानां रक्षणम्) प्रजाओं की सभी प्रकार की रक्षा करना, (दानम्) दान देना, (इज्या) यज्ञ करना-करवाना, (अध्ययनम्-एव) और वेदादि शास्त्रों को पढ़ना (च) तथा (विषयेषु-अप्रसक्तिः) विषयों में आसक्त न रहकर जितेन्द्रिय रहना, (क्षत्रियस्य समासतः) ये संक्षेप क्षत्रिय वर्ण धारण करने वाले मनुष्यों के कर्त्तव्य हैं॥८९॥


वैश्य वर्णस्थों के कर्म―


पशूनां रक्षणं दानमिज्याऽध्ययनमेव च।

वणिक्पथं कुसीदं च वैश्यस्य कृषिमेव च॥९०॥ (५३)


(पशूनां रक्षणम्) पशुओं की सब प्रकार से रक्षा करना, (दानम्) श्रेष्ठों को और श्रेष्ठ कार्यों के लिए दान देना [४.१८७-१९६, २२७] (इज्या) यज्ञ करना-करवाना, (च अध्ययनम्+एव) और वेदादि शास्त्रों को पढ़ना (वणिक्पथम्) सब प्रकार का उत्तम व्यापार करना [९.३२६-३३३], (च कुसीदम्) और नियमानुसार ब्याज लेना [८.१४०], (च) और (कृषिम्+एव) खेती करना-करवाना, (वैश्यस्य) ये वैश्यवर्ण को धारण करने वाले व्यक्तियों के कर्त्तव्य हैं॥९०॥


शूद्र वर्णस्थों के कर्म―


एकमेव हि शूद्रस्य प्रभुः कर्म समादिशत्।

एतेषामेव वर्णानां शुश्रूषामनसूयया॥९१॥ (५४)


(प्रभुः) परमात्मा ने (शूद्रस्य एकम्+एव कर्म) शूद्र वर्ण को धारण करने वाले मनुष्यों का एक ही कर्त्तव्य (समादिशत्) निर्दिष्ट किया है, वह यह है कि (एतेषाम्+एव वर्णानाम्) इन्हीं चार वर्णों का (अनसूयया शुश्रूषा) ईर्ष्या-निन्दा रहित रहकर सेवा-कार्य करना॥९१॥


धर्मोत्पत्ति विषय (१.१०८ से ११० तक)


सदाचार परमधर्म―


आचारः परमो धर्मः श्रुत्युक्तः स्मार्त एव च। 

तस्मादस्मिन्त्सदा युक्तो नित्यं स्यादात्मवान् द्विजः॥१०८॥ (५५)


(श्रुति+उक्तः च स्मार्त:+एव) वेदों और स्मृतियों में भी कहा हुआ जो (आचारः) सदाचरण है (परमः धर्मः) वही सर्वश्रेष्ठ धर्म हैं, (तस्मात्) इसीलिए (आत्मवान् द्विजः) आत्मोन्नति चाहने वाले द्विज को चाहिए कि वह (अस्मिन्) इस श्रेष्ठाचरण के पालन में (सदा नित्यं युक्तः स्यात्) सदा निष्ठापूर्वक प्रयत्नशील रहे॥१०८॥


आचारहीन को वैदिक कर्मों की फलप्राप्ति नहीं―


आचाराद्विच्युतो विप्रो न वेदफलमश्नुते। 

आचारेण तु संयुक्तः सम्पूर्णफलभाग्भवेत्॥१०९॥ (५६)


(विप्रः) जो कोई द्विज (आचारात्-विच्युतः) सदाचार से रहित है वह (वेदफलं न अश्नुते) वेदादि शास्त्रों के अध्ययन से प्राप्त पुण्य-फल को प्राप्त नहीं कर पाता, (तु) और (आचारेण संयुक्तः) सदाचार से जो युक्त है अर्थात् सदाचारी है वह (सम्पूर्णफल-भाक्-भवेत्) सम्पूर्ण पुण्य फल को प्राप्त करता है [४.१५६-१५९]॥१०९॥


सदाचार धर्म का मूल है―


एवमाचारतो दृष्ट्वा धर्मस्य मुनयो गतिम्। 

सर्वस्य तपसो मूलमाचारं जगृहुः परम्॥११०॥ (५७)


(एवम्) इस प्रकार (आचारतः) श्रेष्ठाचरण=धर्माचरण से ही (धर्मस्य) धर्म की (गतिम्) प्राप्ति, सिद्धि एवं अभिवृद्धि (दृष्ट्वा) देखकर (मुनयः) मुनियों ने (सर्वस्य तपसः परं मूलम्) सब तपस्याओं का श्रेष्ठ मूल आधार (आचारम्) श्रेष्ठाचरण=धर्माचरण को ही (जगृहुः) स्वीकार किया है॥११०॥


विद्वानों द्वारा सेवित धर्म का वर्णन-प्रारम्भ―


विद्वद्भिः सेवितः सद्भिर्नित्यमद्वेषरागिभिः।

हृदयेनाभ्यनुज्ञातो यो धर्मस्तं निबोधत॥१२०॥ [२.१] (५८)


(अद्वेषरागिभिः सद्भिः विद्वद्भिः नित्यं सेवितः) राग-द्वेष से रहित सदाचारवान् विद्वानों के द्वारा सदा आचरण में लाया जानेवाला (यः हृदयेन+अभ्यनुज्ञातः) जिसको हृदय अर्थात् आत्मा में धारण करने योग्य माना है अर्थात् जो आत्मानुकूल है [१.१२५, १३१] (तं धर्मं निबोधत) उस धर्म को तुम सुनो और मानो॥१२०॥


सकामता-अकामता विवेचन कर्मपालन के विषय में―


कामात्मता न प्रशस्ता न चैवेहास्त्यकामता।

काम्यो हि वेदाधिगमः कर्मयोगश्च वैदिकः॥१२१॥ [२.२] (५९)


(इह) इस संसार में (कामात्मता न प्रशस्ता अस्ति) अत्यन्त आसक्ति भाव होना श्रेयस्कर नहीं है, (च) किन्तु (न अकामता) अत्यन्त निष्काम भाव होना भी श्रेयस्कर नहीं है (हि) क्योंकि (वेदाधिगमः) वेदाध्ययन एवं उससे प्राप्त ज्ञान-विज्ञान (च) और (वैदिकः कर्मयोगः) वेदोक्त धर्म-कर्म (काम्यः) काम्य हैं और कामनापूर्वक पालन करने योग्य होते हैं॥१२१॥


संकल्पमूलः कामो वै यज्ञाः संकल्पसम्भवाः। 

व्रतानि यमधर्मांश्च सर्वे सङ्कल्पजाः स्मृताः॥१२२॥ [२.३] (६०)


क्योंकि (वै) निश्चय से (कामः संकल्पमूलः) प्रत्येक कामना के मूल में संकल्प=इच्छाशक्ति होती है, (यज्ञाः संकल्पसम्भवाः) सभी प्रकार के यज्ञ संकल्प=इच्छाशक्ति से ही सम्पन्न होते हैं, (व्रतानि च यमधर्माः) सत्यभाषण आदि व्रत और यम-नियम आदि धर्माचरण [४.२०४] (सर्वे सङ्कल्पजाः स्मृताः) सभी श्रेष्ठ कार्य संकल्प=इच्छाशक्ति से ही सम्पन्न होने वाले माने गये हैं॥१२२॥


अकामस्य क्रिया काचिद् दृश्यते नेह कर्हिचित्। 

यद्यद्धि कुरुते किंचित्तत्तत्कामस्य चेष्टितम् ॥१२३॥ [२.४] (६१)


(हि) क्योंकि (इह) इस जीवन और संसार में (कर्हिचित्) कभी भी (अकामस्य क्रिया न दृश्यते) कामनारहित इच्छारहित से कोई क्रिया होती दिखाई नहीं पड़ती, (यत्-यत् किंचित् कुरुते) मनुष्य जो-जो कुछ भी क्रिया करता है (तत्-तत् कामस्यचेष्टितम्) वह सब कामना से ही किया गया होता है॥१२३॥


तेषु सम्यग्वर्तमानो गच्छत्यमरलोकताम्।

यथा सङ्कल्पितांश्चैव सर्वान्कामान्समश्नुते॥१२४॥ [२.४] (६२)


(तेषु) उन वेदोक्त यज्ञ, यम-नियम, सत्याचरण आदि कर्मों में (सम्यक् वर्तमानः) अच्छी प्रकार संलग्न रहने वाला व्यक्ति (अमरलोकतां गच्छति) मोक्ष को प्राप्त करता है (च) और (यथा संकल्पितान् सर्वान् एव कामान्) संकल्प की गई सभी कामनाओं को, लक्ष्यों को (समश्नुते) भलीभांति प्राप्त करता है॥१२४॥


धर्म के मूलस्रोत और आधार―


वेदोऽखिलो धर्ममूलं स्मृतिशीले च तद्विदाम्। 

आचारश्चैव साधूनामात्मनस्तुष्टिरेव च॥१२५॥ [२.६] (६३)


(अखिलः वेदः) सम्पूर्ण वेद (च) और (तद् विदाम्) उन वेदों के पारंगत [जिन्होंने २.१ से २.२२४ में प्रोक्त विधिपूर्वक वेदाध्ययन किया है] (स्मृतिशीले) विद्वानों के रचे हुए स्मृतिग्रन्थ अर्थात् वेदानुकूल धर्मशास्त्र और वेदोक्त श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न शील (च) और (साधूनाम् एव आचारः) वेद-शास्त्रोक्त श्रेष्ठसत्याचरण करने वाले पुरुषों का 'सदाचरण' (च+एव) और ऐसे ही श्रेष्ठ-सदाचरण वाले व्यक्तियों की (आत्मनः-तुष्टिः) अपनी आत्मा की सन्तुष्टि एवं सात्त्विक ज्ञान एवं गुणयुक्त अनुकूलता अर्थात् जिस काम के करने में आत्मा में भय, शंका, लज्जा उत्पन्न न हो, अपितु सन्तुष्टि और प्रसन्नता का अनुभव हो [१२.३७], ये चार (धर्ममूलम्) धर्म के मूलस्रोत=उत्पत्तिस्थान या जानने के आधार हैं॥१२५॥


आत्मानुकूल धर्म का ग्रहण―


सर्वं तु समवेक्ष्येदं निखिलं ज्ञानचक्षुषा।

श्रुतिप्रामाण्यतो विद्वान्स्वधर्मे निविशेत वै॥१२७॥ [२.८] (६४)


(विद्वान्) विद्वान् मनुष्य (ज्ञानचक्षुषा) ज्ञानरूपी नेत्र के द्वारा (इदं सर्वम्) पूर्वोक्त वेद, धर्मशास्त्र, सदाचार और आत्मा के अविरुद्ध कार्य [१.१२५] इन सब धर्मस्रोतों पर (निखिलं समवेक्ष्य) पूर्णतः भलीभांति विचार करके (श्रुतिप्रामाण्यतः) मुख्य प्रमाण वेद को मानते हुए (स्वधर्मे वै निविशेत) स्वयं के अभीष्ट धर्म को धारण करे अर्थात् जिस धर्म का पालन करना चाहता है उस पर आचरण करे॥१२७॥


श्रुति-स्मृति-प्रोक्त धर्म के अनुष्ठान का फल―


श्रुतिस्मृत्युदितं धर्ममनुतिष्ठन्हि मानवः। 

इह कीर्तिमवाप्नोति प्रेत्य चानुत्तमं सुखम्॥१२८॥ [२.९] (६५)


(हि) क्योंकि (मानवः) मनुष्य (श्रुति-स्मृति+उदितम्) वेद और वेदानुकूल धर्मशास्त्र में कहे हुए (धर्मम्-अनुतिष्ठन्) धर्म का पालन करके उसके पुण्य के कारण (इह कीर्तिम्+अवाप्नोति) इस संसार में यश को (च) और (प्रेत्य) मृत्यु के पश्चात् परजन्म में (अनुत्तमं सुखम्) सर्वोत्तम सुख को प्राप्त करता है॥१२८॥


श्रुति और स्मृति का परिचय―


श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः। 

ते सर्वार्थेष्वमीमांस्ये ताभ्यां धर्मो हि निर्बभौ॥१२९॥ [२.१०] (६६)


(श्रुतिः तु वेदः विज्ञेयः) श्रुति को 'वेद' समझना चाहिए, और (धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः) धर्मशास्त्र को 'स्मृति' समझना चाहिए (ते) ये श्रुति और वेदानुकूल स्मृति शास्त्र (सर्वार्थेषु) सब स्थितियों और सब बातों में (अमीमांस्ये) कुतर्क द्वारा आलोचनाय नहीं है अर्थात् इनमें प्रतिपादित धर्मों का कुतर्क का सहारा लेकर खण्डन नहीं करना चाहिए, [इस अर्थ की पुष्टि अगले १३०वें श्लोक की शब्दावली से होती है, देखिए उसका अर्थ], (हि) क्योंकि (ताभ्याम्) उन दोनों प्रकार के शास्त्रों से (धर्मः) धर्म (निर्बभौ) उत्पन्न हुआ है, ये मनुष्यों को धर्म का ज्ञान कराते हैं और धर्मपालन की प्रेरणा देकर धर्म की रक्षा करते हैं॥१२९॥


श्रुति-स्मृति का अपमान करने वाला नास्तिक है―


योऽवमन्येत ते मूले हेतुशास्त्राश्रयाद् द्विजः। 

स साधुभिर्बहिष्कार्यो नास्तिको वेदनिन्दकः॥१३०॥ [२.११] (६७)


(यः द्विजः) जो कोई द्विज मनुष्य (ते मूले) वेद और वेदानुकूल स्मृति शास्त्र का (हेतुशास्त्राश्रयात्) तर्कशास्त्र का आश्रय लेकर (अवमन्येत) कुतर्क से अपमान करे (सः) उसको (साधुभिः बहिष्कार्यः) श्रेष्ठ लोग अपनी संगति-सान्निध्य से बाह्य कर दें, क्योंकि (वेदनिन्दकः) जो वेद की निन्दा करता है (नास्तिकः) वही नास्तिक होता है [और नास्तिक व्यक्ति वेद-धर्मशास्त्रोक्त समाजकल्याणकारी धर्म-व्यवस्था को विच्छिन्न कर तथा उसमें अनास्था उत्पन्न कर समाज की सुख-शान्ति को भंग करता है]॥१३०॥


धर्म के चार आधाररूप लक्षण―


वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः।

एतच्चतुर्विधं प्राहुः साक्षाद्धर्मस्य लक्षणम्॥१३१॥ [२.१२] (६८)


(वेदः स्मृतिः सदाचारः) वेद, वेदोक्त स्मृति, वेदानुयायी सत्पुरुष का आचरण (च) और (स्वस्य आत्मनः प्रियम्) अपने आत्मा के सात्विक ज्ञान-गुण से अविरुद्ध प्रियाचरण (एतत् चतुर्विधं धर्मस्य लक्षणम्) ये चार धर्म के (साक्षात्) ज्ञान या प्रत्यक्ष कराने वाले लक्षण हैं अर्थात् इन्हीं से धर्म का ज्ञान और निश्चय होता है॥१३१॥


धर्मजिज्ञासा में श्रुति परमप्रमाण और धर्मज्ञान के पात्र―


अर्थकामेष्वसक्तानां धर्मज्ञानं विधीयते। 

धर्मजिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रुतिः॥१३२॥ [२.१३] (६९)


(अर्थकामेषु+असक्तानाम्) जो पुरुष अर्थ=सुवर्णादि धन, रत्न, सम्पत्ति और काम भावना आदि इन्द्रियों के विषयों में नहीं फंसते हैं (धर्मज्ञानं विधीयते) उन्हीं को धर्म का वास्तविक ज्ञान होता है (धर्मजिज्ञा-समानानाम्) जो धर्म के ज्ञान की इच्छा करें, उनके लिए (प्रमाणं परमं श्रुतिः) वेद ही सर्वोच्च प्रमाण है अर्थात् मुख्यत: वेद द्वारा धर्म का निश्चय करें, क्योंकि धर्म-अधर्म का निश्चय बिना वेद के ठीक-ठीक नहीं होता॥१३२॥


वेदोक्त सब विधान धर्म हैं―


श्रुतिद्वैधं तु यत्र स्यात्तत्र धर्मावुभौ स्मृतौ। 

उभावपि हि तौ धर्मों सम्यगुक्तौ मनीषिभिः॥१३३॥ [२.१४] (७०)


(यत्र तु श्रुतिद्वैधं स्यात्) जहाँ कहीं श्रुति=वेद में दो पृथक् धर्मविषयक आदेश विहित हों (तत्र) ऐसे स्थलों पर (उभौ) वे दोनों ही विधान (धर्मों स्मृतौ) धर्म माने हैं (मनीषिभिः) मनीषी विद्वानों ने (तौ उभौ अपि सम्यक् धौ उक्तौ) उन दोनों को ही श्रेष्ठ धर्म स्वीकार किया है॥१३३॥


दो आदेशों का उदाहरण और निष्कर्ष―


उदितेऽनुदिते चैव समयाध्युषिते तथा। 

सर्वथा वर्तते यज्ञ इतीयं वैदिकी श्रुतिः॥१३४॥ [२.१५] (७१)


(उदिते) सूर्योदय के समय (च) और (अनुदिते) सूर्यास्त के समय (तथा) तथा (समयाध्युषिते) समय के अतिक्रमण हो जाने पर अर्थात् प्रत्येक समय अथवा किसी भी निर्धारित किये समय में [जैसे विशेष उपलक्ष्य में आयोजित कोई यज्ञ] (सर्वथा यज्ञः वर्तते) सब स्थितियों में यज्ञ कर लेना चाहिए (इति इयं वैदिकी श्रुतिः) इस प्रकार ये तीनों ही धर्म हैं, ऐसी वैदिक मान्यता है॥१३४॥


ब्रह्मावर्त्त देश की सीमा―


सरस्वतीदृषद्वत्योर्देवनद्योर्यदन्तरम्।

तं देवनिर्मितं देशं ब्रह्मावर्तं प्रचक्षते॥१३६॥ [२.१७] (७२)


(देवनद्योः सरस्वती-दृषद्वत्योः) देव अर्थात् दिव्यगुण और दिव्य आचरण वाले विद्वानों के निवास से युक्त सरस्वती और दृषद्वती नदी-प्रदेशों के (यत्न अन्तरम्) जो बीच का स्थान है (तम्) उस (देवनिर्मितम्-देशम्) दिव्यगुण एवं आचरण वाले विद्वानों द्वारा बसाये और उनके निवास से सुशोभित देश को ('ब्रह्मावर्तम्' प्रचक्षते) 'ब्रह्मावर्त' कहा जाता है॥१३६॥


सदाचार का लक्षण―


तस्मिन्देशे य आचार: पारम्पर्यक्रमागतः।

वर्णानां सान्तरालानां स सदाचार उच्यते॥१३७॥ [२.१८] (७३) 


(तस्मिन् देशे) उस ब्रह्मावर्त्त देश में (वर्णानां सान्तरालानां पारम्पर्यक्रमागतः यः आचारः) वर्गों और आश्रमों का जो परम्परागत अर्थात् वेदों के प्रारम्भ से लेकर उत्तरोत्तर क्रम से पालित जो वेद शास्त्रोक्त आचार है। (सः) वह (सदाचारः+उच्यते) 'सदाचार' कहलाता है॥१३७॥


सारे संसार के लोग ब्रह्मावर्त के विद्वानों से चरित्र की शिक्षा ग्रहण करें―


एतद्देशप्रसूतस्य सकाशादग्रजन्मनः। 

स्वं स्वं चरित्रं शिक्षेरन्पृथिव्यां सर्वमानवाः॥१३९॥ [२.२०] (७४)


(एतद्देशप्रसूतस्य) इसी ब्रह्मावर्त देश [१३६-१३७] में उत्पन्न हुए (अग्रजन्मनः सकाशात्) ब्राह्मण वर्णस्थ विद्वानों के सान्निध्य में रहकर (पृथिव्यां सर्वमानवाः) पृथिवी पर रहने वाले सब मनुष्य अर्थात् बिना किसी देश, वर्ण और लिंग आधारित भेदभाव के और प्रतिबन्ध के सभी स्त्री-पुरुष आचरण, (स्वं स्वम्) अपने-अपने (चरित्रं शिक्षेरन्) कर्त्तव्यों और व्यवसायों की शिक्षा-दीक्षा ग्रहण करें और अभीष्ट विद्याभ्यास करें॥१३९॥


मध्यदेश की सीमा―


हिमवद्विन्ध्ययोर्मध्यं यत्प्राग्विनशनादपि।

प्रत्यगेव प्रयागाच्च मध्यदेशः प्रकीर्तितः॥१४०॥ [२.२१] (७५)


(हिमवद्-विन्ध्ययोः मध्यम्) [उत्तर में स्थित] हिमालय पर्वत [और दक्षिण में स्थित] विन्ध्याचल के मध्यवर्ती (विनशनात् अपि यत् प्राक्) विनशन प्रदेश पश्चिम में सरस्वती नदी के समुद्र में मिलने के स्थान से लेकर जो प्रयाग तक पूर्वदिशा का प्रदेश है (च) और (प्रयागात् प्रत्यक्) प्रयाग-प्रदेश के पश्चिम में जो सरस्वती समुद्र संगम तक का प्रदेश है, वह (मध्यदेशः प्रकीर्तितः) 'मध्यदेश' कहा जाता है॥१४०॥


आर्यावर्त्त देश की सीमा―


आसमुद्रात्तु वै पूर्वादासमुद्रात्तु पश्चिमात्। 

तयोरेवान्तरं गिर्योरार्यावर्तं विदुर्बुधाः॥१४१॥ [२.२२] (७६)


(आ-समुद्रात्तु वै पूर्वोत्) पूर्व समुद्र से लेकर (आ-समुद्रात्तु पश्चिमात्) पश्चिम समुद्रपर्यन्त विद्यमान (तयोः एव गिर्योः अन्तरम्) उत्तर में स्थित हिमालय और दक्षिण में स्थित विध्याचल पर्वतों सहित जो मध्यवर्ती देश है, उसे (बुधाः आर्यावर्तं विदुः) विद्वान् ‘आर्यावर्त' कहते हैं॥१४१॥


वह आर्यावर्त यज्ञिय देश है, उससे परे म्लेच्छ देश―


कृष्णसारस्तु चरति मृगो यत्र स्वभावतः।

सज्ञेयो यज्ञियो देशो म्लेच्छदेशस्त्वतः परः॥१४२॥ [२.२३] (७७)


(तु) और (यत्र) जिस देश में (स्वभावतः कृष्णसारः चरति) स्वभाविक रूप से कृष्णमृग विचरण करता है (सः) वह [१४१ में वर्णित] आर्यावर्त देश (यज्ञियः देशः ज्ञेयः) यज्ञों से सम्बद्ध, पवित्र, अथवा श्रेष्ठ आचरण वाले व्यक्तियों से युक्त देश है, ऐसा समझना। (अतः परः तु) इस आर्यावर्त से आगे=परे तो (म्लेच्छदेशः) म्लेच्छभाषाभाषी=अशुद्ध भाषा बोलने वाले व्यक्तियों अथवा आर्यों की वर्णव्यस्था से अदीक्षित व्यक्तियों के देश हैं॥१४२॥


सृष्टि एवं धर्मोत्पत्ति विषय की समाप्ति और वर्णधर्मों के प्रारम्भ का कथन―


एषा धर्मस्य वो योनिः समासेन प्रकीर्तिता। 

सम्भवश्चास्य सर्वस्य, वर्णधर्मान्निबोधत॥१४४॥ [२.२५] (७८)


(एषा)  यह (धर्मस्य योनिः) धर्म की उत्पत्ति और उसका स्रोत [१.१२० से १३९ तक (२.१ से २.२०)] (च) और (अस्य सर्वस्य सम्भवः) इस समस्त जगत् की उत्पति [१.५ से ९१ तक] (समासेन) संक्षेप से (वः प्रकीर्तिता) आप लोगों को कही, अब (वर्णधर्मान्) पूर्वोक्त [१.३१, ८७] वर्णों के धर्मों को (निबोधत) विस्तार से सुनो―॥१४४॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाषा-भाष्यसमन्वितायाम्, अनुशीलन-समीक्षा-विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ 'जगदुत्पत्ति-धर्मोत्पत्तिः' नामात्मकः प्रथमोऽध्यायः॥





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