विशुद्ध मनुस्मृतिः— द्वितीय अध्याय

मानवधर्मशास्त्रम् अथवा विशुद्ध मनुस्मृति


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

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अथ द्वितीयोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(संस्कार एवं ब्रह्मचर्याश्रम विषय)


(संस्कार २.१ से २.४३ तक)


संस्कारों को करने का निर्देश और उनसे लाभ― 


वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्। 

कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च॥१॥ [२.२६] (१)


द्विजों=ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों को इस जन्म और परजन्म में तन-मन, आत्मा को पवित्र करने वाले गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त संस्कार पुण्यरूप वेदोक्त यज्ञ आदि कर्मों और वेदोक्त मन्त्रों के द्वारा करने चाहियें॥१॥


संस्कारों से आत्मा के बुरे संस्कारों का निवारण―


गार्भैर्होमैर्जातकर्मचौलमौञ्जीनिबन्धनैः। 

बैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानामपमृज्यते॥२॥ [२.२७] (२)


गर्भकालीन अर्थात् गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन इन होमपूर्वक किये जाने वाले संस्कारों से जन्म होने पर शैशवावस्था में जो संस्कार किये जाते हैं, वे जातकर्म कहलाते हैं। उनमें जातकर्म, नामकरण, निष्क्रमण, अन्नप्राशन और चौल अर्थात् चूडाकर्म, तथा मेखला-बन्धन अर्थात् उपनयन एवं वेदारम्भ आदि यज्ञ पूर्वक सम्पन्न किये जाने वाले इन संस्कारों से द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बालकों के बीज-सम्बन्धी= परम्परागत पैतृक-मातृक अंशों से उत्पन्न होने वाले और गर्भकाल में माता-पिता से प्राप्त होने वाले बुरे आचरण के संस्कार एवं शारीरिक दोष दूर हो जाते हैं अर्थात् इन संस्कारों के करने से बालक-बालिकाओं एवं स्त्री-पुरुषों के शरीर और मनसम्बन्धी दोष मिटकर वे निर्मल बनते हैं॥२॥


वेदाध्ययन, यज्ञ, व्रत आदि से ब्रह्म की प्राप्ति― 


स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥३॥ [२.२८] (३)


जीवनभर वेदादि शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करने से वर्णों और आश्रमों के लिए शास्त्रोक्त व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करने से ब्रह्मचर्याश्रम में प्रतिदिन सायंप्रातः अग्निहोत्र करने से त्रयीविद्या रूप वेदों के सांगोपांग पठन-पाठन से पक्षेष्टि आदि करने से गृहस्थ-धर्मानुसार सुसन्तानोतपत्ति करने से गृहस्थस्थ और वान-प्रस्थाश्रम में ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथियज्ञ इन पांच महायज्ञों के अनुष्ठान से अग्निष्टोम आदि बृहत् यज्ञों के आयोजन से यह शरीर ब्रह्ममय और ब्राह्मण का बनता है अर्थात् वेदाध्ययन और परमेश्वर की भक्ति का आधार रूप आध्यात्मिक शरीर बनता है तथा इन आचरणों से ही वस्तुतः ब्राह्मण बनता है, इनके बिना नहीं॥३॥


जातकर्म संस्कार का विधान―


प्राङ्नाभिवर्धनात्पुंसो जातकर्म विधीयते। 

मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम्॥४॥ [२.२९] (४)


बालक-बालिका का जातकर्म संस्कार नाभि-नाल काटने से पहले किया जाता है और तब इस संस्कार में इस बालक-बालिका को मन्त्रोच्चारणपूर्वक सोने की शलाका से [असमान मात्रा में मिलाया] शहद और घी चटाया जाता है॥४॥


बालक-बालिकाओं का नामकरण संस्कार―


नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वाऽस्य कारयेत्। 

पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते॥५॥ [२.३०] (५)


इस बालक-बालिका का नामकरण संस्कार जन्म से दशवें वा बारहवें दिन अथवा किसी भी पुण्य=अनुकूल सुविधा-जनक तिथि या मुहूर्त में अथवा शुभगुण वाले नक्षत्र अर्थात् प्राकृतिक बाधा रहित और सुख-सुविधायुक्त नक्षत्र के समय में करावे॥५॥


वर्णानुसार नामकरण―


मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्यबलान्वितम्। 

वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥६॥ [२.३१] (६)


शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्। 

वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥७॥ [२.३२] (७)


[यह नामकरण माता-पिता की अपेक्षा से है] ब्राह्मण बनाने के इच्छुक बालक का नाम शुभत्व-श्रेष्ठत्व भावबोधक शब्दों से [जैसे-ब्रह्मा, विष्णु, मनु, शिव, अग्नि, वायु, रवि, आदि] रखना चाहिए क्षत्रिय बनाने के इच्छुक बालक का बल-पराक्रम- भावबोधक शब्दों से [जैसे-इन्द्र, भीष्म, भीम, सुयोधन, नरेश, जयेन्द्र, युधिष्ठिर आदि] वैश्य बनाने के इच्छुक बालक का धन-ऐश्वर्य भाव-बोधक शब्दों से [जैसे-वसुमान्, वित्तेश, विश्वम्भर, धनेश आदि] और शूद्र रखने के इच्छुक बालक का रक्षणीय, पालनीय भाव-बोधक शब्दों से [जैसे-देवगुप्त, देवदास, सुदास, अकिंचन] नाम रखना चाहिए। अर्थात् बालक-बालिका के अभीष्ट वर्णसापेक्ष गुणों के आधार पर नामकरण करना चाहिए॥६॥


[अथवा] ब्राह्मण बनाने के इच्छुक बालक का नाम शर्मवत्=कल्याण, शुभ, सौभाग्य, सुख आनन्द, प्रसन्नता भाव वाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए। जैसे-देवशर्मा, विश्वामित्र, वेदव्रत, धर्मदत्त, आदि क्षत्रिय का नाम रक्षक भाव वाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए [जैसे–महीपाल, धनञ्जय, धृतराष्ट्र, देववर्मा, कृतवर्मा] वैश्य का नाम पुष्टि- समृद्धि द्योतक शब्दों को जोड़कर [जैसे—धनगुप्त, धनपाल, वसुदेव, रत्नदेव, वसुगुप्त] और शूद्र का नाम सेवकत्व भाववाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए [जैसे—देवदास, देवगुप्त, धर्मदास, महीदास।] अर्थात् व्यक्तियों के वर्णगत लक्ष्यों के आधार पर नामकरण करना चाहिए। यह बालकपन का नामकरण है। बाद में जब गुरुकुल में अथवा अन्य जीवनकाल में वर्णपरिवर्तन करना हो तो उस वर्णानुसार नामपरिवर्तन कर लें, जैसे वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण के समय किया करते हैं, क्योंकि वर्ण का अन्तिम निश्चय और घोषणा तो आचार्य करता है॥७॥


स्त्रियों के नामकरण की विधि―


स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्। 

मंगल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्॥८॥ [२.३३] (८)


स्त्रियों का नाम सरलता से सुख-पूर्वक उच्चारण किया जा सकने वाला कोमल वर्णों वाला स्पष्ट अर्थ वाला मन को आकर्षक लगने वाला मंगल अर्थात् कल्याण-भावद्योतक अन्त में दीर्घ अक्षर वाला, तथा आशीर्वाद भावबोधक होना चाहिए [जैसे-कल्याणी, वन्दना, विद्यावती, कमला, सुशीला, सुषमा, भाग्यवती, सावित्री, यशोदा, प्रियंवदा आदि]॥८॥


निष्क्रमण और अन्नप्राशन संस्कार―


चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्। 

षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मङ्गलं कुले॥९॥ [२.३४] (९) 


बालक-बालिका का घर से [प्रथम बार] बाहर निकालने-घुमाने का 'निष्क्रमण संस्कार' चौथे मास में करना चाहिए और अन्न खिलाने का संस्कार-अन्नप्राशन छठे मास में अथवा जब भी परिवार में अभीष्ट अथवा उपयुक्त समय प्रतीत हो, तब करे॥९॥


मुण्डन संस्कार―


चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः।

प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्त्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥१०॥ [२.३५] (१०)


सभी द्विजातियों=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्गों के इच्छुक बालक-बालिकाओं का [माता-पिता की इच्छा के आधार पर यह कथन है] चूडाकर्म=मुण्डन संस्कार धर्मानुसार वेद की आज्ञानुसार प्रथम वर्ष में अथवा तीसरे वर्ष में [अपनी सुविधानुसार] कराना चाहिए॥१०॥


उपनयन संस्कार का सामान्य समय―


गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्। 

गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः॥११॥ [२.३६] (११)


ब्राह्मण वर्ण धारण करने के इच्छुक बालक-बालिका का उपनयन=गुरु के पास पहुंचाना और विद्याध्ययनार्थ यज्ञोपवीत संस्कार गर्भ से आठवें वर्ष में अर्थात् जन्म से सातवें वर्ष में करे, क्षत्रिय वर्ण धारण करने के इच्छुक बालक-बालिका का गर्भ से ग्यारहवें अर्थात् जन्म से दसवें वर्ष में, और वैश्य वर्ण धारण करने के इच्छुक बालक-बालिका का गर्भ से बारहवें अर्थात् जन्म से ग्यारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार करना चाहिए। [यह माता-पिता की इच्छा के आधार पर प्रयोग है और चारों वर्णों में उत्पन्न प्रत्येक बालक-बालिका के लिए है]॥११॥


उपनयन का विशेष समय―


ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे। 

राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे॥१२॥ [२.३७] (१२)


इस संसार में जिसको ब्रह्मतेज=ईश्वर, विद्या, बल आदि की शीघ्र एवं अधिक प्राप्ति की कामना हो, ऐसे ब्राह्मण वर्ण की कामना रखने वाले बालक-बालिका का [माता-पिता की इच्छा के आधार पर प्रयोग है] उपनयन संस्कार जन्म से पांचवें वर्ष में ही करा देना चाहिये इस संसार में बल-पराक्रम आदि क्षत्रिय विद्याओं की शीघ्र एवं अधिक प्राप्ति की कामना वाले क्षत्रिय वर्ण के इच्छुक बालक-बालिका का जन्म से छठे वर्ष में और इस संसार में धन-ऐश्वर्य की शीघ्र एवं अधिक कामना वाले वैश्य वर्ण के इच्छुक बालक-बालिका का जन्म से आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार करा देना चाहिये॥१२॥


उपनयन की अन्तिम अवधि―


आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। 

आद्वाविंशात्क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः॥१३॥ [२.३८] (१३)


ब्राह्मण वर्ण को धारण करने की इच्छा रखने वाले बालक- बालिका का सोलह वर्ष, क्षत्रिय वर्ण के इच्छुक बालक-बालिका का बाईस वर्ष तक, वैश्य वर्ण के इच्छुक बालक-बालिका का चौबीस वर्ष तक, यज्ञोपवीत का अतिक्रमण नहीं होता अर्थात् इन अवस्थाओं तक उपनयन संस्कार कराया जा सकता है॥१३॥


उपनयन से पतित व्रात्यों का लक्षण―


अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः। 

सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥१४॥ [२.३९] (१४)


इस अवस्था के बीतने के बाद निर्धारित समय पर किसी वर्ण की दीक्षा संस्कार न होने पर ये तीनों [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य] ही सावित्री संस्कार अर्थात् यज्ञोपवीत और विद्याध्ययन से रहित होकर पतित हुए आर्य=आर्यव्यवस्था के व्यक्तियों द्वारा निन्दित 'व्रात्या'=व्रत से पतित अर्थात् 'व्रात्यसंज्ञक' कहलाते हैं॥१४॥


व्रात्यों के साथ सम्बन्धविच्छेद का कथन―


नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि हि कर्हिचित्। 

ब्राह्मान्यौनांश्च सम्बन्धानाचरेद्ब्राह्मणः सह॥१५॥ [२.४०] (१५)


द्विजों में कोई भी व्यक्ति इन पतित व्रात्यों के साथ विधानानुसार कभी आपत्काल में भी विद्याध्ययन-अध्ययन-सम्बन्धी और विवाह-सम्बन्धी व्यवहारों को न करे॥१५॥


वर्णानुसार मृगचर्मों का विधान―


कार्ष्णरौरववास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः। 

वसीरन्नानुपूर्व्येण शाणक्षौमाविकानि च॥१६॥ [२.४१] (१६)


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में दीक्षित ब्रह्मचारी क्रमशः [आसन के रूप में बिछाने के लिए] काला मृग, रुरुमृग और बकरे के चर्म को तथा [ओढ़ने-पहरने के लिये] सन, रेशम और ऊन के वस्त्रों को धारण करें॥१६॥


वर्णानुसार मेखला-विधान―


मौञ्जी त्रिवृत्समा श्लक्ष्णा कार्या विप्रस्य मेखला। 

क्षत्रियस्य तु मौर्वी ज्या वैश्यस्य शणतान्तवी॥१७॥ [२.४२] (१७)


ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक की मेखला=तगड़ी 'मूँज' नामक घास की बनी होनी चाहिए क्षत्रिय की धनुष की डोरी जिससे बनती है उस 'मुरा' नामक घास की, और वैश्य की सन के सूत की बनी हो, जो तीन लड़ों को एकत्र बांट करके चिकनी बनानी चाहिए॥१७॥


मेखलाओं का विकल्प―


मुञ्जालाभे तु कर्तव्याः कुशाश्मन्तकबल्वजैः। 

त्रिवृता ग्रन्थिनैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव वा॥१८॥ [२.४३] (१८)


यदि उपर्युक्त मूँज आदि न मिलें तो [क्रमशः] कुश, अश्मन्तक और बल्वज नामक घासों से उसी प्रकार तिगुनी=तीन बटों वाली करके फिर एक गांठ लगाकर अथवा तीन या पांच गांठ लगाकर मेखलाएं बनानी चाहिएँ॥१८॥


वर्णानुसार यज्ञोपवीत धारण―


कार्पासमुपवीतं स्याद्विप्रस्योर्ध्ववृतं त्रिवृत्। 

शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम्॥१९॥ [२.४४] (१९) 


ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक का यज्ञोपवीत कपास का बना क्षत्रिय का सन के सूत का बना और वैश्य का भेड़ की ऊन के सूत से बना होना चाहिए, वह उपवीत दाहिनी ओर से बायीं ओर का बटा हुआ, और तीन लड़ों से तिगुना करके बना हुआ होना चाहिए॥१९॥


वर्णानुसार दण्ड धारण का विधान―


ब्राह्मणो बैल्वपालाशौ क्षत्रियो वाटखादिरौ।

पैलवौदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मतः॥२०॥ [२.४५] (२०)


ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक बेल या ढाक के क्षत्रिय बड़ या खैर के वैश्य पीपल या गूलर के दण्डों को नियमानुसार धारण करने के अधिकारी हैं॥२०॥


दण्डों का वर्णानुसार प्रमाण―


केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यः प्रमाणतः। 

ललाटसंमितो राज्ञः स्यात्तु नासान्तिको विशः॥२१॥ [२.४६] (२१)


लम्बाई के मान के अनुसार ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक का दण्ड केशों तक क्षत्रिय का माथे तक बनाना चाहिए और वैश्य का नाक तक ऊंचा होना चाहिए॥२१॥


दण्डों का स्वरूप―


ऋजवस्ते तु सर्वे स्युरव्रणाः सौम्यदर्शनाः।

अनुद्वेगकरा नॄणां सत्वचोऽनग्निदूषिताः॥२२॥ [२.४७] (२२)


वे सब दण्ड सीधे बिना गाँठ वाले देखने में प्रिय लगने वाले मनुष्यों को भद्दे न लगने वाले छालसहित और अग्नि में बिना जले-झुलसे होने चाहियें॥२२॥


संस्कार में भिक्षा-विधान―


प्रतिगृह्येप्सितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम्। 

प्रदक्षिणं परीत्याग्निं चरेद् भैक्षं यथाविधि॥२३॥ [२.४८] (२३)


ऊपर वर्णित दण्डों में अपने वर्ण के योग्य दण्ड धारण करके और सूर्य के सामने खड़ा होके यज्ञाग्नि की प्रदक्षिणा=परिक्रमा करके विधि-अनुसार उपनयन संस्कार के अवसर पर भिक्षा मांगे॥२३॥


भिक्षा-विधि―


भवत्पूर्वं चरेद् भैक्षमुपनीतो द्विजोत्तमः। 

भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्॥२४॥ [२.४९] (२४)


यज्ञोपवीत संस्कार में ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक 'भवत्' शब्द को वाक्य के पहले जोड़कर, जैसे―'भवान् भिक्षां ददातु' या 'भवती भिक्षां ददातु' [आप मुझे भिक्षा प्रदान करें] कहकर भिक्षा मांगे और क्षत्रिय वर्ण में दीक्षित बालक 'भवत्' शब्द को वाक्य के बीच में लगाकर, जैसे–'भिक्षां भवान् ददातु' या 'भिक्षां भवती ददातु' कहकर भिक्षा मांगे और वैश्य वर्ण में दीक्षित बालक 'भवत्' शब्द को वाक्य के बाद में जोड़कर, जैसे—'भिक्षां ददातु भवान्' या 'भिक्षां ददातु भवती' कहकर भिक्षा मांगे॥२४॥ 


भिक्षा किन से मांगे―


मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनीं निजाम्। 

भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमानयेत्॥२५॥ [२.५०] (२५)


[इन ब्रह्मचारियों को] माता या बहन से अथवा माता की सगी बहन अर्थात् सगी मौसी से और जो इस भिक्षार्थी को भिक्षा का निषेध न करे उससे पहले भिक्षा की याचना करे॥२५॥


गुरु को भिक्षा-समर्पण―


समाहृत्य तु तद्भैक्षं यावदन्नममायया।

निवेद्य गुरवेऽश्नीयादाचम्य प्राङ्मुखः शुचिः॥२६॥ [२.५१] (२६) 


उस भिक्षा को अर्जित करके जितनी भी वह भोज्य सामग्री हो उसे निष्कपट भाव से पहले गुरु को निवेदित करके, पश्चात् गुरु द्वारा प्रदत्त भिक्षा को स्वच्छता पूर्वक पूर्व की ओर मुख करके बैठ कर आचमन करके खाये॥२६॥


भोजन से पूर्व आचमन विधान―


उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात्समाहितः। 

भुक्त्वा चोस्पृशेत्सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत्॥२८॥ [२.५३] (२७)


[ऐसे ही] द्विज प्रतिदिन आचमन करके एकाग्र मन से भोजन खाये और खाकर अच्छी प्रकार कुल्ला करे तथा जल से नाक, मुख, नेत्र आदि इन्द्रियों का स्पर्श करे अर्थात् धोये॥२८॥


भोजन-सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक विधान―


पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन्। 

दृष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः॥२९॥ [२.५४] (२८)


खाते हुए सदैव भोज्य पदार्थ का आदर करे अर्थात् रुचिपूर्वक और इसे निन्दाभाव से रहित होकर अर्थात् प्रसन्नता पूर्वक खाये भोजन को देखकर मन में उल्लास और प्रसन्नता की भावना करे तथा उसकी सर्वदा प्रशंसा करे अर्थात् भोजन के प्रति सदैव प्रसन्नता का भाव रखे॥२९॥


पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्जं च यच्छति।

अपूजितं तु तद् भुक्तमुभयं नाशयेदिदम्॥३०॥ [२.५५] (२९)


क्योंकि प्रसन्नता-आदरपूर्वक किया हुआ भोजन सदैव बल और स्फूर्ति देने वाला होता है और वह उपेक्षा-अनादरपूर्वक खाया हुआ इन दोनों, बल और स्फूर्ति को नष्ट करता है अर्थात् उससे वांछित लाभ नहीं प्राप्त होता॥३०॥


नोच्छिष्टं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याच्चैव तथान्तरा।

न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद्व्रजेत्॥३१॥ [२.५६] (३०)


किसी को अपना झूठा पदार्थ न दे और उसी प्रकार भोजन के समय को छोड़कर बीच में भोजन न करे न अधिक भोजन करे और भोजन किये पश्चात् हाथ-मुख धोये बिना झूठे मुंह कहीं इधर-उधर न जाये॥३१॥


अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्यं चातिभोजनम्। 

अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥३२॥ [२.५७] (३१)


अधिक भोजन करना स्वास्थ्यनाशक आयुनाशक सुख-नाशक अहितकर और लोगों द्वारा निन्दित माना गया है, इसलिए अधिक भोजन करना सदा छोड़ देवे॥३२॥


आचमन-विधि―


ब्राह्मेण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत्। 

कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन॥३३॥ 

अङ्गुष्ठमूलस्य तले ब्राह्यं तीर्थं प्रचक्षते। 

कायमङ्गुलिमूलेऽग्रे दैवं पित्र्यं तयोरधः॥३४॥ [२.५८, ५९] (३२, ३३)


शिक्षित तीनों द्विज प्रतिदिन आचमन करते समय ब्राह्मतीर्थ [हाथ के अंगूठे के मूलभाग का स्थान, जिससे कलाई भाग की ओर से आचमन ग्रहण किया जाता है] से अथवा कायतीर्थ=प्राजापत्य [कनिष्ठा अंगुली के मूलभाग के पास का बगल का स्थान] से या त्रैदशिक=देवतीर्थ [-अंगुलियों के अग्रभाग का स्थान] से आचमन करे, पितृतीर्थ [अंगूठे तथा तर्जनी के मध्य का स्थान] से कभी आचमन न करे॥३३॥


अंगूठे के मूलभाग के नीचे का स्थान ब्राह्मतीर्थ अंगुलियों के मूलभाग का स्थान कायतीर्थ अंगुलियों के अग्रभाग का स्थान दैवतीर्थ और अंगुलियों और अंगूठे का मध्यवर्ती मूल भाग का स्थान पितृतीर्थ कहा जाता है॥३४॥


त्रिराचामेदपः पूर्वं द्विः प्रमृज्यात्ततो मुखम्। 

खानि चैव स्पृशेदद्भिरात्मानं शिर एव च॥३५॥ [२.६०] (३४)


पहले जल का तीन बार आचमन करे उसके बाद मुख को दो बार धोये और नाक, कान, नेत्र आदि इन्द्रियों को हृदय और सिर को भी जल से स्पर्श करे॥३५॥


यज्ञोपवीत धारण की तीन स्थितियाँ―


उद्धृते दक्षिणे पाणावुपवीत्युच्यते द्विजः। 

सव्ये प्राचीन आवीती, निवीती कण्ठसज्जने॥३८॥ [२.६३] (३५)


द्विज=तीन वर्णस्थ व्यक्ति दाहिने हाथ को ऊपर रखके यज्ञोपवीत पहनने की अवस्था में [अर्थात् जब द्विज यज्ञोपवीत को दायें हाथ और कन्धे के नीचे लटकाकर तथा बायें कन्धे के ऊपर रखकर पहनता है, तब] 'उपवीती', बायें हाथ नीचे और दायें कन्धे के ऊपर रखकर पहनने की अवस्था में 'प्राचीन आवीती' और गले में माला के समान पहनने की अवस्था में 'निवीती' कहलाता है॥३८॥


यज्ञोपवीत मेखलादि की पुनर्ग्रहण-विधि―


मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्। 

अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवत्॥३९॥ [२.६४] (३६)


मेखला, मृगचर्म, दण्ड, यज्ञोपवीत, कमण्डलु इनके बेकार होने पर इन्हें बहते जल में फेंक कर दूसरे नयों को मन्त्रपूर्वक धारण करे॥३९॥


केशान्त संस्कार कर्म―


केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते। 

राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य द्व्यधिके ततः॥४०॥ [२.६५] (३७)


केश मुण्डन का संस्कार ब्राह्मण-बालक का सोलहवें वर्ष में, क्षत्रिय-बालक का बाईसवें वर्ष में, वैश्य का क्षत्रिय से दो वर्ष अधिक अर्थात् चौबीसवें वर्ष में विहित किया गया है॥४०॥


उपनयन विधि की समाप्ति एवं ब्रह्मचारी के कर्मों का कथन―


एष प्रोक्तो द्विजातीनामौपनायनिको विधिः। 

उत्पत्तिव्यञ्जकः पुण्यः, कर्मयोगं निबोधत॥४३॥ [२.६८] (३८)


यह द्विज बनने के इच्छुकों के द्वितीय जन्म अर्थात् विद्याजन्म का आरम्भ करने वाली और मनुष्यों को द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बनाने वाली कल्याण-कारक उपनयन संस्कार की विधि कही, [अब उपनयन में दीक्षित होने वाले ब्रह्मचारियों के] कर्त्तव्यों को सुनो―॥४३॥


(ब्रह्मचारियों के कर्त्तव्य)


२.४४ से २.२२४ तक


उपनयन के पश्चात् ब्रह्मचारी को शिक्षा―


उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादितः। 

आचारमग्निकार्यं च सन्ध्योपासनमेव च॥४४॥ [२.६९] (३९)


गुरु शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार करके पहले शुद्धि=स्वच्छता से रहने की विधि सदाचरण और शिष्टाचार अग्निहोत्र की विधि और सन्ध्या-उपासना की विधि सिखाये॥४४॥


वेदाध्ययन से पहले गुरु को अभिवादन―


ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा।

संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माञ्जलिः स्मृतः॥४६॥ [२.७१] (४०)


वेद पढ़ने के आरम्भ और समाप्ति पर सदैव गुरु के दोनों चरणों को छूकर नमस्कार करे दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करने के बाद फिर गुरु से पढ़ना चाहिये; इसी [हाथ जोड़ने] को 'ब्रह्माञ्जलि' कहा जाता है॥४६॥


गुरु को अभिवादन करने की विधि―


व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः। 

सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो, दक्षिणेन च दक्षिणः॥४७॥ [२.७२] (४१)


गुरु के चरणों का स्पर्श हाथों को अदल-बदल करके करना चाहिए बायें हाथ से बायां चरण और दायें हाथ से दायाँ पैर का स्पर्श करना चाहिए [प्रणामकर्त्ता का बायां हाथ नीचे रह कर गुरु के बायें पैर का स्पर्श करे और अपने बायें हाथ के ऊपर से दायां हाथ करके गुरु के दायें चरण को स्पर्श करे]॥४७॥


अध्ययन के आरम्भ एवं समाप्ति की विधि―


अध्येष्यमाणं तु गुरुर्नित्यकालमतन्द्रितः।

अधीष्व भो इति ब्रूयाद्विरामोऽस्त्विति चारमेत्॥४८॥ [२.७३] (४२) 


गुरु सदैव पढ़ाते समय आलस्यरहित होकर पढ़ने वाले शिष्य को 'हे शिष्य पढ़ो' इस प्रकार कहे और 'अब विराम करो' ऐसा कह कर पढ़ाना समाप्त करे॥४८॥


वेदाध्ययन के आद्यन्त में प्रणवोच्चारण का विधान―


ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा। 

स्रवत्यनोङ्कृतं पूर्वं, पुरस्ताच्च विशीर्यति॥४९॥ [२.७४] (४३)


[शिष्य] सदैव वेद पढ़ने के आरम्भ और अन्त में प्रणव='ओ३म्' का उच्चारण करे आरम्भ में ओंकार का उच्चारण न करने से पढ़ा हुआ बिखर जाता है [=भलीभांति ग्रहण नहीं हो पाता] और बाद में 'ओ३म्' का उच्चारण न करने से पढ़ा हुआ स्थिर नहीं रहता॥४९॥


'ओ३म्' एवं गायत्री की उत्पत्ति―


अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः। 

वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवःस्वरितीति च॥५१॥ [२.७६] (४४)


परमात्मा ने 'ओम्' शब्द के 'अ' 'उ' और 'म्' मूल अक्षरों [अ+उ+म्=ओम्] को तथा 'भूः' 'भुवः' 'स्वः' गायत्री मन्त्र की इन तीन महाव्याहृतियों को तीनों वेदों से दुहकर साररूप में निकाला है और 'ओम्' तीनों वेदों का प्रतिनिधि नाम है [द्वितीय 'इति' का प्रयोग पादपूर्त्त्यर्थ है]॥५१॥


त्रिभ्यः एव तु वेदेभ्यः पादं पादमदूदुहत्। 

तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः॥५२॥ [२.७७] (४५)


सबसे महान् परमात्मा ने 'तत्' इस पद से प्रारम्भ होने वाली सावित्री ऋचा [=गायत्री मन्त्र] का एक-एक पाद [प्रथम पाद है―'तत्सवितुर्वरेण्यम्', द्वितीय पाद है―'भर्गो देवस्य धीमहि', तृतीय पाद है―'धियो यो नः प्रचोदयात्'] ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद तीनों वेदों से दुहकर सार रूप में बनाया है। गायत्री मन्त्र वेदों का ही प्रतिनिधि मन्त्र है॥५२॥


'ओ३म्' एवं गायत्री के जप का फल―


एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम्।

सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते॥५३॥ [२.७८] (४६)


इस [ओम्] अक्षर को और 'भूः भुवः स्वः' इन व्याहृतियों सहित इस गायत्री ऋचा [=मन्त्र] को ["ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।" इस मन्त्र को] वेदपाठी द्विज दोनों सन्ध्याओं अर्थात् प्रातः, सायंकाल में उपासना के समय जपते हुए वेदाध्ययन के पुण्य को प्राप्त करता है॥५३॥


इन्द्रिय-संयम का निर्देश―


इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु। 

संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्॥६३॥ [२.८८] (४७)


जैसे विद्वान्=बुद्धिमान् सारथि घोड़ों को नियन्त्रण में रखकर सही मार्ग पर रखता है वैसे मन और आत्मा को खोटे कामों में खैंचने वाले विषयों में विचरती हुई इन्द्रियों के निग्रह में प्रयत्न सब प्रकार से करे॥६३॥


ग्यारह इन्द्रियों की गणना―


एकादशेन्द्रियाण्याहुर्यानि पूर्वे मनीषिणः। 

तानि सम्यक्प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥६४॥ [२.८९] (४८)


पहले मनीषि विद्वानों ने जो ग्यारह इन्द्रियाँ कही हैं उनको यथोचित क्रम से ठीक-ठीक कहता हूँ॥६४॥


श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी। 

पायूपस्थं हस्तपादं वाक्चैव दशमी स्मृता॥६५॥ [२.९०] (४९)


कान, त्वचा, नेत्र, जीभ और पांचवीं नासिका=नाक गुदा, उपस्थ (=मूत्र इन्द्रिय) हाथ, पग वाणी ये दश इन्द्रियां इस शरीर में हैं॥६५॥


बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैषां श्रोत्रादीन्यनुपूर्वशः। 

कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैषां पाय्यवादीनि प्रचक्षते॥६६॥ [२.९१] (५०)


इनमें क्रमशः कान आदि पहली पांच 'ज्ञानेन्द्रिय' कहाती हैं और बाद की गुदा आदि पांच 'कर्मेन्द्रिय' कहाती हैं॥६६॥


ग्यारहवीं इन्द्रिय मन―


एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम्।

यस्मिञ्जिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ॥६७॥ [२.९२] (५१)


ग्यारहवीं इन्द्रिय मन है ऐसा समझना चाहिए वह अपने विशेष गुणों के कारण दोनों प्रकार की इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है जिस मन के जीतने में पांचों-पांचों इन्द्रियों के दोनों समुदाय अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दसों इन्द्रियां स्वत: जीत ली जाती हैं॥६७॥


इन्द्रिय-संयम से प्रत्येक कार्य में सिद्धि―


इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्। 

सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति॥६८॥ [२.९३] (५२)


जीवात्मा इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर निःसन्देह इन्द्रिय-दोषों से ग्रस्त हो जाता है यदि उन्हीं दश इन्द्रियों को वश में कर लेता है तो उससे वह सिद्धि=सफलता और कल्याण को प्राप्त करता है॥६८॥


विषयों के सेवन से इच्छाओं की वृद्धि―


न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥६९॥ [२.९४] (५३) 


तृष्णा तृष्णाओं अथवा विषयों के भोगने से कभी भी शान्त नहीं होती है, अपितु जैसे अग्नि घी आदि की आहुति डालने से अधिक-अधिक ही बढ़ती जाती है, उसी प्रकार विषयों के सेवन से तृष्णाएँ भी बढ़ती जाती हैं॥६९॥


विषय त्याग ही श्रेष्ठ है―


यश्चैतान्प्राप्नुयात्सर्वान्यश्चैतान्केवलांस्त्यजेत्। 

प्रापणात्सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते॥७०॥ [२.९५] (५४) 


जो इन सब तृष्णाओं या सब विषयों का उपभोग करे और जो इन सब को पूर्णतः त्याग दे [इन दोनों बातों में] सब तृष्णाओं या विषयों को प्राप्त=उपभोग करने से उनको सर्वथा त्याग देना अधिक अच्छा है॥७०॥


न तथैतानि शक्यन्ते सन्नियन्तुमसेवया।

विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः॥७१॥ [२.९६] (५५)


विषयों में आसक्त इन इन्द्रियों को विषयों के सेवन के त्याग से भी आसानी से वश में नहीं किया जा सकता। जैसे कि नित्यप्रति ज्ञानपूर्वक वश में किया जा सकता है। मनुष्य विषयसेवन से दोषों को प्राप्त होता है और विषयत्याग से सिद्धि को प्राप्त करता है, [२.६८] इत्यादि विषय के ज्ञान से इन्द्रियों को भलीभांति वश में किया जा सकता है॥७१॥


विषयी व्यक्ति को सिद्धि नहीं मिलती―


वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।

न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्॥७२॥ [२.९७] (५६)


जो अजितेन्द्रिय और दूषित मानस का व्यक्ति है, उसके वेद पढ़ना, त्याग करना, यज्ञ=अग्नि-होत्रादि करना, यम-नियमों का पालन आदि करना, तप=धर्माचरण के लिए कष्ट सहन करना आदि कर्म कदापि सिद्ध=सफल नहीं हो सकते अर्थात् जितेन्द्रियता के साथ ही इन आचरणों की सफलता होती है॥७२॥


जितेन्द्रिय की परिभाषा―


श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः। 

न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः॥७३॥ [२.९८] (५७)


जो मनुष्य स्तुति सुन के हर्ष और निन्दा सुन के शोक अच्छा स्पर्श करके सुख और दुष्ट स्पर्श से दु:ख सुन्दर रूप देख के प्रसन्न और दुष्टरूप देख अप्रसन्न उत्तम भोजन करके आनन्दित और निकृष्ट भोजन करके दुःखित सुगन्ध में रुचि, दुर्गन्ध में अरुचि न करता हो अर्थात् उनके वशीभूत और उनसे प्रभावित नहीं होता उसको 'जितेन्द्रिय' समझना-मानना चाहिए॥७३॥


एक भी इन्द्रिय के असंयम से प्रज्ञाहानि―


इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम्। 

तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम्॥७४॥ [२.९९] (५८)


सब इन्द्रियों में यदि एक भी इन्द्रिय अपने विषय में आसक्त रहने लगती हैं तो उसी के कारण इस मनुष्य की बुद्धि ऐसे नष्ट होने लगती है जैसे चमड़े के बर्तन=मशक में एक छिद्र होने से ही सारा पानी बहकर नष्ट हो जाता है॥७४॥


इन्द्रिय-संयम से सब अर्थों की सिद्धि―


वशे कृत्वेन्द्रियग्रामं संयम्य च मनस्तथा। 

सर्वान् संसाधयेदर्थानक्षिण्वन् योगतस्तनुम्॥७५॥ [२.१००] (५९)


पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय, इन दश इन्द्रियों के समूह को नियन्त्रण में रखकर और ग्यारहवें मन को वश में करके योगाभ्यास में इस प्रकार संलग्न रहे कि उससे शरीर में क्षीणता और हानि न होवे उस प्रकार से रहता हुआ अपने सब कामों, लक्ष्यों और व्यवहारों को सिद्ध करे॥७५॥


सन्ध्योपासन-समय―


पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमर्कदर्शनात्। 

पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात्॥७६॥ [२.१०१] (६०)


प्रात:कालीन सन्ध्या करते समय गायत्री मन्त्र का अर्थसहित जप करते हुए सूर्योदय पर्यन्त बैठे, उपासना करे। सायंकालीन सन्ध्या में तारों के दर्शन पर्यन्त बैठकर शुद्धभाव से गायत्री मन्त्र के जप से परमात्मा की उपासना करे॥७६॥


सन्ध्योपासना का फल―


पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति। 

पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्॥७७॥ [२.१०२] (६१)


[मनुष्य] प्रातःकालीन सन्ध्या में बैठकर अर्थसहित जप करके रात्रिकालीन मानसिक मलिनता या दोषों को दूर करता है और सायंकालीन सन्ध्या करके दिन में संचित मानसिक मलिनता या दोषों को नष्ट करता है। [अभिप्राय यह है कि दोनों समय सन्ध्या करने से पूर्ववेला में आये दोषों पर चिन्तन-मनन और पश्चात्ताप करके उन्हें आगे न करने के लिए संकल्प किया जाता है तथा गायत्री जप द्वारा ईश्वर की उपासना से अपने संस्कारों को शुद्ध-पवित्र बनाया जा सकता है]॥७७॥


सन्ध्योपासन न करनेवाला शूद्र―


न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम्। 

स साधुभिर्बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥७८॥ [२.१०३] (६२)


जो मनुष्य प्रतिदिन प्रातः और सायं सन्ध्योपासना नहीं करता उसको शूद्र के समान समझकर द्विजों के समस्त अधिकारों से वंचित करके शूद्र वर्ण में रख देना चाहिए, क्योंकि उसका आचरण शूद्र के समान होता है॥७८॥


प्रतिदिन गायत्री-जप का विधान―


अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। 

सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः॥७९॥ [२.१०४] (६३)


सन्ध्योपासना की नित्यचर्या का अनुष्ठान करने वाला व्यक्ति वनप्रदेश अथवा एकान्त शान्त प्रदेश में जाकर जलस्थान के निकट बैठकर ध्यानमग्न होकर सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का अर्थसहित जप-चिन्तन करे और तदनुसार आचरण करे॥७९॥


वेद, अग्निहोत्र आदि में अनध्याय नहीं होता―


वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके।

नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥८०॥ [२.१०५] (६४)


वेद के पठन-पाठन में और नित्यकर्म में विहित गायत्री जप या सन्ध्योपासना [२.७६-७९] में तथा यज्ञानुष्ठान में अनध्याय अर्थात् न करने की छूट नहीं होती। भाव यह है कि इन अनुष्ठानों को प्रत्येक स्थिति में करना चाहिए, इनके साथ अनध्याय अर्थात् अवकाश का नियम लागू नहीं होता॥८०॥


नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्।

ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम्॥८१॥ [२.१०६] (६५)


सन्ध्या-यज्ञ आदि नित्यचर्या के अनुष्ठान का त्याग अथवा उनमें अवकाश नहीं होता क्योंकि उनको परमात्मा की उपासना का अनुष्ठान माना गया है। अवकाशकाल में भी किया गया यज्ञ-सदृश उत्तम कर्म और ब्रह्म को किया गया समर्पण अर्थात् सन्ध्योपासन सदा पुण्यदायक ही होते हैं॥८१॥


स्वाध्याय का फल―


यः स्वाध्यायमधीतेऽब्दं विधिना नियतः शुचिः।

तस्य नित्यं क्षरत्येष पयो दधि घृतं मधु॥८२॥ [२.१०७] (६६)


जो व्यक्ति जलवर्षक मेघ के समान कल्याणवर्षक स्वाध्याय को [वेदों का अध्ययन, यज्ञ, गायत्री का जप एवं सन्ध्या- उपासना आदि स्वच्छ-पवित्र होकर, एकाग्रचित्त होकर विधिपूर्वक करता है उसके लिए यह स्वाध्याय सदा दूध, दही, घी और मधु को बरसाता है।


अभिप्रायः यह है कि जिस प्रकार इन पदार्थों का सेवन करने से शरीर तृप्त, पुष्ट, बलशाली और नीरोग हो जाता है, उसी प्रकार स्वाध्याय करने से भी मनुष्य का जीवन शान्तिमय, गुणमय, ज्ञानमय और पुण्यमय या आनन्दमय हो जाता है, अथवा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनकी प्राप्ति होती है॥८२॥


समावर्तन तक होमादि कर्त्तव्य करने का कथन―


अग्नीन्धनं भैक्षचर्यामधःशय्यां गुरोर्हितम्। 

आसमावर्तनात्कुर्यात्कृतोपनयनो द्विजः॥८३॥ [२.१०८] (६७)


यज्ञोपवीत संस्कार में दीक्षित द्विज बालक गुरुकुल में रहते हुए अग्निहोत्र का अनुष्ठान भिक्षावृत्ति भूमि में शयन गुरु की सेवा समावर्तन संस्कार होने तक [शिक्षा समाप्त करके घर लौटने तक] करता रहे॥८३॥


पढ़ाने योग्य शिष्य―


आचार्यपुत्रः शुश्रूषुर्ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः। 

आप्तः शक्तोऽर्थदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश धर्मतः॥८४॥ [२.१०९] (६८)


अपने आचार्य=गुरु का पुत्र सेवा करने वाला किसी विषय के ज्ञान का देने वाला धर्मनिष्ठ व्यक्ति छल-कपटरहित आचरण वाला घनिष्ठ मित्र आदि विद्या ग्रहण करने में समर्थ अर्थात् बुद्धिमान् पात्र धन देने वाला हितैषी अपना सगा-सम्बन्धी ये दश धर्म से अवश्य पढ़ाने योग्य हैं॥८४॥


प्रश्नादि के बिना उपदेश निषेध―


नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः।

जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्॥८५॥ [२.११०] (६९)


बुद्धिमान् मनुष्य लोक में किसी के बिना पूछे और अन्याय अर्थात् छल-कपट, असभ्यता आदि से पूछने पर किसी विषय को जानते हुए भी उत्तर न दे, ऐसे समय जड़ के समान अर्थात् शान्तभाव से चुप रहे॥८५॥


दुर्भावनापूर्वक प्रश्न-उत्तर से हानि―


अधर्मेण च यः प्राह यश्चाधर्मेण पृच्छति। 

तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं वाऽधिगच्छति॥८६॥ [२.१११] (७०)


"जो अन्याय, पक्षपात, असत्य का ग्रहण, सत्य का परित्याग, हठ, दुराग्रह.... इत्यादि अधर्म कर्म से युक्त होकर छल-कपट से पूछता है और जो पूर्वोक्त प्रकार से उत्तर देता है, ऐसे व्यवहार में विद्वान् मनुष्य को योग्य है कि न उससे पूछे और न उसको उत्तर देवे। जो ऐसा नहीं करता तो पूछने वा उत्तर देने वाले दोनों में से एक मर जाता है अर्थात् निन्दित होता है । अथवा अत्यन्त विरोध को प्राप्त होकर दोनों दु:खी होते हैं॥"८६॥


विद्या-दान किसे न दें―


धर्मार्थौ यत्र न स्यातां शुश्रूषा वाऽपि तद्विधा। 

तत्र विद्या न वक्तव्या शुभं बीजमिवोषरे॥८७॥ [२.११२] (७१)


जहाँ विद्यार्थी में धर्माचरण अथवा उससे अर्थप्राप्ति न हो और गुरु के अनुरूप सेवाभावना भी न हो ऐसे को विद्या का उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह ऊसर भूमि में श्रेष्ठ बीज बोने के समान है। जैसे बंजर भूमि में बोया हुआ बीज व्यर्थ होता है उसी प्रकार उक्त कुपात्र व्यक्ति को दी गई विद्या भी व्यर्थ जाती है, अर्थात् वह विद्या का दुरुपयोग करता है, जैसे दुष्ट व्यक्ति विज्ञान विद्या को सीखकर उसका उपयोग लोकहानि के लिए करता है॥८७॥


कुपात्र को विद्यादान का निषेध―


विद्ययैव समं कामं मर्तव्यं ब्रह्मवादिना। 

आपद्यपि हि घोरायां न त्वेनामिरिणे वपेत्॥८८॥ [२.११३] (७२)


वेद का विद्वान् चाहे विद्या को साथ लेकर मर जाये किन्तु भयंकर आपत्तिकाल में भी इस विद्या को बंजर भूमि में बीज के समान विद्या के ईर्ष्या-द्वेषी कुपात्र व्यक्ति के मस्तिष्क में न बोये अर्थात् जहाँ विद्या फलवती न हो, जो उसका विनाश या दुरुपयोग करे, ऐसे कुपात्र को न दे॥८८॥


विद्यादान-सम्बन्धी आख्यान एवं निर्देश―


विद्या ब्राह्मणमेत्याह शेवधिस्तेऽस्मि रक्ष माम्। 

असूयकाय मां मा दास्तथा स्यां वीर्यत्तमा॥८९॥ [२.११४] (७३)


[एक आख्यान प्रचलित है कि एक बार] विद्या विद्वान् ब्राह्मण के पास आकर बोली―मैं तेरा खजाना हूँ, तू मेरी रक्षा कर मुझे मेरी उपेक्षा, निन्दा, दुरुपयोग या ईर्ष्या-द्वेष करने वाले को मत प्रदान कर इस प्रकार से ही मैं वीर्यवती=महत्त्वपूर्ण और शक्तिसम्पन्न बन सकूंगी॥८९॥


यमेव तु शुचिं विद्यान्नियतब्रह्मचारिणम्।

तस्मै मां ब्रूहि विप्राय निधिपायाप्रमादिने॥९०॥ [२.११५] (७४) 


जिसे तुम छल-कपट रहित, शुद्ध भाव से युक्त, निश्चित रूप से जितेन्द्रिय समझो उस आलस्यरहित और इस विद्यारूपी खजाने की रक्षा एवं वृद्धि करने वाले जिज्ञासु शिष्य को मुझे पढ़ाना॥९०॥


गुरु को प्रथम अभिवादन―


लौकिकं वैदिकं वाऽपि तथाऽध्यात्मिकमेव च। 

आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत्॥९२॥ [२.११७] (७५)


[शिष्टाचार यह है कि] जिससे लोक में काम आने वाला―शस्त्रविद्या, अर्थशास्त्र, इतिहास, राजनीति विज्ञान आदि सम्बन्धी अथवा वेदविषयक तथा आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी ज्ञान प्राप्त करे उसको शिक्षार्थी पहले नमस्कार करे॥९२॥


गुरु की शय्या और आसन पर न बैठे―


शय्यासनेऽध्याचरिते श्रेयसा न समाविशेत्। 

शय्यासनस्थश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत्॥९४॥ [२.११९] (७६)


गुरुजन आदि बड़ों द्वारा प्रयोग में लायी जाने वाली शय्या=पलंग आदि और आसन पर न बैठे और यदि अपनी शय्या और आसन पर लेटा या बैठा हो तो इन गुरुजन आदि बड़ों के आने पर उनको उठकर अभिवादन करे॥९४॥


बड़ों के अभिवादन से मानसिक प्रसन्नता―


ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति। 

प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते॥१५॥ [२.१२०] (७७)


विद्या, पद, आयु आदि में बड़े लोगों के आने पर छोटों के प्राण ऊपर को उभरने से लगते हैं अर्थात् प्राणों में घबराहट-सी उत्पन्न होने लगती है किन्तु उठने और अभिवादन करने से फिर से मनुष्य प्राणों की सामान्य-स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त कर लेता है अर्थात् प्राणों की घबराहट दूर हो जाती है॥९५॥


अभिवादन और सेवा से आयु, विद्या, यश: बल की वृद्धि―


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारितस्य वर्द्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्॥९६॥ [२.१२१] (७८)


अभिवादन करने का जिसका स्वभाव है और विद्या वा अवस्था में वृद्ध पुरुषों की जो नित्य सेवा-संगति करता है उसकी आयु, विद्या, कीर्त्ति और बल इन चारों की नित्य उन्नति हुआ करती है॥९६॥


अभिवादन-विधि―


अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयन्। 

असौ नामाहमस्मीति स्वं नाम परिकीर्तयेत्॥९७॥ [२.१२२] (७९)


द्विज अपने से बड़े को प्रणाम करते हुए अभिवादनसूचक शब्द के बाद 'मैं अमुक नाम वाला हूँ' ऐसा कहते हुए अपना नाम बतलाये, जैसे―अभिवादये अहं देवदत्तः.......॥९७॥


भोःशब्दं कीर्तयेदन्ते स्वस्य नाम्नोऽभिवादने। 

नाम्नां स्वरूपभावो हि भोभाव ऋषिभिः स्मृतः॥९९॥ [२.१२४] (८०)


अभिवादन में अपना नाम बताने के पश्चात् 'भोः' यह शब्द लगाये क्योंकि ऋषियों ने 'भोः' शब्द को नामों के स्वरूप का द्योतक ही माना है अर्थात् 'भोः' सम्बोधन के उच्चारण में ही श्रोता के नाम का अन्तर्भाव स्वतः हो जाता है। जैसे― "अभिवादये अहं देवदत्तः भोः"॥९९॥


अभिवादन का उत्तर देने की विधि―


आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने। 

अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः पूर्वाक्षरः प्लुतः॥१००॥ [२.१२५] (८१)


अभिवादन का उत्तर देते समय द्विज को 'हे सौम्य! आयुष्मान् हो' ऐसा कहना चाहिए और नमस्कार करने वाले के नाम के अन्तिम अकार आदि स्वरों को पहले अक्षर सहित प्लुत की ध्वनि [तीन मात्राओं के समय] में उच्चारण करे। जैसे 'देवदत्त' नाम में अन्तिम स्वर अकार है, जो 'त्' में मिला हुआ है। इस प्रकार त्' सहित अकार को अर्थात् अन्तिम 'त' को प्लुत बोले। उदाहरण है―"आयुष्यमान् भव सौम्य देवदत्त ३" अथवा "आयुष्मान् भव सौम्य यज्ञदत्त ३"॥१००॥


अभिवादन का उत्तर न देने वाले को अभिवादन न करें―


यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्। 

नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः॥१०१॥ [२.१२६] (८२)


जो द्विज अभिवादन करने के उत्तर में अभिवादन करना नहीं जानता अर्थात् नहीं करता बुद्धिमान् आदमी को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिए, क्योंकि वह जैसा अशिक्षित शूद्र होता है, वैसा ही वह द्विज होता है अर्थात् वह शूद्र के समान है॥१०१॥


वर्णानुसार कुशल प्रश्नविधि―


ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुमनामयम्। 

वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च॥१०२॥ [२.१२७] (८३)


मिलने पर, अभिवादन के बाद ब्राह्मण से कुशलता―प्रसन्नता एवं वेदाध्ययन आदि की निर्विघ्नता, क्षत्रिय से बल आदि की दृष्टि से स्वास्थ्य के विषय में, वैश्य से क्षेम―धन आदि की सुरक्षा और आनन्द के विषय में, और शूद्र से स्वस्थता के विषय में अवश्य पूछे। 


अभिप्राय यह है कि वर्णानुसार उनके मुख्य उद्देश्यसाधक व्यवहारों की निर्विघ्नता के विषय में प्रधानता से पूछे॥१०२॥


दीक्षित के नामोच्चारण का निषेध―


अवाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवीयानपि यो भवेत्। 

भोभवत्पूर्वकं त्वेनमभिभाषेत धर्मवित्॥१०३॥ [२.१२८] (८४)


विद्याप्राप्ति हेतु उपनयन में दीक्षित ब्रह्मचारी यदि कोई छोटा भी हो तो उसे नाम लेकर नहीं पुकारना चाहिए व्यवहार में चतुर व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने से छोटे व्यक्ति को भी 'भो' 'भवत्' जैसे आदरबोधक शब्दों से सम्बोधित करे॥१०३॥


परस्त्री के नामोच्चारण का निषेध―


परपत्नी तु या स्त्री स्यादसम्बन्धा च योनितः।

तां ब्रूयाद् भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च॥१०४॥ [२.१२९] (८५)


जो कोई महिला दूसरे की पत्नी हो और सगेपन से सम्बन्ध न रखने वाली हो अर्थात् बहन आदि न हो उसे 'भवती!' [=आप] 'सुभगे!' [=सौभाग्यवति!] 'भगिनी!' [=बहन] इस प्रकार के शिष्टाचारवाचक शब्दों से सम्बोधित करे॥१०४॥


समाज में सम्मान के आधार―


वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी। 

एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्॥१११॥ [२.१३६] (८६)


धन, बंधु-बांधव, आयु, उत्तम कर्म और पांचवीं―श्रेष्ठविद्या ये पांच सम्मान देने के स्थान हैं, परन्तु इनमें जो-जो बाद वाला है वह अतिशयता से उत्तम अर्थात् बड़ा है। धनी से अधिक बन्धु-बान्धव, बन्धु से अधिक बड़ी आयु वाले, बड़ी आयु वाले से अधिक श्रेष्ठ कर्म करने वाले और श्रेष्ठ कर्म वालों से उत्तम विद्वान् उत्तरोत्तर अधिक माननीय हैं॥१११॥


पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च। 

यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥११२॥ [२.१३७] (८७)


तीनों वर्णों में अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में परस्पर उक्त पांच गुणों में उत्तरोत्तर स्तर वाले अधिक संख्या में गुण जिसमें हों समाज में वह कम गुणवालों के द्वारा सम्मान करने योग्य है, किन्तु दशमी अवस्था अर्थात् नब्बे वर्ष से अधिक आयुवाला शूद्र सबके द्वारा पहले सम्मान देने योग्य है॥११२॥


किस-किस के लिए पहले मार्ग दें―


चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः। 

स्नातकस्य च राज्ञश्च पंथा देयो वरस्य च॥११३॥ [२.१३८] (८८)


सवारी अर्थात् रथ, गाड़ी आदि में सवार को दशमी अवस्था वाले अर्थात् नब्बे वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों को रोगी को बोझ उठाये हुए को स्त्रियों को और विद्वान् स्नातक को राजा को और दूल्हे को सामने से आने पर सम्मान में पहले रास्ता देना चाहिए॥११३॥


राजा और स्नातक में स्नातक अधिक मान्य―


तेषां तु समवेतानां मान्यौ स्नातकपार्थिवौ। 

राजस्नातकयोश्चैव स्नातको नृपमानभाक्॥११४॥ [२.१३९] (८९)


उन सबके एकत्रित होने पर विद्वान् स्नातक और राजा सबके सम्मान के उन योग्य हैं और राजा और स्नातक के एक स्थान पर मिलने पर स्नातक विद्वान् राजा के द्वारा पहले सम्मान पाने का पात्र है॥११४॥


आचार्य का लक्षण―


उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः। 

सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥११५॥ [२.१४०] (९०)


जो गुरु शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार कराके कल्पसूत्र अर्थात् आचार एवं कला ज्ञान सहित और रहस्य=वेदों में निहित गम्भीर सत्यविद्याओं के उद्घाटन सहित, अर्थात् निहित गूढ़ तत्त्वों की व्याख्या सहित वेद को पढ़ावे उसको 'आचार्य' कहते हैं॥११५॥


उपाध्याय का लक्षण―


एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः। 

योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते॥११६॥ [२.१४१] (९१)


जो जीविका के लिए वेद के किसी एक भाग या अंश को या फिर वेदांगों=शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दःशास्त्र और ज्योतिष विद्याओं को पढ़ाता है वह 'उपाध्याय' कहलाता है॥११६॥


पिता-गुरु का लक्षण―


निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि। 

सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥११७॥ [२.१४२] (९२)


जो विधि-अनुसार गर्भाधान, उपनयन आदि संस्कारों को करता है और बालक बालिका को घर पर भी शिक्षा देता है तथा अन्न आदि भोज्य पदार्थो द्वारा बालक का पालन-पोषण करता है वह विद्वान् पिता 'गुरु' कहलाता है॥११७॥


ऋत्विक् का लक्षण―


अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान्। 

यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते॥११८॥ [२.१४३] (९३)


जो ब्राह्मण किसी के द्वारा वरण किये जाने पर उस वरण करने वाले के अग्निहोत्र बलिवैश्वदेव आदि गृह्ययज्ञों तथा पूर्णिमा आदि विशेष उपलक्ष्यों पर किये जाने वाले अन्य यज्ञों को करता है वह उस वरण करने वाले यजमान का 'ऋत्विक्' कहलाता है॥११८॥


अध्यापक या आचार्य की महत्ता―


य आवृणोत्यवितथं ब्रह्मणा श्रवणावुभौ। 

स माता स पिता ज्ञेयस्तं न द्रुह्येत्कदाचन ॥११९॥ [२.१४४] (९४)


जो गुरु या आचार्य वेदज्ञान और विद्यादान के द्वारा दोनों कानों को सत्यज्ञान से परिपूर्ण करता है, सत्यज्ञान देता या पढ़ाता है उसे माता-पिता के समान सम्मानीय समझना चाहिए और उससे कभी द्रोह=ईर्ष्या-द्वेष न करे॥११९॥


पिता से वेदज्ञानदाता आचार्य बड़ा होता है―


उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान्ब्रह्मदः पिता। 

ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्॥१२१॥ [२.१४६] (९५)


उत्पन्न करने वाले पिता और विद्या तथा वेदज्ञान देने वाले पिता आचार्य में विद्या और वेदज्ञान देनेवाला आचार्यरूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है क्योंकि द्विज का [शरीर-जन्म की अपेक्षा] ब्रह्मजन्म=उपनयन में दीक्षित करके वेदाध्यन एवं विद्याप्राप्ति कराना ही इस जन्म और परजन्म में साथ रहने वाला है अर्थात् शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है किन्तु धर्म तथा विद्या के संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक साथ रहते हैं॥१२१॥


कामान्माता पिता चैनं यदुत्पादयतो मिथः। 

सम्भूतिं तस्य तां विद्याद्यद्योनावभिजायते॥१२२॥ [२.१४७] (९६)


माता और पिता जो इस बालक को मिलकर उत्पन्न करते हैं, वह सन्तान-प्राप्ति की कामना से करते हैं वह जो माता के गर्भ से उत्पन्न होता है उसका वह जन्म तो संसार में प्रकट होना मात्र साधारण जन्म है, अर्थात् वास्तविक जन्म तो उपनयन में दीक्षित कर शिक्षित बनाकर आचार्य ही देता है, जिससे मनुष्य वास्तव में मनुष्य बनता है॥१२२॥ 


आचार्य द्वारा प्रदत्त वर्ण-निर्धारण स्थायी होता है―


आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद्वेदपारगः।

उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साऽजरामरा॥१२३॥ [२.१४८] (९७)


वेदों में पारंगत आचार्य ब्रह्मचर्याश्रम की विधि-अनुसार गायत्रीमन्त्र की दीक्षापूर्वक उपनयन संस्कार द्वारा विद्यार्थी या व्यक्ति के जिस जन्म या वर्ण को प्रदान करता है अर्थात् जिस वर्ण की शिक्षा-दीक्षा को देकर वर्ण का निर्धारण करता है वही जाति=वर्ण या जन्म सही अर्थात् स्वीकार्य है, वही वर्ण प्रामाणिक है वह जाति अर्थात् वर्ण जीवन में स्वयं द्वारा अपरिवर्तनीय होती है। नये वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने के बाद ही उसे पुनः आचार्य अथवा अथवा राजसभा की अनुमति से ही बदला जा सकता है। अन्यार्थ में―आचार्य द्वारा प्रदत्त ब्रह्मजन्म=विद्यासंचय संस्कारों की दृष्टि से अजर-अमर है, परलोक में भी साथ देता है॥१२३॥


गुरु का सामान्य लक्षण―


अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः। 

तमपीह गुरुं विद्यात् श्रुतोपक्रियया तया॥१२४॥ [२.१४९] (९८)


जो कोई जिस किसी का विद्या पढ़ाकर थोड़ा या अधिक उपकार करता है उसको भी इस संसार में उस विद्या पढ़ाने के उपकार के कारण गुरु समझना चाहिए॥१२४॥


विद्वान् बालक वयोवृद्ध से बड़ा होता है―


ब्राह्मस्य जन्मनः कर्त्ता स्वधर्मस्य च शासिता। 

बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्मतः॥१२५॥ [२.१५०] (९९)


किसी को ब्रह्मजन्म अर्थात् ईश्वरज्ञान, विद्या एवं वेदाध्ययन रूप जन्म को देने वाला और किसी के अपने वर्ण धर्म की दीक्षा देने वाला विद्वान् बालक अर्थात् अल्पावस्था का होते हुए भी धर्म से शिक्षा प्राप्त करने वाले दीर्घायु व्यक्ति का पिता स्थानीय अर्थात् गुरु के समान बड़ा होता है॥१२५॥ 


उक्त विषय में आङ्गिरस का दृष्टान्त―


अध्यापयामास पितृञ्छिशुराङ्गिरसः कविः। 

पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्॥१२६॥ [२.१५१] (१००)


[इस प्रसंग में एक इतिवृत्त भी है] अंगिरा वंशी 'शिशु' नामक मन्त्रद्रष्टा विद्वान् ने अपने पिता के समान चाचा आदि पितरों को पढ़ाया ज्ञान देने के कारण उन बड़ों को 'हे पुत्रो' इस शब्द से सम्बोधित किया॥१२६॥


ते तमर्थमपृच्छन्त देवानागतमन्यवः। देवाश्चैतान्समेत्योचुर्न्याय्यंवः शिशुरुक्तवान्॥१२७॥ [२.१५२] (१०१)


[उक्त सम्बोधन को सुनकर] गुस्से में आये हुए उन चाचा आदि पितरों ने उस 'पुत्र' सम्बोधन के अर्थ अथवा औचित्य के विषय में अन्य देवाताओं=बड़े विद्वानों से पूछा और तब सब विद्वानों ने एकमत होकर उनसे कहा कि तत्त्वदर्शी शिशु आङ्गिरस ने तुम्हारे लिए 'पुत्र' शब्द का सम्बोधन न्यायोचित ही किया है॥१२७॥ 


विद्वत्ता के आधार पर बालक और पिता की परिभाषा―


अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः। 

अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम्॥१२८॥ [२.१५३] (१०२)


क्योंकि जो विद्या-विज्ञान से रहित है वह बालक और जो विद्या-विज्ञान का दाता है उस बालक को भी पिता स्थानीय मानना चाहिए क्योंकि सब शास्त्रों और आप्त विद्वानों ने अज्ञानी को 'बालक' और ज्ञानदाता को 'पिता' कहा है॥१२८॥


अवस्था आदि की अपेक्षा वेदज्ञानी की श्रेष्ठता―


तान हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न च बन्धुभिः। 

ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्॥१२९॥ [२.१५४] (१०३)


न अधिक वर्षों का होने से न श्वेत बाल के होने से न अधिक धन से न बड़े कुटुम्ब के होने से मनुष्य बड़ा होता है, किन्तु ऋषि-महात्माओं का यही नियम है कि जो हमारे बीच में वेद और विद्या-विज्ञान में अधिक है, वही बड़ा अर्थात् वृद्ध पुरुष है॥१२९॥


वर्णों में परस्पर ज्येष्ठता के आधार―


विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः। 

वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणामेव जन्मतः॥१३०॥ [२.१५५] (१०४)


ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान से क्षत्रियों में अधिक बल से वैश्यों में अधिक धन-धान्य से और शूद्रों में जन्म अर्थात् अधिक आयु से वृद्ध=बड़ा होता है॥१३०॥ 


अवस्था की अपेक्षा ज्ञान से वृद्धत्व―


त्वन तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।

यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः॥१३१॥ [२.१५६] (१०५)


कोई मनुष्य उस कारण से वृद्ध=बड़ा नहीं होता कि जिससे उसके केश पक जावें किन्तु जो जवान भी अधिक पढ़ा हुआ विद्वान् है उसको विद्वानों ने 'वृद्ध'=बड़ा माना है॥१३१॥


मूर्खता की निन्दा तथा मूर्ख का जीवन निष्फल―


यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः। 

यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति॥१३२॥ [२.१५७] (१०६)


जैसा काठ का बना हाथी, जैसा चमड़े का बना मृग और जो वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय न करने वाला द्विज है अर्थात् जो निर्धारित मुख्य कर्म वेदों का अध्ययन-अध्यापन नहीं करता वे तीनों नाममात्र के ही हैं अर्थात् हाथी, मृग और द्विज नकली हैं, वास्तविक नहीं॥१३२॥


यथा षण्ढोऽफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला। 

यथा चाज्ञेऽफलं दानं तथा विप्रोऽनृचोऽफलः॥१३३॥ [२.१५८] (१०७)


जैसे स्त्रियों में नपुंसक निष्फल अर्थात् सन्तानरूपी फल को नहीं प्राप्त कर सकता और जैसे गायों में गाय निष्फल है अर्थात् जैसे गाय गाय से सन्तानरूपी फल को नहीं प्राप्त कर सकती और जैसे अज्ञानी व्यक्ति को दिया दान निष्फल होता है वैसे ही वेद न पढ़ा हुआ अथवा वेद के स्वाध्याय से रहित ब्राह्मण मिथ्या है, अर्थात् उसको वास्तव में ब्राह्मण नहीं माना जा सकता, क्योंकि वेदाध्ययन ही ब्राह्मण होने का सबसे प्रधान कर्म और आधार है॥१३३॥


गुरु-शिष्यों का व्यवहार―


अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्। 

वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता॥१३४॥ [२.१५९] (१०८)


धर्म की वृद्धि चाहने वाले मनुष्य को अहिंसा अर्थात् हिंसा, हानि, ईर्ष्या-द्वेष, कष्टप्रदान आदि भावों से रहित होकर विद्यार्थियों या मनुष्यों का अनुशासन करना चाहिये, वही अनुशासन प्रशंसनीय और कल्याणकर होता है, और मीठी तथा कोमल वाणी अध्यापन और उपदेश में बोलनी चाहिए॥१३४॥


पवित्र मन वाला ही वैदिक कर्मों के फल को प्राप्त करता है―


यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा। 

स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम्॥१३५॥ [२.१६०] (१०९)


जिस मनुष्य के वाणी और मन सदैव शुद्धभावयुक्त और दोषरहित और भलीभांति अपने नियन्त्रण में रहते हैं, निश्चय से वही वेदार्थों में निहित यथार्थ को और पूर्ण पुण्य फल को प्राप्त करता है॥१३५॥


दूसरों से द्रोह आदि का निषेध―


नारुंतुदः स्यादार्तोऽपि न परद्रोहकर्मधीः। 

ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत्॥१३६॥ [२.१६१] (११०)


मनुष्य स्वयं दुःखी होता हुआ भी किसी दूसरे को पीड़ा न पहुंचावे न दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष या बुरा करने की भावना मन में लाये मनुष्य के जिस वचन के बोलने से कोई उद्विग्न हो ऐसी उस लोक में अप्रशंसनीय वाणी को न बोले॥१३६॥ 


ब्राह्मण के लिए अवमान-सहन का निर्देश―


सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।

अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा॥१३७॥ [२.१६२] (१११)


ब्राह्मण वर्णस्थ व्यक्ति सदैव सम्मान-प्राप्ति से, लौकेषणा से ऐसे बचकर रहे जैसे कोई विष से दूर रहता है और सम्मान न प्राप्त करने की भावना अमृत-प्राप्ति की इच्छा के समान सदा रखे अर्थात् ब्राह्मण के लिए सम्मान विष के समान हानिकर है और सम्मान की इच्छा न करना अमृत के समान हितकारी है॥१३७॥


सम्मानप्राप्ति की भावना से रहित सुखी―


सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते। 

सुखं चरति लोकेऽस्मिन्नवमन्ता विनश्यति॥१३८॥ [२.१६३] (११२)


क्योंकि सम्मान या लोकैषणा की चाहत न रखने वाला मनुष्य सुखपूर्वक सोता है और सुखपूर्वक जागता है अर्थात् जाग्रत अवस्था में भी सुखपूर्वक रहता है। अभिप्राय यह है कि मानव को सर्वाधिक रूप में व्यथित करने वाली मान-अपमान और उन से उत्पन्न होने वाली भावनाएँ उस व्यक्ति को सोते तथा जागते व्यथित नहीं करती, वह निश्चिन्त एवं शान्तिपूर्वक रहता है और वह इस संसार में सुखपूर्वक विचरण करता है, तथा अपमान से व्यथित होने वाला व्यक्ति [चिन्ता और शोक के कारण] शीघ्र विनाश को प्राप्त होता है॥१३८॥ 


अनेन क्रमयोगेन संस्कृतात्मा द्विजः शनैः।

गुरौ वसन् सञ्चिनुयाद् ब्रह्माधिगमिकं तपः॥१३९॥ [२.१६४] (११३)


पूर्वोक्त प्रकार से उपनयन संस्कार में दीक्षित द्विज बालक- बालिका गुरुकुल में रहते हुए उत्तरोत्तर विद्या और वेदार्थज्ञान की प्राप्ति रूप तप को बढ़ाते जायें॥१३९॥


द्विज के लिए वेदाभ्यास की अनिवार्यता―


तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्च विधिचोदितैः। 

वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना॥१४०॥ [२.१६५] (११४)


द्विजमात्र को शास्त्रों में विहित विशेष तपों [ब्रह्मचर्यपालन, वेदाभ्यास, धर्मपालन, प्राणायाम, द्वन्द्वसहन आदि और विविध व्रतों] का पालन करते हुए सम्पूर्ण वेदज्ञान को रहस्य पूर्वक अर्थात् वेदार्थों में निहित गूढार्थज्ञान-चिन्तनपूर्वक अध्ययन करके प्राप्त करना चाहिए॥१४०॥


वेदाभ्यास परम तप है―


वेदमेव सदाभ्यस्येत्तपस्तप्स्यन्द्विजोत्तमः। 

वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते॥१४१॥ [२.१६६] (११५)


द्विजोत्तम अर्थात् द्विजों में उत्तम बना रहने का इच्छुक प्रत्येक जन कष्ट सहन करते हुए भी वेद के स्वाध्याय का निरन्तर अभ्यास करे क्योंकि द्विज जनों का वेदाभ्यास करना ही इस संसार में परम तप कहा है॥१४१॥


आ हैव स नखाग्रेभ्यः परमं तप्यते तपः।

यः स्त्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायः शक्तितोऽन्वहम्॥१४२॥ [२.१६७] (११६)


जो द्विज माला धारण करके अर्थात् गृहस्थ होकर भी प्रतिदिन पूर्ण शक्ति से अर्थात् अधिक से अधिक प्रयत्नपूर्वक वेदों का स्वाध्याय करता है। वह निश्चय ही पैरों के नाखून के अग्रभाग तक अर्थात् पूर्ण परम तप करता है॥१४२॥


वेदाभ्यास के बिना शूद्रत्व प्राप्ति―


योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्। 

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥१४३॥ [२.१६८] (११७)


जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वेद का स्वाध्याय छोड़कर केवल अन्य शास्त्रों में श्रम करता है वह जीवता ही अपने वंश के सहित शीघ्र ही शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है, शूद्र बन जाता है॥१४३॥


गुरुकुल में रहते हुए ब्रह्मचारी के पालनीय विविध नियम―


सेवेतेमांस्तु नियमान्ब्रह्मचारी गुरौ वसन्।

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तपोवृद्ध्यर्थमात्मनः॥१५०॥ [२.१७५] (११८)


गुरु के समीप अर्थात् गुरुकुल में रहते हुए ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणी अपने विद्यारूप तप की वृद्धि के लिये इन्द्रियों के समूह को वश में करके अर्थात् जितेन्द्रिय होकर इन आगे वर्णित नियमों का पालन करे॥१५०॥


ब्रह्मचारी के दैनिक नियम―


नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्। 

देवताऽभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च॥१५१॥ [२.१७६] (११९)


[ब्रह्मचारी] प्रतिदिन विद्वानों, ऋषियों, ज्ञानवयोवृद्ध व्यक्तियों की सेवा-अभिवादन आदि प्रसन्नताकारक कार्यों से तृप्ति=सन्तुष्टि का व्यवहार और स्नान करके, शुद्ध होकर परमात्मा की उपासना तथा अग्निहोत्र भी किया करे॥१५१॥


मद्य, मांस आदि का त्याग―


वर्जयेन्मधुमांसञ्च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः। 

शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम्॥१५२॥ [२.१७७] (१२०)


ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी मदकारक मदिरा आदि का सेवन और मांसभक्षण सुगन्ध का प्रयोग, माला आदि अलंकार-धारण, तिक्त, कषाय, कटु, अम्ल आदि तीखे रसों का सेवन ब्रह्मचारियों के लिए स्त्रियों का संग और ब्रह्मचारिणियों के लिए पुरुषों का संग और अन्य जितने भी खट्टे-तीखे पदार्थ हैं, उन सबको और प्राणियों की हिंसा करना इन सबको वर्जित रखे॥१५२॥


अंजन, छाता, जूता आदि धारण का निषेध―


अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम्। 

कामं क्रोधं च लोभं च नर्त्तनं गीतवादनम्॥१५३॥ [२.१७८] (१२१)


शरीर पर प्रसाधन के रूप में उबटन आदि लगाना श्रृंगार के लिए आंखों में अञ्जन डालना जूते और छत्र का धारण काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि; [चकार से मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष का ग्रहण किया है।] और मनोरंजन के लिए नाच, गान, बाजा बजाना, इनको भी वर्जित रखे॥१५३॥


जूआ, निन्दा, स्त्रीदर्शन आदि का निषेध―


द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथानृतम्। 

स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च॥१५४॥ [२.१७९] (१२२)


सभी प्रकार का जुआ खेलना अफवाहें फैलाना और अपवाहों की चर्चा में समय नष्ट करना और किसी की निन्दा कथा करना मिथ्याभाषण स्त्रियों का दर्शन और स्पर्श और दूसरे को हानि पहुँचना आदि को सदा छोड़ देवें॥१५४॥


एकाकी शयन का विधान―


एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत् क्वचित्। 

कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः॥१५५॥ [२.१८०] (१२३)


सर्वत्र एकाकी सोवे कभी कामना से वीर्यस्खलित न करे क्योंकि कामना से वीर्यस्खलित कर देने पर समझो उसने अपने ब्रह्मचर्य व्रत का नाश कर दिया॥१५५॥


भिक्षासम्बन्धी नियम―


उदकुम्भं सुमनसो गोशकृन्मृत्तिकाकुशान्। 

आहरेद्यावदर्थानि भैक्षं चाहरहश्चरेत्॥१५७॥ [२.१८२] (१२४)


पानी का घड़ा फूल गोबर मिट्टी कुशाओं को जितनी आवश्यकता हो उतनी ही लाकर रखे और भिक्षा भी प्रतिदिन मांगकर खाये॥१५७॥ 


किनसे भिक्षा ग्रहण करे―


वेदयज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु। 

ब्रह्मचार्याहरेद्भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम्॥१५८॥ [२.१८३] (१२५)


ब्रह्मचारी अपने कर्त्तव्यों का पालन करने में सावधान रहने वाले और वेदाध्ययन एवं पञ्चमहायज्ञों से जो हीन नहीं अर्थात् जो प्रतिदिन इनका अनुष्ठान करते हैं ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तियों के घरों से संयत रहकर प्रतिदिन भिक्षा ग्रहण करे॥१५८॥


किन-किन से भिक्षा ग्रहण न करे―


गुरोः कुले न भिक्षेत न ज्ञातिकुलबन्धुषु। 

अलाभे त्वन्यगेहानां पूर्वं पूर्वं विवर्जयेत्॥१५९॥ [२.१८४] (१२६)


ब्रह्मचारी गुरु के परिवार में भिक्षा न मांगे सगे-सम्बन्धियों, परिजनों तथा मित्रों से भी भिक्षा न मांगे इनसे भिन्न घरों से यदि भिक्षा न मिले तो पूर्व-पूर्व घरों को छोड़ते हुए भिक्षा प्राप्त कर ले अर्थात् पहले मित्रों या घनिष्ठों के घरों से भिक्षा मांगे, वहाँ न मिले तो सगे-सम्बन्धियों से, वहाँ भी न मिले तो गुरु के परिवार से भिक्षा मांग सकता है॥१५९॥


पापकर्म करने वालों से भिक्षा न लें―


सर्वं वाऽपि चरेद् ग्रामं पूर्वोक्तानामसम्भवे। 

नियम्य प्रयतो वाचमभिशस्तांस्तु वर्जयेत्॥१६०॥ [२.१८५] (१२७)


पूर्व कहे हुए घरों के अभाव में सारे ही गांव में भिक्षा मांग ले किन्तु सावधानी पूर्वक अपनी वाणी को नियन्त्रण में रखता हुआ शिष्आचार पूर्वक पापी व्यक्तियों के घरों को छोड़ देवे अर्थात् पापी लोगों के सामने किसी भी अवस्था में भिक्षा- याचना के लिए वाणी न बोले॥१६०॥


सायं-प्रातः अग्निहोत्र का पुनः विशेष विधान―


दूरदाहृत्य समिधः सन्निदध्याद्विहायसि। 

सायम्प्रातश्च जुहुयात्ताभिरग्निमतन्द्रितः॥१६१॥ [२.१८६] (१२८) 


दूरस्थान अर्थात् जंगल आदि से समिधाएँ लाकर उन्हें खुले [=हवादार] स्थान में सूखने के लिए रख दे और फिर उनसे आलस्यरहित होकर सायंकाल और प्रात:काल दोनों समय अग्निहोत्र करे॥१६१॥


गुरु के समीप रहते हुए ब्रह्मचारी की मर्यादाएँ―


चोदितो गुरुणा नित्यमप्रचोदित एव वा।

कुर्यादध्ययने यत्नमाचार्यस्य हितेषु च॥१६६॥ [२.१९१] (१२९)


गुरु के द्वारा प्रेरणा करने पर अथवा बिना प्रेरणा किये भी [ब्रह्मचारी] प्रतिदिन पढ़ने में और गुरु के हितकारक कार्यों को करने का यत्न किया करे॥१६६॥ 


गुरु के सम्मुख सावधान होकर बैठे और खड़ा हो―


शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रियमनांसि च।

नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥१६७॥ [२.१६७] (१३०)


[गुरु के सामने बैठने या खड़े होने की अवस्था में ब्रह्मचारी] शरीर, वाणी, ज्ञानेन्द्रियों और मन को भी वश में करके अर्थात् सावधान होकर प्रथम हाथ जोड़ के तदनन्तर फिर बैठे और खड़ा होवे॥१६७॥


गुरु के आदेशानुसार चले―


निमुद्धृतपाणिः स्यात्साध्वाचारः सुसंयतः।

आस्यतामिति चोक्तः सन्नासीताभिमुखंगुरोः॥१६८॥ [२.१९३] (१३१)


सदा उद्धृतपाणि रहे अर्थात् ओढ़ने के वस्त्र से दायां हाथ बाहर रखे [ओढ़ने के वस्त्र को इस प्रकार ओढ़े कि वह दायें हाथ के नीचे से होता हुआ बायें कन्धे पर जाकर टिके, जिसे दायां कन्धा और हाथ वस्त्र से बाहर निकला रह जाये] शिष्ट-सभ्य आचरण रखे संयमपूर्वक रहे गुरु के द्वारा ‘बैठो' ऐसा कहने पर गुरु के सामने उनकी ओर मुख करके बैठे॥१६८॥


गुरु से निम्न स्तर की वेशभूषा रखे―


हीनान्नवस्त्रवेषः स्यात्सर्वदा गुरुसन्निधौ।

उत्तिष्ठेत्प्रथमं चास्य चरमं चैव संविशेत्॥१६९॥ [२.९४] (१३२)


गुरु के समीप रहते हुए सदा अन्न=भोज्यपदार्थ, वस्त्र और वेशभूषा गुरु से सामान्य रखे और इस गुरु से पहले जागे तथा बाद में सोये॥१६९॥


बातचीत करने का शिष्टाचार―


प्रतिश्रवणसम्भाषे शयनो न समाचरेत्।

नासीनो न च भुञ्जानो न तिष्ठन्न पराङ्मुखः॥१७०॥ [२.१९५] (१३३)


प्रतिश्रवण अर्थात् गुरु की बात या आज्ञा का उत्तर देना या स्वीकृति देना, और सम्भाषा=बातचीत, ये लेटे हुए न करे न बैठे-बैठे न कुछ खाते हुए और न दूर खड़े होकर न मुंह फेरकर ये बातें करे॥१७०॥


आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंस्तु तिष्ठतः।

प्रत्युद्गम्य त्वाव्रजतः पश्चाद्धावंस्तु धावतः॥१७१॥ [२.१९६] (१३४)


बैठे हुए गुरु से खड़ा होकर खड़े हुए गुरु के सामने जाकर अपनी ओर आते हुए गुरु से उसकी ओर शीघ्र आगे बढ़कर दौड़ते हुए के पीछे दौड़कर उत्तर दे और बातचीत करे॥१७१॥


पराङ्मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्यैत्य चान्तिकम्।

प्रणम्य तु शयानस्य निदेशे चैव तिष्ठतः॥१७२॥ [२.१९७] (१३५)


गुरु यदि मुँह फेरे हों तो उनके सामने होकर और दूर खड़े हों तो पास जाकर लेटे हों और समीप ही खड़े हों तो विनम्र होकर उत्तर दे और बातचीत करे॥१७२॥ 


गुरु से निम्न आसन पर बैठे―


नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसन्निधौ।

गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्॥१७३॥ [२.१९८] (१३६) 


गुरु के समीप रहते हुए इस ब्रह्मचारी का बिस्तर और आसन सदा ही गुरु के आसन से नीचा या साधारण रहना चाहिए और गुरु की आंखों के सामने कभी मनमाने ढंग से न बैठे अर्थात् शिष्टतापूर्वक बैठे॥१७३॥


गुरु का नाम न ले―


नोदाहरेदस्य नाम परोक्षमपि केवलम्। 

न चैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम्॥१७४॥ [२.१९९] (१३७)


पीछे से भी अपने गुरु का केवल नाम लेकर न बोले अर्थात् जब भी गुरु के नाम का उच्चारण करना पड़े तो 'आचार्य' 'गुरु' आदि सम्मानबोधक शब्दों के साथ करना चाहिए, अकेला नाम नहीं, इस गुरु की चाल, वाणी तथा चेष्टाओं का अनुकरण न करे, नकल न उतारे॥१७४॥


गुरु की निन्दा न सुने―


गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा वाऽपि प्रवर्तते। 

कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः॥१७५॥ [२.२००] (१३८)


जहाँ गुरु की बुराई अथवा निन्दा हो रही हो वहां अपने कान बन्द कर लेने चाहियें अर्थात् उसे नहीं सुनना चाहिये अथवा उस जगह से कहीं अन्यत्र चला जाना चाहिए॥१७५॥


गुरु को कब अभिवादन न करे―


दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रियाः। 

यानासनस्थश्चैवैनमवरुह्याभिवादयेत्॥१७७॥ [२.२०२] (१३९)


शिष्य अपने गुरु को दूर से नमस्कार न करे न क्रोध में जब अपनी स्त्री के पास बैठे हों उस स्थिति में जाकर अभिवादन न करे और यदि शिष्य सवारी पर बैठा हो तो उतरकर अपने गुरु को अभिवादन करे॥१७७॥ 


साथ बैठने-न बैठने सम्बन्धी निर्देश―


प्रतिवातेऽनुवाते च नासीत गुरुणा सह।

असंश्रवे चैव गुरोर्न किञ्चिदपि कीर्तयेत्॥१७८॥ [२.२०३] (१४०)


शिष्य की ओर से गुरु की ओर सामने से आने वाली वायु में और उसके विपरीत अर्थात् शिष्य की ओर से गुरु के पीछे की आने वाली वायु की दिशा में गुरु के साथ न बैठे तथा जहाँ गुरु को अच्छी प्रकार न सुनाई पड़े ऐसे स्थान में कोई बात न कहे॥१७८॥


गुरु के साथ कहां-कहां बैठे―


गोऽश्वोष्ट्रयानप्रासादस्रस्तरेषु कटेषु च। 

आसीत गुरुणा सार्धं शिलाफलकनौषु च॥१७९॥ [२.२०४] (१४१)


बैलगाड़ी, घोडागाड़ी, ऊंटगाड़ी पर और महलों अथवा घरों में बिछाये जानेवाले बिछौने पर और चटाइयों पर तथा पत्थर, तख्त, नौका आदि पर गुरु के साथ बैठ जाये॥१७९॥ 


गुरु के गुरु से गुरुतुल्य आचरण―


गुरोर्गुरौ सन्निहिते गुरुवद्वृत्तिमाचरेत्। 

न चानिसृष्टो गुरुणा स्वान् गुरूनभिवादयेत्॥१८०॥ [२.२०५] (१४२)


गुरु के भी गुरु यदि समीप आ जायें तो उनसे अपने गुरु के समान ही आचरण करे और अपने अन्य गुरुजनों के आने पर गुरु से आदेश लिए बिना अभिवादन करने न जाये अर्थात् गुरु से अनुमति लेकर उनके पास जाये॥१८०॥ 


अन्य अध्यापकों से व्यवहार―


विद्यागुरुष्वेतदेव नित्या वृत्तिः स्वयोनिषु।

प्रतिषेधत्सु चाधर्मान्हितं चोपदिशत्स्वपि॥१८१॥ [२.२०६] (१४३)


विद्या पढ़ाने वाले सभी गुरुओं में अपने वंश वाले सभी बड़ों में और अधर्म से हटाकर धर्म का उपदेश करने वालों में भी सदैव यही [ऊपर वर्णित] बर्ताव करें॥१८१॥


युवति गुरुपत्नी के चरणस्पर्श का निषेध और उसमें कारण―


गुरुपत्नी तु युवतिर्नाभिवाद्येह पादयोः । 

पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता॥१८७॥ [२.२१२] (१४४)


आयु के जिसके बीस वर्ष पूर्ण हो चुके हैं गुण और दोषों को समझने में समर्थ उस युवक शिष्य को युवती गुरुपत्नी का चरणों का स्पर्श करके अभिवादन नहीं करना चाहिए [अर्थात् बिना चरणस्पर्श किये ही उसका अभिवादन करे।]॥१८७॥ 


युवति के चरणस्पर्श से हानि―


स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम्। 

अतोऽर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपश्चितः॥१८८॥ [२.२१३] (१४५)


इस संसार में स्त्री-पुरुषों का परस्पर के संसर्ग से दूषण हो जाता है यह स्वाभाविक ही है इस कारण बुद्धिमान् व्यक्ति स्त्रियों के साथ व्यवहारों में कभी असावधानी नहीं करते अर्थात् ऐसा कोई वर्ताव नहीं करते जिससे सदाचार के मार्ग से भटक जाने की आशंका हो॥१८८॥


अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः । 

प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं कामक्रोधवशानुगम्॥१८९॥ [२.२१४] (१४६)


संसार में आचारहीन षड्यन्त्रकारी स्त्रियाँ काम और क्रोध के वशीभूत होने वाले अविद्वान् को अथवा विद्वान् व्यक्ति को भी उसके सन्मार्ग से उखाड़ने में अर्थात् उद्देश्य से पथभ्रष्ट करने में निश्चय से पूर्ण समर्थ हैं॥१८९॥


अभिप्राय यह है कि स्त्रियों में हाव-भाव और रूप सौन्दर्य के द्वारा पुरुषों को मोहित कर लेने का पूर्ण सामर्थ्य है। उनके इन गुणों के कारण पुरुष उनके संसर्ग से स्वयं अथवा उन्हीं के प्रयत्न से सदाचार के मार्ग से भ्रष्ट हो सकता है।


स्त्रीवर्ग के साथ एकान्तवास निषेध―


मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्।

बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥१९०॥ [२.२१५] (१४७)


[मनुष्य को चाहिए कि] माता, बहन अथवा पुत्री के साथ भी एकान्त आसन पर न रहे, अर्थात् एकान्तनिवास न करे, क्योंकि शक्तिशाली इन्द्रियाँ विद्वान्=विवेकी व्यक्ति को भी खींचकर अपने वश में कर लेती हैं अर्थात् अपने-अपने विषयों में फंसाकर पथभ्रष्ट कर देती हैं॥१९०॥


युवति गुरुपत्नी के अभिवादन की विधि―


कामं तु गुरुपत्नीनां युवतीनां युवा भुवि।

विधिवद्वन्दनं कुर्यादसावहमिति ब्रुवन्॥१९१॥ [२.२१६] (१४८)


अच्छा तो यही है कि युवक शिष्य गुरुकुलस्थ गुरुओं की युवा पत्नी को 'यह मैं अमुक नाम वाला हूँ' ऐसा कहते हुए पूर्ण विधि के अनुसार सिर झुकाकर ही अभिवादन करे, प्रतिदिन चरणस्पर्श न करे॥१९१॥


विप्रोष्य पादग्रहणमन्वहं चाभिवादनम्।

गुरुदारेषु कुर्वीत सतां धर्ममनुस्मरन्॥१९२॥ [२.२१७] (१४९)


शिष्य श्रेष्ठों के धर्म को स्मरण करते हुए अर्थात् यह विचारते हुए कि स्त्रियों का अभिवादन करना शिष्ट व्यक्तियों का कर्त्तव्य है गुरुओं की पत्नी को प्रतिदिन बिना चरणस्पर्श किये अभिवादन करे किन्तु परदेश से लौटकर भेंट होने पर चरणस्पर्श कर अभिवादन करे॥१९२॥


गुरु सेवा का फल―


यथा खनन्खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति। 

तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति॥१९३॥ [२.२१८] (१५०)


मनुष्य जैसे कुदाल से खोदता हुआ भूमि से जल को प्राप्त कर लेता है वैसे गुरु की सेवा करने वाला पुरुष गुरुजनों ने जो विद्या प्राप्त की है, उस को प्राप्त कर लेता है॥१९३॥


ब्रह्मचारी के लिए केश-सम्बन्धी तीन विकल्प एवं ग्रामनिवास का निषेध―


मुण्डो वा जटिलो वा स्यादथवा स्याच्छिखाजटः। 

नैनं ग्रामेऽभिनिम्लोचेत्सूर्यो नाभ्युदियात्क्वचित्॥१९४॥ [२.२१९] (१५१)


ब्रह्मचारी चाहे तो सब केश मुंडवा कर रहे, चाहे सब केश रखकर रहे या फिर केवल शिखा रखकर [शेष केश मुंडवाकर] रहे, उसकी इच्छा पर निर्भर है। इस ब्रह्मचारी को बिना किसी उद्देश्य के किसी गांव शहर में रहते सूर्य न तो अस्त हो न कभी उदय हो अर्थात् प्रमाद के कारण गांव-शहर में रहते-रहते रात नहीं होनी चाहिए। रात्रि में गांव-शहर में निवास नहीं करना चाहिए, गुरुकुल में आकर निवास करना चाहिए॥१९४॥


प्रमादवश सोते रहने पर प्रायश्चित्त―


तं चेदभ्युदियात्सूर्यः शयानं कामचारतः।

निम्लोचेद्वाऽप्यविज्ञानाज्जपन्नुपवसेद्दिनम्॥१९५॥ [२.२२०] (१५२)


यदि किसी विवशतावश गांव-शहर में रुकना पड़े और उसे प्रमादवश सोते हुए वहाँ सूर्य का उदय हो जाये अथवा अनजाने में या प्रमाद के कारण गांव-शहर में रहते सूर्य अस्त हो जाये अर्थात् रात्रि-निवास करे तो प्रायश्चित्त रूप में दिनभर गायत्री का जप करते हुए उपवास करे=खाना न खाये॥१९५॥


सूर्येण ह्यभिनिर्मुक्तः शयानोऽभ्युदितश्च यः। 

प्रायश्चित्तमकुर्वाणो युक्तः स्यान्महतैनसा॥१९६॥ [२.२२१] (१५३)


जो प्रमाद में गांव-शहर में रहते हुए सूर्य के अस्त हो जाने पर और वहाँ रात्रि में सोते-सोते सूर्य उदय होने पर प्रायश्चित्त नहीं करता है वह व्रतभंग के बड़े अपराध का भागी बनता है अर्थात् उसे व्रतभंग दोषी माना जायेगा॥१९६॥


सन्ध्योपासन का विधान एवं विधि―


आचम्य प्रयतो नित्यमुभे सन्ध्ये समाहितः। 

शुचौ देशे जपञ्जप्यमुपासीत यथाविधि॥१९७॥ [२.२२२] (१५४)


ब्रह्मचारी प्रतिदिन शुद्ध स्थान में प्रातः और सायं दोनों सन्ध्याकालों में आचमन करके प्रयत्नपूर्वक एकाग्र होकर गायत्री मन्त्र द्वारा परमेश्वर का जप करते हुए उपासना करे॥१९७॥ 


स्त्री-शूद्रादि के उत्तम आचरण का भी अनुकरण करे―


यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किंचित्समाचरेत्।

तत्सर्वमाचरेद्युक्तो यत्र वाऽस्य रमेन्मनः॥१९८॥ [२.२२३] (१५५)


यदि कोई स्त्री और शूद्र भी अपने से कोई श्रेष्ठ आचरण करें उनसे शिक्षा लेकर सभी मनुष्यों को उस पर आचरण करना चाहिए और जिस शास्त्रोक्त श्रेष्ठ कर्म में मनुष्य का मन रमे उस को करता रहे॥१९८॥


निम्नस्तर के व्यक्ति से भी ज्ञान-धर्म की प्राप्ति―


श्रद्धधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि। 

अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥२१३॥ [२.२३८] (१५६)


उत्तम विद्या प्राप्ति की श्रद्धा करता हुआ पुरुष अपने से न्यून वर्ण के व्यक्ति से भी विद्या ग्रहण करले शूद्र वर्ण का व्यक्ति भी यदि किसी उत्तम धर्म का ज्ञाता या पालनकर्त्ता हो तो उससे भी धर्म ग्रहण करे, और निंद्यकुल में भी यदि उत्तम गुणवती कन्या हो तो उसको पत्नी के रूप में ग्रहण कर ले, यह नीति है॥२१३॥ 


उत्तम वस्तुओं का भी सभी स्थानों से ग्रहण―


विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्। 

अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि काञ्चनम्॥२१४॥ [२.२३९] (१५७)


विष में से भी अमृत का ग्रहण कर लेना चाहिए, और बालक से भी उत्तम वचन को ग्रहण कर लेना चाहिए, और अमित्र व्यक्ति से भी श्रेष्ठ आचरण सीख लेना चाहिए, तथा अशुद्ध स्थान से भी स्वर्ण या मूल्यवान् वस्तु को प्राप्त कर लेना चाहिए॥२१४॥


स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्। 

विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः॥२१५॥ [२.२४०] (१५८)


उत्तम गुणवती स्त्री नाना प्रकार के रत्न उत्तम विद्या धर्माचरण तन-मन, स्थान आदि की पवित्रता श्रेष्ठभाषण और नाना प्रकार की शिल्पविद्या अर्थात् विज्ञान और कारीगरी सब देशों तथा सब मनुष्यों से ग्रहण कर लें॥२१५॥


आपत्तिकाल में अब्राह्मण से विद्याध्ययन―


अब्राह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते।

अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्ययनं गुरोः॥२१६॥ [२.२४१] (१५९)


आपत्ति काल अर्थात् अपवादरूप में अब्राह्मण अर्थात् क्षत्रिय और वैश्य आदि गुरु से भी विद्या ग्रहण करना विहित है शिष्य जब तक उससे पढ़े तब तक गुरु की आज्ञा का पालन और सेवा-शुश्रूषा भी करता रहे॥२१६॥


नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं वसेत्। 

ब्राह्मणे चाननूचाने काङ्क्षन् गतिमनुत्तमाम्॥२१७॥ [२.२४२] (१६०)


जीवन में उत्तम प्रगति चाहने वाले शिष्य को चाहिए कि वह अब्राह्मण गुरु के यहाँ और वेद-शास्त्रों में अपारंगत ब्राह्मण गुरु के समीप भी आजीवन या बहुत अधिक निवास न करे [क्योंकि सीमित विद्यावान् होने के कारण उक्त गुरुओं के पास शिष्य की प्रगति रुक जाती है। सांगोपांग वेदों के ज्ञाता भूयोविद्य विद्वान् के पास रहकर ही जीवन में निरन्तर उन्नति, उत्तम प्रगति प्राप्त की जा सकती है]॥२१७॥ 


यदि त्वात्यन्तिकं वासं रोचयेत गुरोः कुले। 

युक्तः परिचरेदेनमाशरीरविमोक्षणात्॥२१८॥ [२.२४३] (१६१)


यदि ब्रह्मचारी शिष्य गुरुकुल में जीवन-पर्यन्त निवास करना चाहे तो शरीर छूटने पर्यन्त अपने गुरु की प्रयत्नपूर्वक सेवा करे॥२१८॥


समावर्तन की इच्छा होने पर गुरुदक्षिणा का विधान एवं नियम―


न पूर्वं गुरवे किञ्चिदुपकुर्वीत धर्मवित्। 

स्नास्यंस्तु गुरुणाऽऽज्ञप्तः शक्त्या गुर्वर्थमाहरेत्॥२२०॥ [२.२४५] (१६२)


शिक्षाधर्म-विधि का ज्ञाता शिष्य स्नातक बनने अर्थात् समावर्तन कराने की इच्छा होने पर गुरु से आज्ञा प्राप्त करके शक्ति अनुसार गुरु के लिए दक्षिणा प्रदान करे। किन्तु समावर्तन से पहले गुरु को शुल्क दक्षिणा या भेंट रूप में शिष्य को कुछ नहीं देना चाहिए॥२२०॥ 


गुरुदक्षिणा में देय वस्तुएँ―


क्षेत्रं हिरण्यं गामश्वं छत्रोपानहमासनम्। 

धान्यं वासांसि वा शाकं गुरवे प्रीतिमावहेत्॥२२१॥ [२.२४६] (१६३) 


[शिष्य यथाशक्ति] भूमि सोना आदि मूल्यवान् पदार्थ गाय आदि दुधारू पशु घोड़ा आदि सवारी योग्य पशु छाता, जूता, आसन आदि उपयोगी वस्तुएं अन्न वस्त्र अथवा केवल खाद्य पदार्थ शाक, फल आदि ही गुरु के लिए प्रीतिपूर्वक दक्षिणा में दे॥२२१॥


ब्रह्मचर्याश्रम के पालन का फल―


एवं चरति यो विप्रो ब्रह्मचर्यमविप्लुतः। 

स गच्छत्युत्तमस्थानं न चेहाजायते पुनः॥२२४॥ [२.२४९] (१६४)


जो द्विज विद्वान् उपर्युक्त प्रकार से अखण्डित रूप से, सत्यभाव से ब्रह्मचर्याश्रम का पालन करता है वह उत्तम स्थान अर्थात् मोक्ष-पद को प्राप्त करता है और इस संसार में पुनर्जन्म नहीं लेता अर्थात् प्रवाह से चलने वाले जन्म-मरण से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करता है॥२२४॥


इति महर्षि-मनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृत हिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ संस्कारब्रह्मचर्याश्रमात्मको द्वितीयोऽध्यायः॥





मानवधर्मशास्त्रम् अथवा विशुद्ध मनुस्मृति


अथ द्वितीयोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(संस्कार एवं ब्रह्मचर्याश्रम विषय)


(संस्कार २.१ से २.४३ तक)


संस्कारों को करने का निर्देश और उनसे लाभ― 


वैदिकैः कर्मभिः पुण्यैर्निषेकादिर्द्विजन्मनाम्। 

कार्यः शरीरसंस्कारः पावनः प्रेत्य चेह च॥१॥ [२.२६] (१)


(द्विजन्मनाम्) द्विजों=ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों को (इह च प्रेत्य पावनः) इस जन्म और परजन्म में तन-मन, आत्मा को पवित्र करने वाले (निषेक-आदि शरीर-संस्कारः) गर्भाधान से लेकर अन्त्येष्टि पर्यन्त संस्कार (पुण्यैः वैदिकैः कर्मभिः कार्यः) पुण्यरूप वेदोक्त यज्ञ आदि कर्मों और वेदोक्त मन्त्रों के द्वारा करने चाहियें॥१॥


संस्कारों से आत्मा के बुरे संस्कारों का निवारण―


गार्भैर्होमैर्जातकर्मचौलमौञ्जीनिबन्धनैः। 

बैजिकं गार्भिकं चैनो द्विजानामपमृज्यते॥२॥ [२.२७] (२)


(गार्भैः होमैः) गर्भकालीन अर्थात् गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन इन होमपूर्वक किये जाने वाले संस्कारों से (जात-कर्म-चौल-मौञ्जीनिबन्धनैः) [जाते जन्मनि शैशवावस्थायां क्रियते यत् संस्कारकर्म तत् जातकर्म] जन्म होने पर शैशवावस्था में जो संस्कार किये जाते हैं, वे जातकर्म कहलाते हैं। उनमें जातकर्म [२.४], नामकरण [२.५-८], निष्क्रमण [२.९], अन्नप्राशन [२.९] और चौल अर्थात् चूडाकर्म [२.१०], तथा मेखला-बन्धन अर्थात् उपनयन एवं वेदारम्भ आदि [२.११-४३; २.४४, ४६-२२४] (होमैः) यज्ञ पूर्वक सम्पन्न किये जाने वाले इन संस्कारों से (द्विजातीनाम्) द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बालकों के (बैजिकम्) बीज-सम्बन्धी=परम्परागत पैतृक-मातृक अंशों से उत्पन्न होने वाले (च) और (गार्भिकम्) गर्भकाल में माता-पिता से प्राप्त होने वाले (एनः) बुरे आचरण के संस्कार एवं शारीरिक दोष (अपमृज्यते) दूर हो जाते हैं अर्थात् इन संस्कारों के करने से बालक-बालिकाओं एवं स्त्री-पुरुषों के शरीर और मनसम्बन्धी दोष मिटकर वे निर्मल बनते हैं॥२॥


वेदाध्ययन, यज्ञ, व्रत आदि से ब्रह्म की प्राप्ति― 


स्वाध्यायेन व्रतैर्होमैस्त्रैविद्येनेज्यया सुतैः।

महायज्ञैश्च यज्ञैश्च ब्राह्मीयं क्रियते तनुः॥३॥ [२.२८] (३)


(स्वाध्यायेन) जीवनभर वेदादि शास्त्रों का स्वयं अध्ययन करने से [३.७५, ८१; ४.३५, १४७; ६.८; ११.८३], (व्रतैः) वर्णों और आश्रमों के लिए शास्त्रोक्त व्रतों का निष्ठापूर्वक पालन करने से [४.२५९, २६०; ६.९७], (होमैः) ब्रह्मचर्याश्रम में प्रतिदिन सायंप्रातः अग्निहोत्र करने से [२.१८६], (त्रैविद्येन) त्रयीविद्या रूप वेदों के सांगोपांग पठन-पाठन से [३.१, २; ७.३७, ३८; १२.१११, ११२] (इज्यया) पक्षेष्टि आदि करने से [४.२५; ६.९, १०, ३८], (सुतैः) गृहस्थ-धर्मानुसार सुसन्तानोतपत्ति करने से [३.३९-४२], (महायज्ञैः) गृहस्थस्थ और वान-प्रस्थाश्रम में ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, बलिवैश्वदेव यज्ञ, अतिथियज्ञ इन पांच महायज्ञों के अनुष्ठान से [३.६९-८२; ६.४, ५] (यज्ञैः) अग्निष्टोम आदि बृहत् यज्ञों के आयोजन से [२.११८], (इयं तनुः) यह शरीर (ब्राह्मी क्रियते) ब्रह्ममय और ब्राह्मण का बनता है अर्थात् वेदाध्ययन और परमेश्वर की भक्ति का आधार रूप आध्यात्मिक शरीर बनता है तथा इन आचरणों से ही वस्तुतः ब्राह्मण बनता है, इनके बिना नहीं॥३॥


जातकर्म संस्कार का विधान―


प्राङ्नाभिवर्धनात्पुंसो जातकर्म विधीयते। 

मन्त्रवत्प्राशनं चास्य हिरण्यमधुसर्पिषाम्॥४॥ [२.२९] (४)


(पुंसः) बालक-बालिका का (जातकर्म) जातकर्म संस्कार (नाभिवर्धनात् प्राक्) नाभि-नाल काटने से पहले (विधीयते) किया जाता है (च) और तब इस संस्कार में (अस्य) इस बालक-बालिका को (मन्त्रवत्) मन्त्रोच्चारणपूर्वक (हिरण्यमधु-सर्पिषाम्) सोने की शलाका से [असमान मात्रा में मिलाया] शहद और घी (प्राशनम्) चटाया जाता है॥४॥


बालक-बालिकाओं का नामकरण संस्कार―


नामधेयं दशम्यां तु द्वादश्यां वाऽस्य कारयेत्। 

पुण्ये तिथौ मुहूर्ते वा नक्षत्रे वा गुणान्विते॥५॥ [२.३०] (५)


(अस्य) इस बालक-बालिका का (नामधेयं तु) नामकरण संस्कार (दशम्यां वा द्वादश्याम्) जन्म से दशवें वा बारहवें दिन (वा) अथवा (पुण्ये तिथौ वा मुहूर्ते) किसी भी पुण्य=अनुकूल सुविधा-जनक तिथि या मुहूर्त में (वा) अथवा (गुणान्विते नक्षत्रे) शुभगुण वाले नक्षत्र अर्थात् प्राकृतिक बाधा रहित और सुख-सुविधायुक्त नक्षत्र के समय में (कारयेत्) करावे॥५॥


वर्णानुसार नामकरण―


मङ्गल्यं ब्राह्मणस्य स्यात्क्षत्रियस्यबलान्वितम्। 

वैश्यस्य धनसंयुक्तं शूद्रस्य तु जुगुप्सितम्॥६॥ [२.३१] (६)


शर्मवद्ब्राह्मणस्य स्याद्राज्ञो रक्षासमन्वितम्। 

वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तं शूद्रस्य प्रेष्यसंयुतम्॥७॥ [२.३२] (७)


[यह नामकरण माता-पिता की अपेक्षा से है] 

(ब्राह्मणस्य मङ्गल्यं स्यात्) ब्राह्मण बनाने के इच्छुक बालक का नाम शुभत्व-श्रेष्ठत्व भावबोधक शब्दों से [जैसे-ब्रह्मा, विष्णु, मनु, शिव, अग्नि, वायु, रवि, आदि] रखना चाहिए (क्षत्रियस्य) क्षत्रिय बनाने के इच्छुक बालक का (बल+अन्वितम्) बल-पराक्रम-भावबोधक शब्दों से [जैसे-इन्द्र, भीष्म, भीम, सुयोधन, नरेश, जयेन्द्र, युधिष्ठिर आदि] (वैश्यस्य धनसंयुक्तम्) वैश्य बनाने के इच्छुक बालक का धन-ऐश्वर्य भाव-बोधक शब्दों से [जैसे-वसुमान्, वित्तेश, विश्वम्भर, धनेश आदि] और (शूद्रस्य तु) शूद्र रखने के इच्छुक बालक का (जुगुप्सितम्) रक्षणीय, पालनीय भाव-बोधक शब्दों से [जैसे-देवगुप्त, देवदास, सुदास, अकिंचन] नाम रखना चाहिए। अर्थात् बालक-बालिका के अभीष्ट वर्णसापेक्ष गुणों के आधार पर नामकरण करना चाहिए॥६॥

[अथवा] (ब्राह्मणस्य शर्मवद् स्यात्) ब्राह्मण बनाने के इच्छुक बालक का नाम शर्मवत्=कल्याण, शुभ, सौभाग्य, सुख आनन्द, प्रसन्नता भाव वाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए। जैसे-देवशर्मा, विश्वामित्र, वेदव्रत, धर्मदत्त, आदि (राज्ञः रक्षासमन्वितम्) क्षत्रिय का नाम रक्षक भाव वाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए [जैसे–महीपाल, धनञ्जय, धृतराष्ट्र, देववर्मा, कृतवर्मा] (वैश्यस्य पुष्टिसंयुक्तम्) वैश्य का नाम पुष्टि-समृद्धि द्योतक शब्दों को जोड़कर [जैसे—धनगुप्त, धनपाल, वसुदेव, रत्नदेव, वसुगुप्त] और (शूद्रस्य) शूद्र का नाम (प्रेष्यसंयुतम्) सेवकत्व भाववाले शब्दों को जोड़कर रखना चाहिए [जैसे—देवदास, देवगुप्त, धर्मदास, महीदास।] अर्थात् व्यक्तियों के वर्णगत लक्ष्यों के आधार पर नामकरण करना चाहिए। यह बालकपन का नामकरण है। बाद में जब गुरुकुल में अथवा अन्य जीवनकाल में वर्णपरिवर्तन करना हो तो उस वर्णानुसार नामपरिवर्तन कर लें, जैसे वानप्रस्थ या संन्यास ग्रहण के समय किया करते हैं, क्योंकि वर्ण का अन्तिम निश्चय और घोषणा तो आचार्य करता है [२.१२३ (२.१४८)]॥७॥


स्त्रियों के नामकरण की विधि―


स्त्रीणां सुखोद्यमक्रूरं विस्पष्टार्थं मनोहरम्। 

मंगल्यं दीर्घवर्णान्तमाशीर्वादाभिधानवत्॥८॥ [२.३३] (८)


(स्त्रीणाम्) स्त्रियों का नाम (सुखोद्यम्) सरलता से सुख-पूर्वक उच्चारण किया जा सकने वाला (अक्रूरम्) कोमल वर्णों वाला (विस्पष्टार्थम्) स्पष्ट अर्थ वाला (मनोहरम्) मन को आकर्षक लगने वाला (मंगल्यम्) मंगल अर्थात् कल्याण-भावद्योतक (दीर्घवर्णान्तम्) अन्त में दीर्घ अक्षर वाला, तथा (आशीर्वाद+अभिधान-वत्) आशीर्वाद भावबोधक होना चाहिए [जैसे-कल्याणी, वन्दना, विद्यावती, कमला, सुशीला, सुषमा, भाग्यवती, सावित्री, यशोदा, प्रियंवदा आदि]॥८॥


निष्क्रमण और अन्नप्राशन संस्कार―


चतुर्थे मासि कर्त्तव्यं शिशोर्निष्क्रमणं गृहात्। 

षष्ठेऽन्नप्राशनं मासि यद्वेष्टं मङ्गलं कुले॥९॥ [२.३४] (९) 


(शिशोः) बालक-बालिका का (गृहात् निष्क्रमणम्) घर से [प्रथम बार] बाहर निकालने-घुमाने का 'निष्क्रमण संस्कार' (चतुर्थ मासि) चौथे मास में (कर्त्तव्यम्) करना चाहिए और (अन्नप्राशनम्) अन्न खिलाने का संस्कार-अन्नप्राशन (षष्ठे मासि) छठे मास में (वा) अथवा (यत् कुले इष्टं मंगलम्) जब भी परिवार में अभीष्ट अथवा उपयुक्त समय प्रतीत हो, तब करे॥९॥


मुण्डन संस्कार―


चूडाकर्म द्विजातीनां सर्वेषामेव धर्मतः।

प्रथमेऽब्दे तृतीये वा कर्त्तव्यं श्रुतिचोदनात्॥१०॥ [२.३५] (१०)


(सर्वेषाम्+एव द्विजातीनां चूडाकर्म) सभी द्विजातियों=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वर्गों के इच्छुक बालक-बालिकाओं का [माता-पिता की इच्छा के आधार पर यह कथन है] चूडाकर्म=मुण्डन संस्कार (धर्मतः) धर्मानुसार (श्रुतिचोदनात्) वेद की आज्ञानुसार (प्रथमे+अब्दे) प्रथम वर्ष में (वा तृतीये) अथवा तीसरे वर्ष में [अपनी सुविधानुसार] (कर्त्तव्यम्) कराना चाहिए॥१०॥


उपनयन संस्कार का सामान्य समय―


गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्। 

गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः॥११॥ [२.३६] (११)


(ब्रह्मणस्य) ब्राह्मण वर्ण धारण करने के इच्छुक बालक-बालिका का (उपनायनम्) उपनयन=गुरु के पास पहुंचाना और विद्याध्ययनार्थ यज्ञोपवीत संस्कार (गर्भाष्टमे+अब्दे) गर्भ से आठवें वर्ष में अर्थात् जन्म से सातवें वर्ष में (कुर्वीत) करे, (राज्ञः) क्षत्रिय वर्ण धारण करने के इच्छुक बालक-बालिका का (गर्भात्+एकादशे) गर्भ से ग्यारहवें अर्थात् जन्म से दसवें वर्ष में, और (विशः) वैश्य वर्ण धारण करने के इच्छुक बालक-बालिका का (गर्भात् द्वादशे) गर्भ से बारहवें अर्थात् जन्म से ग्यारहवें वर्ष में उपनयन संस्कार करना चाहिए। [यह माता-पिता की इच्छा के आधार पर प्रयोग है और चारों वर्णों में उत्पन्न प्रत्येक बालक-बालिका के लिए है]॥११॥


उपनयन का विशेष समय―


ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पञ्चमे। 

राज्ञो बलार्थिनः षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे॥१२॥ [२.३७] (१२)


(इह ब्रह्मवर्चस-कामस्य) इस संसार में जिसको ब्रह्मतेज=ईश्वर, विद्या, बल आदि की शीघ्र एवं अधिक प्राप्ति की कामना हो, ऐसे (विप्रस्य) ब्राह्मण वर्ण की कामना रखने वाले बालक-बालिका का [माता-पिता की इच्छा के आधार पर प्रयोग है] उपनयन संस्कार (पञ्चमे कार्यम्) जन्म से पांचवें वर्ष में ही करा देना चाहिये (इह बलार्थिनः राज्ञः) इस संसार में बल-पराक्रम आदि क्षत्रिय विद्याओं की शीघ्र एवं अधिक प्राप्ति की कामना वाले क्षत्रिय वर्ण के इच्छुक बालक-बालिका का (षष्ठे) जन्म से छठे वर्ष में और (इह+अर्थिनः वैश्यस्य) इस संसार में धन-ऐश्वर्य की शीघ्र एवं अधिक कामना वाले वैश्य वर्ण के इच्छुक बालक-बालिका का (अष्टमे) जन्म से आठवें वर्ष में उपनयन संस्कार करा देना चाहिये॥१२॥


उपनयन की अन्तिम अवधि―


आषोडशाद्ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते। 

आद्वाविंशात्क्षत्रबन्धोराचतुर्विंशतेर्विशः॥१३॥ [२.३८] (१३)


(ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण वर्ण को धारण करने की इच्छा रखने वाले बालक-बालिका का (आषोडशात्) सोलह वर्ष, (क्षत्रबन्धोः) क्षत्रिय वर्ण के इच्छुक बालक-बालिका का (आ-द्वाविंशात्) बाईस वर्ष तक, (विशः) वैश्य वर्ण के इच्छुक बालक-बालिका का (आ-चतुर्विंशतेः) चौबीस वर्ष तक, (सावित्री न+अतिवर्तते) यज्ञोपवीत का अतिक्रमण नहीं होता अर्थात् इन अवस्थाओं तक उपनयन संस्कार कराया जा सकता है॥१३॥


उपनयन से पतित व्रात्यों का लक्षण―


अत ऊर्ध्वं त्रयोऽप्येते यथाकालमसंस्कृताः। 

सावित्रीपतिता व्रात्या भवन्त्यार्यविगर्हिताः॥१४॥ [२.३९] (१४)


(अतः+ऊर्ध्वम्) इस [२.१३] अवस्था के बीतने के बाद (यथाकालम्+असंस्कृताः) निर्धारित समय पर किसी वर्ण की दीक्षा संस्कार न होने पर (एते त्रय:+अपि) ये तीनों [ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य] ही (सावित्रीपतिताः) सावित्री संस्कार अर्थात् यज्ञोपवीत और विद्याध्ययन से रहित होकर पतित हुए (आर्य-विगर्हिताः) आर्य=आर्यव्यवस्था के व्यक्तियों द्वारा निन्दित (व्रात्याः भवन्ति) 'व्रात्या'=व्रत से पतित अर्थात् 'व्रात्यसंज्ञक' कहलाते हैं॥१४॥


व्रात्यों के साथ सम्बन्धविच्छेद का कथन―


नैतैरपूतैर्विधिवदापद्यपि हि कर्हिचित्। 

ब्राह्मान्यौनांश्च सम्बन्धानाचरेद्ब्राह्मणः सह॥१५॥ [२.४०] (१५)


(ब्राह्मणः) द्विजों में कोई भी व्यक्ति (एतैः+अपूतैः सह) इन पतित व्रात्यों के साथ (विधिवत्) विधानानुसार (कर्हिचित् आपदि+अपि हि) कभी आपत्काल में भी (ब्राह्मान्) विद्याध्ययन-अध्ययन-सम्बन्धी (च) और (यौनान्) विवाह-सम्बन्धी (सम्बन्धान्) व्यवहारों को (न आचरेत्) न करे॥१५॥


वर्णानुसार मृगचर्मों का विधान―


कार्ष्णरौरववास्तानि चर्माणि ब्रह्मचारिणः। 

वसीरन्नानुपूर्व्येण शाणक्षौमाविकानि च॥१६॥ [२.४१] (१६)


(ब्रह्मचारिणः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तीनों वर्णों में दीक्षित ब्रह्मचारी (आनुपूर्व्येण) क्रमशः (कार्ष्ण-रौरववास्तानि चर्माणि) [आसन के रूप में बिछाने के लिए] काला मृग, रुरुमृग और बकरे के चर्म को (च) तथा [ओढ़ने-पहरने के लिये] (शाणक्षौम-आविकानि) सन, रेशम और ऊन के वस्त्रों को (वसीरन्) धारण करें॥१६॥


वर्णानुसार मेखला-विधान―


मौञ्जी त्रिवृत्समा श्लक्ष्णा कार्या विप्रस्य मेखला। 

क्षत्रियस्य तु मौर्वी ज्या वैश्यस्य शणतान्तवी॥१७॥ [२.४२] (१७)


(विप्रस्य) ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक की (मेखला) मेखला=तगड़ी (मौञ्जी) 'मूँज' नामक घास की बनी होनी चाहिए (क्षत्रियस्य मौर्वी ज्या) क्षत्रिय की धनुष की डोरी जिससे बनती है उस 'मुरा' नामक घास की, और (वैश्यस्य) वैश्य की (शणतान्तवी) सन के सूत की बनी हो, जो (त्रिवृत् समा) तीन लड़ों को एकत्र बांट करके (श्लक्ष्णा कार्या) चिकनी बनानी चाहिए॥१७॥


मेखलाओं का विकल्प―


मुञ्जालाभे तु कर्तव्याः कुशाश्मन्तकबल्वजैः। 

त्रिवृता ग्रन्थिनैकेन त्रिभिः पञ्चभिरेव वा॥१८॥ [२.४३] (१८)


(मुञ्जालाभे तु) यदि उपर्युक्त मूँज आदि न मिलें तो [क्रमशः] (कुश+अश्मन्तक-बल्वजैः) कुश, अश्मन्तक और बल्वज नामक घासों से (त्रिवृता) उसी प्रकार तिगुनी=तीन बटों वाली करके (एकेन ग्रन्थिना) फिर एक गांठ लगाकर (वा) अथवा (त्रिभिः पञ्चभिः+एव) तीन या पांच गांठ लगाकर (कर्त्तव्याः) मेखलाएं बनानी चाहिएँ॥१८॥


वर्णानुसार यज्ञोपवीत धारण―


कार्पासमुपवीतं स्याद्विप्रस्योर्ध्ववृतं त्रिवृत्। 

शणसूत्रमयं राज्ञो वैश्यस्याविकसौत्रिकम्॥१९॥ [२.४४] (१९) 


(विप्रस्य) ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक का (उपवीतम्) यज्ञोपवीत (कार्पासम्) कपास का बना (राज्ञः) क्षत्रिय का (शणसूत्रमयम्) सन के सूत का बना और (वैश्यस्य आविक सौत्रिकम्) वैश्य का भेड़ की ऊन के सूत से बना (स्यात्) होना चाहिए, वह उपवीत 

(ऊर्ध्ववृतम्) दाहिनी ओर से बायीं ओर का बटा हुआ, और (त्रिवृत्) तीन लड़ों से तिगुना करके बना हुआ होना चाहिए॥१९॥


वर्णानुसार दण्ड धारण का विधान―


ब्राह्मणो बैल्वपालाशौ क्षत्रियो वाटखादिरौ।

पैलवौदुम्बरौ वैश्यो दण्डानर्हन्ति धर्मतः॥२०॥ [२.४५] (२०)


(ब्राह्मणः) ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक (बैल्व-पालाशौ) बेल या ढाक के (क्षत्रियः) क्षत्रिय (वाट-खादिरौ) बड़ या खैर के (वैश्यः) वैश्य (पैलव+औदुम्बरौ) पीपल या गूलर के (दण्डान्) दण्डों को (धर्मतः) नियमानुसार (अर्हन्ति) धारण करने के अधिकारी हैं॥२०॥


दण्डों का वर्णानुसार प्रमाण―


केशान्तिको ब्राह्मणस्य दण्डः कार्यः प्रमाणतः। 

ललाटसंमितो राज्ञः स्यात्तु नासान्तिको विशः॥२१॥ [२.४६] (२१)


(प्रमाणतः) लम्बाई के मान के अनुसार (ब्राह्मणस्य दण्डः) ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक का दण्ड (केशान्तिकः) केशों तक (राज्ञः ललाट संमितः) क्षत्रिय का माथे तक (कार्यः) बनाना चाहिए (तु) और (विशः) वैश्य का (नासान्तिकः स्यात्) नाक तक ऊंचा होना चाहिए॥२१॥


दण्डों का स्वरूप―


ऋजवस्ते तु सर्वे स्युरव्रणाः सौम्यदर्शनाः।

अनुद्वेगकरा नॄणां सत्वचोऽनग्निदूषिताः॥२२॥ [२.४७] (२२)


(ते तु सर्वे) वे सब दण्ड (ऋजवः) सीधे (अव्रणाः) बिना गाँठ वाले (सौम्यदर्शनाः) देखने में प्रिय लगने वाले (नॄणाम् अनुद्वेगकराः) मनुष्यों को भद्दे न लगने वाले (सत्वचः) छालसहित और (अनग्नि-दूषिताः) अग्नि में बिना जले-झुलसे (स्युः) होने चाहियें॥२२॥


संस्कार में भिक्षा-विधान―


प्रतिगृह्येप्सितं दण्डमुपस्थाय च भास्करम्। 

प्रदक्षिणं परीत्याग्निं चरेद् भैक्षं यथाविधि॥२३॥ [२.४८] (२३)


(ईप्सितं दण्डं प्रतिगृह्य) ऊपर वर्णित [२०-२२] दण्डों में अपने वर्ण के योग्य दण्ड धारण करके (च) और (भास्करम् उपस्थाय) सूर्य के सामने खड़ा होके (अग्निं प्रदक्षिणं परीत्य) यज्ञाग्नि की प्रदक्षिणा=परिक्रमा करके (यथाविधि) विधि-अनुसार [२.२४-२५] (भैक्षं चरेत्) उपनयन संस्कार के अवसर पर भिक्षा मांगे॥२३॥


भिक्षा-विधि―


भवत्पूर्वं चरेद् भैक्षमुपनीतो द्विजोत्तमः। 

भवन्मध्यं तु राजन्यो वैश्यस्तु भवदुत्तरम्॥२४॥ [२.४९] (२४)


(उपनीतः द्विजोत्तमः) यज्ञोपवीत संस्कार में ब्राह्मण वर्ण में दीक्षित बालक (भवत्पूर्वं भैक्षं चरेत्) 'भवत्' शब्द को वाक्य के पहले जोड़कर, जैसे―'भवान् भिक्षां ददातु' या 'भवती भिक्षां ददातु' [आप मुझे भिक्षा प्रदान करें] कहकर भिक्षा मांगे (तु) और (राजन्यः) क्षत्रिय वर्ण में दीक्षित बालक (भवत्-मध्यम्) 'भवत्' शब्द को वाक्य के बीच में लगाकर, जैसे–'भिक्षां भवान् ददातु' या 'भिक्षां भवती ददातु' कहकर भिक्षा मांगे (तु) और (वैश्यः) वैश्य वर्ण में दीक्षित बालक (भवत्+उत्तरम्) 'भवत्' शब्द को वाक्य के बाद में जोड़कर, जैसे—'भिक्षां ददातु भवान्' या 'भिक्षां ददातु भवती' कहकर भिक्षा मांगे॥२४॥ 


भिक्षा किन से मांगे―


मातरं वा स्वसारं वा मातुर्वा भगिनीं निजाम्। 

भिक्षेत भिक्षां प्रथमं या चैनं नावमानयेत्॥२५॥ [२.५०] (२५)


[इन ब्रह्मचारियों को] (मातरं वा स्वसारम्) माता या बहन से (वा मातुः निजां भगिनीम्) अथवा माता की सगी बहन अर्थात् सगी मौसी से (च) और (या एनं न+अवमानयेत्) जो इस भिक्षार्थी को भिक्षा का निषेध न करे उससे (प्रथमं भिक्षां भिक्षेत) पहले भिक्षा की याचना करे॥२५॥


गुरु को भिक्षा-समर्पण―


समाहृत्य तु तद्भैक्षं यावदन्नममायया।

निवेद्य गुरवेऽश्नीयादाचम्य प्राङ्मुखः शुचिः॥२६॥ [२.५१] (२६) 


(तत् भैक्षं तु समाहृत्य) उस भिक्षा को अर्जित करके (यावत्+अन्नम्) जितनी भी वह भोज्य सामग्री हो उसे (अमायया) निष्कपट भाव से (गुरवे निवेद्य) पहले गुरु को निवेदित करके, पश्चात् गुरु द्वारा प्रदत्त भिक्षा को (शुचिः) स्वच्छता पूर्वक (प्राङ्मुखः) पूर्व की ओर मुख करके बैठ कर (आचम्य) आचमन करके (अश्नीयात्) खाये॥२६॥


भोजन से पूर्व आचमन विधान―


उपस्पृश्य द्विजो नित्यमन्नमद्यात्समाहितः। 

भुक्त्वा चोस्पृशेत्सम्यगद्भिः खानि च संस्पृशेत्॥२८॥ [२.५३] (२७)


[ऐसे ही] (द्विजः) द्विज (नित्यम्) प्रतिदिन (उपस्पृश्य) आचमन करके (समाहितः) एकाग्र मन से (अन्नम्+अद्यात्) भोजन खाये (च) और (भुक्त्वा) खाकर (सम्यक्) अच्छी प्रकार (उप-स्पृशेत्) कुल्ला करे (च) तथा (अद्भिः खानि संस्पृशेत्) जल से नाक, मुख, नेत्र आदि इन्द्रियों का स्पर्श करे अर्थात् धोये॥२८॥


भोजन-सम्बन्धी मनोवैज्ञानिक विधान―


पूजयेदशनं नित्यमद्याच्चैतदकुत्सयन्। 

दृष्ट्वा हृष्येत्प्रसीदेच्च प्रतिनन्देच्च सर्वशः॥२९॥ [२.५४] (२८)


(नित्यम्) खाते हुए सदैव (अशनं पूजयेत्) भोज्य पदार्थ का आदर करे अर्थात् रुचिपूर्वक (च) और (एतद्+अकुत्सयन्+अद्यात्) इसे निन्दाभाव से रहित होकर अर्थात् प्रसन्नता पूर्वक खाये (दृष्ट्वा हृष्येत् च प्रसीदेत्) भोजन को देखकर मन में उल्लास और प्रसन्नता की भावना करे (च) तथा (सर्वशः प्रतिनन्देत्) उसकी सर्वदा प्रशंसा करे अर्थात् भोजन के प्रति सदैव प्रसन्नता का भाव रखे॥२९॥


पूजितं ह्यशनं नित्यं बलमूर्जं च यच्छति।

अपूजितं तु तद् भुक्तमुभयं नाशयेदिदम्॥३०॥ [२.५५] (२९)


(हि) क्योंकि (पूजितम् अशनम्) प्रसन्नता-आदरपूर्वक किया हुआ भोजन (नित्यं बलं च ऊर्जं यच्छति) सदैव बल और स्फूर्ति देने वाला होता है (तु तत्+अपूजितम्) और वह उपेक्षा-अनादरपूर्वक (भुक्तम्) खाया हुआ (इदम् उभयं नाशयेत्) इन दोनों, बल और स्फूर्ति को नष्ट करता है अर्थात् उससे वांछित लाभ नहीं प्राप्त होता॥३०॥


नोच्छिष्टं कस्यचिद्दद्यान्नाद्याच्चैव तथान्तरा।

न चैवात्यशनं कुर्यान्न चोच्छिष्टः क्वचिद्व्रजेत्॥३१॥ [२.५६] (३०)


(कस्यचित्+उच्छिष्टं न दद्यात्) किसी को अपना झूठा पदार्थ न दे (च) और (तथा एव अन्तरा न अद्यात्) उसी प्रकार भोजन के समय को छोड़कर बीच में भोजन न करे (अति-अशनं न चैव कुर्यात्) न अधिक भोजन करे (च) और (उच्छिष्टः क्वचिद् न व्रजेत्) भोजन किये पश्चात् हाथ-मुख धोये बिना झूठे मुंह कहीं इधर-उधर न जाये॥३१॥


अनारोग्यमनायुष्यमस्वर्ग्यं चातिभोजनम्। 

अपुण्यं लोकविद्विष्टं तस्मात्तत्परिवर्जयेत्॥३२॥ [२.५७] (३१)


(अतिभोजनम्) अधिक भोजन करना (अनारोग्यम्) स्वास्थ्यनाशक (अनायुष्यम्) आयुनाशक (अस्वर्ग्यम्) सुख-नाशक (अपुण्यम्) अहितकर (च) और (लोकविद्विष्टम्) लोगों द्वारा निन्दित माना गया है, (तस्मात्) इसलिए (तत्) अधिक भोजन करना (परिवर्जयेत्) सदा छोड़ देवे॥३२॥


आचमन-विधि―


ब्राह्मेण विप्रस्तीर्थेन नित्यकालमुपस्पृशेत्। 

कायत्रैदशिकाभ्यां वा न पित्र्येण कदाचन॥३३॥ 


अङ्गुष्ठमूलस्य तले ब्राह्यं तीर्थं प्रचक्षते। 

कायमङ्गुलिमूलेऽग्रे दैवं पित्र्यं तयोरधः॥३४॥ [२.५८, ५९] (३२, ३३)


(विप्रः) शिक्षित तीनों द्विज (नित्यकालम्) प्रतिदिन आचमन करते समय (ब्राह्मण तीर्थेन) ब्राह्मतीर्थ [हाथ के अंगूठे के मूलभाग का स्थान, जिससे कलाई भाग की ओर से आचमन ग्रहण किया जाता है] से (वा) अथवा (कायत्रैदशिकाभ्याम्) कायतीर्थ=प्राजापत्य [कनिष्ठा अंगुली के मूलभाग के पास का बगल का स्थान] से या त्रैदशिक=देवतीर्थ [-अंगुलियों के अग्रभाग का स्थान] से (उपस्पृशेत्) आचमन करे, (पित्र्येण कदाचन न) पितृतीर्थ [अंगूठे तथा तर्जनी के मध्य का स्थान] से कभी आचमन न करे॥३३॥


(अंगुष्ठमूलस्य तले) अंगूठे के मूलभाग के नीचे का स्थान (ब्राह्मंतीर्थं प्रचक्षते) ब्राह्मतीर्थ (अंगुलिमूले कायम्) अंगुलियों के मूलभाग का स्थान कायतीर्थ (अग्रे दैवम्) अंगुलियों के अग्रभाग का स्थान दैवतीर्थ और (तयोः+अधः पित्र्यम्) अंगुलियों और अंगूठे का मध्यवर्ती मूल भाग का स्थान पितृतीर्थ (प्रचक्षते) कहा जाता है॥३४॥


त्रिराचामेदपः पूर्वं द्विः प्रमृज्यात्ततो मुखम्। 

खानि चैव स्पृशेदद्भिरात्मानं शिर एव च॥३५॥ [२.६०] (३४)


(पूर्वं अपः त्रिः+आचमेत्) पहले जल का तीन बार आचमन करे (ततः) उसके बाद (मुखं द्विः प्रमृज्यात्) मुख को दो बार धोये (च) और (खानि एव) नाक, कान, नेत्र आदि इन्द्रियों को (आत्मानंच शिरः एव) हृदय और सिर को भी (अद्भिः) जल से (स्पृशेत्) स्पर्श करे॥३५॥


यज्ञोपवीत धारण की तीन स्थितियाँ―


उद्धृते दक्षिणे पाणावुपवीत्युच्यते द्विजः। 

सव्ये प्राचीन आवीती, निवीती कण्ठसज्जने॥३८॥ [२.६३] (३५)


(द्विजः) द्विज=तीन वर्णस्थ व्यक्ति (दक्षिणे पाणौ उद्धृते) दाहिने हाथ को ऊपर रखके यज्ञोपवीत पहनने की अवस्था में [अर्थात् जब द्विज यज्ञोपवीत को दायें हाथ और कन्धे के नीचे लटकाकर तथा बायें कन्धे के ऊपर रखकर पहनता है, तब] (उपवीती) 'उपवीती', (सव्ये) बायें हाथ नीचे और दायें कन्धे के ऊपर रखकर पहनने की अवस्था में (प्राचीन आवीती) 'प्राचीन आवीती' और (कण्ठसज्जने) गले में माला के समान पहनने की अवस्था में (निवीती) 'निवीती' (उच्यते) कहलाता है॥३८॥ 


यज्ञोपवीत मेखलादि की पुनर्ग्रहण-विधि―


मेखलामजिनं दण्डमुपवीतं कमण्डलुम्। 

अप्सु प्रास्य विनष्टानि गृह्णीतान्यानि मन्त्रवत्॥३९॥ [२.६४] (३६)


(मेखलाम्+अजिनं दण्डम्+उपवीतं कमण्डलुम्) मेखला, मृगचर्म, दण्ड, यज्ञोपवीत, कमण्डलु (विनष्टानि) इनके बेकार होने पर (अप्सु प्रास्य) इन्हें बहते जल में फेंक कर (अन्यानि) दूसरे नयों को (मन्त्रवत् गृह्णीत) मन्त्रपूर्वक धारण करे॥३९॥


केशान्त संस्कार कर्म―


केशान्तः षोडशे वर्षे ब्राह्मणस्य विधीयते। 

राजन्यबन्धोर्द्वाविंशे वैश्यस्य द्व्यधिके ततः॥४०॥ [२.६५] (३७)


(केशान्तः) केश मुण्डन का संस्कार (ब्राह्मणस्य) ब्राह्मण-बालक का (षोडशे वर्षे) सोलहवें वर्ष में, (राजन्यबन्धोः द्वाविंशे) क्षत्रिय-बालक का बाईसवें वर्ष में, (वैश्यस्य ततः द्वि+अधिके) वैश्य का क्षत्रिय से दो वर्ष अधिक अर्थात् चौबीसवें वर्ष में (विधीयते) विहित किया गया है॥४०॥


उपनयन विधि की समाप्ति एवं ब्रह्मचारी के कर्मों का कथन―


एष प्रोक्तो द्विजातीनामौपनायनिको विधिः। 

उत्पत्तिव्यञ्जकः पुण्यः, कर्मयोगं निबोधत॥४३॥ [२.६८] (३८)


(एषः) यह [२.११-४२ तक] (द्विजातीनाम् उत्पत्ति-व्यञ्जकः) द्विज बनने के इच्छुकों के द्वितीय जन्म अर्थात् विद्याजन्म का आरम्भ करने वाली और मनुष्यों को द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य बनाने वाली (पुण्यः) कल्याण-कारक (औपनायनिकः विधि) उपनयन संस्कार की विधि (प्रोक्तः) कही, (कर्मयोगं निबोधत) [अब उपनयन में दीक्षित होने वाले ब्रह्मचारियों के] कर्त्तव्यों को सुनो―॥४३॥


(ब्रह्मचारियों के कर्त्तव्य)


२.४४ से २.२२४ तक


उपनयन के पश्चात् ब्रह्मचारी को शिक्षा―


उपनीय गुरुः शिष्यं शिक्षयेच्छौचमादितः। 

आचारमग्निकार्यं च सन्ध्योपासनमेव च॥४४॥ [२.६९] (३९)


(गुरुः)  गुरु (शिष्यम् उपनीय) शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार करके (आदितः) पहले (शौचम्) शुद्धि=स्वच्छता से रहने की विधि (आचारम्) सदाचरण और शिष्टाचार (अग्नि-कार्यम्) अग्निहोत्र की विधि (सन्ध्योपासनम्+एव) और सन्ध्या-उपासना की विधि (शिक्षयेत्) सिखाये॥४४॥


वेदाध्ययन से पहले गुरु को अभिवादन―


ब्रह्मारम्भेऽवसाने च पादौ ग्राह्यौ गुरोः सदा।

संहत्य हस्तावध्येयं स हि ब्रह्माञ्जलिः स्मृतः॥४६॥ [२.७१] (४०)


(ब्रह्मारम्भे च अवसाने) वेद पढ़ने के आरम्भ और समाप्ति पर (सदा गुरोः पादौ ग्राह्यौ) सदैव गुरु के दोनों चरणों को छूकर नमस्कार करे [२.४७] (हस्तौ संहत्य अध्येयम्) दोनों हाथ जोड़कर अभिवादन करने के बाद फिर गुरु से पढ़ना चाहिये; (सः हि ब्रह्माञ्जलिः स्मृतः) इसी [हाथ जोड़ने] को 'ब्रह्माञ्जलि' कहा जाता है॥४६॥


गुरु को अभिवादन करने की विधि―


व्यत्यस्तपाणिना कार्यमुपसंग्रहणं गुरोः। 

सव्येन सव्यः स्प्रष्टव्यो, दक्षिणेन च दक्षिणः॥४७॥ [२.७२] (४१)


(गुरोः उपसंग्रहणम्) गुरु के चरणों का स्पर्श (व्यत्यस्तपाणिना कार्यम्) हाथों को अदल-बदल करके करना चाहिए (सव्येन सव्यः) बायें हाथ से बायां चरण (च) और (दक्षिणेन दक्षिणः) दायें हाथ से दायाँ पैर का (स्प्रष्टव्यः) स्पर्श करना चाहिए [प्रणामकर्त्ता का बायां हाथ नीचे रह कर गुरु के बायें पैर का स्पर्श करे और अपने बायें हाथ के ऊपर से दायां हाथ करके गुरु के दायें चरण को स्पर्श करे]॥४७॥


अध्ययन के आरम्भ एवं समाप्ति की विधि―


अध्येष्यमाणं तु गुरुर्नित्यकालमतन्द्रितः।

अधीष्व भो इति ब्रूयाद्विरामोऽस्त्विति चारमेत्॥४८॥ [२.७३] (४२) 


(गुरुः नित्यकालम्) गुरु सदैव पढ़ाते समय (अतन्द्रितः) आलस्यरहित होकर (अध्येष्यमाणं तु) पढ़ने वाले शिष्य को ('भो अधीष्व' इति ब्रूयात्) 'हे शिष्य पढ़ो' इस प्रकार कहे (च) और ('विराम:+अस्तु' इति आरमेत्) 'अब विराम करो' ऐसा कह कर पढ़ाना समाप्त करे॥४८॥


वेदाध्ययन के आद्यन्त में प्रणवोच्चारण का विधान―


ब्रह्मणः प्रणवं कुर्यादादावन्ते च सर्वदा। 

स्रवत्यनोङ्कृतं पूर्वं, पुरस्ताच्च विशीर्यति॥४९॥ [२.७४] (४३)


(सर्वदा ब्रह्मणः आदौ च अन्ते प्रणवं कुर्यात्) [शिष्य] सदैव वेद पढ़ने के आरम्भ और अन्त में प्रणव='ओ३म्' का उच्चारण करे (पूर्वम् अनोङ्कृतम्) आरम्भ में ओंकार का उच्चारण न करने से (स्रवति) पढ़ा हुआ बिखर जाता है [=भलीभांति ग्रहण नहीं हो पाता] (च) और (पुरस्तात् विशीर्यति) बाद में 'ओ३म्' का उच्चारण न करने से पढ़ा हुआ स्थिर नहीं रहता॥४९॥


'ओ३म्' एवं गायत्री की उत्पत्ति―


अकारं चाप्युकारं च मकारं च प्रजापतिः। 

वेदत्रयान्निरदुहद् भूर्भुवःस्वरितीति च॥५१॥ [२.७६] (४४)


(प्रजापतिः) परमात्मा ने (अकारम् उकारं च मकारम्) 'ओम्' शब्द के 'अ' 'उ' और 'म्' मूल अक्षरों [अ+उ+म्=ओम्] को (च) तथा (भूः भुवः स्वः इति) 'भूः' 'भुवः' 'स्वः' गायत्री मन्त्र की इन तीन महाव्याहृतियों को (वेदत्रयात् निरदुहत्) तीनों वेदों से दुहकर साररूप में निकाला है और 'ओम्' तीनों वेदों का प्रतिनिधि नाम है [द्वितीय 'इति' का प्रयोग पादपूर्त्त्यर्थ है]॥५१॥


त्रिभ्यः एव तु वेदेभ्यः पादं पादमदूदुहत्। 

तदित्यृचोऽस्याः सावित्र्याः परमेष्ठी प्रजापतिः॥५२॥ [२.७७] (४५)


(परमेष्ठी प्रजापतिः) सबसे महान् परमात्मा ने (तत्+इतिः+अस्याः सावित्र्याः ऋचः) 'तत्' इस पद से प्रारम्भ होने वाली सावित्री ऋचा [=गायत्री मन्त्र] का (पादं पादम्) एक-एक पाद [प्रथम पाद है―'तत्सवितुर्वरेण्यम्', द्वितीय पाद है―'भर्गो देवस्य धीमहि', तृतीय पाद है―'धियो यो नः प्रचोदयात्'] (त्रिभ्यः+एव तु वेदेभ्यः) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद [१.२३; ११.२६४; १२.११२] तीनों वेदों से (अदूदुहत्) दुहकर सार रूप में बनाया है। गायत्री मन्त्र वेदों का ही प्रतिनिधि मन्त्र है॥५२॥


'ओ३म्' एवं गायत्री के जप का फल―


एतदक्षरमेतां च जपन् व्याहृतिपूर्विकाम्।

सन्ध्ययोर्वेदविद्विप्रो वेदपुण्येन युज्यते॥५३॥ [२.७८] (४६)


(एतत्+अक्षरम्) इस [ओम्] अक्षर को (च) और (व्याहृतिपूर्विकाम्) 'भूः भुवः स्वः' इन व्याहृतियों सहित (एताम्) इस गायत्री ऋचा [=मन्त्र] को ["ओ३म् भूर्भुवः स्वः। तत्सवितुर्वरेण्यम्, भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्।" इस मन्त्र को] (वेदवित् विप्रः) वेदपाठी द्विज (सन्ध्ययोः जपन्) दोनों सन्ध्याओं अर्थात् प्रातः, सायंकाल में उपासना के समय जपते हुए (वेदपुण्येन युज्यते) वेदाध्ययन के पुण्य को प्राप्त करता है॥५३॥


इन्द्रिय-संयम का निर्देश―


इन्द्रियाणां विचरतां विषयेष्वपहारिषु। 

संयमे यत्नमातिष्ठेद्विद्वान् यन्तेव वाजिनाम्॥६३॥ [२.८८] (४७)


(विद्वान् यन्ता वाजिनाम् इव) जैसे विद्वान्=बुद्धिमान् सारथि घोड़ों को नियन्त्रण में रखकर सही मार्ग पर रखता है वैसे (विषयेषु+अपहारिषु) मन और आत्मा को खोटे कामों में खैंचने वाले विषयों में (विचरताम्) विचरती हुई (इन्द्रियाणां संयमे) इन्द्रियों के निग्रह में (यत्नम्) प्रयत्न (आतिष्ठेत्) सब प्रकार से करे॥६३॥


ग्यारह इन्द्रियों की गणना―


एकादशेन्द्रियाण्याहुर्यानि पूर्वे मनीषिणः। 

तानि सम्यक्प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥६४॥ [२.८९] (४८)


(पूर्वे मनीषिणः) पहले मनीषि विद्वानों ने (यानि एकादश+इन्द्रियाणि+आहुः) जो ग्यारह इन्द्रियाँ कही हैं (तानि यथावत्+अनुपूर्वशः) उनको यथोचित क्रम से (सम्यक् प्रवक्ष्यामि) ठीक-ठीक कहता हूँ॥६४॥


श्रोत्रं त्वक्चक्षुषी जिह्वा नासिका चैव पञ्चमी। 

पायूपस्थं हस्तपादं वाक्चैव दशमी स्मृता॥६५॥ [२.९०] (४९)


(श्रोत्रं त्वक्-चक्षुषी जिह्वा) कान, त्वचा, नेत्र, जीभ (च) और (पञ्चमी) पांचवीं (नासिका) नासिका=नाक (पायु-उपस्थं हस्तपादम्) गुदा, उपस्थ (=मूत्र इन्द्रिय) हाथ, पग (वाक्) वाणी (दशमी स्मृता) ये दश इन्द्रियां इस शरीर में हैं॥६५॥


बुद्धीन्द्रियाणि पञ्चैषां श्रोत्रादीन्यनुपूर्वशः। 

कर्मेन्द्रियाणि पञ्चैषां पाय्यवादीनि प्रचक्षते॥६६॥ [२.९१] (५०)


(एषाम्) इनमें (अनुपूर्वशः) क्रमशः (श्रोत्र-आदीनि पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि) कान आदि पहली पांच 'ज्ञानेन्द्रिय' कहाती हैं और (पायु-आदीनि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि) बाद की गुदा आदि पांच 'कर्मेन्द्रिय' (प्रचक्षते) कहाती हैं॥६६॥


ग्यारहवीं इन्द्रिय मन―


एकादशं मनो ज्ञेयं स्वगुणेनोभयात्मकम्।

यस्मिञ्जिते जितावेतौ भवतः पञ्चकौ गणौ॥६७॥ [२.९२] (५१)


(एकादशं मनः) ग्यारहवीं इन्द्रिय मन है (ज्ञेयम्) ऐसा समझना चाहिए (स्वगुणेन उभयात्मकम्) वह अपने विशेष गुणों के कारण दोनों प्रकार की इन्द्रियों से सम्बन्ध करता है (यस्मिन् जिते) जिस मन के जीतने में (एतौ पञ्चकौ गणौ) पांचों-पांचों इन्द्रियों के दोनों समुदाय अर्थात् ज्ञानेन्द्रिय तथा कर्मेन्द्रिय दसों इन्द्रियां (जितौ) स्वत: जीत ली जाती हैं॥६७॥


इन्द्रिय-संयम से प्रत्येक कार्य में सिद्धि―


इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन दोषमृच्छत्यसंशयम्। 

सन्नियम्य तु तान्येव ततः सिद्धिं नियच्छति॥६८॥ [२.९३] (५२)


(इन्द्रियाणां प्रसङ्गेन) जीवात्मा इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होकर (असंशयम्) निःसन्देह (दोषम्+ऋच्छति) इन्द्रिय-दोषों से ग्रस्त हो जाता है (तु तानि सन्नियम्य) यदि उन्हीं दश इन्द्रियों को वश में कर लेता है तो (ततः एव) उससे वह (सिद्धिं नियच्छति) सिद्धि=सफलता और कल्याण को प्राप्त करता है॥६८॥


विषयों के सेवन से इच्छाओं की वृद्धि―


न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति।

हविषा कृष्णवर्त्मेव भूय एवाभिवर्द्धते॥६९॥ [२.९४] (५३) 


(कामः) तृष्णा (कामानाम् उपभोगेन जातु न शाम्यति) तृष्णाओं अथवा विषयों के भोगने से कभी भी शान्त नहीं होती है, अपितु (कृष्णवर्त्मा हविषा इव) जैसे अग्नि घी आदि की आहुति डालने से (भूय एव-अभिवर्धते) अधिक-अधिक ही बढ़ती जाती है, उसी प्रकार विषयों के सेवन से तृष्णाएँ भी बढ़ती जाती हैं॥६९॥


विषय त्याग ही श्रेष्ठ है―


यश्चैतान्प्राप्नुयात्सर्वान्यश्चैतान्केवलांस्त्यजेत्। 

प्रापणात्सर्वकामानां परित्यागो विशिष्यते॥७०॥ [२.९५] (५४) 


(यः+एतान् सर्वान् प्राप्नुयात्) जो इन सब तृष्णाओं या सब विषयों का उपभोग करे (च) और (यः एतान् केवलान् त्यजेत्) जो इन सब को पूर्णतः त्याग दे (सर्वकामानां प्रापणात्) [इन दोनों बातों में] सब तृष्णाओं या विषयों को प्राप्त=उपभोग करने से (परित्यागः) उनको सर्वथा त्याग देना (विशिष्यते) अधिक अच्छा है॥७०॥


न तथैतानि शक्यन्ते सन्नियन्तुमसेवया।

विषयेषु प्रजुष्टानि यथा ज्ञानेन नित्यशः॥७१॥ [२.९६] (५५)


(विषयेषु प्रजुष्टानि एतानि) विषयों में आसक्त इन इन्द्रियों को (असेवया) विषयों के सेवन के त्याग से भी (तथा सन्नियन्तुं न शक्यन्ते) आसानी से वश में नहीं किया जा सकता। (यथा नित्यशः ज्ञानेन) जैसे कि नित्यप्रति ज्ञानपूर्वक वश में किया जा सकता है। मनुष्य विषयसेवन से दोषों को प्राप्त होता है और विषयत्याग से सिद्धि को प्राप्त करता है, [२.६८] इत्यादि विषय के ज्ञान से इन्द्रियों को भलीभांति वश में किया जा सकता है॥७१॥


विषयी व्यक्ति को सिद्धि नहीं मिलती―


वेदास्त्यागश्च यज्ञाश्च नियमाश्च तपांसि च।

न विप्रदुष्टभावस्य सिद्धिं गच्छन्ति कर्हिचित्॥७२॥ [२.९७] (५६)


(विप्रदुष्टभावस्य) जो अजितेन्द्रिय और दूषित मानस का व्यक्ति है, उसके (वेदाः त्यागः यज्ञाः नियमाः तपांसि) वेद पढ़ना, त्याग करना, यज्ञ=अग्नि-होत्रादि करना, यम-नियमों का पालन आदि करना, तप=धर्माचरण के लिए कष्ट सहन करना आदि कर्म (कर्हिचित्) कदापि (सिद्धिं न गच्छन्ति) सिद्ध=सफल नहीं हो सकते अर्थात् जितेन्द्रियता के साथ ही इन आचरणों की सफलता होती है॥७२॥


जितेन्द्रिय की परिभाषा―


श्रुत्वा स्पृष्ट्वा च दृष्ट्वा च भुक्त्वा घ्रात्वा च यो नरः। 

न हृष्यति ग्लायति वा स विज्ञेयो जितेन्द्रियः॥७३॥ [२.९८] (५७)


(यः नरः) जो मनुष्य (श्रुत्वा) स्तुति सुन के हर्ष और निन्दा सुन के शोक (स्पृष्ट्वा) अच्छा स्पर्श करके सुख और दुष्ट स्पर्श से दु:ख (दृष्ट्वा) सुन्दर रूप देख के प्रसन्न और दुष्टरूप देख अप्रसन्न (भुक्त्वा) उत्तम भोजन करके आनन्दित और निकृष्ट भोजन करके दुःखित (घ्रात्वा न हृष्यति ग्लायति) सुगन्ध में रुचि, दुर्गन्ध में अरुचि न करता हो अर्थात् उनके वशीभूत और उनसे प्रभावित नहीं होता (सः जितेन्द्रियः विज्ञेयः) उसको 'जितेन्द्रिय' समझना-मानना चाहिए॥७३॥


एक भी इन्द्रिय के असंयम से प्रज्ञाहानि―


इन्द्रियाणां तु सर्वेषां यद्येकं क्षरतीन्द्रियम्। 

तेनास्य क्षरति प्रज्ञा दृतेः पात्रादिवोदकम्॥७४॥ [२.९९] (५८)


(सर्वेषाम् इन्द्रियाणां तु) सब इन्द्रियों में यदि (एकम् इन्द्रियं क्षरति) एक भी इन्द्रिय अपने विषय में आसक्त रहने लगती हैं तो (तेन) उसी के कारण (अस्य प्रज्ञा क्षरति) इस मनुष्य की बुद्धि ऐसे नष्ट होने लगती है (दृतेः पात्रात्+उदकम् इव) जैसे चमड़े के बर्तन=मशक में एक छिद्र होने से ही सारा पानी बहकर नष्ट हो जाता है॥७४॥


इन्द्रिय-संयम से सब अर्थों की सिद्धि―


वशे कृत्वेन्द्रियग्रामं संयम्य च मनस्तथा। 

सर्वान् संसाधयेदर्थानक्षिण्वन् योगतस्तनुम्॥७५॥ [२.१००] (५९)


(इन्द्रियग्रामम्) पांच कर्मेन्द्रिय, पांच ज्ञानेन्द्रिय, इन दश इन्द्रियों के समूह को (संयम्य) नियन्त्रण में रखकर (च) और (मनः) ग्यारहवें मन को (वशे कृत्वा) वश में करके (योगतः तनुम्=अक्षिण्वन्) योगाभ्यास में इस प्रकार संलग्न रहे कि उससे शरीर में क्षीणता और हानि न होवे (तथा) उस प्रकार से रहता हुआ (सर्वान् अर्थान् संसाधयेत्) अपने सब कामों, लक्ष्यों और व्यवहारों को सिद्ध करे॥७५॥


सन्ध्योपासन-समय―


पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्सावित्रीमर्कदर्शनात्। 

पश्चिमां तु समासीनः सम्यगृक्षविभावनात्॥७६॥ [२.१०१] (६०)


(पूर्वां सन्ध्याम्) प्रात:कालीन सन्ध्या करते समय (सावित्रीं जपन्) गायत्री मन्त्र का अर्थसहित जप करते हुए (अर्कदर्शनात् तिष्ठेत्) सूर्योदय पर्यन्त बैठे, उपासना करे। (पश्चिमां तु) सायंकालीन सन्ध्या में (ऋक्षदर्शनात् समासीनः) तारों के दर्शन पर्यन्त बैठकर (सम्यक्) शुद्धभाव से गायत्री मन्त्र के जप से परमात्मा की उपासना करे॥७६॥


सन्ध्योपासना का फल―


पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठन्नैशमेनो व्यपोहति। 

पश्चिमां तु समासीनो मलं हन्ति दिवाकृतम्॥७७॥ [२.१०२] (६१)


[मनुष्य] (पूर्वां सन्ध्यां जपन् तिष्ठन्) प्रातःकालीन सन्ध्या में बैठकर अर्थसहित जप करके (नैशम्+एनः व्यपोहति) रात्रिकालीन मानसिक मलिनता या दोषों को दूर करता है (पश्चिमां तु समासीनः) और सायंकालीन सन्ध्या करके (दिवाकृतं मलं हन्ति) दिन में संचित मानसिक मलिनता या दोषों को नष्ट करता है। [अभिप्राय यह है कि दोनों समय सन्ध्या करने से पूर्ववेला में आये दोषों पर चिन्तन-मनन और पश्चात्ताप करके उन्हें आगे न करने के लिए संकल्प किया जाता है तथा गायत्री जप द्वारा ईश्वर की उपासना से अपने संस्कारों को शुद्ध-पवित्र बनाया जा सकता है]॥७७॥


सन्ध्योपासन न करनेवाला शूद्र―


न तिष्ठति तु यः पूर्वां नोपास्ते यस्तु पश्चिमाम्। 

स साधुभिर्बहिष्कार्यः सर्वस्माद् द्विजकर्मणः॥७८॥ [२.१०३] (६२)


(यः) जो मनुष्य (पूर्वां न तिष्ठति च पश्चिमां न उपास्ते) प्रतिदिन प्रातः और सायं सन्ध्योपासना नहीं करता (सः शूद्रवत्) उसको शूद्र के समान समझकर (सर्वस्मात् द्विजकर्मणः बहिष्कार्यः) द्विजों के समस्त अधिकारों से वंचित करके शूद्र वर्ण में रख देना चाहिए, क्योंकि उसका आचरण शूद्र के समान होता है॥७८॥


प्रतिदिन गायत्री-जप का विधान―


अपां समीपे नियतो नैत्यकं विधिमास्थितः। 

सावित्रीमप्यधीयीत गत्वारण्यं समाहितः॥७९॥ [२.१०४] (६३)


(नैत्यकं विधिम्+आस्थितः) सन्ध्योपासना की नित्यचर्या का अनुष्ठान करने वाला व्यक्ति (अरण्यं गत्वा) वनप्रदेश अथवा एकान्त शान्त प्रदेश में जाकर (अपां समीपे नियतः) जलस्थान के निकट बैठकर (समाहितः) ध्यानमग्न होकर (सावित्रीम्+अपि+अधीयीत) सावित्री अर्थात् गायत्री मन्त्र का अर्थसहित जप-चिन्तन करे और तदनुसार आचरण करे॥७९॥


वेद, अग्निहोत्र आदि में अनध्याय नहीं होता―


वेदोपकरणे चैव स्वाध्याये चैव नैत्यके।

नानुरोधोऽस्त्यनध्याये होममन्त्रेषु चैव हि॥८०॥ [२.१०५] (६४)


(वेदोपकरणे चैव) वेद के पठन-पाठन में (च) और (नैत्यके स्वाध्याये) नित्यकर्म में विहित गायत्री जप या सन्ध्योपासना [२.७६-७९] में (होम-मन्त्रेषु चैव) तथा यज्ञानुष्ठान में (अनध्याये अनुरोधः न अस्ति) अनध्याय अर्थात् न करने की छूट नहीं होती। भाव यह है कि इन अनुष्ठानों को प्रत्येक स्थिति में करना चाहिए, इनके साथ अनध्याय अर्थात् अवकाश का नियम लागू नहीं होता॥८०॥


नैत्यके नास्त्यनध्यायो ब्रह्मसत्रं हि तत्स्मृतम्।

ब्रह्माहुतिहुतं पुण्यमनध्यायवषट्कृतम्॥८१॥ [२.१०६] (६५)


(नैत्यके अनध्यायः न+अस्ति) सन्ध्या-यज्ञ आदि नित्यचर्या के अनुष्ठान का त्याग अथवा उनमें अवकाश नहीं होता (हि) क्योंकि (तत् ब्रह्मसत्रं स्मृतम्) उनको परमात्मा की उपासना का अनुष्ठान माना गया है। (अनध्यायवषट्कृतम्) अवकाशकाल में भी किया गया यज्ञ-सदृश उत्तम कर्म और (ब्रह्मआहुति-हुतम्) ब्रह्म को किया गया समर्पण अर्थात् सन्ध्योपासन (पुण्यम्) सदा पुण्यदायक ही होते हैं॥८१॥


स्वाध्याय का फल―


यः स्वाध्यायमधीतेऽब्दं विधिना नियतः शुचिः।

तस्य नित्यं क्षरत्येष पयो दधि घृतं मधु॥८२॥ [२.१०७] (६६)


(यः) जो व्यक्ति (अब्दं स्वाध्यायम्) जलवर्षक मेघ के समान कल्याणवर्षक स्वाध्याय को [वेदों का अध्ययन, यज्ञ, गायत्री का जप एवं सन्ध्या-उपासना आदि (२.७९-८१) (शुचिः) स्वच्छ-पवित्र होकर, (नियतः) एकाग्रचित्त होकर (विधिना) विधिपूर्वक (अधीते) करता है (तस्य एषः) उसके लिए यह स्वाध्याय (नित्यम्) सदा (पयः दधिघृतं मधु क्षरति) दूध, दही, घी और मधु को बरसाता है।


अभिप्रायः यह है कि जिस प्रकार इन पदार्थों का सेवन करने से शरीर तृप्त, पुष्ट, बलशाली और नीरोग हो जाता है, उसी प्रकार स्वाध्याय करने से भी मनुष्य का जीवन शान्तिमय, गुणमय, ज्ञानमय और पुण्यमय या आनन्दमय हो जाता है, अथवा धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनकी प्राप्ति होती है॥८२॥


समावर्तन तक होमादि कर्त्तव्य करने का कथन―


अग्नीन्धनं भैक्षचर्यामधःशय्यां गुरोर्हितम्। 

आसमावर्तनात्कुर्यात्कृतोपनयनो द्विजः॥८३॥ [२.१०८] (६७)


(कृतः+उपनयनः द्विजः) यज्ञोपवीत संस्कार में दीक्षित द्विज बालक गुरुकुल में रहते हुए (अग्नीन्धनम्) अग्निहोत्र का अनुष्ठान (भैक्षचर्याम्) भिक्षावृत्ति (अधःशय्याम्) भूमि में शयन (गुरोः हितम्) गुरु की सेवा (आसमावर्तनात्) समावर्तन संस्कार होने तक [शिक्षा समाप्त करके घर लौटने तक [३.१-३] (कुर्यात्) करता रहे॥८३॥


पढ़ाने योग्य शिष्य―


आचार्यपुत्रः शुश्रूषुर्ज्ञानदो धार्मिकः शुचिः। 

आप्तः शक्तोऽर्थदः साधुः स्वोऽध्याप्या दश धर्मतः॥८४॥ [२.१०९] (६८)


(आचार्यपुत्रः) अपने आचार्य=गुरु का पुत्र (शुश्रूषुः) सेवा करने वाला (ज्ञानदः) किसी विषय के ज्ञान का देने वाला (धार्मिकः) धर्मनिष्ठ व्यक्ति (शुचिः) छल-कपटरहित आचरण वाला (आप्तः) घनिष्ठ मित्र आदि (शक्तः) विद्या ग्रहण करने में समर्थ अर्थात् बुद्धिमान् पात्र (अर्थदः) धन देने वाला (साधुः) हितैषी (स्वः) अपना सगा-सम्बन्धी (दश धर्मतः अध्याप्याः) ये दश धर्म से अवश्य पढ़ाने योग्य हैं॥८४॥


प्रश्नादि के बिना उपदेश निषेध―


नापृष्टः कस्यचिद् ब्रूयान्न चान्यायेन पृच्छतः।

जानन्नपि हि मेधावी जडवल्लोक आचरेत्॥८५॥ [२.११०] (६९)


(मेधावी) बुद्धिमान् मनुष्य (लोके) लोक में (न अपृष्टः) किसी के बिना पूछे (च) और (अन्यायेन पृच्छतः) अन्याय अर्थात् छल-कपट, असभ्यता आदि से पूछने पर (जानन्+अपि) किसी विषय को जानते हुए भी (न ब्रूयात्) उत्तर न दे, ऐसे समय (जडवत् आचरेत्) जड़ के समान अर्थात् शान्तभाव से चुप रहे॥८५॥


दुर्भावनापूर्वक प्रश्न-उत्तर से हानि―


अधर्मेण च यः प्राह यश्चाधर्मेण पृच्छति। 

तयोरन्यतरः प्रैति विद्वेषं वाऽधिगच्छति॥८६॥ [२.१११] (७०)


(यः) "जो (अधर्मेण) अन्याय, पक्षपात, असत्य का ग्रहण, सत्य का परित्याग, हठ, दुराग्रह.... इत्यादि अधर्म कर्म से युक्त होकर छल-कपट से (पृच्छति) पूछता है (च) और (यः) जो (अधर्मेण) पूर्वोक्त प्रकार से (प्राह) उत्तर देता है, ऐसे व्यवहार में विद्वान् मनुष्य को योग्य है कि न उससे पूछे और न उसको उत्तर देवे। जो ऐसा नहीं करता तो (तयो:+अन्यतरः प्रैति) पूछने वा उत्तर देने वाले दोनों में से एक मर जाता है अर्थात् निन्दित होता है। (वा) अथवा (विद्वेषम्) अत्यन्त विरोध को 

(अधिगच्छति) प्राप्त होकर दोनों दु:खी होते हैं॥"८६॥


विद्या-दान किसे न दें―


धर्मार्थौ यत्र न स्यातां शुश्रूषा वाऽपि तद्विधा। 

तत्र विद्या न वक्तव्या शुभं बीजमिवोषरे॥८७॥ [२.११२] (७१)


(यत्र धर्मार्थौ न स्याताम्) जहाँ विद्यार्थी में धर्माचरण अथवा उससे अर्थप्राप्ति न हो (वा) और (तद्विधा शुश्रूषा अपि) गुरु के अनुरूप सेवाभावना भी न हो (तत्र विद्या न वक्तव्या) ऐसे को विद्या का उपदेश नहीं करना चाहिए, क्योंकि (ऊषरे शुभं बीजम्+इव) वह ऊसर भूमि में श्रेष्ठ बीज बोने के समान है। जैसे बंजर भूमि में बोया हुआ बीज व्यर्थ होता है उसी प्रकार उक्त कुपात्र व्यक्ति को दी गई विद्या भी व्यर्थ जाती है, अर्थात् वह विद्या का दुरुपयोग करता है, जैसे दुष्ट व्यक्ति विज्ञान विद्या को सीखकर उसका उपयोग लोकहानि के लिए करता है॥८७॥


कुपात्र को विद्यादान का निषेध―


विद्ययैव समं कामं मर्तव्यं ब्रह्मवादिना। 

आपद्यपि हि घोरायां न त्वेनामिरिणे वपेत्॥८८॥ [२.११३] (७२)


(ब्रह्मवादिना) वेद का विद्वान् (कामम्) चाहे (विद्यया+एव समं मर्त्तव्यम्) विद्या को साथ लेकर मर जाये (हि) किन्तु (घोरायाम् आपदि+अपि) भयंकर आपत्तिकाल में भी (एनाम् इरिणे तुन वपेत्) इस विद्या को बंजर भूमि में बीज के समान विद्या के ईर्ष्या-द्वेषी कुपात्र व्यक्ति के मस्तिष्क में न बोये अर्थात् जहाँ विद्या फलवती न हो, जो उसका विनाश या दुरुपयोग करे, ऐसे कुपात्र को न दे॥८८॥


विद्यादान-सम्बन्धी आख्यान एवं निर्देश―


विद्या ब्राह्मणमेत्याह शेवधिस्तेऽस्मि रक्ष माम्। 

असूयकाय मां मा दास्तथा स्यां वीर्यत्तमा॥८९॥ [२.११४] (७३)


[एक आख्यान प्रचलित है कि एक बार] (विद्या ब्राह्मणम्+एत्य+आह) विद्या विद्वान् ब्राह्मण के पास आकर बोली―(ते शेवधिः अस्मि, माम्, रक्ष) मैं तेरा खजाना हूँ, तू मेरी रक्षा कर (माम् असूयकाय मा दाः) मुझे मेरी उपेक्षा, निन्दा, दुरुपयोग या ईर्ष्या-द्वेष करने वाले को मत प्रदान कर (तथा वीर्यत्तमा स्याम्) इस प्रकार से ही मैं वीर्यवती=महत्त्वपूर्ण और शक्तिसम्पन्न बन सकूंगी॥८९॥


यमेव तु शुचिं विद्यान्नियतब्रह्मचारिणम्।

तस्मै मां ब्रूहि विप्राय निधिपायाप्रमादिने॥९०॥ [२.११५] (७४) 


(यम्+एव तु शुचिं नियतब्रह्मचारिणम्) जिसे तुम छल-कपट रहित, शुद्ध भाव से युक्त, निश्चित रूप से जितेन्द्रिय (विद्यात्) समझो (तस्मै अप्रमादिने निधिपाय मां ब्रूहि) उस आलस्यरहित और इस विद्यारूपी खजाने की रक्षा एवं वृद्धि करने वाले जिज्ञासु शिष्य को मुझे पढ़ाना॥९०॥


गुरु को प्रथम अभिवादन―


लौकिकं वैदिकं वाऽपि तथाऽध्यात्मिकमेव च। 

आददीत यतो ज्ञानं तं पूर्वमभिवादयेत्॥९२॥ [२.११७] (७५)


[शिष्टाचार यह है कि] (यतः) जिससे (लौकिकम्) लोक में काम आने वाला―शस्त्रविद्या, अर्थशास्त्र, इतिहास, राजनीति विज्ञान आदि सम्बन्धी (वा) अथवा (वैदिकम्) वेदविषयक (तथा) तथा (आध्यात्मिकम्+एव) आत्मा-परमात्मा सम्बन्धी (ज्ञानम्) ज्ञान (आददीत) प्राप्त करे (तम्) उसको शिक्षार्थी (पूर्वम्+अभिवादयेत्) पहले नमस्कार करे॥९२॥


गुरु की शय्या और आसन पर न बैठे―


शय्यासनेऽध्याचरिते श्रेयसा न समाविशेत्। 

शय्यासनस्थश्चैवैनं प्रत्युत्थायाभिवादयेत्॥९४॥ [२.११९] (७६)


(श्रेयसा) गुरुजन आदि बड़ों द्वारा (अध्याचरिते) प्रयोग में लायी जाने वाली (शय्या-आसने) शय्या=पलंग आदि और आसन पर (न समाविशेत्) न बैठे (च) और (शय्यासनस्थः) यदि अपनी शय्या और आसन पर लेटा या बैठा हो तो (एनम्) इन गुरुजन आदि बड़ों के आने पर उनको (प्रत्युत्थाय+अभिवादयेत्) उठकर अभिवादन करे॥९४॥


बड़ों के अभिवादन से मानसिक प्रसन्नता―


ऊर्ध्वं प्राणा ह्युत्क्रामन्ति यूनः स्थविर आयति। 

प्रत्युत्थानाभिवादाभ्यां पुनस्तान्प्रतिपद्यते॥१५॥ [२.१२०] (७७)


(स्थविरे+आयति) विद्या, पद, आयु आदि में बड़े लोगों के आने पर (यूनः प्राणाः) छोटों के प्राण (उत्क्रामन्ति) ऊपर को उभरने से लगते हैं अर्थात् प्राणों में घबराहट-सी उत्पन्न होने लगती है (हि) किन्तु (प्रत्युत्थान-अभिवादाभ्याम्) उठने और अभिवादन करने से (पुनः) फिर से (तान् प्रतिपद्यते) मनुष्य प्राणों की सामान्य-स्वाभाविक स्थिति को प्राप्त कर लेता है अर्थात् प्राणों की घबराहट दूर हो जाती है॥९५॥


अभिवादन और सेवा से आयु, विद्या, यश: बल की वृद्धि―


अभिवादनशीलस्य नित्यं वृद्धोपसेविनः।

चत्वारितस्य वर्द्धन्ते, आयुर्विद्या यशो बलम्॥९६॥ [२.१२१] (७८)


(अभिवादनशीलस्य) अभिवादन करने का जिसका स्वभाव है और (नित्यं वृद्धोपसेविनः) विद्या वा अवस्था में वृद्ध पुरुषों की जो नित्य सेवा-संगति करता है (तस्य आयुः विद्या यशः बलं चत्वारि वर्धन्ते) उसकी आयु, विद्या, कीर्त्ति और बल इन चारों की नित्य उन्नति हुआ करती है॥९६॥


अभिवादन-विधि―


अभिवादात्परं विप्रो ज्यायांसमभिवादयन्। 

असौ नामाहमस्मीति स्वं नाम परिकीर्तयेत्॥९७॥ [२.१२२] (७९)


(विप्रः) द्विज (ज्यायांसम्+अभिवादयन्) अपने से बड़े को प्रणाम करते हुए (अभिवादात् परम्) अभिवादनसूचक शब्द के बाद ('अहं असौ नामा अस्मि' इति) 'मैं अमुक नाम वाला हूँ' ऐसा कहते हुए (स्वं नाम परिकीर्त्तयेत्) अपना नाम बतलाये, जैसे―अभिवादये अहं देवदत्तः....... [शेष विधि ९९ श्लोक में है]॥९७॥


भोःशब्दं कीर्तयेदन्ते स्वस्य नाम्नोऽभिवादने। 

नाम्नां स्वरूपभावो हि भोभाव ऋषिभिः स्मृतः॥९९॥ [२.१२४] (८०)


[२.९७ में विहित प्रक्रिया पूरी होने के बाद फिर] (अभिवादने) अभिवादन में (स्वस्य नाम्नः अन्ते) अपना नाम बताने के पश्चात् ('भोः' शब्दं कीर्तयेत्) 'भोः' यह शब्द लगाये (हि) क्योंकि (ऋषिभिः) ऋषियों ने (भोभावः नाम्नां स्वरूपभावः स्मृतः) 'भोः' शब्द को नामों के स्वरूप का द्योतक ही माना है अर्थात् 'भोः' सम्बोधन के उच्चारण में ही श्रोता के नाम का अन्तर्भाव स्वतः हो जाता है [२.१०३]। जैसे―"अभिवादये अहं देवदत्तः भोः"॥९९॥


अभिवादन का उत्तर देने की विधि―


आयुष्मान्भव सौम्येति वाच्यो विप्रोऽभिवादने। 

अकारश्चास्य नाम्नोऽन्ते वाच्यः पूर्वाक्षरः प्लुतः॥१००॥ [२.१२५] (८१)


(अभिवादने) अभिवादन का उत्तर देते समय (विप्रः) द्विज को (सौम्य 'आयुष्मान् भव' इति वाच्यः) 'हे सौम्य! आयुष्मान् हो' ऐसा कहना चाहिए (च) और (अस्य नाम्नः+अन्ते अकारः पूर्वाक्षरः प्लुतः) नमस्कार करने वाले के नाम के अन्तिम अकार आदि स्वरों को पहले अक्षर सहित प्लुत की ध्वनि [तीन मात्राओं के समय] में उच्चारण करे। जैसे 'देवदत्त' नाम में अन्तिम स्वर अकार है, जो 'त्' में मिला हुआ है। इस प्रकार त्' सहित अकार को अर्थात् अन्तिम 'त' को प्लुत बोले। उदाहरण है―"आयुष्यमान् भव सौम्य देवदत्त ३" अथवा "आयुष्मान् भव सौम्य यज्ञदत्त ३"॥१००॥


अभिवादन का उत्तर न देने वाले को अभिवादन न करें―


यो न वेत्त्यभिवादस्य विप्रः प्रत्यभिवादनम्। 

नाभिवाद्यः स विदुषा यथा शूद्रस्तथैव सः॥१०१॥ [२.१२६] (८२)


(यः विप्रः) जो द्विज (अभिवादस्य प्रत्यभिवादनम्) अभिवादन करने के उत्तर में अभिवादन करना नहीं जानता अर्थात् नहीं करता (विदुषा सः न+अभिवाद्यः) बुद्धिमान् आदमी को उसे अभिवादन नहीं करना चाहिए, क्योंकि (सः यथा शूद्रः तथा+एव) वह जैसा अशिक्षित शूद्र होता है, वैसा ही वह द्विज होता है अर्थात् वह शूद्र के समान है॥१०१॥


वर्णानुसार कुशल प्रश्नविधि―


ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्क्षत्रबन्धुमनामयम्। 

वैश्यं क्षेमं समागम्य शूद्रमारोग्यमेव च॥१०२॥ [२.१२७] (८३)


(समागम्य) मिलने पर, अभिवादन के बाद (ब्राह्मणं कुशलं पृच्छेत्) ब्राह्मण से कुशलता―प्रसन्नता एवं वेदाध्ययन आदि की निर्विघ्नता, (क्षत्रबन्धुम्+अनामयम्) क्षत्रिय से बल आदि की दृष्टि से स्वास्थ्य के विषय में, (वैश्यं क्षेमम्) वैश्य से क्षेम―धन आदि की सुरक्षा और आनन्द के विषय में, (च) और (शूद्रम्+आरोग्यम्+एव) शूद्र से स्वस्थता के विषय में अवश्य (पृच्छेत्) पूछे। 


अभिप्राय यह है कि वर्णानुसार उनके मुख्य उद्देश्यसाधक व्यवहारों की निर्विघ्नता के विषय में प्रधानता से पूछे॥१०२॥


दीक्षित के नामोच्चारण का निषेध―


अवाच्यो दीक्षितो नाम्ना यवीयानपि यो भवेत्। 

भोभवत्पूर्वकं त्वेनमभिभाषेत धर्मवित्॥१०३॥ [२.१२८] (८४)


(दीक्षितः) विद्याप्राप्ति हेतु उपनयन में दीक्षित ब्रह्मचारी (यः यवीयान्+अपि भवेत्) यदि कोई छोटा भी हो तो उसे (नाम्ना अवाच्य) नाम लेकर नहीं पुकारना चाहिए (धर्मवित्) व्यवहार में चतुर व्यक्ति को चाहिए कि वह (एनं 'भो' 'भवत्' पूर्वकम् अभिभाषेत) अपने से छोटे व्यक्ति को भी 'भो' 'भवत्' जैसे आदरबोधक शब्दों से सम्बोधित करे॥१०३॥


परस्त्री के नामोच्चारण का निषेध―


परपत्नी तु या स्त्री स्यादसम्बन्धा च योनितः।

तां ब्रूयाद् भवतीत्येवं सुभगे भगिनीति च॥१०४॥ [२.१२९] (८५)


(या तु स्त्री परपत्नी च योनितः असम्बन्धा स्यात्) जो कोई महिला दूसरे की पत्नी हो और सगेपन से सम्बन्ध न रखने वाली हो अर्थात् बहन आदि न हो (ताम्) उसे ('भवती' 'सुभगे 'भगिनी' इति+एवं ब्रूयात्) 'भवती!' [=आप] 'सुभगे!' [=सौभाग्यवति!] 'भगिनी!' [=बहन] इस प्रकार के शिष्टाचारवाचक शब्दों से सम्बोधित करे॥१०४॥


समाज में सम्मान के आधार―


वित्तं बन्धुर्वयः कर्म विद्या भवति पञ्चमी। 

एतानि मान्यस्थानानि गरीयो यद्यदुत्तरम्॥१११॥ [२.१३६] (८६)


(वित्तं बन्धुः वयः कर्म) धन, बंधु-बांधव, आयु, उत्तम कर्म (पञ्चमी विद्या भवति) और पांचवीं―श्रेष्ठविद्या (एतानि मान्यस्थानानि) ये पांच सम्मान देने के स्थान हैं, परन्तु इनमें (यद्-यद्+उत्तरंगरीयः) जो-जो बाद वाला है वह अतिशयता से उत्तम अर्थात् बड़ा है। धनी से अधिक बन्धु-बान्धव, बन्धु से अधिक बड़ी आयु वाले, बड़ी आयु वाले से अधिक श्रेष्ठ कर्म करने वाले और श्रेष्ठ कर्म वालों से उत्तम विद्वान् उत्तरोत्तर अधिक माननीय हैं॥१११॥


पञ्चानां त्रिषु वर्णेषु भूयांसि गुणवन्ति च। 

यत्र स्युः सोऽत्र मानार्हः शूद्रोऽपि दशमीं गतः॥११२॥ [२.१३७] (८७)


(त्रिषु वर्णेषु) तीनों वर्णों में अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में परस्पर (पञ्चानां यत्र भूयांसि गुणवन्ति स्युः) उक्त [२.१११] पांच गुणों में उत्तरोत्तर स्तर वाले अधिक संख्या में गुण जिसमें हों (अत्र सः मानार्हः) समाज में वह कम गुणवालों के द्वारा सम्मान करने योग्य है, किन्तु (दशमीं गतः शूद्रः+अपि) दशमी अवस्था अर्थात् नब्बे वर्ष से अधिक आयुवाला शूद्र सबके द्वारा पहले सम्मान देने योग्य है॥११२॥


किस-किस के लिए पहले मार्ग दें―


चक्रिणो दशमीस्थस्य रोगिणो भारिणः स्त्रियाः। 

स्नातकस्य च राज्ञश्च पंथा देयो वरस्य च॥११३॥ [२.१३८] (८८)


(चक्रिणः) सवारी अर्थात् रथ, गाड़ी आदि में सवार को (दशमीस्थस्य) दशमी अवस्था वाले अर्थात् नब्बे वर्ष से अधिक आयु वाले व्यक्तियों को (रोगिणः) रोगी को (भारिणः) बोझ उठाये हुए को (स्त्रियः) स्त्रियों को (च) और (स्नातकस्य) विद्वान् स्नातक को (राज्ञः) राजा को (च) और (वरस्य) दूल्हे को (पन्था देयः) सामने से आने पर सम्मान में पहले रास्ता देना चाहिए॥११३॥


राजा और स्नातक में स्नातक अधिक मान्य―


तेषां तु समवेतानां मान्यौ स्नातकपार्थिवौ। 

राजस्नातकयोश्चैव स्नातको नृपमानभाक्॥११४॥ [२.१३९] (८९)


(तेषाम् तु) उन [२.११३] सबके (समवेतानाम्) एकत्रित होने पर (स्नातक-पार्थिवौ मान्यौ) विद्वान् स्नातक और राजा सबके सम्मान के उन योग्य हैं (च) और (राज-स्नातकयो:-एव) राजा और स्नातक के एक स्थान पर मिलने पर (स्नातक नृपमानभाक्) स्नातक विद्वान् राजा के द्वारा पहले सम्मान पाने का पात्र है॥११४॥


आचार्य का लक्षण―


उपनीय तु यः शिष्यं वेदमध्यापयेद् द्विजः। 

सकल्पं सरहस्यं च तमाचार्यं प्रचक्षते॥११५॥ [२.१४०] (९०)


(यः शिष्यम् उपनीय तु) जो गुरु शिष्य का यज्ञोपवीत संस्कार कराके (सकल्पं च सरहस्यम्) कल्पसूत्र अर्थात् आचार एवं कला ज्ञान सहित और रहस्य=वेदों में निहित गम्भीर सत्यविद्याओं के उद्घाटन सहित, अर्थात् निहित गूढ़ तत्त्वों की व्याख्या सहित (वेदम्+अध्यापयेत्) वेद को पढ़ावे (तम्+आचार्यं प्रचक्षते) उसको 'आचार्य' कहते हैं॥११५॥


उपाध्याय का लक्षण―


एकदेशं तु वेदस्य वेदाङ्गान्यपि वा पुनः। 

योऽध्यापयति वृत्त्यर्थमुपाध्यायः स उच्यते॥११६॥ [२.१४१] (९१)


(यः) जो (वृत्ति+अर्थम्) जीविका के लिए (वेदस्य एकदेशम्) वेद के किसी एक भाग या अंश को (अपि वा पुनः वेदाङ्गानि) या फिर वेदांगों=शिक्षा, कल्प, व्याकरण, निरुक्त, छन्दःशास्त्र और ज्योतिष विद्याओं को (अध्यापयति) पढ़ाता है (सः उपाध्यायः उच्यते) वह 'उपाध्याय' कहलाता है॥११६॥


पिता-गुरु का लक्षण―


निषेकादीनि कर्माणि यः करोति यथाविधि। 

सम्भावयति चान्नेन स विप्रो गुरुरुच्यते॥११७॥ [२.१४२] (९२)


(यः यथाविधि) जो विधि-अनुसार (निषेकादीनि कर्माणि करोति) गर्भाधान, उपनयन आदि संस्कारों को करता है और बालक बालिका को घर पर भी शिक्षा देता है (च) तथा (अन्नेन सम्भावयति) अन्न आदि भोज्य पदार्थो द्वारा बालक का पालन-पोषण करता है (स विप्रः) वह विद्वान् पिता (गुरुः+उच्यते) 'गुरु' कहलाता है॥११७॥


ऋत्विक् का लक्षण―


अग्न्याधेयं पाकयज्ञानग्निष्टोमादिकान्मखान्। 

यः करोति वृतो यस्य स तस्यर्त्विगिहोच्यते॥११८॥ [२.१४३] (९३)


(यः वृतः) जो ब्राह्मण किसी के द्वारा वरण किये जाने पर (तस्य) उस वरण करने वाले के (अग्न्याधेयम्) अग्निहोत्र (पाकयज्ञान्) बलिवैश्वदेव आदि गृह्ययज्ञों तथा पूर्णिमा आदि विशेष उपलक्ष्यों पर किये जाने वाले अन्य यज्ञों को (करोति) करता है (सः तस्य ऋत्विक् उच्यते) वह उस वरण करने वाले यजमान का 'ऋत्विक्' कहलाता है॥११८॥


अध्यापक या आचार्य की महत्ता―


य आवृणोत्यवितथं ब्रह्मणा श्रवणावुभौ। 

स माता स पिता ज्ञेयस्तं न द्रुह्येत्कदाचन॥११९॥ [२.१४४] (९४)


(यः ब्रह्मणा) जो गुरु या आचार्य वेदज्ञान और विद्यादान के द्वारा (उभौ श्रवणौ अवितथम् आवृणोति) दोनों कानों को सत्यज्ञान से परिपूर्ण करता है, सत्यज्ञान देता या पढ़ाता है (सः माता सः पिता ज्ञेयः) उसे माता-पिता के समान सम्मानीय समझना चाहिए (तं कदाचन न द्रुह्येत्) और उससे कभी द्रोह=ईर्ष्या-द्वेष न करे॥११९॥


पिता से वेदज्ञानदाता आचार्य बड़ा होता है―


उत्पादकब्रह्मदात्रोर्गरीयान्ब्रह्मदः पिता। 

ब्रह्मजन्म हि विप्रस्य प्रेत्य चेह च शाश्वतम्॥१२१॥ [२.१४६] (९५)


(उत्पादक-ब्रह्मदात्रोः) उत्पन्न करने वाले पिता और विद्या तथा वेदज्ञान देने वाले पिता आचार्य [११५] में (ब्रह्मदः पिता गरीयान्) विद्या और वेदज्ञान देनेवाला आचार्यरूप पिता ही अधिक बड़ा और माननीय है (हि) क्योंकि (विप्रस्य) द्विज का (ब्रह्मजन्म) [शरीर-जन्म की अपेक्षा] ब्रह्मजन्म=उपनयन में दीक्षित करके वेदाध्यन एवं विद्याप्राप्ति कराना ही (इह च प्रेत्य शाश्वतम्) इस जन्म और परजन्म में साथ रहने वाला है अर्थात् शरीर तो इस जन्म के साथ ही नष्ट हो जाता है किन्तु धर्म तथा विद्या के संस्कार जन्म-जन्मान्तरों तक साथ रहते हैं॥१२१॥


कामान्माता पिता चैनं यदुत्पादयतो मिथः। 

सम्भूतिं तस्य तां विद्याद्यद्योनावभिजायते॥१२२॥ [२.१४७] (९६)


(माता च पिता यत् एनं मिथः उत्पादयतः) माता और पिता जो इस बालक को मिलकर उत्पन्न करते हैं, वह (कामात्) सन्तान-प्राप्ति की कामना से करते हैं (यत्+योनी+अभिजायते) वह जो माता के गर्भ से उत्पन्न होता है (तस्य तां सम्भूतिं विद्यात्) उसका वह जन्म तो संसार में प्रकट होना मात्र साधारण जन्म है, अर्थात् वास्तविक जन्म तो उपनयन में दीक्षित कर शिक्षित बनाकर आचार्य ही देता है, जिससे मनुष्य वास्तव में मनुष्य बनता है॥१२२॥ 


आचार्य द्वारा प्रदत्त वर्ण-निर्धारण स्थायी होता है―


आचार्यस्त्वस्य यां जातिं विधिवद्वेदपारगः उत्पादयति सावित्र्या सा सत्या साऽजरामरा॥१२३॥ [२.१४८] (९७)


(वेदपारगः आचार्यः) वेदों में पारंगत आचार्य [२.११५ (२.१४०)] (विधिवत्) ब्रह्मचर्याश्रम की विधि-अनुसार (सावित्र्या) गायत्रीमन्त्र की दीक्षापूर्वक [२.४४, ४६, ५१-५३] उपनयन संस्कार द्वारा [२.११-१२] (अस्य) विद्यार्थी या व्यक्ति के (यां जातिम् उत्पादयति) जिस जन्म या वर्ण को प्रदान करता है अर्थात् जिस वर्ण की शिक्षा-दीक्षा को देकर वर्ण का निर्धारण करता है [द्रष्टव्य २.१२१, १२२, १२५ श्लोक] (सा तु) वही जाति=वर्ण या जन्म (सत्या) सही अर्थात् स्वीकार्य है, वही वर्ण प्रामाणिक है (सा-अजरा+अमरा) वह जाति अर्थात् वर्ण जीवन में स्वयं द्वारा अपरिवर्तनीय होती है। नये वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करने के बाद ही उसे पुनः आचार्य अथवा अथवा राजसभा की अनुमति से ही बदला जा सकता है (१०.६५)। अन्यार्थ में―आचार्य द्वारा प्रदत्त ब्रह्मजन्म=विद्यासंचय संस्कारों की दृष्टि से अजर-अमर है, परलोक में भी साथ देता है॥१२३॥


गुरु का सामान्य लक्षण―


अल्पं वा बहु वा यस्य श्रुतस्योपकरोति यः। 

तमपीह गुरुं विद्यात् श्रुतोपक्रियया तया॥१२४॥ [२.१४९] (९८)


(यः यस्य) जो कोई जिस किसी का (श्रुतस्य अल्पं वा बहु उपकरोति) विद्या पढ़ाकर थोड़ा या अधिक उपकार करता है (तम्+अपि+इह) उसको भी इस संसार में (तया श्रुत+उपक्रियया) उस विद्या पढ़ाने के उपकार के कारण (गुरुं विद्यात्) गुरु समझना चाहिए॥१२४॥


विद्वान् बालक वयोवृद्ध से बड़ा होता है―


ब्राह्मस्य जन्मनः कर्त्ता स्वधर्मस्य च शासिता। 

बालोऽपि विप्रो वृद्धस्य पिता भवति धर्मतः॥१२५॥ [२.१५०] (९९)


(ब्राह्मस्य जन्मनः कर्त्ता) किसी को ब्रह्मजन्म अर्थात् ईश्वरज्ञान, विद्या एवं वेदाध्ययन रूप जन्म को देने वाला (स्वधर्मस्य च शासिता) और किसी के अपने वर्ण धर्म की दीक्षा देने वाला (विप्रः) विद्वान् (बालः+अपि) बालक अर्थात् अल्पावस्था का होते हुए भी (धर्मतः) धर्म से (वृद्धस्य पिता भवति) शिक्षा प्राप्त करने वाले दीर्घायु व्यक्ति का पिता स्थानीय अर्थात् गुरु के समान बड़ा होता है॥१२५॥ 


उक्त विषय में आङ्गिरस का दृष्टान्त―


अध्यापयामास पितृञ्छिशुराङ्गिरसः कविः। 

पुत्रका इति होवाच ज्ञानेन परिगृह्य तान्॥१२६॥ [२.१५१] (१००)


[इस प्रसंग में एक इतिवृत्त भी है] (आङ्गिरसः शिशुः कविः) अंगिरा वंशी 'शिशु' नामक मन्त्रद्रष्टा विद्वान् ने (पितॄन्) अपने पिता के समान चाचा आदि पितरों को (अध्यापयामास) पढ़ाया (ज्ञानेन परिगृह्य) ज्ञान देने के कारण (तान् ‘पुत्रकाः' इति ह उवाच) उन बड़ों को 'हे पुत्रो' इस शब्द से सम्बोधित किया॥१२६॥


ते तमर्थमपृच्छन्त देवानागतमन्यवः। देवाश्चैतान्समेत्योचुर्न्याय्यंवः शिशुरुक्तवान्॥१२७॥ [२.१५२] (१०१)


(आगतमन्यवः ते) [उक्त सम्बोधन को सुनकर] गुस्से में आये हुए उन चाचा आदि पितरों ने (तम्+अर्थं देवान् अपृच्छन्त) उस 'पुत्र' सम्बोधन के अर्थ अथवा औचित्य के विषय में अन्य देवाताओं=बड़े विद्वानों से पूछा (च) और तब (देवाः समेत्य एतान् ऊचुः) सब विद्वानों ने एकमत होकर उनसे कहा कि (शिशुः वः न्याय्यम् उक्तवान्) तत्त्वदर्शी शिशु आङ्गिरस ने तुम्हारे लिए 'पुत्र' शब्द का सम्बोधन न्यायोचित ही किया है॥१२७॥ 


विद्वत्ता के आधार पर बालक और पिता की परिभाषा―


अज्ञो भवति वै बालः पिता भवति मन्त्रदः। 

अज्ञं हि बालमित्याहुः पितेत्येव तु मन्त्रदम्॥१२८॥ [२.१५३] (१०२)


क्योंकि (अज्ञः वै बालः भवति) जो विद्या-विज्ञान से रहित है वह बालक और (मन्त्रदः पिता भवति) जो विद्या-विज्ञान का दाता है उस बालक को भी पिता स्थानीय मानना चाहिए (हि) क्योंकि सब शास्त्रों और आप्त विद्वानों ने (अज्ञं बालम्+इति) अज्ञानी को 'बालक' (मन्त्रदं तु पिता-इत्येव आहुः) और ज्ञानदाता को 'पिता' कहा है॥१२८॥


अवस्था आदि की अपेक्षा वेदज्ञानी की श्रेष्ठता―


तान हायनैर्न पलितैर्न वित्तेन न च बन्धुभिः। 

ऋषयश्चक्रिरे धर्मं योऽनूचानः स नो महान्॥१२९॥ [२.१५४] (१०३)


(न हायनैः) न अधिक वर्षों का होने से (न पलितैः) न श्वेत बाल के होने से (न वित्तेन) न अधिक धन से (न बन्धुभिः) न बड़े कुटुम्ब के होने से मनुष्य बड़ा होता है, (ऋषयः धर्मं चक्रिरे) किन्तु ऋषि-महात्माओं का यही नियम है कि (यो नः अनूचानः सः महान्) जो हमारे बीच में वेद और विद्या-विज्ञान में अधिक है, वही बड़ा अर्थात् वृद्ध पुरुष है॥१२९॥


वर्गों में परस्पर ज्येष्ठता के आधार―


विप्राणां ज्ञानतो ज्यैष्ठ्यं क्षत्रियाणां तु वीर्यतः। 

वैश्यानां धान्यधनतः शूद्राणामेव जन्मतः॥१३०॥ [२.१५५] (१०४)


(विप्राणां ज्ञानतः) ब्राह्मणों में अधिक ज्ञान से (क्षत्रियाणां तु वीर्यतः) क्षत्रियों में अधिक बल से (वैश्यानां धनधान्यतः) वैश्यों में अधिक धन-धान्य से और (शूद्राणां जन्मतः एव ज्यैष्ठ्यम्) शूद्रों में जन्म अर्थात् अधिक आयु से वृद्ध=बड़ा होता है॥१३०॥ 


अवस्था की अपेक्षा ज्ञान से वृद्धत्व―


त्वन तेन वृद्धो भवति येनास्य पलितं शिरः।

यो वै युवाप्यधीयानस्तं देवाः स्थविरं विदुः॥१३१॥ [२.१५६] (१०५)


कोई मनुष्य (तेन वृद्धः न भवति) उस कारण से वृद्ध=बड़ा नहीं होता (येन+अस्य शिरः पलितम्) कि जिससे उसके केश पक जावें (यः+वै युवा+अपि+अधीयानः) किन्तु जो जवान भी अधिक पढ़ा हुआ विद्वान् है (तं देवा स्थविरं विदुः) उसको विद्वानों ने 'वृद्ध'=बड़ा माना है॥१३१॥


मूर्खता की निन्दा तथा मूर्ख का जीवन निष्फल―


यथा काष्ठमयो हस्ती यथा चर्ममयो मृगः। 

यश्च विप्रोऽनधीयानस्त्रयस्ते नाम बिभ्रति॥१३२॥ [२.१५७] (१०६)


(यथा काष्ठमयः हस्ती) जैसा काठ का बना हाथी, (यथा चर्ममयः मृगः) जैसा चमड़े का बना मृग (च) और (यः अनधीयानः विप्रः) जो वेद-शास्त्रों का स्वाध्याय न करने वाला द्विज है अर्थात् जो निर्धारित मुख्य कर्म वेदों का अध्ययन-अध्यापन नहीं करता (ते त्रयः) वे तीनों (नाम बिभ्रति) नाममात्र के ही हैं अर्थात् हाथी, मृग और द्विज नकली हैं, वास्तविक नहीं॥१३२॥


यथा षण्ढोऽफलः स्त्रीषु यथा गौर्गवि चाफला। 

यथा चाज्ञेऽफलं दानं तथा विप्रोऽनृचोऽफलः॥१३३॥ [२.१५८] (१०७)


(यथा स्त्रीषु षण्ढः अफलः) जैसे स्त्रियों में नपुंसक निष्फल अर्थात् सन्तानरूपी फल को नहीं प्राप्त कर सकता (यथा गवि गौः अफला) और जैसे गायों में गाय निष्फल है अर्थात् जैसे गाय गाय से सन्तानरूपी फल को नहीं प्राप्त कर सकती (च) और (यथा अज्ञे दानम्) जैसे अज्ञानी व्यक्ति को दिया दान निष्फल होता है (तथा) वैसे ही (अनृचः विप्रः अफलः) वेद न पढ़ा हुआ अथवा वेद के स्वाध्याय से रहित ब्राह्मण मिथ्या है, अर्थात् उसको वास्तव में ब्राह्मण नहीं माना जा सकता, क्योंकि वेदाध्ययन ही ब्राह्मण होने का सबसे प्रधान कर्म और आधार है॥१३३॥


गुरु-शिष्यों का व्यवहार―


अहिंसयैव भूतानां कार्यं श्रेयोऽनुशासनम्। 

वाक् चैव मधुरा श्लक्ष्णा प्रयोज्या धर्ममिच्छता॥१३४॥ [२.१५९] (१०८)


(धर्मम्-इच्छता) धर्म की वृद्धि चाहने वाले मनुष्य को (अहिंसया+एव भूतानाम् अनुशासनम् कार्यम्) अहिंसा अर्थात् हिंसा, हानि, ईर्ष्या-द्वेष, कष्टप्रदान आदि भावों से रहित होकर विद्यार्थियों या मनुष्यों का अनुशासन करना चाहिये, (श्रेयः) वही अनुशासन प्रशंसनीय और कल्याणकर होता है, (च) और (मधुरा श्लक्ष्णा वाक् प्रयोज्या) मीठी तथा कोमल वाणी अध्यापन और उपदेश में बोलनी चाहिए॥१३४॥


पवित्र मन वाला ही वैदिक कर्मों के फल को प्राप्त करता है―


यस्य वाङ्मनसी शुद्धे सम्यग्गुप्ते च सर्वदा। 

स वै सर्वमवाप्नोति वेदान्तोपगतं फलम्॥१३५॥ [२.१६०] (१०९)


(यस्य) जिस मनुष्य के (वाङ्-मनसी) वाणी और मन 

(सदा) सदैव (शुद्ध) शुद्धभावयुक्त और दोषरहित (च) और (सम्यक् गुप्ते) भलीभांति अपने नियन्त्रण में रहते हैं, (सः वै) निश्चय से वही (वेदान्तोपगतं सर्वं फलम् आप्नोति) वेदार्थों में निहित यथार्थ को और पूर्ण पुण्य फल को प्राप्त करता है॥१३५॥


दूसरों से द्रोह आदि का निषेध―


नारुंतुदः स्यादार्तोऽपि न परद्रोहकर्मधीः। 

ययास्योद्विजते वाचा नालोक्यां तामुदीरयेत्॥१३६॥ [२.१६१] (११०)


मनुष्य (आर्तः+अपि) स्वयं दुःखी होता हुआ भी (अरुंतुदः न स्यात्) किसी दूसरे को पीड़ा न पहुंचावे (न परद्रोहकर्मधीः) न दूसरे के प्रति ईर्ष्या-द्वेष या बुरा करने की भावना मन में लाये (अस्य यया वाचा उद्विजते) मनुष्य के जिस वचन के बोलने से कोई उद्विग्न हो (ताम् अलोक्यां न उदीरयेत्) ऐसी उस लोक में अप्रशंसनीय वाणी को न बोले॥१३६॥ 


ब्राह्मण के लिए अवमान-सहन का निर्देश―


सम्मानाद् ब्राह्मणो नित्यमुद्विजेत विषादिव।

अमृतस्येव चाकाङ्क्षेदवमानस्य सर्वदा॥१३७॥ [२.१६२] (१११)


(ब्राह्मणः) ब्राह्मण वर्णस्थ व्यक्ति (नित्यम्) सदैव (सम्मानात्) सम्मान-प्राप्ति से, लौकेषणा से (विषात्-इव उद्विजेत) ऐसे बचकर रहे जैसे कोई विष से दूर रहता है (च) और (अवमानस्य) सम्मान न प्राप्त करने की भावना (अमृतस्य-इव सर्वदा आकांक्षेत्) अमृत-प्राप्ति की इच्छा के समान सदा रखे अर्थात् ब्राह्मण के लिए सम्मान विष के समान हानिकर है और सम्मान की इच्छा न करना अमृत के समान हितकारी है॥१३७॥


सम्मानप्राप्ति की भावना से रहित सुखी―


सुखं ह्यवमतः शेते सुखं च प्रतिबुध्यते। 

सुखं चरति लोकेऽस्मिन्नवमन्ता विनश्यति॥१३८॥ [२.१६३] (११२)


(हि) क्योंकि (अवमतः सुखं शेते) सम्मान या लोकैषणा की चाहत न रखने वाला मनुष्य सुखपूर्वक सोता है (च) और (सुखं प्रतिबुध्यते) सुखपूर्वक जागता है अर्थात् जाग्रत अवस्था में भी सुखपूर्वक रहता है। अभिप्राय यह है कि मानव को सर्वाधिक रूप में व्यथित करने वाली मान-अपमान और उन से उत्पन्न होने वाली भावनाएँ उस व्यक्ति को सोते तथा जागते व्यथित नहीं करती, वह निश्चिन्त एवं शान्तिपूर्वक रहता है और (अस्मिन् लोके सुखं चरति) वह इस संसार में सुखपूर्वक विचरण करता है, तथा (अवमन्ता) अपमान से व्यथित होने वाला व्यक्ति (विनश्यति) [चिन्ता और शोक के कारण] शीघ्र विनाश को प्राप्त होता है॥१३८॥ 


अनेन क्रमयोगेन संस्कृतात्मा द्विजः शनैः।

गुरौ वसन् सञ्चिनुयाद् ब्रह्माधिगमिकं तपः॥१३९॥ [२.१६४] (११३)


(अनेन क्रमयोगेन) पूर्वोक्त प्रकार से (२.११-१३९ तक) (संस्कृतात्मा द्विजः) उपनयन संस्कार में दीक्षित द्विज बालक-बालिका (गुरौ वसन्) गुरुकुल में रहते हुए (शनैः) उत्तरोत्तर (ब्रह्माधिगमिकं तपः) विद्या और वेदार्थज्ञान की प्राप्ति रूप तप को (सञ्चिनुयात्) बढ़ाते जायें॥१३९॥


द्विज के लिए वेदाभ्यास की अनिवार्यता―


तपोविशेषैर्विविधैर्व्रतैश्च विधिचोदितैः। 

वेदः कृत्स्नोऽधिगन्तव्यः सरहस्यो द्विजन्मना॥१४०॥ [२.१६५] (११४)


(द्विजन्मना) द्विजमात्र को (विधिचोदितैः तपोविशेषैः च विविधैः व्रतैः) शास्त्रों में विहित विशेष तपों [ब्रह्मचर्यपालन, वेदाभ्यास, धर्मपालन, प्राणायाम, द्वन्द्वसहन आदि [१.१४१-१४२ (१६६-१६७); ६.७०-७२] और विविध व्रतों [२.१४९-१९४ में प्रदर्शित] का पालन करते हुए (कृत्स्न: वेदः) सम्पूर्ण वेदज्ञान को (सरहस्यः) रहस्य पूर्वक अर्थात् वेदार्थों में निहित गूढार्थज्ञान-चिन्तनपूर्वक [२.११५] (अधिगन्तव्यः) अध्ययन करके प्राप्त करना चाहिए॥१४०॥ 


वेदाभ्यास परम तप है―


वेदमेव सदाभ्यस्येत्तपस्तप्स्यन्द्विजोत्तमः। 

वेदाभ्यासो हि विप्रस्य तपः परमिहोच्यते॥१४१॥ [२.१६६] (११५)


(द्विजोत्तमः) द्विजोत्तम अर्थात् द्विजों में उत्तम बना रहने का इच्छुक प्रत्येक जन (तपः तप्स्यन्) कष्ट सहन करते हुए भी (वेदम्+एव सदा-अभ्यस्येत्) वेद के स्वाध्याय का निरन्तर अभ्यास करे (हि) क्योंकि (विप्रस्य) द्विज जनों का (वेदाभ्यासः) वेदाभ्यास करना ही (इह) इस संसार में (परंतपः उच्यते) परम तप कहा है॥१४१॥


आ हैव स नखाग्रेभ्यः परमं तप्यते तपः।

यः स्त्रग्व्यपि द्विजोऽधीते स्वाध्यायः शक्तितोऽन्वहम्॥१४२॥ [२.१६७] (११६)


(यः द्विजः) जो द्विज (स्त्रग्वी-अपि) माला धारण करके अर्थात् गृहस्थ होकर भी (अनु+अहम्) प्रतिदिन (शक्तितः स्वाध्यायम् अधीते) पूर्ण शक्ति से अर्थात् अधिक से अधिक प्रयत्नपूर्वक वेदों का स्वाध्याय करता है। (सः) वह (आ नखाग्रेभ्यः ह+एव) निश्चय ही पैरों के नाखून के अग्रभाग तक अर्थात् पूर्ण (परमं तपः तप्यते) परम तप करता है॥१४२॥


वेदाभ्यास के बिना शूद्रत्व प्राप्ति―


योऽनधीत्य द्विजो वेदमन्यत्र कुरुते श्रमम्। 

स जीवन्नेव शूद्रत्वमाशु गच्छति सान्वयः॥१४३॥ [२.१६८] (११७)


(यः द्विजः) जो ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य (वेदम् अनधीत्य) वेद का स्वाध्याय छोड़कर (अन्यत्र श्रमं कुरुते) केवल अन्य शास्त्रों में श्रम करता है (सः) वह (जीवन्+एव) जीवता ही (सान्वयः) अपने वंश के सहित (आशु) शीघ्र ही (शूद्रत्वं गच्छति) शूद्रत्व को प्राप्त हो जाता है, शूद्र बन जाता है॥१४३॥


गुरुकुल में रहते हुए ब्रह्मचारी के पालनीय विविध नियम―


सेवेतेमांस्तु नियमान्ब्रह्मचारी गुरौ वसन्।

सन्नियम्येन्द्रियग्रामं तपोवृद्ध्यर्थमात्मनः॥१५०॥ [२.१७५] (११८)


(गुरौ वसन्) गुरु के समीप अर्थात् गुरुकुल में रहते हुए (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी एवं ब्रह्मचारिणी (आत्मनः तपोवृद्ध्यर्थम्) अपने विद्यारूप तप की वृद्धि के लिये (इन्द्रियग्रामं सन्नियम्य) इन्द्रियों के समूह [२.६४-६७] को वश में करके अर्थात् जितेन्द्रिय होकर (इमान्+तु नियमान् सेवेत) इन आगे वर्णित नियमों का पालन करे॥१५०॥


ब्रह्मचारी के दैनिक नियम―


नित्यं स्नात्वा शुचिः कुर्याद्देवर्षिपितृतर्पणम्। 

देवताऽभ्यर्चनं चैव समिदाधानमेव च॥१५१॥ [२.१७६] (११९)


[ब्रह्मचारी] (नित्यम्) प्रतिदिन (देव-ऋषिपितृतणम्) विद्वानों, ऋषियों, ज्ञानवयोवृद्ध व्यक्तियों की सेवा-अभिवादन आदि प्रसन्नताकारक कार्यों से तृप्ति=सन्तुष्टि का व्यवहार (च) और (स्नात्वा शुचिः) स्नान करके, शुद्ध होकर (देवता+अभ्यर्चनम्) परमात्मा की उपासना (च) तथा (समिद्+आधानम्) अग्निहोत्र भी (कुर्यात्) किया करे॥१५१॥


मद्य, मांस आदि का त्याग―


वर्जयेन्मधुमांसञ्च गन्धं माल्यं रसान् स्त्रियः। 

शुक्तानि यानि सर्वाणि प्राणिनां चैव हिंसनम्॥१५२॥ [२.१७७] (१२०)


ब्रह्मचारी और ब्रह्मचारिणी (मधु-मांसम्) मदकारक मदिरा आदि का सेवन और मांसभक्षण (गन्धं माल्यम्) सुगन्ध का प्रयोग, माला आदि अलंकार-धारण, (रसान्) तिक्त, कषाय, कटु, अम्ल आदि तीखे रसों का सेवन (स्त्रियः) ब्रह्मचारियों के लिए स्त्रियों का संग और ब्रह्मचारिणियों के लिए पुरुषों का संग और (यानि सर्वाणि शुक्तानि) अन्य जितने भी खट्टे-तीखे पदार्थ हैं, उन सबको (च) और (प्राणिनाम्-एव हिंसनम्) प्राणियों की हिंसा करना (वर्जयेत्) इन सबको वर्जित रखे॥१५२॥


अंजन, छाता, जूता आदि धारण का निषेध―


अभ्यङ्गमञ्जनं चाक्ष्णोरुपानच्छत्रधारणम्। 

कामं क्रोधं च लोभं च नर्त्तनं गीतवादनम्॥१५३॥ [२.१७८] (१२१)


(अभ्यङ्गम्) शरीर पर प्रसाधन के रूप में उबटन आदि लगाना (अक्ष्णोः च अञ्जनम्) श्रृंगार के लिए आंखों में अञ्जन डालना (उपानत्-छत्र-धारणम्) जूते और छत्र का धारण (कामं क्रोधं लोभं च) काम, क्रोध, लोभ, मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष आदि; [चकार से मोह, भय, शोक, ईर्ष्या, द्वेष का ग्रहण किया है।] (च) और (नर्तनं गीत-वादनम्) मनोरंजन के लिए नाच, गान, बाजा बजाना, इनको भी वर्जित रखे॥१५३॥


जूआ, निन्दा, स्त्रीदर्शन आदि का निषेध―


द्यूतं च जनवादं च परिवादं तथानृतम्। 

स्त्रीणां च प्रेक्षणालम्भमुपघातं परस्य च॥१५४॥ [२.१७९] (१२२)


(द्यूतम्) सभी प्रकार का जुआ खेलना (जनवादम्) अफवाहें फैलाना और अपवाहों की चर्चा में समय नष्ट करना (च) और (परिवादम्) किसी की निन्दा कथा करना (अनृतम्) मिथ्याभाषण (स्त्रीणां प्रेक्षण+आलम्भम्) स्त्रियों का दर्शन और स्पर्श (च) और (परस्य उपघातम्) दूसरे को हानि पहुँचना आदि को सदा छोड़ देवें॥१५४॥


एकाकी शयन का विधान―


एकः शयीत सर्वत्र न रेतः स्कन्दयेत् क्वचित्। 

कामाद्धि स्कन्दयन् रेतो हिनस्ति व्रतमात्मनः॥१५५॥ [२.१८०] (१२३)


(सर्वत्र एकः शयीत) सर्वत्र एकाकी सोवे (क्वचित् रेत: न स्कन्दयेत्) कभी कामना से वीर्यस्खलित न करे (कामात् हि रेतः स्कन्दयन्) क्योंकि कामना से वीर्यस्खलित कर देने पर समझो उसने (आत्मनः व्रतं हिनस्ति) अपने ब्रह्मचर्य व्रत का नाश कर दिया॥१५५॥


भिक्षासम्बन्धी नियम―


उदकुम्भं सुमनसो गोशकृन्मृत्तिकाकुशान्। 

आहरेद्यावदर्थानि भैक्षं चाहरहश्चरेत्॥१५७॥ [२.१८२] (१२४)


(उदकुम्भम्) पानी का घड़ा (सुमनसः) फूल (गोशकृत्) गोबर (मृत्तिका) मिट्टी (कुशान्) कुशाओं को (यावत्+अर्थानि) जितनी आवश्यकता हो उतनी ही (आहरेत्) लाकर रखे (च) और (भैक्षम्) भिक्षा भी (अहः+अहः+चरेत्) प्रतिदिन मांगकर खाये॥१५७॥ 


किनसे भिक्षा ग्रहण करे―


वेदयज्ञैरहीनानां प्रशस्तानां स्वकर्मसु। 

ब्रह्मचार्याहरेद्भैक्षं गृहेभ्यः प्रयतोऽन्वहम्॥१५८॥ [२.१८३] (१२५)


(ब्रह्मचारी) ब्रह्मचारी (स्वकर्मसु प्रशस्तानाम्) अपने कर्त्तव्यों का पालन करने में सावधान रहने वाले और (वेदयज्ञैः+अहीनानाम्) वेदाध्ययन एवं पञ्चमहायज्ञों से जो हीन नहीं अर्थात् जो प्रतिदिन इनका अनुष्ठान करते हैं ऐसे श्रेष्ठ व्यक्तियों के (गृहेभ्यः) घरों से (प्रयतः) संयत रहकर (अन्वहम्) प्रतिदिन (भैक्षम् आहरेत्) भिक्षा ग्रहण करे॥१५८॥


किन-किन से भिक्षा ग्रहण न करे―


गुरोः कुले न भिक्षेत न ज्ञातिकुलबन्धुषु। 

अलाभे त्वन्यगेहानां पूर्वं पूर्वं विवर्जयेत्॥१५९॥ [२.१८४] (१२६)


ब्रह्मचारी (गुरोः कुले न भिक्षेत) गुरु के परिवार में भिक्षा न मांगे (न ज्ञाति-कुल-बन्धुषु) सगे-सम्बन्धियों, परिजनों तथा मित्रों से भी भिक्षा न मांगे (अन्यगेहानाम् अलाभे तु) इनसे भिन्न घरों से यदि भिक्षा न मिले तो (पूर्वं पूर्वं विवर्जयेत्) पूर्व-पूर्व घरों को छोड़ते हुए भिक्षा प्राप्त कर ले अर्थात् पहले मित्रों या घनिष्ठों के घरों से भिक्षा मांगे, वहाँ न मिले तो सगे-सम्बन्धियों से, वहाँ भी न मिले तो गुरु के परिवार से भिक्षा मांग सकता है॥१५९॥ 


पापकर्म करने वालों से भिक्षा न लें―


सर्वं वाऽपि चरेद् ग्रामं पूर्वोक्तानामसम्भवे। 

नियम्य प्रयतो वाचमभिशस्तांस्तु वर्जयेत्॥१६०॥ [२.१८५] (१२७)


(पूर्वोक्तानाम्+असम्भवे) पूर्व [२.१५८-१५९] कहे हुए घरों के अभाव में (सर्वं वा+अपि ग्रामं चरेत्) सारे ही गांव में भिक्षा मांग ले (तु) किन्तु (प्रयतः) सावधानी पूर्वक (वाचं नियम्य) अपनी वाणी को नियन्त्रण में रखता हुआ शिष्आचार पूर्वक (अभिशस्तान्) पापी व्यक्तियों के घरों को (वर्जयेत्) छोड़ देवे अर्थात् पापी लोगों के सामने किसी भी अवस्था में भिक्षा-याचना के लिए वाणी न बोले॥१६०॥


सायं-प्रातः अग्निहोत्र का पुनः विशेष विधान―


दूरदाहृत्य समिधः सन्निदध्याद्विहायसि। 

सायम्प्रातश्च जुहुयात्ताभिरग्निमतन्द्रितः॥१६१॥ [२.१८६] (१२८) 


(दूरात् समिधः आहृत्य) दूरस्थान अर्थात् जंगल आदि से समिधाएँ लाकर (विहायसि सन्निदध्यात्) उन्हें खुले [=हवादार] स्थान में सूखने के लिए रख दे (ताभिः) और फिर उनसे (अतन्द्रितः) आलस्यरहित होकर (सायं च प्रातः) सायंकाल और प्रात:काल दोनों समय (अग्निं जुहुयात्) अग्निहोत्र करे॥१६१॥


गुरु के समीप रहते हुए ब्रह्मचारी की मर्यादाएँ―


चोदितो गुरुणा नित्यमप्रचोदित एव वा।

कुर्यादध्ययने यत्नमाचार्यस्य हितेषु च॥१६६॥ [२.१९१] (१२९)


(गुरुणा चोदितः) गुरु के द्वारा प्रेरणा करने पर (वा) अथवा (अप्रचोदितः एव) बिना प्रेरणा किये भी [ब्रह्मचारी] (नित्यम्) प्रतिदिन (अध्ययने) पढ़ने में (च) और (आचार्यस्य हितेषु) गुरु के हितकारक कार्यों को करने का (यत्नं कुर्यात्) यत्न किया करे॥१६६॥ 


गुरु के सम्मुख सावधान होकर बैठे और खड़ा हो―


शरीरं चैव वाचं च बुद्धीन्द्रियमनांसि च।

नियम्य प्राञ्जलिस्तिष्ठेद्वीक्षमाणो गुरोर्मुखम्॥१६७॥ [२.१६७] (१३०)


[गुरु के सामने बैठने या खड़े होने की अवस्था में ब्रह्मचारी] (शरीरं च वाचं च बुद्धि+इन्द्रिय+मनांसि एव च) शरीर, वाणी, ज्ञानेन्द्रियों और मन को भी (नियम्य) वश में करके अर्थात् सावधान होकर (प्राञ्जलिः) प्रथम हाथ जोड़ के तदनन्तर फिर (तिष्ठेत्) बैठे और खड़ा होवे॥१६७॥ 


गुरु के आदेशानुसार चले―


निमुद्धृतपाणिः स्यात्साध्वाचारः सुसंयतः।

आस्यतामिति चोक्तः सन्नासीताभिमुखंगुरोः॥१६८॥ [२.१९३] (१३१)


(नित्यम्+उद्धृतपाणिः स्यात्) सदा उद्धृतपाणि रहे अर्थात् ओढ़ने के वस्त्र से दायां हाथ बाहर रखे [ओढ़ने के वस्त्र को इस प्रकार ओढ़े कि वह दायें हाथ के नीचे से होता हुआ बायें कन्धे पर जाकर टिके, जिसे दायां कन्धा और हाथ वस्त्र से बाहर निकला रह जाये] (साधु+आचारः) शिष्ट-सभ्य आचरण रखे (सुसंयतः) संयमपूर्वक रहे ('आस्यताम्' इति उक्तः सन्) गुरु के द्वारा ‘बैठो' ऐसा कहने पर (गुरोः अभिमुखं आसीत्) गुरु के सामने उनकी ओर मुख करके बैठे॥१६८॥


गुरु से निम्न स्तर की वेशभूषा रखे―


हीनान्नवस्त्रवेषः स्यात्सर्वदा गुरुसन्निधौ।

उत्तिष्ठेत्प्रथमं चास्य चरमं चैव संविशेत्॥१६९॥ [२.९४] (१३२)


(गुरु-सन्निधौ) गुरु के समीप रहते हुए (सर्वदा) सदा (हीन+अन्न+वस्त्र+वेषः स्यात्) अन्न=भोज्यपदार्थ, वस्त्र और वेशभूषा गुरु से सामान्य रखे (च) और (अस्य प्रथमम् उत्तिष्ठेत्) इस गुरु से पहले जागे (च) तथा (चरमं संविशेत्) बाद में सोये॥१६९॥


बातचीत करने का शिष्टाचार―


प्रतिश्रवणसम्भाषे शयनो न समाचरेत्।

नासीनो न च भुञ्जानो न तिष्ठन्न पराङ्मुखः॥१७०॥ [२.१९५] (१३३)


(प्रतिश्रवण+सम्भाषे) प्रतिश्रवण अर्थात् गुरु की बात या आज्ञा का उत्तर देना या स्वीकृति देना, और सम्भाषा=बातचीत, ये (शयानः न समाचरेत्) लेटे हुए न करे (न+आसीनः) न बैठे-बैठे (न भुञ्जानः) न कुछ खाते हुए (च) और (न तिष्ठन्) न दूर खड़े होकर (न पराङ्मुखः) न मुंह फेरकर ये बातें करे॥१७०॥ 


आसीनस्य स्थितः कुर्यादभिगच्छंस्तु तिष्ठतः।

प्रत्युद्गम्य त्वाव्रजतः पश्चाद्धावंस्तु धावतः॥१७१॥ [२.१९६] (१३४)


(आसीनस्य स्थितः) बैठे हुए गुरु से खड़ा होकर (तिष्ठतः तु अभिगच्छन्) खड़े हुए गुरु के सामने जाकर (आव्रजतः तु प्रति+उद्गम्य) अपनी ओर आते हुए गुरु से उसकी ओर शीघ्र आगे बढ़कर (धावत: तुपश्चात् धावन्) दौड़ते हुए के पीछे दौड़कर (कुर्यात्) उत्तर दे और बातचीत [२.१७०] करे॥१७१॥ 


पराङ्मुखस्याभिमुखो दूरस्थस्यैत्य चान्तिकम्।

प्रणम्य तु शयानस्य निदेशे चैव तिष्ठतः॥१७२॥ [२.१९७] (१३५)


(पराङ्मुखस्य+अभिमुखः) गुरु यदि मुँह फेरे हों तो उनके सामने होकर (च) और (दूरस्थस्य अन्तिकम् एत्य) दूर खड़े हों तो पास जाकर (शयानस्य तु) लेटे हों 

(च) और (निदेशे एव तिष्ठतः) समीप ही खड़े हों तो (प्रणम्य) विनम्र होकर उत्तर दे और बातचीत करे॥१७२॥ 


गुरु से निम्न आसन पर बैठे―


नीचं शय्यासनं चास्य सर्वदा गुरुसन्निधौ।

गुरोस्तु चक्षुर्विषये न यथेष्टासनो भवेत्॥१७३॥ [२.१९८] (१३६) 


(गुरुसन्निधौ) गुरु के समीप रहते हुए (अस्य) इस ब्रह्मचारी का (शय्या+आसनम्) बिस्तर और आसन 

(सर्वदा) सदा ही (नीचम्) गुरु के आसन से नीचा या साधारण रहना चाहिए (गुरोः तु चक्षुः विषये) और गुरु की आंखों के सामने (यथेष्टासनः न भवेत्) कभी मनमाने ढंग से न बैठे अर्थात् शिष्टतापूर्वक बैठे॥१७३॥ 


गुरु का नाम न ले―


नोदाहरेदस्य नाम परोक्षमपि केवलम्। 

न चैवास्यानुकुर्वीत गतिभाषितचेष्टितम्॥१७४॥ [२.१९९] (१३७)


(परोक्षम् अपि) पीछे से भी (अस्य) अपने गुरु का (केवलं नाम न+उदाहरेत्) केवल नाम लेकर न बोले अर्थात् जब भी गुरु के नाम का उच्चारण करना पड़े तो 'आचार्य' 'गुरु' आदि सम्मानबोधक शब्दों के साथ करना चाहिए, अकेला नाम नहीं, (अस्य) इस गुरु की (गति+भाषित+चेष्टितम्) चाल, वाणी तथा चेष्टाओं का (न अनुकुर्वीत) अनुकरण न करे, नकल न उतारे॥१७४॥


गुरु की निन्दा न सुने―


गुरोर्यत्र परीवादो निन्दा वाऽपि प्रवर्तते। 

कर्णौ तत्र पिधातव्यौ गन्तव्यं वा ततोऽन्यतः॥१७५॥ [२.२००] (१३८)


(यत्र) जहाँ (गुरोः परीवादः अपि वा निन्दा प्रवर्तते) गुरु की बुराई अथवा निन्दा हो रही हो (तत्र) वहां (कर्णौ पिधातव्यौ) अपने कान बन्द कर लेने चाहियें अर्थात् उसे नहीं सुनना चाहिये (वा) अथवा (ततः अन्यतः गन्तव्यम्) उस जगह से कहीं अन्यत्र चला जाना चाहिए॥१७५॥


गुरु को कब अभिवादन न करे―


दूरस्थो नार्चयेदेनं न क्रुद्धो नान्तिके स्त्रियाः। 

यानासनस्थश्चैवैनमवरुह्याभिवादयेत्॥१७७॥ [२.२०२] (१३९)


(एनम्) शिष्य अपने गुरु को (दूरस्थः) दूर से (न+अर्चयेत्) नमस्कार न करे (न क्रुद्धः) न क्रोध में (न स्त्रियाः अन्तिके) जब अपनी स्त्री के पास बैठे हों उस स्थिति में जाकर अभिवादन न करे (च) और (यान+आसनस्थः) यदि शिष्य सवारी पर बैठा हो तो (अवरुह्य) उतरकर (एनम्) अपने गुरु को (अभिवादयेत्) अभिवादन करे॥१७७॥ 


साथ बैठने-न बैठने सम्बन्धी निर्देश―


प्रतिवातेऽनुवाते च नासीत गुरुणा सह।

असंश्रवे चैव गुरोर्न किञ्चिदपि कीर्तयेत्॥१७८॥ [२.२०३] (१४०)


(प्रतिवाते) शिष्य की ओर से गुरु की ओर सामने से आने वाली वायु में (च) और (अनुवाते) उसके विपरीत अर्थात् शिष्य की ओर से गुरु के पीछे की आने वाली वायु की दिशा में (गुरुणा सह न+आसीत) गुरु के साथ न बैठे (च) तथा (गुरोः असंश्रवे एव) जहाँ गुरु को अच्छी प्रकार न सुनाई पड़े ऐसे स्थान में (किञ्चित्+अपि न कीर्तयेत्) कोई बात न कहे॥१७८॥


गुरु के साथ कहां-कहां बैठे―


गोऽश्वोष्ट्रयानप्रासादस्रस्तरेषु कटेषु च। 

आसीत गुरुणा सार्धं शिलाफलकनौषु च॥१७९॥ [२.२०४] (१४१)


(गो+अश्व+उष्ट्रयान-प्रासाद-स्रस्तरेषु) बैलगाड़ी, घोडागाड़ी, ऊंटगाड़ी पर और महलों अथवा घरों में बिछाये जानेवाले बिछौने पर (च) और (कटेषु) चटाइयों पर (च) तथा (शिला-फलक-नौषु) पत्थर, तख्त, नौका आदि पर (गुरुणा सार्धम् आसीत) गुरु के साथ बैठ जाये॥१७९॥ 


गुरु के गुरु से गुरुतुल्य आचरण―


गुरोर्गुरौ सन्निहिते गुरुवद्वृत्तिमाचरेत्। 

न चानिसृष्टो गुरुणा स्वान् गुरूनभिवादयेत्॥१८०॥ [२.२०५] (१४२)


(गुरोः गुरौ सन्निहिते) गुरु के भी गुरु यदि समीप आ जायें तो (गुरुवत् वृत्तिम् आचरेत्) उनसे अपने गुरु के समान ही आचरण करे (च) और (स्वान् गुरून्) अपने अन्य गुरुजनों के आने पर (गुरुणा अनिसृष्टः न अभिवादयेत्) गुरु से आदेश लिए बिना अभिवादन करने न जाये अर्थात् गुरु से अनुमति लेकर उनके पास जाये॥१८०॥ 


अन्य अध्यापकों से व्यवहार―


विद्यागुरुष्वेतदेव नित्या वृत्तिः स्वयोनिषु।

प्रतिषेधत्सु चाधर्मान्हितं चोपदिशत्स्वपि॥१८१॥ [२.२०६] (१४३)


(विद्यागुरुषु) विद्या पढ़ाने वाले सभी गुरुओं में (स्वयोनिषु) अपने वंश वाले सभी बड़ों में (च) और (अधर्मान् प्रतिषेधत्सु उपदिशत्सु+अपि) अधर्म से हटाकर धर्म का उपदेश करने वालों में भी (नित्या एतत्+एव वृत्तिः) सदैव यही [ऊपर वर्णित] बर्ताव करें॥१८१॥


युवति गुरुपत्नी के चरणस्पर्श का निषेध और उसमें कारण―


गुरुपत्नी तु युवतिर्नाभिवाद्येह पादयोः । 

पूर्णविंशतिवर्षेण गुणदोषौ विजानता॥१८७॥ [२.२१२] (१४४)


(पूर्णविंशतिवर्षेण) आयु के जिसके बीस वर्ष पूर्ण हो चुके हैं (गुणदोषौ विजानता) गुण और दोषों को समझने में समर्थ उस युवक शिष्य को (युवतिः गुरुपत्नी तु) युवती गुरुपत्नी का (पादयोः न अभिवाद्या) चरणों का स्पर्श करके अभिवादन नहीं करना चाहिए [अर्थात् बिना चरणस्पर्श किये ही उसका अभिवादन करे। उसकी विधि २.१९१ में वर्णित है]॥१८७॥ 


युवति के चरणस्पर्श से हानि―


स्वभाव एष नारीणां नराणामिह दूषणम्। 

अतोऽर्थान्न प्रमाद्यन्ति प्रमदासु विपश्चितः॥१८८॥ [२.२१३] (१४५)


(इह) इस संसार में (नारीणां नराणां दूषणम्) स्त्री-पुरुषों का परस्पर के संसर्ग से दूषण हो जाता है (एषः स्वभावः) यह स्वाभाविक ही है (अतः अर्थात्) इस कारण (विपश्चितः) बुद्धिमान् व्यक्ति (प्रमदासु) स्त्रियों के साथ व्यवहारों में (न प्रमाद्यन्ति) कभी असावधानी नहीं करते अर्थात् ऐसा कोई वर्ताव नहीं करते जिससे सदाचार के मार्ग से भटक जाने की आशंका हो॥१८८॥


अविद्वांसमलं लोके विद्वांसमपि वा पुनः । 

प्रमदा ह्युत्पथं नेतुं कामक्रोधवशानुगम्॥१८९॥ [२.२१४] (१४६)


(लोके) संसार में (प्रमदाः) आचारहीन षड्यन्त्रकारी स्त्रियाँ (काम-क्रोध-वश+अनुगम्) काम और क्रोध के वशीभूत होने वाले (अविद्वांसम्) अविद्वान् को (वा) अथवा (विद्वांसम्+अपि) विद्वान् व्यक्ति को भी (उत्पथं नेतुम्) उसके सन्मार्ग से उखाड़ने में अर्थात् उद्देश्य से पथभ्रष्ट करने में (हि) निश्चय से (अलम्) पूर्ण समर्थ हैं॥१८९॥


अभिप्राय यह है कि स्त्रियों में हाव-भाव और रूप

सौन्दर्य के द्वारा पुरुषों को मोहित कर लेने का पूर्ण सामर्थ्य है। उनके इन गुणों के कारण पुरुष उनके संसर्ग से स्वयं अथवा उन्हीं के प्रयत्न से सदाचार के मार्ग से भ्रष्ट हो सकता है।


स्त्रीवर्ग के साथ एकान्तवास निषेध―


मात्रा स्वस्रा दुहित्रा वा न विविक्तासनो भवेत्।

बलवानिन्द्रियग्रामो विद्वांसमपि कर्षति॥१९०॥ [२.२१५] (१४७)


[मनुष्य को चाहिए कि] (मात्रा स्वस्रा वा दुहित्रा) माता, बहन अथवा पुत्री के साथ भी (विविक्त+आसन: न भवेत्) एकान्त आसन पर न रहे, अर्थात् एकान्तनिवास न करे, क्योंकि (बलवान्+इन्द्रिय-ग्रामः) शक्तिशाली इन्द्रियाँ (विद्वांसम्+अपि) विद्वान्=विवेकी व्यक्ति को भी (कर्षति) खींचकर अपने वश में कर लेती हैं अर्थात् अपने-अपने विषयों में फंसाकर पथभ्रष्ट कर देती हैं॥१९०॥


युवति गुरुपत्नी के अभिवादन की विधि―


कामं तु गुरुपत्नीनां युवतीनां युवा भुवि।

विधिवद्वन्दनं कुर्यादसावहमिति ब्रुवन्॥१९१॥ [२.२१६] (१४८)


(कामं तु) अच्छा तो यही है कि (युवा) युवक शिष्य (युवतीनां गुरुपत्नीनाम्) गुरुकुलस्थ गुरुओं की युवा पत्नी को (असौ+अहम्+इति ब्रुवन्) 'यह मैं अमुक नाम वाला हूँ' ऐसा कहते हुए (विधिवत्) पूर्ण विधि के अनुसार [२.९७, ९९] (भुवि) सिर झुकाकर ही (वन्दनं कुर्यात्) अभिवादन करे, प्रतिदिन चरणस्पर्श न करे॥१९१॥


विप्रोष्य पादग्रहणमन्वहं चाभिवादनम्।

गुरुदारेषु कुर्वीत सतां धर्ममनुस्मरन्॥१९२॥ [२.२१७] (१४९)


शिष्य (सतां धर्मम्+अनुस्मरन्) श्रेष्ठों के धर्म को स्मरण करते हुए अर्थात् यह विचारते हुए कि स्त्रियों का अभिवादन करना शिष्ट व्यक्तियों का कर्त्तव्य है (गुरुदारेषु) गुरुओं की पत्नी को (अन्वहम् अभिवादनं कुर्वीत) प्रतिदिन बिना चरणस्पर्श किये अभिवादन करे (च) किन्तु (विप्रोष्य) परदेश से लौटकर भेंट होने पर (पादग्रहणम्) चरणस्पर्श कर अभिवादन करे॥१९२॥ 


गुरु सेवा का फल―


यथा खनन्खनित्रेण नरो वार्यधिगच्छति। 

तथा गुरुगतां विद्यां शुश्रूषुरधिगच्छति॥१९३॥ [२.२१८] (१५०)


(नरः) मनुष्य (यथा खनित्रेण खनन्) जैसे कुदाल से खोदता हुआ (वारि+अधिगच्छति) भूमि से जल को प्राप्त कर लेता है (तथा) वैसे (शुश्रूषुः) गुरु की सेवा करने वाला पुरुष (गुरुगतां विद्याम्) गुरुजनों ने जो विद्या प्राप्त की है, उस को (अधिगच्छति) प्राप्त कर लेता है॥१९३॥ 


ब्रह्मचारी के लिए केश-सम्बन्धी तीन विकल्प एवं ग्रामनिवास का निषेध―


मुण्डो वा जटिलो वा स्यादथवा स्याच्छिखाजटः। 

नैनं ग्रामेऽभिनिम्लोचेत्सूर्यो नाभ्युदियात्क्वचित्॥१९४॥ [२.२१९] (१५१)


ब्रह्मचारी (मुण्डः वा जटिल: वा स्यात्) चाहे तो सब केश मुंडवा कर रहे, चाहे सब केश रखकर रहे (अथवा) या फिर (शिखाजटः) केवल शिखा रखकर [शेष केश मुंडवाकर] (स्यात्) रहे, उसकी इच्छा पर निर्भर है। (एनम्) इस ब्रह्मचारी को (क्वचित् ग्रामे) बिना किसी उद्देश्य के किसी गांव शहर में रहते (सूर्यः) सूर्य (न अभिनिम्लोचेत्) न तो अस्त हो (नु=अभ्युदियात्) न कभी उदय हो अर्थात् प्रमाद के कारण गांव-शहर में रहते-रहते रात नहीं होनी चाहिए। रात्रि में गांव-शहर में निवास नहीं करना चाहिए, गुरुकुल में आकर निवास करना चाहिए॥१९४॥ 


प्रमादवश सोते रहने पर प्रायश्चित्त―


तं चेदभ्युदियात्सूर्यः शयानं कामचारतः।

निम्लोचेद्वाऽप्यविज्ञानाज्जपन्नुपवसेद्दिनम्॥१९५॥ [२.२२०] (१५२)


(तं चेत्) यदि किसी विवशतावश गांव-शहर में रुकना पड़े और उसे (कामचारतः शयानम्) प्रमादवश सोते हुए (सूर्यः अभि+उदियात्) वहाँ सूर्य का उदय हो जाये (अपि वा) अथवा (अविज्ञानात् निम्लोचेत्) अनजाने में या प्रमाद के कारण गांव-शहर में रहते सूर्य अस्त हो जाये अर्थात् रात्रि-निवास करे तो (दिनं जपन्+उपवसेत्) प्रायश्चित्त रूप में दिनभर गायत्री का जप करते हुए उपवास करे=खाना न खाये॥१९५॥


सूर्येण ह्यभिनिर्मुक्तः शयानोऽभ्युदितश्च यः। 

प्रायश्चित्तमकुर्वाणो युक्तः स्यान्महतैनसा॥१९६॥ [२.२२१] (१५३)


(यः) जो (सूर्येण अभिनिर्मुक्तः) प्रमाद में गांव-शहर में रहते हुए सूर्य के अस्त हो जाने पर (च) और (शयानः+अभ्युदितः) वहाँ रात्रि में सोते-सोते सूर्य उदय होने पर (प्रायश्चित्तम् अकुर्वाणः) प्रायश्चित्त नहीं करता है वह (महता+एनसा युक्तः स्यात्) व्रतभंग के बड़े अपराध का भागी बनता है अर्थात् उसे व्रतभंग दोषी माना जायेगा॥१९६॥


सन्ध्योपासन का विधान एवं विधि―


आचम्य प्रयतो नित्यमुभे सन्ध्ये समाहितः। 

शुचौ देशे जपञ्जप्यमुपासीत यथाविधि॥१९७॥ [२.२२२] (१५४)


ब्रह्मचारी (नित्यम्) प्रतिदिन (शुचौ देशे) शुद्ध स्थान में (उभे सन्ध्ये) प्रातः और सायं दोनों सन्ध्याकालों में (आचम्य) आचमन करके (प्रयतः) प्रयत्नपूर्वक (समाहितः) एकाग्र होकर (जप्यं जपन् उपासीत) गायत्री मन्त्र द्वारा परमेश्वर का जप करते हुए उपासना करे [२.५१-५३, २.७६-७८, १०१-१०३]॥१९७॥ 


स्त्री-शूद्रादि के उत्तम आचरण का भी अनुकरण करे―


यदि स्त्री यद्यवरजः श्रेयः किंचित्समाचरेत्।

तत्सर्वमाचरेद्युक्तो यत्र वाऽस्य रमेन्मनः॥१९८॥ [२.२२३] (१५५)


(यदि स्त्री यदि+अवरजः) यदि कोई स्त्री और शूद्र भी (किंचित् श्रेयः समाचरेत्) अपने से कोई श्रेष्ठ आचरण करें (तत्सर्वं+आचरेत्) उनसे शिक्षा लेकर सभी मनुष्यों को उस पर आचरण करना चाहिए (वा) और (यत्र) जिस शास्त्रोक्त श्रेष्ठ कर्म में (अस्य मनः रमेत्) मनुष्य का मन रमे उस को करता रहे॥१९८॥


निम्नस्तर के व्यक्ति से भी ज्ञान-धर्म की प्राप्ति―


श्रद्धधानः शुभां विद्यामाददीतावरादपि। 

अन्त्यादपि परं धर्मं स्त्रीरत्नं दुष्कुलादपि॥२१३॥ [२.२३८] (१५६)


(शुभां विद्यां श्रद्दधानः) उत्तम विद्या प्राप्ति की श्रद्धा करता हुआ पुरुष (अवरात्+अपि आददीत) अपने से न्यून वर्ण के व्यक्ति से भी विद्या ग्रहण करले (अन्त्यात्+अपि परं धर्मम्) शूद्र वर्ण का व्यक्ति भी यदि किसी उत्तम धर्म का ज्ञाता या पालनकर्त्ता हो तो उससे भी धर्म ग्रहण करे, और (दुष्कुलात् अपि स्त्रीरत्नम्) निंद्यकुल में भी यदि उत्तम गुणवती कन्या हो तो उसको पत्नी के रूप में ग्रहण कर ले, यह नीति है॥२१३॥ 


उत्तम वस्तुओं का भी सभी स्थानों से ग्रहण―


विषादप्यमृतं ग्राह्यं बालादपि सुभाषितम्। 

अमित्रादपि सद्वृत्तममेध्यादपि काञ्चनम्॥२१४॥

[२.२३९] (१५७)


(विषात्+अपि+अमृतं ग्राह्यम्) विष में से भी अमृत का ग्रहण कर लेना चाहिए, और (बालात्+अपि सुभाषितम्) बालक से भी उत्तम वचन को ग्रहण कर लेना चाहिए, और (अमित्रात्+अपि सद्-वृत्तम्) अमित्र व्यक्ति से भी श्रेष्ठ आचरण सीख लेना चाहिए, तथा (अमेध्यात्+अपि काञ्चनम्) अशुद्ध स्थान से भी स्वर्ण या मूल्यवान् वस्तु को प्राप्त कर लेना चाहिए॥२१४॥


स्त्रियो रत्नान्यथो विद्या धर्मः शौचं सुभाषितम्। 

विविधानि च शिल्पानि समादेयानि सर्वतः॥२१५॥ [२.२४०] (१५८)


(स्त्रियः) उत्तम गुणवती स्त्री (रत्नानि) नाना प्रकार के रत्न (विद्या) उत्तम विद्या (धर्मः) धर्माचरण (शौचम्) तन-मन, स्थान आदि की पवित्रता (सुभाषितम्) श्रेष्ठभाषण (च) और (विविधानि शिल्पानि) नाना प्रकार की शिल्पविद्या अर्थात् विज्ञान और कारीगरी (सर्वतः समादेयानि) सब देशों तथा सब मनुष्यों से ग्रहण कर लें॥२१५॥


आपत्तिकाल में अब्राह्मण से विद्याध्ययन―


अब्राह्मणादध्ययनमापत्काले विधीयते।

अनुव्रज्या च शुश्रूषा यावदध्ययनं गुरोः॥२१६॥ [२.२४१] (१५९)


(आपत्काले) आपत्ति काल अर्थात् अपवादरूप में (अब्राह्मणात्) अब्राह्मण अर्थात् क्षत्रिय और वैश्य आदि गुरु से भी (अध्ययनम्) विद्या ग्रहण करना (विधीयते) विहित है [२.२१३-२१५] (यावत् अध्ययनम्) शिष्य जब तक उससे पढ़े तब तक (गुरोः अनुव्रज्या च शुश्रूषा) गुरु की आज्ञा का पालन और सेवा-शुश्रूषा भी करता रहे॥२१६॥


नाब्राह्मणे गुरौ शिष्यो वासमात्यन्तिकं वसेत्। 

ब्राह्मणे चाननूचाने काङ्क्षन् गतिमनुत्तमाम्॥२१७॥ [२.२४२] (१६०)


(अनुत्तमां गतिं काङ्क्षन् शिष्यः) जीवन में उत्तम प्रगति चाहने वाले शिष्य को चाहिए कि वह (अब्राह्मणे गुरौ) अब्राह्मण गुरु के यहाँ (च) और (अन्+अनूचाने ब्राह्मणे) वेद-शास्त्रों में अपारंगत ब्राह्मण गुरु के समीप भी (आत्यन्तिकं वासंन वसेत्) आजीवन या बहुत अधिक निवास न करे [क्योंकि सीमित विद्यावान् होने के कारण उक्त गुरुओं के पास शिष्य की प्रगति रुक जाती है। सांगोपांग वेदों के ज्ञाता भूयोविद्य विद्वान् के पास रहकर ही जीवन में निरन्तर उन्नति, उत्तम प्रगति प्राप्त की जा सकती है]॥२१७॥ 


यदि त्वात्यन्तिकं वासं रोचयेत गुरोः कुले। 

युक्तः परिचरेदेनमाशरीरविमोक्षणात्॥२१८॥

[२.२४३] (१६१)


(यदि तु) यदि ब्रह्मचारी शिष्य (गुरोः कुले) गुरुकुल में (आत्यन्तिकं वासं रोचयेत) जीवन-पर्यन्त निवास करना चाहे तो (आशरीर-विमोक्षणात्) शरीर छूटने पर्यन्त (एनम्) अपने गुरु की (युक्तः परिचरेत्) प्रयत्नपूर्वक सेवा करे॥२१८॥


समावर्तन की इच्छा होने पर गुरुदक्षिणा का विधान एवं नियम―


न पूर्वं गुरवे किञ्चिदुपकुर्वीत धर्मवित्। 

स्नास्यंस्तु गुरुणाऽऽज्ञप्तः शक्त्या गुर्वर्थमाहरेत्॥२२०॥ [२.२४५] (१६२)


(धर्मवित्) शिक्षाधर्म-विधि का ज्ञाता शिष्य (स्नास्यन् तु) स्नातक बनने अर्थात् समावर्तन कराने की इच्छा होने पर (गुरुणा+आज्ञः) गुरु से आज्ञा प्राप्त करके (शक्त्या) शक्ति अनुसार (गुर्वर्थम्) गुरु के लिए (आहरेत्) दक्षिणा प्रदान करे। किन्तु (पूर्वं गुरवे किंचित् न उपकुर्वीत) समावर्तन से पहले गुरु को शुल्क दक्षिणा या भेंट रूप में शिष्य को कुछ नहीं देना चाहिए॥२२०॥ 


गुरुदक्षिणा में देय वस्तुएँ―


क्षेत्रं हिरण्यं गामश्वं छत्रोपानहमासनम्। 

धान्यं वासांसि वा शाकं गुरवे प्रीतिमावहेत्॥२२१॥

[२.२४६] (१६३) 


[शिष्य यथाशक्ति] (क्षेत्रम्) भूमि (हिरण्यम्) सोना आदि मूल्यवान् पदार्थ (गाम्) गाय आदि दुधारू पशु (अश्वम्) घोड़ा आदि सवारी योग्य पशु (छत्र+उपानहम्+आसनम्) छाता, जूता, आसन आदि उपयोगी वस्तुएं (धान्यम्) अन्न (वासांसि) वस्त्र (वा) अथवा (शाकम्) केवल खाद्य पदार्थ शाक, फल आदि ही (गुरवे) गुरु के लिए (प्रीतिम्+आवहेत्) प्रीतिपूर्वक दक्षिणा में दे॥२२१॥


ब्रह्मचर्याश्रम के पालन का फल―


एवं चरति यो विप्रो ब्रह्मचर्यमविप्लुतः। 

स गच्छत्युत्तमस्थानं न चेहाजायते पुनः॥२२४॥ 

[२.२४९] (१६४)


(यः विप्रः) जो द्विज विद्वान् (एवम्) उपर्युक्त प्रकार से (अविप्लुतः) अखण्डित रूप से, सत्यभाव से (ब्रह्मचर्यं चरति) ब्रह्मचर्याश्रम का पालन करता है (सः उत्तमं स्थानं गच्छति) वह उत्तम स्थान अर्थात् मोक्ष-पद को प्राप्त करता है (च) और (इह) इस संसार में (पुनः न आजायते) पुनर्जन्म नहीं लेता अर्थात् प्रवाह से चलने वाले जन्म-मरण से छूटकर मोक्ष को प्राप्त करता है॥२२४॥


इति महर्षि-मनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृत हिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् 'अनुशीलन'   

समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ संस्कारब्रह्मचर्याश्रमात्मको द्वितीयोऽध्यायः॥





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