विशुद्ध मनुस्मृतिः― तृतीय अध्याय

अथ तृतीयोऽध्यायः


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

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(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(समावर्तन, विवाह एवं पञ्चयज्ञविधान-विषय)


(समावर्त्तन ३.१ से ३.३ तक)


ब्रह्मचर्य और वेदाध्ययन काल की अवधि―


षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम्। 

तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा॥१॥ (१)


गुरु के समीप रहते हुए ब्रह्मचारी को ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद नामक तीन वेदों के सांगोपांग अध्ययन सम्बन्धी व्रत का गुरुकुल में प्रवेश के बाद छत्तीस वर्ष पर्यन्त या उस से आधे अर्थात् अठारह वर्ष पर्यन्त अथवा उन छत्तीस के चौथे भाग अर्थात् नौ वर्ष पर्यन्त अथवा जब तक अभीष्ट विद्या पूर्ण न हो जाये तब तक पालन करना चाहिए॥१॥


समावर्तन कब करे―


वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वाऽपि यथाक्रमम्।

अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्॥२॥ (२)


अखण्डित अर्थात् विधि एवं सत्यनिष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम का पालन किया हुआ ब्रह्मचारी उक्त तीन वेदों अथवा उनमें से किन्हीं दो वेदों को अथवा किसी एक वेद को, अध्ययनक्रम पूर्वक अर्थात् वेदांग, शाखाग्रन्थों सहित पढ़कर उसके बाद गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे॥२॥


तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः। 

स्त्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं गवा॥३॥ (३)


[गृहस्थाश्रम में जाने के इच्छुक ब्रह्मचारी का समावर्तन संस्कार इस प्रकार करे―] पिता रूप गुरु के वेद और विद्यारूपी दायभाग को ग्रहण करने वाले ['ब्रह्मदः पिता'] अपने ब्रह्मचर्यव्रत और विद्या-अध्ययन रूप धर्म से प्रसिद्ध अर्थात् उसको पूर्ण कर चुके उस ब्रह्मचारी को माला धारण किये हुए और आसन पर बैठे हुए को अर्थात् उसके गले में माला पहनाकर और आसन पर बैठाकर पिता व आचार्य पहले गवा=गौ से प्राप्त पदार्थों से निर्मित मधुपर्क [=गोदुग्ध, दही और शहद के मेल से बना मिष्ट पदार्थ] को चटाकर उस ब्रह्मचारी को सत्कार करके उस गृहस्थ में जाने का अधिकार प्रदान करे, अर्थात् अनुमति प्रदान करे॥३॥


(विवाह-विषय ३.४ से ३.६६ तक)


गुरु की आज्ञा से विवाह―


गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि। 

उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्॥४॥ (४)


इस प्रकार गुरु से अनुमति प्राप्त द्विज स्नातक निर्धारित विधि के अनुसार ब्रह्मचर्य पूर्ण होने का प्रतीक समावर्तन संस्कार कराके घर लौटकर अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर सवर्णा बनी, उत्तम गुणों से युक्त भार्या='भरण-पोषण की जा सकने योग्य एक ही स्त्री' से विवाह करे॥४॥


विवाह-योग्य कन्या चारों वर्णों के लिए―


असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः। 

सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने॥५॥ (५)


जो कन्या, वर की माता से लेकर उसकी पिछली छह पीढ़ियों के अन्दर न हो और जो वर के पिता के गोत्र की न हो वह कन्या द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जनों के और चारों वर्गों के विवाह-विधान में पठित होने से शूद्र वर्ण के जनों के विवाह कर्म में भी पत्नी बनाने के लिए तथा रतिकर्म और सन्तानोत्पत्ति के लिए अति उत्तम मानी गयी है॥५॥


विवाह के त्याज्य कुल―


महान्त्यपि समृद्धानि गोऽजाविधनधान्यतः। 

स्त्रीसम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत्॥६॥ (६)


गाय, बकरी, भेड़, धन, अन्न आदि से सम्पन्न और बड़े से बड़े भी हों तो भी आगे के श्लोक में वर्णित दश कुलों को विवाह का सम्बन्ध करते समय दोनों ओर से छोड़ देवे॥६॥


हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्। 

क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठिकुलानि च॥७॥ (७)


वे दश कुल हैं― १. जिस कुल में हीन कर्म=शास्त्रविरुद्ध कर्म किये जाते हैं, २. उत्तम पुरुषों से रहित ३. वेदादि के अध्ययन से रहित, ४. शरीर पर बड़े-बड़े लोम हों, ५. असाध्य बवासीर का रोग वंशागत हो, ६-९. असाध्य क्षयरोग, मन्दाग्नि, मृगी, श्वेतकुष्ठ और १०. गलित कुष्ठ ये रोग जिस कुल में आनुवंशिक हों उस कन्याकुल को और वर कुल को छोड़ देवे॥७॥


विवाह में अप्रशस्त कन्याएँ―


नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाऽधिकाङ्गीं न रोगिणीम्। 

नालोमिकां नातिलोमां न वाचाटां न पिङ्गलाम्॥८॥


नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्। 

न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्॥९॥ (८,९)


किसी रोग के कारण जो अत्यधिक भूरे रंग की अर्थात् श्वेतकुष्ठ के समान वर्णवाली न हो, न अधिक अंगों वाली=पुरुष की तुलना में असन्तुलित विशाल शरीर वाली, न सदा रोगी रहने वाली, न नितान्त रोमरहित, न शरीर पर बड़े-बड़े रोम वाली, न अनाप-शनाप या अमर्यादित बोलने वाली किसी रोग के कारण न पीले रंग वाली कन्या को विवाह के लिए स्वीकार करें॥८॥ 


न नक्षत्र, वृक्ष, नदी नामवाली न म्लेच्छ-भाषा के और न पर्वतवाची नाम वाली, न पक्षी, सांप, अधीनवाचक के नाम वाली, और न भयंकर नामवाली कन्या से विवाह करे, ये विवाह में अप्रशस्त=अप्रशंसनीय हैं॥९॥


अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम्।

तनुलोमकेशदशनां मृद्वङ्गीमुद्वहेत्स्त्रियम्॥१०॥ (१०)


दोषरहित अंगों वाली अर्थात् जो गूंगी, बहरी, लूली, लंगड़ी आदि विकलांग न हो, कोमल-मधुर नाम वाली हंसिनी और हथिनी के समान सभ्य चाल वाली अल्प रोम, कोमल केश और छोटे दांतों वाली कोमल अंगों वाली कन्या से विवाह करना चाहिए। ऐसी कन्या से विवाह प्रशस्त=प्रशंसनीय है॥१०॥


आठ प्रकार के प्रचलित विवाह और उनकी विधि―


चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान्। 

अष्टाविमान्समासेन स्त्रीविवाहान्निबोधत॥२०॥ (११)


चारों वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का परलोक में और इस लोक में हित करने वाले और अहित करने वाले इन आगे वर्णित स्त्रियों के साथ सम्पन्न होनेवाले आठ प्रकार के विवाहों को संक्षेप से जानो, सुनो॥२०॥


ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः। 

गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥२१॥ (१२)


वे आठ विवाह हैं―ब्राह्मविवाह, दैव तथा आर्ष प्राजापत्य और आसुर, गान्धर्व, राक्षस और आठवां सबसे निकृष्ट पैशाच है॥२१॥


ब्राह्म अर्थात् स्वयंवर विवाह का लक्षण―


आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।

आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः॥२७॥ (१३)


वेदों के विद्वान् और उत्तम स्वभाव के सदाचारी वर को कन्या की सहमति से विवाह के लिए अपने यहाँ निमन्त्रित करके, माता-पिता द्वारा कन्या को वस्त्र-आभूषण आदि से अलंकृत करके सत्कारपूर्वक विवाह संस्कार पूर्वक कन्या प्रदान करना, 'ब्राह्म विवाह' की विधि कही गयी है॥२७॥


दैवविवाह का लक्षण―


यज्ञे तु वितते सम्यग्-ऋत्विजे कर्म कुर्वते।

अलंकृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते॥२८॥ (१४)


विवाह के उपलक्ष्य में बृहद् यज्ञसमारोह का आयोजन कर उसमें विधिपूर्वक यज्ञसम्बन्धी कर्म करने वाले यज्ञकर्त्ता वर को अर्थात् बृहद् यज्ञानुष्ठान में यज्ञविधि में भाग लेने वाले वर को, कन्या को वस्त्र-आभूषणों से सुशोभित करके माता-पिता द्वारा विवाह संस्कार पूर्वक कन्या दान करना, 'दैव विवाह' की विधि कही गयी है॥२८॥


आर्षविवाह का लक्षण―


एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः। 

कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते॥२९॥ (१५)


जो वर से विधि-अनुसार एक गाय-बैल का जोड़ा अथवा दो जोड़े लेकर विधि अनुसार अर्थात् विवाह संस्कार-यज्ञादिपूर्वक कन्या को प्रदान करना है वह 'आर्षविवाह' कहलाता है॥२९॥


प्राजापत्य विवाह का लक्षण―


सहोभौ चरतां धर्ममिति वाचाऽनुभाष्य च।

कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः॥३०॥ (१६)


और [कन्या और वर का सहमतिपूर्वक निश्चय हो जाने के उपरान्त विवाहार्थ किये संस्कार में] “तुम दोनों साथ मिलकर गृहस्थधर्म का पालन करो" ऐसा वचन घोषित करके माता-पिता आदि के द्वारा वस्त्र-आभूषण आदि से सत्कृत कन्या को प्रदान करना 'प्राजापत्य विवाह' की विधि मानी गयी है॥३०॥


आसुर विवाह का लक्षण―


ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः।

कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यात्-आसुरो धर्म उच्यते॥३१॥ (१७) 


वर के बन्धु-बान्धवों=भाई, माता-पिता, सम्बन्धियों आदि को और कन्या को भी यथाशक्ति धन देकर माता-पिता द्वारा अपनी इच्छा से अर्थात् कन्या की इच्छा या सहमति की उपेक्षा करके कन्या का विवाह करना 'आसुर विवाह' की विधि कही जाती है॥३१॥


गान्धर्व विवाह का लक्षण―


इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च। 

गान्धर्वः स तु विज्ञेयः, मैथुन्यः कामसम्भवः॥३२॥ (१८)


कन्या और वर का परस्पर की इच्छा से एक-दूसरे से शारीरिक सम्बन्ध होना, वह कामभाव से शारीरिक सम्बन्ध बन जाने से होने वाला विवाह 'गान्धर्व विवाह' समझना चाहिए॥३२॥


राक्षस विवाह का लक्षण―


हत्त्वा छित्त्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गृहात्।

प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते॥३३॥ (१९)


कन्या पक्ष वालों को मारकर या घायल करके अथवा घर में तोड़-फोड़ करके चिल्लाती-पुकारती, रोती हुई कन्या का घर से बलात्कारपूर्वक अपहरण करके विवाह करना यह 'राक्षस विवाह' की विधि कही गयी है॥३३॥


पैशाच विवाह का लक्षण―


सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति। 

स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥३४॥ (२०)


सोती हुई, नशे से बेसुध की गई या हुई, या किसी अन्य कारण से बेसुध अथवा अपने शील की रक्षा करने में प्रमादी=असावधान कन्या को एकान्त पाकर जो कोई शारीरिक सम्बन्ध कर लेता है, वह विवाहों में निकृष्ट, महापापपूर्ण आठवां ‘पैशाच विवाह' है॥३४॥


प्रथम चार उत्तम विवाहों से लाभ―


ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्ष्वेवानुपूर्वशः।

ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसम्मताः॥३९॥ (२१)


अनुक्रम से ब्राह्म आदि पहले चार विवाहों में [ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य विवाहों में] निश्चय ही आध्यात्मिक और वेदादि-विद्या के तेज से सम्पन्न और वेदज्ञ सदाचारी विद्वानों द्वारा प्रशंसित पुत्र=सन्तान उत्पन्न होते हैं॥३९॥


रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः। 

पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः॥४०॥ (२२)


वे सुन्दर रूप, बल एवं उत्तम गुणों से सम्पन्न, धनवान्, यशस्वी, बहुत भोग्य सामग्री से युक्त धर्म में स्थित रहने वाले, और सौ वर्ष तक जीने वाले होते हैं॥४०॥


इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः।

जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः॥४१॥ (२३)


शेष अन्य चार आसुर, गान्धर्व, राक्षस, पैशाच इन निन्द्य विवाहों में निन्दित और मिथ्यावादी, ईश्वर और वेदोक्त धर्मों से द्वेष करने वाले पुत्र अर्थात् सन्तान होते हैं॥४१॥


श्रेष्ठ विवाहों से श्रेष्ठ सन्तान, बुरों से बुरी―


अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजा।

निन्दितैर्निन्दिता नॄणां तस्मान्निन्द्यान्विवर्जयेत्॥४२॥ (२४)


श्रेष्ठ विवाहों=ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य से सन्तान भी श्रेष्ठ गुण वाली होती है निन्दित विवाहों=आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच से मनुष्यों की सन्तानें भी निन्दनीय कर्म करने वाली होती हैं इसलिए निन्दित विवाहों को आचरण में न लावे॥४२॥


ऋतुकाल-गमन सम्बन्धी विधान―


ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा। 

पर्ववर्जं व्रजेच्चैनां तद्व्रतो रतिकाम्यया॥४५॥ (२५)


गृहस्थ सदा ऋतुकाल में ही स्त्री से समागम करे, और केवल अपनी पत्नी से ही संसर्ग रखे, समागम की कामना होने पर पर्वों को छोड़कर अर्थात् ऋतुकाल में आनेवाले पौर्णमासी, अमावस्या और अष्टमी को छोड़ कर शेष रात्रियों में स्त्री से समागम करे। [कामना शब्द के प्रयोग से संकेत है कि बिना दोनों की कामना के समागम वर्जित है]॥४५॥


स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल―


ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः। 

चतुर्भिरितरैः सार्धमहोभिः सद्विगर्हितैः॥४६॥ (२६)


स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल सोलह रात्रियाँ अर्थात् रजोदर्शन के दिन से लेकर सोलह रात्रि पर्यन्त माना गया है, उनमें सज्जनों द्वारा निन्दित अर्थात् समागम के अयोग्य जो रजोदर्शन के प्रथम चार दिन-रात हैं उनको [३.४७] साथ मिलाकर यह सोलह रात्रियों का ऋतुकाल है। [रात्रि कथन इसलिए है कि दिन में समागम वर्जित है]॥४३॥


निन्दित रात्रियाँ―


तासामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या। 

त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रयः॥४७॥ (२७)


पूर्व श्लोकोक्त सोलह रात्रियों में रजोदर्शन वाली पहली चार रात्रियाँ और जो रजोदर्शन से ग्यारहवीं रात्रि और तेरहवीं रात्रि ये सब निन्दित हैं अर्थात् समागम के अयोग्य हैं। शेष बची दश रात्रियाँ समागम के लिए श्रेष्ठ हैं॥४७॥


पुत्र और पुत्री प्राप्त्यर्थ रात्रि की भिन्नता―


युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु। 

तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम्॥४८॥ (२८)


युग्म अर्थात् रजोदर्शन से लेकर समसंख्या की रात्रियों―छठी, आठवीं, दशवीं, द्वादशी, चतुर्दशी, षोडशी में समागम करने से पुत्र उत्पन्न होते हैं विषम संख्या वाली अर्थात् पांचवीं, सातवीं, नवमी, पन्द्रहवीं रात्रियों में लड़की उत्पन्न होती है इसलिए पुत्र की इच्छा रखने वाले पुरुष ऋतुकाल में रजोदर्शन समाप्त होने पर समरात्रियों में स्त्री से समागम करें॥४८॥


पुत्र और पुत्री होने में कारण―


पुमान्पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रियाः। 

समेऽपुमान्पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः॥४९॥ (२९)


पुरुष के अधिक सामर्थ्यशाली शुक्र के होने पर पुत्र, और स्त्री बीज के अधिक सामर्थ्यशाली होने पर कन्या होती है। समान सामर्थ्य होने पर नपुंसक अथवा लड़का-लड़की का जोड़ा और दोनों के बीज के न होने पर या अल्पसामर्थ्य वाला होने पर गर्भ नहीं ठहरता या गिर जाता है॥४९॥


संयमी गृहस्थ भी ब्रह्मचारी―


निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन्। 

ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन्॥५०॥ (३०)


पूर्वोक्त निन्दित छह रात्रियों में और इनसे भिन्न शेष दश रात्रियों में से किन्हीं आठ रात्रियों में स्त्रियों को छोड़ने वाला अर्थात् उनसे समागम न करने वाला व्यक्ति ब्रह्मचर्याश्रम से भिन्न अर्थात् गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी ब्रह्मचारी ही होता है॥५०॥


वर से कन्या का मूल्य लेने का निषेध―


न कन्यायाः पिता विद्वान् गृह्णीयाच्छुल्कमण्वपि। 

गृह्णन्छुल्कं हि लोभेन स्यान्नरोऽपत्यविक्रयी॥५१॥ (३१)


कन्या के बुद्धिमान् पिता को चाहिए कि वह कन्या के विवाह में थोड़ा-सा भी शुल्क=मोल व धन न ले क्योंकि लोभ में आकर शुल्क लेने पर निश्चय ही वह मनुष्य 'सन्तान को बेचने वाला' कहाता है॥५१॥


स्त्रीधनानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवाः। 

नारी यानानि वस्त्रं वा ते पापा यान्त्यधोगितम्॥५२॥ (३२)


जो वर के बान्धव=पिता-माता, बहन, भाई आदि सम्बन्धी लोभ या तृष्णा के वशीभूत होकर कन्याओं के धनों को कन्या पक्ष की सवारी या वस्त्रों आदि को ग्रहण कर उनका उपभोग करके जीते हैं वे पापी लोग नीचगति को प्राप्त होते हैं अर्थात् उनका पतन होता है॥५२॥


आर्ष-विवाह में भी गो-युगल लेने का निषेध―


आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुम॒षैव तत्। 

अल्पोऽप्येवं महान्वाऽपिविक्रयस्तावदेव सः॥५३॥ (३३)


कुछ लोगों ने आर्ष-विवाह में बैलों के जोड़े का शुल्क रूप में लेने का कथन किया है वह अनुचित ही है, मिथ्या ही है क्योंकि इस प्रकार चाहे थोड़ा अथवा अधिक हो, वह धन का लेना-देना है वह निश्चय से कन्या को बेचना ही है॥५३॥


यासां नाददते शुल्कं ज्ञातयो न स विक्रयः।

अर्हणं तत्कुमारीणामानृशंस्यं च केवलम्॥५४॥ (३४)


कन्या के पिता आदि या सम्बन्धी जिन कन्याओं के विवाह के लिए वर पक्ष से शुल्क नहीं लेते अर्थात् वरपक्ष से विवाह के साथ बदले में बिना कुछ धन लिए विवाह कर देते हैं इस प्रकार का विवाह 'कन्याओं को बेचना' नहीं कहलाता ऐसा विवाह वास्तव में कन्याओं का पूजासत्कार अर्थात् सम्मान करना है और कन्याओं के प्रति वास्तव में स्नेह प्रदर्शित करना है॥५४॥


स्त्रियों के आदर का विधान तथा उसका फल―


पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। 

पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥५५॥ (३५)


अपना बहुत कल्याण चाहने वाले पिता-माताओं को और भाइयों को पति और पति के भाइयों को चाहिए कि इन स्त्रियों के अर्थात् पुत्री, बहन, पत्नी, भाभी आदि को आदर-सत्कार दें और वस्त्र-आभूषण आदि से सुभूषित रखें॥५५॥


स्त्रियों का आदर करने से दिव्य लाभों की प्राप्ति―


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। 

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफला: क्रियाः॥५६॥ (३६)


जिस कुल में नारियों की पूजा अर्थात् आदर-सत्कार होता है निश्चय ही उस कुल में दिव्य सन्तान, दिव्य गुण, दिव्यभोग प्राप्त होते हैं, जहाँ इनका आदर-सत्कार नहीं होता अर्थात् अनादर और उत्पीड़न होता है उस कुल में गृहस्थ-सम्बन्धी सब क्रियाएँ निष्फल रहती हैं अर्थात् स्त्रियों की प्रसन्नता और सम्मान के बिना गृहस्थ में गुणी सन्तान, सुख-शान्ति, सफलता, उन्नति नहीं हो पाती॥५६॥


स्त्रियों के शोकग्रस्त रहने से परिवार का विनाश―


शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्। 

न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा॥५७॥ (३७)


जिस कुल में स्त्रियाँ अपने-अपने पुरुषों के उत्पीड़न, वेश्यागमन, अत्याचार, दुर्व्यवहार वा व्यभिचार आदि दोषों से शोकातुर रहती हैं वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है और जिस कुल में स्त्रीजन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है॥५७॥


जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः। 

तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः॥५८॥ (३८)


परिवार में असत्कृत अर्थात् निरादर और तिरस्कार प्राप्त करने वाली स्त्रियाँ जिन घरों को शाप देती हैं अर्थात् क्रोधित होकर कोसती हैं और अनिष्ट करने को उद्यत हो जाती हैं तब वे कुल सभी प्रकार से सामूहिक विनाश करने वाली भयंकर दुर्घटना से जैसे सब एक साथ नष्ट हो जाते हैं, ऐसे वे कुल भी नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं॥५८॥


तस्मादेताः सदा पूज्या: भूषणाच्छादनाशनैः।

भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च॥५९॥ (३९)


इस कारण से अपनी नित्य समृद्धि-सफलता चाहने वाले मनुष्यों को सत्कार के अवसरों पर और उत्सवों=प्रसन्नता आदि के अवसरों पर स्त्रियों का आभूषण, वस्त्र, खान-पान आदि से सदा आदर-सत्कार करना चाहिए अर्थात् उन्हें प्रसन्न-सन्तुष्ट रखना चाहिए॥५९॥


पति-पत्नी की परस्पर सन्तुष्टि से परिवार का कल्याण―


सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च। 

यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥६०॥ (४०)


जिस कुल में निरन्तर पत्नी के व्यवहार से पति सन्तुष्ट रहता है और उसी प्रकार पति के व्यवहार से पत्नी सन्तुष्ट रहती है उसी कुल का कल्याण निश्चित होता है॥६०॥


पति-पत्नी में पारस्परिक अप्रसन्नता से सन्तान न होना―


यदि हि स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत्। 

अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्त्तते॥६१॥ (४१)


[यह मनोवैज्ञानिक और शारीरिक सत्य है कि] निश्चय ही यदि स्त्री सन्तुष्ट-प्रसन्न न रहे तो वह पुरुष को भी सन्तुष्ट-प्रसन्न नहीं रख सकती, परिणामस्वरूप पुरुष की असंतुष्टि से कामोत्पत्ति न होने से प्रजनन क्रिया में प्रवृत्ति नहीं होती और उससे सन्तान नहीं होती, अथवा स्वस्थ श्रेष्ठ सन्तान नहीं होती, अतः स्त्री की प्रसन्नता प्रथमतः आवश्यक है॥६१॥


स्त्री की प्रसन्नता पर कुलों में प्रसन्नता―


स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम्। 

तस्यां त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते॥६२॥ (४२)


स्त्री की प्रसन्नता से उस सम्पूर्ण कुल में प्रसन्नता आ जाती है, स्त्री के अप्रसन्न या शोकग्रस्त होने पर घर में कुछ भी प्रसन्नतादायक नहीं लगता अर्थात् परिवार में प्रसन्नता का वातावरण स्त्री की प्रसन्नता पर ही निर्भर करता है॥६२॥


(पञ्चमहायज्ञ-विषय)


[३.६७ से ३.२८६ तक] 


पञ्चमहायज्ञों का विधान―


वैवाहिकेऽग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि। पञ्चयज्ञविधानं च पक्तिं चान्वाहिकीं गृही॥६७॥ (४३)


गृहस्थ पुरुष विवाह के समय प्रज्वलित की जाने वाली अग्नि में अग्नि से सिद्ध किये जाने वाले गृहस्थ के सभी कर्त्तव्यों को [जैसे पाचन, पाक्षिक याजन आदि] उचित विधि के अनुसार करे और होम, दैव आदि पांचों महायज्ञों को तथा प्रतिदिन का भोजन पकाना भी करे॥६७॥ 


पञ्चमहायज्ञों के अनुष्ठान का कारण―


पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः। 

कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्॥६८॥ (४४)


चूल्हा चक्की झाड़ू ओखली तथा पानी का घड़ा गृहस्थियों के ये पांच हिंसा-संभावित स्थान हैं जिनको प्रयोग में लाते हुए गृहस्थ व्यक्ति हिंसा होने से उस विषयक पापों से बंध जाता है॥६८॥


तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः।

पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥६९॥ (४५)


क्रम से उन सब हिंसा दोषों की निवृत्ति या परिशोधन के लिए गृहस्थ लोगों के प्रतिदिन करने के लिए महर्षियों ने पांच महायज्ञों का विधान किया है॥६९॥


पञ्चमहायज्ञों के नाम एवं नामान्तर―


अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। 

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥७०॥ (४६)


वेद-शास्त्रों का पढ़ना-पढाना, सन्ध्योपासन करना [सावित्रीमप्यधीयीत] 'ब्रह्मयज्ञ' कहलाता है और माता-पिता आदि की सेवा-सुश्रूषा तथा भोजन आदि से तृप्ति करना 'पितृयज्ञ' है सायं-प्रातः हवन करना 'देवयज्ञ' है कीटों, पक्षियों, कुत्तों और कुष्ठी व्यक्तियों आदि को भोजन का भाग बचाकर देना 'भूतयज्ञ' या 'बलिवैश्वदेवयज्ञ' कहलाता है अतिथियों को भोजन देना और सेवा करना सत्कार करना 'नृयज्ञ' अथवा 'अतिथियज्ञ' कहाता है॥७०॥


पञ्चैतान्यो महायज्ञान्न हापयति शक्तितः। 

स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते॥७२॥ (४७)


जो इन पांच महायज्ञों को यथाशक्ति नहीं छोड़ता वह घर में रहकर चूल्हा जलाना आदि कार्य करते हुए भी प्रतिदिन चुल्ली=चूल्हा आदि में हुए हिंसा के दोषों से लिप्त नहीं होता [यतो हि यज्ञों के पुण्यों की अधिकता से उनके शमन होता रहता है]॥७१॥ 


देवताऽतिथिभृत्यानां पितॄणामात्मनश्च यः। 

न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्वसन्न स जीवति॥७२॥ (४८)


जो गृहस्थ व्यक्ति अग्नि आदि देवताओं को [हवन के रूप में], अतिथियों को [अतिथि यज्ञ के रूप में], भरण-पोषण की अपेक्षा रखने वाले या दूसरों की सहायता पर आश्रित भिक्षार्थी आदि के लिए [भूतयज्ञ या बलिवैश्वदेव यज्ञ के रूप में], माता-पिता, पितामह आदि के लिए [पितृयज्ञ के रूप में] और अपनी आत्मा के लिए [ब्रह्मयज्ञ के रूप में] इन पांचों के लिए उनके भागों को नहीं देता है, अर्थात् पांच दैनिक महायज्ञों को नहीं करता है वह सांस लेते हुए भी वास्तव में नहीं जीता अर्थात् मरे हुए व्यक्ति के समान है॥७२॥


पञ्चयज्ञों के नामान्तर―


अहुतं च हुतं चैव तथा प्रहुतमेव च। 

ब्राह्मयं हुतं प्राशितं च पञ्चयज्ञान्प्रचक्षते॥७३॥ (४९)


इन पांच यज्ञों को 'अहुत', 'हुत', 'प्रहुत', 'ब्राह्मयहुत' और 'प्राशित' भी कहते हैं [तुलना-विवरण अगले श्लोक में]॥७३॥ 


जपोऽहुतो हुतो होमः प्रहुतो भौतिको बलिः। 

ब्राह्मयं हुतं द्विजाग्रयार्चा प्राशितं पितृतर्पणम्॥७४॥ (५०)


'अहुत' 'जपयज्ञ' अर्थात् 'ब्रह्मयज्ञ' को कहते हैं 'हुतः' होम अर्थात् 'देवयज्ञ' है 'प्रहुत' भूतों के लिए भोजन का भाग रखना अर्थात् 'भूतयज्ञ' या 'बलिवैश्वदेवयज्ञ' है विद्वानों की सेवा करना अर्थात् 'अतिथियज्ञ' है 'प्राशित' माता-पिता आदि का 'तर्पण' अर्थात् तृप्ति करना 'पितृयज्ञ' है॥७४॥ 


ब्रह्मयज्ञ एवं अग्निहोत्र का विधान―


स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि।

दैवकर्मणि युक्तो हि बिभर्तीदं चराचरम्॥७५॥ (५१)


मनुष्य को चाहिए कि वह वेदादि शास्त्रों को स्वयं पढ़ने-पढ़ाने और सन्ध्योपासन अर्थात् ब्रह्मयज्ञ के अनुष्ठान में नित्य लगा रहे अर्थात् प्रतिदिन अवश्य करे और देवकर्म अर्थात् अग्निहोत्र भी अवश्य करे क्योंकि इस संसार में रहते हुए अग्निहोत्र करनेवाला व्यक्ति इस समस्त चेतन और जड़ जगत् का पालन-पोषण करता है॥७५॥


अग्निहोत्र से लाभ―


अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। 

आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥७६॥ (५२)


[वह पालन-पोषण और भला इस प्रकार होता है] अग्नि में विधिपूर्वक डाली हुई घृत आदि पदार्थों की आहुति सूर्य को प्राप्त होती है―सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर सूर्य से वृष्टि होती है वृष्टि से अन्न पैदा होता है उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है॥७६॥


गृहस्थाश्रम की महत्ता―


यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः। 

तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः॥७७॥ (५३)


जैसे वायु का आश्रय पाकर सब प्राणी जीवित रहते हैं, उनका जीवन बना रहता है उसी प्रकार गृहस्थ के आश्रय से ही चारों आश्रम=ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास अस्तित्व में रहते हैं और निर्वाह करते हैं॥७७॥


यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।

गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही॥७८॥ (५४)


जिससे तीनों ही आश्रम अर्थात् ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास प्रतिदिन अन्नदान और धन-वस्त्र आदि के दान से गृहस्थ के द्वारा ही धारण किये जाते हैं इसलिए गृहस्थ सब आश्रमों में ज्येष्ठ=बड़ा और महत्त्वपूर्ण है॥७८॥


गृहस्थ के योग्य कौन―


स संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।

सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः॥७९॥ (५५)


जो गृहस्थ आश्रम दुर्बल इन्द्रियों या शरीर वालों द्वारा धारण करने योग्य नहीं है उसको इस लोक में निरन्तर सुख की इच्छा करने वाले और अक्षय मोक्ष सुख की इच्छा रखने वाले को प्रयत्न करके धारण करना चाहिए॥७९॥


ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा। 

आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्यः कार्यं विजानता॥८०॥ (५६)


ऋषि-मुनि लोग, माता-पिता, चेतन-जड़ आदि देवता, भृत्य तथा कुष्ठी आदि प्राणी और अतिथि लोग गृहस्थों से ही आशा रखते हैं अर्थात् सहायता, वातावरण शुद्धि की अपेक्षा रखते हैं, अतः अपने गृहस्थ-सम्बन्धी कर्त्तव्यों को समझने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह इनके लिए अपने आगे वर्णित कर्त्तव्य का पालन करे॥८०॥


पञ्चयज्ञों के मुख्य कर्म―


स्वाध्यायेनार्चयेतर्षीन् होमैर्देवान् यथाविधि।

पितॄन् श्राद्धैश्च नॄनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा॥८१॥ (५७)


गृहस्थ निर्धारित विधि के अनुसार स्वाध्याय अर्थात् ईश्वरोपासना, वेदाध्ययन-अध्यापन से ऋषियों का सत्कार करे=कृतज्ञता प्रकट करे, अग्निहोत्र से अग्नि, वायु आदि देवों की शुद्धि करे, माता-पिता-दादा आदि पितरों को श्रद्धापूर्वक अन्न-वस्त्र आदि दान से और सेवा से सन्तुष्ट करे अतिथियों को अन्न-पान देकर सन्तुष्ट करे वैश्वदेव यज्ञ में बलि भाग निकालकर शेष सभी प्राणियों का उपकार करे॥८१॥


पितृयज्ञ का विधान―


कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा। 

पयोमूलफलैर्वाऽपि पितृभ्यः प्रीतिमावहन्॥८२॥ (५८)


गृहस्थ व्यक्ति अन्न आदि भोज्य पदार्थों से और जल, दूध, कन्दमूल, फल आदि से माता-पिता, पितामही-पितामह आदि बुजुर्गों से अत्यन्त प्रेम प्रदर्शित करते हुए प्रतिदिन श्राद्ध=श्रद्धा से किये जाने वाले सेवा-सुश्रूषा, भोजन देना आदि कर्त्तव्य-पालन करे॥८२॥


बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान―


वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम्। 

आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥८४॥ (५९)


ब्राह्मण अर्थात् प्रत्येक द्विज व्यक्ति पाकशाला की अग्नि में विधिपूर्वक सिद्ध=तैयार हुए बलिवैश्वदेव यज्ञ के भाग वाले भोजन का प्रतिदिन इन देवताओं=ईश्वरीय दिव्यगुणों के चिन्तनपूर्वक आहुति देकर हवन करे॥८४॥


अग्नेः सोमस्य चैवादौ तयोश्चैव समस्तयोः। 

विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो धन्वन्तरय एव च॥८५॥ (६०)


प्रथम अग्नि=पूज्य परमेश्वर और सोम=सब पदार्थों को उत्पन्न और पुष्ट करके सुख देनेवाले 'सोमरूप' परमात्मदेव के लिए ['ओम् अग्नये स्वाहा' 'ओं सोमाय स्वाहा' इन मन्त्रों द्वारा] और उन्हीं देवों के सर्वत्र व्याप्त रूपों के लिए संयुक्त रूप में ['ओम् अग्नीषेमाभ्यां स्वाहा' इस मन्त्र के द्वारा] अग्नि=जो प्राण अर्थात् सब प्राणियों के जीवन का हेतु है और सो=जो अपान अर्थात् दु:ख के नाश का हेतु है और विश्वदेवों=संसार को प्रकाशित या संचालित करने वाले ईश्वरीय गुणों के लिए ['ओं विश्वेभ्यः देवेभ्यः स्वाहा' इस मन्त्र द्वारा] तथा धन्वन्तरि=जन्म-मरण आदि के अवसर पर आने वाले रोगों का नाश करने वाले ईश्वर के गुण के लिए ['ओं धन्वन्तरये स्वाहा' इस मन्त्र से] बलिवैश्वदेव यज्ञ में आहुति देवे॥८५॥ 


कुह्वै चैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च।

सहद्यावापृथिव्योश्च तथा स्विष्टकृतेऽन्ततः॥८६॥ (६१)


और अमावस्या की रचना करने वाली ईश्वरीय शक्ति अर्थात् कृष्णपक्ष को रचनेवाली परमेश्वर की शक्ति या गुण के लिए ['ओं कुह्वै स्वाहा' मन्त्र से] तथा पूर्णिमा की रचयित्री ईश्वरीय शक्ति अर्थात् शुक्लपक्ष का निर्माण करने वाली परमेश्वर की शक्ति के लिए या परमेश्वर की चितिशक्ति के लिए ['ओं अनुमत्यै स्वाहा' मन्त्र से] सब जगत् को उत्पन्न करने वाले परमेश्वर के सामर्थ्य गुण के लिए ['ओं प्रजापतये स्वाहा' मन्त्र से] ईश्वर द्वारा उत्पादित द्युलोक और पृथिवी लोक की पुष्टि के लिए ['ओं सहद्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा' मन्त्र से] और अन्त में अभीष्ट सुख देने वाले ईश्वर गुण के लिए ['ओं स्विष्टकृते स्वाहा' मन्त्र से] आहुति देवे॥८६॥ 


एवं सम्यग्घविर्हुत्वा सर्वदिक्षु प्रदक्षिणम्।

इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्यः सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥८७॥ (६२)


इस प्रकार अच्छी तरह उपर्युक्त आहुतियाँ देकर सब दिशाओं में घूमकर परमेश्वर के सहचारी गुणों इन्द्र=सर्व प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त होना, अन्तक=यम और न्यायकारी होना, या प्राणियों के जन्म-मरण का नियन्त्रण रखने वाला गुण, अप्पति=वरुण अर्थात् सबके द्वारा वरणीय सबसे श्रेष्ठ परमात्मा, इन्द्र=सोम अर्थात् आनन्ददायक होना इनके लिए स्मरणपूर्वक [क्रमशः ‘ओं सानुगायेन्द्राय नमः' मन्त्र से पूर्व दिशा में, ‘ओं सानुगाय यमाय नमः' से दक्षिण दिशा में, ‘ओं सानुगाय वरुणाय नमः' से पश्चिम दिशा में, ‘ओं सानुगाय सोमाय नमः' से उत्तर दिशा में] लघु प्राणियों के लिए भोजन के भाग अर्थात् बलि को रखे॥८७॥


मरुद्भ्यः इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि।

वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥८८॥ (६३)


मरुत्=जीवन के संचालक प्राणरूप परमात्मा के स्मरणपूर्वक ['ओं मरुद्भ्यो नमः' मन्त्र से] द्वार पर, सर्वत्र व्याप्त और सम्पूर्ण जगत् के आश्रय रूप परमात्मा के स्मरणपूर्वक ['ओम् अद्भ्यो नमः' से], जलों में बलि भाग को डाले, इसी प्रकार वनस्पतियों के समीप ['ओं वनस्पतिभ्यो नमः' से], मूसल और ऊखल के समीप लघुप्राणियों के लिए बलि अर्थात् भोजन के भाग रखे॥८८॥


उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद् भद्रकाल्यै च पादतः। 

ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥८९॥ (६४)


सबके द्वारा सेव्य परमात्मा की सेवा से राज्यश्री अथवा लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए ['ओं श्रियै नमः' से] ईशान कोण की ओर और परमात्मा की कल्याणकारी शक्ति की प्राप्ति के लिए ['ओं भद्रकाल्यै नमः' से] पृष्ठभाग अर्थात् नैर्ऋत्य कोण की ओर बलिभाग रखे और ब्रह्म―वेदविद्या की प्राप्ति के लिए वेदविद्या के दाता परमात्मा के लिए वास्तोष्पति=गृहसम्बन्धी पदार्थों के दाता ईश्वर से सहायता के लिए ['ओं ब्रह्मपतये नमः' 'ओं वास्तुपतये नमः' इन से] घर के मध्य-भाग में लघुप्राणियों के लिए बलि अर्थात् भोजन के भाग रखे॥८९॥ 


विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्।

दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तंचारिभ्य एव च॥९०॥ (६५)


और संसार के साधक गुणों की प्राप्ति के लिए संसार के संचालक परमात्मा या विद्वानों के दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए ['ओं विश्वेभ्यः देवेभ्यः नमः' से] आकाश की ओर अर्थात् घर के ऊपर बलि=भोजन भाग रखे तथा दिन में विचरण करने वाले प्राणियों के लिए ['ओं दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यः नमः'] और रात्रि में विचरण करने वाले प्राणियों के लिए ['ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः' मन्त्र से] बलि=भोजन भाग रखे॥९०॥


पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये। 

पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत्॥९१॥ (६६)


सब प्राणियों में व्याप्त या आश्रयरूप परमात्मा की सत्ता को स्मरण करते हुए [ओं सर्वात्मभूतये नमः' से] घर के पृष्ठभाग में बलिभाग रखे शेष बलिभाग को माता-पिता, आचार्य, अतिथि, भृत्य आदिकों को सम्मानपूर्वक भोजन कराने के कर्त्तव्य को स्मरण करने के लिए ['ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः' इस मन्त्र से] घर के दक्षिण भाग में बलि=भोजन भाग रखे॥९१॥


शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्। 

वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि॥९२॥ (६७)


और जीविका कमाने में असमर्थ भिखारी आदि साधनहीन के लोगों के लिए और गृह और जीविकाहीन चांडालों के लिए पापों के फलस्वरूप असाध्य गलितकुष्ठ आदि रोगों से ग्रस्त जीविकाहीन भिखारियों के लिए और कुत्ते आदि जानवरों, कौवे आदि पक्षियों और कीट-पतंगों के लिए सावधानीपूर्वक किसी पत्तल आदि में भोजन-भाग निकाल कर भूमि पर रखले, फिर उनके आने पर उन्हें दे दे॥९२॥


अतिथियज्ञ का विधान―


कृत्वैतद् बलिकर्मैवमतिथिं पूर्वमाशयेत्। 

भिक्षां च भिक्षवे दद्याद्विधिवद् ब्रह्मचारिणे॥९४॥ (६८)


उपर्युक्त बलिवैश्वदेव यज्ञ करके पहले यदि कोई अतिथि घर में आया हुआ हो तो उसको भोजन खिलाये तथा भिक्षा के लिए आये हुए ब्रह्मचारी को विधिपूर्वक भिक्षा देवे॥९४॥


सम्प्राप्ताय त्वतिथये प्रदद्यादासनोदके।

अन्नं चैव यथाशक्ति सत्कृत्य विधिपूर्वकम्॥९९॥ (६९)


और आये हुए अतिथि के लिए व्यवहारोचित विधि के अनुसार सत्कार करके सामर्थ्य के अनुसार आसन और जल तथा अन्न भी प्रदान करे॥९९॥


सज्जनों के घर में सत्कारार्थ सदा उपलब्ध वस्तुएँ―


तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता। 

एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥१०१॥ (७०)


क्योंकि बैठने के लिए तृण आदि से बने आसन बैठने या सोने के लिए स्थान पानी और सत्कारयुक्त मीठी वाणी सत्कार करने की ये बातें या वस्तुएँ तो श्रेष्ठ-सभ्य व्यक्तियों के घर में कभी भी नष्ट नहीं होतीं अर्थात् श्रेष्ठ-सभ्य व्यक्ति इनके द्वारा तो अवश्य ही सत्कार करते हैं। श्रेष्ठ जन वही हैं जिनके घर में अतिथियों का कम से कम आसन, जल, वाणी द्वारा सत्कार किया जाता है॥१०१॥ 


अतिथि का लक्षण―


एकरात्रं तु निवसन्नतिथिर्ब्राह्मणः स्मृतः। 

अनित्यं हि स्थितो यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते॥१०२॥ (७१)


जो एक ही रात्रि तक पराये घर में रहे तो वह विद्वान् व्यक्ति अतिथि कहा गया है क्योंकि जिस कारण से वह थोड़े समय के लिए ठहरता है अथवा जिसका आना अनिश्चित होत है, इसी कारण उसे अतिथि कहा जाता है॥१०२॥


अतिथि कौन नहीं होते―


नैकग्रामीणमतिथिं विप्रं साङ्गतिकं तथा। 

उपस्थितं गृहे विद्याद्भार्या यत्राग्नयोऽपि वा॥१०३॥ (७२)


जिसके घर में पत्नी हो और पंचयज्ञों की अग्नि जहाँ प्रज्वलित रहती हो अथवा जहाँ पाकाग्नि प्रज्वलित होती हो ऐसे घर में एक गांव में रहनेवाला तथा साथ रहा मित्र विद्वान् यदि घर में आया हुआ हो तो उसे अतिथि के रूप में न समझें॥१०३॥ 


उपासते ये गृहस्थाः परपाकमबुद्धयः। 

तेन ते प्रेत्य पशुतां व्रजन्त्यन्नादिदायिनाम्॥१०४॥ (७३)


जो गृहस्थ दूसरों के घर बने भोजन को पाने-खाने की प्रवृत्ति रखकर उनके घर जाते रहते हैं वे बुद्धिहीन उस परभोजन के लोभ के संस्कारों के कारण पुनर्जन्मों में अन्न-भोजन देने वालों के पशु बनते हैं अर्थात् जन्मान्तर में वे पशुजन्म पाते हैं और दूसरों के दिये खाद्य पर निर्भर रहते हैं॥१०४॥


घर से अतिथि को न लौटाये―


अप्रणोद्योऽतिथिः सायं सूर्योढो गृहमेधिना। 

काले प्राप्तस्त्वकाले वा नास्यानश्नन्गृहे वसेत्॥१०५॥ (७४)


गृहस्थ को चाहिए कि सायंकाल सूर्य अस्त होने के बाद आये हुए किसी भी अतिथि को वापिस न लौटाये और चाहे कोई भोजन के समय पर आये अथवा असमय पर आये किन्तु किसी गृहस्थ के घर में कोई अतिथि बिना भोजन के नहीं रहना चाहिए॥१०५॥ 


अतिथिपूजन सुख-आयु-यशोदायक―


न वै स्वयं तदश्नीयादतिथिं यन्न भोजयेत्। 

धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं वाऽतिथिपूजनम्॥१०६॥ (७५)


जिस पदार्थ को अतिथि को नहीं खिलावे उसे गृहस्थ स्वयं भी न खावे, अभिप्राय यह है कि जैसा स्वयं भोजन करे वैसा ही अतिथि को भी दे अतिथि का सत्कार करना सौभाग्य, यश, आयु और सुख को देने और बढ़ाने वाला है॥१०६॥


आसनावसथौ शय्यामनुव्रज्यामुपासनाम्। 

उत्तमेषूत्तमं कुर्याद्धीने हीनं समे समम्॥१०७॥ (७६)


अतिथि के आसन और निवास शय्या, सेवा-टहल, समीप बैठना आदि अपने से उत्तम गुण वालों में उत्तम स्तर के समान गुण वालों में समान स्तर के हीन गुण वालों में हीन स्तर के अर्थात् यथायोग्य करे॥१०७॥


दोबारा भोजन पकाने पर बलियज्ञ नहीं―


वैश्वदेवे तु निर्वृत्ते यद्यन्योऽतिथिराव्रजेत्। 

तस्याप्यन्नं यथाशक्ति प्रदद्यान्न बलिं हरेत्॥१०८॥ (७७)


एक बार वैश्वदेव यज्ञ के सम्पन्न होने पर अर्थात् भोजन बन जाने और उसकी पकाशाला में आहुतियां दे देने के पश्चात् भी यदि कोई और अतिथि आ जाये तो उसको भी यथाशक्ति भोजन कराये किन्तु दोबारा भोजन बनाने के बाद उससे बलिभाग=बलिवैश्वदेव यज्ञ के भाग नहीं निकाले॥१०८॥ 


अतिथि सत्कार-विषयक नियम―


न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्। 

भोजनार्थं हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः॥१०९॥ (७८)


विद्वान् द्विज अच्छा भोजन पाने के लिए अपने कुल और गोत्र की दुहाई न दे अर्थात् अपने बड़े कुल या प्रतिष्ठित वंश की प्रशंसा करके अच्छा भोजन पाने की प्रवृत्ति प्रकट न करे क्योंकि भोजन पाने के लिए अपने कुल-गोत्रों की प्रशंसा करने वाला व्यक्ति विद्वानों द्वारा 'उगलकर खाने वाला' इस निन्दित विशेषण से सम्बोधित किया जाता है॥१०९॥


अतिथियों से भिन्न व्यक्ति को भोजन कराना―


इतरानपि सख्यादीन्सम्प्रीत्या गृहमागतान्। 

सत्कृत्यान्नं यथाशक्ति भोजयेत्सह भार्यया॥११३॥ (७९)


पूर्वोक्त अतिथियों के अतिरिक्त पत्नी के साथ घर में आये अन्य मित्र आदि को भी सत्कारपूर्वक प्रीतिपूर्वक अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन करावे॥११३॥


अतिथि से पहले किन को भोजन दें―


सुवासिनी: कुमारीश्च रोगिणी गर्भिणीः स्त्रियः। 

अतिथिभ्योऽग्र एवेतान्भोजयेदविचारयन्॥११४॥ (८०)


नव विवाहिताएँ और अल्पवयस्क कन्याएँ रोगी गर्भवती स्त्रियाँ इन्हें अतिथियों से पहले ही बिना किसी शंका के अर्थात् बड़े-छोटे को पहले-पीछे भोजन कराने का विचार किये बिना खिला दे॥११४॥


गृहस्थ दम्पती को सबके बाद भोजन करना और यज्ञशेष भोजन करना―


भुक्तवत्स्वथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि। 

भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्टं तु दम्पती॥११६॥ (८१)


पहले विद्वान् अतिथियों द्वारा भोजन कर लेने पर और पहले अपने सेवकों आदि के भी खा लेने पर उसके बाद शेष बचे भोजन को पति-पत्नी खायें॥११६॥


देवानृषीन् मनुष्यांश्च पितॄन् गृह्याश्च देवताः। 

पूजयित्वा तत: पश्चाद् गृहस्थः शेषभुग्भवेत्॥११७॥ (८२)


दिव्यगुण वाले अग्नि आदि जड़देवताओं को अग्निहोत्र से विद्या के प्रत्यक्ष कर्त्ता मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषियों को ब्रह्मयज्ञ से साधारण मनुष्यों को अतिथियज्ञ से और जीवित माता-पिता आदि पालक व्यक्तियों को पितृयज्ञ से तथा ईश्वरीय दिव्यगुणों के स्मरणपूर्वक पाकशाला में आहुति देकर और गृहस्थ द्वारा भरण-पोषण की अपेक्षा रखने वाले भिक्षार्थी, असहाय, अनाथ, कुष्ठी, जीव-जन्तु आदि को बलिवैश्वदेव यज्ञ से भोजन-दान द्वारा सत्कृत करके और उनका भाग निकालकर उसके बाद गृहस्थ इनसे शेष बचे भोजन को खाने वाला हो अर्थात् पांच महायज्ञों से शेष भोजन को खाया करे॥११७॥


अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात्।

यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते॥११८॥ (८३)


जो व्यक्ति केवल अपना पेट भरने के लिए ही भोजन पकाता है वह केवल पाप को खाता है अर्थात् इस प्रवृत्ति से परिवार और समाज में स्वार्थ, लोभ आदि की पाप भावना ही बढ़ती है क्योंकि यह उपर्युक्त यज्ञों पांच यज्ञों के करने के बाद शेष बचा भोजन ही श्रेष्ठों, सज्जनों का भोजन माना गया है। इसके विपरीत बिना यज्ञ का भोजन असत्पुरुषों का भोजन है॥११८॥


गृहस्थ के लिए दो ही प्रकार के भोजनों का विधान―


विघसाशी भवेन्नित्यं नित्यं वाऽमृतभोजनः। 

विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथाऽमृतम्॥२८५॥ (८४)


गृहस्थ को चाहिए कि वह प्रतिदिन 'विघस' भोजन को खाने वाला होवे अथवा 'अमृत' भोजन को खाने वाला होवे अतिथि, मित्रों आदि सभी व्यक्तियों के खा लेने पर बचे भोजन को 'विघस' कहा जाता है तथा यज्ञ में आहुति देने के बाद बचा भोजन 'अमृत' कहलाता है॥२८५॥


उपसंहार―


एतद्वोऽभिहितं सर्वं विधानं पाञ्चयज्ञिकम्। 

द्विजातिमुख्यवृत्तीनां विधानं श्रूयतामिति॥२८६॥ (८५)


यह तुम्हें पञ्चयज्ञसम्बन्धी सम्पूर्ण विधान कहा है। अब आगे द्विजातियों=ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य की प्रमुख आजीविका और जीवनचर्या के विधान को सुनो―॥२८६॥


इति महर्षि-मनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्य-समन्वितायाम् 'अनुशीलन-समीक्षा-विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ गृहस्थाश्रमे समानवर्तन-विवाह-पञ्चयज्ञविधानात्मकस्तृतीयोऽध्यायः॥





अथ तृतीयोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(समावर्तन, विवाह एवं पञ्चयज्ञविधान-विषय)


(समावर्त्तन ३.१ से ३.३ तक)


ब्रह्मचर्य और वेदाध्ययन काल की अवधि―


षट्त्रिंशदाब्दिकं चर्यं गुरौ त्रैवेदिकं व्रतम्। 

तदर्धिकं पादिकं वा ग्रहणान्तिकमेव वा॥१॥ (१)


(गुरौ) गुरु के समीप रहते हुए ब्रह्मचारी को (त्रैवेदिकं व्रतम्) ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद नामक तीन वेदों (१.२३, १२.११२) के सांगोपांग अध्ययन सम्बन्धी व्रत का (षट्त्रिंशद्+आब्दिकम्) गुरुकुल में प्रवेश के बाद [२.३६-३८] छत्तीस वर्ष पर्यन्त या (तत्+अर्धिकम्) उस से आधे अर्थात् अठारह वर्ष पर्यन्त (वा) अथवा (पादिकम्) उन छत्तीस के चौथे भाग अर्थात् नौ वर्ष पर्यन्त (वा) अथवा (ग्रहण+अन्तिकम्+एव) जब तक अभीष्ट विद्या पूर्ण न हो जाये तब तक (चर्यम्) पालन करना चाहिए॥१॥


समावर्तन कब करे―


वेदानधीत्य वेदौ वा वेदं वाऽपि यथाक्रमम्।

अविप्लुतब्रह्मचर्यो गृहस्थाश्रममाविशेत्॥२॥ (२)


(अविप्लुत-ब्रह्मचर्यः) अखण्डित अर्थात् विधि एवं सत्यनिष्ठापूर्वक ब्रह्मचर्याश्रम का पालन किया हुआ ब्रह्मचारी (वेदान्) उक्त तीन वेदों [३.१; १.२३; १२.११२] (वा) अथवा (वेदौ) उनमें से किन्हीं दो वेदों को (वा) अथवा (वेदम् अपि) किसी एक वेद को, (यथाक्रमम् अधीत्य) अध्ययनक्रम पूर्वक अर्थात् वेदांग, शाखाग्रन्थों सहित पढ़कर उसके बाद (गृहस्थाश्रमम्+आवसेत्) गृहस्थ आश्रम में प्रवेश करे॥२॥


तं प्रतीतं स्वधर्मेण ब्रह्मदायहरं पितुः। 

स्त्रग्विणं तल्प आसीनमर्हयेत्प्रथमं गवा॥३॥ (३)


[गृहस्थाश्रम में जाने के इच्छुक ब्रह्मचारी का समावर्तन संस्कार इस प्रकार करे―] (पितुः ब्रह्मदायहरम्) पिता रूप गुरु के वेद और विद्यारूपी दायभाग को ग्रहण करने वाले ['ब्रह्मदः पिता' २.१४६] (स्वधर्मेण प्रतीतं तम्) अपने ब्रह्मचर्यव्रत और विद्या-अध्ययन रूप धर्म से प्रसिद्ध अर्थात् उसको पूर्ण कर चुके उस ब्रह्मचारी को (स्त्रग्विणम्) माला धारण किये हुए और (तल्पे+आसीनम्) आसन पर बैठे हुए को अर्थात् उसके गले में माला पहनाकर और आसन पर बैठाकर पिता व आचार्य (प्रथमं गवा) पहले गवा=गौ से प्राप्त पदार्थों से निर्मित मधुपर्क [=गोदुग्ध, दही और शहद के मेल से बना मिष्ट पदार्थ] को चटाकर (अर्हयेत्) उस ब्रह्मचारी को सत्कार करके उस गृहस्थ में जाने का अधिकार प्रदान करे, अर्थात् अनुमति प्रदान करे॥३॥


(विवाह-विषय ३.४ से ३.६६ तक)


गुरु की आज्ञा से विवाह―


गुरुणानुमतः स्नात्वा समावृत्तो यथाविधि। 

उद्वहेत द्विजो भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्॥४॥ (४)


इस प्रकार (गुरुणा+अनुमतः द्विजः) गुरु से अनुमति प्राप्त द्विज स्नातक (यथाविधि स्नात्वा) निर्धारित विधि के अनुसार ब्रह्मचर्य पूर्ण होने का प्रतीक समावर्तन संस्कार कराके (समावृत्तः) घर लौटकर (सवर्णां लक्षण+अन्विताम् भार्यां उद्वहेत) अपने वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त कर सवर्णा बनी, उत्तम गुणों से युक्त भार्या='भरण-पोषण की जा सकने योग्य एक ही स्त्री' से विवाह करे॥४॥


विवाह-योग्य कन्या चारों वर्णों के लिए―


असपिण्डा च या मातुरसगोत्रा च या पितुः। 

सा प्रशस्ता द्विजातीनां दारकर्मणि मैथुने॥५॥ (५)


(या मातुः असपिण्डा) जो कन्या, वर की माता से लेकर उसकी पिछली छह पीढ़ियों के अन्दर न हो (च) और (या पितुः असगोत्रा) जो वर के पिता के गोत्र की न हो (सा) वह कन्या (द्विजातीनां दारकर्माणि) द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य जनों के और चारों वर्णों के विवाह-विधान में पठित होने से [३.२०] शूद्र वर्ण के जनों के विवाह कर्म में भी पत्नी बनाने के लिए तथा (मैथुने) रतिकर्म और सन्तानोत्पत्ति के लिए (प्रशस्ता) अति उत्तम मानी गयी है॥५॥


विवाह के त्याज्य कुल―


महान्त्यपि समृद्धानि गोऽजाविधनधान्यतः। 

स्त्रीसम्बन्धे दशैतानि कुलानि परिवर्जयेत्॥६॥ (६)


(गो+अजा+अवि+धन+धान्यतः समृद्धानि) गाय, बकरी, भेड़, धन, अन्न आदि से सम्पन्न और (महान्ति+अपि) बड़े से बड़े भी हों तो भी (एतानि दश कुलानि) आगे के श्लोक में वर्णित दश कुलों को (स्त्रीसम्बन्धे परिवर्जयेत्) विवाह का सम्बन्ध करते समय दोनों ओर से छोड़ देवे॥६॥


हीनक्रियं निष्पुरुषं निश्छन्दो रोमशार्शसम्। 

क्षय्यामयाव्यपस्मारिश्वित्रिकुष्ठिकुलानि च॥७॥ (७)


[वे दश कुल हैं―] (हीनक्रियम्) १. जिस कुल में हीन कर्म=शास्त्रविरुद्ध कर्म किये जाते हैं, (निष्पुरुषम्) २. उत्तम पुरुषों से रहित (निश्छन्दः) ३. वेदादि के अध्ययन से रहित, (रोमश+अर्शसम्) ४. शरीर पर बड़े-बड़े लोम हों, ५. असाध्य बवासीर का रोग वंशागत हो, (क्षयी+आमयावी+अपस्मारि+ श्वित्रि-कुष्ठि-कुलानि) ६-९. असाध्य क्षयरोग, मन्दाग्नि, मृगी, श्वेतकुष्ठ और १०. गलित कुष्ठ ये रोग जिस कुल में आनुवंशिक हों उस कन्याकुल को (च) और वर कुल को छोड़ देवे॥७॥


विवाह में अप्रशस्त कन्याएँ―


नोद्वहेत्कपिलां कन्यां नाऽधिकाङ्गीं न रोगिणीम्। 

नालोमिकां नातिलोमां न वाचाटां न पिङ्गलाम्॥८॥


नर्क्षवृक्षनदीनाम्नीं नान्त्यपर्वतनामिकाम्। 

न पक्ष्यहिप्रेष्यनाम्नीं न च भीषणनामिकाम्॥९॥ (८,९)


(न कपिलां कन्याम्) किसी रोग के कारण जो अत्यधिक भूरे रंग की अर्थात् श्वेतकुष्ठ के समान वर्णवाली न हो, (न+अधिक+अंगीम्) न अधिक अंगों वाली=पुरुष की तुलना में असन्तुलित विशाल शरीर वाली, (न रोगिणीम्) न सदा रोगी रहने वाली, (न+अलोमिकाम्) न नितान्त रोमरहित, (न+अतिलोमाम्) न शरीर पर बड़े-बड़े रोम वाली, (न वाचाटाम्) न अनाप-शनाप या अमर्यादित बोलने वाली (न पिङ्गलाम्) किसी रोग के कारण न पीले रंग वाली (कन्याम्) कन्या को विवाह के लिए स्वीकार करें॥८॥ 


(न ऋक्ष+वृक्ष-नदी-नाम्नीम्) न नक्षत्र, वृक्ष, नदी नामवाली (न+अन्त्य-पर्वत-नामिकाम्) न म्लेच्छ-भाषा के और न पर्वतवाची नाम वाली, (न पक्षी+अहि-प्रेष्य-नाम्नीम्) न पक्षी, सांप, अधीनवाचक के नाम वाली, (च) और (न भीषणनामिकाम्) न भयंकर नामवाली कन्या से विवाह करे, ये विवाह में अप्रशस्त=अप्रशंसनीय हैं॥९॥


अव्यङ्गाङ्गीं सौम्यनाम्नीं हंसवारणगामिनीम्।

तनुलोमकेशदशनां मृद्वङ्गीमुद्वहेत्स्त्रियम्॥१०॥ (१०)


(अव्यङ्ग+अङ्गीम्) दोषरहित अंगों वाली अर्थात् जो गूंगी, बहरी, लूली, लंगड़ी आदि विकलांग न हो, (सौम्यनाम्नीम्) कोमल-मधुर नाम वाली [२.३३] (हंस-वारण-गामिनीम्) हंसिनी और हथिनी के समान सभ्य चाल वाली (तनुलोम-केश-दशनाम्) अल्प रोम, कोमल केश और छोटे दांतों वाली (मृदु+अङ्गीम्) कोमल अंगों वाली (स्त्रियम् उदवहेत्) कन्या से विवाह करना चाहिए। ऐसी कन्या से विवाह प्रशस्त=प्रशंसनीय है॥१०॥


आठ प्रकार के प्रचलित विवाह और उनकी विधि―


चतुर्णामपि वर्णानां प्रेत्य चेह हिताहितान्। 

अष्टाविमान्समासेन स्त्रीविवाहान्निबोधत॥२०॥ (११)


(चतुर्णाम्+अपि वर्णानाम्) चारों वर्णों अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र का (प्रेत्य च+इह हित+अहितान्) परलोक में और इस लोक में हित करने वाले [३.३९-४०] और अहित करने वाले [३.४१-४२] (इमान् अष्टौ स्त्रीविवाहान्) इन आगे वर्णित स्त्रियों के साथ सम्पन्न होनेवाले आठ प्रकार के विवाहों को (समासेन) संक्षेप से (निबोधत) जानो, सुनो॥२०॥


ब्राह्मो दैवस्तथैवार्षः प्राजापत्यस्तथाऽऽसुरः। 

गान्धर्वो राक्षसश्चैव पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥२१॥ (१२)


वे आठ विवाह हैं―(ब्राह्मः) ब्राह्मविवाह, (दैवः) दैव (तथैव-आर्षः) तथा आर्ष (प्राजापत्यः) प्राजापत्य (तथा) और (आसुरः गान्धर्वः राक्षसः च अष्टमः+अधमः+पैशाचः) आसुर, गान्धर्व, राक्षस और आठवां सबसे निकृष्ट पैशाच है॥२१॥


ब्राह्म अर्थात् स्वयंवर विवाह का लक्षण―


आच्छाद्य चार्चयित्वा च श्रुतिशीलवते स्वयम्।

आहूय दानं कन्याया ब्राह्मो धर्मः प्रकीर्तितः॥२७॥ (१३)


(श्रुति-शीलवते) वेदों के विद्वान् और उत्तम स्वभाव के सदाचारी वर को (स्वयम् आहूय) कन्या की सहमति से विवाह के लिए अपने यहाँ निमन्त्रित करके, माता-पिता द्वारा (आच्छाद्य च अर्चयित्वा) कन्या को वस्त्र-आभूषण आदि से अलंकृत करके सत्कारपूर्वक [द्रष्टव्य ३.२८, ५५, ५९] (कन्याया दानम्) विवाह संस्कार पूर्वक कन्या प्रदान करना, (ब्राह्मः धर्मः प्रकीर्तितः) 'ब्राह्म विवाह' की विधि कही गयी है॥२७॥


दैवविवाह का लक्षण―


यज्ञे तु वितते सम्यग्-ऋत्विजे कर्म कुर्वते।

अलंकृत्य सुतादानं दैवं धर्मं प्रचक्षते॥२८॥ (१४)


(यज्ञे तु वितते) विवाह के उपलक्ष्य में बृहद् यज्ञसमारोह का आयोजन कर उसमें (सम्यक् कर्म कुर्वते) विधिपूर्वक यज्ञसम्बन्धी कर्म करने वाले (ऋत्विजे) यज्ञकर्त्ता वर को अर्थात् बृहद् यज्ञानुष्ठान में यज्ञविधि में भाग लेने वाले वर को, (अलंकृत्य) कन्या को वस्त्र-आभूषणों से सुशोभित करके [३.५५.५९] माता-पिता द्वारा (सुतादानम्) विवाह संस्कार पूर्वक कन्या दान करना, (दैवं धर्मं प्रचक्षते) 'दैव विवाह' की विधि कही गयी है॥२८॥


आर्षविवाह का लक्षण―


एकं गोमिथुनं द्वे वा वरादादाय धर्मतः। 

कन्याप्रदानं विधिवदार्षो धर्मः स उच्यते॥२९॥ (१५)


जो (वरात्) वर से (धर्मतः) विधि-अनुसार (एकं गोमिथुनं वा द्वे) एक गाय-बैल का जोड़ा अथवा दो जोड़े (आदाय) लेकर (विधिवत् कन्या प्रदानम्) विधि अनुसार अर्थात् विवाह संस्कार-यज्ञादिपूर्वक कन्या को प्रदान करना है (सः) वह (आर्षः धर्मः उच्यते) 'आर्षविवाह' कहलाता है॥२९॥


प्राजापत्य विवाह का लक्षण―


सहोभौ चरतां धर्ममिति वाचाऽनुभाष्य च।

कन्याप्रदानमभ्यर्च्य प्राजापत्यो विधिः स्मृतः॥३०॥ (१६)


(च) और [कन्या और वर का सहमतिपूर्वक निश्चय हो जाने के उपरान्त विवाहार्थ किये संस्कार में] (उभौ सह धर्मं चरताम्) “तुम दोनों साथ मिलकर गृहस्थधर्म का पालन करो" (इति वाचा+अनुभाष्य) ऐसा वचन घोषित करके माता-पिता आदि के द्वारा (अभ्यर्च्य कन्याप्रदानम्) वस्त्र-आभूषण आदि से सत्कृत कन्या को प्रदान करना (प्राजापत्य विधिः स्मृतः) 'प्राजापत्य विवाह' की विधि मानी गयी है॥३०॥


आसुर विवाह का लक्षण―


ज्ञातिभ्यो द्रविणं दत्त्वा कन्यायै चैव शक्तितः।

कन्याप्रदानं स्वाच्छन्द्यात्-आसुरो धर्म उच्यते॥३१॥ (१७) 


(ज्ञातिभ्यः च कन्यायै एव) वर के बन्धु-बान्धवों=भाई, माता-पिता, सम्बन्धियों आदि को और कन्या को भी (शक्तितः द्रविणं दत्त्वा) यथाशक्ति धन देकर (स्वाच्छन्द्यात्) माता-पिता द्वारा अपनी इच्छा से अर्थात् कन्या की इच्छा या सहमति की उपेक्षा करके (कन्याप्रदानम्) कन्या का विवाह करना (आसुरः धर्मः उच्यते) 'आसुर विवाह' की विधि कही जाती है॥३१॥


गान्धर्व विवाह का लक्षण―


इच्छयाऽन्योन्यसंयोगः कन्यायाश्च वरस्य च। 

गान्धर्वः स तु विज्ञेयः, मैथुन्यः कामसम्भवः॥३२॥ (१८)


(कन्यायाः च वरस्य) कन्या और वर का (इच्छया+अन्योन्यसंयोगः) परस्पर की इच्छा से एक-दूसरे से शारीरिक सम्बन्ध होना, (सः) वह (कामसम्भवः च मैथुन्यः) कामभाव से शारीरिक सम्बन्ध बन जाने से होने वाला विवाह (गान्धर्वः विज्ञेयः) 'गान्धर्व विवाह' समझना चाहिए॥३२॥


राक्षस विवाह का लक्षण―


हत्त्वा छित्त्वा च भित्वा च क्रोशन्तीं रुदतीं गृहात्।

प्रसह्य कन्याहरणं राक्षसो विधिरुच्यते॥३३॥ (१९)


(हत्वा छित्त्वा च भित्वा) कन्या पक्ष वालों को मारकर या घायल करके अथवा घर में तोड़-फोड़ करके (क्रोशन्तीं रुदतीम्) चिल्लाती-पुकारती, रोती हुई कन्या का (गृहात् प्रसह्य कन्याहरणम्) घर से बलात्कारपूर्वक अपहरण करके विवाह करना (राक्षसः विधिः+उच्यते) यह 'राक्षस विवाह' की विधि कही गयी है॥३३॥


पैशाच विवाह का लक्षण―


सुप्तां मत्तां प्रमत्तां वा रहो यत्रोपगच्छति। 

स पापिष्ठो विवाहानां पैशाचश्चाष्टमोऽधमः॥३४॥ (२०)


(सुप्तां मत्तां वा प्रमत्ताम्) सोती हुई, नशे से बेसुध की गई या हुई, या किसी अन्य कारण से बेसुध अथवा अपने शील की रक्षा करने में प्रमादी=असावधान कन्या को (रहः यत्र+उपगच्छति) एकान्त पाकर जो कोई शारीरिक सम्बन्ध कर लेता है, (सः) वह (विवाहानाम् अधमः च पापिष्ठः) विवाहों में निकृष्ट, महापापपूर्ण (अष्टमः पैशाचः) आठवां ‘पैशाच विवाह' है॥३४॥


प्रथम चार उत्तम विवाहों से लाभ―


ब्राह्मादिषु विवाहेषु चतुर्ष्वेवानुपूर्वशः।

ब्रह्मवर्चस्विनः पुत्रा जायन्ते शिष्टसम्मताः॥३९॥ (२१)


(अनुक्रमशः) अनुक्रम से (ब्राह्म+आदिषु चतुर्षु विवाहेषु) ब्राह्म आदि पहले चार विवाहों में [ब्राह्म, दैव, आर्ष, प्राजापत्य विवाहों में] (एव) निश्चय ही (ब्रह्मवर्चस्विनः शिष्टसम्मताः) आध्यात्मिक और वेदादि-विद्या के तेज से सम्पन्न और वेदज्ञ सदाचारी विद्वानों द्वारा प्रशंसित (पुत्राः जायन्ते) पुत्र=सन्तान उत्पन्न होते हैं॥३९॥


रूपसत्त्वगुणोपेता धनवन्तो यशस्विनः। 

पर्याप्तभोगा धर्मिष्ठा जीवन्ति च शतं समाः॥४०॥ (२२)


वे (रूप-सत्त्व-गुणोपेताः) सुन्दर रूप, बल एवं उत्तम गुणों से सम्पन्न, (धनवन्तः) धनवान्, (यशस्विनः) यशस्वी, (पर्याप्तभोगाः) बहुत भोग्य सामग्री से युक्त (धर्मिष्ठाः) धर्म में स्थित रहने वाले, (च) और (शतं समाः जीवन्ति) सौ वर्ष तक जीने वाले होते हैं॥४०॥


इतरेषु तु शिष्टेषु नृशंसानृतवादिनः।

जायन्ते दुर्विवाहेषु ब्रह्मधर्मद्विषः सुताः॥४१॥ (२३)


(शिष्टेषु इतरेषु दुर्विवाहेषु) शेष अन्य चार आसुर, गान्धर्व, राक्षस, पैशाच इन निन्द्य विवाहों में (नृशंसा-अनृतवादिनः) निन्दित और मिथ्यावादी, (ब्रह्मधर्मद्विषः) ईश्वर और वेदोक्त धर्मों से द्वेष करने वाले (सुताः जायन्ते) पुत्र अर्थात् सन्तान होते हैं॥४१॥


श्रेष्ठ विवाहों से श्रेष्ठ सन्तान, बुरों से बुरी―


अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैरनिन्द्या भवति प्रजा।

निन्दितैर्निन्दिता नॄणां तस्मान्निन्द्यान्विवर्जयेत्॥४२॥ (२४)


(अनिन्दितैः स्त्रीविवाहैः प्रजा अनिन्द्या भवति) श्रेष्ठ विवाहों=ब्राह्म, दैव, आर्ष और प्राजापत्य से सन्तान भी श्रेष्ठ गुण वाली होती है (निन्दितैः नॄणां निन्दिता) निन्दित विवाहों=आसुर, गान्धर्व, राक्षस और पैशाच से मनुष्यों की सन्तानें भी निन्दनीय कर्म करने वाली होती हैं (तस्मात्) इसलिए (निन्द्यान् विवर्जयेत्) निन्दित विवाहों को आचरण में न लावे॥४२॥


ऋतुकाल-गमन सम्बन्धी विधान―


ऋतुकालाभिगामी स्यात्स्वदारनिरतः सदा। 

पर्ववर्जं व्रजेच्चैनां तद्व्रतो रतिकाम्यया॥४५॥ (२५)


गृहस्थ (सदा ऋतुकाल+अभिगामी स्यात्) सदा ऋतुकाल में [३.४६] ही स्त्री से समागम करे, और (स्वदारनिरतः) केवल अपनी पत्नी से ही संसर्ग रखे, (रतिकाम्यया) समागम की कामना होने पर (पर्ववर्जं एनां व्रजेत्) पर्वों को छोड़कर अर्थात् ऋतुकाल में आनेवाले पौर्णमासी, अमावस्या और अष्टमी को छोड़ कर [४.१२८] शेष रात्रियों में स्त्री से समागम करे। [कामना शब्द के प्रयोग से संकेत है कि बिना दोनों की कामना के समागम वर्जित है]॥४५॥


स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल―


ऋतुः स्वाभाविकः स्त्रीणां रात्रयः षोडश स्मृताः। 

चतुर्भिरितरैः सार्धमहोभिः सद्विगर्हितैः॥४६॥ (२६)


(स्त्रीणां स्वाभाविकः ऋतुः) स्त्रियों का स्वाभाविक ऋतुकाल (षोडश रात्रयः स्मृताः) सोलह रात्रियाँ अर्थात् रजोदर्शन के दिन से लेकर सोलह रात्रि पर्यन्त माना गया है, (सद्विगर्हितैः इतरैः चतुर्भिः अहोभिः सार्धम्) उनमें सज्जनों द्वारा निन्दित अर्थात् समागम के अयोग्य जो रजोदर्शन के प्रथम चार दिन-रात हैं उनको [३.४७] साथ मिलाकर यह सोलह रात्रियों का ऋतुकाल है। [रात्रि कथन इसलिए है कि दिन में समागम वर्जित है]॥४३॥


निन्दित रात्रियाँ―


तासामाद्याश्चतस्रस्तु निन्दितैकादशी च या। 

त्रयोदशी च शेषास्तु प्रशस्ता दश रात्रयः॥४७॥ (२७)


(तासाम्+आद्याः+चतस्र+तु) पूर्व श्लोकोक्त सोलह रात्रियों में रजोदर्शन वाली पहली चार रात्रियाँ (च) और (या एकादशी) जो रजोदर्शन से ग्यारहवीं रात्रि (च) और (त्रयोदशी) तेरहवीं रात्रि (निन्दिताः) ये सब निन्दित हैं अर्थात् समागम के अयोग्य हैं। (शेषाः तु दश रात्रयः प्रशस्ताः) शेष बची दश रात्रियाँ समागम के लिए श्रेष्ठ हैं॥४७॥


पुत्र और पुत्री प्राप्त्यर्थ रात्रि की भिन्नता―


युग्मासु पुत्रा जायन्ते स्त्रियोऽयुग्मासु रात्रिषु। 

तस्माद्युग्मासु पुत्रार्थी संविशेदार्तवे स्त्रियम्॥४८॥ (२८)


(युग्मासु पुत्राः जायन्ते) युग्म अर्थात् रजोदर्शन से लेकर समसंख्या की रात्रियों―छठी, आठवीं, दशवीं, द्वादशी, चतुर्दशी, षोडशी में समागम करने से पुत्र उत्पन्न होते हैं (अयुग्मासु रात्रिषु स्त्रियः) विषम संख्या वाली अर्थात् पांचवीं, सातवीं, नवमी, पन्द्रहवीं रात्रियों में लड़की उत्पन्न होती है (तस्मात्) इसलिए (पुत्रार्थी) पुत्र की इच्छा रखने वाले पुरुष (आर्तवे युग्मासु स्त्रियं संविशेत्) ऋतुकाल में रजोदर्शन समाप्त होने पर समरात्रियों में स्त्री से समागम करें॥४८॥


पुत्र और पुत्री होने में कारण―


पुमान्पुंसोऽधिके शुक्रे स्त्री भवत्यधिके स्त्रियाः। 

समेऽपुमान्पुंस्त्रियौ वा क्षीणेऽल्पे च विपर्ययः॥४९॥ (२९)


(पुंसः+अधिके शुक्रे पुमान्) पुरुष के अधिक सामर्थ्यशाली शुक्र के होने पर पुत्र, और (स्त्रियाः अधिके स्त्री भवति) स्त्री बीज के अधिक सामर्थ्यशाली होने पर कन्या होती है। (समे+अपुमान्) समान सामर्थ्य होने पर नपुंसक (वा) अथवा (पुंस्त्रियौ) लड़का-लड़की का जोड़ा (च) और (क्षीणे अल्पे विपर्ययः) दोनों के बीज के न होने पर या अल्पसामर्थ्य वाला होने पर गर्भ नहीं ठहरता या गिर जाता है॥४९॥


संयमी गृहस्थ भी ब्रह्मचारी―


निन्द्यास्वष्टासु चान्यासु स्त्रियो रात्रिषु वर्जयन्। 

ब्रह्मचार्येव भवति यत्र तत्राश्रमे वसन्॥५०॥ (३०)


(निन्द्यासु) पूर्वोक्त निन्दित छह [३.४७] रात्रियों में (च) और (अन्यासु अष्टासु रात्रिषु) इनसे भिन्न शेष दश रात्रियों में से किन्हीं आठ रात्रियों में (स्त्रियः वर्जयन्) स्त्रियों को छोड़ने वाला अर्थात् उनसे समागम न करने वाला व्यक्ति (यत्र तत्र+आश्रमे वसन्) ब्रह्मचर्याश्रम से भिन्न अर्थात् गृहस्थाश्रम में रहते हुए भी (ब्रह्मचारी+एव भवति) ब्रह्मचारी ही होता है॥५०॥


वर से कन्या का मूल्य लेने का निषेध―


न कन्यायाः पिता विद्वान् गृह्णीयाच्छुल्कमण्वपि। 

गृह्णन्छुल्कं हि लोभेन स्यान्नरोऽपत्यविक्रयी॥५१॥ (३१)


(कन्यायाः विद्वान् पिता) कन्या के बुद्धिमान् पिता को चाहिए कि वह कन्या के विवाह में (अणु+अपि शुल्कं न गृह्णीयात्) थोड़ा-सा भी शुल्क=मोल व धन न ले (हि लोभेन शुल्कं गृह्णन्) क्योंकि लोभ में आकर शुल्क लेने पर (नरः) निश्चय ही वह मनुष्य (अपत्यविक्रयी स्यात्) 'सन्तान को बेचने वाला' कहाता है॥५१॥


स्त्रीधनानि तु ये मोहादुपजीवन्ति बान्धवाः। 

नारी यानानि वस्त्रं वा ते पापा यान्त्यधोगितम्॥५२॥ (३२)


(ये बान्धवाः) जो वर के बान्धव=पिता-माता, बहन, भाई आदि सम्बन्धी (मोहात्) लोभ या तृष्णा के वशीभूत होकर (स्त्रीधनानि) कन्याओं के धनों को (नारीयानानि वा वस्त्रम्) कन्या पक्ष की सवारी या वस्त्रों आदि को ग्रहण कर (उपजीवन्ति) उनका उपभोग करके जीते हैं (ते पापाः अधोगतिं यान्ति) वे पापी लोग नीचगति को प्राप्त होते हैं अर्थात् उनका पतन होता है॥५२॥


आर्ष-विवाह में भी गो-युगल लेने का निषेध―


आर्षे गोमिथुनं शुल्कं केचिदाहुम॒षैव तत्। 

अल्पोऽप्येवं महान्वाऽपिविक्रयस्तावदेव सः॥५३॥ (३३)


(केचित्) कुछ लोगों ने (आर्षे) आर्ष-विवाह में (गोमिथुनं शुल्कम्) बैलों के जोड़े का शुल्क रूप में लेने का (आहुः) कथन किया है (तत्) वह (मृषा+एव) अनुचित ही है, मिथ्या ही है (अपि+एवम्) क्योंकि इस प्रकार (अल्प:+अपि वा महान्) चाहे थोड़ा अथवा अधिक हो, वह धन का लेना-देना है (स: तावत्) वह निश्चय से (विक्रयः एव) कन्या को बेचना ही है॥५३॥


यासां नाददते शुल्कं ज्ञातयो न स विक्रयः।

अर्हणं तत्कुमारीणामानृशंस्यं च केवलम्॥५४॥ (३४)


(ज्ञातयः) कन्या के पिता आदि या सम्बन्धी (यासां शुल्कं न+आददते) जिन कन्याओं के विवाह के लिए वर पक्ष से शुल्क नहीं लेते अर्थात् वरपक्ष से विवाह के साथ बदले में बिना कुछ धन लिए विवाह कर देते हैं (सः विक्रयः न) इस प्रकार का विवाह 'कन्याओं को बेचना' नहीं कहलाता (तत् कुमारीणां अर्हणम्) ऐसा विवाह वास्तव में कन्याओं का पूजासत्कार अर्थात् सम्मान करना है (च) और (केवलम् आनृशंस्यम्) कन्याओं के प्रति वास्तव में स्नेह प्रदर्शित करना है॥५४॥


स्त्रियों के आदर का विधान तथा उसका फल―


पितृभिर्भ्रातृभिश्चैताः पतिभिर्देवरैस्तथा। 

पूज्या भूषयितव्याश्च बहुकल्याणमीप्सुभिः॥५५॥ (३५)


(बहुकल्याणमीप्सुभिः) अपना बहुत कल्याण चाहने वाले (पितृभिः च भ्रातृभिः) पिता-माताओं को और भाइयों को (पतिभिः तथा देवरैः) पति और पति के भाइयों को चाहिए कि (एताः) इन स्त्रियों के अर्थात् पुत्री, बहन, पत्नी, भाभी आदि को (पूज्याः च भूषयितव्याः) आदर-सत्कार दें और वस्त्र-आभूषण आदि से सुभूषित रखें॥५५॥


स्त्रियों का आदर करने से दिव्य लाभों की प्राप्ति―


यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवताः। 

यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राऽफला: क्रियाः॥५६॥ (३६)


(यत्र नार्यः पूज्यन्ते) जिस कुल में नारियों की पूजा अर्थात् आदर-सत्कार होता है (तु) निश्चय ही (तत्र) उस कुल में (देवताः रमन्ते) दिव्य सन्तान, दिव्य गुण, दिव्यभोग प्राप्त होते हैं, (यत्र एताः+तु न पूज्यन्ते) जहाँ इनका आदर-सत्कार नहीं होता अर्थात् अनादर और उत्पीड़न होता है (तत्र) उस कुल में (सर्वाः क्रियाः अफलाः) गृहस्थ-सम्बन्धी सब क्रियाएँ निष्फल रहती हैं अर्थात् स्त्रियों की प्रसन्नता और सम्मान के बिना गृहस्थ में गुणी सन्तान, सुख-शान्ति, सफलता, उन्नति नहीं हो पाती॥५६॥


स्त्रियों के शोकग्रस्त रहने से परिवार का विनाश―


शोचन्ति जामयो यत्र विनश्यत्याशु तत्कुलम्। 

न शोचन्ति तु यत्रैता वर्धते तद्धि सर्वदा॥५७॥ (३७)


(यत्र) जिस कुल में (जामयः) स्त्रियाँ (शोचन्ति) अपने-अपने पुरुषों के उत्पीड़न, वेश्यागमन, अत्याचार, दुर्व्यवहार वा व्यभिचार आदि दोषों से शोकातुर रहती हैं (तत्कुलम् आशु विनश्यति) वह कुल शीघ्र नाश को प्राप्त हो जाता है (तु) और (यत्र एताः न शोचन्ति) जिस कुल में स्त्रीजन पुरुषों के उत्तम आचरणों से प्रसन्न रहती हैं (तत्+हि सर्वदा वर्धते) वह कुल सर्वदा बढ़ता रहता है।


जामयो यानि गेहानि शपन्त्यप्रतिपूजिताः। 

तानि कृत्याहतानीव विनश्यन्ति समन्ततः॥५८॥ (३८)


(अप्रतिपूजिता: जामयः) परिवार में असत्कृत अर्थात् निरादर और तिरस्कार प्राप्त करने वाली स्त्रियाँ (यानि गेहानि शपन्ति) जिन घरों को शाप देती हैं अर्थात् क्रोधित होकर कोसती हैं और अनिष्ट करने को उद्यत हो जाती हैं तब (तानि) वे कुल (समन्ततः) सभी प्रकार से (कृत्या हतानि+इव विनश्यन्ति) सामूहिक विनाश करने वाली भयंकर दुर्घटना से जैसे सब एक साथ नष्ट हो जाते हैं, ऐसे वे कुल भी नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं॥५८॥


तस्मादेताः सदा पूज्या: भूषणाच्छादनाशनैः।

भूतिकामैर्नरैर्नित्यं सत्कारेषूत्सवेषु च॥५९॥ (३९)


(तस्मात्) इस कारण से (नित्यं भूतिकामैः नरैः) अपनी नित्य समृद्धि-सफलता चाहने वाले मनुष्यों को (सत्कारेषु च उत्सवेषु) सत्कार के अवसरों पर और उत्सवों=प्रसन्नता आदि के अवसरों पर (एताः) स्त्रियों का (भूषण+आच्छादन+अशनैः) आभूषण, वस्त्र, खान-पान आदि से (सदा पूज्याः) सदा आदर-सत्कार करना चाहिए अर्थात् उन्हें प्रसन्न-सन्तुष्ट रखना चाहिए॥५९॥


पति-पत्नी की परस्पर सन्तुष्टि से परिवार का कल्याण―


सन्तुष्टो भार्यया भर्त्ता भर्त्रा भार्या तथैव च। 

यस्मिन्नेव कुले नित्यं कल्याणं तत्र वै ध्रुवम्॥६०॥ (४०)


(यस्मिन् कुले नित्यम्) जिस कुल में निरन्तर (भार्यया भर्त्ता सन्तुष्टः) पत्नी के व्यवहार से पति सन्तुष्ट रहता है (च) और (तथैव) उसी प्रकार (भर्त्रा भार्या) पति के व्यवहार से पत्नी सन्तुष्ट रहती है (तत्र वै) उसी कुल का (कल्याणं ध्रुवम्) कल्याण निश्चित होता है॥६०॥


पति-पत्नी में पारस्परिक अप्रसन्नता से सन्तान न होना―


यदि हि स्त्री न रोचेत पुमांसं न प्रमोदयेत्। 

अप्रमोदात्पुनः पुंसः प्रजनं न प्रवर्त्तते॥६१॥ (४१)


[यह मनोवैज्ञानिक और शारीरिक सत्य है कि] (हि) निश्चय ही (यदि स्त्री न रोचेत) यदि स्त्री सन्तुष्ट-प्रसन्न [३.६२] न रहे तो (पुमांसं न प्रमोदयेत्) वह पुरुष को भी सन्तुष्ट-प्रसन्न नहीं रख सकती, (पुनः) परिणामस्वरूप (पुंसः अप्रमोदात्) पुरुष की असंतुष्टि से कामोत्पत्ति न होने से (प्रजनं न प्रवर्तते) प्रजनन क्रिया में प्रवृत्ति नहीं होती और उससे सन्तान नहीं होती, अथवा स्वस्थ श्रेष्ठ सन्तान नहीं होती, अतः स्त्री की प्रसन्नता प्रथमतः आवश्यक है॥६१॥


स्त्री की प्रसन्नता पर कुलों में प्रसन्नता―


स्त्रियां तु रोचमानायां सर्वं तद्रोचते कुलम्। 

तस्यां त्वरोचमानायां सर्वमेव न रोचते॥६२॥ (४२)


(स्त्रियां तु रोचमानायाम्) स्त्री की प्रसन्नता से (तत् सर्वं कुलं रोचते) उस सम्पूर्ण कुल में प्रसन्नता आ जाती है, (तस्यां तु अरोचमानायाम्) स्त्री के अप्रसन्न या शोकग्रस्त होने पर (सर्वमेव न रोचते) घर में कुछ भी प्रसन्नतादायक नहीं लगता अर्थात् परिवार में प्रसन्नता का वातावरण स्त्री की प्रसन्नता पर ही निर्भर करता है॥६२॥


(पञ्चमहायज्ञ-विषय)


[३.६७ से ३.२८६ तक] 


पञ्चमहायज्ञों का विधान―


वैवाहिकेऽग्नौ कुर्वीत गृह्यं कर्म यथाविधि। पञ्चयज्ञविधानं च पक्तिं चान्वाहिकीं गृही॥६७॥ (४३)


(गृही) गृहस्थ पुरुष (वैवाहिके अग्नौ) विवाह के समय प्रज्वलित की जाने वाली अग्नि में (गृह्यं कर्म यथाविधि) अग्नि से सिद्ध किये जाने वाले गृहस्थ के सभी कर्त्तव्यों को [जैसे पाचन, पाक्षिक याजन आदि] उचित विधि के अनुसार (कुर्वीत) करे (च) और (पञ्चयज्ञविधानम्) होम, दैव आदि [३.७०] पांचों महायज्ञों को (च) तथा (आन्वाहिकीं पक्तिम्) प्रतिदिन का भोजन पकाना भी करे॥६७॥ 


पञ्चमहायज्ञों के अनुष्ठान का कारण―


पञ्च सूना गृहस्थस्य चुल्ली पेषण्युपस्करः। 

कण्डनी चोदकुम्भश्च बध्यते यास्तु वाहयन्॥६८॥ (४४)


(चुल्ली) चूल्हा (पेषणी) चक्की (उपस्करः) झाड़ू (कण्डनी) ओखली (च) तथा (उदकुम्भः) पानी का घड़ा (गृहस्थस्य पञ्च सूनाः) गृहस्थियों के ये पांच हिंसा-संभावित स्थान हैं (याः तु वाहयन्) जिनको प्रयोग में लाते हुए गृहस्थ व्यक्ति (बध्यते) हिंसा होने से उस विषयक पापों से बंध जाता है॥६८॥


तासां क्रमेण सर्वासां निष्कृत्यर्थं महर्षिभिः।

पञ्च क्लृप्ता महायज्ञाः प्रत्यहं गृहमेधिनाम्॥६९॥ (४५)


(क्रमेण) क्रम से (तासां सर्वासां निष्कृत्यर्थम्) उन सब [३.६८] हिंसा दोषों की निवृत्ति या परिशोधन के लिए (गृहमेधिनां प्रत्यहम्) गृहस्थ लोगों के प्रतिदिन करने के लिए (महर्षिभिः पञ्चमहायज्ञाः क्लृप्ताः) महर्षियों ने पांच महायज्ञों का विधान किया है॥६९॥


पञ्चमहायज्ञों के नाम एवं नामान्तर―


अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः पितृयज्ञस्तु तर्पणम्। 

होमो दैवो बलिर्भौतो नृयज्ञोऽतिथिपूजनम्॥७०॥ (४६)


(अध्यापनं ब्रह्मयज्ञः) वेद-शास्त्रों का पढ़ना-पढाना, सन्ध्योपासन करना [सावित्रीमप्यधीयीत २.७९ (२.१०४)] 'ब्रह्मयज्ञ' कहलाता है (तु) और (तर्पणं पितृयज्ञः) माता-पिता आदि की सेवा-सुश्रूषा तथा भोजन आदि से तृप्ति करना 'पितृयज्ञ' है (होमः दैवः) सायं-प्रातः हवन करना 'देवयज्ञ' है (बलिः भौतः) कीटों, पक्षियों, कुत्तों और कुष्ठी व्यक्तियों आदि को भोजन का भाग बचाकर देना 'भूतयज्ञ' या 'बलिवैश्वदेवयज्ञ' कहलाता है (अतिथिपूजनम्) अतिथियों को भोजन देना और सेवा करना सत्कार करना (नृयज्ञः) 'नृयज्ञ' अथवा 'अतिथियज्ञ' कहाता है॥७०॥


पञ्चैतान्यो महायज्ञान्न हापयति शक्तितः। 

स गृहेऽपि वसन्नित्यं सूनादोषैर्न लिप्यते॥७२॥ (४७)


(यः) जो (एतान् पञ्चमहायज्ञान् शक्तितः न हापयति) इन पांच महायज्ञों को यथाशक्ति नहीं छोड़ता (सः) वह (गृहे+अपि वसन्) घर में रहकर चूल्हा जलाना आदि कार्य करते हुए भी (नित्यम्) प्रतिदिन (सूनादोषैः न लिप्यते) चुल्ली=चूल्हा आदि में हुए हिंसा के दोषों से लिप्त नहीं होता [यतो हि यज्ञों के पुण्यों की अधिकता से उनके शमन होता रहता है]॥७१॥ 


देवताऽतिथिभृत्यानां पितॄणामात्मनश्च यः। 

न निर्वपति पञ्चानामुच्छ्वसन्न स जीवति॥७२॥ (४८)


(यः) जो गृहस्थ व्यक्ति (देवता+अतिथि+भृत्यानां पितॄणां च आत्मनः पञ्चानाम्) अग्नि आदि देवताओं को [हवन के रूप में], अतिथियों को [अतिथि यज्ञ के रूप में], भरण-पोषण की अपेक्षा रखने वाले या दूसरों की सहायता पर आश्रित भिक्षार्थी आदि के लिए [भूतयज्ञ या बलिवैश्वदेव यज्ञ के रूप में], माता-पिता, पितामह आदि के लिए [पितृयज्ञ के रूप में] और अपनी आत्मा के लिए [ब्रह्मयज्ञ के रूप में] इन पांचों के लिए (न निर्वपति) उनके भागों को नहीं देता है, अर्थात् पांच दैनिक महायज्ञों को नहीं करता है (सः) वह (उच्छ्वसन् न जीवति) सांस लेते हुए भी वास्तव में नहीं जीता अर्थात् मरे हुए व्यक्ति के समान है॥७२॥


पञ्चयज्ञों के नामान्तर―


अहुतं च हुतं चैव तथा प्रहुतमेव च। 

ब्राह्मयं हुतं प्राशितं च पञ्चयज्ञान्प्रचक्षते॥७३॥ (४९)


(पञ्चयज्ञान्) इन पांच यज्ञों को (अहुतं हुतं प्रहुतं ब्राह्मयं हुतं च प्राशितं एव) 'अहुत', 'हुत', 'प्रहुत', 'ब्राह्मयहुत' और 'प्राशित' भी (प्रचक्षते) कहते हैं [तुलना-विवरण अगले श्लोक में]॥७३॥ 


जपोऽहुतो हुतो होमः प्रहुतो भौतिको बलिः। 

ब्राह्मयं हुतं द्विजाग्रयार्चा प्राशितं पितृतर्पणम्॥७४॥ (५०)


(अहुतः जपः) 'अहुत' 'जपयज्ञ' अर्थात् 'ब्रह्मयज्ञ' को कहते हैं (हुतः होमः) 'हुतः' होम अर्थात् 'देवयज्ञ' है (प्रहुतः भौतिकः बलिः) 'प्रहुत' भूतों के लिए भोजन का भाग रखना अर्थात् 'भूतयज्ञ' या 'बलिवैश्वदेवयज्ञ' है (ब्राह्मयं हुतम् द्विजाग्रयार्चा) विद्वानों की सेवा करना अर्थात् 'अतिथियज्ञ' है (प्राशितं पितृतर्पणम्) 'प्राशित' माता-पिता आदि का 'तर्पण' अर्थात् तृप्ति करना 'पितृयज्ञ' है॥७४॥ 


ब्रह्मयज्ञ एवं अग्निहोत्र का विधान―


स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दैवे चैवेह कर्मणि।

दैवकर्मणि युक्तो हि बिभर्तीदं चराचरम्॥७५॥ (५१)


(स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्) मनुष्य को चाहिए कि वह वेदादि शास्त्रों को स्वयं पढ़ने-पढ़ाने और सन्ध्योपासन अर्थात् ब्रह्मयज्ञ के अनुष्ठान में नित्य लगा रहे अर्थात् प्रतिदिन अवश्य करे (च) और (दैवे कर्मणि एव) देवकर्म अर्थात् अग्निहोत्र भी अवश्य करे (हि) क्योंकि (इह) इस संसार में रहते हुए (दैवकर्मणि युक्तः) अग्निहोत्र करनेवाला व्यक्ति (इदं चर+अचरं बिभर्ति) इस समस्त चेतन और जड़ जगत् का पालन-पोषण करता है॥७५॥


अग्निहोत्र से लाभ―


अग्नौ प्रास्ताहुतिः सम्यगादित्यमुपतिष्ठते। 

आदित्याज्जायते वृष्टिर्वृष्टेरन्नं ततः प्रजाः॥७६॥ (५२)


[वह पालन-पोषण और भला इस प्रकार होता है] (अग्नौ सम्यक् प्रास्ता+आहुतिः) अग्नि में विधिपूर्वक डाली हुई घृत आदि पदार्थों की आहुति (आदित्यम्+उपतिष्ठते) सूर्य को प्राप्त होती है―सूर्य की किरणों से वातावरण में मिलकर अपना प्रभाव डालती है, फिर (आदित्यात्+जायते वृष्टिः) सूर्य से वृष्टि होती है (वृष्टे:+अन्नम्) वृष्टि से अन्न पैदा होता है (ततः प्रजाः) उससे प्रजाओं का पालन-पोषण होता है॥७६॥


गृहस्थाश्रम की महत्ता―


यथा वायुं समाश्रित्य वर्तन्ते सर्वजन्तवः। 

तथा गृहस्थमाश्रित्य वर्तन्ते सर्व आश्रमाः॥७७॥ (५३)


(यथा वायुं समाश्रित्य) जैसे वायु का आश्रय पाकर (सर्वजन्तवः वर्तन्ते) सब प्राणी जीवित रहते हैं, उनका जीवन बना रहता है (तथा) उसी प्रकार (गृहस्थम्+आश्रित्य) गृहस्थ के आश्रय से ही (सर्वे+आश्रमाः) चारों आश्रम=ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास (वर्तन्ते) अस्तित्व में रहते हैं और निर्वाह करते हैं॥७७॥


यस्मात्त्रयोऽप्याश्रमिणो दानेनान्नेन चान्वहम्।

गृहस्थेनैव धार्यन्ते तस्माज्ज्येष्ठाश्रमो गृही॥७८॥ (५४)


(यस्मात्) जिससे (त्रयः+अपि+आश्रमिणः) तीनों ही आश्रम अर्थात् ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ और संन्यास (अन्वहम्) प्रतिदिन (अन्नेन च दानेन) अन्नदान और धन-वस्त्र आदि के दान से (गृहस्थेन+एव) गृहस्थ के द्वारा ही धारण किये जाते हैं (तस्मात्) इसलिए (गृही ज्येष्ठाश्रमः) गृहस्थ सब आश्रमों में ज्येष्ठ=बड़ा और महत्त्वपूर्ण है॥७८॥


गृहस्थ के योग्य कौन―


स संधार्यः प्रयत्नेन स्वर्गमक्षयमिच्छता।

सुखं चेहेच्छता नित्यं योऽधार्यो दुर्बलेन्द्रियैः॥७९॥ (५५)


(यः दुर्बल+इन्द्रियैः अधार्यः) जो गृहस्थ आश्रम दुर्बल इन्द्रियों या शरीर वालों द्वारा धारण करने योग्य नहीं है (सः) उसको (इह नित्यं सुखम् इच्छता) इस लोक में निरन्तर सुख की इच्छा करने वाले (च) और (अक्षयं स्वर्गम्+इच्छता) अक्षय मोक्ष सुख की इच्छा रखने वाले को (प्रयत्नेन संधार्यः) प्रयत्न करके धारण करना चाहिए॥७९॥


ऋषयः पितरो देवा भूतान्यतिथयस्तथा। 

आशासते कुटुम्बिभ्यस्तेभ्यः कार्यं विजानता॥८०॥ (५६)


(ऋषयः पितरः देवा: भूतानि तथा अतिथयः) ऋषि-मुनि लोग, माता-पिता, चेतन-जड़ आदि देवता, भृत्य तथा कुष्ठी आदि प्राणी और अतिथि लोग (कुटुम्बिभ्यः आशासते) गृहस्थों से ही आशा रखते हैं अर्थात् सहायता, वातावरण शुद्धि की अपेक्षा रखते हैं, अतः (विजानता तेभ्यः कार्यम्) अपने गृहस्थ-सम्बन्धी कर्त्तव्यों को समझने वाले व्यक्ति को चाहिए कि वह इनके लिए अपने आगे वर्णित कर्त्तव्य का पालन करे॥८०॥


पञ्चयज्ञों के मुख्य कर्म―


स्वाध्यायेनार्चयेतर्षीन् होमैर्देवान् यथाविधि।

पितॄन् श्राद्धैश्च नॄनन्नैर्भूतानि बलिकर्मणा॥८१॥ (५७)


गृहस्थ (यथाविधि) निर्धारित विधि के अनुसार (स्वाध्यायेन ऋषीन् अर्चयेत्) स्वाध्याय अर्थात् ईश्वरोपासना, वेदाध्ययन-अध्यापन से ऋषियों का सत्कार करे=कृतज्ञता प्रकट करे, (होमैः+देवान्) अग्निहोत्र से अग्नि, वायु आदि देवों की शुद्धि करे, (पितॄन् श्राद्धैः) माता-पिता-दादा आदि पितरों को श्रद्धापूर्वक अन्न-वस्त्र आदि दान से और सेवा से सन्तुष्ट करे (नॄन्+अन्नैः) अतिथियों को अन्न-पान देकर सन्तुष्ट करे (बलिकर्मणा भूतानि) वैश्वदेव यज्ञ में बलि भाग निकालकर शेष सभी प्राणियों का उपकार करे॥८१॥


पितृयज्ञ का विधान―


कुर्यादहरहः श्राद्धमन्नाद्येनोदकेन वा। 

पयोमूलफलैर्वाऽपि पितृभ्यः प्रीतिमावहन्॥८२॥ (५८)


गृहस्थ व्यक्ति (अन्नाद्येन वा उदकेन अपि वा पयः+मूल+फलैः) अन्न आदि भोज्य पदार्थों से और जल, दूध, कन्दमूल, फल आदि से (पितृभ्यः प्रीतिम् आवहन्) माता-पिता, पितामही-पितामह आदि बुजुर्गों से अत्यन्त प्रेम प्रदर्शित करते हुए (अहः+अहः श्राद्धं कुर्यात्) प्रतिदिन श्राद्ध=श्रद्धा से किये जाने वाले सेवा-सुश्रूषा, भोजन देना आदि कर्त्तव्य-पालन करे॥८२॥


बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान―


वैश्वदेवस्य सिद्धस्य गृह्येऽग्नौ विधिपूर्वकम्। 

आभ्यः कुर्याद्देवताभ्यो ब्राह्मणो होममन्वहम्॥८४॥ (५९)


(ब्राह्मणः) ब्राह्मण अर्थात् प्रत्येक द्विज व्यक्ति (गृह्ये अग्नौ) पाकशाला की अग्नि में (विधिपूर्वकम्) विधिपूर्वक (सिद्धस्य वैश्वदेवस्य) सिद्ध=तैयार हुए बलिवैश्वदेव यज्ञ के भाग वाले भोजन का (अन्वहम्) प्रतिदिन (आभ्यः देवताभ्यः होमं कुर्यात्) इन देवताओं=ईश्वरीय दिव्यगुणों के चिन्तनपूर्वक आहुति देकर हवन करे॥८४॥


अग्नेः सोमस्य चैवादौ तयोश्चैव समस्तयोः। 

विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो धन्वन्तरय एव च॥८५॥ (६०)


(आदौ) प्रथम (अग्नेः सोमस्य च एव) अग्नि=पूज्य परमेश्वर और सोम=सब पदार्थों को उत्पन्न और पुष्ट करके सुख देनेवाले 'सोमरूप' परमात्मदेव के लिए ['ओम् अग्नये स्वाहा' 'ओं सोमाय स्वाहा' इन मन्त्रों द्वारा] (च) और (तयोः समस्तयोः) उन्हीं देवों के सर्वत्र व्याप्त रूपों के लिए संयुक्त रूप में ['ओम् अग्नीषेमाभ्यां स्वाहा' इस मन्त्र के द्वारा] अग्नि=जो प्राण अर्थात् सब प्राणियों के जीवन का हेतु है और सो=जो अपान अर्थात् दु:ख के नाश का हेतु है (च) और (विश्वेभ्यः देवेभ्यः एव) विश्वदेवों=संसार को प्रकाशित या संचालित करने वाले ईश्वरीय गुणों के लिए ['ओं विश्वेभ्यः देवेभ्यः स्वाहा' इस मन्त्र द्वारा] (च) तथा (धन्वन्तरये एव) धन्वन्तरि=जन्म-मरण आदि के अवसर पर आने वाले रोगों का नाश करने वाले ईश्वर के गुण के लिए ['ओं धन्वन्तरये स्वाहा' इस मन्त्र से] बलिवैश्वदेव यज्ञ में आहुति देवे॥८५॥ 


कुह्वै चैवानुमत्यै च प्रजापतय एव च।

सहद्यावापृथिव्योश्च तथा स्विष्टकृतेऽन्ततः॥८६॥ (६१)


(च) और (कुह्वै) अमावस्या की रचना करने वाली ईश्वरीय शक्ति अर्थात् कृष्णपक्ष को रचनेवाली परमेश्वर की शक्ति या गुण के लिए ['ओं कुह्वै स्वाहा' मन्त्र से] (च) तथा (अनुमत्यै) पूर्णिमा की रचयित्री ईश्वरीय शक्ति अर्थात् शुक्लपक्ष का निर्माण करने वाली परमेश्वर की शक्ति के लिए या परमेश्वर की चितिशक्ति के लिए ['ओं अनुमत्यै स्वाहा' मन्त्र से] (प्रजापतये एव) सब जगत् को उत्पन्न करने वाले परमेश्वर के सामर्थ्य गुण के लिए ['ओं प्रजापतये स्वाहा' मन्त्र से] (सहद्यावापृथिव्याः) ईश्वर द्वारा उत्पादित द्युलोक और पृथिवी लोक की पुष्टि के लिए ['ओं सहद्यावापृथिवीभ्यां स्वाहा' मन्त्र से] (तथा अन्ततः) और अन्त में (स्विष्टकृते) अभीष्ट सुख देने वाले ईश्वर गुण के लिए ['ओं स्विष्टकृते स्वाहा' मन्त्र से] आहुति देवे॥८६॥ 


एवं सम्यग्घविर्हुत्वा सर्वदिक्षु प्रदक्षिणम्।

इन्द्रान्तकाप्पतीन्दुभ्यः सानुगेभ्यो बलिं हरेत्॥८७॥ (६२)


(एवम्) इस प्रकार (सम्यक् हविः हुत्वा) अच्छी तरह उपर्युक्त आहुतियाँ देकर (सर्वदिक्षु प्रदक्षिणम्) सब दिशाओं में घूमकर (सानुगेभ्यः इन्द्र+अन्तकः+अप्पति+इन्दुभ्यः) परमेश्वर के सहचारी गुणों इन्द्र=सर्व प्रकार के ऐश्वर्य से युक्त होना, अन्तक=यम और न्यायकारी होना, या प्राणियों के जन्म-मरण का नियन्त्रण रखने वाला गुण, अप्पति=वरुण अर्थात् सबके द्वारा वरणीय सबसे श्रेष्ठ परमात्मा, इन्द्र=सोम अर्थात् आनन्ददायक होना इनके लिए स्मरणपूर्वक [क्रमशः ‘ओं सानुगायेन्द्राय नमः' मन्त्र से पूर्व दिशा में, ‘ओं सानुगाय यमाय नमः' से दक्षिण दिशा में, ‘ओं सानुगाय वरुणाय नमः' से पश्चिम दिशा में, ‘ओं सानुगाय सोमाय नमः' से उत्तर दिशा में] (बलिं हरेत्) लघु प्राणियों के लिए भोजन के भाग अर्थात् बलि को रखे॥८७॥ 


मरुद्भ्यः इति तु द्वारि क्षिपेदप्स्वद्भ्य इत्यपि।

वनस्पतिभ्य इत्येवं मुसलोलूखले हरेत्॥८८॥ (६३)


(मरुद्भ्यः इति तु द्वारि) मरुत्=जीवन के संचालक प्राणरूप परमात्मा के स्मरणपूर्वक ['ओं मरुद्भ्यो नमः' मन्त्र से] द्वार पर, (अद्भ्यः इति+अपि अप्सु) सर्वत्र व्याप्त और सम्पूर्ण जगत् के आश्रय रूप परमात्मा के स्मरणपूर्वक ['ओम् अद्भ्यो नमः' से], जलों में (क्षिपेत्) बलि भाग को डाले, (एवम्) इसी प्रकार (वनस्पतिभ्यः) वनस्पतियों के समीप ['ओं वनस्पतिभ्यो नमः' से], (मूसल+उलूखले) मूसल और ऊखल के समीप (हरेत्) लघुप्राणियों के लिए बलि अर्थात् भोजन के भाग रखे॥८८॥


उच्छीर्षके श्रियै कुर्याद् भद्रकाल्यै च पादतः। 

ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्यां तु वास्तुमध्ये बलिं हरेत्॥८९॥ (६४)


(श्रियै उच्छीर्षके) सबके द्वारा सेव्य परमात्मा की सेवा से राज्यश्री अथवा लक्ष्मी की प्राप्ति के लिए ['ओं श्रियै नमः' से] ईशान कोण की ओर (च) और (ओं भद्रकाल्यै पादतः) परमात्मा की कल्याणकारी शक्ति की प्राप्ति के लिए ['ओं भद्रकाल्यै नमः' से] पृष्ठभाग अर्थात् नैर्ऋत्य कोण की ओर (कुर्यात्) बलिभाग रखे (तु) और (ब्रह्मवास्तोष्पतिभ्याम्) ब्रह्म―वेदविद्या की प्राप्ति के लिए वेदविद्या के दाता परमात्मा के लिए वास्तोष्पति=गृहसम्बन्धी पदार्थों के दाता ईश्वर से सहायता के लिए ['ओं ब्रह्मपतये नमः' 'ओं वास्तुपतये नमः' इन से] (वास्तुमध्ये बलिं हरेत्) घर के मध्य-भाग में लघुप्राणियों के लिए बलि अर्थात् भोजन के भाग रखे॥८९॥ 


विश्वेभ्यश्चैव देवेभ्यो बलिमाकाश उत्क्षिपेत्।

दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यो नक्तंचारिभ्य एव च॥९०॥ (६५)


(च) और (विश्वेभ्यः देवेभ्यः) संसार के साधक गुणों की प्राप्ति के लिए संसार के संचालक परमात्मा या विद्वानों के दिव्य गुणों की प्राप्ति के लिए (आकाशे बलिम् उत्क्षिपेत्) ['ओं विश्वेभ्यः देवेभ्यः नमः' से] आकाश की ओर अर्थात् घर के ऊपर बलि=भोजन भाग रखे (च) तथा (दिवा-चरेभ्यः भूतेभ्यः) दिन में विचरण करने वाले प्राणियों के लिए ['ओं दिवाचरेभ्यो भूतेभ्यः नमः'] (नक्तंचारिभ्यः एव) और रात्रि में विचरण करने वाले प्राणियों के लिए ['ओं नक्तंचारिभ्यो भूतेभ्यो नमः' मन्त्र से] बलि=भोजन भाग रखे॥९०॥


पृष्ठवास्तुनि कुर्वीत बलिं सर्वात्मभूतये। 

पितृभ्यो बलिशेषं तु सर्वं दक्षिणतो हरेत्॥९१॥ (६६)


(सर्वात्मभूतये) सब प्राणियों में व्याप्त या आश्रयरूप परमात्मा की सत्ता को स्मरण करते हुए [ओं सर्वात्मभूतये नमः' से] (पृष्ठवास्तुनि बलिं कुर्वीत) घर के पृष्ठभाग में बलिभाग रखे (सर्वं बलिशेषं तु) शेष बलिभाग को (पितृभ्यः) माता-पिता, आचार्य, अतिथि, भृत्य आदिकों को सम्मानपूर्वक भोजन कराने के कर्त्तव्य को स्मरण करने के लिए ['ओं पितृभ्यः स्वधायिभ्यः स्वधा नमः' इस मन्त्र से] (दक्षिणतः हरेत्) घर के दक्षिण भाग में बलि=भोजन भाग रखे॥९१॥


शुनां च पतितानां च श्वपचां पापरोगिणाम्। 

वायसानां कृमीणां च शनकैर्निर्वपेद् भुवि॥९२॥ (६७)


(च) और (पतितानाम्) जीविका कमाने में असमर्थ भिखारी आदि साधनहीन के लोगों के लिए (च) और (श्वपचाम्) गृह और जीविकाहीन चांडालों के लिए (पापरोगिणाम्) पापों के फलस्वरूप असाध्य गलितकुष्ठ आदि रोगों से ग्रस्त जीविकाहीन भिखारियों के लिए (च) और (शुनां वायसानां च कृमीणां) कुत्ते आदि जानवरों, कौवे आदि पक्षियों और कीट-पतंगों के लिए (शनकैः भुवि निर्वपेत्) सावधानीपूर्वक किसी पत्तल आदि में भोजन-भाग निकाल कर भूमि पर रखले, फिर उनके आने पर उन्हें दे दे॥९२॥


अतिथियज्ञ का विधान―


कृत्वैतद् बलिकर्मैवमतिथिं पूर्वमाशयेत्। 

भिक्षां च भिक्षवे दद्याद्विधिवद् ब्रह्मचारिणे॥९४॥ (६८)


(एतत् बलिकर्म कृत्वा) उपर्युक्त [३.८४-९२] बलिवैश्वदेव यज्ञ करके (पूर्वम् अतिथिम् आशयेत्) पहले यदि कोई अतिथि घर में आया हुआ हो तो उसको भोजन खिलाये (च) तथा (भिक्षवे ब्रह्मचारिणे विधिवत् भिक्षां दद्यात्) भिक्षा के लिए आये हुए ब्रह्मचारी को विधिपूर्वक भिक्षा देवे॥९४॥


सम्प्राप्ताय त्वतिथये प्रदद्यादासनोदके।

अन्नं चैव यथाशक्ति सत्कृत्य विधिपूर्वकम्॥९९॥ (६९)


(तु) और (सम्प्राप्ताय अतिथये) आये हुए अतिथि के लिए (विधिपूर्वकं सत्कृत्य) व्यवहारोचित विधि के अनुसार सत्कार करके (यथाशक्ति) सामर्थ्य के अनुसार (आसन+उदके च अन्नम् एव) आसन और जल तथा अन्न भी (प्रदद्यात्) प्रदान करे॥९९॥


सज्जनों के घर में सत्कारार्थ सदा उपलब्ध वस्तुएँ―


तृणानि भूमिरुदकं वाक्चतुर्थी च सूनृता। 

एतान्यपि सतां गेहे नोच्छिद्यन्ते कदाचन॥१०१॥ (७०)


क्योंकि (तृणानि) बैठने के लिए तृण आदि से बने आसन (भूमिः) बैठने या सोने के लिए स्थान (उदकम्) पानी (च) और (सूनृता वाक्) सत्कारयुक्त मीठी वाणी (एतानि+अपि) सत्कार करने की ये बातें या वस्तुएँ तो (सतां गेहे) श्रेष्ठ-सभ्य व्यक्तियों के घर में (कदाचन न+उच्छिद्यन्ते) कभी भी नष्ट नहीं होतीं अर्थात् श्रेष्ठ-सभ्य व्यक्ति इनके द्वारा तो अवश्य ही सत्कार करते हैं। श्रेष्ठ जन वही हैं जिनके घर में अतिथियों का कम से कम आसन, जल, वाणी द्वारा सत्कार किया जाता है॥१०१॥ 


अतिथि का लक्षण―


एकरात्रं तु निवसन्नतिथिर्ब्राह्मणः स्मृतः। 

अनित्यं हि स्थितो यस्मात्तस्मादतिथिरुच्यते॥१०२॥ (७१)


(एकरात्रं तु निवसन्) जो एक ही रात्रि तक पराये घर में रहे तो (ब्राह्मणः) वह विद्वान् व्यक्ति (अतिथिः स्मृतः) अतिथि कहा गया है (हि यस्मात् अनित्यं स्थितः) क्योंकि जिस कारण से वह थोड़े समय के लिए ठहरता है अथवा जिसका आना अनिश्चित होत है, इसी कारण उसे (अतिथिः उच्यते) अतिथि कहा जाता है॥१०२॥


अतिथि कौन नहीं होते―


नैकग्रामीणमतिथिं विप्रं साङ्गतिकं तथा। 

उपस्थितं गृहे विद्याद्भार्या यत्राग्नयोऽपि वा॥१०३॥ (७२)


(यत्र भार्या अपि वा अग्नयः) जिसके घर में पत्नी हो और पंचयज्ञों की अग्नि जहाँ प्रज्वलित रहती हो अथवा जहाँ पाकाग्नि प्रज्वलित होती हो ऐसे घर में (एकग्रामीणं तथा साङ्गतिकं विप्रं गृहे उपस्थितम्) एक गांव में रहनेवाला तथा साथ रहा मित्र विद्वान् यदि घर में आया हुआ हो तो (अतिथिं न विद्यात्) उसे अतिथि के रूप में न समझें॥१०३॥ 


उपासते ये गृहस्थाः परपाकमबुद्धयः। 

तेन ते प्रेत्य पशुतां व्रजन्त्यन्नादिदायिनाम्॥१०४॥ (७३)


(ये गृहस्थाः) जो गृहस्थ (परपाकम् उपासते) दूसरों के घर बने भोजन को पाने-खाने की प्रवृत्ति रखकर उनके घर जाते रहते हैं (ते अबुद्धयः) वे बुद्धिहीन (तेन) उस परभोजन के लोभ के संस्कारों के कारण (प्रेत्य) पुनर्जन्मों में (अन्नादिदायिनां पशुतां व्रजन्ति) अन्न-भोजन देने वालों के पशु बनते हैं अर्थात् जन्मान्तर में वे पशुजन्म पाते हैं और दूसरों के दिये खाद्य पर निर्भर रहते हैं॥१०४॥


घर से अतिथि को न लौटाये―


अप्रणोद्योऽतिथिः सायं सूर्योढो गृहमेधिना। 

काले प्राप्तस्त्वकाले वा नास्यानश्नन्गृहे वसेत्॥१०५॥ (७४)


(गृहमेधिना) गृहस्थ को चाहिए कि (सूर्योढः अतिथिः अप्रणोद्यः) सायंकाल सूर्य अस्त होने के बाद आये हुए किसी भी अतिथि को वापिस न लौटाये और (काले प्राप्तः वा अकाले) चाहे कोई भोजन के समय पर आये अथवा असमय पर आये (अस्य गृहे अनश्नन् न वसेत्) किन्तु किसी गृहस्थ के घर में कोई अतिथि बिना भोजन के नहीं रहना चाहिए॥१०५॥ 


अतिथिपूजन सुख-आयु-यशोदायक―


न वै स्वयं तदश्नीयादतिथिं यन्न भोजयेत्। 

धन्यं यशस्यमायुष्यं स्वर्ग्यं वाऽतिथिपूजनम्॥१०६॥ (७५)


(यत् अतिथिं न भोजयेत्) जिस पदार्थ को अतिथि को नहीं खिलावे (तत् वै स्वयं न अश्नीयात्) उसे गृहस्थ स्वयं भी न खावे, अभिप्राय यह है कि जैसा स्वयं भोजन करे वैसा ही अतिथि को भी दे (अतिथिपूजनम्) अतिथि का सत्कार करना (धन्यं यशस्यम् आयुष्यं वा स्वर्ग्यम्) सौभाग्य, यश, आयु और सुख को देने और बढ़ाने वाला है॥१०६॥


आसनावसथौ शय्यामनुव्रज्यामुपासनाम्। 

उत्तमेषूत्तमं कुर्याद्धीने हीनं समे समम्॥१०७॥ (७६)


अतिथि के (आसन-अवसथौ) आसन और निवास (शय्याम्+अनुव्रज्याम्+उपासनाम्) शय्या, सेवा-टहल, समीप बैठना आदि (उत्तमेषु+उत्तमम्) अपने से उत्तम गुण वालों में उत्तम स्तर के (समे+समम्) समान गुण वालों में समान स्तर के (हीने हीनम्) हीन गुण वालों में हीन स्तर के अर्थात् यथायोग्य (कुर्यात्) करे॥१०७॥


दोबारा भोजन पकाने पर बलियज्ञ नहीं―


वैश्वदेवे तु निर्वृत्ते यद्यन्योऽतिथिराव्रजेत्। 

तस्याप्यन्नं यथाशक्ति प्रदद्यान्न बलिं हरेत्॥१०८॥ (७७)


(वैश्वदेवे तु निर्वृत्ते) एक बार वैश्वदेव यज्ञ के सम्पन्न होने पर अर्थात् भोजन बन जाने और उसकी पकाशाला में आहुतियां दे देने के पश्चात् भी (यदि+अन्यः+अतिथिः+आव्रजेत्) यदि कोई और अतिथि आ जाये तो (तस्य+अपि यथाशक्ति अन्नं प्रदद्यात्) उसको भी यथाशक्ति भोजन कराये (बलिं न हरेत्) किन्तु दोबारा भोजन बनाने के बाद उससे बलिभाग=बलिवैश्वदेव यज्ञ के भाग नहीं निकाले॥१०८॥ 


अतिथि सत्कार-विषयक नियम―


न भोजनार्थं स्वे विप्रः कुलगोत्रे निवेदयेत्। 

भोजनार्थं हि ते शंसन्वान्ताशीत्युच्यते बुधैः॥१०९॥ (७८)


(विप्रः) विद्वान् द्विज (भोजनार्थम्) अच्छा भोजन पाने के लिए (स्वे कुलगोत्रे न निवेदयेत्) अपने कुल और गोत्र की दुहाई न दे अर्थात् अपने बड़े कुल या प्रतिष्ठित वंश की प्रशंसा करके अच्छा भोजन पाने की प्रवृत्ति प्रकट न करे (हि) क्योंकि (भोजनार्थं ते शंसन्) भोजन पाने के लिए अपने कुल-गोत्रों की प्रशंसा करने वाला व्यक्ति (बुधैः) विद्वानों द्वारा ('वान्ताशी' इति उच्यते) 'उगलकर खाने वाला' इस निन्दित विशेषण से सम्बोधित किया जाता है॥१०९॥


अतिथियों से भिन्न व्यक्ति को भोजन कराना―


इतरानपि सख्यादीन्सम्प्रीत्या गृहमागतान्। 

सत्कृत्यान्नं यथाशक्ति भोजयेत्सह भार्यया॥११३॥ (७९)


पूर्वोक्त अतिथियों के अतिरिक्त (भार्यया सह गृहम्+आगतान् इतरान् सख्यादीन अपि) पत्नी के साथ घर में आये अन्य मित्र आदि को भी (सत्कृत्य) सत्कारपूर्वक (संप्रीत्या) प्रीतिपूर्वक (यथाशक्ति अन्नं भोजयेत्) अपने सामर्थ्य के अनुसार भोजन करावे॥११३॥


अतिथि से पहले किन को भोजन दें―


सुवासिनी: कुमारीश्च रोगिणी गर्भिणीः स्त्रियः। 

अतिथिभ्योऽग्र एवेतान्भोजयेदविचारयन्॥११४॥ (८०)


(सुवासिनी: च कुमारीः) नव विवाहिताएँ और अल्पवयस्क कन्याएँ (रोगिणः) रोगी (गर्भिणीः स्त्रियः) गर्भवती स्त्रियाँ (एतान्) इन्हें (अतिथिभ्यः+अग्रे+एव) अतिथियों से पहले ही (अविचारयन्) बिना किसी शंका के अर्थात् बड़े-छोटे को पहले-पीछे भोजन कराने का विचार किये बिना (भोजयेत्) खिला दे॥११४॥


गृहस्थ दम्पती को सबके बाद भोजन करना और यज्ञशेष भोजन करना―


भुक्तवत्स्वथ विप्रेषु स्वेषु भृत्येषु चैव हि। 

भुञ्जीयातां ततः पश्चादवशिष्टं तु दम्पती॥११६॥ (८१)


(अथ विप्रेषु भुक्तवत्सु) पहले विद्वान् अतिथियों द्वारा भोजन कर लेने पर (च) और (स्वेषु भृत्येषु एव हि) पहले अपने सेवकों आदि के भी खा लेने पर (ततः पश्चात्) उसके बाद (अवशिष्टम् तु) शेष बचे भोजन को (दम्पती भुञ्जीयाताम्) पति-पत्नी खायें॥११६॥ 


देवानृषीन् मनुष्यांश्च पितॄन् गृह्याश्च देवताः। 

पूजयित्वा ततः पश्चाद् गृहस्थः शेषभुग्भवेत्॥११७॥ (८२)


(देवान्) दिव्यगुण वाले अग्नि आदि जड़देवताओं को अग्निहोत्र से (ऋषीन्) विद्या के प्रत्यक्ष कर्त्ता मन्त्रार्थ द्रष्टा ऋषियों को ब्रह्मयज्ञ से (मनुष्यान्) साधारण मनुष्यों को अतिथियज्ञ से (च) और (पितॄन्) जीवित माता-पिता आदि पालक व्यक्तियों को पितृयज्ञ से (च) तथा (गृह्याः देवताः) ईश्वरीय दिव्यगुणों [३.८४-९०] के स्मरणपूर्वक पाकशाला में आहुति देकर और गृहस्थ द्वारा भरण-पोषण की अपेक्षा रखने वाले भिक्षार्थी, असहाय, अनाथ, कुष्ठी, जीव-जन्तु [३.९१-९२] आदि को बलिवैश्वदेव यज्ञ से (पूजयित्वा) भोजन-दान द्वारा सत्कृत करके और उनका भाग निकालकर (ततः पश्चात्) उसके बाद (गृहस्थः) गृहस्थ (शेषभुक् भवेत्) इनसे शेष बचे भोजन को खाने वाला हो अर्थात् पांच महायज्ञों से शेष भोजन को खाया करे॥११७॥


अघं स केवलं भुङ्क्ते यः पचत्यात्मकारणात्।

यज्ञशिष्टाशनं ह्येतत्सतामन्नं विधीयते॥११८॥ (८३)


(यः केवलम् आत्मकारणात् पचति) जो व्यक्ति केवल अपना पेट भरने के लिए ही भोजन पकाता है (सः) वह (अघं भुङ्क्ते) केवल पाप को खाता है अर्थात् इस प्रवृत्ति से परिवार और समाज में स्वार्थ, लोभ आदि की पाप भावना ही बढ़ती है (हि) क्योंकि (एतत्) यह उपर्युक्त [११७] (यज्ञशिष्ट+अशनम्) यज्ञों पांच यज्ञों के करने के बाद शेष बचा भोजन ही (सताम्+अन्नं विधीयते) श्रेष्ठों, सज्जनों का भोजन माना गया है। इसके विपरीत बिना यज्ञ का भोजन असत्पुरुषों का भोजन है॥११८॥


गृहस्थ के लिए दो ही प्रकार के भोजनों का विधान―


विघसाशी भवेन्नित्यं नित्यं वाऽमृतभोजनः। 

विघसो भुक्तशेषं तु यज्ञशेषं तथाऽमृतम्॥२८५॥ (८४)


गृहस्थ को चाहिए कि वह (नित्यं विघसाशी भवेत्) प्रतिदिन 'विघस' भोजन को खाने वाला होवे (वा) अथवा (अमृतभोजनः) 'अमृत' भोजन को खाने वाला होवे (भुक्तशेषं तु 'विघसः') अतिथि, मित्रों आदि सभी व्यक्तियों के खा लेने पर बचे भोजन को 'विघस' कहा जाता है [३.११६] (तथा) तथा (यज्ञशेषम् 'अमृतम्') यज्ञ में आहुति देने के बाद बचा भोजन 'अमृत' कहलाता है। [३.११७-११८]॥२८५॥


उपसंहार―


एतद्वोऽभिहितं सर्वं विधानं पाञ्चयज्ञिकम्। 

द्विजातिमुख्यवृत्तीनां विधानं श्रूयतामिति॥२८६॥ (८५)


(एतत् वः) यह तुम्हें (पाञ्चयज्ञिकं सर्वं विधानम् अभिहितम्) पञ्चयज्ञसम्बन्धी सम्पूर्ण विधान कहा है। अब आगे (द्विजातिमुख्यवृत्तीनां विधानं श्रूयताम्) द्विजातियों=ब्राह्मण, क्षत्रिय वैश्य की प्रमुख आजीविका और जीवनचर्या के विधान को सुनो―॥२८६॥


इति महर्षि-मनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्य-समन्वितायाम् 'अनुशीलन-समीक्षा-विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ गृहस्थाश्रमे समानवर्तन-विवाह-पञ्चयज्ञविधानात्मकस्तृतीयोऽध्यायः॥





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