विशुद्ध मनुस्मृतिः― चतुर्थ अध्याय

अथ चतुर्थोऽध्यायः 


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

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(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(गृहस्थान्तर्गत आजीविका एवं व्रत पालन विषय) 


(आजीविका ४.१ से ४.१२ तक)



आयु के द्वितीय भाग में गृहस्थ बनें―


चतुर्थमायुषो भागमुषित्वाऽऽद्यं गुरौ द्विजः। 

द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत्॥१॥ (१)


द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य पहले आयु के चौथाई भाग तक [कम से कम पच्चीस वर्ष पर्यन्त] गुरु के समीप रहकर अर्थात् गुरुकुल में रहते हुए ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक विद्याध्ययन करके आयु के दूसरे भाग में अर्थात् पच्चीस वर्ष के बाद विवाह करके घर में निवास करे, गृहस्थ बने॥१॥


गृहस्थ की जीविका परपीड़ारहित हो―


अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः। 

या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि॥२॥ (२)


तीनों वर्णों के द्विज व्यक्ति आपत्तिरहितकाल में दूसरे प्राणियों को जिससे किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचे, ऐसी अथवा ऐसी वृत्ति न मिलने पर बाद में जिसमें प्राणियों को कम से कम कष्ट हो, ऐसी जो वृत्ति=आजीविका हो उसको अपनाकर जीवन-निर्वाह करे॥२॥


धन-संग्रह जीवनयात्रा चलाने मात्र के लिए हो―


यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थं स्वैः कर्मभिरगर्हितैः। 

अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम्॥३॥ (३) 


अपने अनिन्दित अर्थात् शास्त्रोक्त श्रेष्ठकर्मों से शरीर को अधिक कष्ट न देते हुए जीवनयात्रा को भलीभांति चलाने के प्रयोजन से ही अर्थात् केवल धनसंग्रह के उद्देश्य से नहीं [जिससे जीवन कष्टरहित रूप में चलता रहे और उसमें अधिक ऐश्वर्य संग्रह की कामना न हो] धन का संचय करे॥३॥


शास्त्रविरुद्ध जीविका न हो―


न लोकवृत्तं वर्त्तेत वृत्तिहेतोः कथञ्चन।

अजिह्मामशठां शुद्धां जीवेद्ब्राह्मणजीविकाम्॥११॥ (४) 


गृहस्थ द्विज जीविका के लिए कभी, किसी भी अवस्था में शास्त्रोक्त जीविका को छोड़कर लोकाचार=लोकव्यवहार का आश्रय न ले, अपितु सदैव कुटिलता, छल-कपट रहित बेईमानी और धोखे से रहित शुद्ध-पवित्र, धर्मानुकूल वेद-शास्त्रोक्त शुद्ध भावयुक्त जीविका को करके जीवन बिताये॥११॥ 


सन्तोष सुख का मूल है, असन्तोष दुःख का―


सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्। 

सन्तोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः॥१२॥ (५)


सुख चाहने वाला व्यक्ति अत्यन्त सन्तोष को धारण करके संयत=अधिक धन के संग्रह की इच्छा न रखने वाला बने क्योंकि सन्तोष ही सुख का मूल है उससे उलटा अर्थात् असन्तोष दुःख का मूल कारण है॥१२॥


(स्नातक गृहस्थों के व्रत)


[४.१३ से ४.२५९ तक]


गृहस्थों के लिए सत्त्वगुणवर्धक व्रत―


अतोऽन्यतमया वृत्त्या जीवंस्तु स्नातको द्विजः। 

स्वर्गायुष्ययशस्यानि व्रतानीमानि धारयेत्॥१३॥ (६)


इसलिए स्नातक गृहस्थ द्विज निर्धारित वृत्तियों में से अपेक्षाकृत किसी श्रेष्ठ आजीविका से जीवननिर्वाह करते हुए इस लोक का सुख और मुक्ति सुख आयु और यश बढ़ाने वाले इन व्रतों को धारण करे―॥१३॥


गृहस्थों के लिये सत्त्वगुणवर्धक व्रत―


वेदोदितं स्वकं कर्म नित्यं कुर्यादतन्द्रितः। 

तद्धि कुर्वन् यथाशक्ति प्राप्नोति परमां गतिम्॥१४॥ (७)


द्विज अपने वेदोक्त कर्म-समूह को आलस्य-प्रमाद छोड़कर सदा किया करे उस कर्म-समूह को प्रयत्नपूर्वक करते हुए द्विज निश्चय ही सर्वोत्तम गति=सुख और मुक्ति को प्राप्त करता है॥१४॥


अधर्म से धनसंग्रह न करें―


नेहेतार्थान् प्रसङ्गेन न विरुद्धेन कर्मणा। 

न विद्यमानेष्वर्थेषु नार्त्यामपि यतस्ततः॥१५॥ (८)


गृहस्थ द्विज वस्तु के अभाव आदि के अनुसार अधिक मूल्य लेकर धनसंग्रह की इच्छा न करे, शास्त्र-विरुद्ध या धर्मविरुद्ध कार्यों से भी धनसंचय न करे, पर्याप्त धनों के होते हुए अधिक धनों का संग्रह न करें, अर्थात् जमाखोरी न करे, विपत्ति या कष्ट में होते हुए भी शास्त्रविरुद्ध उपायों या अनुचित उपायों से धन न कमाये॥१५॥


इन्द्रियसक्ति-निषेध―


इन्द्रियार्थेषु सर्वेषु न प्रसज्येत कामतः। 

अतिप्रसक्तिं चैतेषां मनसा संनिवर्तयेत्॥१६॥ (९)


सभी इन्द्रियों के विषयों में चाहकर कभी न फंसे अर्थात् उनमें लिप्त होने की कभी इच्छा न करे। और इन्द्रियों के विषयों में होने वाली अति आसक्ति को मन से संकल्प करके यत्नपूर्वक दूर करे, रोके॥१६॥


स्वाध्याय से कृतकृत्यता―


सर्वान्परित्यजेदर्थान्स्वाध्यायस्य विरोधिनः।

यथातथाऽध्यापयंस्तु सा ह्यस्य कृतकृत्यता॥१७॥ (१०) 


वेद-शास्त्रों के अध्ययन और ईश्वरोपासना के विरोधी=बाधक सब कामों और व्यवहारों को छोड़ देवे। जिस तरह भी हो सके उसी प्रकार प्रयत्न करके स्वाध्याय करते अर्थात् पढ़ते―पढ़ाते रहना वही द्विज गृहस्थ की पूर्णता या जन्म सफलता है॥१७॥


बुद्धिवृद्धिकराण्याशु धन्यानि च हितानि च।

नित्यं शास्त्राण्यवेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान्॥१९॥ (११)


द्विज बुद्धि को शीघ्र बढ़ाने वाले, और धन एवं सौभाग्य बढ़ाने वाले तथा हितकारी वेदशास्त्रों तथा वेद से सम्बन्धित व्याख्या-ग्रन्थों=वेदांग आदि को सदा पढ़ता-विचारता रहे॥१९॥


यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति। 

तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते॥२०॥ (१२)


मनुष्य जैसे-जैसे शास्त्रज्ञान में प्रवीण होता जाता है वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता जाता है और गम्भीर ज्ञानप्राप्ति में इसकी रुचि बढ़ती जाती है॥२०॥


पञ्चयज्ञों के पालन का निर्देश―


ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा।

नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्॥२१॥ (१३)


ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेवयज्ञ, अतिथियज्ञ और पितृयज्ञ इनको सदा ही जहाँ तक हो कभी न छोड़े॥२१॥


अग्निहोत्र का विधान―


अग्निहोत्रं च जुहुयादाद्यन्ते द्युनिशोः सदा। 

दर्शन चार्धमासान्ते पौर्णमासेन चैव हि॥२५॥ (१४)


गृहस्थ प्रतिदिन दिन-रात के आदि और अन्त में अर्थात् प्रातःसायं दोनों सन्धिवेलाओं में अग्निहोत्रम् करे और आधे मास के अन्त में दर्शयज्ञ अर्थात् अमावस्या के दिन अग्निहोत्र करे तथा इसी प्रकार मास पूर्ण होने पर पूर्णिमा के दिन पौर्णमास यज्ञ करे॥२५॥


अतिथिसत्कार का विधान―


आसनाशनशय्याभिरद्भिर्मूलफलेन वा। 

नास्य कश्चिद्वसेद्गेहेशक्तितोऽनर्चितोऽतिथिः॥२९॥ (१५)


इस गृहस्थ के घर में कोई भी अतिथि आसन, भोजन, बिछौना आदि से अथवा जल, कन्दमूल और फल आदि से सामर्थ्य के अनुसार बिना सत्कार किये न रहे अर्थात् यथाशक्ति सबका सत्कार करना चाहिये॥२९॥ 


सत्कार के अयोग्य व्यक्ति―


पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालवृत्तिकान् शठान्।

हैतुकान् बकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥३०॥ (१६)


पाखण्डियों अर्थात् वेदविरोधियों अपराधियों अथवा शास्त्रोक्त निर्धारित कर्त्तव्यों के विरुद्ध चलने वालों विडालवृत्ति वालों=ढोंगी धूर्त, ठग कुतर्की बकवादी और बगुलाभक्त=छली-कपटी मनुष्यों का वाणी मात्र से भी सत्कार नहीं करना चाहिए॥३०॥


सत्कार के योग्य व्यक्ति―


वेदविद्याव्रतस्नाताञ्छ्रोत्रियान् गृहमेधिनः।

पूजयेद्धव्यकव्येन विपरीतांश्च वर्जयेत्॥३१॥ (१७)


वेदों के विद्वान्, ज्ञानी और जो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके स्नातक बने हैं उनका तथा वेदपाठी=वेद का स्वाध्याय करने वाले गृहस्थ का भोज्यपदार्थों और धन, वस्त्रदान आदि से सत्कार करे और जो इनसे विपरीत हैं अर्थात् जो वेदशास्त्रों के विद्वान् और विधिवत् ब्रह्मचर्यस्नातक नहीं तथा जो वेदाध्ययन नहीं करते, उनका सत्कार न करे॥३१॥


भिक्षा एवं बलिवैश्वदेव का विधान―


शक्तितोऽपचमानेभ्यो दातव्यं गृहमेधिना।

संविभागश्च भूतेभ्यः कर्त्तव्योऽनुपरोधतः॥३२॥ (१८)


गृहस्थों को जिससे परिवार के भरण-पोषण में बाधा न पड़े इस प्रकार यथाशक्ति अपने हाथ से जो पकाते नहीं, ऐसे ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि को अन्न-भोजन देना चाहिए और प्राणियों― असहाय, विकलांगादि मनुष्यों तथा कुत्ता, पक्षी आदि के लिये भी भोजन का भाग निकालना चाहिए॥३२॥


स्वाध्याय में तत्पर रहना―


क्लृप्तकेशनखश्मश्रुर्दान्तः शुक्लाम्बरः शुचिः। 

स्वाध्याये चैव युक्तः स्यान्नित्यमात्महितेषु च॥३५॥ (१९)


केश, नाखून और दाढी कटवाता रहे संयमी रहे स्वच्छ वस्त्र धारण करे आन्तरिक और बाह्य शुद्धता-स्वच्छता रखे और सदैव वेदों के स्वाध्याय और अपनी आत्मा की उन्नति में लगा रहे॥३५॥


रजस्वलागमन-निषेध एवं उससे हानि―


नोपगच्छेत्प्रमत्तोऽपि स्त्रियमार्तवदर्शने।

समानशयने चैव न शयीत तया सह॥४०॥ (२०)


कामातुर होता हुआ भी मासिक धर्म के दिनों में स्त्री से सम्भोग न करे और उसके साथ एक बिस्तर पर न सोये॥४०॥


रजसाऽभिप्लुतां नारीं नरस्य ह्युपगच्छतः। 

प्रज्ञा तेजो बलं चक्षुरायुश्चैव प्रहीयते॥४१॥ (२१)


क्योंकि रजस्वला स्त्री के पास जाने वाले=सम्भोग करने वाले मनुष्य के बुद्धि, तेज, बल, नेत्रज्योति और आयु ये सब क्षीण हो जाते हैं॥४१॥ 


रजस्वलागमन-त्याग से लाभ―


तां विवर्जयतस्तस्य रजसा समभिप्लुताम्। 

प्रज्ञा तेजो बलं चक्षुरायुश्चैव प्रवर्धते॥४२॥ (२२)


रज निकलती हुई अर्थात् रजस्वला स्त्री से सम्भोग न करने वाले उस मनुष्य के बुद्धि, तेज, बल, नेत्रज्योति और आयु ये सब बढ़ते हैं॥४२॥


किन पशुओं से सवारी न करे या करे―


नाविनीतैर्व्रजेद्धुर्यैर्न च क्षुद्व्याधिपीडितैः। 

न भिन्नशृङ्गाक्षिखुरैर्न वालाधिविरूपितैः॥६७॥ (२३)


बिना सिखाये हुए, भूख और रोग से पीड़ित जिनके सींग, नेत्र और खुर टूट-फूट गये हैं, जिनकी पूँछ कटी या घायल हो, ऐसे गाड़ी में जुतने वाले घोड़े, बैल आदि पशुओं को रथ या गाड़ी में जोतकर न जाये॥६७॥


विनीतैस्तु व्रजेन्नित्यमाशुगैर्लक्षणान्वितैः। 

वर्णरूपोपसम्पन्नैः प्रतोदेनातुदन्भृशम्॥६८॥ (२४)


सिखाये हुए, स्वस्थ लक्षणों से युक्त सुन्दर रंग-रूप से युक्त शीघ्रागामी पशुओं से चाबुक की मार से बार-बार पीड़ा न देता हुआ सवारी करे अर्थात् रथ या गाड़ी में जोतकर जाये॥६८॥


दुष्टो का संग न करे―


न संवसेच्च पतितैर्न चाण्डालैर्न पुल्कसैः। 

न मूखैर्नावलिप्तैश्च नान्त्यैर्नान्त्यावसायिभिः॥७९॥ (२५)


मनुष्य न निर्धारित कर्तव्य-व्यवस्था का पालन न करने वालों के साथ, न क्रूर कर्म करने वालों के साथ, न वर्ण से पूर्णतः बहिष्कृतों के साथ [पुल्=पूर्णतः, कसैः= निष्कासितैः], न मूर्खों के साथ, न घमण्डी लोगों के साथ, न वर्णव्यवस्था में अदीक्षित लोगों के साथ न नीच व्यवसाय करने वालों के साथ रहे॥७९॥


ब्राह्ममुहूर्त में जागरण―


ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।

कायक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च॥९२॥ (२६)


मनुष्य रात्रि के अन्तिम पहर में उठे और धर्मपालन तथा धर्मपूर्वक अर्थसंग्रह और शरीर सम्बन्धी कष्टों और उनके उत्पादक कारणों तथा वेदोक्त उपदेशों पर चिन्तन और आचरण करे॥९२॥


सन्ध्योपासन आदि नित्यचर्या का पालन एवं उससे दीर्घायु की प्राप्ति―


उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः। 

पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरां चिरम्॥९३॥ (२७)


ब्राह्ममुहूर्त में उठकर दिनचर्या के आवश्यक शौच आदि कार्य सम्पन्न करके स्नान आदि से स्वच्छ-पवित्र होकर एकाग्रचित्त होकर प्रातःकालीन सन्ध्या को भी गायत्री आदि मन्त्र अर्थसहित जपता हुआ देर तक उपासना में बैठे अर्थात् दोनों समय की सन्ध्योपासना शीघ्रता में न करे अपितु लम्बे समय तक करे॥९३॥ 


ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।

प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्मवर्चसमेव च ॥९४॥ (२८)


मन्त्रार्थद्रष्टा ऋषियों ने देर तक सन्ध्योपासना करने के कारण लम्बी आयु, बुद्धि, यश, प्रसिद्धि और ब्रह्मतेज=आध्यात्मिक ऊर्जा को प्राप्त किया है॥९४॥


स्त्रीगमन में पर्वदिनों का त्याग करे―


अमावस्यामष्टमीं च पौर्णमासीं चतुर्दशीम्। 

ब्रह्मचारी भवेन्नित्यमप्यृतौ स्नातको द्विजः॥१२८॥ (२९)


गृहस्थ द्विज को चाहिये कि वह पत्नी के ऋतुकाल की अवधि होते हुए भी अमावस्या, अष्टमी, पूर्णिमा और चतुर्दशी के दिन सर्वथा ब्रह्मचारी रहे॥१२८॥


परस्त्री-सेवन का निषेध एवं त्याज्य व्यक्ति― 


वैरिणं नोपसेवेत सहायं चैव वैरिणः। 

अधार्मिकं तस्करं च परस्यैव च योषितम्॥१३३॥ (३०)


गृहस्थ द्विज शत्रु और शत्रु के सहायक अधार्मिक, चोर, पराई स्त्री, इनसे मेलजोल न रखे और परस्त्रीगमन न करे॥१३३॥


परस्त्री-सेवन से हानियाँ―


न हीदृशमनायुष्यं लोके किञ्चन विद्यते।

यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्॥१३४॥ (३१)


गृहस्थ द्विज का इस संसार में पुरुष आयु को घटाने वाला ऐसा कोई काम नहीं है जैसा कि परस्त्री से मेलजोल रखना और परस्त्रीगमन करना है॥१३४॥ 


आत्महीनता की भावना मन में न लाये―


नात्मानमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः।

आमृत्योः श्रियमन्विच्छेन्नैनां मन्येत दुर्लभाम्॥१३७॥ (३२)


मनुष्य पहले की दरिद्रताओं या अभावों को याद करके अपने को तुच्छ या दीन-हीन न समझे मृत्युपर्यन्त धनऐश्वर्य, आदि की प्राप्ति के लिए लग्नपूर्वक पुरुषार्थ करे इनको दुर्लभ न माने अर्थात् दुर्लभ मानकर निराश-हताश होकर न बैठे, अपितु पुरुषार्थ करता रहे॥१३७॥


सत्य तथा प्रियाभाषण करे―


सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।

प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥१३८॥ (३३)


मनुष्य सदा सत्य बोले और उसको प्रिय अर्थात् मधुर, शिष्ट एवं हितकर रूप में बोले सत्यभाषण भी अप्रिय और अहितकर भाव से न बोले, जैसे अन्धे को अंधा, काणे को काणा, लंगड़े को लंगड़ा आदि न कहे। और प्रिय या हितकर भी झूठ हो तो उसे न बोले अर्थात् दूसरे की चाटुकारिता और प्रसन्नता के लिए असत्यभाषण न करे, यह सदा-सर्वदा पालनीय धर्म है॥१३८॥


भद्र व्यवहार करे व भद्रवाणी बोले―


भद्रं भद्रमिति ब्रूयाद् भद्रमित्येव वा वदेत्। 

शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह॥१३९॥ (३४)


मनुष्य सदा शिष्ट, कल्याणकर या हितकर बात को ही कहे अथवा जो भी बोले उसे शिष्ट एवं हितकर भाव से ही बोले। किसी के भी साथ व्यर्थ विरोध और विवाद एवं झगड़ा न करे॥१३९॥


हीन, विकलांग आदि पर व्यंग्य न करे—


हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोऽधिकान्। 

रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्॥१४१॥ (३५)


विकृत या कम शारीरिक अंगों वालों अर्थात् अपंगों अधिक अंगों वालों अनपढ़, मूर्ख आयु में बड़े और रूप और धन से रहित और अपने से निम्न वर्ण वाले, इन पर उनकी न्यूनताओं पर कभी आक्षेप [=व्यंग्य या हंसी-मजाक] न करे॥१४१॥


कल्याणकारी यज्ञ-सन्ध्या आदि कार्य करे—


मङ्गलाचारयुक्तः स्यात्प्रयतात्मा जितेन्द्रियः। 

जपेच्च जुहुयाच्चैव नित्यमग्निमतन्द्रितः॥१४५॥ (३६)


मनुष्य सदा कल्याणकारी आचरण करे, आत्मा की उन्नति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे, जितेन्द्रिय होवे और आलस्यरहित होकर प्रतिदिन अवश्य ही जपोपासना अर्थात् सन्ध्या करे तथा अग्नि में हवन करे॥१४५॥ 


यज्ञ-सन्ध्या आदि कल्याणकारी कार्यों से लाभ—


मङ्गलाचारयुक्तानां नित्यं च प्रयतात्मनाम्। 

जपतां जुह्वतां चैव विनिपातो न विद्यते॥१४६॥ (३७)


जो सदा कल्याणकारी आचरण और कार्यों में लगे रहते हैं और जो सदा आत्मा की उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं तथा जो प्रतिदिन सन्ध्या द्वारा परमात्मा का जप एवं उपासना करते हैं और जो प्रतिदिन हवन करते हैं, उनका जीवन में कभी पतन नहीं होता अर्थात् उनका जीवन बुराइयों की ओर नहीं जाता॥१४६॥ 


वेदाभ्यास परमधर्म है—


वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं यथाकालमतन्द्रितः।

तं ह्यस्याहुः परं धर्ममुपधर्मोऽन्य उच्यते॥१४७॥ (३८) 


द्विज सदा जितना भी अधिक समय लगा सके उसके अनुसार आलस्यरहित होकर वेद का ही अभ्यास करे, वेद का स्वाध्याय करे क्योंकि वेदाभ्यास को द्विजों का सर्वोत्तम धर्म या कर्त्तव्य कहा है वेदाभ्यास के समक्ष अन्य सब धर्म या कर्त्तव्य गौण हैं॥१४७॥ 


वेदाभ्यास का कथन और उसका फल―


वेदाभ्यासेन सततं शौचेन तपसैव च। 

अद्रोहेण च भूतानां जाति स्मरति पौर्विकीम्॥१४८॥ (३९)


मनुष्य निरन्तर वेद का अभ्यास अर्थात् स्वाध्याय करने से आत्मिक तथा शारीरिक पवित्रता से तथा तपस्या से और प्राणियों के साथ द्रोह-भावना न रखते हुए अर्थात् अहिंसा की भावना रखते हुए पूर्वजन्म की अवस्था को स्मरण कर लेता है॥१४८॥


पौर्विकीं संस्मरञ्जातिं ब्रह्मैवाभ्यसते पुनः।

ब्रह्माभ्यासेन चाजस्त्रमनन्तं सुखमश्नुते॥१४९॥ (४०)


पूर्वजन्म की अवस्था का स्मरण कर लेने पर फिर भी यदि वेद के अभ्यास=स्वाध्याय में लगा रहता है तो निरन्तर कवेद का अभ्यास करने से मोक्ष-सुख को प्राप्त कर लेता है॥१४९॥


वृद्धों का अभिवादन एवं स्वागत―


अभिवादयेद् वृद्धांश्च दद्याच्चैवासनं स्वकम्। 

कृताञ्जलिरुपासीत गच्छतः पृष्ठोऽन्वियात्॥१५४॥ (४१)


मनुष्य सदा वृद्धजनों=विद्या और आयु में बड़ों को पहले अभिवादन=नमस्कार करे और आने पर बैठने के लिए अपनी ओर से आसन प्रदान करे, [बैठ जाने पर फिर] हाथ जोड़ने की शिष्टता के बाद उनके पास बैठे और उनके योग्य कर्त्तव्य पूछे और उस को पूर्ण करे, लौटते हुए कुछ दूर तक पीछे-पीछे जाकर विदा करे॥१५४॥


सदाचार-धर्म का मूल तथा उसका फल―


श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ् निबद्धं स्वेषु कर्मसु। 

धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रितः॥१५५॥ (४२)


मनुष्य सदा आलस्य-प्रमाद छोड़ कर अर्थात् सावधान रहकर वेद और स्मृति में कहे गये जो सभी कर्त्तव्यों का आधार है, अर्थात् जो सभी कर्त्तव्यों के साथ अनिवार्य रूप से पालनीय है उस धर्म के मूल सदाचार का पालन करे॥१५५॥


आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः। 

आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्॥१५६॥ (४३)


सदाचार या धर्माचरण से ही दीर्घायु सदाचार से ही मनचाही उत्तम सन्तान सदाचार से ही अक्षय धन प्राप्त होता है धर्माचरण सारे अधर्मयुक्त बुरे लक्षणों का नाश कर देता है॥१५६॥


दुराचार से हानि―


दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। 

दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च॥१५७॥ (४४)


जो दुराचारी पुरुष है वह संसार में निन्दा का पात्र बनता है और निरन्तर रोगों से ग्रस्त रहता हुआ दुःख को भोगने वाला और कम आयु वाला होता है अर्थात् उसकी आयु घट जाती है और शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है॥१५७॥


सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः। 

श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति॥१५८॥ (४५)


जो मनुष्य विहित विद्या आदि सब लक्षणों से रहित होते हुए भी यदि सदाचारी है, सत्कर्मों के प्रति श्रद्धावान् है और ईर्ष्या-द्वेषनिन्दा से रहित है, वह सौ वर्ष पर्यन्त जीता है अर्थात् इन गुणों वाले व्यक्ति की आयु बढ़कर सौ वर्ष तक हो जाती है॥१५८॥


परवश कर्मों का त्याग―


यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यत्नेन वर्जयेत्।

यद्यदात्मवशं तु स्यात् तत्तत्सेवेत यत्नतः॥१५९॥ (४६)


मनुष्य जो-जो पराधीन कर्म है उस-उस को प्रयत्नपूर्वक छोड़ देवे और जो-जो अपने अधीन कर्म हो उस-उस को यत्नपूर्वक किया करे॥१५९॥


सुख-दुःख का लक्षण―


सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्। 

एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥१६०॥ (४७)


क्योंकि जो कुछ भी पराधीन कर्म है वह सब दुःख रूप है, और जो-जो स्वाधीन कर्म है वह सुखरूप है। यह संक्षेप से सुख और दुःख का लक्षण जाने अर्थात् सुख और दुःख की पहचान कराने वाला कर्म समझें॥१६०॥ 


आत्मा के प्रसन्नताकारक कार्य ही करे―


यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः ।

तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्॥१६१॥ (४८)


जिस कर्म के करने से मनुष्य की आत्मा को सन्तुष्टि एवं प्रसन्नता का अनुभव हो अर्थात् भय, शंका, लज्जा का अनुभव न हो उस-उस कर्म को प्रयत्नपूर्वक करे जिससे सन्तुष्टि एवं प्रसन्नता न हो अर्थात् जिस कर्म को करते समय भय, शंका, लज्जा अनुभव हो उस कर्म को न करे॥१६१॥


माता-पिता-आचार्यादि की हिंसा न करे―


आचार्यं च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम्। 

न हिंस्याद् ब्राह्मणान् गाश्च सर्वांश्चैव तपस्विनः॥१६२॥ (४९)


वेद को पढ़ाने वाला, वेद-शास्त्रों का प्रवचन करने वाला, पिता, माता, गुरु, विद्वान् ब्राह्मण, गाय और सभी तपस्वी इनको न मारे, न प्रताड़ित  करे॥१६२॥


नास्तिकता, वेदनिन्दा आदि निषिद्ध कर्म―


नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम्। 

द्वेषं दम्भं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत्॥१६३॥ (५०)


नास्तिकता अर्थात् ईश्वर, आत्मा में अविश्वास करना, वेदों की निन्दा और सदाचारी विद्वानों की निन्दा द्वेष, पाखण्ड, अभिमान, क्रोध, उग्रता=स्वभाव में तीव्रता इनको छोड़ देवे॥१६३॥


शिष्य को केवल शिक्षार्थ ताड़ना करे―


परस्य दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धो नैव निपातयेत्।

अन्यत्र पुत्राच्छिष्याद्वा शिष्टयर्थं ताडयेत्तु तौ॥१६४॥ (५१)


पुत्र और शिष्य से भिन्न अन्य किसी व्यक्ति पर दण्डा न उठाये अर्थात् दण्डा आदि से न मारे और पुत्र तथा शिष्य को भी क्रोधित होकर न मारे, ताड़ना न करे, उन पुत्र और शिष्य को भी केवल शिक्षा देने की भावना से ही ताड़ना करे॥१६४॥


अधर्म-निन्दा एवं अधर्म से दुःखप्राप्ति―


अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम्।

हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते॥१७०॥ (५२)


जो मनुष्य अधार्मिक है, अधर्म के कार्य करता है, और जिसका अधर्म-असत्य से संचित किया हुआ धन है और जो हिंसा में रत है, दूसरों को पीड़ा देता है ऐसा मनुष्य इस जीवन में कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता है और अधर्म के कारण उसे परजन्मों में भी सुख नहीं मिलता॥१७०॥


न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत्। 

अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम्॥१७१॥ (५३)


अधार्मिक पापियों का यदि पापों से उनकी उन्नति और समृद्धि हो गई है तो भी फिर से विनाश तीव्र गति से होता है यह समझते हुए धर्माचरण से कष्ट उठाता हुआ भी अधर्म में मन को न लगावे अर्थात् धर्म में मन रखे और धर्म का ही पालन करता रहे॥१७१॥ 


नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।

शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥१७२॥ (५४)


संसार में किया हुआ अधर्म, जैसे गाय को पालने-खिलाने का दुग्ध-प्राप्ति आदि फल तुरन्त प्राप्त नहीं होता अपितु समय-विशेष पर ही होता है; उसी प्रकार तुरन्त फल नहीं देता, समय आने पर ही देता है किन्तु धीरे-धीरे उसको चारों ओर से घेर कर अधर्मकर्त्ता की जड़ों को ही काट डालता है अर्थात् उसका धीरे-धीरे पूर्णतः सर्वनाश कर देता है॥१७२॥


यदि नात्मनि पुत्रेषु न चेत्पुत्रेषु नप्तृषु।

न त्वेव तु कृतोऽधर्मः कर्तुर्भवति निष्फलः॥१७३॥ (५५)


अधर्म का जो फल यदि कर्ता के अपने जीवन में पूर्ण नहीं मिलता तो अधर्म में भागीदार पुत्रों के जीवन में मिलता है, यदि पुत्रों के जीवन में पूर्ण नहीं मिलता तो अधर्म में भागीदार नातियों-पोतों के जीवन में मिलता है, किन्तु कर्त्ता के द्वारा किया गया अधर्म कभी भी निष्फल नहीं होता अर्थात् अधर्म में भागीदार को उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है॥१७३॥


सब अपने-अपने फल के भोक्ता स्वयं होते हैं―


अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति॥१७४॥ (५६)


मनुष्य अधर्माचरण के द्वारा पहले-पहले उन्नति करता है, उससे वह अपना कल्याण=सुख-सुविधा, मान-प्रतिष्ठा प्राप्ति होते हुए भी अनुभव करता है, उससे शत्रुओं पर भी बढ़ोतरी प्राप्त करता है किन्तु अन्ततः उस अधर्मकर्त्ता का जड़ से ही सर्वनाश हो जाता है॥१७४॥


सत्यधर्म का पालन करे―


सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमेत्सदा।

शिष्यांश्च शिष्याद्धर्मेण वाग्बाहूदरसंयतः॥१७५॥ (५७)


मनुष्य सत्यधर्म और आर्य=उत्तम, सदाचारयुक्त आचरण में और मन-वचन-कर्म की पवित्रता तथा शरीर की शुद्धि में सदैव प्रयत्नशील रहे और वाणी, बाहु, उदर अर्थात् जन्म, धन आदि पाने के लोभ को वश में रखते हुए धर्मपूर्वक शिष्यों को शिक्षा दे और उन पर अनुशासन रखे॥१७५॥


धर्मवर्जित अर्थ-काम का त्याग―


परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ।

धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकविक्रुष्टमेव च॥१७६॥ (५८)


जो अर्थ=धन-ऐश्वर्य और कामनापूर्ति धर्म से रहित हो अर्थात् अधर्म से सिद्ध होती हो, उसको छोड़ देवे और भविष्य में दुःख उत्पन्न करने वाला और लोगों द्वारा निन्दित हो ऐसे नाममात्र के धर्म या धर्माभास को भी छोड़ देवे॥१७६॥


चपलता का त्याग―


न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलोऽनृजुः।

न स्याद्वाक्चपलश्चैव न परद्रोहकर्मधीः॥१७७॥ (५९)


मनुष्य हाथ-पैरों से चंचल न हो, नेत्रों से चंचल न हो, कुटिलता रहित रहे, और इसी प्रकार वाणी से चंचल न हो और ईर्ष्या व द्वेषभाव से दूसरों के काम बिगाड़ने या हानि करने में मन लगाने वाला न हो॥१७७॥


येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः।

तेन यायात्सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते॥१७८॥ (६०)


जिस उत्तम और उन्नति के मार्ग पर किसी के माता-पिता चले हैं, और जिस उत्तम मार्ग से किसी के दादा-दादी आदि चले हैं उन उत्तम सदाचारी लोगों के मार्ग पर ही चले अर्थात् असदाचारियों के या अश्रेष्ठ मार्ग पर न चले उस श्रेष्ठ मार्ग पर चलने से मनुष्य कभी दुःख को नहीं प्राप्त करता और न कभी अवनति को प्राप्त होता है॥१७८॥


विवाद न करने योग्य व्यक्ति―


ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः। 

बालवृद्धातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः॥१७९॥ 

मातापितृभ्यां यामिभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।

दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्॥१८०॥ (६१,६२)


मनुष्य कभी ऋत्विक्=विशेष यज्ञ कराने वालों, कुलपुरोहित, शिक्षा देने वालों से, मामा, अतिथियों, आश्रित जनों आदि से, बालकों, बूढ़ों, रोगियों से वैद्यों, अपने वंशवालों, रिश्तेदारों, मित्रों से, माता-पिता से, बहनों से भाइयों से, पुत्र से पत्नी से पुत्री से सेवकों से कभी लड़ाई-झगड़ा न करें॥१७९-१८०॥ 


प्रतिग्रह का लालच न रखे―


प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसंगं तत्र वर्जयेत्। 

प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्यं तेजः प्रशाम्यति॥१८६॥ (६३)


ब्राह्मण दान लेने का अधिकारी होते हुए भी दानप्राप्ति में आसक्तिभाव अर्थात् उससे धनसंग्रह की प्रवृत्ति को छोड़ देवे क्योंकि दान लेने में आसक्ति रखने से अर्थात् लोभ-लालच की प्रवृत्ति होने से ब्राह्मण का ब्राह्मतेज=आत्मिक गौरव अथवा स्वाभिमान शीघ्र क्षीण होने लगता है॥१८६॥


प्रतिग्रह की विधियाँ―


न द्रव्याणामविज्ञाय विधिं धर्म्यं प्रतिग्रहे।

प्राज्ञः प्रतिग्रहं कुर्यादवसीदन्नपि क्षुधा॥१८७॥ (६४)


बुद्धिमान् ब्राह्मण को चाहिए कि द्रव्यों के दान लेने में धर्मानुसार विधि को बिना विचारे भूख से पीड़ित होता हुआ भी दानग्रहण न करे॥१८७॥


दान लेने के अनधिकारी तीन प्रकार के व्यक्ति―


अतपास्त्वनधीयानः प्रतिग्रहरुचिर्द्विजः। 

अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥१९०॥ (६५)


ब्रह्मचर्य, वेदाध्ययन, धर्मपालन, प्राणायाम, कष्टसहन आदि तपों से रहित प्रतिदिन वेदाभ्यास, सन्ध्योपासना, पंचयज्ञ आदि न करनेवाला जो द्विज दान लेने की इच्छा रखता है, वह पत्थर की नौका पर बैठने वाला जैसे निश्चित रूप से पानी में डूबता है, वैसे ही उस दान लेने की लोभभावना से दुःखसागर में डूब जाता है अथवा पतन के गर्त में गिर में जाता है॥१९०॥


न वार्यपि प्रयच्छेत्तु वैडालव्रतिके द्विजे।

न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित्॥१९२॥ (६६)


धर्म को जानने वाले व्यक्ति को चाहिए कि 'वैडालव्रतिक' [=बिल्ली जैसे कपटी स्वभाव वाले] को 'बकव्रतिक' [=बगुले जैसे धोखेबाज स्वभाव वाले] ब्राह्मण को, और वेद को न जानने-पढ़ने वाले ब्राह्मण को जल भी न दे, अन्य-दानदक्षिणा देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता॥१९२॥


त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्यर्जितं धनम्।

दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च॥१९३॥ (६७)


धर्म के अनुसार संचित किया हुआ धन भी वैडालव्रतिक, बकव्रतिक और अवेदवित् इन तीनों को दिया हुआ निश्चय ही दानदाता के लिए और दान लेने वाले के लिए इस जन्म और परजन्म में प्राप्त होने वाले भावी फलविपाक के रूप में अनर्थ=अहित करने वाला ही होता है, उसका अच्छा फल नहीं मिलता॥१९३॥


यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्। 

तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ॥१९४॥ (६८)


जैसे पत्थर की नौका से जल में तैरने वाला मनुष्य अवश्य डूबता है उसी प्रकार दानविधि के अज्ञानी दाता और दानगृहीता अधोगति रूपी दुःखसागर में डूब जाते हैं॥१९४॥


वैडालव्रतिक का लक्षण―


धर्मध्वजी सदालुब्धश्छाद्मिको लोकदम्भकः। 

वैडालव्रतिको ज्ञेयो हिंस्रः सर्वाभिसन्धकः॥१९५॥ (६९)


धार्मिक न होते हुए भी धर्म का दिखावा करने वाला, सदा लोभ-लालच में ग्रस्त, कपटी, लोगों के सामने मिथ्यादम्भ करने वाला, अपनी झूठी बड़ाई करने वाला, वैर-विरोध और क्रूर स्वभाव वाला, स्वार्थ के कारण अच्छे-बुरों सबसे मेल कर लेने वाला वैडालव्रतिक=बिल्ली जैसे स्वभाव वाला जानना चाहिये॥१९५॥


बकव्रतिक का लक्षण―


अधोदृष्टिर्नैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः। 

शठो मिथ्याविनीतश्च बकव्रतचरो द्विजः॥१९६॥ (७०)


अपने को श्रेष्ठ दिखाने के लिए नीचे दृष्टि रखने का पाखण्ड करने वाला, बदला लेने की भावना रखने वाला, सदा सभी उपायों से स्वार्थ सिद्ध करने में यत्नशील, धूर्त झूठी विनम्रता दिखाने वाला ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य बगुले के समान स्वभाव और आचरण वाला जानना चाहिये॥१९६॥


दूसरों के स्नान किये जल में न नहाये―


परकीयनिपानेषु न स्नायाच्च कदाचन।

निपानकर्तुः स्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते॥२०१॥ (७१)


दूसरों के हौज या टब में कभी न नहाये क्योंकि वहाँ नहाकर नहाने वाला हौज या टब वाले की गन्दगी और बिमारी से लिप्त हो जाता है अर्थात् उसकी बीमारियाँ लग जाती हैं॥२०१॥


किन जलों में स्नान करे―


नदीषु देवखातेषु तडागेषु सरःसु च।

स्नानं समाचरेन्नित्यं गर्तप्रस्रवणेषु च॥२०३॥ (७२)


नदियों में प्राकृतिक जलाशयों=झीलों में तालाबों में झरनों में और ऐसे गड्ढों में जिनका बहता पानी हो, आदि में सदा स्नान करना चाहिए॥२०३॥ 


यम-सेवन की प्रधानता―


यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः।

यमान्यतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्॥२०४॥ (७३)


बुद्धिमान् मनुष्य यमों का निरन्तर पालन अवश्य किया करे केवल नियमों का ही पालन करने का आग्रह न करे, क्योंकि केवल नियमों का पालन करते हुए और यमों पर आचरण न करते हुए जीवन में पतित हो जाता है अर्थात् यम और नियम दोनों का ही पालन करना उन्नतिकारक है॥२०४॥


दानधर्म के पालन का कथन―


दानधर्मं निषेवेत नित्यमैष्टिकपौर्तिकम्। 

परितुष्टेन भावेन पात्रमासाद्य शक्तितः॥२२७॥ (७४)


मनुष्य सुपात्र को देखकर श्रेष्ठ कार्यों के लिए आत्मा की सन्तुष्टि और निःस्वार्थ, निर्लोभ एवं श्रद्धा भाव से शक्ति के अनुसार सदैव इष्ट यज्ञों के आयोजन-सम्बन्धी और पौर्तिक=परोपकार के काम में आने वाले कुआ, तालाब आदि निर्माण सम्बन्धी कार्यों के लिए दानधर्म का पालन करे अर्थात् दान दिया करे॥२२७॥


वेद-दान की सर्वश्रेष्ठता―


सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।

वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम्॥२३३॥ (७५)


जल, अन्न, गाय, भूमि, वस्त्र, तिल, स्वर्ण, घृत आदि दानों में वेदविद्या का अध्यापन सर्वश्रेष्ठ है॥२३३॥


धर्मसंचय का विधान एवं धर्मप्रशंसा―


धर्मं शनैः सञ्चिनुयाद् वल्मीकमिव पुत्तिकाः। 

परलोकसहायार्थं सर्वलोकान्यपीडयन्॥२३८॥ (७६)


मनुष्य परलोक=परजन्मों में सुख प्राप्ति के लिए या उत्तम परजन्म की प्राप्ति के लिए किसी भी प्राणी को पीड़ा न देते हुए दीमक जैसे बांबी का उत्तरोत्तर निर्माण करती है, ऐसे सावधानीपूर्वक उत्तरोत्तर धर्म का अधिकाधिक संचय करे॥२३८॥


नामुत्र हि सहायार्थं पिता माता च तिष्ठतः। 

न पुत्रदारा न ज्ञातिधर्मस्तिष्ठति केवलः॥२३९॥ (७७)


क्योंकि परजन्मों में मनुष्य की सहायता करने के लिए माता और पिता नहीं होते हैं, न पुत्र और स्त्री रहते हैं, न सगे-सम्बन्धी रहते हैं, अर्थात् इनमें से कोई साथ नहीं जाता जो उसकी किसी प्रकार की सहायता कर सके मनुष्य के साथ केवल सहायक के रूप में उसका किया धर्म ही साथ जाता है। वही मनुष्य को सुखप्राप्ति या श्रेष्ठजन्मप्राप्ति में सहायता करता है॥२३९॥ 


एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।

एको नु भुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥२४०॥ (७८)


प्रत्येक जीव अकेला ही जन्म ग्रहण करता है अर्थात् केवल अपने स्वयं के कर्मों के आधार पर ही जन्म ग्रहण करता है अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है, अकेला ही श्रेष्ठ कर्मों के सुखरूप फल को भोगता है और अकेला ही दुष्टकर्मों के पापरूप फल को भोगता है॥२४०॥


मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।

विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥२४१॥ (७९)


किसी के मर जाने पर उसके शरीर को लक्कड़ और मिट्टी के ढ़ेले के समान भूमि (=चिता) पर रखकर सगे-सम्बन्धी मुंह फेर कर चले जाते हैं अर्थात् छोड़कर चले जाते हैं उसके साथ परजन्म में केवल धर्म ही साथ-साथ जाता है, अन्य कोई सगा-सम्बन्धी, धन, पदार्थ साथ नहीं जाता॥२४१॥


तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं संचिनुयाच्छनैः। 

धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्॥२४२॥ (८०) 


इसलिए परजन्मों में सहायता के लिए सदैव सावधानीपूर्वक उत्तरोत्तर धर्म का संचय करे क्योंकि धर्म के ही सहाय से दुष्कर दुःख-सागर को जीव तैर जाता है अर्थात् धर्म ही दुःखसागर से पार उतार कर परजन्म में सुख और मोक्ष प्राप्त करने में एक मात्र सहायक होता है॥२४२॥


धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम्। 

परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम्॥२४३॥ (८१)


धर्मपालन रूप तप से जिसके पापभाव नष्ट हो चुके हैं उस धर्माचरण की प्रधानता वाले धर्म से देदीप्यमान सूक्ष्मशरीरी अर्थात् देहान्त हो जाने पर परलोक में जाने को तैयार सूक्ष्म शरीर वाले व्यक्ति को=जीव को धर्म ही त्वरित गति से ब्रह्मलोक में ले जाता है अर्थात् धर्म ही शीघ्र ईश्वर को प्राप्त कराता है॥२४३॥


उत्तमों की संगति करें―


उत्तमैरुत्तमैर्नित्यं सम्बन्धानाचरेत्सह। 

निनीषुः कुलमुत्कर्षमधमानधमांस्त्यजेत्॥२४४ ॥ (८२)


जो मनुष्य अपने सहित सम्पूर्ण कुल का उत्थान चाहता है, वह सदैव श्रेष्ठ-श्रेष्ठ लोगों के साथ ही सम्बन्ध एवं संगति रखे, और गुण-आचरण की दृष्टि से निकृष्टों-निकृष्टों की संगति छोड़ दे॥२४४॥


उत्तमानुत्तमान् गच्छन् हीनान्हीनांश्च वर्जयन्। 

ब्राह्मणः श्रेष्ठतामेति प्रत्यवायेन शूद्रताम्॥२४५॥ (८३)


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज श्रेष्ठ-श्रेष्ठ लोगों के साथ सम्बन्ध और संगति करते हुए तथा गुणहीनों की संगति छोड़कर अधिक श्रेष्ठता को प्राप्त करता है और इसके विपरीत आचरण करने पर अर्थात् गुणहीनों से सम्बन्ध रखकर शूद्रत्व को प्राप्त करता है अर्थात् गुणशून्य होकर शूद्र बन जाता है॥२४५॥


स्वर्गप्राप्ति में सहायक गुण―


दृढकारी मृदुर्दान्तः क्रूराचारैरसंवसन्। 

अहिंस्रो दमदानाभ्यां जयेत्स्वर्गं तथाव्रतः॥२४६॥ (८४)


उत्तमों की संगति करने तथा गुणहीनों की संगति न करने का व्रतधारी जो द्विज दृढ़ता से अपने कर्त्तव्य का पालन करता है और दयालु स्वभाव वाला है जितेन्द्रिय है हिंसा न करने वाला है या परपीड़ा का जिसका स्वभाव नहीं है, वह क्रूर-हिंसक आचरण वालों के साथ न रहते हुए मन के संयम और विद्या आदि के दान से सुख पर अधिकार कर लेता है अथवा मोक्षसुख को प्राप्त कर लेता है॥२४६॥


आत्मा के विरुद्ध बोलने वाला पापी है―


योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते।

स पापकृत्तमो लोके स्तेन आत्मापहारकः॥२५५॥ (८५)


जो व्यक्ति आत्मा में कुछ अन्य विचार होते हुए अथवा अन्य आचरण होते हुए श्रेष्ठ जनों में अन्य कुछ बताता है या बोलता है अर्थात् असत्य कथन करता है वह लोक में महान् पापी माना गया है, क्योंकि वह आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाला, आत्मा का हनन करने वाला होता है। आत्मा के विचारों के विरुद्ध भाषण एवं आचरण 'आत्महत्या' भी है और चोरी भी है॥२५५॥ 


वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिःसृताः।

तांस्तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः॥२५६॥ (८६)


वाणी में ही सब अर्थ=व्यवहार निश्चित हैं, सम्बन्धित हैं वाणी ही जिनका मूल और जिस वाणी ही से सब व्यवहार सिद्ध होते हैं जो मनुष्य उस वाणी को चोरता अर्थात् मिथ्याभाषण करता है वह जानो सब चोरी आदि पाप को करता है, इसलिए मिथ्याभाषण को छोड़के सदा सत्यभाषण ही किया करे॥२५६॥


योग्य पुत्र में गृह-कार्यों का समर्पण―


महर्षिपितृदेवानां गत्वाऽऽनृण्यं यथाविधि।

पुत्रे सर्वं समासज्य वसेन्माध्यस्थमाश्रितः॥२५७॥ (८७)


उक्त विधि के अनुसार व्यक्ति [ब्रह्मचर्यपालन एवं अध्ययन-अध्यापन से] ऋषि-ऋण को, [माता-पिता आदि बुजुर्गों की सेवा एवं सन्तानोत्पत्ति से] पितृ-ऋण को, [यज्ञों के अनुष्ठान से] देवऋण को चुकाकर घर की सारी जिम्मेदारी पुत्र को सौंपकर [तत्पश्चात् वानप्रस्थ लेने से पूर्व जब तक घर में रहे तब तक] मध्यममार्ग के आश्रित होकर अर्थात् सांसारिक मोह-माया में लिप्त न होते हुए तटस्थ भाव से घर में निवास करे॥२५७॥


आत्मचिन्तन का आदेश एवं फल―


एकाकी चिन्तयेन्नित्यं विविक्ते हितमात्मनः। 

एकाकी चिन्तयानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति॥२५८॥ (८८)


मनुष्य प्रतिदिन एकान्त में बैठकर अकेला अर्थात् स्वयं अपनी आत्मा में आत्म-कल्याण की बातों का चिन्तन करें क्योंकि एकाकी चिन्तन करने वाला व्यक्ति अधिकाधिक कल्याण को प्राप्त करता जाता है॥२५८॥


विषय का उपसंहार―


एषोदिता गृहस्थस्य वृत्तिर्विप्रस्य शाश्वती।

स्नातकव्रतकल्पश्च सत्त्ववृद्धिकरः शुभः॥२५९॥ (८९)


यह गृहस्थ विद्वान् द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की सदा पालनीय वृत्ति=जीविका कही और सत्त्वगुण की वृद्धि करने वाला श्रेष्ठ स्नातक गृहस्थ के व्रतों के विधान को अर्थात् आचार-व्यवहार की विधि को भी कहा॥२५९॥


अनेन विप्रो वृत्तेन वर्तयन्वेदशास्त्रवित्।

व्यपेतकल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते॥२६०॥ (९०)


वेदशास्त्र का ज्ञाता द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य इस जीविका या व्यवहार से वर्ताव करता हुआ पापरहित अर्थात् पुण्यजीवी होकर सदा ब्रह्मलोक अर्थात् ब्रह्म के आश्रय में मग्न रहकर आनन्द को प्राप्त करता है॥२६०॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम्, अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ गृहस्थ-वृत्तिव्रतात्मकश्चतुर्थोऽध्यायः॥





अथ चतुर्थोऽध्यायः 


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(गृहस्थान्तर्गत आजीविका एवं व्रत पालन विषय) 


(आजीविका ४.१ से ४.१२ तक)


आयु के द्वितीय भाग में गृहस्थ बनें―


चतुर्थमायुषो भागमुषित्वाऽऽद्यं गुरौ द्विजः। 

द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत्॥१॥ (१)


(द्विजः) द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (आद्यम्) पहले (आयुषः चतुर्थं भागम्) आयु के चौथाई भाग तक [कम से कम पच्चीस वर्ष पर्यन्त] (गुरौ उषित्वा) गुरु के समीप रहकर अर्थात् गुरुकुल में रहते हुए ब्रह्मचर्यपालनपूर्वक विद्याध्ययन करके (आयुषः द्वितीयं भागम्) आयु के दूसरे भाग में अर्थात् पच्चीस वर्ष के बाद (कृतदारः) विवाह करके (गृहे वसेत्) घर में निवास करे, गृहस्थ बने॥१॥


गृहस्थ की जीविका परपीड़ारहित हो―


अद्रोहेणैव भूतानामल्पद्रोहेण वा पुनः। 

या वृत्तिस्तां समास्थाय विप्रो जीवेदनापदि॥२॥ (२)


(विप्रः) तीनों वर्णों के द्विज व्यक्ति (अनापदि) आपत्तिरहितकाल में (भूतानाम् अद्रोहेण+एव) दूसरे प्राणियों को जिससे किसी भी प्रकार की पीड़ा न पहुँचे, ऐसी (वा) अथवा (पुनः) ऐसी वृत्ति न मिलने पर बाद में (अल्पद्रोहेण) जिसमें प्राणियों को कम से कम कष्ट हो, ऐसी (या वृत्तिः) जो वृत्ति=आजीविका हो (तां समास्थाय जीवेत्) उसको अपनाकर जीवन-निर्वाह करे॥२॥


धन-संग्रह जीवनयात्रा चलाने मात्र के लिए हो―


यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थं स्वैः कर्मभिरगर्हितैः। 

अक्लेशेन शरीरस्य कुर्वीत धनसंचयम्॥३॥ (३) 


(स्वैः अगर्हितैः कर्मभिः) अपने अनिन्दित अर्थात् शास्त्रोक्त श्रेष्ठकर्मों से [४.११] (शरीरस्य अक्लेशेन) शरीर को अधिक कष्ट न देते हुए (यात्रामात्रप्रसिद्ध्यर्थम्) जीवनयात्रा को भलीभांति चलाने के प्रयोजन से ही अर्थात् केवल धनसंग्रह के उद्देश्य से नहीं [जिससे जीवन कष्टरहित रूप में चलता रहे और उसमें अधिक ऐश्वर्य संग्रह की कामना न हो] (धन-संचयं कुर्वीत) धन का संचय करे॥३॥ 


शास्त्रविरुद्ध जीविका न हो―


न लोकवृत्तं वर्त्तेत वृत्तिहेतोः कथञ्चन।

अजिह्मामशठां शुद्धां जीवेद्ब्राह्मणजीविकाम्॥११॥ (४) 


गृहस्थ द्विज (वृत्तिहेतोः) जीविका के लिए (कथञ्चन) कभी, किसी भी अवस्था में (लोकवृत्तं न वर्तेत) शास्त्रोक्त जीविका को छोड़कर लोकाचार=लोकव्यवहार का आश्रय न ले, अपितु सदैव (अजिह्माम्) कुटिलता, छल-कपट रहित (अशठाम्) बेईमानी और धोखे से रहित (शुद्धाम्) शुद्ध-पवित्र, धर्मानुकूल (ब्राह्मणजीविकां जीवेत्) वेद-शास्त्रोक्त शुद्ध भावयुक्त जीविका को करके जीवन बिताये॥११॥ 


सन्तोष सुख का मूल है, असन्तोष दुःख का―


सन्तोषं परमास्थाय सुखार्थी संयतो भवेत्। 

सन्तोषमूलं हि सुखं दुःखमूलं विपर्ययः॥१२॥ (५)


(सुखार्थी) सुख चाहने वाला व्यक्ति (परमं सन्तोषम् आस्थाय) अत्यन्त सन्तोष को धारण करके (संयतः भवेत्) संयत=अधिक धन के संग्रह की इच्छा न रखने वाला बने (हि) क्योंकि (सन्तोषमूलं सुखम्) सन्तोष ही सुख का मूल है (विपर्ययः) उससे उलटा अर्थात् असन्तोष (दुःखमूलम्) दुःख का मूल कारण है॥१२॥


(स्नातक गृहस्थों के व्रत)


[४.१३ से ४.२५९ तक]


गृहस्थों के लिए सत्त्वगुणवर्धक व्रत―


अतोऽन्यतमया वृत्त्या जीवंस्तु स्नातको द्विजः। 

स्वर्गायुष्ययशस्यानि व्रतानीमानि धारयेत्॥१३॥ (६)


(अतः) इसलिए (स्नातकः द्विजः) स्नातक गृहस्थ द्विज (अन्यतमया) निर्धारित [१.८७-९१] वृत्तियों में से अपेक्षाकृत किसी श्रेष्ठ (वृत्त्या) आजीविका से (जीवन्) जीवननिर्वाह करते हुए (स्वर्ग-आयुष्य-यशस्यानि इमानि व्रतानि धारयेत्) इस लोक का सुख और मुक्ति सुख [३.२५९, २६०] आयु और यश बढ़ाने वाले इन व्रतों को धारण करे―॥१३॥


गृहस्थों के लिये सत्त्वगुणवर्धक व्रत―


वेदोदितं स्वकं कर्म नित्यं कुर्यादतन्द्रितः। 

तद्धि कुर्वन् यथाशक्ति प्राप्नोति परमां गतिम्॥१४॥ (७)


द्विज (स्वकं वेदोदितं कर्म) अपने वेदोक्त कर्म-समूह को (अतन्द्रितः नित्यं कुर्यात्) आलस्य-प्रमाद छोड़कर सदा किया करे (तत्+हि यथाशक्ति कुर्वन्) उस कर्म-समूह को प्रयत्नपूर्वक करते हुए द्विज निश्चय ही (परमां गतिं प्राप्नोति) सर्वोत्तम गति=सुख और मुक्ति को प्राप्त करता है॥१४॥


अधर्म से धनसंग्रह न करें―


नेहेतार्थान् प्रसङ्गेन न विरुद्धेन कर्मणा। 

न विद्यमानेष्वर्थेषु नार्त्यामपि यतस्ततः॥१५॥ (८)


गृहस्थ द्विज (प्रसंगेन) वस्तु के अभाव आदि के अनुसार अधिक मूल्य लेकर (अर्थान् न ईहेत) धनसंग्रह की इच्छा न करे, (विरुद्धेन कर्मणा न) शास्त्र-विरुद्ध या धर्मविरुद्ध कार्यों से भी धनसंचय न करे, (अर्थेषु विद्यमानेषु न) पर्याप्त धनों के होते हुए अधिक धनों का संग्रह न करें, अर्थात् जमाखोरी न करे, (आर्त्याम्+अपि यतस्ततः न) विपत्ति या कष्ट में होते हुए भी शास्त्रविरुद्ध उपायों या अनुचित उपायों से धन न कमाये॥१५॥


इन्द्रियसक्ति-निषेध―


इन्द्रियार्थेषु सर्वेषु न प्रसज्येत कामतः। 

अतिप्रसक्तिं चैतेषां मनसा संनिवर्तयेत्॥१६॥ (९)


(सर्वेषु इन्द्रियार्थेषु) सभी इन्द्रियों के विषयों में (कामतः न प्रसज्येत) चाहकर कभी न फंसे अर्थात् उनमें लिप्त होने की कभी इच्छा न करे। (च) और (एतेषाम् अतिप्रसक्तिम्) इन्द्रियों के विषयों में होने वाली अति आसक्ति को (मनसा संनिवर्तयेत्) मन से संकल्प करके यत्नपूर्वक दूर करे, रोके॥१६॥


स्वाध्याय से कृतकृत्यता―


सर्वान्परित्यजेदर्थान्स्वाध्यायस्य विरोधिनः।

यथातथाऽध्यापयंस्तु सा ह्यस्य कृतकृत्यता॥१७॥ (१०) 


(स्वाध्यायस्य विरोधिनः) वेद-शास्त्रों के अध्ययन और ईश्वरोपासना के विरोधी=बाधक (सर्वान् अर्थान् परित्यजेत्) सब कामों और व्यवहारों को छोड़ देवे। (यथा-तथा अध्यापयन्+तु) जिस तरह भी हो सके उसी प्रकार प्रयत्न करके स्वाध्याय करते अर्थात् पढ़ते―पढ़ाते रहना (सा हि) वही (अस्य कृतकृत्यता) द्विज गृहस्थ की पूर्णता या जन्म सफलता है॥१७॥


बुद्धिवृद्धिकराण्याशु धन्यानि च हितानि च।

नित्यं शास्त्राण्यवेक्षेत निगमांश्चैव वैदिकान्॥१९॥ (११)


द्विज (आशु बुद्धिवृद्धिकराणि) बुद्धि को शीघ्र बढ़ाने वाले, (च) और (धन्यानि च हितानि) धन एवं सौभाग्य बढ़ाने वाले तथा हितकारी (शास्त्राणि च वैदिकान् निगमान्) वेदशास्त्रों तथा वेद से सम्बन्धित व्याख्या-ग्रन्थों=वेदांग आदि को (नित्यम् अवेक्षेत) सदा पढ़ता-विचारता रहे॥१९॥


यथा यथा हि पुरुषः शास्त्रं समधिगच्छति। 

तथा तथा विजानाति विज्ञानं चास्य रोचते॥२०॥ (१२)


(पुरुषः यथा यथा हि) मनुष्य जैसे-जैसे (शास्त्रं समधिगच्छति) शास्त्रज्ञान में प्रवीण होता जाता है (तथा तथा विजानाति) वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता जाता है (च) और (विज्ञानम् अस्य रोचते) गम्भीर ज्ञानप्राप्ति में इसकी रुचि बढ़ती जाती है॥२०॥


पञ्चयज्ञों के पालन का निर्देश―


ऋषियज्ञं देवयज्ञं भूतयज्ञं च सर्वदा।

नृयज्ञं पितृयज्ञं च यथाशक्ति न हापयेत्॥२१॥ (१३)


(ऋषियज्ञं देवयज्ञं नृयज्ञं च पितृयज्ञम्) ऋषियज्ञ, देवयज्ञ, बलिवैश्वदेवयज्ञ, अतिथियज्ञ और पितृयज्ञ इनको (सर्वदा यथाशक्ति न हापयेत्) सदा ही जहाँ तक हो कभी न छोड़े॥२१॥


अग्निहोत्र का विधान―


अग्निहोत्रं च जुहुयादाद्यन्ते द्युनिशोः सदा। 

दर्शन चार्धमासान्ते पौर्णमासेन चैव हि॥२५॥ (१४)


गृहस्थ (सदा) प्रतिदिन (द्यु-निशोः आद्यन्ते) दिन-रात के आदि और अन्त में अर्थात् प्रात:सायं दोनों सन्धिवेलाओं में (अग्निहोत्रम्) अग्निहोत्रम् (जुहुयात्) करे (च) और (अर्धमासान्ते-दर्शेन) आधे मास के अन्त में दर्शयज्ञ अर्थात् अमावस्या के दिन अग्निहोत्र करे (च) तथा (एवं हि पौर्णमासेन) इसी प्रकार मास पूर्ण होने पर पूर्णिमा के दिन पौर्णमास यज्ञ करे॥२५॥


अतिथिसत्कार का विधान―


आसनाशनशय्याभिरद्भिर्मूलफलेन वा। 

नास्य कश्चिद्वसेद्गेहेशक्तितोऽनर्चितोऽतिथिः॥२९॥ (१५)


(अस्य गेहे) इस गृहस्थ के घर में (कश्चित् अतिथिः) कोई भी अतिथि (आसन्+अशनशय्याभिः) आसन, भोजन, बिछौना आदि से (वा) अथवा (अद्भिः-मूल-फलेन) जल, कन्दमूल और फल आदि से (शक्तितः) सामर्थ्य के अनुसार (अनर्चितः न वसेत्) बिना सत्कार किये न रहे अर्थात् यथाशक्ति सबका सत्कार करना चाहिये॥२९॥ 


सत्कार के अयोग्य व्यक्ति―


पाखण्डिनो विकर्मस्थान् वैडालवृत्तिकान् शठान्।

हैतुकान् बकवृत्तींश्च वाङ्मात्रेणापि नार्चयेत्॥३०॥ (१६)


(पाखण्डिनः) पाखण्डियों अर्थात् वेदविरोधियों (विकर्मस्थान्) अपराधियों अथवा शास्त्रोक्त निर्धारित कर्त्तव्यों के विरुद्ध चलने वालों (वैडालवृत्तिकान्) विडालवृत्ति वालों=ढोंगी [४.१९५] (शठान्) धूर्त, ठग (हैतुकान्) कुतर्की बकवादी (च) और (बकवृत्तीन्) बगुला भक्त=छली-कपटी मनुष्यों का [४.१९६] (वाङ्मात्रेण+अपि न अर्चयेत्) वाणी मात्र से भी सत्कार नहीं करना चाहिए॥३०॥


सत्कार के योग्य व्यक्ति―


वेदविद्याव्रतस्नाताञ्छ्रोत्रियान् गृहमेधिनः।

पूजयेद्धव्यकव्येन विपरीतांश्च वर्जयेत्॥३१॥ (१७)


(वेदविद्याव्रतस्नातान्) वेदों के विद्वान्, ज्ञानी और जो ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके स्नातक बने हैं उनका तथा (श्रोत्रियान् गृहमेधिनः) वेदपाठी=वेद का स्वाध्याय करने वाले गृहस्थ का (हव्यकव्येन) भोज्यपदार्थों और धन, वस्त्रदान आदि से (पूजयेत्) सत्कार करे (विपरीतान् च वर्जयेत्) और जो इनसे विपरीत हैं अर्थात् जो वेदशास्त्रों के विद्वान् और विधिवत् ब्रह्मचर्यस्नातक नहीं तथा जो वेदाध्ययन नहीं करते, उनका सत्कार न करे॥३१॥


भिक्षा एवं बलिवैश्वदेव का विधान―


शक्तितोऽपचमानेभ्यो दातव्यं गृहमेधिना।

संविभागश्च भूतेभ्यः कर्त्तव्योऽनुपरोधतः॥३२॥ (१८)


(गृहमेधिना) गृहस्थों को (अनुपरोधतः) जिससे परिवार के भरण-पोषण में बाधा न पड़े इस प्रकार (शक्तितः) यथाशक्ति (अपचमानेभ्यः) अपने हाथ से जो पकाते नहीं, ऐसे ब्रह्मचारी, संन्यासी आदि को (दातव्यम्) अन्न-भोजन देना चाहिए (च) और (भूतेभ्यः संविभागः कर्तव्यः) प्राणियों― असहाय, विकलांगादि मनुष्यों तथा कुत्ता, पक्षी आदि के लिये भी भोजन का भाग निकालना चाहिए॥३२॥ 


स्वाध्याय में तत्पर रहना―


क्लृप्तकेशनखश्मश्रुर्दान्तः शुक्लाम्बरः शुचिः। 

स्वाध्याये चैव युक्तः स्यान्नित्यमात्महितेषु च॥३५॥ (१९)


(क्लृप्त-केश-नख-श्मश्रुः) केश, नाखून और दाढी कटवाता रहे (दान्तः) संयमी रहे (शुक्लाम्बरः) स्वच्छ वस्त्र धारण करे (शुचिः) आन्तरिक और बाह्य शुद्धता-स्वच्छता रखे (च) और (नित्यं स्वाध्यायेच आत्महितेषु युक्तः स्यात्) सदैव वेदों के स्वाध्याय और अपनी आत्मा की उन्नति में लगा रहे॥३५॥


रजस्वलागमन-निषेध एवं उससे हानि―


नोपगच्छेत्प्रमत्तोऽपि स्त्रियमार्तवदर्शने।

समानशयने चैव न शयीत तया सह॥४०॥ (२०)


(प्रमत्तः+अपि) कामातुर होता हुआ भी (आर्तवदर्शने) मासिक धर्म के दिनों में (स्त्रियं न+उपगच्छेत्) स्त्री से सम्भोग न करे (च) और (तया सह समानशयने न शयीत) उसके साथ एक बिस्तर पर न सोये॥४०॥


रजसाऽभिप्लुतां नारीं नरस्य ह्युपगच्छतः। 

प्रज्ञा तेजो बलं चक्षुरायुश्चैव प्रहीयते॥४१॥ (२१)


(हि) क्योंकि (रजसा+अभिप्लुतां नारी) रजस्वला स्त्री के (उपगच्छतः नरस्य) पास जाने वाले=सम्भोग करने वाले मनुष्य के (प्रज्ञा तेजः बलं चक्षुः च आयुः एव प्रहीयते) बुद्धि, तेज, बल, नेत्रज्योति और आयु ये सब क्षीण हो जाते हैं॥४१॥ 


रजस्वलागमन-त्याग से लाभ―


तां विवर्जयतस्तस्य रजसा समभिप्लुताम्। 

प्रज्ञा तेजो बलं चक्षुरायुश्चैव प्रवर्धते॥४२॥ (२२)


(रजसा समभिप्लुतां तां विवर्जयतः) रज निकलती हुई अर्थात् रजस्वला स्त्री से सम्भोग न करने वाले (तस्य) उस मनुष्य के (प्रज्ञा तेजः बलं चक्षुः च आयु एव प्रवर्धते) बुद्धि, तेज, बल, नेत्रज्योति और आयु ये सब बढ़ते हैं॥४२॥


किन पशुओं से सवारी न करे या करे―


नाविनीतैर्व्रजेद्धुर्यैर्न च क्षुद्व्याधिपीडितैः। 

न भिन्नशृङ्गाक्षिखुरैर्न वालाधिविरूपितैः॥६७॥ (२३)


(अविनीतैः) बिना सिखाये हुए, (क्षुद्-व्याधिपीडितैः) भूख और रोग से पीड़ित (भिन्न-श्रृंग-अक्षिखुरैः) जिनके सींग, नेत्र और खुर टूट-फूट गये हैं, (वाल+अधिविरूपितैः) जिनकी पूँछ कटी या घायल हो, ऐसे (धुर्यैः न व्रजेत्) गाड़ी में जुतने वाले घोड़े, बैल आदि पशुओं को रथ या गाड़ी में जोतकर न जाये॥६७॥


विनीतैस्तु व्रजेन्नित्यमाशुगैर्लक्षणान्वितैः। 

वर्णरूपोपसम्पन्नैः प्रतोदेनातुदन्भृशम्॥६८॥ (२४)


(विनीतैः) सिखाये हुए, (लक्षण+अन्वितैः) स्वस्थ लक्षणों से युक्त (वर्ण-रूप+उपसम्पन्नैः) सुन्दर रंग-रूप से युक्त (आशुगैः) शीघ्रागामी पशुओं से (प्रतोदेन भृशम् अतुदन्) चाबुक की मार से बार-बार पीड़ा न देता हुआ (व्रजेत्) सवारी करे अर्थात् रथ या गाड़ी में जोतकर जाये॥६८॥ 


दुष्टो का संग न करे―


न संवसेच्च पतितैर्न चाण्डालैर्न पुल्कसैः। 

न मूखैर्नावलिप्तैश्च नान्त्यैर्नान्त्यावसायिभिः॥७९॥ (२५)


मनुष्य (न पतितैः) न निर्धारित कर्तव्य-व्यवस्था का पालन न करने वालों के साथ, (न चाण्डालैः) न क्रूर कर्म करने वालों के साथ, (न पुल्कसैः) न वर्ण से पूर्णतः बहिष्कृतों के साथ [पुल्=पूर्णतः, कसैः= निष्कासितैः], (न मूखैः) न मूर्खों के साथ, (न अवलिप्तः) न घमण्डी लोगों के साथ, (न+अन्त्यैः) न वर्णव्यवस्था में अदीक्षित लोगों के साथ (न+अन्त्यावसायिभिः) न नीच व्यवसाय करने वालों के साथ (संवसेत्) रहे॥७९॥


ब्राह्ममुहूर्त में जागरण―


ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत धर्मार्थौ चानुचिन्तयेत्।

कायक्लेशाँश्च तन्मूलान् वेदतत्त्वार्थमेव च॥९२॥ (२६)


मनुष्य (ब्राह्मे मुहूर्ते बुध्येत) रात्रि के अन्तिम पहर में उठे (च) और (धर्म-अर्थौ) धर्मपालन तथा धर्मपूर्वक अर्थसंग्रह (च) और (काय-क्लेशान् च तत्+मूलान्) शरीर सम्बन्धी कष्टों और उनके उत्पादक कारणों (च) तथा (वेदतत्त्वार्थम्+एव) वेदोक्त उपदेशों पर (अनुचिन्तयेत्) चिन्तन और आचरण करे॥९२॥


सन्ध्योपासन आदि नित्यचर्या का पालन एवं उससे दीर्घायु की प्राप्ति―


उत्थायावश्यकं कृत्वा कृतशौचः समाहितः। 

पूर्वां सन्ध्यां जपंस्तिष्ठेत्स्वकाले चापरां चिरम्॥९३॥ (२७)


(उत्थाय) ब्राह्ममुहूर्त में उठकर (आवश्यकं कृत्वा) दिनचर्या के आवश्यक शौच आदि कार्य सम्पन्न करके (कृतशौचः) स्नान आदि से स्वच्छ-पवित्र होकर (समाहितः) एकाग्रचित्त होकर (पूर्वां संध्याम्) प्रातःकालीन सन्ध्या को [२.१०१] भी (जपन्) गायत्री आदि मन्त्र अर्थसहित जपता हुआ [२.१०१, १०५] (चिरं तिष्ठेत्) देर तक उपासना में बैठे अर्थात् दोनों समय की सन्ध्योपासना शीघ्रता में न करे अपितु लम्बे समय तक करे॥९३॥ 


ऋषयो दीर्घसन्ध्यत्वाद्दीर्घमायुरवाप्नुयुः।

प्रज्ञां यशश्च कीर्तिं च ब्रह्मवर्चसमेव च ॥९४॥ (२८)


(ऋषयः) मन्त्रार्थद्रष्टा ऋषियों ने (दीर्घसन्ध्यत्वात्) देर तक सन्ध्योपासना करने के कारण (दीर्घम्+आयुः, प्रज्ञां, यशः, कीर्तिं, च ब्रह्मवर्चसम् अवाप्नुयुः) लम्बी आयु, बुद्धि, यश, प्रसिद्धि और ब्रह्मतेज=आध्यात्मिक ऊर्जा को प्राप्त किया है॥९४॥ 


स्त्रीगमन में पर्वदिनों का त्याग करे―


अमावस्यामष्टमीं च पौर्णमासीं चतुर्दशीम्। 

ब्रह्मचारी भवेन्नित्यमप्यृतौ स्नातको द्विजः॥१२८॥ (२९)


(स्नातकः द्विजः) गृहस्थ द्विज को चाहिये कि वह (ऋतौ अपि) पत्नी के ऋतुकाल की अवधि होते हुए भी (अमावस्याम्+अष्टमीं पौर्णमासीं च चतुर्दशीम्) अमावस्या, अष्टमी, पूर्णिमा और चतुर्दशी के दिन (नित्यं ब्रह्मचारी भवेत्) सर्वथा ब्रह्मचारी रहे॥१२८॥


परस्त्री-सेवन का निषेध एवं त्याज्य व्यक्ति― 


वैरिणं नोपसेवेत सहायं चैव वैरिणः। 

अधार्मिकं तस्करं च परस्यैव च योषितम्॥१३३॥ (३०)


गृहस्थ द्विज (वैरिणम्) शत्रु (च) और (वैरिणः सहायं) शत्रु के सहायक (अधार्मिकं तस्करं च परस्य योषितम्) अधार्मिक, चोर, पराई स्त्री, इनसे (न+उप सेवेत) मेलजोल न रखे और परस्त्रीगमन न करे॥१३३॥


परस्त्री-सेवन से हानियाँ―


न हीदृशमनायुष्यं लोके किञ्चन विद्यते।

यादृशं पुरुषस्येह परदारोपसेवनम्॥१३४॥ (३१)


गृहस्थ द्विज का (इह लोके) इस संसार में (पुरुषस्य अनायुष्यम् ईदृशं किंचन न हि विद्यते) पुरुष आयु को घटाने वाला ऐसा कोई काम नहीं है (यादृशम्) जैसा कि (परदारा-उपसेवनम्) परस्त्री से मेलजोल रखना और परस्त्रीगमन करना है॥१३४॥ 


आत्महीनता की भावना मन में न लाये―


नात्मानमवमन्येत पूर्वाभिरसमृद्धिभिः।

आमृत्योः श्रियमन्विच्छेन्नैनां मन्येत दुर्लभाम्॥१३७॥ (३२)


मनुष्य (पूर्वाभिः+असमृद्धिभिः) पहले की दरिद्रताओं या अभावों को याद करके (आत्मानं न अवमन्येत) अपने को तुच्छ या दीन-हीन न समझे (आमृत्योः) मृत्युपर्यन्त (श्रियम्+अन्विच्छेत्) धनऐश्वर्य, आदि की प्राप्ति के लिए लग्नपूर्वक पुरुषार्थ करे (एनां दुर्लभां न मन्येत) इनको दुर्लभ न माने अर्थात् दुर्लभ मानकर निराश-हताश होकर न बैठे, अपितु पुरुषार्थ करता रहे॥१३७॥


सत्य तथा प्रियाभाषण करे―


सत्यं ब्रूयात्प्रियं ब्रूयान्न ब्रूयात् सत्यमप्रियम्।

प्रियं च नानृतं ब्रूयादेष धर्मः सनातनः॥१३८॥ (३३)


मनुष्य (सत्यं ब्रूयात् प्रियं ब्रूयात्) सदा सत्य बोले और उसको प्रिय अर्थात् मधुर, शिष्ट एवं हितकर रूप में बोले (सत्यम्+अप्रियं न ब्रूयात्) सत्यभाषण भी अप्रिय और अहितकर भाव से न बोले, जैसे अन्धे को अंधा, काणे को काणा, लंगड़े को लंगड़ा आदि न कहे। (च) और (प्रियं अनृतं न ब्रूयात्) प्रिय या हितकर भी झूठ हो तो उसे न बोले अर्थात् दूसरे की चाटुकारिता और प्रसन्नता के लिए असत्यभाषण न करे, (एषः सनातनः धर्मः) यह सदा-सर्वदा पालनीय धर्म है॥१३८॥


भद्र व्यवहार करे व भद्रवाणी बोले―


भद्रं भद्रमिति ब्रूयाद् भद्रमित्येव वा वदेत्। 

शुष्कवैरं विवादं च न कुर्यात्केनचित्सह॥१३९॥ (३४)


मनुष्य (भद्रं भद्रम्+इति ब्रूयात्) सदा शिष्ट, कल्याणकर या हितकर बात को ही कहे (वा) अथवा (भद्रम्+इति+एव वदेत्) जो भी बोले उसे शिष्ट एवं हितकर भाव से ही बोले। (केनचित् सह) किसी के भी साथ (शुष्कवैरं च विवादं न कुर्यात्) व्यर्थ विरोध और विवाद एवं झगड़ा न करे॥१३९॥


हीन, विकलांग आदि पर व्यंग्य न करे—


हीनाङ्गानतिरिक्ताङ्गान्विद्याहीनान्वयोऽधिकान्। 

रूपद्रव्यविहीनांश्च जातिहीनांश्च नाक्षिपेत्॥१४१॥ (३५)


(हीन+अगान्) विकृत या कम शारीरिक अंगों वालों अर्थात् अपंगों (अतिरिक्त+अङ्गान्) अधिक अंगों वालों (विद्याहीनान्) अनपढ़, मूर्ख (वय+अधिकान्) आयु में बड़े (च) और (रूप-द्रव्यविहीनान्) रूप और धन से रहित (च) और (जातिहीनान्) अपने से निम्न वर्ण वाले, इन पर (न आक्षिपेत्) उनकी न्यूनताओं पर कभी आक्षेप [=व्यंग्य या हंसी-मजाक] न करे॥१४१॥ 


कल्याणकारी यज्ञ-सन्ध्या आदि कार्य करे—


मङ्गलाचारयुक्तः स्यात्प्रयतात्मा जितेन्द्रियः। 

जपेच्च जुहुयाच्चैव नित्यमग्निमतन्द्रितः॥१४५॥ (३६)


मनुष्य सदा (मङ्गल+आचार+युक्तः) कल्याणकारी आचरण करे, (प्रयतात्मा) आत्मा की उन्नति के लिए सदा प्रयत्नशील रहे, (जितेन्द्रियः) जितेन्द्रिय (स्यात्) होवे (च) और (अतन्द्रितः) आलस्यरहित होकर (नित्यम् एव) प्रतिदिन अवश्य ही (जपेत्) जपोपासना अर्थात् सन्ध्या करे (च) तथा (अग्निंजुहुयात्) अग्नि में हवन करे॥१४५॥ 


यज्ञ-सन्ध्या आदि कल्याणकारी कार्यों से लाभ—


मङ्गलाचारयुक्तानां नित्यं च प्रयतात्मनाम्। 

जपतां जुह्वतां चैव विनिपातो न विद्यते॥१४६॥ (३७)


(मङ्गल+आचार+युक्तानाम्) जो सदा कल्याणकारी आचरण और कार्यों में लगे रहते हैं (च) और (नित्यं प्रयतात्मनाम्) जो सदा आत्मा की उन्नति के लिए प्रयत्नशील रहते हैं (च) तथा (जपताम्) जो प्रतिदिन सन्ध्या द्वारा परमात्मा का जप एवं उपासना करते हैं (च) और (जुह्वताम्) जो प्रतिदिन हवन करते हैं, उनका जीवन में कभी (विनिपातः) पतन (न विद्यते) नहीं होता अर्थात् उनका जीवन बुराइयों की ओर नहीं जाता॥१४६॥ 


वेदाभ्यास परमधर्म है—


वेदमेवाभ्यसेन्नित्यं यथाकालमतन्द्रितः।

तं ह्यस्याहुः परं धर्ममुपधर्मोऽन्य उच्यते॥१४७॥ (३८)


द्विज (नित्यम्) सदा (यथाकालम्) जितना भी अधिक समय लगा सके उसके अनुसार (अतन्द्रितः) आलस्यरहित होकर (वेदम्+एव+अभ्यसेत्) वेद का ही अभ्यास करे, वेद का स्वाध्याय करे (हि) क्योंकि (तम् अस्य परं धर्मम् आहुः) वेदाभ्यास को द्विजों का सर्वोत्तम धर्म या कर्त्तव्य कहा है (अन्यः उपधर्मः उच्यते) वेदाभ्यास के समक्ष अन्य सब धर्म या कर्त्तव्य गौण हैं॥१४७॥ 


वेदाभ्यास का कथन और उसका फल―


वेदाभ्यासेन सततं शौचेन तपसैव च। 

अद्रोहेण च भूतानां जाति स्मरति पौर्विकीम्॥१४८॥ (३९)


मनुष्य (सततं वेदाभ्यासेन) निरन्तर वेद का अभ्यास अर्थात् स्वाध्याय करने से (शौचेन) आत्मिक तथा शारीरिक पवित्रता से (च) तथा (तपसा) तपस्या से (च) और (भूतानाम् अद्रोहेण) प्राणियों के साथ द्रोह-भावना न रखते हुए अर्थात् अहिंसा की भावना रखते हुए (पौर्विकी जातिं स्मरति) पूर्वजन्म की अवस्था को स्मरण कर लेता है॥१४८॥


पौर्विकीं संस्मरञ्जातिं ब्रह्मैवाभ्यसते पुनः।

ब्रह्माभ्यासेन चाजस्त्रमनन्तं सुखमश्नुते॥१४९॥ (४०)


(पौर्विकी जातिं संस्मरन्) पूर्वजन्म की अवस्था का स्मरण कर लेने पर (पुनः ब्रह्म+एव+अभ्यसते) फिर भी यदि वेद के अभ्यास=स्वाध्याय में लगा रहता है तो (अजस्त्रं ब्रह्माभ्यासेन) निरन्तर वेद का अभ्यास करने से (अनन्तं सुखम्+अश्नुते) मोक्ष-सुख को प्राप्त कर लेता है॥१४९॥


वृद्धों का अभिवादन एवं स्वागत―


अभिवादयेद् वृद्धांश्च दद्याच्चैवासनं स्वकम्। 

कृताञ्जलिरुपासीत गच्छतः पृष्ठोऽन्वियात्॥१५४॥ (४१)


मनुष्य सदा (वृद्धान् अभिवादयेत्) वृद्धजनों=विद्या और आयु में बड़ों को पहले अभिवादन=नमस्कार करे (च) और (स्वकम् आसनम् एव दद्यात्) आने पर बैठने के लिए अपनी ओर से आसन प्रदान करे, [बैठ जाने पर फिर] (कृताञ्जलिः उपासीत) हाथ जोड़ने की शिष्टता के बाद उनके पास बैठे और उनके योग्य कर्त्तव्य पूछे और उस को पूर्ण करे, (गच्छतः) लौटते हुए (पृष्ठतः+अनु+इयात्) कुछ दूर तक पीछे-पीछे जाकर विदा करे॥१५४॥


सदाचार-धर्म का मूल तथा उसका फल―


श्रुतिस्मृत्युदितं सम्यङ् निबद्धं स्वेषु कर्मसु। 

धर्ममूलं निषेवेत सदाचारमतन्द्रितः॥१५५॥ (४२)


मनुष्य सदा (अतन्द्रितः) आलस्य-प्रमाद छोड़ कर अर्थात् सावधान रहकर (श्रुति-स्मृति+उदितम्) वेद और स्मृति [२.६, ९, १२] में कहे गये (स्वेषु कर्मसु सम्यक्+निबद्धम्) जो सभी कर्त्तव्यों का आधार है, अर्थात् जो सभी कर्त्तव्यों के साथ अनिवार्य रूप से पालनीय है उस (धर्ममूलम्) धर्म के मूल (सदाचारं निषेवेत) सदाचार का पालन करे॥१५५॥


आचाराल्लभते ह्यायुराचारादीप्सिताः प्रजाः। 

आचाराद्धनमक्षय्यमाचारो हन्त्यलक्षणम्॥१५६॥ (४३)


(आचारात् हि आयुः) सदाचार या धर्माचरण से ही दीर्घायु (आचारात्+ईप्सिताः प्रजाः) सदाचार से ही मनचाही उत्तम सन्तान (आचारात् अक्षय्यं धनम्) सदाचार से ही अक्षय धन (लभते) प्राप्त होता है (आचारः अलक्षणं हन्ति) धर्माचरण सारे अधर्मयुक्त बुरे लक्षणों का नाश कर देता है॥१५६॥


दुराचार से हानि―


दुराचारो हि पुरुषो लोके भवति निन्दितः। 

दुःखभागी च सततं व्याधितोऽल्पायुरेव च॥१५७॥ (४४)


(दुराचारः हि पुरुषः) जो दुराचारी पुरुष है वह (लोके निन्दितः भवति) संसार में निन्दा का पात्र बनता है (च) और (सततं व्याधितः) निरन्तर रोगों से ग्रस्त रहता हुआ (दुःखभागी) दुःख को भोगने वाला (च) और (अल्पायुः+एव भवति) कम आयु वाला होता है अर्थात् उसकी आयु घट जाती है और शीघ्र मृत्यु को प्राप्त होता है॥१५७॥


सर्वलक्षणहीनोऽपि यः सदाचारवान्नरः। 

श्रद्दधानोऽनसूयश्च शतं वर्षाणि जीवति॥१५८॥ (४५)


(यः नरः) जो मनुष्य (सर्वलक्षणहीनः+अपि) विहित विद्या आदि सब लक्षणों से रहित होते हुए भी यदि (सदाचारवान्) सदाचारी है, (श्रद्दधानः च अनसूयः) सत्कर्मों के प्रति श्रद्धावान् है और ईर्ष्या-द्वेषनिन्दा से रहित है, वह (शतं वर्षाणि जीवति) सौ वर्ष पर्यन्त जीता है अर्थात् इन गुणों वाले व्यक्ति की आयु बढ़कर सौ वर्ष तक हो जाती है॥१५८॥


परवश कर्मों का त्याग―


यद्यत्परवशं कर्म तत्तद्यत्नेन वर्जयेत्।

यद्यदात्मवशं तु स्यात् तत्तत्सेवेत यत्नतः॥१५९॥ (४६)


मनुष्य (यत्+यत् परवशं कर्म) जो-जो पराधीन कर्म है (तत्+तत् यत्नेन वर्जयेत्) उस-उस को प्रयत्नपूर्वक छोड़ देवे (तु) और (यत्+यत्+आत्मवशं स्यात्) जो-जो अपने अधीन कर्म हो (तत्+तत् यत्नतः सेवेत) उस-उस को यत्नपूर्वक किया करे॥१५९॥


सुख-दुःख का लक्षण―


सर्वं परवशं दुःखं सर्वमात्मवशं सुखम्। 

एतद्विद्यात्समासेन लक्षणं सुखदुःखयोः॥१६०॥ (४७)


क्योंकि (परवशं सर्वं दुःखम्) जो कुछ भी पराधीन कर्म है वह सब दुःख रूप है, और (आत्मवशं सर्वं सुखम्) जो-जो स्वाधीन कर्म है वह सुखरूप है। (एतत् समासेन) यह संक्षेप से (सुखदुःखयोः लक्षणं विद्यात्) सुख और दुःख का लक्षण जाने अर्थात् सुख और दुःख की पहचान कराने वाला कर्म समझें॥१६०॥ 


आत्मा के प्रसन्नताकारक कार्य ही करे―


यत्कर्म कुर्वतोऽस्य स्यात्परितोषोऽन्तरात्मनः ।

तत्प्रयत्नेन कुर्वीत विपरीतं तु वर्जयेत्॥१६१॥ (४८)


(यत् कर्म कुर्वतः) जिस कर्म के करने से (अस्य अन्तरात्मनः परितोषः स्यात्) मनुष्य की आत्मा को सन्तुष्टि एवं प्रसन्नता का अनुभव हो अर्थात् भय, शंका, लज्जा का अनुभव न हो (तत्-तत् प्रयत्नेन कुर्वीत) उस-उस कर्म को प्रयत्नपूर्वक करे (विपरीतं तु वर्जयेत्) जिससे सन्तुष्टि एवं प्रसन्नता न हो अर्थात् जिस कर्म को करते समय भय, शंका, लज्जा अनुभव हो उस कर्म को न करे॥१६१॥


माता-पिता-आचार्यादि की हिंसा न करे―


आचार्यं च प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुम्। 

न हिंस्याद् ब्राह्मणान् गाश्च सर्वांश्चैव तपस्विनः॥१६२॥ (४९)


(आचार्यं प्रवक्तारं पितरं मातरं गुरुं ब्राह्मणान् गाः च सर्वान् तपस्विनः) वेद को पढ़ाने वाला [२.१४०], वेद-शास्त्रों का प्रवचन करने वाला, पिता, माता, गुरु [२.१४२], विद्वान् ब्राह्मण, गाय और सभी तपस्वी इनको (न हिंस्यात्) न मारे, न प्रताड़ित  करे॥१६२॥


नास्तिकता, वेदनिन्दा आदि निषिद्ध कर्म―


नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां च कुत्सनम्। 

द्वेषं दम्भं च मानं च क्रोधं तैक्ष्ण्यं च वर्जयेत्॥१६३॥ (५०)


(नास्तिक्यं वेदनिन्दां च देवतानां कुत्सनम्) नास्तिकता अर्थात् ईश्वर, आत्मा में अविश्वास करना, वेदों की निन्दा और सदाचारी विद्वानों की निन्दा (द्वेषं दम्भं मानं क्रोधं च तैक्ष्ण्यं वर्जयेत्) द्वेष, पाखण्ड, अभिमान, क्रोध, उग्रता=स्वभाव में तीव्रता इनको छोड़ देवे॥१६३॥


शिष्य को केवल शिक्षार्थ ताड़ना करे―


परस्य दण्डं नोद्यच्छेत्क्रुद्धो नैव निपातयेत्।

अन्यत्र पुत्राच्छिष्याद्वा शिष्टयर्थं ताडयेत्तु तौ॥१६४॥ (५१)


(पुत्रात् वा शिष्यात् अन्यत्र) पुत्र और शिष्य से भिन्न (परस्य दण्डं न+उद्यच्छेत्) अन्य किसी व्यक्ति पर दण्डा न उठाये अर्थात् दण्डा आदि से न मारे (क्रुद्धः एव न निपातयेत्) और पुत्र तथा शिष्य को भी क्रोधित होकर न मारे, ताड़ना न करे, (तौ तु शिष्ट्यर्थं ताडयेत्) उन पुत्र और शिष्य को भी केवल शिक्षा देने की भावना से ही ताड़ना करे॥१६४॥


अधर्म-निन्दा एवं अधर्म से दुःखप्राप्ति―


अधार्मिको नरो यो हि यस्य चाप्यनृतं धनम्।

हिंसारतश्च यो नित्यं नेहासौ सुखमेधते॥१७०॥ (५२)


(यः+हि नरः अधार्मिकः) जो मनुष्य अधार्मिक है, अधर्म के कार्य करता है, (च) और (यस्य अनृतं धनम्) जिसका अधर्म-असत्य से संचित किया हुआ धन है (च) और (यः हिंसारतः) जो हिंसा में रत है, दूसरों को पीड़ा देता है (असौ) ऐसा मनुष्य (इह सुखं न एधते) इस जीवन में कभी सुख प्राप्त नहीं कर सकता है और अधर्म के कारण उसे परजन्मों में भी सुख नहीं मिलता॥१७०॥


न सीदन्नपि धर्मेण मनोऽधर्मे निवेशयेत्। 

अधार्मिकाणां पापानामाशु पश्यन्विपर्ययम्॥१७१॥ (५३)


(अधार्मिकाणां पापानां आशु विपर्ययम्) अधार्मिक पापियों का [१७४ में वर्णित रूप में यदि पापों से उनकी उन्नति और समृद्धि हो गई है तो भी] फिर से विनाश तीव्र गति से होता है (पश्यन्) यह समझते हुए (धर्मेण सीदन्+अपि) धर्माचरण से कष्ट उठाता हुआ भी (अधर्मे मनः न निवेशयेत्) अधर्म में मन को न लगावे अर्थात् धर्म में मन रखे और धर्म का ही पालन करता रहे॥१७१॥ 


नाधर्मश्चरितो लोके सद्यः फलति गौरिव।

शनैरावर्तमानस्तु कर्तुर्मूलानि कृन्तति॥१७२॥ (५४)


(लोके चरितः अधर्मः) संसार में किया हुआ अधर्म, (गौः+इव) जैसे गाय को पालने-खिलाने का दुग्ध-प्राप्ति आदि फल तुरन्त प्राप्त नहीं होता अपितु समय-विशेष पर ही होता है; उसी प्रकार (सद्यः न फलति) तुरन्त फल नहीं देता, समय आने पर ही देता है (तु) किन्तु (शनैः+आवर्तमानः) धीरे-धीरे उसको चारों ओर से घेर कर (कर्त्तुः+मूलानि कृन्तति) अधर्मकर्त्ता की जड़ों को ही काट डालता है अर्थात् उसका धीरे-धीरे पूर्णतः सर्वनाश कर देता है॥१७२॥


यदि नात्मनि पुत्रेषु न चेत्पुत्रेषु नप्तृषु।

न त्वेव तु कृतोऽधर्मः कर्तुर्भवति निष्फलः॥१७३॥ (५५)


अधर्म का जो फल (यदि आत्मनि न) यदि कर्ता के अपने जीवन में पूर्ण नहीं मिलता तो (पुत्रेषु) अधर्म में भागीदार पुत्रों के जीवन में मिलता है, (पुत्रेषु न चेत्) यदि पुत्रों के जीवन में पूर्ण नहीं मिलता तो (नप्तृषु) अधर्म में भागीदार नातियों-पोतों के जीवन में मिलता है, (तु) किन्तु (कर्त्तुः कृतः+अधर्मः) कर्त्ता के द्वारा किया गया अधर्म (तु+एव निष्फलः न भवति) कभी भी निष्फल नहीं होता अर्थात् अधर्म में भागीदार को उसका फल अवश्य भोगना पड़ता है॥१७३॥


सब अपने-अपने फल के भोक्ता स्वयं होते हैं―


अधर्मेणैधते तावत्ततो भद्राणि पश्यति।

ततः सपत्नान् जयति समूलस्तु विनश्यति॥१७४॥ (५६)


मनुष्य (अधर्मेण तावत् एधते) अधर्माचरण के द्वारा पहले-पहले उन्नति करता है, (ततः भद्राणि पश्यति) उससे वह अपना कल्याण=सुख-सुविधा, मान-प्रतिष्ठा प्राप्ति होते हुए भी अनुभव करता है, (ततः सपत्नान्+जयति) उससे शत्रुओं पर भी बढ़ोतरी प्राप्त करता है (तु) किन्तु अन्ततः उस अधर्मकर्त्ता का (समूलः विनश्यति) जड़ से ही सर्वनाश हो जाता है॥१७४॥


सत्यधर्म का पालन करे―


सत्यधर्मार्यवृत्तेषु शौचे चैवारमेत्सदा।

शिष्यांश्च शिष्याद्धर्मेण वाग्बाहूदरसंयतः॥१७५॥ (५७)


मनुष्य (सत्यधर्म+आर्यवृत्तेषु) सत्यधर्म और आर्य=उत्तम, सदाचारयुक्त आचरण में (च) और (शौचे) मन-वचन-कर्म की पवित्रता तथा शरीर की शुद्धि में (सदा एव आरमेत्) सदैव प्रयत्नशील रहे (च) और (वाक्+बाहू+उदर-संयतः) वाणी, बाहु, उदर अर्थात् जन्म, धन आदि पाने के लोभ को वश में रखते हुए (धर्मेण) धर्मपूर्वक (शिष्यान् शिष्यात्) शिष्यों को शिक्षा दे और उन पर अनुशासन रखे॥१७५॥


धर्मवर्जित अर्थ-काम का त्याग―


परित्यजेदर्थकामौ यौ स्यातां धर्मवर्जितौ।

धर्मं चाप्यसुखोदर्कं लोकविक्रुष्टमेव च॥१७६॥ (५८)


(यौ अर्थकामौ धर्मवर्जितौ स्याताम्) जो अर्थ=धन-ऐश्वर्य और कामनापूर्ति धर्म से रहित हो अर्थात् अधर्म से सिद्ध होती हो, उसको (परित्यजेत्) छोड़ देवे (च) और (असुखोदर्कम्) भविष्य में दुःख उत्पन्न करने वाला (च) और (लोकविक्रुष्टम् एव) लोगों द्वारा निन्दित हो (धर्मम् अपि) ऐसे नाममात्र के धर्म या धर्माभास को भी छोड़ देवे॥१७६॥


चपलता का त्याग―


न पाणिपादचपलो न नेत्रचपलोऽनृजुः।

न स्याद्वाक्चपलश्चैव न परद्रोहकर्मधीः॥१७७॥ (५९)


मनुष्य (पाणि-पाद-चपलः न) हाथ-पैरों से चंचल न हो, (नेत्र-चपलः न) नेत्रों से चंचल न हो, (अनृजुः) कुटिलता रहित रहे, (च एव) और इसी प्रकार (वाक्-चपलः न) वाणी से चंचल न हो (च) और (परद्रोह-कर्मधीः न स्यात्) ईर्ष्या व द्वेषभाव से दूसरों के काम बिगाड़ने या हानि करने में मन लगाने वाला न हो॥१७७॥


येनास्य पितरो याता येन याताः पितामहाः।

तेन यायात्सतां मार्गं तेन गच्छन्न रिष्यते॥१७८॥ (६०)


(येन+अस्य पितरः याताः) जिस उत्तम और उन्नति के मार्ग पर किसी के माता-पिता चले हैं, और (येन पितामहाः याताः) जिस उत्तम मार्ग से किसी के दादा-दादी आदि चले हैं (तेन सतां मार्गम् यायात्) उन उत्तम सदाचारी लोगों के मार्ग पर ही चले अर्थात् असदाचारियों के या अश्रेष्ठ मार्ग पर न चले (तेन गच्छन्) उस श्रेष्ठ मार्ग पर चलने से मनुष्य (न रिष्यते) कभी दुःख को नहीं प्राप्त करता और न कभी अवनति को प्राप्त होता है॥१७८॥


विवाद न करने योग्य व्यक्ति―


ऋत्विक्पुरोहिताचार्यैर्मातुलातिथिसंश्रितैः। 

बालवृद्धातुरैर्वैद्यैर्ज्ञातिसम्बन्धिबान्धवैः॥१७९॥ 

मातापितृभ्यां यामिभिर्भ्रात्रा पुत्रेण भार्यया।

दुहित्रा दासवर्गेण विवादं न समाचरेत्॥१८०॥ (६१,६२)


मनुष्य कभी (ऋत्विक्-पुरोहित-आचार्यैः) ऋत्विक्=विशेष यज्ञ कराने वालों [२.१४३], कुलपुरोहित [७.७८], शिक्षा देने वालों [२.१४०] से, (मातुल+अतिथि-संश्रितैः) मामा, अतिथियों [३.१०२], आश्रित जनों आदि से, (बाल-वृद्ध-आतुरैः) बालकों, बूढ़ों, रोगियों से (वैद्यैः) वैद्यों, (ज्ञाति-सम्बन्धि-बान्धवैः) अपने वंशवालों, रिश्तेदारों, मित्रों से, (माता-पितृभ्याम्) माता-पिता से, (जामीभिः) बहनों से (भ्रात्रा) भाइयों से, (पुत्रेण) पुत्र से (भार्यया) पत्नी से (दुहित्रा) पुत्री से (दासवर्गेण) सेवकों से (विवादं न समाचरेत्) कभी लड़ाई-झगड़ा न करें॥१७९-१८०॥ 


प्रतिग्रह का लालच न रखे―


प्रतिग्रहसमर्थोऽपि प्रसंगं तत्र वर्जयेत्। 

प्रतिग्रहेण ह्यस्याशु ब्राह्यं तेजः प्रशाम्यति॥१८६॥ (६३)


ब्राह्मण (प्रतिग्रहः समर्थः+अपि) दान लेने का अधिकारी होते हुए भी (तत्र प्रसंगं वर्जयेत्) दानप्राप्ति में आसक्तिभाव अर्थात् उससे धनसंग्रह की प्रवृत्ति को छोड़ देवे (हि) क्योंकि (प्रतिग्रहेण) दान लेने में आसक्ति रखने से अर्थात् लोभ-लालच की प्रवृत्ति होने से (अस्य ब्राह्मं तेजः) ब्राह्मण का ब्राह्मतेज=आत्मिक गौरव अथवा स्वाभिमान (आशु-प्रशाम्यति) शीघ्र क्षीण होने लगता है॥१८६॥ 


प्रतिग्रह की विधियाँ―


न द्रव्याणामविज्ञाय विधिं धर्म्यं प्रतिग्रहे।

प्राज्ञः प्रतिग्रहं कुर्यादवसीदन्नपि क्षुधा॥१८७॥ (६४)


(प्राज्ञः) बुद्धिमान् ब्राह्मण को चाहिए कि (द्रव्याणां प्रतिग्रहे धर्म्यं विधिम् अविज्ञाय) द्रव्यों के दान लेने में धर्मानुसार विधि को बिना विचारे (क्षुधा अवसीदन्+अपि) भूख से पीड़ित होता हुआ भी (प्रतिग्रहं न कुर्यात्) दानग्रहण न करे॥१८७॥


दान लेने के अनधिकारी तीन प्रकार के व्यक्ति―


अतपास्त्वनधीयानः प्रतिग्रहरुचिर्द्विजः। 

अम्भस्यश्मप्लवेनेव सह तेनैव मज्जति॥१९०॥ (६५)


(अतपाः) ब्रह्मचर्य, वेदाध्ययन, धर्मपालन, प्राणायाम, कष्टसहन आदि तपों [२.१६४-१६७; ६.७०, ७१] से रहित (अनधीयानः) प्रतिदिन वेदाभ्यास, सन्ध्योपासना, पंचयज्ञ आदि न करनेवाला [२.१०५, १०६] (द्विजः) जो द्विज (प्रतिग्रहरुचिः) दान लेने की इच्छा रखता है, वह (अश्मप्लवेन अम्भसि इव) पत्थर की नौका पर बैठने वाला जैसे निश्चित रूप से पानी में डूबता है, वैसे ही (तेन सह एव मज्जति) उस दान लेने की लोभभावना से दुःखसागर में डूब जाता है अथवा पतन के गर्त में गिर में जाता है॥१९०॥


न वार्यपि प्रयच्छेत्तु वैडालव्रतिके द्विजे।

न बकव्रतिके विप्रे नावेदविदि धर्मवित्॥१९२॥ (६६)


(धर्मवित्) धर्म को जानने वाले व्यक्ति को चाहिए कि (वैडालव्रतिके द्विजे) 'वैडालव्रतिक' [=बिल्ली जैसे कपटी स्वभाव वाले ४.१९५] को (बकवतिके) 'बकव्रतिक' [=बगुले जैसे धोखेबाज स्वभाव वाले ४.१९६] (विप्रे) ब्राह्मण को, और (अवेदविदि) वेद को न जानने-पढ़ने वाले ब्राह्मण को (वारि+अपि न प्रयच्छेत्) जल भी न दे, अन्य-दानदक्षिणा देने का तो प्रश्न ही नहीं उठता॥१९२॥


त्रिष्वप्येतेषु दत्तं हि विधिनाप्यर्जितं धनम्।

दातुर्भवत्यनर्थाय परत्रादातुरेव च॥१९३॥ (६७)


(विधिना अर्जितं धनम् अपि) धर्म के अनुसार [४.२.१५, १७६ आदि] संचित किया हुआ धन भी (एतेषु त्रिषु दत्तम्) वैडालव्रतिक, बकव्रतिक और अवेदवित् इन तीनों को दिया हुआ (हि) निश्चय ही (दातुः) दानदाता के लिए (च) और (आदातुः) दान लेने वाले के लिए (परत्र) इस जन्म और परजन्म में प्राप्त होने वाले भावी फलविपाक के रूप में (अनर्थाय एव भवति) अनर्थ=अहित करने वाला ही होता है, उसका अच्छा फल नहीं मिलता॥१९३॥


यथा प्लवेनौपलेन निमज्जत्युदके तरन्। 

तथा निमज्जतोऽधस्तादज्ञौ दातृप्रतीच्छकौ॥१९४॥ (६८)


(यथा) जैसे (उपलेन प्लवेन) पत्थर की नौका से (उदके तरन्) जल में तैरने वाला मनुष्य (निमज्जति) अवश्य डूबता है (तथा) उसी प्रकार (अज्ञौ दातृ-प्रतीच्छकौ) दानविधि के अज्ञानी दाता और दानगृहीता (अधस्तात् निमज्जतः) अधोगति रूपी दुःखसागर में डूब जाते हैं॥१९४॥


वैडालव्रतिक का लक्षण―


धर्मध्वजी सदालुब्धश्छाद्मिको लोकदम्भकः। 

वैडालव्रतिको ज्ञेयो हिंस्रः सर्वाभिसन्धकः॥१९५॥ (६९)


(धर्मध्वजी) धार्मिक न होते हुए भी धर्म का दिखावा करने वाला, (सदालुब्धः) सदा लोभ-लालच में ग्रस्त, (छाद्मिकः) कपटी, (लोक-दम्भकः) लोगों के सामने मिथ्यादम्भ करने वाला, अपनी झूठी बड़ाई करने वाला, (हिंस्रः) वैर-विरोध और क्रूर स्वभाव वाला, (सर्वाभिसन्धकः) स्वार्थ के कारण अच्छे-बुरों सबसे मेल कर लेने वाला (वैडालव्रतिकः ज्ञेयः) वैडालव्रतिक=बिल्ली जैसे स्वभाव वाला जानना चाहिये॥१९५॥


बकव्रतिक का लक्षण―


अधोदृष्टिर्नैष्कृतिकः स्वार्थसाधनतत्परः। 

शठो मिथ्याविनीतश्च बकव्रतचरो द्विजः॥१९६॥ (७०)


(अधोदृष्टिः) अपने को श्रेष्ठ दिखाने के लिए नीचे दृष्टि रखने का पाखण्ड करने वाला, (नैष्कृतिकः) बदला लेने की भावना रखने वाला, (स्वार्थसाधनतत्परः) सदा सभी उपायों से स्वार्थ सिद्ध करने में यत्नशील, (शठः) धूर्त (मिथ्या-विनीतः) झूठी विनम्रता दिखाने वाला (द्विजः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (बकव्रतचरः) बगुले के समान स्वभाव और आचरण वाला जानना चाहिये॥१९६॥


दूसरों के स्नान किये जल में न नहाये―


परकीयनिपानेषु न स्नायाच्च कदाचन।

निपानकर्तुः स्नात्वा तु दुष्कृतांशेन लिप्यते॥२०१॥ (७१)


(परकीयनिपानेषु कदाचन न स्नायात्) दूसरों के हौज या टब में कभी न नहाये (तु) क्योंकि (स्नात्वा) वहाँ नहाकर नहाने वाला (निपानकर्त्तुः दुष्कृतांशेन लिप्यते) हौज या टब वाले की गन्दगी और बिमारी से लिप्त हो जाता है अर्थात् उसकी बीमारियाँ लग जाती हैं॥२०१॥


किन जलों में स्नान करे―


नदीषु देवखातेषु तडागेषु सरःसु च।

स्नानं समाचरेन्नित्यं गर्तप्रस्रवणेषु च॥२०३॥ (७२)


(नदीषु) नदियों में (देवखातेषु) प्राकृतिक जलाशयों=झीलों में (तडागेषु) तालाबों में (सरःसु) झरनों में (च) = और (गर्तप्रस्रवणेषु) ऐसे गड्ढों में जिनका बहता पानी हो, आदि में (नित्यं स्नानं समाचरेत्) सदा स्नान करना चाहिए॥२०३॥ 


यम-सेवन की प्रधानता―


यमान् सेवेत सततं न नियमान् केवलान् बुधः।

यमान्यतत्यकुर्वाणो नियमान् केवलान् भजन्॥२०४॥ (७३)


(बुधः) बुद्धिमान् मनुष्य (यमान् सततं सेवेत) यमों का निरन्तर पालन अवश्य किया करे (केवलान् नियमान् न) केवल नियमों का ही पालन करने का आग्रह न करे, क्योंकि (केवलान् नियमान् भजन्) केवल नियमों का पालन करते हुए और (यमान् अकुर्वाणः) यमों पर आचरण न करते हुए (पतति) जीवन में पतित हो जाता है अर्थात् यम और नियम दोनों का ही पालन करना उन्नतिकारक है॥२०४॥ 


दानधर्म के पालन का कथन―


दानधर्मं निषेवेत नित्यमैष्टिकपौर्तिकम्। 

परितुष्टेन भावेन पात्रमासाद्य शक्तितः॥२२७॥ (७४)


मनुष्य (पात्रम्+आसाद्य) सुपात्र को देखकर श्रेष्ठ कार्यों के लिए (परितुष्टेन भावेन) आत्मा की सन्तुष्टि और निःस्वार्थ, निर्लोभ एवं श्रद्धा भाव से [१२.२७-३७] (शक्तितः) शक्ति के अनुसार (नित्यम्) सदैव (ऐष्टिकपौर्तिकम्) इष्ट यज्ञों के आयोजन-सम्बन्धी और पौर्तिक=परोपकार के काम में आने वाले कुआ, तालाब आदि निर्माण सम्बन्धी कार्यों के लिए (दानधर्मं निषेवेत) दानधर्म का पालन करे अर्थात् दान दिया करे॥२२७॥


वेद-दान की सर्वश्रेष्ठता―


सर्वेषामेव दानानां ब्रह्मदानं विशिष्यते।

वार्यन्नगोमहीवासस्तिलकाञ्चनसर्पिषाम्॥२३३॥ (७५)


(वारि+अन्न-गो-मही-वासः-तिल-कांचनसर्पिषाम्) जल, अन्न, गाय, भूमि, वस्त्र, तिल, स्वर्ण, घृत आदि (सर्वेषाम्+एव दानानाम्) दानों में (ब्रह्मदानं विशिष्यते) वेदविद्या का अध्यापन सर्वश्रेष्ठ है॥२३३॥ 


धर्मसंचय का विधान एवं धर्मप्रशंसा―


धर्मं शनैः सञ्चिनुयाद् वल्मीकमिव पुत्तिकाः। 

परलोकसहायार्थं सर्वलोकान्यपीडयन्॥२३८॥ (७६)


मनुष्य (परलोक सहायार्थम्) परलोक=परजन्मों में सुख प्राप्ति के लिए या उत्तम परजन्म की प्राप्ति के लिए (सर्वभूतानि+अपीडयन्) किसी भी प्राणी को पीड़ा न देते हुए (पुत्तिकाः वल्मीकम् इव) दीमक जैसे बांबी का उत्तरोत्तर निर्माण करती है, ऐसे (शनैः) सावधानीपूर्वक उत्तरोत्तर (धर्मं संचिनुयात्) धर्म का अधिकाधिक संचय करे॥२३८॥


नामुत्र हि सहायार्थं पिता माता च तिष्ठतः। 

न पुत्रदारा न ज्ञातिधर्मस्तिष्ठति केवलः॥२३९॥ (७७)


(हि) क्योंकि (अमुत्र) परजन्मों में (सहायतार्थम्) मनुष्य की सहायता करने के लिए (माता च पिता न तिष्ठतः) माता और पिता नहीं होते हैं, (न पुत्र-दारा) न पुत्र और स्त्री रहते हैं, (न ज्ञातिः) न सगे-सम्बन्धी रहते हैं, अर्थात् इनमें से कोई साथ नहीं जाता जो उसकी किसी प्रकार की सहायता कर सके (केवलः धर्मः+तिष्ठति) मनुष्य के साथ केवल सहायक के रूप में उसका किया धर्म ही साथ जाता है। वही मनुष्य को सुखप्राप्ति या श्रेष्ठजन्मप्राप्ति में सहायता करता है॥२३९॥ 


एकः प्रजायते जन्तुरेक एव प्रलीयते।

एको नु भुङ्क्ते सुकृतमेक एव च दुष्कृतम्॥२४०॥ (७८)


(जन्तुः) प्रत्येक जीव (एकः प्रजायते) अकेला ही जन्म ग्रहण करता है अर्थात् केवल अपने स्वयं के कर्मों के आधार पर ही जन्म ग्रहण करता है (एकः+एव प्रलीयते) अकेला ही मृत्यु को प्राप्त होता है, (एकः सुकृतम् अनुभुङ्क्ते) अकेला ही श्रेष्ठ कर्मों के सुखरूप फल को भोगता है (च) और (एकः+एव दुष्कृतम्) अकेला ही दुष्टकर्मों के पापरूप फल को भोगता है॥२४०॥


मृतं शरीरमुत्सृज्य काष्ठलोष्ठसमं क्षितौ।

विमुखा बान्धवा यान्ति धर्मस्तमनुगच्छति॥२४१॥ (७९)


(मृतं शरीरम्) किसी के मर जाने पर उसके शरीर को (काष्ठ-लोष्ठसमं क्षितौ उत्सृज्य) लक्कड़ और मिट्टी के ढ़ेले के समान भूमि (=चिता) पर रखकर (बान्धवाः) सगे-सम्बन्धी (विमुखाः यान्ति) मुंह फेर कर चले जाते हैं अर्थात् छोड़कर चले जाते हैं (तम्) उसके साथ परजन्म में केवल (धर्मः+अनुगच्छति) धर्म ही साथ-साथ जाता है, अन्य कोई सगा-सम्बन्धी, धन, पदार्थ साथ नहीं जाता॥२४१॥


तस्माद्धर्मं सहायार्थं नित्यं संचिनुयाच्छनैः। 

धर्मेण हि सहायेन तमस्तरति दुस्तरम्॥२४२॥ (८०) 


(तस्मात्) इसलिए (सहायार्थम् परजन्मों में सहायता के लिए (नित्यं शनैः) सदैव सावधानीपूर्वक (धर्मं संचिनुयात्) उत्तरोत्तर धर्म का संचय करे [४.२३८], (हि) क्योंकि (धर्मेण सहायेन) धर्म के ही सहाय से (दुस्तरं तमः तरति) दुष्कर दुःख-सागर को जीव तैर जाता है अर्थात् धर्म ही दुःखसागर से पार उतार कर परजन्म में सुख और मोक्ष प्राप्त करने में एक मात्र सहायक होता है॥२४२॥


धर्मप्रधानं पुरुषं तपसा हतकिल्विषम्। 

परलोकं नयत्याशु भास्वन्तं खशरीरिणम्॥२४३॥ (८१)


(तपसा हतकिल्विषम्) धर्मपालन रूप तप से जिसके पापभाव नष्ट हो चुके हैं उस (धर्मप्रधानम्) धर्माचरण की प्रधानता वाले (भास्वन्तम्) धर्म से देदीप्यमान (खशरीरिणम्) सूक्ष्मशरीरी अर्थात् देहान्त हो जाने पर परलोक में जाने को तैयार सूक्ष्म शरीर वाले (पुरुषम्) व्यक्ति को=जीव को (आशु परलोकं नयति) धर्म ही त्वरित गति से ब्रह्मलोक में ले जाता है अर्थात् धर्म ही शीघ्र ईश्वर को प्राप्त कराता है॥२४३॥


उत्तमों की संगति करें―


उत्तमैरुत्तमैर्नित्यं सम्बन्धानाचरेत्सह। 

निनीषुः कुलमुत्कर्षमधमानधमांस्त्यजेत्॥२४४॥ (८२)


जो मनुष्य (कुलम्+उत्कर्ष निनीषुः) अपने सहित सम्पूर्ण कुल का उत्थान चाहता है, वह (नित्यम्) सदैव (उत्तमैः+उत्तमैः सह सम्बन्धान्+आचरेत्) श्रेष्ठ-श्रेष्ठ लोगों के साथ ही सम्बन्ध एवं संगति रखे, और (अधमान्+अधमान् त्यजेत्) गुण-आचरण की दृष्टि से निकृष्टों-निकृष्टों की संगति छोड़ दे॥२४४॥


उत्तमानुत्तमान् गच्छन् हीनान्हीनांश्च वर्जयन्। 

ब्राह्मणः श्रेष्ठतामेति प्रत्यवायेन शूद्रताम्॥२४५॥ (८३)


(ब्राह्मणः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज (उत्तमान्+उत्तमान् गच्छन्) श्रेष्ठ-श्रेष्ठ लोगों के साथ सम्बन्ध और संगति करते हुए (च) तथा (हीनान्-हीनान् वर्जयन्) गुणहीनों की संगति छोड़कर (श्रेष्ठताम्+एति) अधिक श्रेष्ठता को प्राप्त करता है और (प्रत्यवायेन) इसके विपरीत आचरण करने पर अर्थात् गुणहीनों से सम्बन्ध रखकर (शूद्रताम्) शूद्रत्व को प्राप्त करता है अर्थात् गुणशून्य होकर शूद्र बन जाता है॥२४५॥


स्वर्गप्राप्ति में सहायक गुण―


दृढकारी मृदुर्दान्तः क्रूराचारैरसंवसन्। 

अहिंस्रो दमदानाभ्यां जयेत्स्वर्गं तथाव्रतः॥२४६॥ (८४)


(तथाव्रतः) उत्तमों की संगति करने तथा गुणहीनों की संगति न करने का व्रतधारी जो द्विज (दृढकारी) दृढ़ता से अपने कर्त्तव्य का पालन करता है और (मृदुः) दयालु स्वभाव वाला है (दान्तः) जितेन्द्रिय है (अहिंस्रः) हिंसा न करने वाला है या परपीड़ा का जिसका स्वभाव नहीं है, वह (क्रूराचारैः+असंवसन्) क्रूर-हिंसक आचरण वालों के साथ न रहते हुए (दमदानाभ्याम्) मन के संयम और विद्या आदि के दान से (स्वर्गं जयेत्) सुख पर अधिकार कर लेता है अथवा मोक्षसुख को प्राप्त कर लेता है॥२४६॥


आत्मा के विरुद्ध बोलने वाला पापी है―


योऽन्यथा सन्तमात्मानमन्यथा सत्सु भाषते।

स पापकृत्तमो लोके स्तेन आत्मापहारकः॥२५५॥ (८५)


(यः) जो व्यक्ति (आत्मानम् अन्यथा सन्तम्) आत्मा में कुछ अन्य विचार होते हुए अथवा अन्य आचरण होते हुए (सत्सु) श्रेष्ठ जनों में (अन्यथा भाषते) अन्य कुछ बताता है या बोलता है अर्थात् असत्य कथन करता है (सः) वह (लोके पापकृत्तमः) लोक में महान् पापी माना गया है, क्योंकि वह (आत्मापहारकः स्तेनः) आत्मा के विरुद्ध आचरण करने वाला, आत्मा का हनन करने वाला होता है। आत्मा के विचारों के विरुद्ध भाषण एवं आचरण 'आत्महत्या' भी है और चोरी भी है॥२५५॥ 


वाच्यर्था नियताः सर्वे वाङ्मूला वाग्विनिःसृताः।

तांस्तु यः स्तेनयेद्वाचं स सर्वस्तेयकृन्नरः॥२५६॥ (८६)


(वाचि सर्वे अर्थाः नियताः) वाणी में ही सब अर्थ=व्यवहार निश्चित हैं, सम्बन्धित हैं (वाङ्मूलाः) वाणी ही जिनका मूल और (वाग्विनिःसृताः) जिस वाणी ही से सब व्यवहार सिद्ध होते हैं (यः नरः) जो मनुष्य (तां वाचं स्तेनयेत्) उस वाणी को चोरता अर्थात् मिथ्याभाषण करता है (सः सर्वस्तेयकृत्) वह जानो सब चोरी आदि पाप को करता है, इसलिए मिथ्याभाषण को छोड़के सदा सत्यभाषण ही किया करे॥२५६॥


योग्य पुत्र में गृह-कार्यों का समर्पण―


महर्षिपितृदेवानां गत्वाऽऽनृण्यं यथाविधि।

पुत्रे सर्वं समासज्य वसेन्माध्यस्थमाश्रितः॥२५७॥ (८७)


(यथाविधि) उक्त विधि के अनुसार (महर्षिपितृ-देवानाम् आनृण्यं गत्वा) व्यक्ति [ब्रह्मचर्यपालन एवं अध्ययन-अध्यापन से] ऋषि-ऋण को, [माता-पिता आदि बुजुर्गों की सेवा एवं सन्तानोत्पत्ति से] पितृ-ऋण को, [यज्ञों के अनुष्ठान से] देवऋण को चुकाकर (सर्वं पुत्रे समासज्य) घर की सारी जिम्मेदारी पुत्र को सौंपकर [तत्पश्चात् वानप्रस्थ लेने से पूर्व जब तक घर में रहे तब तक] (माध्यस्थम्+आश्रितः) मध्यममार्ग के आश्रित होकर अर्थात् सांसारिक मोह-माया में लिप्त न होते हुए तटस्थ भाव से (वसेत्) घर में निवास करे॥२५७॥


आत्मचिन्तन का आदेश एवं फल―


एकाकी चिन्तयेन्नित्यं विविक्ते हितमात्मनः। 

एकाकी चिन्तयानो हि परं श्रेयोऽधिगच्छति॥२५८॥ (८८)


मनुष्य (नित्यम्) प्रतिदिन (विविक्ते) एकान्त में बैठकर (एकाकी) अकेला अर्थात् स्वयं अपनी आत्मा में (आत्मनः हितं चिन्तयेत्) आत्म-कल्याण की बातों का चिन्तन करें (हि) क्योंकि (एकाकी चिन्तयानः) एकाकी चिन्तन करने वाला व्यक्ति (परं श्रेयः+अधिगच्छति) अधिकाधिक कल्याण को प्राप्त करता जाता है॥२५८॥


विषय का उपसंहार―


एषोदिता गृहस्थस्य वृत्तिर्विप्रस्य शाश्वती।

स्नातकव्रतकल्पश्च सत्त्ववृद्धिकरः शुभः॥२५९॥ (८९)


(एषा) यह (गृहस्थस्य विप्रस्य) गृहस्थ विद्वान् द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य की (शाश्वती वृत्तिः) सदा पालनीय वृत्ति=जीविका (उदिता) कही (च) और (सत्त्ववृद्धिकरः शुभः) सत्त्वगुण की वृद्धि करने वाला श्रेष्ठ (स्नातकव्रतकल्पः) स्नातक गृहस्थ के व्रतों के विधान को अर्थात् आचार-व्यवहार की विधि को भी कहा॥२५९॥


अनेन विप्रो वृत्तेन वर्तयन्वेदशास्त्रवित्।

व्यपेतकल्मषो नित्यं ब्रह्मलोके महीयते॥२६०॥ (९०)


(वेदशास्त्रवित् विप्रः) वेदशास्त्र का ज्ञाता द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (अनेन वृत्तेन वर्तयन्) इस जीविका या व्यवहार से वर्ताव करता हुआ (व्यपेतकल्मषः) पापरहित अर्थात् पुण्यजीवी होकर (नित्यं ब्रह्मलोके महीयते) सदा ब्रह्मलोक अर्थात् ब्रह्म के आश्रय में मग्न रहकर आनन्द को प्राप्त करता है॥२६०॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम्, अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ गृहस्थ-वृत्तिव्रतात्मकश्चतुर्थोऽध्यायः॥





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