विशुद्ध मनुस्मृतिः― पञ्चम अध्याय

अथ पञ्चमोऽध्यायः


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

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(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(गृहस्थान्तर्गत-भक्ष्याभक्ष्य-देहशुद्धि-द्रव्यशुद्धि-स्त्रीधर्म विषय)


(भक्ष्याभक्ष्य ५.१ से ५.५६ तक) 


द्विजातियों के लिए अभक्ष्य पदार्थ―


लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च। 

अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च॥५॥ (१)


लहसुन, सलगम, प्याज, कुकुरमुत्ता [छत्राक या कुम्हठा] और अशुद्ध स्थान में होने वाले सभी पदार्थ द्विजातियों और शूद्रों के लिये अभक्ष्य हैं॥५॥


अनिर्दशाया गोः क्षीरमौष्ट्रमैकशफं तथा। 

आविकं सन्धिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः॥८॥ (२)


ब्याई हुई गौ का पहले दश दिन का दूध ऊंटनी का दूध तथा एक खुर वाली घोड़ी आदि का दूध भेड़ का दूध सांड के संसर्ग को चाहने वाली गौ का दूध और जिसका बछड़ा या बछिया मर गई हो उस गौ के दूध को भी छोड़ देवे। ['वर्ज्यानि' क्रिया अग्रिम श्लोक में है]॥८॥ 


आरण्यानां च सर्वेषां मृगाणां माहिषं विना। 

स्त्रीक्षीरं चैव वर्ज्यानि सर्वशुक्तानि चैव हि॥९॥ (३)


भैंस के दूध को छोड़कर सब जंगली पशुओं का दूध और बालकों के लिए छोड़कर स्त्री का दूध तथा सब प्रकार के खट्टे पदार्थ कांजी आदि भी वर्जित हैं॥९॥


भक्ष्य पदार्थ―


दधि भक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वं च दधिसंभवम्।

यानि चैवाभिषूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः॥१०॥ (४)


खट्टे पदार्थों में दही और दही से बनने वाले सभी छाछ, मक्खन आदि पदार्थ खाने योग्य हैं और जितने खटाई युक्त पदार्थ हितकारी या गुणकारक फूल, मूल, फलों से तैयार किये जाते हैं, वे भी खाने योग्य हैं॥१०॥


यत्किंचित्स्नेहसंयुक्तं भोज्यं भोज्यमगर्हितम्।

तत्पर्युषितमप्याद्यं हविः शेषं च यद्भवेत्॥२४॥ (५)


तथा दोषरहित या अनिन्दित अर्थात् निन्दित मांस आदि भोजन से रहित और जो कोई खाने की वस्तु चिकनाई अर्थात् घृत आदि से मिलकर बनायी गयी हो वह बासी भी खा लेनी चाहिए तथा जो यज्ञ की हवि से बची खाद्य-वस्तु हो वह भी खा लेनी चाहिए॥२४॥ 


चिरस्थितमपि त्वाद्यमस्नेहाक्तं द्विजातिभिः।

यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रिया॥२५॥ (६)


द्विजातियों को जौ और गेहूं से बने पदार्थ तथा दूध के विकार से बने खोया, मिठाई आदि पदार्थ घृत आदि चिकनी वस्तु के मेल से न बने हों तो भी देर से बने हुए भी खा लेने चाहिएं॥२५॥


निन्दित भोजन मांस हिंसामूलक होने से पाप है―


योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। 

स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते॥४५॥ (७)


जो व्यक्ति अपने सुख की इच्छा से कभी न मारने योग्य प्राणियों की हत्या करता है वह जीते हुए और मरकर भी कहीं भी सुख-शान्ति को प्राप्त नहीं करता अर्थात् प्राणियों की हत्या करने वाले को इस जन्म और परजन्म में दुःख प्राप्त होता है॥४५॥


यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति। 

स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते॥४६॥ (८)


जो व्यक्ति प्राणियों को पकड़ने के लिए बन्धन में डालने, वध करने, उनको पीड़ा पहुंचाने की इच्छा नहीं करता वह सब प्राणियों का हितैषी है और वह इस जन्म तथा परजन्म में बहुत अधिक सुख-शान्ति को प्राप्त करता है॥४६॥


यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।

तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन॥४७॥ (९)


जो व्यक्ति किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता वह जिसका ध्यान करता है जिस काम को करता है और जहां धैर्ययुक्त मन को लगाता है उसको सुगमता से प्राप्त कर लेता है अर्थात् उसको जीवन में शीघ्र सफलता मिलती है॥४७॥ 


नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित्।

नच प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥४८॥ (१०)


प्राणियों की हिंसा किये बिना कभी मांस प्राप्त नहीं होता और जीवों की हत्या करना सुखदायक और मोक्षदायक नहीं है इस कारण मांस नहीं खाना चाहिए॥४८॥ 


समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्। 

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥४९॥ (११)


और मांस की उत्पत्ति जैसे होती है उस घृणित क्रिया को और प्राणियों की हत्या और बन्धन से होने वाले उनके कष्टों को देख-विचार कर मनुष्य सब प्रकार के मांसभक्षण से दूर रहे॥४९॥


मांसभक्षण-प्रसंग में आठ प्रकार के पापियों की गणना―


अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। 

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः॥५१॥ (१२)


किसी भी प्राणी को मारने की अनुमति या आज्ञा देने वाला मांस को काटने वाला पशु-पक्षी आदि को मारने वाला मारने के लिए पशुओं को मोल लेने वाला और बेचने वाला तथा मांस को खरीदने एवं बेचने वाला पकाने वाला परोसने वाला और खाने वाला ये सब हत्यारे और पापी हैं अर्थात् हत्या में भागीदार होने से पापी हैं॥५१॥


(गृहस्थान्तर्गत देहशुद्धि-विषय)


[५.५७ से ५.११० तक]


देहशुद्धिं प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धिं तथैव च।

चतुर्णामपि वर्णानां यथावदनुपूर्वशः॥५७॥ (१३)


अब मैं चारों वर्णों के लिए क्रमशः [पहले] (देहशुद्धिम्) शरीर और शरीरसम्बन्धी शुद्धि और [फिर] उसी प्रकार चारों वर्णों के लिए पात्र, वस्त्र आदि पदार्थों की शुद्धि को कहूंगा―॥५७॥


देहधारियों के शुद्धिकारक पदार्थों की गणना―


ज्ञानं तपोऽग्निराहारो मृन्मनो वायुपाञ्जनम्। 

वायुः कार्मार्ककालौ च शुद्धेः कर्तृणि देहिनाम्॥१०५॥ (१४)


सत्यज्ञान की प्राप्ति, धर्म रूप तप या कष्ट सहन करना, अग्नि का प्रयोग शुद्ध या रोग-नाशक आहार, मिट्टी से धोना, शुद्ध संकल्प विकल्प, जल, उबटन, सूर्य का प्रकाश या धूप, काल की अवधि ये देहधारियों के तन-मन को शुद्ध करने वाले पदार्थ हैं॥१०५॥ 


सर्वोत्तम शुद्धि अर्थशुचिता―


सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्। 

योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः॥१०६॥ (१५)


सभी शुद्धिओं-पवित्रताओं में धर्म से अर्थात् पवित्रता से अर्थसंग्रह करना ही सर्वश्रेष्ठ शुद्धता-पवित्रता है। जो अर्थ=धन संग्रह के विषय में पवित्र है अर्थात् अधर्म-अन्याय से धन ग्रहण नहीं करता वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध-पवित्र कहलाता है मिट्टी और जल से होने वाली शुद्धिता-पवित्रता वैसी उत्तम शुद्धि नहीं है अर्थात् वह तो केवल बाह्य शुद्धिता है। वास्तविक शुद्धि तो मन-आत्मा की पवित्रता है॥१०६॥


धर्माचरण से विविध चरित्र-दोषों की शुद्धि―


क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः। 

प्रच्छन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः॥१०७॥ (१६)


विद्वान् क्षान्ति=निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ, क्षमा आदि को सहन करने से, निर्धारित कर्त्तव्य से विरुद्ध कर्म करने वाले प्रायश्चित्तपूर्वक यज्ञ, सत्संग, विद्या, परोपकार हेतु दान देने से गुप्त रूप से पाप करने वाले अथवा मन से पाप का विचार करने वाले प्रायश्चित्त-पूर्वक ईश्वर का नाम और मन्त्रों का जप करने से, और वेदों के ज्ञाता धर्माचरण रूप तप करने से शुद्ध-पवित्र या निर्मल रहते हैं अर्थात् उनकी पाप भावना उक्त प्रकार से नष्ट हो जाती है॥१०७॥


शरीर, मन, आत्मा, बुद्धि की शुद्धि―


अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुद्ध्यति। 

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति॥१०९॥ (१७)


शरीर और शरीर के अंग जल से शुद्ध-निर्मल होते हैं, मन सत्य संकल्प, सत्यभाषण और सत्याचरण से शुद्ध होता है, जीवात्मा विद्याप्राप्ति और धर्मपालन रूप तप से, तथा बुद्धि अधिकाधिक सत्यज्ञान के अर्जन से शुद्ध या निर्मल होती है॥१०९॥


एष शौचस्य वः प्रोक्तः शारीरस्य विनिर्णयः। 

नानाविधानां द्रव्याणां शुद्धेः शृणुत निर्णयम्॥११०॥ (१८)


यह शरीर और शरीर सम्बन्धी मन, बुद्धि, आत्मा की शुद्धि का निर्णय तुमसे कहा, अब विभिन्न प्रकार के पदार्थों की शुद्धि का निर्णय सुनो―॥११०॥


(द्रव्य-शुद्धि विषय)


[५.१११ से ५.१४६ तक] 


पात्रों की शुद्धि का प्रकार―


तैजसानां मणीनां च सर्वस्याश्ममयस्य च। 

भस्मनाऽद्भिर्मृदा चैव शुद्धिरुक्ता मनीषिभिः॥१११॥ (१९)


तैजस पदार्थ चमकीले सोना आदि की और मणियों तथा उनके पात्रों की और सब प्रकार के पत्थरों के पात्रों की शुद्धि विद्वानों ने भस्म=राख, जल और मिट्टी से कही है॥१११॥ 


निर्लेपं काञ्चनं भाण्डमद्भिरेव विशुद्ध्यति। 

अब्जमश्ममयं चैव राजतं चानुपस्कृतम्॥११२॥ (२०)


जिसमें किसी चिकनाई, जूठन आदि का लेप न लगा हो ऐसा सोने का पात्र, जल में उत्पन्न होने वाले मोती, शंख आदि से बना पात्र, पदार्थ या जलोत्पन्न पदार्थों से निर्मित कमण्डलु आदि और पत्थरों के पात्र जैसे कुण्डी खरल आदि चित्रकारी की खुदाई से रहित चांदी का पात्र केवल जल से ही शुद्ध हो जाता है॥११२॥


ताम्रायः कांस्यरैत्यानां त्रपुणः सीसकस्य च। 

शौचं यथार्हं कर्त्तव्यं क्षाराम्लोदकवारिभिः॥११४॥ (२१)


तांबा, लोहा, कांसा, पीतल, रांगा और सीसा, इनके बर्तनों की शुद्धि यथा आवश्यक राख, खट्टा पदार्थ और जल से करनी चाहिए॥११४॥


द्रवाणां चैव सर्वेषां शुद्धिरुत्पवनं स्मृतम्। 

प्रोक्षणं संहतानां च दारवाणां च तक्षणम्॥११५॥ (२२)


सब घी, तेल आदि द्रव पदार्थों की शुद्धि साफ करने और छान लेने से और ठोस वस्तु जैसे लकड़ी की चौकी आदि की जल छिड़क कर पोंछने से तथा लकड़ी के पात्रों की शुद्धि घिसने या छीलने से मानी है॥११५॥


मार्जनं यज्ञपात्राणां पाणिना यज्ञकर्मणि।

चमसानां ग्रहाणां च शुद्धिः प्रक्षालनेन तु॥११६॥ (२३)


यज्ञ कार्य में प्रयुक्त यज्ञ के पात्रों की, चमचों और कटोरों की शुद्धि हाथ से रगड़कर मांजने और धोने से होती है॥११६॥


चरूणां स्रुक्स्रुवाणां च शुद्धिरुष्णेन वारिणा। 

स्फ्यशूर्पशकटानां च मुसलोलूखलस्य च॥११७॥ (२४)


[घृत आदि की चिकनाई लगे पात्रों की शुद्धि की विधि यह है―] यज्ञ के लिए पाक बनाने के पात्र चरुस्थाली आदि स्रुक् और स्रुव नामक चम्मचविशेष पात्रों की स्फ्य=तलवार की आकृति का खादिर वृक्ष का बना खड्ग, शूर्प=छाज, शकट=यज्ञियपदार्थ ढ़ोने की गाड़ी और मूसल और ऊखल आदि यज्ञिय पदार्थों की शुद्धि गर्म जल से धोने से होती है॥११७॥


अन्य वस्त्रादि पदार्थों की शुद्धि―


अद्भिस्तु प्रोक्षणं शौचं बहूनां धान्यवाससाम्।

प्रक्षालनेन त्वल्पानामद्भिः शौचं विधीयते॥११८॥ (२५)


बहुत-से अन्नों और वस्त्रों की शुद्धि जल से धोने अर्थात् डुबाने-पोंछने मात्र से हो जाती है किन्तु कुछ अन्न एवं वस्त्रों की शुद्धि जल से मसल कर धोने से होती है॥११८॥ 


चैलवच्चर्मणां शुद्धिर्वैदलानां तथैव च।

शाकमूलफलानां च धान्यवच्छुद्धिरिष्यते॥११९॥ (२६)


चमड़े के बर्तनों की शुद्धि वस्त्रों के समान होती है बांस के पात्रों की शुद्धि भी उसी प्रकार होती है और शाक, कन्दमूल और फलों की शुद्धि अन्नों के समान जल में धोने से होती है॥११९॥


कौशेयाविकयोरूषैः कुतपानामरिष्टकैः। 

श्रीफलैरंशुपट्टानां क्षौमाणां गौरसर्षपैः॥१२०॥ (२७)


रेशमी और ऊनी वस्त्रों की शुद्धि क्षारमिश्रित पदार्थों से कम्बलों की शुद्धि रीठों से मलमल के कपड़ों की शुद्धि बेलफलों से अलसी आदि की छाल से बने वस्त्रों=वल्कल वस्त्रों की शुद्धि पीली सरसों से होती है॥१२०॥ 


क्षौमवच्छङ्खशृङ्गाणामस्थिदन्तमयस्य च।

शुद्धिर्विजानता कार्या गोमूत्रेणोदकेन वा॥१२१॥ (२८)


शंख, सींग, हड्डी, दांत, इन से बने पदार्थों की शुद्धि बुद्धिमान् व्यक्ति को छाल=वल्कल से बने वस्त्रों के समान अथवा गोमूत्र और पानी से करनी चाहिए॥१२१॥


प्रोक्षणात्तृणकाष्ठं च पलालं चैव शुध्यति। 

मार्जनोपाञ्जनैर्वेश्म पुनः पाकेन मृन्मयम्॥१२२॥ (२९)


घास, काष्ठ और पुआल से बना पदार्थ जल में डुबाकर पोंछने से शुद्ध होता है घर की शुद्धि धोने-बुहारने और लीपने से होती है मिट्टी का पात्र या पदार्थ फिर से आग पर रखकर उसमें जल आदि पका कर धोने से शुद्ध होता है॥१२२॥


मद्यैर्मूत्रैः पुरीषैर्वा ष्ठीवनैः पूयशोणितैः। 

संस्पृष्टं नैव शुद्ध्येत पुनः पाकेन मृन्मयम्॥१२३॥ (३०)


शराब, मूत्र, मल, थूक, राद, खून इनसे लिपा हुआ मिट्टी का बर्तन फिर पकाने से भी शुद्ध नहीं होता॥१२३॥ 


संमार्जनोपाञ्जनेन सेकेनोल्लेखनेन च।

गवां च परिवासेन भूमिः शुद्ध्यति पञ्चभिः॥१२४॥ (३१)


बुहारना, लीपना, छिड़काव करना या धोना, खुरचना और गौओं का निवास―इन पांच कामों से भूमि=स्थान शुद्ध होता है॥१२४॥ 


यावन्नापैत्यमेध्याक्ताद् गन्धो लेपश्च तत्कृतः।

तावन्मृद्वारि चादेयं सर्वासु द्रव्यशुद्धिषु॥१२६॥ (३२)


जब तक अशुद्ध वस्तु से सने पात्र से उस अशुद्ध वस्तु की गन्ध और लेप [=पदार्थ का लगा रहना] नहीं दूर हो जाता है मिट्टी और जल से धोये जाने वाले सब पदार्थों की शुद्धि के लिए उन्हें तब तक मिट्टी और जल से धोते रहना चाहिए॥१२६॥


एष शौचविधिः कृत्स्नो द्रव्यशुद्धिस्तथैव च। 

उक्तो वः सर्ववर्णानां स्त्रीणां धर्मान्निबोधत॥१४६॥ (३३)


यह सब वर्णों के लिए सम्पूर्ण शरीर-शुद्धि अर्थात् देह, मन, बुद्धि, आत्मा की शुद्धि और उसी प्रकार पदार्थों की शुद्धि तुम्हें कही अब स्त्रियों के धर्मों=कर्तव्यों को सुनो―॥१४६॥


(गृहस्थान्तर्गत पत्नीधर्म विषय)


[५.१४७ से ५.१६६ तक ]


स्त्री के पिता, पति, पुत्र से अलग रहने से हानि की आशंका―


पित्रा भर्त्रा सुतैर्वापि नेच्छेद्विरहमात्मनः।

एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुभे कुले॥१४९॥ (३४) 


कोई भी स्त्री पिता, पति अथवा पुत्रों से अपना बिछोह=सम्बन्ध विच्छेद करके अलग एकाकी रहने की इच्छा न करे क्योंकि इनसे अलग रहने से यह आशंका रहती है कि कभी कोई ऐसी बात न हो जाये जिससे दोनों―पिता तथा पति के कुलों की निन्दा या अपयश हो जाये। अभिप्राय यह है कि स्त्री को सर्वदा परिजनों की सहायता अपेक्षित रखनी चाहिए, उसके बिना उसकी असुरक्षा की आशंका बनी रहती है॥१४९॥


पत्नी में कौन से गुण होने चाहिएँ―


सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया।

सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया॥१५०॥ (३५)


पत्नी को सदा अति प्रसन्न रहना चाहिये और गृह-सम्बन्धी कार्यों में चतुर होना चाहिये सब पदार्थों को स्वच्छ-शुद्ध रखने वाली होना चाहिये और खर्च करने में खुले हाथ वाली न हो अर्थात् धन को बहुत खर्च करने वाली नहीं होनी चाहिये॥१५०॥


पति की सेवा-सुश्रूष करे―


यस्मै दद्यात्पिता त्वेनां भ्राता वाऽनुमते पितुः। 

तंशुश्रूषेत जीवन्तं संस्थितं च न लङ्घयेत्॥१५१॥ (३६)


पिता इस कन्या को विवाहविधि के अनुसार जिसे दे अर्थात् जिसके साथ विवाह करे अथवा पिता की सहमति से भाई जिससे विवाह कर दे उस पति के जीवित रहते हुए उसकी सेवा करे और पति के साथ घर में स्थित रहते हुए अवमानना, व्यभिचार आदि से उसका उल्लंघन न करे। अन्यार्थ में-मर जाने पर व्यभिचार से पतिव्रत-धर्म का उल्लंघन न करे॥१५१॥


पत्नी पर यज्ञपूर्वक विवाह के बाद पति का स्वामित्व―


मङ्गलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः।

प्रयुज्यते विवाहेषु प्रदानं स्वाम्यकारणम्॥१५२॥ (३७)


विवाहों में जो स्वस्तिपाठ [=शुभकामना के लिए मन्त्र पाठ] और प्रजापति-यज्ञ=[वैवाहिक यज्ञ] किया जाता है वह इनके कल्याण की भावना से ही किया जाता है विवाह में स्त्रियों को पति के लिए सौंप देना ही इन पर पति का कानूनी अधिकार होने का कारण है अर्थात् जो विवाह संस्कारपूर्वक स्त्री को पति के लिए दे दिया जाता है, इस दान के पश्चात् ही उन पर पति का अधिकार होता है, उससे पूर्व नहीं। इसी प्रकार पत्नी का पति पर अधिकार हो जाता है॥१५२॥


पूर्वपति को छोड़कर दूसरे श्रेष्ठ पति को अपनाने की निन्दा―


पतिं हित्वाऽपकृष्टं स्वमुत्कृष्टं या निषेवते।

निन्द्यैव सा भवेल्लोके परपूर्वेति चोच्यते॥१६३॥ (३८)


[विवाह होने के बाद तुलनात्मक रूप में] किसी अच्छे व्यक्ति के मिलने की संभावना होने पर जो स्त्री अपने निम्न कुल या गुणों वाले पति को छोड़कर उत्तम कुल या गुणों वाले पति का सेवन करती है वह लोगों में निन्दा प्राप्त करती है और 'पहले यह दूसरे की पत्नी थी' यह आक्षेप उस पर सदा होता रहता है। अतः इस कारण से पति का त्याग नहीं करना चाहिए॥१६३॥


पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता। 

सा भर्तृलोकमाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते॥१६५॥ (३९)


जो स्त्री मन, वाणी और शरीर को संयम में रखकर पति के विरुद्ध आचरण नहीं करती वह पतिलोक अर्थात् पति के हृदय में आदर का स्थान प्राप्त करती है और श्रेष्ठ लोग उसकी 'पतिव्रता या अच्छी पत्नी' कहकर प्रशंसा करते हैं॥१६५॥


स्त्री की मृत्यु पर यज्ञ से अग्निसंस्कार―


एवंवृत्तां सवर्णां स्त्री द्विजातिः पूर्वमारिणीम्। 

दाहयेदग्निहोत्रेण यज्ञपात्रैश्च धर्मवित्॥१६७॥ (४०)


इस पूर्वोक्त आचरण का पालन करने वाली अपने वर्ण की स्त्री को यदि वह पति से पहले ही मर जाये तो धर्म का जानने वाला व्यक्ति यज्ञपात्रों का प्रयोग करके अग्निहोत्र की विधि से उसका दाहसंस्कार करे अर्थात् यज्ञपूर्वक उसका अन्त्येष्टि संस्कार करे॥१६७॥


उपसंहार―


अनेन विधिना नित्यं पञ्चयज्ञान्न हापयेत्।

द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत्॥१६९॥ (४१)


गृहस्थ इस पूर्वोक्त विधि के अनुसार रहते हुए पंचयज्ञों को कभी न छोड़े और आयु के दूसरे भाग तक अर्थात् पचास वर्ष तक विवाहित होकर अर्थात् विवाहोपरान्त स्त्री-सहित घर में निवास करे॥१६९॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम्, अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ गृहस्थान्तर्गत-भक्ष्याभक्ष्य-देहशुद्धिद्रव्यशुद्धि-स्त्रीधर्मविषयात्मकः पञ्चमोऽध्यायः॥






अथ पञ्चमोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(गृहस्थान्तर्गत-भक्ष्याभक्ष्य-देहशुद्धि-द्रव्यशुद्धि-स्त्रीधर्म विषय)


(भक्ष्याभक्ष्य ५.१ से ५.५६ तक) 


द्विजातियों के लिए अभक्ष्य पदार्थ―


लशुनं गृञ्जनं चैव पलाण्डुं कवकानि च। 

अभक्ष्याणि द्विजातीनाममेध्यप्रभवाणि च॥५॥ (१)


(लशुनं गृञ्जनं पलाण्डुंच कवकानि) लहसुन, सलगम, प्याज, कुकुरमुत्ता [छत्राक या कुम्हठा] (च) और (अमेध्यप्रभवणि) अशुद्ध स्थान में होने वाले सभी पदार्थ (द्विजातीनाम् अभक्ष्याणि) द्विजातियों और शूद्रों के लिये अभक्ष्य हैं॥५॥


अनिर्दशाया गोः क्षीरमौष्ट्रमैकशफं तथा। 

आविकं सन्धिनीक्षीरं विवत्सायाश्च गोः पयः॥८॥ (२)


(अनिर्दशायाः गोः क्षीरम्) ब्याई हुई गौ का पहले दश दिन का दूध (औष्ट्रम्) ऊंटनी का दूध (तथा ऐकशफम्) तथा एक खुर वाली घोड़ी आदि का दूध (आविकम्) भेड़ का दूध (सन्धिनीक्षीरम्) सांड के संसर्ग को चाहने वाली गौ का दूध (च) और (विवत्सायाः गोः पयः) जिसका बछड़ा या बछिया मर गई हो उस गौ के दूध को भी छोड़ देवे। ['वर्ज्यानि' क्रिया अग्रिम श्लोक में है]॥८॥ 


आरण्यानां च सर्वेषां मृगाणां माहिषं विना। 

स्त्रीक्षीरं चैव वर्ज्यानि सर्वशुक्तानि चैव हि॥९॥ (३)


(माहिषं विना) भैंस के दूध को छोड़कर (सर्वेषाम् आरण्यानां मृगाणाम्) सब जंगली पशुओं का दूध (च) और (स्त्रीक्षीरम्) बालकों के लिए छोड़कर स्त्री का दूध (च+एव) तथा (सर्व-शुक्तानि) सब प्रकार के खट्टे पदार्थ कांजी आदि भी (वर्ज्यानि) वर्जित हैं॥९॥


भक्ष्य पदार्थ―


दधि भक्ष्यं च शुक्तेषु सर्वं च दधिसंभवम्।

यानि चैवाभिषूयन्ते पुष्पमूलफलैः शुभैः॥१०॥ (४)


(शुक्तेषु) खट्टे पदार्थों में (दधि च सर्वं दधिसंभवम् भक्ष्यम्) दही और दही से बनने वाले सभी छाछ, मक्खन आदि पदार्थ खाने योग्य हैं (च) और (यानि) जितने खटाई युक्त पदार्थ (शुभैः) हितकारी या गुणकारक (पुष्प-मूल-फलैः अभिषूयन्ते) फूल, मूल, फलों से तैयार किये जाते हैं, वे भी खाने योग्य हैं॥१०॥


यत्किंचित्स्नेहसंयुक्तं भोज्यं भोज्यमगर्हितम्।

तत्पर्युषितमप्याद्यं हविः शेषं च यद्भवेत्॥२४॥ (५)


तथा (अगर्हितम्) दोषरहित या अनिन्दित अर्थात् निन्दित मांस आदि भोजन [५.४५-४९, ५१] से रहित और (यत् किंचित् भोज्यं स्नेह-संयुक्तम्) जो कोई खाने की वस्तु चिकनाई अर्थात् घृत आदि से मिलकर बनायी गयी हो (तत् पर्युषितम्+अपि) वह बासी भी खा लेनी चाहिए (च) तथा (यत् हविः शेषं भवेत्) जो यज्ञ की हवि से बची खाद्य-वस्तु हो वह भी (आद्यम्) खा लेनी चाहिए॥२४॥ 


चिरस्थितमपि त्वाद्यमस्नेहाक्तं द्विजातिभिः।

यवगोधूमजं सर्वं पयसश्चैव विक्रिया॥२५॥ (६)


(द्विजातिभिः) द्विजातियों को (यव-गोधूमजं सर्वम्) जौ और गेहूं से बने पदार्थ (च) तथा (पयसः विक्रिया एव) दूध के विकार से बने खोया, मिठाई आदि पदार्थ (अस्नेहाक्तम्) घृत आदि चिकनी वस्तु के मेल से न बने हों तो भी (चिरस्थितम्+अपि) देर से बने हुए भी (आद्यम्) खा लेने चाहिएं॥२५॥


निन्दित भोजन मांस हिंसामूलक होने से पाप है―


योऽहिंसकानि भूतानि हिनस्त्यात्मसुखेच्छया। 

स जीवंश्च मृतश्चैव न क्वचित्सुखमेधते॥४५॥ (७)


(यः) जो व्यक्ति (आत्मसुख+इच्छया) अपने सुख की इच्छा से (अहिंसकानि भूतानि) कभी न मारने योग्य प्राणियों की (हिनस्ति) हत्या करता है (सः) वह (जीवन् च मृतः) जीते हुए और मरकर भी (क्वचित् सुखं न एधते) कहीं भी सुख-शान्ति को प्राप्त नहीं करता अर्थात् प्राणियों की हत्या करने वाले को इस जन्म और परजन्म में दुःख प्राप्त होता है॥४५॥


यो बन्धनवधक्लेशान्प्राणिनां न चिकीर्षति। 

स सर्वस्य हितप्रेप्सुः सुखमत्यन्तमश्नुते॥४६॥ (८)


(यः) जो व्यक्ति (प्राणिनां बन्धन-वध-क्लेशान् न चिकीर्षति) प्राणियों को पकड़ने के लिए बन्धन में डालने, वध करने, उनको पीड़ा पहुंचाने की इच्छा नहीं करता (सः) वह (सर्वस्य हितप्रेप्सुः) सब प्राणियों का हितैषी है और वह (अत्यन्तं सुखम्+अश्नुते) इस जन्म तथा परजन्म में बहुत अधिक सुख-शान्ति को प्राप्त करता है॥४६॥


यद्ध्यायति यत्कुरुते धृतिं बध्नाति यत्र च।

तदवाप्नोत्ययत्नेन यो हिनस्ति न किञ्चन॥४७॥ (९)


(यः) जो व्यक्ति (किंचन न हिनस्ति) किसी भी प्राणी की हिंसा नहीं करता वह (यत् ध्यायति) जिसका ध्यान करता है (यत् कुरुते) जिस काम को करता है (च) और (यत्र धृतिं बध्नाति) जहां धैर्ययुक्त मन को लगाता है (तत्) उसको (अयत्नेन) सुगमता से (अवाप्नोति) प्राप्त कर लेता है अर्थात् उसको जीवन में शीघ्र सफलता मिलती है॥४७॥ 


नाकृत्वा प्राणिनां हिंसा मांसमुत्पद्यते क्वचित्।

नच प्राणिवधः स्वर्ग्यस्तस्मान्मांसं विवर्जयेत्॥४८॥ (१०)


(प्राणिनां हिंसाम् अकृत्वा क्वचित् मांसं न उत्पद्यते) प्राणियों की हिंसा किये बिना कभी मांस प्राप्त नहीं होता (च) और (प्राणिवधः) जीवों की हत्या करना (न स्वर्ग्यः) सुखदायक और मोक्षदायक [४.७९] नहीं है (तस्मात्) इस कारण (मांसं विवर्जयेत्) मांस नहीं खाना चाहिए॥४८॥ 


समुत्पत्तिं च मांसस्य वधबन्धौ च देहिनाम्। 

प्रसमीक्ष्य निवर्तेत सर्वमांसस्य भक्षणात्॥४९॥ (११)


(च) और (मांसस्य समुत्पत्तिम्) मांस की उत्पत्ति जैसे होती है उस घृणित क्रिया को (देहिनां वध-बन्धौ च) और प्राणियों की हत्या और बन्धन से होने वाले उनके कष्टों को (प्रसमीक्ष्य) देख-विचार कर (सर्वमांसस्य भक्षणात्) मनुष्य सब प्रकार के मांसभक्षण से (निवर्तेत) दूर रहे॥४९॥


मांसभक्षण-प्रसंग में आठ प्रकार के पापियों की गणना―


अनुमन्ता विशसिता निहन्ता क्रयविक्रयी। 

संस्कर्ता चोपहर्ता च खादकश्चेति घातकाः॥५१॥ (१२)


(अनुमन्ता) किसी भी प्राणी को मारने की अनुमति या आज्ञा देने वाला (विशसिता) मांस को काटने वाला (निहन्ता) पशु-पक्षी आदि को मारने वाला (क्रय-विक्रयी) मारने के लिए पशुओं को मोल लेने वाला और बेचने वाला तथा मांस को खरीदने एवं बेचने वाला (संस्कर्त्ता) पकाने वाला (उपहर्त्ता) परोसने वाला (च) और (खादकः) खाने वाला (इति घातकाः) ये सब हत्यारे और पापी हैं अर्थात् हत्या में भागीदार होने से पापी हैं॥५१॥


(गृहस्थान्तर्गत देहशुद्धि-विषय)


[५.५७ से ५.११० तक]


देहशुद्धिं प्रवक्ष्यामि द्रव्यशुद्धिं तथैव च।

चतुर्णामपि वर्णानां यथावदनुपूर्वशः॥५७॥ (१३)


(चतुर्णाम्+अपि वर्णानाम्) अब मैं चारों वर्णों के लिए (अनुपूर्वशः) क्रमशः [पहले] (देहशुद्धिम्) शरीर और शरीरसम्बन्धी शुद्धि [१०५-११०] (च) और [फिर] (तथा+एव) उसी प्रकार चारों वर्णों के लिए (द्रव्यशुद्धिम्) पात्र, वस्त्र आदि पदार्थों की शुद्धि [१११-१४६] को (प्रवक्ष्यामि) कहूंगा―॥५७॥


देहधारियों के शुद्धिकारक पदार्थों की गणना―


ज्ञानं तपोऽग्निराहारो मृन्मनो वायुपाञ्जनम्। 

वायुः कार्मार्ककालौ च शुद्धेः कर्तृणि देहिनाम्॥१०५॥ (१४)


(ज्ञानं तपः+अग्निः+आहारः) सत्यज्ञान की प्राप्ति, धर्म रूप तप या कष्ट सहन करना, अग्नि का प्रयोग शुद्ध या रोग-नाशक आहार, (मृत्+मनः+वारि+उपाञ्जनम्) मिट्टी से धोना, शुद्ध संकल्प विकल्प, जल, उबटन, (वायुः+कर्म+अर्ककालौ च) सूर्य का प्रकाश या धूप, काल की अवधि ये (देहिनां शुद्धेः कर्तृणि) देहधारियों के तन-मन को शुद्ध करने वाले पदार्थ हैं॥१०५॥ 


सर्वोत्तम शुद्धि अर्थशुचिता―


सर्वेषामेव शौचानामर्थशौचं परं स्मृतम्। 

योऽर्थे शुचिर्हि स शुचिर्न मृद्वारिशुचिः शुचिः॥१०६॥ (१५)


(सर्वेषाम्+एव शौचानाम्) सभी शुद्धिओं-पवित्रताओं में (अर्थशौचं परं स्मृतम्) धर्म से अर्थात् पवित्रता से अर्थसंग्रह करना ही [४.१७५] सर्वश्रेष्ठ शुद्धता-पवित्रता है। (यः+अर्थे शुचिः) जो अर्थ=धन संग्रह के विषय में पवित्र है अर्थात् अधर्म-अन्याय से धन ग्रहण नहीं करता (सः शुचिः) वही सर्वश्रेष्ठ शुद्ध-पवित्र कहलाता है (मृद्-वारि शुचिः न शुचिः) मिट्टी और जल से होने वाली शुद्धिता-पवित्रता वैसी उत्तम शुद्धि नहीं है अर्थात् वह तो केवल बाह्य शुद्धिता है। वास्तविक शुद्धि तो मन-आत्मा की पवित्रता है॥१०६॥


धर्माचरण से विविध चरित्र-दोषों की शुद्धि―


क्षान्त्या शुद्ध्यन्ति विद्वांसो दानेनाकार्यकारिणः। 

प्रच्छन्नपापा जप्येन तपसा वेदवित्तमाः॥१०७॥ (१६)


(विद्वांसः क्षान्त्या) विद्वान् क्षान्ति=निन्दा-स्तुति, मान-अपमान, हानि-लाभ, क्षमा आदि को सहन करने से, (अकार्यकारिणः दानेन) निर्धारित कर्त्तव्य से विरुद्ध कर्म करने वाले प्रायश्चित्तपूर्वक यज्ञ, सत्संग, विद्या, परोपकार हेतु दान देने से [११.४५] (प्रच्छन्नपापा: जप्येन) गुप्त रूप से पाप करने वाले अथवा मन से पाप का विचार करने वाले प्रायश्चित्त-पूर्वक ईश्वर का नाम और मन्त्रों का जप करने से, और (वेदवित्तमाः तपसा) वेदों के ज्ञाता धर्माचरण रूप तप करने से शुद्ध-पवित्र या निर्मल रहते हैं अर्थात् उनकी पाप भावना उक्त प्रकार से नष्ट हो जाती है॥१०७॥


शरीर, मन, आत्मा, बुद्धि की शुद्धि―


अद्भिर्गात्राणि शुद्ध्यन्ति मनः सत्येन शुद्ध्यति। 

विद्यातपोभ्यां भूतात्मा बुद्धिर्ज्ञानेन शुद्ध्यति॥१०९॥ (१७)


(गात्राणि अद्भिः शुद्धयन्ति) शरीर और शरीर के अंग जल से शुद्ध-निर्मल होते हैं, (मनः सत्येन शुद्ध्यति) मन सत्य संकल्प, सत्यभाषण और सत्याचरण से शुद्ध होता है, (भूतात्मा विद्या-तपोभ्यां) जीवात्मा विद्याप्राप्ति और धर्मपालन रूप तप से, तथा (बुद्धिः+ज्ञानेन शुद्ध्यति) बुद्धि अधिकाधिक सत्यज्ञान के अर्जन से शुद्ध या निर्मल होती है॥१०९॥


एष शौचस्य वः प्रोक्तः शारीरस्य विनिर्णयः। 

नानाविधानां द्रव्याणां शुद्धेः शृणुत निर्णयम्॥११०॥ (१८)


(एषः) यह (शारीरस्य शौचस्य विनिर्णयः) शरीर और शरीर सम्बन्धी मन, बुद्धि, आत्मा की शुद्धि का निर्णय (वः प्रोक्तः) तुमसे कहा, अब (नाना विधानां द्रव्याणां शुद्धेः निर्णयं शृणुत) विभिन्न प्रकार के पदार्थों की शुद्धि का निर्णय सुनो―॥११०॥


(द्रव्य-शुद्धि विषय)


[५.१११ से ५.१४६ तक] 


पात्रों की शुद्धि का प्रकार―


तैजसानां मणीनां च सर्वस्याश्ममयस्य च। 

भस्मनाऽद्भिर्मृदा चैव शुद्धिरुक्ता मनीषिभिः॥१११॥ (१९)


(तैजसाम्) तैजस पदार्थ चमकीले सोना आदि की (च) और (मणीनाम्) मणियों तथा उनके पात्रों की (च) और (सर्वस्य+अश्ममयस्य) सब प्रकार के पत्थरों के पात्रों की (शुद्धिः) शुद्धि (मनीषिभिः) विद्वानों ने (भस्मना+अद्भिः च मृदा एव उक्ता) भस्म=राख, जल और मिट्टी से कही है॥१११॥ 


निर्लेपं काञ्चनं भाण्डमद्भिरेव विशुद्ध्यति। 

अब्जमश्ममयं चैव राजतं चानुपस्कृतम्॥११२॥ (२०)


(निर्लेपम्) जिसमें किसी चिकनाई, जूठन आदि का लेप न लगा हो ऐसा (काञ्चनम्) सोने का (भाण्डम्) पात्र, (अब्जम्) जल में उत्पन्न होने वाले मोती, शंख आदि से बना पात्र, पदार्थ या जलोत्पन्न पदार्थों से निर्मित कमण्डलु आदि (च) और (अश्ममयम्) पत्थरों के पात्र जैसे कुण्डी खरल आदि (अनुपस्कृतं राजतम्) चित्रकारी की खुदाई से रहित चांदी का पात्र (अद्भिः+एव विशुद्ध्यति) केवल जल से ही शुद्ध हो जाता है॥११२॥


ताम्रायः कांस्यरैत्यानां त्रपुणः सीसकस्य च। 

शौचं यथार्हं कर्त्तव्यं क्षाराम्लोदकवारिभिः॥११४॥ (२१)


(ताम्र+अयः-कांस्य-रैत्यानां त्रपुणः च सीसकस्य शौचम्) तांबा, लोहा, कांसा, पीतल, रांगा और सीसा, इनके बर्तनों की शुद्धि (यथार्हम्) यथा आवश्यक (क्षार+अम्ल+उदक वारिभिः) राख, खट्टा पदार्थ और जल से (कर्त्तव्यम्) करनी चाहिए॥११४॥


द्रवाणां चैव सर्वेषां शुद्धिरुत्पवनं स्मृतम्। 

प्रोक्षणं संहतानां च दारवाणां च तक्षणम्॥११५॥ (२२)


(सर्वेषां द्रवाणाम्) सब घी, तेल आदि द्रव पदार्थों की (शुद्धिः) शुद्धि (उत्पवनम्) साफ करने और छान लेने से (च) और (संहतानां प्रोक्षणम्) ठोस वस्तु जैसे लकड़ी की चौकी आदि की जल छिड़क कर पोंछने से (च) तथा (दारवाणाम् तक्षणम्) लकड़ी के पात्रों की शुद्धि घिसने या छीलने से (स्मृतम्) मानी है॥११५॥ 


मार्जनं यज्ञपात्राणां पाणिना यज्ञकर्मणि।

चमसानां ग्रहाणां च शुद्धिः प्रक्षालनेन तु॥११६॥ (२३)


(यज्ञकर्मणि) यज्ञ कार्य में प्रयुक्त (यज्ञ-पात्राणाम्) यज्ञ के पात्रों की, (चमसानां च ग्रहाणां शुद्धिः) चमचों और कटोरों की शुद्धि (पाणिना मार्जनं तु प्रक्षालनेन) हाथ से रगड़कर मांजने और धोने से होती है॥११६॥


चरूणां स्रुक्स्रुवाणां च शुद्धिरुष्णेन वारिणा। 

स्फ्यशूर्पशकटानां च मुसलोलूखलस्य च॥११७॥ (२४)


[घृत आदि की चिकनाई लगे पात्रों की शुद्धि की विधि यह है―] (चरूणाम्) यज्ञ के लिए पाक बनाने के पात्र चरुस्थाली आदि (स्रुक्स्रुवाणाम्) स्रुक् और स्रुव नामक चम्मचविशेष पात्रों की (स्फ्य-शूर्प-शकटानाम्) स्फ्य=तलवार की आकृति का खादिर वृक्ष का बना खड्ग, शूर्प=छाज, शकट=यज्ञियपदार्थ ढ़ोने की गाड़ी (च) और (मुसल+उलूखलस्य च) मूसल और ऊखल आदि यज्ञिय पदार्थों की (शुद्धिः) शुद्धि (उष्णेन वारिणा) गर्म जल से धोने से होती है॥११७॥


अन्य वस्त्रादि पदार्थों की शुद्धि―


अद्भिस्तु प्रोक्षणं शौचं बहूनां धान्यवाससाम्।

प्रक्षालनेन त्वल्पानामद्भिः शौचं विधीयते॥११८॥ (२५)


(बहूनां धान्यवाससां शौचम् अद्भिः प्रोक्षणम्) बहुत-से अन्नों और वस्त्रों की शुद्धि जल से धोने अर्थात् डुबाने-पोंछने मात्र से हो जाती है (तु) किन्तु (अल्पानाम्) कुछ अन्न एवं वस्त्रों की (शौचम्) शुद्धि (अद्भिः प्रक्षालनेन विधीयते) जल से मसल कर धोने से होती है॥११८॥ 


चैलवच्चर्मणां शुद्धिर्वैदलानां तथैव च।

शाकमूलफलानां च धान्यवच्छुद्धिरिष्यते॥११९॥ (२६)


(चर्मणां शुद्धिः चैलवत्) चमड़े के बर्तनों की शुद्धि वस्त्रों के समान होती है (वैदलानां तथैव) बांस के पात्रों की शुद्धि भी उसी प्रकार होती है (च) और (शाक-मूल-फलानां शुद्धिः धान्यवत् इष्यते) शाक, कन्दमूल और फलों की शुद्धि अन्नों के समान [५.११८] जल में धोने से होती है॥११९॥ 


कौशेयाविकयोरूषैः कुतपानामरिष्टकैः। 

श्रीफलैरंशुपट्टानां क्षौमाणां गौरसर्षपैः॥१२०॥ (२७)


(कौशेय+आविकयोः) रेशमी और ऊनी वस्त्रों की शुद्धि (ऊषैः) क्षारमिश्रित पदार्थों से (कुतपानाम्) कम्बलों की शुद्धि (अरिष्टकैः) रीठों से (अंशुपट्टानां श्रीफलैः) मलमल के कपड़ों की शुद्धि बेलफलों से (क्षौमाणां गौरसर्षपैः) अलसी आदि की छाल से बने वस्त्रों=वल्कल वस्त्रों की शुद्धि पीली सरसों से होती है॥१२०॥ 


क्षौमवच्छङ्खशृङ्गाणामस्थिदन्तमयस्य च।

शुद्धिर्विजानता कार्या गोमूत्रेणोदकेन वा॥१२१॥ (२८)


(शंख-शृङगाणां अस्थि-दन्तमयस्य शुद्धिः) शंख, सींग, हड्डी, दांत, इन से बने पदार्थों की शुद्धि (विजानता) बुद्धिमान् व्यक्ति को (क्षौमवत्) छाल=वल्कल से बने वस्त्रों के समान (वा) अथवा (गोमूत्रेण+उदकेन) गोमूत्र और पानी से (कार्या) करनी चाहिए ॥१२१॥


प्रोक्षणात्तृणकाष्ठं च पलालं चैव शुध्यति। 

मार्जनोपाञ्जनैर्वेश्म पुनः पाकेन मृन्मयम्॥१२२॥ (२९)


(तृण-काष्ठं च पलालम्) घास, काष्ठ और पुआल से बना पदार्थ (प्रोक्षणात् शुद्ध्यति) जल में डुबाकर पोंछने से शुद्ध होता है (वेश्म) घर की शुद्धि (मार्जन+उपाञ्जनैः) धोने-बुहारने और लीपने से होती है (मृद्+मयं पुनः पाकेन) मिट्टी का पात्र या पदार्थ फिर से आग पर रखकर उसमें जल आदि पका कर धोने से शुद्ध होता है॥१२२॥


मद्यैर्मूत्रैः पुरीषैर्वा ष्ठीवनैः पूयशोणितैः। 

संस्पृष्टं नैव शुद्ध्येत पुनः पाकेन मृन्मयम्॥१२३॥ (३०)


(मद्यैः मूत्रैः पुरीषैः ष्ठीवनैः पूयशोणितैः) शराब, मूत्र, मल, थूक, राद, खून इनसे (संस्पृष्टं मृन्मयम्) लिपा हुआ मिट्टी का बर्तन (पुनः पाकेन नैव शुद्ध्येत) फिर पकाने से भी शुद्ध नहीं होता॥१२३॥ 


संमार्जनोपाञ्जनेन सेकेनोल्लेखनेन च।

गवां च परिवासेन भूमिः शुद्ध्यति पञ्चभिः॥१२४॥ (३१)


(संमार्जन+उपाञ्जनेन सेकेन+उल्लेखनेन च गवां परिवासेन पञ्चभिः) बुहारना, लीपना, छिड़काव करना या धोना, खुरचना और गौओं का निवास―इन पांच कामों से (भूमिः शुद्ध्यति) भूमि=स्थान शुद्ध होता है॥१२४॥ 


यावन्नापैत्यमेध्याक्ताद् गन्धो लेपश्च तत्कृतः।

तावन्मृद्वारि चादेयं सर्वासु द्रव्यशुद्धिषु॥१२६॥ (३२)


(यावत्) जब तक (अमेध्य+अक्तात्) अशुद्ध वस्तु से सने पात्र से (तत्कृतः गन्धः च लेपः) उस अशुद्ध वस्तु की गन्ध और लेप [=पदार्थ का लगा रहना] (न अपैति) नहीं दूर हो जाता है (सर्वासु द्रव्यशुद्धिषु) मिट्टी और जल से धोये जाने वाले सब पदार्थों की शुद्धि के लिए उन्हें (तावत्) तब तक (मृद्+वारि आदेयम्) मिट्टी और जल से धोते रहना चाहिए॥१२६॥


एष शौचविधिः कृत्स्नो द्रव्यशुद्धिस्तथैव च। 

उक्तो वः सर्ववर्णानां स्त्रीणां धर्मान्निबोधत॥१४६॥ (३३)


(एषः) यह (सर्ववर्णानां कृत्स्नः शौच-विधिः) सब वर्णों के लिए सम्पूर्ण शरीर-शुद्धि अर्थात् देह, मन, बुद्धि, आत्मा की शुद्धि (च) और (तथा+एव) उसी प्रकार (द्रव्यशुद्धिः) पदार्थों की शुद्धि (वः उक्तः) तुम्हें कही (स्त्रीणां धर्मान् निबोधत) अब स्त्रियों के धर्मों=कर्तव्यों को सुनो―॥१४६॥


(गृहस्थान्तर्गत पत्नीधर्म विषय)


[५.१४७ से ५.१६६ तक ]


स्त्री के पिता, पति, पुत्र से अलग रहने से हानि की आशंका―


पित्रा भर्त्रा सुतैर्वापि नेच्छेद्विरहमात्मनः।

एषां हि विरहेण स्त्री गर्ह्ये कुर्यादुभे कुले॥१४९॥ (३४) 


(स्त्री) कोई भी स्त्री (पित्रा भर्त्रा वा सुतैः अपि) पिता, पति अथवा पुत्रों से (आत्मनः विरहं न इच्छेत्) अपना बिछोह=सम्बन्ध विच्छेद करके अलग एकाकी रहने की इच्छा न करे (हि) क्योंकि (एषां विरहेण) इनसे अलग रहने से (उभे कुले गर्ह्ये कुर्यात्) यह आशंका रहती है कि कभी कोई ऐसी बात न हो जाये जिससे दोनों―पिता तथा पति के कुलों की निन्दा या अपयश हो जाये। अभिप्राय यह है कि स्त्री को सर्वदा परिजनों की सहायता अपेक्षित रखनी चाहिए, उसके बिना उसकी असुरक्षा की आशंका बनी रहती है॥१४९॥


पत्नी में कौन से गुण होने चाहिएँ―


सदा प्रहृष्टया भाव्यं गृहकार्येषु दक्षया।

सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्तहस्तया॥१५०॥ (३५)


पत्नी को (सदा प्रहृष्टया भाव्यम्) सदा अति प्रसन्न रहना चाहिये और (गृहकार्येषु दक्षया) गृह-सम्बन्धी कार्यों में चतुर होना चाहिये (सुसंस्कृत+उपस्करया) सब पदार्थों को स्वच्छ-शुद्ध रखने वाली होना चाहिये (च) और (व्यये अमुक्तहस्तया) खर्च करने में खुले हाथ वाली न हो अर्थात् धन को बहुत खर्च करने वाली नहीं होनी चाहिये॥१५०॥


पति की सेवा-सुश्रूष करे―


यस्मै दद्यात्पिता त्वेनां भ्राता वाऽनुमते पितुः। 

तंशुश्रूषेत जीवन्तं संस्थितं च न लङ्घयेत्॥१५१॥ (३६)


(पिता तु एनां यस्मै दद्यात्) पिता इस कन्या को विवाहविधि के अनुसार [३.२९-३०] जिसे दे अर्थात् जिसके साथ विवाह करे (वा) अथवा (पितुः अनुमते भ्राता) पिता की सहमति से भाई जिससे विवाह कर दे (तं जीवन्तं शुश्रूषेत) उस पति के जीवित रहते हुए उसकी सेवा करे (च) और (संस्थितं न लङ्घयेत्) पति के साथ घर में स्थित रहते हुए अवमानना, व्यभिचार आदि से उसका उल्लंघन न करे। अन्यार्थ में-मर जाने पर व्यभिचार से पतिव्रत-धर्म का उल्लंघन न करे॥१५१॥


पत्नी पर यज्ञपूर्वक विवाह के बाद पति का स्वामित्व―


मङ्गलार्थं स्वस्त्ययनं यज्ञश्चासां प्रजापतेः।

प्रयुज्यते विवाहेषु प्रदानं स्वाम्यकारणम्॥१५२॥ (३७)


(विवाहेषु) विवाहों में (स्वस्त्ययनं च प्रजापते: यज्ञः) जो स्वस्तिपाठ [=शुभकामना के लिए मन्त्र पाठ] और प्रजापति-यज्ञ=[वैवाहिक यज्ञ] किया जाता है वह (आसां मङ्गलार्थं प्रयुज्यते) इनके कल्याण की भावना से ही किया जाता है (प्रदानं स्वाम्यकारणम्) विवाह में स्त्रियों को पति के लिए सौंप देना ही इन पर पति का कानूनी अधिकार होने का कारण है अर्थात् जो विवाह संस्कारपूर्वक स्त्री को पति के लिए दे दिया जाता है, इस दान के पश्चात् ही उन पर पति का अधिकार होता है, उससे पूर्व नहीं। इसी प्रकार पत्नी का पति पर अधिकार हो जाता है॥१५२॥


पूर्वपति को छोड़कर दूसरे श्रेष्ठ पति को अपनाने की निन्दा―


पतिं हित्वाऽपकृष्टं स्वमुत्कृष्टं या निषेवते।

निन्द्यैव सा भवेल्लोके परपूर्वेति चोच्यते॥१६३॥ (३८)


[विवाह होने के बाद तुलनात्मक रूप में] किसी अच्छे व्यक्ति के मिलने की संभावना होने पर (या स्वम् अपकृष्टं पतिं हित्वा उत्कृष्टं पतिं निषेवते) जो स्त्री अपने निम्न कुल या गुणों वाले पति को छोड़कर उत्तम कुल या गुणों वाले पति का सेवन करती है (सा) वह (लोके निन्द्या+एव भवेत्) लोगों में निन्दा प्राप्त करती है (च) और (परपूर्वा+इति उच्यते) 'पहले यह दूसरे की पत्नी थी' यह आक्षेप उस पर सदा होता रहता है। अतः इस कारण से पति का त्याग नहीं करना चाहिए॥१६३॥


पतिं या नाभिचरति मनोवाग्देहसंयता। 

सा भर्तृलोकमाप्नोति सद्भिः साध्वीति चोच्यते॥१६५॥ (३९)


(या) जो स्त्री (मनः-वाक्-देह-संयता) मन, वाणी और शरीर को संयम में रखकर (पतिं न+अभिचरति) पति के विरुद्ध आचरण नहीं करती (सा) वह (भर्तृलोकम्+आप्नोति) पतिलोक अर्थात् पति के हृदय में आदर का स्थान प्राप्त करती है (च) और (सद्भिः 'साध्वी'+इति उच्यते) श्रेष्ठ लोग उसकी 'पतिव्रता या अच्छी पत्नी' कहकर प्रशंसा करते हैं॥१६५॥


स्त्री की मृत्यु पर यज्ञ से अग्निसंस्कार―


एवंवृत्तां सवर्णां स्त्री द्विजातिः पूर्वमारिणीम्। 

दाहयेदग्निहोत्रेण यज्ञपात्रैश्च धर्मवित्॥१६७॥ (४०)


(एव वृत्तां सवर्णां स्त्रीम्) इस पूर्वोक्त आचरण का पालन करने वाली अपने वर्ण की स्त्री को (पूर्वमारिणीम्) यदि वह पति से पहले ही मर जाये तो (धर्मवित्) धर्म का जानने वाला व्यक्ति (यज्ञपात्रैः) यज्ञपात्रों का प्रयोग करके (अग्निहोत्रेण दाहयेत्) अग्निहोत्र की विधि से उसका दाहसंस्कार करे अर्थात् यज्ञपूर्वक उसका अन्त्येष्टि संस्कार करे॥१६७॥


उपसंहार―


अनेन विधिना नित्यं पञ्चयज्ञान्न हापयेत्।

द्वितीयमायुषो भागं कृतदारो गृहे वसेत्॥१६९॥ (४१)


गृहस्थ (अनेन विधिना) इस [४.१ से ५.१६७ तक] पूर्वोक्त विधि के अनुसार रहते हुए (पञ्चयज्ञान् न हापयेत्) पंचयज्ञों को कभी न छोड़े और (आयुषः द्वितीयं भागम्) आयु के दूसरे भाग तक अर्थात् पचास वर्ष तक (कृतदारः) विवाहित होकर अर्थात् विवाहोपरान्त स्त्री-सहित (गृहे वसेत्) घर में निवास करे॥१६९॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम्, अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ गृहस्थान्तर्गत-भक्ष्याभक्ष्य-देहशुद्धिद्रव्यशुद्धि-स्त्रीधर्मविषयात्मकः पञ्चमोऽध्यायः॥



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