विशुद्ध मनुस्मृतिः― द्वादश अध्याय

अथ द्वादशोऽध्यायः


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

Click now


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'- समीक्षा सहित) 


(कर्मफल-विधान एवं निःश्रेयस कर्मों का वर्णन)


(१२.३ से १२.११६ तक)


त्रिविध कर्मों का और त्रिविध गतियों का कथन―


शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसम्भवम्। 

कर्मजा गतयो नॄणामुत्तमाधममध्यमाः॥३॥ (१)


मन, वचन और शरीर से किये जाने वाले कर्म शुभ-अशुभ फल को देने वाले होते हैं, और उन कर्मों के अनुसार मनुष्यों की उत्तम, अधम और मध्यम ये तीन गतियाँ=जन्म की स्थितियां होती हैं॥३॥


मन कर्मों का प्रवर्तक―


तस्येह त्रिविधस्यापि त्र्यधिष्ठानस्य देहिनः। दशलक्षणयुक्तस्य मनो विद्यात्प्रवर्तकम्॥४॥ (२)


इस विषय में मनुष्य के मन को उस उत्तम, मध्यम, अधम भेद से तीन प्रकार के; मन, वचन, क्रिया भेद से तीन आश्रय वाले और दशलक्षणों से युक्त कर्म को प्रवृत्त करने वाला जानो॥४॥ 


त्रिविध मानसिक बुरे कर्म―


परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्। वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्॥५॥ (३)


मन से चिन्तन किये गये अधर्म=अशुभ फलदायक कर्म तीन प्रकार के हैं―दूसरे के धन, पदार्थ आदि को अपने अधिकार में लेने का विचार रखना, मन में किसी का बुरा करने का सोचना, और मिथ्या विचार या संकल्प करना, मिथ्या विचार या सिद्धान्त को सत्य स्वीकार करना॥५॥ 


चतुर्विध वाचिक बुरे कर्म―


पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः। 

असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्॥६॥ (४)


वाणी के अधर्म=अशुभ फलदायक कर्म चार प्रकार के ये हैं―कठोर वचन बोलकर किसी को कष्ट देना, और झूठ बोलना, किसी की किसी भी प्रकार की चुगली करना, और किसी पर मिथ्या लांछन या बुराई लगाना अथवा ऊल-जलूल बातें करना, अफवाहें उड़ाना आदि॥६॥


त्रिविध शारीरिक बुरे कर्म―


अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।

परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्॥७॥ (५)


शरीर से किये जाने वाले अधर्म=अशुभ फलदायक कर्म तीन प्रकार के माने हैं—किसी के धन या पदार्थों को स्वामी के दिये बिना चोरी, डकैती, रिश्वत आदि अधर्म के रूप में ग्रहण करना, और शास्त्र द्वारा कर्त्तव्य के रूप में विहित हिंसाओं के अतिरिक्त हिंसा करना, [शास्त्रविहित हिंसाएं हैं―युद्ध में शत्रुहिंसा करना, आततायी की हिंसा हिंस्र पशु की हिंसा आदि] और दूसरे की स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध बनाना॥७॥


जैसा कर्म उसी प्रकार उसका योग―


मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाशुभम्। 

वाचा वाचाकृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्॥८॥ (६)


यह जीव मन से जिस शुभ व अशुभ कर्म को करता है उसको मन से वाणी से किये को वाणी से और शरीर से किये को शरीर से कर्मफलरूप सुख-दुःख को भोगता है॥८॥ 


शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः। 

वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्॥९॥ (७)


जो नर शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है, उसको पर जन्म में वृक्ष आदि स्थावर का जन्म मिलता है, वाणी से किये पापकर्मों से पक्षी और मृग आदि का तथा मन से किये दुष्टकर्मों से निम्न कोटि मनुष्य का शरीर मिलता है॥९॥


प्रकृति के आत्मा को प्रभावित करने वाले तीन गुण―


सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रीन्विद्यादात्मनो गुणान्। 

यैर्व्याप्येमान्स्थितो भावान् महान् सर्वानशेषतः॥२४॥ (८)


सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों को आत्मा को प्रभावित करने वाले प्रकृति के गुण समझें, महत्तत्त्व=प्रकृत्ति का प्रथम विकार इस समस्त प्रकृति के कार्यरूप शरीरों और पदार्थों को व्याप्त करके स्थित रहता है॥२४॥ 


यो यदेषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते। 

तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम्॥२५॥ (९)


उक्त तीन गुणों से जो गुण इन जीवों के देह में अधिकता से विद्यमान होता है वह गुण उस शरीरस्थ जीव को अपने गुण से प्रभावित कर लेता है॥२५॥ 


सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजः स्मृतम्। 

एतद् व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः॥२६॥ (१०)


जब आत्मा में यथार्थ ज्ञान का आधिक्य हो तब सत्त्व गुण जब अज्ञान का आधिक्य रहे तब तम, और जब राग-द्वेष आत्मा में अधिक हों, तब रजोगुण अधिक जानना चाहिए सभी प्राणियों के पंचभूतों से निर्मित शरीर सदा इन तीन गुणों से व्याप्त होते हैं॥२६॥ 


आत्मा में सत्त्वगुण प्रधानता की पहचान―


तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किंचिदात्मनि लक्षयेत्।

प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत्॥२७॥ (११)


उस आत्मा में जो कुछ प्रसन्नता, सुख से युक्त, शान्ति से युक्त निर्मलता से युक्त अनुभव हो, तब सत्त्वगुण की प्रधानता अपने शरीर और आत्मा में जाननी चाहिये॥२७॥


आत्मा में रजोगुण प्रधानता की पहचान―


यत्तु दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः।

तद्रजो प्रतिपं विद्यात्सततं हारि देहिनाम्॥२८॥ (१२)


आत्मा के लिए जो कुछ भी दुःख से युक्त, प्रसन्नता रहित, शरीरधारियों को सदैव विषयों से आकृष्ट करने वाला हो जो सत्त्वगुण से विपरीत लक्षणों वाला है, उसको रजोगुण समझना चाहिये। अर्थात् ऐसी स्थिति में रजोगुण की प्रधानता होती है॥२८॥


आत्मा में तमोगुण की प्रधानता की पहचान―


यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम्। 

अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्॥२९॥ (१३)


आत्मा जब मोहयुक्त हो, भले-बुरे के ज्ञान से रहित हो, किसी विचार में स्पष्टता न हो, इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हो, तर्क-वितर्क से शून्य हो, किसी विषय को स्पष्ट जानने में अक्षम हो तब तमोगुण की प्रधानता समझनी चाहिये॥२९॥


त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः। 

अग्र्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥३०॥ (१४)


अब जो इन तीनों गुणों का आत्मा और शरीर में उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय=प्रभाव होता है उसको पूर्ण रूप में कहूंगा॥३०॥ 


सत्त्वगुण को प्रत्यक्ष कराने वाले लक्षण―


वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम्॥३१॥ (१५)


जब वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह धर्मक्रिया और आत्मा के चिन्तन की प्रवृत्ति होती है ये सत्त्वगुण के लक्षण हैं, अर्थात् ये आचरण मनुष्य में सत्त्वगुण की प्रधानता को लक्षित कराते हैं॥३१॥ 


रजोगुण के लक्षण―


आरम्भरुचिताऽधैर्यमसत्कार्यपरिग्रहः।

विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम्॥३२॥ (१६)


किसी कार्य को आरम्भ करने में पहले तो रुचि होना किन्तु बाद में उसको त्याग देना, धैर्य का अभाव होना, बुरे कार्यों में सलंग्न होना और इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होना ये रजोगुण के लक्षण हैं ये अर्थात् ये आचरण मनुष्य में रजोगुण की प्रधानता को लक्षित कराते हैं॥३२॥


तमोगुण के लक्षण―


लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तित्ता। 

याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम्॥३३॥ (१७)


लालच की अधिकता, अत्यधिक आलस्य और निद्रा आना, धैर्य का अभाव, क्रूरता का आचरण, परमात्मा, पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व में अविश्वास, बुरे आचरण में प्रवृत्ति होना, दूसरों से धन, पदार्थ मांगने की प्रवृत्ति होना, और किसी कार्य में असावधानी, ये तमोगुण के लक्षण हैं अर्थात् मनुष्य में तमोगुण की प्रधानता को लक्षित कराते हैं॥३३॥


त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां त्रिषु तिष्ठताम्। 

इदं सामासिकं ज्ञेयं क्रमशो गुणलक्षणम्॥३४॥ (१८)


तीनों कालों अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमान में विद्यमान रहने वाले उक्त तीनों गुणों के 'गुणलक्षण' को क्रमशः संक्षेप में इस प्रकार समझें॥३४॥ 


तमोगुणी कर्म की संक्षिप्त परिभाषा―


यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति। 

तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम्॥३५॥ (१९)


मनुष्य का आत्मा जिस कर्म को करके और करता हुआ और कभी भी करने की इच्छा करते हुए लज्जा का अनुभव करता है उन सब कामों को तमोगुण का लक्षण समझें॥३५॥


रजोगुणी कर्म की संक्षिप्त परिभाषा―


येनास्मिन्कर्मणा लोके ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम्। 

न च शोचत्यसम्पत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम्॥३६॥ (२०)


इस लोके में मनुष्य जब जिस काम से अत्यधिक प्रसिद्धि चाहता है और दरिद्रता होने पर भी अपने कार्य पर खेद अनुभव नहीं करता अर्थात् प्रसिद्धि पाने के लिए व्यय करने में सलंग्न रहता है उस कार्य को रजोगुण का लक्षण समझें॥३६॥


सत्त्वगुणी कर्म की संक्षिप्त परिभाषा―


यत्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन्। 

येन तुष्यति चात्माऽस्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम्॥३७॥ (२१)


मनुष्य का आत्मा जब पूर्ण मन से किसी ज्ञान को जानना चाहता है और किसी काम को करता हुआ जब लज्जा का अनुभव नहीं करता, तथा जिस काम को करने से मनुष्य का आत्मा संतुष्टि-प्रसन्नता का अनुभव करता है वह सत्त्वगुण का लक्षण समझना चाहिये॥३७॥


तीनों गुणों के प्रधान लक्षण व पारस्परिक श्रेष्ठता―


तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते। 

सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रेष्ठ्यमेषां यथोत्तरम्॥३८॥ (२२)


कामभावना की प्रधानता तमोगुण का प्रधान लक्षण है, रजोगुण का प्रधान लक्षण अर्थ संग्रह की इच्छा की प्रधानता होना है, सत्त्वगुण की प्रधानता होने का लक्षण धर्म का आचरण करना है, इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है अर्थात् तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्त्वगुण श्रेष्ठ है॥३८॥

 

येन यस्तु गुणेनैषां संसारान् प्रतिपद्यते। 

तान्समासेन वक्ष्यामि सर्वस्यास्य यथाक्रमम्॥३९॥ (२३)


इन तीन गुणों में जिस गुण से जो मनुष्य जिस सांसारिक गति को प्राप्त करता है समस्त संसार की उन गतियों को संक्षेप में और क्रम से कहूंगा॥३९॥ 


तीन गुणों के आधार पर तीन गतियाँ―


देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः। 

तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः॥४०॥ (२४)


सत्त्वगुण का आचरण करने वाले परजन्म देवत्व अर्थात् दिव्यगुणों से युक्त विशेष मनुष्य का जन्म प्राप्त करते हैं, और रजोगुणी आचरण करने वाले साधारण मनुष्य का जन्म पाते हैं, तमोगुणी आचरण करने वाले पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-वनस्पति आदि तिर्यक् जन्मों को प्राप्त करते हैं, सदा प्राप्त होने वाली ये तीन प्रकार की गतियां हैं॥४०॥


तीन गतियों के कर्म, विद्या के आधार पर तीन गौण गतियाँ―


त्रिविधा त्रिविधैषा तु विज्ञेया गौणिकी गतिः।

अधमा मध्यमाऽग्र्या च कर्मविद्या विशेषतः॥४१॥ (२५)


ये तीन प्रकार की सत्त्व, रज, तम युक्त गतियाँ हैं, कर्म और विद्या=ज्ञान की विशेषताओं के आधार पर अधम, मध्यम और उत्तम भेद से प्रत्येक की पुनः तीन-तीन प्रकार की अर्थात् कुल नौ प्रकार की गौण गतियाँ निम्न प्रकार होती हैं॥४१॥ 


तामस गतियों के तीन भेद―


स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाः सकच्छपाः। 

पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः॥४२॥ (२६)


स्थावर अर्थात् वृक्ष, वनस्पति आदि, और सूक्ष्म कीड़े, बड़े कीड़े सभी प्रकार के मत्स्यवर्ग और जलचर कछुए आदि सहित सभी जलचर और सभी सर्प जातियां, पशु और मृग ये सबसे निम्न तमोगुणी गतियां हैं अर्थात् अत्यन्त तमो गुणी लोगों को अगले जन्म में ये गतियां प्राप्त होती है॥४२॥


हस्तिनश्च तुरंगांश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः। 

सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः॥४३॥ (२७)


पशुओं में हाथी और घोड़े, सिंह, बाघ, सुअर और निन्दनीय कार्य करने वाले शूद्र और म्लेच्छ ये मध्यम तामसी गतियां हैं अर्थात् मध्यम तमोगुणी लोगों को परलोक में उक्त प्रकार के जन्म प्राप्त होते हैं॥४३॥


चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः।

रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः॥४४॥ (२८)


स्वार्थ हेतु दूसरों की प्रशंसा में संलग्न जन, पक्षीगण, और अहंकारी स्वभाव के मनुष्य, तथा दूसरों को हानि पहुंचाने की प्रवृत्ति वाले जन, मांस आदि का सेवन करने वाले, उत्तम तमोगुणी गतियां हैं अर्थात् उत्तम तमोगुणी जन परलोक में उक्त प्रकार के जन्म को पाते हैं॥४४॥


राजस गतियों के तीन भेद―


झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः। धूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः॥४५॥ (२९)


जो अधम रजोगुणी हैं वे झल्ला अर्थात् कुद्दाले आदि से तालाब आदि के खोदने हारे, मल्ला अर्थात् नौका आदि के चलाने वाले, नट, जो बांस आदि पर कला, कूदना, चढ़ना-उतरना आदि करते हैं, शस्त्र जीविकाधारी भृत्य और जुआ आदि और मद्य पान में आसक्त हों, ऐसे जन्म नीच रजोगुण का फल है॥४५॥ 


राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः।

वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः॥४६॥ (३०)


जो मध्यम रजोगुणी होते हैं वे राजा, क्षत्रियवर्णस्थ, राजाओं के पुरोहित, वाद-विवाद करने वाले-दूत, प्राड्विवाक=वकील, बैरिस्टर, युद्धविभाग के अध्यक्ष के जन्म पाते हैं॥४६॥ 


गन्धर्वा गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये।

तथैवाप्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा गतिः॥४७॥ (३१)


जो उत्तम रजोगुणी हैं वे गंधर्व=गाने वाले, गुह्यक=वादित्र बजाने वाले, यक्ष=धनाढ्य, विद्वानों के सेवक, और अप्सरा अर्थात् उत्तम रूप वाली स्त्री का जन्म पाते हैं॥४७॥ 


सात्त्विक गतियों के तीन भेद―


तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गणाः। 

नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः॥४८॥ (३२)


जो तपस्वी, यति, संन्यासी, वेदपाठी, विमान के विशेषज्ञ, ज्योतिषी, और दैत्य अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं उनको प्रथम सत्त्वगुण के कर्म का फल जानो॥४८॥ 


यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः।

पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः॥४९॥ (३३)


जो मध्यम सत्त्वगुणयुक्त होकर कर्म करते हैं वे जीव यज्ञकर्त्ता, वेदार्थवित् विद्वान्, वेद, विद्युत् आदि और काल-विद्या के ज्ञाता, रक्षक, ज्ञानी और साध्य=कार्यसिद्धि के लिए सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं॥४९॥ 


ब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महानव्यक्तमेव च।

उत्तमां सात्त्विकीमेनां गतिमाहुर्मनीषिणः॥५०॥ (३४)


जो उत्तम सत्त्वगुणयुक्त होके उत्तम कर्म करते हैं वे ब्रह्मा=सब वेदों का वेत्ता, विश्वसृज=सब सृष्टिक्रम विद्या को जानकर विविध आविष्कारों को करने और बनाने हारे, धार्मिक, सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं॥५०॥ 


एष सर्वः समुद्दिष्टस्त्रिप्रकारस्य कर्मणः। 

त्रिविधस्त्रिविधः कृत्स्नः संसारः सार्वभौतिकः॥५१॥ (३५)


मन, वचन, शरीर के भेद से तीन प्रकार के कर्मों का सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण नामक तीन गुण और उनका फल, तथा फिर उनकी उत्तम, मध्यम, अधम भेद से तीन-तीन गतियों वाले सर्वभूतयुक्त सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का यह पूर्ण वर्णन किया॥५१॥ 


विषयों में आसक्ति से और अधर्मसेवन से दुःखरूप जन्मों की प्राप्ति―


इन्द्रियाणां प्रसंगेन धर्मस्यासेवनेन च। 

पापान् संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः॥५२॥ (३६)


इन्द्रियों में आसक्त होकर रहने से और धर्म को छोड़कर अधर्म करने वाले जो अविद्वान् हैं, वे अधम मनुष्य हैं और मरने के बाद पुनः संसार में पापमय अर्थात् दुःखमय जन्म को पाते हैं॥५२॥ 


विषयों के सेवन से पाप-योनियों की प्राप्ति―


यथा यथा निषेवन्ते विषयान्विषयात्मकाः।

तथा तथा कुशलता तेषां तेषूपजायते॥७३॥ (३७)


विषयी स्वभाव के मनुष्य जैसे-जैसे विषयों का सेवन करते हैं वैसे-वैसे उन विषयों में उनकी आसक्ति अधिक बढ़ती जाती है॥७३॥


तेऽभ्यासात्कर्मणां तेषां पापानामल्पबुद्धयः। 

सम्प्राप्नुवन्ति दुःखानि तासु तास्विह योनिषु॥७४॥ (३८)


फिर वे मन्दबुद्धि मनुष्य उन विषयों से उत्पन्न पापकर्मों को बारम्बार करते हैं, और उनके कारण पुनः पापकर्मों से प्राप्त होने वाले उन-उन पूर्वोक्त जन्मों में अर्थात् जिस पाप से जो जन्म होता है उसे प्राप्त करके इसी संसार में दुःखों को भोगते हैं॥७४॥


आसक्ति-निरासक्ति के अनुसार फलप्राप्ति―


यादृशेन तु भावेन यद्यत्कर्म निषेवते।

तादृशेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते॥८१॥ (३९)


मनुष्य जैसी अच्छी या बुरी भावना से और जैसी दृढ़ आसक्ति या निरासक्ति है उसके अनुसार जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है, वैसे-वैसे ही शरीर पाकर उन कर्मों के फलों को भोगता है॥८१॥


निःश्रेयसकर कर्मों का वर्णन―


एष सर्वः समुद्दिष्टः कर्मणां वः फलोदयः। 

निःश्रेयसकरं कर्म विप्रस्येदं निबोधत॥८२॥ (४०)


यह कर्मों के फल का उद्भव सम्पूर्ण रूप में तुमसे कहा। अब विद्वानों या ब्राह्मण आदि द्विजों के मोक्षदायक कर्मों को आगे सुनो―॥८२॥ 


छह निःश्रेयसकर कर्म―


वेदाभ्यासस्तपोज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः। 

धर्मक्रियाऽत्मचिन्ता च निःश्रेयसकरं परम्॥८३॥ (४१)


वेदों का अभ्यास, तप=व्रतसाधना, ज्ञान=सत्यविद्याओं की प्राप्ति, इन्द्रियसंयम, धर्मक्रिया=धर्मपालन एवं यज्ञ आदि धार्मिक क्रियाओं का अनुष्ठान और आत्मचिन्ता=परमात्मा का ज्ञान एवं ध्यान, ये छः मोक्ष प्रदान करने वाले सर्वोत्तम कर्म हैं॥८३॥


आत्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ धर्म है―


सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम्। 

तद्ध्यग्र्यं सर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः॥८५॥ (४२)


इन सब कर्मों से 'परमात्मज्ञान' सर्वश्रेष्ठ कर्म माना है, यह सब विद्याओं अर्थात् ज्ञानों में सर्वप्रमुख कर्म है क्योंकि इससे मुक्ति प्राप्त होती है॥८५॥


सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। 

समं पश्यन्नात्मयाजी स्वाराज्यमधिगच्छति॥९१॥ (४३)


सब चराचर पदार्थों एवं प्राणियों में परमात्मा की व्यापकता को और परमात्मा में सब पदार्थों एवं प्राणियों के आश्रय को समानभाव से देखता हुआ अर्थात् यथार्थ ज्ञानपूर्वक सर्वत्र परमात्मा की स्थिति का अनुभव कर सर्वदा उसी का ध्यान करता हुआ परमात्मा में अपने आत्मा को ध्यानावस्थित करने वाला उपासक मनुष्य परमात्मसुख अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥९१॥


आत्मज्ञान, इन्द्रियसंयम का कथन और इनसे जन्मसाफल्य―


यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहाय द्विजोत्तमः। 

आत्मज्ञाने शमे च स्याद्वेदाभ्यासे च यत्नवान्॥९२॥ (४४)


श्रेष्ठ द्विज उसके लिए विहित यज्ञ आदि कर्मों को [किसी विशेष अवस्था अथवा संन्यास की अवस्था में] छोड़ते हुए भी परमात्मज्ञान, इन्द्रियसंयम और वेदाभ्यास=वेद के चिन्तन-मनन में प्रयत्नशील अवश्य रहे अर्थात् इनको किसी भी अवस्था में न छोड़े॥९२॥ 


एतद्धि जन्मसाफल्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः। 

प्राप्यैतत्कृतकृत्यो हि द्विजो भवति नान्यथा॥९३॥ (४५)


ये तीनों कर्म द्विजों के, विशेष रूप से ब्राह्मण के जन्म को सफल बनाने वाले हैं। द्विज व्यक्ति इनका पालन करके ही कर्त्तव्यों की पूर्णता प्राप्त करता है, इसके बिना नहीं॥९३॥


वेद सबका चक्षु है―


पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्। 

अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः॥९४॥ (४६)


पितृ-संज्ञक रक्षक और पालक पिता आदि, दिव्यगुणी एवं विद्वान् और अन्य साधारण मनुष्यों का वेद सनातन नेत्र=मार्ग प्रदर्शक है, और वह अशक्य अर्थात् जिसे कोई पुरुष नहीं बना सकता, इसलिए अपौरुषेय है, तथा अनन्त सत्य ज्ञान से युक्त है, ऐसी निश्चित मान्यता है॥८४॥


वेदविरुद्ध-शास्त्र अप्रामाणिक―


या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः। 

सर्वास्ता निष्फला प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृता॥९५॥ (४७)


संसार में जो वेदोक्त धर्म के अनुकूल स्मृतियां अर्थात् धर्म नियम नहीं हैं और भविष्य में नहीं होंगे और जो कोई वेद विरोधी विचार हैं अथवा होंगे वे सब निष्फल हैं, उत्तम कर्मफल देने वाले नहीं हैं वे परलोक में निश्चित रूप से तमोगुणी दुःखमय जन्म को प्राप्त कराने वाले माने हैं॥९५॥


उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित्।

तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च॥९६॥ (४८)


अतः वेदों की मान्यता से भिन्न अथवा प्रतिकूल जो कोई स्मृतियां अर्थात् धर्मनियम हैं अथवा होंगे वे उत्पन्न होते रहेंगे और नष्ट होते रहेंगे वे सब वेदों के पश्चात् कथित होने से श्रेष्ठ फलों से रहित हैं और असत्य रहैं॥९६॥


वेद से वर्ण, आश्रम, लोक, काल आदि का ज्ञान―


चातुर्वर्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्।

भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति॥९७॥ (४९)


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ये चार वर्ण और इनकी व्यवस्था, पृथ्वी, आकाश एवं धुलोक अर्थात् समस्त भूमण्डल के लोक, ग्रह आदि, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास, इन चारों के पृथक्-पृथक् विधान, और भूत, भविष्यत्, वर्तमान सभी कालों की विद्या, ये सब वेदों से ही प्रसिद्ध, प्रकट और ज्ञात होती हैं अर्थात् इन सब व्यवस्थाओं और विद्याओं का ज्ञान मूलरूप से वेदों के द्वारा ही होता है॥९७॥


पञ्चभूत आदि सूक्ष्म शक्तियों का ज्ञान वेदों से―


शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः। 

वेदादेव प्रसूयन्ते प्रसूतिगुणकर्मतः॥९८॥ (५०)


शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पञ्चम गन्ध, ये उत्पत्ति, गुण और कार्य के ज्ञानरूप से वेदों से ही प्रसिद्ध=विज्ञात होते हैं अर्थात् इन तत्त्वशक्तियों का उत्पत्तिज्ञान, इनके गुणों का ज्ञान, इनकी उपयोगिता का ज्ञान और उत्पन्न समस्त जड़-चेतन संसार का ज्ञान-विज्ञान, वेदों से ही मूलरूप से प्राप्त होता है॥९८॥ 


वेद सुखों का साधन है―


बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम्। 

तस्मादेतत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्॥९९॥ (५१)


नित्य वेदशास्त्र सब प्राणियों का ज्ञान, विद्या दान द्वारा धारण-पोषण करता है। और यह मनुष्यमात्र के लिए सुख, उन्नति, पुरुषार्थ प्राप्ति आदि का साधन है इसलिए मैं वेदशास्त्र को सर्वोत्तम मानता हूं॥९९॥


वेदवेत्ता ही सफल राजा, सेनापति व न्यायाधीश हो सकता―


सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। 

सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति॥१००॥ (५२)


सेना के प्रबन्ध का कार्य और राज्य का प्रशासन-कार्य और दण्डव्यवस्था अर्थात् न्याय-व्यवस्था का कार्य और सब प्रजा का अधिपति अर्थात् राजा होने का कार्य, इनको वेदशास्त्रों का ज्ञाता ही उत्तम प्रकार से करने में समर्थ है, योग्य है॥१०॥


वेदज्ञानाग्नि से कर्म दोषों का नाश―


यथा जातबलो वह्निर्दहत्यार्द्रानपि द्रुमान्। 

तथा दहति वेदज्ञः कर्मजं दोषमात्मनः॥१०१॥ (५३)


जैसे धधकती हुई आग गीले वृक्षों को भी जला देती है उसी प्रकार वेदों का ज्ञाता विद्वान् अपने कर्मों से उत्पन्न होने वाले संस्कार-दोषों को जला देता है अर्थात् वेदज्ञान रूपी अग्नि से दुष्ट संस्कारों को मिटाकर आत्मा को पवित्र रखता है॥१०१॥


वेदज्ञान से ब्रह्मप्राप्ति की ओर प्रगति―


वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन्। 

इहैव लोके तिष्ठन्स ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१०२॥ (५४)


वेदशास्त्र के अर्थतत्त्व का यथार्थ ज्ञाता विद्वान् किसी भी आश्रम में रहता हुआ, इसी वर्तमान जन्म में ही ब्रह्मप्राप्ति के लिए अधिकाधिक समर्थ हो जाता है॥१०२॥


तप से पापभावना का नाश और विद्या से अमृतप्राप्ति―


तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं परम्।

तपसा किल्बिषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते॥१०४॥ (५५)


विप्र के लिए तप=श्रेष्ठव्रतों का धारण और साधना, और विद्या=सत्यविद्याओं का ज्ञान, ये दोनों उत्तम मोक्षसाधन हैं, वह विप्र तप से पापभावना को नष्ट करता है, और सत्यविद्या के यथार्थ ज्ञान से अमरता=मोक्ष को प्राप्त करता है॥१०४॥


धर्मज्ञान के लिए त्रिविध प्रमाणों का ज्ञान―


प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं च विविधागमम्।

त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मशुद्धिमभीप्सता॥१०५॥ (५६)


धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानने के अभिलाषी मनुष्य को प्रत्यक्ष-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण और वेद एवं विविध वेदमूलक शास्त्र-प्रमाण, इन तीनों का अच्छी प्रकार ज्ञान प्राप्त करना चाहिए॥१०५॥


वेदानुकूल तर्क से धर्मज्ञान―


आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राऽविरोधिना। 

यस्तर्केणानुसंधत्ते सः धर्मं वेद नेतरः॥१०६॥ (५७)


जो मनुष्य वेद और ऋषिविहित धर्मोपदेश अर्थात् धर्मशास्त्र का वेदशास्त्र के अनुकूल तर्क के द्वारा अनुसंधान और चिन्तन करता है वही धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ पाता है, अन्य नहीं॥१०६॥


अविहित धर्मों का विधान शिष्टविद्वान् करें―


अनाम्नातेषु धर्मेषु कथं स्यादिति चेद्भवेत्। 

यं शिष्टा ब्राह्मणा ब्रूयुः स धर्मः स्यादशङ्कितः॥१०८॥ (५८)


इस शास्त्र में जिन धर्मों का उल्लेख नहीं हुआ है उनमें किस आचरण को धर्म माना जाये, यदि ऐसी जिज्ञासा उपस्थित हो तो वेदशास्त्रों के धार्मिक आप्त विद्वान् जिस आचरण को धर्म कहें वही संदेहरहित धर्म मानना चाहिए॥१०८॥


शिष्ट विद्वानों की परिभाषा―


धर्मेणाधिगतो यैस्तु वेदः सपरिबृंहणः। 

ते शिष्टा ब्राह्मणा ज्ञेयाः श्रुतिप्रत्यक्षहेतवः॥१०९॥ (५९)


जिन्होंने निर्धारित ब्रह्मचर्याश्रम की विधिपूर्वक वेद का वेदांगों सहित अध्ययन किया है उन वेदों के यथार्थ का प्रत्यक्ष करने वाले विद्वानों को 'शिष्ट' संज्ञक विद्वान् जानना चाहिये॥१०९॥


तीन या दश विद्वानों की धर्मनिर्णायक परिषद्―


दशावरा वा परिषद्यं धर्मं परिकल्पयेत्।

त्र्यवरा वापि वृत्तस्था तं धर्मं न विचालयेत्॥११०॥ (६०)


धर्मनिर्णय करने वाली परिषद् दश सदाचारी शिष्ट विद्वानों की होनी चाहिये अथवा कम से कम हो तो तीन सदाचारी शिष्ट विद्वानों की हो, वह परिषद् जिस धर्म का निश्चय करे उस धर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहिये॥११०॥


धर्मपरिषद् के दश सदस्य―


त्रैविद्यो हेतुकस्तर्की नैरुक्तो धर्मपाठकः। 

त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत्स्याद्दशावरा॥१११॥ (६१)


ऋक्, यजु, साम इन तीन वेदों के तीन विद्वान्, कारण-अकारण का ज्ञाता, न्यायविद्या का ज्ञाता, भाषा शास्त्र का ज्ञाता, धर्मशास्त्र का ज्ञाता, ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये प्रथम तीन आश्रम वाले इन दश विद्वानों से मिलकर धर्म का निर्णय करने वाली परिषद् बनती है॥१११॥


धर्मपरिषद् के तीन सदस्य―


ऋग्वेदविद्यजुर्विच्च सामवेदविदेव च।

त्र्यवरा परिषज्ज्ञेया धर्मसंशयनिर्णये॥११२॥ (६२)


यदि न्यून से न्यून तीन विद्वानों की सभा बनानी पड़े तो ऋग्वेद का ज्ञाता, यजुर्वेद का ज्ञाता और सामवेद का वेत्ता इन तीन 'शिष्ट' विद्वानों की सभा धर्म विषयक संदेह का निर्णय करने वाली होनी चाहिये॥११२॥


असंख्य मूर्खों की अपेक्षा वेद का एक विद्वान् भी धर्मनिर्णय में प्रमाण है―


एकोऽपि वेदविद्धर्मं यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः।

स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः॥११३॥ (६३)


तीन वेदवित् विद्वानों के न मिलने पर वेदों का ज्ञाता एक भी सर्वोत्तम ‘शिष्ट' विद्वान् जिस धर्म का निश्चय करे उसको ही उत्तम धर्म समझना चाहिये, सहस्रों अज्ञानियों के द्वारा भी कहा गया धर्म नहीं होता॥११३॥


धर्मपरिषद् का सदस्य कौन नहीं हो सकता―


अव्रतानाममन्त्राणां जातिमात्रोपजीविनाम्।

सहस्रशः समेतानां परिषत्त्वं न विद्यते॥११४॥ (६४)


ब्रह्मचर्य, धर्माचरण के व्रत से रहित, मन्त्र अर्थात् वेदों के ज्ञान से रहित, केवल अपने वर्ण के नाम से जीवन चलाने वाले हजारों लोगों के मिलने से भी वह धर्मनिर्णायक परिषद् नहीं बनती॥११४॥


मूर्खों द्वारा निर्णीत धर्म से पापवृद्धि का भय―


यं वदन्ति तमोभूता मूर्खा धर्ममतद्विदः। 

तत्पापं शतधा भूत्वा तद्वक्तॄननुगच्छति॥११५॥ (६५)


तमोगुण और अविद्या से युक्त जन वेदोक्त धर्मज्ञान से शून्य जन जिस धर्म का उपदेश करते हैं, वह धर्मरूप में अधर्मरूप पाप सौ गुणा होकर अथवा सैंकड़ों रूपों में फैलकर उन धर्म-वक्ताओं को लगता है अर्थात् उससे सैंकड़ों पाप जनता में फैलते हैं और उनका दोष वक्ताओं को मिलता है॥११५॥


निःश्रेयस कर्मों का उपसंहार―


एतद्वोऽभिहितं सर्वं निःश्रेयसकरं परम्। 

अस्मादप्रच्युतो विप्रः प्राप्नोति परमां गतिम्॥११६॥ (६६)


यह मोक्ष देने वाले सर्वोत्तम कर्मों का पूर्ण विधान तुम से कहा, विद्वान् द्विज इसको बिना छोड़े अर्थात् पालन करता हुआ उत्तम गति अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कर लेता है॥११६॥


ईश्वरद्रष्टा अधर्म में मन नहीं लगाता―


सर्वमात्मनि सम्पश्येत्सच्चासच्च समाहितः। 

सर्वं ह्यात्मनि संपश्यन्नाधर्मे कुरुते मनः॥११८॥ (६७)


द्विज व्यक्ति सावधान चित्त होकर सत्=प्रकट कार्य रूप और असत्=सूक्ष्म कारणरूप समस्त जगत् को आत्मा अर्थात् परमात्मा में व्याप्त अनुभव करे, क्योंकि समस्त जगत् को परमात्मा में आश्रित देखने वाला व्यक्ति कभी अपने मन को अधर्माचरण में नहीं लगाता अर्थात् वह परमात्मा को सर्वत्र व्यापक और द्रष्टा जानकर अधर्म नहीं करता॥११८॥


परमेश्वर ही सबका निर्माता, फलदाता और उपास्य है―


आत्मैव देवताः सर्वाः सर्वमात्मन्यवस्थितम्। 

आत्मा हि जनयत्येषां कर्मयोगं शरीरिणाम्॥११९॥ (६८)


विभिन्न देवताओं के नाम से वाच्य सभी दिव्यगुणयुक्त पदार्थ परमात्मा के ही अंगरूप हैं, परमात्मा में ही सब जगत् स्थित है, परमात्मा ही सब प्राणियों को पुण्य-पाप के कर्मों के अनुसार जन्म प्रदान करता है॥११९॥


परम सूक्ष्म परमात्मा को जानें―


प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि।

रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्॥१२२॥ (६९)


जो सब ब्रह्माण्ड का संचालक अर्थात् कर्ता-धर्ता-हर्ता है जो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म है, जो स्वप्रकाशस्वरूप है, जो समाधिस्थ बुद्धि से जानने योग्य है, उसी को परम पुरुष और परमात्मा मानना चाहिये और उसको जानना चाहिये॥१२२॥


परमात्मा के अनेक नाम―


एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्। 

इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥१२३॥ (७०)


इस पूर्वोक्त परमात्मा को कोई 'अग्नि' नाम से कोई प्रजापति और कोई मनु नाम से कोई 'इन्द्र', कोई 'प्राण', दूसरे कोई 'शाश्वत ब्रह्म', कहते हैं॥१२३॥


सर्वान्तर्यामी परमात्मा ही संसार को चक्रवत् चलाता है―


एषः सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभिः। जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत्॥१२४॥ (७१)


पूर्वोक्तस्वरूप परमात्मा पञ्च महाभूतों से सब प्राणियों को युक्त करके अर्थात् उनकी उत्पत्ति करके और उनमें व्याप्त रहकर उत्पत्ति, वृद्धि और विनाश करते हुए सदा चक्र की तरह संसार को चलाता रहता है॥१२४॥


समाधि से ईश्वर एवं मोक्ष-प्राप्ति―


एवं यः सर्वभूतेषु पश्यत्यात्मानमात्मना। 

स सर्वसमतामेत्य ब्रह्माभ्येति परं पदम्॥१२५॥ (७२)


इस प्रकार समाधिस्थ बुद्धि से जो मनुष्य अपनी आत्मा के द्वारा सब प्राणियों में परमात्मा को व्याप्त देखता है वह अपनी आत्मा के समान सर्वसमानता का आचरण रखके परम पद ब्रह्म अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥१२५॥



इति हरियाणाप्रान्तीयगुरुकुलझज्जरेऽधीतविद्येन, हरियाणाप्रान्तान्तर्गतरोहतकमण्डले 'मकड़ौली' नाम्नि ग्रामे लब्धजन्मना, श्रीगहरसिंहशान्तिदेवीतनयेन, सुरेन्द्रकुमारेण कृतं विशुद्धमनुस्मृतेः हिन्दी भाष्यम्, विविधविषयविमर्शसम्पन्ना 'अनुशीलन' नामिका समीक्षा च पूर्तिमगात्॥ 


॥ समाप्तश्चायं ग्रन्थः ॥





अथ द्वादशोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'- समीक्षा सहित) 


(कर्मफल-विधान एवं निःश्रेयस कर्मों का वर्णन)


(१२.३ से १२.११६ तक)


त्रिविध कर्मों का और त्रिविध गतियों का कथन―


शुभाशुभफलं कर्म मनोवाग्देहसम्भवम्। 

कर्मजा गतयो नॄणामुत्तमाधममध्यमाः॥३॥ (१)


(मनः-वाक्-देहसंभवं कर्म) मन, वचन और शरीर से किये जाने वाले कर्म (शुभ-अशुभ-फलम्) शुभ-अशुभ फल को देने वाले होते हैं, (कर्मजा नॄणाम्) और उन कर्मों के अनुसार मनुष्यों की (उत्तम-अधम-मध्यमाः गतयः) उत्तम, अधम और मध्यम ये तीन गतियाँ=जन्म की स्थितियां होती हैं॥३॥


मन कर्मों का प्रवर्तक―


तस्येह त्रिविधस्यापि त्र्यधिष्ठानस्य देहिनः। दशलक्षणयुक्तस्य मनो विद्यात्प्रवर्तकम्॥४॥ (२)


(इह) इस विषय में (देहिनः मनः) मनुष्य के मन को (तस्य त्रिविधस्य+अपि त्रि+अधिष्ठानस्य दशलक्षणयुक्तस्य) उस उत्तम, मध्यम, अधम भेद से तीन प्रकार के; मन, वचन, क्रिया भेद से तीन आश्रय वाले और दशलक्षणों [१२.५-७] से युक्त कर्म को (प्रवर्तकं विद्यात्) प्रवृत्त करने वाला जानो॥४॥ 


त्रिविध मानसिक बुरे कर्म―


परद्रव्येष्वभिध्यानं मनसानिष्टचिन्तनम्। वितथाभिनिवेशश्च त्रिविधं कर्म मानसम्॥५॥ (३)


(मानसं कर्म त्रिविधम्) मन से चिन्तन किये गये अधर्म=अशुभ फलदायक कर्म तीन प्रकार के हैं― (परद्रव्येषु+अभिध्यानम्) दूसरे के धन, पदार्थ आदि को अपने अधिकार में लेने का विचार रखना, (मनसा+अनिष्ट चिन्तनम्) मन में किसी का बुरा करने का सोचना, (च वितथ+अभिनिवेशः) और मिथ्या विचार या संकल्प करना, मिथ्या विचार या सिद्धान्त को सत्य स्वीकार करना॥५॥ 


चतुर्विध वाचिक बुरे कर्म―


पारुष्यमनृतं चैव पैशुन्यं चापि सर्वशः। 

असंबद्धप्रलापश्च वाङ्मयं स्याच्चतुर्विधम्॥६॥ (४)


(वाङ्मयं चतुर्विधं स्यात्) वाणी के अधर्म=अशुभ फलदायक कर्म चार प्रकार के ये हैं―(पारुष्यम्) कठोर वचन बोलकर किसी को कष्ट देना, (च) और (अनृतम्) झूठ बोलना, (पैशुन्यम् अपि सर्वशः) किसी की किसी भी प्रकार की चुगली करना, (च) और (असम्बद्ध प्रलापः) किसी पर मिथ्या लांछन या बुराई लगाना अथवा ऊल-जलूल बातें करना, अफवाहें उड़ाना आदि॥६॥


त्रिविध शारीरिक बुरे कर्म―


अदत्तानामुपादानं हिंसा चैवाविधानतः।

परदारोपसेवा च शारीरं त्रिविधं स्मृतम्॥७॥ (५)


(शारीरं त्रिविधं स्मृतम्) शरीर से किये जाने वाले अधर्म=अशुभ फलदायक कर्म तीन प्रकार के माने हैं—(अदत्तानाम् उपादानम्) किसी के धन या पदार्थों को स्वामी के दिये बिना चोरी, डकैती, रिश्वत आदि अधर्म के रूप में ग्रहण करना, (च) और (अविधानतः हिंसा एव) शास्त्र द्वारा कर्त्तव्य के रूप में विहित हिंसाओं के अतिरिक्त हिंसा करना, [शास्त्रविहित हिंसाएं हैं―युद्ध में शत्रुहिंसा करना, आततायी की हिंसा ८.३४८-३५१, हिंस्र पशु की हिंसा आदि] (च) और (परदारा+उपसेवा) दूसरे की स्त्री से शारीरिक सम्बन्ध बनाना॥७॥


जैसा कर्म उसी प्रकार उसका योग―


मानसं मनसैवायमुपभुङ्क्ते शुभाशुभम्। 

वाचा वाचाकृतं कर्म कायेनैव च कायिकम्॥८॥ (६)


(अयम्) यह जीव (मानसं शुभ+अशुभं कर्म मनसा+एव) मन से जिस शुभ व अशुभ कर्म को करता है उसको मन से (वाचा कृतं वाचा) वाणी से किये को वाणी से (च) और (कायिकं कायेन+एव) शरीर से किये को शरीर से (उपभुङ्क्ते) कर्मफलरूप सुख-दुःख को भोगता है॥८॥ 


शरीरजैः कर्मदोषैर्याति स्थावरतां नरः। 

वाचिकैः पक्षिमृगतां मानसैरन्त्यजातिताम्॥९॥ (७)


(नरः) जो नर (शरीरजैः कर्मदोषैः स्थावरतां याति) शरीर से चोरी, परस्त्रीगमन, श्रेष्ठों को मारने आदि दुष्ट कर्म करता है, उसको पर जन्म में वृक्ष आदि स्थावर का जन्म मिलता है, (वाचिकैः पक्षिमृगताम्) वाणी से किये पापकर्मों से पक्षी और मृग आदि का तथा (मानसैः अन्त्यजातिताम्) मन से किये दुष्टकर्मों से निम्न कोटि मनुष्य का शरीर मिलता है॥९॥


प्रकृति के आत्मा को प्रभावित करने वाले तीन गुण―


सत्त्वं रजस्तमश्चैव त्रीन्विद्यादात्मनो गुणान्। 

यैर्व्याप्येमान्स्थितो भावान् महान् सर्वानशेषतः॥२४॥ (८)


(सत्त्वं रजः च तमः एव त्रीन् आत्मनः गुणान् विद्यात्) सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण, इन तीनों को आत्मा को प्रभावित करने वाले प्रकृति के गुण समझें, (महान्) महत्तत्त्व=प्रकृत्ति का प्रथम विकार [१.१४] (इमान् सर्वान् भावान् व्याप्य स्थितः) इस समस्त प्रकृति के कार्यरूप शरीरों और पदार्थों को व्याप्त करके स्थित रहता है॥२४॥ 


यो यदेषां गुणो देहे साकल्येनातिरिच्यते। 

तदा तद्गुणप्रायं तं करोति शरीरिणम्॥२५॥ (९)


(यः गुणः एषां देहे) उक्त तीन गुणों से जो गुण इन जीवों के देह में (साकल्येन+अतिरिच्यते) अधिकता से विद्यमान होता है (सः तदा तं शरीरिणम्) वह गुण उस शरीरस्थ जीव को (तद्गुणप्रायं करोति) अपने गुण से प्रभावित कर लेता है॥२५॥ 


सत्त्वं ज्ञानं तमोऽज्ञानं रागद्वेषौ रजः स्मृतम्। 

एतद् व्याप्तिमदेतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः॥२६॥ (१०)


(ज्ञानम् सत्त्वं) जब आत्मा में यथार्थ ज्ञान का आधिक्य हो तब सत्त्व गुण (अज्ञानं तमः) जब अज्ञान का आधिक्य रहे तब तम, (रागद्वेषौ रजः स्मृतम्) और जब राग-द्वेष आत्मा में अधिक हों, तब रजोगुण अधिक जानना चाहिए (एतेषां सर्वभूताश्रितं वपुः एतत् व्याप्तिमत्) सभी प्राणियों के पंचभूतों से निर्मित शरीर सदा इन तीन गुणों से व्याप्त होते हैं॥२६॥ 


आत्मा में सत्त्वगुण प्रधानता की पहचान―


तत्र यत्प्रीतिसंयुक्तं किंचिदात्मनि लक्षयेत्।

प्रशान्तमिव शुद्धाभं सत्त्वं तदुपधारयेत्॥२७॥ (११)


(तत्र आत्मनि) उस आत्मा में (यत् किंचित्) जो कुछ (प्रीतिसंयुक्तम्) प्रसन्नता, सुख से युक्त, (प्रशान्तम्+इव) शान्ति से युक्त (शुद्धाभम्) निर्मलता से युक्त (लक्षयेत्) अनुभव हो, (तत् सत्त्वम् उपधारयेत्) तब सत्त्वगुण की प्रधानता अपने शरीर और आत्मा में जाननी चाहिये॥२७॥


आत्मा में रजोगुण प्रधानता की पहचान―


यत्तु दुःखसमायुक्तमप्रीतिकरमात्मनः।

तद्रजो प्रतिपं विद्यात्सततं हारि देहिनाम्॥२८॥ (१२)


(आत्मनः यत् तु) आत्मा के लिए जो कुछ भी (दुःख-समायुक्तम्) दुःख से युक्त, (अप्रीति-करम्) प्रसन्नता रहित, (देहिनां सततं हारि) शरीरधारियों को सदैव विषयों से आकृष्ट करने वाला हो (प्रतिपम्) जो सत्त्वगुण से विपरीत लक्षणों वाला है, (तत् रजः विद्यात्) उसको रजोगुण समझना चाहिये। अर्थात् ऐसी स्थिति में रजोगुण की प्रधानता होती है॥२८॥


आत्मा में तमोगुण की प्रधानता की पहचान―


यत्तु स्यान्मोहसंयुक्तमव्यक्तं विषयात्मकम्। 

अप्रतर्क्यमविज्ञेयं तमस्तदुपधारयेत्॥२९॥ (१३)


(यत् तु) आत्मा जब (मोहसंयुक्तं स्यात्) मोहयुक्त हो, भले-बुरे के ज्ञान से रहित हो, (अव्यक्तम्) किसी विचार में स्पष्टता न हो, (विषयात्मकम्) इन्द्रियों के विषयों में आसक्त हो, (अप्रतर्क्यम्) तर्क-वितर्क से शून्य हो, (अविज्ञेयम्) किसी विषय को स्पष्ट जानने में अक्षम हो (तत् तमः उपधारयेत्) तब तमोगुण की प्रधानता समझनी चाहिये॥२९॥


त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां यः फलोदयः। 

अग्र्यो मध्यो जघन्यश्च तं प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥३०॥ (१४)


अब (यः) जो (च+एतेषां त्रयाणाम्+अपि अग्र्यः मध्यः च जघन्यः फलोदयः) इन तीनों गुणों का आत्मा और शरीर में उत्तम, मध्यम और निकृष्ट फलोदय=प्रभाव होता है (तम् अशेषतः प्रवक्ष्यामि) उसको पूर्ण रूप में कहूंगा॥३०॥ 


सत्त्वगुण को प्रत्यक्ष कराने वाले लक्षण―


वेदाभ्यासस्तपो ज्ञानं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धर्मक्रियात्मचिन्ता च सात्त्विकं गुणलक्षणम्॥३१॥ (१५)


(वेदाभ्यासः तपः ज्ञानम्) जब वेदों का अभ्यास, धर्मानुष्ठान, ज्ञान की वृद्धि (शौचम्+इन्द्रियनिग्रहः) पवित्रता की इच्छा, इन्द्रियों का निग्रह (धर्मक्रिया च आत्मचिन्ता) धर्मक्रिया और आत्मा के चिन्तन की प्रवृत्ति होती है (सात्त्विकं गुण-लक्षणम्) ये सत्त्वगुण के लक्षण हैं, अर्थात् ये आचरण मनुष्य में सत्त्वगुण की प्रधानता को लक्षित कराते हैं॥३१॥ 


रजोगुण के लक्षण―


आरम्भरुचिताऽधैर्यमसत्कार्यपरिग्रहः।

विषयोपसेवा चाजस्रं राजसं गुणलक्षणम्॥३२॥ (१६)


(आरम्भरुचिता) किसी कार्य को आरम्भ करने में पहले तो रुचि होना किन्तु बाद में उसको त्याग देना, (अधैर्यम्) धैर्य का अभाव होना, (असत् कार्य परिग्रहः) बुरे कार्यों में सलंग्न होना (च) और (अजस्रं विषयोपसेवा) इन्द्रियों के विषयों में आसक्त होना (राजसं गुणलक्षणम्) ये रजोगुण के लक्षण हैं ये अर्थात् ये आचरण मनुष्य में रजोगुण की प्रधानता को लक्षित कराते हैं॥३२॥


तमोगुण के लक्षण―


लोभः स्वप्नोऽधृतिः क्रौर्यं नास्तिक्यं भिन्नवृत्तित्ता। 

याचिष्णुता प्रमादश्च तामसं गुणलक्षणम्॥३३॥ (१७)


(लोभः) लालच की अधिकता, (स्वप्नः) अत्यधिक आलस्य और निद्रा आना, (अधृतिः) धैर्य का अभाव, (क्रौर्यम्) क्रूरता का आचरण, (नास्तिक्यम्) परमात्मा, पुनर्जन्म आदि के अस्तित्व में अविश्वास, (भिन्नवृत्तिता) बुरे आचरण में प्रवृत्ति होना, (याचिष्णुता) दूसरों से धन, पदार्थ मांगने की प्रवृत्ति होना, (च) और (प्रमादः) किसी कार्य में असावधानी, (तामसं गुणलक्षणम्) ये तमोगुण के लक्षण हैं अर्थात् मनुष्य में तमोगुण की प्रधानता को लक्षित कराते हैं॥३३॥


त्रयाणामपि चैतेषां गुणानां त्रिषु तिष्ठताम्। 

इदं सामासिकं ज्ञेयं क्रमशो गुणलक्षणम्॥३४॥ (१८)


(त्रिषु तिष्ठताम्) तीनों कालों अर्थात् भूत, भविष्यत् और वर्तमान में विद्यमान रहने वाले (एतेषां त्रयाणाम्+अपि गुणानाम्) उक्त तीनों गुणों के (गुणलक्षणं क्रमशः) 'गुणलक्षण' को क्रमशः (सामासिकम् इदं ज्ञेयम्) संक्षेप में इस प्रकार [१२.३५-३८] समझें॥३४॥ 


तमोगुणी कर्म की संक्षिप्त परिभाषा―


यत्कर्म कृत्वा कुर्वंश्च करिष्यंश्चैव लज्जति। 

तज्ज्ञेयं विदुषा सर्वं तामसं गुणलक्षणम्॥३५॥ (१९)


(यत्कर्म कृत्वा) मनुष्य का आत्मा जिस कर्म को करके (च) और (कुर्वन्) करता हुआ (च) और (करिष्यन्-एव) कभी भी करने की इच्छा करते हुए (लज्जति) लज्जा का अनुभव करता है (तत् सर्वं तामसं गुणलक्षणं ज्ञेयम्) उन सब कामों को तमोगुण का लक्षण समझें॥३५॥


रजोगुणी कर्म की संक्षिप्त परिभाषा―


येनास्मिन्कर्मणा लोके ख्यातिमिच्छति पुष्कलाम्। 

न च शोचत्यसम्पत्तौ तद्विज्ञेयं तु राजसम्॥३६॥ (२०)


(अस्मिन् लोके) इस लोके में मनुष्य जब (येन कर्मणा) जिस काम से (पुष्कलां ख्यातिम्+इच्छति) अत्यधिक प्रसिद्धि चाहता है (च) और (असंपत्तौ न शोचति) दरिद्रता होने पर भी अपने कार्य पर खेद अनुभव नहीं करता अर्थात् प्रसिद्धि पाने के लिए व्यय करने में सलंग्न रहता है (तत् तु राजसं विज्ञेयम्) उस कार्य को रजोगुण का लक्षण समझें॥३६॥


सत्त्वगुणी कर्म की संक्षिप्त परिभाषा―


यत्सर्वेणेच्छति ज्ञातुं यन्न लज्जति चाचरन्। 

येन तुष्यति चात्माऽस्य तत्सत्त्वगुणलक्षणम्॥३७॥ (२१)


(यत् सर्वेण ज्ञातुम्-इच्छति) मनुष्य का आत्मा जब पूर्ण मन से किसी ज्ञान को जानना चाहता है (च) और (यत् आचरन् न लज्जति) किसी काम को करता हुआ जब लज्जा का अनुभव नहीं करता, (च) तथा (येन अस्य आत्मा तुष्यति) जिस काम को करने से मनुष्य का आत्मा संतुष्टि-प्रसन्नता का अनुभव करता है (तत् सत्त्वगुण-लक्षणम्) वह सत्त्वगुण का लक्षण समझना चाहिये॥३७॥


तीनों गुणों के प्रधान लक्षण व पारस्परिक श्रेष्ठता―


तमसो लक्षणं कामो रजसस्त्वर्थ उच्यते। 

सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः श्रेष्ठ्यमेषां यथोत्तरम्॥३८॥ (२२)


(कामः तमसः लक्षणम्) कामभावना की प्रधानता तमोगुण का प्रधान लक्षण है, (रजसः तु अर्थः उच्यते) रजोगुण का प्रधान लक्षण अर्थ संग्रह की इच्छा की प्रधानता होना है, (सत्त्वस्य लक्षणं धर्मः) सत्त्वगुण की प्रधानता होने का लक्षण धर्म का आचरण करना है, (एषां यथोत्तरं श्रेष्ठ्यम्) इनमें उत्तरोत्तर श्रेष्ठ है अर्थात् तमोगुण से रजोगुण और रजोगुण से सत्त्वगुण श्रेष्ठ है॥३८॥

 

येन यस्तु गुणेनैषां संसारान् प्रतिपद्यते। 

तान्समासेन वक्ष्यामि सर्वस्यास्य यथाक्रमम्॥३९॥ (२३)


एषाम्) इन तीन गुणों में (येन गुणेन) जिस गुण से (यः तु) जो मनुष्य (संसारान् प्रतिपद्यते) जिस सांसारिक गति को प्राप्त करता है (अस्य सर्वस्य तान् समासेन यथाक्रमं वक्ष्यामि) समस्त संसार की उन गतियों को संक्षेप में और क्रम से कहूंगा॥३९॥ 


तीन गुणों के आधार पर तीन गतियाँ―


देवत्वं सात्त्विका यान्ति मनुष्यत्वं च राजसाः। 

तिर्यक्त्वं तामसा नित्यमित्येषा त्रिविधा गतिः॥४०॥ (२४)


(सात्त्विकाः देवत्वं यान्ति) सत्त्वगुण का आचरण करने वाले परजन्म देवत्व अर्थात् दिव्यगुणों से युक्त विशेष मनुष्य का जन्म प्राप्त करते हैं, (च) और (राजसाः मनुष्यत्वम्) रजोगुणी आचरण करने वाले साधारण मनुष्य का जन्म पाते हैं, (तामसाः तिर्यक्त्वम्) तमोगुणी आचरण करने वाले पशु-पक्षी, कीट-पतंग, वृक्ष-वनस्पति आदि तिर्यक् जन्मों को प्राप्त करते हैं, (नित्यम्-इत्येषा त्रिविधाः गतिः) सदा प्राप्त होने वाली ये तीन प्रकार की गतियां हैं॥४०॥


तीन गतियों के कर्म, विद्या के आधार पर तीन गौण गतियाँ―


त्रिविधा त्रिविधैषा तु विज्ञेया गौणिकी गतिः।

अधमा मध्यमाऽग्र्या च कर्मविद्या विशेषतः॥४१॥ (२५)


(एषा त्रिविधाः) ये तीन प्रकार की सत्त्व, रज, तम युक्त गतियाँ हैं, (कर्म विद्या विशेषतः) कर्म और विद्या=ज्ञान की विशेषताओं के आधार पर (अधमा, अध्यमा च अग्र्या) अधम, मध्यम और उत्तम भेद से प्रत्येक की पुनः (त्रिविधा गौणिकी गतिः विज्ञेया) तीन-तीन प्रकार की अर्थात् कुल नौ प्रकार की गौण गतियाँ निम्न प्रकार होती हैं [१.४२-५०]॥४१॥ 


तामस गतियों के तीन भेद―


स्थावराः कृमिकीटाश्च मत्स्याः सर्पाः सकच्छपाः। 

पशवश्च मृगाश्चैव जघन्या तामसी गतिः॥४२॥ (२६)


(स्थावराः) स्थावर अर्थात् वृक्ष, वनस्पति आदि [१.४६-४९], (च) और (कृमि-कीटाः मत्स्याः) सूक्ष्म कीड़े, बड़े कीड़े सभी प्रकार के मत्स्यवर्ग (च) और (सर्पाः सकच्छपाः) जलचर कछुए आदि सहित सभी जलचर और सभी सर्प जातियां, (पशवः च मृगाः) पशु और मृग (जघन्या तामसी गतिः) ये सबसे निम्न तमोगुणी गतियां हैं अर्थात् अत्यन्त तमो गुणी लोगों को अगले जन्म में ये गतियां प्राप्त होती है॥४२॥


हस्तिनश्च तुरंगांश्च शूद्रा म्लेच्छाश्च गर्हिताः। 

सिंहा व्याघ्रा वराहाश्च मध्यमा तामसी गतिः॥४३॥ (२७)


(हस्तिनः च तुरंगाः) पशुओं में हाथी और घोड़े, (सिंहाः व्याघ्राः च वराहाः) सिंह, बाघ, सुअर (च) और (गर्हिताः शूद्राः च म्लेच्छाः) निन्दनीय कार्य करने वाले शूद्र और म्लेच्छ (मध्यमा तामसी गतिः) ये मध्यम तामसी गतियां हैं अर्थात् मध्यम तमोगुणी लोगों को परलोक में उक्त प्रकार के जन्म प्राप्त होते हैं॥४३॥


चारणाश्च सुपर्णाश्च पुरुषाश्चैव दाम्भिकाः।

रक्षांसि च पिशाचाश्च तामसीषूत्तमा गतिः॥४४॥ (२८)


(चारणाः) स्वार्थ हेतु दूसरों की प्रशंसा में संलग्न जन, (सुपर्णाः) पक्षीगण, (च) और (दाम्भिकाः पुरुषाः) अहंकारी स्वभाव के मनुष्य, (च) तथा (राक्षसाः) दूसरों को हानि पहुंचाने की प्रवृत्ति वाले जन, (पिशाचाः) मांस आदि का सेवन करने वाले, (तामसीषु उत्तमा गतिः) उत्तम तमोगुणी गतियां हैं अर्थात् उत्तम तमोगुणी जन परलोक में उक्त प्रकार के जन्म को पाते हैं॥४४॥


राजस गतियों के तीन भेद―


झल्ला मल्ला नटाश्चैव पुरुषाः शस्त्रवृत्तयः। धूतपानप्रसक्ताश्च जघन्या राजसी गतिः॥४५॥ (२९)


(जघन्या राजसी गतिः) जो अधम रजोगुणी हैं वे (झल्लाः) झल्ला अर्थात् कुद्दाले आदि से तालाब आदि के खोदने हारे, (मल्लाः) मल्ला अर्थात् नौका आदि के चलाने वाले, (नटाः) नट, जो बांस आदि पर कला, कूदना, चढ़ना-उतरना आदि करते हैं, (शस्त्रवृत्तयः पुरुषाः) शस्त्र जीविकाधारी भृत्य (च) और (द्यूतमद्यपानप्रसक्ताः) जुआ आदि और मद्य पान में आसक्त हों, ऐसे जन्म नीच रजोगुण का फल है॥४५॥ 


राजानः क्षत्रियाश्चैव राज्ञां चैव पुरोहिताः।

वादयुद्धप्रधानाश्च मध्यमा राजसी गतिः॥४६॥ (३०)


(मध्यमा राजसी गतिः) जो मध्यम रजोगुणी होते हैं वे (राजानः क्षत्रियाः) राजा, क्षत्रियवर्णस्थ, (राज्ञां पुरोहिताः) राजाओं के पुरोहित, (वादयुद्ध-प्रधानाः) वाद-विवाद करने वाले-दूत, प्राड्विवाक=वकील, बैरिस्टर, युद्धविभाग के अध्यक्ष के जन्म पाते हैं॥४६॥ 


गन्धर्वा गुह्यका यक्षा विबुधानुचराश्च ये।

तथैवाप्सरसः सर्वा राजसीषूत्तमा गतिः॥४७॥ (३१)


(राजसीषु उत्तमा गतिः) जो उत्तम रजोगुणी हैं वे (गन्धर्वाः) गंधर्व=गाने वाले, (गुह्यकाः) गुह्यक=वादित्र बजाने वाले, (यक्षाः) यक्ष=धनाढ्य, (विबुधा अनुचराः) विद्वानों के सेवक, (तथा+एव सर्वाः अप्सरसः) और अप्सरा अर्थात् उत्तम रूप वाली स्त्री का जन्म पाते हैं॥४७॥ 


सात्त्विक गतियों के तीन भेद―


तापसा यतयो विप्रा ये च वैमानिका गणाः। 

नक्षत्राणि च दैत्याश्च प्रथमा सात्त्विकी गतिः॥४८॥ (३२)


(तापसाः) जो तपस्वी, (यतयः) यति, संन्यासी, (विप्राः) वेदपाठी, (वैमानिका गणाः) विमान के विशेषज्ञ, (नक्षत्राणि) ज्योतिषी, (च) और (दैत्याः) दैत्य अर्थात् देहपोषक मनुष्य होते हैं उनको (प्रथमा सात्त्विकी गतिः) प्रथम सत्त्वगुण के कर्म का फल जानो॥४८॥ 


यज्वान ऋषयो देवा वेदा ज्योतींषि वत्सराः।

पितरश्चैव साध्याश्च द्वितीया सात्त्विकी गतिः॥४९॥ (३३)


(द्वितीया सात्त्विकी गतिः) जो मध्यम सत्त्वगुणयुक्त होकर कर्म करते हैं वे जीव (यज्वानः) यज्ञकर्त्ता, (ऋषयः देवाः) वेदार्थवित् विद्वान्, (वेदाः ज्योतींषि वत्सराः) वेद, विद्युत् आदि और काल-विद्या के ज्ञाता, (पितरः) रक्षक, ज्ञानी (च) और (साध्याः) साध्य=कार्यसिद्धि के लिए सेवन करने योग्य अध्यापक का जन्म पाते हैं॥४९॥ 


ब्रह्मा विश्वसृजो धर्मो महानव्यक्तमेव च।

उत्तमां सात्त्विकीमेनां गतिमाहुर्मनीषिणः॥५०॥ (३४)


(उत्तमां सात्त्विकीं गतिम्) जो उत्तम सत्त्वगुणयुक्त होके उत्तम कर्म करते हैं वे (ब्रह्मा) ब्रह्मा=सब वेदों का वेत्ता, (विश्वसृजः) विश्वसृज=सब सृष्टिक्रम विद्या को जानकर विविध आविष्कारों को करने और बनाने हारे, (धर्मः) धार्मिक, (महान् च अव्यक्तम्+एव) सर्वोत्तम बुद्धियुक्त और अव्यक्त के जन्म और प्रकृतिवशित्व सिद्धि को प्राप्त होते हैं॥५०॥ 


एष सर्वः समुद्दिष्टस्त्रिप्रकारस्य कर्मणः। 

त्रिविधस्त्रिविधः कृत्स्नः संसारः सार्वभौतिकः॥५१॥ (३५)


(त्रिप्रकारस्य कर्मणः) मन, वचन, शरीर के भेद से तीन प्रकार के कर्मों का [१२.३-९] (त्रिविधः) सत्त्वगुण, रजोगुण और तमोगुण नामक तीन गुण और उनका फल, तथा (त्रिविधः) फिर उनकी उत्तम, मध्यम, अधम भेद से तीन-तीन गतियों वाले (सार्वभौतिकः कृत्स्नः संसारः) सर्वभूतयुक्त सम्पूर्ण संसार की उत्पत्ति का (एषः सर्वः समुद्दिष्टः) यह पूर्ण वर्णन किया॥५१॥ 


विषयों में आसक्ति से और अधर्मसेवन से दुःखरूप जन्मों की प्राप्ति―


इन्द्रियाणां प्रसंगेन धर्मस्यासेवनेन च। 

पापान् संयान्ति संसारानविद्वांसो नराधमाः॥५२॥ (३६)


(इन्द्रियाणां प्रसंगेन) इन्द्रियों में आसक्त होकर रहने से (च) और (धर्मस्य+असेवनेन) धर्म को छोड़कर अधर्म करने वाले (अविद्वांसः) जो अविद्वान् हैं, वे (नराधमाः पापान् संसारान् संयान्ति) अधम मनुष्य हैं और मरने के बाद पुनः संसार में पापमय अर्थात् दुःखमय जन्म को पाते हैं॥५२॥ 


विषयों के सेवन से पाप-योनियों की प्राप्ति―


यथा यथा निषेवन्ते विषयान्विषयात्मकाः।

तथा तथा कुशलता तेषां तेषूपजायते॥७३॥ (३७)


(विषयात्मकाः) विषयी स्वभाव के मनुष्य (यथा-यथा विषयान् निषेवन्ते) जैसे-जैसे विषयों का सेवन करते हैं (तथा तथा) वैसे-वैसे (तेषु तेषां कुशलता+उपजायते) उन विषयों में उनकी आसक्ति अधिक बढ़ती जाती है॥७३॥


तेऽभ्यासात्कर्मणां तेषां पापानामल्पबुद्धयः। 

सम्प्राप्नुवन्ति दुःखानि तासु तास्विह योनिषु॥७४॥ (३८)


फिर (ते अल्पबुद्धयः) वे मन्दबुद्धि मनुष्य (तेषां पापानां कर्मणाम्+अभ्यासात्) उन विषयों से उत्पन्न पापकर्मों को बारम्बार करते हैं, और उनके कारण पुनः (तासु-तासु योनिषु) पापकर्मों से प्राप्त होने वाले उन-उन पूर्वोक्त जन्मों में अर्थात् जिस पाप से जो जन्म होता है [१२.३९-५१] उसे प्राप्त करके (इह) इसी संसार में (दुःखानि प्राप्नुवन्ति) दुःखों को भोगते हैं॥७४॥


आसक्ति-निरासक्ति के अनुसार फलप्राप्ति―


यादृशेन तु भावेन यद्यत्कर्म निषेवते।

तादृशेन शरीरेण तत्तत्फलमुपाश्नुते॥८१॥ (३९)


मनुष्य (यादृशेन तु भावेन) जैसी अच्छी या बुरी भावना से और जैसी दृढ़ आसक्ति या निरासक्ति है उसके अनुसार (यत्यत् कर्म निषेवते) जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है, (तादृशेन शरीरेण) वैसे-वैसे ही शरीर पाकर (तत्तत् फलम्+उपाश्नुते) उन कर्मों के फलों को भोगता है॥८१॥


निःश्रेयसकर कर्मों का वर्णन―


एष सर्वः समुद्दिष्टः कर्मणां वः फलोदयः। 

निःश्रेयसकरं कर्म विप्रस्येदं निबोधत॥८२॥ (४०)


(एषः) यह [१२.३-८१] (कर्मणां फलोदयः) कर्मों के फल का उद्भव (सर्वः) सम्पूर्ण रूप में (वः समुद्दिष्टः) तुमसे कहा। अब (विप्रस्य) विद्वानों या ब्राह्मण आदि द्विजों के (निःश्रेयसकरं कर्म निबोधत―) मोक्षदायक कर्मों को आगे सुनो॥८२॥ 


छह निःश्रेयसकर कर्म―


वेदाभ्यासस्तपोज्ञानमिन्द्रियाणां च संयमः। 

धर्मक्रियाऽत्मचिन्ता च निःश्रेयसकरं परम्॥८३॥ (४१)


(वेदाभ्यासः, तपः, ज्ञानम्, इन्द्रियाणां संयमः, धर्मक्रिया, च आत्म-चिन्ता) वेदों का अभ्यास [१२.९४-१०३], तप=व्रतसाधना [१२.१०४], ज्ञान=सत्यविद्याओं की प्राप्ति [१२.१०४], इन्द्रियसंयम [१२.९२], धर्मक्रिया=धर्मपालन एवं यज्ञ आदि धार्मिक क्रियाओं का अनुष्ठान और आत्मचिन्ता=परमात्मा का ज्ञान एवं ध्यान, ये छः (निःश्रेयसकरं परम्) मोक्ष प्रदान करने वाले सर्वोत्तम कर्म हैं॥८३॥


आत्मज्ञान सर्वश्रेष्ठ धर्म है―


सर्वेषामपि चैतेषामात्मज्ञानं परं स्मृतम्। 

तद्ध्यग्र्यं सर्वविद्यानां प्राप्यते ह्यमृतं ततः॥८५॥ (४२)


(एषां सर्वेषाम्+अपि) इन सब [१२.८३] कर्मों से (आत्मज्ञानं परं स्मृतम्) 'परमात्मज्ञान' सर्वश्रेष्ठ कर्म माना है, (तत्+हि सर्वविद्यानाम् अग्रयम्) यह सब विद्याओं अर्थात् ज्ञानों में सर्वप्रमुख कर्म है (ततः अमृतं प्राप्यते) क्योंकि इससे मुक्ति प्राप्त होती है॥८५॥


सर्वभूतेषु चात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि। 

समं पश्यन्नात्मयाजी स्वाराज्यमधिगच्छति॥९१॥ (४३)


(सर्वभूतेषु आत्मानम्) सब चराचर पदार्थों एवं प्राणियों में परमात्मा की व्यापकता को (च) और (आत्मनि) परमात्मा में (सर्वभूतानि) सब पदार्थों एवं प्राणियों के आश्रय को (समं पश्यन्) समानभाव से देखता हुआ अर्थात् यथार्थ ज्ञानपूर्वक सर्वत्र परमात्मा की स्थिति का अनुभव कर सर्वदा उसी का ध्यान करता हुआ (आत्मयाजी) परमात्मा में अपने आत्मा को ध्यानावस्थित करने वाला उपासक मनुष्य (स्वाराज्यम्+अधिगच्छति) परमात्मसुख अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥९१॥


आत्मज्ञान, इन्द्रियसंयम का कथन और इनसे जन्मसाफल्य―


यथोक्तान्यपि कर्माणि परिहाय द्विजोत्तमः। 

आत्मज्ञाने शमे च स्याद्वेदाभ्यासे च यत्नवान्॥९२॥ (४४)


(द्विजोत्तमः) श्रेष्ठ द्विज (यथोक्तानि+अपि कर्माणि परिहाय) उसके लिए विहित यज्ञ आदि कर्मों को [किसी विशेष अवस्था अथवा संन्यास की अवस्था में] छोड़ते हुए भी [३.३४, ४३] भी (आत्मज्ञाने शमे च वेदाभ्यासे यत्नवान् स्यात्) परमात्मज्ञान, इन्द्रियसंयम [२.६८-७५] और वेदाभ्यास=वेद के चिन्तन-मनन में प्रयत्नशील अवश्य रहे अर्थात् इनको किसी भी अवस्था में न छोड़े॥९२॥ 


एतद्धि जन्मसाफल्यं ब्राह्मणस्य विशेषतः। 

प्राप्यैतत्कृतकृत्यो हि द्विजो भवति नान्यथा॥९३॥ (४५)


(एतत् हि) ये [१२.९२] तीनों कर्म द्विजों के, (विशेषतः ब्राह्मणस्य जन्मसाफल्यम्) विशेष रूप से ब्राह्मण के जन्म को सफल बनाने वाले हैं। (द्विजः) द्विज व्यक्ति (एतत् प्राप्य हि कृतकृत्यः भवति) इनका पालन करके ही कर्त्तव्यों की पूर्णता प्राप्त करता है, (अन्यथा न) इसके बिना नहीं॥९३॥


वेद सबका चक्षु है―


पितृदेवमनुष्याणां वेदश्चक्षुः सनातनम्। 

अशक्यं चाप्रमेयं च वेदशास्त्रमिति स्थितिः॥९४॥ (४६)


(पितृ-देव-मनुष्याणाम्) पितृ-संज्ञक रक्षक और पालक पिता आदि, दिव्यगुणी एवं विद्वान् और अन्य साधारण मनुष्यों का (वेदः सनातनं चक्षुः) वेद सनातन नेत्र=मार्ग प्रदर्शक है, (च) और वह (अशक्यम्) अशक्य अर्थात् जिसे कोई पुरुष नहीं बना सकता, इसलिए अपौरुषेय है, (च) तथा (अप्रमेयम्) अनन्त सत्य ज्ञान से युक्त है, (इति स्थितिः) ऐसी निश्चित मान्यता है॥८४॥


वेदविरुद्ध-शास्त्र अप्रामाणिक―


या वेदबाह्याः स्मृतयो याश्च काश्च कुदृष्टयः। 

सर्वास्ता निष्फला प्रेत्य तमोनिष्ठा हि ताः स्मृता॥९५॥ (४७)


(याः वेदबाह्यः स्मृतयः) संसार में जो वेदोक्त धर्म के अनुकूल स्मृतियां अर्थात् धर्म नियम नहीं हैं और भविष्य में नहीं होंगे [१२.१०६-११५] (च) और (याः काश्च कुदृष्टयः) जो कोई वेद विरोधी विचार हैं अथवा होंगे (ताः सर्वाः निष्फलाः) वे सब निष्फल हैं, उत्तम कर्मफल देने वाले नहीं हैं (ताः प्रेत्य तमोनिष्ठाः हि स्मृताः) वे परलोक में निश्चित रूप से तमोगुणी दुःखमय जन्म को प्राप्त कराने वाले माने हैं॥९५॥


उत्पद्यन्ते च्यवन्ते च यान्यतोऽन्यानि कानिचित्।

तान्यर्वाक्कालिकतया निष्फलान्यनृतानि च॥९६॥ (४८)


(अतः-अन्यानि कानिचित्) अतः वेदों की मान्यता से भिन्न अथवा प्रतिकूल जो कोई स्मृतियां अर्थात् धर्मनियम हैं अथवा होंगे वे (उत्पद्यन्ते च च्यवन्ते) उत्पन्न होते रहेंगे और नष्ट होते रहेंगे (तानि अर्वाक्-कालिकतया निष्फलानि) वे सब वेदों के पश्चात् कथित होने से श्रेष्ठ फलों से रहित हैं (च) और (अनृतानि) असत्य रहैं॥९६॥


वेद से वर्ण, आश्रम, लोक, काल आदि का ज्ञान―


चातुर्वर्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक्।

भूतं भव्यं भविष्यं च सर्वं वेदात्प्रसिध्यति॥९७॥ (४९)


(चातुर्वर्ण्यम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, ये चार वर्ण और इनकी व्यवस्था, (त्रयः लोकाः) पृथ्वी, आकाश एवं धुलोक अर्थात् समस्त भूमण्डल के लोक, ग्रह आदि, (चत्वारः आश्रमाः पृथक्) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ एवं संन्यास, इन चारों के पृथक्-पृथक् विधान, (च भूतं भव्यं भविष्यम्) और भूत, भविष्यत्, वर्तमान सभी कालों की विद्या, (सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति) ये सब वेदों से ही प्रसिद्ध, प्रकट और ज्ञात होती हैं अर्थात् इन सब व्यवस्थाओं और विद्याओं का ज्ञान मूलरूप से वेदों के द्वारा ही होता है॥९७॥


पञ्चभूत आदि सूक्ष्म शक्तियों का ज्ञान वेदों से―


शब्दः स्पर्शश्च रूपं च रसो गन्धश्च पञ्चमः। 

वेदादेव प्रसूयन्ते प्रसूतिगुणकर्मतः॥९८॥ (५०)


(शब्दः स्पर्शः रूपं रसः पञ्चमः गन्धः) शब्द, स्पर्श, रूप, रस और पञ्चम गन्ध, ये (प्रसूति-गुणकर्मतः) उत्पत्ति, गुण और कार्य के ज्ञानरूप से (वेदात्+एव प्रसूयन्ते) वेदों से ही प्रसिद्ध=विज्ञात होते हैं अर्थात् इन तत्त्वशक्तियों का उत्पत्तिज्ञान, इनके गुणों का ज्ञान, इनकी उपयोगिता का ज्ञान और उत्पन्न समस्त जड़-चेतन संसार का ज्ञान-विज्ञान, वेदों से ही मूलरूप से प्राप्त होता है॥९८॥ 


वेद सुखों का साधन है―


बिभर्ति सर्वभूतानि वेदशास्त्रं सनातनम्। 

तस्मादेतत्परं मन्ये यज्जन्तोरस्य साधनम्॥९९॥ (५१)


(सनातनं वेदशास्त्रम्) नित्य वेदशास्त्र (सर्वभूतानि बिभर्ति) सब प्राणियों का ज्ञान, विद्या दान द्वारा धारण-पोषण करता है। (यत् अस्य जन्तोः साधनम्) और यह मनुष्यमात्र के लिए सुख, उन्नति, पुरुषार्थ प्राप्ति आदि का साधन है (तस्मात् एतत् परं मन्ये) इसलिए मैं वेदशास्त्र को सर्वोत्तम मानता हूं॥९९॥


वेदवेत्ता ही सफल राजा, सेनापति व न्यायाधीश हो सकता―


सेनापत्यं च राज्यं च दण्डनेतृत्वमेव च। 

सर्वलोकाधिपत्यं च वेदशास्त्रविदर्हति॥१००॥ (५२)


(सेनापत्यम्) सेना के प्रबन्ध का कार्य (च) और (राज्यम्) राज्य का प्रशासन-कार्य (च) और (दण्ड-नेतृत्वम् एव) दण्डव्यवस्था अर्थात् न्याय-व्यवस्था का कार्य (च) और (सर्वलोकाधिपत्यम्) सब प्रजा का अधिपति अर्थात् राजा होने का कार्य, इनको (वेदशास्त्र-वित्+अर्हति) वेदशास्त्रों का ज्ञाता ही उत्तम प्रकार से करने में समर्थ है, योग्य है॥१०॥


वेदज्ञानाग्नि से कर्म दोषों का नाश―


यथा जातबलो वह्निर्दहत्यार्द्रानपि द्रुमान्। 

तथा दहति वेदज्ञः कर्मजं दोषमात्मनः॥१०१॥ (५३)


(यथा) जैसे (जातबलः बह्निः) धधकती हुई आग (आर्द्रान् द्रुमान् अपि दहति) गीले वृक्षों को भी जला देती है (तथा) उसी प्रकार (वेदज्ञः) वेदों का ज्ञाता विद्वान् (आत्मनः कर्मजं दोषं दहति) अपने कर्मों से उत्पन्न होने वाले संस्कार-दोषों को जला देता है अर्थात् वेदज्ञान रूपी अग्नि से दुष्ट संस्कारों को मिटाकर आत्मा को पवित्र रखता है॥१०१॥


वेदज्ञान से ब्रह्मप्राप्ति की ओर प्रगति―


वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञो यत्र तत्राश्रमे वसन्। 

इहैव लोके तिष्ठन्स ब्रह्मभूयाय कल्पते॥१०२॥ (५४)


(वेदशास्त्रार्थतत्त्वज्ञः) वेदशास्त्र के अर्थतत्त्व का यथार्थ ज्ञाता विद्वान् (यत्र-तत्र+आश्रमे वसन्) किसी भी आश्रम में रहता हुआ, (इह+एव लोके तिष्ठन्) इसी वर्तमान जन्म में ही (ब्रह्मभूयाय कल्पते) ब्रह्मप्राप्ति के लिए अधिकाधिक समर्थ हो जाता है॥१०२॥


तप से पापभावना का नाश और विद्या से अमृतप्राप्ति―


तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं परम्।

तपसा किल्बिषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते॥१०४॥ (५५)


(विप्रस्य) विप्र के लिए (तपः च विद्या) तप=श्रेष्ठव्रतों का धारण और साधना, और विद्या=सत्यविद्याओं का ज्ञान, ये दोनों (परं निःश्रेयसकरम्) उत्तम मोक्षसाधन हैं, वह विप्र (तपसा किल्बिषं हन्ति) तप से पापभावना को नष्ट करता है, और (विद्यया+अमृतम्+अश्नुते) सत्यविद्या के यथार्थ ज्ञान से अमरता=मोक्ष को प्राप्त करता है॥१०४॥


धर्मज्ञान के लिए त्रिविध प्रमाणों का ज्ञान―


प्रत्यक्षं चानुमानं च शास्त्रं च विविधागमम्।

त्रयं सुविदितं कार्यं धर्मशुद्धिमभीप्सता॥१०५॥ (५६)


(धर्मशुद्धिम्+अभीप्सता) धर्म के वास्तविक स्वरूप को जानने के अभिलाषी मनुष्य को (प्रत्यक्षम् अनुमानंच विविधागमं शास्त्रम्) प्रत्यक्ष-प्रमाण, अनुमान-प्रमाण और वेद एवं विविध वेदमूलक शास्त्र-प्रमाण, (त्रयं सुविदितं कार्यम्) इन तीनों का अच्छी प्रकार ज्ञान प्राप्त करना चाहिए॥१०५॥


वेदानुकूल तर्क से धर्मज्ञान―


आर्षं धर्मोपदेशं च वेदशास्त्राऽविरोधिना। 

यस्तर्केणानुसंधत्ते सः धर्मं वेद नेतरः॥१०६॥ (५७)


(यः) जो मनुष्य (आर्षं च धर्मोपदेशम्) वेद और ऋषिविहित धर्मोपदेश [१.१२५ (२.३] अर्थात् धर्मशास्त्र का (वेदशास्त्र-अविरोधिना तर्केण अनुसंधत्ते) वेदशास्त्र के अनुकूल तर्क के द्वारा अनुसंधान और चिन्तन करता है (सः धर्मं वेद न+इतरः) वही धर्म के वास्तविक स्वरूप को समझ पाता है, अन्य नहीं॥१०६॥


अविहित धर्मों का विधान शिष्टविद्वान् करें―


अनाम्नातेषु धर्मेषु कथं स्यादिति चेद्भवेत्। 

यं शिष्टा ब्राह्मणा ब्रूयुः स धर्मः स्यादशङ्कितः॥१०८॥ (५८)


(अनाम्नातेषु धर्मेषु) इस शास्त्र में जिन धर्मों का उल्लेख नहीं हुआ है उनमें (कथं स्यात्-इति चेत् भवेत्) किस आचरण को धर्म माना जाये, यदि ऐसी जिज्ञासा उपस्थित हो तो (शिष्टाः ब्राह्मणाः यं ब्रूयुः) वेदशास्त्रों के धार्मिक आप्त विद्वान् [१२.१०९] जिस आचरण को धर्म कहें (सः अशंकितः धर्मः स्यात्) वही संदेहरहित धर्म मानना चाहिए॥१०८॥


शिष्ट विद्वानों की परिभाषा―


धर्मेणाधिगतो यैस्तु वेदः सपरिबृंहणः। 

ते शिष्टा ब्राह्मणा ज्ञेयाः श्रुतिप्रत्यक्षहेतवः॥१०९॥ (५९)


(यैः तु धर्मेण सपरिबृंहणः वेदः अधिगतः) जिन्होंने निर्धारित ब्रह्मचर्याश्रम की विधिपूर्वक वेद का वेदांगों सहित अध्ययन किया है [२.६९-२४६] (ते श्रुति-प्रत्यक्षहेतवः ब्राह्मणाः) उन वेदों के यथार्थ का प्रत्यक्ष करने वाले विद्वानों को (शिष्टाः ज्ञेयाः) 'शिष्ट' संज्ञक विद्वान् जानना चाहिये॥१०९॥


तीन या दश विद्वानों की धर्मनिर्णायक परिषद्―


दशावरा वा परिषद्यं धर्मं परिकल्पयेत्।

त्र्यवरा वापि वृत्तस्था तं धर्मं न विचालयेत्॥११०॥ (६०)


(दशावरा वृत्तस्था वा परिषद्) धर्मनिर्णय करने वाली परिषद् दश सदाचारी शिष्ट विद्वानों की होनी चाहिये [१२.१११] (वा-अपि त्र्यवरा) अथवा कम से कम हो तो तीन सदाचारी शिष्ट विद्वानों की हो, (यं धर्मं परिकल्पयेत्) वह परिषद् जिस धर्म का निश्चय करे (तं धर्मं न विचालयेत्) उस धर्म का उल्लंघन नहीं करना चाहिये॥११०॥


धर्मपरिषद् के दश सदस्य―


त्रैविद्यो हेतुकस्तर्की नैरुक्तो धर्मपाठकः। 

त्रयश्चाश्रमिणः पूर्वे परिषत्स्याद्दशावरा॥१११॥ (६१)


(त्रैविद्यः) ऋक्, यजु, साम इन तीन वेदों के तीन विद्वान् [१२.११२], (हेतुकः) कारण-अकारण का ज्ञाता, (तर्की) न्यायविद्या का ज्ञाता, (नैरुक्तः) भाषा शास्त्र का ज्ञाता, (धर्मपाठकः) धर्मशास्त्र का ज्ञाता, (पूर्वे त्रयः-च आश्रमिणः) ब्रह्मचारी, गृहस्थ और वानप्रस्थ ये प्रथम तीन आश्रम वाले (दशावरा परिषत् स्यात्) इन दश विद्वानों से मिलकर धर्म का निर्णय करने वाली परिषद् बनती है॥१११॥


धर्मपरिषद् के तीन सदस्य―


ऋग्वेदविद्यजुर्विच्च सामवेदविदेव च।

त्र्यवरा परिषज्ज्ञेया धर्मसंशयनिर्णये॥११२॥ (६२)


यदि न्यून से न्यून तीन विद्वानों की सभा बनानी पड़े तो (ऋग्वेदविद् च यजुर्वेदविद् च सामवेदविद् एव) ऋग्वेद का ज्ञाता, यजुर्वेद का ज्ञाता और सामवेद का वेत्ता (त्र्यवरा परिषद् धर्म-संशय निर्णये ज्ञेया) इन तीन 'शिष्ट' विद्वानों की सभा धर्म विषयक संदेह का निर्णय करने वाली होनी चाहिये॥११२॥


असंख्य मूर्खों की अपेक्षा वेद का एक विद्वान् भी धर्मनिर्णय में प्रमाण है―


एकोऽपि वेदविद्धर्मं यं व्यवस्येद् द्विजोत्तमः।

स विज्ञेयः परो धर्मो नाज्ञानामुदितोऽयुतैः॥११३॥ (६३)


तीन वेदवित् विद्वानों के न मिलने पर (एकः-अपि वेदवित् द्विजोतमः) वेदों का ज्ञाता एक भी सर्वोत्तम ‘शिष्ट' विद्वान् [१२.१०९] (यं धर्मं व्यवस्येत्) जिस धर्म का निश्चय करे (सः परः धर्मः विज्ञेयः) उसको ही उत्तम धर्म समझना चाहिये, (अज्ञानाम् अयुतैः उदितः न) सहस्रों अज्ञानियों के द्वारा भी कहा गया धर्म नहीं होता॥११३॥


धर्मपरिषद् का सदस्य कौन नहीं हो सकता―


अव्रतानाममन्त्राणां जातिमात्रोपजीविनाम्।

सहस्रशः समेतानां परिषत्त्वं न विद्यते॥११४॥ (६४)


(अव्रतानाम्) ब्रह्मचर्य, धर्माचरण के व्रत से रहित, (अमन्त्राणाम्) मन्त्र अर्थात् वेदों के ज्ञान से रहित, (जातिमात्र+उपजीविनाम्) केवल अपने वर्ण के नाम से जीवन चलाने वाले (सहस्रशः समेतानाम्) हजारों लोगों के मिलने से भी (परिषत्त्वं न विद्यते) वह धर्मनिर्णायक परिषद् नहीं बनती॥११४॥


मूर्खों द्वारा निर्णीत धर्म से पापवृद्धि का भय―


यं वदन्ति तमोभूता मूर्खा धर्ममतद्विदः। 

तत्पापं शतधा भूत्वा तद्वक्तॄननुगच्छति॥११५॥ (६५)


(तमोभूताः मूर्खाः) तमोगुण और अविद्या से युक्त जन (अतद्विदः) वेदोक्त धर्मज्ञान से शून्य जन (यं धर्मं वदन्ति) जिस धर्म का उपदेश करते हैं, (तत् पापम्) वह धर्मरूप में अधर्मरूप पाप (शतधा भूत्वा) सौ गुणा होकर अथवा सैंकड़ों रूपों में फैलकर (तत्+वक्तॄन्+अनुगच्छति) उन धर्म-वक्ताओं को लगता है अर्थात् उससे सैंकड़ों पाप जनता में फैलते हैं और उनका दोष वक्ताओं को मिलता है॥११५॥


निःश्रेयस कर्मों का उपसंहार―


एतद्वोऽभिहितं सर्वं निःश्रेयसकरं परम्। 

अस्मादप्रच्युतो विप्रः प्राप्नोति परमां गतिम्॥११६॥ (६६)


(एतत्) यह [१२.८३-११५] (परं निःश्रेयसकरं सर्वं वः अभिहितम्) मोक्ष देने वाले सर्वोत्तम कर्मों का पूर्ण विधान तुम से कहा, (विप्रः) विद्वान् द्विज (अस्मात्+अप्रच्युतः) इसको बिना छोड़े अर्थात् पालन करता हुआ (परमां गतिं प्राप्नोति) उत्तम गति अर्थात् मुक्ति को प्राप्त कर लेता है॥११६॥


ईश्वरद्रष्टा अधर्म में मन नहीं लगाता―


सर्वमात्मनि सम्पश्येत्सच्चासच्च समाहितः। 

सर्वं ह्यात्मनि संपश्यन्नाधर्मे कुरुते मनः॥११८॥ (६७)


(समाहितः) द्विज व्यक्ति सावधान चित्त होकर (सत्-च-असत्-च सर्वम् आत्मनि सम्पश्येद्) सत्=प्रकट कार्य रूप और असत्=सूक्ष्म कारणरूप समस्त जगत् को आत्मा अर्थात् परमात्मा में व्याप्त अनुभव करे, (हि) क्योंकि (सर्वम् आत्मनि संपश्यन्) समस्त जगत् को परमात्मा में आश्रित देखने वाला व्यक्ति (अधर्मे मनः न कुरुते) कभी अपने मन को अधर्माचरण में नहीं लगाता अर्थात् वह परमात्मा को सर्वत्र व्यापक और द्रष्टा जानकर अधर्म नहीं करता॥११८॥


परमेश्वर ही सबका निर्माता, फलदाता और उपास्य है―


आत्मैव देवताः सर्वाः सर्वमात्मन्यवस्थितम्। 

आत्मा हि जनयत्येषां कर्मयोगं शरीरिणाम्॥११९॥ (६८)


(सर्वाः देवताः आत्मा-एव) विभिन्न देवताओं के नाम से वाच्य सभी दिव्यगुणयुक्त पदार्थ परमात्मा के ही अंगरूप हैं, (आत्मनि सर्वम् अवस्थितम्) परमात्मा में ही सब जगत् स्थित है, (आत्मा ही एषां शरीरिणां कर्मयोगं जनयति) परमात्मा ही सब प्राणियों को पुण्य-पाप के कर्मों के अनुसार जन्म प्रदान करता है॥११९॥


परम सूक्ष्म परमात्मा को जानें―


प्रशासितारं सर्वेषामणीयांसमणोरपि।

रुक्माभं स्वप्नधीगम्यं विद्यात्तं पुरुषं परम्॥१२२॥ (६९)


(सर्वेषां प्रशासितारम्) जो सब ब्रह्माण्ड का संचालक अर्थात् कर्ता-धर्ता-हर्ता है [१२.१२४] (अणोः+अपि अणीयांसम्) जो सूक्ष्म से भी अतिसूक्ष्म है, (रुक्माभम्) जो स्वप्रकाशस्वरूप है, (स्वप्नधीगम्यम्) जो समाधिस्थ बुद्धि से जानने योग्य है, (तं परं पुरुषं विद्यात्) उसी को परम पुरुष और परमात्मा मानना चाहिये और उसको जानना चाहिये॥१२२॥


परमात्मा के अनेक नाम―


एतमेके वदन्त्यग्निं मनुमन्ये प्रजापतिम्। 

इन्द्रमेके परे प्राणमपरे ब्रह्म शाश्वतम्॥१२३॥ (७०)


(एतम् एके) इस पूर्वोक्त परमात्मा [१२.१२२] को (एके) कोई (अग्निम्) 'अग्नि' नाम से (अन्ये प्रजापतिं मनुम्) कोई प्रजापति और कोई मनु नाम से (एके इन्द्रम्) कोई 'इन्द्र', (परे प्राणम्) कोई 'प्राण', (अपरे शाश्वतं ब्रह्म) दूसरे कोई 'शाश्वत ब्रह्म', (वदन्ति) कहते हैं॥१२३॥


सर्वान्तर्यामी परमात्मा ही संसार को चक्रवत् चलाता है―


एषः सर्वाणि भूतानि पञ्चभिर्व्याप्य मूर्तिभिः। जन्मवृद्धिक्षयैर्नित्यं संसारयति चक्रवत्॥१२४॥ (७१)


(एषः) पूर्वोक्तस्वरूप परमात्मा (पञ्चभिः मूर्तिभिः सर्वाणि भूतानि व्याप्य) पञ्च महाभूतों से सब प्राणियों को युक्त करके अर्थात् उनकी उत्पत्ति करके और उनमें व्याप्त रहकर (जन्मवृद्धि-क्षयैः नित्यं चक्रवत् संसारयति) उत्पत्ति, वृद्धि और विनाश करते हुए सदा चक्र की तरह संसार को चलाता रहता है॥१२४॥


समाधि से ईश्वर एवं मोक्ष-प्राप्ति―


एवं यः सर्वभूतेषु पश्यत्यात्मानमात्मना। 

स सर्वसमतामेत्य ब्रह्माभ्येति परं पदम्॥१२५॥ (७२)


(एवम्) इस प्रकार समाधिस्थ बुद्धि से [१२.१२२] (यः) जो मनुष्य (आत्मना) अपनी आत्मा के द्वारा (सर्वभूतेषु आत्मानं पश्यति) सब प्राणियों में परमात्मा को व्याप्त देखता है (सः सर्वसमताम् एत्य) वह अपनी आत्मा के समान सर्वसमानता का आचरण रखके (परं पदं ब्रह्म-अभ्येति) परम पद ब्रह्म अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥१२५॥



इति हरियाणाप्रान्तीयगुरुकुलझज्जरेऽधीतविद्येन, हरियाणाप्रान्तान्तर्गतरोहतकमण्डले 'मकड़ौली' नाम्नि ग्रामे लब्धजन्मना, श्रीगहरसिंहशान्तिदेवीतनयेन, सुरेन्द्रकुमारेण कृतं विशुद्धमनुस्मृतेः हिन्दी भाष्यम्, विविधविषयविमर्शसम्पन्ना 'अनुशीलन' नामिका समीक्षा च पूर्तिमगात्॥ 


॥ समाप्तश्चायं ग्रन्थः ॥



Comments

Popular posts from this blog

सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश

चतुर्थः समुल्लासः

वैदिक गीता