विशुद्ध मनुस्मृतिः― एकादश अध्याय
अथ एकादशोऽध्यायः
सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता
(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)
(प्रायश्चित्त-विषय ११.४४ से २६५ तक)
[प्रायश्चित्त-सम्बन्धी-विधान]
प्रायश्चित्त कब किया जाता है―
अकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्।
प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः॥४४॥ (१)
शास्त्र में विहित कर्मों [यज्ञोपवीत संस्कार वेदाभ्यास, संध्योपासन, यज्ञ आदि] को न करने पर, तथा शास्त्र में निन्दित माने गये कार्यों [बुरे कर्मों से धनसंग्रह मद्यपान, हिंसा आदि] को करने पर और इन्द्रिय-विषयों में अत्यन्त आसक्त होने [काम, क्रोध, मोह में आसक्त होने] पर मनुष्य प्रायश्चित्त के योग्य होता है॥४४॥
अकामतः कृते पापे प्रायश्चित्तं विदुर्बुधाः।
कामकारकृतेऽप्याहुरेके श्रुतिनिदर्शनात्॥४५॥ (२)
कुछ विद्वान् अज्ञानवश किये गये पाप में प्रायश्चित्त करने को कहते हैं और कुछ विद्वान् वेदों में उल्लेख होने के कारण जानकर किये गये पाप में भी प्रायश्चित्त करने को कहते हैं॥४५॥
अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुध्यति।
कामतस्तुकृतं मोहात्प्रायश्चित्तैः पृथग्विधैः॥४६॥ (३)
अनिच्छापूर्वक किया गया पाप वेदाभ्यास, तदनुसार बार-बार चिन्तन-मनन, आचरण से शुद्ध होता है, पाप की भावना नष्ट होकर आत्मा पवित्र होती है आसक्ति से इच्छापूर्वक किया गया पाप भाव [पापफल नहीं] अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों के करने से शुद्ध होता है॥४६॥
प्रायश्चित्त का अर्थ―
प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते।
तपोनिश्चयसंयुक्तं प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्॥४७॥ (४)
'प्रायः' तप को कहते हैं और चित्त' निश्चय को कहते हैं तप और निश्चय=संकल्प का संयुक्त होना ही 'प्रायश्चित्त' कहलाता है॥४७॥
प्रायश्चित्त क्यों करना चाहिए―
चरितव्यमतो नित्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये।
निन्द्यैर्हि लक्षणैर्युक्ता जायन्तेऽनिष्कृतैनसः॥५३॥ (५)
इसलिए संस्कारों की शुद्धि के लिए [बुरा काम होने पर] सदा प्रायश्चित्त करना चाहिए, क्योंकि पाप-शुद्धि किये बिना मनुष्य उनके बुरे कर्मफल के कारण, निन्दनीय लक्षणों से युक्त हो जाते हैं या मरकर पुनर्जन्म में होते हैं॥५३॥
व्रात्यों का प्रायश्चित्त―
येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि।
तांश्चारयित्वा त्रीन्कृच्छ्रान्यथाविध्युपनाययेत्॥१९१॥ (६)
जिन द्विजों का यज्ञोपवीत संस्कार उचित समय पर नहीं हुआ हो, उनको तीन कृच्छ्र व्रत कराके विधिपूर्वक उनका उपनयन संस्कार कर देना चाहिए॥१९१॥
निन्दित कर्म करने वालों का प्रायश्चित्त―
प्रायश्चित्तं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजाः।
ब्रह्मणा च परित्यक्तास्तेषामप्येतदादिशेत्॥१९२॥ (७)
अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का त्याग कर देने और निन्दित कर्म करने पर जो उपनयनयुक्त द्विज प्रायश्चित्त करके अपने को शुद्ध करना चाहते हैं और वेदादि के त्यागने पर जो प्रायश्चित्त करके शुद्ध होना चाहते हैं उन्हें भी पूर्वोक्त व्रत करने को कहें॥१९२॥
वेदोक्त कर्मों के त्याग का प्रायश्चित्त―
वेदोदितानां नित्यानां कर्मणां समतिक्रमे।
स्नातकव्रतलोपे च प्रायश्चित्तमभोजनम्॥२०३॥ (८)
वेदोक्त नैत्यिक [अग्निहोत्र, संध्योपासन आदि] कर्मों के न करने पर और ब्रह्मचर्यावस्था में व्रतों [भिक्षाचरण आदि] के न करने पर एक दिन उपवास रखना ही प्रायश्चित्त है॥२०३॥
अविहित कर्मों के लिए प्रायश्चित्त-निर्णय―
अनुक्तनिष्कृतीनां तु पापानामपनुत्तये।
शक्तिं चावेक्ष्य पापं च प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत्॥२०९॥ (९)
जिनका प्रायश्चित्त नहीं कहा है ऐसे अपराधों के दोष को दूर करने के लिए प्रायश्चित्तकर्त्ता की शक्ति और अपराध को देखकर यथायोग्य प्रायश्चित्त का निर्णय कर लेना चाहिए॥२०९॥
प्रायश्चित्तों का परिचय-वर्णन―
यैरभ्युपायैरेनांसि मानवो व्यपकर्षति।
तान्वोऽभ्युपायान्वक्ष्यामि देवर्षिपितृसेवितान्॥२१०॥ (१०)
मनुष्य जिन उपायों से पापों=अपराधों को [न तु पापफलों को] दूर करता है, अब मैं विद्वानों, ऋषियों=तत्त्वज्ञानियों, पूर्वजों और पिता आदि वयोवृद्ध व्यक्तियों द्वारा सेवित उन उपायों को तुमसे कहूँगा―॥२१०॥
प्राजापत्य व्रत की विधि―
त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम्।
त्र्यहं परं च नाश्नीयात्प्राजापत्यं चरन्द्विजः॥२११॥ (११)
'प्राजापत्य' नामक व्रत का पालन करने वाला द्विज पहले तीन दिन केवल प्रातःकाल ही खाये फिर अगले तीन दिन केवल सायंकाल ही खाये उसके पश्चात् तीन दिन बिना मांगे जो मिले उसका ही भोजन करे और उसके बाद फिर तीन दिन उपवास रखे। [यह प्राजापत्य व्रत है]॥२११॥
कृच्छ्र सान्तपन व्रत की विधि―
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्।
एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सांतपनं स्मृतम्॥२१२॥ (१२)
क्रमशः एक-एक दिन गोमूत्र, गोबर का रस, गोदूध, गौ के दूध का दही, गोघृत और कुशा=दर्भ का उबला जल, इनका भोजन करे और फिर एक दिन-रात का उपवास रखे, 'कृच्छ्र सांतपन' नामक व्रत है॥२१२॥
अतिकृच्छ्र व्रत की विधि―
एकैकं ग्रासमश्नीयात् त्र्यहाणि त्रीणि पूर्ववत्।
त्र्यहं चोपवसेदन्त्यमतिकृच्छ्रे चरन्द्विजः॥२१३॥ (१३)
'अतिकृच्छ्र' नामक व्रत को करने वाला द्विज पूर्व विधि के अनुसार तीन दिन केवल प्रात:काल, तीन दिन केवल सांयकाल, तीन दिन बिना मांगे प्राप्त हुआ एक-एक ग्रास भोजन करे और अन्तिम तीन दिन उपवास रखे। [यह 'अतिकृच्छ्र' व्रत है]॥२१३॥
तप्तकृच्छ्र व्रत की विधि―
तप्तकृच्छ्रं चरन्विप्रो जलक्षीरघृतानिलान्।
प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी समाहितः॥२१४॥ (१४)
'तप्तकृच्छ्र' व्रत को करने वाला द्विज गर्म पानी, गर्मदूध, गर्म घी और वायु प्रत्येक को तीन-तीन दिन पीकर रहे, और एक बार स्नान करे, तथा एकाग्रचित्त रहे॥२१४॥
चान्द्रायण व्रत की विधि―
एकैकं ह्रासयेत्पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत्।
उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं स्मृतम्॥२१६॥ (१५)
[पूर्णिमा के दिन पूरे दिन में १५ ग्रास भोजन करके फिर] कृष्णपक्ष में एक-एक ग्रास भोजन प्रतिदिन कम करता जाये, [इस प्रकार करते हुए अमावस्या को पूर्ण उपवास रहेगा, फिर शुक्लपक्ष-प्रतिपदा को प्रतिदिन दिन एक ग्रास भोजन करके] शुक्ल पक्ष में एक-एक ग्रास भोजन पूरे दिन में बढ़ाता जाये, इस प्रकार करते हुए तीन समय स्नान करे, यह 'चान्द्रायण' व्रत कहाता है॥२१६॥
यवमध्यम चान्द्रायणव्रत की विधि―
एतमेव विधिं कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे।
शुक्लपक्षादिनियतश्चरंश्चान्द्रायणं व्रतम्॥२१७॥ (१६)
यवमध्यम विधि में अर्थात् जैसे जौ मध्य में मोटा होता है, आगे-पीछे पतला; इस विधि के अनुसार 'यवमध्यम चान्द्रायण व्रत' करते हुए, व्यक्ति शुक्लपक्ष को पहले करके इसी पूर्वोक्त सम्पूर्ण विधि को करे अर्थात् शुक्लपक्ष से प्रारम्भ करके प्रथम दिन से एक-एक ग्रास भोजन बढ़ाता जाये, पूर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन करे, फिर कृष्णपक्ष के प्रथम दिन से एक-एक ग्रास घटाता जाये और अमावस्या के दिन निराहार रहे॥२१७॥
व्रत-पालन के समय यज्ञ करें―
महाव्याहृतिभिर्होमः कर्त्तव्यः स्वयमन्वहम्।
अहिंसासत्यमक्रोधमार्जवं च समाचरेत्॥२२२॥ (१७)
प्रायश्चित्त काल में प्रतिदिन प्रायश्चित्तकर्त्ता को स्वयं महाव्याहृतियों [भूः, भुवः, स्वः आदियुक्त मन्त्रों से] हवन करना चाहिए और अहिंसा, सत्य, क्रोधरहित रहना, कुटिलता न करना, इन बातों का पालन करे॥२२२॥
व्रत-पालन के समय गायत्री आदि का जप करें―
सावित्री च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः।
सर्वेष्वेव व्रतेष्वेवं प्रायश्चित्तार्थमादृतः॥२२५॥ (१८)
प्रायश्चित्तकर्त्ता प्रायश्चित्तकाल में प्रतिदिन शक्ति के अनुसार अधिक से अधिक सावित्री=गायत्री मन्त्र और 'पवित्र करने की प्रार्थना' वाले मन्त्रों का जप करे, ऐसा करना सभी व्रतों में प्रायश्चित्त के लिए उत्तम माना गया है॥२२५॥
मानस पापों के प्रायश्चित्त की विधि―
एतैर्द्विजातयः शोध्या व्रतैराविष्कृतैनसः।
अनाविष्कृतपापांस्तु मन्त्रैर्होमैश्च शोधयेत्॥२२६॥ (१९)
जिनका पाप क्रियारूप में प्रकट हो गया है, ऐसे द्विजातियों को इन पूर्वोक्त व्रतों से शुद्ध करें, और जिनका पाप क्रिया रूप में प्रकट नहीं हुआ है अर्थात् अन्तःकरण में ही पाप-भावना उत्पन्न हुई है, ऐसों को मन्त्र-जपों और यज्ञों से शुद्ध करें अर्थात् मानसिक पापों की शुद्धि [पाप-फलों की नहीं] जपों एवं यज्ञों=संध्योपासन-अग्निहोत्र आदि से होती है॥२२६॥
पांच कर्मों से प्रायश्चित्त में पापभावना से मुक्ति―
ख्यापनेनानुतापेन तपसाऽध्ययनेन च।
पापकृन्मुच्यते पापात्तथा दानेन चापदि॥२२७॥ (२०)
अपनी त्रुटि और उसके लिए दुःख अनुभव करते हुए सर्वसाधारण के सामने किये हुए अपने दोष को प्रकट करने से पश्चात्ताप करने से व्रतों की साधना से, वेदाभ्यास से पाप करने वाला [पाप-फल से नहीं अपितु] पाप-भावना से मुक्त हो जाता है और आपद्-ग्रस्त व्याधि, जरा आदि से पीड़ित अवस्था में अपराध होने पर प्रायश्चित्त-हेतु संकल्प और परोपकारार्थ दान देने के पुण्य से भी पापभावना समाप्त होकर निष्पापता आती है॥२२७॥
सबके सामने अपना अपराध कहने से पापभावना से मुक्ति―
यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते।
तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते॥२२८॥ (२१)
अधर्मयुक्त आचरण करके मनुष्य जैसे-जैसे अपने पाप को लोगों से कहता है वैसे-वैसे सांप की केंचुली के समान उस अधर्म से=अपराध-जन्य संस्कार से मुक्त होता जाता है और लोगों में उसके प्रति अपराधी होने की भावना समाप्त होती जाती है॥२२८॥
अनुताप करने से पाप-भावना से मुक्ति―
यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हति।
तथा तथा शरीरं तत्तेनाधर्मेण मुच्यते॥२२९॥ (२२)
और, उसका मन=आत्मा जैसे-जैसे किये हुए पाप-अपराध को धिक्कारता है [कि 'मैंने यह बुरा कार्य किया है', आदि] वैसे-वैसे उसका शरीर उस अधर्म-अपराध से मुक्त-निवृत्त होता जाता है अर्थात् बुरे कर्म को बुरा मानकर उसके प्रति ग्लानि होने से शरीर और मन बुरे कार्य करने से निवृत्त होते जाते हैं॥२२९॥
तपपूर्वक पुनः पाप न करने के निश्चय से पापभावना से मुक्ति―
कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते।
नैवं कुर्यात्पुनरिति निवृत्त्या पूयते तु सः॥२३०॥ (२३)
मनुष्य पाप=अपराध करके और उसके लिए पश्चात्ताप करके उस पाप-कर्म से छूट जाता है [पाप-फल से नहीं] अर्थात् उस पाप को करने में पुनः प्रवृत्ति नहीं करता, और फिर कभी इस प्रकार का कोई पाप नहीं करूंगा इस प्रकार संकल्प करने के बाद पापों से निवृत्ति होने से वह व्यक्ति पवित्राचरण वाला बन जाता है॥२३०॥
कर्मफलों पर चिन्तन करने से पाप-भावना से मुक्ति―
एवं संचिन्त्य मनसा प्रेत्य कर्मफलोदयम्। मनोवाङ्मृर्त्तिभिर्नित्यं शुभं कर्म समाचरेत्॥२३१॥ (२४)
'इस जन्म में यदि फल नहीं मिला तो मरकर कर्मों का फल अवश्य मिलेगा' मन में इस विचार को रखते हुए मनुष्य मन, वाणी और शरीर से सदा शुभ कार्य करे॥२३१॥
पाप-भावना से मुक्ति चाहने वाला पुनः पाप न करे―
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानात्कृत्वा कर्म विगर्हितम्।
तस्माद्विमुक्तिमन्विच्छन्द्वितीयं न समाचरेत्॥२३२॥ (२५)
अज्ञान से अथवा जानबूझकर निन्दित कर्म करके मनुष्य उस पाप-प्रवृत्ति से छुटकारा पाने के लिए दुबारा पाप न करे [तभी पाप-प्रवृत्ति से छुटकारा मिल सकता है, अन्यथा नहीं।]॥२३२॥
तप तब तक करें जब तक मन में प्रसन्नता न आ जाये―
यस्मिन्कर्मण्यस्य कृते मनसः स्यादलाघवम्।
तस्मिंस्तावत्तपः कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं भवेत्॥२३३॥ (२६)
जिस कर्म के करने पर मनुष्य के मन में जितना दुःख, पश्चात्ताप अर्थात् असन्तोष एवं अप्रसन्नता होवे उस कर्म में जितना तप करने से मन में प्रसन्नता एवं संतुष्टि हो जाये उतना ही तप करे, अर्थात् किसी पाप के करने पर मनुष्य के मन में जब तक ग्लानिरहित पूर्ण संतुष्टि एवं प्रसन्नता न हो जाये तब तक स्वेच्छा से तप करता रहे॥२३३॥
वेदाभ्यासादि से पाप-भावनाओं का क्षय―
वेदाभ्यासोऽन्वहं शक्त्या महायज्ञक्रिया क्षमा।
नाशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि॥२४५॥ (२७)
प्रतिदिन वेद का अधिक-से-अधिक अध्ययन-मनन पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान, तप-सहिष्णुता, ये क्रियायें बड़े पापों से उत्पन्न पापभावनाओं या दुःसंस्कारों को भी नष्ट कर देती हैं॥२४५॥
वेदज्ञानाग्नि से पाप-भावना विनष्ट होती है―
यथैधस्तेजसां वह्निः प्राप्तं निर्दहति क्षणात्।
तथा ज्ञानाग्निना पापं सर्वं दहति वेदविद्॥२४६॥ (२८)
जैसे अग्नि अपने तेज से समीप आये काष्ठ आदि इंधन को तत्काल जला देती है वैसे ही वेद का ज्ञाता वेदज्ञान रूपी अग्नि से सब आने वाली [पापफलों को नहीं] पापभावनाओं को जला देता है, पापसंस्कारों को भस्म कर देता है॥२४६॥
वेदज्ञान-रूपी तालाब में पापभावना का डूबना―
यथा महाह्रदं प्राप्य क्षिप्तं लोष्टं विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं वेदे त्रिवृति मज्जति॥२६३॥ (२९)
जैसे फेंका हुआ ढेला बड़े तालाब में गिरकर पिघलकर नष्ट हो जाता है उसी प्रकार तीन वेदों की ज्ञान प्राप्ति में सब बुरे आचरण नष्ट हो जाते हैं॥२६३॥
वेदवित् का लक्षण―
ऋचो यजूंषि चान्यानि सामानि विविधानि च।
एष ज्ञेयस्त्रिवृद्वेदो यो वेदैनं स वेदवित्॥२६४॥ (३०)
ऋचाएँ=ऋग्वेद के मन्त्र यजुर्वेद के मन्त्र और इनसे भिन्न सामवेद के अनेक मन्त्र इन तीनों को 'त्रिवृत्वेद' जानना चाहिए, जो उक्त त्रिवृत्वेद=त्रयीविद्या रूप, तीनों वेदों को जानता है, वही वस्तुतः 'वेदवेत्ता' कहाता है॥२६४॥
ईश्वर भी एक ज्ञेय वेद है―
आद्यं यत्त्र्यक्षरं ब्रह्म त्रयी यस्मिन्प्रतिष्ठिता।
स गुह्योऽन्यस्त्रिवृद्वेदो यस्तं वेद स वेदवित्॥२६५॥ (३१)
और, तीन अक्षरों वाले प्रमुख नाम 'ओम्' से उच्चरित होने वाला सबका आदिमूलक परमेश्वर है, जिसमें तीनों वेदविद्याएँ प्रतिष्ठित हैं, वह भी एक गुप्त अर्थात् अदृश्य-सूक्ष्म 'त्रिवृत्वेद' है; जो उसको जानता है, वह 'वेदवेत्ता' कहलाता है॥२६५॥
प्रायश्चित्त विषय का उपसंहार―
एष वोऽभिहितः कृत्स्नः प्रायश्चित्तस्य निर्णयः।
निःश्रेयसं धर्मविधिं विप्रस्येमं निबोधत॥२६६॥ (३२)
यह तुम्हें प्रायश्चित्त का सम्पूर्ण [अपराध, उनका प्रायश्चित्त एवं प्रायश्चित्तविधि] निर्णय कहा। अब द्विजों के इस मोक्ष प्राप्ति के धर्मविधान अर्थात् कर्मविधान को सुनो―॥२६६॥
इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ प्रायश्चित्तविषयात्मक एकादशोऽध्यायः॥
अथ एकादशोऽध्यायः
(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)
(प्रायश्चित्त-विषय ११.४४ से २६५ तक)
[प्रायश्चित्त-सम्बन्धी-विधान]
प्रायश्चित्त कब किया जाता है―
अकुर्वन्विहितं कर्म निन्दितं च समाचरन्।
प्रसक्तश्चेन्द्रियार्थेषु प्रायश्चित्तीयते नरः॥४४॥ (१)
(विहितं कर्म अकुर्वन्) शास्त्र में विहित कर्मों [यज्ञोपवीत संस्कार वेदाभ्यास (११.१९१-१९२), संध्योपासन, यज्ञ आदि] को न करने पर, (च) तथा (निन्दितं समाचरन्) शास्त्र में निन्दित माने गये कार्यों [बुरे कर्मों से धनसंग्रह (११.१९३) मद्यपान, हिंसा आदि] को करने पर (च) और (इन्द्रिय+अर्थेषु प्रसक्तः) इन्द्रिय-विषयों में अत्यन्त आसक्त होने [काम, क्रोध, मोह में आसक्त होने] पर (नरः प्रायश्चित्तीयते) मनुष्य प्रायश्चित्त [४७] के योग्य होता है॥४४॥
अकामतः कृते पापे प्रायश्चित्तं विदुर्बुधाः।
कामकारकृतेऽप्याहुरेके श्रुतिनिदर्शनात्॥४५॥ (२)
(बुधाः) कुछ विद्वान् (अकामतः कृते पापे प्रायश्चित्तं विदुः) अज्ञानवश किये गये पाप में प्रायश्चित्त करने को कहते हैं (एके) और कुछ विद्वान् (श्रुतिनिदर्शनात्) वेदों में उल्लेख होने के कारण (कामकारकृते+अपि आहुः) जानकर किये गये पाप में भी प्रायश्चित्त करने को कहते हैं॥४५॥
अकामतः कृतं पापं वेदाभ्यासेन शुध्यति।
कामतस्तुकृतं मोहात्प्रायश्चित्तैः पृथग्विधैः॥४६॥ (३)
(अकामतः कृतं पापम्) अनिच्छापूर्वक किया गया पाप (वेदाभ्यासेन शुध्यति) वेदाभ्यास, तदनुसार बार-बार चिन्तन-मनन, आचरण से शुद्ध होता है, पाप की भावना नष्ट होकर आत्मा पवित्र होती है (मोहात् कामतः तु कृतम्) आसक्ति से इच्छापूर्वक किया गया पाप भाव [पापफल नहीं] (पृथक्-विधैः प्रायश्चित्तैः) अनेक प्रकार के प्रायश्चित्तों के [११.२११-२२६] करने से शुद्ध होता है॥४६॥
प्रायश्चित्त का अर्थ―
प्रायो नाम तपः प्रोक्तं चित्तं निश्चय उच्यते।
तपोनिश्चयसंयुक्तं प्रायश्चित्तमिति स्मृतम्॥४७॥ (४)
('प्रायः' नाम तपः प्रोक्तम्) 'प्रायः' तप को कहते हैं और (चित्तं निश्चयः उच्यते) चित्त' निश्चय को कहते हैं (तपः-निश्चयसंयुक्तं 'प्रायश्चित्तम्' इति स्मृतम्) तप और निश्चय=संकल्प का संयुक्त होना ही 'प्रायश्चित्त' कहलाता है॥४७॥
प्रायश्चित्त क्यों करना चाहिए―
चरितव्यमतो नित्यं प्रायश्चित्तं विशुद्धये।
निन्द्यैर्हि लक्षणैर्युक्ता जायन्तेऽनिष्कृतैनसः॥५३॥ (५)
[४६-४७ में वर्णित लाभ होने से] (अतः) इसलिए (विशुद्धये) संस्कारों की शुद्धि के लिए (नित्यं प्रायश्चित्तं चरितव्यम्) [बुरा काम होने पर] सदा प्रायश्चित्त करना चाहिए, (हि) क्योंकि (अनिष्कृत-एनसः) पाप-शुद्धि किये बिना मनुष्य (निन्द्यैः लक्षणैः युक्ताः जायन्ते) उनके बुरे कर्मफल के कारण, निन्दनीय लक्षणों से युक्त हो जाते हैं या मरकर पुनर्जन्म में होते हैं॥५३॥
व्रात्यों का प्रायश्चित्त―
येषां द्विजानां सावित्री नानूच्येत यथाविधि।
तांश्चारयित्वा त्रीन्कृच्छ्रान्यथाविध्युपनाययेत्॥१९१॥ (६)
(येषां द्विजानां सावित्री) जिन द्विजों का यज्ञोपवीत संस्कार (यथाविधि) उचित समय पर [इस संस्करण में २.११-१३] (न+अनूच्येत) नहीं हुआ हो, (तान्) उनको (त्रीन् कृच्छ्रान् चारयित्वा) तीन कृच्छ्र व्रत [११.२१२] कराके (यथाविधि+उपनाययेत्) विधिपूर्वक उनका उपनयन संस्कार कर देना चाहिए॥१९१॥
निन्दित कर्म करने वालों का प्रायश्चित्त―
प्रायश्चित्तं चिकीर्षन्ति विकर्मस्थास्तु ये द्विजाः।
ब्रह्मणा च परित्यक्तास्तेषामप्येतदादिशेत्॥१९२॥ (७)
(विकर्मस्थाः तु ये द्विजाः) अपने धार्मिक कर्त्तव्यों का त्याग कर देने और निन्दित कर्म करने पर जो उपनयनयुक्त द्विज (प्रायश्चित्तं चिकीर्षन्ति) प्रायश्चित्त करके अपने को शुद्ध करना चाहते हैं (च) और (ब्रह्मणा परित्यक्ताः) वेदादि के त्यागने पर जो प्रायश्चित्त करके शुद्ध होना चाहते हैं (तेषाम्+अपि+एतत्+आदिशेत्) उन्हें भी पूर्वोक्त व्रत [११.१९१] करने को कहें॥१९२॥
वेदोक्त कर्मों के त्याग का प्रायश्चित्त―
वेदोदितानां नित्यानां कर्मणां समतिक्रमे।
स्नातकव्रतलोपे च प्रायश्चित्तमभोजनम्॥२०३॥ (८)
(वेदोक्तानां नित्यानां कर्मणां समतिक्रमे) वेदोक्त नैत्यिक [अग्निहोत्र, संध्योपासन आदि] कर्मों के न करने पर (च) और (स्नातकव्रतलोपे) ब्रह्मचर्यावस्था में व्रतों [भिक्षाचरण आदि] के न करने पर (अभोजनं प्रायश्चित्तम्) एक दिन उपवास रखना ही प्रायश्चित्त है॥२०३॥
अविहित कर्मों के लिए प्रायश्चित्त-निर्णय―
अनुक्तनिष्कृतीनां तु पापानामपनुत्तये।
शक्तिं चावेक्ष्य पापं च प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत्॥२०९॥ (९)
(अनुक्तनिष्कृतीनां तु पापानाम्) जिनका प्रायश्चित्त नहीं कहा है ऐसे अपराधों के (अपनुत्तये) दोष को दूर करने के लिए (शक्तिं च पापम् अवेक्ष्य) प्रायश्चित्तकर्त्ता की शक्ति और अपराध को देखकर (प्रायश्चित्तं प्रकल्पयेत्) यथायोग्य प्रायश्चित्त का निर्णय कर लेना चाहिए॥२०९॥
प्रायश्चित्तों का परिचय-वर्णन―
यैरभ्युपायैरेनांसि मानवो व्यपकर्षति।
तान्वोऽभ्युपायान्वक्ष्यामि देवर्षिपितृसेवितान्॥२१०॥ (१०)
(मानवः) मनुष्य (यैः+अभ्युपायैः) जिन उपायों से (एनांसि व्यपकर्षति) पापों=अपराधों को [न तु पापफलों को] दूर करता है, अब मैं (देव-ऋषि-पितृसेवितान्) विद्वानों, ऋषियों=तत्त्वज्ञानियों, पूर्वजों और पिता आदि वयोवृद्ध व्यक्तियों द्वारा सेवित (तान् अभ्युपायान् वः वक्ष्यामि) उन उपायों को तुमसे कहूँगा―॥२१०॥
प्राजापत्य व्रत की विधि―
त्र्यहं प्रातस्त्र्यहं सायं त्र्यहमद्यादयाचितम्।
त्र्यहं परं च नाश्नीयात्प्राजापत्यं चरन्द्विजः॥२११॥ (११)
(प्राजापत्यं चरन् द्विजः) 'प्राजापत्य' नामक व्रत का पालन करने वाला द्विज (त्रि+अहं प्रातः) पहले तीन दिन केवल प्रातःकाल ही खाये (त्रि+अहं सायम्) फिर अगले तीन दिन केवल सायंकाल ही खाये (त्रि+अहम् अयाचित्तम् अद्यात्) उसके पश्चात् तीन दिन बिना मांगे जो मिले उसका ही भोजन करे (च) और (परं त्रि+अहं न अश्नीयत्) उसके बाद फिर तीन दिन उपवास रखे। [यह प्राजापत्य व्रत है]॥२११॥
कृच्छ्र सान्तपन व्रत की विधि―
गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधि सर्पिः कुशोदकम्।
एकरात्रोपवासश्च कृच्छ्रं सांतपनं स्मृतम्॥२१२॥ (१२)
क्रमशः एक-एक दिन (गोमूत्रं गोमयं क्षीरं दधिः सर्पिः कुश+उदकम्) गोमूत्र, गोबर का रस, गोदूध, गौ के दूध का दही, गोघृत और कुशा=दर्भ का उबला जल, इनका भोजन करे (च) और (एकरात्र+उपवासः) फिर एक दिन-रात का उपवास रखे, (कृच्छ्रे-सांतपनं स्मृतम्) 'कृच्छ्र सांतपन' नामक व्रत है॥२१२॥
अतिकृच्छ्र व्रत की विधि―
एकैकं ग्रासमश्नीयात् त्र्यहाणि त्रीणि पूर्ववत्।
त्र्यहं चोपवसेदन्त्यमतिकृच्छ्रे चरन्द्विजः॥२१३॥ (१३)
(अतिकृच्छ्रं चरन् द्विजः) 'अतिकृच्छ्र' नामक व्रत को करने वाला द्विज (पूर्ववत्) पूर्व विधि [११.२११] के अनुसार (त्रि+अहाणि त्रीणि) तीन दिन केवल प्रात:काल, तीन दिन केवल सांयकाल, तीन दिन बिना मांगे प्राप्त हुआ (एक-एकं ग्रासम्+अश्नीयत्) एक-एक ग्रास भोजन करे (अन्त्यं त्रि+अहं च+उपवेसत्) और अन्तिम तीन दिन उपवास रखे। [यह 'अतिकृच्छ्र' व्रत है]॥२१३॥
तप्तकृच्छ्र व्रत की विधि―
तप्तकृच्छ्रं चरन्विप्रो जलक्षीरघृतानिलान्।
प्रतित्र्यहं पिबेदुष्णान्सकृत्स्नायी समाहितः॥२१४॥ (१४)
(तप्तकृच्छ्रं चरन् विप्रः) 'तप्तकृच्छ्र' व्रत को करने वाला द्विज (उष्णान् जल-क्षीर-घृत-अनिलान् प्रतित्र्यहं पिबेत्) गर्म पानी, गर्मदूध, गर्म घी और वायु प्रत्येक को तीन-तीन दिन पीकर रहे, और (सकृत्स्नायी) एक बार स्नान करे, तथा (समाहितः) एकाग्रचित्त रहे॥२१४॥
चान्द्रायण व्रत की विधि―
एकैकं ह्रासयेत्पिण्डं कृष्णे शुक्ले च वर्धयेत्।
उपस्पृशंस्त्रिषवणमेतच्चान्द्रायणं स्मृतम्॥२१६॥ (१५)
[पूर्णिमा के दिन पूरे दिन में १५ ग्रास भोजन करके फिर] (कृष्णे एक-एकं पिण्डं ह्रासयेत्) कृष्णपक्ष में एक-एक ग्रास भोजन प्रतिदिन कम करता जाये, [इस प्रकार करते हुए अमावस्या को पूर्ण उपवास रहेगा, फिर शुक्लपक्ष-प्रतिपदा को प्रतिदिन दिन एक ग्रास भोजन करके] (शुक्ले वर्धयेत्) शुक्ल पक्ष में एक-एक ग्रास भोजन पूरे दिन में बढ़ाता जाये, इस प्रकार करते हुए (त्रिषवणम्+उपस्पृशन्) तीन समय स्नान करे, (एतत् चान्द्रायणं स्मृतम्) यह 'चान्द्रायण' व्रत कहाता है॥२१६॥
यवमध्यम चान्द्रायणव्रत की विधि―
एतमेव विधिं कृत्स्नमाचरेद्यवमध्यमे।
शुक्लपक्षादिनियतश्चरंश्चान्द्रायणं व्रतम्॥२१७॥ (१६)
(यवमध्यमे) यवमध्यम विधि में अर्थात् जैसे जौ मध्य में मोटा होता है, आगे-पीछे पतला; इस विधि के अनुसार (चान्द्रायणं चरन्) 'यवमध्यम चान्द्रायण व्रत' करते हुए, व्यक्ति (शुक्ल पक्ष-आदि-नियतः) शुक्लपक्ष को पहले करके (एतम्+एव कृत्स्नं विधिम्) इसी पूर्वोक्त [११.२१६] सम्पूर्ण विधि को (आचरेत्) करे अर्थात् शुक्लपक्ष से प्रारम्भ करके प्रथम दिन से एक-एक ग्रास भोजन बढ़ाता जाये, पूर्णिमा को पन्द्रह ग्रास भोजन करे, फिर कृष्णपक्ष के प्रथम दिन से एक-एक ग्रास घटाता जाये और अमावस्या के दिन निराहार रहे॥२१७॥
व्रत-पालन के समय यज्ञ करें―
महाव्याहृतिभिर्होमः कर्त्तव्यः स्वयमन्वहम्।
अहिंसासत्यमक्रोधमार्जवं च समाचरेत्॥२२२॥ (१७)
प्रायश्चित्त काल में (अन्वहम्) प्रतिदिन (स्वयम्) प्रायश्चित्तकर्त्ता को स्वयं (महाव्याहृतिभिः होमः कर्त्तव्यः) महाव्याहृतियों [भूः, भुवः, स्वः आदियुक्त मन्त्रों से] हवन करना चाहिए (च) और (अहिंसा-सत्यम्-अक्रोधं-आर्जवं समाचरेत्) अहिंसा, सत्य, क्रोधरहित रहना, कुटिलता न करना, इन बातों का पालन करे॥२२२॥
व्रत-पालन के समय गायत्री आदि का जप करें―
सावित्री च जपेन्नित्यं पवित्राणि च शक्तितः।
सर्वेष्वेव व्रतेष्वेवं प्रायश्चित्तार्थमादृतः॥२२५॥ (१८)
प्रायश्चित्तकर्त्ता प्रायश्चित्तकाल में (नित्यम्) प्रतिदिन (शक्तितः) शक्ति के अनुसार अधिक से अधिक (सावित्रीं च पवित्राणि जपेत्) सावित्री=गायत्री मन्त्र और 'पवित्र करने की प्रार्थना' वाले मन्त्रों का जप करे, (एवम्) ऐसा करना (सर्वेषु+एव व्रतेषु) सभी व्रतों में (प्रायश्चित्तार्थम्+आदृतः) प्रायश्चित्त के लिए उत्तम माना गया है॥२२५॥
मानस पापों के प्रायश्चित्त की विधि―
एतैर्द्विजातयः शोध्या व्रतैराविष्कृतैनसः।
अनाविष्कृतपापांस्तु मन्त्रैर्होमैश्च शोधयेत्॥२२६॥ (१९)
(आविष्कृत-एनसः द्विजातयः) जिनका पाप क्रियारूप में प्रकट हो गया है, ऐसे द्विजातियों को (एतैः व्रतैः शोध्याः) इन पूर्वोक्त [११.२२१-२२५] व्रतों से शुद्ध करें, और (अनाविष्कृतपापान् तु) जिनका पाप क्रिया रूप में प्रकट नहीं हुआ है अर्थात् अन्तःकरण में ही पाप-भावना उत्पन्न हुई है, ऐसों को (मन्त्रैः च होमैः शोधयेत्) मन्त्र-जपों [११.२२५] और यज्ञों से शुद्ध करें अर्थात् मानसिक पापों की शुद्धि [पाप-फलों की नहीं] जपों एवं यज्ञों=संध्योपासन-अग्निहोत्र आदि से होती है॥२२६॥
पांच कर्मों से प्रायश्चित्त में पापभावना से मुक्ति―
ख्यापनेनानुतापेन तपसाऽध्ययनेन च।
पापकृन्मुच्यते पापात्तथा दानेन चापदि॥२२७॥ (२०)
(ख्यापनेन) अपनी त्रुटि और उसके लिए दुःख अनुभव करते हुए सर्वसाधारण के सामने किये हुए अपने दोष को प्रकट करने से [११.२२८] (अनुतापेन) पश्चात्ताप करने से [११.२२९-२३२] (तपसा) व्रतों [११.२११-२२५, २३३] की साधना से, (अध्ययनेन) वेदाभ्यास से [११.२४५-२४६] (पापकृत् पापात् मुच्यते) पाप करने वाला [पाप-फल से नहीं अपितु] पाप-भावना से मुक्त हो जाता है (तथा) और (आपदि) आपद्-ग्रस्त व्याधि, जरा आदि से पीड़ित अवस्था में अपराध होने पर (दानेन) प्रायश्चित्त-हेतु संकल्प और परोपकारार्थ दान देने के पुण्य से भी पापभावना समाप्त होकर निष्पापता आती है॥२२७॥
सबके सामने अपना अपराध कहने से पापभावना से मुक्ति―
यथा यथा नरोऽधर्मं स्वयं कृत्वाऽनुभाषते।
तथा तथा त्वचेवाहिस्तेनाधर्मेण मुच्यते॥२२८॥ (२१)
(अधर्मं कृत्वा) अधर्मयुक्त आचरण करके (नरः) मनुष्य (यथा-यथा स्वयम् अनुभाषते) जैसे-जैसे अपने पाप को लोगों से कहता है (तथा तथा अहिः त्वचा+इव) वैसे-वैसे सांप की केंचुली के समान (तेन+अधर्मेण मुच्यते) उस अधर्म से=अपराध-जन्य संस्कार से मुक्त होता जाता है और लोगों में उसके प्रति अपराधी होने की भावना समाप्त होती जाती है॥२२८॥
अनुताप करने से पाप-भावना से मुक्ति―
यथा यथा मनस्तस्य दुष्कृतं कर्म गर्हति।
तथा तथा शरीरं तत्तेनाधर्मेण मुच्यते॥२२९॥ (२२)
और, (तस्य मनः यथा यथा) उसका मन=आत्मा जैसे-जैसे (दुष्कृतं कर्म गर्हति) किये हुए पाप-अपराध को धिक्कारता है [कि 'मैंने यह बुरा कार्य किया है', आदि] (तथा तथा तत् शरीरम्) वैसे-वैसे उसका शरीर (तेन अधर्मेण मुच्यते) उस अधर्म-अपराध से मुक्त-निवृत्त होता जाता है अर्थात् बुरे कर्म को बुरा मानकर उसके प्रति ग्लानि होने से शरीर और मन बुरे कार्य करने से निवृत्त होते जाते हैं॥२२९॥
तपपूर्वक पुनः पाप न करने के निश्चय से पापभावना से मुक्ति―
कृत्वा पापं हि संतप्य तस्मात्पापात्प्रमुच्यते।
नैवं कुर्यात्पुनरिति निवृत्त्या पूयते तु सः॥२३०॥ (२३)
मनुष्य (पापं हि कृत्वा) पाप=अपराध करके (संतप्य) और उसके लिए पश्चात्ताप करके (तस्मात् पापात् प्रमुच्यते) उस पाप-कर्म से छूट जाता है [पाप-फल से नहीं] अर्थात् उस पाप को करने में पुनः प्रवृत्ति नहीं करता, और (पुनः एवं न कुर्यात्) फिर कभी इस प्रकार का कोई पाप नहीं करूंगा (इति निवृत्त्या) इस प्रकार संकल्प करने के बाद पापों से निवृत्ति होने से [११.२३२] (सः तु पूयते) वह व्यक्ति पवित्राचरण वाला बन जाता है॥२३०॥
कर्मफलों पर चिन्तन करने से पाप-भावना से मुक्ति―
एवं संचिन्त्य मनसा प्रेत्य कर्मफलोदयम्। मनोवाङ्मृर्त्तिभिर्नित्यं शुभं कर्म समाचरेत्॥२३१॥ (२४)
(प्रेत्य कर्मफल-उदयम्) 'इस जन्म में यदि फल नहीं मिला तो मरकर कर्मों का फल अवश्य मिलेगा' (मनसा एवं संचिन्त्य) मन में इस विचार को रखते हुए मनुष्य (मनः-वाक्मूर्त्तिभिः) मन, वाणी और शरीर से (नित्यं शुभं कर्म समाचरेत्) सदा शुभ कार्य करे॥२३१॥
पाप-भावना से मुक्ति चाहने वाला पुनः पाप न करे―
अज्ञानाद्यदि वा ज्ञानात्कृत्वा कर्म विगर्हितम्।
तस्माद्विमुक्तिमन्विच्छन्द्वितीयं न समाचरेत्॥२३२॥ (२५)
(अज्ञानात् यदि वा ज्ञानात्) अज्ञान से अथवा जानबूझकर (विगर्हितं कर्म कृत्वा) निन्दित कर्म करके (तस्मात् विमुक्तिम्+अन्विच्छन्) मनुष्य उस पाप-प्रवृत्ति से छुटकारा पाने के लिए (द्वितीयं न समाचरेत्) दुबारा पाप न करे [तभी पाप-प्रवृत्ति से छुटकारा मिल सकता है, अन्यथा नहीं।]॥२३२॥
तप तब तक करें जब तक मन में प्रसन्नता न आ जाये―
यस्मिन्कर्मण्यस्य कृते मनसः स्यादलाघवम्।
तस्मिंस्तावत्तपः कुर्याद्यावत्तुष्टिकरं भवेत्॥२३३॥ (२६)
(यस्मिन् कर्मणि कृते) जिस कर्म के करने पर (अस्य मनसः अलाघवं स्यात्) मनुष्य के मन में जितना दुःख, पश्चात्ताप अर्थात् असन्तोष एवं अप्रसन्नता होवे (तस्मिन्) उस कर्म में (यावत् तुष्टिकरं भवेत्) जितना तप करने से मन में प्रसन्नता एवं संतुष्टि हो जाये (तावत् तपः कुर्यात्) उतना ही तप करे, अर्थात् किसी पाप के करने पर मनुष्य के मन में जब तक ग्लानिरहित पूर्ण संतुष्टि एवं प्रसन्नता न हो जाये तब तक स्वेच्छा से तप करता रहे॥२३३॥
वेदाभ्यासादि से पाप-भावनाओं का क्षय―
वेदाभ्यासोऽन्वहं शक्त्या महायज्ञक्रिया क्षमा।
नाशयन्त्याशु पापानि महापातकजान्यपि॥२४५॥ (२७)
(अन्वहं शक्त्या वेदाभ्यासः) प्रतिदिन वेद का अधिक-से-अधिक अध्ययन-मनन (महायज्ञक्रियाः) पञ्चमहायज्ञों का अनुष्ठान, (क्षमा) तप-सहिष्णुता, ये क्रियायें (महापातकजानि+अपि पापानि) बड़े पापों से उत्पन्न पापभावनाओं या दुःसंस्कारों को भी (नाशयन्ति) नष्ट कर देती हैं॥२४५॥
वेदज्ञानाग्नि से पाप-भावना विनष्ट होती है―
यथैधस्तेजसां वह्निः प्राप्तं निर्दहति क्षणात्।
तथा ज्ञानाग्निना पापं सर्वं दहति वेदविद्॥२४६॥ (२८)
(यथा वह्निः तेजसा) जैसे अग्नि अपने तेज से (प्राप्तम् एधः क्षणात् निर्दहति) समीप आये काष्ठ आदि इंधन को तत्काल जला देती है (तथा) वैसे ही (वेदवित्) वेद का ज्ञाता (ज्ञान-अग्निना सर्वं पापं दहति) वेदज्ञान रूपी अग्नि से सब आने वाली [पापफलों को नहीं] पापभावनाओं को जला देता है, पापसंस्कारों को भस्म कर देता है॥२४६॥
वेदज्ञान-रूपी तालाब में पापभावना का डूबना―
यथा महाह्रदं प्राप्य क्षिप्तं लोष्टं विनश्यति।
तथा दुश्चरितं सर्वं वेदे त्रिवृति मज्जति॥२६३॥ (२९)
(यथा) जैसे (क्षिप्तं लोष्टम्) फेंका हुआ ढेला (महाह्रदं प्राप्य विनश्यति) बड़े तालाब में गिरकर पिघलकर नष्ट हो जाता है (तथा) उसी प्रकार (त्रिवृति वेदे) तीन वेदों की [१२.११२] ज्ञान प्राप्ति में (सर्वं दुश्चरितं मज्जति) सब बुरे आचरण नष्ट हो जाते हैं॥२६३॥
वेदवित् का लक्षण―
ऋचो यजूंषि चान्यानि सामानि विविधानि च।
एष ज्ञेयस्त्रिवृद्वेदो यो वेदैनं स वेदवित्॥२६४॥ (३०)
(ऋचः) ऋचाएँ=ऋग्वेद के मन्त्र (यजूंषि) यजुर्वेद के मन्त्र (च) और (अन्यानि विविधानि सामानि) इनसे भिन्न सामवेद के अनेक मन्त्र (एषः त्रिवृत् वेदः ज्ञेयः) इन तीनों को 'त्रिवृत्वेद' जानना चाहिए, (यः एनं वेद सः वेदवित्) जो उक्त त्रिवृत्वेद=त्रयीविद्या रूप, तीनों वेदों को जानता है, वही वस्तुतः 'वेदवेत्ता' कहाता है॥२६४॥
ईश्वर भी एक ज्ञेय वेद है―
आद्यं यत्त्र्यक्षरं ब्रह्म त्रयी यस्मिन्प्रतिष्ठिता।
स गुह्योऽन्यस्त्रिवृद्वेदो यस्तं वेद स वेदवित्॥२६५॥ (३१)
और, (यत् त्रि+अक्षरम् आद्यं ब्रह्म) तीन अक्षरों वाले प्रमुख नाम 'ओम्' से उच्चरित होने वाला सबका आदिमूलक परमेश्वर है, (यस्मिन् त्रयी प्रतिष्ठिता) जिसमें तीनों वेदविद्याएँ प्रतिष्ठित हैं, (सः अन्यः गुह्यः त्रिवृत्वेदः) वह भी एक गुप्त अर्थात् अदृश्य-सूक्ष्म 'त्रिवृत्वेद' है; (यः तं वेद सः वेदवित्) जो उसको जानता है, वह 'वेदवेत्ता' कहलाता है॥२६५॥
प्रायश्चित्त विषय का उपसंहार―
एष वोऽभिहितः कृत्स्नः प्रायश्चित्तस्य निर्णयः।
निःश्रेयसं धर्मविधिं विप्रस्येमं निबोधत॥२६६॥ (३२)
(एषः) यह [११.४४-२६५ तक] (वः) तुम्हें (प्रायश्चित्तस्य कृत्स्नः निर्णयः अभिहितः) प्रायश्चित्त का सम्पूर्ण [अपराध, उनका प्रायश्चित्त एवं प्रायश्चित्तविधि] निर्णय कहा। अब (विप्रस्य इमं निःश्रेयसं धर्मविधिम्) द्विजों के इस [१२.१-१२५] मोक्ष प्राप्ति के धर्मविधान अर्थात् कर्मविधान को (निबोधत) सुनो―॥२६६॥
इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ प्रायश्चित्तविषयात्मक एकादशोऽध्यायः॥
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