विशुद्ध मनुस्मृतिः― षष्ठ अध्याय

अथ षष्ठोऽध्यायः


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

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(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(वानप्रस्थ-संन्यास-धर्म-विषय) 


(वानप्रस्थ-विषय ६.१से ६.३२ तक)


द्विज वानप्रस्थ धारण करें―


एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत्स्नातको द्विजः। 

वने वसेत्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः॥१॥ (१)


ब्रह्मचर्याश्रम के पालनपूर्वक शिक्षा प्राप्त करके स्नातक बना द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य पूर्वोक्त प्रकार से शास्त्रोक्त विधि के अनुसार गृहाश्रम का पालन करके आगे कहे हुए नियमों के अनुसार जितेन्द्रिय होकर बन में निवास करे अर्थात् वानप्रस्थ आश्रम को धारण करके वन में रहे॥१॥


द्विजों के वानप्रस्थ धारण का समय―


गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः। 

अपत्यस्यैव चापत्यं तदाऽरण्यं समाश्रयेत्॥२॥ (२)


गृहस्थ जब अपने शरीर की त्वचा ढ़ीली होती देखें या सफेद बाल होते देखें और पुत्र का भी पुत्र=पोता हुआ देख लें उसके पश्चात् वन का आश्रय ग्रहण करें अर्थात् वानप्रस्थ धारण कर वन में जाकर रहें॥२॥


वानप्रस्थ धारण की विधि―


सन्त्यज्य ग्राम्यमाहारं सर्वं चैव परिच्छदम्। 

पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा॥३॥ (३)


वानप्रस्थ धारण करने वाला द्विज गांव के सभी भोज्य पदार्थ और घर के सभी धन-सम्पत्ति, पशु आदि पदार्थ वहीं छोड़कर यदि पत्नी साथ न जाना चाहे तो उसे पुत्रों को सौंपकर अथवा वह चाहे तो उसे साथ लेकर वन में निवास करने के लिए चला जाये॥३॥


अग्निहोत्रं समादाय गृह्यं चाग्निपरिच्छदम्। 

ग्रामादरण्यं निःसृत्य निवसेन्नियतेन्द्रियः॥४॥ (४)


वानप्रस्थ=धारण करने वाला अग्निहोत्र आदि पंचमहायज्ञों के अनुष्ठान की सामग्री साथ लेकर और गृह्य अग्नि अर्थात् पाचन आदि कार्यों में उपयोगी सारे उपकरण साथ लेकर गांव को त्याग वन में जा कर जितेन्द्रिय होकर निवास करे॥४॥


वानप्रस्थ के लिए पञ्चमहायज्ञों का विधान―


मुन्यन्नैर्विविधैर्मेध्यैः शाकमूलफलेन वा। 

एतानेव महायज्ञान्निर्वपेद्विधिपूर्वकम्॥५॥ (५)


वानप्रस्थ पवित्र, मुनियों के द्वारा सेवन किये जाने वाले नीवार आदि अनेक प्रकार के अन्नों से अथवा शाकों, कन्दमूलों, फलों से इन्हीं पूर्वोक्त और आगे वर्णित पांच महायज्ञों [ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ, बलिवैश्वदेव] को विधिपूर्वक अनुष्ठित करे॥५॥


अतिथि-यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान―


यद्भक्ष्यं स्यात्ततो दद्याद् बलिं भिक्षां य शक्तितः। 

अम्मूलफलभिक्षाभिरर्चयेदाश्रमागतान्॥७॥ (६)


जो भी खाने का भोजन बना हो उससे ही बलिवैश्वदेव यज्ञ करे और यथाशक्ति भिक्षा भी दे आश्रम में आये अतिथियों को जल, कन्दमूल, फल आदि प्रदान करके उनका सत्कार करे॥७॥


ब्रह्मयज्ञ का विधान―


स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दान्तो मैत्रः समाहितः। 

दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः॥८॥ (७)


वानप्रस्थ सदा वेदशास्त्रों के अध्ययन तथा ईश्वरोपासना में लगा रहे। जितेन्द्रिय रहे, सबसे मित्रभाव रखे, धर्मपालन में सावधान रहे, विद्या, धन आदि का दान करे, कभी किसी से दान न ले, सब प्राणियों पर कृपा-दया रखे॥८॥ 


अग्निहोत्र का विधान―


वैतानिकं च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि।

दर्शमस्कन्दयन्पर्व पौर्णमासं च योगतः॥९॥ (८)


वानप्रस्थ पूर्वोक्त विधि के अनुसार दैनिक यज्ञ को और विशेष अवसरों पर किये जाने वाले बृहत् यज्ञों को अमावस्या और पूर्णिमा आदि पर्वो पर किये जाने पर्वयज्ञों को भी करते हुए निष्ठापूर्वक आहुति दिया करे॥९॥


विशेष यज्ञों का आयोजन करे―


ऋक्षेष्ट्याग्रयणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत्। 

तुरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमेव च॥१०॥ (९)


नक्षत्रयज्ञ नये अन्न का यज्ञ और चातुर्मास्य का यज्ञ अथवा वर्षा ऋतुकालीन चार मास तक चलने वाला यज्ञ तथा क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायन, इन अवसरों पर भी विशेष यज्ञों का आयोजन करे॥१०॥


बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान―


वासन्तशारदैर्मेध्यैर्मुन्यन्नैः स्वयमाहृतैः। 

पुरोडाशांश्चरूंश्चैव विधिवन्निर्वपेत्पृथक्॥११॥ (१०)


वसन्त और शरद् ऋतु में प्राप्त होने वाले पवित्र और स्वयं लाये हुए नीवार आदि मुनि-अन्नों से पुरोडाश और चरु नामक यज्ञिय हव्यों को विधि अनुसार अलग-अलग तैयार करे॥११॥


देवताभ्यस्तु तद्हुत्वा वन्यं मेध्यतरं हविः। 

शेषमात्मनि युञ्जीत लवणं च स्वयं कृतम्॥१२॥ (११)


उस पवित्र, वन के अन्नों से निर्मित हवि को देवताओं के लिये होम कर=आहुति देकर शेष भोजन को और अपने लिए बनाये गये लवणयुक्त पदार्थों को अपने खाने के लिए प्रयोग=में लाये॥१२॥


पवित्र भोजन करे―


स्थलजौदकशाकानि पुष्पमूलफलानि च। 

मेध्यवृक्षोद्भवान्यद्यात्स्नेहांश्च फलसम्भवान्॥१३॥ (१२)


भूमि और जल में उत्पन्न शाकों को पवित्र वृक्षों से उत्पन्न होने वाले फूल, कन्दमूल और फलों को और फलों से प्राप्त होने वाले रसों, [=सूप, जूस आदि] तैलों या अर्कों को खाये॥१३॥


अभक्ष्य पदार्थ―


वर्जयेन्मधु मांसं च भौमानि कवकानि च।

भूस्तृणं शिग्रुकं चैव श्लेष्मातकफलानि च॥१४॥ (१३)


सब मदकारी मदिरा, भांग आदि पदार्थ सब प्रकार के मांस और भूमि में उत्पन्न होने वाले कवक=छत्राक=कुकुरमुत्ता और भूतृण नामक [=शरवाण] शाक विशेष, सफेद सहिंजन और लिसौड़े के फल इन्हें भोजन में वर्जित रखे अर्थात् कभी न खाये॥१४॥


त्यजेदाश्वयुजे मासि मुन्यन्नं पूर्वसञ्चितम्। 

जीर्णानि चैव वासांसि शाकमूलफलानि च॥१५॥ (१४)


पहले इकट्ठे किये हुए नीवार आदि मुनि-अन्नों को और पुराने वस्त्रों को और पूर्वसंचित शाक, कन्दमूल, फलों को आश्विन के महीने में छोड़ देवे अर्थात् नये ग्रहण करे॥१५॥ 


वानप्रस्थ ग्रामोत्पन्न पदार्थ न खाये―


न फालकृष्टमश्नीयादुत्सृष्टमपि केनचित्।

न ग्रामजातान्यार्तोऽपि मूलानि च फलानि च॥१६॥ (१५)


हल से जोतने पर भूमि में उत्पन्न पदार्थों को किसी के द्वारा दिये जाने पर भी और ग्राम में जोतकर या उगाकर उत्पन्न किये गये मूल और फलों को भूख से पीड़ित होते हुए भी न खाये॥१६॥


सांसारिक सुखों में आसक्ति न रखते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करे―


अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराशयः। 

शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः॥२६॥ (१६)


वानप्रस्थ सुखसाधक भोजन, निवास आदि कर्मों में प्रवृत्ति न रखे, ब्रह्मचर्य का पालन करे, भूमि में शयन करे, और घरों, आवासों में ममत्व न रखे, वन में वृक्षों के नीचे पर्णकुटी बनाकर निवास करे॥२६॥


तपस्वियों के घरों से भिक्षा का ग्रहण―


तापसेष्वेव विप्रेषु यात्रिकं भैक्षमाहरेत्।

गृहमेधिषु चान्येषु द्विजेषु वनवासिषु॥२७॥ (१७)


वन में तपस्यारत विद्वानों के घरों में और अन्य वनवासी गृहस्थ या वानप्रस्थ द्विजों के घरों में जीवनयात्रा चलाने योग्य भिक्षा प्राप्त कर ले॥२७॥


आत्मशुद्धि के लिए वेदमन्त्रों का मनन-चिन्तन―


एताश्चान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रो वने वसन्। 

विविधाश्चौपनिषदीरात्मसंसिद्धये श्रुतीः॥२९॥ (१८) 


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य वन में निवास करते हुए आत्मोन्नति और परमात्मा की सिद्धि प्राप्त करने के लिए इस प्रकरण में कही और अन्य ब्रह्मचर्य या संन्यास प्रकरणों में कही गयी दीक्षाओं=व्रतात्मक प्रतिज्ञाओं का और उपनिषद्=परमात्मा के ज्ञान-उपासना विधायक नाना प्रकार की श्रुतियों=वेदमन्त्रों का सेवन करे अर्थात् चिन्तन-मनन पूर्वक उनको आचरण में लाये॥२९॥


ऋषिभिर्ब्राह्मणैश्चैव गृहस्थैरेव सेविताः।

विद्यातपोविवृद्ध्यर्थं शरीरस्य च शुद्धये॥३०॥ (१९)


ऋषियों, ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भी विद्या और तप की वृद्धि के लिए और शरीर की शुद्धि के लिए इन दीक्षाओं=व्रतों और श्रुतियों=वेदमन्त्रों का सेवन किया है अर्थात् चिन्तन-मनन और आचरण किया है, अत: वानप्रस्थ भी विद्या और तप की वृद्धि के लिए इनका सेवन करे।


आसां महर्षिचर्याणां त्यक्त्वाऽन्यतमया तनुम्।

वीतशोकभयो विप्रो ब्रह्मलोके महीयते॥३२॥ (२०)


इन पूर्वोक्त महर्षियों द्वारा पालनीय दिनचर्याओं का पालन करते हुए किसी भी दिनचर्या के अनुसार भी शरीर छूटने पर शोक और भय से रहित हुआ विद्वान् मुक्ति में जाकर आनन्द पाता है॥३२॥ 


(संन्यास-धर्म-विषय)


[६.३३ से ६.८५ तक] 


वानप्रस्थ के बाद संन्यास ग्रहण का विधान―


वनेषु च विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः। 

चतुर्थमायुषो भागं त्यक्त्वा सङ्गान्परिव्रजेत्॥३३॥ (२१)


वानप्रस्थ द्विज अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य पूर्वोक्त वानप्रस्थ विधि के अनुसार वनों में आयु का तीसरा भाग अर्थात् सत्तर से पिचहत्तर वर्ष तक व्यतीत करके आयु के चौथे भाग में संसार के सभी पदार्थों एवं प्राणियों में आसक्तिभाव अर्थात् उनकी इच्छा, मोह, ममता को छोड़कर संन्यास आश्रम को धारण करे॥३३॥


वानप्रस्थ के पश्चात् संन्यासधारण―


अधीत्य विधिवद्वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः। 

इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत्॥३६॥ (२२)


द्विज ब्रह्मचर्याश्रम में वेदों को विधिपूर्वक पढ़कर और गृहाश्रम में धर्मानुसार सन्तानों को उत्पन्न करके वानप्रस्थ आश्रम में यथाशक्ति यज्ञों से यजन करके मोक्ष प्राप्ति में मन को लगाये अर्थात् संन्यास आश्रम को धारण करके मोक्षप्राप्ति हेतु यत्न करे॥३६॥


परमात्मा-प्राप्ति हेतु गृहाश्रम से भी संन्यास ले सकता है―


प्राजापत्यां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम्।

आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद्गृहात्॥३८॥ (२३)


ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज जिसमें सर्वस्व दक्षिणा में दे दिया जाता है उस 'प्राजापत्य इष्टि' नामक यज्ञ को अनुष्ठित करके गृहस्थ और वानप्रस्थ में प्रयुक्त की जाने वाली गार्हपत्य, आहवनीय, दाक्षिणात्य आदि अग्नियों का बाह्य उपयोग त्याग कर उनके उद्देश्यों को आत्मा में धारण करके अर्थात् पाचन, यजन-याजन आदि कार्य छोड़कर गृहस्थ अपना गृह त्यागकर गृहाश्रम से भी संन्यास धारण कर ले॥३८॥


यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात्। 

तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः॥३९॥ (२४)


जो द्विज सब प्राणियों के लिए अभयदान की घोषणा करके अर्थात् प्राणियों को दु:खों के भय से मुक्त कराने के लिए लोकोपकार करने की प्रतिज्ञा करके वानप्रस्थ गृह=अपना स्थायी आवास त्यागकर अथवा गृहस्थ अपना घर छोड़कर संन्यास ग्रहण करता है उस वेद और ईश्वर के उपदेशक ब्रह्मज्ञानी के लोक-परलोक अर्थात् जन्म-जन्मान्तर अथवा मोक्ष लोक ब्रह्म=ज्ञान एवं परमात्मा के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं अर्थात् उसका जीवन, परजन्म ज्ञान और ब्रह्ममय होता है अथवा मोक्षप्राप्ति हो जाती है॥३९॥


यस्मादण्वपि भूतानां द्विजान्नोत्पद्यते भयम्।

तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन॥४०॥ (२५) 


जिस द्विज से प्राणियों को थोड़ा-सा भी भय नहीं होता, जो सबका उपकारकर्त्ता होता है उसको देह से युक्त होने पर कहीं भी भय=दुःख नहीं रहता अर्थात् वह या तो स्वर्गमय जन्म प्राप्त करता है, या भयादि दुःख रहित मोक्षप्राप्त करता है॥४०॥


वैराग्य होने पर गृहस्थ या ब्रह्मचर्य से सीधा संन्यासग्रहण―


आगारादभिनिष्क्रान्तः पवित्रोपचितो मुनिः।

समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत्॥४१॥ (२६)


संन्यास-इच्छुक द्विज वानप्रस्थ अपना स्थायी आवास अथवा गृहस्थ गृहाश्रम को त्यागकर वेद, ब्रह्म और जीवन विषयक मननशील होकर पवित्र संस्कारों एवं कर्मों को धारण करता हुआ और अन्तःकरण में संचित सांसारिक कामनाओं-तृष्णाओं को छोड़कर संन्यासी बनकर लोकोपकार के लिए विचरण करे॥४१॥


संन्यासी एकाकी विचरण करे―


एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थमसहायवान्। 

सिद्धिमेकस्य संपश्यन्न जहाति न हीयते॥४२॥ (२७)


संन्यासी अकेले की ही मुक्ति होती है, इस बात को जानते हुए मोक्षसिद्धि के लिए किसी के सहारे या आश्रय की इच्छा से रहित होकर सर्वदा एकाकी ही विचरण करे अर्थात् किसी पुत्र-पौत्र, सम्बन्धी, मित्र आदि का आश्रय न ले और न उनका साथ करे, इस प्रकार रहने से न वह किसी को छोड़ता है, न उसे कोई छोड़ता है अर्थात् वह मोह रहित हो जाता है और मृत्यु के समय बिछुड़ने के दुःख की भावना से रहित हो जाता है, उसे मृत्यु का दुःख नहीं होता॥४२॥


निर्लिप्त भाव से गांवों में भिक्षा ग्रहण करे―


अनग्निरनिकेतः स्यात् ग्राममन्नार्थमाश्रयेत्।

उपेक्षकोऽसंकुसुको मुनिर्भावसमाहितः॥४३॥ (२८)


संन्यासी गृहस्थ, वानप्रस्थ में जो आहवनीय, पाकाग्नि आदि अग्नियों में पाक, यज्ञ, बलिवैश्वदेव, अतिथि यज्ञ आदि के अनुष्ठान विहित हैं, उन बाह्य अग्निपरक विधानों से मुक्त हुआ, स्वयं का घर-निवासस्थान आदि न रखता हुआ जीवन बिताये, और भोजन के लिए गांवों का आश्रय ले अर्थात् गांवों से भिक्षा मांगकर खाया करे, तथा बुरों से उदासीनता का व्यवहार रखता हुआ, स्थिर बुद्धि रहता हुआ ब्रह्म में मननशील और ब्रह्म में ही भावना रखता हुआ विचरण करे॥४३॥


जीवन-मरण के प्रति समदृष्टि―


नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्। 

कालमेव प्रतीक्षेत निर्देशं भृतको यथा॥४५॥ (२९)


संन्यासी न मृत्यु की चिन्ता करे या मृत्यु के दुःख पर विचार करे जीने में आनन्द-मोह का अनुभव करे, जैसे भृत्य स्वामी के आदेश की तटस्थ भाव से प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार मृत्यु समय की प्रतीक्षा करता हुआ तटस्थ और निर्लिप्त भाव से जीवन व्यतीत करे॥४५॥


पवित्र एवं सत्य आचरण करे―


दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। 

सत्यपूतां वेदद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्॥४६॥ (३०)


संन्यासी चलते समय दृष्टि को पवित्र रख कर अर्थात् किसी को हानि न पहुंचाता हुआ सावधान होकर चले, अशुद्धि पर या लघु जीवों पर पैर न रखे, वस्त्र से छानकर पवित्र किया हुआ जल पीये, सत्य से पवित्र की हुई वाणी ही बोले अर्थात् सत्य ही बोले मन से पवित्र करके अर्थात् पवित्र संकल्प से प्रत्येक आचरण करे, मिथ्या या अधर्माचरण न करे॥४६॥


अपमान को सहन करे―


अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन। 

न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥४७॥ (३१) 


कठोर वचनों-आक्षेपों, अवमानना को सहन करले बदले में कभी किसी का तिरस्कार या अपमान न करे और इस शरीर का आश्रय लेकर अर्थात् अपने शरीर―मन, वाणी, कर्म से किसी से कभी वैर न करे॥४७॥


क्रोध आदि न करे―


क्रुद्ध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत्। 

सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्॥४८॥ (३२)


संन्यासी लोकोपकार के समय यदि कोई क्रोधपूर्ण आचरण करे तो बदले में क्रोध का आचरण न करे, दूसरे के द्वारा आक्षेप-किये जाने पर भी उससे कल्याण कर वचन बोले और सात द्वारों अर्थात् दो कान, दो आँख, दो नासिकापुट और एक मुख इनमें व्याप्त वाणी को असत्य न बोले अर्थात् इन इन्द्रियों से सम्बन्धित कोई अधर्माचरण या मिथ्याचरण न करे॥४९॥


आध्यात्मिक आचरण में स्थित रहे―


अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः। 

आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह॥४९॥ (३३)


इस जीवन या संसार में रहते हुए परमात्मा के प्रेम में मग्न रहता हुआ और उसी की उपासना करता हुआ किसी की अपेक्षा=आश्रय न चाहता हुआ मांस-भोजन से रहित रहकर स्वयं अपनी सहायता अर्थात् कार्य करता हुआ मोक्ष सुख की इच्छा करता हुआ विचरण करे॥४९॥


मुण्डनपूर्वक गेरुवे वस्त्र धारण करके रहे―


क्लृप्तकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान्।

विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन्॥५२॥ (३४)


संन्यासी सदैव कटा लिये हैं केश, नाखून, दाढ़ी-मूंछ जिसने ऐसा, अर्थात् दाढ़ी-मूंछ केश मुंडवाकर रहे अपना पात्र साथ रखे हुए दण्ड धारण किये हुए, केसरिया या गेरवे वस्त्र धारण किये हुए, जितेन्द्रिय रहते हुए किसी भी प्राणी को पीड़ा न देते हुए विचरण करे॥५२॥


एक समय ही भिक्षा मांगे―


एककालं चेरद् भैक्षं न प्रसज्जेत विस्तरे।

भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति॥५५॥ (३५)


संन्यासी एक ही समय भिक्षा मांगे भिक्षा से अधिक संग्रह अर्थात् लालच में न पड़े क्योंकि भिक्षा के लालच में या स्वाद में मन लगाने वाला संन्यासी इन्द्रियों के अन्य विषयों में भी फंस जाता है॥५५॥


भिक्षा न प्राप्त होने पर दुःख का अनुभव न करे―


अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत्। 

प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासङ्गाद्विनिर्गतः॥५७॥ (३६)


भिक्षा के न मिलने पर दुःखी न हो और मिलने पर प्रसन्नता अनुभव न करे अधिक कम, स्वादिष्ट-अस्वादिष्ट भिक्षा की स्वल्प-अधिक मात्रा का लोभ न करके अर्थात् जैसी भी भिक्षा मिल जाये उसे ग्रहण करके केवल अपनी प्राणयात्रा को चलाने योग्य भिक्षा प्राप्त करता रहे॥५७॥


प्रशंसा-लाभ आदि से बचे―


अभिपूजितलाभांस्तु जुगुप्सेतैव सर्वशः। 

अभिपूजितलाभैश्च यतिर्मुक्तोऽपि बद्ध्यते॥५८॥ (३७)


और अधिक आदर-सत्कार से मिलने वाली भिक्षा, सम्मान या अन्य सुखप्रद सभी सांसारिक लाभों से सर्वथा उदासीनता बरते, क्योंकि मुक्त संन्यासी भी अधिक आदर-सत्कार से मिलने वाले सांसारिक लाभों से विषयों और सांसारिक बन्धनों में फंस जाता है॥५८॥ 


इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखकर मोक्ष के लिए सामर्थ्य बढ़ाए―


अल्पान्नाभ्यवहारेण रहः स्थानासनेन च। 

ह्रियमाणानि विषयैरिन्द्रियाणि निवर्तयेत्॥५९॥ (३८)


विषयों के द्वारा उनकी ओर आकर्षित होने वाली इन्द्रियों को थोड़ा भोजन करके और एकान्त स्थान में निवास और उपासना में स्थित होकर वश में करे, विषयों की ओर से लौटा दे॥५९॥ 


इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च।

अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते॥६०॥ (३९)


इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति रोकने से और मोह और द्वेष के क्षीण होने से और सब प्राणियों के प्रति मन-वचन-कर्म से अहिंसा का आचरण रखने से मनुष्य मोक्षप्राप्ति में सफल हो जाता है॥६०॥


मनुष्य-जीवन की दुःखमय गति-स्थितियाँ और उनका चिन्तन― 


अवेक्षेत गतीर्नॄणां कर्मदोषसमुद्भवाः। 

निरये चैव पतनं यातनाश्च यमक्षये॥६१॥ (४०)


कर्मों के दोष से होने वाली मनुष्यों की कष्टयुक्त बुरी गतियों को और कष्टरूपी नरक में जीवन बिताने को तथा प्राणक्षय में मृत्यु के समय होने वाली पीड़ाओं को गम्भीरता से विचारे और विचारकर जन्म-मरण के दुःख से रहित मुक्ति के लिए प्रयत्न करे॥६१॥ 


विप्रयोगं प्रियैश्चैव संयोगं च तथाऽप्रियैः। 

जरया चाभिभवनं व्याधिभिश्चोपपीडनम्॥६२॥ 

देहादुत्क्रमणं चास्मात्पुनर्गर्भे च सम्भवम्। 

योनिकोटिसहस्रेषु सृतीश्चास्यान्तरात्मनः॥६३॥ (४१, ४२)


और प्रियजनों से वियोग हो जाना तथा शत्रुओं से सम्पर्क होना और उससे फिर कष्टप्राप्ति होना और बुढ़ापे से आक्रान्त होना तथा रोगों से पीड़ित होना और फिर इस शरीर से जीव का निकल जाना गर्भ में पुनः जन्म लेना और इस प्रकार इस जीव का सहस्त्रों प्रकार की अर्थात् अनेकविध योनियों में आवागमन होना—इनको विचारे और इनके कष्टों को देखकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करे॥६२, ६३॥


अधर्म से दुःख और धर्म से सुख-प्राप्ति―


अधर्मप्रभवं चैव दुःखयोगं शरीरिणाम्। 

धर्मार्थप्रभवं चैव सुखसंयोगमक्षयम्॥६४॥ (४३)


यह निश्चित है कि प्राणियों को सभी प्रकार के दुःख अधर्म से ही मिलते हैं और अक्षयसुखों=मोक्ष की अवधि तक रहने वाले सुखों की प्राप्ति केवल धर्म मूल वाले कर्मों से ही होती है। इसको भी विचारे और तदनुसार धर्माचारण करे॥६४॥


योग से परमात्मा का प्रत्यक्ष करे―


सूक्ष्मतां चान्ववेक्षेत योगेन परमात्मनः।

देहेषु च समुत्पत्तिमुत्तमेष्वधमेषु च॥६५॥ (४४)


और योगाभ्यास से परमात्मा की सूक्ष्मता=सर्वव्यापकता को तथा उत्तम तथा अधम शरीरों में जीव की जन्मप्राप्ति के विषय में गम्भीरता से चिन्तन करे और उसी के अनुसार अनुकूल उपाय किया करे॥६५॥


दूषित आदि प्रत्येक अवस्था में धर्म का पालन आवश्यक―


दूषितोऽपि चरेद्धर्मं यत्र तत्राश्रमे रतः। 

समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम्॥६६॥ (४५)


मनुष्य किसी भी आश्रम में स्थित रहते हुए दूषित स्थिति में भी, अथवा लोगों के द्वारा दोषों से आरोपित या निन्दित किये जाने पर भी धर्म का पालन करे अर्थात् दुःखी होकर या किसी भी दूषित स्थिति में धार्मिक कर्त्तव्यों का त्याग न करे और सब मनुष्यों से भेदभाव रहित होकर समानता का व्यवहार करे। [इस तथ्य को भलीभांति समझ लें कि] बाह्य चिह्न गेरुवे वस्त्र, वेशभूषा, केश, दण्ड, कमण्डलु आदि धर्मसंचय का कारण=आधार नहीं हैं अर्थात् बाह्य चिह्न तो किसी धर्म की और आश्रम की पहचान मात्र हैं। बाह्य चिह्नों को धारण करके यह न समझें कि मैं धर्म का पालन कर रहा हूं या मेरा आश्रम सफल है। वास्तविक फल तो धर्म या आश्रम-धर्म के पालन से मिलता है, अतः धर्माचरण को मुख्य मानें। आचरण के बिना बाह्य चिह्न पाखण्ड मात्र हैं॥६६॥


धर्माचरण के बिना बाहरी दिखावे से श्रेष्ठ फल नहीं―


फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्। 

न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति॥६७॥ (४६)


जैसे यद्यपि कतक=निर्मली वृक्ष का रीठा नामक फल जल को स्वच्छ करने वाला होता है, तथापि उस रीठा का नाम लेने मात्र से जल स्वच्छ नहीं हो जाता। उसी प्रकार किसी धर्म या आश्रम का नाम लेने या बाह्य चिह्न धारण करने मात्र से कोई धार्मिक नहीं कहाता, उसका आश्रम-धारण सफल नहीं माना जा सकता। वस्तुतः, फल तो धर्माचरण से ही मिलता है॥६७॥


प्राणायाम अवश्य करे―


प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत्कृताः। 

व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः॥ ७०॥ (४७)


ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मवित् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व्यक्ति या संन्यासी के द्वारा जो विधि के अनुसार प्रणव अर्थात् ओङ्कारपूर्वक और 'भू:, भुवः, स्वः' आदि सप्तव्याहृतियों के जप सहित शक्ति के अनुसार तीनों प्रकार के बाह्य, आभ्यन्तर, और स्तम्भक, प्राणायाम, अथवा न्यून से न्यून तीन प्राणायाम किये जाते हैं, वह इसका परम=उत्तम तप होता है॥७०॥


प्राणायाम से इन्द्रियों के दोषों का क्षय―


दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः। 

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥७१॥ (४८)


जैसे धौंकने से=आग में तपाने और गलाने से सोना, चांदी आदि धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं उसी प्रकार, निश्चय ही प्राणों को रोकने-वश में करने से मन, आंख, कान आदि इन्द्रियों के विषय-दोष और व्याधि-दोष नष्ट हो जाते हैं अर्थात् इन्द्रियां वश में होती हैं और उनके रोग मिट जाते हैं॥७१॥


प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार से दोषों का क्षय―


प्राणायामैर्दहेद्दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषम्। 

प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनानीश्वरान्गुणान्॥७२॥ (४९)


मनुष्य प्राणायामों के द्वारा इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी और व्याधि-दोषों को और मन की एकाग्रतापूर्वक संकल्प करने से मन की पापभावनाओं को मन को इन्द्रियों के विषय से हटाकर नियन्त्रण में करने से इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होने वाले दोषों को और ईश्वर में मन को एकाग्र कर उसकी उपासना से ईश्वर-भिन्न अज्ञान, अविद्या, लोभ, पक्षपात आदि दोषों को भस्म करे॥७२॥


ध्यान से परमात्मा की गति का ज्ञान―


उच्चावचेषु भूतेषु दुर्जेयामकृतात्मभिः। 

ध्यानयोगेन सम्पश्येद्गतिमस्यान्तरात्मनः॥७३॥ (५०)


बड़े-छोटे अर्थात् संसार के सभी प्राणियों और पदार्थों में विद्यमान और अज्ञानी या अशुद्ध-आत्मा वालों के द्वारा जो जानने योग्य नहीं है उस अन्तर्यामी परमात्मा की सत्ता एवं व्यापकता को ध्यान रूप योगाभ्यास के द्वारा देखे, अनुभव करे॥७३॥


यथार्थ ज्ञान से कर्मबन्धन का विनाश―


सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्ध्यते।

दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिद्यते॥७४॥ (५१)


जिसने भलीभांति परमात्मा का अनुभव वा साक्षात्कार कर लिया है वह सांसारिक कर्मों के बंधन में नहीं बंधता अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त होकर जन्म-मरण के चक्र से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है किन्तु जो परमात्मा के अनुभव और दर्शन से रहित है, वह संसार में जन्म ग्रहण करता रहता है अर्थात् जन्म-मरण और दु:खों को झेलता रहता है॥७४॥


अहिंसा आदि वैदिक कर्मों से परमात्मा पद की प्राप्ति―


अहिंसयेन्द्रियासङ्गैर्वैदिकैश्चैव कर्मभिः।

तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम्॥७५॥ (५२)


सब प्राणियों के साथ मन-वचन-कर्म के द्वारा अहिंसा का व्यवहार करने से और वेदोक्त कर्मों के आचरण से और कठोर द्वन्द्वसहनों, व्रतों के पालन से इस जन्म में संन्यासी या साधक जन उस मोक्ष पद को सिद्ध करते हैं॥७५॥


निःस्पृहता से सुख एवं मोक्षप्राप्ति―


यदा भावेन भवति सर्वभावेषु निःस्पृहः। 

तदा सुखमवाप्नोति प्रेत्य चेह च शाश्वतम्॥८०॥ (५३)


जब संन्यासी वास्तविक रूप से सब भावनाओं में आकांक्षारहित या निर्लिप्त हो जाता है तब इस जन्म में और परलोक में अर्थात् मुक्ति में चिरस्थायी सुख को प्राप्त करता है॥८०॥


परमात्मा में अधिष्ठान―


अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा संगाञ्छनैः शनैः। 

सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते॥८१॥ (५४)


संन्यासी पूर्वोक्त विधि के अनुसार सब इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न दोषों को अथवा संसार-संसर्गज दोषों को सावधानीपूर्वक छोड़कर सब सांसारिक सुख-दुःखों से पृथक् होकर ब्रह्म में ही स्थित हो जाता है॥८१॥


ध्यानिकं सर्वमेवैतद्यदेतदभिशब्दितम् । 

न ह्यनध्यात्मवित्कश्चित्क्रियाफलमुपाश्नुते॥८२॥ (५५)


यह जो कुछ पहले कहा गया है यह सब ध्यानयोग के द्वारा सिद्ध होने वाला है अध्यात्मज्ञान से रहित कोई भी व्यक्ति उपर्युक्त कर्मों के फल को नहीं पा सकता॥८२॥


परमात्मा ही सुख का स्थान है―


इदं शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम्।

इदमन्विच्छतां स्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम्॥८४॥ (५६)


परमात्मा ही अज्ञानियों=स्वल्पज्ञानी साधकों का भी आश्रय है और यही महाज्ञानी साधकों―संन्यासियों का भी आश्रय है यही सुख की इच्छा करने वालों का आश्रय है यही अनन्त अर्थात् चिरस्थायी मोक्षसुख को चाहने वालों का आश्रय स्थान है॥८४॥


उपसंहार―


अनेन क्रमयोगेन परिव्रजति यो द्विजः। 

स विधूयेह पाप्मानं परं ब्रह्माधिगच्छति॥८५॥


जो द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य पूर्वोक्त विधि-विधान के अनुसार संन्यासी बनकर विचरण करता है, संन्यासी-धर्म का पालन करता है वह सब पापभावों को इस संसार में ही भस्म करके परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, उसकी शरण में जाकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥८५॥


आश्रम-धर्मों की समाप्ति पर उपसंहार―


ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा।

एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः॥८७॥ (५८)


ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास ये चारों अलग-अलग आश्रम गृहस्थाश्रम से ही उत्पन्न हुए हैं॥८७॥


आश्रमधर्मों के पालन से मोक्ष की ओर प्रगति―


सर्वेऽपि क्रमशस्त्वेते यथाशास्त्रं निषेविताः। 

यथोक्तकारिणं विप्रं नयन्ति परमां गतिम्॥८८॥ (५९)


ये सब क्रमानुसार कहे गये पूर्वोक्त ये चारों आश्रम शास्त्रोक्त विधानों के अनुसार पालन करने पर कर्त्तव्यों का यथोक्त विधि से पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज को उत्तम गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कराते हैं॥८८॥


गृहस्थ की श्रेष्ठता―


सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानतः।

गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठः स त्रीनेतान्बिभर्ति हि॥८९॥ (६०)


वेदों और स्मृतियों में अनुसार इन सब आश्रमों में गृहस्थ सबसे श्रेष्ठ है क्योंकि वह इन तीनों का ही भरण-पोषण करता है अर्थात् उत्पत्ति और जीवनयापन की दृष्टि से ये तीनों आश्रम गृहस्थाश्रम पर आश्रित हैं॥८९॥


गृहस्थ समुद्रवत् है―


यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्॥९०॥ (६१)


जैसे सब नदियां और बड़े नद समुद्र में पहुंचकर आश्रय पाते हैं उसी प्रकार सब आश्रम=चारों आश्रम गृहाश्रम में ही आश्रय पाते हैं और उसी के कारण उनकी सत्ता और स्थिति है॥९०॥


चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिर्द्विजैः।

दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः॥९१॥


ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी इन चारों आश्रमस्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्विजों को दश लक्षण वाला अग्रिम धर्म पूरा प्रयत्न करते हुए पालन करना चाहिये॥९१॥ 


धर्म के दश लक्षण―


धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥९२॥ (६३) 


कष्ट या विपत्ति में भी धैर्य बनाये रखना और दुःखी एवं विचलित न होना तथा धर्म पालन में कष्ट आने पर भी धैर्य रखकर पालन करते रहना, दुःखी या विचलित होकर धर्म का त्याग न करना, धर्मपालन के लिए निन्दा-स्तुति, मान-अपमान को सहन करना, ईर्ष्या, लोभ, मोह, वैर आदि अधर्म रूप संकल्पों या विचारों से मन को वश में करके रखना, चोरी, डकैती, झूठ, छल-कपट, भ्रष्टाचार, अन्याय, अधर्माचरण से किसी की वस्तु, धन आदि न लेना, तन और मन की पवित्रता रखना, इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों के अधर्म और आसक्ति से रोककर रखना, बुद्धि की उन्नति करना, मननशील होकर बुद्धिवर्धक उपायों को करना और बुद्धिनाशक नशा आदि न करना, सत्यविद्याओं की प्राप्ति में अधिकाधिक यत्न करके विद्या और ज्ञान की उन्नति करना, मन, वचन, कर्म से सत्य मानना, सत्यभाषण व सत्याचरण करना, आत्मविरुद्ध मिथ्याचरण न करना, क्रोध के व्यवहार और बदले की भावना का त्याग कर शान्ति आदि गुणों को ग्रहण करना, ये दश धर्म के लक्षण हैं। इन गुणों से धर्मपालन की पहचान होती है और ये मनुष्यों को 'धार्मिक है' ऐसा लक्षित=सिद्ध करते हैं। ये धर्म के सर्वसामान्य दश लक्षण हैं॥९२॥


दश लक्षणानि धर्मस्य ये विप्रा समधीयते।

अधीत्य चानुवर्तन्ते ते यान्ति परमां गतिम्॥९३॥ (६४)


धर्म के दश लक्षणों का जो द्विज अध्ययन-मनन करते हैं और अध्ययन-मनन करके इनका पालन करते हैं वे उत्तम गति को प्राप्त करते हैं॥९३॥


आश्रमधर्मों एवं ब्राह्मण धर्मों का उपसंहार―


एष वोऽभिहितो धर्मो ब्राह्मणस्य चतुर्विधः।

पुण्योऽक्षयफलः प्रेत्य राज्ञां धर्मं निबोधत॥९७॥ (६५)


यह, यहां तक इस जन्म में पुण्यरूप और मरने के बाद चिरस्थायी मोक्षसुख को देने वाला ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य द्विजों का ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास सम्बन्धी चार प्रकार का धर्म और ब्राह्मण का वर्णधर्म भी तुमको कहा, अब [शेष वर्णों के धर्मों में] राजाओं और क्षत्रिय वर्ण वालों का धर्म आगे सुनिये―९७॥


इति महर्षि-मनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दी-भाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ वानप्रस्थसंन्यासधर्मविषयकः षष्ठोऽध्यायः॥





अथ षष्ठोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(वानप्रस्थ-संन्यास-धर्म-विषय) 


(वानप्रस्थ-विषय ६.१से ६.३२ तक)


द्विज वानप्रस्थ धारण करें―


एवं गृहाश्रमे स्थित्वा विधिवत्स्नातको द्विजः। 

वने वसेत्तु नियतो यथावद्विजितेन्द्रियः॥१॥ (१)


(स्नातकः द्विजः) ब्रह्मचर्याश्रम के पालनपूर्वक शिक्षा प्राप्त करके स्नातक बना द्विज=ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (एवं विधिवत् गृहाश्रमे स्थित्वा) पूर्वोक्त प्रकार से शास्त्रोक्त विधि के अनुसार गृहाश्रम का पालन करके (यथावत् नियतः विजितेन्द्रियः) आगे कहे हुए नियमों के अनुसार जितेन्द्रिय होकर (वने वसेत्) बन में निवास करे अर्थात् वानप्रस्थ आश्रम को धारण करके वन में रहे॥१॥


द्विजों के वानप्रस्थ धारण का समय―


गृहस्थस्तु यदा पश्येद्वलीपलितमात्मनः। 

अपत्यस्यैव चापत्यं तदाऽरण्यं समाश्रयेत्॥२॥ (२)


(गृहस्थः) गृहस्थ (यदा तु) जब (आत्मनः वली-पलितं पश्येत्) अपने शरीर की त्वचा ढ़ीली होती देखें या सफेद बाल होते देखें (च) और (अपत्यस्य+एव अपत्यम्) पुत्र का भी पुत्र=पोता हुआ देख लें (तदा) उसके पश्चात् (अरण्यं समाश्रयेत्) वन का आश्रय ग्रहण करें अर्थात् वानप्रस्थ धारण कर वन में जाकर रहें॥२॥


वानप्रस्थ धारण की विधि―


सन्त्यज्य ग्राम्यमाहारं सर्वं चैव परिच्छदम्। 

पुत्रेषु भार्यां निक्षिप्य वनं गच्छेत्सहैव वा॥३॥ (३)


वानप्रस्थ धारण करने वाला द्विज (ग्राम्यम्+आहारं च सर्वम् एव परिच्छदम्) गांव के सभी भोज्य पदार्थ और घर के सभी धन-सम्पत्ति, पशु आदि पदार्थ (संत्यज्य) वहीं छोड़कर (भार्यां पुत्रेषु निक्षिप्य) यदि पत्नी साथ न जाना चाहे तो उसे पुत्रों को सौंपकर (वा) अथवा (सह+एव) वह चाहे तो उसे साथ लेकर (वनं गच्छेत्) वन में निवास करने के लिए चला जाये॥३॥


अग्निहोत्रं समादाय गृह्यं चाग्निपरिच्छदम्। 

ग्रामादरण्यं निःसृत्य निवसेन्नियतेन्द्रियः॥४॥ (४)


वानप्रस्थ=धारण करने वाला (अग्निहोत्रं समादाय) अग्निहोत्र आदि पंचमहायज्ञों के अनुष्ठान की सामग्री साथ लेकर [६.५] (च) और (गृह्यं अग्निपरिच्छदम्) गृह्य अग्नि अर्थात् पाचन आदि कार्यों में उपयोगी सारे उपकरण (समादाय) साथ लेकर (ग्रामात् अरण्यं निःसृत्य) गांव को त्याग वन में जा कर (नियतेन्द्रियः निवसेत्) जितेन्द्रिय होकर निवास करे॥४॥


वानप्रस्थ के लिए पञ्चमहायज्ञों का विधान―


मुन्यन्नैर्विविधैर्मेध्यैः शाकमूलफलेन वा। 

एतानेव महायज्ञान्निर्वपेद्विधिपूर्वकम्॥५॥ (५)


वानप्रस्थ (मेध्यैः) पवित्र, (विविधैः मुनि+अन्नैः) मुनियों के द्वारा सेवन किये जाने वाले नीवार आदि अनेक प्रकार के अन्नों से (वा) अथवा (शाक-मूल-फलेन) शाकों, कन्दमूलों, फलों से (एतान्+एव महायज्ञान्) इन्हीं पूर्वोक्त और आगे वर्णित पांच महायज्ञों [ब्रह्मयज्ञ, देवयज्ञ, पितृयज्ञ, अतिथियज्ञ, बलिवैश्वदेव ३.७०-७४, ४.२१] को (विधिपूर्वकं निर्वपेत्) विधिपूर्वक अनुष्ठित करे॥५॥


अतिथि-यज्ञ एवं बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान―


यद्भक्ष्यं स्यात्ततो दद्याद् बलिं भिक्षां य शक्तितः। 

अम्मूलफलभिक्षाभिरर्चयेदाश्रमागतान्॥७॥ (६)


(यत् भक्ष्यं स्यात्) जो भी खाने का भोजन बना हो [६.५] (ततः) उससे ही (बलिं दद्यात्) बलिवैश्वदेव यज्ञ करे (च शक्तितः भिक्षाम्) और यथाशक्ति भिक्षा भी दे (आश्रम+आगतान्) आश्रम में आये अतिथियों को (अप्+मूल-फल-भिक्षाभिः) जल, कन्दमूल, फल आदि प्रदान करके (अर्चयेत्) उनका सत्कार करे॥७॥


ब्रह्मयज्ञ का विधान―


स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्याद्दान्तो मैत्रः समाहितः। 

दाता नित्यमनादाता सर्वभूतानुकम्पकः॥८॥ (७)


वानप्रस्थ (स्वाध्याये नित्ययुक्तः स्यात्) सदा वेदशास्त्रों के अध्ययन तथा ईश्वरोपासना में लगा रहे। (दान्तः) जितेन्द्रिय रहे, (मैत्रः) सबसे मित्रभाव रखे, (समाहितः) धर्मपालन में सावधान रहे, (दाता) विद्या, धन आदि का दान करे, (नित्यम्+अनादाता) कभी किसी से दान न ले, (सर्वभूत+अनुकम्पकः) सब प्राणियों पर कृपा-दया रखे॥८॥ 


अग्निहोत्र का विधान―


वैतानिकं च जुहुयादग्निहोत्रं यथाविधि।

दर्शमस्कन्दयन्पर्व पौर्णमासं च योगतः॥९॥ (८)


वानप्रस्थ (यथाविधि) पूर्वोक्त विधि के अनुसार (अग्निहोत्रम्) दैनिक यज्ञ को (च) और (वैतानिकम्) विशेष अवसरों पर किये जाने वाले बृहत् यज्ञों को (दर्शं च पौर्णमासं पर्व अस्कन्दयन्) अमावस्या और पूर्णिमा आदि पर्वो पर किये जाने पर्वयज्ञों को भी करते हुए (योगतः जुहुयात्) निष्ठापूर्वक आहुति दिया करे॥९॥


विशेष यज्ञों का आयोजन करे―


ऋक्षेष्ट्याग्रयणं चैव चातुर्मास्यानि चाहरेत्। 

तुरायणं च क्रमशो दक्षस्यायनमेव च॥१०॥ (९)


(ऋक्षेष्टि) नक्षत्रयज्ञ (आग्रयणम्) नये अन्न का यज्ञ (च) और (चातुर्मास्यानि) चातुर्मास्य का यज्ञ अथवा वर्षा ऋतुकालीन चार मास तक चलने वाला यज्ञ (च) तथा (क्रमशः तुरायणंच दक्षस्यायनं एव आहरेत्) क्रमशः उत्तरायण और दक्षिणायन, इन अवसरों पर भी विशेष यज्ञों का आयोजन करे॥१०॥


बलिवैश्वदेव यज्ञ का विधान―


वासन्तशारदैर्मेध्यैर्मुन्यन्नैः स्वयमाहृतैः। 

पुरोडाशांश्चरूंश्चैव विधिवन्निर्वपेत्पृथक्॥११॥ (१०)


(वासन्त-शारदैः मेध्यैः स्वयम्+आहृतैः अन्नैः) वसन्त और शरद् ऋतु में प्राप्त होने वाले पवित्र और स्वयं लाये हुए नीवार आदि मुनि-अन्नों से (पुरोडाशान् च चरून् विधिवत् पृथक् निर्वपेत्) पुरोडाश और चरु नामक यज्ञिय हव्यों को विधि अनुसार अलग-अलग तैयार करे॥११॥


देवताभ्यस्तु तद्हुत्वा वन्यं मेध्यतरं हविः। 

शेषमात्मनि युञ्जीत लवणं च स्वयं कृतम्॥१२॥ (११)


(तत् मेध्यतरं वन्यं हविः देवताभ्यः हुत्वा) उस पवित्र, वन के अन्नों से निर्मित हवि को देवताओं [३.८४-९४] के लिये होम कर=आहुति देकर (शेषम्) शेष भोजन को (च) और (स्वयं कृतं लवणम्) अपने लिए बनाये गये लवणयुक्त पदार्थों को (आत्मनि युञ्जीत) अपने खाने के लिए प्रयोग=में लाये॥१२॥


पवित्र भोजन करे―


स्थलजौदकशाकानि पुष्पमूलफलानि च। 

मेध्यवृक्षोद्भवान्यद्यात्स्नेहांश्च फलसम्भवान्॥१३॥ (१२)


(स्थलज+औदक-शाकानि) भूमि और जल में उत्पन्न शाकों को (मेध्यवृक्ष उद्भवानि पुष्प-मूलफलानि) पवित्र वृक्षों से उत्पन्न होने वाले फूल, कन्दमूल और फलों को (च) और (फलसंभवान् स्नेहान्) फलों से प्राप्त होने वाले रसों, [=सूप, जूस आदि] तैलों या अर्कों को (अद्यात्) खाये॥१३॥


अभक्ष्य पदार्थ―


वर्जयेन्मधु मांसं च भौमानि कवकानि च।

भूस्तृणं शिग्रुकं चैव श्लेष्मातकफलानि च॥१४॥ (१३)


(मधु) सब मदकारी मदिरा, भांग आदि पदार्थ (मांसम्) सब प्रकार के मांस (च) और (भौमानि कवकानि) भूमि में उत्पन्न होने वाले कवक=छत्राक=कुकुरमुत्ता (च) और (भूस्तृणम्) भूतृण नामक [=शरवाण] शाक विशेष, (शिग्रुकम्) सफेद सहिंजन (च) और (श्लेष्मातकफलानि) लिसौड़े के फल (वर्जयेत्) इन्हें भोजन में वर्जित रखे अर्थात् कभी न खाये॥१४॥


त्यजेदाश्वयुजे मासि मुन्यन्नं पूर्वसञ्चितम्। 

जीर्णानि चैव वासांसि शाकमूलफलानि च॥१५॥ (१४)


(पूर्वसंचितं मुन्यन्नम्) पहले इकट्ठे किये हुए नीवार आदि मुनि-अन्नों को (च) और (जीर्णानि वासांसि) पुराने वस्त्रों को (च) और (शाकमूलफलानि) पूर्वसंचित शाक, कन्दमूल, फलों को (आश्वयुजे मासि त्यजेत्) आश्विन के महीने में छोड़ देवे अर्थात् नये ग्रहण करे॥१५॥ 


वानप्रस्थ ग्रामोत्पन्न पदार्थ न खाये―


न फालकृष्टमश्नीयादुत्सृष्टमपि केनचित्।

न ग्रामजातान्यार्तोऽपि मूलानि च फलानि च॥१६॥ (१५)


(फालकृष्टम्) हल से जोतने पर भूमि में उत्पन्न पदार्थों को (केनचित् उत्सृष्टम्+अपि) किसी के द्वारा दिये जाने पर भी (च) और (ग्रामजातानि मूलानि च फलानि) ग्राम में जोतकर या उगाकर उत्पन्न किये गये मूल और फलों को (आर्त्तः+अपिन अश्नीयात्) भूख से पीड़ित होते हुए भी न खाये॥१६॥


सांसारिक सुखों में आसक्ति न रखते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करे―


अप्रयत्नः सुखार्थेषु ब्रह्मचारी धराशयः। 

शरणेष्वममश्चैव वृक्षमूलनिकेतनः॥२६॥ (१६)


वानप्रस्थ (सुखार्थेषु अप्रयत्नः) सुखसाधक भोजन, निवास आदि कर्मों में प्रवृत्ति न रखे, (ब्रह्मचारी) ब्रह्मचर्य का पालन करे, (धराशयः) भूमि में शयन करे, (च) और (शरणेषु+अममः) घरों, आवासों में ममत्व न रखे, (वृक्षमूल-निकेतनः एव) वन में वृक्षों के नीचे पर्णकुटी बनाकर निवास करे॥२६॥


तपस्वियों के घरों से भिक्षा का ग्रहण―


तापसेष्वेव विप्रेषु यात्रिकं भैक्षमाहरेत्।

गृहमेधिषु चान्येषु द्विजेषु वनवासिषु॥२७॥ (१७)


(तापसेषु+एव विप्रेषु) वन में तपस्यारत विद्वानों के घरों में (च) और (अन्येषु वनवासिषु गृहमेधिषु द्विजेषु) अन्य वनवासी गृहस्थ या वानप्रस्थ द्विजों के घरों में (यात्रिकं भैक्षम्+आहरेत्) जीवनयात्रा चलाने योग्य भिक्षा प्राप्त कर ले॥२७॥


आत्मशुद्धि के लिए वेदमन्त्रों का मनन-चिन्तन―


एताश्चान्याश्च सेवेत दीक्षा विप्रो वने वसन्। 

विविधाश्चौपनिषदीरात्मसंसिद्धये श्रुतीः॥२९॥ (१८) 


(विप्रः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (वने वसन्) वन में निवास करते हुए (आत्मसंसिद्धये) आत्मोन्नति और परमात्मा की सिद्धि प्राप्त करने के लिए (एताः च अन्याः दीक्षाः) इस प्रकरण में कही और अन्य ब्रह्मचर्य या संन्यास प्रकरणों में कही गयी दीक्षाओं=व्रतात्मक प्रतिज्ञाओं का (च) और (औपनिषदीः विविधाः श्रुतीः) उपनिषद्=परमात्मा के ज्ञान-उपासना विधायक नाना प्रकार की श्रुतियों=वेदमन्त्रों का (सेवेत) सेवन करे अर्थात् चिन्तन-मनन पूर्वक उनको आचरण में लाये॥२९॥


ऋषिभिर्ब्राह्मणैश्चैव गृहस्थैरेव सेविताः।

विद्यातपोविवृद्ध्यर्थं शरीरस्य च शुद्धये॥३०॥ (१९)


(ऋषिभिः ब्राह्मणैः गृहस्थैः एव) ऋषियों, ब्राह्मणों और गृहस्थों ने भी (विद्या+तपः विवृद्ध्यर्थम्) विद्या और तप की वृद्धि के लिए (च) और (शरीरस्य शुद्धये) शरीर की शुद्धि के लिए (सेविताः) इन दीक्षाओं=व्रतों और श्रुतियों=वेदमन्त्रों [६.२९] का सेवन किया है अर्थात् चिन्तन-मनन और आचरण किया है, अत: वानप्रस्थ भी विद्या और तप की वृद्धि के लिए इनका सेवन करे।


आसां महर्षिचर्याणां त्यक्त्वाऽन्यतमया तनुम्।

वीतशोकभयो विप्रो ब्रह्मलोके महीयते॥३२॥ (२०)


(आसां महर्षिचर्याणाम् अन्यतमया तनुं त्यक्त्वा) इन पूर्वोक्त महर्षियों द्वारा पालनीय दिनचर्याओं का पालन करते हुए किसी भी दिनचर्या के अनुसार भी शरीर छूटने पर (वीतशोकभयः विप्रः) शोक और भय से रहित हुआ विद्वान् (ब्रह्मलोके महीयते) मुक्ति में जाकर आनन्द पाता है॥३२॥ 


(संन्यास-धर्म-विषय)


[६.३३ से ६.८५ तक] 


वानप्रस्थ के बाद संन्यास ग्रहण का विधान―


वनेषु च विहृत्यैवं तृतीयं भागमायुषः। 

चतुर्थमायुषो भागं त्यक्त्वा सङ्गान्परिव्रजेत्॥३३॥ (२१)


वानप्रस्थ द्विज अर्थात् ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य [६.१] (एवम्) पूर्वोक्त वानप्रस्थ विधि के अनुसार (वनेषु आयुषः तृतीयं भागं विहृत्य) वनों में आयु का तीसरा भाग अर्थात् सत्तर से पिचहत्तर वर्ष तक व्यतीत करके (आयुषः चतुर्थं भागम्) आयु के चौथे भाग में (संगान् त्यक्त्वा) संसार के सभी पदार्थों एवं प्राणियों में आसक्तिभाव अर्थात् उनकी इच्छा, मोह, ममता को छोड़कर (परिव्रजेत्) संन्यास आश्रम को धारण करे॥३३॥


वानप्रस्थ के पश्चात् संन्यासधारण―


अधीत्य विधिवद्वेदान् पुत्रांश्चोत्पाद्य धर्मतः। 

इष्ट्वा च शक्तितो यज्ञैर्मनो मोक्षे निवेशयेत्॥३६॥ (२२)


द्विज (वेदान् विधिवत् अधीत्य) ब्रह्मचर्याश्रम में वेदों को विधिपूर्वक पढ़कर (च) और (धर्मतः पुत्रान् उत्पाद्य) गृहाश्रम में धर्मानुसार सन्तानों को उत्पन्न करके (शक्तितः यज्ञैः इष्ट्वा) वानप्रस्थ आश्रम में यथाशक्ति यज्ञों से यजन करके (मोक्षे मनः निवेशयेत्) मोक्ष प्राप्ति में मन को लगाये अर्थात् संन्यास आश्रम को धारण करके मोक्षप्राप्ति हेतु यत्न करे॥३६॥


परमात्मा-प्राप्ति हेतु गृहाश्रम से भी संन्यास ले सकता है―


प्राजापत्यां निरूप्येष्टिं सर्ववेदसदक्षिणाम्।

आत्मन्यग्नीन्समारोप्य ब्राह्मणः प्रव्रजेद्गृहात्॥३८॥ (२३)


(ब्राह्मणः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज (सर्ववेदस्-दक्षिणाम्) जिसमें सर्वस्व दक्षिणा में दे दिया जाता है उस (प्राजापत्याम् इष्टिं निरूप्य) 'प्राजापत्य इष्टि' नामक यज्ञ को अनुष्ठित करके (अग्नीन् आत्मनि समारोप्य) गृहस्थ और वानप्रस्थ में प्रयुक्त की जाने वाली गार्हपत्य, आहवनीय, दाक्षिणात्य आदि अग्नियों का बाह्य उपयोग त्याग कर उनके उद्देश्यों को आत्मा में धारण करके अर्थात् पाचन, यजन-याजन आदि कार्य छोड़कर (गृहात् प्रव्रजेत्) गृहस्थ अपना गृह त्यागकर गृहाश्रम से भी संन्यास धारण कर ले॥३८॥


यो दत्त्वा सर्वभूतेभ्यः प्रव्रजत्यभयं गृहात्। 

तस्य तेजोमया लोका भवन्ति ब्रह्मवादिनः॥३९॥ (२४)


(यः) जो द्विज (सर्वभूतेभ्यः अभयं दत्त्वा) सब प्राणियों के लिए अभयदान की घोषणा करके अर्थात् प्राणियों को दु:खों के भय से मुक्त कराने के लिए लोकोपकार करने की प्रतिज्ञा करके (गृहात् प्रव्रजति) वानप्रस्थ गृह=अपना स्थायी आवास त्यागकर अथवा गृहस्थ अपना घर छोड़कर संन्यास ग्रहण करता है (तस्य ब्रह्मवादिनः) उस वेद और ईश्वर के उपदेशक ब्रह्मज्ञानी के (तेजोमयाः लोकाः भवन्ति) लोक-परलोक अर्थात् जन्म-जन्मान्तर अथवा मोक्ष लोक ब्रह्म=ज्ञान एवं परमात्मा के प्रकाश से प्रकाशित होते हैं अर्थात् उसका जीवन, परजन्म ज्ञान और ब्रह्ममय होता है अथवा मोक्षप्राप्ति हो जाती है॥३९॥


यस्मादण्वपि भूतानां द्विजान्नोत्पद्यते भयम्।

तस्य देहाद्विमुक्तस्य भयं नास्ति कुतश्चन॥४०॥ (२५) 


(यस्मात् द्विजात्) जिस द्विज से (भूतानाम् अणु+अपि भयं न+उत्पद्यते) प्राणियों को थोड़ा-सा भी भय नहीं होता, जो सबका उपकारकर्त्ता होता है (तस्य) उसको (देहात् विमुक्तस्य) देह से युक्त होने पर (कुतश्चन भयं न अस्ति) कहीं भी भय=दुःख नहीं रहता अर्थात् वह या तो स्वर्गमय जन्म प्राप्त करता है, या भयादि दुःख रहित मोक्षप्राप्त करता है॥४०॥


वैराग्य होने पर गृहस्थ या ब्रह्मचर्य से सीधा संन्यासग्रहण―


आगारादभिनिष्क्रान्तः पवित्रोपचितो मुनिः।

समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः परिव्रजेत्॥४१॥ (२६)


संन्यास-इच्छुक द्विज (आगारात्+अभिनिष्क्रान्तः) वानप्रस्थ अपना स्थायी आवास अथवा गृहस्थ गृहाश्रम को त्यागकर (मुनिः) वेद, ब्रह्म और जीवन विषयक मननशील होकर (पवित्र+उपचितः) पवित्र संस्कारों एवं कर्मों को धारण करता हुआ और (समुपोढेषु कामेषु निरपेक्षः) अन्तःकरण में संचित सांसारिक कामनाओं-तृष्णाओं को छोड़कर (परिव्रजेत्) संन्यासी बनकर लोकोपकार के लिए विचरण करे॥४१॥


संन्यासी एकाकी विचरण करे―


एक एव चरेन्नित्यं सिद्ध्यर्थमसहायवान्। 

सिद्धिमेकस्य संपश्यन्न जहाति न हीयते॥४२॥ (२७)


संन्यासी (एकस्य सिद्धिम् संपश्यन्) अकेले की ही मुक्ति होती है, इस बात को जानते हुए (सिद्ध्यर्थम्) मोक्षसिद्धि के लिए (असहायवान्) किसी के सहारे या आश्रय की इच्छा से रहित होकर (नित्यम्) सर्वदा (एकः+एव चरेत्) एकाकी ही विचरण करे अर्थात् किसी पुत्र-पौत्र, सम्बन्धी, मित्र आदि का आश्रय न ले और न उनका साथ करे, इस प्रकार रहने से (न जहाति न हीयते) न वह किसी को छोड़ता है, न उसे कोई छोड़ता है अर्थात् वह मोह रहित हो जाता है और मृत्यु के समय बिछुड़ने के दुःख की भावना से रहित हो जाता है, उसे मृत्यु का दुःख नहीं होता॥४२॥


निर्लिप्त भाव से गांवों में भिक्षा ग्रहण करे―


अनग्निरनिकेतः स्यात् ग्राममन्नार्थमाश्रयेत्।

उपेक्षकोऽसंकुसुको मुनिर्भावसमाहितः॥४३॥ (२८)


संन्यासी (अनग्निः) गृहस्थ, वानप्रस्थ में जो आहवनीय, पाकाग्नि आदि अग्नियों में पाक, यज्ञ, बलिवैश्वदेव, अतिथि यज्ञ आदि के अनुष्ठान विहित हैं, उन बाह्य अग्निपरक विधानों से मुक्त हुआ, (अनिकेतः) स्वयं का घर-निवासस्थान आदि न रखता हुआ (स्यात्) जीवन बिताये, और (अन्नार्थं ग्रामम् आश्रयेत्) भोजन के लिए गांवों का आश्रय ले अर्थात् गांवों से भिक्षा मांगकर खाया करे, तथा (उपेक्षकः) बुरों से उदासीनता का व्यवहार रखता हुआ, (असंकुसुकः) स्थिर बुद्धि रहता हुआ (मुनिः) ब्रह्म में मननशील और (भाव समाहितः) ब्रह्म में ही भावना रखता हुआ विचरण करे॥४३॥


जीवन-मरण के प्रति समदृष्टि―


नाभिनन्देत मरणं नाभिनन्देत जीवितम्। 

कालमेव प्रतीक्षेत निर्देशं भृतको यथा॥४५॥ (२९)


संन्यासी (न मरणं अभिनन्देत) न मृत्यु की चिन्ता करे या मृत्यु के दुःख पर विचार करे (न जीवितम् अभिनन्देत) न जीने में आनन्द-मोह का अनुभव करे, (यथा भृतकः निर्देशम्) जैसे भृत्य स्वामी के आदेश की तटस्थ भाव से प्रतीक्षा करता है, उसी प्रकार (कालं प्रतीक्षेत) मृत्यु समय की प्रतीक्षा करता हुआ तटस्थ और निर्लिप्त भाव से जीवन व्यतीत करे॥४५॥


पवित्र एवं सत्य आचरण करे―


दृष्टिपूतं न्यसेत्पादं वस्त्रपूतं जलं पिबेत्। 

सत्यपूतां वेदद्वाचं मनःपूतं समाचरेत्॥४६॥ (३०)


संन्यासी (दृष्टिपूतं पादं न्यसेत्) चलते समय दृष्टि को पवित्र रख कर अर्थात् किसी को हानि न पहुंचाता हुआ सावधान होकर चले, अशुद्धि पर या लघु जीवों पर पैर न रखे, (वस्त्रपूतं जलं पिबेत्) वस्त्र से छानकर पवित्र किया हुआ जल पीये, (सत्यपूतां वाचं वदेत्) सत्य से पवित्र की हुई वाणी ही बोले अर्थात् सत्य ही बोले (मनःपूतं समाचेरत्) मन से पवित्र करके अर्थात् पवित्र संकल्प से प्रत्येक आचरण करे, मिथ्या या अधर्माचरण न करे॥४६॥


अपमान को सहन करे―


अतिवादांस्तितिक्षेत नावमन्येत कञ्चन। 

न चेमं देहमाश्रित्य वैरं कुर्वीत केनचित्॥४७॥ (३१) 


(अतिवादान् तितिक्षेत) कठोर वचनों-आक्षेपों, अवमानना को सहन करले (कंचन न+अवमन्येत) बदले में कभी किसी का तिरस्कार या अपमान न करे (च) और (इमं देहम्+आश्रित्य) इस शरीर का आश्रय लेकर अर्थात् अपने शरीर―मन, वाणी, कर्म से (केनचित् वैरं न कुर्वीत) किसी से कभी वैर न करे॥४७॥


क्रोध आदि न करे―


क्रुद्ध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येदाक्रुष्टः कुशलं वदेत्। 

सप्तद्वारावकीर्णां च न वाचमनृतां वदेत्॥४८॥ (३२)


संन्यासी (क्रुध्यन्तं न प्रतिक्रुध्येत्) लोकोपकार के समय यदि कोई क्रोधपूर्ण आचरण करे तो बदले में क्रोध का आचरण न करे, (आक्रुष्टः कुशलं वदेत्) दूसरे के द्वारा आक्षेप-किये जाने पर भी उससे कल्याण कर वचन बोले (च) और (सप्तद्वार-अवकीर्णाम् अनृतां वाचं न वदेत्) सात द्वारों अर्थात् दो कान, दो आँख, दो नासिकापुट और एक मुख इनमें व्याप्त वाणी को असत्य न बोले अर्थात् इन इन्द्रियों से सम्बन्धित कोई अधर्माचरण या मिथ्याचरण न करे॥४९॥


आध्यात्मिक आचरण में स्थित रहे―


अध्यात्मरतिरासीनो निरपेक्षो निरामिषः। 

आत्मनैव सहायेन सुखार्थी विचरेदिह॥४९॥ (३३)


(इह) इस जीवन या संसार में रहते हुए (अध्यात्मरति:+आसीनः) परमात्मा के प्रेम में मग्न रहता हुआ और उसी की उपासना करता हुआ (निरपेक्षः) किसी की अपेक्षा=आश्रय न चाहता हुआ [६.४२] (निरामिषः) मांस-भोजन से रहित रहकर (आत्मना+एव सहायेन) स्वयं अपनी सहायता अर्थात् कार्य करता हुआ (सुखार्थी) मोक्ष सुख की इच्छा करता हुआ (विचरेत्) विचरण करे॥४९॥


मुण्डनपूर्वक गेरुवे वस्त्र धारण करके रहे―


क्लृप्तकेशनखश्मश्रुः पात्री दण्डी कुसुम्भवान्।

विचरेन्नियतो नित्यं सर्वभूतान्यपीडयन्॥५२॥ (३४)


संन्यासी (नित्यम्) सदैव (क्लृप्त-केश-नख-श्मश्रुः) कटा लिये हैं केश, नाखून, दाढ़ी-मूंछ जिसने ऐसा, अर्थात् दाढ़ी-मूंछ केश मुंडवाकर रहे (पात्री) अपना पात्र साथ रखे हुए (दण्डी) दण्ड धारण किये हुए, (कुसुम्भवान्) केसरिया या गेरवे वस्त्र धारण किये हुए, (नियतः) जितेन्द्रिय रहते हुए (सर्वभूतानि+अपीडयन्) किसी भी प्राणी को पीड़ा न देते हुए (विचरेत्) विचरण करे॥५२॥


एक समय ही भिक्षा मांगे―


एककालं चेरद् भैक्षं न प्रसज्जेत विस्तरे।

भैक्षे प्रसक्तो हि यतिर्विषयेष्वपि सज्जति॥५५॥ (३५)


संन्यासी (एककालं भैक्षं चरेत्) एक ही समय भिक्षा मांगे (विस्तरे न प्रसज्जेत) भिक्षा से अधिक संग्रह अर्थात् लालच में न पड़े (हि) क्योंकि (भैक्षे प्रसक्तः यति) भिक्षा के लालच में या स्वाद में मन लगाने वाला संन्यासी (विषयेषु+अपि सज्जति) इन्द्रियों के अन्य विषयों में भी फंस जाता है॥५५॥


भिक्षा न प्राप्त होने पर दुःख का अनुभव न करे―


अलाभे न विषादी स्याल्लाभे चैव न हर्षयेत्। 

प्राणयात्रिकमात्रः स्यान्मात्रासङ्गाद्विनिर्गतः॥५७॥ (३६)


(अलाभे विषादी न स्यात्) भिक्षा के न मिलने पर दुःखी न हो (च) और (लाभे एव न हर्षयेत्) मिलने पर प्रसन्नता अनुभव न करे (मात्रासंगात् विनिर्गतः) अधिक कम, स्वादिष्ट-अस्वादिष्ट भिक्षा की स्वल्प-अधिक मात्रा का लोभ न करके अर्थात् जैसी भी भिक्षा मिल जाये उसे ग्रहण करके (प्राणयात्रिकमात्रः स्यात्) केवल अपनी प्राणयात्रा को चलाने योग्य भिक्षा प्राप्त करता रहे॥५७॥


प्रशंसा-लाभ आदि से बचे―


अभिपूजितलाभांस्तु जुगुप्सेतैव सर्वशः। अभिपूजितलाभैश्च यतिर्मुक्तोऽपि बद्ध्यते॥५८॥ (३७)


(तु) और (अभिपूजितलाभान्) अधिक आदर-सत्कार से मिलने वाली भिक्षा, सम्मान या अन्य सुखप्रद सभी सांसारिक लाभों से [२.१६२, १६३] (सर्वशः एव जुगुप्सेत) सर्वथा उदासीनता बरते, क्योंकि (मुक्तः+अपि यतिः अभिपूजितलाभैः बद्ध्यते) मुक्त संन्यासी भी अधिक आदर-सत्कार से मिलने वाले सांसारिक लाभों से विषयों और सांसारिक बन्धनों में फंस जाता है॥५८॥ 


इन्द्रियों पर नियन्त्रण रखकर मोक्ष के लिए सामर्थ्य बढ़ाए―


अल्पान्नाभ्यवहारेण रहः स्थानासनेन च। 

ह्रियमाणानि विषयैरिन्द्रियाणि निवर्तयेत्॥५९॥ (३८)


(विषयैः ह्रियमाणानि इन्द्रियाणि) विषयों के द्वारा उनकी ओर आकर्षित होने वाली इन्द्रियों को (अल्प+अन्न+अभ्यवहारेण) थोड़ा भोजन करके (च) और (रहः स्थान+आसनेन) एकान्त स्थान में निवास और उपासना में स्थित होकर (निवर्तयेत्) वश में करे, विषयों की ओर से लौटा दे॥५९॥ 


इन्द्रियाणां निरोधेन रागद्वेषक्षयेण च।

अहिंसया च भूतानाममृतत्वाय कल्पते॥६०॥ (३९)


(इन्द्रियाणां निरोधेन) इन्द्रियों की विषयों में प्रवृत्ति रोकने से (च) और (राग-द्वेष-क्षयेण) मोह और द्वेष के क्षीण होने से (च) और (भूतानाम् अहिंसया) सब प्राणियों के प्रति मन-वचन-कर्म से अहिंसा का आचरण रखने से (अमृतत्वाय कल्पते) मनुष्य मोक्षप्राप्ति में सफल हो जाता है॥६०॥


मनुष्य-जीवन की दुःखमय गति-स्थितियाँ और उनका चिन्तन― 


अवेक्षेत गतीर्नॄणां कर्मदोषसमुद्भवाः। 

निरये चैव पतनं यातनाश्च यमक्षये॥६१॥ (४०)


(कर्मदोषसमुद्भवाः नॄणां गतीः) कर्मों के दोष से होने वाली मनुष्यों की कष्टयुक्त बुरी गतियों को (च) और (निरये पतनम्) कष्टरूपी नरक में जीवन बिताने को (च) तथा (यमक्षये यातनाः) प्राणक्षय में मृत्यु के समय होने वाली पीड़ाओं को (अवेक्षेत) गम्भीरता से विचारे और विचारकर जन्म-मरण के दुःख से रहित मुक्ति के लिए प्रयत्न करे॥६१॥ 


विप्रयोगं प्रियैश्चैव संयोगं च तथाऽप्रियैः। 

जरया चाभिभवनं व्याधिभिश्चोपपीडनम्॥६२॥ 

देहादुत्क्रमणं चास्मात्पुनर्गर्भे च सम्भवम्। 

योनिकोटिसहस्रेषु सृतीश्चास्यान्तरात्मनः॥६३॥ (४१, ४२)


(च) और (प्रियैः विप्रयोगम्) प्रियजनों से वियोग हो जाना (तथा अप्रियैः संयोगम्) तथा शत्रुओं से सम्पर्क होना और उससे फिर कष्टप्राप्ति होना (च) और (जरया अभिभवनम्) बुढ़ापे से आक्रान्त होना (च) तथा (व्याधिभिः उपपीडनम्) रोगों से पीड़ित होना (च) और (अस्मात् देहात्+उत्क्रमणम्) फिर इस शरीर से जीव का निकल जाना (गर्भे पुनः सम्भवम्) गर्भ में पुनः जन्म लेना (च) और इस प्रकार (अस्य+अन्तरात्मनः) इस जीव का (योनिकोटिसहस्त्रेषु सृतीः) सहस्त्रों प्रकार की अर्थात् अनेकविध योनियों में आवागमन होना—इनको विचारे और इनके कष्टों को देखकर मुक्ति के लिए प्रयत्न करे॥६२, ६३॥


अधर्म से दुःख और धर्म से सुख-प्राप्ति―


अधर्मप्रभवं चैव दुःखयोगं शरीरिणाम्। 

धर्मार्थप्रभवं चैव सुखसंयोगमक्षयम्॥६४॥ (४३)


(शरीरिणां दुःखयोगं अधर्मप्रभवम् एव) यह निश्चित है कि प्राणियों को सभी प्रकार के दुःख अधर्म से ही मिलते हैं (च) और (अक्षयं सुखसंयोगं धर्मार्थप्रभवम् एव) अक्षयसुखों=मोक्ष की अवधि तक रहने वाले सुखों की प्राप्ति केवल धर्म मूल वाले कर्मों से ही होती है। इसको भी विचारे और तदनुसार धर्माचारण करे॥६४॥


योग से परमात्मा का प्रत्यक्ष करे―


सूक्ष्मतां चान्ववेक्षेत योगेन परमात्मनः।

देहेषु च समुत्पत्तिमुत्तमेष्वधमेषु च॥६५॥ (४४)


(च) और (योगेन परमात्मनः सूक्ष्मताम्) योगाभ्यास से परमात्मा की सूक्ष्मता=सर्वव्यापकता को (च) तथा (उत्तमेषु च अधमेषु देहेषु समुत्पत्तिम्) उत्तम तथा अधम शरीरों में जीव की जन्मप्राप्ति के विषय में (अनु-अवेक्षेत) गम्भीरता से चिन्तन करे और उसी के अनुसार अनुकूल उपाय किया करे॥६५॥


दूषित आदि प्रत्येक अवस्था में धर्म का पालन आवश्यक―


दूषितोऽपि चरेद्धर्मं यत्र तत्राश्रमे रतः। 

समः सर्वेषु भूतेषु न लिङ्गं धर्मकारणम्॥६६॥ (४५)


मनुष्य (यत्र तत्र+आश्रमे रतः) किसी भी आश्रम में स्थित रहते हुए (दूषितः+अपि) दूषित स्थिति में भी, अथवा लोगों के द्वारा दोषों से आरोपित या निन्दित किये जाने पर भी (धर्मं चरेत्) धर्म का पालन करे अर्थात् दुःखी होकर या किसी भी दूषित स्थिति में धार्मिक कर्त्तव्यों का त्याग न करे और (सर्वेषु भूतेषु समः) सब मनुष्यों से भेदभाव रहित होकर समानता का व्यवहार करे। [इस तथ्य को भलीभांति समझ लें कि] (लिङ्गं धर्मकारणं न) बाह्य चिह्न गेरुवे वस्त्र, वेशभूषा, केश, दण्ड, कमण्डलु आदि धर्मसंचय का कारण=आधार नहीं हैं अर्थात् बाह्य चिह्न तो किसी धर्म की और आश्रम की पहचान मात्र हैं। बाह्य चिह्नों को धारण करके यह न समझें कि मैं धर्म का पालन कर रहा हूं या मेरा आश्रम सफल है। वास्तविक फल तो धर्म या आश्रम-धर्म के पालन से मिलता है, अतः धर्माचरण को मुख्य मानें। आचरण के बिना बाह्य चिह्न पाखण्ड मात्र हैं॥६६॥


धर्माचरण के बिना बाहरी दिखावे से श्रेष्ठ फल नहीं―


फलं कतकवृक्षस्य यद्यप्यम्बुप्रसादकम्। 

न नामग्रहणादेव तस्य वारि प्रसीदति॥६७॥ (४६)


जैसे (यद्यपि कतकवृक्षस्य फलम् अम्बुप्रसादकम्) यद्यपि कतक=निर्मली वृक्ष का रीठा नामक फल जल को स्वच्छ करने वाला होता है, तथापि (तस्य नाम-ग्रहणात्+एव) उस रीठा का नाम लेने मात्र से (वारिन प्रसीदति) जल स्वच्छ नहीं हो जाता। उसी प्रकार किसी धर्म या आश्रम का नाम लेने या बाह्य चिह्न धारण करने मात्र से कोई धार्मिक नहीं कहाता, उसका आश्रम-धारण सफल नहीं माना जा सकता। वस्तुतः, फल तो धर्माचरण से ही मिलता है॥६७॥


प्राणायाम अवश्य करे―


प्राणायामा ब्राह्मणस्य त्रयोऽपि विधिवत्कृताः। 

व्याहृतिप्रणवैर्युक्ता विज्ञेयं परमं तपः॥७०॥ (४७)


(ब्राह्मण्यस्य) ब्राह्मण अर्थात् ब्रह्मवित् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य व्यक्ति या संन्यासी के द्वारा जो (विधिवत्) विधि के अनुसार (व्याहतिः प्रणवैः युक्ताः) प्रणव अर्थात् ओङ्कारपूर्वक और 'भू:, भुवः, स्वः' आदि सप्तव्याहृतियों के जप सहित (त्रयः+अपि) शक्ति के अनुसार तीनों प्रकार के बाह्य, आभ्यन्तर, और स्तम्भक, प्राणायाम, अथवा न्यून से न्यून तीन प्राणायाम (कृताः) किये जाते हैं, (परमं तपः विज्ञेयम्) वह इसका परम=उत्तम तप होता है॥७०॥


प्राणायाम से इन्द्रियों के दोषों का क्षय―


दह्यन्ते ध्मायमानानां धातूनां हि यथा मलाः। 

तथेन्द्रियाणां दह्यन्ते दोषाः प्राणस्य निग्रहात्॥७१॥ (४८)


(यथा) जैसे (ध्मायमानानां धातूनां मलाः दह्यन्ते) धौंकने से=आग में तपाने और गलाने से सोना, चांदी आदि धातुओं के मल नष्ट हो जाते हैं (तथा हि) उसी प्रकार, निश्चय ही (प्राणस्य निग्रहात्) प्राणों को रोकने-वश में करने से (इन्द्रियाणां दोषाः दह्यन्ते) मन, आंख, कान आदि इन्द्रियों के विषय-दोष और व्याधि-दोष नष्ट हो जाते हैं अर्थात् इन्द्रियां वश में होती हैं और उनके रोग मिट जाते हैं॥७१॥


प्राणायाम, धारणा, प्रत्याहार से दोषों का क्षय―


प्राणायामैर्दहेद्दोषान् धारणाभिश्च किल्बिषम्। 

प्रत्याहारेण संसर्गान् ध्यानेनानीश्वरान्गुणान्॥७२॥ (४९)


मनुष्य (प्राणायामैः दोषान्) प्राणायामों के द्वारा इन्द्रियों के विषय सम्बन्धी और व्याधि-दोषों को (च) और (धारणाभिः किल्बिषम्) मन की एकाग्रतापूर्वक संकल्प करने से मन की पापभावनाओं को (प्रत्याहारेण संसर्गान्) मन को इन्द्रियों के विषय से हटाकर नियन्त्रण में करने से इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न होने वाले दोषों को (च) और (ध्यानेन+अनीश्वरान् गुणान्) ईश्वर में मन को एकाग्र कर उसकी उपासना से ईश्वर-भिन्न अज्ञान, अविद्या, लोभ, पक्षपात आदि दोषों को (दहेत्) भस्म करे॥७२॥


ध्यान से परमात्मा की गति का ज्ञान―


उच्चावचेषु भूतेषु दुर्जेयामकृतात्मभिः। 

ध्यानयोगेन सम्पश्येद्गतिमस्यान्तरात्मनः॥७३॥ (५०)


(उच्च+अवचेषु भूतेषु) बड़े-छोटे अर्थात् संसार के सभी प्राणियों और पदार्थों में विद्यमान और (अकृतात्मभिः दुर्जेयाम्) अज्ञानी या अशुद्ध-आत्मा वालों के द्वारा जो जानने योग्य नहीं है (अस्य अन्तरात्मनः गतिम्) उस अन्तर्यामी परमात्मा की सत्ता एवं व्यापकता को [६.६५] (ध्यानयोगेन सम्पश्येत्) ध्यान रूप योगाभ्यास के द्वारा देखे, अनुभव करे॥७३॥


यथार्थ ज्ञान से कर्मबन्धन का विनाश―


सम्यग्दर्शनसम्पन्नः कर्मभिर्न निबद्ध्यते।

दर्शनेन विहीनस्तु संसारं प्रतिद्यते॥७४॥ (५१)


(सम्यक् दर्शनसम्पन्नः) जिसने भलीभांति परमात्मा का अनुभव वा साक्षात्कार कर लिया है [६.७३] वह (कर्मभिः+न निबद्धयते) सांसारिक कर्मों के बंधन में नहीं बंधता अर्थात् कर्मबन्धन से मुक्त होकर जन्म-मरण के चक्र से छूटकर मोक्ष प्राप्त कर लेता है (तु) किन्तु (दर्शनेन विहीनः) जो परमात्मा के अनुभव और दर्शन से रहित है, वह (संसारं प्रतिपद्यते) संसार में जन्म ग्रहण करता रहता है अर्थात् जन्म-मरण और दु:खों को झेलता रहता है॥७४॥


अहिंसा आदि वैदिक कर्मों से परमात्मा पद की प्राप्ति―


अहिंसयेन्द्रियासङ्गैर्वैदिकैश्चैव कर्मभिः।

तपसश्चरणैश्चोग्रैः साधयन्तीह तत्पदम्॥७५॥ (५२)


(अहिंसा) सब प्राणियों के साथ मन-वचन-कर्म के द्वारा अहिंसा का व्यवहार करने से (च) और (वैदिकैः कर्मभिः) वेदोक्त कर्मों के आचरण से (च) और (उग्रैः तपसश्चरणैः) कठोर द्वन्द्वसहनों, व्रतों के पालन से (इह) इस जन्म में संन्यासी या साधक जन (तत् पदं साधयन्ति) उस मोक्ष पद को सिद्ध करते हैं॥७५॥


निःस्पृहता से सुख एवं मोक्षप्राप्ति―


यदा भावेन भवति सर्वभावेषु निःस्पृहः। 

तदा सुखमवाप्नोति प्रेत्य चेह च शाश्वतम्॥८०॥ (५३)


(यदा) जब संन्यासी (भावेन सर्वभावेषु निस्पृहः भवति) वास्तविक रूप से सब भावनाओं में आकांक्षारहित या निर्लिप्त हो जाता है (तदा) तब (इह च प्रेत्य) इस जन्म में और परलोक में अर्थात् मुक्ति में (शाश्वतं सुखम्+अवाप्नोति) चिरस्थायी सुख को प्राप्त करता है॥८०॥


परमात्मा में अधिष्ठान―


अनेन विधिना सर्वांस्त्यक्त्वा संगाञ्छनैः शनैः। 

सर्वद्वन्द्वविनिर्मुक्तो ब्रह्मण्येवावतिष्ठते॥८१॥ (५४)


संन्यासी (अनेन विधिना) पूर्वोक्त विधि के अनुसार (सर्वान् संगान्) सब इन्द्रियों के संसर्ग से उत्पन्न दोषों को अथवा संसार-संसर्गज दोषों को (शनैः शनैः त्यक्त्वा) सावधानीपूर्वक छोड़कर (सर्वद्वन्द्व विनिर्मुक्तः) सब सांसारिक सुख-दुःखों से पृथक् होकर (ब्रह्मणि+एव+अवतिष्ठते) ब्रह्म में ही स्थित हो जाता है॥८१॥


ध्यानिकं सर्वमेवैतद्यदेतदभिशब्दितम्। 

न ह्यनध्यात्मवित्कश्चित्क्रियाफलमुपाश्नुते॥८२॥ (५५)


(यत्+एतत् +अभिशब्दितम्) यह जो कुछ पहले कहा गया है (एतत् सर्वम्+एव ध्यानिकम्) यह सब ध्यानयोग के द्वारा सिद्ध होने वाला है (अन्+अध्यात्मवित् कश्चित्) अध्यात्मज्ञान से रहित कोई भी व्यक्ति (क्रियाफलं न हि उपाश्नुते) उपर्युक्त कर्मों के फल को नहीं पा सकता॥८२॥


परमात्मा ही सुख का स्थान है―


इदं शरणमज्ञानामिदमेव विजानताम्।

इदमन्विच्छतां स्वर्गमिदमानन्त्यमिच्छताम्॥८४॥ (५६)


(इदम् अज्ञानां शरणम्) परमात्मा ही अज्ञानियों=स्वल्पज्ञानी साधकों का भी आश्रय है और (इदम्+एव विजानताम्) यही महाज्ञानी साधकों―संन्यासियों का भी आश्रय है (इदं स्वर्गम्+अन्विच्छताम्) यही सुख की इच्छा करने वालों का आश्रय है (इदम्+आनन्त्यम्+इच्छताम्) यही अनन्त अर्थात् चिरस्थायी मोक्षसुख को चाहने वालों का आश्रय स्थान है॥८४॥


उपसंहार―


अनेन क्रमयोगेन परिव्रजति यो द्विजः। 

स विधूयेह पाप्मानं परं ब्रह्माधिगच्छति॥८५॥ (५७)


(यः द्विजः) जो द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (अनेन क्रमयोगेन) पूर्वोक्त विधि-विधान के अनुसार (परिव्रजति) संन्यासी बनकर विचरण करता है, संन्यासी-धर्म का पालन करता है (सः) वह (पाप्मानम् इह विधूय) सब पापभावों को इस संसार में ही भस्म करके (परं ब्रह्म+अधिगच्छति) परब्रह्म को प्राप्त कर लेता है, उसकी शरण में जाकर मोक्ष को प्राप्त कर लेता है॥८५॥


आश्रम-धर्मों की समाप्ति पर उपसंहार―


ब्रह्मचारी गृहस्थश्च वानप्रस्थो यतिस्तथा।

एते गृहस्थप्रभवाश्चत्वारः पृथगाश्रमाः॥८७॥ (५८)


(ब्रह्मचारी गृहस्थः वानप्रस्थ तथा यतिः) ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यास (एते चत्वारः पृथक् आश्रमाः) ये चारों अलग-अलग आश्रम (गृहस्थप्रभवाः) गृहस्थाश्रम से ही उत्पन्न हुए हैं॥८७॥


आश्रमधर्मों के पालन से मोक्ष की ओर प्रगति―


सर्वेऽपि क्रमशस्त्वेते यथाशास्त्रं निषेविताः। यथोक्तकारिणं विप्रं नयन्ति परमां गतिम्॥८८॥ (५९)


(एते सर्वे+अपि क्रमशः यथाशास्त्रं निषेविताः) ये सब क्रमानुसार कहे गये पूर्वोक्त ये चारों आश्रम शास्त्रोक्त विधानों के अनुसार पालन करने पर (यथा+उक्तकारिणं विप्रम्) कर्त्तव्यों का यथोक्त विधि से पालन करने वाले ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य द्विज को (परमां गतिं नयन्ति) उत्तम गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त कराते हैं॥८८॥


गृहस्थ की श्रेष्ठता―


सर्वेषामपि चैतेषां वेदस्मृतिविधानतः।

गृहस्थ उच्यते श्रेष्ठः स त्रीनेतान्बिभर्ति हि॥८९॥ (६०)


(वेद-स्मृतिविधानतः) वेदों और स्मृतियों में अनुसार (एषां सर्वेषाम्+अपि) इन सब आश्रमों में (गृहस्थः श्रेष्ठ: उच्यते) गृहस्थ सबसे श्रेष्ठ है (हि) क्योंकि (सः) वह (एतान् त्रीन् बिभर्ति) इन तीनों का ही भरण-पोषण करता है अर्थात् उत्पत्ति और जीवनयापन की दृष्टि से ये तीनों आश्रम गृहस्थाश्रम पर आश्रित हैं॥८९॥


गृहस्थ समुद्रवत् है―


यथा नदीनदाः सर्वे सागरे यान्ति संस्थितिम्।

तथैवाश्रमिणः सर्वे गृहस्थे यान्ति संस्थितिम्॥९०॥ (६१)


(यथा) जैसे (सर्वे नदी-नदाः) सब नदियां और बड़े नद (सागरे संस्थितिं यान्ति) समुद्र में पहुंचकर आश्रय पाते हैं (तथैव) उसी प्रकार (सर्वे आश्रमिणः) सब आश्रम=चारों आश्रम (गृहस्थे संस्थितिं यान्ति) गृहाश्रम में ही आश्रय पाते हैं और उसी के कारण उनकी सत्ता और स्थिति है॥९०॥


चतुर्भिरपि चैवैतैर्नित्यमाश्रमिभिर्द्विजैः।

दशलक्षणको धर्मः सेवितव्यः प्रयत्नतः॥९१॥


(एतैः चतुर्भिः+अपि आश्रमिभिः+द्विजैः) ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यासी इन चारों आश्रमस्थ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, द्विजों को (दशलक्षणकः धर्मः) दश लक्षण वाला अग्रिम धर्म (प्रयत्नतः सेवितव्यः) पूरा प्रयत्न करते हुए पालन करना चाहिये॥९१॥ 


धर्म के दश लक्षण―


धृतिः क्षमा दमोऽस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः।

धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मलक्षणम्॥९२॥ (६३) 


(धृतिः) कष्ट या विपत्ति में भी धैर्य बनाये रखना और दुःखी एवं विचलित न होना तथा धर्म पालन में कष्ट आने पर भी धैर्य रखकर पालन करते रहना, दुःखी या विचलित होकर धर्म का त्याग न करना, (क्षमा) धर्मपालन के लिए निन्दा-स्तुति, मान-अपमान को सहन करना, (दमः) ईर्ष्या, लोभ, मोह, वैर आदि अधर्म रूप संकल्पों या विचारों से मन को वश में करके रखना, (अस्तेयम्) चोरी, डकैती, झूठ, छल-कपट, भ्रष्टाचार, अन्याय, अधर्माचरण से किसी की वस्तु, धन आदि न लेना, (शौचम्) तन और मन की पवित्रता रखना, (इन्द्रियनिग्रहः) इन्द्रियों को अपने-अपने विषयों के अधर्म और आसक्ति से रोककर रखना, (धीः) बुद्धि की उन्नति करना, मननशील होकर बुद्धिवर्धक उपायों को करना और बुद्धिनाशक नशा आदि न करना, (विद्या) सत्यविद्याओं की प्राप्ति में अधिकाधिक यत्न करके विद्या और ज्ञान की उन्नति करना, (सत्यम्) मन, वचन, कर्म से सत्य मानना, सत्यभाषण व सत्याचरण करना, आत्मविरुद्ध मिथ्याचरण न करना, (अक्रोधः) क्रोध के व्यवहार और बदले की भावना का त्याग कर शान्ति आदि गुणों को ग्रहण करना, (दशकं धर्मलक्षणम्) ये दश धर्म के लक्षण हैं। इन गुणों से धर्मपालन की पहचान होती है और ये मनुष्यों को 'धार्मिक है' ऐसा लक्षित=सिद्ध करते हैं। ये धर्म के सर्वसामान्य दश लक्षण हैं॥९२॥


दश लक्षणानि धर्मस्य ये विप्रा समधीयते।

अधीत्य चानुवर्तन्ते ते यान्ति परमां गतिम्॥९३॥ (६४)


(धर्मस्य दशलक्षणानि) धर्म के दश लक्षणों का (ये विप्राः) जो द्विज (सम्+अधीयते) अध्ययन-मनन करते हैं (च) और (अधीत्य) अध्ययन-मनन करके (अनुवर्तन्ते) इनका पालन करते हैं (ते) वे (परमां गतिं यान्ति) उत्तम गति को प्राप्त करते हैं॥९३॥


आश्रमधर्मों एवं ब्राह्मण धर्मों का उपसंहार―


एष वोऽभिहितो धर्मो ब्राह्मणस्य चतुर्विधः।

पुण्योऽक्षयफलः प्रेत्य राज्ञां धर्मं निबोधत॥९७॥ (६५)


(एषः) यह, यहां तक (पुण्यः) इस जन्म में पुण्यरूप और (प्रेत्य अक्षयफलः) मरने के बाद चिरस्थायी मोक्षसुख को देने वाला (ब्राह्मणस्य चतुर्विधः धर्मः) ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य द्विजों का ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास सम्बन्धी चार प्रकार का धर्म और ब्राह्मण का वर्णधर्म भी (वः-अभिहितः) तुमको कहा, अब [शेष वर्णों के धर्मों में] (राज्ञां धर्मं निबोधत) राजाओं और क्षत्रिय वर्ण वालों का धर्म आगे सुनिये―९७॥


इति महर्षि-मनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दी-भाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ वानप्रस्थसंन्यासधर्मविषयकः षष्ठोऽध्यायः॥




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