विशुद्ध मनुस्मृतिः― सप्तम अध्याय
अथ सप्तमोऽध्यायः
सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता
(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)
(राजधर्म विषय ७.१ से ९.३३६ तक)
राजा की नियुक्ति एवं सिद्धि (७.१ से ७.३५ तक)―
राजधर्मान् प्रवक्ष्यामि यथावृत्तो भवेन्नृपः।
संभवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथा॥१॥ (१)
ब्राह्मण वर्ण और साथ-साथ चारों आश्रमों के कर्त्तव्य कहने के पश्चात् अब मैं राजा के और क्षत्रिय वर्ण के कर्त्तव्यों को और राजा का जैसा आचरण होना चाहिए, उसका चयन या नियुक्ति जिस प्रकार होनी चाहिए, और जिस प्रकार उसको अपने कार्यों में अधिकाधिक सफलता प्राप्त हो वह सब आगे कहूंगा॥१॥
ब्राह्मं प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि।
सर्वस्यास्य यथान्यायं कर्त्तव्यं परिरक्षणम्॥२॥ (२)
शास्त्रोक्त विधि के अनुसार उपनयन संस्कार कराके ब्रह्मचर्य पूर्वक क्षत्रिय वर्ण के लिए निर्धारित शिक्षा प्राप्त किये हुए क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को अपने राज्य और जनता की न्याय के अनुसार सब प्रकार की सुरक्षा करनी चाहिए॥२॥
राजा बनने की आवश्यकता―
अराजके हि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुते भयात्।
रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत्प्रभुः॥३॥ (३)
क्योंकि राजा के बिना इस जगत् में सब ओर भय और अराजकता फैल जाने के कारण, अर्थात् राजा के बिना असुरक्षा और अराजकता हो जाती है अतः इस सब राज्य और जनता की सुरक्षा के लिए प्रभु ने 'राजा' पद को बनाया है अर्थात् राजा बनाने की प्रेरणा वेदों के द्वारा मानवों को दी है॥३॥
राजा के आठ विशिष्ट गुण―
इन्द्राऽनिलयमार्काणामग्नेश्च वरुणस्य च।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निहत्य शाश्वतीः॥४॥ (४)
उस राजा के पद को विद्युत्, वायु, यम, सूर्य, अग्नि और जल, चन्द्र तथा कुबेर=धनाध्यक्ष इनकी स्वाभाविक मात्राओं अर्थात् गुणों को ग्रहण करके बनाया है, अर्थात् राजा को विद्युत् के समान समृद्धि कर्त्ता, वायु के समान राज्य की सब स्थितियों का ज्ञाता, यम=ईश्वर के समान न्यायकारी, सूर्य के समान अज्ञाननाशक और कर ग्रहणकर्त्ता, अग्नि के समान पाप-अपराध नाशक, जल के समान अपराधियों का बन्धनकर्ता, चन्द्र के समान प्रसन्नता-दाता और धनाध्यक्ष के समान पालन-पोषणकर्ता होना चाहिए॥४॥
राजा दिव्यगुणों के कारण प्रभावशाली―
यस्मादेषां सुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः।
तस्मादभिभवत्येष सर्वभूतानि तेजसा॥५॥ (५)
क्योंकि इन पूर्वोक्त शक्तिशाली इन्द्र आदि देवताओं=दिव्य पदार्थों के सारभूत गुणों के अंश से 'राजा' पद को बनाया है इसीलिए यह राजा अपने तेज=शक्ति के प्रभाव से सब प्राणियों को वशीभूत एवं नियन्त्रित रखता है॥५॥
तपत्यादित्यवच्चैष चक्षूंषि च मनांसि च।
न चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम्॥६॥ (६)
यह राजा जैसे सूर्य लोगों की आंखों और मनों को अपने तेज से सन्तप्त करता है उसी प्रकार अपने प्रभाव से प्रभावित रखता है, प्रभावशाली होने के कारण राजा को पृथिवी पर कोई भी कठोर दृष्टि से देखने में समर्थ नहीं होता अर्थात् आंखें नहीं दिखा सकता॥६॥
सोऽग्निर्भवति वायुश्च सोऽर्कः सोमः स धर्मराट्।
स कुबेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः॥७॥ (७)
वह राजा अपने प्रभाव=सामर्थ्य के कारण अग्नि के समान दुष्टों=अपराधियों का विनाश करने वाला और वायु के समान गुप्तचरों द्वारा सर्वत्र गतिशील होकर राज्य की प्रत्येक स्थिति की जानकारी रखने वाला सूर्य द्वारा किरणों से जलग्रहण करने के समान कष्टरहित कर=टैक्स ग्रहण करने वाला अथवा प्रजा के अज्ञान अविद्या का नाशक चन्द्रमा के समान शान्ति–प्रसन्नता देने वाला न्यायानुसार दण्ड देने वाला ऐश्वर्यप्रद परमेश्वर के समान समभाव से प्रजा का पालन-पोषण करने वाला जलीय तरंगों या भंवरों के समान अपराधियों और शत्रुओं को बन्धनों या कारागार में डालने वाला और वही वर्षाकारक शक्ति इन्द्र के समान सुख-सुविधा का वर्षक=प्रदाता है॥७॥
तस्माद्धर्मं यमिष्टेषु स व्यवस्येन्नराधिपः।
अनिष्टं चाप्यनिष्टेषु तं धर्मं न विचालयेत्॥१३॥ (८)
इसलिए वह राजा जिस धर्म अर्थात् कानून का पालनीय विषयों में आवश्यकता-अनुसार निर्धारण करे और अपालनीय विषयों में जिसका निषेध करे उस धर्म अर्थात् कानून व्यवस्था का उल्लंघन कोई न करे॥१३॥
दण्ड की सृष्टि और उपयोग विधि―
तस्यार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्ममात्मजम्।
ब्रह्मतेजोमयं दण्डमसृजत् पूर्वमीश्वरः॥१४॥ (९)
उस राजा के प्रयोग के लिए सृष्टि के प्रारम्भ से ही ईश्वर ने सब प्राणियों की सुरक्षा करने वाले ब्रह्मतेजोमय अर्थात् शिक्षाप्रद और अपराधनाशक गुण वाले धर्म-स्वरूपात्मक=न्याय के प्रतीक दण्ड को रचा अर्थात् दण्ड देने की व्यवस्था का विधान किया है और उसे यह अधिकार वेदों में दिया है॥१४॥
तं देशकालौ शक्तिं च विद्यां चावेक्ष्य तत्त्वतः।
यथार्हतः सम्प्रणयेन्नरेष्वन्यायवर्तिषु॥१६॥ (१०)
देश, समय, शक्ति और न्याय अर्थात् अपराध के अनुसार न्यायोचित दण्ड का ज्ञान, इन सब बातों को ठीक-ठीक विचार कर अन्याय का आचरण करने वाले लोगों में उस दण्ड को यथायोग्य रूप में प्रयुक्त करे॥१६॥
दण्ड का महत्त्व―
स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः। चतुर्णामाश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः॥१७॥ (११)
जो दण्ड है वही पुरुष, राजा वही न्याय का प्रचारकर्त्ता और सबका शासनकर्त्ता वही चार वर्ण और चार आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिन् [=जिम्मेदार] है॥१७॥
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः॥१८॥ (१२)
वास्तव में दण्ड=दण्डविधान ही सब प्रजाओं पर शासन करता है और उन्हें अनुशासन में रखता है दण्ड ही प्रजाओं की सब ओर से [दुष्टों आदि से] रक्षा करता है सोती हुई प्रजाओं में दण्ड ही जागता रहता है अर्थात् असावधानी प्रमाद और एकान्त में होने वाले अपराधों के समय दण्ड का ध्यान ही उन्हें भयभीत करके उनसे रोकता है, दण्ड का भय एक ऐसा भय है जो सोते हुए भी रक्षक बना रहता है, इसीलिए बुद्धिमान् लोग दण्ड=न्यायोचित दण्ड-विधान को राजा का प्रमुख धर्म मानते हैं॥१८॥
न्यायानुसार दण्ड ही हितकारी―
समीक्ष्य स धृतः सम्यक् सर्वा रञ्जयति प्रजाः।
असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वतः॥१९॥ (१३)
वह दण्ड भली-भांति विचारकर प्रयुक्त करने पर सब लोगों को प्रसन्न-सन्तुष्ट रखता है, किन्तु बिना विचारे अर्थात् अन्यायपूर्वक प्रयुक्त करने पर राजा का सभी प्रकार का विनाश कर देता है॥१९॥
दुष्येयुः सर्ववर्णाश्च भिद्येरन् सर्वसेतवः।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्॥२४॥ (१४)
दण्ड के यथायोग्य और न्यायानुसार प्रयोग न होने पर चारों वर्णों की व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगी, सब मर्यादाएँ छिन्न-भिन्न हो जायेंगी, और राज्य के सब लोगों में आक्रोश उत्पन्न हो जायेगा॥२४॥
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधु पश्यति॥२५॥ (१५)
जिस राज्य में श्यामवर्ण और रक्तनेत्र अर्थात् स्मरणमात्र से ही भयकारी और देखने मात्र से ही पाप-अपराध से दूर रखने वाला दण्ड प्रयुक्त होता है, यदि राज्य का संचालक राजा भलीभांति विचारकर दण्ड का प्रयोग करता है तो उस राज्य में प्रजाएँ कभी कर्त्तव्य में प्रमाद नहीं करती॥२५॥
दण्ड देने का अधिकारी राजा कौन―
तस्याहुः संप्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम्।
समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम्॥२६॥ (१६)
उस दण्ड के प्रयोग करने वाले राजा और राजपुरुष में जो गुण होने चाहियें, उनको कहते हैं कि वह सत्य बोलने वाला हो, भलीभांति विचार करके ही दण्डविधान का प्रयोग करने वाला हो, दण्ड-विधान का विद्वान् और विशेषज्ञ हो, धर्म, काम और अर्थ के सही स्वरूप का ज्ञाता हो॥२६॥
अन्यायपूर्वक दण्डप्रयोग राजा का विनाशक―
कतं राजा प्रणयन् सम्यक् त्रिवर्गेणाभिवर्द्धते।
कामात्मा विषमः क्षुद्रो दण्डेनैव निहन्यते॥२७॥ (१७)
उस दण्ड को भलीभांति विचारकर न्यायानुसार प्रयोग करने वाला राजा धर्म, अर्थ और कामनाओं से भरपूर बढ़ता है, और जो विषय-वासना में संलिप्त है, किसी के साथ न्याय और किसी के साथ अन्याय करता है, विचार और ज्ञान से रहित है, वह उस अन्याययुक्त दण्ड से ही विनाश को प्राप्त हो जाता है॥२७॥
दण्डो हि सुमहत्तेजो दुर्धरश्चाकृतात्मभिः।
धर्माद्विचलितं हन्ति नृपमेव सबान्धवम्॥२८॥ (१८)
दण्ड निश्चय ही महान् तेजयुक्त है, जो आत्मनियन्त्रण से रहित अधर्मात्मा लोगों के द्वारा प्रयुक्त करना कठिन है, क्योंकि दण्ड-धर्म अर्थात् न्याय का त्याग करने वाले राजा को बन्धु-बान्धवों सहित अवश्य विनष्ट कर देता है॥२८॥
सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
न शक्यो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेषु च॥३०॥ (१९)
वह दण्ड-विधान उत्तम सहायकों- परामर्शदाताओं से विहीन राजा से मूर्ख से, लोभी से, सुशिक्षा से रहित से, और विषय-वासनाओं में संलिप्त रहने वाले राजा से, न्यायपूर्वक नहीं चलाया जा सकता॥३०॥
शुचिना सत्यसन्धेन यथाशास्त्रानुसारिणा।
प्रणेतुं शक्यते दण्डः सुसहायेन धीमता॥३१॥ (२०)
धन आदि से पवित्रात्मा सत्य संकल्प, न्यायशास्त्र के अनुसार चलने वाले, उत्तम सहायकों―परामर्शदाताओं से युक्त, बुद्धिमान् राजा से वह दण्डविधान न्यायानुसार चलाना सम्भव है॥३१॥
न्यायानुसार दण्डादि देने से राजा की यशोवृद्धि―
एवं वृत्तस्य नृपतेः शिलोञ्छेनापि जीवतः।
विस्तीर्यते यशो लोके तैलबिन्दुरिवाम्भसि॥३३॥ (२१)
इस प्रकार न्यायपूर्वक दण्ड का प्रयोग करने वाले राजा का शिल-उञ्छ से निर्वाह करते हुए भी अर्थात् राजा के धनहीन होते हुए भी यश जैसे पानी पर डालने से तैल की बूंद चारों ओर फैल जाती है ऐसे सम्पूर्ण जगत् में फैल जाता है॥३३॥
न्यायविरुद्ध आचरण से यशोनाश―
अतस्तु विपरीतस्य नृपतेरजितात्मनः।
संक्षिप्यते यशो लोके घृतबिन्दुरिवाम्भसि॥३४॥ (२२)
पूर्वोक्त व्यवहार से विपरीत चलने वाले अर्थात् न्याय और सावधानीपूर्वक दण्ड का व्यवहार न करने वाले अजितेन्द्रिय राजा का यश जल में पड़े घी के बिन्दु के समान लोक में कम होता जाता है॥३४॥
राजा की नियुक्ति नामक विषय का उपसंहार―
स्वे स्वे धर्मे निविष्टानां सर्वेषामनुपूर्वशः।
वर्णानामाश्रमाणां च राजा सृष्टोऽभिरक्षिता॥३५॥ (२३)
अपने-अपने धर्मों में संलग्न क्रमशः चारों वर्णों और आश्रमों के 'रक्षक' के रूप में राजा को बनाया है अर्थात् राजा के पद पर आसीन व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सब वर्णस्थ और आश्रमस्थ व्यक्तियों को उनके धर्मों में प्रवृत्त रखे और उनकी सुरक्षा करे। समाज को धर्म अर्थात् नियमव्यवस्था में चलाने के लिए और उसकी सुरक्षा के लिए ही राजा और राज्य की संकल्पना होती है॥३५॥
राजा की जीवनचर्या और भृत्यों आदि की नियुक्ति सम्बन्धी विधान―
तेन यद्यत् सभृत्येन कर्त्तव्यं रक्षता प्रजाः।
तत्तद्वोऽहं प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥३६॥ (२४)
उस राजा को प्रजाओं की रक्षा करते हुए अपने अमात्य, मन्त्री आदि सहायकों सहित जो-जो कर्त्तव्य करना चाहिए उस उसको क्रमशः तुमको मैं ठीक-ठीक कहूंगा―॥३६॥
राजा वेदवेत्ता आचार्यों की मर्यादा में रहे―
ब्राह्मणान् पर्युपासीत प्रातरुत्थाय पार्थिवः।
त्रैविद्यवृद्धान् विदुषस्तिष्ठेत् तेषां च शासने॥३७॥ (२५)
राजा सवेरे उठकर [७.१४५ में वर्णित दिनचर्या को सम्पन्न करने के बाद] ऋक्, साम, यजु रूप त्रयीविद्या में बढ़े-चढ़े अर्थात् पारंगत आचार्य, ऋत्विज् आदि विद्वान् ब्राह्मणों की अभिवादन आदि से सत्कार एवं शिक्षा के लिए संगति करे और सभी राजसभासदों सहित उन शिक्षक विद्वानों के निर्देशन और मर्यादा में स्थित रहे॥३७॥
राजा शिक्षक वेदवेत्ताओं का आदर-सत्कार करे―
वृद्धांश्च नित्यं सेवेत विप्रान् वेदविदः शुचीन्।
वृद्धसेवी हि सततं रक्षोभिरपि पूज्यते॥३८॥ (२६)
और उन शुद्ध आत्मा वाले वेद के ज्ञाता ज्ञान एवं तपस्या में बढ़े-चढ़े विद्वानों की प्रतिदिन सेवा करे अर्थात् आदर-सत्कार और संगति करे क्योंकि सदैव ज्ञान आदि से बढ़े-चढ़े विद्वानों का सेवा करने वाले राजा का राक्षस अर्थात् विरोधी भी आदर करते हैं, अर्थात् मर्यादाओं-व्यवस्थाओं को भंग करने वाले पापकर्मकारी राक्षस भी उस राजा का सम्मान करते हैं और उस से भयभीत होकर वश में रहते हैं, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है! वे तो स्वत: वशीभूत रहेंगे॥३८॥
राजा वेदवेत्ताओं से अनुशासन की शिक्षा ले―
तेभ्योऽधिगच्छेद्विनयं विनीतात्मापि नित्यशः।
विनीतात्मा हि नृपतिर्न विनश्यति कर्हिचित्॥३९॥ (२७)
विनयी अर्थात् राजनीतिक अनुशासन एवं मर्यादाओं में रहने के स्वभाव वाला होते हुए भी राजा अपने राजसभासदों-भृत्यों सहित उन वेदवेत्ता गुरुजनों से प्रतिदिन अनुशासन और मर्यादा की शिक्षा ग्रहण करे क्योंकि अनुशासन में रहने वाला और नीति जानने वाला राजा [स्वच्छन्द या उद्धत होकर अनर्थकारी कार्य न करने के कारण] कभी विनाश को प्राप्त नहीं करता परन्तु स्वेच्छाचारी राजा अवश्य विनष्ट हो जाता है―॥३९॥
राजा विद्वानों से विद्याएँ ग्रहण करे―
त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां दण्डनीतिं च शाश्वतीम्।
आन्वीक्षिकीं चात्मविद्यां वार्त्तारम्भाँश्च लोकतः॥४३॥ (२८)
राजसभासदों-भृत्यों सहित राजा ऋक्, यजु, साम रूप तीन वेदों की विद्याओं के ज्ञाता विद्वानों से तीनों विद्याओं को और सनातन दण्डविद्या को, और न्यायविद्या को, अध्यात्मविद्या को और जनता से राज्य के लिए आवश्यक व्यवसायों का आरम्भ करना सीखे और राज्यसम्बन्धी समाचार जाने॥४३॥
जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाओं को वश में रख सकता है―
इन्द्रियाणां जये योगं समातिष्ठेद्दिवानिशम्।
जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः॥४४॥ (२९)
राजसभासदों-भृत्यों सहित राजा दिन-रात इन्द्रियों को वश में रखने में प्रयत्न करता रहे, क्योंकि इन्द्रियों को वश में रख सकने वाला राजा ही प्रजाओं को वश में अर्थात् अनुशासन में स्थापित रख सकता है॥४४॥
व्यसनों की गणना―
दश कामसमुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च।
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥४५॥ (३०)
सभी सभासदों और भृत्यों सहित राजा काम से उत्पन्न होने वाले मृगया आदि दश, तथा क्रोध से उत्पन्न होने वाले पैशुन्य आदि आठ कठिन व्यसनों को प्रयत्न करके छोड़ देवे अथवा प्रयत्नपूर्वक उनसे दूर रहे॥४५॥
कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः।
वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु॥४६॥ (३९)
क्योंकि सभासदों-भृत्यों सहित जो राजा काम से उत्पन्न हुए दश दुष्ट व्यसनों में फंसता है वह अर्थ अर्थात् राज्य-धन-आदि और धर्म से रहित हो जाता है, और जो क्रोध से उत्पन्न हुए आठ बुरे व्यसनों में फंसता है वह जीवन से ही हाथ धो बैठता है॥४६॥
मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः।
तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः॥४७॥ (३२)
शिकार खेलना अक्ष अर्थात् चोपड़, जुआ आदि खेलना दिन में सोना काम कथा वा दूसरों की निन्दा करना स्त्रियों का संग मादक द्रव्य अर्थात् मद्य, अफीम, भांग, गांजा, चरस आदि का सेवन गाना, बजाना, नाचना व नाच कराना, और देखना व्यर्थ ही इधर-उधर घूमते रहना ये दश कामोत्पन्न होने वाले व्यसन हैं॥४७॥
क्रोधज आठ व्यसन―
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम्।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः॥४८॥ (३३)
चुगली करना सभी दुस्साहस के व्यवहार द्रोह रखना दूसरे की बड़ाई वा उन्नति देखकर जला करना असूया―दोषों में गुण और गुणों में दोषारोपण करना अधर्मयुक्त बुरे कामों में धन आदि का व्यय करना कठोर वचन बोलना और बिना अपराध के कड़ा वचन बोलना वा अतिकठोर दण्ड देना अथवा बिना अपराध के दण्ड देना ये आठ दुर्गुण क्रोध से उत्पन्न होते हैं॥४८॥
सभी व्यसनों का मूल लोभ―
द्वयोरप्येतयोर्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः।
तं यत्नेन जयेल्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ॥४९॥ (३४)
सब विद्वान् जन इन पूर्वोक्त कामज और क्रोधज अठारह दोषों का मूल लोभ को जानते हैं उस लोभ को प्रयत्न से राजा जीते, क्योंकि लोभ से ही पूर्वोक्त दोनों प्रकार के व्यसन उत्पन्न होते हैं, लोभ नहीं होगा तो उक्त दोष भी जीवन में नहीं आयेंगे॥४९॥
कामज और क्रोधज व्यसनों में अधिक कष्टदायक व्यसन―
पानमक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम्।
एतत्कष्टतमं विद्याच्चतुष्कं कामजे गणे॥५०॥ (३५)
कामज व्यसनों में मद्य, भांग आदि मदकारक द्रव्यों का सेवन, पासों आदि से किसी प्रकार का भी जुआ खेलना, परस्त्री और एक से अधिक स्त्रियों का सङ्ग, मृगया शिकार खेलना ये चार क्रम से पूर्व-पूर्व से आगे वाला अधिकाधिक कष्टदायक व्यसन हैं॥५०॥
दण्डस्य पातनं चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे।
क्रोधजेऽपि गणे विद्यात्कष्टमेतत्त्रिकं सदा॥५१॥ (३६)
और क्रोधज व्यसनों में बिना अपराध दण्ड देना बिना अपराध कठोर वचन बोलना और धन आदि का अधर्म अन्याय में खर्च करना इन क्रोध से उत्पन्न हुए तीन व्यसनों को सदा कष्टदायक माने॥५१॥
सप्तकस्यास्य वर्गस्य सर्वत्रैवानुषङ्गिणः।
पूर्वं पूर्वं गुरुतरं विद्याद् व्यसनमात्मवान्॥५२॥ (३७)
इस [५०-५१ में वर्णित] सात प्रकार के दुर्गुणों के वर्ग में जो सब स्थानों पर प्रायः मनुष्यों के व्यवहार में पाये जाते हैं उनमें पहले-पहले व्यसन को अधिक कष्टप्रद समझे, अर्थात् अधर्म में व्यय से कठोर वचन, उससे कठोर दण्ड, उससे शिकार खेलना, उससे परस्त्री और अनेक स्त्रियों का संग, उससे द्यूत खेलना, उससे मद्य आदि का सेवन अधिक दुष्ट दोष हैं॥५२॥
व्यसन मृत्यु से भी अधिक कष्टदायी―
व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
व्यसन्यधोऽधो व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः॥५३॥ (३८)
व्यसन और मृत्यु में व्यसन को ही अधिक कष्टदायक कहा गया है, क्योंकि व्यसन में फंसा रहने वाला व्यक्ति दिन-प्रतिदिन दुर्गुणों और कष्टों में फंसता ही जाता है और उसका पतन ही होता जाता है, किन्तु व्यसन से रहित व्यक्ति मरकर भी स्वर्ग=सुख को प्राप्त करता है अर्थात् उसे परजन्म में सुख मिलता है॥५३॥
मन्त्रियों की नियुक्ति―
मौलान् शास्त्रविदः शूरान् लब्धलक्ष्यान्कुलोद्गतान्।
सचिवान् सप्त चाष्टौ वा कुर्वीत सुपरीक्षितान्॥५४॥ (३९)
राजा मूलराज्य=स्वदेश में उत्पन्न हुए वेदादि शास्त्रों के जानने वाले शूरवीर जिनके लक्ष्य और विचार निष्फल न हों, और कुलीन अच्छे प्रकार परीक्षा किये हुए सात वा आठ मन्त्रियों को नियुक्त करे॥५४॥
राजा को सहायकों की आवश्यकता में कारण―
अपि यत्सुकरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्।
विशेषतोऽसहायेन किन्नु राज्यं महोदयम्॥५५॥ (४०)
क्योंकि जो सरल कार्य होता है, वह भी एक अकेले द्वारा करना कठिन होता है, विशेषकर अतिविस्तृत और महान् फल देने वाला विस्तृत राज्य बिना सहायकों के अकेले राजा द्वारा कैसे संचालित हो सकता है? अर्थात् अकेले के द्वारा संचालित नहीं हो सकता, अतः राजा को आवश्यकता-नुसार मन्त्री नियुक्त करने चाहिएं॥५५॥
मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करे―
तैः सार्द्धं चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं सन्धिविग्रहम्।
स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च॥५६॥ (४१)
राजा उन पूर्वोक्त सात-आठ मन्त्रियों के साथ आवश्यकता-अनुसार सदैव राज्यसम्बन्धी इन छह गुणों पर सहमतिपूर्वक और समग्र रूप से चिन्तन किया करे― १. कब और किस राजा से सन्धि करने की आवश्यकता है, २. कब किस राजा से विरोध बढ़ रहा है अथवा किससे युद्ध करना है, ३. किसी राजा से विरोध होने पर भी कब तक अपने राज्य में बिना शत्रु पर आक्रमण किये चुपचाप बैठे रहना है, ४. राष्ट्र, कोश, सेना सैन्यसामग्री आदि की समृद्धि होने पर कब, किस राजा पर आक्रमण करना है, ५. राजा और अपने राष्ट्र की रक्षा के उपायों पर विचार करना और ६. विजित देशों में शान्ति स्थापित करना॥५६॥
तेषां स्वं स्वमभिप्रायमुपलभ्य पृथक् पृथक्।
समस्तानाञ्च कार्येषु विदध्याद्धितमात्मनः॥५७॥ (४२)
उन सचिवों का पृथक्-पृथक् अपना-अपना विचार और अभिप्राय सुन-समझकर सभी के द्वारा कथित कार्यों में जो कार्य अपना और राष्ट्र का हितकारक हो उसको करे॥५७॥
आवश्यकतानुसार अन्य अमात्यों की नियुक्ति―
अन्यानपि प्रकुर्वीत शुचीन् प्राज्ञानवस्थितान्।
सम्यगर्थसमाहर्तॄनमात्यान्सुपरीक्षितान्॥६०॥ (४३)
आवश्यकता पड़ने पर राजा अन्य भी सत्यनिष्ठा वाले पवित्रात्मा बुद्धिमान् निश्चिय बुद्धि वाले राज्य की वृद्धि के लिए पदार्थों के संग्रह करने में योग्य सुपरीक्षित मन्त्रियों को नियुक्त करे॥६०॥
निवर्त्तेतास्य यावद्भिरितिकर्तव्यता नृभिः।
तावतोऽतन्द्रितान् दक्षान् प्रकुर्वीत विचक्षणान्॥६१॥ (४४)
राजा का जितने सचिवों से कार्य सिद्ध हो सके उतने ही आलस्यरहित सक्षम और विशेषज्ञ सचिवों को नियुक्त कर ले॥६१॥
तेषामर्थे नियुञ्जीत शूरान् दक्षान् कुलोद्गतान्।
शुचीनाकरकर्मान्ते भीरूनन्तर्निवेशने॥६२॥ (४५)
राजा पूर्वोक्त उन सचिवों के सहयोग के लिए शूरवीर स्वभाव के, कुलीन-परीक्षित परिवारों में उत्पन्न पवित्रात्मा=ईमानदार स्वभाव वाले अधिकारियों को बड़े अथवा मुख्य कार्यों में तथा डरपोक स्वभाव के अधिकारियों को राज्य के आन्तरिक गौण कार्यों में नियुक्त करे॥६२॥
प्रधान दूत की नियुक्ति―
दूतं चैव प्रकुर्वीत सर्वशास्त्रविशारदम्।
इङ्गिताकारचेष्टज्ञं शुचिं दक्षं कुलोद्गतम्॥६३॥ (४६)
और राजा राजदूत की भी नियुक्ति अवश्य करे, जिसमें ये गुण हों―वह सब शास्त्रों अथवा विद्याओं में प्रवीण हो, जो हावभाव, आकृति और चेष्टा से ही किसी के मन की बात और योजना को समझ ले, पवित्रात्मा, चतुर और उत्तम कुल में उत्पन्न हो॥६३॥
श्रेष्ठ दूत के लक्षण―
अनुरक्तः शुचिर्दक्षः स्मृतिमान् देशकालवित्।
वपुष्मान्वीतभीर्वाग्मी दूतो राज्ञः प्रशस्यते॥६४॥ (४७)
जो राजा और राज्य के हित को चाहने वाला हो, जो निष्कपट, पवित्रात्मा चतुर घटनाओं-बातों को न भूलने वाला देश और कालानुकूल व्यवहार का ज्ञाता आकर्षक व्यक्तित्व वाला निर्भय, और अच्छा वक्ता हो वह राजा का दूत होने में प्रशस्त है॥६४॥
अमात्ये दण्ड आयत्तो दण्डे वैनयिकी क्रिया।
नृपतौ कोशराष्ट्रे च दूते सन्धिविपर्ययौ॥६५॥ (४८)
एक सचिव के अधिकार में दण्ड देने का अधिकार रखना चाहिए और दण्ड के अन्तर्गत राज्य में अनुशासन और कानून की स्थापना का अधिकार रखना चाहिए, राजा के अधिकार में कोश और राष्ट्र का दायित्व होना चाहिए और दूत के अधीन किसी से सन्धि करना और न करना, अथवा विरोध करना आदि नीति धारण का दायित्व रखना चाहिए॥६५॥
दूत के कार्य―
दूत एव हि संधत्ते भिनत्त्येव च संहतान्।
दूतस्तत्कुरुते कर्म भिद्यन्ते येन मानवाः॥६६॥ (४९)
क्योंकि दूत ही वह व्यक्ति होता है जो शत्रु और अपने राजा का और अनेक राजाओं का मेल करा देता है और मिले हुए शत्रुओं में फूट भी डाल देता है दूत वह काम कर देता है जिससे शत्रुओं के लोगों में भी फूट पड़ जाती है॥६६॥
स विद्यादस्य कृत्येषु निगूढेङ्गितचेष्टितः।
आकारमिङ्गितं चेष्टां भृत्येषु च चिकीर्षितम्॥६७॥ (५०)
वह दूत शत्रु-राजा के असन्तुष्ट या विरोधी लोगों में और उसके राजकर्मचारियों में गुप्त संकेतों=हाव-भावों एवं चेष्टाओं से शत्रु राजा के आकार=शारीरिक स्थिति संकेत=हावभाव चेष्टा=कार्यों को तथा उसकी अभिलषित भावी योजनाओं को जाने॥६७॥
बुद्ध्वा च सर्वं तत्त्वेन परराजचिकीर्षितम्।
तथा प्रयत्नमातिष्ठेद्यथात्मानं न पीडयेत्॥६८॥ (५१)
राजा पूर्वोक्त हाव-भाव, चेष्टा आदि के द्वारा दूसरा विरोधी राजा उसके साथ क्या करने की योजना बना रहा है यह यथार्थ से जानककर वैसा यत्न करे जिससे कि अपने को वह पीड़ा न दे सके॥६८॥
राजा के निवास-योग्य देश―
जाङ्गलं सस्यसम्पन्नमार्यप्रायमनार्विम्।
रम्यमानतसामन्तं स्वाजीव्यं देशमावसेत्॥६९॥ (५२)
राजा जांगल प्रदेश=जहाँ उपयुक्त पानी बरसता हो, बाढ़ न आती हो, खुली हवा और सूर्य का पर्याप्त प्रकाश हो, धान्य आदि बहुत उत्पन्न होता हो अन्नों से हरा-भरा हो जहाँ श्रेष्ठ लोगों का बाहुल्य हो जो रोगरहित हो रमणीय हो विनम्रता का व्यवहार करने वाले जहाँ हो जो अच्छी आजीविकाओं से सम्पन्न हो ऐसे देश में निवासस्थान करे॥६९॥
छह प्रकार के दुर्ग―
धन्वदुर्गं महीदुर्गमब्दुर्गं वार्क्षमेव वा।
नृदुर्गं गिरिदुर्गं वा समाश्रित्य वसेत्पुरम्॥७०॥ (५३)
धन्वदुर्ग=मरुस्थल में बना किला जहाँ मरुभूमि के कारण जाना दुर्गम हो महीदुर्ग=पृथिवी के अन्दर तहखाने या गुफा के रूप में बना किला या मिट्टी की बड़ी-बड़ी मेढ़ों से घिरा हुआ जलदुर्ग=जिसके चारों ओर पानी हो अथवा वृक्षदुर्ग=जो घने वृक्षों के वन से घिरा हो अथवा गिरिदुर्ग=पहाड़ के ऊपर बनाया या पहाड़ों से घिरा किला बनाकर और उसका आश्रय करके अपने निवास में रहे॥७०॥
पर्वतदुर्ग की श्रेष्ठता―
सर्वेण तु प्रयत्नेन गिरिदुर्गं समाश्रयेत्।
एषां हि बाहुगुण्येन गिरिदुर्गं विशिष्यते॥७१॥ (५४)
राजा विशेष प्रयत्न करके पर्वतदुर्ग का आश्रय करे, बनाकर रहे क्योंकि सब दुर्गों में अधिक विशेषताओं के कारण पर्वतदुर्ग ही सर्वश्रेष्ठ है, अतः यह यत्न करना चाहिए कि 'पर्वतदुर्ग' ही बन सके॥७१॥
दुर्ग का महत्त्व―
एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः।
शतं दशसहस्राणि तस्माद् दुर्गं विधीयते॥७४॥ (५५)
किले के परकोटे में स्थित एक धनुर्धारी योद्धा बाहर स्थित सौ योद्धाओं से युद्ध कर सकता है, परकोटे में स्थित सौ योद्धा बाहर स्थित दस सहस्र योद्धाओं से युद्ध कर सकते हैं, इस कारण से दुर्ग बनाया जाता है॥७४॥
तत्स्यादायुधसम्पन्नं धनधान्येन वाहनैः।
ब्राह्मणैः शिल्पिभिर्यन्त्रैर्यवसेनोदकेन च॥७५॥ (५६)
वह दुर्ग शस्त्रास्त्रों धन-धान्यों, वाहनों वेदशास्त्र-अध्यापयिता, ऋत्विज् आदि ब्राह्मण विद्वानों कारीगरों नाना प्रकार के यन्त्रों चारा-घास और जल आदि से सम्पन्न अर्थात् परिपूर्ण हो॥७५॥
राजा का निवास-गृह―
तस्य मध्ये सुपर्याप्तं कारयेद् गृहमात्मनः।
गुप्तं सर्वर्तुकं शुभ्रं जलवृक्षसमन्वितम्॥७६॥ (५७)
उस दुर्ग के अन्दर अपने लिए एक आवासगृह बनवाये जो जो आवश्यकता के अनुसार अच्छा बड़ा-खुला हो, सुरक्षित हो, सब ऋतुओं में सुख-सुविधाप्रद हो, उज्ज्वल-सुन्दर हो, और जल और सुन्दर वृक्ष आदि से युक्त हो॥७६॥
राजा के विवाहयोग्य भार्या―
तदध्यास्योद्वहेद्भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्।
कुले महति सम्भूतां हृद्यां रूपगुणान्विताम्॥७७॥ (५८)
उस आवास में निवास करके अपने क्षत्रिय वर्ण की, जो कि क्षत्रिय वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके सवर्णा अर्थात् समान वर्ण की हो उत्तम लक्षणों से युक्त हो, उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो, जो हृदय को प्रिय भी हो अर्थात् जिसको स्वयं भी पसन्द किया हो, सुन्दरता और श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हो, ऐसी भार्या को विवाह करके लाये॥७७॥
पुरोहित का वरण एवं उसके कर्त्तव्य―
पुरोहितं प्रकुर्वीत वृणुयादेव चर्त्विजः।
तेऽस्य गृह्याणि कर्माणि कुर्य्युर्वैतानिकानि च॥७८॥ (५१)
विवाहित होकर मुख्य धार्मिक अनुष्ठानकर्त्ता और धर्मविषयक मार्गप्रदर्शक व्यक्ति की नियुक्ति करे और यज्ञविशेषों के आयोजन के लिए अन्य ऋत्विजों का वरण करे वे राजा के गृहसम्बन्धी पञ्चमहायज्ञ आदि, विशेष अवसरों पर आयोजित दीर्घयज्ञों और राज्यानुष्ठान एवं धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करायें॥७८॥
यजेत राजा क्रतुभिर्विविधैराप्तदक्षिणैः।
धर्मार्थं चैव विप्रेभ्यो दद्याद्भोगान्धनानि च॥७९॥ (६०)
राजा ऋत्विजों को पर्याप्त दक्षिणा वाले विविध यज्ञों के द्वारा यजन किया करे तथा धर्म संचय के लिए विद्वान् ब्राह्मणों को भोग्य पदार्थों धनों का दान करे॥७९॥
सांवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारयेद् बलिम्।
स्याच्चाम्नायपरो लोके वर्त्तेत पितृवन्नृषु॥८०॥ (६१)
राजा राष्ट्र के जनों से वार्षिक कर अथवा देय भाग धार्मिक, विशेषज्ञ और निष्ठावान् अधिकारियों के द्वारा संग्रह कराये, और कर-ग्रहण के सम्बन्ध में शास्त्रोक्त मर्यादा का पालन करे, अथवा देश-काल-परिस्थितिवशात् परामर्श करके उत्तम परम्परा का पालन करे और राष्ट्र की प्रजाओं को पुत्रवत् मानकर पिता के समान अपना व्यवहार रखे अर्थात् जैसे घर में पिता घर की आर्थिक स्थिति और सन्तानों का पालन-पोषण दोनों में सामंजस्य रखता है, उसी भाव से राजा प्रजाओं से कर ले॥८०॥
विविध विभागाध्यक्षों की नियुक्ति―
अध्यक्षान्विविधान् कुर्यात् तत्र तत्र विपश्चितः।
तेऽस्य सर्वाण्यवेक्षेरन् नॄणां कार्याणि कुर्वताम्॥८१॥ (६२)
राजा आवश्यकतानुसार विभिन्न विभागों में अनेक प्रतिभाशाली, योग्य विद्वान् अध्यक्षों को नियुक्त करे वे विभागाध्यक्ष राजा के द्वारा नियुक्त अन्य सब अपने अधीन कार्य करने वाले कर्मचारी लोगों का निरीक्षण किया करें, अर्थात् निरीक्षण में ठीक कार्य करने वाले को सम्मान और न करने वालों को दण्ड देकर राज्यकार्य को सुचारुरूप से चलाया करें॥८१॥
राजा स्नातक विद्वानों का सत्कार करे―
आवृत्तानां गुरुकुलाद्विप्राणां पूजको भवेत्।
नृपाणामक्षयो ह्येष निधिर्ब्राह्मो विधीयते॥८२॥ (६३)
राजा और राजसभा स्नातक बनकर गुरुकुल से लौटे विद्वानों का स्वागत-सम्मान किया करे, क्योंकि यह विद्वान् और विद्या कभी व्यय न होने वाली निधि है, अर्थात् प्रजाओं को कभी क्षीणता की ओर न जाने देने वाला खजाना है। अभिप्राय यह है कि जहाँ जितने अधिक विद्वान् और विद्याएँ होंगी वह राष्ट्र कभी क्षीण नहीं होता अपितु उन्नत होता जाता है क्योंकि किसी की भी विद्या को कोई नहीं चुरा सकता, वे परम्परागत रूप से अक्षुण्ण रहकर राष्ट्र का विकास करती रहती हैं॥८२॥
युद्ध के लिए गमन तथा युद्धसम्बन्धी व्यवस्थाएँ―
समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन् प्रजाः।
न निवर्तेत संग्रामात् क्षात्रं धर्ममनुस्मरन्॥८७॥ (६४)
प्रजा का पालन करने वाला राजा अपने से तुल्य, उत्तम और छोटे राजा द्वारा संग्राम के लिए आह्वान करने पर क्षत्रियों के युद्ध धर्म का स्मरण करके संग्राम में जाने से कभी विमुख न हो॥८७॥
आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः।
युध्यमानाः परंशक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः॥८९॥ (६५)
राजा युद्धों में परस्पर एक-दूसरे के वध करने की इच्छा से अथवा एक-दूसरे को पराजित करने की इच्छा से, जब युद्ध से विमुख न होकर पूर्ण शक्ति से युद्ध करते हैं तो वे जीवित रहने पर इस जन्म में भी और मरने पर परजन्म में भी सुख प्राप्त करते हैं॥८९॥
युद्ध में किन को न मारे―
न च हन्यात्स्थलारूढं न क्लीबं न कृताञ्जलिम्।
न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्॥९१॥
न सुप्तं न विसन्नाहं न नग्नं न निरायुधम्।
नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्॥९२॥
नायुधव्यसनप्राप्तं नार्तं नातिपरिक्षतम्।
न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्॥९३॥ (६६, ६७, ६८)
न युद्ध स्थल में इधर-उधर खड़े को न नपुंसक को न हाथ जोड़े हुए को न जिसके शिर के बाल खुले हों, उसको न बैठे हुए को न 'मैं तेरी शरण हूँ' ऐसे कहते हुए को, न सोते हुए को, न मूर्छा को प्राप्त हुए को, न युद्ध न करते हुए को अर्थात् युद्ध देखने वाले को, न शत्रु के साथ आये को, न आयुध के प्रहार से पीड़ा को प्राप्त हुए को, न आपत्ति में फंसे को, न अत्यन्त घायल को, न डरे हुए को और न युद्ध से पलायन करते हुए को श्रेष्ठ क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करते हुए योद्धा लोग कभी मारें॥९१-९३॥
युद्ध से पलायन करने वाला अपराधी होता है―
यस्तु भीतः परावृत्तः सङ्ग्रामे हन्यते परैः।
भर्त्तुर्यद्दुष्कृतं किञ्चित्तत्सर्वं प्रतिपद्यते॥१४॥ (६९)
और जो युद्धक्षेत्र से पीठ दिखाकर भाग रहा हो, अथवा डरकर भागता हुआ शत्रुओं के द्वारा मारा जाये, उसे राजा की ओर से प्राप्त होने वाला जो भी कुछ दण्ड, क्रोध, हानि, कठोर व्यवहार है उस सब का पात्र बनकर वह दण्डनीय होता है अर्थात् राजा के मन से उसकी श्रेष्ठता का प्रभाव समाप्त हो जाता है और राजा उसको अपराधी मानकर उसकी सुख-सुविधा को छीनकर दण्ड देता है॥९४॥
यच्चास्य सुकृतं किञ्चिदमुत्रार्थमुपार्जितम्।
भर्त्ता तत्सर्वमादत्ते परावृत्तहतस्य तु॥९५॥ (७०)
युद्ध से पीठ दिखाकर भागे हुए योद्धा की तो इस जन्म और परजन्म के लिए अर्जित की गई इसकी जो कुछ सुख-सुविधा, प्रतिष्ठा है उस सब को उसका स्वामी राजा छीन लेता है अर्थात् इस जन्म की सुख-सुविधा, प्रतिष्ठा को राजा छीन लेता है और धर्मपालन न करने के कारण परजन्म में प्राप्तव्य पुण्य और उसका फल नष्ट हो जाता है॥९५॥
रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून् स्त्रियः।
सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत्॥९६॥ (७१)
युद्ध में रथ, घोड़े, हाथी, छत्र, धन, धान्य, (पशून्) अन्य पशु, नौकर स्त्रियां, सब प्रकार के पदार्थ घी, तैल आदि के कुप्पे जो जिसको जीते वह उसका ही भाग होगा॥९६॥
जीते हुए धन से राजा को 'उद्धार' देना―
राज्ञश्च दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः।
राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम्॥९७॥ (७२)
और विजता योद्धा विजित धन एवं पदार्थों में से उद्धार भाग (छठा भाग, मतान्तर से सोलहवाँ भाग) राजा को दें और राजा को भी सबके द्वारा मिलकर जीते हुए धन और पदार्थों से उद्धार भाग सब योद्धाओं को भी देना चाहिए; यह वैदिक मान्यता है॥९७॥
एषोऽनुपस्कृतः प्रोक्तो योधधर्मः सनातनः।
अस्माद्धर्मान्न च्यवेत क्षत्रियो घ्नन् रणे रिपून्॥९८॥ (७३)
यह शिष्ट विद्वानों द्वारा स्वीकृत सर्वदा माननीय योद्धाओं का धर्म कहा, क्षत्रिय व्यक्ति युद्ध में शत्रुओं को मारते हुए अर्थात् शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके भी इस धर्म से विचलित न होवे, इसको न छोड़े॥९८॥
राजा द्वारा चिन्तनीय बातें―
अलब्धं चैव लिप्सेत लब्धं रक्षेत् प्रयत्नतः।
रक्षितं वर्द्धयेच्चैव वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्॥९९॥ (७४)
राजा और राजसभासद् अप्राप्त राज्य और धन आदि की प्राप्ति की इच्छा अवश्य करें, और प्राप्त राज्य और धन आदि की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करें, रक्षा किये हुए को बढ़ाने के उपाय अवश्य करें और बढ़े हुए धन को सुपात्रों और जनहितकारी कार्यों में लगावें॥९९॥
एतच्चतुर्विधं विद्यात् पुरुषार्थप्रयोजनम्।
अस्य नित्यमनुष्ठानं सम्यक्कुर्यादतन्द्रितः॥१००॥ (७५)
यह पूर्वोक्त [७.९९] चार प्रकार का राज्य के लिए पुरुषार्थ करने का उद्देश्य समझना चाहिए, राजा आलस्य-रहित होकर इस उद्देश्य को पाने के लिए प्रयत्न करता रहे॥१००॥
अलब्धमिच्छेद्दण्डेन लब्धं रक्षेदवेक्षया।
रक्षितं वर्द्धयेद्वृद्ध्या वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्॥१०१॥ (७६)
राजा अप्राप्त राज्य और धन आदि प्राप्ति की इच्छा दण्ड=शत्रु राजा पर कर लगाकर अथवा युद्ध द्वारा करे, प्राप्त राज्य और धन आदि की सावधानी पूर्वक निरीक्षण से रक्षा करे, रक्षित किये हुए को वृद्धि के उपायों से बढ़ाये, और बढ़ाये हुए धन को सुपात्रों और जनहितकारी कार्यों में लगाये ॥१०१॥
नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः।
नित्यं संवृतसंवार्यो नित्यं छिद्रानुसार्यरः॥१०२॥ (७७)
राजा सदैव न्यायानुसार दण्ड का प्रयोग करने में तत्पर रहे, सदैव युद्ध में पराक्रम दिखलाने के लिए तैयार रहे, सदैव राज्य के गोपनीय कार्यों को गुप्त रखे, सदैव शत्रु के छिद्रों=कमियों को खोजता रहे और उन त्रुटियों को पाकर अवसर मिलते ही अपने राज्य हित को पूर्ण कर ले॥१०२॥
नित्यमुद्यतदण्डस्य कृत्स्नमुद्विजते जगत्।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि दण्डेनैव प्रसाधयेत्॥१०३॥ (७८)
जिस राजा के राज्य में सर्वदा न्यायानुसार दण्ड के प्रयोग का निश्चय रहता है तो उससे सारा जगत् भयभीत रहता है इसीलिए सब दण्ड के योग्य प्राणियों को दण्ड से साधे अर्थात् दण्ड के भय से अनुशासन में रखे॥१०३॥
अमाययैव वर्तेत न कथञ्चन मायया।
बुध्येतारिप्रयुक्तां च मायां नित्यं स्वसंवृतः॥१०४॥ (७९)
कदापि किसी के साथ छल-कपट से न वर्ते किन्तु निष्कपट होकर सबसे बर्ताव रखे और नित्यप्रति अपनी रक्षा में सावधान रहे, और शत्रु के किये हुए छल-कपट को जाने तथा उसका उपाय करे॥१०४॥
नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु।
गृहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः॥१०५॥ (८०)
राजा यह सावधानी रखे कि कोई शत्रु उसके छिद्र अर्थात् कमियों को न जान सके किन्तु स्वयं शत्रु राजा के छिद्रों को जानने का प्रयत्न करे, जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है वैसे शत्रु राजा से अपनी कमियों को छिपाकर रखे और अपनी रक्षा करे॥१०५॥
बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्यतेत्॥१०६॥ (८१)
राजा जैसे बगुला चुपचाप खड़ा रहकर मछली को ताकता है और अवसर लगते ही उसको झपट लेता है उसी प्रकार चुपचाप रहकर शत्रुराजा पर आक्रमण करने का अवसर ताकता रहे, और अवसर मिलते ही सिंह के समान पूरी शक्ति से आक्रमण कर दे, और जैसे चीता रक्षित पशु को भी अवसर मिलते ही शीघ्रता से झपट लेता है उसी प्रकार शत्रु को पकड़ ले, और स्वयं यदि शत्रुओं के बीच फंस जाये तो खरगोश के समान उछल कर उनकी पकड़ से निकल जाये और अवसर मिलते ही फिर आक्रमण करे॥१०६॥
एवं विजयमानस्य येऽस्य स्युः परिपन्थिनः।
तानानयेद्वशं सर्वान् सामादिभिरुपक्रमैः॥१०७॥ (८२)
पूर्वोक्त प्रकार से रहते हुए विजय की इच्छा रखने वाले राजा के जो शत्रु अथवा राज्य में बाधक जन हों उन सबको साम, दान, भेद, दण्ड इन उपायों से वश में करे॥१०७॥
यदि ते तु न तिष्ठेयुरुपायैः प्रथमैस्त्रिभिः।
दण्डेनैव प्रसह्यैताँश्छनकैर्वशमानयेत्॥१०८॥ (८३)
यदि वे शत्रु, डाकू, चोर आदि पूर्वोक्त साम, दान, भेद इन तीन उपायों से शान्त न हों या वश में न आयें तो राजा इन्हें बलपूर्वक दण्ड के द्वारा ही सावधानीपूर्वक वश में लाये॥१०८॥
यथोद्धरति निर्दाता कक्षं धान्यं च रक्षति।
तथा रक्षेन्नृपो राष्ट्र हन्याच्च परिपन्थिनः॥११०॥ (८४)
जैसे धान्य की लुनाई करने वाला किसान उसमें से व्यर्थ घासपात को उखाड़ लेता है और धान्य की रक्षा करता है, अथवा पके धान्य को निकालने वाला जैसे छिलकों को अलग कर धान्य की रक्षा करता है अर्थात् टूटने नहीं देता है वैसे राजा शत्रुओं, बाधकों आदि को मारे और राज्य की रक्षा करे॥११०॥
राजा प्रजा का शोषण न होने दे―
मोहाद्राजा स्वराष्ट्रं यः कर्षयत्यनवेक्षया।
सोऽचिराद् भ्रश्यते राज्याज्जीविताच्च सबान्धवः॥१११॥ (८५)
जो राजा लोभ-लालच से अथवा अविवेकपूर्ण निर्णयों से अन्यायपूर्वक अधिक कर लेकर और प्रजा की उपेक्षा करके अपने राज्य या प्रजा को क्षीण करता है वह बन्धु-बान्धवों सहित राज्य से और जीवन से भी शीघ्र ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है॥१११॥
शरीरकर्षणात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्॥११२॥ (८६)
जैसे प्राणियों के प्राण शरीरों को दुर्बल करने से नष्ट हो जाते हैं वैसे ही राष्ट्र अथवा प्रजाओं का शोषण करने से राजाओं के प्राण अर्थात् राज्य और जीवन नष्ट हो जाते हैं॥११२॥
राष्ट्र के नियन्त्रण के उपाय―
राष्ट्रस्य संग्रहे नित्यं विधानमिदमाचरेत्।
सुसंगृहीतराष्ट्रो हि पार्थिवः सुखमेधते॥११३॥ (८७)
इसलिए राजा राष्ट्र की समृद्धि, सुरक्षा एवं अभिवृद्धि के लिए सदैव इस आगे वर्णित व्यवस्था को लागू करे क्योंकि सुरक्षित, सुसमृद्ध तथा उन्नत राष्ट्र वाला राजा ही सुखपूर्वक रहते हुए बढ़ता है, उन्नति करता है॥११३॥
नियन्त्रण केन्द्रों और राजकार्यालयों का निर्माण―
द्वयोस्त्रयाणां पञ्चानां मध्ये गुल्ममधिष्ठितम्।
तथा ग्रामशतानां च कुर्याद्राष्ट्रस्य संग्रहम्॥११४॥ (८८)
इसलिए राजा दो, तीन और पांच गांवों के बीच में एक-एक नियन्त्रण केन्द्र या उन्नत राजकार्यालय बनाये, इसी प्रकार सौ गांवों के ऊपर एक कार्यालय का निर्माण करे और इस व्यवस्था के अनुसार राष्ट्र को सुव्यवस्थित, सुरक्षित एवं समृद्ध करे॥११४॥
अवर अधिकारियों आदि की नियुक्ति―
ग्रामस्याधिपतिं कुर्य्याद्दशग्रामपतिं तथा।
विंशतीशं शतेशं च सहस्त्रपतिमेव च॥११५॥ (८९)
और एक-एक ग्राम में एक-एक 'प्रधान' नियत करे उन्हीं दश ग्रामों के ऊपर दूसरा 'दशग्रामाध्यक्ष' नियत करे, उन्हीं बीस ग्रामों के ऊपर तीसरा 'बीसग्रामाध्यक्ष' नियत करे, उन्हीं सौ ग्रामों के ऊपर चौथा 'शतग्रामाध्यक्ष' और उन्हीं सहस्र ग्रामों के ऊपर पांचवां 'सहस्रग्रामाध्यक्ष' पुरुष रखे॥११५॥
ग्रामदोषान् समुत्पन्नान् ग्रामिकः शनकैः स्वयम्।
शंसेद् ग्रामदशेशाय दशेशो विंशतीशिने॥११६॥ (९०)
वह एक-एक ग्रामों के प्रधान अपने ग्रामों में नित्यप्रति जो-जो दोष उत्पन्न हों उन-उनको गुप्तता से स्वयं 'दशग्रामाध्यक्ष' को विदित करा दे, और वह 'दश ग्रामाध्यक्ष' उसी प्रकार बीस ग्राम के अध्यक्ष को दशग्रामों के समाचार नित्यप्रति देवे॥११६॥
विंशतीशस्तु तत्सर्वं शतेशाय निवेदयेत्।
शंसेद् ग्रामशतेशस्तु सहस्त्रपतये स्वयम्॥११७॥ (९१)
और बीस ग्रामों का अध्यक्ष बीस ग्रामों के समाचारों को शतग्रामाध्यक्ष को नित्यप्रति सूचित करे वैसे सौ-सौ ग्रामों के अध्यक्ष आप अर्थात् हजार ग्रामों के अध्यक्ष को सौ-सौ ग्रामों के समाचारों को प्रतिदिन सूचित करें॥११७॥
तेषां ग्राम्याणि कार्याणि पृथक्कार्याणि चैव हि।
राज्ञोऽन्यः सचिवः स्निग्धस्तानि पश्येदतन्द्रितः॥१२०॥ (९२)
उन पूर्वोक्त अध्यक्षों के गांवों से सम्बद्ध राजकार्यों को और अन्य सौंपे गये भिन्न-भिन्न कार्यों को भी राजा का एक विश्वासपात्र मन्त्री आलस्यरहित होकर सावधानीपूर्वक देखे॥१२०॥
नगरे नगरे चैकं कुर्यात् सर्वार्थचिन्तकम्।
उच्चैः स्थानं घोररूपं नक्षत्राणामिव ग्रहम्॥१२१॥ (९३)
राजा बड़े-बड़े प्रत्येक नगर में एक-एक जैसे नक्षत्रों के बीच में चन्द्रमा है इस प्रकार विशालकाय और देखने में प्रभावकारी भयकारी अर्थात् जिसे देखकर या जिसका ध्यान करके प्रजाओं में नियम के विरुद्ध चलने में भय का अनुभव हो जिसमें सब राजकार्यों के चिन्तन और प्रजाओं की व्यवस्था और कार्यों के संचालन का प्रबन्ध हो ऐसा ऊंचा भवन अर्थात् सचिवालय बनावे॥१२१॥
राजकर्मचारियों के आचरण का निरीक्षण―
स ताननुपरिक्रामेत् सर्वानेव सदा स्वयम्।
तेषां वृत्तं परिणयेत् सम्यग्राष्ट्रेषु तच्चरैः॥१२२॥ (९४)
वह सचिव=विभाग प्रमुख मन्त्री उन पूर्वोक्त सब सचिवालयों के कार्यों का सदा स्वयं घूम-फिर कर निरीक्षण करता रहे और देश में अपने गुप्तचरों के द्वारा वहां नियुक्त राज-पुरुषों के आचरण की गुप्तरीति से जानकारी प्राप्त करता रहे ॥१२२॥
रिश्वतखोर कर्मचारियों पर दृष्टि रखे―
राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्या भवन्ति प्रायेण तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः॥१२३॥ (९५)
क्योंकि प्रायः राजा के द्वारा प्रजा की सेवा-सुरक्षा के लिए नियुक्त अधिकारी-कर्मचारी दूसरों के धन के लालची अर्थात् रिश्वतखोर और ठगी या धोखा करने वाले हो जाते हैं ऐसे राजपुरुषों से अपनी प्रजाओं की रक्षा करे अर्थात् ऐसे प्रयत्न करे कि वे प्रजाओं के साथ या राज्य के साथ ऐसा बर्ताव न कर पायें॥१२३॥
रिश्वतखोर कर्मचारियों को दण्ड―
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात् प्रवासनम् ॥१२४॥ (९६)
पापी मन वाले जो रिश्वतखोर और ठग राजपुरुष काम कराने वालों और मुकद्दमें वालों से यदि फिर भी धन अर्थात् रिश्वत ले ही लें तो राजा उन्हें देश निकाला दे दे॥१२४॥
कर्मचारियों के वेतन का निर्धारण―
राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च।
प्रत्यहं कल्पयेदृवृत्तिं स्थानं कर्मानुरूपतः॥१२५॥ (९७)
राजा राजकार्यों में नियुक्त राजपुरुषों स्त्रियों और सेवकवर्ग की काम के अनुसार पद या कार्यस्थान और प्रतिदिन की जीविका निश्चित कर दे॥१२५॥
पणो देयोऽवकृष्टस्य षडुत्कृष्टस्य वेतनम्।
षाष्मासिकस्तथाच्छादो धान्यद्रोणस्तु मासिकः॥१२६॥ (९८)
निम्नस्तर के भृत्य को कम से कम एक पण और ऊंचे स्तर के भृत्य को छह पण वेतन प्रतिदिन देना चाहिए तथा उन्हें प्रति छह महीने पर ओढ़ने-पहरने के वस्त्र [=वेशभूषा] आदि और एक महीने में एक द्रोण [६४ सेर] धान्य=अन्न, देना चाहिए॥१२६॥
कर-ग्रहण सम्बन्धी व्यवस्थाएँ―
क्रयविक्रयमध्वानं भक्तं च सपरिव्ययम्।
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य वणिजो दापयेत् करान्॥१२७॥ (९९)
राजा को क्रय और विक्रयी का अन्तर मार्ग की दूरी और उत्तम व्यय आदि व्यापार में हिस्सेदारी तथा भरण-पोषण का व्यय और व्यापार में लाभ, तथा वस्तु की सुरक्षा और जनकल्याण इन सब बातों पर विचार करके राजा व्यापारियों पर कर लगाये॥१२७॥
यथा फलेन युज्येत राजा कर्त्ता च कर्मणाम्।
तथाऽवेक्ष्य नृपो राष्ट्रे कल्पयेत् सततं करान्॥१२८॥ (१००)
जैसे राजा और व्यापार का या किसी कार्य का कर्त्ता लाभरूप फल से युक्त होवे वैसा विचार करके राजा राज्य में सदा कर-निर्धारण करे॥१२८॥
यथाऽल्पाऽल्पमदन्त्याद्यं वार्योकोवत्सषट्पदाः।
तथाऽल्पाऽल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्राद्राज्ञाब्दिकः करः॥१२९॥ (१०१)
जैसे जोंक, बछड़ा और भंवरा थोड़े-थोड़े भोग्य पदार्थ को ग्रहण करते है वैसे ही राजा प्रजा से थोड़ा-थोड़ा वार्षिक कर ग्रहण करे॥१२९॥
पञ्चाशद्भाग आदेयो राज्ञा पशुहिरण्ययोः।
धान्यानामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा॥१३०॥ (१०२)
राजा को पशुओं और सोने के शुद्ध लाभ में से पचासवाँ भाग, और देश-काल-परिस्थिति को देखकर लाभ में से अन्नों का अधिक से अधिक छठा, आठवां या बारहवां भाग ही कर के रूप में लेना चाहिए॥१३०॥
आददीताथ षड्भागं द्रुमांसमधुसर्पिषाम्।
गन्धौषधिरसानां च पुष्पमूलफलस्य च॥१३१॥ (१०३)
और गोंद, मधु, घी और गन्ध, औषधि, रसों का (च) तथा फूल, मूल और फल, इनका लाभ का छठा भाग कर के रूप में लेवे॥१३१॥
पत्रशाकतृणानां च चर्मणां वैदलस्य च।
मृन्मयानां च भाण्डानां सर्वस्याश्ममयस्य च॥१३२॥ (१०४)
और वृक्षपत्र, शाक, तृण चमड़ा, बांसनिर्मित वस्तुएँ मिट्टी से बने बर्तन और सब प्रकार के पत्थर से निर्मित पदार्थ, इनका भी लाभ का छठा भाग कर के रूप में ले॥१३२॥
यत्किंचिदपि वर्षस्य दापयेत्करसंज्ञितम्।
व्यवहारेण जीवन्तं राजा राष्ट्र पृथग्जनम्॥१३७॥ (१०५)
राजा राज्य में व्यापार से जीविका करने वाले बड़े-छोटे प्रत्येक व्यक्ति से थोड़ा-बहुत जो कुछ भी वार्षिक कर के रूप में निर्धारित किया हो वह भाग राज्य के लिए ग्रहण करे॥१३७॥
करग्रहण में अतितृष्णा हानिकारक―
नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णया।
उच्छिन्दन्ह्यात्मनो मूलमात्मानं ताँश्च पीडयेत्॥१३९॥ (१०६)
राजा कर आदि लेने के अतिलोभ में आकर अपने और प्रजाओं के सुख के मूल को नष्ट न करे अपने सुख के मूल का छेदन करता हुआ अपने को और प्रजाओं को पीड़ित करता है॥१३९॥
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात् कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः॥१४०॥ (१०७)
राजा कार्य को देख कर कठोर और कोमल भी होवे वह दुष्टों पर कठोर और श्रेष्ठों पर कोमल रहने से प्रजाओं में माननीय होता है॥१४०॥
रुग्णावस्था में प्रधान अमात्य को राजसभा का कार्य सौंपना―
अमात्यमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्गतम्।
स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नॄणाम्॥१४१॥ (१०८)
प्रजा के कार्यों की देखभाल करने में रुग्णता आदि के कारण अशक्त होने पर राजा उस अपने आसन पर न्यायकारी धर्मज्ञाता बुद्धिमान् जितेन्द्रिय कुलीन सबसे प्रधान अमात्य=मन्त्री को बिठा देवे अर्थात् रुग्णावस्था में प्रधान अमात्य को अपने स्थान पर राजकार्य सम्पादन के लिए नियुक्त करे॥१४१॥
एवं सर्वं विधायेदमितिकर्त्तव्यमात्मनः।
युक्तश्चैवाप्रमत्तश्च परिरक्षेदिमाः प्रजाः॥१४२॥ (१०९)
पूर्वोक्त प्रकार से सब कर्त्तव्य कार्यों का प्रबन्ध करके राज्य संचालन के कार्य में संलग्न रहकर और प्रमाद रहित होकर अपनी प्रजा का पालन-संरक्षण निरन्तर करे॥१४२॥
विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्ह्रियन्ते दस्युभिः प्रजाः।
सम्पश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति॥१४३॥ (११०)
भृत्यों सहित देखते हुए जिस राजा के राज्य में से अपहरण-कर्ता और डाकू लोग रोती, विलाप करती प्रजा के पदार्थ और प्राणों को हरते रहते हैं वह राजा जानो भृत्य-अमात्यसहित मृतक समान है, उसे जीवित नहीं कहा जा सकता॥१४३॥
क्षत्रियस्य परो धर्मः प्रजानामेव पालनम्।
निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते॥१४४॥ (१११)
प्रजाओं का पालन-संरक्षण करना ही क्षत्रिय का परम धर्म है। शास्त्रोक्त विधि से कर आदि ग्रहण करके आचरण करने वाला राजा ही धर्म का पालन करने वाला कहलाता है॥१४४॥
राजा के दैनिक कर्त्तव्य―
उत्थाय पश्चिमे यामे कृतशौचः समाहितः।
हुताग्निर्ब्राह्मणांश्चार्च्य प्रविशेत्स शुभां सभाम्॥१४५॥ (११२)
वह राजा रात्रि के अन्तिम पहर प्रातः ३-६ बजे की अवधि जागकर शौच, दातुन, स्नान आदि दिनचर्या करके तत्पश्चात् एकाग्रता पूर्वक सन्ध्या-ध्यान और अग्निहोत्र करके वेदादिशास्त्रों के अध्यापयिता और मार्गदर्शक विद्वान् ब्राह्मणों का अभिवादन करके जिसमें प्रजा की समस्याओं और कष्टों का समाधान किया जाता है उस शोभायुक्त सभा में प्रवेश करे और प्रजा की प्रार्थना सुने॥१४५॥
सभा में जाकर प्रजा के कष्टों को सुने―
तत्र स्थितः प्रजाः सर्वाः प्रतिनन्द्य विसर्जयेत्।
विसृज्य च प्रजाः सर्वा मन्त्रयेत्सह मन्त्रिभिः॥१४६॥ (११३)
उस राजसभा में जाकर बैठकर या खड़े होकर वहाँ आई हुई सब प्रजाओं की समस्याओं, कष्टों का सन्तुष्टिकारक समाधान कर उन्हें प्रसन्न करके भेज दे और सब प्रजाओं को विसर्जित करने के बाद मन्त्रियों के साथ गुप्त विषयों और षड्गुणों आदि पर विचार-विमर्श करे॥१४६॥
राज्यसम्बन्धी मन्त्रणाओं के वैकल्पिक स्थान―
गिरिपृष्ठं समारुह्य प्रासादं वा रहोगतः।
अरण्ये निःशलाके वा मन्त्रयेदविभावितः॥१४७॥ (११४)
राजा किसी पर्वतशिखर पर जाकर अथवा महल के किसी एकान्त कक्ष में बैठकर अथवा पूर्णतः निर्जन एकान्त स्थान में जाकर किसी की भी जानकारी में न आये, इस प्रकार राज्यविषयक गुप्त मन्त्रणा मन्त्रियों के साथ करे॥१४७॥
मन्त्रणा की गोपनीयता का महत्त्व―
यस्य मन्त्रं न जानन्ति समागम्य पृथग् जनाः।
स कृत्स्नां पृथिवीं भुङ्क्ते कोशहीनोऽपि पार्थिवः॥१४८॥ (११५)
विरोधी पक्ष के गुप्तचर जन राजा के मन्त्रियों, अधिकारियों आदि से सांठगांठ करके जिस राजा की गुप्त मन्त्रणा और गुप्त योजनाओं को नहीं जान पाते हैं वह राजा खजाने में पर्याप्त धन न होते हुए भी सम्पूर्ण पृथिवी के राज्य का संचालन करने में समर्थ होता है॥१४८॥
धर्म, काम, अर्थ-सम्बन्धी बातों पर चिन्तन करे―
मध्यंदिनेऽर्धरात्रे वा विश्रान्तो विगतक्लमः।
चिन्तयेद्धर्मकामार्थान्सार्धं तैरेक एव वा॥१५१॥ (११६)
दोपहर के समय अथवा रात्रि के समय विश्राम करके थकान-आलस्य रहित होकर स्वस्थ व प्रसन्न शरीर और मन से धर्म, काम और अर्थ-सम्बन्धी बातों को उन मन्त्रियों के साथ मिलकर अथवा परिस्थिति विशेष में अकेले ही विचारे॥१५१॥
धर्म, अर्थ, काम में विरोध को दूर करे―
परस्परविरुद्धानां तेषां च समुपार्जनम्।
कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्॥१५२॥ (११७)
और उस धर्म-अर्थ-काम में कहीं परस्पर विरोध आ पड़ने पर उसे दूर करना और उनमें अभिवृद्धि करना और कन्याओं और कुमारों को गुरुकुलों में भेजकर शिक्षा दिलाना, उनकी सुरक्षा तथा विवाह आदि की नियम व्यवस्था करे। अर्थान्तर में—राजा अपनी कन्याओं के विवाह और राजकुमारों के पालन-पोषण, संरक्षण पर विचार करे॥१५२॥
दूतसम्प्रेषण और गुप्तचरों के आचरण पर दृष्टि―
दूतसम्प्रेषणं चैव कार्यशेषं तथैव च।
अन्तःपुरप्रचारं च प्रणिधीनां च चेष्टितम्॥१५३॥ (११८)
और दूतों को इधर-उधर भेजने का प्रबन्ध करे उसी प्रकार अन्य शेष रहे कार्यों को विचार कर पूर्ण करे तथा अन्तःपुर=महल के आन्तरिक आचरणों-गतिविधियों एवं स्थितियों की और नियुक्त गुप्तचरों के आचरणों एवं गतिविधियों की भी जानकारी रखे और यथावश्यक विचार करे॥१५३॥
अष्टविध कर्म आदि पर चिन्तन―
कृस्त्नं चाष्टविधं कर्म पञ्चवर्गं च तत्त्वतः।
अनुरागापरागौ च प्रचारं मण्डलस्य च॥१५४॥ (११९)
और सम्पूर्ण अष्टविध कर्म तथा पञ्चवर्ग की व्यवस्था अनुराग=किस राजा आदि का प्रेम और किसका अपराग=विरोध है तथा प्रकृति मण्डल की गतिविधि एवं आचरण इन बातों पर ठीक-ठीक चिन्तन करे और तदनुसार उपाय करे॥१५४॥
राज्यमण्डल की विचारणीय चार मूल प्रकृतियाँ―
मध्यमस्य प्रचारं च विजिगीषोश्च चेष्टितम्।
उदासीनप्रचारं च शत्रोश्चैव प्रयत्नतः॥१५५॥ (१२०)
और 'मध्यम' राजा के आचरण और गतिविधि तथा 'विजिगीषु' राजा के प्रयत्नों का तथा 'उदासीन' राजा की स्थिति-गतिविधि का शत्रु राजा के आचरण एवं स्थिति गतिविधि आदि की भी प्रयत्नपूर्वक जानकारी रखे अर्थात् जानकर विचार करके तदनुसार प्रयत्न भी करे=आचरण में लाये॥१५५॥
राज्यमण्डल की विचारणीय आठ अन्य मूलप्रकृतियाँ―
एताः प्रकृतयो मूलं मण्डलस्य समासतः।
अष्टौ चान्याः समाख्याता द्वादशैव तु ताः स्मृताः॥१५६॥ (१२१)
संक्षेप में ये चार [मध्यम राजा, विजिगीषु, उदासीन और शत्रु राजा राज्यमण्डल की चार मूल प्रकृतियाँ=मूलरूप से विचारणीय स्थितियाँ या विषय हैं और आठ मूल प्रकृतियां और कही गई हैं इस प्रकार वे कुल मिलाकर [४+८=१२] बारह होती हैं॥१५६॥
राज्यमण्डल की प्रकृतियों के बहत्तर भेद―
अमात्यराष्ट्रदुर्गार्थदण्डाख्याः पञ्च चापराः।
प्रत्येकं कथिता ह्येताः संक्षेपेण द्विसप्ततिः॥१५७॥ (१२२)
मन्त्री, राष्ट्र, किला, कोष, दण्ड नामक और पाँच प्रकृतियाँ है पूर्वोक्त बारह प्रकृतियों के साथ ये मिलकर अर्थात् पूर्वोक्त प्रत्येक बारहों प्रकृतियों के पांच-पांच भेद होकर इस प्रकार संक्षेप से कुल ७२ प्रकृतियां [=विचारणीय स्थितियां या विषय] हो जाती हैं। १२ पूर्व में १५६वें श्लोक में वर्णित और उन १२ के ५५ भेद से ६० इस प्रकार १२×५=६०+१२=७२ हैं॥१५७॥
शत्रु, मित्र और उदासीन की परिभाषा―
अनन्तरमरिं विद्यादरिसेविनमेव च।
अरेरनन्तरं मित्रमुदासीनं तयोः परम्॥१५८॥ (१२३)
अपने राज्य के समीपवर्ती राजा को और शत्रुराजा की सेवा-सहायता करने वाले राजा को 'शत्रु' राजा समझे अरि से भिन्न अर्थात् शत्रु से विपरीत आचरण करने वाले अर्थात् सेवा-सहायता करने वाले राजा को और शत्रुराजा की सीमा से लगे उसके समीपवर्ती राजा को मित्र राजा माने इन दोनों से भिन्न किसी भी राजा को जो न सहायता करे न विरोध करे, उसे 'उदासीन' राजा समझना चाहिए॥१५८॥
तान् सर्वानभिसन्दध्यात् सामादिभिरुपक्रमैः।
व्यस्तैश्चैव समस्तैश्च पौरुषेण नयेन च॥१५९॥ (१२४)
उन सब प्रकार के राजाओं को 'साम' आदि [साम, दान, भेद, दण्ड] उपायों से एक-एक उपाय से अथवा सब उपायों का एक साथ प्रयोग करके पराक्रम से तथा नीति से वश में रखे॥१५९॥
सन्धि, विग्रह आदि युद्धविषयक षड्गुणों का वर्णन―
सन्धिं च विग्रहं चैव यानमासनमेव च।
द्वैधीभावं संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥१६०॥ (१२५)
सन्धि विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय इन युद्धविषयक छह गुणों का भी राजा सदा विचार-मनन करे॥१६०॥
आसनं चैव यानं च सन्धिं विग्रहमेव च।
कार्यं वीक्ष्य प्रयुञ्जीत द्वैधं संश्रयमेव च॥१६१॥ (१२६)
राजा बिना युद्ध के अपने राज्य में शान्त बैठे रहना अथवा युद्ध के अवसर पर शत्रु को घेरकर बैठ जाना, और शत्रु पर आक्रमण करने के लिए जाना, तथा शत्रुराजा अथवा किसी अन्य राजा से मेल करना, और शत्रुराजा से युद्ध करना, युद्ध के समय सेना के दो विभाग करके आक्रमण करना, निर्बल अवस्था में किसी बलवान् राजा या पुरुष का आश्रय लेना, युद्ध विषयक इन षड्गुणों को कार्यसिद्धि को देखकर प्रयुक्त करना चाहिए॥१६१॥
सन्धि और उसके भेद―
सन्धिं तु द्विविधं विद्याद्राजा विग्रहमेव च।
उभे यानासने चैव द्विविधः संश्रयः स्मृतः॥१६२॥ (१२७)
सन्धि और विग्रह के दो-दो भेद होते हैं और यान और आसन के भी दो-दो भेद होते हैं तथा संश्रय भी दो प्रकार का माना है, राजा भेदों सहित इन षड्गुणों को भलीभांति जाने॥१६२॥
समानयानकर्मा च विपरीतस्तथैव च।
तदात्वायतिसंयुक्तः सन्धिर्ज्ञेयो द्विलक्षणः॥१६३॥ (१२८)
तात्कालिक फल देने वाली और भविष्य में भी फल देने वाली दो प्रकार की समझनी चाहिए―१. शत्रु राजा पर आक्रमण करने के लिए किसी अन्य राजा से मेल करना, उसी प्रकार २. पहले से विपरीत अर्थात् असमानयानकर्मा=सन्धि किये हुए साथी राजाओं द्वारा शत्रु राजा पर पृथक् पृथक् आक्रमण करने के लिए मेल करना, अथवा शत्रुराजा पर आक्रमण न करके उससे कोई समझौता कर लेना [यह अपनी बल-स्थिति को देखकर उचित अवसर तक होता है ७.१६९]॥१६३॥
विग्रह और उसके भेद―
स्वयंकृतश्च कार्यार्थमकाले काल एव वा।
मित्रस्य चैवापकृते द्विविधो विग्रहः स्मृतः॥१६४॥ (१२९)
विग्रह=कलह, युद्ध दो प्रकार का होता है—चाहे युद्ध के लिए निश्चित किये समय में अथवा अनिश्चित किसी भी समय में १. कार्य की सिद्धि के लिए किसी राजा से स्वयं किया गया विग्रह और २. किसी राजा के द्वारा मित्रराजा पर आक्रमण करने या हानि पहुंचाने पर मित्रराजा की रक्षा के लिए उसके शत्रुराजा से किया गया विग्रह॥१६४॥
यान और उसके भेद―
एकाकिनश्चात्ययिके कार्ये प्राप्ते यदृच्छया।
संहतस्य च मित्रेण द्विविधं यानमुच्यते॥१६५॥ (१३०)
युद्ध की अपरिहार्य परिस्थिति उत्पन्न होने पर और युद्ध करने की अपनी इच्छा होने पर अकेले ही अथवा किसी मित्रराजा के साथ मिलकर युद्ध के लिए जाना ये दो प्रकार का 'यान'=युद्धार्थ गमन करना, कहाता है॥१६५॥
आसन और उसके भेद―
क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात्पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्॥१६६॥ (१३१)
इस जन्म या पूर्व जन्म में कृत कार्यों या कर्मों के फल के कारण शत्रु की अपेक्षा से क्षीण स्थिति होने के कारण अथवा मित्र राज्य के आग्रह के कारण युद्ध न करके अपने राज्य में शान्त बैठे रहना यह 'आसन' दो प्रकार का माना है॥१६६॥
द्वैधीभाव और उसके भेद―
बलस्य स्वामिनश्चैव स्थितिः कार्यार्थसिद्धये।
द्विविधं कीर्त्यते द्वैध षाड्गुण्यगुणवेदिभिः॥१६७॥ (१३२)
षड्गुणों के महत्त्व को जानने वालों ने द्वैधीभाव=सेना का विभाजन दो प्रकार का कहा है―विजय-कार्य की सिद्धि के लिए १―सेना के दो भाग करके सेना का एक भाग सेनापति के अधीन रखके और २―सेना का दूसरा भाग राजा द्वारा अपने अधीन रखके आक्रमण करना॥१६७॥
संश्रय और उसके भेद―
अर्थसम्पादनार्थं च पीड्यमानस्य शत्रुभिः।
साधुषु व्यपदेशार्थं द्विविधः संश्रयः स्मृतः॥१६८॥ (१३३)
शत्रुओं द्वारा पीड़ित होने पर वर्तमान में अपने उद्देश्य की सिद्धि अथवा आत्मरक्षा के लिए किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय लेना और भावी हार या दुःख से बचने के लिए किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय लेना ये दो प्रकार का 'संश्रय'=शरण लेना कहलाता है॥१६८॥
सन्धि करने का समय―
यदावगच्छेदायत्यामाधिक्यं ध्रुवमात्मनः।
तदात्वे चाल्पिकां पीडां तदा सन्धिं समाश्रयेत्॥१६९॥ (१३४)
राजा जब यह समझे कि इस समय युद्ध करने से थोड़ी-बहुत पीड़ा या हानि अवश्य प्राप्त होगी और भविष्य में युद्ध करने में अपनी वृद्धि और विजय अवश्य होगी तब शत्रु से मेल करके उचित समय तक धीरज रखे॥१९६॥
विग्रह करने का समय―
यदा प्रहृष्टा मन्येत सर्वास्तु प्रकृतीर्भृशम्।
अत्युच्छ्रितं तथात्मानं तदा कुर्वीत विग्रहम्॥१७०॥ (१३५)
जब अपनी सब प्रकृतियाँ=मन्त्री, प्रजा, सेना आदि अत्यन्त प्रसन्न उन्नतिशील और उत्साहित जाने वैसे अपने को भी समझे तभी शत्रु राजा से विग्रह=युद्ध कर लेवे॥१७०॥
यान का समय―
यदा मन्येत भावेन हृष्टं पुष्टं बलं स्वकम्।
परस्य विपरीतं च तदा यायाद्रिपुं प्रति॥१७१॥ (१३६)
जब अपने बल अर्थात् सेना को हर्षित और पुष्टि युक्त जाने और शत्रु के बल=सेना को अपने से विपरीत अर्थात् निर्बल जाने तब शत्रु पर आक्रमण करने के लिए जावे॥१७१॥
आसन का समय―
यदा तु स्यात्परिक्षीणो वाहनेन बलेन च।
तदासीत प्रयत्नेन शनकैः सान्त्वयन्नरीन्॥१७२॥ (१३७)
जब सेना, बल, वाहन आदि से क्षीण हो जाये तब शत्रुओं को नीति से प्रयत्नपूर्वक शान्त करता हुआ अपने राज्य में शान्त बैठा रहे॥१७२॥
द्वैधीभाव का समय―
मन्येतारिं यदा राजा सर्वथा बलवत्तरम्।
तदा द्विधा बलं कृत्वा साधयेत्कार्यमात्मनः॥१७३॥ (१३८)
राजा जब शत्रु को अपने से अत्यन्त बलवान् जाने तब सेना को दो भागों में बांटकर आक्रमण करके अपना विजय कार्य सिद्ध करे॥१७३॥
संश्रय का समय―
यदा परबलानां तु गमनीयतमो भवेत्।
तदा तु संश्रयेत् क्षिप्रं धार्मिकं बलिनं नृपम्॥१७४॥ (१३९)
जब राजा यह समझ लेवे कि अब मैं शत्रु राजा से पराजित होकर उनके वश में हो जाऊंगा तभी किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय शीघ्र ले लेवे॥१७४॥
निग्रहं प्रकृतीनां च कुर्याद् योऽरिबलस्य च।
उपसेवेत तं नित्यं सर्वयत्नैर्गुरुं यथा॥१७५॥ (१४०)
जो राजा शत्रुराजा की सेना आदि का और अपनी विद्रोही प्रजा, अमात्य, सेना आदि का नियन्त्रण करे उस आश्रयदाता राजा की जैसे गुरु की सत्यभाव से सेवा की जाती है वैसे निरन्तर सब उपायों से उसकी सेवा करे॥१७५॥
यदि तत्रापि सम्पश्येद् दोषं संश्रयकारितम्।
सुयुद्धमेव तत्रापि निर्विशङ्कः समाचरेत्॥१७६॥ (१४१)
जिस बलवान् राजा का आश्रय लिया है यदि उसके आश्रय लेने में अपनी हानि अनुभव करे अथवा राज्य को हड़पने की उसकी मानसिकता देखे तो फिर उससे भी सब प्रकार का भय छोड़ कर यथाशक्ति युद्ध ही कर ले॥१७६॥
सर्वोपायैस्तथा कुर्यान्नीतिज्ञः पृथिवीपतिः।
यथास्याभ्यधिका न स्युर्मित्रोदासीनशत्रवः॥१७७॥ (१४२)
नीति का जानने वाला राजा, जिस प्रकार उसके मित्र, उदासीन और शत्रु राजा अधिक न बढ़ें ऐसे प्रयत्न सब उपायों से करे॥१७७॥
आयतिं सर्वकार्याणां तदात्वं च विचारयेत्।
अतीतानां च सर्वेषां गुणदोषौ च तत्त्वतः॥१७८॥ (१४३)
राजा राज्य के सब कार्यों और योजनाओं के वर्तमान समय के और भविष्य के और सब अतीत काल के किये गये कार्यों और योजनाओं के गुण-दोषों को अर्थात् लाभ-हानि को यथार्थ रूप से विचारे और विचारकर दोषों को छोड़ दे और गुणों को ग्रहण करे॥१७८॥
आयत्यां गुणदोषज्ञस्तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः।
अतीते कार्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते॥१७९॥ (१४४)
जो राजा भविष्यत् अर्थात् आगे किये जाने वाले कर्मों में गुण-दोषों का विचार करता है वर्त्तमान में तुरन्त निश्चय करता है और किये हुए कार्यों में शेष कर्त्तव्य को जानकर पूर्ण करता है वह शत्रुओं से पराजित कभी नहीं होता॥१७९॥
राजनीति का निष्कर्ष―
यथैनं नाभिसंदध्युर्मित्रोदासीनशत्रवः ।
तथा सर्वं संविदध्यादेष सामासिको नयः॥१८०॥ (१४५)
जिस प्रकार राजा को राजा के मित्र, उदासीन और शत्रु जन वश में करके अन्यथा कार्य न करा पायें वैसा प्रयत्न सब कार्यों में राजा करे, यही संक्षेप में राजनीति कहाती है॥१८०॥
आक्रमण के लिए जाना और व्यूहरचना आदि की व्यवस्था―
यदा तु यानमातिष्ठेदरिराष्ट्रं प्रति प्रभुः।
तदाऽनेन विधानेन यायादरिपुरं शनैः॥१८१॥ (१४६)
युद्ध करने में समर्थ हुआ राजा शत्रु के राज्य पर जब भी आक्रमण करने हेतु जाने का निश्चय करे तब अग्रिम विधि के अनुसार सावधानी पूर्वक शत्रु के राष्ट्र पर चढ़ाई करे॥१८१॥
कृत्वा विधानं मूले तु यात्रिकं च यथाविधि।
उपगृह्यास्पदं चैव चारान् सम्यग्विधाय च॥१८४॥ (१४७)
जब राजा शत्रुराजा के साथ युद्ध करने को जावे तब अपने दुर्ग और राज्य की रक्षा का निश्चित प्रबन्ध करके और यथाविधि युद्ध यात्रा सम्बन्धी सेना, यान, वाहन, शस्त्र आदि सामग्री लेकर सर्वत्र समाचारों को देने वाले दूतों को नियुक्त करके युद्धार्थ जावे॥१८४॥
विविध मार्ग का संशोधन करे―
संशोध्य त्रिविधं मागं षड्विधं च बलं स्वकम्।
सांपरायिककल्पेन यायादरिपुरं शनैः॥१८५॥ (१४८)
तीन प्रकार के मार्गों स्थल, जल, आकाश के, अथवा जांगल=बंजर, अनूप=जलीय, आटविक=वन प्रदेशीय, अथवा ग्राम्य, आरण्य, पर्वतीय को गमनयोग्य निर्बाध बनाकर अपना छह प्रकार का बल रथ, अश्व, हस्ती, पदातिसेना, सेनापति और कर्मचारी वर्ग इनको तैयार करके संग्राम करने की विधि के अनुसार सावधानीपूर्वक शत्रु के राष्ट्र पर चढ़ाई करे॥१८५॥
आक्रमण के समय शत्रु और शत्रुमित्र पर विशेष दृष्टि रखे―
शत्रुसेविनि मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत्।
गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरो रिपुः॥१८६॥ (१४९)
राजा शत्रु से प्यार करने वाले छद्म मित्र के प्रति अधिक निगरानी और सावधानी रखे और एक बार विरुद्ध होकर फिर मित्र बनकर आने वाले व्यक्ति के प्रति भी सावधान रहे क्योंकि वह अधिक कष्टदायक शत्रु होता है॥१८६॥
व्यूहरचनाएं―
दण्डव्यूहेन तन्मार्गं यायात्तु शकटेन वा।
वराहमकराभ्यां वा सूच्या वा गरुडेन वा॥१८७॥ (१५०)
शत्रुराष्ट्र पर आक्रमण हेतु जाने वाले मार्ग पर सेना का दण्डव्यूह बनाकर अथवा शकटव्यूह बनाकर अथवा वराहव्यूह या मकरव्यूह बनाकर अथवा सूचीव्यूह या गरुडव्यूह बनाकर युद्ध के लिए जाये॥१८७॥
यतश्च भयमाशङ्केत् ततो विस्तारयेद् बलम्।
पद्मेन चैव व्यूहेन निविशेत सदा स्वयम्॥१८८॥ (१५१)
जिधर से भय की आशंका हो उसी ओर सेना को फैला देवे पद्मव्यूह अर्थात् पद्माकार में चारों ओर सेनाओं को रख के स्वयं सदा मध्य में रहे॥१८८॥
सेनापतिबलाध्यक्षौ सर्वदिक्षु निवेशयेत्।
यतश्च भयमाशङ्केत् प्राचींतांकल्पयेद्दिशम्॥१८९॥ (१५२)
राजा सेनापति और बलाध्यक्षों को चारों दिशाओं में नियुक्त करे जिस ओर से युद्ध का भय अधिक हो उसी दिशा को मुख्य मानकर सेना को उधर मोड़ देवे॥१८९॥
गुल्मांश्च स्थापयेदाप्तान् कृतसंज्ञान् समन्ततः।
स्थाने युद्धे च कुशलानभीरूनविकारिणः॥१९०॥ (१५३)
युद्ध के मैदान में यथोचित स्थानों पर युद्धविद्या में सुशिक्षित, जिनके पृथक्-पृथक् संकेत या नाम रखे गये हों युद्ध करने में अनुभवी निडर शुद्ध मन वाले सैनिक दलों को स्थापित करे॥१९०॥
संहतान् योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद् बहून्।
सूच्या वज्रेण चैवैतान् व्यूहेन व्यूह्य योधयेत्॥१९१॥ (१५४)
यदि शत्रु के सैनिक अधिक हों और अपने कम संख्या में हों तो उनको समूह बनाकर लड़ाये, अपने सैनिकों की संख्या बहुत हो तो आवश्यकतानुसार उनको फैलाकर लड़ाये, और या फिर सूचीव्यूह अथवा वज्रव्यूह की रचना करके उन सैनिकों को लड़ाये॥१९१॥
स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौद्विपैस्तथा।
वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्मायुधैः स्थले॥१९२॥ (१५५)
समभूमि में रथ, घोड़ों से जो समुद्र में युद्ध करना हो तो नौकाओं से और थोड़े जल में हाथियों पर वृक्ष आदि झाड़ी युक्त प्रदेश में बाणों से तथा खुले मैदान में तलवार और ढाल से युद्ध करें॥१९२॥
सेना का उत्साहवर्धन―
प्रहर्षयेद् बलं व्यूह्य ताँश्च सम्यक् परीक्षयेत्।
चेष्टाश्चैव विजानीयादरीन् योधयतामपि॥१९४॥ (१५६)
व्यूह=मोर्चाबन्दी करने के बाद सेना को वीरतापूर्ण वचनों से प्रोत्साहित करे शत्रुओं से युद्ध करते समय भी सैनिकों की अच्छी प्रकार परीक्षा करे कि वे निष्ठापूर्वक लड़ रहे हैं वा नहीं और लड़ते हुए सैनिकों की चेष्टाओं को भी देखा करे॥१९४॥
शत्रुराजा को पीड़ित करने के उपाय―
उपरुध्यारिमासीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत्।
दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्॥१९५॥ (१५७)
आवश्यक होने पर शत्रु को चारों ओर से घेर कर रोक रखे और उसके राष्ट्र को पीड़ित करे शत्रु के चारा, अन्न, जल और इन्धन को सदा दूषित या नष्ट कर दे॥१९५॥
भिन्द्याच्चैव तडागानि प्राकारपरिखास्तथा।
समवस्कन्दयेच्चैनं रात्रौ वित्रासयेत्तथा॥१९६॥ (१५८)
शत्रु के तालाब नगर के प्रकोट और किले की खाई को तोड़-फोड़ दे रात्रि में उसको भयभीत रखकर सोने न दे और ऐसे उस पर दबाव बनाकर फिर पूरी शक्ति से आक्रमण करके विजय प्राप्त करे॥१९६॥
शत्रुराजा के अमात्यों में फूट―
उपजप्यानुपजपेद् बुध्येतैव च तत्कृतम्।
युक्ते च दैवे युध्येत जयप्रेप्सुरपेतभीः॥१९७॥ (१५९)
शत्रु के वर्ग के जिन अमात्य सेनापति आदि में फूट डाली जा सके, उनमें फूट डाल कर अपने साथ मिला ले और इस प्रकार उनसे शत्रु राजा की योजनाओं की जानकारी ले ले और फिर विजय का इच्छुक राजा इस प्रकार भय छोड़कर अनुकूल अवसर देखकर युद्ध-आक्रमण शुरू कर देवे॥१९७॥
साम्ना दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक्।
विजेतुं प्रयतेतारीन् न युद्धेन कदाचन॥१९८॥ (१६०)
'साम' से 'दान' से 'भेद' से इन तीनों उपायों से एकसाथ अथवा अलग-अलग एक-एक से शत्रुओं को जीतने का पहले प्रयत्न करे पहले ही युद्ध से कभी जीतने का यत्न न करे॥१९८॥
त्रयाणामप्युपायानां पूर्वोक्तानामसम्भवे।
तथा युध्येत सम्पन्नो विजयेत रिपून् यथा॥२००॥ (१६९)
पूर्वोक्त साम, दान, भेद तीनों ही उपायों में से किसी से भी विजय की सम्भावना न रहने पर सब प्रकार से तैयारी करके इस प्रकार युद्ध करे जिससे कि शत्रुओं पर निश्चित विजय कर सके॥२००॥
राजा के विजयोपरान्त कर्त्तव्य―
जित्वा सम्पूजयेद् देवान् ब्राह्मणांश्चैव धार्मिकान्।
प्रदद्यात् परिहारांश्च ख्यापयेदभयानि च॥२०१॥ (१६२)
शत्रुराज्य पर विजय प्राप्त करके जो धर्माचरण वाले विद्वान् ब्राह्मण हों उनको ही सत्कृत करे अर्थात् उनको अभिवादन करके उनका आशीर्वाद ले और जिन प्रजाजनों को युद्ध में हानि हुई है उन्हें क्षतिपूर्ति के लिए सहायता दे तथा विजित राष्ट्र में सब प्रकार के अभयों की घोषणा करा दे कि 'प्रजाओं को किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं दिया जायेगा अतः वे सब प्रकार से भय-आशंका-रहित होकर रहें'॥२०१॥
हारे हुए राजा से प्रतिज्ञापत्र आदि लिखवाना―
सर्वेषां तु विदित्वैषां समासेन चिकीर्षितम्।
स्थापयेत्तत्र तद्वंश्यं कुर्याच्च समयक्रियाम्॥२०२॥ (१६३)
विजित प्रदेश की इन सब प्रजाओं की इच्छा को संक्षेप से अर्थात् सर्वसामान्य रूप से जानकर कि वे किसे अपना राजा बनाना चाहती हैं, या कोई और विशेष आकांक्षा हो उसे भी जानकर उस राजसिंहासन पर उस प्रदेश की प्रजाओं में से उन्हीं के वंश के किसी व्यक्ति को बिठा देवे और उससे सन्धिपत्र=शर्तनामा लिखा लेवे कि अमुक कार्य तुम्हें स्वेच्छानुसार करना है, अमुक मेरी इच्छा से। इसी प्रकार अन्य कर, अनुशासन आदि से सम्बद्ध बातें भी उसमें हों॥२०२॥
प्रमाणानि च कुर्वीत तेषां धर्म्यान् यथोदितान्।
रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह॥२०३॥ (१६४)
उन विजित प्रदेश की प्रजाओं या नियुक्त राजपुरुषों द्वारा कही हुई उनकी न्यायोचित [=वैध] बातों को प्रमाणित कर दे अर्थात् प्रतिज्ञापूर्वक स्वीकार कर ले। अभिप्राय यह है कि उनकी न्यायोचित बातों को मान लेवे और जो अमान्य बातें हों उनको न माने और मन्त्री आदि प्रधान राजपुरुषों के साथ पूर्वोक्त राजा का उत्तम वस्तुयें प्रदान करते हुए यथायोग्य सत्कार करे॥२०३॥
आदानमप्रियकरं दानञ्च प्रियकारकम्।
अभीप्सितानामर्थानां काले युक्तं प्रशस्यते॥२०४॥ (१६५)
किसी के धन, पदार्थ आदि छीन लेना आत्मा की अप्रीति=असन्तुष्टि का कारण है, और किसी को देना आत्मा की प्रीति=सन्तुष्टि का कारण है। किसी के अभीष्ट पदार्थों को उचित समय पर उसको देना प्रशंसनीय व्यवहार है॥२०४॥
सह वाऽपि व्रजेद्युक्तः सन्धिं कृत्वा प्रयत्नतः।
मित्रं हिरण्यं भूमिं वा सम्पश्यस्त्रिविधं फलम्॥२०६॥ (१६६)
[यदि पूर्वोक्त कथनानुसार राजा को बन्दी न बनाकर उसके स्थान पर दूसरा राजा न बिठाकर उसे ही राजा रखे तो] अथवा उसी राजा के साथ मेल करके बड़ी सावधानी पूर्वक उससे सन्धि करके अर्थात् सन्धिपत्र लिखाकर मित्रता, सोना अथवा भूमि की प्राप्ति होना, इन तीन प्रकार के फलों की प्राप्ति देखकर अर्थात् इनकी उपलब्धि करके वापिस लौट आये॥२०६॥
पार्ष्णिग्राहं च सम्प्रेक्ष्य तथाक्रन्दं च मण्डले।
मित्रादथाप्यमित्राद्वा यात्राफलमवाप्नुयात्॥२०७॥ (१६७)
अपने राज्य में 'पार्ष्णिग्राह' संज्ञक राजा=राज्य को छीनने की इच्छा रखने वाला पड़ौसी राजा तथा 'आक्रन्द' संज्ञक राजा=वह निकटवर्ती राजा जो किसी राजा को अन्य राजा की सहायता करने से रोकता है, का ध्यान रखके मित्र अथवा पराजित शत्रु से युद्ध यात्रा का फल प्राप्त करे। अभिप्राय यह है कि अपने पड़ोसी राजाओं से सुरक्षा के लिए या उसको वश में करने के लिए धन, भूमि, सोना या मित्रता में से कौन से फल की अधिक उपयोगिता होगी, यह सोचकर शत्रु या मित्र से वही-वही फल मुख्यता से प्राप्त करे॥२०७॥
सच्चा मित्र सबसे बड़ी शक्ति―
हिरण्यभूमिसम्प्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते।
यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम्॥२०८॥ (१६८)
राजा सुवर्ण और भूमि की प्राप्ति से वैसा नहीं बढ़ता जैसे कि निश्चल प्रेमयुक्त भविष्यत् में सहयोग करने वाले दुर्बल मित्र को भी प्राप्त करके बढ़ता है, शक्तिशाली बनता है॥२०८॥
प्रशंसनीय मित्र राजा के लक्षण―
धर्मज्ञं च कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिमेव च।
अनुरक्तं स्थिरारम्भं लघुमित्रं प्रशस्यते॥२०९॥ (१६९)
धर्म को जानने वाला और कृतज्ञ अर्थात् किये हुए उपकार को सदा मानने वाला सन्तुष्ट अनुरागी स्थिरतापूर्वक मित्रता या कार्य करने वाला अपने से न्यून स्थिति वाला भी मित्र अच्छा माना जाता है॥२०९॥
कष्टकर शत्रु के लक्षण―
प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च।
कृतज्ञं धृतिमन्तञ्च कष्टमाहुररिं बुधाः॥२१०॥ (१७०)
बुद्धिमान् जन बुद्धिमान् कुलीन शूरवीर चतुर दाता किये हुए उपकार को मानने वाला और धैर्यवान् शत्रु को अधिक कष्टदायक मानते हैं अर्थात् इन गुणों वाले राजा को शत्रु नहीं बनाना चाहिये॥२१०॥
उदासीन के लक्षण―
आर्यता पुरुषज्ञानं शौर्यं करुणवेदिता।
स्थौललक्ष्यं च सततमुदासीनगुणोदयः॥२११॥ (१७१)
जिसमें सज्जनता हो, जो अच्छे-बुरे लोगों की पहचान रखने वाला हो, शूरवीरता गुण वाला, करुणा की भावना वाला और किस कार्य से मुझे लाभ होगा और किस कार्य से हानि होगी, इस लक्ष्य को सामने रखकर व्यवहार करने वाला अर्थात् जो सुख में साथी रहे और आपत्ति में काम न आये, ऐसा राजा 'उदासीन' लक्षण वाला कहाता है॥२११॥
राजा द्वारा आत्मरक्षा सबसे आवश्यक―
क्षेम्यां सस्यप्रदां नित्यं पशुवृद्धिकरीमपि।
परित्यजेन्नृपो भूमिमात्मार्थमविचारयन्॥२१२॥ (१७२)
राजा अपनी और राज्य की रक्षा के लिए आरोग्यता से युक्त धान्य-घास आदि से उपजाऊ रहने वाली सदैव जहाँ पशुओं की वृद्धि होती हो, ऐसी भूमि को भी बिना विचार किये छोड़ देवे अर्थात् विजयी राजा को देनी पड़े तो दे दे, उसमें कष्ट अनुभव न करे॥२१२॥
आपदर्थं धनं रक्षेद्दारान् रक्षेद्धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि॥२१३॥ (१७३)
आपत्ति में पड़ने पर आपत्ति से रक्षा के लिए धन की रक्षा करे, और धनों की अपेक्षा स्त्रियों की अर्थात् परिवार की रक्षा करे स्त्रियों से भी और धनों से भी बढ़कर आत्मरक्षा करना सबसे आवश्यक है, क्योंकि यदि राजा की अपनी रक्षा नहीं हो सकेगी तो वह न परिवार की रक्षा कर सकेगा और न धन की, न राज्य की॥२१३॥
सह सर्वाः समुत्पन्नाः प्रसमीक्ष्यापदो भृशम्।
संयुक्तांश्च वियुक्तांश्च सर्वोपायान् सृजेद् बुधः॥२१४॥ (१७४)
सब प्रकार की आपत्तियाँ तीव्र रूप में और एकसाथ उपस्थित हुई देखकर बुद्धिमान् व्यक्ति सम्मिलित रूप से और पृथक्-पृथक् रूप से अर्थात् जैसे भी उचित समझे सब उपायों को उपयोग में लावे॥२१४॥
उपेतारमुपेयं च सर्वोपायांश्च कृत्स्नशः।
एतत्त्रयं समाश्रित्य प्रयतेतार्थसिद्धये॥२१५॥ (१७५)
उपेता=प्राप्त करनेवाला अर्थात् राजा स्वयं को, अपनी क्षमता को उपेय=प्राप्त करने योग्य अर्थात् शत्रु राजा और सब विजय प्राप्त करने के साम, दान आदि उपाय इन तीनों बातों को सम्पूर्ण रूप से आश्रय करके पूर्णतः विचार करके और अपनी क्षमता देखकर अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए राजा प्रयत्न करे, इन्हें बिना विचारे नहीं॥२१५॥
मन्त्रणा एवं शस्त्राभ्यास के बाद भोजनार्थ अन्तःपुर में जाना―
एवं सर्वमिदं राजा सह सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः।
व्यायम्याप्लुत्य मध्याह्न भोक्तुमन्तःपुरं विशेत्॥२१६॥ (१७६)
इस प्रकार राजा यह पूर्वोक्त विषयवस्तु सब मन्त्रियों के साथ विचारविमर्श करके व्यायाम और शस्त्रास्त्रों का अभ्यास करके स्नान करके फिर दोपहर होने पर दोपहर के समय का भोजन करने के लिए अन्तःपुर अर्थात् पत्नी आदि के निवास-स्थान महल में प्रवेश करे॥२१६॥
राजा सुपरीक्षित भोजन करे―
तत्रात्मभूतैः कालज्ञैरहार्यैः परिचारकैः।
सुपरीक्षितमन्नाद्यमद्यान्मन्त्रैर्विषापहैः॥२१७॥ (१७७)
वहां अन्तःपुर में जाकर गम्भीर प्रेम रखने वाले, विश्वासपात्र ऋतु स्वास्थ्य, अवस्था आदि के अनुसार भोज्य पदार्थों के खाने के समय को जानने वाले शत्रुओं द्वारा फूट में न आने वाले सेवकों=पाक-शालाध्यक्षों, वैद्यों आदि के द्वारा विषनाशक युक्तियों या उपायों से अच्छी प्रकार परीक्षा किये हुए भोजन को खाये॥२१७॥
खाद्य पदार्थों के समान अन्य प्रयोज्य साधनों में सावधानी―
एवं प्रयत्नं कुर्वीत यानशय्यासनाशने।
स्नाने प्रसाधने चैव सर्वालंकारकेषु च॥२२०॥ (१७८)
राजा सवारी, सोने के साधन पलंग आदि, आसन, भोजन स्नान और शृंगार-प्रसाधन उबटन आदि और सब राजचिह्न जैसे अलंकार आदि साधनों में भी इस प्रकार योग्य सेवकों द्वारा परीक्षा कराने की सावधानी बरते॥२२०॥
भोजन के बाद विश्राम और राज्यकार्यों का चिन्तन―
भुक्त्वान्विहरेच्चैव स्त्रीभिरन्तःपुरे सह।
विहृत्य तु यथाकालं पुनः कार्याणि चिन्तयेत्॥२२१॥ (१७९)
और भोजन करके अन्तःपुर=रनिवास में पत्नी आदि पारिवारिक जनों के साथ वार्तालाप या विश्राम करे और विश्राम करके तदनन्तर यथासमय राज्य-कार्यों पर विचार करे॥२२१॥
सैनिकों एवं शस्त्रादि का निरीक्षण―
अलंकृतश्च सम्पश्येदायुधीयं पुनर्जनम्।
वाहनानि च सर्वाणि शस्त्राण्याभरणानि च॥२२२॥ (१८०)
और फिर कवच, शस्त्रास्त्रों, राजचिह्नों एवं राज-वेशभूषा आदि से सुसज्जित होकर शस्त्रधारी सैनिकों और रथ, हाथी, घोड़े आदि वाहनों सब प्रकार के शस्त्रास्त्रों-शस्त्रभण्डारों और आभूषणों [धातुएं, रत्न आदि] और सुरक्षा-संभाल आदि का निरीक्षण करे॥२२२॥
सन्ध्योपासना तथा गुप्तचरों और प्रतिनिधियों के सन्देशों को सुनना―
सन्ध्यां चोपास्य शृणुयादन्तर्वेश्मनि शस्त्रभृत्।
रहस्याख्यायिनां चैव प्रणिधीनां च चेष्टितम्॥२२३॥ (१८१)
और फिर सायंकालीन संध्योपासना करके शस्त्रास्त्र धारण किया हुआ राजा महल के भीतर गुप्तचर गृह में राज्य के रहस्यमय समाचारों को लाने में नियुक्त गुप्तचरों और दूतों और गुप्तचराधिकारियों के कार्यों एवं समाचारों को सुने॥२२३॥
गुप्तचरों को समझाकर सायंकालीन भोजन के लिए अन्तःपुर में जाना―
गत्वा कक्षान्तरं त्वन्यत्समनुज्ञाप्य तं जनम्।
प्रविशेद्भोजनार्थं च स्त्रीवृतोऽन्तःपुरं पुनः॥२२४॥ (१८२)
और फिर उन सब लोगों को और आगे के लिए जो कुछ समझाना-कहना है उस सबका आदेश देकर फिर अन्तःपुर में जाकर वहां स्त्री आदि परिजनों के साथ, या द्वितीयार्थ में अंगरक्षिका स्त्रियों से सुरक्षित भोजनशाला के कमरे में सायंकालीन भोजन करने के लिए प्रवेश करे॥२२४॥
रात्रिशयनकाल―
तत्र भुक्त्वा पुनः किंचित्तूर्यघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः॥२२५॥ (१८३)
वहां अन्तःपुर में भोजन करके उसके पश्चात् शहनाई-तुरही आदि बाजों के संगीत से मन को प्रसन्न करके सो जाये और विश्राम करके श्रान्तिरहित होकर निर्धारित समय अर्थात् रात्रि के पिछले पहर ब्राह्ममुहूर्त में उठे॥२२५॥
एतद्विधानमातिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः।
अस्वस्थः सर्वमेतत्तु भृत्येषु विनियोजयेत्॥२२६॥ (१८४)
स्वस्थ अवस्था में राजा इस पूर्वोक्त विधि से कार्यों को करे अस्वस्थ हो जाने पर यह सब कार्यभार पृथक्-पृथक् विभागों में नियुक्त प्रमुख मन्त्रियों को सौंप देवे॥२२६॥
इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ राजधर्मात्मकः सप्तमोऽध्यायः॥
अथ सप्तमोऽध्यायः
(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)
(राजधर्म विषय ७.१ से ९.३३६ तक)
राजा की नियुक्ति एवं सिद्धि (७.१ से ७.३५ तक)―
राजधर्मान् प्रवक्ष्यामि यथावृत्तो भवेन्नृपः।
संभवश्च यथा तस्य सिद्धिश्च परमा यथा॥१॥ (१)
ब्राह्मण वर्ण और साथ-साथ चारों आश्रमों के कर्त्तव्य कहने के पश्चात् अब मैं (राजधर्मान्) राजा के और क्षत्रिय वर्ण के कर्त्तव्यों को और (नृपः यथावृत्तः भवेत्) राजा का जैसा आचरण होना चाहिए, (तस्य यथासम्भवः) उसका चयन या नियुक्ति जिस प्रकार होनी चाहिए, (च) और (यथा परमा सिद्धिः) जिस प्रकार उसको अपने कार्यों में अधिकाधिक सफलता प्राप्त हो वह सब (प्रवक्ष्यामि) आगे कहूंगा॥१॥
ब्राह्मं प्राप्तेन संस्कारं क्षत्रियेण यथाविधि।
सर्वस्यास्य यथान्यायं कर्त्तव्यं परिरक्षणम्॥२॥ (२)
(यथाविधि) शास्त्रोक्त विधि के अनुसार (ब्राह्म संस्कार प्राप्तेन क्षत्रियेण) उपनयन संस्कार कराके ब्रह्मचर्य पूर्वक क्षत्रिय वर्ण के लिए निर्धारित शिक्षा प्राप्त किये हुए क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को (अस्य सर्वस्य) अपने राज्य और जनता की (यथान्यायं परिरक्षणं कर्त्तव्यम्) न्याय के अनुसार सब प्रकार की सुरक्षा करनी चाहिए॥२॥
राजा बनने की आवश्यकता―
अराजके हि लोकेऽस्मिन् सर्वतो विद्रुते भयात्।
रक्षार्थमस्य सर्वस्य राजानमसृजत्प्रभुः॥३॥ (३)
(हि) क्योंकि (अराजके अस्मिन् लोके) राजा के बिना इस जगत् में (सर्वतः भयात् विद्रुते) सब ओर भय और अराजकता फैल जाने के कारण, अर्थात् राजा के बिना असुरक्षा और अराजकता हो जाती है अतः (अस्य सर्वस्य रक्षार्थम्) इस सब राज्य और जनता की सुरक्षा के लिए (प्रभुः राजानम्+असृजत्) प्रभु ने 'राजा' पद को बनाया है अर्थात् राजा बनाने की प्रेरणा वेदों के द्वारा मानवों को दी है॥३॥
राजा के आठ विशिष्ट गुण―
इन्द्राऽनिलयमार्काणामग्नेश्च वरुणस्य च।
चन्द्रवित्तेशयोश्चैव मात्रा निहत्य शाश्वतीः॥४॥ (४)
उस राजा के पद को (इन्द्र-अनिल-यम-अर्काणाम् अग्नेः) विद्युत्, वायु, यम, सूर्य, अग्नि (च) और (वरुणस्य) जल, (चन्द्र-वित्तेशयोः च एव) चन्द्र तथा कुबेर=धनाध्यक्ष इनकी (शाश्वती: मात्राः निर्हृत्य) स्वाभाविक मात्राओं अर्थात् गुणों को ग्रहण करके बनाया है, अर्थात् राजा को विद्युत् के समान समृद्धि कर्त्ता, वायु के समान राज्य की सब स्थितियों का ज्ञाता, यम=ईश्वर के समान न्यायकारी, सूर्य के समान अज्ञाननाशक और कर ग्रहणकर्त्ता, अग्नि के समान पाप-अपराध नाशक, जल के समान अपराधियों का बन्धनकर्ता, चन्द्र के समान प्रसन्नता-दाता और धनाध्यक्ष के समान पालन-पोषणकर्ता होना चाहिए॥४॥
राजा दिव्यगुणों के कारण प्रभावशाली―
यस्मादेषां सुरेन्द्राणां मात्राभ्यो निर्मितो नृपः।
तस्मादभिभवत्येष सर्वभूतानि तेजसा॥५॥ (५)
(यस्मात्) क्योंकि (एषां सुरेन्द्राणाम्) इन पूर्वोक्त (७.४) शक्तिशाली इन्द्र आदि देवताओं=दिव्य पदार्थों के (मात्राभ्यः) सारभूत गुणों के अंश से (नृपः निर्मितः) 'राजा' पद को बनाया है (तस्मात्) इसीलिए (एषः) यह राजा (तेजसा) अपने तेज=शक्ति के प्रभाव से (सर्वभूतानि अभिभवति) सब प्राणियों को वशीभूत एवं नियन्त्रित रखता है॥५॥
तपत्यादित्यवच्चैष चक्षूंषि च मनांसि च।
न चैनं भुवि शक्नोति कश्चिदप्यभिवीक्षितुम्॥६॥ (६)
(एषः) यह राजा (आदित्यवत् चक्षूंषि च मनांसि तपति) जैसे सूर्य लोगों की आंखों और मनों को अपने तेज से सन्तप्त करता है उसी प्रकार अपने प्रभाव से प्रभावित रखता है, (एनं भुवि कश्चिद्अपि) प्रभावशाली होने के कारण राजा को पृथिवी पर कोई भी (अभिवीक्षितुम् न शक्नोति) कठोर दृष्टि से देखने में समर्थ नहीं होता अर्थात् आंखें नहीं दिखा सकता॥६॥
सोऽग्निर्भवति वायुश्च सोऽर्कः सोमः स धर्मराट्।
स कुबेरः स वरुणः स महेन्द्रः प्रभावतः॥७॥ (७)
(सः) वह राजा (प्रभावतः) अपने प्रभाव=सामर्थ्य के कारण (अग्निः) अग्नि के समान दुष्टों=अपराधियों का विनाश करने वाला (च) और (वायुः) वायु के समान गुप्तचरों द्वारा सर्वत्र गतिशील होकर राज्य की प्रत्येक स्थिति की जानकारी रखने वाला (अर्कः) सूर्य द्वारा किरणों से जलग्रहण करने के समान कष्टरहित कर=टैक्स ग्रहण करने वाला अथवा प्रजा के अज्ञान अविद्या का नाशक (सोमः) चन्द्रमा के समान शान्ति–प्रसन्नता देने वाला (धर्मराट्) न्यायानुसार दण्ड देने वाला (कुबेरः) ऐश्वर्यप्रद परमेश्वर के समान समभाव से प्रजा का पालन-पोषण करने वाला (वरुणः) जलीय तरंगों या भंवरों के समान अपराधियों और शत्रुओं को बन्धनों या कारागार में डालने वाला और (सः) वही (महेन्द्रः) वर्षाकारक शक्ति इन्द्र के समान सुख-सुविधा का वर्षक=प्रदाता (भवति) है॥७॥
तस्माद्धर्मं यमिष्टेषु स व्यवस्येन्नराधिपः।
अनिष्टं चाप्यनिष्टेषु तं धर्मं न विचालयेत्॥१३॥ (८)
(तस्मात्) इसलिए (सः नराधिपः) वह राजा (यं धर्मम्) जिस धर्म अर्थात् कानून का (इष्टेषु व्यवस्येत्) पालनीय विषयों में आवश्यकता-अनुसार निर्धारण करे (च) और (अनिष्टेषु अपि अनिष्टम्) अपालनीय विषयों में जिसका निषेध करे (तं धर्मं न विचालयेत्) उस धर्म अर्थात् कानून व्यवस्था का उल्लंघन कोई न करे॥१३॥
दण्ड की सृष्टि और उपयोग विधि―
तस्यार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्ममात्मजम्।
ब्रह्मतेजोमयं दण्डमसृजत् पूर्वमीश्वरः॥१४॥ (९)
(तस्य+अर्थे) उस राजा के प्रयोग के लिए (पूर्वम्) सृष्टि के प्रारम्भ से ही (ईश्वरः) ईश्वर ने (सर्वभूतानां गोप्तारम्) सब प्राणियों की सुरक्षा करने वाले (ब्रह्मतेजोमयम्) ब्रह्मतेजोमय अर्थात् शिक्षाप्रद और अपराधनाशक गुण वाले (धर्ममात्मजम्) धर्म-स्वरूपात्मक=न्याय के प्रतीक (दण्डम्+असृजत्) दण्ड को रचा अर्थात् दण्ड देने की व्यवस्था का विधान किया है और उसे यह अधिकार वेदों में दिया है॥१४॥
तं देशकालौ शक्तिं च विद्यां चावेक्ष्य तत्त्वतः।
यथार्हतः सम्प्रणयेन्नरेष्वन्यायवर्तिषु॥१६॥ (१०)
(देशकालौ शक्तिं च विद्याम्) देश, समय, शक्ति और न्याय अर्थात् अपराध के अनुसार न्यायोचित दण्ड का ज्ञान, इन सब बातों को (तत्त्वतः अवेक्ष्य) ठीक-ठीक विचार कर (अन्यायवर्तिषु) अन्याय का आचरण करने वाले (नरेषु) लोगों में (तम्) उस दण्ड को (यथार्हतः सम्प्रणयेत्) यथायोग्य रूप में प्रयुक्त करे॥१६॥
दण्ड का महत्त्व―
स राजा पुरुषो दण्डः स नेता शासिता च सः। चतुर्णामाश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः॥१७॥ (११)
(सः दण्डः पुरुषः राजा) जो दण्ड है वही पुरुष, राजा (सः नेता) वही न्याय का प्रचारकर्त्ता (च) और (शासिता) सबका शासनकर्त्ता (सः) वही (चतुर्णाम्+आश्रमाणां च धर्मस्य प्रतिभूः स्मृतः) चार वर्ण और चार आश्रमों के धर्म का प्रतिभू अर्थात् जामिन् [=जिम्मेदार] है॥१७॥
दण्डः शास्ति प्रजाः सर्वा दण्ड एवाभिरक्षति।
दण्डः सुप्तेषु जागर्ति दण्डं धर्मं विदुर्बुधाः॥१८॥ (१२)
वास्तव में (दण्डः सर्वाः प्रजाः शास्ति) दण्ड=दण्डविधान ही सब प्रजाओं पर शासन करता है और उन्हें अनुशासन में रखता है (दण्डः+एव) दण्ड ही (अभिरक्षति) प्रजाओं की सब ओर से [दुष्टों आदि से] रक्षा करता है (सुप्तेषु) सोती हुई प्रजाओं में (दण्डः जागर्ति) दण्ड ही जागता रहता है अर्थात् असावधानी प्रमाद और एकान्त में होने वाले अपराधों के समय दण्ड का ध्यान ही उन्हें भयभीत करके उनसे रोकता है, दण्ड का भय एक ऐसा भय है जो सोते हुए भी रक्षक बना रहता है, इसीलिए (बुधाः) बुद्धिमान् लोग (दण्डं धर्मं विदुः) दण्ड=न्यायोचित दण्ड-विधान [७.१६] को राजा का प्रमुख धर्म मानते हैं॥१८॥
न्यायानुसार दण्ड ही हितकारी―
समीक्ष्य स धृतः सम्यक् सर्वा रञ्जयति प्रजाः।
असमीक्ष्य प्रणीतस्तु विनाशयति सर्वतः॥१९॥ (१३)
(सः सम्यक् समीक्ष्य धृतः) वह दण्ड भली-भांति विचारकर प्रयुक्त करने पर (सर्वाः प्रजाः रञ्जयति) सब लोगों को प्रसन्न-सन्तुष्ट रखता है, (तु) किन्तु (असमीक्ष्य प्रणीतः) बिना विचारे अर्थात् अन्यायपूर्वक प्रयुक्त करने पर (सर्वतः विनाशयति) राजा का सभी प्रकार का विनाश कर देता है॥१९॥
दुष्येयुः सर्ववर्णाश्च भिद्येरन् सर्वसेतवः।
सर्वलोकप्रकोपश्च भवेद्दण्डस्य विभ्रमात्॥२४॥ (१४)
(दण्डस्य विभ्रमात्) दण्ड के यथायोग्य और न्यायानुसार प्रयोग न होने पर (सर्ववर्णाः दुष्येयुः) चारों वर्णों की व्यवस्था नष्ट-भ्रष्ट हो जायेगी, (सर्वसेतवः भिद्येरन्) सब मर्यादाएँ छिन्न-भिन्न हो जायेंगी, (च सर्वलोकप्रकोपः) और राज्य के सब लोगों में आक्रोश उत्पन्न हो जायेगा॥२४॥
यत्र श्यामो लोहिताक्षो दण्डश्चरति पापहा।
प्रजास्तत्र न मुह्यन्ति नेता चेत् साधु पश्यति॥२५॥ (१५)
(यत्र) जिस राज्य में (श्यामः लोहिताक्षः) श्यामवर्ण और रक्तनेत्र अर्थात् स्मरणमात्र से ही भयकारी और देखने मात्र से ही (पापहा) पाप-अपराध से दूर रखने वाला (दण्डः चरति) दण्ड प्रयुक्त होता है, (चेत्) यदि (नेता) राज्य का संचालक राजा (साधु पश्यति) भलीभांति विचारकर दण्ड का प्रयोग करता है तो (तत्र प्रजाः न मुह्यन्ति) उस राज्य में प्रजाएँ कभी कर्त्तव्य में प्रमाद नहीं करती॥२५॥
दण्ड देने का अधिकारी राजा कौन―
तस्याहुः संप्रणेतारं राजानं सत्यवादिनम्।
समीक्ष्यकारिणं प्राज्ञं धर्मकामार्थकोविदम्॥२६॥ (१६)
(तस्य संप्रणेतारं राजानं आहुः) उस दण्ड के प्रयोग करने वाले राजा और राजपुरुष में जो गुण होने चाहियें, उनको कहते हैं कि वह (सत्यवादिनम्) सत्य बोलने वाला हो, (समीक्ष्यकारिणम्) भलीभांति विचार करके ही दण्डविधान का प्रयोग करने वाला हो, (प्राज्ञम्) दण्ड-विधान का विद्वान् और विशेषज्ञ हो, (धर्म-काम-अर्थ-कोविदम्) धर्म, काम और अर्थ के सही स्वरूप का ज्ञाता हो॥२६॥
अन्यायपूर्वक दण्डप्रयोग राजा का विनाशक―
कतं राजा प्रणयन् सम्यक् त्रिवर्गेणाभिवर्द्धते।
कामात्मा विषमः क्षुद्रो दण्डेनैव निहन्यते॥२७॥ (१७)
(तं सम्यक् प्रणयन् राजा) उस दण्ड को भलीभांति विचारकर न्यायानुसार प्रयोग करने वाला राजा (त्रिवर्गेण+अभिवर्धते) धर्म, अर्थ और कामनाओं से भरपूर बढ़ता है, और जो (कामात्मा) विषय-वासना में संलिप्त है, (विषमः) किसी के साथ न्याय और किसी के साथ अन्याय करता है, (क्षुद्रः) विचार और ज्ञान से रहित है, वह (दण्डेन+एव निहन्यते) उस अन्याययुक्त दण्ड से ही विनाश को प्राप्त हो जाता है॥२७॥
दण्डो हि सुमहत्तेजो दुर्धरश्चाकृतात्मभिः।
धर्माद्विचलितं हन्ति नृपमेव सबान्धवम्॥२८॥ (१८)
(दण्डः हि सुमहत् तेजः) दण्ड निश्चय ही महान् तेजयुक्त है, जो (अकृतात्मभिः दुर्धरः) आत्मनियन्त्रण से रहित अधर्मात्मा लोगों के द्वारा प्रयुक्त करना कठिन है, क्योंकि (धर्मात् विचलितं नृपम्) दण्ड-धर्म अर्थात् न्याय का त्याग करने वाले राजा को (सबान्धवम् एव हन्ति) बन्धु-बान्धवों सहित अवश्य विनष्ट कर देता है॥२८॥
सोऽसहायेन मूढेन लुब्धेनाकृतबुद्धिना।
न शक्यो न्यायतो नेतुं सक्तेन विषयेषु च॥३०॥ (१९)
(सः) वह दण्ड-विधान (असहायेन) उत्तम सहायकों- परामर्शदाताओं से विहीन राजा से (मूढेन) मूर्ख से, (लुब्धेन) लोभी से, (अकृतबुद्धिना) सुशिक्षा से रहित से, (च) और (विषयेषु सक्तेन) विषय-वासनाओं में संलिप्त रहने वाले राजा से, (न्यायतः नेतुं न शक्यः) न्यायपूर्वक नहीं चलाया जा सकता॥३०॥
शुचिना सत्यसन्धेन यथाशास्त्रानुसारिणा।
प्रणेतुं शक्यते दण्डः सुसहायेन धीमता॥३१॥ (२०)
(शुचिना) धन आदि से पवित्रात्मा (सत्यसन्धेन) सत्य संकल्प, (यथाशास्त्र+अनुसारिणा) न्यायशास्त्र के अनुसार चलने वाले, (सुसहायेन) उत्तम सहायकों―परामर्शदाताओं से युक्त, (धीमता) बुद्धिमान् राजा से (दण्डः प्रणेतुं शक्यते) वह दण्डविधान न्यायानुसार चलाना सम्भव है॥३१॥
न्यायानुसार दण्डादि देने से राजा की यशोवृद्धि―
एवं वृत्तस्य नृपतेः शिलोञ्छेनापि जीवतः।
विस्तीर्यते यशो लोके तैलबिन्दुरिवाम्भसि॥३३॥ (२१)
(एवं वृत्तस्य नृपतेः) इस प्रकार न्यायपूर्वक [१३-३१] दण्ड का प्रयोग करने वाले राजा का (शिलोञ्छेन अपि+जीवतः) शिल-उञ्छ से निर्वाह करते हुए भी अर्थात् राजा के धनहीन होते हुए भी (यशः) यश (अम्भसि तैलबिन्दुः इव) जैसे पानी पर डालने से तैल की बूंद चारों ओर फैल जाती है ऐसे (लोके विस्तीर्यते) सम्पूर्ण जगत् में फैल जाता है॥३३॥
न्यायविरुद्ध आचरण से यशोनाश―
अतस्तु विपरीतस्य नृपतेरजितात्मनः।
संक्षिप्यते यशो लोके घृतबिन्दुरिवाम्भसि॥३४॥ (२२)
(अतः तु विपरीतस्य) पूर्वोक्त व्यवहार से विपरीत चलने वाले अर्थात् न्याय और सावधानीपूर्वक दण्ड का व्यवहार न करने वाले (अजितात्मनः नृपतेः) अजितेन्द्रिय राजा का (यशः) यश (अम्भसि घृतबिन्दुः+इव) जल में पड़े घी के बिन्दु के समान (लोके संक्षिप्यते) लोक में कम होता जाता है॥३४॥
राजा की नियुक्ति नामक विषय का उपसंहार―
स्वे स्वे धर्मे निविष्टानां सर्वेषामनुपूर्वशः।
वर्णानामाश्रमाणां च राजा सृष्टोऽभिरक्षिता॥३५॥ (२३)
(स्वे स्वे धर्मे निविष्टानाम्) अपने-अपने धर्मों में संलग्न (अनुपूर्वशः सर्वेषां वर्णानां च आश्रमाणाम्) क्रमशः चारों वर्णों और आश्रमों के 'रक्षक' के रूप में राजा को बनाया है अर्थात् राजा के पद पर आसीन व्यक्ति का कर्तव्य है कि वह सब वर्णस्थ और आश्रमस्थ व्यक्तियों को उनके धर्मों में प्रवृत्त रखे और उनकी सुरक्षा करे। समाज को धर्म अर्थात् नियमव्यवस्था में चलाने के लिए और उसकी सुरक्षा के लिए ही राजा और राज्य की संकल्पना होती है॥३५॥
राजा की जीवनचर्या और भृत्यों आदि की नियुक्ति सम्बन्धी विधान―
तेन यद्यत् सभृत्येन कर्त्तव्यं रक्षता प्रजाः।
तत्तद्वोऽहं प्रवक्ष्यामि यथावदनुपूर्वशः॥३६॥ (२४)
(तेन) उस राजा को (प्रजाः रक्षता) प्रजाओं की रक्षा करते हुए (सभृत्येन) अपने अमात्य, मन्त्री आदि सहायकों सहित (यत्-यत् कर्त्तव्यम्) जो-जो कर्त्तव्य करना चाहिए (तत्-तत्) उस उसको (अनुपूर्वशः) क्रमशः (वः) तुमको (अहं यथावत् प्रवक्ष्यामि) मैं ठीक-ठीक कहूंगा―॥३६॥
राजा वेदवेत्ता आचार्यों की मर्यादा में रहे―
ब्राह्मणान् पर्युपासीत प्रातरुत्थाय पार्थिवः।
त्रैविद्यवृद्धान् विदुषस्तिष्ठेत् तेषां च शासने॥३७॥ (२५)
(पार्थिवः) राजा (प्रातः+उत्थाय) सवेरे उठकर [७.१४५ में वर्णित दिनचर्या को सम्पन्न करने के बाद] (त्रैविद्यवृद्धान् विदुषः ब्राह्मणान्) ऋक्, साम, यजु रूप त्रयीविद्या [१.२३; ११.२६३-२६४] में बढ़े-चढ़े अर्थात् पारंगत आचार्य, ऋत्विज् आदि [७.४३, ७८] विद्वान् ब्राह्मणों की (परि+उपासीत) अभिवादन आदि से सत्कार एवं शिक्षा के लिए संगति करे (च) और सभी राजसभासदों सहित [७.३६] (तेषाम्) उन शिक्षक विद्वानों के (शासने तिष्ठेत्) निर्देशन और मर्यादा में स्थित रहे॥३७॥
राजा शिक्षक वेदवेत्ताओं का आदर-सत्कार करे―
वृद्धांश्च नित्यं सेवेत विप्रान् वेदविदः शुचीन्।
वृद्धसेवी हि सततं रक्षोभिरपि पूज्यते॥३८॥ (२६)
(च) और उन (शुचीन्) शुद्ध आत्मा वाले (वेदविदः) वेद के ज्ञाता (वृद्धान् विप्रान्) ज्ञान एवं तपस्या में बढ़े-चढ़े विद्वानों की (नित्यं सेवेत) प्रतिदिन सेवा करे अर्थात् आदर-सत्कार और संगति करे (हि) क्योंकि (सततं वृद्धसेवी) सदैव ज्ञान आदि से बढ़े-चढ़े विद्वानों का सेवा करने वाले राजा का (रक्षोभिः+अपि पूज्यते) राक्षस अर्थात् विरोधी भी आदर करते हैं, अर्थात् मर्यादाओं-व्यवस्थाओं को भंग करने वाले पापकर्मकारी राक्षस भी उस राजा का सम्मान करते हैं और उस से भयभीत होकर वश में रहते हैं, फिर मनुष्यों की तो बात ही क्या है! वे तो स्वत: वशीभूत रहेंगे॥३८॥
राजा वेदवेत्ताओं से अनुशासन की शिक्षा ले―
तेभ्योऽधिगच्छेद्विनयं विनीतात्मापि नित्यशः।
विनीतात्मा हि नृपतिर्न विनश्यति कर्हिचित्॥३९॥ (२७)
(विनीत+आत्मा+अपि) विनयी अर्थात् राजनीतिक अनुशासन एवं मर्यादाओं में रहने के स्वभाव वाला होते हुए भी राजा अपने राजसभासदों-भृत्यों सहित [७.३६] (तेभ्यः) उन [७.३७-३८] वेदवेत्ता गुरुजनों से (नित्यशः) प्रतिदिन (विनयम् अधिगच्छेत्) अनुशासन और मर्यादा की शिक्षा ग्रहण करे (हि) क्योंकि (विनीत+आत्मा नृपतिः) अनुशासन में रहने वाला और नीति जानने वाला राजा (कर्हिचित् न विनश्यति) [स्वच्छन्द या उद्धत होकर अनर्थकारी कार्य न करने के कारण] कभी विनाश को प्राप्त नहीं करता परन्तु स्वेच्छाचारी राजा अवश्य विनष्ट हो जाता है―॥३९॥
राजा विद्वानों से विद्याएँ ग्रहण करे―
त्रैविद्येभ्यस्त्रयीं विद्यां दण्डनीतिं च शाश्वतीम्।
आन्वीक्षिकीं चात्मविद्यां वार्त्तारम्भाँश्च लोकतः॥४३॥ (२८)
राजसभासदों-भृत्यों सहित [७.३६] राजा (त्रैविद्येभ्यः त्रयीं विद्याम्) ऋक्, यजु, साम रूप तीन वेदों की विद्याओं के ज्ञाता विद्वानों से तीनों विद्याओं को [१२.१११, ११२] (च) और (शाश्वतीं दण्डनीतिम्) सनातन दण्डविद्या को, (च) और (आन्वीक्षिकीम्) न्यायविद्या को, (आत्मविद्याम्) अध्यात्मविद्या को (च) और (लोकतः वार्तारम्भान्) जनता से राज्य के लिए आवश्यक व्यवसायों का आरम्भ करना सीखे और राज्यसम्बन्धी समाचार जाने॥४३॥
जितेन्द्रिय राजा ही प्रजाओं को वश में रख सकता है―
इन्द्रियाणां जये योगं समातिष्ठेद्दिवानिशम्।
जितेन्द्रियो हि शक्नोति वशे स्थापयितुं प्रजाः॥४४॥ (२९)
राजसभासदों-भृत्यों सहित राजा (दिवानिशम्) दिन-रात (इन्द्रियाणां जये योगं समातिष्ठेत्) इन्द्रियों को वश में रखने में प्रयत्न करता रहे, (हि) क्योंकि (जितेन्द्रियः प्रजाः वशे स्थाययितुं शक्नोति) इन्द्रियों को वश में रख सकने वाला राजा ही प्रजाओं को वश में अर्थात् अनुशासन में स्थापित रख सकता है॥४४॥
व्यसनों की गणना―
दश कामसमुत्थानि तथाष्टौ क्रोधजानि च।
व्यसनानि दुरन्तानि प्रयत्नेन विवर्जयेत्॥४५॥ (३०)
सभी सभासदों और भृत्यों सहित राजा (दश कामसमुत्थानि) काम से उत्पन्न होने वाले मृगया आदि दश [७.४७], (तथा) तथा (अष्टौ क्रोधजानि) क्रोध से उत्पन्न होने वाले पैशुन्य आदि आठ [७.४८] (दुरन्तानि व्यसनानि) कठिन व्यसनों को (प्रयत्नेन विवर्जयेत्) प्रयत्न करके छोड़ देवे अथवा प्रयत्नपूर्वक उनसे दूर रहे॥४५॥
कामजेषु प्रसक्तो हि व्यसनेषु महीपतिः।
वियुज्यतेऽर्थधर्माभ्यां क्रोधजेष्वात्मनैव तु॥४६॥ (३९)
(हि) क्योंकि (महीपतिः) सभासदों-भृत्यों सहित जो राजा (कामजेषु प्रसक्तः) काम से उत्पन्न हुए दश [७.४७] दुष्ट व्यसनों में फंसता है वह (अर्थधर्माभ्यां वियुज्यते) अर्थ अर्थात् राज्य-धन-आदि और धर्म से रहित हो जाता है, (तु) और (क्रोधजेषु) जो क्रोध से उत्पन्न हुए आठ [७.४८] बुरे व्यसनों में फंसता है (आत्मना एव) वह जीवन से ही हाथ धो बैठता है॥४६॥
मृगयाक्षो दिवास्वप्नः परिवादः स्त्रियो मदः।
तौर्यत्रिकं वृथाट्या च कामजो दशको गणः॥४७॥ (३२)
(मृगया) शिकार खेलना (अक्षः) अक्ष अर्थात् चोपड़, जुआ आदि खेलना (दिवास्वप्नः) दिन में सोना (परिवादः) काम कथा वा दूसरों की निन्दा करना (स्त्रियः) स्त्रियों का संग (मदः) मादक द्रव्य अर्थात् मद्य, अफीम, भांग, गांजा, चरस आदि का सेवन (तौर्यत्रिकम्) गाना, बजाना, नाचना व नाच कराना, और देखना (वृथाट्या) व्यर्थ ही इधर-उधर घूमते रहना (दश कामजः गणः) ये दश कामोत्पन्न होने वाले व्यसन हैं॥४७॥
क्रोधज आठ व्यसन―
पैशुन्यं साहसं द्रोह ईर्ष्यासूयार्थदूषणम्।
वाग्दण्डजं च पारुष्यं क्रोधजोऽपि गणोऽष्टकः॥४८॥ (३३)
(पैशुन्यम्) चुगली करना (साहसम्) सभी दुस्साहस के व्यवहार (द्रोहः) द्रोह रखना (ईर्ष्या) दूसरे की बड़ाई वा उन्नति देखकर जला करना (असूया) असूया―दोषों में गुण और गुणों में दोषारोपण करना (अर्थदूषणम्) अधर्मयुक्त बुरे कामों में धन आदि का व्यय करना (वाग् दण्डजम्) कठोर वचन बोलना और बिना अपराध के कड़ा वचन बोलना (च) वा (पारुष्यम्) अतिकठोर दण्ड देना अथवा बिना अपराध के दण्ड देना (अष्टकः क्रोधजः+अपि गणः) ये आठ दुर्गुण क्रोध से उत्पन्न होते हैं॥४८॥
सभी व्यसनों का मूल लोभ―
द्वयोरप्येतयोर्मूलं यं सर्वे कवयो विदुः।
तं यत्नेन जयेल्लोभं तज्जावेतावुभौ गणौ॥४९॥ (३४)
(सर्वे कवयः) सब विद्वान् जन (एतयोः द्वयोः+अपि मूलं यं लोभम्) इन पूर्वोक्त कामज और क्रोधज अठारह दोषों का मूल लोभ को (विदुः) जानते हैं (तं यत्नेन जयेत्) उस लोभ को प्रयत्न से राजा जीते, क्योंकि (तज्जौ+एतौ+उभौ गणौ) लोभ से ही पूर्वोक्त दोनों प्रकार के व्यसन उत्पन्न होते हैं, लोभ नहीं होगा तो उक्त दोष भी जीवन में नहीं आयेंगे॥४९॥
कामज और क्रोधज व्यसनों में अधिक कष्टदायक व्यसन―
पानमक्षाः स्त्रियश्चैव मृगया च यथाक्रमम्।
एतत्कष्टतमं विद्याच्चतुष्कं कामजे गणे॥५०॥ (३५)
(कामजे गणे) कामज व्यसनों में (पानम्) मद्य, भांग आदि मदकारक द्रव्यों का सेवन, (अक्षाः) पासों आदि से किसी प्रकार का भी जुआ खेलना, (स्त्रियः एव) परस्त्री और एक से अधिक स्त्रियों का सङ्ग, (मृगया) मृगया शिकार खेलना (एतत्) ये (चतुष्कं) चार (यथाक्रमम्) क्रम से पूर्व-पूर्व से आगे वाला अधिकाधिक (कष्टतमं विद्यात्) कष्टदायक व्यसन हैं॥५०॥
दण्डस्य पातनं चैव वाक्पारुष्यार्थदूषणे।
क्रोधजेऽपि गणे विद्यात्कष्टमेतत्त्रिकं सदा॥५१॥ (३६)
(च) और (क्रोधजे+अपिगणे) क्रोधज व्यसनों में (दण्डस्य पातनम्) बिना अपराध दण्ड देना (वाक्पारुष्य+अर्थदूषणे) बिना अपराध कठोर वचन बोलना और धन आदि का अधर्म अन्याय में खर्च करना (एतत्-त्रिकं सदा कष्टं विद्यात्) इन क्रोध से उत्पन्न हुए तीन व्यसनों को सदा कष्टदायक माने॥५१॥
सप्तकस्यास्य वर्गस्य सर्वत्रैवानुषङ्गिणः।
पूर्वं पूर्वं गुरुतरं विद्याद् व्यसनमात्मवान्॥५२॥ (३७)
(अस्य सप्तकस्य वर्गस्य) इस [५०-५१ में वर्णित] सात प्रकार के दुर्गुणों के वर्ग में (सर्वत्र+एव+अनुषङ्गिणः) जो सब स्थानों पर प्रायः मनुष्यों के व्यवहार में पाये जाते हैं उनमें (पूर्वं पूर्वं व्यसनं गुरुतरं विद्यात्) पहले-पहले व्यसन को अधिक कष्टप्रद समझे, अर्थात् अधर्म में व्यय से कठोर वचन, उससे कठोर दण्ड, उससे शिकार खेलना, उससे परस्त्री और अनेक स्त्रियों का संग, उससे द्यूत खेलना, उससे मद्य आदि का सेवन अधिक दुष्ट दोष हैं॥५२॥
व्यसन मृत्यु से भी अधिक कष्टदायी―
व्यसनस्य च मृत्योश्च व्यसनं कष्टमुच्यते।
व्यसन्यधोऽधो व्रजति स्वर्यात्यव्यसनी मृतः॥५३॥ (३८)
(व्यसनस्य च मृत्योः च) व्यसन और मृत्यु में (व्यसनं कष्टम्+उच्यते) व्यसन को ही अधिक कष्टदायक कहा गया है, क्योंकि (व्यसनी) व्यसन में फंसा रहने वाला व्यक्ति (अधः अधः याति) दिन-प्रतिदिन दुर्गुणों और कष्टों में फंसता ही जाता है और उसका पतन ही होता जाता है, किन्तु (अव्यसनी) व्यसन से रहित व्यक्ति (मृतः) मरकर भी (स्वर्याति) स्वर्ग=सुख को [४.७९] प्राप्त करता है अर्थात् उसे परजन्म में सुख मिलता है॥५३॥
मन्त्रियों की नियुक्ति―
मौलान् शास्त्रविदः शूरान् लब्धलक्ष्यान्कुलोद्गतान्।
सचिवान् सप्त चाष्टौ वा कुर्वीत सुपरीक्षितान्॥५४॥ (३९)
राजा (मौलान्) मूलराज्य=स्वदेश में उत्पन्न हुए (शास्त्रविदः) वेदादि शास्त्रों के जानने वाले [७.२] (शूरान्) शूरवीर (लब्धलक्ष्यान्) जिनके लक्ष्य और विचार निष्फल न हों, और (कुलोद्गतान्) कुलीन (परीक्षितान्) अच्छे प्रकार परीक्षा किये हुए (सप्त वा अष्टौ) सात वा आठ (सचिवान्) मन्त्रियों को (प्रकुर्वीत) नियुक्त करे॥५४॥
राजा को सहायकों की आवश्यकता में कारण―
अपि यत्सुकरं कर्म तदप्येकेन दुष्करम्।
विशेषतोऽसहायेन किन्नु राज्यं महोदयम्॥५५॥ (४०)
(अपि यत् सुकरं कर्म) क्योंकि जो सरल कार्य होता है, वह भी (एकेन दुष्करम्) एक अकेले द्वारा करना कठिन होता है, (विशेषतः महोदयं राज्यं असहायेन किं नु) विशेषकर अतिविस्तृत और महान् फल देने वाला विस्तृत राज्य बिना सहायकों के अकेले राजा द्वारा कैसे संचालित हो सकता है? अर्थात् अकेले के द्वारा संचालित नहीं हो सकता, अतः राजा को आवश्यकता-नुसार मन्त्री नियुक्त करने चाहिएं॥५५॥
मन्त्रियों के साथ मन्त्रणा करे―
तैः सार्द्धं चिन्तयेन्नित्यं सामान्यं सन्धिविग्रहम्।
स्थानं समुदयं गुप्तिं लब्धप्रशमनानि च॥५६॥ (४१)
राजा (तैः सार्धम्) उन पूर्वोक्त सात-आठ मन्त्रियों के साथ [७.५४] (नित्यम्) आवश्यकता-अनुसार सदैव (सामान्यं चिन्तयेत्) राज्यसम्बन्धी इन छह गुणों पर सहमतिपूर्वक और समग्र रूप से चिन्तन किया करे― (सन्धि-विग्रहम्) १. कब और किस राजा से सन्धि करने की आवश्यकता है, २. कब किस राजा से विरोध बढ़ रहा है अथवा किससे युद्ध करना है, (स्थानम्) ३. किसी राजा से विरोध होने पर भी कब तक अपने राज्य में बिना शत्रु पर आक्रमण किये चुपचाप बैठे रहना है, (समुदयम्) ४. राष्ट्र, कोश, सेना सैन्यसामग्री आदि की समृद्धि होने पर कब, किस राजा पर आक्रमण करना है, (गुप्तिम्) ५. राजा और अपने राष्ट्र की रक्षा के उपायों पर विचार करना (च) और (लब्ध प्रशमनानि) ६. विजित देशों में शान्ति स्थापित करना॥५६॥
तेषां स्वं स्वमभिप्रायमुपलभ्य पृथक् पृथक्।
समस्तानाञ्च कार्येषु विदध्याद्धितमात्मनः॥५७॥ (४२)
(तेषाम्) उन सचिवों का (पृथक्-पृथक् एवं स्वम्+अभिप्रायम् उपलभ्य) पृथक्-पृथक् अपना-अपना विचार और अभिप्राय सुन-समझकर (समस्तानां कार्येषु) सभी के द्वारा कथित कार्यों में (आत्मनःहितम्) जो कार्य अपना और राष्ट्र का हितकारक हो (विदध्यात्) उसको करे॥५७॥
आवश्यकतानुसार अन्य अमात्यों की नियुक्ति―
अन्यानपि प्रकुर्वीत शुचीन् प्राज्ञानवस्थितान्।
सम्यगर्थसमाहर्तॄनमात्यान्सुपरीक्षितान्॥६०॥ (४३)
आवश्यकता पड़ने पर राजा (अन्यान् अपि) अन्य भी (शुचीन्) सत्यनिष्ठा वाले पवित्रात्मा (प्राज्ञान्) बुद्धिमान् (अवस्थितान्) निश्चिय बुद्धि वाले (सम्यक्-अर्थ-समाहर्तॄन्) राज्य की वृद्धि के लिए पदार्थों के संग्रह करने में योग्य (सुपरीक्षितान्) सुपरीक्षित (अमात्यान् प्रकुर्वीत) मन्त्रियों को नियुक्त करे॥६०॥
निवर्त्तेतास्य यावद्भिरितिकर्तव्यता नृभिः।
तावतोऽतन्द्रितान् दक्षान् प्रकुर्वीत विचक्षणान्॥६१॥ (४४)
(अस्य) राजा का (यावद्भिः नृभि इतिकर्तव्यता निवर्तेत) जितने सचिवों से कार्य सिद्ध हो सके (तावतः) उतने ही (अतन्द्रितान्) आलस्यरहित (दक्षान्) सक्षम और (विचक्षणान्) विशेषज्ञ सचिवों को (प्रकुर्वीत) नियुक्त कर ले॥६१॥
तेषामर्थे नियुञ्जीत शूरान् दक्षान् कुलोद्गतान्।
शुचीनाकरकर्मान्ते भीरूनन्तर्निवेशने॥६२॥ (४५)
राजा (तेषाम्+अर्थे) पूर्वोक्त उन सचिवों के सहयोग के लिए (शूरान्) शूरवीर स्वभाव के, (कुलोद्गतान्) कुलीन-परीक्षित परिवारों में उत्पन्न (शुचीन्) पवित्रात्मा=ईमानदार स्वभाव वाले अधिकारियों को (आकरकर्मान्ते) बड़े अथवा मुख्य कार्यों में तथा (भीरून्) डरपोक स्वभाव के अधिकारियों को (अन्तर्निवेशने) राज्य के आन्तरिक गौण कार्यों में (नियुञ्जीत) नियुक्त करे॥६२॥
प्रधान दूत की नियुक्ति―
दूतं चैव प्रकुर्वीत सर्वशास्त्रविशारदम्।
इङ्गिताकारचेष्टज्ञं शुचिं दक्षं कुलोद्गतम्॥६३॥ (४६)
(च) और राजा (दूतम् एव प्रकुर्वीत) राजदूत की भी नियुक्ति अवश्य करे, जिसमें ये गुण हों― (सर्वशास्त्रविशारदम्) वह सब शास्त्रों अथवा विद्याओं में प्रवीण हो, (इङ्गिताकारचेष्टज्ञम्) जो हावभाव, आकृति और चेष्टा से ही किसी के मन की बात और योजना को समझ ले, (शुचिम्) पवित्रात्मा, (दक्षम्) चतुर और (कुलोद्गतम्) उत्तम कुल में उत्पन्न हो॥६३॥
श्रेष्ठ दूत के लक्षण―
अनुरक्तः शुचिर्दक्षः स्मृतिमान् देशकालवित्।
वपुष्मान्वीतभीर्वाग्मी दूतो राज्ञः प्रशस्यते॥६४॥ (४७)
जो (अनुरक्तः) राजा और राज्य के हित को चाहने वाला हो, (शुचिः) जो निष्कपट, पवित्रात्मा (दक्षः) चतुर (स्मृतिमान्) घटनाओं-बातों को न भूलने वाला (देशकालवित्) देश और कालानुकूल व्यवहार का ज्ञाता (वपुष्मान्) आकर्षक व्यक्तित्व वाला (वीतभीः) निर्भय, और (वाग्मी) अच्छा वक्ता हो (राज्ञः दूतः प्रशस्यते) वह राजा का दूत होने में प्रशस्त है॥६४॥
अमात्ये दण्ड आयत्तो दण्डे वैनयिकी क्रिया।
नृपतौ कोशराष्ट्रे च दूते सन्धिविपर्ययौ॥६५॥ (४८)
(अमात्ये) एक सचिव के अधिकार में (दण्डः-आयत्तः) दण्ड देने का अधिकार रखना चाहिए और (दण्डे वैनयिकी क्रिया) दण्ड के अन्तर्गत राज्य में अनुशासन और कानून की स्थापना का अधिकार रखना चाहिए, (नृपतौ कोश-राष्ट्र) राजा के अधिकार में कोश और राष्ट्र का दायित्व होना चाहिए (च) और (दूते सन्धि-विपर्ययौ) दूत के अधीन किसी से सन्धि करना और न करना, अथवा विरोध करना आदि नीति धारण का दायित्व रखना चाहिए॥६५॥
दूत के कार्य―
दूत एव हि संधत्ते भिनत्त्येव च संहतान्।
दूतस्तत्कुरुते कर्म भिद्यन्ते येन मानवाः॥६६॥ (४९)
(हि) क्योंकि (दूतः एव) दूत ही वह व्यक्ति होता है जो (संधत्ते) शत्रु और अपने राजा का और अनेक राजाओं का मेल करा देता है (च) और (संहतान् भिनत्ति+एव) मिले हुए शत्रुओं में फूट भी डाल देता है (दूतः तत् कर्म कुरुते) दूत वह काम कर देता है (येन मानवाः भिद्यन्ते) जिससे शत्रुओं के लोगों में भी फूट पड़ जाती है॥६६॥
स विद्यादस्य कृत्येषु निगूढेङ्गितचेष्टितः।
आकारमिङ्गितं चेष्टां भृत्येषु च चिकीर्षितम्॥६७॥ (५०)
(सः) वह दूत (अस्य) शत्रु-राजा के (कृत्येषु) असन्तुष्ट या विरोधी लोगों में (च) और (भृत्येषु) उसके राजकर्मचारियों में (निगूढ+इङ्गित+चेष्टितैः) गुप्त संकेतों=हाव-भावों एवं चेष्टाओं से (आकारम्) शत्रु राजा के आकार=शारीरिक स्थिति (इङ्गितम्) संकेत=हावभाव (चेष्टाम्) चेष्टा=कार्यों को तथा (चिकीर्षितम्) उसकी अभिलषित भावी योजनाओं को (विद्यात्) जाने॥६७॥
बुद्ध्वा च सर्वं तत्त्वेन परराजचिकीर्षितम्।
तथा प्रयत्नमातिष्ठेद्यथात्मानं न पीडयेत्॥६८॥ (५१)
राजा पूर्वोक्त हाव-भाव, चेष्टा आदि के द्वारा (परराजचिकीर्षितम्) दूसरा विरोधी राजा उसके साथ क्या करने की योजना बना रहा है यह (तत्त्वेन) यथार्थ से (बुद्ध्वा) जानककर (तथा प्रयत्नम्+आतिष्ठेत्) वैसा यत्न करे (यथा) जिससे कि (आत्मानं न पीडयेत्) अपने को वह पीड़ा न दे सके॥६८॥
राजा के निवास-योग्य देश―
जाङ्गलं सस्यसम्पन्नमार्यप्रायमनार्विम्।
रम्यमानतसामन्तं स्वाजीव्यं देशमावसेत्॥६९॥ (५२)
राजा (जाङ्गलम्) जांगल प्रदेश=जहाँ उपयुक्त पानी बरसता हो, बाढ़ न आती हो, खुली हवा और सूर्य का पर्याप्त प्रकाश हो, धान्य आदि बहुत उत्पन्न होता हो (सस्यसम्पन्नम्) अन्नों से हरा-भरा हो (आर्यप्रायम्) जहाँ श्रेष्ठ लोगों का बाहुल्य हो (अनार्विम्) जो रोगरहित हो (रम्यम्) रमणीय हो (आनतसामन्तम्) विनम्रता का व्यवहार करने वाले जहाँ हो (सु+आजीव्यम्) जो अच्छी आजीविकाओं से सम्पन्न हो (देशम्+आवसेत्) ऐसे देश में निवासस्थान करे॥६९॥
छह प्रकार के दुर्ग―
धन्वदुर्गं महीदुर्गमब्दुर्गं वार्क्षमेव वा।
नृदुर्गं गिरिदुर्गं वा समाश्रित्य वसेत्पुरम्॥७०॥ (५३)
(धन्वदुर्गम्) धन्वदुर्ग=मरुस्थल में बना किला जहाँ मरुभूमि के कारण जाना दुर्गम हो (महीदुर्गम्) महीदुर्ग=पृथिवी के अन्दर तहखाने या गुफा के रूप में बना किला या मिट्टी की बड़ी-बड़ी मेढ़ों से घिरा हुआ (अप्+दुर्गम्) जलदुर्ग=जिसके चारों ओर पानी हो (वा) अथवा (वार्क्षम्) वृक्षदुर्ग=जो घने वृक्षों के वन से घिरा हो (वा) अथवा (गिरिदुर्गम्) गिरिदुर्ग=पहाड़ के ऊपर बनाया या पहाड़ों से घिरा किला (समाश्रित्य) बनाकर और उसका आश्रय करके (पुरं वसेत्) अपने निवास में रहे॥७०॥
पर्वतदुर्ग की श्रेष्ठता―
सर्वेण तु प्रयत्नेन गिरिदुर्गं समाश्रयेत्।
एषां हि बाहुगुण्येन गिरिदुर्गं विशिष्यते॥७१॥ (५४)
राजा (सर्वेण तु प्रयत्नेन) विशेष प्रयत्न करके (गिरिदुर्गं समाश्रयेत्) पर्वतदुर्ग का आश्रय करे, बनाकर रहे (हि) क्योंकि (बाहुगुण्येन) सब दुर्गों में अधिक विशेषताओं के कारण (गिरिदुर्गं विशिष्यते) पर्वतदुर्ग ही सर्वश्रेष्ठ है, अतः यह यत्न करना चाहिए कि 'पर्वतदुर्ग' ही बन सके॥७१॥
दुर्ग का महत्त्व―
एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः।
शतं दशसहस्राणि तस्माद् दुर्गं विधीयते॥७४॥ (५५)
(प्राकारस्थः एकः धनुर्धरः) किले के परकोटे में स्थित एक धनुर्धारी योद्धा (शतं योधयति) बाहर स्थित सौ योद्धाओं से युद्ध कर सकता है, (शतं दशसहस्राणि) परकोटे में स्थित सौ योद्धा बाहर स्थित दस सहस्र योद्धाओं से युद्ध कर सकते हैं, (तस्मात्) इस कारण से (दुर्गं विधीयते) दुर्ग बनाया जाता है॥७४॥
तत्स्यादायुधसम्पन्नं धनधान्येन वाहनैः।
ब्राह्मणैः शिल्पिभिर्यन्त्रैर्यवसेनोदकेन च॥७५॥ (५६)
(तत्) वह दुर्ग (आयुध) शस्त्रास्त्रों (धनधान्येन वाहनैः) धन-धान्यों, वाहनों (ब्राह्मणैः) वेदशास्त्र-अध्यापयिता, ऋत्विज् आदि ब्राह्मण विद्वानों [७.३७-३९, ७८] (शिल्पिभिः) कारीगरों (यन्त्रैः) नाना प्रकार के यन्त्रों (यवसेन) चारा-घास (वा) और (उदकेन) जल आदि से (सम्पन्नं स्यात्) सम्पन्न अर्थात् परिपूर्ण हो॥७५॥
राजा का निवास-गृह―
तस्य मध्ये सुपर्याप्तं कारयेद् गृहमात्मनः।
गुप्तं सर्वर्तुकं शुभ्रं जलवृक्षसमन्वितम्॥७६॥ (५७)
(तस्य मध्ये) उस दुर्ग के अन्दर (आत्मनः गृहं कारयेत्) अपने लिए एक आवासगृह बनवाये जो (सुपर्याप्तम्) जो आवश्यकता के अनुसार अच्छा बड़ा-खुला हो, (गुप्तम्) सुरक्षित हो, (सर्व+ऋतुकम्) सब ऋतुओं में सुख-सुविधाप्रद हो, (शुभ्रम्) उज्ज्वल-सुन्दर हो, और (जल-वृक्ष-समन्वितम्) जल और सुन्दर वृक्ष आदि से युक्त हो॥७६॥
राजा के विवाहयोग्य भार्या―
तदध्यास्योद्वहेद्भार्यां सवर्णां लक्षणान्विताम्।
कुले महति सम्भूतां हृद्यां रूपगुणान्विताम्॥७७॥ (५८)
(तद्+अध्यास्य) उस आवास में निवास करके (सवर्णाम्) अपने क्षत्रिय वर्ण की, जो कि क्षत्रिय वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके सवर्णा अर्थात् समान वर्ण की हो (लक्षणान्विताम्) उत्तम लक्षणों से युक्त हो, (महति कुले सम्भूताम्) उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो, (हृद्याम्) जो हृदय को प्रिय भी हो अर्थात् जिसको स्वयं भी पसन्द किया हो, (रूपगुण-अन्विताम्) सुन्दरता और श्रेष्ठ गुणों से सम्पन्न हो, ऐसी (भार्याम्-उद्वहेद्) भार्या को विवाह करके लाये॥७७॥
पुरोहित का वरण एवं उसके कर्त्तव्य―
पुरोहितं प्रकुर्वीत वृणुयादेव चर्त्विजः।
तेऽस्य गृह्याणि कर्माणि कुर्य्युर्वैतानिकानि च॥७८॥ (५१)
विवाहित होकर (पुरोहितं कुर्वीत) मुख्य धार्मिक अनुष्ठानकर्त्ता और धर्मविषयक मार्गप्रदर्शक व्यक्ति की नियुक्ति करे (च) और (ऋत्विजः एव वृणुयात्) यज्ञविशेषों के आयोजन के लिए अन्य ऋत्विजों का वरण करे (ते) वे (अस्य गृह्याणि कर्माणि च वैतानिकानि कुर्युः) राजा के गृहसम्बन्धी पञ्चमहायज्ञ आदि, विशेष अवसरों पर आयोजित दीर्घयज्ञों [७.७९] और राज्यानुष्ठान एवं धार्मिक अनुष्ठानों को सम्पन्न करायें॥७८॥
यजेत राजा क्रतुभिर्विविधैराप्तदक्षिणैः।
धर्मार्थं चैव विप्रेभ्यो दद्याद्भोगान्धनानि च॥७९॥ (६०)
(राजा) राजा (आप्तदक्षिणैः विविधैः क्रतुभिः) ऋत्विजों को पर्याप्त दक्षिणा वाले विविध यज्ञों के द्वारा (यजेत) यजन किया करे (च) तथा (धर्मार्थम्) धर्म संचय के लिए (विप्रेभ्यः) विद्वान् ब्राह्मणों को (भोगान् च धनानि दद्यात्) भोग्य पदार्थों धनों का दान करे॥७९॥
सांवत्सरिकमाप्तैश्च राष्ट्रादाहारयेद् बलिम्।
स्याच्चाम्नायपरो लोके वर्त्तेत पितृवन्नृषु॥८०॥ (६१)
राजा (राष्ट्रात्) राष्ट्र के जनों से (सांवत्सरिकं बलिम्) वार्षिक कर अथवा देय भाग [७.१२७-१३९] (आप्तैः आहारयेद्) धार्मिक, विशेषज्ञ और निष्ठावान् अधिकारियों के द्वारा संग्रह कराये, (च) और कर-ग्रहण के सम्बन्ध में (आम्नायपरः स्यात्) शास्त्रोक्त मर्यादा का पालन करे, अथवा देश-काल-परिस्थितिवशात् परामर्श करके उत्तम परम्परा का पालन करे (च) और (लोके नृषु पितृवत् वर्तेत) राष्ट्र की प्रजाओं को पुत्रवत् मानकर पिता के समान अपना व्यवहार रखे अर्थात् जैसे घर में पिता घर की आर्थिक स्थिति और सन्तानों का पालन-पोषण दोनों में सामंजस्य रखता है, उसी भाव से राजा प्रजाओं से कर ले॥८०॥
विविध विभागाध्यक्षों की नियुक्ति―
अध्यक्षान्विविधान् कुर्यात् तत्र तत्र विपश्चितः।
तेऽस्य सर्वाण्यवेक्षेरन् नॄणां कार्याणि कुर्वताम्॥८१॥ (६२)
राजा (तत्र तत्र) आवश्यकतानुसार विभिन्न विभागों में (विविधान्) अनेक (विपश्चितः अध्यक्षान्) प्रतिभाशाली, योग्य विद्वान् अध्यक्षों को (कुर्यात्) नियुक्त करे (ते) वे विभागाध्यक्ष (अस्य) राजा के द्वारा नियुक्त (सर्वाणि) अन्य सब (कार्याणि कुर्वताम्) अपने अधीन कार्य करने वाले (नृणाम्) कर्मचारी लोगों का (अवेक्षेरन्) निरीक्षण किया करें, अर्थात् निरीक्षण में ठीक कार्य करने वाले को सम्मान और न करने वालों को दण्ड देकर राज्यकार्य को सुचारुरूप से चलाया करें॥८१॥
राजा स्नातक विद्वानों का सत्कार करे―
आवृत्तानां गुरुकुलाद्विप्राणां पूजको भवेत्।
नृपाणामक्षयो ह्येष निधिर्ब्राह्मो विधीयते॥८२॥ (६३)
राजा और राजसभा (गुरुकुलाद् आवृत्तानां विप्राणां पूजकः भवेत्) स्नातक बनकर गुरुकुल से लौटे विद्वानों का स्वागत-सम्मान किया करे, (हि) क्योंकि (एषः ब्राह्मः) यह विद्वान् और विद्या [२.१४६, १५०] (नृपाणाम्+अक्षयः निधिः अभिधीयते) कभी व्यय न होने वाली निधि है, अर्थात् प्रजाओं को कभी क्षीणता की ओर न जाने देने वाला खजाना है। अभिप्राय यह है कि जहाँ जितने अधिक विद्वान् और विद्याएँ होंगी वह राष्ट्र कभी क्षीण नहीं होता अपितु उन्नत होता जाता है क्योंकि किसी की भी विद्या को कोई नहीं चुरा सकता, वे परम्परागत रूप से अक्षुण्ण रहकर राष्ट्र का विकास करती रहती हैं॥८२॥
युद्ध के लिए गमन तथा युद्धसम्बन्धी व्यवस्थाएँ―
समोत्तमाधमै राजा त्वाहूतः पालयन् प्रजाः।
न निवर्तेत संग्रामात् क्षात्रं धर्ममनुस्मरन्॥८७॥ (६४)
(प्रजाः पालयन् राजा) प्रजा का पालन करने वाला राजा (सम-उत्तम-अधमैः आहूतः तु) अपने से तुल्य, उत्तम और छोटे राजा द्वारा संग्राम के लिए आह्वान करने पर (क्षात्रं धर्मम्+अनुस्मरन्) क्षत्रियों के युद्ध धर्म का स्मरण करके (संग्रामात् न निवर्तेत) संग्राम में जाने से कभी विमुख न हो॥८७॥
आहवेषु मिथोऽन्योन्यं जिघांसन्तो महीक्षितः।
युध्यमानाः परंशक्त्या स्वर्गं यान्त्यपराङ्मुखाः॥८९॥ (६५)
(महीक्षितः) राजा (आहवेषु मिथः अन्योन्यं जिघांसन्तः) युद्धों में परस्पर एक-दूसरे के वध करने की इच्छा से अथवा एक-दूसरे को पराजित करने की इच्छा से, जब (अपराङ्मुखाः) युद्ध से विमुख न होकर (परं शक्त्या युद्धमानाः) पूर्ण शक्ति से युद्ध करते हैं तो वे (स्वर्गं यान्ति) जीवित रहने पर इस जन्म में भी और मरने पर परजन्म में भी सुख प्राप्त करते हैं॥८९॥
युद्ध में किन को न मारे―
न च हन्यात्स्थलारूढं न क्लीबं न कृताञ्जलिम्।
न मुक्तकेशं नासीनं न तवास्मीति वादिनम्॥९१॥
न सुप्तं न विसन्नाहं न नग्नं न निरायुधम्।
नायुध्यमानं पश्यन्तं न परेण समागतम्॥९२॥
नायुधव्यसनप्राप्तं नार्तं नातिपरिक्षतम्।
न भीतं न परावृत्तं सतां धर्ममनुस्मरन्॥९३॥ (६६, ६७, ६८)
(न स्थल+आरूढम्) न युद्ध स्थल में इधर-उधर खड़े को (न क्लीबम्) न नपुंसक को (न कृत+अञ्जलिम्) न हाथ जोड़े हुए को (न मुक्तकेशम्) न जिसके शिर के बाल खुले हों, उसको (न आसीनम्) न बैठे हुए को (न 'तव अस्मि' इति वादिनम्) न 'मैं तेरी शरण हूँ' ऐसे कहते हुए को, (न सुप्तम्) न सोते हुए को, (न विसन्नाहम्) न मूर्छा को प्राप्त हुए को, (न+अयुध्यमानम्) न युद्ध न करते हुए को अर्थात् युद्ध देखने वाले को, (न परेण समागतम्) न शत्रु के साथ आये को, (न+आयुध-व्यसन-प्राप्तम्) न आयुध के प्रहार से पीड़ा को प्राप्त हुए को, (न आर्त्तम्) न आपत्ति में फंसे को, (न+अतिपरिक्षतम्) न अत्यन्त घायल को, (न भीतम्) न डरे हुए को और (न परावृत्तम्) न युद्ध से पलायन करते हुए को (सतां धर्मम्+अनुस्मरन्) श्रेष्ठ क्षत्रियों के धर्म का स्मरण करते हुए (हन्यात्) योद्धा लोग कभी मारें॥९१-९३॥
युद्ध से पलायन करने वाला अपराधी होता है―
यस्तु भीतः परावृत्तः सङ्ग्रामे हन्यते परैः।
भर्त्तुर्यद्दुष्कृतं किञ्चित्तत्सर्वं प्रतिपद्यते॥१४॥ (६९)
(यः तु) और जो (संग्रामे) युद्धक्षेत्र से (परावृत्तः) पीठ दिखाकर भाग रहा हो, अथवा (भीतः परैः हन्यते) डरकर भागता हुआ शत्रुओं के द्वारा मारा जाये, उसे (भर्त्तु) राजा की ओर से प्राप्त होने वाला (यत् किंचित् दुष्कृतम्) जो भी कुछ दण्ड, क्रोध, हानि, कठोर व्यवहार है (तत् सर्वं प्रतिपद्यते) उस सब का पात्र बनकर वह दण्डनीय होता है अर्थात् राजा के मन से उसकी श्रेष्ठता का प्रभाव समाप्त हो जाता है [९५] और राजा उसको अपराधी मानकर उसकी सुख-सुविधा को छीनकर दण्ड देता है॥९४॥
यच्चास्य सुकृतं किञ्चिदमुत्रार्थमुपार्जितम्।
भर्त्ता तत्सर्वमादत्ते परावृत्तहतस्य तु॥९५॥ (७०)
(परावृत्त हतस्य तु) युद्ध से पीठ दिखाकर भागे हुए योद्धा की तो (अमुत्रार्थम्+उपार्जितम्) इस जन्म और परजन्म के लिए अर्जित की गई (अस्य यत् किंचित् सुकृतम्) इसकी जो कुछ सुख-सुविधा, प्रतिष्ठा है (तत् सर्वं भर्ता आदत्ते) उस सब को उसका स्वामी राजा छीन लेता है अर्थात् इस जन्म की सुख-सुविधा, प्रतिष्ठा को राजा छीन लेता है और धर्मपालन न करने के कारण परजन्म में प्राप्तव्य पुण्य और उसका फल नष्ट हो जाता है॥९५॥
रथाश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यं पशून् स्त्रियः।
सर्वद्रव्याणि कुप्यं च यो यज्जयति तस्य तत्॥९६॥ (७१)
युद्ध में (रथ-अश्वं हस्तिनं छत्रं धनं धान्यम्) रथ, घोड़े, हाथी, छत्र, धन, धान्य, (पशून्) अन्य पशु, (स्त्रियः) नौकर स्त्रियां, (सर्वद्रव्याणि) सब प्रकार के पदार्थ (कुप्यम्) घी, तैल आदि के कुप्पे (यः यत् जयति) जो जिसको जीते (तस्य तत्) वह उसका ही भाग होगा॥९६॥
जीते हुए धन से राजा को 'उद्धार' देना―
राज्ञश्च दद्युरुद्धारमित्येषा वैदिकी श्रुतिः।
राज्ञा च सर्वयोधेभ्यो दातव्यमपृथग्जितम्॥९७॥ (७२)
(च) और विजता योद्धा (राज्ञः उद्धारं दद्युः) विजित धन एवं पदार्थों में से उद्धार भाग (छठा भाग, मतान्तर से सोलहवाँ भाग) राजा को दें (च) और (राज्ञा अपृथग्जितं सर्वयोधेभ्यः दातव्यम्) राजा को भी सबके द्वारा मिलकर जीते हुए धन और पदार्थों से उद्धार भाग सब योद्धाओं को भी देना चाहिए; (इति+एषा वैदिकी श्रुतिः) यह वैदिक मान्यता है॥९७॥
एषोऽनुपस्कृतः प्रोक्तो योधधर्मः सनातनः।
अस्माद्धर्मान्न च्यवेत क्षत्रियो घ्नन् रणे रिपून्॥९८॥ (७३)
(एषः) यह [८७-९७] (अनुपस्कृतः) शिष्ट विद्वानों द्वारा स्वीकृत (सनातनः) सर्वदा माननीय (योधधर्मः प्रोक्तः) योद्धाओं का धर्म कहा, (क्षत्रियः) क्षत्रिय व्यक्ति (रणे रिपून् घ्नन्) युद्ध में शत्रुओं को मारते हुए अर्थात् शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके भी इस धर्म से विचलित न होवे, इसको न छोड़े॥९८॥
राजा द्वारा चिन्तनीय बातें―
अलब्धं चैव लिप्सेत लब्धं रक्षेत् प्रयत्नतः।
रक्षितं वर्द्धयेच्चैव वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्॥९९॥ (७४)
राजा और राजसभासद् (अलब्धम् एव लिप्सेत) अप्राप्त राज्य और धन आदि की प्राप्ति की इच्छा अवश्य करें, (च) और (लब्धं प्रयत्नतः रक्षेत्) प्राप्त राज्य और धन आदि की प्रयत्नपूर्वक रक्षा करें, (रक्षितंच वर्धयेत् एव) रक्षा किये हुए को बढ़ाने के उपाय अवश्य करें (च) और (वृद्धं पात्रेषु निक्षिपेत्) बढ़े हुए धन को सुपात्रों और जनहितकारी कार्यों में लगावें॥९९॥
एतच्चतुर्विधं विद्यात् पुरुषार्थप्रयोजनम्।
अस्य नित्यमनुष्ठानं सम्यक्कुर्यादतन्द्रितः॥१००॥ (७५)
(एतत् चतुर्विधम्) यह पूर्वोक्त [७.९९] चार प्रकार का (पुरुषार्थप्रयोजनम्) राज्य के लिए पुरुषार्थ करने का उद्देश्य (विद्यात्) समझना चाहिए, राजा (अतन्द्रितः) आलस्य-रहित होकर (अस्य नित्यं सम्यक् अनुष्ठानं कुर्यात्) इस उद्देश्य को पाने के लिए प्रयत्न करता रहे॥१००॥
अलब्धमिच्छेद्दण्डेन लब्धं रक्षेदवेक्षया।
रक्षितं वर्द्धयेद्वृद्ध्या वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्॥१०१॥ (७६)
राजा (अलब्धं दण्डेन इच्छेत्) अप्राप्त राज्य और धन आदि प्राप्ति की इच्छा दण्ड=शत्रु राजा पर कर लगाकर अथवा युद्ध द्वारा करे, (लब्धम् अवेक्षया रक्षेत्) प्राप्त राज्य और धन आदि की सावधानी पूर्वक निरीक्षण से रक्षा करे, (रक्षितं वृद्ध्या वर्धयेत्) रक्षित किये हुए को वृद्धि के उपायों से बढ़ाये, और (वृद्धं पात्रेषु निःक्षिपेत्) बढ़ाये हुए धन को सुपात्रों और जनहितकारी कार्यों में लगाये ॥१०१॥
नित्यमुद्यतदण्डः स्यान्नित्यं विवृतपौरुषः।
नित्यं संवृतसंवार्यो नित्यं छिद्रानुसार्यरः॥१०२॥ (७७)
राजा (नित्यम्+उद्यतदण्डः स्यात्) सदैव न्यायानुसार दण्ड का प्रयोग करने में तत्पर रहे, (नित्यं विवृतपौरुषः) सदैव युद्ध में पराक्रम दिखलाने के लिए तैयार रहे, (नित्यं संवृतसंवार्यः) सदैव राज्य के गोपनीय कार्यों को गुप्त रखे, (नित्यम् अरेः छिद्रानुसारी) सदैव शत्रु के छिद्रों=कमियों को खोजता रहे और उन त्रुटियों को पाकर अवसर मिलते ही अपने राज्य हित को पूर्ण कर ले॥१०२॥
नित्यमुद्यतदण्डस्य कृत्स्नमुद्विजते जगत्।
तस्मात्सर्वाणि भूतानि दण्डेनैव प्रसाधयेत्॥१०३॥ (७८)
(नित्यम्+उद्यतदण्डस्य) जिस राजा के राज्य में सर्वदा न्यायानुसार दण्ड के प्रयोग का निश्चय रहता है तो उससे (कृत्स्नं जगत् उद्विजते) सारा जगत् भयभीत रहता है (तस्मात्) इसीलिए (सर्वाणि भूतानि) सब दण्ड के योग्य प्राणियों को (दण्डेनैव प्रसाधयेत्) दण्ड से साधे अर्थात् दण्ड के भय से अनुशासन में रखे॥१०३॥
अमाययैव वर्तेत न कथञ्चन मायया।
बुध्येतारिप्रयुक्तां च मायां नित्यं स्वसंवृतः॥१०४॥ (७९)
(कथञ्चन) कदापि (मायया न वर्तेत) किसी के साथ छल-कपट से न वर्ते (अमायया+एव) किन्तु निष्कपट होकर सबसे बर्ताव रखे (च) और (नित्यं स्वसंवृतः) नित्यप्रति अपनी रक्षा में सावधान रहे, और (अरिप्रयुक्तां मायां बुध्येत) शत्रु के किये हुए छल-कपट को जाने तथा उसका उपाय करे॥१०४॥
नास्य छिद्रं परो विद्याच्छिद्रं विद्यात्परस्य तु।
गृहेत्कूर्म इवाङ्गानि रक्षेद्विवरमात्मनः॥१०५॥ (८०)
राजा यह सावधानी रखे कि (परः अस्य छिद्रं न विद्यात्) कोई शत्रु उसके छिद्र अर्थात् कमियों को न जान सके (तु) किन्तु (परस्य छिद्रं विद्यात्) स्वयं शत्रु राजा के छिद्रों को जानने का प्रयत्न करे, (कूर्म+इव+अङ्गानि) जैसे कछुआ अपने अंगों को गुप्त रखता है वैसे (आत्मनः विवरं गृहेत् रक्षेत्) शत्रु राजा से अपनी कमियों को छिपाकर रखे और अपनी रक्षा करे॥१०५॥
बकवच्चिन्तयेदर्थान् सिंहवच्च पराक्रमेत्।
वृकवच्चावलुम्पेत शशवच्च विनिष्यतेत्॥१०६॥ (८१)
राजा (बकवत् अर्थान् चिन्तेयत्) जैसे बगुला चुपचाप खड़ा रहकर मछली को ताकता है और अवसर लगते ही उसको झपट लेता है उसी प्रकार चुपचाप रहकर शत्रुराजा पर आक्रमण करने का अवसर ताकता रहे, (च) और अवसर मिलते ही (सिंहवत् पराक्रमेत्) सिंह के समान पूरी शक्ति से आक्रमण कर दे, (च) और (वृकवत् अवलुम्पेत) जैसे चीता रक्षित पशु को भी अवसर मिलते ही शीघ्रता से झपट लेता है उसी प्रकार शत्रु को पकड़ ले, (च) और स्वयं यदि शत्रुओं के बीच फंस जाये तो (शशवत् विनिष्पतेत्) खरगोश के समान उछल कर उनकी पकड़ से निकल जाये और अवसर मिलते ही फिर आक्रमण करे॥१०६॥
एवं विजयमानस्य येऽस्य स्युः परिपन्थिनः।
तानानयेद्वशं सर्वान् सामादिभिरुपक्रमैः॥१०७॥ (८२)
(एवम्) पूर्वोक्त प्रकार से रहते हुए (विजयमानस्य) विजय की इच्छा रखने वाले राजा के (ये परिपंथिन:स्युः) जो शत्रु अथवा राज्य में बाधक जन हों (तान् सर्वान्) उन सबको (सामादिभिः उपक्रमैः वशम् आनयेत्) साम, दान, भेद, दण्ड इन उपायों से [७.१९८] वश में करे॥१०७॥
यदि ते तु न तिष्ठेयुरुपायैः प्रथमैस्त्रिभिः।
दण्डेनैव प्रसह्यैताँश्छनकैर्वशमानयेत्॥१०८॥ (८३)
(यदि) यदि (ते) वे शत्रु, डाकू, चोर आदि (प्रथमैः त्रिभिः उपायैः न तिष्ठेयुः तु) पूर्वोक्त साम, दान, भेद इन तीन उपायों से शान्त न हों या वश में न आयें तो राजा (एतान्) इन्हें (प्रसह्य) बलपूर्वक (दण्डेन+एव) दण्ड के द्वारा ही (शनकैः वशम्+आनयेत्) सावधानीपूर्वक वश में लाये॥१०८॥
यथोद्धरति निर्दाता कक्षं धान्यं च रक्षति।
तथा रक्षेन्नृपो राष्ट्र हन्याच्च परिपन्थिनः॥११०॥ (८४)
(यथा) जैसे (निर्दाता कक्षम् उद्धरति धान्यं च रक्षति) धान्य की लुनाई करने वाला किसान उसमें से व्यर्थ घासपात को उखाड़ लेता है और धान्य की रक्षा करता है, अथवा पके धान्य को निकालने वाला जैसे छिलकों को अलग कर धान्य की रक्षा करता है अर्थात् टूटने नहीं देता है (तथा) वैसे (नृपः) राजा (परिपन्थिनः हन्यात्) शत्रुओं, बाधकों आदि को मारे (च) और (राष्ट्रं रक्षेत्) राज्य की रक्षा करे॥११०॥
राजा प्रजा का शोषण न होने दे―
मोहाद्राजा स्वराष्ट्रं यः कर्षयत्यनवेक्षया।
सोऽचिराद् भ्रश्यते राज्याज्जीविताच्च सबान्धवः॥१११॥ (८५)
(यः राजा) जो राजा (मोहात्) लोभ-लालच से अथवा अविवेकपूर्ण निर्णयों से अन्यायपूर्वक अधिक कर लेकर और प्रजा की उपेक्षा करके (स्वराष्ट्रं कर्षयति) अपने राज्य या प्रजा को क्षीण करता है (सः) वह (सबान्धवः) बन्धु-बान्धवों सहित (राज्यात् च जीवितात्) राज्य से और जीवन से भी (अचिरात् भ्रश्यते) शीघ्र ही नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है॥१११॥
शरीरकर्षणात्प्राणाः क्षीयन्ते प्राणिनां यथा।
तथा राज्ञामपि प्राणाः क्षीयन्ते राष्ट्रकर्षणात्॥११२॥ (८६)
(यथा) जैसे (प्राणिनां प्राणाः) प्राणियों के प्राण (शरीरकर्षणात् क्षीयन्ते) शरीरों को दुर्बल करने से नष्ट हो जाते हैं (तथा) वैसे ही (राष्ट्रकर्षणात्) राष्ट्र अथवा प्रजाओं का शोषण करने से (राज्ञाम्+अपि प्राणाः) राजाओं के प्राण अर्थात् राज्य और जीवन (क्षीयन्ते) नष्ट हो जाते हैं॥११२॥
राष्ट्र के नियन्त्रण के उपाय―
राष्ट्रस्य संग्रहे नित्यं विधानमिदमाचरेत्।
सुसंगृहीतराष्ट्रो हि पार्थिवः सुखमेधते॥११३॥ (८७)
इसलिए राजा (राष्ट्रस्य संग्रहे) राष्ट्र की समृद्धि, सुरक्षा एवं अभिवृद्धि के लिए (नित्यम्) सदैव (इदं विधानम् आचरेत्) इस आगे वर्णित व्यवस्था [११४-१४४] को लागू करे (हि) क्योंकि (सुसंगृहीत-राष्ट्रः पार्थिवः) सुरक्षित, सुसमृद्ध तथा उन्नत राष्ट्र वाला राजा ही (सुखम्+एधते) सुखपूर्वक रहते हुए बढ़ता है, उन्नति करता है॥११३॥
नियन्त्रण केन्द्रों और राजकार्यालयों का निर्माण―
द्वयोस्त्रयाणां पञ्चानां मध्ये गुल्ममधिष्ठितम्।
तथा ग्रामशतानां च कुर्याद्राष्ट्रस्य संग्रहम्॥११४॥ (८८)
इसलिए राजा (द्वयोः त्रयाणां पञ्चानां मध्ये) दो, तीन और पांच गांवों के बीच में (गुल्मम्+अधिष्ठितम्) एक-एक नियन्त्रण केन्द्र या उन्नत राजकार्यालय बनाये, (तथा ग्रामशतानाम्) इसी प्रकार सौ गांवों के ऊपर एक कार्यालय का निर्माण करे [जैसा कि ७.११५-११७ में वर्णन है, उसके अनुसार] (च) और इस व्यवस्था के अनुसार (राष्ट्रस्य संग्रहं कुर्यात्) राष्ट्र को सुव्यवस्थित, सुरक्षित एवं समृद्ध करे॥११४॥
अवर अधिकारियों आदि की नियुक्ति―
ग्रामस्याधिपतिं कुर्य्याद्दशग्रामपतिं तथा।
विंशतीशं शतेशं च सहस्त्रपतिमेव च॥११५॥ (८९)
और (ग्रामस्य+अधिपतिं कुर्यात्) एक-एक ग्राम में एक-एक 'प्रधान' नियत करे (तथा दशग्रामपतिम्) उन्हीं दश ग्रामों के ऊपर दूसरा 'दशग्रामाध्यक्ष' नियत करे, उन्हीं बीस ग्रामों के ऊपर तीसरा 'बीसग्रामाध्यक्ष' नियत करे, (शत+ईशम्) उन्हीं सौ ग्रामों के ऊपर चौथा 'शतग्रामाध्यक्ष' (च) और (सहस्त्रपतिम्+एव) उन्हीं सहस्र ग्रामों के ऊपर पांचवां 'सहस्रग्रामाध्यक्ष' पुरुष रखे॥११५॥
ग्रामदोषान् समुत्पन्नान् ग्रामिकः शनकैः स्वयम्।
शंसेद् ग्रामदशेशाय दशेशो विंशतीशिने॥११६॥ (९०)
(ग्रामिकः) वह एक-एक ग्रामों के प्रधान (ग्रामदोषान् समुत्पन्नान्) अपने ग्रामों में नित्यप्रति जो-जो दोष उत्पन्न हों उन-उनको (शनकैः स्वयम्) गुप्तता से स्वयं (ग्रामदशेशाय) 'दशग्रामाध्यक्ष' को (शंसेत्) विदित करा दे, और (दशेशः) वह 'दश ग्रामाध्यक्ष' उसी प्रकार (विंशति+ईशिने) बीस ग्राम के अध्यक्ष को दशग्रामों के समाचार नित्यप्रति देवे॥११६॥
विंशतीशस्तु तत्सर्वं शतेशाय निवेदयेत्।
शंसेद् ग्रामशतेशस्तु सहस्त्रपतये स्वयम्॥११७॥ (९१)
(तु) और (विंशतीशः) बीस ग्रामों का अध्यक्ष (तत् सर्वम्) बीस ग्रामों के समाचारों को (शतेशाय निवेदयेत्) शतग्रामाध्यक्ष को नित्यप्रति सूचित करे (शतेशः तु) वैसे सौ-सौ ग्रामों के अध्यक्ष (स्वयम्) आप (सहस्त्रपतये) अर्थात् हजार ग्रामों के अध्यक्ष को (शंसेत्) सौ-सौ ग्रामों के समाचारों को प्रतिदिन सूचित करें॥११७॥
तेषां ग्राम्याणि कार्याणि पृथक्कार्याणि चैव हि।
राज्ञोऽन्यः सचिवः स्निग्धस्तानि पश्येदतन्द्रितः॥१२०॥ (९२)
(तेषाम्) उन पूर्वोक्त अध्यक्षों [११६-११७] के (ग्राम्याणि कार्याणि) गांवों से सम्बद्ध राजकार्यों को (च) और (पृथक् कार्याणि एव हि) अन्य सौंपे गये भिन्न-भिन्न कार्यों को भी (राज्ञः+अन्यः स्निग्धः सचिवः) राजा का एक विश्वासपात्र मन्त्री [७.५४] (अतन्द्रितः) आलस्यरहित होकर सावधानीपूर्वक (पश्येत्) देखे॥१२०॥
नगरे नगरे चैकं कुर्यात् सर्वार्थचिन्तकम्।
उच्चैः स्थानं घोररूपं नक्षत्राणामिव ग्रहम्॥१२१॥ (९३)
राजा (नगरे नगरे) बड़े-बड़े प्रत्येक नगर में (एकम्) एक-एक (नक्षत्राणां ग्रहम् इव) जैसे नक्षत्रों के बीच में चन्द्रमा है इस प्रकार विशालकाय और देखने में प्रभावकारी (घोररूपम्) भयकारी अर्थात् जिसे देखकर या जिसका ध्यान करके प्रजाओं में नियम के विरुद्ध चलने में भय का अनुभव हो (सर्व+अर्थ चिन्तकम्) जिसमें सब राजकार्यों के चिन्तन और प्रजाओं की व्यवस्था और कार्यों के संचालन का प्रबन्ध हो ऐसा (उच्चैः स्थानम्) ऊंचा भवन अर्थात् सचिवालय (कुर्यात्) बनावे॥१२१॥
राजकर्मचारियों के आचरण का निरीक्षण―
स ताननुपरिक्रामेत् सर्वानेव सदा स्वयम्।
तेषां वृत्तं परिणयेत् सम्यग्राष्ट्रेषु तच्चरैः॥१२२॥ (९४)
(सः) वह [७.१२० में वर्णित] सचिव=विभाग प्रमुख मन्त्री (तान् सर्वान् सदा स्वयम् अनुपरिक्रामेत्) उन पूर्वोक्त [७.१२१] सब सचिवालयों के कार्यों का सदा स्वयं घूम-फिर कर निरीक्षण करता रहे (च) और (राष्ट्रे) देश में (तत्+चरैः) अपने गुप्तचरों के द्वारा (तेषां वृत्तं परिणयेत्) वहां नियुक्त राज-पुरुषों के आचरण की गुप्तरीति से जानकारी प्राप्त करता रहे ॥१२२॥
रिश्वतखोर कर्मचारियों पर दृष्टि रखे―
राज्ञो हि रक्षाधिकृताः परस्वादायिनः शठाः।
भृत्या भवन्ति प्रायेण तेभ्यो रक्षेदिमाः प्रजाः॥१२३॥ (९५)
(हि) क्योंकि (प्रायेण) प्रायः (राज्ञः रक्षाधिकृताः भृत्याः) राजा के द्वारा प्रजा की सेवा-सुरक्षा के लिए नियुक्त अधिकारी-कर्मचारी (परस्व-आदायिनः) दूसरों के धन के लालची अर्थात् रिश्वतखोर और (शठाः) ठगी या धोखा करने वाले (भवन्ति) हो जाते हैं (तेभ्यः) ऐसे राजपुरुषों से (इमाः प्रजाः रक्षेत्) अपनी प्रजाओं की रक्षा करे अर्थात् ऐसे प्रयत्न करे कि वे प्रजाओं के साथ या राज्य के साथ ऐसा बर्ताव न कर पायें॥१२३॥
रिश्वतखोर कर्मचारियों को दण्ड―
ये कार्यिकेभ्योऽर्थमेव गृह्णीयुः पापचेतसः।
तेषां सर्वस्वमादाय राजा कुर्यात् प्रवासनम् ॥१२४॥ (९६)
(पापचेतसः) पापी मन वाले (ये) जो रिश्वतखोर और ठग राजपुरुष (कार्यिकेभ्यः) काम कराने वालों और मुकद्दमें वालों से यदि (अर्थं गृह्णीयुः एव) फिर भी धन अर्थात् रिश्वत ले ही लें तो (राजा) राजा (प्रवासनम् कुर्यात्) उन्हें देश निकाला दे दे॥१२४॥
कर्मचारियों के वेतन का निर्धारण―
राजा कर्मसु युक्तानां स्त्रीणां प्रेष्यजनस्य च।
प्रत्यहं कल्पयेदृवृत्तिं स्थानं कर्मानुरूपतः॥१२५॥ (९७)
(राजा) राजा (कर्मसु युक्तानाम्) राजकार्यों में नियुक्त राजपुरुषों (स्त्रीणाम्) स्त्रियों (च) और (प्रेष्यजनस्य) सेवकवर्ग की (कर्म+अनुरूपतः) काम के अनुसार (स्थानम्) पद या कार्यस्थान और (प्रत्यहम्) प्रतिदिन की (वृत्तिं कल्पयेत्) जीविका निश्चित कर दे॥१२५॥
पणो देयोऽवकृष्टस्य षडुत्कृष्टस्य वेतनम्।
षाष्मासिकस्तथाच्छादो धान्यद्रोणस्तु मासिकः॥१२६॥ (९८)
(अवकृष्टस्य पणः) निम्नस्तर के भृत्य को कम से कम एक पण और (उत्कृष्टस्य षट्) ऊंचे स्तर के भृत्य को छह पण (वेतनं देयः) वेतन प्रतिदिन देना चाहिए (तथा) तथा उन्हें (षाण्मासिकः आच्छादः) प्रति छह महीने पर ओढ़ने-पहरने के वस्त्र [=वेशभूषा] आदि (तु) और (मासिकः धान्यद्रोणः) एक महीने में एक द्रोण [६४ सेर] धान्य=अन्न, देना चाहिए॥१२६॥
कर-ग्रहण सम्बन्धी व्यवस्थाएँ―
क्रयविक्रयमध्वानं भक्तं च सपरिव्ययम्।
योगक्षेमं च सम्प्रेक्ष्य वणिजो दापयेत् करान्॥१२७॥ (९९)
राजा को (क्रय-विक्रयम्) क्रय और विक्रयी का अन्तर (अध्वानम्) मार्ग की दूरी और उत्तम व्यय आदि (भक्तम्) व्यापार में हिस्सेदारी (च) तथा (सपरिव्ययम्) भरण-पोषण का व्यय (च) और (योगक्षेमम्) व्यापार में लाभ, तथा वस्तु की सुरक्षा और जनकल्याण (सम्प्रेक्ष्य) इन सब बातों पर विचार करके (वणिजः करान् दापयेत्) राजा व्यापारियों पर कर लगाये॥१२७॥
यथा फलेन युज्येत राजा कर्त्ता च कर्मणाम्।
तथाऽवेक्ष्य नृपो राष्ट्रे कल्पयेत् सततं करान्॥१२८॥ (१००)
(यथा) जैसे (राजा) राजा (च) और (कर्मणां कर्त्ता) व्यापार का या किसी कार्य का कर्त्ता (फलेन युज्येत) लाभरूप फल से युक्त होवे (तथा) वैसा (अवेक्ष्य) विचार करके (नृपः) राजा (राष्ट्रे करान् सततं कल्पयेत्) राज्य में सदा कर-निर्धारण करे॥१२८॥
यथाऽल्पाऽल्पमदन्त्याद्यं वार्योकोवत्सषट्पदाः।
तथाऽल्पाऽल्पो ग्रहीतव्यो राष्ट्राद्राज्ञाब्दिकः करः॥१२९॥ (१०१)
(यथा) जैसे (वार्योकः-वत्स-षट्पदाः) जोंक, बछड़ा और भंवरा (अल्प+अल्पम् आद्यम् अदन्ति) थोड़े-थोड़े भोग्य पदार्थ को ग्रहण करते है (तथा) वैसे ही (राज्ञा राष्ट्रात्) राजा प्रजा से (अल्पः+अल्पः) थोड़ा-थोड़ा (आब्दिकः कर ग्रहीतव्यः) वार्षिक कर ग्रहण करे॥१२९॥
पञ्चाशद्भाग आदेयो राज्ञा पशुहिरण्ययोः।
धान्यानामष्टमो भागः षष्ठो द्वादश एव वा॥१३०॥ (१०२)
(राज्ञा) राजा को (पशु-हिरण्ययोः) पशुओं और सोने के शुद्ध लाभ में से (पञ्चाशत् भागः) पचासवाँ भाग, और (धान्यानां षष्ठः, अष्टमः वा द्वादशः एव आदेयः) देश-काल-परिस्थिति को देखकर लाभ में से अन्नों का अधिक से अधिक छठा, आठवां या बारहवां भाग ही कर के रूप में लेना चाहिए॥१३०॥
आददीताथ षड्भागं द्रुमांसमधुसर्पिषाम्।
गन्धौषधिरसानां च पुष्पमूलफलस्य च॥१३१॥ (१०३)
(अथ) और (द्रुमांस-मधु-सर्पिषाम्) गोंद, मधु, घी (च) और (गन्ध-औषधि-रसानाम्) गन्ध, औषधि, रसों का (च) तथा (पुष्प-मूल-फलस्य) फूल, मूल और फल, इनका (षड्भागम् आददीत) लाभ का छठा भाग कर के रूप में लेवे॥१३१॥
पत्रशाकतृणानां च चर्मणां वैदलस्य च।
मृन्मयानां च भाण्डानां सर्वस्याश्ममयस्य च॥१३२॥ (१०४)
(च) और (पत्र-शाक-तृणानाम्) वृक्षपत्र, शाक, तृण (चर्मणां वैदलस्य) चमड़ा, बांसनिर्मित वस्तुएँ (मृन्मयानां भाण्डानाम्) मिट्टी से बने बर्तन (च) और (सर्वस्य अश्ममयस्य) सब प्रकार के पत्थर से निर्मित पदार्थ, इनका भी लाभ का छठा भाग कर के रूप में ले॥१३२॥
यत्किंचिदपि वर्षस्य दापयेत्करसंज्ञितम्।
व्यवहारेण जीवन्तं राजा राष्ट्र पृथग्जनम्॥१३७॥ (१०५)
(राजा) राजा (राष्ट्रे) राज्य में (व्यवहारेण जीवन्तं पृथक्जनम्) व्यापार से जीविका करने वाले बड़े-छोटे प्रत्येक व्यक्ति से (यत् किंचित्+अपि) थोड़ा-बहुत जो कुछ भी (वर्षस्य करसंज्ञितम्) वार्षिक कर के रूप में निर्धारित किया हो वह भाग (दापयेत्) राज्य के लिए ग्रहण करे॥१३७॥
करग्रहण में अतितृष्णा हानिकारक―
नोच्छिन्द्यादात्मनो मूलं परेषां चातितृष्णया।
उच्छिन्दन्ह्यात्मनो मूलमात्मानं ताँश्च पीडयेत्॥१३९॥ (१०६)
राजा (अतितृष्णया) कर आदि लेने के अतिलोभ में आकर (आत्मनः च परेषां मूलम्) अपने और प्रजाओं के सुख के मूल को (न उच्छिन्द्यात्) नष्ट न करे (आत्मनः मूलम् उच्छिन्दन्) अपने सुख के मूल का छेदन करता हुआ (आत्मानं च तान् पीडयेत्) अपने को और प्रजाओं को पीड़ित करता है॥१३९॥
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्च स्यात् कार्यं वीक्ष्य महीपतिः।
तीक्ष्णश्चैव मृदुश्चैव राजा भवति सम्मतः॥१४०॥ (१०७)
(महीपतिः) राजा (कार्यं वीक्ष्य) कार्य को देख कर (तीक्ष्णः च मृदुः एव स्यात्) कठोर और कोमल भी होवे (तीक्ष्णः च एव) वह दुष्टों पर कठोर (च) और (मृदुः एव) श्रेष्ठों पर कोमल रहने से (राजा सम्मतः भवति) प्रजाओं में माननीय होता है॥१४०॥
रुग्णावस्था में प्रधान अमात्य को राजसभा का कार्य सौंपना―
अमात्यमुख्यं धर्मज्ञं प्राज्ञं दान्तं कुलोद्गतम्।
स्थापयेदासने तस्मिन् खिन्नः कार्येक्षणे नॄणाम्॥१४१॥ (१०८)
(नॄणां कार्येक्षणे खिन्नः) प्रजा के कार्यों की देखभाल करने में रुग्णता आदि के कारण अशक्त होने पर राजा (तस्मिन् आसने) उस अपने आसन पर (धर्मज्ञम्) न्यायकारी धर्मज्ञाता (प्राज्ञम्) बुद्धिमान् (दान्तम्) जितेन्द्रिय (कुलोद्गतम्) कुलीन (अमात्यमुख्यम्) सबसे प्रधान अमात्य=मन्त्री को (स्थापयेत्) बिठा देवे अर्थात् रुग्णावस्था में प्रधान अमात्य को अपने स्थान पर राजकार्य सम्पादन के लिए नियुक्त करे॥१४१॥
एवं सर्वं विधायेदमितिकर्त्तव्यमात्मनः।
युक्तश्चैवाप्रमत्तश्च परिरक्षेदिमाः प्रजाः॥१४२॥ (१०९)
(एवम्) पूर्वोक्त प्रकार से (सर्वम् इतिकर्त्तव्यं विधाय) सब कर्त्तव्य कार्यों का प्रबन्ध करके (युक्तः) राज्य संचालन के कार्य में संलग्न रहकर (च) और (अप्रमत्तः) प्रमाद रहित होकर (आत्मनः इमाः प्रजाः परिरक्षेत्) अपनी प्रजा का पालन-संरक्षण निरन्तर करे॥१४२॥
विक्रोशन्त्यो यस्य राष्ट्राद्ह्रियन्ते दस्युभिः प्रजाः।
सम्पश्यतः सभृत्यस्य मृतः स न तु जीवति॥१४३॥ (११०)
(यस्य सभृत्यस्य संपश्यतः) भृत्यों सहित देखते हुए जिस राजा के (राष्ट्रात्) राज्य में से (दस्युभिः विक्रोशन्त्यः प्रजा: ह्रियन्ते) अपहरण-कर्ता और डाकू लोग रोती, विलाप करती प्रजा के पदार्थ और प्राणों को हरते रहते हैं (सः मृतः) वह राजा जानो भृत्य-अमात्यसहित मृतक समान है, (न तु जीवति) उसे जीवित नहीं कहा जा सकता॥१४३॥
क्षत्रियस्य परो धर्मः प्रजानामेव पालनम्।
निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा धर्मेण युज्यते॥१४४॥ (१११)
(प्रजानां पालनम् एव) प्रजाओं का पालन-संरक्षण करना ही (क्षत्रियस्य परः धर्मः) क्षत्रिय का परम धर्म है। (निर्दिष्टफलभोक्ता हि राजा) शास्त्रोक्त विधि से कर आदि ग्रहण करके आचरण करने वाला राजा ही [७.१२७-१३९] (धर्मेण युज्यते) धर्म का पालन करने वाला कहलाता है॥१४४॥
राजा के दैनिक कर्त्तव्य―
उत्थाय पश्चिमे यामे कृतशौचः समाहितः।
हुताग्निर्ब्राह्मणांश्चार्च्य प्रविशेत्स शुभां सभाम्॥१४५॥ (११२)
(सः) वह राजा (पश्चिमे यामे उत्थाय) रात्रि के अन्तिम पहर प्रातः ३-६ बजे की अवधि जागकर (कृतशौचः) शौच, दातुन, स्नान आदि दिनचर्या करके तत्पश्चात् (समाहितः) एकाग्रता पूर्वक सन्ध्या-ध्यान (च) और (हुताग्निः) अग्निहोत्र करके (ब्राह्मणान् अर्च्य) वेदादिशास्त्रों के अध्यापयिता और मार्गदर्शक विद्वान् ब्राह्मणों [७.३७-४३] का अभिवादन करके (शुभांसभांप्रविशेत्) जिसमें प्रजा की समस्याओं और कष्टों का समाधान किया जाता है उस शोभायुक्त सभा में प्रवेश करे और प्रजा की प्रार्थना सुने॥१४५॥
सभा में जाकर प्रजा के कष्टों को सुने―
तत्र स्थितः प्रजाः सर्वाः प्रतिनन्द्य विसर्जयेत्।
विसृज्य च प्रजाः सर्वा मन्त्रयेत्सह मन्त्रिभिः॥१४६॥ (११३)
(तत्र) उस [१४५ में वर्णित] राजसभा में जाकर (स्थितः) बैठकर या खड़े होकर (सर्वाः प्रजाः प्रतिनन्द्य) वहाँ आई हुई सब प्रजाओं की समस्याओं, कष्टों का सन्तुष्टिकारक समाधान कर उन्हें प्रसन्न करके (विसर्जयेत्) भेज दे (च) और (सर्वाः प्रजाः विसृज्य) सब प्रजाओं को विसर्जित करने के बाद (मन्त्रिभिः सह मन्त्रयेत्) मन्त्रियों [७.४५] के साथ गुप्त विषयों और षड्गुणों आदि पर [७.१५२-२१६] पर विचार-विमर्श करे॥१४६॥
राज्यसम्बन्धी मन्त्रणाओं के वैकल्पिक स्थान―
गिरिपृष्ठं समारुह्य प्रासादं वा रहोगतः।
अरण्ये निःशलाके वा मन्त्रयेदविभावितः॥१४७॥ (११४)
राजा (गिरिपृष्ठं समारुह्य) किसी पर्वतशिखर पर जाकर (वा) अथवा (प्रासादं रहोगतः) महल के किसी एकान्त कक्ष में बैठकर (वा) अथवा (निःशलाके अरण्ये) पूर्णतः निर्जन एकान्त स्थान में जाकर (अविभावितः मन्त्रयेत्) किसी की भी जानकारी में न आये, इस प्रकार राज्यविषयक गुप्त मन्त्रणा मन्त्रियों के साथ करे॥१४७॥
मन्त्रणा की गोपनीयता का महत्त्व―
यस्य मन्त्रं न जानन्ति समागम्य पृथग् जनाः।
स कृत्स्नां पृथिवीं भुङ्क्ते कोशहीनोऽपि पार्थिवः॥१४८॥ (११५)
(पृथक् जनाः समागम्य) विरोधी पक्ष के गुप्तचर जन राजा के मन्त्रियों, अधिकारियों आदि से सांठगांठ करके (यस्य मन्त्रं न जानन्ति) जिस राजा की गुप्त मन्त्रणा और गुप्त योजनाओं को नहीं जान पाते हैं (सः पार्थिवः) वह राजा (कोशहीनः+अपि) खजाने में पर्याप्त धन न होते हुए भी (कृत्स्नां पृथिवीं भुङ्क्ते) सम्पूर्ण पृथिवी के राज्य का संचालन करने में समर्थ होता है॥१४८॥
धर्म, काम, अर्थ-सम्बन्धी बातों पर चिन्तन करे―
मध्यंदिनेऽर्धरात्रे वा विश्रान्तो विगतक्लमः।
चिन्तयेद्धर्मकामार्थान्सार्धं तैरेक एव वा॥१५१॥ (११६)
(मध्यंदिने) दोपहर के समय (वा) अथवा (अर्धरात्रे) रात्रि के समय (विश्रान्तः विगतक्लमः) विश्राम करके थकान-आलस्य रहित होकर स्वस्थ व प्रसन्न शरीर और मन से (धर्म-काम-अर्थान्) धर्म, काम और अर्थ-सम्बन्धी बातों को (तैः सार्धम्) उन मन्त्रियों के साथ मिलकर [७.५४, ५६] (वा) अथवा परिस्थिति विशेष में (एक एव) अकेले ही (चिन्तयेत्) विचारे। [चिन्तयेत् क्रिया की अनुवृत्ति १५८ तक चलती है॥१५१॥
धर्म, अर्थ, काम में विरोध को दूर करे―
परस्परविरुद्धानां तेषां च समुपार्जनम्।
कन्यानां सम्प्रदानं च कुमाराणां च रक्षणम्॥१५२॥ (११७)
(च) और (तेषां परस्परविरुद्धानां समुपार्जनम्) उस धर्म-अर्थ-काम में कहीं परस्पर विरोध आ पड़ने पर उसे दूर करना और उनमें अभिवृद्धि करना (च) और (कन्यानां कुमाराणां सम्प्रदानंच रक्षणम्) कन्याओं और कुमारों को गुरुकुलों में भेजकर शिक्षा दिलाना, उनकी सुरक्षा तथा विवाह आदि की नियम व्यवस्था करे। अर्थान्तर में—राजा अपनी कन्याओं के विवाह और राजकुमारों के पालन-पोषण, संरक्षण पर विचार करे॥१५२॥
दूतसम्प्रेषण और गुप्तचरों के आचरण पर दृष्टि―
दूतसम्प्रेषणं चैव कार्यशेषं तथैव च।
अन्तःपुरप्रचारं च प्रणिधीनां च चेष्टितम्॥१५३॥ (११८)
(च) और (दूतसम्प्रेषणम्) दूतों को इधर-उधर भेजने का प्रबन्ध करे (तथैव कार्यशेषम्) उसी प्रकार अन्य शेष रहे कार्यों को विचार कर पूर्ण करे (च) तथा (अन्तःपुर-प्रचारम्) अन्तःपुर=महल के आन्तरिक आचरणों-गतिविधियों एवं स्थितियों की (च) और (प्रणिधीनां चेष्टितम्) नियुक्त गुप्तचरों के आचरणों एवं गतिविधियों की भी जानकारी रखे और यथावश्यक विचार करे॥१५३॥
अष्टविध कर्म आदि पर चिन्तन―
कृस्त्नं चाष्टविधं कर्म पञ्चवर्गं च तत्त्वतः।
अनुरागापरागौ च प्रचारं मण्डलस्य च॥१५४॥ (११९)
(च) और (कृत्स्नम् अष्टविधं कर्म) सम्पूर्ण अष्टविध कर्म (च) तथा (पञ्चवर्गम्) पञ्चवर्ग की व्यवस्था (अनुरागौ) अनुराग=किस राजा आदि का प्रेम और किसका अपराग=विरोध है (च) तथा (मण्डलस्य प्रचारम्) प्रकृति मण्डल की गतिविधि एवं आचरण [७.१५५-१५७ में वक्ष्यमाण] (तत्त्वतः) इन बातों पर ठीक-ठीक चिन्तन करे और तदनुसार उपाय करे॥१५४॥
राज्यमण्डल की विचारणीय चार मूल प्रकृतियाँ―
मध्यमस्य प्रचारं च विजिगीषोश्च चेष्टितम्।
उदासीनप्रचारं च शत्रोश्चैव प्रयत्नतः॥१५५॥ (१२०)
(च) और (मध्यमस्य प्रचारम्) 'मध्यम' राजा के आचरण और गतिविधि तथा (विजिगीषोः चेष्टितम्) 'विजिगीषु' राजा के प्रयत्नों का (च) तथा (उदासीनप्रचारम्) 'उदासीन' राजा की स्थिति-गतिविधि [७.१५८] का (च शत्रोः एव) शत्रु [७.१५८] राजा के आचरण एवं स्थिति गतिविधि आदि की भी (प्रयत्नतः) प्रयत्नपूर्वक जानकारी रखे अर्थात् जानकर विचार करके तदनुसार प्रयत्न भी करे=आचरण में लाये॥१५५॥
राज्यमण्डल की विचारणीय आठ अन्य मूलप्रकृतियाँ―
एताः प्रकृतयो मूलं मण्डलस्य समासतः।
अष्टौ चान्याः समाख्याता द्वादशैव तु ताः स्मृताः॥१५६॥ (१२१)
(समासतः) संक्षेप में (एताः मण्डलस्य मूलं प्रकृतयः) ये चार [मध्यम राजा, विजिगीषु, उदासीन और शत्रु राजा राज्यमण्डल की चार मूल प्रकृतियाँ=मूलरूप से विचारणीय स्थितियाँ या विषय हैं (च) और (अष्टौ अन्याः समाख्याताः) आठ मूल प्रकृतियां और कही गई हैं (ताः तु द्वादश एव स्मृताः) इस प्रकार वे कुल मिलाकर [४+८=१२] बारह होती हैं॥१५६॥
राज्यमण्डल की प्रकृतियों के बहत्तर भेद―
अमात्यराष्ट्रदुर्गार्थदण्डाख्याः पञ्च चापराः।
प्रत्येकं कथिता ह्येताः संक्षेपेण द्विसप्ततिः॥१५७॥ (१२२)
(अमात्य-राष्ट्र-दुर्ग-अर्थ-दण्ड-आख्याः) मन्त्री, राष्ट्र, किला, कोष, दण्ड नामक (अपराः पञ्च) और पाँच प्रकृतियाँ है [९.२९४-२९७] (प्रत्येकं कथिता हि एताः) पूर्वोक्त [१५५-१५६] बारह प्रकृतियों के साथ ये मिलकर अर्थात् पूर्वोक्त प्रत्येक बारहों प्रकृतियों के पांच-पांच भेद होकर इस प्रकार (संक्षेपेण द्विसप्तततिः) संक्षेप से कुल ७२ प्रकृतियां [=विचारणीय स्थितियां या विषय] हो जाती हैं। १२ पूर्व में १५६वें श्लोक में वर्णित और उन १२ के ५५ भेद से ६० इस प्रकार १२×५=६०+१२=७२ हैं॥१५७॥
शत्रु, मित्र और उदासीन की परिभाषा―
अनन्तरमरिं विद्यादरिसेविनमेव च।
अरेरनन्तरं मित्रमुदासीनं तयोः परम्॥१५८॥ (१२३)
(अनन्तरम्) अपने राज्य के समीपवर्ती राजा को (च) और (अरिसेविनम्) शत्रुराजा की सेवा-सहायता करने वाले राजा को (अरिं अविद्यात्) 'शत्रु' राजा समझे (अरेः+अनन्तरं मित्रम्) अरि से भिन्न अर्थात् शत्रु से विपरीत आचरण करने वाले अर्थात् सेवा-सहायता करने वाले राजा को और शत्रुराजा की सीमा से लगे उसके समीपवर्ती राजा को मित्र राजा माने (तयोः परम्) इन दोनों से भिन्न किसी भी राजा को (उदासीनम्) जो न सहायता करे न विरोध करे, उसे 'उदासीन' राजा (विद्यात्) समझना चाहिए॥१५८॥
तान् सर्वानभिसन्दध्यात् सामादिभिरुपक्रमैः।
व्यस्तैश्चैव समस्तैश्च पौरुषेण नयेन च॥१५९॥ (१२४)
(तान् सर्वान्) उन सब प्रकार के राजाओं को (साम+आदिभिः+उपक्रमैः) 'साम' आदि [साम, दान, भेद, दण्ड] उपायों से (व्यस्तैः) एक-एक उपाय से (च) अथवा (समस्तैः) सब उपायों का एक साथ प्रयोग करके (पौरुषेण) पराक्रम से (च) तथा (नयेन) नीति से (अभिसन्दध्यात्) वश में रखे॥१५९॥
सन्धि, विग्रह आदि युद्धविषयक षड्गुणों का वर्णन―
सन्धिं च विग्रहं चैव यानमासनमेव च।
द्वैधीभावं संश्रयं च षड्गुणांश्चिन्तयेत्सदा॥१६०॥ (१२५)
(सन्धिम्) सन्धि (विग्रहं यानम् आसनं द्वैधीभावं च संश्रयं) विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय इन (षड्गुणान् एव) युद्धविषयक छह गुणों का भी (सदा चिन्तयेत्) राजा सदा विचार-मनन करे॥१६०॥
आसनं चैव यानं च सन्धिं विग्रहमेव च।
कार्यं वीक्ष्य प्रयुञ्जीत द्वैधं संश्रयमेव च॥१६१॥ (१२६)
राजा (आसनम्) बिना युद्ध के अपने राज्य में शान्त बैठे रहना अथवा युद्ध के अवसर पर शत्रु को घेरकर बैठ जाना, (च) और (यानम्) शत्रु पर आक्रमण करने के लिए जाना, (च) तथा (सन्धिम्) शत्रुराजा अथवा किसी अन्य राजा से मेल करना, (च) और (विग्रहम्) शत्रुराजा से युद्ध करना, (द्वैधम्) युद्ध के समय सेना के दो विभाग करके आक्रमण करना, (संश्रयम्) निर्बल अवस्था में किसी बलवान् राजा या पुरुष का आश्रय लेना, युद्ध विषयक इन षड्गुणों को (कार्यं वीक्ष्य प्रयुञ्जीत) कार्यसिद्धि को देखकर प्रयुक्त करना चाहिए॥१६१॥
सन्धि और उसके भेद―
सन्धिं तु द्विविधं विद्याद्राजा विग्रहमेव च।
उभे यानासने चैव द्विविधः संश्रयः स्मृतः॥१६२॥ (१२७)
(सन्धिं तु विग्रहम्+एव द्विविधम्) सन्धि और विग्रह के दो-दो भेद होते हैं (च) और (यान+आसने उभे एव) यान और आसन के भी दो-दो भेद होते हैं (च) तथा (संश्रयः द्विविधः स्मृतः) संश्रय भी दो प्रकार का माना है, (राजा विद्यात्) राजा भेदों सहित इन षड्गुणों को भलीभांति जाने॥१६२॥
समानयानकर्मा च विपरीतस्तथैव च।
तदात्वायतिसंयुक्तः सन्धिर्ज्ञेयो द्विलक्षणः॥१६३॥ (१२८)
(तदात्व+आयतिसंयुक्तः) तात्कालिक फल देने वाली और भविष्य में भी फल देने वाली (सन्धिः) [७.१६९] (द्विलक्षणः ज्ञेयः) दो प्रकार की समझनी चाहिए―१. (समानयानकर्मा) शत्रु राजा पर आक्रमण करने के लिए किसी अन्य राजा से मेल करना, (तथैव) उसी प्रकार २. (विपरीतः) पहले से विपरीत अर्थात् असमानयानकर्मा=सन्धि किये हुए साथी राजाओं द्वारा शत्रु राजा पर पृथक् पृथक् आक्रमण करने के लिए मेल करना, अथवा शत्रुराजा पर आक्रमण न करके उससे कोई समझौता कर लेना [यह अपनी बल-स्थिति को देखकर उचित अवसर तक होता है ७.१६९]॥१६३॥
विग्रह और उसके भेद―
स्वयंकृतश्च कार्यार्थमकाले काल एव वा।
मित्रस्य चैवापकृते द्विविधो विग्रहः स्मृतः॥१६४॥ (१२९)
(विग्रहः द्विविधः स्मृतः) विग्रह=कलह, युद्ध [७.१७०] दो प्रकार का होता है—(काले) चाहे युद्ध के लिए निश्चित किये समय में (वा) अथवा (अकाले एव) अनिश्चित किसी भी समय में (कार्यार्थम्) १. कार्य की सिद्धि के लिए (स्वयंकृतः) किसी राजा से स्वयं किया गया विग्रह (च) और (मित्रस्य अपकृते) २. किसी राजा के द्वारा मित्रराजा पर आक्रमण करने या हानि पहुंचाने पर मित्रराजा की रक्षा के लिए उसके शत्रुराजा से किया गया विग्रह॥१६४॥
यान और उसके भेद―
एकाकिनश्चात्ययिके कार्ये प्राप्ते यदृच्छया।
संहतस्य च मित्रेण द्विविधं यानमुच्यते॥१६५॥ (१३०)
(आत्ययिके कार्ये प्राप्ते) युद्ध की अपरिहार्य परिस्थिति उत्पन्न होने पर (च) और (यदृच्छया) युद्ध करने की अपनी इच्छा होने पर [७.१७१] (एकाकिनः) अकेले ही (च) अथवा (मित्रेण संहतस्य) किसी मित्रराजा के साथ मिलकर युद्ध के लिए जाना (द्विविधं यानम्+उच्यते) ये दो प्रकार का 'यान'= युद्धार्थ गमन करना, कहाता है॥१६५॥
आसन और उसके भेद―
क्षीणस्य चैव क्रमशो दैवात्पूर्वकृतेन वा।
मित्रस्य चानुरोधेन द्विविधं स्मृतमासनम्॥१६६॥ (१३१)
(पूर्वकृतेन दैवात् क्रमशः क्षीणस्य एव) इस जन्म या पूर्व जन्म में कृत कार्यों या कर्मों के फल के कारण शत्रु की अपेक्षा से क्षीण स्थिति होने के कारण (च) अथवा (मित्रस्य अनुरोधेन) मित्र राज्य के आग्रह के कारण युद्ध न करके अपने राज्य में शान्त बैठे रहना [७.१७१] (आसनं द्विविधं स्मृतम्) यह 'आसन' दो प्रकार का माना है॥१६६॥
द्वैधीभाव और उसके भेद―
बलस्य स्वामिनश्चैव स्थितिः कार्यार्थसिद्धये।
द्विविधं कीर्त्यते द्वैध षाड्गुण्यगुणवेदिभिः॥१६७॥ (१३२)
(षाड्गुण्य-गुणवेदिभिः) षड्गुणों के महत्त्व को जानने वालों ने (द्वैधं द्विविधं कीर्त्यते) द्वैधीभाव=सेना का विभाजन [७.१७३] दो प्रकार का कहा है― (कार्यार्थसिद्धये) विजय-कार्य की सिद्धि के लिए १―(बलस्य स्थितिः) सेना के दो भाग करके सेना का एक भाग सेनापति के अधीन रखके (च) और २―(स्वामिनः) सेना का दूसरा भाग राजा द्वारा अपने अधीन रखके आक्रमण करना॥१६७॥
संश्रय और उसके भेद―
अर्थसम्पादनार्थं च पीड्यमानस्य शत्रुभिः।
साधुषु व्यपदेशार्थं द्विविधः संश्रयः स्मृतः॥१६८॥ (१३३)
(शत्रुभिः पीड्यमानस्य) शत्रुओं द्वारा पीड़ित होने पर (अर्थसम्पादनार्थम्) वर्तमान में अपने उद्देश्य की सिद्धि अथवा आत्मरक्षा के लिए किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय लेना (च) और (व्यपदेशार्थं साधुषु) भावी हार या दुःख से बचने के लिए किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय लेना ये (द्विविधः संश्रय स्मृतः) दो प्रकार का 'संश्रय'=शरण लेना [७.१७४] कहलाता है॥१६८॥
सन्धि करने का समय―
यदावगच्छेदायत्यामाधिक्यं ध्रुवमात्मनः।
तदात्वे चाल्पिकां पीडां तदा सन्धिं समाश्रयेत्॥१६९॥ (१३४)
(यदा+अवगच्छेत्) राजा जब यह समझे कि (तदात्वे) इस समय युद्ध करने से (अल्पिकां पीडाम्) थोड़ी-बहुत पीड़ा या हानि अवश्य प्राप्त होगी (च) और (आयत्याम्) भविष्य में युद्ध करने में (आत्मनः ध्रुवम् आधिक्यम्) अपनी वृद्धि और विजय अवश्य होगी (तदा सन्धिं समाश्रयेत्) तब शत्रु से मेल करके उचित समय तक धीरज रखे॥१९६॥
विग्रह करने का समय―
यदा प्रहृष्टा मन्येत सर्वास्तु प्रकृतीर्भृशम्।
अत्युच्छ्रितं तथात्मानं तदा कुर्वीत विग्रहम्॥१७०॥ (१३५)
(यदा सर्वाः प्रकृतीः) जब अपनी सब प्रकृतियाँ=मन्त्री, प्रजा, सेना आदि [७.१५६, १५७] (भृशम्) अत्यन्त (प्रहृष्टाः) प्रसन्न (अत्युच्छ्रितम्) उन्नतिशील और उत्साहित (मन्येत) जाने (तथा) वैसे (आत्मानम्) अपने को भी समझे (तदा विग्रहं कुर्वीत) तभी शत्रु राजा से विग्रह=युद्ध कर लेवे॥१७०॥
यान का समय―
यदा मन्येत भावेन हृष्टं पुष्टं बलं स्वकम्।
परस्य विपरीतं च तदा यायाद्रिपुं प्रति॥१७१॥ (१३६)
(यदा स्वकं बलम्) जब अपने बल अर्थात् सेना को (हृष्टं पुष्टं भावेन मन्येत) हर्षित और पुष्टि युक्त जाने (च) और (परस्य) शत्रु के बल=सेना को (विपरीतम्) अपने से विपरीत अर्थात् निर्बल जाने (तदा रिपुं प्रति यायात्) तब शत्रु पर आक्रमण करने के लिए जावे॥१७१॥
आसन का समय―
यदा तु स्यात्परिक्षीणो वाहनेन बलेन च।
तदासीत प्रयत्नेन शनकैः सान्त्वयन्नरीन्॥१७२॥ (१३७)
(यदा) जब (बलेन वाहनेन) सेना, बल, वाहन आदि से (परिक्षीणः स्यात्) क्षीण हो जाये (तदा) तब (अरीन् शनकैः प्रयत्नेन सान्त्वयन्) शत्रुओं को नीति से प्रयत्नपूर्वक शान्त करता हुआ (आसीत) अपने राज्य में शान्त बैठा रहे॥१७२॥
द्वैधीभाव का समय―
मन्येतारिं यदा राजा सर्वथा बलवत्तरम्।
तदा द्विधा बलं कृत्वा साधयेत्कार्यमात्मनः॥१७३॥ (१३८)
(राजा यदा) राजा जब (अरिं सर्वथा बलवत्तरं मन्येत) शत्रु को अपने से अत्यन्त बलवान् जाने (तदा) तब (द्विधा बलं कृत्वा) सेना को दो भागों में बांटकर आक्रमण करके (आत्मनः कार्यं साधयेत्) अपना विजय कार्य सिद्ध करे॥१७३॥
संश्रय का समय―
यदा परबलानां तु गमनीयतमो भवेत्।
तदा तु संश्रयेत् क्षिप्रं धार्मिकं बलिनं नृपम्॥१७४॥ (१३९)
(यदा) जब राजा यह समझ लेवे कि अब (परबलानां तु गमनीयतमः भवेत्) मैं शत्रु राजा से पराजित होकर उनके वश में हो जाऊंगा (तदा तु) तभी (धार्मिकं बलिनं नृपं क्षिप्रं संश्रयेत्) किसी धार्मिक बलवान् राजा का आश्रय शीघ्र ले लेवे॥१७४॥
निग्रहं प्रकृतीनां च कुर्याद् योऽरिबलस्य च।
उपसेवेत तं नित्यं सर्वयत्नैर्गुरुं यथा॥१७५॥ (१४०)
(यः) जो राजा (अरिबलस्य) शत्रुराजा की सेना आदि का (च) और (प्रकृतीनाम्) अपनी विद्रोही प्रजा, अमात्य, सेना आदि का (निग्रहं कुर्यात्) नियन्त्रण करे (तम्) उस आश्रयदाता राजा की (यथा गुरुं तथा नित्यं सर्वयत्नैः तं उपसेवते) जैसे गुरु की सत्यभाव से सेवा की जाती है वैसे निरन्तर सब उपायों से उसकी सेवा करे॥१७५॥
यदि तत्रापि सम्पश्येद् दोषं संश्रयकारितम्।
सुयुद्धमेव तत्रापि निर्विशङ्कः समाचरेत्॥१७६॥ (१४१)
(यदि तत्र+अपि संश्रयकारितं दोषं सम्पश्येत्) जिस बलवान् राजा का आश्रय लिया है यदि उसके आश्रय लेने में अपनी हानि अनुभव करे अथवा राज्य को हड़पने की उसकी मानसिकता देखे तो फिर (तत्र+अपि) उससे भी (निर्विशङ्कः सुयुद्धम्+एव समाचरेत्) सब प्रकार का भय छोड़ कर यथाशक्ति युद्ध ही कर ले॥१७६॥
सर्वोपायैस्तथा कुर्यान्नीतिज्ञः पृथिवीपतिः।
यथास्याभ्यधिका न स्युर्मित्रोदासीनशत्रवः॥१७७॥ (१४२)
(नीतिज्ञः पृथिवीपतिः) नीति का जानने वाला राजा, (यथा) जिस प्रकार (अस्य) उसके (मित्रउदासीनशत्रवः) मित्र, उदासीन और शत्रु राजा [७.१५८] (अधिकाः न स्युः) अधिक न बढ़ें (तथा सर्व-उपायैः कुर्यात्) ऐसे प्रयत्न सब उपायों से करे॥१७७॥
आयतिं सर्वकार्याणां तदात्वं च विचारयेत्।
अतीतानां च सर्वेषां गुणदोषौ च तत्त्वतः॥१७८॥ (१४३)
राजा (सर्वकार्याणां तदात्वम् च आयतिम्) राज्य के सब कार्यों और योजनाओं के वर्तमान समय के और भविष्य के (च) और (सर्वेषाम् अतीतानाम्) सब अतीत काल के किये गये कार्यों और योजनाओं के (गुण-दोषौ) गुण-दोषों को अर्थात् लाभ-हानि को (तत्त्वतः विचारयेत्) यथार्थ रूप से विचारे और विचारकर दोषों को छोड़ दे और गुणों को ग्रहण करे॥१७८॥
आयत्यां गुणदोषज्ञस्तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः।
अतीते कार्यशेषज्ञः शत्रुभिर्नाभिभूयते॥१७९॥ (१४४)
जो राजा (आयत्यां गुणदोषज्ञः) भविष्यत् अर्थात् आगे किये जाने वाले कर्मों में गुण-दोषों का विचार करता है (तदात्वे क्षिप्रनिश्चयः) वर्त्तमान में तुरन्त निश्चय करता है और (अतीते कार्यशेषज्ञः) किये हुए कार्यों में शेष कर्त्तव्य को जानकर पूर्ण करता है (शत्रुभिः न+अभिभूयते) वह शत्रुओं से पराजित कभी नहीं होता॥१७९॥
राजनीति का निष्कर्ष―
यथैनं नाभिसंदध्युर्मित्रोदासीनशत्रवः ।
तथा सर्वं संविदध्यादेष सामासिको नयः॥१८०॥ (१४५)
(यथा एनम्) जिस प्रकार राजा को (मित्र-उदासीन-शत्रवः) राजा के मित्र, उदासीन और शत्रु जन (न+अभिसंदध्युः) वश में करके अन्यथा कार्य न करा पायें (तथा सर्वं संविदध्यात्) वैसा प्रयत्न सब कार्यों में राजा करे, (एषः सामासिकः नयः) यही संक्षेप में राजनीति कहाती है॥१८०॥
आक्रमण के लिए जाना और व्यूहरचना आदि की व्यवस्था―
यदा तु यानमातिष्ठेदरिराष्ट्रं प्रति प्रभुः।
तदाऽनेन विधानेन यायादरिपुरं शनैः॥१८१॥ (१४६)
(प्रभुः) युद्ध करने में समर्थ हुआ राजा (अरिराष्ट्रं प्रति) शत्रु के राज्य पर (यदा तु यानम्+आतिष्ठेत्) जब भी आक्रमण करने हेतु जाने का निश्चय करे (तदा) तब (अनेन विधानेन) अग्रिम विधि के अनुसार (शनैः) सावधानी पूर्वक (अरिपुरं यायात्) शत्रु के राष्ट्र पर चढ़ाई करे॥१८१॥
कृत्वा विधानं मूले तु यात्रिकं च यथाविधि।
उपगृह्यास्पदं चैव चारान् सम्यग्विधाय च॥१८४॥ (१४७)
जब राजा शत्रुराजा के साथ युद्ध करने को जावे तब (मूले विधानं कृत्वा तु) अपने दुर्ग और राज्य की रक्षा का निश्चित प्रबन्ध करके (च) और (यथाविधि यात्रिकं) यथाविधि युद्ध यात्रा सम्बन्धी (आस्पदम् एव उपगृह्य) सेना, यान, वाहन, शस्त्र आदि सामग्री लेकर (चारान् सम्यक् विधाय) सर्वत्र समाचारों को देने वाले दूतों को नियुक्त करके युद्धार्थ जावे॥१८४॥
विविध मार्ग का संशोधन करे―
संशोध्य त्रिविधं मागं षड्विधं च बलं स्वकम्।
सांपरायिककल्पेन यायादरिपुरं शनैः॥१८५॥ (१४८)
(त्रिविधं मार्गं संशोध्य) तीन प्रकार के मार्गों स्थल, जल, आकाश के, अथवा जांगल=बंजर, अनूप=जलीय, आटविक=वन प्रदेशीय, अथवा ग्राम्य, आरण्य, पर्वतीय को गमनयोग्य निर्बाध बनाकर (स्वकं षड्विधं च बलम्) अपना छह प्रकार का बल रथ, अश्व, हस्ती, पदातिसेना, सेनापति और कर्मचारी वर्ग इनको तैयार करके (सांपरायिककल्पेन) संग्राम करने की विधि के अनुसार (शनैः) सावधानीपूर्वक (अरिपुरं यायात्) शत्रु के राष्ट्र पर चढ़ाई करे॥१८५॥
आक्रमण के समय शत्रु और शत्रुमित्र पर विशेष दृष्टि रखे―
शत्रुसेविनि मित्रे च गूढे युक्ततरो भवेत्।
गतप्रत्यागते चैव स हि कष्टतरो रिपुः॥१८६॥ (१४९)
राजा (शत्रुसेविनि गूढे मित्रे) शत्रु से प्यार करने वाले छद्म मित्र के प्रति (युक्ततरो भवेत्) अधिक निगरानी और सावधानी रखे (च) और (गत-प्रत्यागते एव) एक बार विरुद्ध होकर फिर मित्र बनकर आने वाले व्यक्ति के प्रति भी सावधान रहे (हि) क्योंकि (सः कष्टतरः रिपुः) वह अधिक कष्टदायक शत्रु होता है॥१८६॥
व्यूहरचनाएं―
दण्डव्यूहेन तन्मार्गं यायात्तु शकटेन वा।
वराहमकराभ्यां वा सूच्या वा गरुडेन वा॥१८७॥ (१५०)
(तत्+मार्गम्) शत्रुराष्ट्र पर आक्रमण हेतु जाने वाले मार्ग पर (दण्डव्यूहेन) सेना का दण्डव्यूह बनाकर (वा) अथवा (शकटेन) शकटव्यूह बनाकर (वा) अथवा (वराह-मकराभ्याम्) वराहव्यूह या मकरव्यूह बनाकर (वा) अथवा (सूच्या वा गरुडेन) सूचीव्यूह या गरुडव्यूह बनाकर (यायात्) युद्ध के लिए जाये॥१८७॥
यतश्च भयमाशङ्केत् ततो विस्तारयेद् बलम्।
पद्मेन चैव व्यूहेन निविशेत सदा स्वयम्॥१८८॥ (१५१)
(यतः भयम्+आशंकेत्) जिधर से भय की आशंका हो (ततः) उसी ओर (बलं विस्तारयेत्) सेना को फैला देवे (पद्मेन एव व्यूहेन) पद्मव्यूह अर्थात् पद्माकार में चारों ओर सेनाओं को रख के (स्वयं सदा निविशेत) स्वयं सदा मध्य में रहे॥१८८॥
सेनापतिबलाध्यक्षौ सर्वदिक्षु निवेशयेत्।
यतश्च भयमाशङ्केत् प्राचींतांकल्पयेद्दिशम्॥१८९॥ (१५२)
राजा (सेनापति-बलाध्यक्षौ) सेनापति और बलाध्यक्षों को चारों दिशाओं में नियुक्त करे (यतः भयम्+आशंकेत्) जिस ओर से युद्ध का भय अधिक हो (तां प्राचीं दिशं कल्पयेत्) उसी दिशा को मुख्य मानकर सेना को उधर मोड़ देवे॥१८९॥
गुल्मांश्च स्थापयेदाप्तान् कृतसंज्ञान् समन्ततः।
स्थाने युद्धे च कुशलानभीरूनविकारिणः॥१९०॥ (१५३)
(समन्ततः स्थाने) युद्ध के मैदान में यथोचित स्थानों पर (आप्तान्) युद्धविद्या में सुशिक्षित, (कृतसंज्ञान्) जिनके पृथक्-पृथक् संकेत या नाम रखे गये हों (युद्धे च कुशलान्) युद्ध करने में अनुभवी (अभीरून्) निडर (अविकारिणः) शुद्ध मन वाले (गुल्मान्) सैनिक दलों को (स्थापयेत्) स्थापित करे॥१९०॥
संहतान् योधयेदल्पान् कामं विस्तारयेद् बहून्।
सूच्या वज्रेण चैवैतान् व्यूहेन व्यूह्य योधयेत्॥१९१॥ (१५४)
(अल्पान् संहतान् योधयेत्) यदि शत्रु के सैनिक अधिक हों और अपने कम संख्या में हों तो उनको समूह बनाकर लड़ाये, (बहून् कामं विस्तारयेत्) अपने सैनिकों की संख्या बहुत हो तो आवश्यकतानुसार उनको फैलाकर लड़ाये, (च) और (सूच्या वज्रेण व्यूहेन व्यूह्य एतान् योधयेत्) या फिर सूचीव्यूह अथवा वज्रव्यूह की रचना करके उन सैनिकों को लड़ाये॥१९१॥
स्यन्दनाश्वैः समे युध्येदनूपे नौद्विपैस्तथा।
वृक्षगुल्मावृते चापैरसिचर्मायुधैः स्थले॥१९२॥ (१५५)
(समे स्यन्दन+अश्वैः युध्येत्) समभूमि में रथ, घोड़ों से (अनूपे नौ-द्विपैः) जो समुद्र में युद्ध करना हो तो नौकाओं से और थोड़े जल में हाथियों पर (वृक्षगुल्म+आवृते) वृक्ष आदि झाड़ी युक्त प्रदेश में (चापैः) बाणों से (तथा) तथा खुले मैदान में (असिचर्म+आयुधैः) तलवार और ढाल से युद्ध करें॥१९२॥
सेना का उत्साहवर्धन―
प्रहर्षयेद् बलं व्यूह्य ताँश्च सम्यक् परीक्षयेत्।
चेष्टाश्चैव विजानीयादरीन् योधयतामपि॥१९४॥ (१५६)
(व्यूह्य बलं प्रहर्षयेत्) व्यूह=मोर्चाबन्दी करने के बाद सेना को वीरतापूर्ण वचनों से प्रोत्साहित करे (अरीन् योधयताम्+अपि) शत्रुओं से युद्ध करते समय भी (तान् सम्यक् परीक्षयेत्) सैनिकों की अच्छी प्रकार परीक्षा करे कि वे निष्ठापूर्वक लड़ रहे हैं वा नहीं (च) और (चेष्टाः एव विजानीयात्) लड़ते हुए सैनिकों की चेष्टाओं को भी देखा करे॥१९४॥
शत्रुराजा को पीड़ित करने के उपाय―
उपरुध्यारिमासीत राष्ट्रं चास्योपपीडयेत्।
दूषयेच्चास्य सततं यवसान्नोदकेन्धनम्॥१९५॥ (१५७)
आवश्यक होने पर (अरिम् उपरुध्य आसीत्) शत्रु को चारों ओर से घेर कर रोक रखे (च) और (अस्य राष्ट्रम् उपपीडयेत्) उसके राष्ट्र को पीड़ित करे (अस्य) शत्रु के (यवस-अन्न-उदक-इन्धनम्) चारा, अन्न, जल और इन्धन को (सततं दूषयेत्) सदा दूषित या नष्ट कर दे॥१९५॥
भिन्द्याच्चैव तडागानि प्राकारपरिखास्तथा।
समवस्कन्दयेच्चैनं रात्रौ वित्रासयेत्तथा॥१९६॥ (१५८)
शत्रु के (तडागानि) तालाब (प्राकार) नगर के प्रकोट (तथा परिखाः) और किले की खाई को (भिन्द्यात्) तोड़-फोड़ दे (रात्रौ एनं वित्रासयेत्) रात्रि में उसको भयभीत रखकर सोने न दे (च) और (सम्+अवस्कन्दयेत्) ऐसे उस पर दबाव बनाकर फिर पूरी शक्ति से आक्रमण करके विजय प्राप्त करे॥१९६॥
शत्रुराजा के अमात्यों में फूट―
उपजप्यानुपजपेद् बुध्येतैव च तत्कृतम्।
युक्ते च दैवे युध्येत जयप्रेप्सुरपेतभीः॥१९७॥ (१५९)
(उपजप्यान्) शत्रु के वर्ग के जिन अमात्य सेनापति आदि में फूट डाली जा सके, उनमें (उपजपेत्) फूट डाल कर अपने साथ मिला ले (च) और इस प्रकार उनसे (तत् कृतं बुध्येत) शत्रु राजा की योजनाओं की जानकारी ले ले (च) और फिर (जयप्रेप्सुः) विजय का इच्छुक राजा इस प्रकार (अपेतभीः) भय छोड़कर (युक्ते दैवे) अनुकूल अवसर देखकर (युध्येत) युद्ध-आक्रमण शुरू कर देवे॥१९७॥
साम्ना दानेन भेदेन समस्तैरथवा पृथक्।
विजेतुं प्रयतेतारीन् न युद्धेन कदाचन॥१९८॥ (१६०)
(साम्ना) 'साम' से (दानेन) 'दान' से (भेदेन) 'भेद' से [७.१०७] (समस्तैः) इन तीनों उपायों से एकसाथ (अथवा) अथवा (पृथक्) अलग-अलग एक-एक से (अरीन् विजेतुं प्रयतेत) शत्रुओं को जीतने का पहले प्रयत्न करे (युद्धेन कदाचन न) पहले ही युद्ध से कभी जीतने का यत्न न करे॥१९८॥
त्रयाणामप्युपायानां पूर्वोक्तानामसम्भवे।
तथा युध्येत सम्पन्नो विजयेत रिपून् यथा॥२००॥ (१६९)
(पूर्वोक्तानां त्रयाणाम्+अपि+उपायानाम् असंभवे) पूर्वोक्त साम, दान, भेद तीनों ही उपायों में से किसी से भी विजय की सम्भावना न रहने पर (सम्पन्नः) सब प्रकार से तैयारी करके (तथा युध्येत) इस प्रकार युद्ध करे (यथा) जिससे कि (रिपून् विजयेत) शत्रुओं पर निश्चित विजय कर सके॥२००॥
राजा के विजयोपरान्त कर्त्तव्य―
जित्वा सम्पूजयेद् देवान् ब्राह्मणांश्चैव धार्मिकान्।
प्रदद्यात् परिहारांश्च ख्यापयेदभयानि च॥२०१॥ (१६२)
शत्रुराज्य पर (जित्वा) विजय प्राप्त करके (धार्मिकान् देवान् ब्राह्मणान् एव) जो धर्माचरण वाले विद्वान् ब्राह्मण हों उनको ही (पूजयेत्) सत्कृत करे अर्थात् उनको अभिवादन करके उनका आशीर्वाद ले (च) और (परिहारान् प्रदद्यात्) जिन प्रजाजनों को युद्ध में हानि हुई है उन्हें क्षतिपूर्ति के लिए सहायता दे (च) तथा (अभयानि ख्यापयेत्) विजित राष्ट्र में सब प्रकार के अभयों की घोषणा करा दे कि 'प्रजाओं को किसी प्रकार का कोई कष्ट नहीं दिया जायेगा अतः वे सब प्रकार से भय-आशंका-रहित होकर रहें'॥२०१॥
हारे हुए राजा से प्रतिज्ञापत्र आदि लिखवाना―
सर्वेषां तु विदित्वैषां समासेन चिकीर्षितम्।
स्थापयेत्तत्र तद्वंश्यं कुर्याच्च समयक्रियाम्॥२०२॥ (१६३)
(एषां सर्वेषाम्) विजित प्रदेश की इन सब प्रजाओं की (चिकीर्षितम्) इच्छा को (समासेन विदित्वा) संक्षेप से अर्थात् सर्वसामान्य रूप से जानकर कि वे किसे अपना राजा बनाना चाहती हैं, या कोई और विशेष आकांक्षा हो उसे भी जानकर (तत्र) उस राजसिंहासन पर (तत् वश्यम्) उस प्रदेश की प्रजाओं में से उन्हीं के वंश के किसी व्यक्ति को (स्थापयेत्) बिठा देवे (च) और (समय-क्रियाम् कुर्यात्) उससे सन्धिपत्र=शर्तनामा लिखा लेवे कि अमुक कार्य तुम्हें स्वेच्छानुसार करना है, अमुक मेरी इच्छा से। इसी प्रकार अन्य कर, अनुशासन आदि से सम्बद्ध बातें भी उसमें हों॥२०२॥
प्रमाणानि च कुर्वीत तेषां धर्म्यान् यथोदितान्।
रत्नैश्च पूजयेदेनं प्रधानपुरुषैः सह॥२०३॥ (१६४)
(तेषां यथोदितान् धर्म्यान्) उन विजित प्रदेश की प्रजाओं या नियुक्त राजपुरुषों द्वारा कही हुई उनकी न्यायोचित [=वैध] बातों को (प्रमाणानि कुर्वीत) प्रमाणित कर दे अर्थात् प्रतिज्ञापूर्वक स्वीकार कर ले। अभिप्राय यह है कि उनकी न्यायोचित बातों को मान लेवे और जो अमान्य बातें हों उनको न माने (च) और (प्रधानपुरुषैः सह एनम्) मन्त्री आदि प्रधान राजपुरुषों के साथ पूर्वोक्त राजा का (रत्नैः पूजयेत्) उत्तम वस्तुयें प्रदान करते हुए यथायोग्य सत्कार करे॥२०३॥
आदानमप्रियकरं दानञ्च प्रियकारकम्।
अभीप्सितानामर्थानां काले युक्तं प्रशस्यते॥२०४॥ (१६५)
(आदानम्+अप्रियकरम्) किसी के धन, पदार्थ आदि छीन लेना आत्मा की अप्रीति=असन्तुष्टि का कारण है, (च) और (दानं प्रियकारकम्) किसी को देना आत्मा की प्रीति=सन्तुष्टि का कारण है। (अभीप्सितानाम्+अर्थानाम्) किसी के अभीष्ट पदार्थों को (काले युक्तं प्रशस्यते) उचित समय पर उसको देना प्रशंसनीय व्यवहार है॥२०४॥
सह वाऽपि व्रजेद्युक्तः सन्धिं कृत्वा प्रयत्नतः।
मित्रं हिरण्यं भूमिं वा सम्पश्यस्त्रिविधं फलम्॥२०६॥ (१६६)
[यदि पूर्वोक्त कथनानुसार (७.२०२-२०३) राजा को बन्दी न बनाकर उसके स्थान पर दूसरा राजा न बिठाकर उसे ही राजा रखे तो] (अपि वा) अथवा (सह युक्तः) उसी राजा के साथ मेल करके (प्रयत्नतः सन्धिं कृत्वा) बड़ी सावधानी पूर्वक उससे सन्धि करके अर्थात् सन्धिपत्र लिखाकर (मित्रं हिरण्यं वा भूमिं त्रिविधं फलं सम्पश्यन्) मित्रता, सोना अथवा भूमि की प्राप्ति होना, इन तीन प्रकार के फलों की प्राप्ति देखकर अर्थात् इनकी उपलब्धि करके (व्रजेत्) वापिस लौट आये॥२०६॥
पार्ष्णिग्राहं च सम्प्रेक्ष्य तथाक्रन्दं च मण्डले।
मित्रादथाप्यमित्राद्वा यात्राफलमवाप्नुयात्॥२०७॥ (१६७)
(मण्डले) अपने राज्य में (पार्ष्णिग्राहम्) 'पार्ष्णिग्राह' संज्ञक राजा=राज्य को छीनने की इच्छा रखने वाला पड़ौसी राजा (तथा) तथा (आक्रन्दं संप्रेक्ष्य) 'आक्रन्द' संज्ञक राजा=वह निकटवर्ती राजा जो किसी राजा को अन्य राजा की सहायता करने से रोकता है, का ध्यान रखके (मित्रात्+अथापि+अमित्रात्) मित्र अथवा पराजित शत्रु से (यात्राफलम्+अवाप्नुयात्) युद्ध यात्रा का फल प्राप्त करे। अभिप्राय यह है कि अपने पड़ोसी राजाओं से सुरक्षा के लिए या उसको वश में करने के लिए धन, भूमि, सोना या मित्रता में से कौन से फल की अधिक उपयोगिता होगी, यह सोचकर शत्रु या मित्र से वही-वही फल मुख्यता से प्राप्त करे॥२०७॥
सच्चा मित्र सबसे बड़ी शक्ति―
हिरण्यभूमिसम्प्राप्त्या पार्थिवो न तथैधते।
यथा मित्रं ध्रुवं लब्ध्वा कृशमप्यायतिक्षमम्॥२०८॥ (१६८)
(पार्थिवः) राजा (हिरण्य-भूमि-सम्प्राप्त्या) सुवर्ण और भूमि की प्राप्ति से (तथा न एधते) वैसा नहीं बढ़ता (यथा) जैसे कि (ध्रुवम्) निश्चल प्रेमयुक्त (आयतिक्षमम्) भविष्यत् में सहयोग करने वाले (अपि कृशम्) दुर्बल मित्र को भी (लब्ध्वा) प्राप्त करके बढ़ता है, शक्तिशाली बनता है॥२०८॥
प्रशंसनीय मित्र राजा के लक्षण―
धर्मज्ञं च कृतज्ञं च तुष्टप्रकृतिमेव च।
अनुरक्तं स्थिरारम्भं लघुमित्रं प्रशस्यते॥२०९॥ (१६९)
(धर्मज्ञम्) धर्म को जानने वाला (च) और (कृतज्ञम्) कृतज्ञ अर्थात् किये हुए उपकार को सदा मानने वाला (तुष्टप्रकृतिम्) सन्तुष्ट अनुरागी (स्थिरारम्भम्) स्थिरतापूर्वक मित्रता या कार्य करने वाला (लघुमित्रम्) अपने से न्यून स्थिति वाला भी मित्र (प्रशस्यते) अच्छा माना जाता है॥२०९॥
कष्टकर शत्रु के लक्षण―
प्राज्ञं कुलीनं शूरं च दक्षं दातारमेव च।
कृतज्ञं धृतिमन्तञ्च कष्टमाहुररिं बुधाः॥२१०॥ (१७०)
(बुधाः) बुद्धिमान् जन (प्राज्ञम्) बुद्धिमान् (कुलीनम्) कुलीन (शूरम्) शूरवीर (दक्षम्) चतुर (दातारम्) दाता (कृतज्ञम्) किये हुए उपकार को मानने वाला (च) और (धृतिमन्तम्) धैर्यवान् (अरिम्) शत्रु को (कष्टम् आहुः) अधिक कष्टदायक मानते हैं अर्थात् इन गुणों वाले राजा को शत्रु नहीं बनाना चाहिये॥२१०॥
उदासीन के लक्षण―
आर्यता पुरुषज्ञानं शौर्यं करुणवेदिता।
स्थौललक्ष्यं च सततमुदासीनगुणोदयः॥२११॥ (१७१)
(आर्यता) जिसमें सज्जनता हो, (पुरुषज्ञानम्) जो अच्छे-बुरे लोगों की पहचान रखने वाला हो, (शौर्यम्) शूरवीरता गुण वाला, (करुणवेदिता) करुणा की भावना वाला (च) और (स्थौललक्ष्यम्) किस कार्य से मुझे लाभ होगा और किस कार्य से हानि होगी, इस लक्ष्य को सामने रखकर व्यवहार करने वाला अर्थात् जो सुख में साथी रहे और आपत्ति में काम न आये, ऐसा राजा (उदासीन-गुणोदयः) 'उदासीन' लक्षण वाला कहाता है॥२११॥
राजा द्वारा आत्मरक्षा सबसे आवश्यक―
क्षेम्यां सस्यप्रदां नित्यं पशुवृद्धिकरीमपि।
परित्यजेन्नृपो भूमिमात्मार्थमविचारयन्॥२१२॥ (१७२)
(नृपः) राजा (आत्मार्थम्) अपनी और राज्य की रक्षा के लिए (क्षेम्याम्) आरोग्यता से युक्त (सस्यप्रदाम्) धान्य-घास आदि से उपजाऊ रहने वाली (नित्यं पशुवृद्धिकरीम्) सदैव जहाँ पशुओं की वृद्धि होती हो, ऐसी भूमि को भी (अविचारयन्) बिना विचार किये (परित्यजेत्) छोड़ देवे अर्थात् विजयी राजा को देनी पड़े तो दे दे, उसमें कष्ट अनुभव न करे॥२१२॥
आपदर्थं धनं रक्षेद्दारान् रक्षेद्धनैरपि।
आत्मानं सततं रक्षेद्दारैरपि धनैरपि॥२१३॥ (१७३)
आपत्ति में पड़ने पर (आपत्+अर्थम्) आपत्ति से रक्षा के लिए (धनं रक्षेत्) धन की रक्षा करे, और (धनैः+अपि) धनों की अपेक्षा (दारान् रक्षेत्) स्त्रियों की अर्थात् परिवार की रक्षा करे (दारैः+अपि धनैः-+अपि) स्त्रियों से भी और धनों से भी बढ़कर (आत्मानं सततं रक्षेत्) आत्मरक्षा करना सबसे आवश्यक है, क्योंकि यदि राजा की अपनी रक्षा नहीं हो सकेगी तो वह न परिवार की रक्षा कर सकेगा और न धन की, न राज्य की॥२१३॥
सह सर्वाः समुत्पन्नाः प्रसमीक्ष्यापदो भृशम्।
संयुक्तांश्च वियुक्तांश्च सर्वोपायान् सृजेद् बुधः॥२१४॥ (१७४)
(सर्वाः आपदः भृशं सह समुत्पन्नाः प्रसमीक्ष्य) सब प्रकार की आपत्तियाँ तीव्र रूप में और एकसाथ उपस्थित हुई देखकर (बुधः) बुद्धिमान् व्यक्ति (संयुक्तान्) सम्मिलित रूप से और (वियुक्तान्) पृथक्-पृथक् रूप से अर्थात् जैसे भी उचित समझे (सर्व+उपायान् सृजेत्) सब उपायों को उपयोग में लावे॥२१४॥
उपेतारमुपेयं च सर्वोपायांश्च कृत्स्नशः।
एतत्त्रयं समाश्रित्य प्रयतेतार्थसिद्धये॥२१५॥ (१७५)
(उपेतारम्) उपेता=प्राप्त करनेवाला अर्थात् राजा स्वयं को, अपनी क्षमता को (उपेयम्) उपेय=प्राप्त करने योग्य अर्थात् शत्रु राजा (च) और (सर्व+उपायान्) सब विजय प्राप्त करने के साम, दान आदि उपाय (एतत् त्रयम्) इन तीनों बातों को (कृत्स्नशः समाश्रित्य) सम्पूर्ण रूप से आश्रय करके पूर्णतः विचार करके और अपनी क्षमता देखकर (अर्थसिद्धये प्रयतेत) अपने उद्देश्य की सिद्धि के लिए राजा प्रयत्न करे, इन्हें बिना विचारे नहीं॥२१५॥
मन्त्रणा एवं शस्त्राभ्यास के बाद भोजनार्थ अन्तःपुर में जाना―
एवं सर्वमिदं राजा सह सम्मन्त्र्य मन्त्रिभिः।
व्यायम्याप्लुत्य मध्याह्न भोक्तुमन्तःपुरं विशेत्॥२१६॥ (१७६)
(एवम्) इस प्रकार (राजा) राजा (इदं सर्वम्) यह पूर्वोक्त विषयवस्तु [७.१४६-२१५] सब (मन्त्रिभिः सह समन्त्र्य) मन्त्रियों के साथ विचारविमर्श करके (व्यायम्य) व्यायाम और शस्त्रास्त्रों का अभ्यास करके (आप्लुत्य) स्नान करके फिर दोपहर होने पर (मध्याह्ने) दोपहर के समय का (भोक्तुम्) भोजन करने के लिए (अन्तःपुरं विशेत्) अन्तःपुर अर्थात् पत्नी आदि के निवास-स्थान महल में प्रवेश करे॥२१६॥
राजा सुपरीक्षित भोजन करे―
तत्रात्मभूतैः कालज्ञैरहार्यैः परिचारकैः।
सुपरीक्षितमन्नाद्यमद्यान्मन्त्रैर्विषापहैः॥२१७॥ (१७७)
(तत्र) वहां अन्तःपुर में जाकर (आत्मभूतैः) गम्भीर प्रेम रखने वाले, विश्वासपात्र (कालजैः) ऋतु स्वास्थ्य, अवस्था आदि के अनुसार भोज्य पदार्थों के खाने के समय को जानने वाले (अहार्यैः) शत्रुओं द्वारा फूट में न आने वाले (परिचारकैः) सेवकों=पाक-शालाध्यक्षों, वैद्यों आदि के द्वारा (विषापहैः मन्त्रैः) विषनाशक युक्तियों या उपायों से (सुपरीक्षितम्) अच्छी प्रकार परीक्षा किये हुए (अन्नाद्यम्) भोजन को (अद्यात्) खाये॥२१७॥
खाद्य पदार्थों के समान अन्य प्रयोज्य साधनों में सावधानी―
एवं प्रयत्नं कुर्वीत यानशय्यासनाशने।
स्नाने प्रसाधने चैव सर्वालंकारकेषु च॥२२०॥ (१७८)
राजा (यान-शय्या-आसन-अशने) सवारी, सोने के साधन पलंग आदि, आसन, भोजन (स्नाने च प्रसाधने) स्नान और शृंगार-प्रसाधन उबटन आदि (च) और (सर्व+अलंकारकेषु) सब राजचिह्न जैसे अलंकार आदि साधनों में भी (एवं प्रयत्नं कुर्वीत) इस प्रकार योग्य सेवकों द्वारा परीक्षा कराने की सावधानी बरते [जैसे २१७ श्लोक में उक्त भोजन में बरतने को कहा है]॥२२०॥
भोजन के बाद विश्राम और राज्यकार्यों का चिन्तन―
भुक्त्वान्विहरेच्चैव स्त्रीभिरन्तःपुरे सह।
विहृत्य तु यथाकालं पुनः कार्याणि चिन्तयेत्॥२२१॥ (१७९)
(च) और [२१६-२१७ में कहे अनुसार] (भुक्तवान्) भोजन करके (अन्तःपुरे) अन्तःपुर=रनिवास में (स्त्रीभिः सह) पत्नी आदि पारिवारिक जनों के साथ (विहरेत्) वार्तालाप या विश्राम करे (तु) और (विहृत्य) विश्राम करके (पुनः) तदनन्तर (यथा-कालम्) यथासमय (कार्याणि चिन्तयेत्) राज्य-कार्यों पर विचार करे॥२२१॥
सैनिकों एवं शस्त्रादि का निरीक्षण―
अलंकृतश्च सम्पश्येदायुधीयं पुनर्जनम्।
वाहनानि च सर्वाणि शस्त्राण्याभरणानि च॥२२२॥ (१८०)
(च) और (पुनः) फिर (अलंकृतः) कवच, शस्त्रास्त्रों [७.२२३ में भी], राजचिह्नों एवं राज-वेशभूषा आदि से सुसज्जित होकर (आयुधीयं जनम्) शस्त्रधारी सैनिकों (च) और (वाहनानि) रथ, हाथी, घोड़े आदि वाहनों (सर्वाणि शस्त्राणि) सब प्रकार के शस्त्रास्त्रों-शस्त्रभण्डारों (च) और (आभरणानि) आभूषणों [धातुएं, रत्न आदि] और सुरक्षा-संभाल आदि का (संपश्येत्) निरीक्षण करे॥२२२॥
सन्ध्योपासना तथा गुप्तचरों और प्रतिनिधियों के सन्देशों को सुनना―
सन्ध्यां चोपास्य शृणुयादन्तर्वेश्मनि शस्त्रभृत्।
रहस्याख्यायिनां चैव प्रणिधीनां च चेष्टितम्॥२२३॥ (१८१)
(च) और फिर (संध्याम् उपास्य) सायंकालीन संध्योपासना करके (शस्त्रभृत्) शस्त्रास्त्र धारण किया हुआ राजा (अन्तर्वेश्मनि) महल के भीतर गुप्तचर गृह में (रहस्य+आख्यायिनाम्) राज्य के रहस्यमय समाचारों को लाने में नियुक्त गुप्तचरों (च) और (प्रणिधीनाम्) दूतों और गुप्तचराधिकारियों के (चेष्टितम्) कार्यों एवं समाचारों को (शृणुयात्) सुने॥२२३॥
गुप्तचरों को समझाकर सायंकालीन भोजन के लिए अन्तःपुर में जाना―
गत्वा कक्षान्तरं त्वन्यत्समनुज्ञाप्य तं जनम्।
प्रविशेद्भोजनार्थं च स्त्रीवृतोऽन्तःपुरं पुनः॥२२४॥ (१८२)
(तु) और फिर (तं जनम्) उन सब लोगों को (अन्यत् सम्+अनुज्ञाप्य) और आगे के लिए जो कुछ समझाना-कहना है उस सबका आदेश देकर (पुनः) फिर (अन्तःपुरं गत्वा) अन्तःपुर में जाकर वहां (स्त्रीवृतः) स्त्री आदि परिजनों के साथ, या द्वितीयार्थ में अंगरक्षिका स्त्रियों से सुरक्षित (कक्षान्तरं भोजनार्थं प्रविशेत्) भोजनशाला के कमरे में सायंकालीन भोजन करने के लिए प्रवेश करे॥२२४॥
रात्रिशयनकाल―
तत्र भुक्त्वा पुनः किंचित्तूर्यघोषैः प्रहर्षितः।
संविशेत्तु यथाकालमुत्तिष्ठेच्च गतक्लमः॥२२५॥ (१८३)
(तत्र) वहां अन्तःपुर में (भुक्त्वा) भोजन करके (पुनः) उसके पश्चात् (तूर्यघोषैः प्रहर्षितः) शहनाई-तुरही आदि बाजों के संगीत से मन को प्रसन्न करके (संविशेत्) सो जाये (तु) और (गतक्लमः) विश्राम करके श्रान्तिरहित होकर (यथाकालम् उत्तिष्ठेत्) निर्धारित समय अर्थात् रात्रि के पिछले पहर ब्राह्ममुहूर्त में [७.१४५] उठे॥२२५॥
एतद्विधानमातिष्ठेदरोगः पृथिवीपतिः।
अस्वस्थः सर्वमेतत्तु भृत्येषु विनियोजयेत्॥२२६॥ (१८४)
(अरोगः) स्वस्थ अवस्था में (पृथिवीपतिः) राजा (एतत् विधानम्+आतिष्टेत्) इस पूर्वोक्त विधि से कार्यों को करे (अस्वस्थः) अस्वस्थ हो जाने पर (एतत् सर्वं तु) यह सब कार्यभार (भृत्येषु) पृथक्-पृथक् विभागों में नियुक्त प्रमुख मन्त्रियों को [७.५४, १२०, १४१, ८.९-११] (विनियोजयेत्) सौंप देवे॥२२६॥
इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ राजधर्मात्मकः सप्तमोऽध्यायः॥
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