विशुद्ध मनुस्मृतिः― दशम अध्याय

अथ दशमोऽध्यायः


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

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(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(चातुर्वर्ण्य-धर्मान्तर्गत-वैश्य-शूद्र के कर्त्तव्य एवं चातुर्वर्ण्य धर्म का उपसंहार)


वैश्यों के कर्त्तव्य―


वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृत्वा दारपरिग्रहम्। 

वार्तायां नित्ययुक्तः स्यात्पशूनां चैव रक्षणे॥९.३२६॥ (१) 


यज्ञोपवीत संस्कारपूर्वक शिक्षाप्राप्ति करके समावर्तन संस्कार होने के पश्चात् वैश्य विवाह करके व्यापार में और पशुपालन में सदा लगा रहे॥३२६॥ 


मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च। 

गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घबलाबलम्॥९.३२९॥ (२)


वैश्य मणि, मोती, प्रवाल आदि रत्नों के लोहे आदि धातुओं के और कपड़ों के सुगन्धित कपूर, कस्तूरी आदि पदार्थों के और रस-रसायनों [नमक, पारा आदि] के मूल्यों के कम-अधिक भावों को जानें॥३२९॥


बीजानामुप्तिविच्च स्यात् क्षेत्रदोषगुणस्य च। 

मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वशः॥९.३३०॥ (३)


वैश्य सब प्रकार के बीजों को बोने की विधि को जानें और खेतों के दोष-गुणों को जानें तथा मापने तोलने के बाटों और तराजुओं से सम्बद्ध सभी बातों की जानकारी रखें॥३३०॥ 


सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान्। 

लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम्॥९.३३१॥ (४)


वैश्य पात्रों, वस्तुओं के अच्छे-बुरेपन को विभिन्न देशों के भौगौलिक एवं सामाजिक गुण-दोषों को और बेची जाने वाली वस्तुओं की लाभ-हानि को, तथा पशुओं के संवर्धन के उपायों को जानें॥३३१॥


भृत्यानां च भृतिं विद्याद्भाषाश्च विविधा नॄणाम्। 

द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च॥९.३३२॥ (५)


और नौकरों के वेतन, विविध देशों में रहने वाले लोगों की विभिन्न भाषाओं को वस्तुओं के प्राप्तिस्थान तथा प्राप्ति आदि की विधियाँ और खरीद-बिक्री की विधि, इस सबको जानें॥३३२॥ 


धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद्यत्नमुत्तमम्।

दद्याच्च सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नतः॥९.३३३॥ (६)


वैश्य इस प्रकार धर्मपूर्वक पदार्थों की वृद्धि के लिए अधिक से अधिक यत्न करे और सब प्राणियों को प्रयत्नपूर्वक अन्न उपजाकर देता रहे॥३३३॥


विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्। 

शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्श्रेयसः परः॥९.३३४॥ (७)


वेदों के ज्ञाता और यशस्वी गृहस्थ द्विजातियों की सेवा करना ही शूद्र का कल्याणकारक उत्तम धर्म है॥३३४॥


शूद्र को उत्कृष्ट वर्ण की प्राप्ति―


शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहंकृतः। 

ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥९.३३५॥ (८)


शुद्ध-पवित्र [शरीर एवं मन से], अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला, मधुरभाषी अहंकार से रहित सदा ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों की सेवा में संलग्न शूद्र भी उत्तम ब्रह्मजन्मान्तर्गत द्विजवर्ण को प्राप्त कर लेता है॥३३५॥


ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।

चतुर्थ एकजास्तुि शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः॥१०.४॥ (९)


[आर्यों के समाज में] ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य ये तीन वर्ण विद्याध्ययनरूपी दूसरा जन्म प्राप्त करने वाले [२.१४६-१४८, इस संस्करण में २.१२१-१२३] हैं, अतः द्विज कहलाते हैं चौथा विद्याध्ययनरूपी दूसरा द्विजजन्म न होने के कारण एकजाति=एक जन्म वाला अर्थात् विद्याध्ययन रूपी ब्रह्मजन्म से रहित शूद्र वर्ण है, पांचवा कोई वर्ण नहीं है॥४॥


चारों वर्णों से भिन्न व्यक्तियों की संज्ञा―


मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः। म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृता॥१०.४५॥ (१०) 


लोक में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों से वर्णोक्त श्रेष्ठ कर्त्तव्यपालन न करने के कारण इनमें अदीक्षित या बहिष्कृत जो समुदाय या जातियां हैं चाहे वे म्लेच्छभाषाएं अर्थात् विकृत भाषाएँ बोलती हैं या आर्यभाषाएँ वे सब 'दस्यु' कहलाती हैं॥४५॥


दस्यु अर्थात् अनार्य की पहचान उसके कार्य देखकर करें―


वर्णापेतमविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम्। 

आर्यरूपमिवानार्यं कर्मभिः र्स्वैर्विभावयेत्॥१०.५७॥ (११)


वर्णों की दीक्षा से रहित अथवा वर्णों से बहिष्कृत आर्य अर्थात् श्रेष्ठ-सभ्य रहन-सहन और स्वभाव का दिखावा करने वाले किन्तु वास्तव में श्रेष्ठलक्षणों से रहित अनार्य दुष्ट संस्कारों वाले व्यक्ति से उत्पन्न दुष्टसंस्कारी या दुष्टप्रवृत्ति वाले को उसके कर्मों से पहचान ले अर्थात् जो श्रेष्ठ कर्मों को न करता हो और अश्रेष्ठ कर्मों को करता हो, वह अनार्य है [जैसा कि अगले श्लोक में वर्णित है]॥५७॥


अनार्यों-दस्युओं के लक्षण―


अनार्यता निष्ठुरता क्रूरता निष्क्रियात्मता।

पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम्॥१०.५८॥ (१२)


अश्रेष्ठ-असभ्य स्वभाव की कठोरता निर्दयता धार्मिक क्रियाओं [यज्ञ आदि] के प्रति उपेक्षाभाव अर्थात् न करने की भावना, ये लक्षण लोक में पुरुष के दुष्टप्रवृत्ति या अनार्य होने को सूचित करते हैं कि यह आर्यवर्णों के अन्तर्गत नहीं है, क्योंकि उक्त कार्य आर्यों के लिए निषिद्ध हैं॥५८॥


पित्र्यं वा भजते शीलं मातुर्वोभयमेव वा।

न कथंचन दुर्योनिः प्रकृतिं स्वां नियच्छति॥१०.५९॥ (१३)


बुरे संस्कारों वाला या बुरे माता-पिता से उत्पन्न व्यक्ति पिता अथवा माता के स्वभाव को अथवा दोनों के ही स्वभाव को अवश्य धारण किये होता है, और वह अपने स्वभाव को किसी प्रकार नियन्त्रित नहीं कर सकता अर्थात् उसका वह बुरा स्वभाव किसी न किसी रूप में प्रकट हो जाता है। [अतः उसके आचरण से बुरे व्यक्ति की पहचान कर लेनी चाहिए]॥५९॥


कर्मानुसार वर्ण-परिवर्तन―


शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च॥१०.६५॥ (१४)


शूद्र या शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति जीवन में कभी भी ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके ब्राह्मण वर्ण को ग्रहण कर सकता है, और ब्राह्मण या ब्राह्मण कुल में उत्पन्न व्यक्ति यदि अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन नहीं करे तो वह शूद्र वर्ण में पतित हो जाता है, इसी प्रकार निश्चयपूर्वक जन्म से क्षत्रिय माता-पिता से उत्पन्न बालक या व्यक्ति का भी अच्छे-बुरे कर्मों के आधार पर उच्च और निम्न वर्णपरिवर्तन हो जाता है और उसी उपर्युक्त प्रकार से जन्म से वैश्य के कुल में उत्पन्न व्यक्ति का भी वर्ण परिवर्तन हो जाता है, यह वर्णव्यवस्था का सिद्धान्त है, ऐसा जानें॥६५॥


एष धर्मविधिः कृत्स्नश्चातुर्वर्ण्यस्य कीर्तितः।

अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्तविधिं शुभम्॥१०.१३१॥ (१५)


यह चारों वर्णों के व्यक्तियों का सम्पूर्ण धर्म-विधान कहा है। इसके बाद अब शुभ प्रायश्चित्त की विधि को कहूँगा―॥१३१॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम्-अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ चातुर्वर्ण्यधर्मान्तर्गतवैश्य-शूद्रधर्मात्मको दशमोऽध्यायः॥





अथ दशमोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित)


(चातुर्वर्ण्य-धर्मान्तर्गत-वैश्य-शूद्र के कर्त्तव्य एवं चातुर्वर्ण्य धर्म का उपसंहार)


वैश्यों के कर्त्तव्य―


वैश्यस्तु कृतसंस्कारः कृत्वा दारपरिग्रहम्। 

वार्तायां नित्ययुक्तः स्यात्पशूनां चैव रक्षणे॥९.३२६॥ (१) 


(कृतसंस्कारः) यज्ञोपवीत संस्कारपूर्वक शिक्षाप्राप्ति करके समावर्तन संस्कार होने के पश्चात् (वैश्यः) वैश्य (दारपरिग्रहं कृत्वा) विवाह करके (वार्तायां च+एव पशूनां रक्षणे नित्ययुक्तः स्यात्) व्यापार में और पशुपालन में सदा लगा रहे॥३२६॥ 


मणिमुक्ताप्रवालानां लोहानां तान्तवस्य च। 

गन्धानां च रसानां च विद्यादर्घबलाबलम्॥९.३२९॥ (२)


वैश्य (मणि-मुक्ता-प्रवालानाम्) मणि, मोती, प्रवाल आदि रत्नों के (लोहानाम्) लोहे आदि धातुओं के (च) और (तान्तवस्य) कपड़ों के (गन्धानां च रसानाम्) सुगन्धित कपूर, कस्तूरी आदि पदार्थों के और रस-रसायनों [नमक, पारा आदि] के (अर्घ-बल-अबलं विद्यात्) मूल्यों के कम-अधिक भावों को जानें॥३२९॥


बीजानामुप्तिविच्च स्यात् क्षेत्रदोषगुणस्य च। 

मानयोगं च जानीयात्तुलायोगांश्च सर्वशः॥९.३३०॥ (३)


वैश्य (बीजानाम्+उप्तिवित् स्यात्) सब प्रकार के बीजों को बोने की विधि को जानें (च) और (क्षेत्रदोष-गुणस्य) खेतों के दोष-गुणों को जानें (च) तथा (मानयोगम्) मापने तोलने के बाटों (च) और (तुला-योगान्) तराजुओं से सम्बद्ध (सर्वशः जानीयात्) सभी बातों की जानकारी रखें॥३३०॥ 


सारासारं च भाण्डानां देशानां च गुणागुणान्। 

लाभालाभं च पण्यानां पशूनां परिवर्धनम्॥९.३३१॥ (४)


वैश्य (भाण्डानां सार-असारम्) पात्रों, वस्तुओं के अच्छे-बुरेपन को (देशानां गुण-अवगुणान्) विभिन्न देशों के भौगौलिक एवं सामाजिक गुण-दोषों को (च) और (पण्यानां लाभालाभम्) बेची जाने वाली वस्तुओं की लाभ-हानि को, तथा (पशूनां परिवर्धनम्) पशुओं के संवर्धन के उपायों को जानें॥३३१॥


भृत्यानां च भृतिं विद्याद्भाषाश्च विविधा नॄणाम्। 

द्रव्याणां स्थानयोगांश्च क्रयविक्रयमेव च॥९.३३२॥ (५)


और (भृत्यानां भृतिम्) नौकरों के वेतन, (नॄणां विविधाः भाषाः) विविध देशों में रहने वाले लोगों की विभिन्न भाषाओं को (द्रव्याणां स्थान-योगान्) वस्तुओं के प्राप्तिस्थान तथा प्राप्ति आदि की विधियाँ (च) और (क्रयविक्रय+एव) खरीद-बिक्री की विधि, इस सबको (विद्यात्) जानें॥३३२॥ 


धर्मेण च द्रव्यवृद्धावातिष्ठेद्यत्नमुत्तमम्।

दद्याच्च सर्वभूतानामन्नमेव प्रयत्नतः॥९.३३३॥ (६)


वैश्य इस प्रकार [९.३२६-३३३] (धर्मेण) धर्मपूर्वक (द्रव्यवृद्धौ उत्तमं यत्नम्+आतिष्ठेत्) पदार्थों की वृद्धि के लिए अधिक से अधिक यत्न करे (च) और (सर्वभूतानां प्रयत्नतः अन्नम्+एव दद्यात्) सब प्राणियों को प्रयत्नपूर्वक अन्न उपजाकर देता रहे॥३३३॥


विप्राणां वेदविदुषां गृहस्थानां यशस्विनाम्। 

शुश्रूषैव तु शूद्रस्य धर्मो नैश्श्रेयसः परः॥९.३३४॥ (७)


(वेदविदुषाम्) वेदों के ज्ञाता और (यशस्विनां गृहस्थानाम् विप्राणाम्) यशस्वी गृहस्थ द्विजातियों की (शुश्रूषा+एव तु) सेवा करना ही (शूद्रस्य नैश्श्रेयसः परः धर्मः) शूद्र का कल्याणकारक उत्तम धर्म है॥३३४॥


शूद्र को उत्कृष्ट वर्ण की प्राप्ति―


शुचिरुत्कृष्टशुश्रूषुर्मृदुवागनहंकृतः। 

ब्राह्मणाद्याश्रयो नित्यमुत्कृष्टां जातिमश्नुते॥९.३३५॥ (८)


(शुचिः) शुद्ध-पवित्र [शरीर एवं मन से], (उत्कृष्टशुश्रूषुः) अपने से उत्कृष्ट वर्ण वालों की सेवा करने वाला, (मृदुवाक्) मधुरभाषी (अनहंकृतः) अहंकार से रहित (नित्यं ब्राह्मण+आदि-आश्रयः) सदा ब्राह्मण आदि तीनों वर्णों की सेवा में संलग्न शूद्र भी (उत्कृष्टां जातिम्+अश्नुते) उत्तम ब्रह्मजन्मान्तर्गत द्विजवर्ण को प्राप्त कर लेता है॥३३५॥


ब्राह्मणः क्षत्रियो वैश्यस्त्रयो वर्णा द्विजातयः।

चतुर्थ एकजास्तुि शूद्रो नास्ति तु पञ्चमः॥१०.४॥ (९)


[आर्यों के समाज में] (ब्राह्मणः क्षत्रिय वैश्यः) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य (त्रयः वर्णाः द्विजातयः) ये तीन वर्ण विद्याध्ययनरूपी दूसरा जन्म प्राप्त करने वाले [२.१४६-१४८, इस संस्करण में २.१२१-१२३] हैं, अतः द्विज कहलाते हैं (चतुर्थः एकजातिः शूद्रः) चौथा विद्याध्ययनरूपी दूसरा द्विजजन्म न होने के कारण एकजाति=एक जन्म वाला अर्थात् विद्याध्ययन रूपी ब्रह्मजन्म से रहित शूद्र वर्ण है, (नास्ति तु पञ्चमः) पांचवा कोई वर्ण नहीं है॥४॥


चारों वर्णों से भिन्न व्यक्तियों की संज्ञा―


मुखबाहूरुपज्जानां या लोके जातयो बहिः। म्लेच्छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृता॥१०.४५॥ (१०) 


(लोके) लोक में (मुख-बाहू+उरु-पत्-जानाम्) ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों से (बहिः) वर्णोक्त श्रेष्ठ कर्त्तव्यपालन न करने के कारण इनमें अदीक्षित या बहिष्कृत (या जातयः) जो समुदाय या जातियां हैं (म्लेच्छवाचः च आर्यवाचः) चाहे वे म्लेच्छभाषाएं अर्थात् विकृत भाषाएँ बोलती हैं या आर्यभाषाएँ (ते सर्वे) वे सब (दस्यवः स्मृताः) 'दस्यु' कहलाती हैं॥४५॥


दस्यु अर्थात् अनार्य की पहचान उसके कार्य देखकर करें―


वर्णापेतमविज्ञातं नरं कलुषयोनिजम्। 

आर्यरूपमिवानार्यं कर्मभिः र्स्वैर्विभावयेत्॥१०.५७॥ (११)


(वर्ण-अपेतम्) वर्णों की दीक्षा से रहित अथवा वर्णों से बहिष्कृत (आर्यरूपम्+अनार्यम्) आर्य अर्थात् श्रेष्ठ-सभ्य रहन-सहन और स्वभाव का दिखावा करने वाले किन्तु वास्तव में श्रेष्ठलक्षणों से रहित अनार्य (कलुष-योनिजम्) [कलुषयोनौ=दुष्टयोनौ जायते इति कलुष-योनिजः तम्] दुष्ट संस्कारों वाले व्यक्ति से उत्पन्न दुष्टसंस्कारी या दुष्टप्रवृत्ति वाले को (स्वैः कर्मभिः विभावयेत्) उसके कर्मों से पहचान ले अर्थात् जो श्रेष्ठ कर्मों को न करता हो और अश्रेष्ठ कर्मों को करता हो, वह अनार्य है [जैसा कि अगले श्लोक में वर्णित है]॥५७॥


अनार्यों-दस्युओं के लक्षण―


अनार्यता निष्ठुरता क्रूरता निष्क्रियात्मता।

पुरुषं व्यञ्जयन्तीह लोके कलुषयोनिजम्॥१०.५८॥ (१२)


(अनार्यता) अश्रेष्ठ-असभ्य (निष्ठुरता) स्वभाव की कठोरता (क्रूरता) निर्दयता (निष्क्रियात्मता) धार्मिक क्रियाओं [यज्ञ आदि] के प्रति उपेक्षाभाव अर्थात् न करने की भावना, ये लक्षण (लोके) लोक में (पुरुषं कलुषयोनिजं व्यञ्जयन्ति) पुरुष के दुष्टप्रवृत्ति या अनार्य होने को सूचित करते हैं कि यह आर्यवर्णों के अन्तर्गत नहीं है, क्योंकि उक्त कार्य आर्यों के लिए निषिद्ध हैं॥५८॥


पित्र्यं वा भजते शीलं मातुर्वोभयमेव वा।

न कथंचन दुर्योनिः प्रकृतिं स्वां नियच्छति॥१०.५९॥ (१३)


(दुर्योनिः) बुरे संस्कारों वाला या बुरे माता-पिता से उत्पन्न व्यक्ति (पित्र्यं या मातुः शीलम्) पिता अथवा माता के स्वभाव को (वा उभयम्+एव) अथवा दोनों के ही स्वभाव को (भजते) अवश्य धारण किये होता है, और वह (स्वां प्रकृतिं कथंचन न नियच्छति) अपने स्वभाव को किसी प्रकार नियन्त्रित नहीं कर सकता अर्थात् उसका वह बुरा स्वभाव किसी न किसी रूप में प्रकट हो जाता है। [अतः उसके आचरण से बुरे व्यक्ति की पहचान कर लेनी चाहिए]॥५९॥


कर्मानुसार वर्ण-परिवर्तन―


शूद्रो ब्राह्मणतामेति ब्राह्मणश्चैति शूद्रताम्।

क्षत्रियाज्जातमेवं तु विद्याद्वैश्यात्तथैव च॥१०.६५॥ (१४)


(शूद्रः ब्राह्मणताम्+एति) शूद्र या शूद्र कुल में उत्पन्न व्यक्ति जीवन में कभी भी ब्राह्मण वर्ण की शिक्षा-दीक्षा प्राप्त करके ब्राह्मण वर्ण को ग्रहण कर सकता है, (च) और (ब्राह्मणः शूद्रताम्+एति) ब्राह्मण या ब्राह्मण कुल में उत्पन्न व्यक्ति यदि अपने निर्धारित कर्तव्यों का पालन नहीं करे तो वह शूद्र वर्ण में पतित हो जाता है, (एवं तु) इसी प्रकार निश्चयपूर्वक (क्षत्रियात् जातम्) जन्म से क्षत्रिय माता-पिता से उत्पन्न बालक या व्यक्ति का भी अच्छे-बुरे कर्मों के आधार पर उच्च और निम्न वर्णपरिवर्तन हो जाता है (च) और (तथैव) उसी उपर्युक्त प्रकार से (वैश्यात् विद्यात्) जन्म से वैश्य के कुल में उत्पन्न व्यक्ति का भी वर्ण परिवर्तन हो जाता है, यह वर्णव्यवस्था का सिद्धान्त है, ऐसा जानें॥६५॥


एष धर्मविधिः कृत्स्नश्चातुर्वर्ण्यस्य कीर्तितः।

अतः परं प्रवक्ष्यामि प्रायश्चित्तविधिं शुभम्॥१०.१३१॥ (१५)


(एषः) [१.१ से १०.१३० तक] (चातुर्वर्ण्यस्य) चारों वर्णों के व्यक्तियों का (कृत्स्नः) सम्पूर्ण (धर्मविधिः कीर्तितः) धर्म-विधान कहा है। (अतः परम्) इसके बाद अब (शुभं प्रायश्चित्तविधिं प्रवक्ष्यामि) शुभ प्रायश्चित्त की विधि को कहूँगा―॥१३१॥


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम्-अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ चातुर्वर्ण्यधर्मान्तर्गतवैश्य-शूद्रधर्मात्मको दशमोऽध्यायः॥




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