विशुद्ध मनुस्मृतिः― नवम अध्याय

अथ नवमोऽध्यायः


सत्यार्थप्रकाश/विशुद्ध मनुस्मृति/वैदिक गीता

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(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित) 


(राजधर्मान्तर्गत व्यवहारनिर्णय)


(९.१ से ९.२५० तक)


(१६) स्त्री-पुरुष-धर्मसम्बन्धी विवाद और उसका निर्णय (९.१ से १०२ तक) 


पुरुषस्य स्त्रियाश्चैव धर्मे वर्त्मनि तिष्ठतोः। 

संयोगे विप्रयोगेच धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान्॥१॥ (१)


[अब मैं] दाम्पत्य धर्म के मार्ग पर चलने वाले स्त्री-पुरुष के संयोगकालीन=साथ रहने तथा वियोगकालीन=अलग रहने के सदैव पालन करने योग्य धर्मों=कर्त्तव्यों को कहूंगा―॥१॥ 


स्त्री के प्रति कर्त्तव्यपालन न करने वाले पिता, पति, पुत्र निन्दा के पात्र―


कालेऽदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन् पतिः। 

मृते भर्तरि पुत्रस्तु वाच्यो मातुररक्षिता॥४॥ (२)


विवाह की अवस्था होने पर कन्या को न देने वाला अर्थात् विवाह न करने वाला पिता निन्दनीय और दोषी होता है और [विवाह-पश्चात् ऋतुदिनों के अनन्तर] संगम न करने वाला पति निन्दनीय और दोषी होता है पति की मृत्यु होने के बाद माता की [भरण-पोषण, सेवा आदि से] रक्षा न करने वाला पुत्र निन्दनीय और दोषी होता है॥४॥ 


छोटे से कुसंग से भी स्त्रियों की रक्षा अवश्य करें―


सूक्ष्मेभ्योऽपि प्रसङ्गेभ्यः स्त्रियो रक्ष्या विशेषतः।

द्वयोर्हि कुलयोः शोकमावहेयुररक्षिताः॥५॥ (३)


छोटे-छोटे कुसंग के अवसरों से भी स्त्रियों की विशेषरूप से रक्षा करनी चाहिए क्योंकि अरक्षित स्त्रियां [उनके साथ घटित किसी भी अप्रिय घटना के कारण] दोनों कुलों=पति तथा पिता दोनों के कुलों के शोकसंतप्त होने का कारण बन जाती हैं॥५॥


इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो धर्ममुत्तमम्। 

यतन्ते रक्षितुं भार्यां भर्तारो दुर्बला अपि॥६॥ (४)


सब वर्णों के इस पूर्वोक्त धर्म को श्रेष्ठ समझते हुए शरीर, धन या सामर्थ्य से दुर्बल पति भी अपनी पत्नी के सम्मान की और कुसंगों से उसकी रक्षा करने के लिए यत्नशील रहते हैं॥६॥


स्त्री पर ही परिवार की प्रतिष्ठा निर्भर―


स्वां प्रसूतिं चरित्रं च कुलमात्मानमेव च।

स्वं च धर्मं प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि रक्षति॥७॥ (५)


प्रयत्नपूर्वक अपनी स्त्री के सम्मान की और उसकी कुसंगति से रक्षा करता हुआ अर्थात् संरक्षण में रखता हुआ व्यक्ति ही अपनी सन्तान दम्पती का आचरण कुल और अपनी तथा अपने धर्म की रक्षा करता है अर्थात् स्त्री के कुसंग में पड़ जाने से सब ही कुछ बिगड़ जाता है, क्योंकि स्त्री ही सुख और धर्म का आधार है॥७॥


जाया का लक्षण―


पतिर्भार्यां सम्प्रविश्य गर्भो भूत्वेह जायते। 

जायायास्तद्धि जायात्वं यदस्यां जायते पुनः॥८॥ (६)


पति वीर्य=बीज रूप में स्त्री के गर्भाशय में प्रवेश करके गर्भ बनकर फिर सन्तानरूप में संसार में उत्पन्न होता है स्त्री का यही जायापन=स्त्रीपन है जो इस स्त्री में सन्तानरूप में पति पुनः उत्पन्न होता है अर्थात् सन्तान को उत्पन्न करने वाली होने के कारण ही स्त्री 'जाया' कहाती है।


जैसा पति वैसी सन्तान―


यादृशं भजते हि स्त्री सुतं सूते तथाविधम्। 

तस्मात् प्रजाविशुद्ध्यर्थं स्त्रियं रक्षेत् प्रयत्नतः॥९॥ (७)


स्त्री जैसे पारिवारिक वातावरण या परिवेश में रहती है, और जैसा पति का व्यवहार होता है उसी प्रकार के संस्कारों वाली सन्तान को उत्पन्न करती है। इसलिए सन्तान की श्रेष्ठता की लिए प्रयत्नपूर्वक स्त्री को कुसंग और अप्रिय वातावरण से बचाकर रखें॥९॥ 


स्त्रियों की रक्षा बलपूर्वक नहीं हो सकती―


न कश्चिद्योषितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम्। 

एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम्॥१०॥ (८)


कोई भी व्यक्ति बलात् या दबाव के साथ स्त्रियों की कुसंगों से रक्षा नहीं कर सकता किन्तु इन आगे कहे उपायों में लगाने से उनकी रक्षा की जा सकती है॥१०॥ 


स्त्रियों को गृह एवं धर्मकार्मों में व्यस्त रखें―


अर्थस्य संग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयेत्। 

शौचे धर्मेऽन्नपक्त्यां च परिणाह्यस्य वेक्षणे॥११॥ (९)


अपनी स्त्री को धन की संभाल और उसके व्यय की जिम्मेदारी में, घर एवं घर के पदार्थों की स्वच्छता-शुद्धि में, धर्मसम्बन्धी अनुष्ठान=अग्निहोत्र, संध्या, स्वाध्याय आदि में, भोजन पकाने की व्यवस्था में, और घर की सभी वस्तुओं की देखभाल में नियुक्त करें अर्थात् उक्त कार्य पत्नी के अधिकार में रखें॥११॥


स्त्रियां आत्मनियन्त्रण से ही बुराइयों से बच सकती हैं―


अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः।

आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः॥१२॥ (१०)


क्योंकि घनिष्ठ आज्ञाकर्ता पिता, माता, पति आदि द्वारा घर में बलात् रोककर रखी हुई अर्थात् निगरानी में रखी जाती हुई स्त्रियां भी असुरक्षित हैं=बुराइयों से बच नहीं पाती किन्तु जो तो अपनी रक्षा स्वयं अपने विवेक से करती हैं वस्तुतः वे ही गलत कार्यों में न पड़कर सुरक्षित रहती हैं॥१२॥ 


स्त्रियों के दूषण में छह कारण―


पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्।

स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसंदूषणानि षट्॥१३॥ (११)


मदिरा, भांग आदि मादक पदार्थों का सेवन करना, बुरे लोगों का संग करना, पति से लम्बे समय तक वियोग रहना और इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना, दूसरों के घर में अधिक निवास और रात्रि में शयन करना नारी को पथभ्रष्ट करने वाले ये छह प्रमुख कारण या दुर्गुण हैं॥१३॥


सन्तानोत्पत्ति-सम्बन्धी धर्म―


एषोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुंसयोः शुभा। 

प्रेत्येह च सुखोदकर्कान् प्रजाधर्मान् निबोधत्॥२५॥ (१२)


यह स्त्री-पुरुषों के लिये सदा शुभ=कल्याणकारी परस्पर का लोकव्यवहार कहा, अब परजन्म और इस जन्म में परिणाम में सुखदायक सन्तानोत्पत्ति सम्बन्धी धर्मों को सुनो॥२५॥ 


स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी हैं―


प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः। 

स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥२६॥ (१३)


स्त्रियां सन्तान को उत्पन्न करके वंश को आगे बढ़ाने वाली हैं, स्वयं सौभाग्यशाली हैं और परिवार का भाग्योदय करने वाली हैं, वे पूजा अर्थात् सम्मान की अधिकारिणी हैं, प्रसन्नता और सुख से घर को प्रकाशित=प्रसन्न करने वाली हैं, यों समझिये कि घरों में स्त्रियों और लक्ष्मी तथा शोभा में कोई विशेष अन्तर नहीं है अर्थात् स्त्रियां घर की लक्ष्मी और शोभा हैं॥२६॥


स्त्रियां लोकयात्रा का आधार है―


उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम्। 

प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्री निबन्धनम्॥२७॥ (१४)


सन्तान को उत्पन्न करना, उत्पन्न सन्तान का पालन-पोषण करना और प्रतिदिन के लोकव्यवहार (जैसे गृहप्रबन्ध, अतिथि सेवा आदि) को सम्पन्न करना आदि कार्यों की पत्नी ही मूल आधार है अर्थात् गृहस्थ आश्रम के सफल संचालन में पत्नी ही मुख्य कारण और संयोजिका है॥२७॥


घर का सुख स्त्री पर निर्भर है―


अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा।

दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितॄणामात्मनश्च ह॥२८॥ (१५)


सन्तानोत्पत्ति करके वंश को चलाना पंच महायज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों को करना-कराना, परिजनों की सेवा-संभाल, रोग आदि रहित रति-सुख पति और उसके माता-पिता आदि पितृजनों का सुखमय जीवन निश्चय से पत्नी के ही अधीन है, घर में पत्नी न हो तो उक्त सुख प्राप्त नहीं होते॥२८॥


पुत्र पर अधिकार के सम्बन्ध में आख्यान―


पुत्रं प्रत्युदितं सद्भिः पूर्वजैश्च महर्षिभिः।

विश्वजन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निबोधत॥३१॥ (१६)


श्रेष्ठ तथा प्राचीन महर्षियों ने पुत्र के विषय में जो सर्वजनहितकारी और पुण्यदायक विचार कहा है उस 'शिक्षाप्रद विचार' को सुनो―॥३१॥ 


पुत्र पर अधिकार-सम्बन्धी मतान्तर―


भर्तुः पुत्रं विजानन्ति श्रुतिद्वैधं तु भर्तरि।

आहुरुत्पादकं केचिदपरे क्षेत्रिणं विदुः॥३२॥ (१७)


विधान में 'स्त्री के पति का ही पुत्र होता है' ऐसा माना जाता है किन्तु पति के विषय में ऋषियों के दो विचार हैं—कुछ लोग पुत्र उत्पन्न करने वाले का ही पुत्र पर कानूनी अधिकार है, यह कहते हैं दूसरे कुछ लोग क्षेत्र अर्थात् स्त्री के स्वामी को पुत्र का अधिकारी मानते हैं [चाहे उत्पादक कोई भी हो, जैसे दत्तक पुत्र, नियोगपुत्र आदि]॥३२॥ 


स्त्री-पुरुष की क्षेत्र और बीज रूप में तुलना―


क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान्। क्षेत्रबीजसमायोगात्सम्भवः सर्वदेहिनाम्॥३३॥ (१८)


स्त्री को भूमि या खेत के तुल्य माना है और पुरुष को बीज के तुल्य माना है भूमि और बीज अर्थात् स्त्री और पुरुष के बीज मिलने से सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है॥३३॥


परस्त्री में पुत्रोत्पत्ति करने पर पुत्र पर स्त्री का या स्त्री-स्वामी का अधिकार―


येऽक्षेत्रिणो बीजवन्तः परक्षेत्रप्रवापिणः।

ते वै सस्यस्य जातस्य न लभन्ते फलं क्वचित्॥४९॥ (१९)


जो क्षेत्ररहित हैं, किन्तु बीज वाले हैं तथा दूसरे के क्षेत्र में अर्थात् परस्त्री में बीज को बोते हैं=सन्तान उत्पन्न करते हैं वे निश्चय से कहीं भी दूसरे के क्षेत्र में उत्पन्न हुए अन्न की तरह सन्तान आदि के फल को नहीं प्राप्त करते अर्थात् उस सन्तान पर उस स्त्री के पति का अधिकार होता है, बीज बोने वाले का नहीं॥४९॥ 


पुत्र पर स्त्री या स्त्री-स्वामी के अधिकार के कारण―


फलं त्वनभिसंधाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा।

प्रत्यक्षं क्षेत्रिणार्थो बीजाद्योनिर्गरीयसी॥५२॥ (२०)


क्योंकि खेतवालों अर्थात् पर पुरुष से सन्तान उत्पन्न करने वाली स्त्रियों में और बीजवालों अर्थात् परक्षेत्र=परस्त्री में संतान उत्पन्न करने वाले पुरुषों में उससे होने वाली फल प्राप्ति के विषय में बिना कोई पूर्व निश्चय हुए 'कि इस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला अन्न, सन्तान आदि फल किसका होगा' बीज-वपन करने पर यह व्यवस्था है कि वह फल स्पष्टरूप से क्षेत्रस्वामी का होता है; अर्थात् वह सन्तान स्त्री की ही होती है, क्योंकि ऐसी स्थिति में बीज से योनि अर्थात् जन्मदात्री स्त्री बलवती होती है॥५२॥ 


समझौतापूर्वक पुत्रोत्पत्ति में पुत्र पर स्त्री-पुरुष दोनों का समानाधिकार―


क्रियाऽभ्युपगमात्त्वेतद् बीजार्थं यत्प्रदीयते।

तस्येह भागिनौ दृष्टौ बीजी क्षेत्रिक एव च॥५३॥ (२१)


परन्तु यदि परस्पर मिलकर यह समझौता करके कि इससे प्राप्त फल रूपी पुत्र 'अमुक का' या दोनों का होगा [जैसे कि नियोग में किया जाता है], इस समझौते के साथ जैसे खेत बीज बोने के लिये दिया जाता है ऐसे ही स्त्री यदि समझौते के साथ किसी के लिए सन्तान उत्पन्न करती है तो उस अवस्था में इस लोक में समझौते के अनुसार उसके बीजवाला और खेतवाला दोनों ही पुत्ररूप फल के अधिकारी होते हैं॥५३॥


एतद्वः सारफल्गुत्वं बीजयोन्योः प्रकीर्तितम्। 

अतः परं प्रवक्ष्यामि योषितां धर्ममापदि॥५६॥ (२२)


यह बीज और योनि की प्रधानता और अप्रधानता तुमसे मैंने कही। इसके बाद अब मैं आपत्काल में अर्थात् सन्तानाभाव में स्त्रियों के धर्म कर्त्तव्य को कहूँगा―॥५६॥


बड़ी भाभी को गुरु-पत्नी के समान, छोटी को पुत्रवधू के समान माने―


भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भार्या वा गुरुपत्न्यनुजस्य सा। 

यवीयसस्तु या भार्या स्नुषा ज्येष्ठस्य सा स्मृता॥५७॥ (२३)


बड़े भाई की जो पत्नी होती है वह छोटे भाई के लिए गुरुपत्नी के समान होती है किन्तु जो छोटे भाई की पत्नी है वह बड़े भाई के लिए पुत्रवधू के समान कही गयी है, अर्थात् भाई को भाई की पत्नी में उक्त प्रकार की पवित्र भावना से पारस्परिक व्यवहार करना चाहिए॥५७॥ 


उनके साथ गमन में पाप―


ज्येष्ठो यवीयसो भार्यां यवीयान् वाग्रजस्त्रियम्। 

पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि॥५८॥ (२४)


बड़ा भाई छोटे भाई की स्त्री के साथ और छोटा भाई बड़े भाई की स्त्री के साथ आपत्तिकाल [=सन्तानाभाव] के बिना नियोग-विधिपूर्वक भी यदि संभोग करें तो वे पतित=अपराधी माने गये हैं॥५८॥


सन्तानाभाव में नियोग से सन्तानप्राप्ति―


देवराद् वा सपिण्डाद् वा स्त्रिया सम्यङ्नियुक्तया।

प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये॥५९॥ (२५)


पति से सन्तान न होने पर, सन्तानरहित अवस्था में पति की मृत्यु होने पर अथवा किसी भी कारण से सन्तान का अभाव होने पर परिजनों के द्वारा शास्त्रोक्त विधि से [परिवार और समाज में विवाहवत् प्रसिद्धिपूर्वक] नियोग के लिए नियुक्त स्त्री को देवर=वर्णस्थ या अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष से अथवा पति की छ: पीढ़ियों में पति के छोटे या बड़े भाई से इच्छित सन्तान प्राप्त कर लेनी चाहिए अर्थात् जितनी सन्तान अभीष्ट हो उतनी प्राप्त कर ले॥५९॥


नियोग से पुत्र-प्राप्ति के बाद शरीर-सम्बन्ध अपराध है―


विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु यथाविधि।

गुरुवच्च स्नुषावच्च वर्तेयातां परस्परम्॥६२॥ (२६)


विधि अनुसार विधवा में नियोग का उद्देश्य पूर्ण हो जाने के बाद बड़े भाई तथा छोटे भाई की स्त्री से क्रमशः गुरुपत्नी तथा पुत्रवधू के समान [९.५७] परस्पर बर्ताव करें॥६२॥


नियुक्तौ यो विधिं हित्वा वर्तेयातां तु कामतः। 

तावुभौ पतितौ स्यातां स्नुषाग-गुरुतल्पगौ॥६३॥ (२७)


नियोग के लिए नियुक्त बड़ा या छोटा भाई यदि नियोग की विधि=व्यवस्था [समाज या परिवार में किये गये पूर्व निश्चयों को छोड़कर काम के वशीभूत होकर संभोगादि करें तो वे दोनों पुत्रवधूगमन और गुरुपत्नीगमन दोष के अपराधी माने जायेंगे॥६३॥ 


सगाई के बाद पति की मृत्यु होने पर अन्य विवाह का विधान―


यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः। 

तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः॥६९॥ (२८)


वाग्दान=सगाई निश्चित करने के बाद [और विवाह से पूर्व] जिस कन्या का पति मर जाये उस कन्या को पति का छोटा भाई अथवा दूसरा पति पूर्ववर्णित विवाह के विधान के अनुसार प्राप्त कर ले॥६९॥


स्त्री को जीविका देकर पुरुष प्रवास में जाये―


विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत् कार्यवान्नरः।

अवृत्तिकर्षिता हि स्त्री प्रदुष्येत् स्थितिमत्यपि॥७४॥ (२९)


किसी आवश्यक कार्य के लिए परदेश में जाने वाला मनुष्य अपनी पत्नी के भरण-पोषण की जीविका का प्रबन्ध करके परदेश में जाये क्योंकि जीविका के अभाव से पीड़ित होकर शुद्ध आचरण वाली स्त्री भी दूषित=पथभ्रष्ट हो सकती है॥७४॥ 


विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियममास्थिता। 

प्रोषिते त्वविधायैव जीवेच्छिल्पैरगर्हितैः॥७५॥ (३०)


जीविका का प्रबन्ध करके पति के परदेश जाने पर पत्नी अपने पातिव्रत्य नियमों का पालन करती हुई जीवनयात्रा चलाये यदि किसी आपात् स्थिति में पति बिना जीविका का प्रबन्ध किये परदेश चला जाये तो अनिन्दित शिल्पकार्यों [सिलाई करना, बुनना, कातना आदि] को करके अपनी जीवनयात्रा चलाये॥७५॥


पति की प्रतीक्षा की अवधि और उसके पश्चात् नियोग अथवा पुनर्विवाह―


प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः। 

विद्यार्थं षट् यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥७६॥ (३१)


पत्नी किसी धर्मसम्बन्धी कार्य के लिए परदेश गये हुए पति की आठ वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, विद्या प्राप्ति के लिए गये हुए की छह वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, और यश प्राप्ति के लिये गये हुए की भी छह वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, धनप्राप्ति आदि कामनाओं की प्राप्ति के लिए परदेश गये हुए पति की तीन वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, [इसके पश्चात् पुनर्विवाह कर ले। अर्थान्तर में, २. इसके पश्चात नियोग से सन्तानोत्पत्ति कर ले, अथवा ३. इसके पश्चात् पत्नी पति के पास चली जाये]॥७६॥


संवत्सरं प्रतीक्षेत द्विषन्तीं योषितं पतिः।

ऊर्ध्वं संवत्सरात्त्वेनां दायं हृत्वा न संवसेत्॥७७॥ (३२)


पति अपने से द्वेष करने वाली पत्नी की एक वर्ष तक [सुधरने की] प्रतीक्षा करे एक वर्ष तक न सुधरे तो उसके पश्चात् इसको अपने दिये धन, आभूषण आदि वापस लेकर उसे अपने पास न रखे अर्थात् त्याग दे॥७७॥ 


अतिक्रामेत् प्रमत्तं या मत्तं रोगार्तमेव वा।

सा त्रीन्मासान् परित्याज्या विभूषणपरिच्छदा॥७८॥ (३३)


जो पत्नी प्रमाद से कोई हानि होने पर, विक्षिप्त अथवा रोगपीड़ित होने पर अपने पति की अवहेलना करे उसे अपने दिये आभूषण, वस्त्र आदि लेकर तीन मास तक छोड़ देवे॥७८॥ 


उन्मत्तं पतितं क्लीबमबीजं पापरोगिणम्।

न त्यागोऽस्ति द्विषन्त्याश्च न च दायापवर्तनम्॥७९॥ (३४)


स्थायी पागल, अपराध के कारण पतित, नपुंसक, निर्बीज वीर्य वाले, पापरोगी=घृणित असाध्य रोग से पीड़ित पति की उपेक्षा करने वाली पत्नी को नहीं छोड़ा जा सकता और न उससे दिया हुआ धन आदि छीना जा सकता है॥७९॥


मद्यपाऽसाधुवृत्ता च प्रतिकूला च या भवेत्। 

व्याधिता वाऽधिवेत्तव्या हिंस्रर्थघ्नी च सर्वथा॥८०॥ (३५)


जो पत्नी शराब पीने वाली, दुराचरण वाली, पति के प्रतिकूल आचरण करने वाली, संक्रामक स्थायी व्याधिग्रस्त, पति आदि को मारने वाली, और सदा धन को नष्ट करने वाली हो तो उसे छोड़कर दूसरा विवाह कर लेना चाहिए॥८०॥ 


पुरुष दूसरी स्त्री से सन्तानप्राप्ति करे―


वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजा।

एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥८१॥ (३६)


यदि पत्नी वन्ध्या हो तो आठवें वर्ष में, यदि मृत सन्तान उत्पन्न होती है अथवा हो कर मर जाती हो तो दसवें वर्ष में, केवल कन्याएं ही उत्पन्न होती हों तो ग्यारहवें वर्ष में, यदि अप्रिय बोलने वाली हो तो यथाशीघ्र उसे त्यागकर पति दूसरा विवाह कर ले। [पहली पत्नी का साथ रहना-न रहना दोनों की सहमति पर निर्भर है]॥८१॥


या रोगिणी स्यात्तु हिता सम्पन्ना चैव शीलतः। 

सानुज्ञाप्याधिवेत्तव्या नावमान्या च कर्हिचित्॥८२॥ (३७)


जो स्त्री स्थायी रोगिणी हो किन्तु पति की हितैषिणी और सुशील आचरण वाली हो पति उससे अनुमति लेकर दूसरा विवाह कर ले और उसकी कभी अवमानना न करे॥८२॥ 


अधिविन्ना तु या नारी निर्गच्छेद्रुषिता गृहात्। 

सा सद्यः संनिरोद्धव्या त्याज्या वा कुलसन्निधौ॥८३॥ (३८)


[पूर्ववर्णित अवस्था में] दूसरा विवाह करने पर जो स्त्री क्रोध में आकर घर से निकल जाये उसको तुरन्त रोककर रखे अथवा उसके परिवार वालों के पास छोड़ आये॥८३॥ 


प्रतिषिद्धापि चेद्या तु मद्यमभ्युदयेष्वपि। 

प्रेक्षासमाजं गच्छेद्वा सा दण्ड्या कृष्णलानि षट्॥८४॥ (३९)


जो स्त्री पति के द्वारा निषेध करने पर भी प्रसन्नता के आयोजनों, उत्सवों में मद्यपान करे अथवा सार्वजनिक नाचने-गाने आदि की जगह जाये उसे छह कृष्णल सुवर्ण से राजा दण्डित करे॥८४॥


उत्तम वर मिलने पर कन्या का विवाह शीघ्र कर दें―


उत्कृष्टायाभिरूपाय वराय सदृशाय च। 

अप्राप्तामपि तां तस्मै कन्यां दद्याद्यथाविधि॥८८॥ (४०)


यदि कुल-आचार आदि की दृष्टि से उत्तम, सुन्दर और कन्या के योग्य गुण वाला वर मिल गया हो तो उसको विवाह योग्य सोलह वर्ष की अवस्था पूर्ण होने में यदि कुछ कमी भी हो तो उस कन्या को विवाह विधि के अनुसार विवाहित कर दे। [यह केवल अपवाद विधि है ९.८९ के संदर्भ में]॥८८॥


काममामरणात्तिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि। 

न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥८९॥ (४१)


गुणहीन पुरुष से विवाह न करें―


भले ही कन्या मरणपर्यन्त पिता के घर में बिना विवाह के बैठी भी रहे परन्तु गुणहीन पुरुष के साथ अपनी कन्या का विवाह कभी न कन्या करे॥८९॥


कन्या स्वयंवर विवाह करे―


त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती। 

ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद् विन्देत सदृशं पतिम्॥९०॥ (४२)


कन्या रजस्वला हो जाने पर इस समय के बाद तीन वर्षों तक विवाह की प्रतीक्षा करे, तदनन्तर अपने योग्य पति का वरण करे॥९०॥


स्वयंवर विवाह में दोष नहीं―


अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम्। 

नैनः किञ्चिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति॥९१॥ (४३)


पिता आदि अभिभावक के द्वारा विवाह न करने पर जो कन्या यदि स्वयं पति का वरण कर ले तो वह कन्या किसी पाप-अपराध की भागी नहीं होती और न उसे कोई पाप=दोष या अपराध होता है जिस पति को यह वरण करती है॥९१॥ 


स्त्री पुरुष की अर्द्धांगिनी―


प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः सन्तानार्थं च मानवाः। 

तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः॥९६॥ (४४)


गर्भधारण करके सन्तानों की उत्पत्ति करने के लिए स्त्रियों की रचना हुई है और गर्भाधान करने के लिए पुरुषों की रचना हुई है [दोनों एक दूसरे के पूरक होने के कारण] इसलिए वेदों में साथ मिलकर विहित साधारण अनुष्ठान और पंचयज्ञ आदि धर्मकार्य के अनुष्ठान के पत्नी के साथ करने का विधान किया है॥९६॥


पति-पत्नी पारस्परिक मर्यादा का अतिक्रमण न करें―


अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः।

एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः॥१०१॥ (४५)


मरणपर्यन्त पति-पत्नी में परस्पर किसी भी प्रकार की मर्यादा का उल्लंघन न होने पाये पति-पत्नी का संक्षेप में यही साररूप मुख्य धर्म है॥१०१॥ 


पति-पत्नी बिछुड़ने के अवसर न आने दें―


तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।

यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तावितरेतरम्॥१०२॥ (४६)


विवाहित स्त्री-पुरुष जिस प्रकार से कि वे एक-दूसरे से मतभेद न हो और अगल न हों=वैवाहिक सम्बन्धविच्छेद न हो पाये वैसा उपाय करने का सदा प्रयत्न रखें॥१०२॥


(१७) दायभाग विवाद-वर्णन 

[९.१०३-२१९]


एष स्त्रीपुंसयोरुक्तो धर्मो वो रतिसंहितः। आपद्यपत्यप्राप्तिश्च दायभागं निबोधत॥१०३॥ (४७)


यह स्त्री-पुरुष के रति=स्नेह या संयोग सहित [वियोगकाल के भी] धर्म और आपत्काल में नियोगविधि से सन्तान-प्राप्ति की बात तुमसे कही। अब दायभाग का विधान सुनो—॥१०३॥ 


अलग होते समय दायभाग का बराबर विभाजन―


ऊर्ध्वं पितुश्च मातुश्च समेत्य भ्रातरः समम्। 

भजेरन् पैतृकं रिक्थ्मनीशास्ते हि जीवतोः॥१०४॥ (४८)


पिता और माता के मरने के पश्चात् सब भाई एकत्रित होकर पैतृक सम्पत्ति को बराबर-बराबर बांट लें माता-पिता के जीवित रहते हुए वे उनके धन के स्वामी नहीं हो सकते हैं॥१०४॥ 


सम्मिलित रहने पर विभाजन का दूसरा विकल्प―


ज्येष्ठ एव तु गृह्णीयात् पित्र्यं धनमशेषतः।

शेषास्तमुपजीवेयुर्यथैव पितरं तथा॥१०५॥ (४९)


[अथवा सम्मिलित रूप में रहना हो तो] पिता के सारे धन को बड़ा पुत्र ही ग्रहण कर ले और बाकी सब भाई जैसे पिता के साथ रहते थे उसी प्रकार बड़े भाई के साथ रहकर जीवन चलावें॥१०५॥


बड़े भाई का छोटों के प्रति कर्त्तव्य―


पितेव पालयेत् पुत्रान्-ज्येष्ठो भ्रातॄन् यवीयसः। पुत्रवच्चापि वर्तेरन्-ज्येष्ठे भ्रातरि धर्मतः॥१०८॥ (५०)


[ज्येष्ठ पुत्र के साथ सम्मिलित रहते हुए] बड़ा भाई अपने छोटे भाइयों को जैसे पिता अपने पुत्रों का पालन-पोषण करता है ऐसे पाले और छोटे भाई बड़े भाई में धर्म से=कर्त्तव्य के अनुसार पुत्र के अनुसार बर्ताव करें अर्थात् उसे पिता के समान मानें॥१०८॥


छोटों का बड़े भाई के प्रति कर्त्तव्य―


यो ज्येष्ठो ज्येष्ठवृत्तिः स्यान्मातेव स पितेव सः।

अज्येष्ठवृत्तिर्यस्तु स्यात् सः सम्पूज्यस्तु बन्धुवत्॥११०॥ (५१)


किन्तु जो बड़ा भाई बड़ों अर्थात् पिता आदि के समान छोटे भाइयों का पालन-पोषण करने वाला हो तो वह पिता और माता के समान माननीय है और जो बड़ों अर्थात् पिता आदि के समान पालन-पोषण करने वाला न हो तो वह केवल भाई या मित्र की तरह ही मानने योग्य होता है॥११०॥ 


एवं सह वसेयुर्वा पृथग् वा धर्मकाम्यया। 

पृथग् विवर्धते धर्मस्तस्माद्धर्म्या पृथक् क्रिया॥१११॥ (५२)


इस प्रकार सब भाई साथ मिलकर रहें अथवा गृहस्थ धर्म के पालन की कामना से अलग-अलग रहें। क्योंकि पृथक-पृथक् रहने से धर्म का [सबके द्वारा अलग-अलग पञ्चमहायज्ञ आदि करने के कारण] विस्तार होता है इस कारण पृथक् रहना भी धर्मानुकूल है॥१११॥


इकट्ठे रहकर अलग होने पर 'उद्धार' अंश का विभाजन―


ज्येष्ठस्य विंश उद्धारः सर्वद्रव्याच्च यद्वरम्।

ततोऽर्धं मध्यमस्य स्यात्तुरीयं तु यवीयसः॥११२॥ (५३)


[सम्मिलित रहते हुए अगर बड़े भाई छोटों का पालन-पोषण करें तो उसके बाद अलग होते हुए] पिता के धन में से बड़े भाई का बीसवां भाग 'उद्धार' [=अतिरिक्त भागविशेष होता है] और सब पदार्थों में से जो सबसे श्रेष्ठ पदार्थ हो वह भी बड़े के 'उद्धार' से आधा उद्धार मझले भाई का अर्थात् चालीसवां भाग चौथाई भाग अर्थात् अस्सीवां भाग सबसे छोटे भाई का 'उद्धार' होना चाहिए॥११२॥


एवं समुद्धृतोद्धारे समानंशान् प्रकल्पयेत्।

उद्धारेऽनुद्धृते त्वेषामियं स्यादंशकल्पना॥११६॥ (५४)


इस प्रकार 'उद्धार' [=अतिरिक्त धनविशेष] के निकालने के बाद शेष धन को समान भागों में बांट लें यदि 'उद्धार' पृथक् से नहीं निकालें तो उन भाइयों के भाग का बंटवारा इस प्रकार करे॥११६॥ 


एकाधिकं हरेज्ज्येष्ठः पुत्रोऽध्यर्धं ततोऽनुजः।

अंशमंशं यवीयांस इति धर्मो व्यवस्थितः॥११७॥ (५५)


बड़ा पुत्र अथवा बड़ा भाई ‘एक अधिक' अर्थात् दो भाग धन ग्रहण करे उससे छोटा भाई अर्थात् डेढ़ भाग ले छोटे भाई एक-एक भाग सम्पत्ति का ग्रहण करें यही दायभाग विभाजन के धर्म की व्यवस्था है॥११७॥


स्वेभ्योंऽशेभ्यस्तु कन्याभ्यः प्रदद्युर्भ्रातरः पृथक्। स्वात्स्वादंशाच्चतुर्भागं पतिताः स्युरदित्सवः॥११८॥ (५६)


सब भाई अविवाहित बहनों के लिए पृथक् पृथक्-पृथक् चतुर्थांश भाग अपने भागों से देवें अपने-अपने भाग से चतुर्थांश भाग न देने वाले भाई पतित=दोषी और निन्दनीय माने जायेंगे॥११८॥ 


अजाविकं सैकशफं न जातु विषमं भजेत्। 

अजाविकं तु विषमं ज्येष्ठस्यैव विधीयते॥११९॥ (५७)


बकरी, भेड़, एक खुरवाली घोड़ी आदि पशुओं के विषम होने पर उन्हें [बेचकर धनराशि के रूप में] विभाजित न करें विषम रूप में बचे बकरी-भेड़ आदि पशु बड़े भाई को ही प्राप्त होते हैं॥११९॥ 


नियोग से उत्पन्न सन्तानों की पत्नियों के अनुसार दायव्यवस्था―


यवीयान्-ज्येष्ठभार्यायां पुत्रमुत्पादयेद्यदि। 

समस्तत्र विभागः स्यादिति धर्मो व्यवस्थितः॥१२०॥ (५८)


यदि छोटा भाई बड़े भाई की स्त्री में 'नियोग' से पुत्र उत्पन्न करे तो उस स्थिति में उस पुत्र को अपने चाचा आदि के समान पिता का भाग प्राप्त होगा अर्थात् वह अपने असली पिता के सम्पूर्ण भाग का अधिकारी होगा किन्तु उद्धार भाग का नहीं ऐसी धर्म की व्यवस्था है॥१२०॥ 


उपसर्जनं प्रधानस्य धर्मतो नोपपद्यते। 

पिता प्रधानं प्रजने तस्माद्धर्मेण तं भजेत्॥१२१॥ (५९)


गौणपुत्र अर्थात् जो नियोगविधि से छोटे भाई के द्वारा बड़े भाई की स्त्री में उत्पन्न हुआ है, वह धर्मानुसार प्रधान-पुत्र अर्थात् छोटों का पालन-पोषण करने वाले अपने ही पिता से उत्पन्न पुत्र के पूर्ण उद्धारादि भाग का अधिकारी नहीं होता, सन्तानोत्पत्ति में पिता की ही अर्थात् बीज की ही प्रधानता होती है इस कारण धर्मानुसार वह पुत्र पितृव्यों के समान समभाग को ही ले ले॥१२१॥


पुत्रिका करने का उद्देश्य―


अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम्। 

यदपत्यं भवेदस्यां तन्मम स्यात्स्वधाकरम्॥१२७॥ (६०)


पुत्रहीन पिता मेरी इस कन्या से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मुझे वृद्धावस्था में पुत्रवत् अन्नभोजन आदि से पालन-पोषण करने वाला होगा और सेवा द्वारा सुख देने वाला होगा' ऐसा दामाद से कहकर अपनी कन्या को 'पुत्रिका' करे [ऐसी स्थिति में पुत्रहीन पिता के धन की उत्तराधिकारिणी पुत्री होगी या नाती होगा॥१२७॥


पुत्र के अभाव में सारे धन की पुत्री अधिकारिणी―


यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा। 

तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥१३०॥ (६१)


जैसी अपनी आत्मा है वैसा ही पुत्र होता है अर्थात् पुत्र माता-पिता का अंग रूप होता है और पुत्र जैसी ही आत्मारूप पुत्री होती है उस आत्मारूप पुत्री के रहते हुये कोई दूसरा दाय धन को कैसे ले सकता है? अर्थात् नहीं ले सकता। भाव यह है कि पुत्र के अभाव में पुत्री ही पिता-माता के धन की अधिकारिणी होती है॥१३०॥


माता का धन पुत्रियों का ही होता है―


मातुस्तु यौतकं यत् स्यात् कुमारीभाग एव सः।

दौहित्र एव च हरेदपुत्रस्याखिलं धनम्॥१३१॥ (६२)


माता का जो किसी भी अवसर पर प्राप्त निजी धन होता है वह अविवाहित कन्या का ही भाग होता है तथा पुत्रहीन नाना के सम्पूर्ण धन को धेवता ही प्राप्त कर लेवे॥१३१॥


पुत्रिका करने पर भी पुत्र होने की अवस्था में दाय व्यवस्था―


पुत्रिकायां कृतायां तु यदि पुत्रोऽनुजायते। 

समस्तत्र विभागः स्याज्ज्येष्ठता नास्ति हि स्त्रियाः॥१३४॥ (६३)


पूर्वोक्त विधि से 'पुत्रिका' कर लेने के बाद यदि किसी को पुत्र उत्पन्न हो जाये तो उस स्थिति में उन दोनों को [धेवता और निजपुत्र को] धन का समान भाग मिलेगा क्योंकि स्त्री को उद्धार भाग में ज्येष्ठत्व नहीं है अर्थात् बड़े पुत्र की भांति 'उद्धार' भाग नहीं प्राप्त होता। अतः धेवते को भी वह 'उद्धार' भाग नहीं प्राप्त होगा॥१३५॥


पुत्र का लक्षण―


पुंनाम्नो नरकाद्यस्मात् त्रायते पितरं सुतः। 

तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा॥१३८॥ (६४)


जो पुत्र माता-पिता की 'पुम्=सन्तान के अभाव रूप कष्ट और वृद्धावस्था, रोग आदि से उत्पन्न होने वाले दुःख रूप नरक से रक्षा करता है' इस कारण से स्वयंभू ईश्वर ने वेदों में बेटे को 'पुत्र' संज्ञा से अभिहित किया है॥१३८॥


दत्तकपुत्र के दायभाग का विधान―


उपपन्नो गुणैः सर्वैः पुत्रो यस्य तु दत्त्रिमः ।

स हरेतैव तद्रिक्थं सम्प्राप्तोऽप्यन्यगोत्रतः॥१४१॥ (६५)


जिसका 'दत्तक'=गोद लिया हुआ पुत्र सभी श्रेष्ठ या वर्णोचित पुत्रगुणों से सम्पन्न हो, चाहे वह दूसरे वंश का ही क्यों न हो वह उस गोद लेने वाले पिता के धन को उत्तराधिकार में निश्चित रूप से प्राप्त करता है॥१४१॥ 


हरेत्तत्र नियुक्तायां जातः पुत्रो यथौरसः।

क्षेत्रिकस्य तु तद्बीजं धर्मतः प्रसवश्च सः॥१४५॥ (६६)


नियोग के लिए नियुक्त स्त्री में औरस=सगे पुत्र के समान हुआ क्षेत्रज पुत्र पितृधन का भागी होता है; क्योंकि वह क्षेत्रिक=क्षेत्र स्वामी का ही बीज माना जाता है, यतोहि वह धर्मानुसार नियोग से उत्पन्न होता है॥१४५॥


धनं यो बिभृयाद् भ्रातुर्मृतस्य स्त्रियमेव च।

सोऽपत्यं भ्रातुरुत्पाद्य दद्यात्तस्यैव तद्धनम्॥१४६॥ (६७)


मरे हुए भाई के धन और स्त्री की जो भाई रक्षा करे वह भाई की स्त्री में सन्तान उत्पन्न करके भाई का वह प्राप्त सब धन उस पुत्र को ही दे देवे॥१४६॥


नियोगविधि के बिना उत्पन्न पुत्र दायभाग का अनधिकारी―


याऽनियुक्ताऽन्यतः पुत्रं देवराद्वाऽप्यवाप्नुयात्। 

तं कामजमरिक्थीयं वृथोत्पन्नं प्रचक्षते॥१४७॥ (६८)


जो स्त्री नियोगविधि के बिना अन्य कुलबाह्य पुरुष से या देवर से भी पुत्र प्राप्त करे उस पुत्र को 'कामज'=कामवासना के वशीभूत होकर व्यभिचार से उत्पन्न किया गया और 'वृथोत्पन्न'=व्यर्थ में उत्पन्न कहा गया है, और वह पितृधन का अनधिकारी माना गया है॥१४७॥


अक्षतयोनि के पुनर्विवाह का विधान―


सा चेदक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागताऽपि वा। 

पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारमर्हति॥१७६॥ (६९)


वह स्त्री यदि 'अक्षतयोनि'=जिनका संभोगसम्बन्ध न हुआ हो, ऐसी हो चाहे वह पति के घर गई-आई हुई भी हो, वह दूसरे पति के साथ पुनः विवाह कर सकती है॥१७६॥


[मातृधन का विभाग]


मातृधन को भाई-बहन बराबर बांट लें―


जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः। 

भजेरन्मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः॥१९२॥ (७०)


माता के मर जाने पर सब सगे भाई और सब सगी बहनें माता के पारिवारिक धन को बराबर-बराबर बांट लें॥१९२॥


यास्तासां स्युर्दुहितरस्तासामपि यथार्हतः। 

मातामह्या धनात्किंचित्प्रदेयं प्रीतिपूर्वकम्॥१९३॥ (७१)


उन सभी बहनों की जो पुत्रियां हों उनको भी यथायोग्य प्रेमपूर्वक नानी के धन में से कुछ देना चाहिए॥१९३॥


स्त्रीधन छह प्रकार का―


अध्यग्न्यध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीतिकर्मणि।

भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम्॥१९४॥ (७२)


स्त्रीधन छः प्रकार का माना गया है—१. विवाहसंस्कार के समय प्राप्त धन, २. पति के घर जाती हुई कन्या को पिता के घर से प्राप्त हुआ धन, ३. प्रसन्नता के किसी अवसर पर पति आदि के द्वारा दिया गया धन, ४. भाई से प्राप्त धन, ५. माता से प्राप्त धन, ६. पिता से प्राप्त धन॥१९४॥ 


अन्वाधेयं च यद्दत्तं पत्या प्रीतेन चैव यत्। 

पत्यौ जीवति वृत्तायाः प्रजायास्तद्धनं भवेत्॥१९५॥ (७३)


जो अन्वाधेय अर्थात् विवाह के पश्चात् पिता या पति द्वारा दिया गया है, वह धन और जो प्रीतिपूर्वक पति के द्वारा दिया गया धन है पति के जीवित रहते भी पत्नी के मरने पर वह धन पुत्र-पुत्रियों का ही होता है॥१९५॥


ब्राह्मादि विवाहों में स्त्रीधन का अधिकारी पति―


ब्राह्मदैवार्षगान्धर्वप्राजापत्येषु यद्वसु।

अप्रजायामतीतायां भर्तुरेव तदिष्यते॥१९६॥ (७४)


ब्राह्म, आर्ष, गान्धर्व, प्राजापत्य विवाहों में जो स्त्री को धन प्राप्त हुआ है स्त्री के सन्तानहीन मर जाने पर उस धन पर पति का ही अधिकार माना गया है॥१९६॥ 


आसुरादि विवाहों में स्त्रीधन के उत्तराधिकारी―


यत्त्वस्याः स्याद्धनं दत्तं विवाहेष्वासुरादिषु। 

अप्रजायामतीतायां मातापित्रोस्तदिष्यते॥१९७॥ (७५)


और जो इसे 'आसुर' गन्धर्व, राक्षस, पैशाच विवाहों में दिया गया धन हो पत्नी के निःसन्तान मर जाने पर वह धन स्त्री के माता-पिता का हो जाता है॥१९७॥


स्त्रियाँ कुटुम्ब से छिपाकर धन न जोड़ें―


न निर्हारिं स्त्रियः कुर्युः कुटुम्बाद् बहुमध्यगात्। 

स्वकादपि च वित्ताद्धि स्वस्य भर्तुरनाज्ञया॥१९९॥ (७६)


स्त्रियाँ बहुत सदस्यों वाले कुटुम्ब से चुपके से धन ले-लेकर अपने लिए धनसंग्रह और व्यय न करें और अपने धन में से भी अपने पति की सहमति के बिना व्यय न करें॥१९९॥ 


पत्यौ जीवति यः स्त्रीभिरलंकारो धृतो भवेत्।

न तं भजेरन्दायादा भजमानाः पतन्ति ते॥२००॥ (७७)


पति के जीते हुए स्त्रियों ने जो आभूषण धारण किये हैं, [पति के मर जाने पर] माता-पिता के दायभाग के अधिकारी पति के भाई या पुत्र आदि [माता के जीवित रहते] उसको न बांटें यदि वे उन्हें लेते हैं तो 'पतित'=दोषी कहलाते हैं॥२००॥ 


धन के अनधिकारी विकलांग―


अनंशौ क्लीबपतितौ जात्यन्धबधिरौ तथा।

उन्मत्तजडमूकाश्च ये च केचिन्निरिन्द्रियाः॥२०१॥ (७८)


नपुंसक, दुष्ट कर्मों में संलग्न अपराधी जन्म से अन्धे और बहरे पागल, वज्रमूर्ख और गूंगे और जो कोई किसी इन्द्रिय से पूर्ण विकलांग हैं और असमर्थ हैं ये विकलांग आदि पूरे दाय-धन के भागीदार नहीं होते, क्योंकि ये धन की सुरक्षा और उपयोग में सक्षम नहीं अयोग्य होते हैं॥२०१॥ 


इन्हें भोजन-छादन देते रहें―


सर्वेषामपि तु न्याय्यं दातुं शक्त्या मनीषिणा। ग्रासाच्छादनमत्यन्तं पतितो ह्यददद्भवेत्॥२०२॥ (७९)


किन्तु इनके धनगृहीता सहृदय मनुष्य को चाहिए कि इन सबको यथाशक्ति भोजन, वस्त्र आदि अनिवार्य रूप से देना न्यायोचित है, यह समझकर उक्त पदार्थ दे, उक्त सुविधाएं न देने वाला धनगृहीता 'पतित'=दोषी माना जायेगा॥२०२॥ 


यद्यर्थिता तु दारैः स्यात्क्लीबादीनां कथंचन। 

तेषामुत्पन्नतन्तूनामपत्यं दायमर्हति॥२०३॥ (८०)


यदि नपुंसक आदि इन पूर्वोक्तों को भी विवाह करने की इच्छा हो तो इनके उत्पन्न 'क्षेत्रज'=नियोगज पुत्र आदि सन्तान इनके धन की भागी होती है॥२०३॥ 


विद्याधनं तु यद्यस्य तत्तस्यैव धनं भवेत्।

मैत्र्यमौद्वाहिकं चैव माधुपर्किकमेव च॥२०६॥ (८१)


विद्या के कारण प्राप्त, मित्र से प्राप्त, विवाह में प्राप्त और पूज्यता के कारण आदर-सत्कार में प्राप्त जो जिसका धन है वह उसी का ही होता है॥२०६॥ 


भ्रातॄणां यस्तु नेहेत धनं शक्तः स्वकर्मणा। 

स निर्भाज्यः स्वकादंशात्किंचिद्दत्त्वोपजीवनम्॥२०७॥ (८२)


भाइयों में जो भाई अपने उद्योग से समृद्ध हो और पितृधन का भाग न लेना चाहे तो उसको भी अपने-अपने पितृधन के हिस्सों से कुछ धन देकर अलग करना चाहिए, बिल्कुल बिना दिये नहीं॥२०७॥


अनुपघ्नन् पितृद्रव्यं श्रमेण यदुपार्जितम्।

स्वयमीहितलब्धं तन्नाकामो दातुमर्हति॥२०८॥ (८३)


पितृ-धन को बिल्कुल भी उपयोग में न लाता हुआ यदि कोई पुत्र केवल अपने परिश्रम से संचित धन में से किसी भाई को कुछ न देना चाहे तो न देवे अर्थात् देने के लिए वह बाध्य नहीं है॥२०८॥


पैतृकं तु पिता द्रव्यमनवाप्तं यदाप्नुयात्। 

न तत्पुत्रैर्भजेत्सार्धमकामः स्वयमर्जितम्॥२०९॥ (८४)


यदि कोई पिता दायरूप में अप्राप्त पैतृक धन अर्थात् ऐसा धन जो है तो परम्परा से पैतृक, किन्तु किसी कारण से वह उसके पिता के अधिकार में नहीं रहा, इस कारण उसे पैतृक दायभाग के रूप में भी नहीं मिला, उसको यदि वह स्वयं अपने परिश्रम या उपाय से प्राप्त कर ले तो उस स्वयं के परिश्रम से प्राप्त किये धन को [जैसे गिरवी रखा हुआ धन] यदि वह न चाहे तो अपने पुत्रों में न बांटे अर्थात् ऐसा धन पिता के द्वारा स्वयं कमाये हुए धन जैसा है। उसका देना-न देना या विभाजन करना पिता की इच्छा पर निर्भर है। वह जैसा चाहे कर सकता है॥२०९॥ 


पुनः एकत्र होकर पृथक् होने पर उद्धार भाग नहीं―


विभक्ताः सह जीवन्तो विभजेरन् पुनर्यदि। 

समस्तत्र विभागः स्याज्ज्यैष्ठ्यं तत्र न विद्यते॥२१०॥ (८५)


सब भाई एक बार विभाग का बंटवारा करके फिर सम्मिलित होकर यदि फिर अलग होना चाहें तो उस स्थिति में सबको समान भाग प्राप्त होगा तब उसमें ज्येष्ठ भाई का 'उद्धार भाग' नहीं होता॥२१०॥ 


भाई के मरने पर उसके धन का विभाग―


येषां ज्येष्ठः कनिष्ठो वा हीयेतांशप्रदानतः। 

म्रियेतान्यतरो वाऽपि तस्य भागो न लुप्यते॥२११॥ (८६)


जिन भाइयों में से बड़ा या छोटा भाई किसी कारण से अपने भाग से वंचित रह जाये, मर जाये अथवा अन्य किसी गृहत्याग आदि कारण से अपना भाग न ले पावे तो उसका भाग नष्ट नहीं होता अर्थात् उसके पुत्र पत्नी आदि को प्राप्त होता है॥२११॥ 


सोदर्या विभजेरंस्तं समेत्य सहिताः समम्।

भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः॥२१२॥ (८७)


[यदि पुत्र, स्त्री आदि न हों तो] सभी सगे भाई और जो सम्मिलित भाई तथा सब सगी बहनें हैं, वे एकत्रित होकर उस धन को समान-समान बांट लेवें॥२१२॥ 


कर्त्तव्यपालन न करने पर बड़े भाई को उद्धार भाग नहीं―


यो ज्येष्ठो विनिकुर्वीत लोभाद् भ्रातॄन् यवीयसः। सोऽज्येष्ठः स्यादभागश्च नियन्तव्यश्च राजभिः॥२१३॥ (८८)


जो बड़ा भाई लोभ में आकर छोटे भाइयों को ठगे, पूरा भाग न दे तो उसको बड़े के रूप में नहीं मानना चाहिए और उसे बड़े भाई के नाम का 'उद्धार भाग' भी नहीं देना चाहिए और वह राजा के द्वारा दण्डनीय होता है अर्थात् राजा उसको कानून के द्वारा वश में करे और छोटों का भाग दिलवाये॥२१३॥ 


दायधन से वंचित लोग―


सर्व एव विकर्मस्था नार्हन्ति भ्रातरो धनम्। 

न चादत्त्वा कनिष्ठेभ्यो ज्येष्ठः कुर्वीत यौतकम्॥२१४॥ (८९)


[जुआ खेलना, चोरी करना, डाका डालना आदि] बुरे कामों में सलंग्न रहने वाले सभी भाई धनभाग को प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते और छोटे भाइयों को बिना दिये=बिना बांटे बड़ा भाई अपने लिए पितृधन में से अलग से धन न ले अर्थात् किसी भी धन को अकेला अपने लिए न रखे॥२१४॥ 


पितृ-धन का विषम विभाजन न करे―


भ्रातॄणामविभक्तानां यद्युत्थानं भवेत्सह।

 न पुत्रभागं विषमं पिता दद्यात्कथञ्चन॥२१५॥ (९०)


सम्मिलित रूप में रहते हुए सब भाइयों ने यदि साथ मिलकर धन इकट्ठा किया हो तो पिता किसी भी प्रकार पुत्रों के भाग को विषम अर्थात् किसी को अधिक किसी को कम रूप में न बांटे, सभी को बराबर दे॥२१५॥


ऊर्ध्वं विभागाज्जातस्तु पित्र्यमेव हरेद्धनम्। 

संसृष्टास्तेन वा स्युर्विभजेत स तैः सह॥२१६॥ (९१)


धन का बंटवारा करके [पिता की जीवित अवस्था में ही] पुत्रों के अलग हो जाने पर यदि कोई पुत्र उत्पन्न हो जाये तो वह पिता के अंश के धन को ले ले अथवा जो कोई पुत्र पिता के साथ सम्मिलित रूप में रह रहे हों तो वह उन सबके समान भाग प्राप्त करे॥२१६॥


इकलौते सन्तानहीन पुत्र के धन का उत्तराधिकार―


अनपत्यस्य पुत्रस्य माता दायमवाप्नुयात्। 

मातर्यपि च वृत्तायां पितुर्माता हरेद्धनम्॥२१७॥ (९२)


सन्तानहीन और पत्नीहीन पुत्र के धन को माता प्राप्त करे और माता मर गई हो तो पिता की माता अर्थात् दादी उसके धन को ले ले॥२१७॥ 


ऋणे धने च सर्वस्मिन् प्रविभक्ते यथाविधि। 

पश्चाद् दृश्येत यत्किंचित्तत्सर्वं समतां नयेत्॥२१८॥ (९३)


पिता के सारे ऋण और धन का विधिपूर्वक बंटवारा हो जाने पर यदि बाद में कुछ ऋण और धन के शेष रहने का पता लगे तो उस सबको भी समान रूप में बांट लें॥२१८॥


(१८) द्यूत-सम्बन्धी विवाद का निर्णय 

[२२०-२५०]


अयमुक्तो विभागो वः पुत्राणां च क्रियाविधिः। 

क्रमशः क्षेत्रजादीनां द्यूतधर्मं निबोधत॥२२०॥ (९४)


यह तुमको दायभाग का विधान और 'क्षेत्रज' आदि पुत्रों को धन का भाग देने की विधि क्रमशः कही। अब जुआ-सम्बन्धी विधान सुनो―॥२२०॥ 


राष्ट्रघातक जुआ आदि का पूर्ण निवारण―


द्यूतं समाह्वयं चैव राजा राष्ट्रान्निवारयेत्। 

राजान्तकरणावेतौ द्वौ दोषौ पृथिवीक्षिताम्॥२२१॥ (९५)


राजा जड़ वस्तुओं से बाजी लगाकर खेले जाने वाले 'जुआ' को और चेतन प्राणियों को दाव पर लगाकर खेल जाने वाले 'समाह्वय' नामक 'जुआ' को अपने देश से समाप्त कर दे, क्योंकि ये दोनों बुराइयाँ राजाओं के राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देने वाली हैं॥२२१॥


जुआ एक तस्करी है―


प्रकाशमेतत्तास्कर्यं यद् देवनसमाह्वयौ।

तयोर्नित्यं प्रतीघाते नृपतिर्यत्नवान् भवेत्॥२२२॥ (९६)


ये जो 'जुआ' और 'समाह्वय' है ये प्रत्यक्ष में होने वाली तस्करी=चोरी-ठगी हैं राजा इनको समाप्त करने के लिये सदा प्रयत्नशील रहे॥२२२॥ 


द्यूत और समाह्वय में भेद―


अप्राणिभिर्यत्क्रियते तल्लोके द्यूतमुच्यते।

प्राणिभिः क्रियते यस्तु स विज्ञेयः समाह्वयः॥२२३॥ (९७)


बिना प्राणियों अर्थात् जड़ [ताश, पासा, कौड़ी, गोटी आदि] वस्तुओं के द्वारा बाजी लगाकर जो खेल खेला जाता है लोक में उसे 'द्यूत'=जुआ कहा जाता है और जो चेतन प्राणियों [मनुष्य, मुर्गा, तीतर, बटेर, घोड़ा आदि] के द्वारा बाजी लगाकर जो खेल खेला जाता है उसे 'समाह्वय' कहा जाता है॥२२३॥ 


द्यूतं समाह्वयं चैव यः कुर्यात्कारयेत वा।

तान्सर्वान् घातयेद्राजा शूद्रांश्च द्विजलिङ्गिनः॥२२४॥ (९८)


राजा जो मनुष्य 'जुआ' और 'समाह्वय' स्वयं खेले या दूसरों से खिलाये उन सबको और कपटपूर्वक द्विजों के वेश में रहने वाले या उनका वेश धारण उनकी जीविका करने वाले शूद्रों को शारीरिक दण्ड [ताड़ना, कारावास, अंगच्छेदन] आदि दे॥२२४॥


कितवान्कुशीलवान्क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान्।

विकर्मस्थाञ्छौण्डिकांश्च क्षिप्रं निर्वासयेत्पुरात्॥२२५॥ (९९)


और जुआरियों, अश्लील-असभ्य नाच-गानों से जीविका करनेवाले, क्रूर=अत्याचार करने वाले, पाखण्ड करके जीविका कमाने वाले, शास्त्रविरुद्ध बलात्कार चोरी आदि बुरे कर्म करने वाले, शराब बनाने-बेचने, और पीने वाले मनुष्यों को राजा अपने राज्य से यथा शीघ्र बाहर निकाल दे॥२२५॥


एते राष्ट्रे वर्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नतस्कराः।

विकर्मक्रियया नित्यं बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः॥२२६॥ (१००)


ये छुपे हुए तस्कर=चोर-ठग राज्य में रहकर गलत और बुरे कामों को कर-करके सदा राजाओं और सज्जन प्रजाओं को हानि और दुःख पहुंचाते रहते हैं॥२२६॥


द्यूतमेतत्पुरा कल्पे दृष्टं वैरकरं महत्। 

तस्माद् द्यूतं न सेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान्॥२२७॥ (१०१)


यह 'जुआ' अब से पहले समय में भी महान् कष्ट एवं शत्रुता पैदा करने वाला देखा गया है इसलिए बुद्धिमान् मनुष्य मनोरंजन और हंसी-मजाक में भी 'जुआ' न खेले॥२२७॥ 


प्रच्छन्नं वा प्रकाशं वा तन्निषेवेत यो नरः।

तस्य दण्डविकल्पः स्याद्यथेष्टं नृपतेस्तथा॥२२८॥ (१०२)


छुपकर वा सबके सामने जो मनुष्य 'जुआ' खेले उसका दण्ड-विधान निर्धारित नहीं है वह राजा की इच्छानुसार होता है, अर्थात् जुआ असह्य दुष्कर्म है उससे होने वाली हानि को देखकर राजा जो भी चाहे अधिक दण्ड दे दे॥२२८॥


मुकद्दमों के अन्त में उपसंहार―


रिश्वत लेकर अन्याय करने वालों को दण्ड―


ये नियुक्तास्तु कार्येण हन्युः कार्याणि कार्यिणाम्। 

धनोष्मणा पच्यमानास्तान्निःस्वान्कारयेन्नृपः॥२३१॥ (१०३)


राजकार्यों और मुकद्दमों के निर्णयों में राजा द्वारा लगाये गये जो अधिकारी-कर्मचारी धन की गर्मी अर्थात् रिश्वत आदि के लालच में वादी-प्रतिवादियों के मुकद्दमों और कामों को बिगाड़ें राजा उनकी सारी संपत्ति छीन ले॥२३१॥


निर्णयों में कपट करने वालों को दण्ड―


कूटशासनकर्तॄंश्च प्रकृतीनां च दूषकान्। 

स्त्रीबालब्राह्मणघ्नांश्च हन्याद् द्विट्सेविनस्तथा॥२३२॥ (१०४)


और राजा के निर्णयों में कपट करने वाले या उनको कपटपूर्वक लिखने वाले, प्रकृति=प्रजा, मन्त्री, सेनापति आदि को रिश्वत आदि बुरे कार्यों में फंसाकर बिगाड़ने वाले, स्त्रियों, बच्चों और विद्वान् ब्राह्मणों की हत्या करने वाले, तथा शत्रु से मिले हुए जन, इनको वध से दण्डित करे अर्थात् इनको कठोर से कठोर और कष्टप्रद शारीरिक दण्ड दे॥२३२॥


ठीक निर्णय को किसी दबाव या लालच में आकर न बदले―


तीरितं चानुशिष्टं च यत्र क्वचन यद्भवेत्। 

कृतं तद्धर्मतो विद्यान्न तद्भूयो निवर्तयेत्॥२३३॥ (१०५)


जहां किसी मुकद्दमे में ठीक निर्णय किया जा चुका हो और किसी दण्ड का आदेश भी दिया जा चुका हो धर्मपूर्वक किये उस निर्णय को पूरा हुआ जानना चाहिये उस मुकद्दमे का पुनः निर्णय बार-बार न बदले [यह लोभ या ममत्व आदि के कारण अथवा अकारण निर्णय न बदलने का कथन है, कारण विशेष होने पर तो पुनः निर्णय का कथन किया गया है]॥२३३॥ 


अमात्यों और न्यायाधीशों को अन्याय करने पर दण्ड―


अमात्याः प्राड्विवाको वा यत्कुर्युः कार्यमन्यथा।

तत्स्वयं नृपतिः कुर्यात्तान्सहस्रं च दण्डयेत्॥२३४॥ (१०६)


मंत्री अथवा न्यायाधीश जिस काम या मुकद्दमे के निर्णय को गलत या अन्यायपूर्वक कर दें तो उस मुकद्दमे के निर्णय को राजा स्वयं देखकर ठीक करे और अन्याय करने वाले उन अधिकारियों को एक हजार पण दण्ड से दण्डित करे॥२३४॥


यावानवध्यस्य वधे तावान् वध्यस्य मोक्षणे।

अधर्मो नृपतेर्दृष्टो धर्मस्तु विनियच्छतः॥२४९॥ (१०७)


राजा को अदण्डनीय को दण्ड देने पर जितना अधर्म=अन्याय होना शास्त्र में माना गया है उतना ही दण्डनीय को छोड़ने में अधर्म=अन्याय होता है न्यायानुसार दण्ड देना ही धर्म है॥२४९॥ 


उदितोऽयं विस्तरशो मिथो विवदमानयोः।

अष्टादशसु मार्गेषु व्यवहारस्य निर्णयः॥२५०॥ (१०८)


यह परस्पर विवाद=मुकद्दमा करने वाले वादी-प्रतिवादियों के अठारह प्रकार के मुकद्दमों का निर्णय विस्तारपूर्वक कहा॥२५०॥ 


एवं धर्म्याणि कार्याणि सम्यक्कुर्वन् महीपतिः। 

देशानलब्धांल्लिप्सेत लब्धांश्च परिपालयेत्॥२५१॥ (१०९)


इस पूर्वोक्त कही विधि के अनुसार धर्मयुक्त कार्यों को करता हुआ न्यायानुसार शासन करता हुआ राजा अप्राप्त देशों को प्राप्त करने की इच्छा करे और प्राप्त किये देशों का भलीभांति पालन करे॥२५१॥


राजा द्वारा लोककण्टकों का निवारण― 

(९.२५२ से ३२५ तक)


सम्यङ् निविष्टदेशस्तु कृतर्दुगश्च शास्त्रतः। 

कण्टकोद्धरणे नित्यमातिष्ठेद्यत्नमुत्तमम्॥२५२॥ (११०)


राजा अच्छे सस्यादि-सम्पन्न देश का आश्रय करके और वहां शास्त्रानुसार विधि से किला बनाकर अपने राज्य से कंटकों='प्रजा या शासन को पीड़ित करने वाले लोगों' को दूर करने में सदा अधिकाधिक यत्न करे॥२५२॥


रक्षणादार्यवृत्तानां कण्टकानां च शोधनात्। 

नरेन्द्रास्त्रिदिवं यान्ति प्रजापालनतत्पराः॥२५३॥ (१११)


श्रेष्ठ आचरण वाले व्यक्तियों की रक्षा करने से और कण्टकों=कष्टदायक दुष्ट व्यक्तियों को दण्डित करने से प्रजाओं के पालन करने में तत्पर रहने वाले राजा विस्तृत राज्य के उत्तम सुख को भोगते हैं॥२५३॥


अशासंस्तस्करान्यस्तु बलिं गृह्णाति पार्थिवः। 

तस्य प्रक्षुभ्यते राष्ट्र स्वर्गाच्च परिहीयते॥२५४॥ (११२)


जो राजा ठग-चोर आदि को नियंत्रित-दण्डित न करता हुआ प्रजाओं से कर आदि ग्रहण करता है उसके राष्ट्र में निवास करने वाली प्रजाएं क्षुब्ध होकर विद्रोह कर देती हैं और वह राज्यसुख से विहीन हो जाता है॥२५४॥


निर्भयं तु भवेद्यस्य राष्ट्र बाहुबलाश्रितम्। 

तस्य तद्वर्धते नित्यं सिच्यमान इव द्रुमः॥२५५॥ (११३)


जिस राजा के बाहुबल=सुरक्षा के सहारे राष्ट्र अर्थात् प्रजाएं [चोर आदि से] निर्भय रहती है उसका वह राज्य सींचे गये वृक्ष की भाँति सदा बढ़ता रहता है॥२५५॥


दो प्रकार के तस्कर लोककण्टक हैं―


द्विविधांस्तस्करान् विद्यात् परद्रव्यापहारकान्। 

प्रकाशांश्चाप्रकाशांश्च चारचक्षुर्महीपतिः॥२५६॥ (११४)


गुप्तचर ही हैं नेत्र जिसके अर्थात् गुप्तचरों के द्वारा सब प्रजा का काम देखने वाला राजा प्रकट और गुप्त रूप से दूसरों के द्रव्यों को चुराने वाले दोनों प्रकार के चोरों की जानकारी रखे॥२५६॥ 


प्रकाशवञ्चकास्तेषां नानापण्योपजीविनः।

प्रच्छन्नवञ्चकास्त्वेते ये स्तेनाटविकादयः॥२५७॥ (११५)


उन दोनों प्रकार के चोरों में नाना प्रकार के व्यापारी जो देखते-देखते माप, तोल या मूल्य में हेराफेरी करके ठगते हैं वे 'प्रकट-चोर' हैं और जो जंगल आदि में छिपे रहकर चोरी, राहगीरी आदि करने वाले हैं वे 'गुप्तचोर' हैं॥२५७॥ 


लोककण्टकों की गणना―


उत्कोचकाश्चौपधिका वञ्चकाः कितवास्तथा। 

मङ्गलादेशवृत्ताश्च भद्राश्चेक्षणिकैः सह॥२५८॥ 

असम्यक्कारिणश्चैव महामात्राश्चिकित्सकाः। 

शिल्पोपचारयुक्ताश्च निपुणा: पण्ययोषितः॥२५९॥ 

एवमादीन्विजानीयात्प्रकाशांल्लोककण्टकान्। 

निगूढचारिणश्चान्याननार्यानार्यलिङ्गिनः॥२६०॥ (११६-११८)


रिश्वतखोर, भय दिखाकर धन ऐंठने वाले ठग, जुआरी 'तुम्हें पत्र या धन प्राप्ति होगी' इत्यादि मांगलिक बातों को कहकर धन लूटने वाले, साधु-संन्यासी आदि भद्ररूप धारण करके धन ठगने वाले, हाथ आदि देखकर भविष्य बताकर धन ठगने वाले, धन, वस्तु आदि लेकर गलत काम करने वाले उच्च कर्मचारी [मन्त्री आदि], अनुचित मात्रा में धन लेने वाले या अयोग्य चिकित्सक अनुचित मात्रा में धन लेने वाले शिल्पी [चित्रकार आदि], धन ठगने में चतुर वेश्याएं इत्यादियों को और दूसरे जो श्रेष्ठों का वेश या चिह्न धारण करके गुप्तरूप से विचरण करने वाले दुष्ट या बुरे व्यक्ति हैं, उनको प्रकट लोककण्टक=प्रजाओं को पीड़ित करने वाले व्यक्ति समझे और उनकी जानकारी रखे॥२५८-२६०॥


तान्विदित्वा सुचरितैर्गुढैस्तत्कर्मकारिभिः।

चारैश्चानेकसंस्थानैः प्रोत्साद्य वशमानयेत्॥२६१॥ (११९)


जिस विषय में जानकारी प्राप्त करनी है वैसा ही कर्म करने में चतुर, गुप्त रहने वाले अच्छे आचरण वाले अनेक स्थानों में नियुक्त गुप्तचरों के द्वारा उन ठगों या लोककण्टकों को मालूम करके और फिर उन्हें पकड़कर अपने वश में करे, कारागृह में रखे अर्थात् उन पर ऐसा नियंत्रण रखे कि वे पुनः ऐसे काम न कर पायें॥२६१॥ 


तेषां दोषानभिख्याप्य स्वे स्वे कर्मणि तत्त्वतः।

कुर्वीत शासनं राजा सम्यक् सारापराधतः॥२६२॥ (१२०)


राजा जो-जो उन्होंने बुरा काम किया है भलीभांति उनके दोषों की सही-सही घोषणा करके उनके बल और अपराध के अनुसार न्यायोचित दण्ड से दण्डित करे॥२६२॥


नहि दण्डादृते शक्यः कर्तुं पापविनिग्रहः। 

स्तेनानां पापबुद्धीनां निभृतं चरतां क्षितौ॥२६३॥ (१२१)


प्रकट चोरों, पृथ्वी पर गुप्तरूप से विचरण करने वाले चोरों या अन्य अपराधियों तथा पाप कर्म में बुद्धि रखने वालों के पापों पर नियंत्रण दण्ड के बिना नहीं हो सकता, अतः दण्ड देने में कभी प्रमाद या शिथिलता न करें॥२६३॥ 


गुप्तचरों द्वारा किन स्थानों से अपराधों का पता लगाये―


सभाप्रपापूपशालावेशमद्यान्नविक्रयाः। चतुष्पथाश्चैत्यवृक्षाः समाजाः प्रेक्षणानि च॥२६४॥ जीर्णोद्यानान्यरण्यानि कारुकावेशनानि च। 

शून्यानि चाप्यगाराणि वनान्युपवनानि च॥२६४॥ एवंविधान्नृपो देशान्गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः। तस्करप्रतिषेधार्थं चारैश्चाप्यनुचारयेत्॥२६६॥ (१२२-१२४)


सभाओं के आयोजन स्थल, प्याऊ, मालपूआ आदि बेचने का स्थान [भोजनालय, हलवाइयों की दुकान आदि], बहुरूपी वेशभूषा, मद्य तथा अनाज बेचने का स्थान [मण्डी आदि], चौराहे, प्रसिद्धवृक्ष जहां लोग इकट्ठे होकर बैठते हैं, सार्वजनिक स्थान, मनोरंजन के स्थान, पुराने बगीचे और जंगल, शिल्पगृह=शिल्प विक्रय स्थान आदि सूने पड़े हुए घर, वन और उपवन, राजा ऐसे स्थानों में चोरों-ठगों के निवारण के लिए एक स्थान पर (पुलिस चौकी बनाकर) रहने वाले और गश्त लगाने वाले सिपाहियों के दलों को और गुप्तचरों को विचरण कराये या नियुक्त करके उनको नियंत्रित करे॥२६४-२६६॥


तत्सहायैरनुगतैर्नानाकर्मप्रवेदिभिः। 

विद्यादुत्सादयेच्चैव निपुणैः पूर्वतस्करैः॥२६७॥ (१२५)


उन चोर आदि के सहायकों और अनुगामियों से अनेक प्रकार के कर्मों को जानने वाले चतुर भूतपूर्व चोरों से भी चोरों का पता लगावे और पता लगने पर उन्हें दण्डित करें॥२६७॥


भक्ष्यभोज्योपदेशैश्च ब्राह्मणानां च दर्शनैः। 

शौर्यकर्मापदेशैश्च कुर्युस्तेषां समागमम्॥२६८॥ (१२६)


वे सहयोगी या गुप्तचर लोग खाने के पदार्थों का लालच देकर और ब्रह्मवेत्ता विद्वानों के दर्शनों के बहाने तथा कोई शौर्यकर्म दिखाने के बहाने से उन चोर आदि को सिपाहियों से मिला दें, गिरफ्तार करा दें॥२६८॥


ये तत्र नोपसर्पेयुर्मूलप्रणिहिताश्च ये। 

तान्प्रसह्य नृपो हन्यात्समित्रज्ञातिबान्धवान्॥२६९॥ (१२७)


जो चोर और उसके सहयोगी उपर्युक्त स्थानों पर न आवें और जो चोर पकड़े जाने की शंका से सावधान होकर बचते रहें अर्थात् पकड़ में न आवें तो राजा मित्र, रिश्तेदार और बान्धवों सहित उन चोरों को बलपूर्वक पकड़कर दण्डित करे॥२६९॥ 


प्रमाण मिलने पर ही दण्ड दे―


न होढेन विना चौरं घातयेद्धार्मिको नृपः।

सहोढं सोपकरणं घातयेदविचारयन्॥२७०॥ (१२८)


धार्मिक राजा चोरी का माल आदि प्रमाणों के बिना चोर को न मारे, किन्तु चोरी का माल, और सेंध मारने आदि के औजार आदि प्रमाण उपलब्ध होने पर अवश्य दण्डित करे॥२७०॥ 


चोरों के सहयोगियों को भी दण्ड दे―


ग्रामेष्वपि च ये केचिच्चौराणां भक्तदायकाः।

भाण्डावकाशदाश्चैव सर्वांस्तानपि घातयेत्॥२७१॥ (१२९)


और गांवों में भी जो कोई चोरों को भोजन देनेवाले, बर्तन, शरण और स्थान देने वाले हों राजा उन सबको भी दण्डित करे॥२७१॥ 


राष्ट्रेषु रक्षाधिकृतान्सामन्तांश्चैव चोदितान्।

अभ्याघातेषु मध्यस्थाञ्छिष्याच्चौरानिव द्रुतम्॥२७२॥ (१३०)


राजा राज्य में प्रजा की सेवा-सुरक्षा के लिए नियुक्त और सीमाओं पर नियुक्त राजपुरुषों को यदि आक्रमण, चोरी-तस्करी आदि अपराधों में संलिप्त पायें तो उनको भी चोर के समान ही शीघ्रतापूर्वक दण्ड दे। शीघ्रतापूर्वक इसलिए कहा है कि जिससे प्रजाओं के मन में राजपुरुष होने के कारण छूट जाने का संदेह न पनपे और चोरी, तस्करी पर शीघ्र नियन्त्रण हो सके।


सामूहिक हानि होने पर सहयोग न करने वाले को दण्ड―


ग्रामघाते हिताभङ्गे पथि मोषाभिदर्शने।

शक्तितो नाभिधावन्तो निर्वास्याः सपरिच्छदाः॥२७४॥ (१३१)


चोरों, लुटेरों आदि के द्वारा गांव को लूटने के मौके पर नदियों या बांधों के तोड़ने पर रास्ते में चोर आदि से मुकाबला होने पर यथाशक्ति दौड़कर, रक्षा या बचाव न करने वालों को गृहसामग्री सहित देश से निकाल देवे॥२७४॥


राज्ञः कोषापहर्तॄंश्च प्रतिकूलेषु च स्थितान्। 

घातयेद्विविधैर्दण्डैररीणां चोपजापकान्॥२७५॥ (१३२)


राजा के खजाने का धन को चुराने वाले और राज्य के विरोधी कार्यों में सलंग्न रहने वाले तथा शत्रुओं को भेद देने वाले, इन्हें राजा विविध प्रकार के दण्डों से दण्डित करे॥२७५॥


विभिन्न अपराधियों को दण्ड―


सन्धिं छित्त्वा तु ये चौर्यं रात्रौ कुर्वन्ति तस्कराः। 

तेषां छित्त्वा नृपो हस्तौ तीक्ष्णे शूले निवेशयेत्॥२७६॥ (१३३)


जो चोर-लुटेरे रात को सेंध लगाकर चोरी करते हैं राजा उनके दोनों हाथ काटकर तेज शूली पर चढ़ा दे॥२७६॥


अङ्गुलीर्ग्रन्थिभेदस्य छेदयेत्प्रथमे ग्रहे।

द्वितीये हस्तचरणौ तृतीये वधमर्हति॥२७७॥ (१३४)


राजा जेबकतरे आदि चोरों की पहली बार पकड़े जाने पर अंगुलियाँ कटवादे दूसरी बार पकड़े जाने पर हाथ-पैर कटवादे तीसरी बार पकड़े जाने पर वध करने योग्य है॥२७७॥


अग्निदान्भक्तदाँश्चैव तथा शस्त्रावकाशदान्।

संनिधातॄंश्च मोषस्य हन्याच्चौरमिवेश्वरः॥२७८॥ (१३५)


राजा चोरों को भोजन पकाने के लिए अग्नि, भोजन, शस्त्र, स्थान देने वाले और चोरी के माल को रखने वाले लोगों को भी चोर की तरह ही दण्डित करे॥२७८॥ 


तडागभेदकं हन्यादप्सु शुद्धवधेन वा।

यद्वाऽपि प्रतिसंस्कुर्याद् दाप्यस्तूत्तमसाहसम्॥२७९॥ (१३६) 


राजा प्रजा के लिए बने तालाब आदि को तोड़ने वालों का वध करे अथवा जल में डुबोकर या साधारण उपायों से मारे यदि दोषी तोड़े हुए को पुनः यथावत् ठीक करवा दे तो उसको 'उत्तम साहस' अर्थात् एक हजार पण का दण्ड करे॥२७९॥


यस्तु पूर्वनिविष्टस्य तडागस्योदकं हरेत्।

आगमं वाऽप्यपां भिद्यात्स दाप्यः पूर्वसाहसम्॥२८१॥ (१३७)


जो व्यक्ति किसी के द्वारा पहले बनाये गये तालाब का पानी चुराले अथवा जल आने का रास्ता तोड़ दे उसे 'पूर्वसाहस' अर्थात् २५० पण का दण्ड दे॥२८१॥ 


समुत्सृजेद्राजमार्गे यस्त्वमेध्यमनापदि।

स द्वौ कार्षापणौ दद्यादमेध्यं चाशु शोधयेत्॥२८२॥ (१३८)


जो व्यक्ति आपत्काल के बिना अर्थात् स्वस्थ अवस्था में सड़क पर, मुख्य मार्ग या गली में मल, मूत्र आदि करे तो उस पर दो 'कार्षापण' दण्ड करे और तुरन्त उस गन्दगी को साफ करवाये॥२८२॥


आपद्गतोऽथवा वृद्धो गर्भिणी बाल एव वा। परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः॥२८३॥ (१३९)


कोई रोगी या आपत्तिग्रस्त व्यक्ति वृद्ध, गर्भवती या बालक राजमार्ग को गन्दा करें तो उनको उसके न करने के लिए कहे या फटकार दे और उनसे उसकी सफाई कराले ऐसी शास्त्रमर्यादा है॥२८३॥ 


चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्या प्रचरतां दमः।

अमानुषेषु प्रथमो मानुषेषु तु मध्यमः॥२८४॥ (१४०)


सभी चिकित्सकों में पशुओं की गलत चिकित्सा करने वालों को 'प्रथम साहस' अर्थात् २५० पण का दण्ड करे और मनुष्यों की गलत चिकित्सा करने पर 'मध्यम साहस' अर्थात् ५०० पण का दण्ड करे॥२८४॥


संक्रमध्यवजयष्टीनां प्रतिमानां च भेदकः। 

प्रतिकुर्याच्च तत्सर्वं पञ्च दद्याच्छतानि च॥२८५॥ (१४१)


संक्रम अर्थात् रथ, उस रथ के ध्वजा की यष्टि जिसके ऊपर ध्वजा बांधी जाती है और प्रतिमा=छटांक आदिक बटखरे, जो इन तीनों को तोड़ डाले वा अधिक न्यून कर देवे उनको उससे राजा बनवा लेवे और जिसका जैसा ऐश्वर्य है, उसके योग्य दण्ड करे―जो दरिद्र होवे तो उससे पांच सौ पैसा राजा दण्ड लेवे; और जो कुछ धनाढ्य होवे तो पांच सौ रुपया उससे दण्ड लेवे; और जो बहुत धनाढ्य होवे उससे पांच सौ अशर्फी दण्ड लेवे॥२८५॥ 


अदूषितानां द्रव्याणां दूषणे भेदने तथा। 

मणीनामपवेधे च दण्डः प्रथमसाहसः॥२८६॥ (१४२)


अच्छी वस्तुओं में खराब वस्तुओं की मिलावट करके उन्हें दूषित करने पर तथा वस्तुओं को बिगाड़ने तोड़ने पर और मणि आदि रत्नों को अनुचित बेधने के अपराध में 'प्रथमसाहस' अर्थात् २५० पण का दण्ड दे॥२८६॥ 


समैर्हि च विषमं यस्तु चरेद्वा मूल्यतोऽपि वा।

समाप्नुयाद्दमं पूर्वं नरो मध्यममेव वा॥२८७॥ (१४३)


जो मनुष्य समानमूल्य वाली वस्तुओं के बदले अथवा सही मूल्य से कम वस्तु देने का अथवा अधिक मूल्य लेने का अनुचित व्यवहार करे, वह अपराधानुसार 'पूर्वसाहस' अर्थात् २५० पण या 'मध्यमसाहस' अर्थात् ५०० पण दण्ड का भागी होता है॥२८७॥


बन्धनानि च सर्वाणि राजा मार्गे निवेशयेत्। 

दुःखिता यत्र दृश्येरन् विकृताः पापकारिणः॥२८८॥ (१४४)


राजा कारागार आदि प्रधान मार्गों पर बनवावे जहां हथकड़ी, बेड़ी आदि से दुःखी हुए, बिगड़ी दशा वाले अपराधी लोग दिखाई देते रहें [जिससे कि उनको देखकर जनता के मन में अपराधों के प्रति भय उत्पन्न होता रहे]॥२८८॥


प्राकारस्य च भेत्तारं परिखाणां च पूरकम्।

द्वाराणां चैव भङ्क्तारं क्षिप्रमेव प्रवासयेत्॥२८९॥ (१४५)


राजा नगर के परकोटे को तोड़ने वाले और नगर के चारों ओर की खाई को नष्ट करने वाले तथा नगर-द्वारों को तोड़ने वाले व्यक्ति को तुरन्त देशनिकाला दे दे॥२८९॥


सात राजप्रकृतियाँ और उनका महत्त्व―


स्वाम्यमात्यौ पुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ सुहृत्तथा। 

सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते॥२९४॥ (१४६)


१. स्वामी, २. मन्त्री, ३. किला, ४. राष्ट्र, ५. कोश, ६. दण्ड व्यवस्था और, ७. मित्र ये सात राजप्रकृतियां राज्य के मूल अंग हैं इनसे मिलकर ही राज्य 'सप्ताङ्ग'=सात अङ्गों वाला कहलाता है॥२९४॥


सप्तानां प्रकृतीनां तु राज्यस्यासां यथाक्रमम्। 

पूर्वं पूर्वं गुरुतरं जानीयाद् व्यसनं महत्॥२९५॥ (१४७)


राज्य की इन सात प्रकृतियों में क्रमशः पहली-पहली प्रकृति-सम्बन्धी आपत्ति को बड़ी समझे [जैसे―राजा पर आई आपत्ति सबसे बड़ी होती है, उससे कम मन्त्री पर आपत्ति, उससे कम किले पर आदि]॥२९५॥ 


सप्ताङ्गस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। 

अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥२९६॥ (१४८)


इस तीन पायों वाली तिपाई के समान पूर्वोक्त सात प्रकृतिरूपी मूल अंगों पर स्थित इस राज्य में सभी अंगों के अपने-अपने गुणों की विशेषताओं से युक्त और परस्पर आश्रित होने के कारण कोई अंग किसी से गुण में विशिष्ट या कम नहीं है अर्थात् अपने-अपने प्रसंग में सभी का विशेष महत्त्व है॥२९६॥ 


तेषु तेषु तु कृत्येषु तत्तदङ्गं विशिष्यते। 

येन यत्साध्यते कार्यं तत्तस्मिन् श्रेष्ठमुच्यते॥२९७॥ (१४९)


यतो हि उन राज्य प्रकृतियों के अपने-अपने कार्यों में वही-वही प्रकृति-अंग विशेष है, और जो कार्य जिस प्रकृति से सिद्ध होता है उसमें वही प्रकृति श्रेष्ठ मानी गई है, अर्थात् समयानुसार सभी प्रकृतियों की महत्ता और श्रेष्ठता है, अतः किसी को कम महत्त्वपूर्ण समझकर उपेक्षणीय न समझें॥२९७॥ 


चारेणोत्साहयोगेन क्रिययैव च कर्मणाम्। 

स्वशक्तिं परशक्तिं च नित्यं विद्यान्महीपतिः॥२९८॥ (१५०)


राजा गुप्तचरों से सेना के उत्साह सम्बन्ध से और राज्यशक्ति-वर्धक नये-नये कार्यों के करने से अर्जित अपनी शक्ति और शत्रु की शक्ति की सदा जानकारी रखे और उसके अनुसार सन्धि, युद्ध आदि कार्य करे॥२९८॥


पीडनानि च सर्वाणि व्यसनानि तथैव च। 

आरभेत ततः कार्यं संचिन्त्य गुरुलाघवम्॥२९९॥ (१५१)


अपने तथा शत्रु के राज्य में आई सभी व्याधि, आपत्ति आदि पीड़ाओं को तथा व्यसनों के प्रसार को और बड़े-छोटे अर्थात् अपने और शत्रु राजा में कौन कम-अधिक शक्तिशाली है इन बातों पर विचार करके उसके पश्चात् राजा सन्धि-विग्रह आदि कार्य को प्रारम्भ करे॥२९९॥ 


आरभेतैव कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः। 

कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीर्निषेवते॥३००॥ (१५२)


बार-बार हारा-थका हुआ भी राजा राज्य के विकास कार्यों को फिर-फिर अवश्य आरम्भ करे क्योंकि कर्मों को पुनः-पुन: आरम्भ करने वाले पुरुष को ही विजयलक्ष्मी प्राप्त होती है॥३००॥


राजा के शासन में ही चार युग―


कृतं त्रेतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च। 

राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगमुच्यते॥३०१॥ (१५३)


कृतयुग, त्रेतायुग द्वापरयुग और कलियुग ये सब राजा के ही आचार-व्यवहार विशेष हैं अर्थात् राजा जैसा राज्य को बनाता है उस राज्य में वैसा ही युग बन जाता है वस्तुतः राजा ही 'युग' कहलाता है अर्थात् राजा ही युगनिर्माता है॥३०१॥


कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम्। 

कर्मस्वभ्युद्यतस्त्रेता विचरंस्तु कृतं युगम्॥३०२॥ (१५४)


जब राजा सोता है अर्थात् राज्य के पालन-संवर्धन कार्यों की उपेक्षा करता है तो वह 'कलियुग' होता है, जब वह जागता है अर्थात् राज्य कार्य को साधारणतः करता रहता है तो वह 'द्वापरयुग' है, और राज्य संवर्धन और प्रजा-हितकारी कार्यों में जब राजा सदा उचित उद्यत रहता है किन्तु यदि राज्यकार्य उस तत्परता से सम्पन्न नहीं होते तो वह 'त्रेतायुग' है, जब राजा सभी कर्त्तव्यों को उत्साह और तत्परतापूर्वक करे और अपनी प्रजा के दुःखों को जानने के लिए राज्य में तत्पर होते हुए उन्हें जानकर न्यायानुसार सुख प्रदान करने के लिए उद्यत रहे, राजा का यह सत्यगुण है॥३०२॥


राजा के आठ रूप―


इन्द्रस्यार्कस्य वायोश्च यमस्य वरुणस्य च। 

चन्द्रस्याग्नेः पृथिव्याश्च तेजोवृत्तं नृपश्चरेत्॥३०३॥ (१५५)


राजा इन्द्र, सूर्य, वायु, यम, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, पृथिवी इनके तेजस्वी स्वभाव के अनुसार ही आचरण-व्यवहार करे [द्रष्टव्य ७.४-७]॥३०३॥


राजा का इन्द्ररूप आचरण―


वार्षिकांश्चतुरो मासान् यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति। 

तथाऽभिवर्षेत्स्वं राष्ट्र कामैरिन्द्रव्रतं चरन्॥३०४॥ (१५६)


जैसे इन्द्र [=वृष्टिकारक शक्ति] प्रत्येक वर्ष के श्रावण आदि चार मासों में जल बरसाता है उसी प्रकार इन्द्र के व्रत को आचरण में लाता हुआ राजा अपने राष्ट्र की प्रजाओं की कामनाओं को पूर्ण करे, यही राजा का इन्द्रवत नामक आचरण है॥३०४॥ 


राजा का सूर्यरूप आचरण―


अष्टौ मासान् यथाऽऽदित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः। 

तथा हरेत् करं राष्ट्रान्नित्यमर्कव्रतं हि तत्॥३०५॥ (१५७)


जैसे सूर्य अपनी किरणों से आठ मास तक जलग्रहण करता है उसी प्रकार राजा राष्ट्र से अपने अधिकारियों के माध्यम से थोड़ा-थोड़ा कर ग्रहण करे यही राजा का 'अर्कव्रत' है॥३०५॥


राजा का वायुरूप आचरण―


प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः। 

तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम्॥३०६॥ (१५८)


जैसे वायु सब प्राणियों में प्रविष्ट होकर विचरण करता है उसी प्रकार राजा को अपनी तथा शत्रु की प्रजाओं में गुप्तचरों द्वारा सर्वत्र प्रवेश रख कर राज्य सम्बन्धी सभी गतिविधियों का ज्ञान करना चाहिए यही राजा का 'मारुतव्रत' है॥३०६॥ 


राजा का यमरूप आचरण―


यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति। 

तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद्धि यमव्रतम्॥३०७॥ (१५९)


जिस प्रकार यम=ईश्वर की नियामक शक्ति=कर्मफल का समय आने पर प्रिय और शत्रु सबको अपने वश में करके यथायोग्य दण्डित करता है राजा को उसी प्रकार अपराध करने पर प्रिय-शत्रु सभी प्रजाओं को न्यायपूर्वक पक्षपातरहित दण्ड देना चाहिए यही राजा का 'यमव्रत' है॥३०७॥ 


राजा का वरुणरूप आचरण―


वरुणेन यथा पाशैर्बद्ध एवाभिदृश्यते। 

तथा पापान्निगृह्णीयाद् व्रतमेतद्धि वारुणम्॥३०८॥ (१६०)


जिस प्रकार अपराधी मनुष्य वरुण के द्वारा पाशों से अर्थात् जलीय या समुद्र की तरंगों, भंवरोंरूपी बंधनों में फंसकर जैसे मनुष्य बंधा-जकड़ा हुआ दीखता है अर्थात् अवश्य जकड़ा जाता है उसी प्रकार राजा भी पापियों=अपराधियों को सुधारने तक साम-दाम भेद-दण्ड आदि से वश में करके रखे या बन्धन में=कारागार में डाले रखे यही राजा का 'वरुणवत' है॥३०८॥


राजा का चन्द्ररूप आचरण―


परिपूर्णं यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः। 

तथा प्रकृतयो यस्मिन्स चान्द्रव्रतिको नृपः॥३०९॥ (१६१)


जिस प्रकार पूर्ण प्रकाशित चन्द्रमा को देखकर मनुष्य प्रसन्न होते हैं उसी प्रकार जिस राजा को पाकर-देखकर, उस द्वारा प्रदत्त सुखों से प्रजाएं स्वयं को हर्षित अनुभव करें वह राजा का 'चन्द्रव्रत' है॥३०९॥


राजा का अग्निरूप आचरण―


प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात् पापकर्मसु ।

दुष्टसामन्तहिंस्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम्॥३१०॥ (१६२)


राजा पापियों में=पाप करने वालों के लिए सदैव संतापित करने वाला और तेज से प्रभावित कर भयभीत करने वाला होवे और दुष्ट मन्त्री, माण्डलिक राजा आदि को दण्डित करने वाला होवे यही राजा का 'आग्नेयव्रत' कहा है॥३१०॥ 


राजा का धरारूप आचरण―


यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम्। 

तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतम्॥३११॥ (१६३)


जिस प्रकार धरती सब प्राणियों को बिना किसी भेदभाव अर्थात् समानभाव से धारण करती है उसी प्रकार समान भाव से सभी प्राणियों का धारण-पोषण करने वाले राजा का समान व्यवहार होना समान व्यवहार रखना 'पार्थिव व्रत' होता है॥३११॥ 


एतैरुपायैरन्यैश्च युक्तो नित्यमतन्द्रितः।

स्तेनान् राजा निगृह्णीयात्स्वराष्ट्रे पर एव च॥३१२॥ (१६४)


राजा इन पूर्वोक्त उपायों तथा इनसे भिन्न जो और उत्तम उपाय हों उनसे युक्त होकर सदा आलस्यहीन रहता हुआ अपने राष्ट्र में रहने वाले और दूसरे राष्ट्र से आकर चोरी करने वाले चोरों-ठगों और लोक कण्टकों को वश में करे॥३१२॥


एवं चरन् सदा युक्तो राजधर्मेषु पार्थिवः।

हितेषु चैव लोकस्य सर्वान्भृत्यान्नियोजयेत्॥३२४॥ (१६५)


राजा पूर्वोक्त प्रकार के आचरण करता हुआ सदा राजधर्मों में स्वयं संलग्न रहे सभी राजकर्मचारियों को भी प्रजाओं के हित सम्पादन में लगाये रखे॥३२४॥


राजधर्म विषय की समाप्ति का संकेत―


एषोऽखिलः कर्मविधिरुक्तो राज्ञः सनातनः। 

इमं कर्मविधिं विद्यात्क्रमशो वैश्यशूद्रयोः॥३२५॥ (१६६)


यह राजा का सनातन और सम्पूर्ण कर्त्तव्य-विधान कहा अर्थात् शाश्वत और सम्पूर्ण राजनीति का विधान कहा। अब वैश्यों और शूद्रों की कर्त्तव्यों की विधि को इस आगे कहे अनुसार जानें―[उनका वर्णन अग्रिम दशम अध्याय में है]॥३२५॥


[नवम अध्याय के ३२६ से ३३६ श्लोक दशम अध्याय के अन्तर्गत देखिए] 


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ राजधर्मात्मकः नवमोऽध्यायः॥





अथ नवमोऽध्यायः


(हिन्दीभाष्य-'अनुशीलन'-समीक्षा सहित) 


(राजधर्मान्तर्गत व्यवहारनिर्णय)


(९.१ से ९.२५० तक)


(१६) स्त्री-पुरुष-धर्मसम्बन्धी विवाद और उसका निर्णय (९.१ से १०२ तक) 


पुरुषस्य स्त्रियाश्चैव धर्मे वर्त्मनि तिष्ठतोः। 

संयोगे विप्रयोगेच धर्मान् वक्ष्यामि शाश्वतान्॥१॥ (१)


[अब मैं] (धर्मे वर्त्मनि तिष्ठतोः) दाम्पत्य धर्म के मार्ग पर चलने वाले (स्त्रियाः च पुरुषस्य एव) स्त्री-पुरुष के (संयोग च विप्रयोगे) संयोगकालीन=साथ रहने तथा वियोगकालीन=अलग रहने के (शाश्वतान् धर्मान् वक्ष्यामि) सदैव पालन करने योग्य धर्मों=कर्त्तव्यों को कहूंगा―॥१॥ 


स्त्री के प्रति कर्त्तव्यपालन न करने वाले पिता, पति, पुत्र निन्दा के पात्र―


कालेऽदाता पिता वाच्यो वाच्यश्चानुपयन् पतिः। 

मृते भर्तरि पुत्रस्तु वाच्यो मातुररक्षिता॥४॥ (२)


(काले) विवाह की अवस्था होने पर (अदाता) कन्या को न देने वाला अर्थात् विवाह न करने वाला (पिता वाच्यः) पिता निन्दनीय और दोषी होता है (च) और (अनुपयन् पतिः) [विवाह-पश्चात् ऋतुदिनों के अनन्तर] संगम न करने वाला पति निन्दनीय और दोषी होता है (भर्तरि मृते) पति की मृत्यु होने के बाद (मातुः+अरक्षिता पुत्रः वाच्यः) माता की [भरण-पोषण, सेवा आदि से] रक्षा न करने वाला पुत्र निन्दनीय और दोषी होता है॥४॥ 


छोटे से कुसंग से भी स्त्रियों की रक्षा अवश्य करें―


सूक्ष्मेभ्योऽपि प्रसङ्गेभ्यः स्त्रियो रक्ष्या विशेषतः।

द्वयोर्हि कुलयोः शोकमावहेयुररक्षिताः॥५॥ (३)


(सूक्ष्मेभ्यः प्रसंगेभ्यः अपि) छोटे-छोटे कुसंग के अवसरों से भी (स्त्रियः विशेषतः रक्ष्याः) स्त्रियों की विशेषरूप से रक्षा करनी चाहिए (हि) क्योंकि (अरक्षिताः) अरक्षित स्त्रियां [उनके साथ घटित किसी भी अप्रिय घटना के कारण] (द्वयोः कुलयोः शोकम्+आवहेयुः) दोनों कुलों=पति तथा पिता दोनों के कुलों के शोकसंतप्त होने का कारण बन जाती हैं॥५॥


इमं हि सर्ववर्णानां पश्यन्तो धर्ममुत्तमम्। 

यतन्ते रक्षितुं भार्यां भर्तारो दुर्बला अपि॥६॥ (४)


(सर्ववर्णानाम् इमम् उत्तमं धर्मं पश्यन्तः) सब वर्णों के इस पूर्वोक्त धर्म को श्रेष्ठ समझते हुए (दुर्बलाः भर्तारः अपि) शरीर, धन या सामर्थ्य से दुर्बल पति भी (भार्यां रक्षितुं यतन्ते) अपनी पत्नी के सम्मान की और कुसंगों से उसकी रक्षा करने के लिए यत्नशील रहते हैं॥६॥


स्त्री पर ही परिवार की प्रतिष्ठा निर्भर―


स्वां प्रसूतिं चरित्रं च कुलमात्मानमेव च।

स्वं च धर्मं प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि रक्षति॥७॥ (५)


(प्रयत्नेन जायां रक्षन् हि) प्रयत्नपूर्वक अपनी स्त्री के सम्मान की और उसकी कुसंगति से रक्षा करता हुआ अर्थात् संरक्षण में रखता हुआ व्यक्ति ही (स्वां प्रसूतिम्) अपनी सन्तान (चरित्रम्) दम्पती का आचरण (कुलं च आत्मानम्+एव) कुल और अपनी (च) तथा (स्वं धर्मम्) अपने धर्म की (रक्षति) रक्षा करता है अर्थात् स्त्री के कुसंग में पड़ जाने से सब ही कुछ बिगड़ जाता है, क्योंकि स्त्री ही सुख और धर्म का आधार है [९.२८]॥७॥


जाया का लक्षण―


पतिर्भार्यां सम्प्रविश्य गर्भो भूत्वेह जायते। 

जायायास्तद्धि जायात्वं यदस्यां जायते पुनः॥८॥ (६)


(पतिः भार्यां संप्रविश्य) पति वीर्य=बीज रूप में स्त्री के गर्भाशय में प्रवेश करके (गर्भः भूत्वा+इह जायते) गर्भ बनकर फिर सन्तानरूप में संसार में उत्पन्न होता है (जायायाः तत्+हि जायात्वम्) स्त्री का यही जायापन=स्त्रीपन है (यत्) जो (अस्यां पुनः जायते) इस स्त्री में सन्तानरूप में पति पुनः उत्पन्न होता है अर्थात् सन्तान को उत्पन्न करने वाली होने के कारण ही स्त्री 'जाया' कहाती है।


जैसा पति वैसी सन्तान―


यादृशं भजते हि स्त्री सुतं सूते तथाविधम्। 

तस्मात् प्रजाविशुद्ध्यर्थं स्त्रियं रक्षेत् प्रयत्नतः॥९॥ (७)


(स्त्री यादृशं हि भजते) स्त्री जैसे पारिवारिक वातावरण या परिवेश में रहती है, और जैसा पति का व्यवहार होता है (तथाविधं सुतं सूते) उसी प्रकार के संस्कारों वाली सन्तान को उत्पन्न करती है। (तस्मात्) इसलिए (प्रजाविशुद्ध्यर्थम्) सन्तान की श्रेष्ठता की लिए (प्रयत्नतः स्त्रियं रक्षेत्) प्रयत्नपूर्वक स्त्री को कुसंग और अप्रिय वातावरण से बचाकर रखें॥९॥ 


स्त्रियों की रक्षा बलपूर्वक नहीं हो सकती―


न कश्चिद्योषितः शक्तः प्रसह्य परिरक्षितुम्। 

एतैरुपाययोगैस्तु शक्यास्ताः परिरक्षितुम्॥१०॥ (८)


(कश्चित्) कोई भी व्यक्ति (प्रसह्य) बलात् या दबाव के साथ (योषितः परिरक्षितुं न शक्तः) स्त्रियों की कुसंगों से रक्षा नहीं कर सकता (तु) किन्तु (एतैः+उपाययोगैः) इन आगे कहे उपायों में लगाने से (ताः परिरक्षितुं शक्याः) उनकी रक्षा की जा सकती है॥१०॥ 


स्त्रियों को गृह एवं धर्मकार्मों में व्यस्त रखें―


अर्थस्य संग्रहे चैनां व्यये चैव नियोजयेत्। 

शौचे धर्मेऽन्नपक्त्यां च परिणाह्यस्य वेक्षणे॥११॥ (९)


(एनाम्) अपनी स्त्री को (अर्थात् संग्रहे च व्यये) धन की संभाल और उसके व्यय की जिम्मेदारी में, (शौचे) घर एवं घर के पदार्थों की स्वच्छता-शुद्धि में, (धर्मे) धर्मसम्बन्धी [६.९३] अनुष्ठान=अग्निहोत्र, संध्या, स्वाध्याय आदि में, (अन्नपक्त्याम्) भोजन पकाने की व्यवस्था में, (च) और (परिणाह्यस्य वेक्षणे) घर की सभी वस्तुओं की देखभाल में (नियोजयेत्) नियुक्त करें अर्थात् उक्त कार्य पत्नी के अधिकार में रखें॥११॥


स्त्रियां आत्मनियन्त्रण से ही बुराइयों से बच सकती हैं―


अरक्षिता गृहे रुद्धाः पुरुषैराप्तकारिभिः।

आत्मानमात्मना यास्तु रक्षेयुस्ताः सुरक्षिताः॥१२॥ (१०)


क्योंकि (आप्तकारिभिः पुरुषैः) घनिष्ठ आज्ञाकर्ता पिता, माता, पति आदि द्वारा (गृहे रुद्धाः) घर में बलात् रोककर रखी हुई अर्थात् निगरानी में रखी जाती हुई स्त्रियां भी (असुरक्षिताः) असुरक्षित हैं=बुराइयों से बच नहीं पाती किन्तु (याः तु) जो तो (आत्मानम् आत्मना रक्षेयुः) अपनी रक्षा स्वयं अपने विवेक से करती हैं (ताः सुरक्षिताः) वस्तुतः वे ही गलत कार्यों में न पड़कर सुरक्षित रहती हैं॥१२॥ 


स्त्रियों के दूषण में छह कारण―


पानं दुर्जनसंसर्गः पत्या च विरहोऽटनम्।

स्वप्नोऽन्यगेहवासश्च नारीसंदूषणानि षट्॥१३॥ (११)


(पानम्) मदिरा, भांग आदि मादक पदार्थों का सेवन करना, (दुर्जनसंसर्गः) बुरे लोगों का संग करना, (पत्या विरहः) पति से लम्बे समय तक वियोग रहना (च) और (अटनम्) इधर-उधर व्यर्थ घूमते रहना, (अन्य गेहवासः च स्वप्नः) दूसरों के घर में अधिक निवास और रात्रि में शयन करना (नारी संदूषणानि षट्) नारी को पथभ्रष्ट करने वाले ये छह प्रमुख कारण या दुर्गुण हैं॥१३॥


सन्तानोत्पत्ति-सम्बन्धी धर्म―


एषोदिता लोकयात्रा नित्यं स्त्रीपुंसयोः शुभा। 

प्रेत्येह च सुखोदकर्कान् प्रजाधर्मान् निबोधत्॥२५॥ (१२)


(एषा) यह [९.१-१३] (स्त्रीपुसयोः नित्यं शुभा) स्त्री-पुरुषों के लिये सदा शुभ=कल्याणकारी (लोकयात्रा उदिता) परस्पर का लोकव्यवहार कहा, अब (प्रेत्य च इह सुखोदर्कान्) परजन्म और इस जन्म में परिणाम में सुखदायक (प्रजाधर्मान् निबोधत) सन्तानोत्पत्ति सम्बन्धी धर्मों को सुनो॥२५॥ 


स्त्रियाँ घर की लक्ष्मी हैं―


प्रजनार्थं महाभागाः पूजार्हा गृहदीप्तयः। 

स्त्रियः श्रियश्च गेहेषु न विशेषोऽस्ति कश्चन॥२६॥ (१३)


स्त्रियां (प्रजनार्थम्) सन्तान को उत्पन्न करके वंश को आगे बढ़ाने वाली हैं, (महाभागाः) स्वयं सौभाग्यशाली हैं और परिवार का भाग्योदय करने वाली हैं, (पूजार्हाः) वे पूजा अर्थात् सम्मान की अधिकारिणी हैं, (गृहदीप्तयः) प्रसन्नता और सुख से घर को प्रकाशित=प्रसन्न करने वाली हैं, यों समझिये कि (गेहेषु) घरों में (स्त्रियः च श्रियः कश्चन विशेषः न अस्ति) स्त्रियों और लक्ष्मी तथा शोभा में कोई विशेष अन्तर नहीं है अर्थात् स्त्रियां घर की लक्ष्मी और शोभा हैं॥२६॥


स्त्रियां लोकयात्रा का आधार है―


उत्पादनमपत्यस्य जातस्य परिपालनम्। 

प्रत्यहं लोकयात्रायाः प्रत्यक्षं स्त्री निबन्धनम्॥२७॥ (१४)


(अपत्यस्य उत्पादनम्) सन्तान को उत्पन्न करना, (जातस्य परिपालनम्) उत्पन्न सन्तान का पालन-पोषण करना और (प्रत्यहं लोकयात्रायाः) प्रतिदिन के लोकव्यवहार (जैसे गृहप्रबन्ध, अतिथि सेवा आदि) को सम्पन्न करना आदि कार्यों की (स्त्री प्रत्यक्षं निबन्धनम्) पत्नी ही मूल आधार है अर्थात् गृहस्थ आश्रम के सफल संचालन में पत्नी ही मुख्य कारण और संयोजिका है॥२७॥


घर का सुख स्त्री पर निर्भर है―


अपत्यं धर्मकार्याणि शुश्रूषा रतिरुत्तमा।

दाराधीनस्तथा स्वर्गः पितॄणामात्मनश्च ह॥२८॥ (१५)


(अपत्यम्) सन्तानोत्पत्ति करके वंश को चलाना (धर्मकार्याणि) पंच महायज्ञ आदि धार्मिक अनुष्ठानों को करना-कराना, (शुश्रूषा) परिजनों की सेवा-संभाल, (उत्तमा रतिः) रोग आदि रहित रति-सुख (आत्मनः च पितॄणां स्वर्गः) पति और उसके माता-पिता आदि पितृजनों का सुखमय जीवन (दारा+अधीनः ह) निश्चय से पत्नी के ही अधीन है, घर में पत्नी न हो तो उक्त सुख प्राप्त नहीं होते॥२८॥


पुत्र पर अधिकार के सम्बन्ध में आख्यान―


पुत्रं प्रत्युदितं सद्भिः पूर्वजैश्च महर्षिभिः।

विश्वजन्यमिमं पुण्यमुपन्यासं निबोधत॥३१॥ (१६)


(सद्भिः च पूर्वजैः महर्षिभिः) श्रेष्ठ तथा प्राचीन महर्षियों ने (पुत्रं प्रति) पुत्र के विषय में जो (विश्वजन्यं पुण्यम् उदितम्) सर्वजनहितकारी और पुण्यदायक विचार कहा है (इमम् उपन्यासं निबोधत) उस 'शिक्षाप्रद विचार' को सुनो―॥३१॥ 


पुत्र पर अधिकार-सम्बन्धी मतान्तर―


भर्तुः पुत्रं विजानन्ति श्रुतिद्वैधं तु भर्तरि।

आहुरुत्पादकं केचिदपरे क्षेत्रिणं विदुः॥३२॥ (१७)


विधान में ('भर्तुः पुत्रम्' विजानन्ति) 'स्त्री के पति का ही पुत्र होता है' ऐसा माना जाता है (भर्तरि तु श्रुतिद्वैधम्) किन्तु पति के विषय में ऋषियों के दो विचार हैं—(केचित् उत्पादकम् आहुः) कुछ लोग पुत्र उत्पन्न करने वाले का ही पुत्र पर कानूनी अधिकार है, यह कहते हैं (अपरे क्षेत्रिणं विदुः) दूसरे कुछ लोग क्षेत्र अर्थात् स्त्री के स्वामी को पुत्र का अधिकारी मानते हैं [चाहे उत्पादक कोई भी हो, जैसे दत्तक पुत्र, नियोगपुत्र आदि]॥३२॥ 


स्त्री-पुरुष की क्षेत्र और बीज रूप में तुलना―


क्षेत्रभूता स्मृता नारी बीजभूतः स्मृतः पुमान्। क्षेत्रबीजसमायोगात्सम्भवः सर्वदेहिनाम्॥३३॥ (१८)


(नारी क्षेत्रभूता स्मृता) स्त्री को भूमि या खेत के तुल्य माना है और (पुमान् बीजभूतः स्मृतः) पुरुष को बीज के तुल्य माना है (क्षेत्र-बीज-समायोगात्) भूमि और बीज अर्थात् स्त्री और पुरुष के बीज मिलने से (सर्वदेहिनां सम्भवः) सब प्राणियों की उत्पत्ति होती है॥३३॥


परस्त्री में पुत्रोत्पत्ति करने पर पुत्र पर स्त्री का या स्त्री-स्वामी का अधिकार―


येऽक्षेत्रिणो बीजवन्तः परक्षेत्रप्रवापिणः।

ते वै सस्यस्य जातस्य न लभन्ते फलं क्वचित्॥४९॥ (१९)


[९.३३ की व्यवस्था के क्रम में सामान्यतः] (ये+अक्षेत्रिणः बीजवन्तः) जो क्षेत्ररहित हैं, किन्तु बीज वाले हैं (परक्षेत्रप्रवापिणः) तथा दूसरे के क्षेत्र में अर्थात् परस्त्री में बीज को बोते हैं=सन्तान उत्पन्न करते हैं (ते) वे निश्चय से (क्वचित्) कहीं भी (जातस्य सस्यस्य फलं न लभन्ते) दूसरे के क्षेत्र में उत्पन्न हुए अन्न की तरह सन्तान आदि के फल को नहीं प्राप्त करते अर्थात् उस सन्तान पर उस स्त्री के पति का अधिकार होता है, बीज बोने वाले का नहीं॥४९॥ 


पुत्र पर स्त्री या स्त्री-स्वामी के अधिकार के कारण―


फलं त्वनभिसंधाय क्षेत्रिणां बीजिनां तथा।

प्रत्यक्षं क्षेत्रिणार्थो बीजाद्योनिर्गरीयसी॥५२॥ (२०)


क्योंकि (क्षेत्रिणां तथा बीजिनाम्) खेतवालों अर्थात् पर पुरुष से सन्तान उत्पन्न करने वाली स्त्रियों में और बीजवालों अर्थात् परक्षेत्र=परस्त्री में संतान उत्पन्न करने वाले पुरुषों में (फलं तु अनभिसंधाय) उससे होने वाली फल प्राप्ति के विषय में बिना कोई पूर्व निश्चय हुए 'कि इस क्षेत्र में उत्पन्न होने वाला अन्न, सन्तान आदि फल किसका होगा' बीज-वपन करने पर यह व्यवस्था है कि (प्रत्यक्षं क्षेत्रिणाम्+अर्थः) वह फल स्पष्टरूप से क्षेत्रस्वामी का होता है; अर्थात् वह सन्तान स्त्री की ही होती है, क्योंकि (बीजात् योनिः गरीयसी) ऐसी स्थिति में बीज से योनि अर्थात् जन्मदात्री स्त्री बलवती होती है॥५२॥ 


समझौतापूर्वक पुत्रोत्पत्ति में पुत्र पर स्त्री-पुरुष दोनों का समानाधिकार―


क्रियाऽभ्युपगमात्त्वेतद् बीजार्थं यत्प्रदीयते।

तस्येह भागिनौ दृष्टौ बीजी क्षेत्रिक एव च॥५३॥ (२१)


(यत्) परन्तु यदि (क्रिया+अभ्युपगमात्) परस्पर मिलकर यह समझौता करके कि इससे प्राप्त फल रूपी पुत्र 'अमुक का' या दोनों का होगा [जैसे कि नियोग में किया जाता है], इस समझौते के साथ (एतत् बीजार्थं प्रदीयते) जैसे खेत बीज बोने के लिये दिया जाता है ऐसे ही स्त्री यदि समझौते के साथ किसी के लिए सन्तान उत्पन्न करती है तो उस अवस्था में (इह तस्य) इस लोक में समझौते के अनुसार उसके (बीजी च क्षेत्रिकः+एव भागिनौ दृष्टौ) बीजवाला और खेतवाला दोनों ही पुत्ररूप फल के अधिकारी होते हैं॥५३॥


एतद्वः सारफल्गुत्वं बीजयोन्योः प्रकीर्तितम्। 

अतः परं प्रवक्ष्यामि योषितां धर्ममापदि॥५६॥ (२२)


(एतत्) [यह ९.३१-५३] (बीजयोन्योः सारफल्गुत्वम्) बीज और योनि की प्रधानता और अप्रधानता (वः प्रकीर्तितम्) तुमसे मैंने कही। (अतः परम्) इसके बाद अब मैं (आपदि योषितां धर्मम्) आपत्काल में अर्थात् सन्तानाभाव में स्त्रियों के धर्म कर्त्तव्य को (प्रवक्ष्यामि) कहूँगा―॥५६॥


बड़ी भाभी को गुरु-पत्नी के समान, छोटी को पुत्रवधू के समान माने―


भ्रातुर्ज्येष्ठस्य भार्या वा गुरुपत्न्यनुजस्य सा। 

यवीयसस्तु या भार्या स्नुषा ज्येष्ठस्य सा स्मृता॥५७॥ (२३)


(ज्येष्ठस्य भ्रातुः या भार्या) बड़े भाई की जो पत्नी होती है (सा अनुजस्य गुरुपत्नी) वह छोटे भाई के लिए गुरुपत्नी के समान होती है (तु) किन्तु) (या यवीयसः भार्या) जो छोटे भाई की पत्नी है (सा ज्येष्ठस्य स्नुषा) वह बड़े भाई के लिए पुत्रवधू के समान (स्मृता) कही गयी है, अर्थात् भाई को भाई की पत्नी में उक्त प्रकार की पवित्र भावना से पारस्परिक व्यवहार करना चाहिए॥५७॥ 


उनके साथ गमन में पाप―


ज्येष्ठो यवीयसो भार्यां यवीयान् वाग्रजस्त्रियम्। 

पतितौ भवतो गत्वा नियुक्तावप्यनापदि॥५८॥ (२४)


(ज्येष्ठः यवीयसः भार्याम्) बड़ा भाई छोटे भाई की स्त्री के साथ और (यवीयान्+अग्रज-स्त्रियम्) छोटा भाई बड़े भाई की स्त्री के साथ (अनापदि) आपत्तिकाल [=सन्तानाभाव] के बिना (नियुक्तौ+अपि गत्वा) नियोग-विधिपूर्वक भी यदि संभोग करें तो वे (पतितौ भवतः) पतित=अपराधी माने गये हैं॥५८॥


सन्तानाभाव में नियोग से सन्तानप्राप्ति―


देवराद् वा सपिण्डाद् वा स्त्रिया सम्यङ्नियुक्तया।

प्रजेप्सिताधिगन्तव्या सन्तानस्य परिक्षये॥५९॥ (२५)


(सन्तानस्य परिक्षये) पति से सन्तान न होने पर, सन्तानरहित अवस्था में पति की मृत्यु होने पर अथवा किसी भी कारण से सन्तान का अभाव होने पर (सम्यक् नियुक्तया स्त्रिया) परिजनों के द्वारा शास्त्रोक्त विधि से [परिवार और समाज में विवाहवत् प्रसिद्धिपूर्वक] नियोग के लिए नियुक्त स्त्री को (देवरात् वा सपिंडात् वा) देवर=वर्णस्थ या अपने से उत्तम वर्णस्थ पुरुष से अथवा पति की छ: पीढ़ियों में पति के छोटे या बड़े भाई से (ईप्सिता प्रजा अधिगन्तव्या) इच्छित सन्तान प्राप्त कर लेनी चाहिए अर्थात् जितनी सन्तान अभीष्ट हो उतनी प्राप्त कर ले॥५९॥


नियोग से पुत्र-प्राप्ति के बाद शरीर-सम्बन्ध अपराध है―


विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु यथाविधि।

गुरुवच्च स्नुषावच्च वर्तेयातां परस्परम्॥६२॥ (२६)


(यथाविधि) विधि अनुसार (विधवायां नियोगार्थे निर्वृत्ते तु) विधवा में नियोग का उद्देश्य पूर्ण हो जाने के बाद (गुरुवत् च स्नुषावत् च परस्परं वर्तेयाताम्) बड़े भाई तथा छोटे भाई की स्त्री से क्रमशः गुरुपत्नी तथा पुत्रवधू के समान [९.५७] परस्पर बर्ताव करें॥६२॥


नियुक्तौ यो विधिं हित्वा वर्तेयातां तु कामतः। 

तावुभौ पतितौ स्यातां स्नुषाग-गुरुतल्पगौ॥६३॥ (२७)


(नियुक्तौ यौ) नियोग के लिए नियुक्त बड़ा या छोटा भाई यदि (विधिं हित्वा) नियोग की विधि=व्यवस्था [समाज या परिवार में किये गये पूर्व निश्चयों को छोड़कर (कामतः वर्तेयाताम्) काम के वशीभूत होकर संभोगादि करें (तु) तो (तौ+उभौ) वे दोनों (स्नुषाग-गुरुतल्पगौ पतितौ स्याताम्) पुत्रवधूगमन और गुरुपत्नीगमन दोष के अपराधी माने जायेंगे [९.५८]॥६३॥ 


सगाई के बाद पति की मृत्यु होने पर अन्य विवाह का विधान―


यस्या म्रियेत कन्याया वाचा सत्ये कृते पतिः। 

तामनेन विधानेन निजो विन्देत देवरः॥६९॥ (२८)


(वाचा सत्ये कृते) वाग्दान=सगाई निश्चित करने के बाद [और विवाह से पूर्व] (यस्याः कन्यायाः पतिः म्रियेत) जिस कन्या का पति मर जाये (ताम्) उस कन्या को (निजः देवरः) पति का छोटा भाई अथवा दूसरा पति (अनेन विधानेन विन्देत) पूर्ववर्णित विवाह के विधान के अनुसार [३.२७-३०] प्राप्त कर ले॥६९॥


स्त्री को जीविका देकर पुरुष प्रवास में जाये―


विधाय वृत्तिं भार्यायाः प्रवसेत् कार्यवान्नरः।

अवृत्तिकर्षिता हि स्त्री प्रदुष्येत् स्थितिमत्यपि॥७४॥ (२९)


(कार्यवान् नरः) किसी आवश्यक कार्य के लिए परदेश में जाने वाला मनुष्य (भार्यायाः वृत्तिं विधाय प्रवसेत्) अपनी पत्नी के भरण-पोषण की जीविका का प्रबन्ध करके परदेश में जाये (हि) क्योंकि (अवृत्तिकर्षिता स्थितिमती+अपि स्त्री) जीविका के अभाव से पीड़ित होकर शुद्ध आचरण वाली स्त्री भी (प्रदुष्येत्) दूषित=पथभ्रष्ट हो सकती है॥७४॥ 


विधाय प्रोषिते वृत्तिं जीवेन्नियममास्थिता। 

प्रोषिते त्वविधायैव जीवेच्छिल्पैरगर्हितैः॥७५॥ (३०)


(वृत्तिं विधाय प्रोषिते) जीविका का प्रबन्ध करके पति के परदेश जाने पर (नियमम्+आस्थिता जीवेत्) पत्नी अपने पातिव्रत्य नियमों का पालन करती हुई जीवनयात्रा चलाये (अविधाय+एव तु प्रोषिते) यदि किसी आपात् स्थिति में पति बिना जीविका का प्रबन्ध किये परदेश चला जाये तो (अगर्हितैः शिल्पैः जीवेत्) अनिन्दित शिल्पकार्यों [सिलाई करना, बुनना, कातना आदि] को करके अपनी जीवनयात्रा चलाये॥७५॥


पति की प्रतीक्षा की अवधि और उसके पश्चात् नियोग अथवा पुनर्विवाह―


प्रोषितो धर्मकार्यार्थं प्रतीक्ष्योऽष्टौ नरः समाः। 

विद्यार्थं षट् यशोऽर्थं वा कामार्थं त्रींस्तु वत्सरान्॥७६॥ (३१)


पत्नी (धर्मकार्यार्थं प्रोषितः नरः) किसी धर्मसम्बन्धी कार्य के लिए परदेश गये हुए पति की (अष्टौ समाः प्रतीक्ष्यः) आठ वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, (विद्यार्थं षट्) विद्या प्राप्ति के लिए गये हुए की छह वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, (वा यशः+अर्थम्) और यश प्राप्ति के लिये गये हुए की भी छह वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, (कामार्थं तु त्रीन् वत्सरान्) धनप्राप्ति आदि कामनाओं की प्राप्ति के लिए परदेश गये हुए पति की तीन वर्ष तक आने की प्रतीक्षा करे, [इसके पश्चात् पुनर्विवाह कर ले। अर्थान्तर में, २. इसके पश्चात नियोग से सन्तानोत्पत्ति कर ले, अथवा ३. इसके पश्चात् पत्नी पति के पास चली जाये]॥७६॥


संवत्सरं प्रतीक्षेत द्विषन्तीं योषितं पतिः।

ऊर्ध्वं संवत्सरात्त्वेनां दायं हृत्वा न संवसेत्॥७७॥ (३२)


(पतिः द्विषन्तीं योषितं) पति अपने से द्वेष करने वाली पत्नी की (संवत्सरं प्रतीक्षेत) एक वर्ष तक [सुधरने की] प्रतीक्षा करे (संवत्सरात् ऊर्ध्वं तु+एनाम्) एक वर्ष तक न सुधरे तो उसके पश्चात् इसको (दायं हृत्वा) अपने दिये धन, आभूषण आदि वापस लेकर (न संवसेत्) उसे अपने पास न रखे अर्थात् त्याग दे॥७७॥ 


अतिक्रामेत् प्रमत्तं या मत्तं रोगार्तमेव वा।

सा त्रीन्मासान् परित्याज्या विभूषणपरिच्छदा॥७८॥ (३३)


(या) जो पत्नी (प्रमत्तं मत्तं वा रोगार्तम्+एव अतिक्रामेत्) प्रमाद से कोई हानि होने पर, विक्षिप्त अथवा रोगपीड़ित होने पर अपने पति की अवहेलना करे (सा) उसे (विभूषणपरिच्छदा) अपने दिये आभूषण, वस्त्र आदि लेकर (त्रीन् मासान् परित्याज्या) तीन मास तक छोड़ देवे॥७८॥ 


उन्मत्तं पतितं क्लीबमबीजं पापरोगिणम्।

न त्यागोऽस्ति द्विषन्त्याश्च न च दायापवर्तनम्॥७९॥ (३४)


(उन्मत्तं पतितं क्लीबम्+अबीजं पापरोगिणं द्विषन्त्याः) स्थायी पागल, अपराध के कारण पतित, नपुंसक, निर्बीज वीर्य वाले, पापरोगी=घृणित असाध्य रोग से पीड़ित पति की उपेक्षा करने वाली पत्नी को त्यागः न अस्ति) नहीं छोड़ा जा सकता (च) और (न दाय+अपवर्तनम्) न उससे दिया हुआ धन आदि छीना जा सकता है॥७९॥


मद्यपाऽसाधुवृत्ता च प्रतिकूला च या भवेत्। 

व्याधिता वाऽधिवेत्तव्या हिंस्रर्थघ्नी च सर्वथा॥८०॥ (३५)


(या) जो पत्नी (मद्यपा) शराब पीने वाली, (असाधुवृत्ता) दुराचरण वाली, (प्रतिकूला) पति के प्रतिकूल आचरण करने वाली, (व्याधिता) संक्रामक स्थायी व्याधिग्रस्त, (हिंस्रा) पति आदि को मारने वाली, (च) और (सर्वदा अर्थघ्नी) सदा धन को नष्ट करने वाली (भवेत्) हो तो (अधिवेत्तव्या) उसे छोड़कर दूसरा विवाह कर लेना चाहिए॥८०॥ 


पुरुष दूसरी स्त्री से सन्तानप्राप्ति करे―


वन्ध्याष्टमेऽधिवेद्याब्दे दशमे तु मृतप्रजा।

एकादशे स्त्रीजननी सद्यस्त्वप्रियवादिनी॥८१॥ (३६)


(वन्ध्या+अष्टमे अब्दे) यदि पत्नी वन्ध्या हो तो आठवें वर्ष में, (मृतप्रजाः तु दशमे) यदि मृत सन्तान उत्पन्न होती है अथवा हो कर मर जाती हो तो दसवें वर्ष में, (स्त्रीजननी एकादशे) केवल कन्याएं ही उत्पन्न होती हों तो ग्यारहवें वर्ष में, (अप्रियवादिनी तु सद्यः) यदि अप्रिय बोलने वाली हो तो यथाशीघ्र उसे त्यागकर (अधिवेद्या) पति दूसरा विवाह कर ले। [पहली पत्नी का साथ रहना-न रहना दोनों की सहमति पर निर्भर है]॥८१॥


या रोगिणी स्यात्तु हिता सम्पन्ना चैव शीलतः। 

सानुज्ञाप्याधिवेत्तव्या नावमान्या च कर्हिचित्॥८२॥ (३७)


(या रोगिणी स्यात्) जो स्त्री स्थायी रोगिणी हो (तु) किन्तु (हिता च शीलतः सम्पन्नाः) पति की हितैषिणी और सुशील आचरण वाली हो (सा+अनुज्ञाप्य+अधिवेत्तव्या) पति उससे अनुमति लेकर दूसरा विवाह कर ले (च) और (कर्हिचित् न+अवमान्या) उसकी कभी अवमानना न करे॥८२॥ 


अधिविन्ना तु या नारी निर्गच्छेद्रुषिता गृहात्। 

सा सद्यः संनिरोद्धव्या त्याज्या वा कुलसन्निधौ॥८३॥ (३८)


(अधिविन्ना तु या नारी) [पूर्ववर्णित ९.८०-८१ अवस्था में] दूसरा विवाह करने पर जो स्त्री (रुषिता गृहात् निर्गच्छेत्) क्रोध में आकर घर से निकल जाये (सा सद्यः संनिरोद्धव्या) उसको तुरन्त रोककर रखे (वा) अथवा (कुलसन्निधौ त्याज्या) उसके परिवार वालों के पास छोड़ आये॥८३॥ 


प्रतिषिद्धापि चेद्या तु मद्यमभ्युदयेष्वपि। 

प्रेक्षासमाजं गच्छेद्वा सा दण्ड्या कृष्णलानि षट्॥८४॥ (३९)


(या तु) जो स्त्री (प्रतिषिद्धा+अपि) पति के द्वारा निषेध करने पर भी (अभ्युदयेषु मद्यम् अपि) प्रसन्नता के आयोजनों, उत्सवों में मद्यपान करे (वा) अथवा (प्रेक्षासमाजं गच्छेत्) सार्वजनिक नाचने-गाने आदि की जगह जाये (सा षट् कृष्णलानि दण्ड्या) उसे छह कृष्णल [८.१३४] सुवर्ण से राजा दण्डित करे॥८४॥


उत्तम वर मिलने पर कन्या का विवाह शीघ्र कर दें―


उत्कृष्टायाभिरूपाय वराय सदृशाय च। 

अप्राप्तामपि तां तस्मै कन्यां दद्याद्यथाविधि॥८८॥ (४०)


(उत्कृष्टाय-अभिरूपाय च सदृशाय वराय) यदि कुल-आचार आदि की दृष्टि से उत्तम, सुन्दर और कन्या के योग्य गुण वाला वर मिल गया हो तो (तस्मै) उसको (अप्राप्ताम्+अपि तां कन्याम्) विवाह योग्य सोलह वर्ष की अवस्था पूर्ण होने में यदि कुछ कमी भी हो तो उस कन्या को (यथाविधि दद्यात्) विवाह विधि के अनुसार विवाहित कर दे। [यह केवल अपवाद विधि है ९.८९ के संदर्भ में]॥८८॥


काममामरणात्तिष्ठेद् गृहे कन्यर्तुमत्यपि। 

न चैवैनां प्रयच्छेत्तु गुणहीनाय कर्हिचित्॥८९॥ (४१)


गुणहीन पुरुष से विवाह न करें―


(कामम्) भले ही (कन्या) (आमरणात्) मरणपर्यन्त (गृहे) पिता के घर में (तिष्ठेत्) बिना विवाह के बैठी भी रहे (तु) परन्तु (गुणहीनाय) गुणहीन पुरुष के साथ (एनां कर्हिचित् न प्रयच्छेत्) अपनी कन्या का विवाह कभी न कन्या करे॥८९॥


कन्या स्वयंवर विवाह करे―


त्रीणि वर्षाण्युदीक्षेत कुमार्यृतुमती सती। 

ऊर्ध्वं तु कालादेतस्माद् विन्देत सदृशं पतिम्॥९०॥ (४२)


(कुमारी) कन्या (ऋतुमती सती) रजस्वला हो जाने पर (एतस्मात् कालात्+ऊर्ध्वम्) इस समय के बाद (त्रीणि वर्षाणि+उदीक्षेत) तीन वर्षों तक विवाह की प्रतीक्षा करे, तदनन्तर (सदृशं पतिं विन्देत) अपने योग्य पति का वरण करे॥९०॥


स्वयंवर विवाह में दोष नहीं―


अदीयमाना भर्तारमधिगच्छेद् यदि स्वयम्। 

नैनः किञ्चिदवाप्नोति न च यं साऽधिगच्छति॥९१॥ (४३)


(अदीयमाना) पिता आदि अभिभावक के द्वारा विवाह न करने पर (यदि स्वयं भर्तारम्+अधिगच्छेत्) जो कन्या यदि स्वयं पति का वरण कर ले तो (किंचित् एनः न अवाप्नोति) वह कन्या किसी पाप-अपराध की भागी नहीं होती (च) और (न सा यम् अधिगच्छति) न उसे कोई पाप=दोष या अपराध होता है जिस पति को यह वरण करती है॥९१॥ 


स्त्री पुरुष की अर्द्धांगिनी―


प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः सन्तानार्थं च मानवाः। 

तस्मात् साधारणो धर्मः श्रुतौ पत्न्या सहोदितः॥९६॥ (४४)


(प्रजनार्थं स्त्रियः सृष्टाः) गर्भधारण करके सन्तानों की उत्पत्ति करने के लिए स्त्रियों की रचना हुई है (च) और (सन्तानार्थं मानवाः) गर्भाधान करने के लिए पुरुषों की रचना हुई है [दोनों एक दूसरे के पूरक होने के कारण] (तस्मात्) इसलिए (श्रुतौ) वेदों में (साधारणः धर्मः) साथ मिलकर विहित साधारण अनुष्ठान और पंचयज्ञ आदि धर्मकार्य के अनुष्ठान के (पत्न्या सह+उदितः) पत्नी के साथ करने का विधान किया है॥९६॥


पति-पत्नी पारस्परिक मर्यादा का अतिक्रमण न करें―


अन्योन्यस्याव्यभिचारो भवेदामरणान्तिकः।

एष धर्मः समासेन ज्ञेयः स्त्रीपुंसयोः परः॥१०१॥ (४५)


(आमरणान्तिकः) मरणपर्यन्त (अन्योन्यस्य+अव्यभिचारः भवेत्) पति-पत्नी में परस्पर किसी भी प्रकार की मर्यादा का उल्लंघन न होने पाये (स्त्रीपुंसयोः) पति-पत्नी का (समासेन) संक्षेप में (एषः परः धर्मः ज्ञेयः) यही साररूप मुख्य धर्म है॥१०१॥ 


पति-पत्नी बिछुड़ने के अवसर न आने दें―


तथा नित्यं यतेयातां स्त्रीपुंसौ तु कृतक्रियौ।

यथा नाभिचरेतां तौ वियुक्तावितरेतरम्॥१०२॥ (४६)


(कृतक्रियौ स्त्रीपुंसौ) विवाहित स्त्री-पुरुष (यथा) जिस प्रकार से कि (तौ) वे (इतरेतरम्) एक-दूसरे से (वियुक्तौ न+अभिचरेताम्) मतभेद न हो और अगल न हों=वैवाहिक सम्बन्धविच्छेद न हो पाये (तथा नित्यं यतेयाताम्) वैसा उपाय करने का सदा प्रयत्न रखें॥१०२॥


(१७) दायभाग विवाद-वर्णन 

[९.१०३-२१९]


एष स्त्रीपुंसयोरुक्तो धर्मो वो रतिसंहितः। आपद्यपत्यप्राप्तिश्च दायभागं निबोधत॥१०३॥ (४७)


(एषः) यह [९.१ से १०२ पर्यन्त] (स्त्रीपुंसयोः) स्त्री-पुरुष के (रति-संहितः धर्मः) रति= स्नेह या संयोग सहित [वियोगकाल के भी] धर्म (च) और (आपदि+अपत्यप्राप्तिः) आपत्काल में नियोगविधि से सन्तान-प्राप्ति [९.५६-६३] की बात (वः उक्तः) तुमसे कही। (दायभागं निबोधत) अब दायभाग का विधान सुनो—॥१०३॥ 


अलग होते समय दायभाग का बराबर विभाजन―


ऊर्ध्वं पितुश्च मातुश्च समेत्य भ्रातरः समम्। 

भजेरन् पैतृकं रिक्थ्मनीशास्ते हि जीवतोः॥१०४॥ (४८)


(पितुः च मातुः ऊर्ध्वम्) पिता और माता के मरने के पश्चात् (भ्रातरः समेत्य) सब भाई एकत्रित होकर (पैतृकं रिक्थं समं भजेरन्) पैतृक सम्पत्ति को बराबर-बराबर बांट लें (जीवतोः ते हि अनीशाः) माता-पिता के जीवित रहते हुए वे उनके धन के स्वामी नहीं हो सकते हैं॥१०४॥ 


सम्मिलित रहने पर विभाजन का दूसरा विकल्प―


ज्येष्ठ एव तु गृह्णीयात् पित्र्यं धनमशेषतः।

शेषास्तमुपजीवेयुर्यथैव पितरं तथा॥१०५॥ (४९)


[अथवा सम्मिलित रूप में रहना हो तो] (पित्र्यं धनम्+अशेषतः ज्येष्ठः एव तु गृह्णीयात्) पिता के सारे धन को बड़ा पुत्र ही ग्रहण कर ले (शेषाः) और बाकी सब भाई (यथा+एव पितरम्) जैसे पिता के साथ रहते थे (तथा तम्+उपजीवेयुः) उसी प्रकार बड़े भाई के साथ रहकर जीवन चलावें॥१०५॥


बड़े भाई का छोटों के प्रति कर्त्तव्य―


पितेव पालयेत् पुत्रान्-ज्येष्ठो भ्रातॄन् यवीयसः। पुत्रवच्चापि वर्तेरन्-ज्येष्ठे भ्रातरि धर्मतः॥१०८॥ (५०)


[ज्येष्ठ पुत्र के साथ ९.१०५ के अनुसार सम्मिलित रहते हुए] (ज्येष्ठः) बड़ा भाई (यवीयसः भ्रातॄन्) अपने छोटे भाइयों को (पिता+इव पुत्रान्) जैसे पिता अपने पुत्रों का पालन-पोषण करता है ऐसे (पालयेत्) पाले (च) और (ज्येष्ठे भ्रातरि) छोटे भाई बड़े भाई में (धर्मतः) धर्म से=कर्त्तव्य के अनुसार (पुत्रवत्+अपि वर्तेरन्) पुत्र के अनुसार बर्ताव करें अर्थात् उसे पिता के समान मानें॥१०८॥


छोटों का बड़े भाई के प्रति कर्त्तव्य―


यो ज्येष्ठो ज्येष्ठवृत्तिः स्यान्मातेव स पितेव सः।

अज्येष्ठवृत्तिर्यस्तु स्यात् सः सम्पूज्यस्तु बन्धुवत्॥११०॥ (५१)


किन्तु (यः ज्येष्ठः) जो बड़ा भाई (ज्येष्ठवृत्तिः स्यात्) बड़ों अर्थात् पिता आदि के समान छोटे भाइयों का पालन-पोषण करने वाला हो तो (सः पिता+इव, सः माता+इव संपूज्यः) वह पिता और माता के समान माननीय है (यः तु) और जो (अज्येष्ठवृत्तिः स्यात्) बड़ों अर्थात् पिता आदि के समान पालन-पोषण करने वाला न हो तो (सः तु बन्धुवत्) वह केवल भाई या मित्र की तरह ही मानने योग्य होता है॥११०॥ 


एवं सह वसेयुर्वा पृथग् वा धर्मकाम्यया। 

पृथग् विवर्धते धर्मस्तस्माद्धर्म्या पृथक् क्रिया॥१११॥ (५२)


(एवम्) इस प्रकार (सह वसेयुः) सब भाई साथ मिलकर [८.१०५, १०८, ११०] रहें (वा) अथवा (धर्म-काम्यया) गृहस्थ धर्म के पालन की कामना से (पृथक्) अलग-अलग [९.१०४] रहें। (पृथक् धर्मः विवर्धते) क्योंकि पृथक-पृथक् रहने से धर्म का [सबके द्वारा अलग-अलग पञ्चमहायज्ञ आदि करने के कारण] विस्तार होता है (तस्मात्) इस कारण (पृथक् क्रिया धर्म्या) पृथक् रहना भी धर्मानुकूल है॥१११॥


इकट्ठे रहकर अलग होने पर 'उद्धार' अंश का विभाजन―


ज्येष्ठस्य विंश उद्धारः सर्वद्रव्याच्च यद्वरम्।

ततोऽर्धं मध्यमस्य स्यात्तुरीयं तु यवीयसः॥११२॥ (५३)


[सम्मिलित रहते हुए अगर बड़े भाई छोटों का पालन-पोषण करें तो उसके बाद अलग होते हुए] (ज्येष्ठस्य विंशः उद्धारः) पिता के धन में से बड़े भाई का बीसवां भाग 'उद्धार' [ =अतिरिक्त भागविशेष होता है] (च) और (सर्वद्रव्यात् यत् वरम्) सब पदार्थों में से जो सबसे श्रेष्ठ पदार्थ हो वह भी (ततः+अर्धम्) बड़े के 'उद्धार' से आधा उद्धार (मध्यमस्य) मझले भाई का अर्थात् चालीसवां भाग (तुरीयं तु यवीयसः स्यात्) चौथाई भाग अर्थात् अस्सीवां भाग सबसे छोटे भाई का 'उद्धार' होना चाहिए॥११२॥


एवं समुद्धृतोद्धारे समानंशान् प्रकल्पयेत्।

उद्धारेऽनुद्धृते त्वेषामियं स्यादंशकल्पना॥११६॥ (५४)


(एवम् समुद्धृत+उद्धारे) इस प्रकार [९.११२ के अनुसार] 'उद्धार' [=अतिरिक्त धनविशेष] के निकालने के बाद (समान्-अंशान् प्रकल्पयेत्) शेष धन को समान भागों में बांट लें (तु उद्धारे+अनुद्धृते) यदि 'उद्धार' पृथक् से नहीं निकालें तो (एषाम् अंशकल्पना इयं स्यात्) उन भाइयों के भाग का बंटवारा इस प्रकार करे॥११६॥ 


एकाधिकं हरेज्ज्येष्ठः पुत्रोऽध्यर्धं ततोऽनुजः।

अंशमंशं यवीयांस इति धर्मो व्यवस्थितः॥११७॥ (५५)


(ज्येष्ठः पुत्रः एक-अधिकं हरेत्) बड़ा पुत्र अथवा बड़ा भाई ‘एक अधिक' अर्थात् दो भाग धन ग्रहण करे (तत्+अनुजः पुत्रः अध्यर्धम्) उससे छोटा भाई अर्थात् डेढ़ भाग ले (यवीयांसः अंशम्+अशंम्) छोटे भाई एक-एक भाग सम्पत्ति का ग्रहण करें (इति धर्म: व्यवस्थितः) यही दायभाग विभाजन के धर्म की व्यवस्था है॥११७॥


स्वेभ्योंऽशेभ्यस्तु कन्याभ्यः प्रदद्युर्भ्रातरः पृथक्। स्वात्स्वादंशाच्चतुर्भागं पतिताः स्युरदित्सवः॥११८॥ (५६)


(भ्रातरः) सब भाई (कन्याभ्यः) अविवाहित बहनों के लिए पृथक् (चतुर्भागम्) पृथक्-पृथक् चतुर्थांश भाग (स्वेभ्यः प्रदधुः) अपने भागों से देवें (स्वात् स्वात्+अंशात् अदित्सवः) अपने-अपने भाग से चतुर्थांश भाग न देने वाले भाई (पतिताः स्युः) पतित=दोषी और निन्दनीय माने जायेंगे॥११८॥ 


अजाविकं सैकशफं न जातु विषमं भजेत्। 

अजाविकं तु विषमं ज्येष्ठस्यैव विधीयते॥११९॥ (५७)


(अजा+अविकं स+एकशफं विषमम्) बकरी, भेड़, एक खुरवाली घोड़ी आदि पशुओं के विषम होने पर (न जातु भजेत्) उन्हें [बेचकर धनराशि के रूप में] विभाजित न करें (विषमम् अजाविकं तु) विषम रूप में बचे बकरी-भेड़ आदि पशु (ज्येष्ठस्य+एव विधीयते) बड़े भाई को ही प्राप्त होते हैं॥११९॥ 


नियोग से उत्पन्न सन्तानों की पत्नियों के अनुसार दायव्यवस्था―


यवीयान्-ज्येष्ठभार्यायां पुत्रमुत्पादयेद्यदि। 

समस्तत्र विभागः स्यादिति धर्मो व्यवस्थितः॥१२०॥ (५८)


(यदि यवीयान्) यदि छोटा भाई (ज्येष्ठ-भार्यायां पुत्रम्+उत्पादयेत्) बड़े भाई की स्त्री में 'नियोग' [९.५८-६२] से पुत्र उत्पन्न करे तो (तत्र) उस स्थिति में (समः विभागः स्यात्) उस पुत्र को अपने चाचा आदि के समान पिता का भाग प्राप्त होगा अर्थात् वह अपने असली पिता के सम्पूर्ण भाग का अधिकारी होगा किन्तु उद्धार भाग [९.११२-११४] का नहीं (इति धर्मः व्यवस्थितः) ऐसी धर्म की व्यवस्था है॥१२०॥ 


उपसर्जनं प्रधानस्य धर्मतो नोपपद्यते। 

पिता प्रधानं प्रजने तस्माद्धर्मेण तं भजेत्॥१२१॥ (५९)


(उपसर्जनम्) गौणपुत्र अर्थात् जो नियोगविधि से छोटे भाई के द्वारा बड़े भाई की स्त्री में उत्पन्न हुआ है, वह (धर्मतः) धर्मानुसार (प्रधानस्य न+उपपद्यते) प्रधान-पुत्र अर्थात् छोटों का पालन-पोषण करने वाले अपने ही पिता से उत्पन्न पुत्र के पूर्ण उद्धारादि भाग [९.११२-११४] का अधिकारी नहीं होता, (प्रजने प्रधानं पिता) सन्तानोत्पत्ति में पिता की ही अर्थात् बीज की ही प्रधानता होती है (तस्मात्) इस कारण (धर्मेण तं भजेत्) धर्मानुसार वह पुत्र पितृव्यों के समान समभाग को ही ले ले॥१२१॥


पुत्रिका करने का उद्देश्य―


अपुत्रोऽनेन विधिना सुतां कुर्वीत पुत्रिकाम्। 

यदपत्यं भवेदस्यां तन्मम स्यात्स्वधाकरम्॥१२७॥ (६०)


(अपुत्रः) पुत्रहीन पिता (अस्यां यत्+अपत्यं भवेत् तत् मम स्वधाकरं स्यात्) मेरी इस कन्या से जो पुत्र उत्पन्न होगा वह मुझे वृद्धावस्था में पुत्रवत् अन्नभोजन आदि से पालन-पोषण करने वाला होगा और सेवा द्वारा सुख देने वाला होगा' (अनेन विधिना सुतां पुत्रिकां कुर्वीत) ऐसा दामाद से कहकर अपनी कन्या को 'पुत्रिका' करे [ऐसी स्थिति में पुत्रहीन पिता के धन की उत्तराधिकारिणी पुत्री होगी या नाती होगा [९.१३१]॥१२७॥


पुत्र के अभाव में सारे धन की पुत्री अधिकारिणी―


यथैवात्मा तथा पुत्रः पुत्रेण दुहिता समा। 

तस्यामात्मनि तिष्ठन्त्यां कथमन्यो धनं हरेत्॥१३०॥ (६१)


(यथा+एव आत्मा तथा पुत्रः) जैसी अपनी आत्मा है वैसा ही पुत्र होता है अर्थात् पुत्र माता-पिता का अंग रूप होता है और (पुत्रेण दुहिता समा) पुत्र जैसी ही आत्मारूप पुत्री होती है (तस्याम्+आत्मनि तिष्ठन्त्याम्) उस आत्मारूप पुत्री के रहते हुये (अन्यः धनं कथं हरेत्) कोई दूसरा दाय धन को कैसे ले सकता है? अर्थात् नहीं ले सकता। भाव यह है कि पुत्र के अभाव में पुत्री ही पिता-माता के धन की अधिकारिणी होती है॥१३०॥


माता का धन पुत्रियों का ही होता है―


मातुस्तु यौतकं यत् स्यात् कुमारीभाग एव सः।

दौहित्र एव च हरेदपुत्रस्याखिलं धनम्॥१३१॥ (६२)


(मातुः तु यत् यौतकं स्यात्) माता का जो किसी भी अवसर पर प्राप्त निजी धन होता है (सः कुमारीभागः एव) वह अविवाहित कन्या का ही भाग होता है (च) तथा (अपुत्रस्य अखिलं धनं दौहित्रः एव हरेत्) पुत्रहीन नाना के सम्पूर्ण धन को धेवता ही प्राप्त कर लेवे॥१३१॥


पुत्रिका करने पर भी पुत्र होने की अवस्था में दाय व्यवस्था―


पुत्रिकायां कृतायां तु यदि पुत्रोऽनुजायते। 

समस्तत्र विभागः स्याज्ज्येष्ठता नास्ति हि स्त्रियाः॥१३४॥ (६३)


(पुत्रिकायां कृतायां तु) पूर्वोक्त विधि से [९.१२७] 'पुत्रिका' कर लेने के बाद (यदि पुत्रः+अनुजायते) यदि किसी को पुत्र उत्पन्न हो जाये तो (तत्र समः विभागः स्यात्) उस स्थिति में उन दोनों को [धेवता और निजपुत्र को] धन का समान भाग मिलेगा (हि) क्योंकि (स्त्रियाः ज्येष्ठता न+अस्ति) स्त्री को उद्धार भाग में ज्येष्ठत्व नहीं है अर्थात् बड़े पुत्र की भांति 'उद्धार' भाग [९.११२] नहीं प्राप्त होता। अतः धेवते को भी वह 'उद्धार' भाग नहीं प्राप्त होगा॥१३५॥


पुत्र का लक्षण―


पुंनाम्नो नरकाद्यस्मात् त्रायते पितरं सुतः। 

तस्मात् पुत्र इति प्रोक्तः स्वयमेव स्वयंभुवा॥१३८॥ (६४)


(यः) जो (सुतः) पुत्र (पितरम्) माता-पिता की (पुम्नाम्नः नरकात्) 'पुम्=सन्तान के अभाव रूप कष्ट और वृद्धावस्था, रोग आदि से उत्पन्न होने वाले दुःख रूप नरक से (त्रायते) रक्षा करता है' (तस्मात्) इस कारण से (स्वयंभुवा स्वयमेव 'पुत्रः' इति प्रोक्तः) स्वयंभू ईश्वर ने वेदों में बेटे को पुत्र' संज्ञा से अभिहित किया है [द्रष्टव्य है―'सर्वेषां तु स नामानि........... वेदशब्देभ्य एवादौ......निर्ममे" १.२३]॥१३८॥


दत्तकपुत्र के दायभाग का विधान―


उपपन्नो गुणैः सर्वैः पुत्रो यस्य तु दत्त्रिमः ।

स हरेतैव तद्रिक्थं सम्प्राप्तोऽप्यन्यगोत्रतः॥१४१॥ (६५)


(यस्य तु दत्त्रिमः पुत्रः) जिसका 'दत्तक'=गोद लिया हुआ पुत्र (सर्वैः गुणैः उपपन्नः) सभी श्रेष्ठ या वर्णोचित पुत्रगुणों से [९.१३८] सम्पन्न हो, (अन्यगोत्रतः सम्प्राप्तः+अपि) चाहे वह दूसरे वंश का ही क्यों न हो (सः तत् रिक्थं हरेत+एव) वह उस गोद लेने वाले पिता के धन को उत्तराधिकार में निश्चित रूप से प्राप्त करता है॥१४१॥ 


हरेत्तत्र नियुक्तायां जातः पुत्रो यथौरसः।

क्षेत्रिकस्य तु तद्बीजं धर्मतः प्रसवश्च सः॥१४५॥ (६६)


(तत्र नियुक्तायाम्) नियोग के लिए नियुक्त स्त्री में (यथा+औरसः जातः पुत्रः) औरस=सगे पुत्र के समान हुआ क्षेत्रज पुत्र (हरेत्) पितृधन का भागी होता है; क्योंकि (यत् क्षेत्रिकस्य बीजम्) वह क्षेत्रिक=क्षेत्र स्वामी का ही बीज माना जाता है, यतोहि (सः धर्मतः प्रसवः) वह धर्मानुसार नियोग से [९.५९] उत्पन्न होता है॥१४५॥


धनं यो बिभृयाद् भ्रातुर्मृतस्य स्त्रियमेव च।

सोऽपत्यं भ्रातुरुत्पाद्य दद्यात्तस्यैव तद्धनम्॥१४६॥ (६७)


(मृतस्य भ्रातुः) मरे हुए भाई के (धनं च स्त्रियम्+एव यः बिभृयात्) धन और स्त्री की जो भाई रक्षा करे (सः+अपत्यम्+उत्पाद्य) वह भाई की स्त्री में सन्तान उत्पन्न करके (भ्रातुः तत् धनं तस्यैव दद्यात्) भाई का वह प्राप्त सब धन उस पुत्र को ही दे देवे॥१४६॥


नियोगविधि के बिना उत्पन्न पुत्र दायभाग का अनधिकारी―


याऽनियुक्ताऽन्यतः पुत्रं देवराद्वाऽप्यवाप्नुयात्। 

तं कामजमरिक्थीयं वृथोत्पन्नं प्रचक्षते॥१४७॥ (६८)


(या अनियुक्ता) जो स्त्री नियोगविधि [९.५९] के बिना (अन्यतः वा देवरात् अपि) अन्य कुलबाह्य पुरुष से या देवर से भी (पुत्रम् अवाप्नुयात्) पुत्र प्राप्त करे (तम्) उस पुत्र को (कामजं वृथोत्पन्नम् अरिक्थीयम्) 'कामज'=कामवासना के वशीभूत होकर [९.५८, ६३] व्यभिचार से उत्पन्न किया गया और 'वृथोत्पन्न'=व्यर्थ में उत्पन्न कहा गया है, और वह पितृधन का अनधिकारी (प्रचक्षते) माना गया है॥१४७॥


अक्षतयोनि के पुनर्विवाह का विधान―


सा चेदक्षतयोनिः स्याद् गतप्रत्यागताऽपि वा। 

पौनर्भवेन भर्त्रा सा पुनः संस्कारमर्हति॥१७६॥ (६९)


(सा चेत्+अक्षतयोनिः स्यात्) वह स्त्री यदि 'अक्षतयोनि'=जिनका संभोगसम्बन्ध न हुआ हो, ऐसी हो (वा) चाहे वह (गत-प्रत्यागता+अपि) पति के घर गई-आई हुई भी हो, (सा) वह (पौनर्भवेन भर्त्रा) दूसरे पति के साथ (पुनः संस्कारम्+अर्हति) पुनः विवाह कर सकती है॥१७६॥


[मातृधन का विभाग]


मातृधन को भाई-बहन बराबर बांट लें―


जनन्यां संस्थितायां तु समं सर्वे सहोदराः। 

भजेरन्मातृकं रिक्थं भगिन्यश्च सनाभयः॥१९२॥ (७०)


(जनन्यां संस्थितायां तु) माता के मर जाने पर (सर्वे सहोदराः च सनाभयः भगिन्यः) सब सगे भाई और सब सगी बहनें (मातृकं रिक्थं समं भजेरन्) माता के पारिवारिक धन को बराबर-बराबर बांट लें॥१९२॥


यास्तासां स्युर्दुहितरस्तासामपि यथार्हतः। 

मातामह्या धनात्किंचित्प्रदेयं प्रीतिपूर्वकम्॥१९३॥ (७१)


(तासां याः दुहितरः स्युः) उन सभी बहनों की जो पुत्रियां हों (तासां+अपि यथार्हतः) उनको भी यथायोग्य (प्रीतिपूर्वकं मातामह्याः धनात् किंचित् प्रदेयम्) प्रेमपूर्वक नानी के धन में से कुछ देना चाहिए॥१९३॥


स्त्रीधन छह प्रकार का―


अध्यग्न्यध्यावाहनिकं दत्तं च प्रीतिकर्मणि।

भ्रातृमातृपितृप्राप्तं षड्विधं स्त्रीधनं स्मृतम्॥१९४॥ (७२)


(स्त्रीधनं षड्विधं स्मृतम्) स्त्रीधन छः प्रकार का माना गया है—१. (अधि+अग्नि) विवाहसंस्कार के समय प्राप्त धन, २. (अधि+आवाहनिकम्) पति के घर जाती हुई कन्या को पिता के घर से प्राप्त हुआ धन, ३. (प्रीति कर्मणि च दत्तम्) प्रसन्नता के किसी अवसर पर पति आदि के द्वारा दिया गया धन, ४. (भ्रातृ-मातृ-पितृ-प्राप्तम्) भाई से प्राप्त धन, ५. माता से प्राप्त धन, ६. पिता से प्राप्त धन॥१९४॥ 


अन्वाधेयं च यद्दत्तं पत्या प्रीतेन चैव यत्। 

पत्यौ जीवति वृत्तायाः प्रजायास्तद्धनं भवेत्॥१९५॥ (७३)


(यत् अन्वाधेयम्) जो अन्वाधेय अर्थात् विवाह के पश्चात् पिता या पति द्वारा दिया गया है, वह धन (च) और (यत् प्रीतेन पत्या दत्तम्) जो प्रीतिपूर्वक पति के द्वारा दिया गया धन है (पत्यौ जीवति) पति के जीवित रहते भी (वृत्तायाः) पत्नी के मरने पर (तत्धनं प्रजायाः भवेत्) वह धन पुत्र-पुत्रियों का ही होता है॥१९५॥


ब्राह्मादि विवाहों में स्त्रीधन का अधिकारी पति―


ब्राह्मदैवार्षगान्धर्वप्राजापत्येषु यद्वसु।

अप्रजायामतीतायां भर्तुरेव तदिष्यते॥१९६॥ (७४)


(ब्राह्म-दैव-आर्ष-गान्धर्व-प्राजापत्येषु यत् वसु) ब्राह्म, आर्ष, गान्धर्व, प्राजापत्य विवाहों में जो स्त्री को धन प्राप्त हुआ है (अप्रजायाम्+अतीतायाम्) स्त्री के सन्तानहीन मर जाने पर (तत् भर्तुः+एव इष्यते) उस धन पर पति का ही अधिकार माना गया है॥१९६॥ 


आसुरादि विवाहों में स्त्रीधन के उत्तराधिकारी―


यत्त्वस्याः स्याद्धनं दत्तं विवाहेष्वासुरादिषु। 

अप्रजायामतीतायां मातापित्रोस्तदिष्यते॥१९७॥ (७५)


(यत् तु अस्याः) और जो इसे (आसुरादिषु विवाहेषु दत्तं धनं स्यात्) 'आसुर' गन्धर्व, राक्षस, पैशाच [३.२१] विवाहों में दिया गया धन हो (अप्रजायाम्+अतीतायाम्) पत्नी के निःसन्तान मर जाने पर (तत् माता पित्रोः इष्यते) वह धन स्त्री के माता-पिता का हो जाता है॥१९७॥


स्त्रियाँ कुटुम्ब से छिपाकर धन न जोड़ें―


न निर्हारिं स्त्रियः कुर्युः कुटुम्बाद् बहुमध्यगात्। 

स्वकादपि च वित्ताद्धि स्वस्य भर्तुरनाज्ञया॥१९९॥ (७६)


(स्त्रियः) स्त्रियाँ (बहुमध्यगात् कुटुम्बात्) बहुत सदस्यों वाले कुटुम्ब से चुपके से धन ले-लेकर (निर्हारिं न कुर्युः) अपने लिए धनसंग्रह और व्यय न करें (च) और (स्वका वित्तात् अपि हि) अपने धन में से भी (स्वस्य भर्तुः+अनाज्ञया) अपने पति की सहमति के बिना व्यय न करें॥१९९॥ 


पत्यौ जीवति यः स्त्रीभिरलंकारो धृतो भवेत्।

न तं भजेरन्दायादा भजमानाः पतन्ति ते॥२००॥ (७७)


(पत्यौ जीवति) पति के जीते हुए (स्त्रीभिः यः अलंकारः धृतः भवेत्) स्त्रियों ने जो आभूषण धारण किये हैं, [पति के मर जाने पर] (दायादाः तं न भजेरन्) माता-पिता के दायभाग के अधिकारी पति के भाई या पुत्र आदि [माता के जीवित रहते] उसको न बांटें (भजमानाः ते पतन्ति) यदि वे उन्हें लेते हैं तो 'पतित'=दोषी कहलाते हैं॥२००॥ 


धन के अनधिकारी विकलांग―


अनंशौ क्लीबपतितौ जात्यन्धबधिरौ तथा।

उन्मत्तजडमूकाश्च ये च केचिन्निरिन्द्रियाः॥२०१॥ (७८)


(क्लीब-पतितौ) नपुंसक, दुष्ट कर्मों में संलग्न अपराधी (जाति+अन्ध-बधिरौ) जन्म से अन्धे और बहरे (उन्मत्त-जड़-मूकाः च) पागल, वज्रमूर्ख और गूंगे (च) और (ये केचित् निरिन्द्रियाः) जो कोई किसी इन्द्रिय से पूर्ण विकलांग हैं और असमर्थ हैं (अनंशौ) ये विकलांग आदि पूरे दाय-धन के भागीदार नहीं होते, क्योंकि ये धन की सुरक्षा और उपयोग में सक्षम नहीं अयोग्य होते हैं॥२०१॥ 


इन्हें भोजन-छादन देते रहें―


सर्वेषामपि तु न्याय्यं दातुं शक्त्या मनीषिणा। ग्रासाच्छादनमत्यन्तं पतितो ह्यददद्भवेत्॥२०२॥ (७९)


किन्तु (मनीषिणा) इनके धनगृहीता सहृदय मनुष्य को चाहिए कि (सर्वेषाम्+अपि शक्त्या) इन सबको यथाशक्ति (ग्रास+आच्छादनम्) भोजन, वस्त्र आदि (अत्यन्तम्) अनिवार्य रूप से (दातुम्) देना (न्याय्यम्) न्यायोचित है, यह समझकर उक्त पदार्थ दे, (अददत् हि पतितः भवेत्) उक्त सुविधाएं न देने वाला धनगृहीता 'पतित'=दोषी माना जायेगा॥२०२॥ 


यद्यर्थिता तु दारैः स्यात्क्लीबादीनां कथंचन। 

तेषामुत्पन्नतन्तूनामपत्यं दायमर्हति॥२०३॥ (८०)


(यदि क्लीबादीनां कथंचन दारैः अर्थिता स्यात्) यदि नपुंसक आदि इन पूर्वोक्तों [९.२०१] को भी विवाह करने की इच्छा हो तो (तेषाम्+ उत्पन्नतन्तूनाम्) इनके उत्पन्न 'क्षेत्रज'=नियोगज पुत्र आदि (अपत्यम्) सन्तान (दायम्+अर्हति) इनके धन की भागी होती है॥२०३॥ 


विद्याधनं तु यद्यस्य तत्तस्यैव धनं भवेत्।

मैत्र्यमौद्वाहिकं चैव माधुपर्किकमेव च॥२०६॥ (८१)


(विद्याधनम् मैत्र्यम् च औद्वाहिकं च माधुर्किकम्+एव) विद्या के कारण प्राप्त, मित्र से प्राप्त, विवाह में प्राप्त और पूज्यता के कारण आदर-सत्कार में प्राप्त (यत् यस्य धनम्) जो जिसका धन है (तत् तस्य+एव भवेत्) वह उसी का ही होता है॥२०६॥ 


भ्रातॄणां यस्तु नेहेत धनं शक्तः स्वकर्मणा। 

स निर्भाज्यः स्वकादंशात्किंचिद्दत्त्वोपजीवनम्॥२०७॥ (८२)


(भ्रातॄणां यः तु स्वकर्मणा शक्तः) भाइयों में जो भाई अपने उद्योग से समृद्ध हो और (धनं न ईहेत) पितृधन का भाग न लेना चाहे तो (सः) उसको भी (स्वकात्+अंशात् किंचित् उपजीवनं दत्त्वा) अपने-अपने पितृधन के हिस्सों से कुछ धन देकर (निर्भाज्यः) अलग करना चाहिए, बिल्कुल बिना दिये नहीं॥२०७॥


अनुपघ्नन् पितृद्रव्यं श्रमेण यदुपार्जितम्।

स्वयमीहितलब्धं तन्नाकामो दातुमर्हति॥२०८॥ (८३)


(पितृधनम् अनुपघ्नन्) पितृ-धन को बिल्कुल भी उपयोग में न लाता हुआ यदि कोई पुत्र (श्रमेण यत्+उपार्जितम्) केवल अपने परिश्रम से संचित धन में से (दातुम् अकामः) किसी भाई को कुछ न देना चाहे तो (न अर्हति) न देवे अर्थात् देने के लिए वह बाध्य नहीं है॥२०८॥


पैतृकं तु पिता द्रव्यमनवाप्तं यदाप्नुयात्। 

न तत्पुत्रैर्भजेत्सार्धमकामः स्वयमर्जितम्॥२०९॥ (८४)


(पिता तु) यदि कोई पिता (अन्+अवाप्तं पैतृकं द्रव्यम्) दायरूप में अप्राप्त पैतृक धन अर्थात् ऐसा धन जो है तो परम्परा से पैतृक, किन्तु किसी कारण से वह उसके पिता के अधिकार में नहीं रहा, इस कारण उसे पैतृक दायभाग के रूप में भी नहीं मिला, उसको (तत्+आप्नुयात्) यदि वह स्वयं अपने परिश्रम या उपाय से प्राप्त कर ले तो (तत् स्वयम्+अर्जितम् धनम्) उस स्वयं के परिश्रम से प्राप्त किये धन को [जैसे गिरवी रखा हुआ धन] (अकामः) यदि वह न चाहे तो (पुत्रैः सार्धम् न भजेत्) अपने पुत्रों में न बांटे अर्थात् ऐसा धन पिता के द्वारा स्वयं कमाये हुए धन जैसा है। उसका देना-न देना या विभाजन करना पिता की इच्छा पर निर्भर है। वह जैसा चाहे कर सकता है॥२०९॥ 


पुनः एकत्र होकर पृथक् होने पर उद्धार भाग नहीं―


विभक्ताः सह जीवन्तो विभजेरन् पुनर्यदि। 

समस्तत्र विभागः स्याज्ज्यैष्ठ्यं तत्र न विद्यते॥२१०॥ (८५)


सब भाई (विभक्ताः) एक बार विभाग का बंटवारा करके (सहजीवन्तः) फिर सम्मिलित होकर (यदि पुनः विभजेरन्) यदि फिर अलग होना चाहें तो (तत्र समः विभागः स्यात्) उस स्थिति में सबको समान भाग प्राप्त होगा (तत्र ज्यैष्ठ्यं न विद्यते) तब उसमें ज्येष्ठ भाई का 'उद्धार भाग' [९.११२-११५] नहीं होता॥२१०॥ 


भाई के मरने पर उसके धन का विभाग―


येषां ज्येष्ठः कनिष्ठो वा हीयेतांशप्रदानतः। 

म्रियेतान्यतरो वाऽपि तस्य भागो न लुप्यते॥२११॥ (८६)


(येषां ज्येष्ठः वा कनिष्ठः) जिन भाइयों में से बड़ा या छोटा भाई (अंशप्रदानतः हीयेत) किसी कारण से अपने भाग से वंचित रह जाये, (म्रियेत वा अन्यतरः अपि) मर जाये अथवा अन्य किसी गृहत्याग आदि कारण से अपना भाग न ले पावे तो (तस्य भागः न लुप्यते) उसका भाग नष्ट नहीं होता अर्थात् उसके पुत्र पत्नी आदि को प्राप्त होता है॥२११॥ 


सोदर्या विभजेरंस्तं समेत्य सहिताः समम्।

भ्रातरो ये च संसृष्टा भगिन्यश्च सनाभयः॥२१२॥ (८७)


[यदि पुत्र, स्त्री आदि न हों तो] (सहिताः सोदर्याः) सभी सगे भाई (च) और (ये संसृष्टाः भ्रातरः) जो सम्मिलित भाई (च) तथा (सनाभयः भगिन्यः) सब सगी बहनें हैं, वे (समेत्य) एकत्रित होकर (तं समं विभजेरन्) उस धन को समान-समान बांट लेवें॥२१२॥ 


कर्त्तव्यपालन न करने पर बड़े भाई को उद्धार भाग नहीं―


यो ज्येष्ठो विनिकुर्वीत लोभाद् भ्रातॄन् यवीयसः। सोऽज्येष्ठः स्यादभागश्च नियन्तव्यश्च राजभिः॥२१३॥ (८८)


(यः ज्येष्ठः) जो बड़ा भाई (लोभात् यवीयसः भ्रातॄन् विनिकुर्वीत) लोभ में आकर छोटे भाइयों को ठगे, पूरा भाग न दे तो (सः+अज्येष्ठः) उसको बड़े के रूप में नहीं मानना चाहिए (च) और (अभागः स्यात्) उसे बड़े भाई के नाम का 'उद्धार भाग' [९.११२-११५] भी नहीं देना चाहिए (च) और (राजभिः नियन्तव्यः) वह राजा के द्वारा दण्डनीय होता है अर्थात् राजा उसको कानून के द्वारा वश में करे और छोटों का भाग दिलवाये॥२१३॥ 


दायधन से वंचित लोग―


सर्व एव विकर्मस्था नार्हन्ति भ्रातरो धनम्। 

न चादत्त्वा कनिष्ठेभ्यो ज्येष्ठः कुर्वीत यौतकम्॥२१४॥ (८९)


(विकर्मस्थाः सर्वे+एव भ्रातरः) [जुआ खेलना, चोरी करना, डाका डालना आदि] बुरे कामों में सलंग्न रहने वाले सभी भाई (धनं न+अर्हन्ति) धनभाग को प्राप्त करने के अधिकारी नहीं होते (च) और (कनिष्ठेभ्यः अदत्त्वा) छोटे भाइयों को बिना दिये=बिना बांटे (ज्येष्ठः यौतकं न कुर्वीत) बड़ा भाई अपने लिए पितृधन में से अलग से धन न ले अर्थात् किसी भी धन को अकेला अपने लिए न रखे॥२१४॥ 


पितृ-धन का विषम विभाजन न करे―


भ्रातॄणामविभक्तानां यद्युत्थानं भवेत्सह।

 न पुत्रभागं विषमं पिता दद्यात्कथञ्चन॥२१५॥ (९०)


(अविभक्तानां भ्रातॄणां यदि सह उत्थानं भवेत्) सम्मिलित रूप में रहते हुए सब भाइयों ने यदि साथ मिलकर धन इकट्ठा किया हो तो (पिता) पिता (कथञ्चन पुत्रभागं विषमं न दद्यात्) किसी भी प्रकार पुत्रों के भाग को विषम अर्थात् किसी को अधिक किसी को कम रूप में न बांटे, सभी को बराबर दे॥२१५॥


ऊर्ध्वं विभागाज्जातस्तु पित्र्यमेव हरेद्धनम्। 

संसृष्टास्तेन वा स्युर्विभजेत स तैः सह॥२१६॥ (९१)


(विभागात् ऊर्ध्वं जातः तु) धन का बंटवारा करके [पिता की जीवित अवस्था में ही] पुत्रों के अलग हो जाने पर यदि कोई पुत्र उत्पन्न हो जाये तो (पित्र्यम्+एव धनं हरेत्) वह पिता के अंश के धन को ले ले (वा) अथवा (ये तेन संसृष्टाः स्युः) जो कोई पुत्र पिता के साथ सम्मिलित रूप में रह रहे हों तो (सः तैः सह विभजेत) वह उन सबके समान भाग प्राप्त करे॥२१६॥


इकलौते सन्तानहीन पुत्र के धन का उत्तराधिकार―


अनपत्यस्य पुत्रस्य माता दायमवाप्नुयात्। 

मातर्यपि च वृत्तायां पितुर्माता हरेद्धनम्॥२१७॥ (९२)


(अनपत्यस्य पुत्रस्य दायम्) सन्तानहीन और पत्नीहीन पुत्र के धन को (माता+अवाप्नुयात्) माता प्राप्त करे (च) और (मातरि+अपि वृत्तायाम्) माता मर गई हो तो (पितुः माता धनं हरेत्) पिता की माता अर्थात् दादी उसके धन को ले ले॥२१७॥ 


ऋणे धने च सर्वस्मिन् प्रविभक्ते यथाविधि। 

पश्चाद् दृश्येत यत्किंचित्तत्सर्वं समतां नयेत्॥२१८॥ (९३)


(सर्वस्मिन् ऋणे च धने) पिता के सारे ऋण और धन का (यथा-विधि प्रविभक्ते) विधिपूर्वक बंटवारा हो जाने पर (यत् किंचित् पश्चात् दृश्यते) यदि बाद में कुछ ऋण और धन के शेष रहने का पता लगे तो (तत् सर्वं समतां नयेत्) उस सबको भी समान रूप में बांट लें॥२१८॥


(१८) द्यूत-सम्बन्धी विवाद का निर्णय 

[२२०-२५०]


अयमुक्तो विभागो वः पुत्राणां च क्रियाविधिः। 

क्रमशः क्षेत्रजादीनां द्यूतधर्मं निबोधत॥२२०॥ (९४)


(अयम्) यह [९.१०३-२१९] (वः) तुमको (विभागः) दायभाग का विधान (च) और (क्षेत्रज+आदीनां पुत्राणां क्रियाविधिः) 'क्षेत्रज' आदि पुत्रों को [९.१४५-१४७] धन का भाग देने की विधि (क्रमश: उक्तः) क्रमशः कही। अब (द्यूतधर्मं निबोधत) जुआ-सम्बन्धी विधान सुनो―॥२२०॥ 


राष्ट्रघातक जुआ आदि का पूर्ण निवारण―


द्यूतं समाह्वयं चैव राजा राष्ट्रान्निवारयेत्। 

राजान्तकरणावेतौ द्वौ दोषौ पृथिवीक्षिताम्॥२२१॥ (९५)


(राजा) राजा (द्यूतम्) जड़ वस्तुओं से बाजी लगाकर खेले जाने वाले 'जुआ' को (च) और (समाह्वयम्+एव) चेतन प्राणियों को दाव पर लगाकर खेल जाने वाले 'समाह्वय' नामक 'जुआ' को [२२३] (राष्ट्रात् निवारयेत्) अपने देश से समाप्त कर दे, क्योंकि (एतौ द्वौ दोषौ) ये दोनों बुराइयाँ (पृथिवीक्षितां राजान्तकरणौ) राजाओं के राज्य को नष्ट-भ्रष्ट कर देने वाली हैं॥२२१॥


जुआ एक तस्करी है―


प्रकाशमेतत्तास्कर्यं यद् देवनसमाह्वयौ।

तयोर्नित्यं प्रतीघाते नृपतिर्यत्नवान् भवेत्॥२२२॥ (९६)


(यत् देवन-समाह्वयौ) ये जो 'जुआ' और 'समाह्वय' है (एतत् प्रकाशं तास्कर्यम्) ये प्रत्यक्ष में होने वाली तस्करी=चोरी-ठगी हैं (नृपतिः) राजा (तयोः प्रतीघाते) इनको समाप्त करने के लिये (नित्यं यत्नवान् भवेत्) सदा प्रयत्नशील रहे॥२२२॥ 


द्यूत और समाह्वय में भेद―


अप्राणिभिर्यत्क्रियते तल्लोके द्यूतमुच्यते।

प्राणिभिः क्रियते यस्तु स विज्ञेयः समाह्वयः॥२२३॥ (९७)


(अप्राणिभिः यत् क्रियते) बिना प्राणियों अर्थात् जड़ [ताश, पासा, कौड़ी, गोटी आदि] वस्तुओं के द्वारा बाजी लगाकर जो खेल खेला जाता है (लोके तत् 'द्यूतम्' उच्यते) लोक में उसे 'द्यूत'=जुआ कहा जाता है और (यः तु) जो (प्राणिभिः क्रियते) चेतन प्राणियों [मनुष्य, मुर्गा, तीतर, बटेर, घोड़ा आदि] के द्वारा बाजी लगाकर जो खेल खेला जाता है (सः 'समाह्वयः' विज्ञेयः) उसे 'समाह्वय' कहा जाता है॥२२३॥ 


द्यूतं समाह्वयं चैव यः कुर्यात्कारयेत वा।

तान्सर्वान् घातयेद्राजा शूद्रांश्च द्विजलिङ्गिनः॥२२४॥ (९८)


(राजा) राजा (यः) जो मनुष्य (द्यूतं च समाह्वयम्+एव) 'जुआ' और 'समाह्वय' (कुर्यात् वा कारयेत) स्वयं खेले या दूसरों से खिलाये (तान् सर्वान्) उन सबको (च) और (द्विजलिङ्गिनः शूद्रान्) कपटपूर्वक द्विजों के वेश में रहने वाले या उनका वेश धारण उनकी जीविका करने वाले शूद्रों को (घातयेत्) शारीरिक दण्ड [ताड़ना, कारावास, अंगच्छेदन] आदि दे॥२२४॥


कितवान्कुशीलवान्क्रूरान् पाखण्डस्थांश्च मानवान्।

विकर्मस्थाञ्छौण्डिकांश्च क्षिप्रं निर्वासयेत्पुरात्॥२२५॥ (९९)


(च) और (कितवान्) जुआरियों, (कुशीलवान्) अश्लील-असभ्य नाच-गानों से जीविका करनेवाले, (क्रूरान्) क्रूर=अत्याचार करने वाले, (पाखण्डस्थान्) पाखण्ड करके जीविका कमाने वाले, (विकर्मस्थान्) शास्त्रविरुद्ध बलात्कार चोरी आदि बुरे कर्म करने वाले, (शौण्डिकान्) शराब बनाने-बेचने, और पीने वाले (मानवान्) मनुष्यों को (पुरात् क्षिप्रं निर्वासयेत्) राजा अपने राज्य से यथा शीघ्र बाहर निकाल दे॥२२५॥


एते राष्ट्रे वर्तमाना राज्ञः प्रच्छन्नतस्कराः।

विकर्मक्रियया नित्यं बाधन्ते भद्रिकाः प्रजाः॥२२६॥ (१००)


(एते प्रच्छन्न-तस्कराः) ये [९.२२५] छुपे हुए तस्कर=चोर-ठग (राष्ट्रे वर्तमानाः) राज्य में रहकर (विकर्मक्रियया) गलत और बुरे कामों को कर-करके (नित्यम्) सदा (राज्ञः) राजाओं और (भद्रिकाः प्रजाः) सज्जन प्रजाओं को (बाधन्ते) हानि और दुःख पहुंचाते रहते हैं॥२२६॥


द्यूतमेतत्पुरा कल्पे दृष्टं वैरकरं महत्। 

तस्माद् द्यूतं न सेवेत हास्यार्थमपि बुद्धिमान्॥२२७॥ (१०१)


(एतत् द्यूतम्) यह 'जुआ' (पुराकल्पे महत् वैरकरं दृष्टम्) अब से पहले समय में भी महान् कष्ट एवं शत्रुता पैदा करने वाला देखा गया है (तस्मात्) इसलिए (बुद्धिमान्) बुद्धिमान् मनुष्य (हास्यार्थम्+अपि द्यूतं न सेवेत) मनोरंजन और हंसी-मजाक में भी 'जुआ' न खेले॥२२७॥ 


प्रच्छन्नं वा प्रकाशं वा तन्निषेवेत यो नरः।

तस्य दण्डविकल्पः स्याद्यथेष्टं नृपतेस्तथा॥२२८॥ (१०२)


(प्रच्छन्नं वा प्रकाशं वा) छुपकर वा सबके सामने (यः नरः तत् निषेवेत) जो मनुष्य 'जुआ' खेले (तस्य दण्डविकल्पः) उसका दण्ड-विधान निर्धारित नहीं है (नृपतेः यथेष्टं स्यात्) वह राजा की इच्छानुसार होता है, अर्थात् जुआ असह्य दुष्कर्म है [ २२१, २२४] उससे होने वाली हानि को देखकर राजा जो भी चाहे अधिक दण्ड दे दे॥२२८॥


मुकद्दमों के अन्त में उपसंहार―


रिश्वत लेकर अन्याय करने वालों को दण्ड―


ये नियुक्तास्तु कार्येण हन्युः कार्याणि कार्यिणाम्। 

धनोष्मणा पच्यमानास्तान्निःस्वान्कारयेन्नृपः॥२३१॥ (१०३)


(कार्येषु नियुक्ताः तु ये) राजकार्यों और मुकद्दमों के निर्णयों में राजा द्वारा लगाये गये जो अधिकारी-कर्मचारी (धन+उष्मणा पच्यमानाः) धन की गर्मी अर्थात् रिश्वत आदि के लालच में (कार्यिणां कार्याणि हन्युः) वादी-प्रतिवादियों के मुकद्दमों और कामों को बिगाड़ें (नृपः) राजा (तान् निःस्वान् कारयेत्) उनकी सारी संपत्ति छीन ले॥२३१॥


निर्णयों में कपट करने वालों को दण्ड―


कूटशासनकर्तॄंश्च प्रकृतीनां च दूषकान्। 

स्त्रीबालब्राह्मणघ्नांश्च हन्याद् द्विट्सेविनस्तथा॥२३२॥ (१०४)


(च) और (कूटशासनकर्तॄन्) राजा के निर्णयों में कपट करने वाले या उनको कपटपूर्वक लिखने वाले, (प्रकृतीनां दूषकान्) प्रकृति=प्रजा, मन्त्री, सेनापति आदि को [९.२९४] रिश्वत आदि बुरे कार्यों में फंसाकर बिगाड़ने वाले, (स्त्री-बाल-ब्राह्मणघ्नान् च) स्त्रियों, बच्चों और विद्वान् ब्राह्मणों की हत्या करने वाले, (तथा) तथा (द्विट्-सेविनः) शत्रु से मिले हुए जन, इनको (हन्यात्) वध से दण्डित करे अर्थात् इनको कठोर से कठोर और कष्टप्रद शारीरिक दण्ड दे॥२३२॥


ठीक निर्णय को किसी दबाव या लालच में आकर न बदले―


तीरितं चानुशिष्टं च यत्र क्वचन यद्भवेत्। 

कृतं तद्धर्मतो विद्यान्न तद्भूयो निवर्तयेत्॥२३३॥ (१०५)


(यत्र क्वचन) जहां किसी मुकद्दमे में (तीरितम्) ठीक निर्णय किया जा चुका हो (च) और (अनुशिष्टं भवेत्) किसी दण्ड का आदेश भी दिया जा चुका हो (धर्मतः तत् कृतं विद्यात्) धर्मपूर्वक किये उस निर्णय को पूरा हुआ जानना चाहिये (तत् भूयः न निवर्तयेत्) उस मुकद्दमे का पुनः निर्णय बार-बार न बदले [यह लोभ या ममत्व आदि के कारण अथवा अकारण निर्णय न बदलने का कथन है, कारण विशेष होने पर तो पुनः निर्णय का कथन किया गया है (८.११७; ९.२३४)]॥२३३॥ 


अमात्यों और न्यायाधीशों को अन्याय करने पर दण्ड―


अमात्याः प्राड्विवाको वा यत्कुर्युः कार्यमन्यथा।

तत्स्वयं नृपतिः कुर्यात्तान्सहस्रं च दण्डयेत्॥२३४॥ (१०६)


(अमात्याः वा प्राड्विवाकः) मंत्री अथवा न्यायाधीश (यत् कार्यम्+अन्यथा कुर्युः) जिस काम या मुकद्दमे के निर्णय को गलत या अन्यायपूर्वक कर दें तो (तत्) उस मुकद्दमे के निर्णय को (नृपतिः) राजा (स्वयं कुर्यात्) स्वयं देखकर ठीक करे (च) और (तान्) अन्याय करने वाले उन अधिकारियों को (सहस्रं दण्डयेत्) एक हजार पण [८.१३६] दण्ड से दण्डित करे॥२३४॥


यावानवध्यस्य वधे तावान् वध्यस्य मोक्षणे।

अधर्मो नृपतेर्दृष्टो धर्मस्तु विनियच्छतः॥२४९॥ (१०७)


(नृपतेः) राजा को (अवध्यस्य वधे) अदण्डनीय को दण्ड देने पर (यावान्+अधर्मः दृष्टः) जितना अधर्म=अन्याय होना शास्त्र में माना गया है (तावान् वध्यस्य मोक्षणे) उतना ही दण्डनीय को छोड़ने में अधर्म=अन्याय होता है (विनियच्छतः तु धर्मः) न्यायानुसार दण्ड देना ही धर्म है॥२४९॥ 


उदितोऽयं विस्तरशो मिथो विवदमानयोः।

अष्टादशसु मार्गेषु व्यवहारस्य निर्णयः॥२५०॥ (१०८)


(अयम्) यह [८.१ से ९.२४९ तक] (मिथः विवदमानयोः) परस्पर विवाद=मुकद्दमा करने वाले वादी-प्रतिवादियों के (अष्टादशसु मार्गेषु) अठारह प्रकार के (व्यवहारस्य निर्णयः) मुकद्दमों का निर्णय (विस्तरशः उदितः) विस्तारपूर्वक कहा॥२५०॥ 


एवं धर्म्याणि कार्याणि सम्यक्कुर्वन् महीपतिः। 

देशानलब्धांल्लिप्सेत लब्धांश्च परिपालयेत्॥२५१॥ (१०९)


(एवम्) इस पूर्वोक्त कही विधि के अनुसार (धर्म्याणि कार्याणि कुर्वन्) धर्मयुक्त कार्यों को करता हुआ न्यायानुसार शासन करता हुआ (महीपतिः) राजा (अलब्धान् देशान् लिप्सेत) अप्राप्त देशों को प्राप्त करने की इच्छा करे (च) और (लब्धान् परिपालयेत्) प्राप्त किये देशों का भलीभांति पालन करे॥२५१॥


राजा द्वारा लोककण्टकों का निवारण― 

(९.२५२ से ३२५ तक)


सम्यङ् निविष्टदेशस्तु कृतर्दुगश्च शास्त्रतः। 

कण्टकोद्धरणे नित्यमातिष्ठेद्यत्नमुत्तमम्॥२५२॥ (११०)


राजा (सम्यक् निविष्टदेशः) अच्छे सस्यादि-सम्पन्न देश का आश्रय करके (च) और वहां (शास्त्रतः कृतदुर्गः) शास्त्रानुसार विधि [७.६९] से किला बनाकर (कण्टकोद्धरणे) अपने राज्य से कंटकों='प्रजा या शासन को पीड़ित करने वाले लोगों' को [२५६-२६०] दूर करने में (नित्यम् उत्तमं यत्नम्+आतिष्ठेत्) सदा अधिकाधिक यत्न करे॥२५२॥


रक्षणादार्यवृत्तानां कण्टकानां च शोधनात्। 

नरेन्द्रास्त्रिदिवं यान्ति प्रजापालनतत्पराः॥२५३॥ (१११)


(आर्यवृत्तानां रक्षणात्) श्रेष्ठ आचरण वाले व्यक्तियों की रक्षा करने से (च) और (कण्टकानां शोधनात्) कण्टकों=कष्टदायक दुष्ट व्यक्तियों को दण्डित करने से (प्रजापालनतत्परा: नरेन्द्राः) प्रजाओं के पालन करने में तत्पर रहने वाले राजा (त्रिदिवं यान्ति) विस्तृत राज्य के उत्तम सुख को भोगते हैं॥२५३॥


अशासंस्तस्करान्यस्तु बलिं गृह्णाति पार्थिवः। 

तस्य प्रक्षुभ्यते राष्ट्र स्वर्गाच्च परिहीयते॥२५४॥ (११२)


(यः तु पार्थिवः) जो राजा (तस्करान् अशासन्) ठग-चोर [९.२५७] आदि को नियंत्रित-दण्डित न करता हुआ (बलिं गृह्णाति) प्रजाओं से कर आदि ग्रहण करता है (तस्य राष्ट्र प्रक्षुभ्यते) उसके राष्ट्र में निवास करने वाली प्रजाएं क्षुब्ध होकर विद्रोह कर देती हैं (च) और वह (स्वर्गात् परिहीयते) राज्यसुख से विहीन हो जाता है॥२५४॥


निर्भयं तु भवेद्यस्य राष्ट्र बाहुबलाश्रितम्। 

तस्य तद्वर्धते नित्यं सिच्यमान इव द्रुमः॥२५५॥ (११३)


(यस्य बाहुबलाश्रितम्) जिस राजा के बाहुबल=सुरक्षा के सहारे (राष्ट्रं निर्भयं तु भवेत्) राष्ट्र अर्थात् प्रजाएं [चोर आदि से] निर्भय रहती है (तस्य तत्) उसका वह राज्य (सिच्यमानः द्रुमः इव) सींचे गये वृक्ष की भाँति (नित्यं वर्धते) सदा बढ़ता रहता है॥२५५॥


दो प्रकार के तस्कर लोककण्टक हैं―


द्विविधांस्तस्करान् विद्यात् परद्रव्यापहारकान्। 

प्रकाशांश्चाप्रकाशांश्च चारचक्षुर्महीपतिः॥२५६॥ (११४)


(चारचक्षुः महीपतिः) गुप्तचर ही हैं नेत्र जिसके अर्थात् गुप्तचरों के द्वारा सब प्रजा का काम देखने वाला राजा (प्रकाशान् च+अप्रकाशान् परद्रव्य+अपहारकान्) प्रकट और गुप्त रूप से दूसरों के द्रव्यों को चुराने वाले (द्विविधान् तस्कार विद्यात्) दोनों प्रकार के चोरों की जानकारी रखे॥२५६॥ 


प्रकाशवञ्चकास्तेषां नानापण्योपजीविनः।

प्रच्छन्नवञ्चकास्त्वेते ये स्तेनाटविकादयः॥२५७॥ (११५)


(तेषाम्) उन दोनों प्रकार के चोरों में (नानापण्य-उपजीविनः प्रकाशवञ्चकाः) नाना प्रकार के व्यापारी जो देखते-देखते माप, तोल या मूल्य में हेराफेरी करके ठगते हैं वे 'प्रकट-चोर' हैं (ये) और जो (स्तेनआटविकादयः) जंगल आदि में छिपे रहकर चोरी, राहगीरी आदि करने वाले हैं (ते) वे (प्रच्छन्नवञ्चकाः) 'गुप्तचोर' हैं॥२५७॥ 


लोककण्टकों की गणना―


उत्कोचकाश्चौपधिका वञ्चकाः कितवास्तथा। 

मङ्गलादेशवृत्ताश्च भद्राश्चेक्षणिकैः सह॥२५८॥ 

असम्यक्कारिणश्चैव महामात्राश्चिकित्सकाः। 

शिल्पोपचारयुक्ताश्च निपुणा: पण्ययोषितः॥२५९॥ 

एवमादीन्विजानीयात्प्रकाशांल्लोककण्टकान्। 

निगूढचारिणश्चान्याननार्यानार्यलिङ्गिनः॥२६०॥ (११६-११८)


(उत्कोचकाः) रिश्वतखोर, (औपधिकाः) भय दिखाकर धन ऐंठने वाले (वञ्चकाः) ठग, (कितवाः) जुआरी (मंगलादेशवृत्ताः) 'तुम्हें पत्र या धन प्राप्ति होगी' इत्यादि मांगलिक बातों को कहकर धन लूटने वाले, (भद्राः) साधु-संन्यासी आदि भद्ररूप धारण करके धन ठगने वाले, (ईक्षणिकैः सह) हाथ आदि देखकर भविष्य बताकर धन ठगने वाले, (असम्यक्-कारिणः महामात्राः) धन, वस्तु आदि लेकर गलत काम करने वाले उच्च कर्मचारी [मन्त्री आदि], (चिकित्सकाः) अनुचित मात्रा में धन लेने वाले या अयोग्य चिकित्सक (शिल्पोपचारयुक्ताः) अनुचित मात्रा में धन लेने वाले शिल्पी [चित्रकार आदि], (निपुणाः पण्ययोषितः) धन ठगने में चतुर वेश्याएं (एवम्+आदीन्) इत्यादियों को (च) और (अन्यान्) दूसरे जो (आर्यलिङ्गिनः निगूढचारिणः अनार्यान्) श्रेष्ठों का वेश या चिह्न धारण करके गुप्तरूप से विचरण करने वाले दुष्ट या बुरे व्यक्ति हैं, उनको (प्रकाशान् लोककण्टकान् विजानीयात्) प्रकट लोककण्टक=प्रजाओं को पीड़ित करने वाले व्यक्ति समझे और उनकी जानकारी रखे॥२५८-२६०॥


तान्विदित्वा सुचरितैर्गुढैस्तत्कर्मकारिभिः।

चारैश्चानेकसंस्थानैः प्रोत्साद्य वशमानयेत्॥२६१॥ (११९)


(तत् कर्मकारिभिः) जिस विषय में जानकारी प्राप्त करनी है वैसा ही कर्म करने में चतुर, (गूढैः) गुप्त रहने वाले (सुचरितैः) अच्छे आचरण वाले (अनेकसंस्थानैः) अनेक स्थानों में नियुक्त (चारैः) गुप्तचरों के द्वारा (तान् विदित्वा) उन ठगों या लोककण्टकों को मालूम करके (च) और फिर (प्रोत्साद्य) उन्हें पकड़कर (वशम्+आनयेत्) अपने वश में करे, कारागृह में रखे अर्थात् उन पर ऐसा नियंत्रण रखे कि वे पुनः ऐसे काम न कर पायें॥२६१॥ 


तेषां दोषानभिख्याप्य स्वे स्वे कर्मणि तत्त्वतः।

कुर्वीत शासनं राजा सम्यक् सारापराधतः॥२६२॥ (१२०)


(राजा) राजा (स्वे स्वे कर्मणि तेषां दोषान् तत्त्वत:+अभिख्याप्य) जो-जो उन्होंने बुरा काम किया है भलीभांति उनके दोषों की सही-सही घोषणा करके (सार अपराधतः) उनके बल और अपराध के अनुसार (सम्यक् शासनं कुर्वीत) न्यायोचित दण्ड से दण्डित करे॥२६२॥


नहि दण्डादृते शक्यः कर्तुं पापविनिग्रहः। 

स्तेनानां पापबुद्धीनां निभृतं चरतां क्षितौ॥२६३॥ (१२१)


(स्नेतानाम्) प्रकट चोरों, (क्षितौ निभृतं चरताम्) पृथ्वी पर गुप्तरूप से विचरण करने वाले चोरों या अन्य अपराधियों तथा (पापबुद्धीनाम्) पाप कर्म में बुद्धि रखने वालों के (पापविनिग्रहः) पापों पर नियंत्रण (दण्डात्+ऋते नहि कर्तुं शक्यः) दण्ड के बिना नहीं हो सकता, अतः दण्ड देने में कभी प्रमाद या शिथिलता न करें॥२६३॥ 


गुप्तचरों द्वारा किन स्थानों से अपराधों का पता लगाये―


सभाप्रपापूपशालावेशमद्यान्नविक्रयाः। चतुष्पथाश्चैत्यवृक्षाः समाजाः प्रेक्षणानि च॥२६४॥ जीर्णोद्यानान्यरण्यानि कारुकावेशनानि च। 

शून्यानि चाप्यगाराणि वनान्युपवनानि च॥२६४॥ एवंविधान्नृपो देशान्गुल्मैः स्थावरजङ्गमैः। तस्करप्रतिषेधार्थं चारैश्चाप्यनुचारयेत्॥२६६॥ (१२२-१२४)


(सभा-प्रपा+अपूपशाला) सभाओं के आयोजन स्थल, प्याऊ, मालपूआ आदि बेचने का स्थान [भोजनालय, हलवाइयों की दुकान आदि], (वेश-मद्य-अन्न-विक्रयाः) बहुरूपी वेशभूषा, मद्य तथा अनाज बेचने का स्थान [मण्डी आदि], (चतुष्पथाः) चौराहे, (चैत्यवृक्षाः) प्रसिद्धवृक्ष जहां लोग इकट्ठे होकर बैठते हैं, (समाजाः) सार्वजनिक स्थान, (प्रेक्षणानि) मनोरंजन के स्थान, (जीर्ण+उद्यान+अरण्यानि) पुराने बगीचे और जंगल, (कारुक+आवेशनानि) शिल्पगृह=शिल्प विक्रय स्थान आदि (शून्यानि अगाराणि) सूने पड़े हुए घर, (वनानि च उपवनानि) वन और उपवन, (राजा) राजा (एवंविधान् देशान्) ऐसे स्थानों में (तस्कर-प्रतिषेधार्थम्) चोरों-ठगों के निवारण के लिए (स्थावर-जङ्गमैः गुल्मैः) एक स्थान पर (पुलिस चौकी बनाकर) रहने वाले और गश्त लगाने वाले सिपाहियों के दलों को (च) और (चारैः) गुप्तचरों को (अनुचारयेत्) विचरण कराये या नियुक्त करके उनको नियंत्रित करे॥२६४-२६६॥


तत्सहायैरनुगतैर्नानाकर्मप्रवेदिभिः। 

विद्यादुत्सादयेच्चैव निपुणैः पूर्वतस्करैः॥२६७॥ (१२५)


(तत् सहायैः+अनुगतैः) उन चोर आदि के सहायकों और अनुगामियों से (नानाकर्मप्रवेदिभिः निपुणैः पूर्वतस्करैः) अनेक प्रकार के कर्मों को जानने वाले चतुर भूतपूर्व चोरों से भी (विद्यात्) चोरों का पता लगावे (च) और पता लगने पर उन्हें (उत्सादयेत्) दण्डित करें॥२६७॥


भक्ष्यभोज्योपदेशैश्च ब्राह्मणानां च दर्शनैः। 

शौर्यकर्मापदेशैश्च कुर्युस्तेषां समागमम्॥२६८॥ (१२६)


वे सहयोगी या गुप्तचर लोग (भक्ष्य-भोज्य-अपदेशैः) खाने के पदार्थों का लालच देकर (च) और (ब्राह्मणानां दर्शनैः) ब्रह्मवेत्ता विद्वानों के दर्शनों के बहाने (च) तथा (शौर्यकर्म-अपदेशैः) कोई शौर्यकर्म दिखाने के बहाने से (तेषां समागमं कुर्युः) उन चोर आदि को सिपाहियों से मिला दें, गिरफ्तार करा दें॥२६८॥


ये तत्र नोपसर्पेयुर्मूलप्रणिहिताश्च ये। 

तान्प्रसह्य नृपो हन्यात्समित्रज्ञातिबान्धवान्॥२६९॥ (१२७)


(ये) जो चोर और उसके सहयोगी (तत्र न+उपसर्पेयुः) उपर्युक्त स्थानों [२६८] पर न आवें (च) और (ये) जो चोर (मूलप्रणिहिताः) पकड़े जाने की शंका से सावधान होकर बचते रहें अर्थात् पकड़ में न आवें तो (नृपः) राजा (समित्र-ज्ञातिबान्धवान् तान्) मित्र, रिश्तेदार और बान्धवों सहित उन चोरों को (प्रसह्य) बलपूर्वक पकड़कर (हन्यात्) दण्डित करे॥२६९॥ 


प्रमाण मिलने पर ही दण्ड दे―


न होढेन विना चौरं घातयेद्धार्मिको नृपः।

सहोढं सोपकरणं घातयेदविचारयन्॥२७०॥ (१२८)


(धार्मिकः नृपः) धार्मिक राजा (होढेन विना) चोरी का माल आदि प्रमाणों के बिना (चौरं न घातयेत्) चोर को न मारे, किन्तु (सहोढं स+उपकरणम्) चोरी का माल, और सेंध मारने आदि के औजार आदि प्रमाण उपलब्ध होने पर (अविचारयन् घातयेत्) अवश्य दण्डित करे॥२७०॥ 


चोरों के सहयोगियों को भी दण्ड दे―


ग्रामेष्वपि च ये केचिच्चौराणां भक्तदायकाः।

भाण्डावकाशदाश्चैव सर्वांस्तानपि घातयेत्॥२७१॥ (१२९)


(च) और (ग्रामेषु+अपि ये केचित्) गांवों में भी जो कोई (चौराणां भक्तदायकाः भाण्डावकाशदाः) चोरों को भोजन देनेवाले, बर्तन, शरण और स्थान देने वाले हों (तान् सर्वान् अपि घातयेत्) राजा उन सबको भी दण्डित करे॥२७१॥ 


राष्ट्रेषु रक्षाधिकृतान्सामन्तांश्चैव चोदितान्।

अभ्याघातेषु मध्यस्थाञ्छिष्याच्चौरानिव द्रुतम्॥२७२॥ (१३०)


राजा (राष्ट्रेषु रक्षाधिकृतान्) राज्य में प्रजा की सेवा-सुरक्षा के लिए नियुक्त (च) और (चोदितान् सामन्तान्) सीमाओं पर नियुक्त राजपुरुषों को (अभ्याघातेषु मध्यस्थान्) यदि आक्रमण, चोरी-तस्करी आदि अपराधों में संलिप्त पायें तो उनको भी (चौरान्+इव द्रुतं शिष्यात्) चोर के समान ही शीघ्रतापूर्वक दण्ड दे। शीघ्रतापूर्वक इसलिए कहा है कि जिससे प्रजाओं के मन में राजपुरुष होने के कारण छूट जाने का संदेह न पनपे और चोरी, तस्करी पर शीघ्र नियन्त्रण हो सके।


सामूहिक हानि होने पर सहयोग न करने वाले को दण्ड―


ग्रामघाते हिताभङ्गे पथि मोषाभिदर्शने।

शक्तितो नाभिधावन्तो निर्वास्याः सपरिच्छदाः॥२७४॥ (१३१)


(ग्रामघाते) चोरों, लुटेरों आदि के द्वारा गांव को लूटने के मौके पर (हिताभङ्गे) नदियों या बांधों के तोड़ने पर (पथि मोष-अभिदर्शने) रास्ते में चोर आदि से मुकाबला होने पर (शक्तितः न+अभिधावन्तः) यथाशक्ति दौड़कर, रक्षा या बचाव न करने वालों को (सपरिच्छदाः निर्वास्याः) गृहसामग्री सहित देश से निकाल देवे॥२७४॥


राज्ञः कोषापहर्तॄंश्च प्रतिकूलेषु च स्थितान्। 

घातयेद्विविधैर्दण्डैररीणां चोपजापकान्॥२७५॥ (१३२)


(राज्ञः कोषहर्तॄन्) राजा के खजाने का धन को चुराने वाले (च) और (प्रतिकूलेषु स्थितान्) राज्य के विरोधी कार्यों में सलंग्न रहने वाले (च) तथा (अरीणाम् उपजापकान्) शत्रुओं को भेद देने वाले, इन्हें राजा (विविधैः दण्डैः घातयेत्) विविध प्रकार के दण्डों से दण्डित करे॥२७५॥


विभिन्न अपराधियों को दण्ड―


सन्धिं छित्त्वा तु ये चौर्यं रात्रौ कुर्वन्ति तस्कराः। 

तेषां छित्त्वा नृपो हस्तौ तीक्ष्णे शूले निवेशयेत्॥२७६॥ (१३३)


(ये तस्कराः) जो चोर-लुटेरे (रात्रौ सन्धिं छित्त्वा) रात को सेंध लगाकर (चौर्यं कुर्वन्ति) चोरी करते हैं (नृपः) राजा (तेषां हस्तौ छित्त्वा) उनके दोनों हाथ काटकर (तीक्ष्णे शूले निवेशयेत्) तेज शूली पर चढ़ा दे॥२७६॥


अङ्गुलीर्ग्रन्थिभेदस्य छेदयेत्प्रथमे ग्रहे।

द्वितीये हस्तचरणौ तृतीये वधमर्हति॥२७७॥ (१३४)


राजा (ग्रन्थिभेदस्य) जेबकतरे आदि चोरों की (प्रथमे ग्रहे) पहली बार पकड़े जाने पर (अङ्गुलीः छेदयेत्) अंगुलियाँ कटवादे (द्वितीये हस्तचरणौ) दूसरी बार पकड़े जाने पर हाथ-पैर कटवादे (तृतीये वधम्+अर्हति) तीसरी बार पकड़े जाने पर वध करने योग्य है॥२७७॥


अग्निदान्भक्तदाँश्चैव तथा शस्त्रावकाशदान्।

संनिधातॄंश्च मोषस्य हन्याच्चौरमिवेश्वरः॥२७८॥ (१३५)


(ईश्वरः) राजा (मोषस्य अग्निदान् भक्तदान् शस्त्र-अवकाशदान् च संनिधातॄन्) चोरों को भोजन पकाने के लिए अग्नि, भोजन, शस्त्र, स्थान देने वाले और चोरी के माल को रखने वाले लोगों को भी (चौरम्+इव हन्यात्) चोर की तरह ही [९.२७७ जैसे] दण्डित करे॥२७८॥ 


तडागभेदकं हन्यादप्सु शुद्धवधेन वा।

यद्वाऽपि प्रतिसंस्कुर्याद् दाप्यस्तूत्तमसाहसम्॥२७९॥ (१३६) 


राजा (तडागभेदकं हन्यात्) प्रजा के लिए बने तालाब आदि को तोड़ने वालों का वध करे (वा) अथवा (अप्सु शुद्धवधेन) जल में डुबोकर या साधारण उपायों से मारे (यद् वा+अपि) यदि दोषी (प्रतिसंस्कुर्यात्) तोड़े हुए को पुनः यथावत् ठीक करवा दे तो (उत्तमसाहसं दाप्यः) उसको 'उत्तम साहस' अर्थात् एक हजार पण का दण्ड [८.२३८] करे॥२७९॥


यस्तु पूर्वनिविष्टस्य तडागस्योदकं हरेत्।

आगमं वाऽप्यपां भिद्यात्स दाप्यः पूर्वसाहसम्॥२८१॥ (१३७)


(यः तु) जो व्यक्ति (पूर्वनिविष्टस्य तडागस्य) किसी के द्वारा पहले बनाये गये तालाब का (उदकं हरेत्) पानी चुराले (वा) अथवा (अपाम्+आगमं भिद्यात्) जल आने का रास्ता तोड़दे (सः पूर्वसाहसं दाप्यः) उसे 'पूर्वसाहस' अर्थात् २५० पण [८.१३८] का दण्ड दे॥२८१॥ 


समुत्सृजेद्राजमार्गे यस्त्वमेध्यमनापदि।

स द्वौ कार्षापणौ दद्यादमेध्यं चाशु शोधयेत्॥२८२॥ (१३८)


(यः तु) जो व्यक्ति (अनापदि) आपत्काल के बिना अर्थात् स्वस्थ अवस्था में (राजमार्गे) सड़क पर, मुख्य मार्ग या गली में (अमेध्यं समुत्सजेत्) मल, मूत्र आदि करे तो (सः द्वौ कार्षापणौ दद्यात्) उस पर दो 'कार्षापण' [८.१३६] दण्ड करे (च) और (आशु अमेध्यं शोधयेत्) तुरन्त उस गन्दगी को साफ करवाये॥२८२॥


आपद्गतोऽथवा वृद्धो गर्भिणी बाल एव वा। परिभाषणमर्हन्ति तच्च शोध्यमिति स्थितिः॥२८३॥ (१३९)


(आपद्गतः) कोई रोगी या आपत्तिग्रस्त व्यक्ति (वृद्धो गर्भिणी वा बालः) वृद्ध, गर्भवती या बालक राजमार्ग को गन्दा करें तो (परिभाषणम्+अर्हन्ति) उनको उसके न करने के लिए कहे या फटकार दे (च) और उनसे (तत् शोध्यम्) उसकी सफाई कराले (इति स्थितिः) ऐसी शास्त्रमर्यादा है॥२८३॥ 


चिकित्सकानां सर्वेषां मिथ्या प्रचरतां दमः।

अमानुषेषु प्रथमो मानुषेषु तु मध्यमः॥२८४॥ (१४०)


(सर्वेषां चिकित्सकानाम्) सभी चिकित्सकों में (अमानुषेषु मिथ्या प्रचरताम्) पशुओं की गलत चिकित्सा करने वालों को (प्रथमः दमः) 'प्रथम साहस' अर्थात् २५० पण [८.१३८] का दण्ड करे और (मानुषेषु मध्यमः) मनुष्यों की गलत चिकित्सा करने पर 'मध्यम साहस' अर्थात् ५०० पण का दण्ड करे॥२८४॥


संक्रमध्यवजयष्टीनां प्रतिमानां च भेदकः। 

प्रतिकुर्याच्च तत्सर्वं पञ्च दद्याच्छतानि च॥२८५॥ (१४१)


(संक्रम-ध्वजयष्टीनाम्) संक्रम अर्थात् रथ, उस रथ के ध्वजा की यष्टि जिसके ऊपर ध्वजा बांधी जाती है (च) और (प्रतिमानां भेदकः) प्रतिमा=छटांक आदिक बटखरे, जो इन तीनों को तोड़ डाले वा अधिक न्यून कर देवे (तत् सर्वं प्रतिकुर्यात्) उनको उससे राजा बनवा लेवे (च) और (पञ्चशतानि दद्यात्) जिसका जैसा ऐश्वर्य है, उसके योग्य दण्ड करे―जो दरिद्र होवे तो उससे पांच सौ पैसा राजा दण्ड लेवे; और जो कुछ धनाढ्य होवे तो पांच सौ रुपया उससे दण्ड लेवे; और जो बहुत धनाढ्य होवे उससे पांच सौ अशर्फी दण्ड लेवे॥२८५॥ 


अदूषितानां द्रव्याणां दूषणे भेदने तथा। 

मणीनामपवेधे च दण्डः प्रथमसाहसः॥२८६॥ (१४२)


(अदूषितानां द्रव्याणां दूषणे) अच्छी वस्तुओं में खराब वस्तुओं की मिलावट करके उन्हें दूषित करने पर (तथा) तथा (भेदने) वस्तुओं को बिगाड़ने तोड़ने पर (च) और (मणीनाम्+अपवेधे) मणि आदि रत्नों को अनुचित बेधने के अपराध में (प्रथमसाहसः दण्डः) 'प्रथमसाहस' अर्थात् २५० पण [८.१३८] का दण्ड दे॥२८६॥ 


समैर्हि च विषमं यस्तु चरेद्वा मूल्यतोऽपि वा।

समाप्नुयाद्दमं पूर्वं नरो मध्यममेव वा॥२८७॥ (१४३)


(यः तु) जो (नरः) मनुष्य (समैः) समानमूल्य वाली वस्तुओं के बदले (अपि वा मूल्यतः) अथवा सही मूल्य से (विषमं चरेत्) कम वस्तु देने का अथवा अधिक मूल्य लेने का अनुचित व्यवहार करे, (पूर्वं वा मध्यमम्+एव दमं समाप्नुयात्) वह अपराधानुसार 'पूर्वसाहस' अर्थात् २५० पण या 'मध्यमसाहस' अर्थात् ५०० पण [८.१३८] दण्ड का भागी होता है॥२८७॥


बन्धनानि च सर्वाणि राजा मार्गे निवेशयेत्। 

दुःखिता यत्र दृश्येरन् विकृताः पापकारिणः॥२८८॥ (१४४)


(राजा) राजा (सर्वाणि बन्धनानि) कारागार आदि (मार्गे निवेशयेत्) प्रधान मार्गों पर बनवावे (यत्र) जहां (दुःखिताः विकृताः पापकारिणः दृश्येरन्) हथकड़ी, बेड़ी आदि से दुःखी हुए, बिगड़ी दशा वाले अपराधी लोग दिखाई देते रहें [जिससे कि उनको देखकर जनता के मन में अपराधों के प्रति भय उत्पन्न होता रहे]॥२८८॥


प्राकारस्य च भेत्तारं परिखाणां च पूरकम्।

द्वाराणां चैव भङ्क्तारं क्षिप्रमेव प्रवासयेत्॥२८९॥ (१४५)


राजा (प्राकारस्य भेत्तारम्) नगर के परकोटे को तोड़ने वाले (च) और (परिखाणां पूरकम्) नगर के चारों ओर की खाई को नष्ट करने वाले (च) तथा (द्वाराणां भक्तारम्) नगर-द्वारों को तोड़ने वाले व्यक्ति को (क्षिप्रम्+एव प्रवासयेत्) तुरन्त देशनिकाला दे दे॥२८९॥


सात राजप्रकृतियाँ और उनका महत्त्व―


स्वाम्यमात्यौ पुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ सुहृत्तथा। 

सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते॥२९४॥ (१४६)


(स्वामी-अमात्यौ पुरं राष्ट्रं कोशदण्डौ सुहृत्) १. स्वामी, २. मन्त्री, ३. किला, ४. राष्ट्र, ५. कोश, ६. दण्ड व्यवस्था और, ७. मित्र (एताः सप्त प्रकृतयः) ये सात राजप्रकृतियां राज्य के मूल अंग हैं (सप्ताङ्गं राज्यम्+उच्यते) इनसे मिलकर ही राज्य 'सप्ताङ्ग'=सात अङ्गों वाला कहलाता है॥२९४॥


सप्तानां प्रकृतीनां तु राज्यस्यासां यथाक्रमम्। 

पूर्वं पूर्वं गुरुतरं जानीयाद् व्यसनं महत्॥२९५॥ (१४७)


(राज्यस्य+आसां सप्तानां प्रकृतीनां तु) राज्य की इन सात प्रकृतियों में (यथाक्रमं पूर्वं पूर्वं व्यसनं महत् गुरुतरं जानीयात्) क्रमशः पहली-पहली प्रकृति-सम्बन्धी आपत्ति को बड़ी समझे [जैसे―राजा पर आई आपत्ति सबसे बड़ी होती है, उससे कम मन्त्री पर आपत्ति, उससे कम किले पर आदि]॥२९५॥ 


सप्ताङ्गस्येह राज्यस्य विष्टब्धस्य त्रिदण्डवत्। 

अन्योन्यगुणवैशेष्यान्न किंचिदतिरिच्यते॥२९६॥ (१४८)


(इह) इस (त्रिदण्डवत्) तीन पायों वाली तिपाई के समान (सप्ताङ्गस्य विष्टब्धस्य राज्यस्य) पूर्वोक्त सात प्रकृतिरूपी मूल अंगों पर स्थित इस राज्य में (अन्योन्यगुणवैशेष्यात्) सभी अंगों के अपने-अपने गुणों की विशेषताओं से युक्त और परस्पर आश्रित होने के कारण (किंचित् न अतिरिच्यते) कोई अंग किसी से गुण में विशिष्ट या कम नहीं है अर्थात् अपने-अपने प्रसंग में सभी का विशेष महत्त्व है॥२९६॥ 


तेषु तेषु तु कृत्येषु तत्तदङ्गं विशिष्यते। 

येन यत्साध्यते कार्यं तत्तस्मिन् श्रेष्ठमुच्यते॥२९७॥ (१४९)


यतो हि (तेषु तेषु तु कृत्येषु) उन राज्य प्रकृतियों [९.२९४] के अपने-अपने कार्यों में (तत्-तत्+अङ्गं विशिष्यते) वही-वही प्रकृति-अंग विशेष है, और (यत् कार्यं येन साध्यते) जो कार्य जिस प्रकृति से सिद्ध होता है (तस्मिन् तत् श्रेष्ठम्+उच्यते) उसमें वही प्रकृति श्रेष्ठ मानी गई है, अर्थात् समयानुसार सभी प्रकृतियों की महत्ता और श्रेष्ठता है, अतः किसी को कम महत्त्वपूर्ण समझकर उपेक्षणीय न समझें॥२९७॥ 


चारेणोत्साहयोगेन क्रिययैव च कर्मणाम्। 

स्वशक्तिं परशक्तिं च नित्यं विद्यान्महीपतिः॥२९८॥ (१५०)


(महीपतिः) राजा (चारण) गुप्तचरों से (उत्साहयोगेन) सेना के उत्साह सम्बन्ध से (च) और (कर्मणां क्रियया) राज्यशक्ति-वर्धक नये-नये कार्यों के करने से अर्जित (स्वशक्तिं च परशक्तिं नित्यं विद्यात्) अपनी शक्ति और शत्रु की शक्ति की सदा जानकारी रखे और उसके अनुसार सन्धि, युद्ध आदि कार्य करे॥२९८॥


पीडनानि च सर्वाणि व्यसनानि तथैव च। 

आरभेत ततः कार्यं संचिन्त्य गुरुलाघवम्॥२९९॥ (१५१)


(सर्वाणि पीडनानि) अपने तथा शत्रु के राज्य में आई सभी व्याधि, आपत्ति आदि पीड़ाओं को (तथैव व्यसनानि) तथा व्यसनों [७.४५-५३] के प्रसार को (च) और (गुरु-लाघवं संचिन्त्य) बड़े-छोटे अर्थात् अपने और शत्रु राजा में कौन कम-अधिक शक्तिशाली है (संचिन्त्य) इन बातों पर विचार करके (ततः कार्यम्+आरभेत) उसके पश्चात् राजा सन्धि-विग्रह आदि [७.१६०-२१०] कार्य को प्रारम्भ करे॥२९९॥ 


आरभेतैव कर्माणि श्रान्तः श्रान्तः पुनः पुनः। 

कर्माण्यारभमाणं हि पुरुषं श्रीर्निषेवते॥३००॥ (१५२)


(श्रान्तः श्रान्तः) बार-बार हारा-थका हुआ भी राजा (कर्माणि पुनः-पुनः आरभेत एव) राज्य के विकास कार्यों को [७.१६०-२००] फिर-फिर अवश्य आरम्भ करे (हि) क्योंकि (कर्माणि+आरभमाणं हि पुरुषम्) कर्मों को पुनः-पुन: आरम्भ करने वाले पुरुष को ही (श्रीः निषेवते) विजयलक्ष्मी प्राप्त होती है॥३००॥


राजा के शासन में ही चार युग―


कृतं त्रेतायुगं चैव द्वापरं कलिरेव च। 

राज्ञो वृत्तानि सर्वाणि राजा हि युगमुच्यते॥३०१॥ (१५३)


(कृतं त्रेतायुगं द्वापरं च कलिः) कृतयुग, त्रेतायुग द्वापरयुग और कलियुग (सर्वाणि राज्ञः वृत्तानि) ये सब राजा के ही आचार-व्यवहार विशेष हैं अर्थात् राजा जैसा राज्य को बनाता है उस राज्य में वैसा ही युग बन जाता है [९.३०२] (राजा हि युगम्+उच्यते) वस्तुतः राजा ही 'युग' कहलाता है अर्थात् राजा ही युगनिर्माता है॥३०१॥


कलिः प्रसुप्तो भवति स जाग्रद् द्वापरं युगम्। 

कर्मस्वभ्युद्यतस्त्रेता विचरंस्तु कृतं युगम्॥३०२॥ (१५४)


(प्रसुप्तः कलिः भवति) जब राजा सोता है अर्थात् राज्य के पालन-संवर्धन कार्यों की उपेक्षा करता है तो वह 'कलियुग' होता है, (सः जाग्रत् द्वापरं युगम्) जब वह जागता है अर्थात् राज्य कार्य को साधारणतः करता रहता है तो वह 'द्वापरयुग' है, और (कर्मसु+अभ्युद्यतः त्रेता) राज्य संवर्धन और प्रजा-हितकारी कार्यों में जब राजा सदा उचित उद्यत रहता है किन्तु यदि राज्यकार्य उस तत्परता से सम्पन्न नहीं होते तो वह 'त्रेतायुग' है, (विचरन् तु कृतं युगम्) जब राजा सभी कर्त्तव्यों को उत्साह और तत्परतापूर्वक करे और अपनी प्रजा के दुःखों को जानने के लिए राज्य में तत्पर होते हुए उन्हें जानकर न्यायानुसार सुख प्रदान करने के लिए उद्यत रहे, राजा का यह सत्यगुण है॥३०२॥


राजा के आठ रूप―


इन्द्रस्यार्कस्य वायोश्च यमस्य वरुणस्य च। 

चन्द्रस्याग्नेः पृथिव्याश्च तेजोवृत्तं नृपश्चरेत्॥३०३॥ (१५५)


(नृपः) राजा (इन्द्रस्य+अर्कस्य वायोः यमस्य वरुणस्य चन्द्रस्य+अग्नेः पृथिव्याः तेजः वृत्तम् चरेत्) इन्द्र, सूर्य, वायु, यम, वरुण, चन्द्रमा, अग्नि, पृथिवी इनके तेजस्वी स्वभाव के अनुसार ही आचरण-व्यवहार करे [द्रष्टव्य ७.४-७]॥३०३॥


राजा का इन्द्ररूप आचरण―


वार्षिकांश्चतुरो मासान् यथेन्द्रोऽभिप्रवर्षति। 

तथाऽभिवर्षेत्स्वं राष्ट्र कामैरिन्द्रव्रतं चरन्॥३०४॥ (१५६)


(यथा+इन्द्रः वार्षिकान् चतुरः मासान्) जैसे इन्द्र [=वृष्टिकारक शक्ति] प्रत्येक वर्ष के श्रावण आदि चार मासों में (अभिप्रवर्षति) जल बरसाता है (तथा इन्द्रव्रतं चरन्) उसी प्रकार इन्द्र के व्रत को आचरण में लाता हुआ राजा (स्वं राष्ट्र कामैः अभिवर्षेत्) अपने राष्ट्र की प्रजाओं की कामनाओं को पूर्ण करे, यही राजा का इन्द्रवत नामक आचरण है॥३०४॥ 


राजा का सूर्यरूप आचरण―


अष्टौ मासान् यथाऽऽदित्यस्तोयं हरति रश्मिभिः। 

तथा हरेत् करं राष्ट्रान्नित्यमर्कव्रतं हि तत्॥३०५॥ (१५७)


(यथा+आदित्यः) जैसे सूर्य (रश्मिभिः) अपनी किरणों से (अष्टौ मासान् तोयं हरति) आठ मास तक जलग्रहण करता है (तथा) उसी प्रकार राजा (राष्ट्रात् नित्यं करं हरेत्) राष्ट्र से अपने अधिकारियों के माध्यम से थोड़ा-थोड़ा कर ग्रहण करे [७.१२७-१२९] (अर्कव्रतं हि तत्) यही राजा का 'अर्कव्रत' है॥३०५॥


राजा का वायुरूप आचरण―


प्रविश्य सर्वभूतानि यथा चरति मारुतः। 

तथा चारैः प्रवेष्टव्यं व्रतमेतद्धि मारुतम्॥३०६॥ (१५८)


(यथा मारुतः) जैसे वायु (सर्वभूतानि प्रविश्य) सब प्राणियों में प्रविष्ट होकर (चरति) विचरण करता है (तथा) उसी प्रकार (चारैः प्रवेष्टव्यम्) राजा को अपनी तथा शत्रु की प्रजाओं में गुप्तचरों द्वारा सर्वत्र प्रवेश रख कर राज्य सम्बन्धी सभी गतिविधियों का ज्ञान करना चाहिए (एतत् हि मारुतं व्रतम्) यही राजा का 'मारुतव्रत' है॥३०६॥ 


राजा का यमरूप आचरण―


यथा यमः प्रियद्वेष्यौ प्राप्ते काले नियच्छति। 

तथा राज्ञा नियन्तव्याः प्रजास्तद्धि यमव्रतम्॥३०७॥ (१५९)


(यथा यमः) जिस प्रकार यम=ईश्वर की नियामक शक्ति=(काले प्राप्ते) कर्मफल का समय आने पर (प्रियद्वेष्यौ नियच्छति) प्रिय और शत्रु सबको अपने वश में करके यथायोग्य दण्डित करता है (राज्ञा तथा प्रजाः नियन्तव्याः) राजा को उसी प्रकार अपराध करने पर प्रिय-शत्रु सभी प्रजाओं को न्यायपूर्वक पक्षपातरहित दण्ड देना चाहिए (तत् हि यमव्रतम्) यही राजा का 'यमव्रत' है॥३०७॥ 


राजा का वरुणरूप आचरण―


वरुणेन यथा पाशैर्बद्ध एवाभिदृश्यते। 

तथा पापान्निगृह्णीयाद् व्रतमेतद्धि वारुणम्॥३०८॥ (१६०)


(यथा) जिस प्रकार अपराधी मनुष्य (वरुणेन पाशैः बद्धः एव+अभिदृश्यते) वरुण के द्वारा पाशों से अर्थात् जलीय या समुद्र की तरंगों, भंवरोंरूपी बंधनों में फंसकर जैसे मनुष्य बंधा-जकड़ा हुआ दीखता है अर्थात् अवश्य जकड़ा जाता है (तथा) उसी प्रकार राजा भी (पापान् निगृह्णीयात्) पापियों=अपराधियों को सुधारने तक साम-दाम भेद-दण्ड आदि से वश में करके रखे या बन्धन में=कारागार में डाले रखे (एतत् हि वारुणं व्रतम्) यही राजा का 'वरुणवत' है॥३०८॥


राजा का चन्द्ररूप आचरण―


परिपूर्णं यथा चन्द्रं दृष्ट्वा हृष्यन्ति मानवाः। 

तथा प्रकृतयो यस्मिन्स चान्द्रव्रतिको नृपः॥३०९॥ (१६१)


(यथा) जिस प्रकार (परिपूर्णं चन्द्रं दृष्ट्वा मानवाः हृष्यन्ति) पूर्ण प्रकाशित चन्द्रमा को देखकर मनुष्य प्रसन्न होते हैं (तथा) उसी प्रकार (यस्मिन् प्रकृतयः) जिस राजा को पाकर-देखकर, उस द्वारा प्रदत्त सुखों से प्रजाएं स्वयं को हर्षित अनुभव करें (सः नृपः चान्द्रव्रतिकः) वह राजा का 'चन्द्रव्रत' है॥३०९॥


राजा का अग्निरूप आचरण―


प्रतापयुक्तस्तेजस्वी नित्यं स्यात् पापकर्मसु ।

दुष्टसामन्तहिंस्रश्च तदाग्नेयं व्रतं स्मृतम्॥३१०॥ (१६२)


राजा (पापकर्मसु) पापियों में=पाप करने वालों के लिए (नित्यम्) सदैव (प्रतापयुक्तः तेजस्वी स्यात्) संतापित करने वाला और तेज से प्रभावित कर भयभीत करने वाला होवे (च) और (दुष्टसामन्तहिंस्रः) दुष्ट मन्त्री, माण्डलिक राजा आदि को दण्डित करने वाला होवे (तत्+आग्नेयं व्रतं स्मृतम्) यही राजा का 'आग्नेयव्रत' कहा है॥३१०॥ 


राजा का धरारूप आचरण―


यथा सर्वाणि भूतानि धरा धारयते समम्। 

तथा सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः पार्थिवं व्रतम्॥३११॥ (१६३)


(यथा) जिस प्रकार (धरा) धरती (सर्वाणि भूतानि समं धारयते) सब प्राणियों को बिना किसी भेदभाव अर्थात् समानभाव से धारण करती है (तथा) उसी प्रकार (सर्वाणि भूतानि बिभ्रतः) समान भाव से सभी प्राणियों का धारण-पोषण करने वाले राजा का समान व्यवहार होना (पार्थिव व्रतम्) समान व्यवहार रखना 'पार्थिव व्रत' होता है॥३११॥ 


एतैरुपायैरन्यैश्च युक्तो नित्यमतन्द्रितः।

स्तेनान् राजा निगृह्णीयात्स्वराष्ट्रे पर एव च॥३१२॥ (१६४)


(राजा) राजा (एतैः+उपायैः च अन्यैः युक्तः) इन पूर्वोक्त उपायों तथा इनसे भिन्न जो और उत्तम उपाय हों उनसे युक्त होकर (नित्यम्-अतन्द्रितः) सदा आलस्यहीन रहता हुआ (स्वराष्ट्रे च परे+एव) अपने राष्ट्र में रहने वाले और दूसरे राष्ट्र से आकर चोरी करने वाले (स्तेनान् निगृह्णीयात्) चोरों-ठगों और लोक कण्टकों को वश में करे॥३१२॥


एवं चरन् सदा युक्तो राजधर्मेषु पार्थिवः।

हितेषु चैव लोकस्य सर्वान्भृत्यान्नियोजयेत्॥३२४॥ (१६५)


(पार्थिवः) राजा (एवं चरन्) पूर्वोक्त [७.१ से ९.३१२] प्रकार के आचरण करता हुआ (सदा राजधर्मेषु युक्तः) सदा राजधर्मों में स्वयं संलग्न रहे (सर्वान् भृत्यान् एव) सभी राजकर्मचारियों को भी (लोकस्य हितेषु नियोजयेत्) प्रजाओं के हित सम्पादन में लगाये रखे॥३२४॥


राजधर्म विषय की समाप्ति का संकेत―


एषोऽखिलः कर्मविधिरुक्तो राज्ञः सनातनः। 

इमं कर्मविधिं विद्यात्क्रमशो वैश्यशूद्रयोः॥३२५॥ (१६६)


(एषः) यह [७.१ से ९.३१२ तक] (राज्ञः सनातनः अखिलः कर्मविधिः उक्तः) राजा का सनातन और सम्पूर्ण कर्त्तव्य-विधान कहा अर्थात् शाश्वत और सम्पूर्ण राजनीति का विधान कहा। अब (वैश्य-शूद्रयोः) वैश्यों और शूद्रों की (कर्मविधिं इमं विद्यात्) कर्त्तव्यों की विधि को इस आगे कहे अनुसार जानें―[उनका वर्णन अग्रिम दशम अध्याय में है]॥३२५॥


[नवम अध्याय के ३२६ से ३३६ श्लोक दशम अध्याय के अन्तर्गत देखिए] 


इति महर्षिमनुप्रोक्तायां सुरेन्द्रकुमारकृतहिन्दीभाष्यसमन्वितायाम् अनुशीलन-समीक्षाभ्यां विभूषितायाञ्च विशुद्धमनुस्मृतौ राजधर्मात्मकः नवमोऽध्यायः॥





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