सत्यार्थ प्रकाश की तेजधाराएँ

 ओ३म् 


सत्यार्थ प्रकाश की तेजधाराएँ


सम्पूर्ण सत्यार्थप्रकाश Click now

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लेखक प्रा. दयाल आर्य


अनुवादक आर्य रणसिंह यादव


प्रकाशक

१९९१२२१ वानप्रस्थ साधक आश्रम आर्यवन, रोजड़, पो. सागपुर, गुजरात- ३८३३०७. दूरभाष : ०२७७० २८७४१७, २९१५५५.


Email: vaanaprastharojad@gmail.com Website : vaanaprastharojad.org


प्रकाशन : तिथी मई २०१३ 

लागत व्यय : ५/- रूपये

संस्करण : तृतीय हिन्दी 

सृष्टिसंवत : १,९६,०८,५३,११४

मुख्य वितरक : रणसिंह आर्य द्वारा

डॉ. सद्गुणा आर्या "सम्यक्" गांधीग्राम, जूनागढ़ - ३६२००१. 

प्राप्तिस्थान


१. आर्य समाज मन्दिर, महर्षि दयानन्द मार्ग, रायपुर दरवाजा बाहर, अहमदाबाद- २२. (गुजरात)

२. गोविन्दराम हासानन्द, ४४०८, नई सड़क, दिल्ली-६.

३. आर्य प्रकाशन, ८१४, कुण्डेवालान, अजमेरी गेट, दिल्ली - ६.

४. अरविन्द राणा, ७९१/डी/३, पञ्चशील मार्ग, सैक्टर- २१, गांधीनगर.

५. ऋषि उद्यान, आनासागर, पुष्कर रोड़, अजमेर (राजस्थान) 

६. आर्य समाज मन्दिर, सी-३, ब्लोक, जनकपुरी, नई दिल्ली-५८. 

७. आर्य समाज मन्दिर, नवाडेरा, भरूच - ३९०००१. (गुजरात) 

८. आर्य समाज मंदिर, पोरबंदर, राजकोट, भरुच, मोरबी, टंकारा, जूनागढ़, गांधीनगर, आणंद, जामनगर, भावनगर आदि ।


मुद्रक : राज ग्राफिक्स, अहमदाबाद, फोन : २५६२५३०७

प्रस्तावना


वैदिक धर्म से सम्बन्धित अनेक महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त जिनको हमने अपने अज्ञान, आलस्य प्रमादादि कारणों से भुला दिया था, जो लुप्त प्रायः हो गये अथवा जिनमें हमें संशय व अश्रद्धा उत्पन्न हो गई थी उन सभी सिद्धांतों को स्वामी दयानन्द सरस्वती जी ने अपने अमर ग्रन्थ 'सत्यार्थ प्रकाश' के माध्यम से हमें पुनः प्राप्त कराया ।


अपने अद्वितीय क्रान्तिकारी ग्रन्थ में स्वामी जी ने, उन सभी विशिष्ट विषयों की विशद चर्चा की है, जो मानव जाति के उत्थान के लिये आवश्यक है । चाहे वे धर्म हो या ईश्वर, परिवार हो या समाज, सभ्यता हो या संस्कृति, शिक्षा हो या राजनीति, व्यवसाय हो या दण्डनीति, साधना हो या मुक्ति । देश की स्वतन्त्रता के बाद के ५० वर्षो में विभिन्न मत, पंथ, सम्प्रदायों के बुद्धिजीवियों द्वारा सर्वाधिक संख्या में किसी ग्रन्थ का स्वाध्याय के लिये स्वागत करने में आया हो तथा जिससे लोग सर्वाधिक प्रभावित हुए हों व 'सत्यार्थप्रकाश' ही है जिसकी संख्या लगभग तीस लाख से अधिक है।


सत्यार्थ प्रकाश का महत्त्व दर्शाने वाली और परिचय कराने वाली मूल गुजराती से अनुवादित यह छोटी सी पुस्तिका आपके हाथ में है। जिसे पढ़कर पाठकों के मन में अवश्य इस कालजयी ग्रन्थ को पढ़ने की तीव्र उत्कण्ठा उत्पन्न होगी इस आशा और विश्वास के साथ ।


- डॉ०  सद्गुणा आर्या

सत्य


केवल ऋत्


मात्र सत्य


विशुद्ध सत्य 


और प्रकाश ?


सत्य का


सत्य के अर्थ का


परमात्मा की यथार्थ वेदवाणी का 


ब्रह्मा से लेकर जैमिनी पर्यन्त ऋषियों के 


सत्य बोध का


इस सत्य के अर्थ का प्रकाश अर्थात्


'सत्यार्थ प्रकाश' !


अमर ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' !!


कालजयी ग्रंथ 'सत्यार्थ प्रकाश' !!!


और इस सत्य के अर्थ का प्रकाश करनेहारा ?


पांच हजार वर्षों के तिमिरोच्छेदक


अंधकार विनाशक


महान ज्योतिधर


वेद भास्कर


सत्य अर्थ के प्रकाश की तेज धाराओं को फैलानेहारा


महर्षि दयानन्द सरस्वती !


और प्रयोजन ?


एक ही, हां मात्र एक ही !


जो पदार्थ जैसा हो उसे वैसा ही मानना और मनवाना


यही सत्य का वास्तविक स्वरूप प्रकट करना । 


इस प्रकट सत्य का ग्रहण और असत्य का त्याग करना।


हठ को छुड़ाकर हकीकत का स्वीकार कराना । 


इसके लिये -


धर्म के नाम पर मत पंथ वाद संप्रदाय मजहब के चंगुल से मनुष्य को बाहर निकालकर खरे मानवरूप में निर्माण करना ।


परस्पर प्रेम, सौहार्द और सुख के मार्ग पर मानव समाज को अग्रसर करना चलाना ।


किसी देश या जाति के लिये ही नहीं परन्तु सम्पूर्ण मानव जाति की उन्नतिके लिये सत्यार्थ पथ प्रदर्शित करना मननशील मानवों को गहन अंधकार से छुड़ा 'परमतेज' के दर्शन कराना


संसार का कल्याण करना ही एक मात्र प्रयोजन । 


महर्षि दयानन्द का सत्यार्थ प्रकाश की रचना करने का महान उद्देश्य सम्पूर्ण मानव जाति को एक वैदिक मानवधर्म के झण्डे के नीचे एकत्रित करना था । इसके लिये मजहब, पंथ, साम्प्रदायो को धर्म में परिवर्तित करना यह उनका लक्ष्य था । कारण कि सम्प्रदायों का आधार धर्म है, परन्तु इनकी विकृतियों, रूढ़ियों और अन्धविश्वासों ने धर्म को हिन्दु-ईसाई-मुस्लिम आदि मजहबों में रूपान्तरित कर दिया है । जो इन विकृतियों को दूर कर दिया जाय तो सम्पूर्ण मानवजाति को एक धर्मी बनाया जा सकता है । 


इस महान् कार्य के लिये स्वामी दयानन्द ने सर्व प्रथम चाँदपुर के मेले में साम्प्रदायिक विद्वानों को इकट्ठा करके, परस्पर सत्यासत्य का विचार करके, धर्म में हुई विकृतियों और परस्पर के द्वेष को दूर करने का प्रयत्न किया क्योंकि उनकी दृष्टि में यह कार्य इस तरह सरलता से हो सकता था । परन्तु भोली भाली जनता को भ्रमजाल में फंसाये रखने वाले, स्वार्थ सिद्ध करने हारे मजहबी साम्प्रदायिकों ने पूर्ण साथ सहकार नहीं दिया।


सत्यार्थ प्रकाश ग्रंथ उपरोक्त दृष्टिकोण से लिखने में आया है। परस्पर के द्वेष का नाश करना यह एक मात्र सत्यार्थ प्रकाश का उद्देश्य है। जो लोग सत्यार्थ प्रकाश की इस भावना को नहीं समझते वे घौर अंधकार में हैं। स्वामी दयानन्द ने सम्पूर्ण ग्रन्थ में किसी के प्रति व्यक्तिगत रूप से आक्षेप नहीं किया है। किन्तु सांप्रदायिक विकृतियों की सप्रमाण समीक्षा की है ।


इन विकृतियों में ईश्वर और मनुष्य के बीच कोई अवतारी पुरुष अथवा पैगंबर का होना, उनमें चमत्कार होना और उनकी पूजा करनी और करानी यह सभी सम्प्रदायों में लगभग समानरूप से देखने में आता है।


इन विकृतियों का आरम्भ महात्मा बुद्ध और महावीर के समय से हुआ है। इन महात्माओं की मृत्यु के बाद उनके अनुयायिओं ने ईश्वर के स्थान पर उनकी पूजा शुरू कर दी । देखा देखी आर्य - हिन्दुओंने भी दस से चौबीस अवतारों की कल्पना करके बौद्धों के समान मन्दिर बनवा पूजा पाठ का आडम्बर शुरू कर दिया। ऐसा ही आडम्बर रोमन कैथोलिक ईसाइयोंने इशु और मरियम के नाम पर अपने विशाल चर्चों (गिरजाघरों) में शुरू कर दिया । मुस्लिमोंने मोहम्मद साहब की मूर्ति की स्थापना तो नहीं की परन्तु उन्हे खुदा के साथ एक विशेषस्थान प्रदान करके उनके जीवन के साथ अनेक चमत्कार जोड़ दिये। 


स्वामी दयानन्द का यह महान् संदेश है कि ईश्वर ज्ञान का स्रोत, सर्वशक्तिमान, सृष्टि का कर्ता, व्यवस्थापक और नियामक है। इससे विपरीत महापुरुष महान् से महान् होते हुए भी हाड मांस के पिंजरे में बन्धा हुआ, पुण्य-पाप का कर्त्ता, आवागमन में चक्कर काटने वाला, कर्म बन्धन में परतंत्र ऐसा एक मनुष्य है, जिससे उसमें मानवीय दुर्बलता होनी स्वभाविक है। अतः मनुष्य कभी भी ईश्वर का स्थान नहीं ले सकता ।


ऋषि दयानन्द का यह तत्त्वदर्शन ही वैदिक धर्म है । इस तत्त्वदर्शन से विपरीत मान्यता ही विकृति है। और संसार के सभी मत-पंथ इस विकृति से ग्रस्त है। 


सभी सम्प्रदायों में विकृतिरूपी बीमारी समान है इसलिये इसका उपचार भी समान है, इस दृष्टिकोण से ऋषि दयानन्द ने युग परिवर्तनकारी क्रान्तिकारी, दिव्य प्रासादिक ग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश की रचना की ।


ग्रंथ रचना


इस अनुपम ग्रंथ की रचना का आधार महर्षि दयानन्द का विशाल शास्त्रज्ञान, व्यापक अनुभव और दिव्य प्रतिभा है ।


कार्ल मार्कस ने इंग्लैन्ड में विशाल ग्रंथालय, का उपयोग करके ३४ (चौतीस) वर्षों में "केपिटल" ग्रन्थ को पूरा किया। परन्तु महर्षि दयानन्दने सत्यार्थ प्रकाश जैसे अद्भुत ग्रन्थ की रचना कितने काल में की वह जानते हों ? 


साढ़े तीन मास !


हां मात्र साढ़े तीन मास (महिने) में मौखिक बोलकर महान ग्रंथ की रचना की !


इस मानव निर्माण शास्त्र में ३७७ ग्रंथों के प्रमाणों को उद्धृत किया, १५४२ संस्कृत मंत्र - श्लोकों को लिखा, १८८६ प्रमाणों की संख्या प्रस्तुत की। ऋग्वेद से लेकर पूर्वमीमांसा तक लगभग तीन हजार संस्कृत ग्रंथों और भाषा के दूसरे अनेक ऐसे हजारों ग्रन्थों का निचोड़ दर्शाया ।


१. महर्षि दयानन्द भ्रान्ति निवारण में लिखते हैं कि मैं अपने निश्चय और परीक्षा के अनुसार ऋग्वेद से लेकर पूर्व मीमांसा पर्यन्त अनुमान से लगभग तीन हजार ग्रन्थों को मानता हूँ ।


स्वरूप और विषय


इस बृहत्काय ग्रंथ में चौदह उल्लास अर्थात् आनन्द देनेवाले वा प्रकाश फैलानेवाले प्रकरणों की समुल्लास नामों से रचना की गई है।

पूर्वार्द्ध में सामान्य भूमिका के साथ दश समुल्लास क्रमशः दश श्रेणियां चढ़ता चढ़ता मनुष्य विशुद्ध मानवरूप में निर्माण होकर जीवन के उद्देश्य को प्राप्त कर सके उसके लिये विधि है ।


प्रथम समुल्लास में - ईश्वर के सच्चे स्वरूप की पहचान कराने के लिये एक सौ नामों की व्याख्या की है।


दूसरे में - संतानों की शिक्षा और माता पिता के कर्तव्य दर्शाये हैं ।


तीसरे में - ब्रह्मचर्य और विद्या प्राप्ति से जीवन की सफलता बतायी है ।


चौथे में - गृहस्थ धर्म बतलाकर सुखी संसार की चाबियों का गुच्छा झुलाया है ।


पाँचवें में - मुमुक्षु के लिये वानप्रस्थ और संन्यस्त की राह दर्शायी है ।


छठे में - राजधर्म, आर्य राजनीति का दर्पण और सुराज्य का चित्र खींचा है


सातवें में - वेदज्ञान और ईश्वर के स्वरूप को प्रकट किया है।


आठवें में - सृष्टि उत्पत्ति का विज्ञान और तत्वज्ञान का दर्शन कराते हुए "स्वराज्य'' का शंखनाद किया है ।


नौवें में - विद्या और अविद्या, बन्ध और मोक्ष के स्वरूप को जानकार ही मानव जीवन सफल हो सकता है, यह संदेश सुनाया है ।


दशवें में - आचार अनाचार भक्ष्य अभक्ष्यादि से व्यक्ति, समाज, देश और जाति के उत्थान के लिये प्रेरणा के पीयूष का पान कराया है।


इस प्रकार पूर्वार्द्ध यह मनुष्य जीवन की सार्थकता को पूर्ण करने के लिये बताई हुई "विधि" की "दश पैडियों" की एक सीढ़ी है ।


पूर्वार्द्ध यह बाल और युवा, गृहस्थ और त्यागी, स्त्री और पुरुष, राजा और रंक सब के लिये आत्मोन्नति के शिखर पर चढ़ने की निसरणी है।


यह लौकिक अभ्युदय और नि: श्रेयस की मंजिल तक पहुचाने की नि: श्रेणी है ।


यह तप, त्याग और प्रेम के नैसर्गिक चढ़ान में सबल, विमल, निर्मल, अविचल ऐसी सुवर्ण सोपान दशक की सनातन, संलग्न एक नि: सरणी है - उत्सरणी है।


और उत्तरार्द्ध ?


जहां "विधि" होती है वहां "निषेध" भी होता है।


पूर्वार्द्ध में दर्शाये गये आत्मोन्नति के मार्ग पर कदम बढ़ाते समय अन्यों द्वारा बीच में विघ्न, बाधाएँ और अन्तरायों का झुण्ड खड़ा कर दिया जाये तब इसे पहचानना जरूरी हो जाता है ।


ईश्वर पुत्र - ऋषि मुनियों की सन्तान, वीरों की वारसदार यह आर्य जाति देवत्व के पथ से कैसे भटक गई ? दीन-हीन किस कारण बनी ? पतन के गहरे गड्ढे में कैसे गिर पडी ?


कारण ?


इसने विधि को छोड़ दिया, ग्रहण करने योग्य को त्याग दिया । निषेध को अपना लिया - त्याज्य को धारण किया ।


वैदिक धर्म के उदात्त विधि वाक्यों को छोड़ दिया, परिणाम स्वरूप सम्प्रदाय और मत-मतान्तरों के निषिद्ध-त्याज्य अन्तरायों ने इसे घेर लिया ।


इसलिये पूर्वार्द्ध में स्वयं कहां खडा है, स्वयं की क्या स्थिति है, यह "स्व" की परीक्षा करके जान लेने के पश्चात् उत्तरार्द्ध में "पर" या पराये की परीक्षा का पथ प्रदर्शित किया है ।


जिससे वह किसी मत-मतान्तरों द्वारा बुद्धि भ्रम के चक्कर में न पडे। दूसरों को भ्रमजाल में न फसाये और न फसने दे ।


इसलिये अन्तिम चार समुल्लासो में -


ग्याहरवें में - हिन्दुओं के मत मतान्तरों के भ्रमजाल का पर्दाफास किया है ।


बारहवें में - बौद्ध, जैन और चार्वाक मतों के दुर्गम दुर्ग को भेद डाला।


तेहरवें में - ईसाई मत के १३० विषयों को मानव की सामान्य बुद्धि की कसौटी पर चढ़ाकर क्रान्तिकारी विचारों की चिनगारी जगा कर सबको विचारने पर विवश किया।


चौदहवें में - इस्लाम की, केवल कुरान के १५९ सिद्धान्तों के ढोल पर तर्क और युक्ति की डण्डी बजाकर पोल खोल दी ।


इन चारों समुल्लासों को लिखने से पहले प्रत्येक की अनुभूमिका में स्पष्टता करते हुए कहा कि इनमें कोई व्यक्तिगत द्वेष, किसी समाज के प्रति घृणा, किसी जाति पर आक्षेप करने में नहीं आया, परन्तु सत्य का प्रचार और प्रसार मात्र उद्देश्य है ।


जिससे कि प्रत्येक मनुष्य प्रथम "स्व" की पश्चात् 'पर' की परीक्षा का अधिकार प्राप्त करके सत्य के निकट पहुँच सके ।


कैसी सुन्दर और अद्भुत ग्रंथ रचना कि जिससे मानवरूपी क्षुद्र प्राणी सत्यार्थ के शिक्षणालय में प्रवेश पाकर प्रथम श्रेणी में आस्तिकता से 'ईश्वर की' पहचान प्राप्त कर क्रमशः चौदहः श्रेणियों में 'स्व' - 'पर' और 'परात्पर' का अभ्यास करता हुआ उच्चतम विश्व विद्यालय में ज्ञानामृत के घूंट पीता हुआ सम्पूर्ण मानवरूप में निर्माण पाकर विशुद्ध मानव होने की दीक्षा प्राप्त कर सके ।

धन्य ! युग द्रष्टा, आचार्यकुल - कमल - दिवाकर दयानन्द ! आपके इस सर्वतोभद्र, सत्यप्रकाशक, मानव निर्माण के शिक्षाग्रन्थ सत्यार्थप्रकाश को !!! 


इसलिए तो मुनिवर गुरुदत्त विद्यार्थी अपना अन्तरतम हृदय खोलकर कहते हैं कि - 


यदि सत्यार्थ प्रकाश की एक प्रति का मूल्य एक हजार रूपये भी होता तब भी मैं अपनी सम्पूर्ण सम्पत्ति को बेचकर इसे खरीदता । कारण कि मैं जहाँ जहाँ भी इसमें दृष्टि करता हूँ वहाँ वहाँ इसमें ऐसी विद्या भरी पड़ी है कि मानव मात्र की बुद्धि को चकित कर दे, मैंने इस ग्रन्थ को अठारह बार विचार-पूर्वक पढ़ा है। प्रत्येक समय मुझें नई नई बातें मिली हैं । 


अमर शहीद रामप्रसाद बिस्मिल फांसी के तख्त पर चढ़ने से एक दिन पूर्व समाप्त की हुई अपनी आत्मकथा में मानव निर्माण के इस अद्भुत ग्रन्थ के विषय में लिखते हैं कि -


"मैंने सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा जिससे जीवन ही बदल गया, सत्यार्थ प्रकाश के अध्ययन ने मेरे जीवन के इतिहास में एक नया ही पृष्ठ जोड दिया ।


…..परमात्मा से मेरी प्रार्थना है कि वह मुझे इस देश में जन्म दे जिससे कि मैं उसकी पवित्र वाणी वेदवाणी का अनुपम नाद मनुष्य मात्र के कानों तक पहुंचाने में समर्थ हो सकूँ ।


इस मानव निर्माण के अद्भुत ग्रन्थ सत्यार्थ प्रकाश के पूर्वार्द्ध और उत्तरार्द्ध की अनुपम रचना देखकर आयुर्वेद का प्रयोजन बतलाते हुए भगवान आत्रेय और धन्वन्तरि के शब्द याद आ जाते हैं कि -


स्वस्थ के स्वास्थ्य का रक्षण करना और रोगियों को रोगमुक्त करना यह आयुर्वेद का प्रयोजन है । (चरक सूत्र ३०/३१ एवं सुश्रुत सूत्र १/१३)


ठीक सत्यार्थ प्रकाश का पूर्वार्द्ध यह स्वस्थ व्यक्ति, समाज, जाति और राष्ट्र के स्वास्थ्य का रक्षण करने हारा है, वेदोक्त विधि है, मंडन है ।


उत्तरार्द्ध यह बीमार व्यक्ति, समाज, जाति और राष्ट्र के रोग का नाश करने के लिये अति आवश्यक ऐसी कडवी औषधियों का प्रयोग रूपी खण्डन और आलोचना के रूप में है ।


अमर हुतात्मा पण्डित लेखराम जी ने इस बात सदृष्टान्त सुन्दर शब्दों में कहा है कि - 


सत्यार्थ प्रकाश ऐसे परोपकारी मनुष्य के समान है जिसके एक हाथ में औषधि की शीशी और दूसरे हाथ में रोगी के लिये आरोग्यप्रद भोजन लिये हुए है। जिसके उत्तरार्द्ध में औषधि है तो पूर्वार्द्ध में वेदरूपी स्वास्थ्य का मण्डनरूपी आहार रोगी के लिये अत्यन्त आवश्यक है ।


सत्यार्थ प्रकाश खण्डन का ग्रन्थ होने का भ्रम फैलानेवालों को समझ लेना चाहिए कि उत्तरार्द्ध यह रोगी की औषधि है । पूर्वार्द्ध यह स्वस्थ जीवन के लिये अमृत है । अतः स्वास्थ्य के रक्षण के लिये, बीमारी को दूर करने के लिये दोनों की परम आवश्यकता है।


तदुपरान्त महर्षि दयानन्द का बाह्य शरीर जैसे भव्य और तेजस्वी था वैसे ही उनके मानस शरीर का जिसे दर्शन करना हो, उनके आत्मा को पहचानना हो उसे सत्यार्थ प्रकाश की भूमिका, अनुभूमिकाओं, स्वमंतव्यामंतव्य से उनकी मान्यता में और ग्रन्थ के आदि तथा अंत में उद्धृत वेदमंत्रों द्वारा उनके हृदय के भावों का अवलोकन जरूरी है। यह देखनेवाले को ऋषि के अन्दर से मंथन होकर निकलता प्रेम, उदारता, नम्रता, विवेक, विनय और निष्पक्षता के दर्शन होंगे। उनमें से सत्यम्, शिवम् और सुन्दरम् की भावना झरती दिखाई देगी और पाठक इस भावना को अपने अंदर में आत्मसात् करते हुए पढ़ेगा तो जीवन की ज्वलंत ज्योति के समान यह ग्रन्थ विश्वकल्याणकारी है यह अवश्य अनुभव करेगा ।


सत्यार्थ प्रकाश का प्रभाव


सत्यार्थ प्रकाश यह क्रान्ति का अग्रदूत है। विचारों की चिन्गारी है। कभी न बुझ सके, न कम्पित हो सके ऐसी सदा प्रज्वलित रहने वाली दिव्यज्वाला है। अज्ञान, अंधकार और अविद्या का तिमिर इससे दूर है भागता है।


एक बार सत्यार्थ प्रकाश पढ़े हुए व्यक्ति को कोई भ्रम में डाल नहीं सकता । कोई देशी विदेशी सम्प्रदाय या मजहब उसे धोखा नहीं दे सकता। विद्वानों की दोहरी चाल को वह तुरन्त पहचान लेता है । एक सामान्य कोटि का मानव इसे पढ़कर बड़े बड़े धर्माचार्य-पण्डित, पोप-पादरी, मुल्ला-मोलवी के वाक्जाल में फंस नहीं सकता मत मतान्तरों के घेरे में कैद नहीं हो सकता । इसलिये आजादी के विजयी योद्धा स्वातंत्र्य वीर विनायक दामोदर सावरकर कहते हैं कि -


"सत्यार्थ प्रकाश की विद्यमानता में कोई धर्मावलंबी अपने मत की बडाई मार नहीं सकता । हिन्दु जाति की ठण्डी नसों में गरम लहु का संचार करनेहारा यह ग्रन्थ अमर रहे यही मेरी कामना है ।"


सत्यार्थ प्रकाश सामान्य मनुष्य को देवत्व की ओर लेजाने वाला प्रकाश-स्तंभ है। इसलिये ही तो लाला लाजपतराय कहते हैं -


"गुरुदेव दयानन्द रचित सत्यार्थ प्रकाश मेरे जीवन में प्रकाश करने वाला "सूर्य समान है"


इस बात का समर्थन करते हुए डॉ. श्यामाप्रसाद मुकरजी भी कहते हैं कि - "युग निर्माण तथा चतुर्मुखी प्रगति की भावना से ओतप्रोत यह दिव्य ग्रंथ एक महान प्रकाश स्तम्भ है। ऋषि दयानन्द ने देश तथा समस्त विश्व को सत्यार्थ प्रकाश के रूप में जो अविनश्वर वसीयत प्रदान की है यह उनकी प्रकाण्ड प्रतिभा का प्रतीक है। जिस ग्रन्थ ने लाखों आत्माओं को शक्ति प्रदान की है।


सत्यार्थ प्रकाश ने लाखों करोडों भूले भटके हुओं के जीवन का पथ प्रदर्शन किया है, यह बतलाते हुए पादरी सी. एफ. अंड्रयूज कहते हैं -


"मैंने भारत में आकर सच्चे हिन्दु धर्म का परिचय सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय से प्राप्त किया है। कारण कि मार्ग भूले भटके मनुष्य के लिये यह 'पथ प्रदर्शक' है ।"


एक अनन्य प्रभाव - सत्यार्थ प्रकाश का एक अनन्य प्रभाव सांप्रदायिक-धार्मिक साहित्य और विद्वानों पर पड़ा है।


ऋषि दयानन्द द्वारा उत्तरार्द्ध में सप्रमाण की हुई समीक्षा से सम्बन्धित सम्प्रदाय-मजहब पर इतना तीव्र प्रभाव पड़ा है कि उन्होंने अपने ग्रन्थों के मंतव्यों को तर्क और आधुनिक विचारों के आधार पर प्रस्तुत करना शुरू कर दिया ।


अरे, गप्पों में विश्वास करनेवाले यह पंथवादी अपने ग्रन्थों के तर्क और विज्ञान विरुद्ध गपोडों की वैज्ञानिकता सिद्ध करने का प्रयत्न करने लगे। धर्मग्रन्थों में परिवर्तन करने जुट पड़े यथा -


कोई पुराणों के अवतारवाद में मानव सृष्टि के विकास को देखने लगे। कोई अपने भगवानों में नैतिकता का रूप ढूंढने लगे। ऐसे अनेक परिवर्तनों में से एक उदाहरण प्रस्तुत है कि - 'सस्तु साहित्य वर्धक' कार्यालय से प्रकाशित तुलसीकृत रामायण में हनुमान जी का चित्र एक राजपूत वेशधारी योद्धा के रूप में दर्शाया है। नीचे टिप्पणी दी है कि रामचन्द्र जी के स्वमुख से हनुमान को चतुर दूत और शूरवीर योद्धा वर्णन किया है। जिससे पूंछवाला बन्दर हो ही नहीं सकता। ऐसे अनेक परिवर्तन सत्यार्थ-प्रकाश के आभारी हैं।


ईसाई धर्मगुरु अमेरिकन पादरी डॉ. जे.टी. सेंडरलेन्ड के पुस्तक The Original Character of the Bible में ऐसी विस्तृत समीक्षा देखने को मिलती है। तथा वर्तमान में इंगलेन्ड के विख्यात बिशप 'जोन रोबिन्स' का १९६२ में प्रकाशित 'अरनेस्ट टु गोड' पुस्तक इसका प्रमाण है। और इसी प्रकार इंग्लेन्ड के प्रसिद्ध चर्च के बिशप डॉ. 'जेन किन्स' ने भी निडरता पूर्वक विचार प्रस्तुत किये है कि चौथा आसमान में खुदा का रहना, इसु का वहाँ जाना, इसु का एक मात्र ईश्वर पुत्र होना, बाबा आदम और हव्वा का स्वर्ग से उतरना यह सब कार्टूनों के विषय हैं। मरियम का कुमार्यावस्था में माँ बनना यह कपोल कल्पना है तथा चमत्कारी बाते आदि यह ढोंग मात्र है। यह वैचारिक क्रान्ति सत्यार्थ प्रकाश का ही प्रभाव है।


इस्लाम में भी मौलवी 'असरफअली थानवी' जैसे विद्वानों का कुरान का अनुवाद, 'सर सैयद अहमद' का उर्दु भाष्य, अहमदी सम्प्रदाय के मौलवी 'महमदअली' M.A. का अंग्रेजी भाष्य आदि इस प्रकार के परिवर्तन के अनेक नमूने हैं ।


इस प्रकार सत्यार्थ प्रकाश के प्रभाव से पुराणों के पाठ बदल गये, बाईबल का रूपान्तर हो गया, कुरान के मायने बदल गये। यह साम्प्रदायिक मनोवृत्ति का परिवर्तन व वैचारिक क्रान्ति सत्यार्थ प्रकाश की महान विजय है।


सत्यार्थ प्रकाश के स्वाध्याय से अनेक पौराणिक पण्डितों, इसाई बुद्धिजीवियों और कुरान के प्रकाण्ड प्रसिद्ध विद्वान मौलवीओंने अपने सम्प्रदाय मजहबों को छोड़कर वैदिक धर्म की दीक्षा ग्रहण की, जीवनभर उसका प्रचार किया ऐसे नामों की सूची बड़ी लम्बी है । यह सत्यार्थ प्रकाश के अद्भुत प्रभाव और महानतम विजय का ज्वलन्त प्रमाण है। इसका वर्णन करते हुए कवि सुन्दर पंक्तियों में कहता है -


पोल खुलते ही पुराणों का महतम घट गया । 

"बुद्ध" की बुद्धि बन्ध गई, मद जैन मत का घट गया॥

दम घुटा तौरेत का, छल बल जबूरी कट गया। 

जी जला इञ्जील का, दिल बाईबल का फट गया॥ 

सामने कुरआन के ले, वेद चारों अड गये । 

मार मंत्रो की पड़ी, पर आयतों के झड गयें॥ 

डूबकर गहरे दलायल में, गपोडे सड गयें । 

कुल हदीसों के हवाले भी, भवँर में पड गये॥


सत्यार्थ प्रकाश की तेज धाराएँ


सत्यार्थ प्रकाश में क्या है ?


आईये पाठकगण ! इस सत्य के अर्थ के प्रकाश की तेज धाराओं का जरा अवलोकन कीजिए !


यह ऐतिहासिक दृष्टि से आलोचना साहित्य का हिन्दी भाषा में सर्व प्रथम लिखा गया महत्त्व-पूर्ण ग्रन्थ है ।


यह तत्त्वज्ञान विषयक साहित्य से सम्बन्धित हिन्दी गद्य का सर्व प्रथम ऐतिहासिक ग्रन्थ है ।


यह पवित्र और प्रेरणाप्रद धर्म पुस्तक है, जीवन-शास्त्र है, शाश्वत तत्त्व दर्शन है। दार्शनिक ज्ञान का 'भण्डार' है।


जीव, ईश्वर और प्रकृति जैसे सूक्ष्मतम और परोक्ष पदार्थों का साक्षात्कार करानेहारा यह अजोड़ उत्तम 'दूरबीन' है ।


प्रकृति से सृष्टि पर्यन्त तत्त्व को प्रस्तुत करती हुई विज्ञान के पंख पर अन्तरिक्ष में घूमकर फिर पृथ्वी पर चक्कर लगाती हुई महान वैज्ञानिक 'प्रयोगशाला' है ।


यह चौदह रत्नो-समुल्लासों का महोदधि है। इसका श्रवण, मनन और चिन्तन से मन्थन करने हारे को प्राप्त हुआ 'अमृत कुम्भ' है ।


ईश्वर प्रेरित अपौरुषेय वेद ज्ञान विज्ञान की यह 'गंगोत्री' है ।


वेद के व्यापक सिद्धान्तों, दिव्य ऋत और सत्य के नियमों का मार-मार करता हुआ फेन बहाता हुआ यह पावन 'भागीरथी का प्रवाह' है ।


वैदिक ज्ञान, कर्म और उपासना का यह अनुभवी, दक्ष और चतुर 'मार्गदर्शक' है ।


श्री सी. ऐस. रंगाआयर के शब्दों में - "जेल की दीवारों के पीछे एक वर्ष पर्यन्त सत्यार्थ प्रकाश मेरा मित्र प्रकाश दाता - जीवन बना रहा । सत्यार्थ प्रकाश में वेदों का तत्त्व भरा पड़ा है। इसके महत्त्व को कम आंकने का अर्थ वेदों के तत्त्व और सार की प्रतिष्ठा तथा मूल्य को कम आंकने के तुल्य है ।


ब्रह्मा से जैमिनी पर्यन्त प्राचीनतम ऋषियों और पूर्वजों के सदुपदेश को अक्षर देह प्रदान करके ऋषिऋण और पितृऋण से उर्ऋण होने के सच्चे स्वरूप को दर्शाता हुआ यह श्रद्धास्पद 'श्राद्ध ग्रंथ' है ।


समग्र जगत को ऊष्मा और प्रकाश देकर प्राण और प्रेरणा की पूर्ति करनेवाला सहस्र-रश्मि भगवान भास्कर समान यह शारीरिक, मानसिक, आत्मिक और सामाजिक उन्नति और वृद्धि करने हारा सहस्र सत्यों से सर्जित 'प्राण आदित्य' है ।


आसुरी वृत्ति और पशुत्व के संस्कारों में लिपटे हुए भ्रमित मानव में आर्यत्व के गुण, कर्म और स्वभाव का सिंचन कराके उसके सुन्दर संयोगीकरण से विशुद्ध बनाकर, विचार, वाणी और व्यवहार में अद्भुत दैवी परिवर्तन करके मानव को सच्चा यज्ञपुरुष बनाने हारा 'पारसमणी' है।


भवसागर में नौका विहार करते मार्ग भूले-भटकते हुए मानव यात्री को मोक्ष मार्ग का किनारा बताने वाला यह अदृष्ट, अविचल और निश्चल 'दीवादांडी-प्रकाश स्तम्भ' है ।


ईश्वर पुत्र आर्य मनुष्य के जीवन के लक्ष्य प्राप्ति के लिये आत्मरूपी हंस को मोक्ष के उपाय रूप मोती का चारा चरने का धाम यह 'मानससर' है ।


जीवन की पगदण्डी से उतरे विचलित हुए भटकते, दुःखी संतप्त मानव के लिये यह शीतल, स्फटिक समान, हस्तामलकवत् दिशादर्शक 'होकायंत्र' है ।


शरीर, मन और आत्मा, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष, व्यक्ति, समाज और राष्ट्र आदि के सर्वतोमुखी अभ्युदय के प्रगति के द्वार पर जड़े हुए ताले को खोलने की यह मास्टर 'की' अर्थात् 'चाबी' है ।


मानव का मानवरूप में निर्माण करने के लिये जीवन के आश्रमरूपी चार शिक्षणालयों में प्रवेश कराके अन्तिम उच्च परीक्षा में से उत्तीर्ण कराने तक की सरल और सुन्दर शिक्षा क्रम का संकलन दर्शानेहारा यह महान 'विश्वविद्यालय' है ।


मानव को विशुद्ध मानव, तपस्वी, ऋषि या देवरूप में निर्माण करने वाला यह जीवनशास्त्र है।


सृष्टि के आरम्भ से सांप्रत तक के वैदिक जीवन की आरसी सम 'इतिहास' है ।


सामाजिक सुप्रबन्ध दर्शक और वर्तमान काल अपेक्षीय यह 'स्मृतिशास्त्र' है ।


विश्वधर्म, विश्व शान्ति और विश्वबंधुत्व के प्रसारार्थ उसे सच्चे अर्थ में प्रकट करने का यह 'विश्वकोश' है। 


आर्य साम्राज्य के न्याय, नीति और नियमों को दर्शानेहारा यह 'पुराणशास्त्र' है ।


पांच हजार वर्ष हुए बीमारी के बिछौने पडें हुए, मृत्युशय्या पर तडफते हुए आर्या-वर्त, आर्य जाति, आर्य-धर्म, आर्य-संस्कृति और आर्य-सभ्यता को पुनजीवन देकर अमरत्व प्रदान करने हारे भगवान धन्वन्तरि के समान दयानन्द की यह 'अमर बूटी' है। 


हजारों वर्षों से होश गवा बैठी, जोशभग्न, निर्जीव बनी मुर्दा हिन्दु जाति में प्राण फूंककर नवजीवन प्रदान करने वाली यह 'संजीवनी' है ।

देश, जाति और धर्म को लपेटे हुए त्रिविध ताप या रोगों को प्रत्यक्ष जताने वाले एक्सरे के आरपार किरणों के समान यह 'तेजधारा' है ।


भ्रम, अंधश्रद्धा, संशय, रूढ़ी, वैर, द्वेष और अन्धी मजहबी कट्टरता का उन्माद आदि रोगों से पीडित समाज को निरोगी स्वस्थ बनाने हारा यह सिद्धहस्त 'चिकित्सक' है ।


बाल लग्न, वृद्ध विवाह, देवी-दासी, सती प्रथा, जात-पात, बन्धन रूढ़ी रसम से छिन्न-भिन्न, दीनहीन, दशा को प्राप्त जाति, समाज और राष्ट्र का नवसर्जन करने हारा यह काया कल्पी 'महारसायन' है।


शास्त्रार्थ के समरांगण में घूमते महारथियों के लिये अनेक शास्त्र संगठित, अडिग आत्मविश्वास की डोरी बान्धे हुए, अद्भुत तर्क के तीरों सहित, मेघ गर्जना सम टंकारकारी, नरपुंगव दयानन्द का यह 'अजेय धनुष्य' है।


प्राचीन भारतीयता को अपने विकराल जबड़े में निगलनेहारे पाश्चात्य शिक्षा, संस्कृति और सभ्यता के राक्षस के सामने युद्ध खेलता हुआ यह वज्रअंग 'महाबली' सेवक है।


स्वर्ग की टिकट बेचने वाले, धर्म की दूकानें चलाने वाले और भोले भक्तजनों को लूटनेवाले महंतो, मठाधीशों, गादीपतियों, महामण्डलेश्वरों, पण्डा पुजारिओं, खुदा के आढ़तियों और दलालों द्वारा खडे किये गये मत-पंथों के कोट किलों को आंख की झपकार में ककडभूस करके जमीनदोस्त करने वाला यह मात्र एक ही 'ऐटम बम्ब' है ।


ईश्वर को मनुष्य, पशु, पक्षी, जीव-जन्तु के रूप में अवतारवाद के बन्धन से, बाईबल और कुरान के चमत्कारों के बन्धन से मुक्त करनेहारा यह 'सुदर्शन चक्र' है ।


अहम् ब्रह्म, पुरोहितों की पत्थर पूजा, अवतारवाद के लाईसेन्स पुराणों, धर्म के नाम से चलती दुकानदारी, धूर्तता, पाखण्ड, मृतक श्राद्ध, मंतर तंतर, जंतर फंतर, जादू टोणा, जोगणी-मेलड़ी आदि सब को परम पावन प्रज्वलित, वैदिक ज्ञान ज्योति में स्वाहा करने हारा यह पवित्र 'यज्ञ कुण्ड' है ।


संसार में नित्य नये फूट निकलनेवाले भगवानों, उनके पंथों और मत मतान्तरों के घूमते हुए इन मगरमच्छों पर भेदक (पैनी) दृष्टि डालकर इनका सच्चा स्वरूप दिखाने वाला यह 'सर्च लाईट' है ।


ढोंग, आडम्बर, धूर्तता, प्रलोभन आदि पर चढाया हुआ सुन्दर गिल्ट-ढोल के अन्दर कितना सत्यासत्य है यह दर्शानेवाला एक अभूतपूर्व 'सूक्ष्म दर्शक' यंत्र है ।


निद्रा, तन्द्रा, प्रमाद, आलस्य, मोह, मद, अभिमान और अज्ञान से अक्कड और जड बने हुए अन्तःकरण चतुष्टय के अशक्तजनों को स्फूर्ति प्रदान करने हेतु यह 'व्यायामशाला' है ।

ऊँच-नीच, छूआ छूत के सहारे जीती हुई पतन के मार्ग में पड़ी हुई, मार्ग भूलकर भटकती आर्य जाति को फिर से पूर्वजों के गौरव और गरिमा प्राप्त कराने, टूटी हुई वर्णव्यवस्था को फिर से सजीवन कर जोड़नेवाली एक 'अटूटकडी' है । 


भोली, गरीब और अज्ञान ग्रस्त ऋषि संतान आर्य जाति को लालच और भय से धर्मान्तरित करनेवाले विधर्मी और विदेशियों के सामने 'शुद्धि' और 'संगठन' की रणभेरी फूंकता हुआ यह 'पाञ्चजन्य है ।


विधर्मियों के धर्मान्तर शस्त्र के सामने यह शुद्धिरूपी ढाल, बखतर व 'अभेदी कवच' है । और फिर इस कवच से भी अधिक हमारे अपने विचारों का 'रक्षक' है।

आर्यों की उन्नति के लिये एक ईश्वर 'ओम्', एक धर्म 'वैदिक', एक धर्म ग्रन्थ 'वेद', एक जाति 'आर्य', एक भाषा 'हिन्दी', एक राष्ट्र 'आर्यावर्त्त', एक अभिवादन 'नमस्ते' । इन सप्त सूत्रों द्वारा अभंग एकता और सङ्गठन की शृंखला को जोड़ने हारा यह दयानन्दी 'महामंत्र' है ।


भगवान भास्कर के भर्ग को, सूर्य के प्रकाश को अरे उसकी एक किरण को भी डिबिया में बन्द करने के लिये भी क्या कोई समर्थ हो सकता है ? नहीं, यह अशक्य है। वैसे ही सत्यार्थ प्रकाश की तेजधाराओं को कागज पर पूरने के लिये कोई समर्थ नहीं हो सकता। अरे कलम की कचुम्बर करके कागज में मिला दूँ तो भी यह सम्भव नहीं ।

परन्तु -


इस जीवनशास्त्रसम परमपावन, 


कल्याणकारी ग्रन्थ ने -


- निज जीवन में प्रेरणा का पीयूष पिलाया। 

- आत्म ज्ञान के अमृत घूंट का पान कराया । 

- मानव रूप में निरखने की दृष्टि प्रदान की।

- जीवन की सफलता की दिशा दर्शायी । 

- जीवन पथ की पगदण्डी का ज्ञान कराया ।

- यह ऋषि ऋण - गुरू ऋण को स्मरण करने का एक क्षुद्र प्रयत्न मात्र है।



मुख्य वितरक 

आर्य रणसिंह यादव 

द्वारा डॉ. सद्गुणा आर्या 

'सम्यक्', कर्मचारी सोसायटी के पास, 

पत्रा. गांधीग्राम, जूनागढ़ (गुजरात) ३६३००१


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